०08 0/श5:50# छण्ग. र्ण्ध्पष्, त॥एस_्षरत 40% (88 छा0९४5 एव हा फ्रञाठाज 0090/:5 09 (0 ए० ४४8९ ८3 4 2 04 2टफाराडा डे छ05 एम्रा४ छए४4ाएप्र5 भमिका छः द्पि हिन्दी साहित्य में सब से पद्दिले गणना मात्र के लिये इनेग्रिले एक दो फीश थे जिनमे हिन्दी के कतठिफ्य शब्दों फा अर्थ मिल जाता था, तथापि हिन्दीशब्दाय पारिज्ञात जैसा एक भी काश नहीं था । इससे यह आशा करना अनुचित नहीं है कि इस केश दारा हिन्दी साहित्य के अंग की पुष्टि अचश्य ही होगी । इस केश में हिन्दी साहित्य में व्यवह्वत [ तथा हिन्दी के घर्तमान समाचार पर्नों में प्रचलित शब्दों के अर्थ संगृहीत कर दिये गये हैँ । हिन्दी जैसे चद्ध मान साहित्य के इस काश के सर्वाज्ञपू् खतछाना ते घृघ्ठता है, तब हाँ इतना अधश्य फद्दा जा सकता है कि संत्रहकर्ता ने इस काश में यथा सम्मष इस बात था चघयतल अधश्य/किया है कि हिन्दी फे प्राथः सब क्लिए एवं अप्रचत्तित संस्क्तत के शब्दों फो अर्थ आर्जाय । सर्वाज्च- सुन्दर फाश घनाने के कार्य में समय गैर घन दोते ही की आवश्यकता होती है, पर 5 धवा कोई भी पुरुतक्ष क्‍यों न द्ा- जिसके पत्ाने या बनयाने का सुख्य बद्देश्य सूदय की सुल़भता ही है, घद अन्य कर्दा तक सर्वाज्ञ-पूर्णे है। खकता दै इसे हमारे पाठक रुघयें विचार लें । फिरमी इस संसुफ्रण में हिन्दी तथा अन्य सापाओं के हिन्दी/में व्यवह्त शब्दों का सन्चिषेश है । अब यद्द कहने की शधश्यकता नहीं है कि यद कितना उपादेय दे! गया है । इसे पाठक गा अधलेकन फर देखे । पर ( 2 अ्रन्त में हम इस अन्य के पाठकों के यढ बतला देना अपना पचित्र कत्तेज्य समभते हैं कि/इस कोश के शब्द-छेञ्नह-काय भ॑ हमें परिडत चन्द्रशेझर ओमा से बहुत कुछ बडे 22400 कक चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा / १०-७-१४ संकेतादार्रों का विवरण चध्य० च्यप्‌० छपण० द़्िणि क्रि० घि० इु० शुरया० सत्र क्तडदु० ० द््० पु० च्रा० मुद्दा० ह्ले।० ड० घा० खि० स्खे स्लें ७ प्य० ॥ ॥| ॥ ध्यव्यय अपशस्रण उपसर्गे क्रिया क्रिया पिणेषण गुण घानचक गुजराती भाषा ततलम दक्कलव देश विशेष में धयलित शब्द पुलिज्न प्रव्यय प्राछृतत मुदाधिरस लेफ्िकि (कदावत) घाग्यारां या 7विणआ/ विशेषण सर्वेनाम स्त्रीलिड्ड संयाजञक ध्यच्यय॑ रु ञो तत्सत्‌ धो [आप हिन्दी शब्दार्थ $० -पारिजात श्र ध्प्र श्र नागरी चर्णधाढा का प्रथम्‌ अच्तर है | कण्ठस्थान से इच्चारित होने के कारण यह कण्व्य कहा जाता है.। व्यण्ज़नों का उच्चारण इसकी सहायता के बिना, खसन्त्र रीव्या हो नहीं सकता, इसीसे दर्ण- माछा में क ख ग अदि वर्ण श्र संयुक्त लिखे तथा बोले जाते हैं | जिस शब्द के पूर्व यह श्रक्षर जोढ़ा जाता है, चह शर्त विपरीत अर्थवाचक हो जाता है । यथा भनाचार, "अर्थात्‌ श्राचार रहित, अ्रकर्मण्य अर्थात्‌ जो कर्म के युक्त न हो । खारादि शब्द के खूब श्य होने से अन्त हो जाता है ! यथा श्रनधिकार धर्थात्‌ अधिकार का अभाव । ध्य (9० ) विष्णु, निषेष, अर्प, अ्रभाव, 'अजुकम्पा, साइश्य (यथा झग्राह्मण), भेद (यथा अ्पढ़), अप्रा- शब्ह (यथा झकाढछ), अ्रक्पता (यथा झजुदार) गशित सें अ, १ संख्यावाची है । छांड दे० (से० आ०) भौर, तथा । अउधड़ दे० (औघड़) (एु०) भारत वर्ष का एक उपासक्त पंथ । इसके अवरतेक बह्मग्रिरि थे । अउर दे० (सं अ०) और, तथा । ला लेद 3 (पु०) [ अन्‍नदीं, ऊत्तरूपुन्न झऊ चर । न हीन; जिसके सन्‍्ताम न हो, झपुत्र बत्‌० शा, क्वारा, भूखे, जाहिल । >अर्ऊंत्सना ( क्रि० ) जछना, गरमी पड़ना, छुसना, जिपना, छिछना । खक्रुण (वि०) ऋणम॒क्त जो कजेदार न हो । अकणिन--[ सं०) [ र ऋण +इन्‌ ] ऋणसुक्त जो किसी का देनदार न हो । झंश अंश तत्‌० (घु०) भाग, बट, ह्थक्‌, स्कन्ध, दिव, भूपरिधि का ३६० वा भार्ग/पितृधन का भाग ।- बा ततव्‌० [अश + अक] (पु०) बॉटनेवाला, साझी, भाग, दिल --नंश तत्‌० (पु०) [थिंश + अंश] भाष का भाग नी तत्‌० [अ्रेश +ई] (पु०) बाज, बंटिने बाला, घटवैया, भागी ।--ल (ए०) चाणक्य सुनि ।--झुता (स्त्री०) युवा । झ्रंशु तत्‌० (पु०) [ अश+उ | किरन, रश्मि, तेज, मयूख, श्राभा, दीघछि, ज्योति |--जात्न घत्‌० (ए०) [अंश + जाल] रश्मि सझुदाय ।--धर तत्‌० (एु०) [अंश + घर] रश्मिघारी शर्धाव्‌ सूर्य, भ्रप्ति चन्द्रमा, दीप, देवता, श्रद्मा, अ्तापी ।--मान तत्‌० (०) [ शछ + मान ] सूये, चन्द्रमा | एक . राजा का नाम। अशुमान सूर्यवंश में एक राजा हो गये हैं | वे राजा सगर के पौम्र और राजा असमब्भस के पुन्न थे | जब राजा सगर के साठ इजार पुत्र यशीय अश्व को खोज्ते हुए पाताछ में ज्ञा महपि कपिल के क्रोध से भस्म हो गये, तब राजा खगर ने अपत्ते पुत्रों के थाने सै विलम्ब देख अपने पौत्र श्रेशुसान को भेजा । ये जाकर स्ुनि को सन्तुष्ठ कर यशीय अश्व ले आये और पितामह का भज्ञ पूरा कराया । साथ ही अपने पिछृव्यों के उद्धार का उपाग्र भी गरुछ जी से अवगत किया [ हरिवंश-पमपर्च देखो ।| +-मोली तव्‌० (३० ) [ अंश + भाली | जो अशुओों की साला घारण किये हुए हैं, भर्थाद्‌ सू्, चास्य॒सा, अमि। दीप आदि | ' पु अंशुऊ _ इसर, ररिम सप्मुदाय । ध्ेशत्त तदू० (पु०) बॉटनेवाबा, भाग करने वाला । झंसल तदू० (वि०) बलवान । आह (पएु०) पाप, बाधा, विश्ल । अहति या अंदती तत० ( खी० ) [अद्द + ति) दान, त्याग, पीढा । झंहस ढव्‌ (4० ) [धद+ शरस] पाए, स्वघर्म छाग, अपराध, पात%, दुष्कृत, कदमप, अघ । अंहुडी (स्री०) पक पकार की छत्ता, पराणा । घ्क तत्‌० (पु०) पाप, दु से । झकड़आ तदू० (छु०) भर्फ, मदार, अकवन | ध्यफ्रय तत्‌० (वि०) बिना थाक्षें का, (०) केतुमद ध्यफच्छ तद्‌० (०) [थ+ कच्क] नह्गा, मेहरा, स्यमि- चारी, खम्पट । जैन सम्प्रदाय के साधु, विशेषत ये मिग्र्य भी कहे जाते है | झऊड तदु७ (स्रो७) रेठापन, फुटाहट, पेंठ, वॉकापन, शेषी, लटसटी, जैसे -- घड़ी भर में सर अकड निकाल दूँगा ) *! -वाज दे (१०) भ्रकडौत, छैडा, याँका, चैल, सिकनिया--वाज्ष (वि०) अ्भिमानी, घमडी ।-- मझड़ू दे8 (स्ली०) पेंढड कर चटने की खाछ, धमण्ड, अभिमान । “ना (क्रि०) (याऊुश्चन) ऐंडवा, ठेढ़ा दोना, दुखना, क्‍ करना, कड़ा पकदना [-+ले दे० (गु०) बॉँका, धैटा, अमिमानी ।“याई दे (सखी) श्रगश्रह, यातरोग | नशों का जकुदना | अफड़ा (पु०) रोय विशेष )--व (5०) सिछव, तनाव, एठन | है /घ्यकएदक तत्‌० (गु०) [झ+ कण्टक] काटा रद्दित, ५ अ्रविरीधी, शब्रुद्ीन, निर्पाधि, चैन से । घकत (व्रि०) पुणे, समूचा, सारा। झकथ त्वू० (युट) [अिककथ] न कहने योग्य, कहने की शक्ति के बाहिर |-नीय या आअकथ्य तत्‌* (गु5) जो कहने योग्य न दो। +यितब्य तद» (गु०) अवकब्य [-- तद« (स्री*) छुकया, सन्दकथा, क्पसापा | 55 पा सा 8 2 पक ग आंशुक तव्‌5 (पु) श्िंशु +-क] वद्च, रेशमी बख, अफज्द--(9०) प्रतिश वचन, वादा। >-चंदी (छ्ी०) घ्य्क्लं इुकरार मामा, प्रतिज्षापत्र । अऊनी तदू (वि०) (आाइ्णं का भ्रप०) सुनकर | झऊम्पन तद्‌ (गु०) ( झ+-कम्पन ), दृढ़, कठोर, मजरत | ध्यक्र्पन रावण के पुक सेनापति का क्ञाप्त मी था ) इजुमान ने हफ्ते मारा था। पट रावण का मामा सुमाढी का थेदा था चोर इसकी माता का नाम केतुमालिनी था। रावण की माता कैंकसी इसकी वबेदिन थी | इसकी दूसरी वद्दिन का नाम कुस्मीनपी था । आकपद तथ्‌० (गु०) [ ह + कपट] कपव्द्ीव, सरल, सीधा, छुकरद्वित ।--त्ता ठदु० (श्वी०) ण्दारता, सरलता घक्रवक दे० (पु०) भ्रनापशनाप वकपक | प्रेढ़ाप। च्यकवाल (पु०) प्रताप । झफकरन तदू" (गु०) [थक करन] निष्चारण, देतु- शूर्य, दारण रदित, न करने येग्य। धकरणीय तत्‌० (वि०) न करने येग्य । प्रकरा तदू" (ध्रर्थ तद०) (६०) भंदगा, वहुमृए्य, बढ़िया । अकरास दे० (पु) अंगढाई, देद दूटना | अरकरण तत्‌० (५०) [ण+करुण] करुणा रद्वित, निर्देय, मिप्दुर | इ्कर्ण तव्‌ (पु०) [भक कर्ण) कर्णनद्ित, बहरा, बूचा | (९०) सा । अकर्णा तदु० (गु») अप्त्त, अनुचित, अक्र्तप्प | अकमे वत्‌० (६०) [श्र + कर्म] कुकममे, भ्ररराष, पाप, सुरा काम, अधर्म, घुराई।-न ततव« (गु०) कामदवीत, बेडार यैठा ।--री तत्‌» (गु०) नि!ेदा चयुदाल, अपराधी । अकर्मक तद० (यु ) [ श्र+कर्मक ] वह क्रिया जिसमें कर्म थे ऐो, जैसे--/ आना, रहना,” कन्ने रहित | अफर्मणय तव्‌० (गु०) भाठसी, कार्यादम, काम करने के अयेग्य | अकल तत्‌5 (पु०) [भ्र+ कला] भरम्नद्वीन, अवयव- रदित, निराकार, परमात्मा | स्लिख सम्प्रदाय छे परमात्मा का ज्ञाम | अकव्पन (्‌ घ्यकल्पन तत्‌० (गु०) [श्र+-कल्पन| सचाहट, प्रकृत, सत्य, यथार्थ, चास्तविक | घकहिपित तत्‌० (गु०) सच्चा, कल्पना-रहित ! अकल्याय तव्‌० (गु०) [ अरन॑-कल्याण ] श्रमक्‍झनल, श्रशकुज, भ्रम, मन्द, बुरा । घकवार तदू० (०) कुछ, काख, मोदी , दोनों हाथों के बीच का स्थान | घकर' दे? (पु०) बैर, हेप। अफसर तदू० ( ग़ु० ) अकेला, एकाकी, बहुधा ( यह अक्सर का अपमंश है ) । ध्यकसीर दे० ( स्वी० ) रसाइन, कीमिया ( वि० ) अच्यय, अत्यन्त गुणकारी । छकस्मात्‌ तव्‌० ((अ० ) हृठाव्‌, बलाव्‌, दैवाल, श्रचानक, भ्चानचेक, सहसा | ध्यकह तदू० (,ब्ि० ) व कहने योग्य, अवणनीय । झकहुवा दे० ( वि० ) भकथनीय । शका तद्‌० ( गु० ) निर्वेध, जढ़, मूढ़, पागल । ध्यकाणंड ठत्‌० ( ग्रु० ) श्रकस्मात्‌, इठात्‌ ।--ताणडव तत्‌० ( पु० ) च्यूर्थ की उछल कूद ।--पात्‌ चत्‌० ( वि० ) द्ोते ही मर जाने चाछा । झकाज तदू० ( ४०) बिगाड़, हिंसा, ब्यथ ।--ी (वि०) बाधक, कार्य विग्राड़ने चाला घ्यकाद्य तत्‌० (वि०) न काटने योग्य, अखयणढनीय। ध्यकाम तव्‌ (यु०) श्रकारथ, ब्यर्थ, निष्फल (--नि्जरा (स्त्री०) जैनियों के मताजुसार कर्मनाश का सेद विशेष । खकार तदबू० (घु०) स्वरूप, आक्वति, सुरत, ओर! अर ! ध्यकारज़ तद्‌ (एु०) हानि, लुकसान, अकाय॑; घुरा काम । धघकारण तत्‌ (अ०) कारण रहित, अनर्थेक, च्यर्थ घक्रकोरथ दे० (वि०) च्यर्थ, निष्फछ । कारन दे० ( बि०) अकास्ण । |. गल्ल तब० (०) डुर्मिल, घसमय ।--कुखम (३०) अ्रनकऋतु का फूल 7--पुरुष क्रत्‌० ( घु०) सिक्खों के अन्धों में ईश्वर का नास है ।--पुप्प तव्‌० (पु०) श्रनऋत का फूल ।- अत्लषद तद० (घ०) असमय के सेघ ।-रहत्सु तव्‌० (संस्कृत में यद्ट ३) प्रकोर ईछिज्न है, पर हिन्दी में यह ख्रीलिज् है) कुसमय की ऋत्यु, अपक् मृत्यु ।--क्ुष्टि तव्‌ (खी०) कुसमय की बर्षा । [ मौका अकांलिक तस्‌० (वि०) बिना समय का, असामपिक, वे अकाली तदू (पुं०) लिक्ख विशेष । झकाव दे० (३०) आक, सदार । आकास तदू (5०) झाकाश, शून्य, भासमान, गगन, नभ, परोल, अन्तरिक्ष |--दिया (०) वह दीपक जो कार्तिक सास में बल्ली में बचि कर ऊपर लथकाया जाता है ।--वानी दे० (स्री०) आाकाश- चाणी, देववाणी । अकिज्यन त्तव्‌० (गु०) दरित्र, कन्नाल, दीन, छुखी । पता,>त्व तत्‌० (स्री०) दरिद्रता +-+कर सत्‌० (बि०) तुच्छ, असमर्थ । अकित्न दे० (ख्री०) अछ, बुद्धि । आकीरति तद्‌० ) (स्री०) अक्षीक्ति, अपकीत्ति, भ्रयश, शकीत्ति तब्‌० | अप्रतिष्ठा, दुर्नाम, कलछुः |--कर तत्‌० (गु०) हुर्नाम करने वाह, ्रयशश्कर | सदर ) तत्‌० (वि०) तीक्षण, चोखा। अकुताना दे० (क्रि०) ऊबना, घवड़ाना। अकुताहदी दे० (क्रि०) ऊब्रे, घबड़ावै । अकुतोभय तद्‌० (यु०) निडर, निःशहूः, विभेय, साहसी । अकुत्त सच्‌० निगोड़ा । अकुलाना दे० (क्रि०) ब्याकुल होना, घऩ्ाना । अकुलीन तत्‌० (गु०) कुलहीन, सह्ूर, कुजाति । घ्कुशत्व तत्‌० (गु०) अमब्नल, अशुभ, घुरा । अछूत बे० (वि०) जो छूता न जा सके । झकूपार तव्‌० (०) समुद्भ, लागर, कछुआ।, पत्थर, चट्टान ६ घ्रक्कततज्ञ तत्‌० (बि०) कृतध, किये हुए उपकार को न मानने बाह्य अकृत्रिम तत्‌० (वि०) बेवनावदी, प्राकृतिक ! अल | तदू (बि०) इकला, एक ही, दुःखी । अकेर तदू० (ख्री०) घूल, सुदभरी, तोफा। (ए०) [ श्र+कुछ ] इकरहित, नीच, पकीसनता पे दें० (क्रि०) घुरा भक्त कददना, गाक्ियाँ देना, शाप देना | अकावा, ध्यक्षेत्या दे? (घु०) मदार, चके। अर तत्‌० (पु०) मदार, अकवन अकवओ । अस्खड़ दे० (बि०) रहण्ट, उगड़। पज्खर दे० (ए०) थचर । अस्सेमस्खे दे० (एु०) दीपक की छौ तह हाथ छे जाकर पालक के मुँदद पर फेरना ।.[ स्वभाव! प्रकूर तत्‌० (०) दयालु, सरछ, अक्ोधी, कोमल श्रीकृष्ण के चाचा थे । ये श्वफल्क के पुत्र थे । मातां का नाम गान्धिनी था । इनकी ही सम्मति से साथमामा के पिता शतघन्वा ने सन्नाजित को मार कर इसकी स्यमन्तकमणि खत सी थी ॥ जब कृष्ण ने एसे डरायां, तय यद स्पम्स्तकमणि अक्रर को दे कर भागा, किन्तु पकड़ कर मार डाला गया ॥ झक्त तत्‌० (पु०) भीजा, गीढा, लिपा, सींचा हुश्ा । 'ग्रत्त दत्‌ (ध०) पढ़िया, घुरी या कील, चौप्तर का पाँसा, गाडी का लुझा, ग्राढी, रथ, आस, शदाक्। सोने की तोढ का पक थाद विशेष, अत्मा, ज्ञान, सण्डल, सर्प | धह कष्िपत स्थिर रेखा लो पृथ्वी के मीतर द्वोती हुईं उसके भार पार गई है और जिस पर एथ्वी घूमती जान पइती है।- कुमार तत्‌० (पु०) देखों अक्षयकुमार। न-कूद चत० (यु०) आँख की पुतस्ी ।--क्रोड़ा तत्‌ु० (सी०) पति का खेल ।--पाद उत्‌* (पु०) एक विश्यात दिन्दू दाशनिक ऋषि । इनका दूसरा नाम गौतम है । इन्दींव स्यायदुर्शन प्रणयन किया है। इसीसे न्याय का दूसरा नाम अक्तपाद दर्शन भी है ॥ इनका होना खीशदन्द से ३०० वर्ष पूचे से २०० दर पूर्व के भीतर माना जाता है। इनझे बनाये दशन में ३२८ सूत्र हैं। इन्दोंने न्याय में ईश्वर और परलोद् को माना है। दुल से अत्यस्त निवृत्ति को यद्ट सुक्ति मानते ई । न्याय का दूसरा नाम आन्दीजिकी दिद्या मी है, जिसका भ्र्े है सुन कर चन्वेपण करना। ( ४) धत्तत तत्‌० घच्छत तदू ० धप्स अन-+-चत ०) चिना इटे चविल । जी पह है का रे आते हैं ॥ (गु०) रिना टूटा, साज्ा ।+येवि तत्‌० (स््री०) यह खी जिसे पति-सम्मन्ध न हुथा हो । अत्तम तत्‌० (गु०) [भ+ धम ] चसता रहित, अशक्त। धघत्तय तत» [ भ्र+'य ] (गु०) अविनाशी, मिप्तका कभी नाशन हो, भ्रमर, चिरक्ीवी, स्थिर ।-- कुमार तत» (पु०) राबण के उस पुत्र का माम जो इसु- मान द्वारा मारा गया । यह मन्दोदरी के गर्भ से हस्पच्न हुआ था। इसझो छोग श्रच्छवकुमार सी कद्दते है |--तृतीया ठत्‌० (स्त्री०) भ्राखातीज, बैशास शुक्ब्या ३--नवमी तत्‌० (स्वी०) कात्तिक शुब॒त्ा € सेठ तत्‌ (पु०) वरगद का पूज्य बृक्ष। इसको धाखयचठ भी कद्दते है । यद्द प्रयागराज के किले में बतेमान था । धत्तर तत्‌» [ श्रा० अप्छर ] (५०) श्रकारादि धर्णे, विष्णु, ब्रह्मा, ग्रद्म, शिव, मोक्ष, गगन, धर्म तपस्या, भपामाग (चिचेरी) जछ | (गु०) नाश रहित, निर्विकार, सत्य |--माजा तध्‌० (श्री) बर्णमाज्ा, भपर भ्रेणी ।--विन्यास तद्‌० (१०) लेख, ल्षिपि ।--शः तत्‌० (क्रि० वि० ) भ्रद्ा २। ध्यत्तरोटी दे० (स्री ०) बरतनी, वर्शमाला, स्घर का मेठ ] ध्त्तचार तत्‌० (पु०) छुभावाना । घत्ताँश तव० (पु०) [ भर +थ्ेश ] करिपत सूगोल की ऊपर की रेखा विशेष + पृथ्वी की धुरी पृथ्वी छे उत्तर वा दक्षिण केन्द्र तक ६० (नब्ये अंश) पर के रेगा (40006) ध्यत्ति सत्‌ (पु०) ] खाल, नेत्र, नयन [--गत तत्‌० ध्त्ति तद्‌० (सतरी०) ) (वि०) चरयि पर चढ़ा हुआ (शत) |--विशभ्वम ठव्‌० (क्रि०) अप घुमाना। +-विक्तेव तत्‌० (धु०) कदाच्पात | अलुणण तव० (गु०) अ्रघूणित, मनस्तापनददित। अछुत, समस्त, अविकृत । धक्तोटिणी तव० (स्त्री०) पक बडी सेना मिसमें २१८७० रथ, २४८७० दाथी, ६९६१० घोडे और १०६६२० पैदल डोते हैं | इस्स (१०) परचाई, छाया । अच्सडु (्‌ अदखड़ तदू्‌० (गु०) गवार, जेड्लली, अशासित, झन- लिखा, अनगढ़, अखाड़ा | घझखगणर तत्‌० (गु०) सम्पूर्ण, समस्त, सच, खणड. रहित ।- नीय तथूढ (गु०) जो खण्डन न हो लके | झखग्डित तस्‌० (गु०) जिसके हुकड़े न हो सके | घअखतीज दे" (द्वी०) अ्र्तय तृत्तीया । ध्यखरना तदू० (स्त्री०) अनुचित मालूम होना | अखराद तद्‌० (ए०) छच्त एवं फल विशेषता शखाड़ा तदु० (ए०) मछयुद्ध स्थान, आइन, लाछु या गुसाइयों का दुल | रामायय में ध्यखारा का प्रयोग अखाड़े के स्थान में हुआ है । ध्यसख्वाद्य तत्‌० (गु०) खाने के अ्योग्य, श्रभध्य | ध्यखानी--(स्त्री०) पचखा, एक प्रकार की टेढ़ी छकड़ी [ घ्येखिल तत्‌० (गु०) समम्त, सारा, सब | धख़ीर दे० (पु०) भ्रन्त, समाप्ति, छोर ] झखूड दे० (गु०) अ्रस्तण्ड, जो न कदे । .[ शिकारी | घ्यख्ेद दे० (५०) पराखेट, शिकार ।--क्र दे? (०) घखवाह तदू० (पु०) उनढ़ खाबड़ भूमि, ऊँची नीची जुमी व | श्ख्याति तत्‌० (स्री०) प्रकीक्ति, क्पयश, हुर्नाम | घख्यायिका दे* (छ्वी०) आ्राख्यायिका । छ्ग तव्‌» (पु०) अचल, पर्वत, बच आदि। ध्यगड्धत्ता दे० (वि०) लम्बा सड़ड्ा, ऊँचा | शगड़वगड़ त्तदू० (गृु०) पचमेछ, धालमेल, असंलर्न वाक्य) [ अवगिनती | ध्ययणित तत्‌० (गु०) बहुत, असंख्यात, अपार; अंगश॒य तदु० (गु०) गिनते योग्य नहीं, असार, चुच्छ । ध्यगाति तत्‌० (स्री०) नरक, अकालसत्यु, (यु०) गति- द्वीन, भश्रयहीन |--क-गगति तत्‌० (स्त्री०) अनम्य धपाय होक्षर स्वीकार करना । आगत्या तत्‌० (क्रि० वि०) शआगे से, भविष्य, अक- सस्‍्माच; विवश हो । [ सुस्थ। ध्यगद्‌ तत्‌० (छु०) दवाई (गु०) निरोग, अरोग्य, अगनू (स्त्री० था अगनेत तवू5 (पु०) अग्नि कोण | ध्यगम तत्‌० (गु०) अगस्य, दुर्गम, अपहुँच, ओऔघट, , चिक्टठ, गदरा, अधाह। [ (प०) नेता, अगुआ | अगमानी दे (सत्री०) अगवानी, आये जाकर स्वागत, गहन; ध्यगस्थ तल» (वि०) न जाने योग्य, अ्रनघट, कठिन ।--ा तद्‌० (स्त्री०) न मसन करले योग्य | ! ! ) अगर तदू० (पु०) झुगन्धित काष्ठट विशेष ॥--बची (स्त्री०) घूपवत्ती |--चाला दे० (एु०) वैश्य चर्ण के अन्तर्गत एक शाखा, जो अपने को अगरोहा आम (यह दिल्ली के पश्चिम की ओर हैं) के रहने वाले होने के कारण अग्रवाल कहते हैं। झगरई तदू (घि०) साविकपन लिये संदली रमन | शअगलवगल्ल दे० (छ्लि० वि०) दधर उधर, दोनों ओर, आसपास | अग्रल्ला तद्‌० (गु०) पहला, पूर्व, प्रधान | ध्यगवा तदू० (छु०) दूत, अरयदानी ।-ई (ल्जी०) अग्रवानी, अभ्यर्थना | अगवाड़्र तदू० (8०) आया, अग्म भाग | अग्रवानी दे* (ख्री०) देखो अगमानी | अग्रधार दे० (पु०) अन्न का वह भाग जो इलवादे आदि खेती का काम करने बालों को दिया जाता है । झगवाही तदू० (स्री०) अभिदाह । अगसर्ति तदू० ) (पु०) इृच्च विशेष, चारा | यह तारा झगहुड अगरत्य तत्‌० | भाद्व सास के श्रन्त में बदय होता है $ अगस्त्य त्तारा के उदय होते ही जल निर्मल दो जाता है | इसके उदय होने पर ही राजागण विज्यय यात्रा करते थे श्रौर पितृतपंण श्रादि आरम्भ किया जाता है। २ पझगस्त्य एक ऋषि का साम है जो मिन्रावरुण के पुत्र थे । इनका पहला नाम मान है | पीछे से विन्ध्य पर्वत का गे खर्व करने के कारण इनका नाम अश्रग्स्त्थ पढ़ा। इनका दूसरा नाम कुम्मज़् भी है| इनका नामो ह्लेख बेद्‌ में भी पश्या जाता है और इनके नाम की अगस्तसंद्तिता भी अचलित हैं |--झूठ तच्‌० (ए०) दक्षिण के एक पर्वत का भाम जिससे ताम्न' ) मायशीए मास। पर्णी नदी निकली है। अंग्रहण या अगहन तब्‌०] (घु० आअग्रहायण ततू० || मास बड़ा पवित्र माना गया है। ड्िन्दुओं का यह नर्वा सास है । भ्रायः छोम इसे मगखिर भी कइते हैं। अग्रहनिया, या अगहनी ( वि० ) अगद्दन में होने वात्ठा अन्न | [ की ओर, सामने [| अगहुड तदु० ( गु०) पदिले पदछ, अगरा, आगे अगाऊ (्‌ प्रगाऊ तद्‌० (गु०) भ्रगादी, आगे, पहले । प्रगाड़ी तद्‌* (क्रि० वि०) भागे, सासने। (म्वी०) घोहे के बॉघने की आगे छी रस्सी “मारना मोदरा मारता, चैरी की श्रणल्ती सेना को हटाना । अग्राघ तत्‌० ( गु०) भ्रथाद, जिसकी थाई न मिले, यहुत गदरा । ध्यगासी तत्‌० ( खी०) पयढी, बरान्दा । पहन | 0.) लाए शा कर अशुण तत्‌* (गु०) निगुण, जिसमें गुण न हो, गुणडीन। आगुवा तदु० (5०) एक पक्षी या कीढ़ा विशेष, देवता विशेष, मार्ग दिखाने हारा।.. [ हिमारूय | झगेन्द्र तत्‌० (पु०) पहाड़ों का राजा, सुमेरु, झगेयचर तद्‌० (गु०) इन्द्वियों की गति के अध्रय | अगेरना तद्‌० (क्रि०) रखना, चौकी देना! अंगेरा तद्‌० (०) देखने बाला, रसवाला । अगैनो तव्‌* (स््ी०) भेंट के लिये श्रागे ज्ञना । प्राप्मि तत्‌० (०) आग, बन्हि, चित्रक शष्ष -देव तत्‌» (पु०) वैदिक देवता , भ्रप्तिकोयाधिपति । “-कैण तत्‌» (पु५) पूर्वेदक्षिण का केना -- संस्कार या क्रिया तत्‌* (द्वी०) मर्दों जलाना | “कुण्ड तत्‌० (पु०) अप्नि जलाने के लिये गढ्ा | “+कुमार तत० (पु) छुघावद्धंछ औषध विशेष | +-क्रीौ्ड। तव* (ख्री०) भ्रातिशवाजी [--होानी ततू० (पु०) जो अप्नि में नित्य नियमित रूप से हवन करता हो ।--ज्वाला--तव० (ख्त्री०) अरप्ति- शिखा, अविले का पेड --परीक्ता तद्‌० (ख्री०) अप्रि के द्वाय पर रख कर झूठ सच की परीचा खेना | यद विधान साहियों से शपथ खेने का स्टृतियों में निरुपण किया गया है ]-पुराण तत्‌० (पु०) अठारह पुराणों में से पछ --वाण »तु० (पु०) अग्न्थास्त्र अर्थात्‌ जिसे चलाने से भाग बरसे ।--मास्य उव॒० (प०) अजीण, सूख न लगना या मूख की कमी |--यन्त्र तद्‌० (बु०) सन्दूक, ताए , तमशा ।--शोम तद« (पु) यज्ञ विशेष, अमि-सम्दधी वेदोक्ः अप्रिस्तव | पघात्त तत्‌* (पु०) पिू विशेष भारीद पुत्र, ) अधघमर्पण देवताओं के घूर्वज़ |--अम्याधान तथ० (०) श्रुत्ति विद्वित अप्निमेस्कार, अप्रिरछ्ठण, अमनिदोश्र । --उत्पात तत्‌० (पु०) आग छगना, श्राकाश से अप्नि बरसना, धूम्नकेतु दर्शन, उस्कापात | अग्यारी दे? (ख्री०) भ्रप्मि से घूप देना । अग्न तत्‌० (पु०) भागे, पदले, किसी काम का मुखिया, अगुवा, भ्रादि, प्रथम, मुएय, ऊपर का भाग, शिर, शिपर, एक राजा का मास । (गु०) श्रेष्ठ, उत्तम, अधिक । --गयय तत्‌*» (वि०) नेता अगुवा, प्रधान। --गांमी दत्‌० (१०) भ्रागे चलने वाला, श्रगुवा, इस्साही | “-सर ठव॒« (8०) भगुवा, सन्देसी, दूत |--ज्ञ तत्‌० (पु०) जेछ, बड़ा भाई ।--ज्स्मा तत्‌ (६०) घ्राक्मण, पुरोहित, जेठा भाई, देवताशों में सर्वे प्रथम उत्पन्न अर्थात्‌ श्रह्मा ।--परए्चात्‌ सत्‌० (धन) आगे पीछे, भागा पीढ़ी ।-णी तत्‌० (9०) झआाग्रे चलने वाछा, सप्राज का मुखिया, भगुश्ा, | >भाग तत्‌० (०) पदला भाग, पदला हिस्सा। ध्यग्रहण तत्‌० (पु०) झगइहन मास [देखे चगदण] | अग्रहार तत्‌० (ए०) देवस्व, बरद्ास्व, देवता का श्रपित सम्पत्ति, घान्यपूर्ण ग्देत | ध्ग्नाह्म तत्‌० (गु०) ग्रदण करने योग्य नहीं, तुच्छ, निस्सार, शिवनिर्माक्ष्य | अआंग्रम तव्‌० (वि०) अगाऊ, पेशगी | अथघ तत» (५०) पाप, अधम, अपराध, दोप ॥-- अखछुर-प्रघांसुर तत्‌« (पु०) कस के सेनापति का नाम है, वकासुर इसका ज्पेष्ट भाई था गौर घूतना इसकी जेठी यद्दिन थी, भगवान्‌ श्रीकृष्ण- चन्द्र जी को मारने के लिये इसी फ्लो कप्त ने इल्दावन में मेज्ा था ।--माशऊ तु" (पु) प्राप दूर करने वाले पेय, सनन्‍्ध्र जप करना आदि। [ अरधर्मी ) झधमस्दानि तदू* (गु०) पापों का समुदाय, पापी; अधटित तद॒० (यु०) घटना-रहित, असम्भद, अन- होनी, अपोग्य । अधमपंण तद० (गु०) सब कापों का नाशक, पाप अधाई हटाने वाले चैदिक मन्त्र, एक अयेग जो सन्ध्यो- पासन से किया जाता है । झधाई तदू० (स्त्री०) छुकाई, अफराई, पेटसराव, तृप्ति | झधघाना तद्‌ ० (क्रि०) पेट भरना, अ्रफराना; तृछत होना, छुकना; भरपूर होना | घधे।र तत्‌० (पु०) मद्दादेव का दूसरा नाम, सब से भयहूर, उपासना विशेष ।--पन्थ (पु०) शैव सम्प्रदाय की एक शाखा का नाम है | इस सम्प्रदाय के छोग अपने के अघोरी या श्रघोर-पन्‍्थी कहते हैं । ये बहुत ही मलीन होते हैं, धणा का ये नाम घ्क नहीं जानते हैं, इनके लिये फाई भी पदार्थ अभक्ष्य है ही नहीं । सर्वतेभाव से छणा को जीत जेना ही इनके घ॒र्म का मूल है । घपेरी तत० (9०) अधोर-पस्थी । अड्ढ तत्‌" (०) आक, चिन्ह, संकेत, दाग, रेखा, संद्या, लेख, अच्चवर, लिखावढ | यथा “मेठत कठिन कुश्श्ग्रः साल के ।?--तुझूसी | एक से नौ तक की संख्या | नाटक का एक परिच्छेव, अंश । अहम, देद, बार, दफा, स्थान, अपराध, पर्वत, पाप, छुःख, ऐव, समी०ण, (खुदा दे” (क्रि०) देचा वा खगाना, गले छगाना ।--गशित सतत» (पु०) संख्याओं का हिसाब |--विद्या तत० (स््री०) अक्वृगणित | अड्रना तत्‌० (क्रि०) लिखना, छापना; संक्रेत्न करना, चिन्ह करना, मोल भाव करना | झड्डाई तद्‌ (स्त्री०) थक, छत, अटकल | झड्डुबार तदू० (छु०) काख, काख, गोदी । अड्ुगना तदु० (क्रि०) परखना, जाँचना, मोल ठहराना | अडुपव' तदू० (ए०) निरख, भाव; मोज 5हराना । अ्भित तत्‌* (गु०) चिन्ह किया हुश्ा, सुद्घित, चिन्हित, परखा हुआ, जाँच किया हुआ, छुपा हुआ । अड्भूर तब (घु०) अंकुश, कुनगी; नया उया हुआ दूण * आ्रादि, बीज से उत्पन्न कॉपछ७, गांछी । पड़ूरित तत्‌० (पु०) घहुरयुक्त, जिसमें अछुर उत्पन्न हुए हों, यौवन तत्‌० (गु०) यैवत का आरम्भ, युवा 'अचस्था की पहली दशा | (७9 )ै अड्राग किजजजज-्ज्-----+-++नननकन----ल.लनन.हनन्‍नजननज अह्डुश तत्‌० (एु०) आंकड़ी, लोहे का एक हथियार __जिम्नसे हाथी चलाये जाते हैं| सुड़ा हुआ काटा । +“अह लव» (पु०) श्रांकुश की पकढ़, महावतत, हस्तिपक, हाथी चलाने बाककर |-- घारी तत्त्‌० (पु०) हस्तिपक, पीकूचान | [ल्लेना। अडुगैरना तदू० (क्रि०) नजना, गरम करना, छुल अड्डिया तदू० (ख्री०) छोहे की कुठम जिससे वरतच पर हथोड़ी के सद्दारे नक्काशी की जाती है, आँखि। अड्खुवा तदू० (पु०) अंकुर या वील से फूट कर बिकली हुईं नोक जिसमें ले प्रधम पत्ते निकलते हैं। घ्यूज़ तत्‌ (पु०) शरीर का एक हिस्सा; श्रवयव, शरीर, मित्र का सम्बोधन, शाख्र विशेष, चेदाड़, जैन शास्त्र विशेष | वल्लि राजा का ज्षेत्रज पुत्र] [ इस राजा के शासित देश का भी नाम अ्रक्ञ देश है | जन्मान्ध महषि' दीघ तमा से बलि राजा की पत्नी सुदेष्णा के गर्स से इसकी उत्पस्ति हुईं थी ॥| गड़ा और सरयू के सक्षम के मध्य देश फो अक्ष देश कहते हैं |--जअम्मा तच्‌० (एु०) सन्तान, क्रेश, काम, पीड़ा, मद, मोद ।--शाज तत्‌० (बु०) कर्ण का नाम है | राजा हु्मोचिन ने भअशैन की अतियेगिता करने के छिये कर्ण का झञ्ः देश का अधिपति बनाया था। कर्ण का पहला नाम बसुषैण था |--प्रह तत्‌० (पु०) अक्ड़बाई, बात रोग । अज्जुड्खडुडू दे० (वि०) बचाखुचा, गिरा पढ़ा, इधर डघर का हटा फूदा । अड्डडाई तदू* (स्त्री ०) जम्दाई, शरीर मरोंडना । अड्भूद तत्‌० (एु०) केहुटा, बाजूबन्द, कपिराज वालि का पुत्रों * धुन तदू० (ए०) अँगनाई, औगन, चौक, मकान फे बीच की भूमि । घज्जना तत्‌० (ख्री०) सुन्दरी, कामिनी, ख्री, लगाई। दे० (पु०) औगन, सदन | धड़ुन्यास तत्‌० (पु०) चैदिक या तान्त्रिक उपालनाशओों में मंत्रों के द्वारा अज्भस्पश करता ।... [ कपड़ा । अड्भस्खा तदू ० (छु०) पदिनने का खिला हुआ लंबा ध्यक्लुराग तत्‌० (पु०) शरीर के सुन्दर और खुगन्धित अड्डरी (्‌ चनाने बाला लेप॑, चन्दन झूगाना, सुगन्धित पदार्थों से शरीर पं बेठ बूट्े निडाछना । प्द्वरी तद्‌5 (खी०) युद्ध के समय पदना जाते वाढा परिच्देद, कपच, घर तर + शखड्ठा दे? (प०) थ्ैंगरखा थैंगरवी | अड्डाऊडो दे० (ख्री०) कोयले। पर सेडी हुई छोटी मोटो रोटी, याटी, मघुऊरी । अड़ार तत्‌० (पु०) जछता दुच्ा फ्ोयज्ञा ।--क तत्‌० (प*) मगछ मद [--मणि तद्‌ (यु०) झूंगा ।-- मती तत्‌० (स्त्री०) कर्ण को स्त्री | झट्ठाय़ रत" (पु०) कायला, जी कदी। अड्टारी तदु* (छी०) घगीदी, गोरसी या बरोसी, श्राग रखने का बतेन, दुद्कते हुए कोयले का घोटा डुकई। । अड्विया तद्‌० (स्त्री०) चोलो, काचुली, कंचुली, तीसरा कपकझा, स्त्रियो के पह्धिने का कुरता [ अद्विस्सख तत्‌« (पु०) पुक् प्राचीन ऋषि, दुख प्रजा- पतियों में से पुक, अ्रयर्ववेद के प्रादुर्भाब कर्ता दोने से यद्द श्रथर्वा भी कह्दे जाते हैं। घुदस्पति का नाम, दट्या संवस्पर का नाम | कठोरा । अद्विएा तव्‌० (प०) तारा, भ्रद्मा का मानसपुश्न, ये धर्मेशास्त्र-प्रचर्तक ऋतयपे[ में से है, इनके बनाये हुए अन्‍य का नाम अ्गिरा-संदिता है। देव युद घूहस्पति इन्दींके पुत्र हैं ॥ अड्डी तत्‌० (पु०) शरीर वार, शरीर घारी, अघान, किसी समुदाय का मुखिया | अज्डीकार तत« (पु०) स्वीकार, मानना सहना, अंग्रेजवा, प्रतिज्ञा, सम्मति | [हुआ । थ्रद्जीझृत तद्‌० (वि*) स्वीकृत, माना हुवा, अपनाया ध्रट्टीी हदू ० (स्प्री०) आय रखने का पात्र, कहोती $ अड गुल तत* (पु०) आाद ले के खरावर परिमाण, एक गिरह का तीसरा हिस्सा | झट ग़ुली तद्‌० (म्दी ०) अगुरी, दाथ का या यैर का औग ॥-श्वाण तव॒७ ( घु* ) अंगुरियो की रक्षा करने वाला, यद युद में भस्त्र रास्तों से अगुलिया को बचा करने के लिये घनाया जाता या, दस्तानव अडशल्यानिर्देश तद्‌० (पु०) कछ 5, छाछन) ध्रट गुप्त तब5 (पु०) धंयुज । झ् ) धचतला झट शूठा तद्‌« (१०) अंगुष्ठ, मोटो अंगुरी | भ्रठा गृठी वद्‌*« (स्त्री०) सदर दल्ला, श्रंगुलीय, अँंगुछिये! में पदिनने का गहना | घड मूर तद्‌« (प०) दास, दाक्षा, फड विशेष, मेवा अरड्ठेमना दे” (क्रिग्)े सदना; बरदास्त करना | अड्जेद (स्त्री०) अक्नोट, डील, थ्राकार, भावृति | अड्छडी तद्‌ ० (स्त्री०) देपो अड्ठीठी । अड्रीठुना दे" (क्रि)) शरीर के तौलिया थे पेछना। अड्रोल्ठा तद्‌ू०(पु०) शरीर पेछने का बत्थ, अगवा, गमद़ा, ओगपुद्धा, तौक्षिया । अड्वीरा त्तद्‌" (पु०) मच्छर, मशक, ससा, उस] अडम्रि तय" ()९ ऋण, चौधा दिस्सा, बष्चों की जड़ |--प तत्‌० (पु०) वृष । [करना | अचू तद्‌० (पृ०) स्व॒रथर्ण, संज्ञा विशेष, छिपाकर अचक तरुदु० (थअर०) श्रचानक, अरचानचकू, इेढाव, अ्रस्स्मावू, बिना जाने बूसे [ अचका दे० (वि०) अपरिचित, अनजान | अचकरी तद्‌० (स्त्री०) रम्पटता, खिलाडइपन, अजु« चित काम, धींगा घींगी, धत्याचार । श्यचंड तद्‌० (गु०) घीर, शान्त, सुशीक्ष, रद, सरछ, स्थाभाव वाला । अचस्मा तदु० (पु०) चमत्कार, विस्मय |--ऋरना दे० (क्रि०) विस्मित होना, आश्वथि'त द्वोना। ध्यचच्चल तव्‌० (पु०) स्थिर, बिना घबडाया हुआ, इढ़ मन वादा | आअचर तत्‌ (गु०) जड़ पढ़ाथे, जो चछ न सके, थ्चल्, अटल, स्थावर, इढ़ | अचरा दें० (घु०) साद्ी का बढ चोर जो छाती पर रहता हैं, पछा, अशु्न । अचरज्ञ तदु० (यु०) अचम्मा आरचय । ध्यचल, चत्‌० (गु०) अ्रदल, स्थिर, घीर, पर्बंठ, बूच, जो चलायमान न दो, जैनिये का पहला तीर्थडुर । आअचला नत्‌*» (स्त्री०) इुबिवी, घरती, धरणी।-- सप्तमी तत्‌० (म्त्री०) माव शुक्ला सप्तमी, इस दिन के किये शुमहुमे अ्रधद द्वाते हैं, इसीपे इस सप्तमी का भचढा फट्टते है । शअचचन (्‌ अचवन दे० (पु०) कला करने की क्रिया । झचानक ठद्‌० (झ०) अ्रकुस्सात, हठात्‌, पुकाएक, एक्पएकी, बिना कारण, देववेग से । घचाना, झचचाना (क्रि०) मुँह धेना, कुल्ला करना, खाने # पीछे मुँह साफ करना, आचमच करना। अचानक दे० (क्रि० वि०) अचप्नक । घ्रच्चार तदू० (9७०) श्राचार, व्यवहार, चालचलन, शास्त्र कथित, नित्य करने सोग क्रिया, जो व्यवह्ा* धर्म-छेचा का सहायक हा।। श्राप वा नीबू आदि फर्श में मसाले मिल्य कर बनाया हुआ खाद्-पदार्थ विशेष । अचारज दे० (पु०) श्राचाये । अचारी दे- (वि०) थ्राचार २खने वाला, (छ०) आचार विचार से रहने बाला ब्राह्मए,(स्त्री ०) आम का अचार विशेष | | निश्चव, चिन्तहीन | अचित्त तदू० (गृ०) जिसके चिन्ता न हो, दवेसुघ, आखिर तत्‌० (श्र०) देर नहीं, शीघ्र, तुरन्त, वेग । अन्बूक तदु० (गु०) बिना चूका हुआ, ठीक । घचेत तदू० (१०) अज्ञान, मूच्छित, इन्द्रियों के ज्ञान का चप्ट हा जाना । [ मूखता ! घअचैतस्य तल« (गु०) अज्ञानता, निर्जीब, जड़पदार्थ, अचैन त्दू० 'श॒ु०) चैन न रहना, छुख्ती, ब्याकुत्त, अखुख, अरम्प ! अचोना (पघु०) श्राचसन करने का अवोग करना । अच्छुत तद्‌० (वि) जीते रहना, वर्देमाव रहना, स्थिति इ्ोता रहना, जैले-- ५छुम्हे अऋच्छत अ्रस हाल डमारा घ्च्छूर तदू० अच्छुरा तब ० आच्छा तदू" (चि०) भला, उत्तम, सुन्दर, सनोहर, चंगा, (र्वीकाराथैक अव्यय) । अच्छाई दे० (स्त्री०) सुघराई सुघरता उत्तमत्ता अच्युत तत्‌० (पु०) जो कि कभी च्युत नहों जिसका कभी नाश न हो, स्थिर, अमर, सर्वद्रा वर्तमान रहने बाला, ठहरा छुश्रा, अचछ, विष्णु का एड लास (-- नन्‍द (पु०) ईश्वर | बछत दे० (वि) जीवित रहना, उपस्थित रचना । 277 --रामायण । ) (छु०) चरण, अक्षर ! ) घआअजमोद्‌ अक्तृताना-पकुताना त्द्‌" (वि) पश्चाताप करना, किये हुए छुरे कर्मो घे हुःखी होना | ( अलहाय | अछुब तदू० (यु०) जिसके छूच्र नहीं, राज्य पे च्युत, अछरा तदू० (स्त्री०) इसका बहुबचन, अछुरन दोता है यधाः-- “मोहहि सच अछरन के रूप--पह्मावत | देवांगना, स्वर्ग की वेश्या, अप्खसरा का यह अपभंश है [ अक्तरोंटी दे० (स्त्री०) वर्यमाला । घछुवानी तद्‌" (स्त्री०) बत्ती, बामी, प्रसूता स्त्री के साहर में खाने की औपध । अकछूत दे० (बि०) भ्रस्परष्ट, नया, कोरा, न छुआ हुआ । अकछूता तदू" (त्रि०) नहीं छुथ्ा हुआ, जूड़ा नहीं, नवीन, पवित्र ! अछि तदू० (गु०) ब्रहुत अधिक, यधा --- “घरे रूप गरुन के गरव फिरे घक्ेह उछाह,' --बिहारी खत्सई | अछोम (वि०) स्थिर, शान्त, गम्भीर, श्ञोसहीन । अज्ञ तदू" (पु०) झाज, वतेमान दिन । अञ्ञ तव्‌० (पु०) नहीं उत्पन्न होने वाल, विष्णु से डस्पन्न, ब्रह्मा, शिव | - [सूर्यवंशीय भ्रयेध्या का राजा, जिसके पुत्र सहाराज दशरथ थे। अज् राजा बढ़े बीर थे, गन्धवेराज के पुत्र ले सम्सेहनास्त्र इनको सिल्ला था।] बकरा, सेप शशि, तत्‌० (स्त्री०) बकरी, माया, अ्रविद्या, श्रक्ृति । बजञगर तत्‌० (घु०) बकरे के नियलने बजा अहुत मोदा सांप, श्रालसी, निकम्मा । अजगव तत्‌5 (०) शिव का घनुप | [चच्च ! अजगुत तदू ० (पु०) भ्रदमुत, आश्चर्य, बिना देखी सुनी अज्गैव ददू ( 8०) श्रदष्ट स्थान | अजदू्‌हा ( पु० ) अजगर, बड़ा मोटा सप | अजञनयी ( वि० ) शपरिचित, श्रज्ञान, घिना जांच पहिचान का । झजपा (बि०) जिप्तका उच्चारण न हो (घु०) गहरिया । अजञ्ञव (बि०) विछक्षण, अनूठा, अनोखा | अज्ञवाइत (स्त्री०) पुछ मसाले का नाम । झजमोद्‌ (घ०) दवाई का नाम | श० पा०-- हे शजय (२१० खज्ञय तत» (गृ०) जिसकी जीत नर्दीं हुई हो, जो अजेय दो, जिये कोई नहीं जीत सझे। वीस्भूमि जिले की पक्ष नदी का नाम | अज्ञर तत्‌०» (वि०) जवान, यौवन; युवा, अपर, जो कमी चूहा भ हो । अज्ञस (पु०) बदनामी; अपरीतति । झञ्ञमी तदू० (गु ) तिन्दित, यशरद्वित । धाज़हूँ तदून (अ०) भ्राज भी, धमी, बवर्तों, भय तर आजतक | [ प्रतिद्ृण | अजख्र तत्‌० (० ) निरन्तर, नित्य, सर्वद्ा, छत्रहृत्स्यार्था सत्‌० ('प्री०) ग्रलट्टूए शास्त्र का एक छच्ण जिम्तमें अपने घोधर अरे का न॑ त्याग कर लक्षण भिन्न श्र बतराता है। [ माया, हुगा। अ्ज्ञा तद्‌० (स्त्रा०) शिपका जन्म न हो । वहूरी, श्रजाचक (१०) जिसके मॉगन की जरूरत नडो) (बिल) श्रेय ची, सम्यत् [ मरापूर थ्रज्ञायो (ए०) सम्बह धनुप्प, न र्मागने वालो (3०) धज़ाड़ तद्‌ु* (१०) सनिया टाट। प्रभातशम्रु शत (६०) १--राज्रा युधिष्टिर वा दूसरा नाम | युधिष्टिः किसी के अपना शत्रु नहीं सममते थे, हसी कारण उनका यह नाम पड़ा। २+--इस नाम ह पुक राजा वी वर्णोत उपनिषदों में मी आता है। यद राजा अह्य्ञानी या। सदर्पि गाग्य इसे यर्दा गये श्रौर राजा से इछ विषयों में उपदेश छेकर लीट पाये थे | ३--मगध के पक प्रादोस राक क सी राज अज्ातशत्र था) ढसके पिता का नाप विम्विसार था। ४झर खीष्टाद के पूर्व यह मंगघ का उराज्ञ करता था संत्‌० (वि०) जिसका कई शत्रु न दो प्रजाति तदू० (दु०) खिना श्ञाति का, बिदछ हश्ना विज्ञाति, ध्याज्प । [ अवियेकी । अंजान तदू« (गु०) भन्नान, सूर्स, निर्वोच, झजामिल तत्‌० (प०) पुक ब्राह्मण का नाम, यह अ्राह्मण भपम श्रदस्था में सच्चरित्र था, परन्तु पीधचे पे कुप्रग में पड कर अचार भ्रष्ट इच्च, दासी के गर्भ से रप्पद्न इसझे दस पुत्र थे, शिसमें से पु का नाम नारायण था, मरने के समय ) अजामिए न॑ अपने नारायण पुत्र को पुकारा, इसी कारण विष्ण॒दूत इम्तका विष्युलेक में ले गये। - श्रीमदुमागवत। आअज्ञायव ( घु० ) अद्भुत चध्तु, विचिन्न पदार्थ |-- खाना,--चघर (१०) अद्भुत वस्तु वा संग्रदालय | अभिक्रौरा (पु०) श्राजी या पितामदी का घर ) अजित तत्‌« (गु०) नहीं जीता हुआ, ऐसा वली जो सब का जीत ले | अज्ञिन तत्‌« (पु०) सगादाला, हरिण की खाल जिस पर प्रह्मचारी, संन्‍्यासी आदि धार्मिक व्यक्ति यैठ कर उपासना करते हैं | आ्यजिर तत्‌० (पु०) आँगन, श्रैंगना, चौक, चदूतरा। अज्ञो तदू० (श्र०) ग्राजतऊ, अ्रवतर, थरव ही तक । अज्ञोगर्ते तत्‌० (पु०) पुक अद्धाथ जो शुन रोफ का कित्ता था। अंजोरन तदू पु०) देसो श्रमी्ण । [श्रमीणं होना । अजोण तव० (०) पुगण नहीं, अपच, नहीं पचना अज्ीय तद्‌० (यु०) विना जीव का, अचेतन, भरा हुआ म्टृत, जड़ पदार्थ । [ उस्पाती कार्य । अज्ञुगत तद्‌० (सत्री०) अन्धेर, इस्पात, श्र्याचार अन्नो शो अज्ञ तत्‌ (गु०) [अकजक्ष] नदीं जानोवाढा, सूखे, ये समझे | अधूक, श्रनज्ञान, भ्रसप्रक, अनपमण, अयोेध ।--ता, तथ» (स्ली०) मूसता, जता, चादाजी ) अज्ञात तत॒० (गु०) [श्रै+ ज्ञात] नहीं जाना हुआ, अनजान | --जामा ततु% (वि०) जिसके नाम का पता न है। ।--वास तठत्‌० (पु०) छ्िपकर रहना | -न्यौचना (स्ट्री०) मुस्धा नायिका का एक भेद धअन्नान तु» (गु७) टधि ज्ञानी मूर्ख, निधुद्धि, अज्ञ, चुद्चिदीन--त* (भ्र०) अशान से, वेसमस्ती से, अनलजाने। --ी तत्‌० (वि०) क्षा ।श्यग्य, सूखे, भड । अत्तेय तद (गु०) नहीं जानू योग्य, कष्ट से आमने येग्य, दुरूद । [ किनारा दिकप्नदेश । आख्ल तत्‌« (पु०) अघना, कपदे का शेष भाग, अल | ( बि० ) आज तक, अभीतक, अवतक । अखनच (रू है अद्ठा क-+ अपन नमन नन+-+++०+००++--+६२००-++-२०-२६२-२२२ ००-7० अजेब चत० (७० ) सुरसा, काजल, अआखि में जयाने | अटखेतल तदू० (यु०) वहुत खेल्टने वाला, खिलाड़ी, का द्वब्य, अज्जवा, शोमना, काजल लगाना, धान्व विशेषय घ्थ्वना या अज्नी तत्‌० (ख्त्री० ) | चंचछ । --ी (सत्री०) चंचछता, खिलाडूपन, डिठाई, चंचलश्व । दिग्गन की हथिनी, बानरी विशेष, हजुमान | अदद सद्‌० (यु०) मोटा, पोढ़ा, दृढ़ । [ यात्रा । की साता का नाम, अश्लनी चाज्नी वानरी के | अदच तत्‌» (एु०) फिरना, चनत्नना, घृमना, अमण, गर्भ से मद्ावीर हनुमान की उत्पति हुईं थी। “द्वि तद्‌० (घु०) पवत्त विशेष, ।-- इनन्‍्दन बत्‌० (पु०) हडुमान जी । [का जड़ अज्ञर-पञ्चर दे० (स्त्री०) देह का बन्द, शरीर अज्लत्ति, अज्ञत्नी तत्‌० (स्त्री०) हाथ जोड़े, हाथ का सम्पुट, श्रेज़्रि, दोनों हाथों का ऐसा जोड़ना जिससे बीच में अवकाश रद्दे । परिभाण विशेष [--कर्म सुशीकता, अणास, लमस्कार, व्रिनय करना (-+ चन्धन (तत्‌०) हाथ जेटड़ना, करसम्पुट नसत्कार, नम्नता प्रदृर्शित बरने की मुद्रा । अजख्सी तत्‌० ( ग्र०) शीघ्रवा, शीघ्रत्ता से, वेगी । आअजञ्ञही दे० (स्त्री०) अन्न की मण्डी | ( वि० ) नाज बाली । अख्जुरी दे० (स्द्री०) श्रेजलि ।[ विशेष, म्रियालु । अडाजीर तद्‌० (पु ) श्रश्लीर नामक बृत्त का फल अज्ञोर दे५ (घु०) उजेना, प्रकाश, रोशनी, चदिनी । आअऊका तदू (६०) श्रनध्याय, छुट्टी, अवकाश । ध्यदंक तद्‌० (स्त्री०) रोक, चारण, रुकावट डालना, झटक ना । भारतवर्ष की पश्चिमात्तर सीमा प्रान्त के एक नगर का नाम सिन्धु नदी का दूसरा नाम्त है। कहते हैं कि सिन्धु नदी के प्रचल्ल वेग ऊ॑ कारण उसका अटक नाम पड़ा, क्ष्योंकि वर्हा जाकर जोग अ्रवक जाते हैं ।-+छ्त दे० ८ स्त्री० ) अलुमान, विज्ञार |-- ना दे" ( क्वि० ) सकता, छेकना, चारण करना; किसी कार्य में विन्न डाछ॒ना |-- वदे० (5०) रुकाबट, मतिबन्ध (--लपच्चू दिला असाण, बिना दौर ठिकाने, अनिर्चित । ख्रदकर या ग्टकत्त दे० (स्त्री०) घन्दाजा । खटका तदु० ६०) मिद्दी का पान्न विशेष, श्री जगनल्नत्य जी का प्रसाद [अतिबंध अठकाव तदू (8० ) चि्त, बाधा, रोक रुकावट, | अटसा तदू० (क्रि०) समाना, भर जाना; घूमना; फिरना । आव्यठ तदू० (पु०) अनियमित ठेढ़ा, वॉक; टर्रा | ++ (स्त्रो०) तिरछ्की, एढ़ी टेढ़ी, चेढंगी, कठिन । अख्य्वर दे० (पु०) श्राइम्बर, खानदात, परिवार । झद्गम् तदू० (पु०) राशि, ढेर बदारा । अटत्त तत्‌० (ग्रु०) बढ़. पोढ़ा, अचल, नहीं टलने वाह्ला । ग्रुपाहइयों के एक अखाड़े का नाम | खठयी ठव्‌० (खी०) बन, जं/्ज, गद्दन, कानव, भयानक जंगल, हिंस्न जन्तुओं का पास स्थान । झठा तदू० (स्री०) कोठा, ऊपर की कोठरी, सब से ऊपर का कमरा । अदाट्ूट दे? (त्रे०) नितान्त, बिलकुल । अग्ारी (स््री०) देखो श्रद्म । > अदाल दे० (पु) ढक, घरहरा । [ असकब्ात्र । ध्यटात्वा तद्‌० (पु०) खटला, ढेर, सामग्री, सामान, अटिया तद्‌० (खी०) छोटी मडेया, झोपड़ी, छोदा मक्तान, प्रणंकुटी । अटृद तदू० (गु०) बहुत पोढ़ा, नहीं दृटने वाला, घहाँ घटने बाला, सम्पूर्ण, पूरा, कुज | झ्रटेक तद्‌० (ग्ु०) टेह नहीं, निराश्रय, बह्चेश्य-द्वीन, अष्ट प्रत्तिज्ञ । आअटेर तदू० (गु०) एक झाम का नाम ।--न दे? (छु०) फ्रेटी, चरखी ।--मी दे० (क्रि०) फटा बनाना, गोलाकार बनावा, सोड़ना। [ बनाता । अटेरना (क्रि०) मोहना, अदेरन से सूत्त की फेंदी अदोल तदू० (छु०) अचिकत, असम्य, अनाड़ी, जंगली, वर्बर [ अद्ृद्ास तद्‌ (पु०) बहुत हँसना, खिलखिला कर हँसना कुडकुडा मारना । अद्ञात्विकां तदः (व्वी०) अत्ठ, अदारी, राजग्रह, प्रसाद, घब रागार, बड़ा सकान, हस्ये ) अट्ठा (घु०) तास का एक पत्ता ( अद्वाईल (स्नी०) बीस और आठ, श८। अट्टानये (पु०) नब्बे भौर झराठ, से । अद्वावन (पु०) पचास और आठ, ८ । अठकौशल (५०) पचायत, सकाह, गोष्टी | अठतक्ी देन (खी०) घेली, आधा रुपया, आठ आत | अठमासा (१०) पेत जे! थ्राठ मास तक जेता जाय । घ्रठल तदू० (पु०) संघ्कार विशेष । शठलाना दे० (क्रि० वि० श्र० ) ऐेठ दिखनाना। हुतराना, गपे अनाना, ठसक दियाना । ग्रठयारा तद्‌० (पु०) चटठवा दिन, सप्ताद, थ्राउ दिन का समुदाय । अठवास (पु०) अठपदल, अठपढली वस्ज । अठवांधा (वि) आठ महीने का, श्राठ महीने में उत्पन्न । टोने बाला गे | धाठहसर (पु०) सत्तर भर आठ ७८। छझाठाम दे० (क्रिल, सताना, पीढ़ित करना । अदठारद (छु०) दम और आ्राठ, $८। अठाली (वि) अस्मी और झ्राठ, ८८) झठिलाना दै० (क्रि०) अठक्षाना । अडेल तदू० (गु०) जे देशा ल॑ जाथ, अ्विचलनीय, अपरिदाय, जे दृट न मरे, यथेष्ट, भचुर, दृढ़, स्थिर । | अडोठ दे० (पु०) ठाद, 'ब्राउम्बर, पास्पण्ड । ध्यठोनरसो (वि०) पूछ सी थ्राठ, ३०८॥। घंठोतरी (री०) १०८ गुरिया की माला 4 “ग्रड॑ तद्‌ (स्री०) रपठा, विशेष, हृठ, गमन, चष्टा । अडड तदू (पु०) मण्डी, ह्वाद वजार विद्रेशीय या अपन्तीय वस्तुओं के इसारने की ज्ञणद, उतार, विष्ल, रुकावट“ (9०) रोइना, रुछावट, प्रतिदन्ध | अषइ्टगोड़ा (०) पक ककडी जे नट्सट गौशो के गये में छटक्ाया जाता है जे भागते समय उसके पैर में लगती है, ठेझुर, ढेंगना । अडूचन (स्रो०) रुकावट, बाधा, दिध्न थ्रापत्ति अड़इपोपी (०) घृत्ते, द्वाथ देसने के वहान लोगों को उसने बाला । अइतल त्तद्‌० (पु०) ओट, शरण, हीला । अड्तला तदू० (पु०) शरण, आछझय अप, बचाने दाढा, रद्ा करने वाला । [चाढीस । अड़तालीस वददू० ( पु० ) सख्या-विशेष, बट श्र रे शेर ) धदुफि अइत्तीस त्तदु" (पु०) सैस्‍्या विशेष, आाढ और तीस । अड़्ना तदु० क्रि०) थमना, रुऊना। द्विविधा काना, निश्चय से च्युत होना अड्िवंग तद्‌* (एु०) ऊचा नीचा, दुर्गेम अड्डवंगा तद्‌० (पु०) बाँहा तिर्धा, थसमान, बेढगा । अडवड तद्‌० (पु०) प्रताप, निर्थंक थक्रना, गाली देना, ऊँचा नीचा । ध्यडूवन्ध तद्‌० (पु०) कटिवन्ध, छोपीन । आड़वल तदु० (गु०, प्रधजाने याछा, रुकने वाला, अहुवा, हठी, मंगरा । , अइसठ पु ) पाठ भर आठ, ६८ अड़ाड़ा तद (५०) ढोंग । अपड्ाना (क्रि०) टिकाना, रोकना, उलमाना, ढरकाना, अड़ानी तद॒० (ख्री०) छातां, शेकने बाएं, बढ़ा पखा। [ढाका, सुँस्त। अड्डियज दे" (बि०) रूजाने चाढा, अटकर, चक्रने अड़िया दे० (खी०) अढे के आकार की पुक रुक्‍ड़ों, जिसे टे5 कर फूछीर बैठने हैं + लंबे आझार की रच्चे सूत की दिण्ढी, फटी । ध्यड़ी (बि०) भाप्रह्ी, हटी । अट्टसा तदू० (पु०) एक घृच का वास, रूसावसा, खासी में इसका प्रयोत होता है | अड़ेयाना तदु० (क्रि०) आ्राश्रय देना, रक्षा करना, अश्वासित करना [ अड्लेच तदु० (ख्री०) बैरमाव, शत्रुता, द्रेष । भअडोल त्तद्‌० (गु०) नहीं दोबनन बाला, स्थिर, अचल, अ्रटल, दृदू, नहों हिलने वाद्य ।..[ प्रतिवेश । अड़ीस पड़ोस त्तदू० (पु०) प्रडोस, प्राप प्राप्त, अड्डा तदू" (पु ) ठदस्ने की जगद्ठ, सेना इहने का स्थान, दवावनी ! अढ्तिया दे० (पु०) ग्राढ़त करने बाला । अढ़ाई तदू+ (गु०) तैस्या विशेष, दो श्रौर आधा | -झुना दो और आाथे से अधिक, पुक, पुक हिस्पे में चौर अढाई द्विस्सा बढ़ना | अड़िया (स्वी७) काड या प्थर का चर्नेन, चुना या गद़ा ढोन छा काठ या र्ोोहे का बत्तेन । प्रदुऊ्ति तदू० (अ०) गठक कर, सट्दारा लेकर | अड्लिया (्‌ घक़िया तदू० (स्रो०) ढाई सेर की ठोल, माप, बटखरा । ' झणद्‌ दे० (छु०) आवन्द। घ्णि तत्‌० (स््री०) अक्षाग्र कीलक, पहिये के अ्रग्ममाग का काटा, त्तीखीघार, नोंक, बाढ़, घार, सीमा ! झणिमा उ्त्‌० (पु०) या अतिमा तदु० (खत्री०) (हिन्दी में खी०) आठ सिश्षचियों में की एक सिद्धि. अत्यन्त छोटा घन जाने की शक्ति ! झणीय (बि०) अतिसूक्ष्म, वारीक । अर तस्‌० (पुृ०) कणिक्का, अत्यन्त सूक्ष्म, धान्य विशेष, सूक्ष्म वस्तु; सप से द्वोटा हिस्सा । छुप्पर के छेद से घर में भ्राये हुए सूयय के प्रकाश में उड़ते हुए जो छोटे कण दीख पढ़ते हैं उनमें खरे एक कण के साठवें भाग के अख़ु या परमाणु फहते है। यह नैयायिकों का प्रधान सत्व है। नैयायिक इसी 9 हारा सांसरिफ पदार्थों की डलत्ति मानते हैं। यह शक्तिमात है | मिलने और दिछुड़ने की शक्ति हसमें बतमान है ।-- मात्र (गृ०) छोटा सा । --चाद (घ०) सिद्धान्त विशेष श्रणुवाद में जीव और श्रात्मा श्रण मासा है। यह श्रीवल्लभाचारये का सिद्धान्त है +-सादी (ए०) अख़बाद को सानने चाला ।--वीक्षण (७) छोटे छुप्ट पदाथों को देखने के लिये काचि का बना हुआ एक प्रकार का यन्त्र, दूरबीन । छग्दा तदु० (प०) रोंद, योढ्ी एक प्रकार का खेल । +शुड्गुड़ (बि०) वेलाग चित्त पढ़ा हुआ (--- घर (ए०) गोली खेलने का कमरा (--चित्त तदू० (ए०) उत्तान पड़ा छुआ, बेल्ाग गिरा हुंच्ा। --बन्धु (ए०) छुआ खेलने की कौडी । [सदरी । अग्रिदया (स्त्री०) घास का पूरा या पूछा, छोटी शअाटी (स्त्री०) धोती का चह साथ जो कमर पर मोड़ कर बाधा जाता है अगुलियों के ब्चीच का भाग। श्रशाठल्लाना तदू० (क्रि०) बकिती करना, ऐंटना, बॉकापन दिखाना, अभिसान करना, अंग को स्वयं सरोड़ता | खअगाड' तत्‌" (४०) प्रंदच, अण्डा, बीज, पेशीकोष, अण्डक्रोप, कस्तूरी ।--६ (पु०) पत्नी आदि के उत्पन्न होने का स्थाल, गोलछाकार ।--केदाह्े चत्‌ ० श्र) श्रतल (प०) जगव, विश्व, संसार, गोछ +--केप तत्त्‌० (०) घुश्क, थैज्ञी, ग्रांद !--ज तल्‌० (३०) अण्डे से पैदा होने वाले जन्दु, यथा पद्ी-साप-मछुली- गोह-गिरगिट विसखपरा । अगडवणड (स्त्री०) मरार, ये सिर पैर की वात, बकबक । अगडस (स्त्री ०) असुचिधा, कठिनाई, संकट । आगण्दी त्त्‌* (स्त्री०)) आसाम का बना हुआ रेशमी बस्त्र विशेष, ज्यादेतर यह ओऑड़ने छे काम में आ्राता है । आ्रासाम की अण्डी बहुत अच्छी होती है । झराइआ तदू० (घु-) बिना बचिया किया हुआ जानचर - चैल (१०) सांइ, भाहसी सलुष्य । अगडैल चद्‌* (ब्रि०) भ्रण्डावाली अतः तव्‌० (2०) इससे, इस कारण, इस द्ेेतु, इस्तकिये । शअतएय तत््‌० (श्र०) इसी क्रारण, इसी देह, इस्रीलिये । अतथ्य (वि०) असत्य, भूंछ । अतदूगुण (ए० ) अलंकार विशेष, अतनु तव्‌० (पुृ०) या ध्यतत तद्‌० ( 8० ) देह रहित, बिना शरीर का कामदेव [कामदेव का शरीर महादेव के क्रोध से भस्म हो गया था, इन्द्र ने इसे महादेव पर विजय पाने की श्राशा से भेजा था, परन्तु अ्रभाग्यवश वह महादेव के क्रोधाप्नि से दग्घ हो दाया । घुनः पार्वती की प्रार्थना से मद्दादेव चे हसको उज्जी चेत किया । अतपुव कामदेव का नास अतजु है।] अतन्द्रित वव्‌० (यु०) आज्स्य रहित, कसेंट, चपल, चालक, जाग्मत । [ रखने का पात्र । अतर दे० (५०) एप्पसार, इश्न -दान (पु०) अ्रतर झत्तरंग (पु०) वह क्रिया जिससे लंगर जमीन से डखाड़ कर रखा जाता है । अतरसों (पु०) बीते और झ्गने चाले परसों का पूर्व अगला दिन, वर्तमान दिन से बीता हुआ ग्रा आने चात्या तीसरा दिन । घ्यतक्ित तत्‌० (वि०) बिना बिचारा, आकस्मिक ! झआतक्य तत्‌० (8०) चक्तित्य । अनिवेश्नीय । आअतत्त ठत्‌* (यथु० ) बिना तल्ल का, विया ऐेंदे का; चतु छू, गोल, सात पातालों में पदिढा पतताल ॥ धतवार ( श्छ ) झतिसार स्पर्श वर» (गु०) अगाघ, अतिगमीर, मिसके तल का स्पश न हो सझे । खअतवार दे+ (तत्‌5) रविवार [ अतसी तद७ (स्त्री०) तीसी, श्रलसी, पाट, सन + अताई तत्‌० (पु०) सत्रैशा, जन्त्री बजाने वाला, चनगैया । अति तत० (गु०) जिन शब्दों के पहले अति शब्द आता है दे शब्द अपने से श्रधिक श्रर्थ के बावक हो जाते हैं । अधिक, बहुत, विघ्ता, अ्रत्यन्त, बडा, दीता हुआ, हो चुका, उर्ज्ाघना, पोर | +-उक्ति तद॒० (स्त्री०) श्त्युक्ति, थसग्मवप्रशसा। “काय सत्‌० (पृ०) बड़ा शरीर, भेग्रानक शरीर घाला। रावग का पुक पुत्र, इसन तपस्या के द्वाता प्रह्मा के सन्तुष्ट करझे एक अ्भेय कबद पाया था, जिसते यद अप्य दो उठा था। नक्ष्मण के साथ युद्ध में यद सभा गया +--काल ( धु० ) श्रत्रेर, विटस्व, देरी ।--क्रम (प०) बाधा, पार होना, अपरा, भ्रपप्ान करना, धन्यपाउाण, ते मभझ् करना $ न-करन्त (पु) पार गया हुआ --छ्छू तत्‌० (पु०) घत विशेष, पाप दूर करने के लिये यदद प्रत किया जाता है, यह शत प्राजापत्य ब्त का भेद है, उससे इसमें विशेषता यद्दी है कि जितने दिन मोजन करने का नियम है उतने दिन अति- कृच्छ में दादिन हाथ भें जितना अन्न भावे उतना ही भादार काना चाहिये । अतियि तत्‌० (पु०) साधु, यात्री, पाहुन, मिनझे अपने की तीथि नियत न हो ' श्रीरामचनद्र जी के पौदध्न पृव कुश कु पुत्न का नाम |-भक्त (पु०) अनिधियों की सेवा करने बाल्य, भतियि- पूजक ) अतिपन्था तव्‌ (पु०) घढा मागे, राजपथ, सदक । अतिपर गत्त- (पु) अति शत्रु, मुद्दा चैसी, उदासीन असम्बन्ध । ध्यतिपराफम ठद्‌० (पु०) घड़ा प्रताप, बढ तेज । अतिपात ददु७ ( घु* ) अन्याय, उत्पात, उपद्रच । ध्यतिपातक रुत० (पु) मारी पाप, नव प्रकार के पापों में सब से बडे तीन पाप । माता, क्या भौर पुष्र छरो खी का संसगे करना, पुरुषों के डिसे अतिप/तर है । ऐसे ही छुत्र, पिता तथा रबलुर का संसगे करना, स्त्रियों के लिये अतिपातक है | झतिपान तत्‌० (पु०) बहुत पीना, म्तता, पीने का व्यसन १ [बहुत ही एस, दूर नहीं । अतिपाएर्व तव्‌» (पु०) सब्चिच्ट, समीप, अति मिहट, अतिप्रसंग तव० (पु०) अ्रत्यन्त मेल, पुनरुक्ति, ग्रति विम्तार, व्यभिचार, क्रम का नाश करना । अतिवरवे (७०) पक प्रकार का छुन्द जिसके प्रधम तृतीय चरणों में १२ और दूमरे तथा चौथे चरणों में ७ सात्राएं होती है । प्लाथ ही इसके विपम पदों के श्रारस्भ में जग्रण नहीं शाता और अन्य का वर्ण जधु होता है ! घ्यतिवल तत्‌० (वि०) अस्यन्त बली; प्यल्ल, प्रवण्द | अतिद रा तत्‌० (स्त्री ) बृत्विशेष पीतयछा, बरीयारी का ऐड। श्तियोग तत्‌० (धु०) पुक वस्तु दा दूसरी गम्तु के साथ नियत परिभाण से ग्रत्यधिऋ मिद्राव | अतिरधी ठव्‌० [ अति +रपित्‌ ] (६०) अतिशय योद्धा, रणकुशल, महायोद्वा, बहुत मनुष्यों को एक साथ लड़ाने वाला । अतिरिक्त तर्‌* [ अनि+रिच्‌+क्त] (ए०) भिन्न, छोड़ कर, परिमाण से अधिक । श्यतिरेक तव्‌० [श्रति + रिच+ घन्र। (गु०) भ्राधिक्य, छयी, अतिशय, बहुत दी । [एक महाव्याधि । अतिरोग तव्‌० [ श्रति +- रत + घण ] (५०) कयरोग, झतिवाहिक तत्‌७ (पु०) पाताढ-नियासी, लिद्रशरीर । अतिविपा तव॒० स्तप्री० अतीस + ध्रतिवेज्ञ तद॒० (वि०) चेहद, प्रसीम | [ वोष | अतिव्यप्ति वत्‌+ (स्थ्री०) न्याय शास्त्र का पुक छचण अतिशय वव्‌० [ प्रति+शी + अल ] (गुण) श्रब्यन्त, विम्ठार, यश, बाहुदय | --पान (पु०) अत्यस्त मधगन ०] श्रेष्ठ, श्रधिक, अत्यन्त ।--उतक्ति (स्त्री ) अतिशयोक्ति, अत्यन्त चतुताई, सम्झानित करने के लिये असम्तव प्रशंसा । काष्य का अखब्टार शिशेप । [ धाह। अतिसन्धान तत॒० (एु०) भतिकमण, घोखा, विश्वास- अतिसार घा प्रतीसार तन» [ भरति--छ + घन ] संग्रदयी रोग, जब की व्याधि, पेट की पीदा प अतिहसित (्‌ अतिहसित तत्‌० (१०) हास्य का एक भेद चिशेप, इस प्रकार के हास्य में हँसने वाह, हँसते समय तासी बजाता है, थीच बीच म्रें अबोध वचन बोकृता जाता हैं। हँसते हँसते इसका शरीर घर्रान लता है श्रीर पांखों से आँसू निक्रलने कयते हैं । झतिन्द्रिय रत्‌ू० (वि०) इन्द्रियों द्वारा जानने के अयोग्य, भ्रप्नत्यक्र, अ्द्योचर । अतीत तत्‌० [अति+ई+क्त। (गुल) भूत, ग्रत, झतिक्राश्त, बीता हुआ, संगीत शास्त्राहुसार परिणाण विशेष ।--काल तव» (पु०) बीता हुआ समय । [ बहुत अधिक । ध्रतीय तत्‌० [ अति + इव | अतिशय, अत्यन्त, यथे8, घ्रतीसत तद्‌ ० (०) श्रौषधि चिशेष । अतुराना दे० (क्रि०) भ्रकुल्टाना, घबढ़ाना । घ़तुत्त तत्‌० [ थ्र+तुल ] ( गु० ) अतुत्य, अनुपम अखदश, तुलना रहित --नीय तद्‌ (वि०)। +-ल (वि०) अलज्पम, असमाननीय, उपसा- रहित, सर्च श्रेष्ठ, अपार, अपरमित्त । खतूध दे० (वि०) विचित्र, अपूर्व । अतेज तदू० (वि०) चीणता, हतश्री, हतप्रभ अ्रत्तोल्न तद्‌ू० या. झतौल, अप्रमाण, इयत्ता रहित, सोछसे का नहीं । ऊँ खत्ता, धत्तिका तत्त० (स्त्री०) साता, ज्येष्ा बद्धित, बढ़ी सौगी, सास | इसका प्रयोग छुराने नाढकों * में आता है। नाटकों में जेही वहिन के सम्परोधन में झत्तिका आता है। न घत्तार दे० (पु०) यूनानी दवा बेचने बाला। अत्यन्त तत्‌० [ श्रति + अन्त ] (गु०) अतीब, अ्रतिशय, अत्यधिक )--कोपन (झु०) अण्ड, अ्रत्तिशय कोधी !--गामी (वि०) शीघ्रगामी, अधिक चलने बाला -चांसी, धहुत्त रहने बाढा, नैछ्िक ब्रह्माचारी अभाव (४७० ) अवत्यन्तासाब, न्यायम्त से सब्र पकार से अभाव, तिकात्म में लिश्की स्थिति न हो, असाव पदार्थ अत्यय वद्‌० [ अति + हैं + अल ] (छु०) विनाश, अतिक्रम, रूस्यु, दोष, राजाज्ञा का उल्लंघन, खापराध ॥ ८ १५ ) ध्यर्थ आए श/आआआदएणए।पथ”७/)७।थ/ओचचचचयचयघयाआाइह 5 डॉ ल्‍ॉफओसचसन सर धइन्‍लन्‍्न्नन्नचषओ-----.... अत्यर्थ नतू० (पु०) विस्तार, अतिशय, अधिक | अत्यप्टि तत्‌० (०) चुन्दोविशेष, बढ़ छन्दर जिससे . अ्रष्टादृश दर्य श्रीर चार-पाद होते हैं ! अत्याचार दच्‌० (9५) कुब्यवहार, भ्न्याय, दौरात्म्य निपिद्धाचरण ।--ी तदः (गुल) हदुष्कर्मी, हुराष्ण, कुकमों । [ावश्यक ! अत्यावश्यक्ने तत्‌० (प०) अ्रति प्रयोजनीय, चहुत्त अत्युक्ति तत्‌० (स्त्री०) श्रसन्‍्भव कथन, आरोपित कथन, काव्य का श्रलडूगर विशेष । पत्युकूथा तत्‌० (स्त्री०) छन्दोविशेष, चार पद और खारह शचर वाला 4 खत्युत्कद तच्‌० (गु०) अतिशव कठिन, अति लीच । अत्युत्कएठा तत्‌० (स्त्री०) श्रतिशय सनस्ताप, अत्यन्त चिन्ता । अत्युत्कए तत्‌० (गु०) अच्युत्तम, बहुत अच्छा । अत्युसम तत्‌० (पु०) भ्रति रमणीय्र, अ्तिशय उत्कृष्ट, बहुत वच्छा । [निश्चय करना, पाश्चात्य । अ्रत्युच्तर तत्‌« (प०) सिद्दान्त, मीमांसा वि्धरिण, अशञ्ष ठत्‌ू० (ञझर० ) यहाँ, पहाँ, इस ठोर। +त्य ( अर० ) यहीं का, इसी स्थान का, इस ठौर का । ध्यत्रप तदू ० (गु०) निल्ेज्ञ रज्वाहीन, चेशर्मा, बेहया । अ्रत्रमचान्‌ तत्‌० (पु०) पर्य, श्कछाध्य माननीय । साइकों में इस शब्द का ग्रायः व्यवहार होता है | अज्रस्थ त्तत्‌० (छु०) इसी स्थान का चासी; यहां रहने बाढा ॥ ध्ज्ि तव्‌० (प०) सप्तपिंयों में से एक ऋषि का नाम [ यद बच्मा के मानस पुत्र थे, कंस प्रजापति की कस्या अनसूया इन्हें व्याही थी। हनके पुत्रों का नास सहर्षि छुर्वाशा, दत्तात्रय और चन्द्र है। मलु संहिता में लिखा है, कि मन्ठु के दस प्रजापतिपुत्रों में से पुक श्त्रि मी थे । ]--जात तद० (ड०) अन्दर, दिग्गज, नेन्नज, नेत्रम्सूत, नेन्नसू,. . मिशाकर, सुधांशु, चन्दसा ॥ छ्थ तधव्‌० ( श्र० ) श्रमन्‍्तर, सब्नक आरम्भाध, अश्न, अधिकार, संशब, थ्रकक्प, समुच्यय, तंदनन्तर, तदुपरि, पश्चात ।--च वाक्य योजनार्थ अब्यध अथऊ ( रह ) अदाया शब्द, थी। ।--वा, पच्चान्तर, या, वा, गरातान अंदशइनीय तत्‌० (गु०] या अद्गृट्य ततू० (गु०) स्तर, किम्या । [पर्व ४ ज्ञाती हैं । खअथऊ दे० ( १०) जैनियों की व्याल्‌ जो सूर्यास्त से अधक तद्‌० (व्रि०) अथकित, भ्रश्नान्त, अकलान्त | झथधयड़ तद्‌० (गु०) डूब गया, बूंड गया, अस्त हो गया, भस्तमित । रामायण में इस शब्द का प्रयोग फिया गया है, सस्कृत के अस्‍्तमित शब्द से यह निकला है। अथरा दे० (प०) मिटी की नाद जिसमें रगरेज कपड़ा रगते हें श्रीर जुल्ञाद सृत मिगोते हैं। (स्त्री०) दद्ठी जमाने का सिद्दी का कूडा । अथवे तत्‌० ( पृ० ) (अरपर्रन), अतिवुद्, चतुर्घवेद । यह देंद ब्रह्मा के उत्तर वाल मुख्त से निकला है| इसमे नी शाखा पाच क्छप हैं और बीस काएढों में समाप्त होता है। इसका प्रधान प्राह्मण गोपथ है। इसपे सम्बन्ध रपने वाली उपनिषदों की संख्या काई १८ और काई ३१ बताने हैं। इसमें अधिकता से अभिचार प्रयोग पाये ज्ञाते है |--- ण (पु ) शिव, मद्ादेव ।--णी (पु०) अ्धने चेदज्ञ घ हमण, पुरोहित ।--शिख्र (५०) इपनिपद भेद ।--शिसामणि (पु०) उपनिषदभेद। - शिर (घु०) अ्षर्वयेद की सातथों उपनिषद्‌-- तव॒ (१०) भद्या के ज्येष्ठ पुत्र क। नाम जिसे ब्रह्मा ने प्रह्मविद्या सिस़ज्ञायी थी, और इसी ने सर्च प्रथम अप्लि क! प्रद्ट कर आय जाति में यत्र क्रियष्का प्रचार किय्र। । [छी ज्ञातने बाने का दी जाती है | अथल दे० (पृ०) बद भूमि जा लगान लेकर दूसरे अथवचना (फ्रि०) अम्त होना, हूबता ।.[ अब्यय है| अथवा तत्‌5 (श्रथ) थक, वा, क्िंवा, यह विद्ेदक धथाई सदू० (स्प्री०) मित्रो के एकट्े होने का स्थान, सभा, चौपार, बैठक | प्रधान या ध्मथाना, त्तर० (पु०) अचार, सठाई, (गु०) दिन स्थान, बेठि छाने ।. [गदरः, बेचाद । धधादह तद्‌० (गु०) गहिरा, गम्भीर, अ्रगाघ, बहुत झयेर दे० ( वि० ) बहुत, थोड़ा नहीं, पूरा। आ्रदुकणया तदू० ( पु+ ) थेदन, छऋषेटन, चे्ठन, छपेदने का चखर | [ टच, कच्चा । झद्रघ तत्‌० (पु०) अर््वल्ति, अपक्य, नहीं छा दृण्ड के अनुपयुक्त, अदण्ड है, मिसको दण्ड न दिया ज्ञा सके, जो, दुण्डित न हो सके स्वधर्म निष्ठ सदाचारी, महात्मा । अदत्त तत॒० (गु०) अदाव, नहीं दिया, असमर्पित, अप्रतिपादित ।-- तल» ( खी० ) अविषाद्िता, कुमारी, श्रनूढ। । झद॒द दे* (पु०) जितना, ससझ्या का चिन्द, सब्या | आझदन तत््‌» (पु०) मक्तण, भोजन, मेबनार, भद्दारा, खाना +--+ीय तत्‌० (गु०) सहणीय, खाद्य चस्तु भोजन, भोज्ञन भाग्य । अदूना दे (वि०) तुच्च, सामान्य नीच। झदृव दे* ( ५० ) शिक्टाचार बड़ों $ प्रतिसम्मान । अदवकार दे (फ्रि० वि०) इठ छर 5, देक धाघ कर, अवश्य । अदुख्र तद० (गु०) यपेष्ट, प्रचुर अधिक, पूरा छेट का सम्पूर्ण (पु०) स्लेच्छोत्पादक पुरुष | [ अनोखा । अदभुत तत्‌० (गु०) विल्च्षण, भ्राअ्येशनक, विचित्र, अदव्मपेरधो दे० (ख्त्री०) मुकदमे में 'आवश्यक कारबाई का न करना । [न होना ) अदमसबूत दे० (१०) प्रमाण का अभाव,र्सूत का धयद्टमद्दाज़िरी इ० (स्त्री०) मैरद/जिरी श्रजुप्रम्घिसि ) अद॒म्य तत्‌०-(गु०) दमन करने के श्रयेग्य, दुर्दान्त, जो नहीं दवाया जा सक्ले। अद्रक दे ० (१०) बआादंक, इरी साट । अद्रखा दें (पु०) अनरसा, मिठाई विशेष । * ध्यदरा (प०) आद्ा नक्षत्र । अदराना (क्रि०) फ्र्नना, इतराना, नटखटी करता । अदृ्णन तत« (गु०) छिपा, ढक, छुका, गुप्त ।-टीय चत्‌० श्रद््य, नहीं देगबने ये।ग्य | अदइल दे० (१०) न्‍्याण, इसाफ़ । अदलवदल दे० अआर०) परिवर्तन । अद्वायन दे (घ्री०) खाट की ग्म्सी अवृहदन तद्‌ू० (पु०) मात बनाने के दिये गये पानी । अदा दे० (वि०) चुकता, (स्त्री०) इाचमाव नखसरा। अदाता त्तदु* (१०) श्रायनी, घूम, कृपथ, लीघड़, दान शक्ति-हीन । [निष्ठुभ्ता अदाया तव्‌० (स्त्री०) दवा शून्यता, कओोरता, मिदंयता, अदालत (्‌ १७ ) खच - अदालत दे० (स्त्री०) न्यायालय, कचेहरी । अदाचत दे (स्त्री०) चैर, विशेष, शत्रुता । अदिति उव० (ध्तरी०) देवपाता, देवताओं की सां, मह॒पि कश्यप की सरुप्री, दुच्च प्रजापति की कन्या । वामनावतार में भगवान्‌ विष्णु इन्हींके गर्भ से उत्पन्न हुये थे । १९ देवताओं की थे साता थीं। नरकाखुर को मारते पर भगवात्र्‌ कृष्ण जी को जो दो कुण्डल सिल्षे थे, वे कुण्डल इन्हींफ़ो समर्पित हुए थे |--नन्‍्दन तत्‌० (८०) देवता, खुर । ध्यद्नि तदू० (पु०) अ्भागा दिन, कुदिन; बुरी दशा, खोटा अ्रह दुशा । आअदिए तत्‌० (पु०) साग्य, आरव्घ, विपत्ति । पध्यदीट दे० (वि०) गुप्त, भकक्ष्य, श्रनेखा । ध्यदीर दे० (वि०) सूष्म, महीन, छोटा । दूर तत्‌० (क्कि० बि०) पास, ससीप ।-दर्शी बि०) नासमसर, श्रविचारी। ' [हुआ, जो न देख पड़े । ध्द्वश्य तत्‌* (गु०) श्रगोचर, अलक्षित, ग्रुप, छिपा अद्वृष्ट तत्‌० (गु०) अ्गेचर, श्रुत्ष, अनदेखा, भाग्य, दुर्भाग्य, प्राकृतिक, प्रकृत से उत्पन्न, भप्नि, जज्ञादि, प्राप्तमय ।--पुरुष तत्‌० (१०) किसी साय में स्वयं कूद पड़ने बाला, बिना बनाये बनमे बाला ।--पूर्व तव्‌० (सु) पहले का बहीं देखा, बिना जावा हुआ । नैवायिक मत ले घर्माधर्स की संज्ञा, नेयायिक और चैशेषिक् के मल हे अदृष्ट आत्मा का घर्म है । सांस्य और पातप्जल अरृठ को बुद्धिधर्म कदते हैं ।-- फल, तत्‌० (पु०) पूवंकर्मी के फल, खुख दुःख ।-वाद तल" (पु०) युक प्रकोर का सिद्धान्त जिसमें परछोकादि अइृए बातों पर बिता तकेवितर्क किमरे शास्त्रानुसार विश्वास किया जाता है । ध्यद्देय तत्‌» (गु०) दान के गग्य नहीं, अ्समर्पणीय, किसी का नयास्र चाद्दे उसे स्वात्री नेरखा हे या स्वय मंगवाया हो, पुत्र, स्त्रा और सन्तान के रहते अपनी सम्पूण सम्पत्ति आदि अदेय वस्तु हैं ।--द्वान चत्‌" (पु०) अयेग्य के दान, अपान्न को दुएन । अदे।खिल्त दे” (वि०) निष्कलछक्कू, निर्दोष । अदोरी तद्‌० (स्त्री०) बड़ी, मथौड़ी, उर्द की दाल की विडी की खुखाई हुईं बरी, कुहँडौरी । धद्धी तदू० (स्त्री०) आधा, बराबर भाग, आधी दमड़ी महीन खूती कपड़ा, चनजेब । अदभुत तव्‌० (वि०) अनौखा, विचित्र ।-पसा तत्‌० (स््री०) उपसा श्रंछकार विशेष। झद्गार तव॒० (ग्रु०) पेटार्थी, लोभी, ज्ञाज्ची, पेहू । अरद्य तत्‌० (अ्र०) आज, अब, अबसी, घर्तमान दिन | -++तन ततु० (गु०) श्रद्यजात, श्राज क्वा शत्पन्न, काल विशेष ।--पि तल" (श्र०) श्रद्य पर्यन्त, आज तक्क +-वधधि तत्‌० (श्र०) श्रद्यारम्भ, आज से लेकर । ( समय परिच्छेदार्थक अव्यय ) । घअद्वक तद्‌० (स्त्री०) आवक, भरादी, कप्यी सेठ । ध्यद्रि तत्‌० (धु०) पवेत, पढाड़ू, अ्रचछ, छूच, शैल, सूय, परिणास विशेष |--क्रीत्ता घतत्‌ (स्त्री०) भूमि, शधिवी (--ज्ञ तत्‌० (पु०) शिलाजीत, गेरू, पर्वंलजात वस्तु ।--जा तत्‌० (स्त्री०) भ्रद्धितनया, पार्बती, सैहली, घूत्त, पहाड़ पर उत्पन्न होने बाली क्ता |--तनया तद्‌० (स्त्री०) प्राबती, हुर्गा, अद्विनन्दिनी ।--पति तत्‌० (५०) प्रव॑तराज, हिमालय पर्यत ।--चहि तत० (स््री०) पंत से उत्पन्न श्रप्नि ।--भसिद्दृ तद० ।पु०) पर्चंत्र भेवक, बच्च, इन्द्र ।--राज तत्‌" (३०) हिमाकूय पंत प्रधान पर्वत । श्टद्ठ तत्‌० (पु०) परबेत के ऊपर का भाग, पर्धंत शिखर । अद्वितीय तव० (गु०) शभ्रज॒पस, अ्रतुल्य, एकएी, अतुल, द्वितीय रहित । अक्लेत तद्‌० (ग्ु०) द्वौतरहित, एक, सेव रहित, जिसके समान दूसरा नहीं, शझ्राचाये का मत जिसमें डन्होंने जीव और ईश्वर के एक माना है, जगव्‌ को मिथ्या सिद्ध किया है ।--धाद्‌ छत (.०) शुक दाशंनिक सिद्धान्त जिसमें बह्ममय जगत माना जाता हैं ।--वादी तत्‌« (छु०) जो केवल एक ही ईश्वर पदार्थ मानते हैं । एकेश्वरचादी, अद्दव वादी, बौद्ध विशेष । के अच तव्‌० (अ०) भीचा, तक, औंडा, आधा ।-सत्‌ लव» (अ०) नीचे, निम्न, तक प्राताक्ष +- शा० पा०--२ शआधकचा ( छत तत्‌ू० (गुप) नीच किया हुथआा, अ४७पण । +-+ पात ततु० "प०्) नीचे फ्तन, ध्वेस, न, न्पकन्यात, सीमाग्य सम्पति से वश्चित दाना ।-- प्रस्तरण ततू० (५०) कुशसन तृणशब्या। - जिस दत* (पु०) अधोमुष्ण, सूयव गेय ब्रिशंकु राजा। विशंकु शब्द # ब्रिस्तार से देखों +त्तिप्त तत* (१०) अधषस्यक्त, निन्दितः ययातिगाज्ञा, त्रिशकु । घधफच्ा दे० (गु०) अ्धकच्चा, अधपतका । अथक छार दे* ( पु०) पहाड़ी दरीभरी और उपचाऊ भूमि। [ पीडा, रोग विरोष, सूर्या ग्ते । प्रधरपाली तदू० ( १०) श्रघासीसत, आयधे सिर की अधपद्ा दे० (वि०) भ्राघासित्वा हुआ | ध्यधगो त्तत० (सत्री०) नी द की इन्द्रि्या, गुदा आदि | प्रयत १त्‌* (पु-) कगाल, दरिद्र, घनद्वीग, दीन | छधपह दे (प्री) भाध पाव, दो छुटाक। ध्धन्ना दे० (१०) दो पैसे का एक सिछा। ध्धवर, देन (गु०) आधी दूर, बीच सें, मध्य में । झाधबुध दे० (व) अरद्धे शिघित ३ झाधम तत्‌« (गु०) नीच, निकृष्ट, भपकृष्ट, निम्दित | (६०) जार, डपपति, सेद ।-भ्दृतक (३५०) छोटा भुय, मीच भृत्य। पडरेवाढा, सोटिया, छुछी | +-आऋुण तत्‌« (अ्रघप्रण) ऋणी, घर्ते, खधुक, देनदार ।-- तत्त% (श्वी०) स्वीया आदि नायि फ्रा्थों में से एक नायिका |--भड्ढट तत* (गुण) पद, चाण, निहृष्ट अधयव॥-नघम तद (गु-) अति नीच, अभति निमूध्ट, नीजति नीच। धधमता तदु* (स्वी०) दुष्टवा, सीचता । पधमरा दे* (वि०) म्तप्राय, अद्धछ्ूत। [अ्घमता | धधमाई तद्‌० ( स्त्री० ) पापिष्टवा, नीचता, दुष्टता, ध्रधमुझा (वि०) दे० अघमरा ] ध्रघर तत्‌* (पु) मीचे का होंठ, मष्य, शुन्य, मुख का अदपद विशेष, अपकृष्य, नीष, झघ त्तल, स्मरा मार, योनि ।-चुद्धि तदं»* (वि०) क्‍ भा समझ (-मु तत्‌० (पु०) बइनास्त, अघराझत, भ्घररस --पम्रास्रत मत्‌« (पु०) इंटों का मिठास, भघर रस ॥-- तधु० (द्धो*) अधघोदिक, मीचा, श्रघीर |--ोछझृत रुख» (क्र) श्र ) ०-39... तनमन नमन पनान नमन न नन नम न नमन नननन-न +मननननन-+-मनननन+-मीनीपनननिननननीन न नीनन नानी नानी ननननननगनननगननननन न-+। अपिफार अपवाटत, पराहत, तिशस्कूत, निन्दित]-- मत (यु) विभकृव, अघरीकृत | झ्धम नत्‌* [ब्र+घर्म| (पु) पाप, अन्धेर, अन्याय, अभीति, घर्म नहों, विषम, घमं विरोधी। [अधर्म छ्ही उत्पत्ति के विपय्र मे पौराणिझ्न कथा यंद है कि ब्रह्मा के एष्ठ देश से इसझी उस्पत्ति हुई है, इसके व्स भाण से 'भ्रत्क्ष्मी (दरिद्वता) उत्पन्न हुई जो अप्रमे से ब्याही गई ।]-ंत्मा तत्‌» (पु) पराषिष्ठ, अम्यायी |-नचारो तथ्‌> (पु०) नीच ब्राचार वाला [- प्ठि तत्‌० (५०) अति दुरा* चारी |-+ी तत्‌० (५०) पापी, दुराचारी, दोषी । अधयन ३० (पु ) आधा, अर्थ, शाावर का दिया? अधवाड़ द० (स्री*) श्राध यान; श्रधाई, धाघे घर के लोग । घअधसेरा दे* (पृ०) घाघाघेर ८ छु्टाक | अधांघुन्ध दे० (क्रि" बि०) अन्धाधुघ । ध्धान तदू० (पु०) तेल आदि । आधार तत्‌5 (पु०) (आधार) श्राश्नय, श्रवलस्प, भार, सद्दारा, कलेवा, खाना । [ बन्यायी । अधामिक तत* [थ+धर्म + इक) (पु०) घर्मद्दीन, झधि तत्‌* (४०) आधिक्य बोधझ, प्रधान्य बोधक, अधिर, झूपर का भाग, दश्वत, डपस्ग, सामने, खश में | ध्यचिऊ तत्‌» (गु०) अतिरिक्त, बहुत्त, विस्तर, बहुत ढेग, विशेषा--तर तव॒० (गु०) इसरे की अपेक्षा अधिझ ता तत्‌ू» (स््री०) शआधिक्य, अतिरिक्तता, बहुनायंत, बढ़ती |--न्तु तत्‌* (श्र०) शऔ्रौर दूसरा, अपर, विशेषता: [-नधिक तत्‌» (पु०) बढ़ती से बढ़ती ।--ड्भ तद (गु*) बीस अगुक्तियों से अधिर अंगुली वाछा, या थौर फिसी अधिक अवयव से युक्त । अधिकफरण ठतव्‌* (पु०) आधार, आधा पात्र, अधिहार-क रण, अआराधिपत्य, सातवाँ कारक ) अधिकाई तदु० (स्री०) बटुतायत, अधिकता, ददती, आधिक्य, सरसाई | झधिऊाना तदू* (क्रि०) बढ़ाना, बभारना श्रधिकार सद॒» [(श्रधि+कृ+घनर]. स्वामित्व, प्रमुत्व, सदा, बपौती |--स्थ तद« (गुल) वण अधिकृत (्‌ तत्‌+» (१०) अझ्ु, स्व मी. अधिपति, अधिकार- चिशिष्ठ, स्थत्वतानू, पुजारी, पण्डा, स्थान या सठ घीशों के उत्तराधिकारी । खिकृत तत्‌५ (ए०) देखबैया, जाँचद्वार, लगाया गया, निग्रोजित, कार्य में छगा हुआ, आवब्यय देखने चाला, भ्रष्यक्ष । धधिक्रम तत० (पु०) चढ़ाव, चढ़ाई, ग्रारोहण। अधिगत तच्‌० [अश्रषि + मम + क्त] (यु) अघगत, ज्ञात, भ्राप्त, पढित, श्ानकार, ऊपर गये हुए, स्वर्गीय, मुक्त | आधिज्य तत्‌० (गु०) घनुप पर ज्या चढ़ाये हुए, घजञग्र ण नियांजित, घनुप चढ़ाये हुए, युद्दार्थी, चीर। अधित्यका तत्‌० (ख्त्री०) पर्वेत के ऊपर का स्थान, अ्रधवा भूमि, समस्थल, दील्टा, वराई, कोह, टेबुललैंड | [ अ्रषिष्ठात्री देवता, । प्श्रिदेव या अधिदेवता तत० (पु०) इष्टदेज, अधिदेनत तद० (०) सुख्य देवता, सूर्य मण्डलूस्थ, चिन्ता करने योग्य पुरुष, ब्मविद्या, दैवश्रल | ध्रधिप तत्‌० (पु०) राज प्रभु, स्वामी । घश्रचिषति तच्‌* (३०) (देखो अधिव) । पध्यधिर्माँस तत्‌ (पु ) अ्रांख में का फोड़ा । [युक्त मास | झधिमास तत्‌- (५०) छौद, मत्सास, दो अमास्य' अधियाना तद्‌* (क्रि०) श्राघा करना बरावर हिस्सा करना । [ छा स्वामी अधियारी दे ० सखी ) श्राधे का अधिकारी, शआधे झधिरथ तल» (शु ) सरधि, रथ दकिये बाला, करण का फिता | झधिराज्ञ तत्‌» (पु०) नरफ्ति, महाराज । खधिवास वव्‌० (पु०) झुम की पहली किया, वास- स्थान, निवास, नित्यता, सुगन्धिव्ब्य, अति झासी । ध्यधिवेदन तत्‌० (छु०) संस्कार विशेष, विवाह । ध्धिवेशन तद्‌० (पु०) बैठक, बिचाराब किसी स्थान पर जमाव, सभा का अधित्रेशन । घधिएछाता हव्‌० [अबधि+स्था+त] रक्षक पाने बाढा; भ्रध्यक्ष, प्रघात। (जी-)--अविछ्ठात्रो सद्‌० अधिदृवता, स्थितिकारियी । श्६ ) धो वक्त पणप्5/+ाा््प५:्प्््््तहतत तह... ;. ७८ 2 7“_+++++++ तन नत93-त-त33+त+ न पनननननन--नन-+-+म+«+-मकम«»»न में रदने चाका, ज़मींदारी में चसने बाका। ) | अधिछठान तत्‌« [अ्धि+-स्था + भनह] (४०) दांव वाला व्यचहार चक्र, प्रभाव चक्त, अ्रध्यशन, अब- . _ स्थान) स्थायी । अधिछित तत्‌० (गु०) स्थापित, नियुक्त! अधीत तब» (ु०) पढ़ा हुआ, पठित, शिक्धित -- ज्ित्‌* अध्ययन, पठन ॥--ी तू» अध्ययत- विशिष्ठ, . कृताध्ययच | तत्त्‌० (ए०) छात्र, विद्यार्थी | अधीन तत्‌* (गु०) वशौोमूत, श्ज्ञाकारी, सेबफ, आश्रित, चशतापन्न | --ता (गु०) दासत्व, पार- सन्थ्य, वर्शीभूत, अधीनत्व अधीर तत्‌० (५०) चन्नुढ, कातर, अल्थिर, श्रपण्डित, उताबलग, हंड़बड़िया | तत्‌० (ख्रौ०) बिदूयुत, चल्छु रा, सध्य नायिका का एक भेव्‌ । दोहा “वक्रयुक्ति पति सरों कष्टे मध्या घीरा भारि। सध्यः देह उराहनो वचन ध्यधोरा गादि ॥! चथ्ुठ खत्री +>ता ततू० (स्त्री०) घत्राहट चच्चुद्वाहर, उनावली, हड़बड़ी, चटपटी । [चंचछता । अधीरज्ञ तदू० (पु०) घबराहट, श्धघीरता, अधैय, झधीश तत्‌० (पु०) या भ्रधोस तदु० स्वामी, अभु, सालिक, ईश्वर 7--बर तत्‌० भण्डलेश्वर, चक्रवर्ती । [ऋष्यक्ष अधीश्वर तत्‌० (एु०) अधिपति, राजा, स्वामी पत्ति; अधुना त्तव्‌० (अ०) इस बेह, 'अब असी, दइदानीं, सम्धति |--तन (गुर) इृद्ानीस्तव, सास्प्रतिक, बतेसश्त समय में रढने वाला अश्ूरा दे० ।ग्रु०) अधत्रना, पूर्ण, असस्मत प्रसमाप्त ! अधेड़ दे (गु०) अ्रत्रवैवा, अधबूढ़', इसका प्रयोग प्रायः श्रधिकता से ल्षियों के लिये ही होता है । अधेन दे० (पु०) (अध्ययन का अप०) पढ़ना, अ्रध्यान । अचेला दे* (ए०) शाघा पैला, अ्रधपाई, पैसे का आधा [| अधेलो दे? (श्री०) आधा रुपया, अठन्नी, आठ आना। अचैेय सत्‌« (पु०) इवावा, अ्स्थिर, व्याकृद |-- चान्‌ तत्‌* (वि) झातुर, व्यप्र, रतायात्दा ! अचो नव» (7०) चीडे, तले, नरक +-गामी दद्‌० (चि०) अश्रवनति की ओर जाने द/्छा। झधोगत झरधोपत तद्‌० (स्री०) भवनत, नीचगामी ।-- तित्‌० अधोगमन, नरक प्राप्ति, ध्रध पतन । | कपड़ा । प्रश्चोतर देर (स्ी०) बस विशेष, पुक प्रकार का झधोधम तल» (पु) भ्रति नीच, पाजी, नीच से नीच | अजोमलुण तत्‌« (पु) भवनत सुस, नीचे धुत, अधि झ्ुप [ पद झथ्ोगायु करन डि०) अशमवत्ु, मस्तक्रिय, पढे ध्रधोम्मुवन बल्‌० (पु०) पाताल, बलि के रहने का स्थान । [छा नाम, मीचा शिर । ध्रथोमस्तक तद्‌० [(पु०) सूयंबश का ब्रिर्शक राजा प्रधात्षत तब" (4० भीकृष्प, नारायण: इन्दिय जस्य, ज्ञान को वश करते वाह, योगीरान, बासुरेव ( [ता (स्वी-) कह स्व, तश्वावघारझता | धाध्यत्त तत्‌० ( पु० ) स्वामी, प्रभ॒ मुण्य, प्रधान अध्यधन तद्‌० (५०) पाठ, पठन, पढना ! प्रध्यक्षर तव्‌० (5०) प्रणव, ऑो, औ्ोंकार । प्रध्ययलायथ तत० (पु०) सतक्ष, उच्म, धपाय; यत्र। आरपा, उस्साद, कमे, उतम काम काने की बत्कप्ठा | कर्मईढ्रता | तद॒० (वि०) इध्साही, काम के इसमता पूर्वेक्ष करने की उत्सुकता | अध्यणन तत्‌* (पु०) भोजन करने के बाद द्वी फिर भोजन करना, 'भ्रधिक परिणाम में खाता । अध्यात्म तत्‌० (गु*) भाषमज्ञान, श्राप्म-सैवन्धी, श्रात्म-विषयद्ध /--द्वेश तद्‌ ० (३०) रूपि, सुनि, थ्रा म दर्गक “--विद्या तद॒० (श्री5) अक्नविधा, आत्मतस्व॒ विषयक शास्त्र ---रति तव» (स्ली०) जो सदा भगवान्‌ की अराधना करते दे ॥-- सहु+ (पु०). श्रष्याप्मनिष्ठा, प्रारमाथिकता, ज्ञीयात्मा, परमात्मा । अ्रध्यापक तथ5 (पु०) पाठक, गुर इपाध्याय, शिक्षक, बेद शाखर पढ़ाने बाटा ।-ी दे" (स्री०) पढ़ाई मुदरिसी [ सिखाना, शिषा देना | झषध्यापत तत० (पु०) फ्राठ पद्माना, विद्यादान, झध्याय तव* (ब०) धकरण, पर्व, पाठ, सगे, परिच्छेद, घुरूक के भाग । [अधिदेष, श्राघ प । अझध्यारोप ठत्‌० (पु) मिध्या झाग्रड, मिष्या कक्छू, अ्रध्यारोहण च० (5०) भारोदण, चढ़ना । (३० ) घनंश अध्यारोही तत्‌* (पु०) >> ए् यथ्शएथपफयय। शणसत कस अरतोक्प-कर्क बे बला चहने बाला । अध्यास तत्‌० भागेप, अम, मूठ, एक वस्तु में दूसरी चस्त की कक्यना, निवास ।-॥ै--न्ति ++चि ठब० [यु०) कृक-निदास (नीन तवु० आयनत्य, कृताधिवेशन, उफविष्ट, बैठा इशा । अध्याहरण तत्‌० (प०) कए्पना करना; वितके करना । अध्याद्वार हत० (०) आई, पति के लिये शब्द हूँदना, वाक्य का श्र्थ पूरा करने के लिये लुछ श्र का भमुसन्‍्वान कहे अर्प सुधम करना। बाक्य पूर्ति के लिये पदयेमना करना | धध्यूपित तत्‌० (गु०) बसा हुश्रा, रहता हुमा ) अध्यूदा तद॒* (स्री०) विवादित! स्त्री, परियीता । धआध्येता तत्‌५ (पु०) बाज, शिष्य, पाठ | अध्येपणा तत्‌« (स्त्री०) याचना, माँगना, आदर घूवेक प्रार्थना, प्रश्न । शह्ुव तत्‌० (गुव) श्रनिरिचत, धणभदूयुर । अध्य तछ० (घु०) वाट, मार्ग, परप |«-ग तव« (पु०) पचिक, पन्‍्य। बरोड्टी, उष्ट, सूर्य खेचर, चूक विशेष ।--गा तद० (स्त्री ०)मागीरथी, गढ्ो, झानदवी (--गामी तव्‌० ( घु० ) प्रथि&, पन्‍्म, --जञा तदु० (स्त्री०) दृच् विशेष /--नीन तत्‌० (बु०) पचिक, पर्यटन, अमणकर्ता /-म्य तत्‌० (घु०) पथिक । अध्यर तत्‌० (पु०) याग, यज्ञ, बघुमेद, सावधान । अध्ययं, तद० (ए०) यहवेंदश, दोसकर्तता #िशेष | अध्वर्यु का कार्य यह है कि यश्मण्डप में मूमि के साप कर ढुँढ बनावे, यज्ञीय पात्र तैयार करे, जा कर समिघ और पाती छाबे, अप्नि प्रदीत करे, भौर यज्ञग्थ का ला कर उसको बलि दे और डह्ष समय परदपद्च छे कस्वायार्थ यठुवेद के मन्त्र पढ़ता जाय । [ ठमोरद्वित । अध्यान्त तत्‌० (पु०) इपदू अन्घकार, सन्प्याकाल, घन तव० (अ्र०) मिपेधार्थक भ्रव्यय । ना, नहीं, विचा, रदित । [ काल ) श्यनः ततद्‌० (पु०) शब्ट, धन्त, जननी, भन्‍्म, भायण्प आर्मश वव० (प०) अशरदितठ, पंटवारे में द्विस्पा पाने का अनधिकारी, जैसे -जन्मान्द, मूक, नपुपक, कुछटी, मूर् इत्यादि भाण पाते के अयोग्य दें | अन ध्यद्दियात ( र१ धन ध्यदिचात दे० (ए०) वैधज्य, रंडापा, विधवापन, सौसास्यनद्वित - [ प्रयोजन । आनदइच्छा तदू० (स्त्री०) बिना चाह, चाह नहीं, दिना धनइच्छित रद्‌० (पु) विचा चाह का; विचा प्रयोजन का, श्रमिष्ट नहीं । छतरइसत तदू० (पु०) छुरा, निकम्मा, व्यर्थ, निष्प्रयोजन । झनक दे (पु) नगारा, स्दम, चीच, छोटा । आनऊरीबव दे० (क्रि० वि०) प्राभः, लगभग । अनकहदा दे० (वि०) श्रकधित, जो कहा हुआ न हो ? छनख' दे० (१०) ईर्पा, दाइ, अ्रकस, जज्ञाव, कुढ़न, क्रोध, चैर, ह प, दोह । [ गाली। सन गार दे० (प०) क्रोधयुक्त गाली, क्रोध की प्रभखाना (क्रिया०) फ्रोध करना, चिढ़ना । ध्यनगढ़ द० (पु०) 'अनबना, अड्बम्न। अ्शिक्चित, प्राकृतिक, बिना बनाया छुआ |“ (०) देढ़ा, बाँशा, अनसीद्या (-+ी दे० (स्त्री०) वेठिकाने, बेसेल्ट, बे-सिर-पैर का, चेदआ॒ा, जैसे अ्रनगढ़ी बात । श्ानगणित तत्‌० (गु०) घहुत, श्रसंख्यात, अपार ।-- अलगणित तद्‌० या श्रवगिनती दे? (गु०) अधिक संख्यक । अनंगार तध्‌० (यु०) श्रागरशत्य, ग्रहरद्दित, ऋषि, मुनि, तपस्थी, वनबासी। श्यनगिन्तल दे० (वि०) शफार, असंखुय | शनगिना दे० (वि) अल्ैदय, विना गिमा हुआ । श्मझि तत्‌.० (घु०) शुति स्टघति विध्रित श्रश्निदोत्र- फर्महीन, निरपि, श्र्मि का अभाव, अप्ि चयन इद्धितत यज्ञ ध्यमघ तत्‌० [अन + अ्घ] (गु०) निष्पाप, निर्मल, पाप रहित, सुकृती, पुण्यचान, पवित्र, शुद्ध +-त सत्त्‌० (स्त्री०) झुन्दुर, अच्छा, गान का एक परिणाम । श्यनड्भ तत्‌० (ए०) छामदेव, मदन, मन्मथ | बद्मा के आदेश हे तारकाछुर पर विजय प्राप्त करने के छिये महादेव के पृष्ठ का घेमाएति होना आ्रावश्यक् था. परन्तु योगीराज सहादेव का विचाह सो हुआ दी नहीं था भौर वे विवाह करना भी नहीं चाहते थे, श्रतएव कामदेव पर बद भार सौंपा गया, उसने झपना काम आरस्म कर दिया। ) न्न्नलनि नल न न न न तन नर न लवनलनक-+++++++++++++++++२--०८०८ ८ मन जब मधादेव को यद्द धात्त सोलूम हुई, तब उन्होंने अपने क्रोघ से कामदेंच का जला डाला, तभी से कामदेव का नाम्त शर्म पड़ा। कामदेव दूसरे जन्म में भगवान्‌ कृष्ण का पुत्र हुआ, माम था प्रशुम्त, और इसकी छत्नी सायावती हुई। (गु०) शरीर रहित, पम्नहीव । (पु०) झाकाश, सतत । -भीम (ए०) उड्शीवा का अत्यन्त प्रसिद्ध राजा, [कइते हैं जयाज्माथ जी का मन्दिर इसी राजा ने बनवाया था । ११७४ खुष्टाचद में यह वहा राज्य अनन्त करता था । यह अत्यन्त पुण्यास्मा तथा यशस्वी था। | धअ्रनचाइत दे० (०) नहीं चाहा छुआ, -इष्कारहित्त, अनिब्छित । [ रुमाव, वैचाच्‌ । प्रनचित दे० (गु०) श्रवानक, एकाएल, अचीत, अ्रक- अनचीन्‍्हा दे ८ (वि०) अपरिधित, वेजान पहचान का | पनद्दीला तद्‌० (गु०) या अनक्िल्ला तबू" (ग्र॒०) विना छीन? हुआ, छिलका समेत, श्रनाड़ी । सानजान दे० (गु०) श्रनप्द्विचान, शनदीन्‍द्ा, श्रपरि- चित, भशातकुछशीन, निदु द्वि ।-- ((क्रि० बि०) ब्रिन जाने, बिना जाने बूसे, दिना जाने, नहीं जान के । [ व्पतिन्शक्ति-रहित । छझनजामा तदू० (यु०) मरु, बमरि, अरफल्ा, बिना शगा, अनजीचत तदू ० (गु०) प्राण रहित, रुत्तऊ, सु्दो, शव । रामामण में इसका अयेोग भाया है | यंथा।--- “झ्नज्ीबत सम चोौदद प्राणी ।?! खनठ दे० (स्री०) गाँठ, गिरह, एुंठ, विशद्धाचरण, विपरीत आचरण । श्नड्वान तत्‌० (पु०) बैल, सांड़ि, बलद, जू । झनत ठदू० (अन्यत्र का अप) (गु०) अन्यन्न, और ठाँध, दूसरी ठौर, अन्यस्थान, सीमा |. [अछक्त, गुप्त । श्नदेखा तदू० (गु०) अच्षट, नहीं देखा हुआ, '्रदश्य, अनधन दे० (पु०) घन घान्य, सम्पत्ति, ऐश्वर्स इ्रनन्‍्त तत्‌० (पु०) विष्णु, बछदेव, शेपनाग, अनस्त- जित्‌ नामक जैवाचायं, बासुकि, सिन्दुवार बृक्त, आ्राकाश, श्रश्धक, अवश्ख, (गु०) अन्त रहित; अनवधि, अशेष,असीस, अपर्याप्त, अपार | (9०) काशमीर का राजा, [यिह राजा संग्रामराज का पुत्र था; चाल्यदस्या दी से इसकी घीरता स्फुटित अनन्तर (्‌ 5 मनन +० >> लत ननननन सन नमन सनननत लिन नलतननतत ८5 होने ऋय गई यी। अनक युद्धों में इसने विजय श्राप्त किया था। अन्त में वह ख्री रह प्रेम से राजहार्य से उदा रीन हो गया या | यधरि सुचतुर मंत्री राज्य की उत्तम व्यवस्था करत थे, तथापि स्तरो के कहने से इसन अपने पुत्र &छश का झाशमीर का राजा बताया, राज्य पराछा बढ़ उच्छद्चल हो गया, «और पिता झे साथ अनुचित व्यवद्दार झरत लगा । मत्रियों को यद बात खटकने छूंगि अतपएुच पुन उन लोगों ने कौशल से घुद्ध अनन्त से राज़ पाट झपने हाथ में लेन के! कहा | राजा ने वैसा ही किपा [--गौर तल» (पु०) सद्गीत शाक्र सवा भे३ ।--चतुद्देशी रुच० (स्थो०) भाद् मास की शुक्ल चतुर्दशी, भ्रमम्त देव का घत विशेष | +-विजय (पु०) राजा युविप्टिः का शहू ।--घीय॑ (पु०) भपरिसीम पराक्रम |--्रत (पु०) साद शुक्ल चतुर्दशी के दिन नो उपयासत किया जाता है, श्रनस्‍्त देव का थत -सूल (पु०) मद विशेष, स्वनामण्यात छूता, औषध विशेष | अ्रनस्तर तत्‌» (गु०) अनगन्तरि, अव्यवद्यित, भनवकाश भष्मन्त समीप, पास ) (पु) पीछे, पास, परचात्‌) -जे तत्‌" (पु९) छत्रिया के गये में घ्राह्मण से इस्फ्स, भ्रधव छप्निय के वोये से वेश्या रस्रीके गये से वतपत्ध सन्‍्तान। अनधिकार तत्‌» (पृ०) अधिकार का न होना, प्रभु का धरसाद, विदशता। (द्ि०) अधिकार रद्दित, भयेग््य |-ही तत्‌* (वि०) जिसे अधिकार नहों। झनध्याय तत्‌% (पु०) घह दिन जिसमें शाख्रानुसार पढ़ने पढ़ाने की मनाई ड्ो। यथा 3,३०,८,१४, १३ तिधियाँ अनाध्याय फी हैं | धपनस्प तत्‌० (गु०) पक ही, जिसशे दूसरे का भरोसा नहीं, अभिन्न, भ्रत्य नहीं |-गति तत्‌» (पुल) श्रनन्य गतिक, शश्यस्ता-शुज़्प, घुकाक्षय +-चेता तत्‌» (१०) एअनिप्ट, अनन्थमना, पुझ- चित्त, पृ्तान [ता तद* (स्री) एकनिष्ठा झनपच दे० (पु०) धीण, क्रफा । प्रनपढ़ा तद (ग०) मूस्‍्दे, भक्त, विचा दीन, अशिषित | श्र ) धनमोल अनपत्य तत्‌* (गु०) नि सनन्‍तान, निर्वेश, पुश्नद्दीन, अपुत्र | अनपन्षप तव्‌० (गु०) निलम, झूदझ, लख्ादीन। झनपराध तत्‌+ (गुल) निर्दोष, निश्पतघ,, दोपशूल्य, शुद्ध, सच्चरित्र अनपाय ततव॒« (यु) अ्रनश्वर, अक्षय, अनाश्य, चिए' स्थाई (पु०) अलदुक्त | तत्‌० (पु) हिपिर, निश्रय, अविनश्वा, अप रहित ॥++ती त३्‌* (०) नाशरित, अचक्क, दृढू, शित्य | अनपेत्त लच्‌० (यु ) स्वाधीन, निरपेच! रिति सत्‌+ (पु०) अननुरुद्र, अमाम्य-कृत, वजित, अनि- घ्छिति] अनवन दऐ० (स्वी*) दिगाद, विरोध, फूट। [पुंटी। झनवनाथ तदू* (पु०) अमर, शिगाड, फूट, पेंठा- ध्रमविधा दे० (3०) रिना छेंद्र किया हुआ । अनघूर तदू" (१०) भसमर, घनमान, बुद्धिद्वीन, निर्बोध | अनवेधा तदू* (पु) भनछेद), ऋबेधा, श्रद्रिद्वित | अनवोल तद्‌» (पु*) चुपचाप, अबाक, भवोत्ष, अन- बोला, घुरका, यूगा, साफ़ नहीं बोलने बाला, अस्पष्टआादी, पशथ्च |--ना (वि०) गूँगा | अनेन्याहा ३० (पु०) भ्रविदादित, विनब्धाहा, कवारा । अमेभल तत्‌* (पु०) चुराई, चुदाई, घुए, सोदा, अमइल ६-ई सतत (सी) दुराई। [में रमन । श्रममिगमन तद्‌+ (4०) भ्रध्यान गमन, मयकूर स्थान अनभिन्न तन्‌- (गु०) अनजान, अज्ञान, मूर्स, ल्थिधि । - ता तल» (खो) धनमानपना, अनाडीपन | अनभिप्रेत तव" (वि०) श्रमिप्राय विरुद्ध, भमभिमत [ अनमिमत तत्‌० गु ) श्रसम्मत, मतविददध, भ्रनिष्ट। अनमभिव्यक्त तव्‌० (गु:) अस्पष्ट, भ्रच्यक्त, अप्रकाश | अनस्यस्त त्तत्‌5 (बु*) अ्नम्यासित, अपडित, अन- घोत। [ द्वार, वेमद्ावरा | अनम्यास तत्‌० (ए०) अरिक्षा, अनध्ययंन, भग्ययव- अनमना तद (गु ) सुम्ठ, उदास, घाबरा, सोदी | अ्रनन्न दत्‌» (गु०) बविनत, अपिनयी, उदण्ड ] अनगिल दे* (पु) बेमेल, वेजोड, टूटे फूटे, अटपट | चआनमोत्र धव्‌- (गुल) भमोल, घत्तम, चम्मूर॒य, बढ़िया | अनय (्‌ श्र ) अनखूयां -+-+तत+त+++तत__त्त_________ैन्‍ैस्‍ैत)ै€न_न_नै_ै न ज जजन- +_+न्‍न्‍न्‍कहवज...तह8._ पनय तत्‌० (पु ) च्यलन, विफ्द, भाग्य, अशुभ, | आनवधास तल्‌« (३) अ्रमनेयेग, चित्त की एकाग्रता दुर्नाति, पाप। [ बिगाड़, ऐडा ऐडी । असरख तद्‌० (३०) बिसस मिश्नों में अनबनाथ, फूट, अनरस्ता दे० (वे) दीमार, अनसन्व, रोगी [करीति । झनरीति तद्‌" (स्रौ०) कुचाछ, कुछद्व, अष्दरीति, अनर्गल तत्‌० (गु०) निर्मल, अवाध, अग्रत्तिहत, अ्तिवन्‍्धकू रहित, ओदक, स्वेच्छक, बरेत्रेक, आऔडइयंड] अनध्य तत्‌० (गु०) अमूल्य, अक्रेय, अत्युरक्ृप्ट | खनर्जित तत्‌* (यु ) अजुपाजेत, विना परिश्रम- छब्ध, बिना कथाया हुआ | पश्यनर्थ तत्‌० (गु०) बुगा, निप्फ ड़, अर्धदीत, अनुवित १ +-+के तथ॒ु« (गु०) बृथा, निष्फट, अप्रश्ेज्ञन, नि.थंक “--कारी (सि०) हानि करने बाला [ ध्यनहें तत्‌० (गु०) अजुपथुक्त, अयाग्य, कुगत्न | छझनत्त तत््‌० (9०) पूर्णंत! रहित, अम्ि, आप, बसुभेद, भेढा, पित्त |--पक्ष तत्‌" (छ०) पन्षि विशेष, यह पक्षी सर्वदा भाक्काश ही में बढ़ा करता है, जमीन पर कभी नहीं रहता, भ्रपने अंडे को बह आकाश से गिरा देता है। झओठढा पृथ्वी पर पहुँचने से पके ही फूट जाता हैं, और असमें से बच्चा निकल आता है, जो बसी समय से डड़ने लूग जाघा है | यधाः-- दोदा “खनलपत्त का चेहुआ, गिरेइ घरणि अरराय बहु भ्रढ्लीन थद्द छीन हैं, मिक्‍यो तासु के घाय ॥ +-विचारमाछा । +भ्रभा तद॒० (द्वी०) ज्योतिष्मत्ती नामक छूता विशेष, श्र की शिखा, दीसि ।-प्रिया तत्‌> (स्री०) प्न्ि-मायां, स्वादा |... [श्रमी; ड्योगी । पनलसत तत्‌० (गुल्‍) आहूस्य-विद्वीन, उक्त, परि- ध्यनद्प तत्‌० (गुर) अधिक, धहुविस्तार खनल्तेख्व तद्‌० (वि०) अगोचर, श्रदरय | ध्यतवकाश तत्‌० (ग़ु०) 'तचकाश रद्दित, निरवसर । अनवचद्य तत,० (सु०) अनिन्दित, सुन्दर; स्वच्छ, सान्‍्य- सान, संार्त ।-ाडु तत० (छ०) सुन्दर झड़ खुडौल, शरीर । [ सूपण विशेष । झनवद दे० (३०) चुछा, विद्या, सतियों के पैर का का अभाव, अग्रणिघान, चित्त का अनावेश, #रसनो- येगी, अनाविष्ट |--ता तव्‌० ( छु० ) सनायेग शूल्यता, प्रसाद, श्रनचहितता, असावधानता । * अनचेरत तद्‌० (गु> ) निरस्तर, अजख्र, सर्वेदा, अविरत, नित्य, लगातार, प्रतिदिन | अनचसर तत्‌० ( घु० ) कुसम्य, असमय, अनवकाश । अनवस्था तव॒० ( ख्री० ) छुदंशा, अ्रवाधा, श्रवध्या- रहित, स्थित्यभाव, दरिद्रता, भ्रस्यिर, दुश्चस्था। तके विशेष : नेयायिकों के मत से पक्ष प्रकार का दोप, यधा--महुष्य किससे उत्पन्न हुए, इस अश्न का उच्तर दिया गया कि मनु से, सन्ु का से उत्पन्न हुए, बह्मा छे, ब्रक्ष। कहाँ से उत्पन्न हुए, विष्णु से, इसी श्रकार कगातार प्रश्न करते जाने से कुछ निर्णेय नहीं हो सकता। निर्णध होना तो दूर रहा, रनों का इत्तर देना ही कठिन हो जायगा | इसीके अ्रनवस्था दोष कहते हैं। +न तत्‌० ( पु०) वायु, अस्थायित्व, कुस्था- यित्वा, कुब्यवद्वार, श्वस्थिति-शूल्य, भ्रस्थिर । +-स्थित तव्‌० (यु०) अध्विर, चश्चुछ ।--स्थितत तल» (ख्री ) वासश्द्वित, अचस्थानाभाष, अस्थि* सता +--+ स्थितचित्च तदू० (यु०) उन्‍्माद, पायल, चाम्चल्य,अ्रनमिनिविष्ठ ! ध्यवशन तत्‌० (छु०) अनादार, उपवास, अभोजन | बत तव्‌० (गु० ) उपवास करते करते शरीर छोड़ देना | आनश्वर तत्‌० (गु०) अविनाशी, नित्य, सनातन | श्ानसखरी दे० ( खो० ) पकीरसाई निखरी । ध्यनसिखा दे० (गु० ) अनपढ़ा, मूर्ख, श्रजान, अशिक्तित अनछुन रुदू० ( गु० ) आनाकानी, असामित, न खुना हुआ ।--ी (खत्री०) न सुनी हुई । अनखूया तच्‌० (खी०) असूया रहित, कलछु, एक ऋषि कन्या ! महर्षि अतन्नि से यद्द ब्याही गई थी, दक्ष प्रलापत्ति की कन्या थी श्रौर इसकी साता का नाम अखूति घा | महाऋबि कालिदा प्त कृत शहुन्तछा साटक में भी एक अनसूया का भाम आता है, जो अनहद नाद ( शछ ) समर कल मल /4 33 36 7 मनी की तरस की घर अल यु अनाय उसी नाटक की नायिका शकुम्तढा की खस्ी का | भनादूर व्‌० ( पु० ) अपमान, श्रसम्मान, श्रवज्ञा, नाम है । खनहद्‌ नाद तद्‌० (धु०) येग का एक साधन । वह शब्द जो छान यंद करने पर भी भीतर सुनाई पडता हैं । अबदित तद्‌० (पु०) स्नदरद्वित, बैरी, द्वेपी, शत्रु, डरा करने बाला, चुरा, ब॒राह । खझनदोना दे० (क्रि०) भ्रधम्मव, अचरज, भनहोनी, सम्भद पर नहीं | अनदोनी दे० (स्वी०) भसम्माविता, अलौकिक । अन्दृाप, (क्रि०) नद॒वाएु, स्नान कराएु, नइछाण०, स्नान | अम्दवीरो दे० (स्रोौ०) गरमी ऋतु की फुरिसर्या, अमदौर । शनाकारण तदू० ( पु० ) व्यू, णेह्टी, निरकारण, कारणाभाघष, निर्निमित्त । अनागत तत्‌० (गु०) भ्रनुउम्थित, अनायात, भ्ज्ञात, भविष्यव्‌, धागे द्ोन घाल्ा । अनाप्रात तत्‌० (गु०) बिना धृघा, भ्राधाण नहीं किया, भरस्णष्ट, अभिनव, कारा, नया । झनायचार तत्‌० (५० ) कुचाल, कुरीति, श्रशुचि, कदाचार, श॒द्धाचार-द्वीन, श्रुत्ति-सृत्ति विरूद्ध कप्तोंचार १०- तत्‌ू० ( घु० ) कदचारी, अशुू द्वाचारी अनाज तदू० (पु०) घान्य, शस्‍्य, नाज, गछा । छनाड़ी देण (गु०) मे, प्रचेतन, निर्दाध ।--प्न तदू० (१०) घू्पता निशु द्धि, अनभिक्षता । अनाद्य तव्‌० (यु) दरिद, दु खी । भ्रनातप तत्‌ (पु०) छाया, घर्मा गाव, ताप रदिता जाभ् तत्‌० (गु०) छुन्नरहित । _ झनात्मवान्‌ तत्‌० (१०) अवशीमूतमता, जो अपने मन के। घरा नहीं कर सकता । अनात्म्य तत० (गु) भारम-मभिन्न, पर । ध्यतायथ तत* (गु० ) स्वामी दीन, दीन, दु सखी, अस्दामिक, सद्दायह्टीन [-- (ख्री०) ल्‍ विधवा, अभ्रसदाया, रक्षक २ट्वित जन तत्‌« (स््री०) श्रनाध्निता, विधवा, पतिह्टीना, दु खिनी। झनाधाक्षय तत्‌० (पु०) य्तीमखाना अनाथों के रहने का स्पान मुद्ृताज खाना | अवद्देलन ।--रणीय (वि०) निन्य, माननीय ) घनादि तत० (गु० ) झ्रादिनद्वित उत्पत्ति-हीन, स्वयम्भू, निस्य ब्ह्गा, बहुत दिनों से ज्ञो शिष्ट- परम्परा से चछा आता हो, बहुत दिनों से सज्जनों में जिसका परस्पर व्यवद्ार द्वोत्ा चढां आता हो ध्यनादिए तत्‌० (गु०) चनलुज्ञात, बिना चाज्ञा का | घ्यनादुत तत० (गु०) भ्रपमानित | अनाचन्त, [ भव + धादि + भ्रन्त ] तत्‌० (यु० ) नित्य, भ्रनन्‍्त, सनातन, सर्वकाल्लीन, शाश्वत, घह्म,थ्नादि । | विशेष अनन्नाम तत्‌० ( पुृ० ) श्रनायास, चआानारस, फल शनाप्त तत्‌» (गु*) श्रन्िपुण, अ्रपारक, अ्विश्वासी । ध्रनामऊ तत्‌० (६०) रोगविरोष, अशरोग, बबाधीर श्मनामय तत्‌० (व) 'आरोग्य, नीरोग्य, घुष्ट, श्रोण, स्वस्थता | खनामा तत्‌० (प०) कनिष्टा अंगुज्ञी के ऊपर वाली अंगुली, अनामिकगुल्ति, अनामिका | अनायक तच5 (गु) स्वामिन॒हित, रठाद्दीन । झनायत तत्‌» (गु०) अविल्तृत, अप्रशस्त । अनायत्त तव्‌० (गु०) अनधीन, अवशीमूत, वच्छझ्टूछ | ध्यनायासते तत्‌० (पु०) अरप परिश्रम, भषलेश, भय, सहज, सौक्य॑, सुकारव | इ्यनार तन्‌« (पु०) छृष्ठ विशेष, शनारफर, दाडिम | अनारम्म तत्‌० (पु०) आरमस्पासाव, बिना आरम्भ किया हुआ | अनारोाग्य तद्‌० (पु०) अस्व्यता, रुग्णावस्था | अनाये तद॒5 (गु०) श्रश्रेष्ठ, अश्रधान, भ्रमाढी, नीच, ज्ञातिविशेष । झायेजाति के अ्रसिरिक्त अमान्य अनान्य जातियाँ अनाये या आरयेतर शब्द से विद्यात हैं| झाये से मिनकाः भाचार ब्यवद्वार नीति धर्म आदि सें विशेष था, थे अनाये कहे जाते ये । ऋग्वेद आदि मान्यतम प्रन्‍्थों में दस्यु या डास रब्दे झनाय॑ झे पर्याय में आते हैं (--कर्मा तव्‌० (पु०) थार्यां से विरुद्ध कर्स करने याद, निन्दिताचार, गद्ित -छ्ुष्ट तर० (ग्र* )-- अनायों हे कम, धनाये-सेवित किया -हैश अनावश्यक (्‌ तत्‌» (पु०) अचायों का चास-स्थान, जहाँ चातुर्वेण्यं की व्यवस्था न दो । झनावश्यक्र॒ तच्‌० (वि) पश्रप्रयोजनीय, वेकाम का। --ता (स्त्री) अप्रयोजनीयता | अनाधिल तत्‌ (गु०) निर्मेछ, परिष्कार, स्वच्छ, साफ, खुधरा, आविलता यानी मेल रदित। . [ सूखा। अतावूह्टि तत्‌* (ख्री०) अवर्षण, वर्षाभाव, जछ कष्ट, प्रनाहार तत्‌० (५०) भूखा, उपचास, छंघन ये तत्‌० (पु०) अ्रश्ुक, उपवासी, अभोजन | घ्नाह्वूत तत्‌० (गु०) अनिमन्त्रित, अक्ृताह्वान, नहीं चुल्टाया हुआ श्निक्रेता तत्‌० (गु०) अनिक्तेतन, शूह्प, सिर्वास, विना घर का ! अनिगीर्ण तत्‌० (१०) अचुक्त, श्रकथित शनित्य त्तू० (गु०) विनाशी, झूठा, क्षणिक, अस्थायी, नश्वर, ध्वंसशाली |-ता सखू० (स्वी०) श्रचिरस्थायिता, छणविष्व॑ंस्िता |-- तावादी तत्‌० (ए०) जो किली पदार्थ को चिर- स्थायी नहीं मानते, बौद्ध विशेष |--सम तस्‌* (3०) न्यायशासत्र कथित तर्क न करके केवल उदाहरण द्वारा तक करना । खचिन्दित तब» (य्ु०) श्रग्ित, अच्म ) अनिन्‍्दूनीय था शनिन्‍्य तत्‌ (गु०) अतितन्दित। शअमिमितक तत्त्‌० (गु०) निष्कारण, अहेतुक, विना कारण । अनिमिप तत्‌ (घ०) देवता, मत्स्य। (ग्रु०) निमिष- शनन्‍्य |-आचाय त्तत्‌० (9०) देवगुरु-बुदवस्पति । झतियत तत० (गु०) अस्थायी; शनित्य, अ्रचिरस्घायी । अनियन्तरित तव्‌० (गु०) अनिवारिद, . अशासत, स्वेच्छाचारी १ नियम तत्‌5 (०) नियमासाव, अविश्वय |--व्ति तत्‌० (गु०) श्रनिर्धारित, अनियमचद्ध । अनिरुद्ध तत्‌० (बि०) बेरोक, वाघा रहित । (छ०) श्री कृष्ण के पीच्र का नाम । अनिर्णय तव्‌० (०) द्विविधा, सन्‍्देह, संशय, दो बातों में से किसी का ठीक नहीं होना, अनिश्चय, अनवधारण । घनिर्णीत वत्‌० (गु०) श्रनिर्धारित, अनिर्चित | निरालय, ग्रृह- 44 ) ः पनिष्ठुर अनिर्दिए तत््‌० (गु०) अनिश्चित, अजुद्देशित ध्निर्देश्य तव॒० (वि०) जिसके बारे में कुछ ढोक डीक बतलाया न जा सके । अनिलेजित तत्‌० (पु०) अपरिपक बुद्धि, श्रनालोचित, अ्विवेचित, अविचारित, ऊहापोह, शानशन्य । खनिरवेचनीय तत्‌० (गु०) अवर्यनीय, अवाच्य, वचन के अगम्य, वर्णनारद्ित, अलाध्य चणन, उत्तम, अत्युत्तम | अनित्त तद्‌० (4०) (१) बाय, पवन, वसुविशेष, बतास, देवता सिशेष | यह श्रदिति के गे से उत्पन्न हुए हैं, इन्द्र के छोटे भाई हैं, इनके पिता का नाम कश्यप है, भीम और हचचुमान इनके पुश्नें का नास है| (२) घाययु ४७६ उनचास्र हैं, इनका रथ ३१०० सी और कभी कसी हज़ाई घोड़ों से खींचा जाता है। शन्यान्य देवताओं के समान बायु को भी चज्ञ में भाग विया जाता है । दमयन्‍्ती के सत्तीश्य का साक्ष्य इन्होंने दिया था । त्वष्ठा के ये जमाता हैं। (३) शरीर में पचि बायु होते हैं जिनके नाम में हैं, प्राण, अपान, . समान, उद्धान और ब्यान ।--प्लक तत्‌" (छु०) विभीतक चुछ, बहेड़े फा बृक्ष ७--सख तत्‌० (ए०) अमि, भ्रनछ, शआराय ।नत्मज ततु» (०) बायुघुच्र, हनुमान, भीसलेन । >ासय तत्‌० (३०) बातरोग, अजीरण ।--नशी तब" (४०) वायु भक्षण, के द्वारा जीवत धारण करने वाला, सपस्‍वी, सर्प, त्त विशेष । अनिवारित तत्‌० (गु०) श्रप्रतिवेधित, चाधा-रहित, वारण-शून्य । आनियाय तद्‌० (शु०) अवारणीय, दुरह्यय, वारण करने के श्रयाग्य, श्रवाष्य, कठिन, हुज्जंय । छ्रतिश तद्‌० (अ०) निरन्तर, सतत; सर्वदा । (गु०) रात्रि का अ्रमाव | शनिश्चित तत्‌० (वि) जिसका निश्चय न हो, अनियत | झआमिए्0ठ तत्‌० (यु०) अनभिलपित, श्रवाश्छित, हानि, अ्रपकार, छुरा |-कर (गु?) अ्रपकारक, अट्वितकर | अनिष्छुर तब" (गु०) अनिर्दंय, सरलचित्त । अबारित, शक पा०७---ड४ ध्निष्णात छतिष्णात न्व्‌० (पु०) अप्रवीण, भ्रक्ती, अपरार | धनी तत्‌० (१०) तीछा, पैना, नोक, तीएषणधार, अणछी ] छानोक (सखा०) सेना, भीड़, कटकऊ, सैन्य, याद्धा, युद ।-स्थ तन्‌० (१०) सेनारचऊ, हस्टिपक, गाठाछक, विन्द अगीकिनों तव्‌३ (स्त्रो०) अदौदिणां सेना कादेशाश, पद्निदी । [ अद्याचार | ध्गीति तत्‌० (द्वौ०) कुचाछ, अन्याय, दुर्नाति, झतरौद्वग तद॒० (पु०) अतुश्य, अस्तमान, बराबर नहीं, चेनोड । घ्यनीण तद० या अनीस तदूु* (गुट) अनधिझा, अस्वामी, ईश्वर नहीं, जीव, स्थामी-रहित, जो किसी हे मी ईश्यर न माने । झनोीरयर तत्‌० (गु०) ईश्वा भिन्न, नाध्तिक)--वाद तत्‌ (पु०) नास्तिक, जि सस में इंश्वर न माना गया हो, चाबा |--वादो ठत्‌% (३०) देव- निम्द 5, नात्तिक, भमक्त | अनीद तधु० (गुल) प्राट्खी, दीटा, घोदा, निश्चेष्ट, मिज्लाम ।-- (स्‍प्री०) भनिष्छा, उदासी +त्ता झत्ठु तर* (उपसग) पाछे, परचाव, सद, साहश्य; छचण, पीप्सा, इत्यम्भाव, भाण, दीन, झ्रावास, समीप, 'अपरिषादो, अजुसार, अघोन, कंणा, अत्यःत छोटा,मद्दीन, लघुतम, कम, थोडा ।-- कथन तद० (पु०) कइने फे दाद कथन, पश्चात्‌ कथन, बारमस्शर कथन, आपस की बात चीत, किदी के अनुसार था अनुकूच कहना, कट्दी हुई झात के कि से ककना |-क्रम्या तत्‌० (मस्री ) दया, रृपा, ऋरुणा, स्नेह, भनुयद ॥--करम्यित छत" (यु) भलुग्राइ, कारणि$, येगशान्‌ ]- करम्प्प तत्‌« (गुट) अनुप्राद्य, कृगरपश्न |-- करण तत्‌० (व०) अनुरूप, बठास, क्‍ करण, प्रतरूत कण, नकल । प्रमुकरण (पु ) नश्छ, अनुरूप ।-य (विठ) नकड काने ये रय ) अलत्ुकर्षण तत्‌5 (पु०) पांच, रान, घपीट, आकर्षण ] झत्ुकूज सतत (पु०) सहाय, सहकारी, अलुप्राहक, द्िहझर, भसग्र) (१०) पढठिसेद, काव्य के जायकों में से पुक नायक | यधा+- ( २६ ) ..08ह8हऑ...0..0...........--त>त+_++3++++++++++++++++++++“++5+5 घत्रुब्क्रित दोदा ४पमिज्ञनारी सन्मुष्व सदा जिमुप चिरानी वाम । नायऊ छा अनुकूल है क्यों सीता को राम व? +-कवरिदेव --+ता लत" (छी०) सहाय, प्रानुडूस्य । अनुक्त तव्‌« (पु ) ग्रकथित, दृष्शत्त | [ आलुपर्दी | अमन्लकम तर० (पु ) पर्पिटी, रीतिभाति, यवाक्र+, अशुकमणिका तत्‌र (श्ली०) ऋत्ानुपार, प्रसन्‍्ध, सू दीपत्र, निधण्ड, भूमिका, प्रे्यो का मुखइन्‍्ध, आमातव | अनुक्राण तत्‌» (३०) कृपा, दया, अनुफ्रपा, स्नेह । अनुत्तण ठत्‌» (१०) सर्चदा, खदा, नित्य, स्वर्ण, सत्र समय, सब घदों [ अन्चुवाल्ञ तद्‌० (पु ) साई, खादी, नाप | अगुग नव ० ((०) पश्वादुृगामि, सेवरु, दास, भत्य अशुचर, पोछ चक्षने वाला, श्राज्षायारी, झनुपार चटने बाला | [हगस। अमुगत नदू + (पु०) आ्राध्रित, शरणा गत, पीछे घरने- अन्भुगतार्थ तब्‌० (बरि०) प्रा० समान अर्थ वाला | अडुगमन तब्‌० (पु) पीछे ज्ञाना, पश्चादुगप्रन, सहगमन | प्नुगामी त३० (पु०) साथी, अनुचर्दी, सड्चचर, सेघरू। अच्छुगुण तत्‌० (पु) फूछ प्रसार का काष्यालदुर जिपमें किसी ब'्ठु का गुण कसी वस्तु हे योग से दना कर दिवाया जाय] अजुशृद्दीव त१० (गु )उपश्त, प्रतिपालित, भ्राश्वासित) अलुप्रदद नव॒० (पु ) प्रसद्रता, दया, करुणा, दु ख दूर करने की इच्छा। अनुप्राह् तु (पु०) दयारातू-क्रुणान्वित अनुचर त्त्‌० (पु०) सह्ी, दास, सइचचा, साथी । अनुुत्चित तव॒+ (गु-) भ्रयोग्य, अनुपयुक्ति, अनरीत । अच्चुन्द्धुत तत्‌« (गुण) उच्नति ३द्वित, घहुत उँचा नहीं । अमुझ तत्‌ (पु०) कनिष्ठ, छु्टरा भाई, छोटा भाई, रूघुम्राता । अनुज्ञीयोीं तत्‌* (गु०) पराधीम, भराध्रित, परतनस्व (पु०) दास, सेवक | [इच्य । झअनुष्क्रित ठव्‌» (गु*) भ्रविद्वत, भलक्त, महीं घोड़ा घतुज्षा (्‌ झ्मुज्ञा ततु० (स्त्रीो०) आज्ञा, आदेश, अनुमति, चित/चनी । आझमुजझ्ञाव तत्‌० (पु०) थ्राज्ञा प्राप्त । [ पछताने चाला । अन्नतप्त तत्‌ू० (गु०) अनुशोची, पश्चत्ताप विशिष्ठ, झजचुताप तत्‌5 (१०) खेद, पश्ञात्ताप, अजुशोचन | ++>्ति ततू० (पु०) दुःखित, भ्रनुशोचक । खतुतारा ततू० (गस्वो०) उपग्रह. उपतारा [ अनुस्कर॒डा तत्‌+5 (ख्री० निरुद्देग, उत्कण्दा रहित । अद्ुत्तर तत्‌० (गु०) प्रस्युत्तद्ीन, उत्तर नहीं, मौनी, झुपझा, भष्ठ, स्थिर, अथः दत्तिण दिशा स्वामी । अनुदूय तच्‌० (पु०) उदय के एपैछार; उदय रहित, मोर,सचेरा, बिहान | [ नहीं, अनुदार । अनुदास नव्‌० (प०) स्वर विशेष, नीच स्वर, उसमे अचछुदार तत्‌५ (8०) असतिशय, दाता नहीं, झदाता, कृग्ण, अमान, झत्री के चशबर्ती अनुदिन तव्‌० (श्र०) प्रतिदिन, प्रत्यह, नित्य, दिन दिन, सदा । [ पन, कश्रारपस । अनुद्दगाह तर+ (१०) अ्रविद्ाह, * जुढ़ाबस्ा, कुरार- घनुद्विन तत्‌ (गु० निरिचन्त, उद्दगरद्धित, स्वस्थ, स्थिर । | निश्चिल्त । अनुद्वेग तत्‌० (यु०) उद्देश-रद्धित, ब्याकुछ नहीं, धनुद्यप्ी रत्‌* (यु) श्रातसी, खुल । अन्ुनय तत््‌० (ए०) नश्न, केस ठ, बितय, स्तव, स्तुति | अनुनाद तच्‌5 (१०) भ्रतिध्वनि, प्रतिशब्द अख्भुना सिक्र तव्‌० (गु०) न्ासिका संशन्‍्दी। (यु) सानुनासिछझ,. श्रजुनासिक वर्ण, यया-न्ड ल्‌ णुत्रख्‌। झत्त॒प तब (यु ) अ्चुस्म, अत॒ुल्य, अपूर्त । झतुतकारो तत्‌० पु०) अद्विवघारी, अनुपकारक | ध्नुए्म हत्‌० 'सु०) अनु र, उत्तम, उग्मा रहित । खनुपफ्सेर तत्‌० (ग्रु०) प्रसदशा, असम, विषत्र | श्रजुपसुक्त तच्‌५ (पु०) अ्युक्त, अयेग्य, अचुवित; अ्रन्याय | छत्तुपयाग तत्‌० (पृ) ब्यवद्वार का अमात, काम में न छातना, दु्यवहार ।--ी (पु०) चेक्ाम, व्यर्थ घनुपल सत्‌० (पु) पत्र क्वा साठर्ब्ा हिस्सा, काज विशेष, संकेण्ड । झनुपतल्नब्ध चत्‌० (गु5) थत्राक्ष | २७ ) ध्यनुमती अनुपस्थित तत्‌० (गृ०) डपस्थिति+हिन, उपस्यित नहीं, गैरहा जुरी ।-- तर्‌० (झऔी०) सरदा क्री, अचियमान्ता । अनुपात तत्‌० (ए०) सम, समान भाव, समान रूप से गिरन, त्रेराशिक, वरादर सम्पन्ध। अच्पानक ततव्‌० (पु०) महापातकू के समान पाप, श्रह्मइत्या आदि बड़े पापों के समान पाप | अनुपान तत्‌० (पु०) पथ्य, औपध का संयम) श्रौपच के साथ सेवन करने योग्य पदार्थ । घअत्ञुपाय तत्‌० (गु०) उपायहीन, नसिरवलम्ब, निराध्रप । [ होता, देना । अनुधाशन त्तत्‌० (पु०) खाना । (क्रि०) भक्षण करना, अनुधास तत्‌5 (पु०) यमक पद*व्रिन्यास, काव्य का अन्‍्छूतर विशेष, समान वर्ण-विन्य'स, मित्राक्तर योजना । केवल्न बर्ण की सदशता द्वोने से अनुभास अल्टक्लार माना जाता है | यह शब्दाल्लड्ूार है । इसझे पाँच भेद है, छेकालुप्रास, बुत्याजुप्र/स्न, शृत्याब्ुगस, छाटाजुप्रार, और अन्त्यानुभ्ात। विपय की कोमतटता लथा क्ढोरता फे अज्जुरोध से तत्सम वर्णा छे अश्गेष होने के कारण इस अततछुधर का नाम छुप्रास पड़ा है । अखमुवग्ध तत॒० (पु०) मित्र, सुहद, सम्पन्ध, विनश्वर, मुख्याचुयापी, शिश्षु प्रकृति का अनुवर्तन, धन्घ, आरम्भ, लेश | अज्ुभव तव5 (४०) ज्ञान, बोष, श्रतुमान, यथा ज्ञान, विचा7, सोचना, सनकना, डपलछब्धि 7--ी तलू० (वि०) अचुभव रखने बाला । अन्भुमाव तत० (पु०) दढ, अनुमान, निश्चय, महिमा, बढ़ाई, भाव का सूबक,प्रभाव, सजन के ज्ञान का निश्चय 4 अच्चुभूत तल ( गु०) बीती, मन से जाना गया, अलुर अत्र केया हुआ, विचार किय' हुआ, प्रतीति किया डुश्ना, निशिचित [ सहमत, एक मत खग्च॒ुमत तव (प०) सम्मत, स्वीकृत, शम्रीकृत, अग्रेजा, अनुमति तर० (स्टी०) चलुज्ञा, सम्मति, कराहीच अन्द्रयुक्त पूर्णिमा ? अचुमती नत्‌० (प्त्री ) समता, अजुगामिनी । अमुमरण (्‌ आगुमरण तत्‌० (पु०) एक सद्ग मरण, सहमरण, पद्मात्‌ मरण, सनी । [निर्णय करना, तके, भनुभव, बोध । अनुमान तत्‌० (१5५) अटकष्ण, विचार, हेतु के द्वारा आअलन्ुमापक्र तत्‌० (पु०) निर्यायक, अजुमान का हेतु, निश्चय का कारण | झतुमेय तत्‌० (पु०) श्रतुमान करने येग्य | अनुमेद्न तत्‌» (पु०) श्रामेद करण, सन्तेष प्र्मश, दूसरे के सुस॒ से सुख, आनन्द युक्त सम्मति, प्रशुक्ति, प्रदान, प्रसद्नता पूवेक स्वीकार । [ रिदित । अमुमेदित तब्‌० (यु०) श्रनुमत, व्यह्वादित, आन- अझुयायी तत्‌० (गु०) सब्श, अलुवर्ती, भनुगामी, पंश्चाद्गामी, श्रनुसारी । धनुयेग तत्‌० (पु०) ताइना, धमछी, धुड़की, तिर* सकता, थ्राफ्षेप, प्रश्न जिज्ञासा, बिन्‍्दा, शिक्षा, इपदेश, प्रवोध, ब्द्मापन ।--कारी तत्‌» (9०) तिरम्कार, थ्राषेचक, प्रश्न कार ।-- तत्‌० (पु०)निन्दित, तिरस्कृत । पलुयेज्र तत्‌० (पु०) अनुयेगकारी, धपदेशक । प्रमुयाजन तद्‌० (पु०) प्रश्न, जिज्ञासा, पूछ पाँछू । 'अज्ञुयोज्य तत्‌० (गु०) अलु॒येगाहं, चाज्ञाष्य, निदा येग्य] ध्रनुसक्त तत्‌० (५०) प्रेमी, 'यस्यन्त लीन, झासक्त, रत + अनुरत दे० (गु०) भासक्त क्षीन । आ्रनुराग तत्‌० (१०) प्रीति, स्नेद, ममता, 'आसक्ति, रति, प्रशंसा, चोडी छाछी ।--ो तत्‌« (०) अनुरागयुक्त, भनुरक्त । प्रतुराधा तत्‌* (स्धी०) नहश्र विशेष, यह सत्तरहवाँ सदत्र, है, इसकी तीन ताराएँ हैं, इसका स्पान शृश्चिकराशि का मुख है। अनुरुप तत्‌* (गु०) सच्श, तुएय, पुकसा, भनुद्दार। अत्ुरोध तर (पु) अपेदा, बपरोघ, अजुवतेन, पचपात, माफ्कि । प्रदुलाप सतत» (पु०) पुनः पुन कचन, मुद्द' । अमुलिप्त तत्‌० (गु०) अभिषित्त, लि दिग्ध | पनुकेप तत्‌* (पु०) छीपना, भल्‍लेप, उवटन, पोतन >-नें तत्‌* (पु०) शरीर में सुगम्धित प्रष्य लगाना है तत्‌% (दुर) धकलेप । झनतुलजोम तव* (गुण) सीधा, कम से, पयाक्रम, अवि- रे ) अनुसग्धान ब्येम, जाति विशेष 7-- ज तत्‌० (ध्ु०) ब्राह्मण के और्स और कप्रिय के गर्भ से उत्पन्न सन्‍्तान । अनुलोमन तत्‌० (पु०) दस्त लाने वाली वद दवा जो पेट में जदी गोटों को गिरा दे। कब्जियत दूर करने वाल्टी दवा । अनुचततेन तत्‌० (पु०) अनुसार चलन | अल्ु॒ुवरत्ती तत्‌० (वि०) अनुयायी । अशन्लुवृत्ि तत्‌० (खी०) श्पजीविक्ा, सेवा मार्गे । अच्लुवाऊ तत्‌* (पु०) ग्रन्धविभाग, प्रन्यावयव । अनुवाद तत्‌० (पु०) मापान्तर करना, निन्‍्द्रा, भ्रप- याद, वार बार कहना कक तत» (घुए) भावा- न्तर करने वाला |-->्ति तत्‌० (वि०) अनूदित, अनुवाद किया हुआा + प्रमुवेदना तव्‌« (स्त्री०) सहानुभूति, समवेदना | घनुशय तत्‌० (पु०) पश्चात्ताप, श्रनुताप, जिर्घांसा, द्वेष ।--ी तत्‌० (३०) परचात्तापी, रोगविशेष, चैरी । प्रद्ुशासक चत्‌* (पु०) शासन करने वाला । अनुशासन तद्‌० (पु०) श्रादेश, भ्राज्ञा, महाभारत का एक पर्च । पम्॒शास्ता तत» (पु०) शिक्षक, उपदेष्टा, भमुशासक | पनुशीलन तद्‌० (घु०) भारदोढन, पुन पुनः अभ्यास, मनन । पज्ञणोक उत्‌० (९०) पश्चात्ताप, खेद । अनुशोचन तत्‌० (पु०) पश्चाचाप करना। अनुपड्ठ तत्‌* (पु०) मिलन, दया, सम्बन्ध, प्रयय । अजु॒प्दुप्‌ व्‌ +ष्दु्म]] तत्‌* (६०) छुन्द विशेष, चार पाद का यद्द छन्द द्ोता है। पक पाद में ८ भाठ अध्षर होने हैं । सस्वती | अद्ुछान [अनु + स्पा + भनद] तत्‌« (१०) श्रारम्म, उपक्रम, सूचना, काये, ध्राचरण ।--शरीर तत्‌० (१०) लिड देद, आधदेद । [ आाचरित। अजुछित [भ+स्था+क्त] तर (गु०) भारम्प अडुप्ठेय [ श्रमु +स्था+य ] तत्‌० ( गु० ) इपक्रान्त, कर्मारच्च, किया जाने बाला, करने येग्य ॥ अन्लुसायान [ अ्रदु +सं+ घा + धनटू ] तत्‌० (पु०) अख्वेपण, चेष्टा, सन्‍्धान करण, स्वोहना नी सत्‌० (पु०) अनुसन्धानझारी, अनेक विषयों का अन्वेण करने वाला । घनुसणय्श (्‌ २६ ) घन्तराय का तू +त-त--तत_तक्‍..__+____नह__लाञीञञञब"्न्‍0..........0.त..... अनुसरण [ अनु + छू + अनद | तत्‌० ( घ० ) शनु- चतंन, पश्चाद्समन, अलुद्दार । अतन्तुसरता ( क्रि० ) संप चलना, पीछे जाना | असुसराहि ( क्रि० ) अ्रतुगमन करते हैं, पीछे चलते हैं, अजुसार चल्ते हैं । [ अ्रज्वुवर्तव । अनुसार [ ्रनू+ रू + घन ] तत्‌० ( घु०) अनुरूप, घतुखूत्न [ अजु + सूच + अनट| तत० (पु०) विचार, ध्यान ।--ा ततू० (स्त्री०) भ्रान्दोलन, सुचिस्ता, अजुष्दान । [बर्ण । अनुस्वार [अ्रत्ु+ सघन] तत्‌० (घु०) पुकु बिन्दु घनुहार [ प्रनु+ह+घज्‌ ) तत्‌० ( पु०) साइश्य अलुकरण | [ श्राद। अनुहाय [ अजु + ह+ ध्यण्‌ ] तत्‌« (प०) मासिक झनूठा तत० (गु०) अपूर्व, चया, निराला ।--पन (छ०) श्रनौखापन, विचित्रता । खनूढा [ श्रन्‌ + ऊढ़ा ] तत्‌* (स्त्री०) कु बारी, अवि: बाहिता ।-गामी त्तव॒० (४० ) व्यभिचारी, गशिका सेवी, लम्पठ | अनूप तत्‌० (पु०) जलप्छाबित देश, सजल देश, उपमारहित ।+--ज तत्‌० (पु०) भ्राव्क, शादी, अदरक | --म तव्‌० (गु०) डपमारद्वित, श्रनौखा । अनृत तत्‌० (गु०) कूठा, मिथ्या, अमत्य, चितथ। +-बादी तत्‌० ( छु० ) मिथ्यावादी । अनेक [न + पक] (गु०) अ्रधिक, बिस्तर, बह, भूरि, ढेर +--ज्ञ तल ० (पु०) द्विज, पक्ठी, बहुजात । ->ता ततू० (ख्री०) सेद, बिरोध, आधिक्य। -+था तसू० बारस्थार ।--श+ ( अ० ) अनेक प्रकार, बहु पकार | अनैक्य [न + ऐक्य] तत्‌० (पु०) परस्पर असम्मिलन, एकता का अभ्रभाव; विरोध, असमेग, एकारहित । अमैस (३०) भहित, इराई । अनैसे तद्‌० ( क्रि० थि० ) कुदष्टि से ! अनोज्या तदू० (गु०) अपूर्व, अद्भुत, हुलेम ।- पन ( छु० ) चिचितश्रता, अनूठापम । अनीना तद्‌० (गु०) अज्ोना, नोनरद्िित । [ युक्तत्ता । अनौचित्य तत्त० ( पु० ) डचित का अभाव, अलुप- आन्त ततू० (घु०) नाश स्वरूप, म्रान्त, शेष, समाप्ति, सीमा; निश्चय, अ्वयध | (गु०) समीप, निकट, अतिमनोहर ।--भक्रण उतू० (छु० ) हृदय मन, चित्त, स्वान्त [-पाती त्ततू« (छु० अन्तगंत, वीचवाला, भध्यचर्ती, श्रतुभूत पुर तत्‌० ( घु० ) भ्रवरोध, रनवास, कोठरी --- शब्या पत्‌० ( छ्ली० ) भूमिशय्या ।--शरीर लसू० (एु०) आत्मा, चिद्रात्मा, सचचिदृश !--संक्षा ततू० (स््री०) अनुभव, चेतना, चैन्तन्य |--सत्वा ततत० (स्री०) गर्भवती ।--सलित्त तत्तृ० ( 8० ) अस्त जन) प्रथिवीस्थजल, सरस्वती नदी ।--श्वेत तत्‌० (पु०) हाथी । अन्वक ठत्‌० ( ० ) नाशकर्त्ा, यम, काल । अन्‍्तकर तत्‌० (पु०) नाशकर, विनाशक। अन्तकाल ठव्‌० (ए०) मरने का समय । अन्तक्िया नत््‌० (स्री०) अन्तयेष्टि कर्म, मृतक क्रिया । पन्‍्तज तद्‌ (१०) अन्त्यज्ञ तब्‌* (प०) थ्रद्न, श्रूत्त से भी नीच | द्विजासि जो संस्कार विहीन होते हैं इनकी '' अन्त्यञ् ”” संज्ञा माची गई है । अन्‍्तड़ी तदू० (ख्री०) भ्रतड़ी, भ्रातें, नाड़ी । घअन्ततः तत्‌० (थ्र०) शेषतश, निकृष्टपक् । प्पन्तर ततु० (श्र०) भीतर, घअभ्यन्तर, मध्य, माँस, प्रान्द, स्वीकार (पु०) मध्यवर्ती स्थान, सीमा, अवसर, परिधान अन्‍्तर्द्धान, विभिन्न, सहाय, बछिद्र.. स्वीय, श्राध्मीय, भेद ग्रित्ता, चह्दि, अन्त- राष्मा, सुयोेय, अवकाश, तुक््य, अजुरूप, शन्‍्य, चूस्ता । अन्तरज्भ [ अन्तर + भ्रज्ञ | तत्‌० ( घु० ) भाध्मीय, स्व॒जन, स्वसम्पर्की, सुहृद ।--ता ( ख्री० ) श्रात्मीयता, सीहाध' । [ इंस्वर, परमाध्सा । अन्तरज्ञामी तदू" (५०) मन का हाल जानने बाह्वा अन्तरक्ष तत्‌* (पु०) देखो शन्तरजासी | धअन्तरस्थ तत्‌० (गु०) भीतर चाला, भीतरी । अन्‍्तरा तत्‌० ( घु० ) चरण, मध्य का पद, निक्रढ, मध्य, घीच, बिना ! अच्दरातप तद्‌० (स्ती०) अ्न्तरिया, तिजारी । घ्रन्तरात्मा तव्‌" (ए०) जीवात्मा, भाण ! [ द्विजीचा ! अमन्तरापत्या तव॒० (ए०) गर्भवती, गर्मियी, ग्रुवियी, घन्तराय तत्‌० (पु०) बाधा, बिध्न, रुकाचट | घनन्‍्ताल क्र्तरात तव्‌»॒( प्र० ) फाछ, अस्तर, भंदे, सध्य, बीच, घिरा हुश्ा स्थान, मण्डल । 40423 ॥ स्दु० (प०) आकाश, गगन । अम्दरित तत्‌० (घु०) भीतरी, प्रान्तरिक। अन्वरीप तव्‌० (पु०) भूमि भाग जो समुद्र में दूर तक चढा गया हो । प्ग्तरोकज्ष तम्‌० (पु+) थाकाश, गगन, शून्य, नम । अच्तरीय [भन्ता +ईव] तद० (पु०) मीतर का; दिचतला, मध्य का, परिधान वस्ध अम्तरोया तत्‌० (खी०) ठिजारी, तीसरे दिन आते बाला ज्वर, अतरा ज्वर | [पहिनन का दख । घततरौटा दे० (पु०) महीन पारी या छह के भीतर प्रस्तर्गत तत्‌० (प्वी१) मन की बात, पैठा मे दस्थ | खतरे वि तव* (खा ) मन के तरह, रिल्मरण । अत्तर्दशा तत्‌- (श्ली०) पल्तित ज्योतिष में एकग्रद के अन्तर्गत [सो भई की दशा । [ ज्याढा । आततदोद तत्‌५ (१०) छाती की जलन, शरी। की प्रस्तद्धान तव० (१०) भ्रदर्शन, लुकाव, छिप जाना आ्त्ष्योन ततु० (१०) मानसिक ध्यान, सन सम्बन्धो ज्ञान! झम्तर्पट (१५) ओर, शाह, रही, पर अस्तमभूर्त व्‌ (पु) मध्य में स्थापित, मध्यक्षत । अम्तर्मनस्त तत्‌० (गु०) उरदास, घयराया, स्याकुर । अन्तर्यामी तद्‌० ध्रन्तर्याप्री तद्‌० (7०) मन की बात चूमने द्वारा । चग्तर्लादिका सतत (स्वरी०) बद पहेदी जिसका उत्तर डसी पईली के ऋचछरों में हो । झम्तगनी हत्‌- (स्त्री०) गर्भिणी, द्विजीवा। झम्त्थेंद तल" (पु०) गद्या यमुना के दीच का ग्रक्षाव्ते ] [ धस्तद्धावि। घन्तर्दित तदू* (गुल) छिपाद सुझाव, अध्रय, झाग्तिर तय्‌० (पु०) सप्रीप, पास, निकट, सन्निधान । ध्रन्तिम [भनन्‍्त + इम] तद्‌* (१०) शेष, चरम, अव- सान, धन बाला ।न्‍यात्रा नव॒« (स्प्री०) झस्यु। मरण, महाप्रस्पान, मंदायाप्रः छम्तेवासी लअन्‍्ते+व्य+णत] दव० € पु) विद्यार्षों, मद्गाचारी, प्रान्तस्थादी । ( हे० ) अझन्वक अन्त दत्‌ (गु०) शेव का,, नो, श्रधम जाति, अग्तिम, शेगोस्त्र, जय ये । “ ऊमे तब (पु) प्रेत कर्म, शब्दाहादि कर्म --अ तत० (पु०) शुद, समह्ृदि खूब जाति, यवा-- रजझ) में हार, चमार, चपुइ, कैते, सेद, मी, गु ) जधन्पज्ञ ज्ञाति, अ्रवरण ।--जन्मा तत्‌र (३०) शूद्र, भवरर्ण, जबन्य जाति । -“सुथ तत* (०) यरल व ये वर्ण । अम्यात्तरी तत्‌» (स्त्री) किसी रछोक के श्रान्वम अक्तर से श्रागम्म होत वाह श्लोक का कहना | डदू' फाग्सी की बेनवाजी की ताह। अन्येप्रि [भ्रि्य+दृष्िं तव० (पुर ) पेत कर्म शवदाडादि कर्म, झत देह का श्रन्तिम सैध्धार। +-क्रिया तत« (ग्त्री०) शवदाह़ | अम्त्र तत्‌+ (स्त्री) अति, आरातड़ी, ना -गुद्धि तल (स्त्री*) कोश बृद्धि रोग हझब्दर दे० भ्रमभ्य-्तर, भीतर । घ्दरूनों देह (यू ) भीतरी । अन्दाज दै० (०) क्रटकण, श्बुमान । अन्दाजन दे० ण्युवात से, व्ूगभग । अन्देशा दे० सन्‍देद, सैशय पअन्ध तत* (गुल) (१) नेब्रद्ीन, अ्रचतु पत्ा, सूरदास, मुनि विशेष । छतराष्ट्र, थे अन्मान्प ये। (२) ईैश्य जातीय पृक् मुनि | यह श्रयोध्या में सरयू के तीर पर रहते थे | पक शूद्रा कन्या के साथ इन्दोंने अपना ब्याह किय्रा ण, और शाप्रप्त में रहते थे । अवेध्याधिपति राज! दशरथ ने ह्वाथी के अम से अ्न्ध झुनि के पुत्र क्रो शब्दयेची बाण से निद्कत किया । था एथिद्र पुत्र का दिया माता ने देख के अपने प्राण छोढ दिये अर राजा कं शाप दिया कि तुम भी पुत्रवियाग ही पे मरोगे। अम्घधक तत्‌० (१०) देश दिशेष, मुनि विरोष, अमुर डिश्ेय । यद दैत्य ध्श्यर के रस और दिति के गर्म से उरयन्न हुआ था। देवताओं के द्वता जन सब दैत्य मारे गये, तय दिति ने ऋश्यव से वा माँगा किसे पुत्र का अदय बनाइपे। कश्यर ने कहा प्तुवाप्तु' । वही पुत्र प्रस्य६ पा। इसमे इजार याहु, इजार मत्तक, दो इजार नेश्न, और दो इजार, अन्धकार ( रे ) झ््न्य नज-++++++....बब-तह0त.. चरण थे। यह संसार का श्रति इल्रीडन करता था। अन्त में मदादेंच के द्वारा निद्त हुआ । अन्धकार तच्‌ (पु०) अन्धेर, ऑअधिवारा, अछाशा- भाव, ध्वान्त, त्तप्रिर [ छूप, अन्घा कुंवा | आत्यक्तूप तत्‌5 (पु) अन्घछार भय कूप, जब्दरहित अन्वया ताइगूल तत्‌« (9०) अन्धे द्वारा नौ की पूछ पकड़ कर चल्तन की क्रिया । जो दुशा अन्धे का सहात अ्रन्‍्धे द्वारा पकड़े जाने पर होती है, श्र्थाव दोनों गड़दे में गिर पड़ते हैं, वही दृशा भ्न्घगो- लाछगूठ #! भी है । झन्धडु सदू० (१०) अ्रापी, भड़, बतास, प्रचण्ड चात । अन्यतमलस तत्‌० (पु०) अत्यन्त 'बच्च हार, निश्रिढ् अन्धकार, नरक विशेष | [ नरछ विशेष । अन्यतापिस्त तू" (पु०) . निजिड्ास्थल्धस्-ञयुक्त न्थपरम्पराग्रर्त॒तव्‌र (पु०) अन्छे। की परम्पग में अस्त, अज्ञानिषों के कचुबायी !।. [ का, आता) रत “। तदु० (गु) अचछु, नयन-्होन, बिन आंख स्न्‍्वेस ततू 5 (पु०) भात, राधे हुपु च बड़ । अन्धाश्ुत्थ तदू* (३०) अधिक करता, हनिपम, अन्धों के समान करना। [ आदि । अन्ध छुत तदू० (गुट) श्र-धे का पुत्र, राजा दुर्वोधन घ्न्बार दे (ए०) अन्धेव, तम ! अन्यारी दे* (खो०) आँघी । [ अन्घकार । घ्न्वियर या अ्रन्धियारा तबदू० (वु०) अ्रंघेत, अन्धिसत्थि तव्‌* !घु०) छिंद, बेद,, भोंका, गढ़ा । ह्यन्घु दे” छ०)ऋशा। इ्रग्थेए तद्‌" (पु०) अन्याय, उपद्रच, उत्पात, अन्धा- घुन्घ, अन्याय ॥खाता दे" (प०) अडबंड हिसाब किताबन्र, व्यति क्रम, अन्याय, क्रमबच्च हु अविचार । आन्थेरा तदू० (छु०) अधियारा, ध्वाम्त | घस्थेरिया दे? (स्त्री) प्रन्धकारमयी रात, अंधेगपाख, रूख की पहिली गोढ़ाई । अम्थेरी दे घोड़ों की अखि सूदने की ठपनी ! [ठपनी ) अच्येरो दे* (सज्ी०) घोड़े या बैल के अगि की अन्ध्यार दे* (पु०) तम. अन्धछार । अन्ध्यारों दे” (खी०) अनम्धक्तारमयी । आमक्य तव्‌० (पु०) बद्देलिया, चिटड़ीमार, शिकारी £ दक्षिण देश का राजबंश [ अन्न तत्‌० (०) ओदन, भात, अनाज, सूर्य --कए तत्‌» (०) हुमिक्ष :--कूठ तल" (५०) पर्व विशेष, दिवाली के दूसरे दिन भात का पर्वत के समान छेर छमाया जाता है --चेन्न तदू* (०) चह जगड़ जहाँ भूखों वा अन्न मिलता हो --जलज सत्‌० (पु०) अन्न पानी, खाना पीना, दाना पानी। “-दाच तत्‌० (पु०) आहार दान, भ्रन्नध्यय [-- . द्वास तद॒० (५०) पेट के लिये दास बनने वाले, पेह ।--द्ाता तत्‌० (घु०) पा>हनेहारा, रक्षरू, अज्न का दान करने वाट़ा “पानी रुत्‌ू० भोजन और जल ।-पूर्णा तक" (जी०) अश्नाधिष्ठात्री, देवी, काशीश्वरी, विश्वेश्वी +--प्राशन तल (पु०) संस्कार चिशेष, बालक बालिकाओं को अथम अन्न खिताना । छुठवे महीने यह संप्कार किया जाता है ।-विक्रार तत्‌ू० (पु) शुक्र, बीय, बिष्ठा, मल “--ब्रह्म तव* (४०) अन्नस्वहूप अह्म +भाजन तद० (१०) मोजन करने का पात्र ।-+भिक्ता तदू० (स्त्री०) अन्न के हछिये आर्थना [--भोक्ता तत्‌० (यु०) श्रन्न खान वाला, जिसके साथ खान पान है ।-मय तद्धू० (पु०) अश्षखर्प, अन्न द्वारा बद्धित ।--रख तद्‌० (६०) अच्च का सारभाग, मांड, भक्त से प्रेद में रस उत्पन्न होता है ।- लिप्सा तत्‌० (ख्री:) चृधा, बुऊुक्ा । “-वबस्त्र (१०) ग्रसाच्छादन ।--क्षेत्र तब « (इ०) अधिक शअ्रज्ष, बहुत मनुष्यों का भोजन ।--भाव तत्‌० (घु०) अन्न की अ्सध्यिति, दुर्भिक्त, ग्रकालइ महँगी [--र्थी तल» (घु०) भोजन के लिये अन्न मागने वाला '--हारी रच ० (पु०) श्रन्नभोक्ता, अन्नन्भत्क, अन्न खाने द्वारा । अन्ना दे? (स््री०) उपमाता, घाय, धात्री । ध्यन्नी तदू० (सत्री०) दाई, घायी, घात्री, उपमाता, एक थाने का मिकिल्ः धातु का सिक्का ध्यन्मोल तदू> (पु) अमूल्य, अति उत्तम । अन्य तर्‌« (यु०) मित्त, एवक, और, अपर, पर । +-+कृत तव्‌० (गु०) ( १ ) अन्य द्वारा अमुछित) अन्य द्वारा किया हुआ, भिन्न सम्पादित “-गांमी' एक आन्त विशेष । पक धन्यदेशी ( ३२ ) घ्र्पू ततू० (4०) ब्यभिचारी सण्डन, परिवत्तैन, बदला किया हुआ, पारदारिक, परस्त्रीगामी, जम्पद (वाली तत्‌० (१०) स्वधमत्यागी कुपधगासी /-ज्ञ॒ततू* (पु०) इुयोनि, दीन- जाति ।--त, तत्‌० (श्र०) अम्यत्र, स्थानान्तर । >ज्र (भ्र०) और कहां, दूसरा राव था तत्‌० (श्०) विपरीत, प्रतिकृच्च, विरुद्ध, अन्य प्रकार, विपयेव पराणे, मिथ्या, दुष्ट, वित्तप, भर प्रकार, उल्दा [( २ )-ख्याति तत्‌७ (स्थ्री०) अप्याति, दुष्क्रीक्ति, दुर्नाप्र। दर्शानोंमें इस शब्द का प्रयोग आत्मविषयक्र मिथ्याज्ञान के भर्धे में होता है। श्राक्मा का अयधार्थ ज्ञान] “चरण तत्‌० (पु०) उछरा चछन विपरीत न्‍्यवड्ार, विरुद्ध श्राचरण, विपयेयकरण ।--सिद्धि तने ० (पु०) अभावनीय कमें की इन्पति, एक प्रकार का देेखाभास तके विशेष, जिसमें असत्य युक्तियों के द्वारा कोई विषय सिद्ध किया गया हे। | अन्यदेशी या भअम्यदेशीय तस्‌० (पु०) दूसरे देश के यासी, भिन्न देशी । अन्यपुरुष तत्‌० (पु०) दूसरा श्रादमी, व्याकरण में सीसरा पुरुष बह, कोई | अन्यपुष्ट तत्‌* (पु०) केकिलल, झोइए, प्रिक, पर पाल्चित, दूसरे के द्वारा पारित । अन्यपूर्या तत्‌० (स्त्री ) पापूर्ता, जिस कन्या का पुक चार विवाद हो जाने के अनन्तर पति के माने पर धुनर्वार विवाद होता है, द्विर्द्ा, दो वार बयादी हुई । अन्यभ्ुतत तत्‌० (पु०) क क, कौश्रा, फाइल, पिछ । अन्याद्ृण ततु (गु०) अन्य प्रकार, मिश्वरूफ, विसदेश | स्यस्पमनस या धमम्यमनेस्क तर* (एु०) अन्पचिस्तक, चपल, धन्यदित, अन्यमना । अन्यमनस्कता तत्‌५ (स्त्री०) अन्यमनरक होगा, दूसरी ओर सन छगाना, प्रस्तुत घान पर झसावघानी] अम्यान्य तत॒० (गु०) अपरापर, मित्र मिश्र, दूसरे बूसरे, चौर थर । अन्याय दव्‌० (घु०) उपद्रव, भ्रविचार, स्पाय वहिमूँत अनुचित ।--ी ठद्‌० (4०) प्रम्पायकारी, अस्या- बारी, दुद्बंछ, अधर्मी, न्यायशून्य, न्याय रहित, दुष्ट । अन्योक्ति तत्‌5 (स्त्री०) कथन विशेष जिसमें श्रन्य के विषय में क्यन करते हुए पद कयन अन्य पर घयाया जाय। अन्योन्य तत्‌० (बु) परधरर, उभयत, मिलाप। मेद्‌ दत० (घु०) परस्पर का भेद, थापस का भेद, विरोध |--ाश्रय तत्‌० (पु०) एक वस्तु के ज्ञान के अधीन दूसरी वस्तु का ज्ञान, परस्पर ज्ञान, सापेक्ष, ज्ञानाश्रप, अ्रपने ज्ञान के अधीन दूसरी वस्तु का ज्ञान और उप्त वस्तु के शान से अपना ज्ञान । श्रग्यय तत्‌० (पु०) वश, कुछ, पदच्छेद सनन्‍्दति --क्ष तत्‌० (गु०। वशावक्षि जानन बाला, बन्दी, भाट (जी ठत्‌» (गु०) संपन्ध विशिष्ट, सम्पर्को, वश्चादर्त्ती ॥ अन्वेह तत््‌० (पु०) नित्य, भत्यद, प्रतिदिन । अन्वावय तत्‌० (यु) संयोजित, संयुक्त, दन्द समास का एक भेद । अग्पित तब्‌० (धरु०) युक्त, संबन्धित, पूरा, मिला हुश्रा। [ अनुसन्धान । अन्पीज्षण तव॒० (ए०) हूढ़ता, पता लगाना, प्न्वेषण तद्‌० (4०) खोजता, पता छागाना, अमु- सन्धान करना ॥ अन्दवाना तदु ० (क्रि०) स्नान कराना, धुटाना । झन्दान तदु८ (पु०) स्नान, घोवन | श्रन्द्वीता तदु० (धु०) भसाध्य, असस्मय, जो न दो सखे अप तत्‌० (३०) जल, प/नी + (उपस्तग) नीच, अ्रघम, बुरा, अस, असम्पूर्णता, विकृत, त्याग, वर्जनाथ, अपकृष्टाथ, वियोग, विपयेय, दौयनिदश, दप, यज्ञकर्म, अनिर्देश्य प्रज्ञा ।-कर्म तव॒० (पु०) दुष्कर्म, श्रनिष्टमे, कुक, कुचछनम --कर्प तत्‌» (ए०) जघन्यता, छुटाई, मुख्य काल के रहते अमुख्य काब में कर्म करना ।--फर्षण तत्‌ (पु०) स्ींवना, टानना ।--कलड्डू ठत्त० (पु०) अपवश, कल्नहू, मिप्याएवाद, दुर्नाम /--काजी दे* (३०) स्वार्थो, मठकदी ।--कार तत्‌० (पु०)प्रनिष्ठ, हानि, इति, झजलुपकार ।--कारक--फारी तद्‌ (पु) झपक्क (्‌ झुग करने वाल्ला, अनिष्डकारी |-कोत्ति तत्‌० (स्त्री०) अबश, अ्रण्याति, दुर्नाम, श्रकीतिं। --छत तत्‌० (गु०) अपकार आप्त कृति ततू> (स्त्री०) अएकार, अनुपकार ।--कृष्ट तव्‌ (गु०) अधघस, म्यूऊ, मीचा, बुरा, निक्षशट ॥--कृणता तत्‌० (स्त्री०) जधन्यता, मिकृष्टव्य, नीचता । क्रम तत्‌» (छु०) भागना, छूटना, ऋमबिपर्चय, पत्ठायल ।--क्रोश तत्‌० (पु०) निन्‍दुन, भव्सच। ++गव' तद॒० (गुण) दूर गया, सुचा, सत्य; मृत, दूरीभूत।--धात तल» (०) हत्या, वध, मारना +--चार तत्‌" (छ०) टोठा, घाटा, क्षति, श्लीणता ।--चेय तत्‌० (पु०) उवाक, अजीणों ) +-छाया तवब्‌० (स्न्री०) प्रेत, उपदेवता अपक्त तत्‌० (गु०) कच्चा, श्रनभ्यस्त आपगत तत्‌० (गु०) चला गया हुआ, भागा हुआ, | गत, झुत) नष्ट, मरा हुआ । ध्यपगा त्तत्‌० (स्री०) नदी | ख्रपधात तव्‌० (७०) घोखा, हत्या, विस्वाप्तघात, हिंसा ।--क (१०) विश्वासबाती, घातक ) झपख तत्‌० (१०) श्रजीण । अपश्वीक्त तत्‌० (१०) सूक्ष्मदूत, श्राकाश आदि पाँच भूतों के पृथक एथक भाव । अपकछूरा तक (सत्री०) अप्सरा । आअपजञय तल्‌० (स्त्ी०) धार, परामय । प्पञ्जस वदू० (पु०) बदनामी, अप्यश । झपठक (पु०) श्रद्धज्ी, पच्रयाती । श्रपद्ी तत्‌० (स्त्री०) बखग्रावरण, कुंनात+ तम्दे ॥ शअपडु वच० (३०) अचछुर। निर्बुद्धि, अकुशकछ, अनिधुण, ब्याधित, रोगी । झ्पठ तदू* (पु०) अ्रतम्थास, अ्नपढ़ा, मूर्ख । आपित तछ्‌० (यु०) श्रशिन्चित, अध्ययव-रहित । अप दे० (पु०) स्थायो, झदल, पोढ़ा, इृढ़ । घ्यपड्टर तदू० (१०) मिथ्या भय, निष्कारण डर, । अपक़ दे० (गु०) अनाड़ी, सूखे, अलपढ़ा हुआ | खपत तदू० (गु०) पापी, श्रप्रतिष्ठित खपति तदु० (स्री०) अनादर, अपमान । खपतियारा छे* (शु०) विश्वालधातक, कपटी । शेर 35 अपमान अपत्य तदु० (चु०) सन्‍्तान, बेटा, कड़का, जिसकी स्थिति से पित्तर ग्रिनाने न्॒ पायें, मुन्र, कन्या । “शत्रु लत" (०), करंट, कैंकडा [--स्तेद तछ० (०) पुत्र और कन्या के-प्रति स्वाभाविक सो । [ बाला। अपन्रप तत्‌० (गु०) लज्जाहीन, निलूज्ज, नहीं छूजाने प्रपथ ठव॒० (घ०) कुम्ता्ग, सार्य-रद्वित । आपथ्य तव्‌० (ग्रु०) भअह्ितकारक भोजन, रोग बढ़ाने वाले पदाथे ।--नशी तत्‌० (9०) क्ुपध्य भोक्ता, कुपध्यश्रभिक्नापी । अपद तद्‌० (गु०) पदरहित, पंग्ु, कर्मच्छुत, (४०) सपे, कृमि ।++स्थ दब" (ग्रु०) स्थान अछः कर्सच्युत, पदुच्चुत, अपने पद से हृटाया गया । अपदार्थे तत्‌० (9०) अयेग्य वस्तु, भ्रवस्तु, पदार्थ मिन्न, अनुपम पदार्थ | [ देवता । घपदेवता तत्‌> (पु०) प्रेत, पिश्ाथ आदि, निकृष् अपदेश उत्त* (पु०) चल, कपद; बहाना । अपध्यंसक ततद्‌० (पु०) भिनोना, जयड़नक्कारी। ध्यपध्यस्त त्तत्‌० (०) अपमानित, परास्त । अपनयन तद० (छु०) [अप +नी + अनट्‌ | अपनय, खण्डन, दूरीकरण, मरंण, निष्कृति । अपना तदू ० (सर्वे०) स्वक्षीय, मिज्ञका, स्व ।--पन दे० (०) स्वजनता, आत्मीयतता । [ जोड़ता ) आअपनासा (क्रिण स०) अपनावता, अपना सरबन्ध खपनायत ददू० (स््वी०) नाता, गोता, घशना, सम्बन्ध, भाईचारा । झपनीत तत्‌* (शु०) हृदाया गया; दूरीक्षत, अपसारित । अ्रपचश हद ० (गु०) स्वाधीन, स्वत्तन्त्र, अपने वश से ! आपभय तत्‌० (हु०) भय, डर, श्रपना ढर। निर्मय, विगत सच । [अ्रसाधु शब्द | घअपभापा तत्‌० ( छ्ली० ) गँवारी बोली, कुवाक्य, अपक्रंश तद्‌० (पु०) अपशब्द, प्राकृत, व्याकरण विरुद्ध शब्द, अशुद्ध शब्द, आम्य भाषा ) अपमान ततु० (०) अ्रमर्यादा, त्तिरस्कार, अनादर, असस्मान ।--न्ति त़त्‌० (गु०) अश्रपमान ग्यक्त, मानह्दीन, वेइज्जत किया हुआ | झाण० पाएच-# अपरत्यु (्‌ पपरृत्यु तत० (पु० खी०) रोग के दिता मरण, अपन घात मरण। अस्वामाविका कारणों से रृपस्‍्यु, अकाल मृत्यु । झपयश तत्‌० श्रपश्म तदू० (पघु०) अपकीति, दुर्नाम, भ्रस्याति । ध्पर तत्‌० (गु०) इत्र, भन्य, पर, भिन्न, दूसरा । झपरश् तत्‌० (श्र०) श्रौर भी, फ़िर भी । प्रपरग तदू० (१०) भन्यप्रार्गी, अन्यगामी, व्यभिचारी । पपरना तदु० भ्रपणां तत्‌० (ख्री०) बिना पत्ते बाली, उमा, पावेती, सेचानी । [ अशेप । परमस्पार तदू* ( पु० ) अपार, अनन्त, श्रखीम, ध्यपरस तत्‌» ( गु० ) अ्रष्टृश्य, न छूने योग्य छांपरा त्त्‌० (सत्री०)) लैाकिक विद्या, पदाथे विदा, पश्चिम दिशा | एकादशी विशेष का नाम, (वि०) दूसरी । [ परामव-हीनता । अपराज्ञय तत० (पु०) अपराभव, अजभीन, ज्ञीत, ध्रपराजित तत्‌० ( गु० ) जो जीता न जाय, अनेय, अनिर्शित । ( घु० ) विप्छ, ऋषिविशेष, शिव, “> तत्‌० (स्री०) दुर्गा, जपन्‍्ती उच, अशन- पर्णो, स्वद्पफछा, विष्छुकान्ता, शेफाली, शमी भेद, शद्धिनी, रदनामस्यात छत्ता विशेष । झपराध तत्‌* (पु०) दोष, अधर्म, पाप, अन्याय, +-ो ततृ» (पु०) पापी, दोषी, अन्यायी । पपराधीन तत्‌" (गु०) स्वाघीन, जो परतन्त्र नहीं है । ।॥ पदर प्रपराह तत्‌० (१०) दिन का शेष भाग, तीसरा अपरिगृद्दीता तत्‌० (स्रो०) कुलस्ती, विवाद्िता स्त्री; जो परिशद्दीत न हो । प्रपरिभ्रद तत« (५०) अप्रतिप्रद, अस्वीकार | झपरिचिय तत्‌* (गु०) अज्ञात, अजञान। झपरिचित ठद्‌० (गु०) अज्ञात, अध्ट, जिसके साथ सम्माषण ण हुआ हो, जिससे जान पढ़िचान न दो । झापरिच्छद संत (गु*) दीनवख, मलिन क्‍ भजुपयुक्त घेश । पझपरिदिप्न तव० (वि०) सुछा, भनदका, मिला डुच | अपरियत तत्‌» (विन) अपरिप्क कच्चा, ज्यों काझों। इछ ) अपवाहन अपरिणीत तत्‌० (पु०) भ्रविवाद्वित, कुमार, बवारा) - (स्त्री०) अ्रविवाद्दिता, कन्या, अनूढ़ा। [रदित | शपसितुए तत्‌« (पु०) असन्‍्तुष्ट निरानन्व, दृप्ति- अपरिपस्व तत्‌० (]०) अपवच, परिपाकदी न, अप । आपरिपादी तत्‌० (खी०) अनरीति, कुठफ़ अपरिमित तत्‌० (गु०) परिमाणद्वीन, अधिक, प्रचुर । ध्पस्मिय तत्‌० (बि०) जिसका नापया तौल न हो सके, अरकूता । अपरिम्लान तत्‌० (गु०) म्कानरहित, खिला हुआ । धपरिष्कार त्तत० (पु०) मलीन, मैला कुचेा, अनिर्मछ, श्रशुद्ध, अस्पष्ट | घपरिसर तत० (गु०) सट्डी्ं, सट्लोचित । अपरीक्षित तत्‌० (गु०) अनर्जाचा हुआ, मिप्तकी जाँच न हुई हो। अपरुदछ तत्‌० (गु०) खेदी, पद्ताऊ, पश्चातापी, चुब्घ, अग्रस्तुत । [ रूप। उ्रपरूप तव्‌० (गु०) आश्चर्य रूप, भ्दू मुत रूप, विक्ृत अपरोत्त तत्‌* (गु०) प्रत्यह, समह, आंखों के सामने | अपर्णा तब॒० (देखो ध्यपरना) पावेती । अपर्याप्त तत्‌० (गु०) स्वल्प, थोडा, न्‍्यून । अपलज्न तदु० (पु०) चेहया, निलज्ज, नकपढ़ । अपलक्षण तत्‌० (पु०) कुछुचण, अप एकुन । ध्यपल्ाप तत्‌० (पु०) असत्य, असत्य कहना, छिपाना, ऊटपर्टाप बकना | [ भ्रपयश, दुर्गंति अपलोक तदू ० (पु०) अपना छोक, निने का लोक, अपवर्ग तत्‌० (गु०) मोक, परमगति, मुक्ति, किया प्राप्ति, या क्रिया की समाप्ति, निजेन। ध्यपचतेन तत्‌» (पु०) अपवते, संक्षेप करण, अएप करण, लेन देन, चैक काटना | ध्यपवाद तद्‌० (पु०) निन्दा, दोप, छुष्सा, कलफछू। “के सत« (गु०) निन्‍्दक ।--नन्‍ति तव» (यु) दुर्नामम्रस्त, परियाई युक्त +- छत" (पु०) निनदुक । [ कम्मे, श्रोट । अपतारण तत्‌* (पु०) रोक, हटाने या दूर करने का ध्पवाहन सद॒« (पु०) दुष्ट वाइन, फुसला के छातना, भगा देना, पु राज्य से भाग कर दूसरे राज्य से बसाना ॥ अपविच अपविश्न तत० (०) अशुद्, पवित्रतारहित, छुतह्ारा >-ता तत्‌» (स्री०) अशुद्धता । अपविद्ध [अप्‌ + विधू+क्तों तच० (यु०) प्रत्या- ख्यात, निराक्तत, चूरिंस, व्यक्त ॥-पुत्र तव्‌० (पु०) बारद प्रकार के गौण पुच्नों में स्ले पुक पुत्र विशेष, मात पितृ-रहित पुत्र, पिता साता से छोड़ा हुआ पुत्र | ध्यपन्यय' चत्‌» (पु०) छथा व्यय, कुकमे में धन फेंका ।--ी तव्‌० (ग्ु०) निरथंक, अधंनाशक, चहुत खच्े करने बाला । [ चिन्द् । ध्रपशकुन तत्‌० (एु०) अमझ्नल लक्षण, 'अशुम-सूचक प्रपशद तत्‌ (पु०) श्रपसद, नीच, । यह शब्द जिस शब्द के भ्न्त में आता है उस शब्द का नीच अर्थ कर देता है। य्राः--धुतराष्ट्रापशदू 5 नीच घतराष्ट्र, ब्राह्मणापशद्‌ - नीच ब्राह्मण । शपशब्दू त्तत्‌ू० (०) भ्रशुद्ध शब्दे, माली, निन्दासूचक शब्द, भ्रपान वायु, दूसरी भाषाओं के शब्द, सिल्दित शब्द । अपसखगुन दे० (घु०) (देखो अपशकुन) खापसना दे> (क्रि०) सरकना, खसकना, साग्म जाना । ध्रपखर तत्‌० (क्रि०) खथ्कना खसकना देर (घु०) सनमाना, अपने मन का | अपसरण तवत्‌० (9०) प्रस्थान, चला जाना | गपखब्य तत्‌० (छु०) शरीर का दाहिना हिम्सा, वाम इस्क, बाया हाथ । [ दरकारा । अपसर्प तत्‌० (ए०) चर, प्रश्िि, गूढ़ पुरुष, अपस्यार तत्‌०(पु०) सगीरोग, मूच्छा, वायु रोग विशेष | ऋपस्यार्थी तत्‌ (वि०) खुदगरज़, स्वार्थी, मततल्ूची । अपहनतन तत्‌5 (घु०) हत्या, वध, घात । अपहरई तदू० (क्रि०) चुराता है, नाश करता है, चुरा ले, छीन ले, नाश करे ॥ ध्पहरण तत्‌० (पु०) हर लेना, लूटना, चोरी, चौये। प्रपदर्ता [अ्रप+छू+ढच] तब" (ए०2 तस्कर अवदारक, चोट्ट। लुटेशा । [ गया। धअपहरित तत्‌० (गु०) छीन लिया गया, हर दिया घ्यपहा तत्‌० (गु०) [श्रप्‌ + हल न आा| हन्ता, हत्या- कारी, हिंसक, वधिक | ( इह ) ध्यपांय नलज््पम3-+++_+++++___त...ई ५$- ........ झपहार तव॒० (छ०) [अपूक हू-+ घन] अपचय, हानि, घन का निष्कारण व्यय |--ी तत्‌० (पु०) अपहारक । --क तत्‌० (गु०) अपहरण कर्ता | (घु०) तस्कर, चोर । अपहास दे० (एु०) उपद्दाल, मज़ाक, विल्‍लगी । झपन्हव तव्‌5 (ए०) कनार, कपठ, छिफाव, योपन, अपलाप | घझपन्हुति तत्‌० (स््री०) अपछाप, अपन्द्व काब्य का अशालछार विशेष । यथा--“आरोपितें ज परम, (घर्म) दूरें आदि कवि शुद्धापन्हुति कद्त ताद्दी ?” । अंपहत तव्‌० (गु०) छीना हुआ, घुरावा हुआ । अपांनिधि तव्‌० (०) समह, सागर । अपाक तत्‌० (गु०) अपचार, अजीखणंता, (छ०) बद्राः मय, अपक्व, आम, भ्रसिद्ध । अपाकृरण तव्‌० (ए०) एथक करना, शलरूगाना, इदाना, दूर करना, छुकता करना | अपाडु तत्‌« (पु०) नेत्र फा श्रस्त भाग, नेश्रकोण, कटाक्ष ।--दुर्शन (पु०) टेढ़ा देखना, कटाक्ष अवलोकन । ध्यपाद्य तत्‌० (५०) श्रपहुत्ता, अनिषुणत, अचतुराई, चोदापन, सुखता। [ निणुय, जातिश्नष्ड करना | ध्यपात्र तत्‌० (गु०) कुपान्र, श्रयोग्य, अनारी असत्पात्र, अग्रेग्य +--करण तव्‌० (छु०) नव* विधि पापों में ले एक पाप विशेष, अयधा निर्णय, जाति अष्ट करवा | अपादान त्तत्‌० (पु०) अहण, कारक विशेष, स्थाना- न्तरी करण | अपान तत्‌० (एु०) पाद, मलद्वारस्थवायु, अ्रपान देशीय पवन, अपान वायु, ग़ुहस्थान | --पायु तत्‌० (घु०) पाज श्रकवार के बाथु में से एक गुदास्थ चायु + आपाप तत्‌* (ग्रु०) निर्दोष, घर्मी, निष्पाप।| [लटजीरा । धपामार्ग तत्‌० (पु०) चिचढ़ा, चिचड़ी, '्रज्ासारा, झ्रपाय ठत्‌० (पु०) चाश, छवब, द्वानि, विश्लेष, अपचय, आमष्द पढायन, । +-ी तव्‌० (गु०) खत, अलित, पलायित | अपार ( खंपार तव्‌० (यृ०) फरावार-द्ीन, असीम, कूचरद्वित, अनन्त ।--क तत्‌० (पु०) अ्रक्षम, इमता-शुल्य। ध्पार्थस्य तत्‌० (पु०) अमभिद्वता, प्रमेद, शयकता- शून्य, एकाव ) हे ध्रपावन तत्‌»० (गु०) श्रशद, अ्रपविष्न, अशुचि | अपाधय तत5 (गु०) धनाथ, दीन, निराशक्षय, श्राश्रय- [ रहित । अपाधित तव्‌० (०) ह्यागी, पकान्तसेवी। [प्रालसी। | थ्रपादिज्ञ या भ्रपाइज दे० (यु०) लूछा, झँगटा, | अपि तत्‌० (उपसर्ग) निश्चयार्थंक । --च तत्‌० (अ०) आर, वाक्यान्तरधोतक | --तु तव॒* (श्र०) किन्तु । शपिधान तत्‌० (१०) ढकना, श्रावरण । ध्यपोन तद्‌+ (गु०) इलक्रा, दीण, हृश | भ्रपीनस हद्‌० (प०) नाक का रोग विशेष, पीनस | अपील दे" (स्ली०) घुनर्विचार के किये निवेदन, किसी एक निम्न न्यायारूय के किये हुए न्याय के पुनवि- चार के लिये उच्च न्यायाटय में प्राथंता ।-ननन्‍्द अपील करने वाला । अपुष् तत्‌» (गु०) निर्देश, पुश्रदीन, सन्‍्तानरहित॥.* अपुनपे दे० (पु०) अपनारन, भपीती, अपनाइत | श्रपूप तद्‌० (पु०) चज्ञीय हृविष्यान्न विशेष, पुझा अपूर्ण तत्‌* (बि०) जे। पूरा या भरा न डो, अधुरा, प्रसमाप्त +--भूत तत्‌० (पु०) फ्रियाका चद सूत काछ जिसमें क्रिया की समाप्ति न पाई जाय। ध्यपूर्ये तर० (यु०) श्राश्चये, उत्तम, श्रजुपम ; तदु० (गु०) अपूत ।--ता तत्॒‌० (सत्री०) विल्दणता, अनीसापन । खेत तदू० (गु०) अइश्य, धलूक, भदष्ट । ध्रपेय तद* (यु०) पीने के योग्य नहों, पान निपिद्ध ध्पेल तदू« (गु०) अचल, न टाडमे येग्य, न इटाने मेगरय, मानने योग्य । अपेत्ता तद» (सत्री०) अन्य सम्दन्ध, अनुरोध, आकाचा, भाशा। --झूत ततु« (गु०) अन्य के द्वारा सुलित, अन्य से विदेचित |] --बुद्धि तद॒० (स्ती०) अनेक विपयों को पुक काने वाली बुद्धि | झपेज्षित तर्‌० (यु०) ध्रतीद्धित, चाहा डुचा । झेई ) ध्प्राप्त अपेहन तत० (प०) तऊ के द्वारा बुद्धि को परिमा- जिंत करना। [हीन, नपुसक । अपोरुष तत्‌« (धु०) कापुरुपत्व, असाइस, पुरुषाथ अप्रकाश ठत्‌० (गु०) अप्रगट, धप्मसिद्, शुप्त, छिपा । अप्रकाश्य तत्‌" (यु०) गोपनीय, न प्रकाश करने साग्य। अप्रकृत तद्‌० (वि०) वनावटी, अस्वामाविर कृत्रिम । अप्रगढम तत्‌० (वि०) श्रप्रौड़, कच्चा, निरस्साद्वित । धअप्रचलित तव्‌० (गु०) श्रप्रयुक्त, जिसका चलन न हो। अप्रयय दद्‌० (बु०) श्रीतिच्येद, रिपाद मेद, अमीत, प्रकरण भिन्न, अप्रेम, अप्रीति । अपताप तद « (गु०) तेजद्वीन, अप्रवछ, श्रप्नचण्ड । प्प्रतिम तत्‌" (गु०) भसाध्श्य, श्रदुत्य, निरफ्म+ अनुपमेय, भ्समान, बेजोड । [ अपमान । अप्रतिठा तत्‌ू० (खत्री०) बेइजती, अ्रनादर, अप्रतिष्ठित तव्‌० (गु०) भ्रपमानित, अनादत, तिरग्कृत। धप्रतिरथ तत्‌० (पु०) यात्रा गमन, सैनिक गमन, सामवेद, अमझ्ल, योद्धा, योद्धारद्दित । अप्रतिद वव्‌० (गु०) भनाघात, अ्रवश्चितः अच्यति- क्रम [--त तत्‌० (वि०) जो प्रतिदरत ने हो, अपराजित । [ अधरदेय । | अ्रप्रवीति तत्‌* (गु०) विरवास के श्रयेग्य, श्रज्नात, ध्रप्रतुल तत्‌० (पु०) श्रमाव, प्रसगति । अप्रत्यत्त तव्‌० (गु०) प्रयक्ष का अ्रगाधर, अभ्रदष्ट, परोक्ष, श्र्॒द्धित, नहीं देखा । प्रप्रत्यय तद्‌० (पु०) अविश्वास, सन्देद । प्प्रथा तत० (ख्री०) अच्यवदार, द्विपाव । अप्रधान तत» (यु०) गौण, कनिष्ठ, जधन्य, घूद ] अप्रमाण तद्‌० (पु०) अनिद्शन, अ्रद्टान्त, अ्रशास्त्र । पअप्रसन्न तत्‌७ (गु०) असन्‍्तुष्ट, दु खी, मज्नीन, गन्दला, मैच । अप्रसाद वत्‌* (पु०) निम्रद, असम्मति॥ [ झयात । अप्रसिद्ध तब॒० (गु०) गोप्य, श्रप्रगट, गुप्त, अबि- अप्रस्तुत तत्‌० (वि०) अनुपस्थित, गैरदाजिर ॥|-- प्रशसा ठत्‌« (पु०) एक शअ्र्धालड्टगर मिसमें अप्र- स्‍्तुत के द्वारा अस्तुत का बोध कराया जाता है ! अप्राहत तव्‌* (यु) अस्वामाविक, असाधारण । धप्राप्त तत्‌* (गु०) दुलम, अनागत, अद्वम्य । ध्प्राष्य (्‌ ७ ) ध्यवात्त _ अप्राप्य तत० (मु) अ्ल्स्य, न मिलने लायक | अप्राप्ताणशिक तव॒० (गु०) विश्वास न करने योग्य, अमाणशूल्य । अप्रासड़िक तत्‌० (वि०) असब्न-विरुद्ध । अआप्रिय तत्‌० 'शु०) अद्वित, श्रनचाहा, भ्रनभीष्ठ, (५०) शत्र [--चचन तत्‌» (५०) तिष्छुर वाक्य, कुबा- क्य [--बवक्ता तद्‌० (पु) निष्ठु्भापी, उम्ंवक्ता । ध्यप्रीति तत्‌० (सत्री०) श्रप्रग्य, असदूमाव, अप्रेम, अरुचि, पैर ] --कर तल» (पु०) अ्रुचिकर, निद्ठुर, कठोर । घऋप्रेल्ल दे० (१०) अंगरेजी चौथे मास का नाम | पप्खरा तत्‌० (खी०) स्वर्ग की नतंक, स्वगवेश्या, तिलोत्तमा, छत्ताची, रम्पा आदि ) तदू ० भ्रपछरा। घ्यफरा दे० (पु०) फूछना, पेट फूटना, अ्रजीशे या बायु प्ले पेट फूकने का रोग । छफराई तदू० (खत्री०) अघाना, श्रफर्ना, परितृप्ति । घझफसाना तदू० (छी०) अ्रधाना, तृप्ति करना। श्यफल दत्‌» (गरु०) ब्था, मिप्फल, फलरहित, चन्ध्या, फानू का बुच्त | >-यं तत्त्‌० (स्त्री ०) श्रामतकी बूत्ष, धतकुमारी, घीकुवार । श्रफवाद्द दे० (ख्रो०) जनश्रुत्ति, उड़त्ती ख़बर, किंबदन्ती । अफसर दे० (०) दाकिम, प्रधान | अफसेास दे० (३०) पश्चत्ताप, शोक । थअ्फीडेविद दे० (गु०) हछफनामा, शपथपूर्वेक दिया हुआ्रा लिखिल बयान | ध्यफोम दे* (खी०) आफ, भ्रौपध विशेष, अद्दिफेन । पुल तल» (यु०) उदास, पुष्परद्धित, बिना फ़ूल, कली | अफ्लेंडा तद्‌" (पु०) मनसौजी, अपमानी, अहक्ूतरी | ध्यफेन तत्‌० (गु०) फ़ेच रहित, र्लाग रद्दित, बिना फेन, कफ रहित) अफैतल्ताचद तदू० (ए०) सट्ढीण्ण, विस्तार नहीं । धाव दे? (क्रि० वि० ) इस समय, अबही, अभी । +तई' दे० (म०) अबछग, प्त्तक, अव्लों /-- तक दे? (अ«) चुरनत, अभी, झतप्राय |-तलें दे० (अ०) अभीत्तें, आजतें, अभू ।-- तोड़ी या ताली दे० (श्र०) इस घटी तक्ृ, इस समय तक। अवकत्तेन तत्‌० (पु०) सूत्र यन्त्र, चरखा। घअबघहन दे० (पु०) ज्पठन, देह साफ करने के लिये सरसों चिरोंजी आदि का लेप । अवक्षू तद्‌० (यु०) सूखे, अनाड़ी, अज्ञानी । अबच्ूत तत्‌» (पु०) थी, संन्यासी, पाप रद्धित, जीवन्मुक्त, महात्मा ॥ अबध्य तत्‌* (ग्रु०) मारने के येग्य नहीं, अपराधी होने पर भी जिसे ग्राशदण्ड नहीं दिया जा सक्ले ! आाह्मण, गुरु, स्नातक आदि अ्रवध्य हैं । घ्बनी तत्‌० (स््री०) पृथ्वी, धरणी, घरती | घबन्धित तत्‌० (यु०) बनन्‍्धव रदित, स्वच्छन्द स्वेच्छाचारी । ट अबरक दे० (पु०) धातु विशेष । अबरख दे० (ए०) अबरक | उअबरन तदू० (यु०) अवर्णनीय, अकथनीय | अबरा दे० (पु) उपछला ऊपर का । ध्यूवरी दे० (सखत्री०) (१) पुस्तकों फी जिल्द के पुद्ठों पर छगाये ज्ञानेबला कागज (२) पीले रंग का पत्थर विशेष | (३) एक प्रकार की छाह की रंगाई । खवल दत्‌० (पु०) निर्वल, दुबला, कृश, बल रहित। “या क्‍त्‌ (सत्री०) बलूहीना, नारी, स्री | अबतलख दे० (बि०) कबरा, दोरंगा। “-' (स्त्री ०) पक्षीविशेष । खझबला तत्‌5 (सत्री०) नारी, सखी । अबचस्त दे० (पु०) वह अतिरिक्त कर जो सरकार की ओर से माल गुजारी (भूमिकर) पर लगाया जात है। बघबलोकलन तत्‌० (9०) निरीक्षण, देखना ! शवबार दे० (ख्री०) विलूम्ब, देर । अबीर दे० (प०) लाल रंग की डुकनी जो द्वोली में लोग एक दूसरे फे म्ुज पर मछते हैं । अबुद्धि तत्‌० (छी०) बुद्धिहीच, निर्मेधि, श्रसमझ | अबुध त्व० (गु०) अबूऊ, सूख, असमझा। अबू तदु ० (गु०) मूखे, असमर, अनसममक, अज्ञानी। झअवेर तद्‌० (स्त्री०)) विलूम्ब, देरी, देर, कुसमय, असमय |] खबोध तत्‌० (पु०) श्ज्ञान, सूख । अवेल तद्‌० (ग्ु०) छुपचाप, अवाकू, मौन । ध्यब्ज ( हे८ष ) अभिप्राय ध्उज तव* (पु०) कक्षम, पन्, शह्ल, चक्र, धस्वनरी | झभिचार तत» (पु०) सारण मन्त्र विशेष, दिला चैद्य, कपूई, आय संख्या ]--ा त्रत्‌* (खी०) लक्ष्मी । श्रम्द्‌ तद्‌० (पु०) वप , साल, संवस्सर | अख्धि तत्‌० (घु०) सम॒द्र, साफ, भ्रणेष, सिन्धु | नगरी (म्त्री०) द्वारकापुरी | अग्रहाग॒य तव्‌० (पु०) भवाद्मणाचित कर्स । शमक तत्‌० (पु०) शठ, भक्तिद्वीन॥ अभत्त या अभय तव० (गु०) न खाने वेग्य, अभोज्य । घभडू तव्‌० (गु०) अखण्ड, समूचा नाशरहित ।--पद्‌ तत्‌० (पु०) स्क्षेपाल्टूगर जिशेष ) झमय तत० (पु०) निर्स॑य, निदर, ्रास रद्दित [न तब» (स्ट्री०) दुर्गां, भगवती, इरं या हरित की विशेष !--दान तत्‌० (पु०) दुख से उद्धार, शरण ग्रदण, ४ मा मे”? कह कर अपनाना । अभरणा, प्रभरन तद्‌० (१०) भामूषण, अल ड्वार, गहना | धयमरम तदू० (गु०) पतद्ी, अमयोंदा । पमाग तद्‌० (गु०) विपत्ति, दुदंशा, विपद्‌ । ध्यमागा तदु० (गु «) मन्दसागी, भाग्यहीन; ध्यमाग्य तन्‌० (गु०) दुष्टभाग्य, दुरच््ट, मन्दसार्य | ध्रभाज्ञन तत्‌० पाप्ररददित, कुपान्र, अविश्वासी, अपान्न, अयेग्य | आभार तदू० (गु०) हल्का, रूघु, अ्गुरु । अमाव तथ्‌० (पु०) अविद्यमान, नास्ति, असचा, ध्देंस '+नीथ तत्व" (यु०) अचिन्तनीय, अतपर्ष झभि तत* ( उपसभं ) चोफ़ेरा, भागे, समन्‍्ताव, अभयार्थ, वीप्सा, इस्पम्माच, घर्षण, अ्रभिराष, आमिमुस्य, चिन्द, श्रोस्सुक्य । ध्भिक त्तद० (पु०) कामुक, जरम्पट, लुष्चा । अमिरया तव० (स्री०) नाम, शोमा, उपाधि | अमभिगमन तत्‌» (पु०) निकटगसन, सहवासकरण । धअमिग्रद्द तत्‌० (पु०) भमिक्रमण, अमियेग, चाक्रम, सौरव, सुछीति', अपद्ार, लुण्डन, चोरी, लदाई के लिये आाद्वान, उत्साह बढ़ाने बाला, येद्धाओं का परस्पर कथन | धझमिघात तव« (बु०) डंडा आदि के द्वारा मारना, आधात, दुरति से काटना कुसे, मारण उच्चाटन आदि उपप्रातक विशेष ] +-क ठव्‌» (पु०) यन्त्र मन्त्रद्ारा मारण एच्चाटन भादि कर्म करने घाला ।-- (३०) दिंसाजनक- कमे-कर्त्ता, अनिष्टकाइक | अमिजन तत« (पु०) घंश, गोष्टी, परिवार, पालक, पोषी, रक्षक, पूर्वजों का निवासस्थान । [ रूपवान्‌ । अभिज्नात तत्‌० (गु०) पद्दशजात, कुल्लीन, सुन्दर, अभिज्ित तत्‌ (३०) मुद्दतं विशेष, दिवस का अष्म सुहृ्तं, नक्तन्न विशेष, इसमें चलने वाले तीन नछत्र होते हैं। आअमिक्ञ तत० (गु०) क्ञाता, विश, पयिडत --ता तत्‌» (स््री०) विज्ञता, पाण्डित्य, नैपुण्य (-न तत्‌« (पु०) सम्यक्‌ स्मरणार्थ चिन्द्र विशेष । अभिधा तद्‌० (स्त्री०) नाम, संशा शब्द की शक्ति विशेष, शब्द की वद्द शक्ति जिसश्े द्वारा शब्द अपने ठीक ढीकू अर्यां का योधग करते हैं । अमिधान तव० (०) नाम, संज्ञा शब्दों के अर्थ वतलाने वाले ग्रन्थ, केश | अभिश्रेय तद० (१०) अ्मिधान, नास। (ग़ु० ) अभिधागम्प; भ्रतिपाद, अर्थ । अ्भिनन्दन तत्‌० (धु०) घुदविशेष ) (यु०) श्रानन्‍्दुन, इपंण । “-नीय ततत्‌० (वि«) बन्दनीय, प्रशसा के योग्य [--पत्र तत० (पु०) सम्मानसूचक पत्र, पड्ढेस) अभिनय रुप» (बु०) शारीरिक चेष्टा के द्वारा छुदय का भाव प्रकाशित करना, नाव्यक्रिया, नतंन; मड, स्वॉग, नाटक का सेढ । अमिनव तद्‌० (गु०) चूतन, नवीन, नव्य (-गुप्त सत्‌« (पु०) सस्कृत के एक प्रसिद भलदूरबेत्ता, इनका घामिक सत्र शैव या, इनके धनाये संस्कृत क्े८ प्रन्य हैं।ये २३३ ई० से १०१५ ई० के बीच सें हुए थे। [शआचिष्ट, ग्धिक ऊूग जाना | प्यमिनिविष्ठ तर». (गु०) मनेामेगी, प्रणिद्धित, अमिनिवेश तव्‌० (पु०) मनेयेगी, सनोनियेश, घयि- धान, प्रवेश, पैदना, विचार | [मिश्चित, मिला अमिष्ष तत्‌« (गु०) भ्रण्यक्‌, संयुक्त, मिल्ित+ अ्मिप्राय तद्‌5 (पु) आशय, मनेरष, तात्पर्य | अप्रिम्रेत (३६ अमीष्द, इप्सित | [ दिखाना । असिसच तत्‌० (ए०) पराजय, हार, पराभव, चीचे अभिभावक तत्‌० (पु०) तत्वावचायक्र, रक्षक, सहा- यक, आश्रय ।--त्ता या सर्व तत्‌* (ख्वी०) तत्व चचधायक्रता, सहायता | [ भूत, पराजित । अभिभूत तत्‌० (गु०) शज्ञान, श्रचेतन्‍्य, वि्वल, परा- अभिमत तत्‌ (गु०) सम्मत, इ, अनुमव, मनेनीत । अभिमंत्रित तव्‌० (यु०) मंत्र पढ़ कर पवित्र किया हुआ | आ्रावाहन किया हुझा | प्मिमन्यु तत्‌० (४०) (१) श्रजजु न का पत्र और श्रीकृष्ण का भाजा | सुभद्वा के गर्भ पे यह उत्पन्न हुआ था।। जब कुरु्ेन्र के युद्ध में कारव लेना के सभी प्रधान प्रधान चीर इस पोड्शवर्षीय वीर बालक के पराक्रम से निरस्त हो घुके थे, तथ कौरवद्क के खास महारधियों ने श्रन्याय से इसका बंध किया था | इसकी स्त्री का नाम उत्तरा था, विराटराज की यह कन्या थी। इसी असिमन्‍्यु-पत्नी उत्तरा के प्रश्न महाराज परीक्षित थे । बीर अभिमन्यु के साथ पैशाचिद्न दरुण भ्रस्याय किया था | इस अत्याचार के कारण दी कैौरव सेना का नाम निमूले हुआ है । (२) काश्मी( के राजा, यह राजा खुशब्द के दे। हज़ार धर्ष पहिले क्ाश्मीर का अधिपति था, इसके समय में काश्मीर राज्य में बीद्धघर्म की अत्यन्त अबकता थी। कारमीर राज्य में अमि- मन्युपर तामक एक नयर इस राजा ने अपने नास से बसाया था ।--(महाभारत) [| घ्भिमर्षण तत्‌० (पु०) मनन, चिन्तन, पर-छीगसन [ अभमिमान तक» (धु०) अ्रहंकार, मद, गये, 'आक्षेप । “नी वत्‌० (पु०) धमण्डी, अकड़बाज, अहँकारी, अभिमानयुक्त, श्राक्षेपान्चित, श्रनाद्र से खिन्न । “-जनक (गु०) भ्रद्ंकारथुक्त, गर्वजनक ? अशिमुस्त तत्‌० (गु०) सम्पुख, समझ, आये, सासने। अभियुक्त तथ्‌० (वि०) ज्ञिस पर मुकदसा छगाया गया हे। अपराधी, सुरूज़िम, प्रतिष्यढ़ी अभियेक्ता तत्‌० (गु०) श्भिवेश्यकत्तों, बादी, अर्थी, मसुददई, फरियादी | अशभ्निप्रेत तत्‌० (गु०) अमिप्राय का विपय, वाल्छित, असिसार ) +दप+5++7+--+++++++++-८+++++८+-++ककतत-++्+०---०+हतहतहे अभियेम तत* (पु०) अपराधादि येजन, आवेदन, किसी का अपराध धर्माधिकरण सें उपस्थित करना (-- (छ०) फरियादी । झमिराम तच्‌० (गु०) सुन्दर, प्यारा, सने।हर, र्म- णीय | [घमिकाप, रसज्ञान, 'यात्वाद ! अधिरुचि तत्‌० (स््री०) छुष्टि, भलाई, चाह, मन का आअसिरूप तत्‌> (यु०) योग्य, उपयुक्त | (गु०) विद्वान, क्रासदेव, चन्द्रसा, शिव, विष्णु, सब्श | [सुन्दर । अभिलषणीय तत्‌० (गु०) वाम्दवीय, मने।दर, अमिलषित तत्‌5 (गु०) इष्ट, वान्छित, इच्छित । अभिलाख या अमभिलाष तत्‌० (०) झ्रार्काज्ञा, सकद्षा, कामना, आशा ।--ी तत्‌० (पु०) अभिदाष्युक्त, सस्प्ह, इच्छुक, चाष्छाश्वित । अभिलाघुक तत्‌० (गु०) इच्छाविन्त, सस्पद् । झभिलास तदू० (श्री०) देखो श्रभिलाप ! अमिवाद तत्‌० (ए०) हु्वेचन, गाली । अभिवादन ततू० (एु०) नमस्कार, बन्दवा, पादुग्रहण- पूर्वक प्रशाम [-+रैय तत्‌० (ग़ु०) प्रणस्य, प्रणाम के योग्य आभिव्यक्त रद" (ग्ु०) प्रकाशित, विज्ञापित '-- 7 तत्‌» (स्त्री०) विज्ञापन, प्रकाश, व्यक्ततरण, घोषणा । [ बाक्य, क्रोध, अनिष्ट-प्रार्थना । झअसिशाप तत्‌* (छ०) शाप, छ॒रा सानना, दृषण अभिषज्ञः तत्‌० (ए०) आलिड्धन, सब मकार से सह, आकोश, परासव | स्पादुक वन्य, सेमछतापान । झभिषच त्तत» (प०) यज्ञस्नान, चिरस्थापित भद्यौ- अमसिषिक्त तत्‌ (घु०) कृतामिषक, से में नियुक्ति; पद्रुध, जिसका अभिषेक हुआ ! श्भिषेक तत्‌० (३०) संत्रपूर्वेक्र स्नान, कर्म में निमेत्य करना; पदस्थ करण, शान्ति स्नान, सिद्चन । असिसम्पात तत्‌० (9०) अभिशाप, सैम्माम, क्रोध, सन्यु, रिस ते [ सहाय, मित्र ! झमिसर तव्‌० (पु०) साथी, लंगी, सहचर, अजुचर, अमिसार उत्‌० (प०) नायक अथवा नायिका का सल्ठेत (पूर्वक निद्विंष्ट) स्थान में गन, चल, युद्ध, सहाय | असिसारिका (्‌ अमिपारिशा तत० (स्वा०) नायिका विशेष, नायरू के सहवासार्थ सट्टेत किप्रे हुए स्थान में माने वाली सायिका यथा -- दोहा जे! घेरी मदद सदन करे, आापदि एति पहुँ जाई । चैप भरकर अभिसारिक्रा, सनी समान बनाइ है! +-ऊकवि देवजी ! अमिसारिका देः प्रकार की द्वोती दें ) एक कृष्णा- मिसारिका और दूपरी शुद्धामिसारिका। इनके मे मेद वेष झे अनुसार ई श्र्थाद्‌ काले वस्रचाली कृष्णा भर श्वेत वस्चब्ारी शुक्ला | कृ्णपक्ष में श्रमिसार करने वाली दृष्णामिसारिझा और शुद्धाव्ष में भ्रसिसार करने वाढी शुक्लाभिसारिका के नाम से परिचित होती है | अभिरोत्त तदू० (१०) देखो अभिषेक । [ प्रछाशित । अमिद्दित तल» (गु०) ऊक्त, कथित, ख्यक्त, | धमी (भ०) इसी सम्रय; शीघ्र, चेगी ध्यभीत तत्‌० (गु०) निडर, नि्मेष, साइसी । धअभीदण दत्‌० (धु०) धुन घुन , बार बार, भूयोसूय | आअमीप्सित तव5 (गु०) अभोष्ड, वाश्छित, प्रिष, सनेमिछपित | [मैत्व, शातावरि । श्री तद्‌० (यु०) निददेप, निर्मय ! (पु-) महादेव, परमीए तव्‌० (गु०) इच्छित, वाश्धित, अमिलपित । अमभुआना दे+ (कि३) जार से द्वाथ पैर भौर सिर हिलाना। जिससे पद मालूम हा कि उसे शरीर में किप्ती देवी देवता का श्रावेश हुआ्रा दवा | अभुक्त तद्‌ (बि०) न खाया हुआ, न लीला हुआ | अमू तदू० (०) अमी, ये, अबद्ी; आज़ 7 अभूत्नन तद्‌० (पु०) आमसूपण, गइना। अमूतपूर्य तद्‌" (पु०) अदूमुत, विछचण, झ्रारचर्य, जैसा कि पहले न हुआ है, भ्रनाखा, अपूर्य | अमृतरिपु तद्‌« (१०) भ्रगातशब्रु, शबरु-द्दीन, रिपुद्दीन जिसका काई बरी न हो । अगेद ठद० (गु०) सेद रहित, अविशेष, ऐेक्स, श्रमेद, परस्पर (--नीय तद* (गु०) जिसका देदनया मेदन न हो सके, (पु०) द्दीरा |--चादी दव॒७ (वि०) जीव और बह में मेद व मानने बाला सब्पदाय, अद्वेदवादी । छ6 घप्तन ) अमेद्य तदु० (यु०) जे। छेदा न ज्ञा सक, जिवका भेद न दे। सके, असण्डनीय । झिनशर | अमेजन तत्‌० (पु०) मोजनाभाव, श्रनाह्वार, उपवास अमेज्ञों तत्‌ु० (पु०) अखाद5, अमोगी । अम्पड़ तर (३०) अआपाद-मस्तकन्तेद-लेपन, तैल मदन अभ्यवजन तत्‌० (पु०) तैटल्ेपन, सैछ, उत्ठन। अम्पन्तर हत्‌० (०) भस्तरान, म्रध्य, बीच, अन्तर; भीतर [--चर्ती तच्‌» (६०) मध्यवासी । अभ्यर्थना तद्‌० (खी०) आदर, सम्मान, सम्भाषण । अभ्यायत तत्‌" (प०) पाहुन, अतिथि । अभ्यास तत्‌० (पु०) साधन, चिन्तन, शिक्षा, भराश्युत्ति से उत्पन्न संस्कार। | अम्युत्यान तब० (५०) उठना, किसी आये हुए ।... थुसुप के सम्मानाथें उठ सड़े द्वोना । अमभ्युद्य तव्‌० (३०) ऐसवर्य, शद्धि । अभ्युदधिक्र तत्‌" (वि०) भ्रम्युदूप सम्पन्धी, उच्चत, चूद्धि सम्स्धी ++-थ्राद्ध तत्‌० (ब-) नान्दीमुस श्राद्ध ध्यम्न तव्‌० (4०) श्रादाश, मेघ, वाद ।..[ सोडर | अम्नक तत* (9०) अबरक, घातु धिशेष, भोंडकष, अन्नान्त तत्‌० (बि५) अ्म रदित ।--अम्नान्ति सत० (द्वी०) आन्ति का न होना; । स्पिरता ) अप्त नत्‌० (श्र०) शीमता, भष्य । (पु०) आव, रोग विशेष । अमर दमका (देन धा०) फूराना, अमुक, चज्चात, अथवा गोपनीप नाम के पुदप का थोधक | श्रम्ड्डल तव्‌* (१०) श्रशम, अऊन्याण, दुलछण “+अनक (गु०) अशुम जनक, दुलुंसण-्युक्त | अमड्भल्य तत्‌* (गु०) अशुभ जनक, अनिष्टनघूचक । अमचूर तद्‌ू० (९०) शाम की फकिया, श्रास का चूर, खटाई । अमड़ा दे० (पु०) अमारी, फ्रढ शौर इंच विशेष खअमत तव० (यु०) असम्मस्त, धनमिप्रत / (गुण) सेग, रूत्यु, काठ । झमत्सर तद्‌० (३०) द्वेपामात्र, मध्पर-रद्धित अमन दे० (प०) शान्ति, चैन, आराम । आमंनस्क (्‌ धर ध््मनस्क तत० (वि०) सन या इच्छा ,से रहित, डद़ा- * सीन, अनमसन । ) तेजल्वी तथा न्यायी था, थोड़े ही समय में यह एक आदर्श राजा हो गया । झमान अमनिया तव्‌० (बि०) शुद्ध, पवित्र, अछूता । (ख्ी०) | अमरस दे० (प०) झाम के रस के जमा कर जो सुखा सीधा, कच्चा रसोई का सामान ।-->करना तत्‌० ' (कि०) शाक को छीछना-बनाना, अनाज का घीन फरक कर साफू करना । अमनेक दे० (ए०) हकूरार, अधिकारी | अवध सूबे के । | श्यमराई तवू० (स्री०) झ्राप्त का वन, बाग । [ का नाम । एक क्िम्म के क्राश्तकार जिनके पुशतैनी छग्राथ के बारे मे कुछ खास अधिकार ग्राप्त हैं । अमनेये|ग तत्‌० (पु०) भनवघानता । झ्ममनोकज्ञ तत्‌८ (गु०) असुन्दर, कुरूप, घिनोना | घ्यमर तत्‌० (घु०) देवता, नित्य, चिरस्थाई, मरणरद्वित कुल्िश बुक्च, भ्रस्थि-संहारक चृत्त [-+जुं तत्‌० (गु०) देवजात, देव से उत्पक्त, देवभाव तत्व ततू» (पु०) देवभाव, देचत्व, देव-सायुज्य । “--दारु तत्‌० (०) बृत बिशेष, देवदारू +-- द्विज्ञ व्‌» (पु०) देवल बधाह्मण, पुजारी ।+-पति तत्‌० (पु०) इन्द्र, देवों का राजा ॥-पुर तत्‌० (पु०) देवों का नगर ।-चैल तदु० (सख्री०) आकाश बेल, छूल्लों के ऊपर जो एक क्वता जगती है ।--त्लोक तत्‌.० (३०) स्वर्ग, देबलोक ।--सिदद तत्‌० (पु०) (१) उज्जयिनीन्पति | (०) विक्रमा* दिव्य की सभा के नौरलों में से एक रल, असर* क्राष नामक संस्कृत काप इन्होंने बनाया था। ग्रही एक अन्‍्थ इनकी कीक्षि का अमर रखने के हिये ययेष्ट लाधन है । (२) प्रसिद्ध गोरखा छेना* पति, १८१४-१५ खुष्णव्द में नैवाल के युद्ध में श्त्रज़ सेनापति श्ाकृढरछोंनी को इन्होंने खूब छुकाया था | जब॒विलासपुर के राज़ा ने श्रेंग्रेज सेवापति की सहायता की, तब अमरसिंद नेपाल की राजधानी काठर्माडू चले गये और युद्ध का अन्त हुआ | (३) राजपताचा के अन्त्यंत्त मेचाड के राजपूत-कुछ गौरव प्रतापसिंद का पुत्र | यह छाह्यकालछ ही स्ले अपने पिता के समीप रहने के कारण उसेके सहलीय चरित्रों के अशुकरण करने में समये द्वो ल्क्ता था। यह अपनी थुवावस्था में मेवाढ़ का राजा हुआ | यह अपने विता के समान लिया जाता है उसे अमरस या अमाषट कहते है | अमरा तत्‌० (स्त्री०) दूब, थुच॑, सेहुड़, धूहर, नीली कोयल, मिल्छी जो गर्भ के बालक के बदन में लपटी रहती है । अमरावती तब" (ख्तो०्) इन्द्रफरी, स्वर्ग, एक नगरी शमर ततच्‌० (ए०) पक राजा ओर कथि का नास । कद्दते हैं मण्डन मिश्र की स्वी के प्रश्नों का इत्तर देने के लिये शज्लराचार्य जी इसी राजा के रत शरीर हें भ्रविष्ठ हुए थे, और “ अमरुशतक, ? नास का एक खद्भार रस का काब्य बनाया था। अमरुत्‌ तत्‌० (गु०) सुस्थिर, शान्त, भ्रचश्चछ्ल, निनांत | (४०) फल विशेष। घमरू दे० (६०) काशी का पक रेशमी वस्य विशेष । अमरूद दे० (पु०) सफरी, विद्दी, फछ विशेष | असमरेश या अमरेश्वए तत्‌० (३०) देवताओं का राजा, इन्द्र । अमरीया दे० (स्त्री०) देखो असराई। अमर्यादा तत्‌० (स्त्री०) अनीति, असम्मान, सान- हानि |--तदू ० (स्त्री०) श्रम्याद्‌ । अभर्ष तत्‌० (प०) क्रोध, कोप, रिस, अक्षमा | अमर्षण तत्‌० (पु०) कोधी, रोगी, कोपान्वित | असल दत्त" (पु०) निर्मज्ष, राज्य, काम, प्रयोग, . सादक वस्तु । घझमलतास तदू* (घु०) श्रौषध विशेष । अमलदारी दे० (स्त्री०) अधिकार, शासन । अमलपदा दे० (ए०) अधिकार पत्र । अमलवेत दे० (8०) छता विशेष अमलला तत्‌० (स्त्रो०) लक्ष्मी, सावछा छुक्त, पाताल आला, (पु०) भविला ! अमली दे० (वि०) व्यवहारिक, काम में भराने घाला, नशेबाजु, (स्त्रा०) इमली | छमहर दे० (स्ली०) आम कि खटाई, अमचूर। [मन्‍्त्री । अमात्य तत्‌० (५०) अधान मन्त्री, दीवान, राज- धमान ठत्‌० (थु०) सान रद्धित, निरहदूपरी । झा० पा०--% पअमानत (६ ४१ ) अमेधा अमानत दे० (स्री०) धरोहर, थाती -दार (पु०) अमूल तदु० (गु०) मुलरद्वित, निर्मेठ, जद शून्य । थाती इसने वाला । अमाना तद्‌» (क्रि०) समान मरना, खपना । धमानुप तत्‌० (गु०) जो मनुष्य से न हो सके, मनुष्य की शक्ति से बाहर [ भ्रस्वीक्ार । अप्तान्य तत्‌० (ए०) मान रहित, त्याज्य, अनाबृत, झप्ताय तर» (गु०) कपटनद्वित, वास्तव, यपाथ, मायानद्वित । झप्तावढ दे० (स्त्री) आम का सुखाया हुआ रस । पअमरावस तदू० (खरी०) तिथि विशेष, जिस तियि में चन्द्रमा सूथ्य एक ही राशि पर वत्तमान हों। चान्द्र मास का भअम्तिम दिन । अमावास्या धब,] ( खो अमावस) अमिड तदू० (पु०) अ्र्शत, सुधा, “कीन्हेंसि प्रमिड जीये जेदि पाई”'---(पत्मादत) अमिद तदू० (यु०) नित्य, दृढ़, अटल । अमित तत्‌« (ए०) बहुत, अधिक, प्रचुर, भ्रसंस्यात । '्मितौना तव्‌० (०) सर्वेशक्तिमान्‌ ] अमित्र तत्‌० (पु०) शत्रु, बैरी, भरि --भूत (एु०) विपक्ष, येरी, श्रद्धितकारी । अमिय तदू० (पु०) चछत, सुधा, पियूप ।--पम्ूरि (स्री०) संजीवनी बूटी । अमिरती दे० (स्त्री)) इमरती, मिठाई, पुक प्रकार का जल पीने का घातु का गिलास ) अमिश्षरशि (स्त्री०) पुकाई से। लेकर नौ तक के अंक, वह वाशि जो इकाई परे प्रकद की जाय! अमी तदू* (स्त्री०) श्र्मत, सुधा, आसव । त्ततू० (गु०) [धिम+ इन] रोगी, सेगाते, पीडित । तमीत तदू" (गु०) चैरी, शत्रु [ चारी । भ्रमीन दे* (पु०) भरदाछूती पक अहदलकार या क्मे- अमीर दे० (पु०) धनवान, अफगास्तिन के राजा की उपाधि । अपूलक तत्‌० (गु०) मूलरहित, निमूत्, श्रपामाणिक, मिध्या अमूल्य तत्‌० (गु०) उत्तम, बढ़िया, श्रेष्ठ झम्दत तच्‌० (पु०) समुद्रोत्पन्न द्रच्य विशेष, पियूष, सुधा, जल, घृत, मुक्ति, दूध, भ्रापधि, विष, यश्ञशेप द्ब्य, अयाचित वस्तु, वत्सनाभ, भक्षणीय द्न्य, सुस्वाद द्रव्य, पारद, थ्न्नधन, स्वर्ण, हथ | (गु०) मरण रद्धित (पु०) घन्वन्तरि, वाराह्दी कन्द, बनमूग, देवता, सुन्दर |--कर तत्‌ (घु०) चन्द्रमा, निशाकर (--कुणड तब (३०) अग्त का पात्र ।- ज़ठा ततठ्‌० (स्त्री०) ज्टामांसी।-+- तरद्विणी तत० (स्री०) ज्योत्सना, प्रकाशमयी रात्रि +--दीशिति तत्‌० (५०) चन्द्रमा, शशाह, शशघर ।--धारा तद॒० (अश्नी०) बर्ण विशेष जिप्तके पहले चरण में २० दूसरे में १२ तीसरे में १६ भौर चौथे में रू अघर होते हैं --ध्यति (स्त्री०) यौगिक घुन्द विशेष, जिसमें २६ मात्राए होती हैं। इसके भ्रादि में पक दोद्ा होता हैँ [ दोहे को मिला कर इसमें ६ चरण होते हैँ भौर हरेक चरण में द्वित्व समेत तीन यमक द्वोते दें । --फल तव्‌» (पु०) पदोल, परवर)- फला तत्‌० (स्त्री०) दाख, अंगूर, अआमलकी ॥-पल्ली (स्री०) मुइ्डद्ी लता।--बान (७५०) आचार भ्रादि रफने का मिट्टी का पुक बर्तन जिसमें क्षाख पुती होती है --विन्छु तत्‌ (६०) एक उपनिषद्‌ का नाम -रख तत्‌० (६०) ुधा, अस्त ।--लता ततृ० (स्त्री०) मिलोय, गुच,--सार तत्‌० (स्त्री०) अगर ।--सम्भवा तत्‌० (स्त्री० ) मूढूची। सार (१०) घी, मक्खन, नधथनीत [--स्रवा तब्‌० (ख्री०) कदली दत्त, क्ता विशेष । अग्र्तायु तत्‌० (पु०) चन्द्रमा । अप्तुक सव्‌० (गु०) व, कोई, ध्यमका ठम्रका, इद्धि | अम्टेता तब (स्त्री०) गुडीची, दुवां, चुठसी, मदिरा, स्थम्यक्ति, सम्मुखागत । श्रम्तुत्न तद० (म०) परकाल, परलोइ। आमलकी, हरीठकी, पिप्पली ! | इम्ठती तद्‌» (म्त्री०) लुटिया, मिथाई विशेष ॥ आते ठत्‌० (गु० निराकार सूर्तिीन +--रि (०) | आम्तृष्य तत० (गु०) असझ्ष, अद्न्तस्य ॥ मूर्तिद्दीन, भराइति रहित! | अम्रेया तब« (गु०) सूखे, सूढ़, अवोधा अमेष्य (्‌ पप्नेध्य तत्तर (गु०) अ्रपवित्र, श्रश॒द्ध, दुए । अमेषध तत्त्‌० (यु०) भ्रब्यवे, सफल [--चीय॑ तत्‌० (पु०) अच्यथे चीय, श्रखण्ड तेज, श्रव्यर्थ प्रताप अझसमेार दे* (सत्री०) ग्राम के दिकारे, अबिया । अरे (यु०) अमूल्य । धमध्या दे० (5०) रँगा कपड़ा | यह कई प्रकार के रंग का द्ोता है ! अम्बक (४०) चच्ु, नेत्र, तवा;पिता । अस्बत तब्‌० (ए०) खट्टा, असल, चूक, खठाई । आस्वर तत्‌५ (छु०) आकास, वस्त्र, कर्पास, स्वताम- ख्यात सुगनन्‍्धद्रत्य विशेष + अस्थरीप तत्‌० (छ०) युद्ध, विष्णु, शिव, शावक, भास्कर सूथ्य दंशीय राजा विशेष । अ्रयोध्यानगरी इनकी राजधानी थी, इनके पित्ता का नाम नाभाग था, इस अतिम बल्शाली राजा ने दस लाख राजाओं के छाथ पुक समय युद्ध किया था, सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना राज्य स्थापित करके यथाविधि कई सौ यज्ञ इन्होंने सम्पादित किये थे, इसीके प्रताप से इन्होंने दुर्लभ स्वर्ग प्राप्त किया था । नरक सेव-थराम्नातक बच्त, अजु- साफ, पश्चात्ताप | घम्यत्त तदू" (ख्री०) मादक वस्तु, खट्टारप । अस्वछ्ठ तत्‌* (पु०) [अम्ब+ स्थान + ड] जाति विशेष, निशाद पिता के भौरस से शूद्धा ञ्री के गर्भ में शत्पक्ष, इस जाति को बल्जाऊ में वैंध जाति कहते हैं । मुनि विशेष, देश विशेष, दस्तिपक, «. भद्दाचत । घ्रम्या तव० (ख्री०) [अम्ब+ओआ_]) साता, जननी, हुर्गा, काशिराज की जेएाकन्या, इसीचे दूसरे जन्म में शिखण्डी का रूप घारण करके भीष्म पितामद को सारा था। ध्यम्वारी तदु० (खत्री०) हौढ़ा, चन्दवा । ध्यम्बालिका तत्‌० (स्त्री०) [अम्वाछा + इक + आ। मा, साता, जननी, काशिराज कि छोटी लड़की, अखिद्ध राजा पाण्ड के मरने के अनन्तर यह अपनी सास सत्यकती के साथ वचन का चली से थी। छ३ ) ध्ययन सन नननत 55 मतर-++-ैै२२२-न+- कत्ल: ६5७9-०७ हे अस्त्रिका तत्‌०॒(स््री०) [शअ्वम्वा + इक + श्रा] हुरगां, भयत्रती, माता, काशिराज की मध्यप्ता कन्या, यह विचित्र वीय्ये से ब्यादी गई थी, इसके पुच्र का नाम छत्तराष्ट्र था, यह पाण्डु के मरने के बाद सत्यवती के साथ वन चली गई थी, भौर वहीं डखसने तपस्या के द्वारा इस शरीर को छोड़ा। अम्विया तदू० (छ०) दिश्वेरा, छोटा आम । अस्थु तत्‌ू० (पु०) श्िंव+ब] जरू, सलिल, पानी, चीर |--कण तद्‌० (उ०) ओस, शीत, तुपार ।--ज्ञ तत्‌० (१०) कमल, पद्म, वच्च -- जन्म तत्‌० (पु०) पच्च, कमर, पह्टुज, (>दु (पु०) मेघ, घटा, बर्षा, बारिद |-धर तत्‌० (पु०) चारिद, भ्ेध, वारिधर ।--थि तव्‌० (घु०) समुद्र, सागर, सिन्धु, जलधि |--निधि ततू० (प०)जलथि, समुद्र ---बाह तव०(ए०) मेघ, वारिद, बादल । अस्सस्‌ तद० (३०) भ्म्ड,जल्ल, पानी ।--ोज तत्‌० (३०) [अ्रस्भस्‌ + जान + डू] पद्म, कमक्ष, भम्बुज, चन्द्र, सारसपक्षी ।-ोद्‌ तल» (छ०) जलूद, अशञ्र, मेघ --ंधर तत्‌ (घ०) जलूघर, मेघ समुद्र ।+--धि तत्‌5 (पु०) समुद्र, खागर -- निधि तच« (६०) सप्द्र, साथर, जरूचि। अस्मा तत्‌० (स्त्री०) माता, सा, महतारी | अम्पारी दे? (स्त्री०) अम्बारी, हाथी का दौदा । असरूत तत्‌० (स्त्री०) खट्टा, चूक, श्रम्बेत । अम्लपित्त तव्‌० (ए०) रोग विशेष | अम्लवेत दे० (४०) अ्मलचेत | झम्लान तत्‌५ (गु०) मठयन रहित, छष्ठ, ताज़ा ।-- ता तव्‌० (स्त्री०) हृष्टभाव, असन्नता। घ्यम्ली तबु० (स्त्री०) श्रमिक्री, तितिड़ी, इमली । अम्होरी दे० (स्थी०) अन्दौरी, बदन पर की चोटी छोटी फ़ुसिरयाँ जो गर्मी की ऋतु में निकल आती हैं । आयश्पिण्ड तत॒० (यु०) [अयस्‌ + पिण्ड) क्लौदपिण्ड लोहे का गोला [ आअयल्त तत्‌० (पु०) श्रौदास्य, अयतन, 'असत्कार अययार्थ तव० (गु०) मिथ्या, श्रन्याय, अम्घेर । अयन दत्त० (पु०) वर्ष का आधा भाग, सूच्ये का उत्तर झयश ( ४४ ) परण्ट ..0ह0#....तततमत+तनंनत__________+______ै_________++_+++++++ और दुछिय दिशा का गमन, ग्रमन, आश्रय, मार्ग ++ँश तद्‌5 (एु०) सूर्य की गति विशेष ' के काल का माग, अयनमाग | ५ प्रयश वव्‌० (पु०) श्रक्कीतिं, कलझू निन्‍दा, असप्याति। ++कर तद्‌० (गुर ) [ध्र क भ्यस्‌ + क ++ अल] दुर्नामअनक अश्रस्यातिकर | तत्‌» (बवि०) [ अझ+यसू+विन्‌ ]) बदनाम, अय्यातियुक्त, अतिष्ठा रद्दित। पयस्‌ तत्‌० (दु०)लछोडा । ध्रयस्कान्त ठद॒» (पु) [अयस्‌+कान्त] मणि विशेष, चुम्दक परथर । प्रयाचक तत्‌० (यु०) या*चा रहित, ध्रम्रिचुक । अयाधित तत० (गु०) याध्चा बिना प्राप्त, श्रप्राथिंत । +-मत सब्‌० (गु०) बिना मगि प्राप्त हुए पदायों से ज्वीविका निर्वाह करने घाला। झय॑ तत्‌० (६०) यह, ऐसा, इसहा प्रयोग रामायय में भाया है । ध्यान तद्‌० (गु०) छडकाई, मूसेता, अनजानपन ! +-प तदु० (गु०) छदकपन, सू्सता, वेसमम्दी। झयाना तत्‌० (गु०) भोला, अ्ररूक, मूर्ख। पयाल दे० (प०) शेर अथद्ा घोद की गदव के वाल | आयुक्त तत्‌० (ग्‌०) चअमिश्रित, अनुद्ित, प्रसद्गत! ध्रयुत्‌ बत्‌० (गु०) शयुक्त, श्रमिद्गित, अमिश्नित। (पु०) दशा सइस्र संख्या, दशा हजार । ध्युध तदू० (पु+) भायुध, अश्तराख, इृधियार । झये तत्‌० (व्य०) सम्बोधनार्थ, विषादाय, स्मरणाप॑, केषपाये । झयेाग तव* (पु०) विश्लेष, विस्छेद, अनेस्‍्य । ध्येगच ततद्‌० (पु०) थरूद्ध के औौरस से वेश्य कन्या रे गर्भ से जात सन्‍्तान, जाति विशेष । [ अपात्र। श्याण्य वद० (वि०) अनुपयुक्त, भरकुशक, बेकाम, अयेघन तद० (पु०) [भिपस+घन] पछद्रीमूत लौद चुज, निदाकी, इथोदा, निदाई। पयेध्या ठद्‌* (ख्वी०) [प्र+युध्य + था] छेशव्ट, अवधपुरी, सूर्यबंशी राज्यों की सजघानि। नाथ (१०) (१) अयेष्याधिपति | (२) पण्डित केदारनाप के पुत्र, ये कारमीरी प्राक्षण थे, इनझे लत अत अल परनिकशट 2.2» 3 जातक लि चली पिता पक घनादूय ब्यवसायी थे | १८४० खृष्टान में पण्डित अ्रयोष्यानाथ का थागरे में जन्म हुआ था। फारसी, भरवी झौर अप्रजी के यदह्द विद्वान्‌ थे। झागरे में उन ही वड्ाढत खूब चली थी, जब खदर अदाछत आगरे से इन्टाहाबाद आयी तमी पं ० श्रयोष्चानाथ जी इल्टाद्ााबाद आये। बहुत से लोछओपकासी कार्य इन्दोंने किये थे | इन्दोंनि दृब्यो- पाजन भी सूच किया और इसका सदुपयेग भी, युक्ततदेश के समी लोछापकारी कार्यो में यद्द शामिल होते थे, अतपुव ये यहाँ के नेता समम्झे जाते थे । “इगिड्यन द्ेरक्ड” नाप्तक दैनिक पत्र का कुछ दिन तक ये सम्पादन करते रहे | घुन उसझे बन्द दोने पर “इण्डियन यूनियन! नाम का पत्र निकालते थे । इलादावाद स्यूनिसिपैक्दी के फमिश्नर और इलाद्ावाद यूनिवसि'टी के फेक्ो थे । युक्तमदेशवासी हिन्दुश्तानियों में सर्वे प्रथम छोटे छाट के कौंसिल में ये दी बैठे थे ध्रयेनि तत्‌० (गु*) येनिमिद्न, 'अनुश्पत्न ।--ज सतू« (३०) जीव विशेष, येगनीजात मित्र, वृष श्रादि झरई तदू० (१०) मधानी, मई। [सींचातानि करना । अरकना वरसना दे० (भ्र०) इधर उधर करना । धरगजा तत्‌० (५०) अरगेजा, एक सुगन्धित द्वम्प विशेष भप्रसीद | श्यरगनी दे+ (स्रो०) बांस, लकदी या रध्सी जो किसी घर में कपडे थादि रखने के लिये टाई आय | श्ररध तदु० (पु०) अध्य, पोडशेपचार में से पूजन का पुक उपचार ]-- तत» (पु०) अर देने का « पान्न ॥ अ्ररचन तदू० (पु०) पूजन, सम्मान | ध्यरचना तदु० (क्रि०) पूजन करना । अरज्ष दर (स्ो०) विनय, प्रार्थना । + (श््री०) प्रायना पत्र अरसला तद्‌» (क्रि)) इलमना, फंसता, यसना | खरणा तदु० (सो०) जक्टी मेंस । अराणि तत्‌० (द्री०) काष्ट विशेष्ण जिसे पिस कर आय निकालते हैं। अग्नघथारर काट विशेष | ध्यर्य्ट तत्‌» (०) रंढी, अण्डी घछ | पर्व ( छट ) असरन्धाति ह ललित के जप ध न ख्रणय तत्‌० (छु०) वन, कानन, विपिन, जद्त। अरिए तत्‌० (ए०) चूतिकासृह, तक्क, विवाक, हुग्ख, --बासी तल्‌० (एु०) वनस्थ, वनवाली, तपख्ी, |. सरण चिन्ह, उत्पात, डपन्नव, चुपभासुर | इसी मुनि |--रोदुन तद० (एु०) निष्फल शेना । असुर को कंस ने श्रीकृष्णचन्द्र जी को मारते हे ध्रदाख दे० (पु०) भेंट सद्दित विवेदुन, शुभक्से में | लिये प्रज॒ में भेजा था। इसका विशाहू शरीर देवता के लिये कुछ भेंट | नानक पंथियों का यह चधा मयडूर शब्द सु कर बत्रजवासी भयभीत दो विशेष व्यवहार का शब्द है । गये । भगवान्‌ कृष्ण ने इसका अन्तिम संस्कार घ्यरव दे० (१०) स्लो करोड़, घोड़ा । किया |“-नेस तत्‌० (यु०) कश्यप प्रजापति का अरवराता त्दू० (क्रि०) हड़बढ़ाना, घवड़ाना । एक नास | राना सगर के ससुर का नाम, सहन श्यरया दे« (पु०) बिना उबाले हुए धान से निकाला हर्वाँ प्रजापति । हुआ चविल। अरी तदू० (स्त्री०) स्त्रियों के लिये सम्बोधन | अरविन्द तत्‌० (पु०) कमल, उस्पल, पद्नूज । घ्यरीठा दे० (प०) रीठा। प्रवी तत्‌० (ख्री०) घु्टर्या, कच्चू, बंडा | अर तदू० (अर०) फिर, घुना भौर, ओ । ध्यरसट्टा तद्‌० (9०) आकाच, निरख, परख | अरुई तदू० (स्त्रो०) अरबी, गर्भवती स्त्री का चिन्ह, ध्ररखन परसन दे? (पु०) एक प्रकार का छड़कों का उसकी अरुचि। जेल, आस मिचौनी । ध्यरुचि त्तत्‌० (स्त्री०) रोग विशेष, भोजन 'के पत्ति छारसा दे+ (पु०) विलूस्त, देर । अ्रभिकापाभाव, श्रनिच्छा, वितृष्णा, अश्रद्धा, जी शरसान तत्‌० (४०) चुत विशेष जिसमें २४ अक्षर मचकछाना । ७ भगण और १ रगय होता है । ॥ प्रुकताना तदु ० (करि०) फासना, फसाना, उछक्काता। ध्यरक्षिक तत्‌० (गु०) धरसज्ञ, अधिदग्ध । | ध्यरुण तदू० (प०) अर, दुक्ष, सूर्य, श्रव्यक्त राग, घरसी दे० (ख्ी०) प्रतसी, तीखी । «५ ईपद्गकक्त वर्ण, सल्ध्या राग, शब्द हित, कुएसेद । अरसशोंदा दे” (पु०) झानस्य से एणं। | सूर्य के सारधि का नाम । पह गछड़ के ज्यप्ठ भ्राता अरहूद तत्‌० (ए०) अरघह, रेहटा, पायी को | थे। सदपि कश्यप के औरस तथा विनता के गर्भ , चरखा, पाभी निकाहलने का एक प्रकार का यन्त्र | | से इनकी उत्पसि हुई धी। इनके पैर नहीं हैं, धरहर तद्‌० (स्त्री०) अन्न विशेष, तूर। ।.. क्योंकि जब हनका शरीर गठित नहीं हुआ था, अ्रराजक तत० (गु०) [अ्र+राज + छल] राजशूल्य तभी इनकी साता बिनता ने ओडे फोड़ दिये। देश [--ता (स्त्री०) राज का अ्माव ! इनक्ली स्त्री का नाम स्पेची था, सम्पाति श्र अंधेर, आशन्ति । जटायु इनके दो पुत्र थे |-ोद्य तत्‌० (पु०) श्राति तत्‌० (पु०) शत्रु, रिछ, वैरी ।.. जिपना। (व रे विद्वास8 , मत कक ५ ४5%: ५ (कि) पूजना, सेवा करंगा,. सन्‍्त्र घु०) रक्त कमछ ।--लोचन तत्‌० (पु०) छाछू पर हररा। दरदरा 5 भेज ऋपो्त: कब: को कि ।--लारथि: हंपर (घु०) सूर्य, भा, दिवाकर ।-शिख्वा (छु०) आ्यरि सत्‌ ० (पु०) श्र, चैरी, रिफु गरिधलब चच्‌० सुर्गा । ०) शत्र-समूह, शत्रु राज्य ।- षपड़वर्गें तव्‌० हर का रा चमक सदर, छः श्र वे हैं-- | भखणाई तत« (स्त्री०) सोर, ज्ञाल रहा काम, क्रोघ, छोभ, मद, सोह और मत्सर | आरुन्तुदु तत्‌*« (गु०) [अश्रर्+चुद्‌ +ख] मर्मस्थक, झरिन्द्म तत्‌* (गु०) [अरि +- दम + अल] शब्रुजयी, समेरीडक, पीडाकारी, नाशक, अपय्य | योधा, बच्ची, शत्रुओं का दमन करने वाह । | ध्यस्न्धति या ध्यरुन्थती तत्‌० (स्त्री०) चशिष्ठ इनि आरियाना (क्रि०) तिरकार करना । की पत्नी, अति सूधस, नक्तन्ने विशेष, कईस झुनि की ध्यरूप (४६ ) चर्ध कन्या, वरिष्ठ के समाने इनओ भी रुचतमण्डक में | अ्चिराजमार्ग तत० (पु०) देवयान, उत्तमाग) चह स्थान सिल्रा है। कद्दते हैं माने के छू मददीने पहिले यद्द तारा नहीं दीखता । झखप ठत० (गु०) दुरूप, कुष्सित रूप, कुश्री । अरे तदू० (श्र०) नीच सम्रोधन, सकोध शब्राद्यान अरेव तदू० (५०) पाप, अपराध, दोप | अरोग तह» (गु०) गेगरहित, भज़ा, चढ़ा “ना दे० (क्रि०] (मेदादी मापा में) भोजन करना । अरोचक तव्‌० (गु०) रोग विशेष, अरुचि रोग | घअरोड़ा दे? (गुर) खत्रियों की एक ज्ञाति जो पज्ञाव में विशेष सैल्या में पायी जाती है । अंक तत्‌० (पु०) सूय, आदित्य, इन्द्र, ताम्र, स्फदिक, पण्डित, ज्येष्ठ आता, रविवार, श्राक्र बृढठ |-- तनय तव्‌० (पु०) कर्राज, साथरणिं मजु, शनि, यम (--धंत तत्‌ू० (०) धारोग्य, सपघमी का ब्रत, सूर्य के जल्‍्प्रदरण के समान राजाओं का प्रभा के निकट कर अदण । श्रकोद तत्‌० (स्त्री०) सतर्कता, सावधानता। अगेनि तब» (धु०) देखो अरगनी । अर्गज्ञा तदू6 (देखो अप्गगा) | श्रगेल तथ्‌० (७०) खोल, आयक्,, हुडका, फिवाद यस्द झरने की लकड़ी । -। तल» (स्‍प्री०) खील, डुढका, दुर्गा सपशती के पाद के पहले पाठ किया जाने धाला पुक स्वोब्र ।--ी (स्त्री०) मेड की पक जाति जो मिस्र, स्वाम आदि देशों में पायी जाती है । ध्यघे तत्‌० (प०) पूजा का द्वव्प, पूछा का उपहार, पूजा में जल देना, मोल। धर्घा तदु० (स्त्री०) थे देने छा पात्र, तपंण का पात्र विशेष, जन्नदवी जिसमें शिवक्षिक्न रहता हैं । अम्यं तब (गु«) दशनी, भेट, उपहार, उत्तम, गृह में आये हुए के जलादि देता । पर्वेक तछ० (३०) पूजु, या याचऋू, अ्च॑नाकारी। अर्ा या अख्रेना तद्‌० (छ्वी०) पूजा, सेवा, आरा घना, प्रतिमा, देवमूति । [ज्योति । अथि' तव्‌० (स्त्री०) अप्रिशिखा, चमक, आंच, ख्रखित तत्‌+ (गु०) पूलित, भ्रायित । मार्ग जिससे मुक्त जीव सगवान के पास जाते हैं । अिप्मान्‌ तव० (६०) [अर्चिंस + सता] श्रप्नि, सूर्य, (यु०) दीपतिम्रान, देदीप्यमान । अच्य तत्‌ (०) घूजनीय, पूज्य । अर्ज दे० (पु०) प्रार्थना, बिनती ॥--दाश्त (स्त्री०) प्रार्थना पत्र । [ बाला । अर्जक तत्‌० (पु०) उपास्नेनश्चां, अजेयिता, कमाने अर्जन तत्‌० (पु०) उपा्जन, कमाई, प्राप्ति, लाभ, प्रतिपक्ति, सल्वप करण, लाम करण! [ ढब्ध । अर्जित चद्‌० (गु०) श्रज्जित किया हुआ, सख्त, अर्जी देन (खी०) विनयपत्र ।-दांवा (पु०) प्रार्थना पत्र विशेष जो दीवानी भ्रवालत में पेश किया जाता है । अजुंत तत्‌* (पु०) इद विशेष । तीसरा पाण्डव।+ देवराज इन्द्र के औरस तथा इन्ती के गर्भ से इनका जन्म हुपाथा, यह पाण्ड के चेन्रज पुत्र पे । इन दिनों इनशे समान घलुर्विया विशारद दूसरा नहीं था। साक्षात्‌ भगवान्‌ इने सारपी थे | मदादेव की आराधन करने से इन्हें पाशुपतास्र प्राप्त दुआ था। धखविधा सीखने के लिये यह स्वग॑ सें इख्ध के निकट गये थे, अपना मनारय भट्ट द्वोने के कारण उर्वशी ने इन्हे नपुसक दो जाने का शाप दिया था, जिस्तका वपयेग भज्ञातवास के समय विशट राजधानी में इन्होंनि किया, भ्र्धान की तीन ख्लियाँ थीं--दोपदी, सुभद्ा, और चित्रा- ड्रदा, इनके भतिरिक्त कौरव्य नाग की कन्या डलूपी का भी इन्होंने ब्यादा था। अरणव तद० (पु०) समुद्र, सागर, अब्धि -पोत तत्‌० (पु०) जद्दाज बृद्नत्‌ नौका, सपुद्रयान [--- योन रुद्‌० (पु०) जद्वाज़ । अर्थ उत्‌० (०) अमिप्राय, वात्पये, माने, धन ।--कर तत्‌० (वि०) लाभकारी, जिससे धन पैदा दे ।-- गौरव तव्‌० (पु) चर्च की गम्मीरता +--क्ञ ततू० (गु०) भाव मर्म ।--ज्ञान तत्‌» (०) कप, “व. ततू० (श्र ) फरत अश्रय॑त , बस्तुत" “ादिण्ड तत्‌» (पु०) जुर्माना, घन का_दण्ड [ घ्यर्थात्‌ “>डूपण तत्‌« (पु०) अ्परिमित्त व्यय नाश सतत ० (पु०) घननाश, निराश “>पति (8०) राजा कुबेर, श्रति धनी पर तथ्‌ (गु०) कृपण, व्यय, शब्वित्त /--पिशाच ततु० (वि) घनलोलुप, -घन के सामने कर्ततव्याकत्तंब्य पर ध्यान न देने चाल ।--प्रयोग तब० (छ०) बुद्धि, निमित्त, घन दान ।-प्राप्ति तत्‌» (स्त्री०) घनक्वाभ, क्षम्प (१-० चत्व तत्‌० (सु०) प्रमेजना- हँता, प्रयोजनीयता /--चाद्‌ तु» (9०) काल्प- निक, फलश्नुति, स्वृति, प्रशंसा, प्ररोचक चाक्य । +-विज्ञान तत्‌" (धु०) शब्दार्धक्षान ।+-बछ्धि तत्‌० (ख्वी०) धनवद्धन (--शाह्षी तत्‌० (पघु०) घनशाली, धनवान | - शास्त्र तत्‌० (ए०) नीतिशास्र, दण्ड नीति, घन डवपार्जक शास्त्र । शर्थात्‌ त्त्‌० (अर०) चस्तुत:, अर्थतः फलछतः । अर्थान्तर तत्‌" (घु०) भ्न्याथे, दूसरा श्रधे न्यास (8०) प्रर्थाक्षद्वार बिशेष, यधा--- # दृढ़ साम्गन्यते विशेष हाय, सूपन अर्धास्तर पास सीय --भूषण । धर्थापत्ति तत्‌" (घ०) प्रसाण विशेष जिसमें एक बात के कथन घे दूसरी बात की सिद्धि अपने आप हे। ज्ञाय | अर्थालझ्भार तत्त० (पु०) अलझ्ार विशेष जिसमें अर्थ का धत्मकार प्रदर्शित किया जाय । (रिथ्री कं आ्यर्थी तत्‌० (पु०) घनी, याचक, बादी+ सुरदे की खाढ, अर्दावा वद्‌० (०) भोदा आटा, दृक्षिया । ध्यक्ति सव्‌० (गु०) [अदे + कर ] पीड़ित, यम्त्रणायुक्त, हिंसित, याचित, गत / परद्धी तत्‌० (गु०) छुल्य विभाग, सम विभाग, आधा, मध्य +--चन्द्र तत्‌* (पु०) चन्द्रखण्ड, अद्धन्दु, नखक्तत, गरहस्त, मयूर धुच्छुस्थ, चन्द्रमा +-- नारीश तत* (पु०) शिव, महादेव, हरगौरि, मूर्ति विशेष |--निमेष तत्‌० (छ०) आधा चणा “-मागधी तब» (ज्ली०) प्राकत का एक सेद विशेष | मथुरा तथा पटना के बीच देश में बोली जाने वाली एक प्राचीच कालीब आपा |स्थ (४७ ) अलख कम-+-+-त++ततमत_++््हतहतह/त0हक्‍त. तत्‌० (पु०) एक रथी से न्यून योद्धा, अर््धरथी । >शज्र तत्‌० (एु०) महानिशा, रात्रि का अर्ध- भार, आधीरात ।-चुत्ति तव॒० (पु०) बच का आधा भाग ।--समरवृत्त तत्‌" (०) क्त्त विशेष जिसमें पहिला तो सीखरे के श्रीर दूसरा, चौथे चरण के वरावर हो। | ल्‍ंश तव्‌० (पु० | श्रद्धसाग । ॥-- हर तत्‌० (पु०) शीत्राह्क, रोग घिशेष, फत्चा- घात ।-- हड्जी, ड्लिनी तत्‌ (स््री०) ख्री, पत्ती अपंण तत्‌० (पु०) दान, समपण, भेंट । झर्व॑ तदू० (बु०) दृशकाटि, संख्या विशेष । खर्च तदू ० असंख्यात्‌ “-दूवे दे० (पु०) घन, सम्पत्ति । अवाक तत* (गु०) प्राकु, पृ, आदि, अमर, अबर, निकट, पश्चात्‌ ॥ अवबुंद तत्‌» (9०) दृश करोड़ सेक्या विशेष, रोग विशेष, पर्वत विशेष, भावू पर्वत | आअर्भक तत्‌० (पु०) बालक, शिक्ष, शाजक, सूखे, कृप, कुशतृण, स्वलप, सदश । [पितर विशेष । अरयमा तव॒० (ए०) झादित्य, सूर्य, अकंबूछ, नित्य, झर्यय तत्‌० (७०) एक ही समय गिरना, भ्रकस्मात गिरना । अर्राना तत्‌ ० (क्रि०) एक बेर आ पढ़ना अर्वाचीन तत्‌० (यु०) नूतन, भ्रक्ाक, विरुद्ध ! ध्र्श तत्‌० (9०) पीड़ा, बवासीर, रोग विशेष । अर्शपर्श तच्‌० (प०) छुबाहूत, शरद । आह तठत्‌० (9०) योग्य, उसच पात्र, श्रेष्ठ, उपयुक्त । अहन्त तदू० (०) जैन विशेष, जैनियों के एक तीथे- छुर का नाम | [ शक्ति, मिरर्थक । अत्त तत्‌० (श्र०) भूषण, पर्याप्ति, बारण, ब्धा, झलक तत्‌० (य०) घू'गुद, चुदिया, केश, घ्ु'धराले बालू झलकतरा दे० (एु०) पत्थर के कोयले से निकाला हुआ पुक गाढ़ा काला पदार्थ, घूना, केत्ततार । अत्तका तव्‌० (स्त्री०) कुबेरघुरी ।--घिप तत्‌० (छु०) कुबेर, घनेश्वर । अलकावली हच्‌० (स्त्री०) घेणी, घुघराले वाल । अलत्तण तत्‌० (घु०) घुरे चिन्ह, कुछक्षण । अलख तद्‌० (घु०) अगोचर, अनदेखा । झंलग (्‌ अलग तदू० (श्र०) भिन्न, न्यारा, पृथक । श्रतगनी पद (स्त्री०) (देखो भरगनी) अलड्डार तत्‌* (१०) भूषण, आमरण -- द्वीन तव्‌० (गु०) मूषण रद्दित, अशोमित । अलट्ूकूत तत॒० (गु०) सूपित,शोभित, सजाया । अलइड तद्‌ ० (५०) पार, थोर, छोर, ए तरफ । अलडवलड तत्‌० (स्त्री०) जड़, घकबर, निवुद्धि, अब्यवध्यित । घलतनी तदु० (स्त्री ०) दाथी का घागढोर । चलता तद्‌० (पु०) आालता, छाख का र॒ग, मद्दावरा पलवेला तद्‌० (पु०) चैरा, गरु दा, चैठ छुचीला। अलग तदू० (श्र०) पूर्णता, सामथ्य, निषेध निर- धर, बहुत, वस, समूद, भीढ | घलस तत्‌० (पु०) भ्राछसी, मन्‍द, ढीला, आल्स्प- युक्त, कर्मी में अ्रनुत्सादी ।--ता तदू० (स्त्री०) आहस्य, शैपिक्य | ध्ालसाना (क्रि०) ऊेंघना, कृमना, दिलना । धअरज्षखी तव्‌ (स्वी०) तीसी, मसीना १ घलसेद तत्‌० (पु०) दिछाई, व्यर्थ की ढेर, मुल्ाया, टालमटोल, बाधा, भरढ़चन ।--व्या दे० (वि०) दिललाई करने बाला ] अलददा दे" (गु०) श्रदयण, धयर। [ रस्सी, सिकड । भज्ञान तव्‌* (पु०) इस्तिवन्धन, द्वाथी बाँघने की अलजाप तत्‌० (१०) श्राजाप, स्वर, राग । अज्ञाव तद्‌० (पु०) धाग का ढेर | ध्यज़ाय सदु० (पु०) धनी, जखीरा । अलि तच्‌* (पु) मेंबत, अमर, मदिरा, सखी। +-नि (श्री ०) अपरी | प्रल्लीक तत्‌० (गु०) मूठ, मिष्या, ध्रसार | घलीन तब्‌० (गु०) अयेग्य, अमने|येगी । अलील दे० (गु०) बीमार, रोगी | अल्लेस तद्‌« (पु०) छिखने के अयेग्य, दुर्दाघ, अज्ेय। प्रलैकपलया (३०) भल्ीक प्रढ्ाप, मूठ चोलना, मनमाना, धहुधाद | अलैया-बलैया तव* (द्धी०) विद्धावर, खेल। पलोकन तब (पु०) गुप्त डोना, अद्शयता, चम्पत इोना छड ) अचकुद्धन अलौना या प्यलाणो तत्‌० (गु०) भलुना, बिना नोन, स्वाद-रद्दित । झलोप तदु० (गुल) छिपा, वियाद, प्रकट । अलोल तत्‌० (खी०) चघ्चढ नहीं, भटन, खेलकूद | अलौकिक तव्‌० (गु०) लोकेचर, श्रनोखा, अदूभुत, संसुन्दर, सर्वश्रेष्ठ । घहप तव॒० (गुण) थोडा, कुछ छोटा, किध्विव, लघु [--चुद्धि तद॒० (ए०) मन्द बुद्धि, असमम। न्ायु तव॒० (गु०) अछपजीवी, शीध्र मरने वाढ़ा ।--हार तव्‌० (पु० ) थोष्ठा खाना, अकर्प श्रद्टार । $ आअब्पप्राण तव्‌« (१०) जिन धर्णों के उच्चारण में प्राणवायु का उपयेग थोड़ा किया जाय, ष्यध्मन । घलमगल्लम दे० (पु०) प्रताप, अंटवैट, वकवाद | घद्दण तत्‌० (गु०) श्रनाडी, अनसिल्या, अनुभव रदित । अब तत्‌० (उप०) विशेष, मिर्चय, झनादर, आाल- स्वन, विज्ञान, ब्यापन, छुंदि, अरप, परिमव, नियेग, पालन ) यह जिप्त शब्ध फे पढले श्राता है इस शब्द का भर्थ प्रकरण के अनुस्तार, भेद, , वध्यापकता, अमाव और अनादर होता है| * झवकथन तत्‌» (१०) [ भ्रध + कप्‌ + अनद्‌ ] स्थुति, उपासना, प्रसादरवाक्य [ अवऊर्तन ठत्‌« (पु०) [ अव-+-कृप्‌ + झनटू ] सूत बनाने का यन्त्र, चरखा | । ध्यवकर्पण तव्‌० (पु०) [ अब-+-कृप्‌ + धनटू ] उद्धार, निष्क्रपंण, बादर स्ींचना । | झयकाश व्व (गु०) [स्व + काश + भल] प्रदसर, ) समय, दिश्वामक्राढ, सुमीता, घुट्टी का समय । | अचकीर्ण तव्‌« (गु) [ अब+कृ+क्त्‌] विदधिप्त ॥ इनाइत, इघर उघर फैलाया हुआ, दिखेरा गया। अवकोर्णी तच० (गु०) [जब + कृ+ क्त + इत््‌ ] छत- प्रत, नियमअष्ट परत, निपिद्ध बस्तुओ्रों के संस से जिसडा घत मह्ः हो यया हो, अ्रयाग्य चस्धु सेवी मनुष्य । । भवकुज्धन तद्‌० (ध०) (६ श्रव + कुचु + भनट_] बक्ी- करण, देदा करना, सोदना । | ( अधकुणठन चत्‌० (५०) | अब + कुछ + अनद ] साइस परित्याग, भीर होना, थअसाहसी द्वोना | अबकुणिठ्त तत० (गु>) [ अब + कुछ + इत | अला- इसी, मीर । [ कथन के अग्रेग्य । ध्यचक्तत्य ततच्‌०- (गु०) [अआ+ वचू+ ततब्य ] अकथ्य, अवकेशी तत्‌० (शु०) बस्स, दन्‍्ध्या, चिष्युत्र, पुत्र द्वीन, सन्तान रहित [ अचक्रदून तव्‌० (ए०) [ अब + कद + अनट्‌ ] ख़ुब ज़ोर से क्रन्दुन, चिलत्ठा चिल्छा कर रोना । अवक्रुए तब" (गु०) [ अव+ कुश +क्त ] भव्सित, मिन्दित, मन्दृध्वनित, कुशब्द थुक्त, गाली दिया झवकुणएठन हुआ । अवख्णडन तत्‌० (धु०) [अब + खंड + अनट्‌ | खनन, खोदना | [ चित, विदित । छ्रवगत सच ० (गु०) [ अब + गम + क्ष ] ज्ञात, परि- खचगति तत्‌० (स्त्री०) [ अव+ गम + क्ति ] ज्ञान, बोध, विश्ता, गमन | ध्यवगांढ़ तत्‌० (गु०) [अब +- गाह + क्त ] निमन्नित, कतस्नान, घुसा; प्रविष्ठ, छिपा | ध्यचगाहन तल्‌० (ड०) [ अब + गाह + अनट्‌ ] स्वान करण, लिमज्जन, हुखकी; गोता, अथाह, अति गहरा, जिपसक्ञा नीचे का तल मालूस न हो खरे, आचनन्त । शंचगीत तत्‌० (9०) निन्‍्द!, दोपढुष्ट, श्रति निन्दित, विशेष लच्छित । अवमुण तदू० (०) श्रव्युद, दोष, खोट, औयुण, लिन्दित गुण, दुर्शुण, दोष । अचंगूहन तव (8०) [ अ्रव + यूह + अनट्‌ ] आहि- ज्ञान, आश्लेप, प्रेम से परस्पर अन्न संस्पश | अवश्रहद तव्‌० (४०) अनाबृष्टि, बहुकाछ, अवपण, ग्रहण, अपहरण, प्रतिबन्धक, हाथी का मस्तक, द्वाथियों का कुण्ड, स्वभाव, ज्ञानविशेष, शाप | अचघद तदु० झौचद (णु०) कुघाट, अड़बढ़, ऊँचा खाला, हुदा फूटा | अचशात तत्‌० (पु०) [ अव + हन्‌ + घन ] अपवात, अपमृत्यु ५ शवचद दे? (यु०) औ्ौचक, अचानक, संकट, कठिनाह। छ्६ दान अचद ) न अचचर तत्‌० आचर (ग्रु०) एक दृष्टि, औचक, अचानक, एकवारगी । अवचेश तत्‌० (खी०) [ अब + चेश ] मन्दुचेष्टा, अन/ड़ीफपना । अवच्छिन्न तत्‌० (गु०) सीमाबदड, अचधि सहित, युक्त, अछग किया हुआ, विशेषण युक्त) अनज्ञा तत्‌० (स्त्रीग) अनादर, अपमान, उपेक्षा, अमान्यकरण, अवद्देल्ा | 3 अवज्ञात तत्‌« (ग्रु०) उ्पेज्षित, अनादत, अपमानित | अचर तदू० अऑँवचट (अ्०) औंटा कर, खौढाकर, ग्त॑ गह्नर, छिद्र, नदश्षृत्ति छे जीवन काटने बाला + अवडेरि तत्‌५ (ध्र०) बहकाय, घोखा देकर यथा “पञ्नु कहे शित्र सती विवाहदी + घुनि ध्यवद्धेर मराइनि ताही ” |--रामायण । अचढर तत्‌० (गु०) घीच पर भी ढलने वा दया करते चाला) बिना विचारे दुया करने बाला | अवतंस ठव्‌० (पु०) छरणेसूषण, कर्णालछ्वार, शिरोभूपण, सीरपेच, साथे का गहदना, चूड़ामणि, मुकुट, माला | झवतरण ठव्‌० (५०) [श्रव + छू + अनटू | मसना, अवरोहण, अवतार, उतरना, भाषान्तर, भ्रज्भवाद, करना । (स्त्री०) अधतरणिका, आभास, भूमिका, वक्तव्य विषय की सूचना | [ पाना । घंचतरना (क्रि०) नीचे उतरना, प्रकट होना, प्रकाश अचतार तद्‌० (पु०) ६ क्रव-+-त्‌ +घन्‌ ] देहान्तर धारण, मनुष्य रुप में देववा का भ्रकाशित्त होना । भगवान का लीजार्थ प्राकक्य। भगवान के चौबीस अवत्तार हैं, जिनमें अधान दस गिने जाते हैं । दस प्मवतार ये ईं--मत्स्य, कच्छुप, वराह, सर- सिंह, वाप्नन, परशुराम, श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण, बुद्ध और कछकी । अवतीण तत« (यु०) [श्रव+ह+फक्तों अवमृढ, आविभूत, उपत्यित, उत्ती्ें, जन्‍्मा हुआ, जत्पक्ष, अवतार छिया हुआ. अचतीत । [ स्वच्छ । अवदात त्तत० [अब +दा + क्त खुस्न, स्वेत, गौर, अवदान रुतू० (०) [अब+दा +अनट[ स्याग, उत्सगें, निवेदन, कत्तित दान, वध) सार डालना, पराक्रम, उल्लेघन | शा० पा०--७ पी (्‌ अचदीच ध्यक्षयच ) की कक 2 अल नल मन जी कर की की मम अंक ३ म आज के ५४ जरा अं गह बंध टबला २ आा ५ >क आज अजआ 4८ कम म् कट 4ा एकता कप का दिनी अवदीय तद्‌० (०) गुजराती बाहों की एुक शास्ता | अवनी त्यू७ (ख्री०) एथवी, सेदिनी, भूमि। विशेष, उत्तर भारत के रहने बाले आह्म्य जो | गुजरात में रहन खगे वे औौदीच्य या श्रवद्ीच कहे शाते हैं ) अवद्ध' दच्‌5 (गु०) [तर +वबध + ] वन्धन शुल्य, अनियन्त्रित ।--मुल्य (गु०) अप्रियवादी, दुसुंछ, झुखर । अचद वत० (गु०) [भ+चडइ +य) श्रधम, निन्दनी, अध्थ्य, अनिष्ट । पयद्योत तव० (यु०) [अब + चुद + घन] ईपदुच्वल, किश्िद्वीप्त, श्रर्प प्रकाश; (०) सरकृत व्याकरण का पृक प्रन्ध विशेष ][ घुरी, अवध प्रदेश । झ्यवथ॒ तद्‌० (स्वी०) वचन, सीमा, सीव,समय, श्येष्या- अवधान तद्‌« (पु) [अब क घा+अनर] मनेयोग, मन संयेजन; चौकसाई, सावधानी । प्रवधारण तब" (प०) [धिव+४+ णिच्‌ + अनट] निश्चय, निर्णय, स्पिरीकरण। [सोचा गया। अवधारी ठत० (क्रि७ वि०) निश्चय किया गया, अवधि तद० [झव+घी+कि] पर्येन्‍्त, सीमा, से, तक, लो । प्रवधीय तद" (पर) झिव+र+छ्यप) विचार कर, सोच कर, अपमानित कर | अउधछूत त्व्‌० [अब + घू + क्त] कम्पित, कम्पायम्रान, परिवेज्ञित, परिष्कृत। (१०) इदासीन, येपो, संन्‍्यात्ली, गुर दृत्ताब्रेप के समान साधु विशेष, वर्ण और श्राधमोचित धर्मों को छोड़ कर केबल आरा को दंखने वाले योगी श्रचघूत कह्दे जाते हैं। (छ्वो०) अवपूतनी | पवध्य तब॒* (यु०) [ध+वघु+य] वध के अ्येग्य, जिसझे प्रायदण्द नहीं दिया भा सके | अधन्नत तब॒० (गुण) [ध्रव+नी+क] नम्न, विनीत, अध-पतित, दुर्दृशाग्रस्त |] अयनति तत« [स्री०) [झवकनी+ ि,] विनय, अष्रता, अघ पात, दुर्दशा झवति तव॒० (दर) वृषिदी, रच, पालन । सतू० (पु०) [ अपनि के खू + स्विष ] मह्लप्रद, मम । हे ॑ प्रबनिप तथ॒* (३०) राजा, सूप, नरेश । +-छुलारी तत्‌न (ख्ी० ) सीता, मिपिलेश राजा जनक यज्ञ करने के अर्थ हल से पृरष्वी जोतते थे | वहीं पएुक घश निकला, उसी घड़े से जानकी जी इत्सक्ष हुई है ।-पति तत० (पु) सूपति, राजा | परनभी तदु० (स्ी०) रानी, राजा की पत्नी, रण्जा की स्त्री । अयनेजन तत० (पु०) चौतकरण, मार्ग आवन्ति तव* (स्रो०) देश विशेष का नाम, यदे नर्मदा की वत्तर ओर बसा हुआ है, इसेझी राजन घानी उज्जपिनी थी। जिसे अवन्‍्ती परी भी कहते थे, इसका दूसरा नाम विशाह्त है, यह दिप्रा नदी के तीर पर है। यदद देश मालवा छा पश्चिसी हिस्सा है। मद्गामारत के समय यद्द देश दछ्धिण की और नमेंदा तक, श्रौर परिचम की ओर माद्दी नदी! तक विस्तृत था । यही प्रसिद्द मदाराज विक्रमादित्य की राजधानी था । [ अगग्य | ध्ययन्ध तत्‌० (गु०) अपूज्य, अवन्दनीय, प्रणाप्र के अतचन्प्य तत्‌० (यु०) सफड, फर पान) अवमास वर्‌० (६५०) [शब+ मास + धलू] प्रकाश- करण, प्रकाशन, माया, अपर । धवभ्तृथ तत्‌० (पु०) बत; यज्ञ भादि की समाप्ति का स्नात, यज्ञ शेष, औषधि थादि से शिप्त होकर कुदम्ब परिजन सहित स्नान को अवभूय स्नान कहते है । अवम दद्‌० (पु०) तिथि का चाय, नीच, तीन तिथि ज़िस दिन में हा । [ अप्रमानित, लिउश्टूव । अचमत तत्‌* (गु०) [अब +मन्‌ कक अ्रषज्ञांत, अवमर्पण तव* (पु०) [थिव+ रूप + अनद) अवमर्प अपकय, परित्तम; छोप । ध्वमान ततु० (पु०) [श्रव+ मा + धनद] अमपान, अमर्यांदा, अपयश, दुनांध | झेवमानना ततत्‌« (स्त्री०) अनावर, अपमान). ध्ययमानित तत्‌० (गु०) [ अब + मन्‌ + इत] चपमान अधछ्त, असम्मानित। [| मस्तक । ध्यवमू््ध तव« (पु०) [अब + झडन] घ्रथ शिर, धो ध्ययव वदत्‌5 (पु) जतिव+यू + अल) थर, भक देद, शरीर, इस्त पाद च्रादि साग एक दैश नी चर (्‌ ५१ ) घ्वांकि ५ न्पयिय-णययायपप+-फ्ज--+________न्‍तन्‍#त#तत0तऔ.... तव्‌० (यु०) [अवब्यव + देन] श्ज्जी, अड्नः सहित, | आवशिफ्र तत्‌० (ग॒ु० ) अवशेष, लेप, दहते, बाकी हस्तवद* विशिष्ट, समस्त । अवबर तव॒5 (गु०) कनिष्ठ, अश्रेष्ठ, मन्‍्द, चुद्र, चरम । “+-ज तत्‌० (प०) #वनिष्ठट आता, श्रनुज, शूद्ध | >“जा तत्‌5 (स्त्री०) झनिष्ठा, भगिनी, छोडी बहिन | अवरशधक तत्त्‌» (4०) व्पासक, सेचक,, ध्यानी, सेवा कबने बात्आ, दागख | खअवराधना तदू ० (क्रि०) सेवना, सेवा, सेवा करना । अबराधे तद्‌ « (क्रि०) सेवा की, उपासरा की, आराधना की, सेवा किये, उपासना किये। [ रोका हुआ । आवरुद्ध त्तव० (यु०) [अब +- रुघ्‌ +- क्त] अटकाया गया, अवरेसत तबदू० (स्री०) लेख, जकीर, प्रतिज्ञा (>-ना (क्रि०) लिखता, चित्रित करना । अवरोध दत्‌० (०) रोक, अठक, रणघास, अन्तःपुर, राजस्रोगृह, राजगृह, राजदारा | अचर्ण तत० (पु०) श्र अक्षर; अरकार, निन्‍्दा, परिषाद । अधचर्ते तदू० (पु०) पानी का चक्कर, भेवर। अ्चर्तमान्‌ तत्‌० (गु०) श्रमाव, घलुपश्यित, मत । अचत्तम्तर॒ तत्‌० (पु०) [श्रव + रस्ब्‌ + घर] आश्रय, शरण, आलरा, आधार । आचकल्वम्भन तत्‌० (१०) [अब + लेब + श्रनट.]] श्राश्नय, ठेख ।-+ीय तत्‌० (ग्रु०) आश्रयणीय, अवलम्त्रन फरने के योग्य । [ निभेर । अवलस्बित तव॒० (गु०) आश्रित, लटकता हुमा, अचल तस्‌० (स््री०] णैनि. पंक्ति, कीर । अचलेंह. तत्‌० (घु०) चटनी, चाटने चाही कोई चीज़, चादने चाली कोई ओपधि, भोज्य विशेष /--व तथू० जिह्ा से आस्वादन, चीखना, चाटना; चदमी । [ देना ६ अवलोकन तत््‌० (एु०) दर्शन, दृष्टि, इच्ण, इष्टि ध्यचल्तोकय सव॒० (क्रि० ) देख, देखे, देखिये, दृष्टि कीजिये, यह शब्द यद्यपि संस्क्षत की क्रिया है तथापि इसका बहुलायत से अग्रोग रामायण में मिलता है) हु वस्यचश तत्‌० ( ग़॒ु० ) अवाध्य, अनायत, अनधीन परा- प्रोम, सक्तहीन, असम हु उच्छिष्ट । अवशेष तव० ( पु० ) श्रन्त, शेष, बाकी [--ग्ति्‌ तत्‌० (ग॒) बाकी, बचा हुआ, जो बच रहा [ अवश्य तत्‌० (अ०) निश्चय छरके, निस्सन्देह, निश्चित, उचित, ऋतंव्य, सर्वेथा कतंव्य, नितान्त मिश्रित ! +स्मावी तत्‌० (यु० ) [ अ्रवश्यं + भू + रिनि] निम्सन्देद, होने के योग्य, एकान्त भावी, अल । >-मेव तव्‌० ( क्रि० वि० ) निस्सन्देही, जरूर ही, निश्वय हो ।. [ होता, अनाबृष्टि । अवर्षण तत्‌० ( घु० ) ब्रृष्टि का श्रभाष, वर्षा काम घ्यचसर तत्‌० (पु० ) अवकाश, समय, विराम, विश्राम, प्रस्ताव, सन्त्रविशेष, घर्षण, बत्सर, कण | अवसन्न तत्‌० ( गु० ) श्र/न्‍्त, छान्‍्त, जड़ीभूत, गिरा हुआ, थका हुश्रा, उदास । [ सीमा। अचसान तत० ( एु० ) अन्त, शेष, ससासि, सत्य, घ्यवसि तदू ० ( भ्र० ) (देखो भ्रवश्य ) ४ अवसि देखिये, देखन योगू।”! अवसेरि तदू० देर, विछम्ब, चाह, आशा | अवस्था तच्‌० (ख्री०) [अव+स्था + श्र] दशा, गति, समय, हुदंशा ।--जय (पु०) जाप्मत, स्वप्न और सुपप्ति ये तीन अवस्था हैं | शवस्थाता त्तव० (पु०) श्रवस्थानकारी, अधिष्ठाता । झवस्थान तच्‌० (एु०) [ अवस्था + अनट ] स्थिति, वास ) [ अवस्था, अन्य दशा । आअवस्थान्तर तव्‌० (पु०) [झिबस्था + अन्तर] दूसरी अवस्थापन तत्‌० (०) जिव + स्था + खिच्‌ + अनद| स्थापित करना । [ कृतावस्थान [ अवस्थित तत्‌० (गु०) [श्रव + स्था + क्त] स्थिरीभूत, धअ्रवहित तत० (यु०) [्षिव+ घा + क्ू] विज्ञात, अब- धान, गत | आवहित्या तत्‌० (स्त्री०) [अ+ बहिर +स्था +क्रिप्‌ ] .. छंद्वेष, चात्माकी से अपने को छिपाना। अचदी तथ्‌० (पु०) एक प्रक्कार का बयूर [ ध्वददेला तत्० (छ्ी०) ध्पनादर, अश्नद्धा, अवज्ता । अवाई तदू० (खोी०) आगमन, गहरी, जुताई | आबवाक्‌ तत्‌० (यु०) | अ+बचू+गिच्‌ ] स्तण्घ, जाज््यरद्ित शवाड मुख 3 भर 3) ध्व्यक्त " अवाड मुख तत० (यु) [अवाझ+ सुख] अधोमुख, लत, रश्चित । [ के अयेग्य अवाच्य तव5 (गु०) अच्ध्य, मौनी, गुपछुप, कहने आवायोी तद्‌» [अवाच--ई]दक्षिण दिशा। अवाध्य तव« (गु०) अतकये, बिना विधा ( देखो श्रवाधी ) | [ चुलदार। अवाधी तदु» (गु०) वाधाहीन, दु स्द्वित, सुखरूष, अवोँ तदु ० (५०) श्राँवा, पजावा जिसमें छुम्हार मिट्टी के वतेच पकाते हैं | अर्चार तदू? (स्रो ) थिउम्व, अस्याचार । पअधवास तद्‌5 (६०) बाप, घए, निवापस्थान | अर्चाश्वीन तद्‌० (वि०) प्राचीन का इढ्टा, बचीत । अविफत्त तनु» (गु०) ज्यों का सवों, चैसादी, समस्त, चुणिद्वित, गषाये ) अखिकल्प तत्‌० (१०) प्रसंशय, निस्सन्‍्देह १--ग्ति लव» (गु०) सन्देददरद्दित, असेशय | अविकार तव्‌० (गु०) विकृतिशन्य, अविकल, जन्म सरणादि विकार शून्य, पज, अविनाशी, ईश्वर, अविकारी | अधिचत तग० (गु०) अ्चढ, स्थावा, स्थिर, भय- शूल्य, निष्कप, निडर |-नीसि तव० (गुण) » हिथिए दृढ़, निश्चित | अदिचार त्तत« (५०) अरसाचार, अन्याय, भू, अर्यर्म [+ति हव्‌७ (गु०) अ्रविवेच्चि, भ्रकृत दिचार [-टी तद्‌* (गु०) विचार-ढित, श्रन्याय- कारक, अ्रविचच्ण | अविच्छिन तद॒० (यु०) प्रमिन्न, सेहरन, युछ, मेद्‌- रहित) | अनैपुण्य, भ्रभ्वीणता श्रवोघ | अविज़ तद॒० (गु०) अप्रवीन, अनमिज्ञ ।-्ता (द्वी०) शवितर्कित तद५ (पु०) निरिचित, निश्प्देह ; झविवत तन" (गु०) विस्तार रहित, अविस्तृत, सइकुचित । [ यथाये, विशिष्ट ६ आविवय तत्‌* (०) सब, यथा (यु) सद्वान, अविदग्ध तद- (गु०) [श्र+वि+ दह + क्त अपा- ज्डिय अचतुर, अनमित्र '-न्‍्ता (स्ली ०) झपा- ण्डिय, भनिषुणता । अविद्ति तद्‌० (गु०) अज्ञात, अनवयत, बेमालूम। ध्रविद्य तव* (गुल) [श्र+विद्य] यूसे, अनमिज्ञ, विद्यारहित ! अविद्यमान्‌ तत॒० (गुर) चयतंमान, अभाव, श्रसता | अविदया तत्‌० (धी०) श्रज्ञान, माया, श्रज्ञानता, मू्खेता, मेद । अधिनय ठव० (पु०) नत्नतारद्वित, र॒घ्दता, दिठाई। अविनश्दर तत० (गु०) नष्ट न द्ोन बाला, स्थायी । अविनासी या अविनाशी तदू० (१०) निद्य, सर्वेदा रहने वाह, जिसका कसी नाश ने हो, नाशरद्वित, परमामक तव्‌० अ्रषिनाशी | [ छुछ , दण्ड, दुष्ट | अविनीत तत्‌० (गु०) भन्यायी, दीद, चश्चल, ञ्च्छु अविघ्तुक तदू० (गु०) श्रष्यक्त, मुमनप्‌ , सक्त +--ेत्र तत्‌० (पु०) काशी । अविरत तन्‌* (वि०) विरामशून्य, निरन्तर, छगा हुआ । (क्रि० वि० ) निरन्तर | (पु) विशम का असाव ( [घना । अ्रविरज़ तबु० (ग्रु०) निःन्‍्तर, सघन, अविष्द्धिन्न, अदविरेध तन» (पु०) सुछ, चैन, मि्राप, प्रीति, द्वेप का अभाव, पुकता ।--टी सतत्‌० (पु०) मिक्षापी, घीर, शास्त ।-नी सत॒० (स्रो०)) घोरज या शान्ति रखनेवाली स्त्री । अतिव्तस्व तत्‌* (3०) शीघ्र, तुरन्त, ऋटपट | अवियादी तद्‌० (गु०) मेली, सहत्त स्वभाव का, शान्त, कगहाय न करने वाला | अविवेक तदू० (ध०) विदारहीनता, सूर्खपन, विवेश, झुज्यता ।पे तद* (4०) अश्ानी, सू्े, तहाँ विचारनेवाला । [ रहित । विशेष तद० (९०) सामान्य, जुल्म, सचश, विशेषता अविश्वास तव्‌« (गु०) विश्वास-धूब्य, श्रप्रतीति, अतीति-हीन ) ( समय । अबेर तठ» (स्रौ०) विलम्ब, अब्रेर, देरी, श्रधिक अचैत्तनिरू तव्‌७ (दिल) पिना वेतन के काम करने चाका, भानरेरी । अव्यक तत्‌« (गु०) | अवि+ थज्‌+क्त ] श्रस्कुट, अप्रक्ाशित | (६०) विष्छ, शिव, करे, शूर्स, प्रकृति, ध्रारमा महदादि, परमात्मा, क्रियारद्दित ! अव्यप्र (्‌ --णग तथ॒० (पघु०) ईपत्‌ छोहित चर्ण, हलूका लाल, गौर, श्वेत । घब्यम्र तत्‌० (गु०) घबड़ाहर-रदित, श्रनाकुछ | ख्व्यय तत्‌० (घ०) शब्द्‌ विशेष, जो सबदा एक समान रहते हैं यधा--और, अ्रथवा, फिर, पुनः, आदि, विष्णु, परसेश्वर। (गु०) वाशरद्वित, कृपण [-- पिभाच ठत्तू० (छु०) समास्न का एक सेद्‌। इसमें अ्च्यप के साथ समस्त उच्तरपढ़ होता है, जैसे अ्रतिरूप, भतिकाछू । अव्यर्थ तत्‌० (बि०) अचूक, घार्थक, अमोच । छव्यचस्था तत्‌« (स्त्री०) असम्मति, श्रनरीति, अधिधि, शास्त्र-विरूद्ध व्यवस्था । अव्यचस्थित दव्‌० (गु०) नीति आदि शास्त्रों की व्यवस्था से अनमभिज्ञ, अस्थिर*चित्त, सिद्धास्त- रद्दित, चञ्चल । अ्रध्यवहाये तत्‌० (गु०) व्यवहार चे अयेग्य, जाति- अष्ट। [ सन्षिकठट, अत्यन्त समीप । झव्यचहित तव्‌० (गु०) व्यवघान-रहित, संस्क्रेत, अव्यात्ति तथ्‌० (ख्त्री०) भ्रप्राप्ति, व फेलसा । न्याय के सतत से लक्षण सम्बन्धी एक प्रकार का दोष । रूप्य के एक देश में छक्तण का नहीं जाना अच्यासि है । यथा --शिख्ासूत्र विशिष्ट ध्राद्यण है | शिखा सूत्र का रहना आह्ाण का छचण है । संन्यासी बाह्य है, परू्छु वढ शिखा सूत्र रह्दित है, अतएुव पूर्वोक्त ब्राह्मण का छद्चण संन्यास में भ्रव्याप्त हुआ। अथवा अपि का छछ्ण किया गया कि उश्थस्पश* वान्‌ धूम विशिष्ठ ्रश्मि है । लोहे के गोले में अभि है, परन्ठु उसमें घुम नहीं है| अतएच पूर्वोक्त श्रम्नि का जज्षण अन्याप्त हुआ, उसी का अध्यात्ति कहते हैं । आब्याह्रत तत्‌० (पु०) बेरोऊ, अवरोध-रहित । अब्वत्त दे? (गु०) प्रथम, पहिला । छशुक्ुम तव्‌० (पु०) बुरे सगर॒ुन, अपसगुन, अशगुन, भावी के लिये बुरे चिन्ह । ध्यशक्त या असक्त दव॒० (गु०) शक्ति-रहित, असमर्थ निर्वेह “->ता तब० (स्त्री०) [अशक्त +तायूं अच्षमता, अ्रपारगता, शक्ति-हीसता। --#- (स्त्री०) शक्ति-हीनतवा, क्षीणता । ३ ) आशिशिर जेल नननन तन सन पन+- करन ++++-+नन++ गत + सन नन_+«+++०+++- अशकक्‍्य तत० (गु०) असाध्य, शक्ति के अग्य, शक्यरहित, अलम्भव ।+--ता सतू० ( स्त्री० ) अश्वाध्य, साध्यातिरिक्त । अशझु तद० (गु०) शहुग-रहित, निश्चिन्त, मिर्भय, निडर, निर्विश्न ] अशन तल्‌० (एु०) [अशू + अ्रवट,] भोजन, भक्तण। “रा च्छादव तत्‌» (छु०) [मिशन + जाच्छादन] अन्न बस्त्र, रोटी कपड़ा । अशांन तद्‌० (०) [अ्रशन+ई] चिथुद, चच्र, इच्द का शास्त्र | अझशंम तव्‌० (पु०) लुबच्ध, विकहृव, अ्शान्ति | झशस्वत्त तत्‌» (गु०) अधीन, मार्य॑-व्यय-शूल्य, पाधेय-हीन | [ विश्ञामाभाव । अशम्प तत्‌० (ग्रु०) विराम-पोग्य, . अविश्रान्ति, अशरणा तत्‌० (गु०) निराश्षय, रक्ताहीन, निरालूम्ब | अशरफी दे० (स्त्री०) सुवर्णमुद्रा, मोदर । झशराफ दे० (गु०) भव्बपुरुप, भला श्रादसी । झशरोर तत्‌० (पघु०) कन्दर्प, काम, मदन (गु०) शरीर-रहित । ध्शान्त तत्‌० (झु०) अशिष्ट, दुरन्‍्त, श्रधीर, अस- न्वुष्ट, भावित +-ता दब० (स्त्री०) भ्रक्षिएता, दौरात्स्य, घवड़ाहट ।--+- तल्‌० (स्त्री०) उत्पात, दौरातप, असुखी, हलचल, खलवल्ली, 'छोस, विशेष असन्‍्तोष | अशालीन तद्‌० (वि०) इष, ढीढ । घशासित ठत्‌० (गु०) अ्रक्रृत शासन, आसनरद्वित। अशाचरी या असावरी ततव" (स्त्री०) रागिनी विशेष ॥ अ्रशाह्म तदूु० (ग्र॒०) शास्प्र विरुद्र, अवैध, विधिहीन। >-ीय तद्‌ (गु०) बेद-विदद्ध, अचेघ | अशिक्षित तत््‌० (यु०) अन्सीखा, मूर्ख, शिक्षावर्जित, असभ्य) श्रप्राप्त शिक्षा, अपण्डित, अनभिज्ञ ! अशित तद्‌० (अश्‌+ क्त] भुक्त, खादित । झशिर चच्॒० (५०) [अश्+ इस द्ोसक, हीरा, (ड०) अप्लि, राक्षस, सूर्य । झशिरस्क तद्‌० (गु०) सस्तक-हीन, कबन्ध, घड़ । झशिव वच्‌० (गु०) श्रमब्बल अशुभ | अशिणिर व्‌ ० (गु०) श्रशीततकत, औष्स, उप्ण । 7 अशिश्चिका (्‌ अगिश्विका तद॒० (स्त्रो०) [बशिश्व + हक + था] अनपत्या, धु+-कन्या द्वीना स्त्री खशिष्ट सत्‌० (गु०) दुरन्‍त, म्गल्म, असम्य, उजडू, मजे ॥-ठा तत्‌० (्‌ स््री० ) दुरन्तता, असम्यता, असाघुता, दिठाई । अशुचि तव्‌० (गु०) अशुद्ध, अपविज, अशौच । अशुद्ध तत्‌० (गु०) दीरू नहीं, अपवित्र, अकृत शोघन अपरिष्कृत, भ्रशुचि, त्रुटि सद्दित, श्रशौचबुक्त, चेढीक, गद्बत री तद॒० (स्त्री०) अशद्, अशोधन, भूल, श्रशौच | अद्यभ तत्‌० (ए०) [भ+ शुभ] अमाहट, पाप, बुटा ! “+चिल्ता (स्त्री०) भनिष्ट सोचना, डुरा चिन्तन । दर्शन (पु०) श्रमझ्ल दर्शन, मन्‍द्‌ उच्तण | अ्रशून्पशयनत्रत चद्‌० (पु०) अत विशेष, श्रावण कृष्ण द्वितीया के यह बत किया जाना है। अशेष तत्‌० (प०) शेषद्वीन, निःरोप, समग्र, सम्ूचा, तमाम (-छ तद्‌» (गु०) अशेष+ज्ञा+ड़ ] सर्द) स्ववित्‌, सब्र जानमे वाला |--तः तत्‌० (धर) [अशेष + त्स्‌] सब प्रकार से, अनेक रूप से ।--विशेष तत्‌० (गु०) अनेक प्रकार, बहुत त्तरद अशाक तत्‌> (गु०) [भि+शोऊक] शोर रहित, पुष्प घूढ्ष विशेष, रात विशेष, विज्यात मौर्य सम्राट. बिन्दुसार के पुत्र तथा चन्द्रगुप्त के पौम्र का नाम । मद्दाराजा ध्शोकू अपने शज्ओ्रों को परास्त करके २५ व की अवम्धा में सिदासनारूद हुए थे। प्राचीन शिछालेसों से इनका दूसरा नाम प्रिय- डइुगशी या प्रियदर्शी भो जाना ज्ञाता ई। अपने अभिषेक्ठ के ८ थ चर में इन्होंने कब्िक देश ठें॥ जीता था। राज्याशिपेक्कत के समय महाराजा अशोक हिन्दू सनातन धर्म के अनुयायी थे । समय समय पर इन्होंने दौद्धों के विरुद्धाचरण मी किया घा। बुद्धणया के ४ दोधिदुम ” के इन्दोंने कटवा दिया था । कपिल्चस्तु के निशट चुद मगवान्‌ के स्मारझ सवूप्ों में से सके तोद देने के लिये इन्ईनि आज्षा प्रचारित की थी। अशोक २४७ खुष्टाद के पूदें राज्यासन पर आधीन दुए थे। श्छ 3) राजा होने के ७ यें वर्ष अधांत्‌ २६४ खुशब्द के पूर्व बढ़ बौद्धधर्म में दीक्षित हुए ॥ राज्य पाने के १४ चौदुद वर्ष के मध्य में भारत के आधे से अधिक साग पर अपना अधिफार इन्होन स्थापित किया था / यदद दौद्धधर्म के प्रचार करने को लिये अत्यन्त सचेष्ट थे। इन्हीं ८ समय में बीद्ध महा- सभा का दूसरा श्धिपेशन हुआ था । खु० ३३३ में उन्होंने राज्य किया था (देसों आदशमद्वात्मा) । अशोच तद्‌० (पु०) शार्ति, श्मविचार, अपविद्रता, अशुद्धता ॥ अशोच्य ततु० (गु०) भ्रशोचनीय, शोझ छे भ्रयेग्य । | अशोमन तत्‌० (गु०) मन्द, कुदश्य | दुर्द्शन, अश्री । ++ीय (गु०) कुत्पित आ्राकार, घुसा । अशोमा ठत० (पु०) श्रनगढ़, कुरूप, घुरा | अशौच तव्‌० (पु०) शुचित्वामाव, श्रशुद्धि ।--म्त (पु०) [अशौच +- भ्रन्त] अ्रशौच का अन्तिम दिन, देइशुद्धि का श्रव्धान दिन । अशोये तद्‌" (पु०) सोरुता, भ्रविक्र,, अशूरत्व । अश्म तत्‌" (१०) [थिश_+मन्‌| पत्थर, पर्वत, मेथ। -ज तब» (प०) [धश्म +जन्‌--५] शिला- जीत, लोद, पत्थर से उत्पन्न वस्तु ॥-दारण तद्‌० (पु०) अश्मनू-+-दारण] परथर काटने वाला भर असर | झश्मरों तव्‌० (श्वी०) [अश्मर + 8] सतहच्छु रोग, पथरी रोग । [ घिन। धश्रद्धा तत्‌« (ख्रो)) अभक्ति, घणा, अविश्वास, अश्रद्धेय तत्‌० (गु०) घृण्य, घ॒ुणा के योग्य, अना- दरणीय अश्षय तत्‌» (पु०) [श्रश्न + पा+ द] राधस, निशा धर । अध्ाद्ध त१० (गु०) प्रेतकर्म रद्दित अशथान्त सव्‌० (5०) अनवरत, विश्वाम रदित, श्रान्तिद्टीन [- जिखी ०) अविश्वाम, अनवर्त । अश्चासय्र तत्‌७ (यु०) सुनन के श्येग्य, अश्रोवम्य । अश्िि तदु* (स्री०) वि+ल्लिक श्ध्प] चार, पैना, तीखा, नीढ़ण ॥ अश्वु तर० (पु) [चध+श्र॒+ क्विप] शंख, नेन्रमछछ, सथनास्वु [--पात नल (पु०) अाख्‌ ग्याना अश्रुत (्‌ अश्चुत तत्‌० (गु०) नहीं सुना; अनाकर्णित |पू्व | सतत» (गु*) पहले का नहीं खुना गया, अदूभुतत, , विलक्षय । ध्श्रेयस्‌ तत्‌० (गु०) निगशुण, अधम, 'असकृगल । शआश्रेष्श तत्‌० (गु०) छुरा, साधारण, ७त्तम नहीं । अश्लोत्त तत्‌० (गु०) नीच, अ्रधम, आम्यभाषा, | फूहर, (पु०) इणा श्रधवा लज्जासूचछ बात, काध्ययत दोष । काव्य में ऐसे शब्दों का प्रयेशग करना ञा अ्रचणानत्त घछणा खज्जा अथवा अभनज्नल्सूचक हैं।, यह शच्ददोपष है छृणाव्यक्षक, लज्जाव्यक्ुक श्रौर अमम्नजव्यक्षक, इसके भेद हैं । खर्सेष तत्‌० (घु०) श्लेपरमित, अ्ग्॒णय, असख्य, श्रप्रीति, श्लेष मिन्न, अ्परिद्दास | अएल्लेषा तत्‌० (स्त्री०) ना नक्षत्र, इस मच्तन्न में छः तारे हैं--भच तव्‌० (9०) केतुमद । झश्व तत्‌० (ए०) [अश +व_] घोटक, तर, घोड़ा जान्‍्था तत्‌० (स्त्री)) [अश्वगन्ध+ आन] झऔपधघ विशेष, असयन्ध (“तर तव्‌० (०) [अश्व + तर] ग्दभी के गर्म और अश्य के औरस से उत्पन्न पशु, खच्चर, नागराजविशेष, अश्व चिशेष । (खी०) अधभ्वतरी (--पतति तव्‌० (३०) घोड़े का स्वासी ।--मेध तत्‌० (पु०) यक्ष विशेष, जिसमें घोड़े का हवन किया जाता है| इस यज्ञ में चिशेष छक्षणयुक्त अ्रध्व को घोकर उसके सिर में जयपत्र बधिकर स्वेच्छा से घूमने के लिये छोड़ देवे थे, घुनः एक वर्ष बाद वह घोड़ा घूम कर जब आता था, तब उसका बलिदान और हवन किया जाता था ।--वार तत्‌० (घु०) अध्वारोही, घुड़सबचार, ““शाला तत्‌० (स्त्री०) अभ्वग्रृह, अस्तवज्त, घुड़ैसात्ट, -चैद्य तब (यु०) श्रश्वचिकिव्लक (--शिक्षक तत्‌+ (8०) चाहुक सवार ।--सेवक तल» (घु०) साईंस >रुढ़ (०) [अश्व+आउरुढ़ | असबार, घुड़चढ़ा (--परोही तदू० (5०) घुड़खवार; घोड़े पर चढ़ा हुआ च्यश्वत्ध सच" (पु०) [अ्रश्व + स्था +- डु ब्ृक्तविशेष, चलबुम, पीपल | 3 ) हि अश्वत्यामा तत्‌« (घु०) [अिश्व +स्था + सन्‌] (१) क्ोणाचाय का पुत्र । भूमि में पतित होते ही डच्चेःश्रवा घोड़े के समान शब्द किया था, उसके बाद द्वी आकाशवाणी हुई “के हस पुन्न ने जन्म के समकाल ही में गस्भीर ध्वनि के द्वारा दिगन्त का प्रतिध्वनित किया है, श्रतपृच इसका नाम शश्व- त्थासा होगा” | (२) पाण्डच पतक्तीय सालचराज इन्द्रबर्मा का हाथी ! सिनव्कुमार अभ्वसेत दव्‌० (ए०) तत्षक का पुत्र, नाग विशेष, आशिवनी तत्‌० (स्त्री०) सत्ताईस नछश्रों में का पहला नक्न्न, इसमें त्तीन तारे रदते हैं और मेपराशि के सिर पर इसका स्थान हैं। दु्धप्रजापति की कन्या और चन्द्रमा की स्त्री, इस नक्षश्न का आकार घोढ़े के मुँह के समान है ।--कुमार सव्‌० (पु०) खर्गं का बैद्य, देवता विशेष, श्रश्वरूपी सूर्य के श्रोरस तथा अश्चरूप धारिणी संज्ञा के गर्भ से इस युगल देववैद्य की उत्पत्ति हुई थी |--(दरिवंश या ऋणगू- वेद द्वप्टव्य) । घअश्शोी या ध्यरुसी तद्‌० (पु०) संख्या विशेष, ८० । अपाढ़ तत्‌ » (७० ) अ्रपाढ़ मास, श्रतपत्नापावण्ड, पूर्वांपाढ़ नक्षत्र, इस भद्दीने की पूर्णिसा के डोता है और उस दिन चन्द्रमा भी उसीके साथ रहता है । झए तत्‌० ( पु० ) संख्या विशेष, शाठ ।--क तत्‌०। “(ग्रु० ) [ अष्ट+क] प्रष्ठ संख्या, आठ की पूति । ।--कर्ण तत्‌० (छु०) ब्रह्मा, प्रभा-पति, विधि । “+का तत््‌० (ख्री०) अप्टमी, अहगन | पूख माघ तथा फाधुन सासों के कृष्य पत्त की श्रष्टमी तिथि । इन तिथियों में पितृ श्राद्ध करने से पितरों की विशेष तृप्ति होती है (धातु तब" (०) खुबर्ण, रूपा, जस्ता, पारा, संबा, रॉगा, शीशा। छोहा +--घाती तच्‌० (गयु०) अ्रष्टघातु का बना हुआ ।--प्रहर (छु०) आठ पहर, श्राठ याम |।--धख्ु तत्‌० (१०) देश विशेष, आप, धर व, सोम, धव, अनिल, अनल, पत्यूष, प्रभास, -- मी तत्‌० (खी० [अष्॒टम + है] तिथि विशेष, जिस दिन चन्द्रमा की आठवीं कत्ठा की क्रिया हो +-सूर््ति तत्‌० (छु०) शिव की अष्टविध सूचि विशेष, यथा धर बअणड्र (६ ४६ ) असमग्र ____ ऑऊु >> ->+++---+-++5 विद्या हैं +-स्मतिकार तद्‌० (पु०) श्रष्टाद्श स्घतियों के बनाने वाले आये के धर्मशास्तरकार, यपा--विष्छु, पराशर, दुढढ, सँदतं, स्यास, हरीव, शातातय, वशिष्ट, यम, भ्रापस्तम्व, गौतम, देवल, शहद, लिखित, साद्वाज उशना, अन्रि, याक्षवर्क्य, ये अ्रष्टादश स्छतिका? हैं | क्‍ तत्‌« (ु०) भठकोण धष्टि तद्‌० (स्रो०) गुढली, बीज, थढ़ुली । अखंख्य तल्‌० (गु०) अनगिननी, वहुत, अगणनीय, संख्यारहित अपरिमित | [ मित्त । घसंख्यात तत्‌० (गु०) प्रसैस्‍्या, अगणित, अपरि- घअसंख्येय तत्‌० (णु०) अगणशनीय, मिसझी संख्या न गिनी जा सके | असडूत तत्‌० (गु०) अनुचित, भयेग्य, मिथ्या । पसटमपद्द तत्‌० (धु०) सश्त॒य दीन, पएकन्नित नहीं । घसयुक्त तत्‌० (पु०) [अ्रस+युज्+ क्त] असरम, अमिखित, एथक्‌ । असंयेग तत्‌० (पु०) भ्रनमेल, मिद्ध । असंलग्न तवु० (गु०) अमिल, धसद्गत । अखेंशय तव्‌० (गु०) निश्चय, निसन्‍्देद, सैशय- रहित । [इस चाल का । घस तदू० ऐसा, ऐसी, इस प्रकार के, इस प्रकार का, श्रसऊत दें (ख्री०) आवब्त्य, बर्याँस, ,-। (गु०) आहढसी, दीक्षरलला, सिथिढ्ठ | खअखसकझूत तद्‌० (थ०) पुन पुन धारबार | असगन्प (१०) अखगनन्‍्ध, ओपधि विशेष । [ द्वेपी । असज्मन तत्‌« (गु०( [धस्त्‌ +- शत] छुपात्र, दुष्ट, ध्यसत्‌ तव्‌७ [श्र + सत्‌] अस्राछु, भ्रन्यायी, अधर्मी । असती (द्वी०) कुलटा, दुराचारिणी खी असत्य तत्‌" (गु०) मूठ, मिथ्या, प्मन्याय । [रिददित । असन्तुष्द तत० (गु०) अप्रसन्न, अठृप्त, सम्यक तुष्टि असन्‍्तोष तव्‌० (बु०) अनाइडाद, थपरितोष । ध्यसस्मान तत्‌० (वु०) अपमान, अ्रप्तत्कार | धसम्य तत्‌० (गु०) श्रपात्न, सभा र योग्य नहीं, अमामाजिश्च, अभष्य, खर, नीच -ता (श्री) [असलम्य +सा] अमब्यता, सूढ़त्व, शजडूपना ध्यसम तद्‌० (गु०) विषम, अतुक्ष्य। झसमग्र तत्‌० चपूर्ण, भनिखिल, अत्प, अधूरा] । छिविमूचिं, शर्व, जलमूत्ति भव, अप्निमृत्ति रूद, घायुध्॒तिं उग्र, आकाशमूर्ति मीम, यज्ञमानमुर्ति पशुपत्ति, चन्द्रमूतिं महादेव, सू्यमू्ति इशान+ --मिद्धि तद्‌० (स्त्री०) बरेग की आठ सिद्धियाँ यया--भणिमा, रथिता, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशिरव, चशित्व । अष्टाड़ु ठव॒० (पु) [थष्ट +भक्क] शा भ्रक्ष, आठ अवयव ।--ध्य तद्‌० (पु०) [भ्रष्ट + अन्न ने अध्ये] आठ द्वव्यों पे संयुक्त पूछा की सामग्री विशेष ॥--प्रणाम तव॒० (पु०) [अ्रष्ट + अद्ढ + प्रणाम] आठ श्र्गों से प्रणाम करना । अप्टादश तव्‌० (पु०) संष्या विशेष, अठातइ--ड्ू (गु०) [अष्टाद्श + अग] भठारद झोपषधियों के मिलने से बनी हुई पाचन की गोलियाँ ।-ोपचार तद्‌* (पु०) [अध्टदण + उपचार] पूजा की अठारद सामप्रिरया, यधा-श्रासन, स्वागत, पांच, अष्ये, आचमन, स्नान, प्र, उपवीत, सूपणं, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, अक्ष, सपेण, अनुलेपन, नमस्‍कार, विषजन 7-ोपपुराण तद" (प०) [धिष्टद्श + उपपुराण] इराण विशेष, गाय पुराण, यया--(१) सनत्कुमार (२) नारसिंद (३) नारदीय (४) शिव (२) दुर्वोस्ा (६) कपिल (७) मानव (८) थौशनस (&) घदण (१०) कालिक (११) शांप (१२) नन्‍्दा (१३) सौर (१9) पराशर (१४) आदिय (१६) माहेश्वर (१७) भाग (१८) वासिप्ठ ये अष्यादश उपपुराण हैं--घान्य तत० (पु०) अगठारद प्रशार के अन्न, यधा--यव, गोधूम, घान्य, तिल, गयगु, कुल्नि्य, माप; झूदूग, मधुर, निष्पाव, श्याम, संपंप, गवेधुक, नीवार, श्रहर, सीना, चना, चीनी, ।--पुराण तत्‌० (पु०) श्रदारद्द पुराण, यथा -धाह्म, पाद्म, विष्छ, शव, मागवत सारदीय, माकेण्डेव.. भारतेय, भविष्य, प्रहमवैवते, क्िद्न्‍न, थाराद, स्कन्द, वामन, कौ, मात्स्य गारुढ और ब्रह्माण्ड |--विद्या त्तदु० (स्त्री०) अठारद विधा । यया-दछे* अडद्ग, चार वेद, मीमांस, न्याय, पुराण, घर्मेशख, अख्युवे'द, घजुर्देद, ग्रान्चद, और अर्थशाक्ष ये अरष्टादश असमज्जस (्‌ ध्यसमझस तत्‌० (ग्ु०) अ्रसद्गत, अजुपवुक्त, अतुल्य, असदश । घ्यसमय तत्‌० (पु०) भ्रकाल, विपत्ति, दुर्भि्, कुबेला | असमर्थ तत्‌० (गु०) अस्त, दुबंल, च्ीण। अखमवाधि-कारण (पु०) ( १ ) न्यायदर्शन के मता- नुसार वह कारण जो द्वच्य न दो, ग्रुण च करे हो। जैसे ( १) घट के प्रति दो कपाछों का सेयोग | (२ ) चैशेषिक मतासुसार घह कारण जिसका कर्म से नित्य सम्बन्ध न हों और आकस्मिक सम्बन्ध हो । घ्रसमसाइुस तव्‌० (प०) दुःसादइस, श्रसमान साहस, अतुल्य उत्साह, सामथ्य से बाहर उत्साह 4 ध्रसमत्त तत्‌० (ग्रु०) परोक्ष, अगोचर । घसमाधि तव्‌० (स्त्री०) अचिन्ता, अविवेचन, अवि- मर्ष । [ विषस, अ्रतुक्य, विभिन्न | * झसमान तत्‌० (गु०) चोठा बड़ा, समान नहीं, घसमापिकाक्रिया तत्‌० (स्त्री०) जिस क्रिया घे चाक्य पूर्ण न हो, सकल कृदस्त क्रिया, काल- बोधक कृदन्त । [ रहित । घसमाप्त तत्त्‌० (गु०) अधघबना, अधूरा, अपूर्ण, समाधि असम्बद्ध तत्‌० (गु०) अनमोल, अनर्थ, अन्याय । झसस्यव तत्‌० (गु०) अनहोना, अचरज । आसम्मत तव्‌० (गु०) श्रमेल, अ्रस्वीकार, अनभिमत, सम्सति रहित | आअसंयाना तत्‌० (गु०) भोला, सीधा, सादा । झखर दे० (छु०) भ्रसाव, दबाव । खसल दे० (एु०) खरा, सच्चा, शुद्ध । असली दे" (गु०) सच्चा, खरा। असवार दे० (प०) घुड़्सवार | _ असहन तत्‌० (१०) [भ+ सह + अनट्‌] शत्रु, बैरी, असह्य, * अघीर, उग्र, भयझुर |--शीजल्न (गु०) असहिष्णु । खसहिष्णु तत० (घु०) जो सहन न कर सके | अप* इमशील |--ता तत्‌» (स्त्री०) असहनशीलता, चिढ़चिड़ापन । कि अयोग्य ! घसह्य तव्‌० (गु०) असहनीय, कठिन, सहन करने घासाढ़े तद्‌ू० (पु०) अषाइम्रास, वर्ष का चौथा महीना [ ध्र्छ च्यस्त ) असाधारण तत्‌० (वि०) गैरमामूली, असामान्य | घअशखाचु रत्‌० (एु०) अधर्मी, पापी, असज्जन | अखाध्य तत्‌० (गु०) कठिन, अगस्य, दुष्प्राप्य | असमर्थ तब" (गु०) अ्रपारण, सामथ्य दीन । असामयिक (पु०) बेध्मय का,'समय पर न होने घाला | आसार तत्‌० (गु०) छूछ्ता, . पोछा, सूखा, बोदूजा, खार रहित | + अखसावधान तव्‌० (०) लापरवाही घनिश्चिन्त, भचेत, वेचौकल --ी (ग्रु०) छापरवाहदी, वेखबरी । झआसांवरी (सत्री०) एक रागिनी का नाम | असि या असी तत्‌० (पु०) खड्ग, तलवार, खाँड़ । असिद्ध तत्‌० अधघबरना, श्रधूरा, अपूर्ण । घ्यसीम तत्॒‌० (स्त्री०) श्रपार, श्रनन्त, बहुत सीमा- रहित, निरवछिक अखील बे० (गु०) श्रसल, खरा, सब्चा । अखु तच्‌० (पु०) [भस्‌ + उ] आण, जीवन । असख़ु॒र तत्‌ः (गु०) सुर विरोधी, दैत्य, दानव । धअसूर दे० (यु०) भदश्य, भूल । घअखुस्थ तत्‌० (गु०) सुखस्थिति रहित, रोगी |--ता (स्त्री०) अस्वास्थ्य, अस्॒च्छन्दता । अखूया तद्‌० (स्त्री०) निन्‍्दा, द्वेष, शुणों में दोपारो- पण करना, परिवाद, क्रोध + इ्रसूयम्पश्या तच्‌७ (स्त्री०) जिसको सूर्य भी न देखे, पर्दे में रहने वाली, पर्दे नशीन । असेसर दे० (पु०) शज्ञा के थे पुरुष जो फौजदारी मामछों के फेसले में राय देने के चुने जाते हैं | अखकू तव॒० (स्त्री०) रक्त, रुषिर, क्वोहू । सतों तदू्‌० (पु०) यह साल, यह चपे, बरतसास संबत्सर । [ निर्मोही, ध्रमादी, सुस्थिर । असोच नदु० (गु) अचेत, अविचारित ।--ी (शु०) झअखीज तदू० (०) आशिवन, कुर्वार का मद्दीना ध्वस्त तत्‌० (घु०) [श्रस्‌+क्त| अस्ताचछ, परिच- माचल | (यु०) क्षिप्त, अवसान, झन्तर्द्धान, प्राप्त निद्धिस, प्रेरित, व्यक्त (०) खत्यु |--गत तत्‌० (गु०) अस्तप्ाप्त, अन्‍्तहिंत ।--गिरि तकू० (३०) अस्ताचल, चरम पर्वत ।-ब्यस्त तव* (गु०) सझ्ली्णं, विक्षिस, भ्शकुछ ।-वचत्ल तत्‌० ० पा००७चनढ अच्तर (्‌ (६०) पव॑त विशेष, जई सूर्य अस्त होते हैं। प्रस्तर दे० (१९) दोइरे बच्चों से नीचछा दस्त, नीचे का पढला । भ्रस्तरकारी दे* (दा०) चुने से सफेद कराई, किप- चाह, पत्नस्तर , भद्र तव० (१०) [प्रसू+त्र] थायुध, प्दरण, शस्त्र, सत्र, दयियार, धनुष (--चिक्रित्सक (पु०) चिस्त्र + कित्‌ + सन्+क) शब्दवैद्य, भस्व के द्वारा रोग दूर करनेवाढा, जरा --विद्या तवू० (स्व्वी०) अस्त्र चलाने की विधा, घनुवेद्‌। अस्थायी तद० (गु०) [ध+स्था+य] भस्थायी, स्थिति रहित, अगाघ, अततस्पश । [घातु विशेष । अस्थि तद० (५०) द्वाढ, शरीर का पंजर, शरीरस्थ, अस्थिर तव्‌० (गु०) चघ्चुुु प्रकृति, धस्थायी, अनि- श्विक (--ता हर (ल्री०) अस्पेय, अनीरदय । --मना+ तल» (पु०) अस्थिरताभाव, अ्रस्थिरान्तः करण, चंचश चिच वाठा।. [रता, चधुलता । अस्थै्य सदर» (गु०) अनिरचय, स्पिरतामाव, अघी प्रस्मरण तरव॒० (प५) भूल, विस्टृति । जय भरकर तत्‌० (६०) कोण, एक देश, नोक, रुधिर, जल, अस्व तव्‌० (९०) निर्धन, कद्भाछ, दरिदी | अरुशथ तत्‌* (वि०) रोगी, बीमार । अेस्वए तत्‌० (पु०) दल व्यप्जन, कुश्वर, निन्दित शाडद, थे स्कर। छिद्विम । प्रस्थाभाविक तत्‌« (वि०) भक्ृति विरुद्ध, बनावटी, अस्वास्थ्य तव५ (प०) दीआरी, रोय । असुवीकार तद्‌५ (पु०) इन्कार, नामगरी, नाहीं अस्पीकृत तद.« (वि०) नामजूर किप्रा हुभा । अस्सी दे० (वि) ८० , संदया विशेष । भदद्टार तव्‌* (पु०) अभिमान, दम्म, अहकृति | (गु०) घड़ी, भमिमावी, यर्वाल्ा ) अहृद दे (१०) वाद/प्रतिज्ञा।--नामा दे०(पु०)सन्घि पत्र, प्रतिताएत्र ।-- (९०) आाबसी, अकर्सेण्य । झहमऊ दे० (गु०) नादान, सूखे । अदृग्यति सव्‌+ (श्ली०) मनभौजी, गयी। जिड्‌डा। प्रहर तद्‌० (प०) डोवा, पोखरा, 'भद्दरा, दानी का अहरह तव्‌० (९०) प्रतिदिन, दिन दिन | [झुष्ट झदर ! प्रदनिश तद« (श्र) [बह+ निशि] दिया रात्रि, भेद.) अद्दी अहमुंख तब्‌० (घु०) धात काल, सबेरा, भोर, भत्यूप। झदपति तव॒« (गु७) अग्रसन्न, मद्निन अद्ृदया तव्‌० (स्ली०) गौत्रम मुनि की स्री, पप्सा विशेष, जेती भूमि | अद्ृदह तत्‌० (४०) भरदूभुत या खेद प्रकाशक शब्द [ अद्ृ्हिं (क्रि०) श्रस्ति, है, विधमान है । आह (अब्य) ख्तेद, दु ख,, भ्राश्वय प्रकट फरने के किये इस शब्द का प्रयेग दाता है। अदहार तद्‌० (पु०) आद्ार, मोजन,खाना, लेई,मढी | अदिसिक तव्‌० (गु०) भ्रदिस्र, भह्दिसाकारक ) अ्रद्दिसा ठत० (स्री०) अनिष्ट करने की अनिच्या, प्राणिबध न करने की अभिछापा । अद्दि तु" (१०) साफ, सै, नाग ।--गति हव्‌० (स्रो०) साँप की चाठ, रेही चाल |-नांह (६०) शोषणाग्र [प्रति (8०) सपैशान +- फेन (पु०) भ्रफीम ।-झुक (पु०) मेर, मयूर झदिद्दार तदु* (य०) सॉप का विष । झद्दित तत्त (पु०) शत्रु, बैरी, विरद्, अपष्य, भ्रनुप- कार, भ्रम (-कारी तत> (8०) भवप्रिय करने घाल्ा, शत्रु, चुरा चेतने दाल | अहिनी तद्‌» (स्त्री०) सपि'णी, साँप की ख्री, सॉविन । अटितुणिडिक तत्‌० (३०) सेश, ध्याज्मादी, केंजर अद्दिनकुलता तत्‌० (१०) स्वाभाविक.श़्युता अ्रद्दिवात त्तत्‌० (३०) सुद्दाग, सौमाग्य, सधवा होने का चिन्द +-ी (द्ली०) सुद्दागिन खी | झदीर तदू० (३९) प्वाल, अभीर, ग्रोपाज्। प्रदीरिनी या प्रद्दीरिन (स्ली०) ख्वालिन । ध्यद्वीश तत्‌० (५०) सर्पराज, रोपषनातग, शेपवतर+ क्दृमण, बलराम, रामाजुजादि । अद्दे तद्‌० (श्र०) संदोधन चीतक, अह्ी ! अद्देतुक तत्‌* (गुण) घकारण, अनेक) अर तदु० (श्ली०) भाखेद, सखगया, शिकार ॥-ीी (यु०) शिकारी | अद्देप्यि] तू» (पु०) बद्ेक्षिया, ब्याघा, शिकारी अद्दी तद्‌ ( श्र० ) आशय, भचममा, शेकक, शृढणा, विषाद बाधक संग्रेघन, अशंसा, विस्मय, अपश आरचर्य प्रकाशक शब्द । अद्दोरात (्‌ ४6 3 आँघी ्ल््ं््ु़्लड़:्च़्डििेिेः::लओअ2ओ3डकलचआअअअअइअअओडअ अल: ल्‍अअअललअक/हप६कप७ध७स ओ क्‍स्‍क्‍ौौ:ीधचपचह9च लक तत>-नन अद्दीराच तत्‌० ( श॒० ) [ अददन्‌ + रात्रि + प्‌ |] दिन | अहोरा बहोरा (दे०) (ड०) विवाद्द की रीति विशेष । और रात । डेराफेरी | (क्रि० बि०) बार भार । ध्यूः तत्‌ू० आकार, दूसरा खरबर्ण है, शब्दों के आदि में इूलका पेण होते से यद्द अचधि का चाचक होता है, स्थून श्रधवः विपरीत भी इसका श्र्थ होता है । ध्या त्तत्‌० (पु०) पिलामद, वाक्य, सदेभ्वर। (०) स्वृति, ईपदु्थ, प्भिव्याप्ति, सीमा, पर्यन्त, तक, वाक्य, अज्जुकम्पा, समुच्चय, निषिद्ध, सन्धिवर्ण, स्वीकार, क्रोप, पीड़ा, स्पद्धां, तज्ज न । ध्या। तत्‌ू० (भ्र०) कप्ट्सूचक शब्द, खेद्राक्ति ध्याइनदा दे० (१०) भागामी, (०) भविष्य काल, आगे । [ अबस्घा । आई तदूु० (क्रि०) आकर, आानकर, (ख्री०) आयु, बयः ख्राईन दे० (स्त्री०) कानून, विधि, च्यवस्था । आईना दे० (०) दप ण, खुँड देखने का शीशा । आँक तदू० (०) श्र, मदार, अकौधा, अकवन, भ्रद्भ, चिन्द, संख्या, (क्रि०) श्रक्षित करना, निश्चय करना, जांच कर । शाँकड़ी तद्‌ ० (स्त्री०) आकुशी, कटा, जुंजीर | आंकना तदू० (क्रि०) निरखना, परखना, परीक्ा करना । झकिरी तदू० (स्वी०) बाण का कण, भह्दुर । “ऑँकुचे दे० (क्रि०) श्रह्ुरित हुए, उत्पन्न हुए, जन्मा, डगे, पैदा हुए । आँकुस या घझांकुश तद्‌० (छ०) अहछ्लुश, अछुशी । आँख तदू० ( खो० ) नेत्र, नयन, चक्ष ( बहुवचन श्रखिं, अ्रखिरया) (--चढ़ाना तदू० (क्रि०) क्रोध करना, कुपित होना ।--झुभना (क्रि०)-पसनन्‍्द आना नियाद्व में ठुरा ठहरना ।-छुराना (क्रि3) लज्ित देना (छिपाना)।--उंढी करना (क्रि०) इष्ट मित्रों के मिलने से चित्र की अखन्नता--तरेरना कुपित द्वाका देखना |-दिखाना ( क्रि० ) घम काना, कुपित द्वाना (वा०) |--पर परदा पड़ना अम में पड़ना .--फूडी, पीर गयी” किसी विदाद- अधछ्त पदार्थ के विनछ होने पर यद कोकोक्ति कद्दी । ञा तोड़ना |--फैलाना (किय) दूर तक देखना ।-- फोड़ा (ए०) पर अकार का पतंगा -सम दना (क्रि०) रत्यु, मतवाली, मस्ती ।--बचानों (क्रि०) डिपना, अपने दुष्कर्मों से छज्तित होना । बन्द हो जाना भर ज्ञाना ।--बदल जाना पूर्तत व्यवहार का न रह जाना।--मा रना (क्रि०) आंख मटकाता, सैन करना, इशारे से घात करना, इञ्ञित करना ।-- बिछाना जेम पूर्वक खागत करना ।--सरलाना सेना ।--भौंटेढ़ी करना कुद्ध देना ।--मिलाना (क्रि०) प्रेम करना,मित्रता करना ।-- रखना (क्रि०) अल्लुसन्धान करना, निरीक्षण करना, खोज परताक्न करना |--लगना नींद आताप्रीति का होना ।-- लगाना दे०(क्रि०) किसी की प्रीति में फेसना ।--- लालकरना क्रुद्ध दोना ।-से गिरना सनसे डतरना । ८ शआँखफोड़ा (पु०) पत्ता विशेष आँखमिचोौनी (ज्ौ०) वालकें का एक खेल । ध्याँस तदू्‌० (पु०) भ्रद्ध, देह, शरीर । आँगन तदू० (पु०) चैक, घंगनाई, प्राकृण । आंगिरस तद्‌० (४०) बृहस्पति । आँच तदू (सत्री०) भ्रम्चि, आग, ताप, ज्वाला अंचल तदू० (ए०) अचका, किनारा, कपड़े का हिस्सा । शआाँजि (क्रि०) अजन छण कर, काजरू छूगा कर । आँस्कू दे” (ए०) मांस, अरश्नु । ध्याँड, तदू० (स्व्री०) गांठ, विरोध, आड़ी । शाँदना तत्‌० (क्रि०) सामना, भरना, पैठना । आद्साँठ तदु० (ख्रो०) सामा, दिस्लेदारी । आँदी तद्‌ ० (स््री०) गुठुली । | आँत तबु०(बलो०)अतड़ी। (मुंहा०)--कुलकुलाना बढ़ी भूलका छग॒ना [--का वल खुलना -भेजन द्वारा तृप्त दै।ना | -खूखना--सूख़ से विकल हैना ।--- गले में पड़नचा--तज् देना, मड़े, में पड़ना । , जाती है।-फेरना ( क्रि० ) मित्रताभक्न, मेंस | झ्ाँधो या औंधर दे० (ज्ी०) तेज़ इवा, सक्ड़, तूफान । आय चाँय जज .नँल_ल6 -+._स्‍_्नन्‍क्‍ऊक पत्ता तञ++++₹नन आाँय याँय दें* (घु०) प्रदाप, अनाप शनाप | श्ाँव तदू* (8०) भाम्रफज्ष, आम, रसाछ । _ आंवर्ठ दे० (ए०) घेोती का छोर, किनारा । आँवरा दे* (ए०) भाविद्य, घात्री फल्न । श्रॉवला सारगन्धक दे० (६०) स्राफ गन्धक | आँवा दे० (६०) इम्दार की सट्दी । शाँस दे* (५०) सूत, रेशा। आँख | दे? (०) अधु, नेत्र जल । (मुद्दा ०)--पोकर आाँघू / रह जाना मीतर दी मीवर कुड़ना ।-- पिरना-रोना ।--से मुँह थेना--बहुत रोना पआाकस्पन तत्‌० (३०) [ भ्रा+-कम्पू + अनट ] कांपना । भरपराइट, इंपस्‍्कम्पन । [बात । ध्राकवाक दे० (पु०) अकग्रक, अडबेंड बात, ऊट-पर्टाग धाकर तव्‌० (४०) [आ+कृ+अल] धातु और रत्नों का वस्पत्ति स्थान, सानि भादि मूल, समुदद, श्रेष्ठ ; जिम स्थान से जो बस्तु बहुतायत से निकद्वे - यह स्थान उस बस्तु की आकर है। ध्याकर्ण तद्‌ ० (गु०) कर्षमूक्ञावधि, कान तक ।--च्चु ततु० (पु०) कर्ण पर्यन्त विस्तृत चछ, दीर्ध नयन, विशाल नेत्र । श्याकपे तत्‌० (पु०) खींच, दान रोक, पाशक, पाशा, अचकीढ़ा, चैपड़ खेलना, आऊपणी, भकुशी ।-- के तद० (ए०) [आक कृप + ययक] शिलाविशेष, झुम्बक परपर, भाकपणकर्ता ।--ण तत्‌० (पु०) [ झ्ञा+ झृप्‌ + घनद ] बद्षप्रयेगपूर्वक्0: खींचना, डानना (शक्ति तत्‌० (स्री०) खींचन की शक्ति । झाकलन वत्‌० (पु०) | क्वा + कलू + झनटू ] पुकत्र- फरण, संक्याहरण, घन्धन, बेटारना, अनुष्ठान, सम्पाएंन, जाँच, अनुसन्धान | आ्ाकलित तव्‌* (पु०) [था + फछ + इत्‌) बद्ध, परि- सैएपात, पकंडा हुआ, भ्रनुष्टित, कृत । झाऊला रदू० (यु) घटखटिया, उत्तावला, उच्चुद्धछ । ध्याकली दे० (स्री०) घेचेनी ध्याकुटता । ध्याकस्मिक तव्‌० (दि०) भयानक, सइसा दने वाल्या। झाकाडज्ञा तव० (स्री०) इध्छा, चाहता, ग्रसिद्ाष, चाम्व्ा । आकार तय (१०) स्वरूप, डीख दाल, सूत्ति, भाकृति, चेहरा, सझ्लेंत, इड्डित (--गुप्ति तत्‌ (स्थी०) मय + आकूति दर थादि से इत्पन्न भक्न विकार के। दधिपाता ।-- गरेपन सत्‌» (पु०) भय हष झ्रादि सूचक चिन्हों को छिपाना । आकारतः तत्‌० (अ०) [ आकार + तस्‌ ] स्वरूपत , सदश सूतित:, आकृति से । [आपगा, निश्नगा । आकारान्त (पु०) वे शब्द मिनके अन्त में दीय॑ कर दे! जसे धआकारादि तत्‌* (गु०) [आकार + भादि] जिस शब्द का थाचचछर श्राकार हे | झ्राकाल तद्‌० (३०) भ्रकाब, दुमिछ्ठ, हु समय, महँगी। ++न्कि (गु०) [आ+ काढ + इक] श्रका ल-सम्मव, अ्रसामयिक, धकाल-निमित्त, असमय में उत्पन्न । झआाफाश तत्‌० (पु०) गगन, शून्य, अग्बर, पश्मभूतों में से एक भूत विशेष, ब्योम्र, अन्तरित्त +--ग तत्‌० (गु०) भाकाशगामी, झ्राकाशचर |-गठ़ा तत्‌० (स्लौ०) मन्दाकिनी, स्वगंगक्ना,नकत्र पथ विशेष ।-- गामी तद० (यु०) [ झाकाश + गम + णिनी | खेचर, 'भाकाशचर, आकाश में चढने बाला ।-- दीप ठद्‌० (३०) बस के सद्दारे टैंगा हुआ दीपक, अन्तरीह्स्य प्रदीप, कार्तिक मास में जे दीपदान द्वेत्ा है ।--वेज तत्‌ (स्त्री०) छता विशेष ।-- बाणी तद० (ख्री*) अ्शरीरियी वाक, देववाणी | +-विद्या तव्‌० (स्त्री०) वायु निसूपण करने की विद्या।--द्भुत्ति तद्‌* (स््नी०) निराथय, भनिय- मित्त चृत्ति, द्रिद्वता । ल्चिनता । प्राकिज्चन तत्‌० [पु०) दरिद्रता, प्रवास, यन्त्र, अकि- आकीशं तव्‌० (गरु०) व्यास, विस्तारित, प्लुत, सड्डीयं, सह्लुल, समाकुछ, भरा हुआ आकुश्धन तत्‌० (पु०) [घा+कुचकधनट| सट्ोच, चक्रता, न्‍्यायमत के पश्च प्रकार के कर्मों में से एक कमे । ल्‍ झाऊुश्वचित तद्‌० (गु०) तिरद्ठा, टेढ़ा, वह । आकुणिदत (गु०) रक्त, अवाक्‌ । झाकुल तद० (गु०) [घा+कुत्र + लू] व्याकुछित, व्यस्त, कातर, भारत, उद्धिझ, पूर्ण, अआकीएें, घव- शाया ।+--स्ति तब्‌० (गु०) [ चाक कुछ +क्ति ] ब्याकुछ, छातर ब्यस्तचित्त । आाकृत ततद्‌» (पु) अमिप्राय, मतबय । आकृति ततद्‌० (स्री०) (१) मजु की तीन कन्याओं में आकृति (हर ) * आग से घृक, जे! रुचि नासक प्रजापति का ब्यादही गई थी । (२) उत्साह, सदाचार | शआकृति तत्‌० (ज्री०) [ आा+ कू+ क्ति ] रूप, सूक्ति, शरीर, श्राकार, श्रवयव, ढील डौक्, शरीर का ढाँचा । [झआाकपंग्ण । घ्याक्ृए्ट तव्‌० ( गु० ) आकर्षित, खींचा गया, कृत ध्ाक्रन्दू तत्‌० (ए०) [ आ+क कन्द्र + अल ] रोदन, आह्वान, भयक्षर युद्ध । भाकन्द्व तद्‌ (ए०) रोना, चिछाना | आक्रम तदू० (५०) [ झा + क्रम + अल ] पराक्रम, आक्रमण, चढ़ाई, झतिक्रम, क्रान्ति ।-ण (9०) (आ + क्रम + श्रनट्‌ |] आक्रस, बक्षए्कार, चढ़ाई करना, ऊपर गिरना, व्यापता, फेकना । ध्याक्रान्त तत्‌० (यु) [ श्रा + क्रम + कक] वलचान्‌ के द्वारा ग्रद्दीत, कृत भ्राक्प्रण, जिसके ऊपर आक्रमण किया जाय, प्रश्ठ, घेंशा हु । आक्रीड़ तत्‌० (9०) राजा का उपवन, राजमहल के खमीप का बाग राजाओं का साधारण वन सम ( इ० ) [ भा + क्रीड + अनदू ] स्टगया, शिकार, आखेट । प आक्रोश तत* (प०) [ श्रा + कशू + झछू |] क्रोचवश कर्तैन्याकर्तन्य॒ विचार का भूछ जाना, शाप, शाप, राय, कप, क्रोध (से (छु०) आाकऊ कुश+ भवट्‌ू_) अभिशाप, कह्टक्ति, अस्सेना, अधिष्तस्पात । आक्लास्त तच्‌० (गु) [ आ+छेम॒+क्त | क्रान्त अतिशय क्ल(न्तियुक्त, अवसन्न, खिद्च, श्रान्तियुक्त झात्तेप तत्‌० (छ०) फेंडना, गिराना, दोष रूगाना, हि च्यक्ष, ताना | झाखण्ड तव० (यु०) सम्ल॒द्य, खण्डरहित, सम्पूर्ण । शआाखरडत्त त्त्‌० ( पु० ) [आ+ खण्ड + लू इन्द, सहजएक्ष, शचीपति, देवराज | आखत (पएु०) श्रत्षत, नेग विशेष जे कम्मीना या _नेगियें का दिया जाता है आख़ता दे० (वि०) डसत्वहीन, वधिया किया हुश्ला । 'ग्राखा तदू्‌ ० (पु०) चलनी; बोरा, गठिया | अआखात--वद्‌० (छ०) [ था + खन्‌+क्त ] ढेवखात, देवनिर्मिच जलाशय, मील । अ्----++++म_++_त++न्‍न्‍ैनतह0हतह0/तकतहक॥ आखातीज तदू० (स््ी०) श्रत्तय ततीया/बैशखश॒क्त ३। आखिर (श्र) अ्रन्तिस, पिछुछा, समाप्त 3: अखिरकार ( शु० ) अस्त में । आंखियी (वि०) अन्तिम | आखु तद्‌« (पु०) [आ+ खन्‌+ ड्‌] मूसा, चोर। धआाखेद दत्‌० (घु० ) सगया, अ्रह्दे शिकार |--क (9०) व्याध, बद्देहिया, (यु) अन्वेषित, सयानक शाख्या तत्‌० (स्त्री०) नाम, सेशा, अभिधान -त (ग्ृ०) कथित, उक्त, प्रसिद्ध, व्याकरण का घातु अकरण । - नक ( घु० ) नास, संज्षा; इतिहास, उपच्यास, फथन [--नक (पु०) वर्णन, बूत्तान्त ! आख्यायिका तत्‌ ५ (स्वी०) [आ+ ख्या + इक + आग उपकव्धार्थ कथा, इतिहास, उफ्यास, उपकथा, कहानी श्राभ तदू० शआगि ( छी० ) अपि, अ्रनक्ृ, भआगी। (सुद्दा०)--उठाना रूगढ़ा करना (--का पुतत्ना महाक्रोघी (--खाना, अ्ंगार हँगना जैसी करनी बैत्ली भरनी ।--दैना (क्रि०) शव का श्रप्मि लेस्कार करना ।-- पानी का चैर स्वाभाविक शब्रुता ।-- फॉकवा--रूठी डींगे हांकृवा ।--बदुला होना-- अत्यन्त कुपित दाना ।--वरसना छड़ी गर्मी पढ़ना ।---में पानी डातना--करगड़ा निपटाना ।-- लगाकर तमाशा देखना--दूसरें को कड़वा कर स्वयं प्रसन्न होना |--की श्याग भूख होना तद्‌० (क्रि०) गरमाना, ऋुद्ध दवोना । आगत॑ तव्‌० (गुर) [श्र + गम + कल] पहुँचा, उप*न्‍ स्थित, सम्मुख, श्रायात, आया हुआ ।--स्वागत (छु०) आदर खत्कार | घझरागन्तुक तद॒० (गु०) अनित्य स्थायी, अचानक झाया हुआ, अतिथि |--ज्वर (घु० ) पीड़ा विशेष; आकस्मिक ज्वर, धातु प्रकोप के विना ज्वर | श्यागम ठप ( घु० ) [ आ+गस्‌ + अल ] श्लोगसन, व्याकरण के सत से प्रकृति म्रत्मय के भ्रध्य में होने बाले काये, सन्त्रशास्र, वेद, तन्‍त्र, भविष्यद्‌ | कह्दते हैं कि शिव, दुर्गा और चिप्णु के द्वारा प्रस्तुत शात्र ऋआयम कहे जाते हैं |--क्ष चर ( ग्ु० ) वेदज्, तन्त्रवेत्ता।+-न ( छुब) [ झ+ - सम्र्‌ + झनद | पहुँ चना; उपस्थित द्वाना, आता । (्‌ रोक तव» (गु०) [ थआागम 4 उक्त ] तन्त्रशास्र विदवित कमे, दान्त्रिक उपासना, शाख्तोक्त ।-- चक्ता तत्‌० (पु०) आगमज्ञानी |--बाँधना तव्‌० ( क्रि० ) मावी के ठीक करना, भावी के लिये साचना, भ्रागम कहना, भावी कहना। -सोची (एु०) अप्रसाची, दूरदर्शो | आगल्नान्त तव्‌० (गु०) गले तक, कण्ठपयन्त | झआागा तत्‌० (१०) अग्र, सामना, अ्रगवाडा १--“ पीछा करना” (क्वि०) तदू० संशयित द्वेनना, दुद्विधा में पड़ना, द्विचकना | झआागा दे? (पु०) काबुलिया । आगामी तत्‌० (१०) [ आा+ गम +ई ] झने वाला, आगे भ्रानेवाला, भावी । आगाड़ी तद्‌६ (श्वी०) घेढे की गरदन की रस्सी । आागर तद्‌ ( पु० ) चतुर, जानकार, जानने घाढ्ा, नागर, सयाना, पूर्ण । ( स्री० ) आगरोी । आगार तत्‌» ( पु० ) घर, गृह, मकान । आापिल तदू० ( गु० ) भगिला, द्वोनदार, भविष्यव, अग्रसर, अग्रगामी | ध्यागी तत्‌० ( देखे। भाग ) [टिहुना तक । आागुरफ तव्‌० ( गु० ) [ आ+गुएफ ] गुश्फ परयेन्‍्त, ध्यायू, तदू० ( क्रि० वि* ) सामने, सम्मुख, थागे, अग्राऊ ! पं आगे (क्रि० वि*) पदिले, सामने, सम्मुख, तब, फिर, बढ़ कर ।--पीछे अग्रपश्चाव, आगे, पीछे, पूर्वापर, पक शागे पक पीछे, ऋमश । (मुद्दा०)--करना ++थगुआरा बनना |--आंगे---भेई दिनें पीछे ।-- का कदम पोछे पड़ना--भ्रवनति देना, पीछे हटना |--रखना--मेंट करना ।--से मविध्य में । ध्याम्मीत्र तद्‌5 (पु०) [श्राप्नि+ इस्घ+ र] यह्ष, थप्ि रखने का स्थान, द्वोता का गृद, घन के द्वारा वरण किया जाने वाया ऋत्विक। झाम्रेय तव० (पु०) स्वर्ण, दिक्‌ विशेष, रक्त, घृत, अगस्य मुनि, पाचक, अप्नि संबन्धीय, अप्नि तुक्य | +>ख्र तत्‌« (पु०) [ अग्रेष + चश्च ] अप्रिवाण, अम्यख, दस्दूक (ते (खो०) अप्रिद्येण, भ्रप्ति की स्त्री स्वाह्य --गिरि तत्‌० (पु) घघझने दाले पथ्वेत, ज्वालामुखी । + झागलान्त ६१ ) शाचरित धआम्रद् तत्‌० (पु०) [ श्रा+ म्रद + धल्‌] अतिशय यत्न, प्रयास, अनुगप्रह, थासक्ति, श्राक्रम्रण, भद्दण, उप कार, साइस ।--ी (वि०) इठी | आगपग्रह्ययण तच्‌ (छु०) [ क्षा + अद्द + अय + अबद ] मार्गशीपमभास, श्रगहन सास, किसी के मत में वर्ष का पहला मास +-- षि (स््ी०) [श्राग्रदायण + इष्टि] नवान्न मन्षण) नूतन अन्न का प्रारस्भ । आधात वव्‌० (पु०) [भा+हन्‌ णिच्‌+क्त] हनन, बंध, चोट, छाप, अपचय, प्रद्वार, बधस्थान । आधार तत्‌० (पु०) धूप, छत, छिड़काव, वि, मत्र विशेष से किसी देव विशेष के घृत प्रदान । आधूर्णन तद्‌० (प०) [ श्रा+घूर्ण + भनद्‌ ] चक्र के समान घूमना, फिरना, चक्कर साना | श्धूर्णित बत्‌० ( गु० ) [ झा+पूर्ण +फ ] धूमता छुआ, घुमाया डुच्ा। ध्याघोषण तद० (पु०) [भा +घुप_+ अनद्‌ ] प्रचारण, प्रकाश करण, घेपणा करना, सुनादी करना । आपध्राण तव्‌० (६०) [ क्रा+ प्रा + धनद्‌ ] गन्धपदण, सूँघना, उप्ति!-ह्े (१०) [ थराप्माण + भह | गन्ध प्रदण के येग्य, सुगन्‍्ध लेने के उपयुक्त । श्राप्नात तत्‌ (गु०) [थाकम्रा+क्त] धुघा दुआ । अआाप्रेय वत्‌० ( गु० ) [ आ+पघा+य ] सूघने के योग्य, सू घने के लिय उपयेगी । आड्रिक तथ० (गु5) अम्न निष्पन्न भाव, वाद्य विशेष, अन्जो के द्वात हृदय का माव प्रद्माशित करना, शारीरिक, शरीरसस्बन्धी । च्याचका तदू» 'त्रगणित, अकश्मात, हठात्‌ । धआचातु्य तत० ( पु० ) धमाड़ीपना, भनिषुणता। ध्याचमन ( घु० ) नित्य किये जाने बाल्ले कर्मो के पइले जब द्वारा थोड़ा जल हथेली पर रख कर पीना । जज (ख्री०) चमचिया [भषच्स्माव, दैदाव । श्रा्चाम्मित वद॒ु० (गु०) दृठाद, अदूमुत, चचरन; झाचरज दे० ( ६० ) आश्वये, अचम्मा ! आचरण तत्‌* (पु०) चढन, व्यवद्दार, रीति, चार, आचार, सैकिक कर्म--ोय वत्‌० (गु०) [नवा+ चर + भनी य] घचार के योग्य, स्यवद्ायं ! आचरित ठद॒० (गु०) [भा+चर+णिच+क्त ] कृताचरण', ब्यवद्धत । आचर्य_ (्‌ आआयाचर्य तत्‌० (गु०) [ क्रा+चर + या ] आचरणीय, कतेब्य, करणीय ॥ खाचार तत्‌"० (एु०) [ आ+ चर + घन | व्यवहार, चरिश्र, धृत्त, शील, रीति, स्तान, आचमन आदि --बज्जित तद्‌० (यु०) आ्राचाररददित, अनाचारी। -- विरुद्ध तत्‌5 (ग्रु०) व्यवहार विरुद्द, कुरीति । बआचारी तत्‌० (ए०) शाघ्वीय आचार रखने वाला, शाखत्र के प्रचुसार चक्तने वाछा, साम्प्रदायिक पुरुष विशेष, आचार चिशिष्ठ पुरुष, आचाराश्वित घुरुष आचाये तत० ( घु० ) [ आा+चरु +ध्यण ] चेदा- ध्यापक, वेदेपदेष्टा, शिक्षष्दाता, पाठगुरु, शिक्षान आचार और घर्मे की शिक्षा देंने वाढ्ा ।मिश्र ( तस्‌० ( गु० ) आय, पूजनीय, गुरु (ख््री० ) | * भन्‍न्नों की व्याख्या करने वाली, उपदेशदात्री । +-णी तस्‌० (सखी) आाचाय ख््री, सुरुपली । ध्यायोंद तद्‌ू० ( खी० ) आ्राघात, क्षत्त, विज्ञव। घाव, अनाकृष्ट, बिना जाती भूमि । आचकुक्न तत्‌० (गृ०) [ भरा + छद + क्त ] श्राप्छादित भावुत, व्याप्त, चेछित, रक्षित, छिपाव, ढका । आच्छा तदू० (श्र०) स्वीकाराथेक, उत्तम, श्र्ीकार, अकश्छा । आच्छादक तव्‌० (७०) [आ+ चुदू+णक] आवरण- कर्ता, गोपनकारी, ढकने वाढ्य । ध्राच्छादून तत्‌० (०) पत्र, परिधान, आवरण, ढकना, धराउलादित तत्‌० (ग्रु०) कृतालछादन, आवृत, उका डुश्रा । ध्राचछाद तत्‌० (गु०) [ भा+छुदू +ध्यण | आछा- दसीय, आश्वस्त करने के येग्य, ढकने के योग्य । आान्िक्िल्त तत्‌० ( गय॒ु० ) [ आ+ छिद्‌ +क्त ] छेदना, काठना, कर्तन ! * धआकुत दे० (क्रि० वि०) दोते हुए, रहते हुए । आहछुना दे” (क्ि०) रहना, दाना ।. नीकछी, भली । ऋाकछी तद्‌० ( खी० ) श्रच्छी, उत्तमा, सुधर, बढ़िया, आज तद्‌० ( शर० ) शरण, भ्रब, अभी, वत्तमान दिन । - -+फरल्ल तद्‌०(अ०)इन दिमें में, कुछ दिनें---कल करना तदू० (क्रि०)हूँ द,करना,यज्ञमरेल्ठ कसना। घ्याजन तदू० ( छु० ) काजल, सुरसा, अजन अखि में छमाने की दवाई विशेष | हे ) * आज्ञा घाज्न्म तत्‌ (्‌ शु० ) [ आ+ जन्म _ जन्‍्म्रावि, जन्म से लेकर, जन्म भर, उम्र भर, यावज्जीवन । पाज़माइश दे० (खी०) परीक्षा, “जाँच, परख । आंज़मानः दे० (क्रि०) जाँचना, परखना । प्राज़छूदा दे० (गु०) परीक्षित ध्ाजला तद्‌० पसर, दो द्वाथ भर, भ्रव्भलि 4 आजा तद्‌० (पु०) पितामह, दादा, पिता का पिता । आज़ाद दे० (गु०) स्वतंत्र, मुक्त, स्वाधीन । धाजाना तवू० (गु०) श्रकस्मात आना । झाज़ानु तत्‌० ठ्गयुना तक, ज्ानुपयन्त, जालुअवधि। ' +वाहु तक० (गर०) जद्दापयस्त कम्बित बाहु, विशाल बाहु सास॒द्रिक शाख में आजानु बाहु होना पुक शुभ ऊच्षण समझा जाता है । ज्ाजि तत्‌० (स्त्री० ) युद्ध, सतान भूमि, लड़ाई, संग्राम, रण, आक्षेप, आक्रोश, गन, गति । आाजी तत्‌० (स््री०) दादी, पितामही, पिता की मातता। आजीच त्तत० (५०) जीविका, जीवनेपएाय, पृत्ति, बन्धान ।--व्कि तत्‌० (स्त्री०) श्वक्ति, बन्धान, शोज्ी । श्याज्जीवी तत्‌० (गु०) उपजीवी, उपजीवक | आज़ दे” (पु०) आज, वर्तमान दिवस | घ्याजू तव्‌० (खी०) बिना वेतन के काम करने घाला, चेगार, अवैतनिक, श्रवेतन ।[झादेशित, निवेशित । जाज्ञप्त तत्‌० ( गु० ) [ आ+ ज्षप्‌ +'क्त ) भ्यमति ब्राप्त। धआाज्षप्ति लत्‌* (सत्री० ) [आा+छ्षपू+ क्ति ) श्रादेश, निदेश, विधि, आज्ञा | अआाज्ञा तव्‌* (खत्री०) आदेश, निदेश, अनुमति, शासन, “-कारी तल» (पु०) 'झआाजक्षा के शअचुसार काम करने काला, भ्राज्षाबह, शआज्ञानुवर्ती, 'अनुमति- पात्क ।--चक्त तव० (पु० ) पद्चकों में से छुडरवाँ चक्र ।--तिक्रम तद्‌० ( पु० ) [झाज्ञा + अतिक्रम] आादेशातिक्रम,शआजशालबुन,हुकुस शदूली। “-दायक तत्‌० (9०) अज्लञमतिकारी, चादेशकर्ता। +-जुचर्तन तत्‌० (घु०) [बाज्ञा + भरजुवतंन] आज्ञा के अग्युसार चलना ।--पत्र तत्‌० (पु०) श्ादेश- लिपि, निदेश लिखत, हुकुमनामा --प्रतिघात तत्‌० ( घु० ) स्वामिद्रोह, राजशासन त्याग झाज्षापक --धर्ती तव्‌० (गु०) आज्ञा के पश, श्राज्ञावद, आज्ञाधीन । [कारक, आज्ञा कर्ता, स्वामी ! आज्ञापक तद" (गु०) [आा+ज्षा+णित ] आदेश- ( ब्ड ) आततायी «् खातू तद्‌० (स्त्री०) गुरुवायत, प्रण्डितायन | खातोद्य तद्‌ू० (प०) [ थ्रा + छुद्‌ + यू ] वाद्य, घीणा, मुरज, वंश का शब्द, चतुविध वाद्य । ग्राप्यपन तव्‌० (० ) [ आा+ज्ञा+ णिच+ भद ] | आत्त त्त० (गु० ) [| थ्रा+दा+क्त | खद्दीत, ग्राछ् अनुमतिकरण, श्रादेश करना । छाज्य तव० (०) [आकजू+य ] घी, छत, इच |-प (पु०) पित्शार विशेष, घुतमोजी । आझनेय तद्‌० ( घु० ) श्रज्जनी घानरी का पृत्र, हनुमान | घ्राढा तदू० (श्री०) पिसान, सूजी, चून। (मुदा०) चाल का भाव मालूम होगा दुनियावी बातें से परिचय द्वोना । आदोाप तत्‌० (पु०) [शआा+रुप्‌+ अल] दपं, गये, अद्ृ्वार, दायुजन्य शदर शब्द । आठ तदू० (गु०) संख्या विशेष, घष्ट, ८, चार का धूना ।-पहुर (पु०) आयाम, दिनरात [-वाँ अष्टम ) [छगोटी 4 झड़ तदु० (ख्वी०) परदा, रोक, शोट ॥-वेंद (४०) थ्राडम्वर तत्‌० (पु०) खटला, इ्द्योग, पटढ, तूयेरव द्वाथी का शब्द, पक्ष्म, दपे, ह्प, समारोह, धदा, अक्षमानेन, कोध ।--ी (गु०) दाम्मिक, खसमा- रोष्टी, धदा बाला, दर्धवाला, भहदूूपरी । झआ्याड़ा तद्‌० (गु०) टेढ़ा, तिरछु, वाका । झातायी तद्‌० (गु०) घूते, शठ, (१०) पक्चि विशेष, प्वीज़ । * आतायीपन तद्‌» (पु०) धूतेता, सछता, शठता झातिग्रेय तत्‌० (गु) अतिथि-सेवा-कारक, भतियि- घुजन, भ्रतिथि सेवा की सामप्ती, चम्यागत का सम्मान करने वाढा | आतिथ्य तत्‌० (पु०) अतिथि के सेशन झोदि के पदार्थ, अतियि-सेदा १ [से उपस्थित । आदिदेशिक तत्‌० (गु०) अतिदेश प्राप्त बूधरे प्रकार आातीपाती दे० (सती ०) छद़ओं का पुक देशी खेल । श्यातिशय्य तव« (पु०) भाधिक्य, अतिरेक, बहुत ही । झातुर तव« (गु०) रोगी, पीढ़ित, भ्रति शक्ति रहित, कातर, स्थाकुल, भस्थिर ।--ता तन» (स्थी० ) ब्यावुज्ञतवा, घवड़ाइट, धेचैनी +--ताई तद्‌* (सखी०) ध्यग्रता, झतापट्टापत | पकड क्षिया गया ।-गन्ध तत्‌० (गु०) गृद्दीत गन्ध, दतदप, अभिमूत, पराजित -गर्च तत्‌० (गु०) खण्डिक गर्व, अद्दद्भूगर चूर्ण ममझदप। जातद्म तद्‌० ( ५० ) निज, श्रपना, स्वीय, जीव |-- कलह तत्‌० (पु०) [ ग्रार्मन्‌ + कलद् ] मित्रों के साथ विवाद, गुद्क्ल्द ।--कार्य तत० (पु० ) लचिस्मात्‌ + कार्य) भपना काम, गोपनीय कार्य । -मगरिमा तत्‌० (स्त्री० ) [ झ्रात्मन्‌ + गरिमा ] आर्मश्लाघा, द्प, अदृद्ृह +--आही तत॒० (गु*) [आरमन्‌ + मद + खित्‌) आत्मस्मरी, रजाये पर। स्वार्थी ।-घात तत्‌० ( धु० ) [आारमन्‌ +घात] आत्महत्या, स्थर्यमरण, अपने किये डपाय _से मरण ।--जे तद्‌० (३१०) [शरात्मन +जब्‌+ड) इुब्र, सन्‍्तान, बेटा | ( ९ ) स्वोत्पन्न । - अनन्‍्मा छत» (पु०) [अ्श्मन्‌ +जन्‌+ मन] पुर, तनय, सनन्‍्तान जा तव्‌० (स्त्री०) [भाष्मत्‌ + जन्‌ 4 ढ+ भरा] कम्या; पुत्री, दुष्धिता, वृद्धि ।--ज्ञान सत्‌० (पु०) [शास्मन्‌ + शा + झवट्‌| बद्ा विषयक आड़ तदू० (गु०) रचक, स्वरविशेष । आडिआना तदू० ( क्रि० ) बचाव करना, घाधक द्वोना, वाघा डालना, काम भाना | ध्याढ देन (पु०) चार सेर की चीलछ (स्ली०) गेट, परदा। शआाह्य तत्‌० (गु०) घनवात्‌, धनी, घनयुक्त, विशिष्ट, अन्वित, घनात्य, गुणाक्ष्य, सम्पत्त ! ध्याढ़क तद्‌ू० (०) परिमाण, विशेष, चार सेर । आद़त त्तदू० ( ख्री०) भरष्टा, माज का चालान, चालान करने का स्थान | धाढ़तिया तद्‌« (घु०) च्यापारी विशेष, चद स्यापारी जो दूसरे ध्यापारी के घदके कुछ कमीशन लेकर मार झवरीदे या खरिद॒वा दे । आशणि ठद्‌ (३०) [भाण्‌ + ६] कान, अस्ति, सीमा । घयातडू' तद्‌० (धु०) आतक, भाशडू।, म्रक, रोग, पीड़ा । धझातत तद्‌० (गु०) भारोपित, विस्तारित | आततायी कद» ( गरु० ) [ चावतक+ अय + यित्‌ ] ॒ आतप (्‌ शात्म है ) बधोग्यत, अनिष्टकारी। ( घु० ) मदापापी, आग लगाने बाला; विप देने वाला, शास्रोन्मादी, घना- पहारी, भूसि और परदार अपहारक ये छः श्राततायी कहे जाते रैं--( शुक्र नी० ) हद्यारा, डक । घ्यातप तत्‌० ( पु० ) धूप, सूर्य की किस्ण, सू्े का अकाश ।--त्यय तत्‌« (पु०) [आप + अल्यय] लूर्य की किरणों! का साश, घूप का श्रम्ताव -- | पस्ाव तव5 (पु) [आतप + शसाद] छाया; धूप का श्रभाव >नोद्क त्तत्‌० (घु०) [जातपक इदुक] सुधतृष्णा, सारीचिका, सूर्य की किरणों सें जलक्षान | +ज्र, श्रक्त तत्‌० (पु०) [ आतप क ब्रै+ड, तप +ब्रैं+ ड +छ | छत्र, छाता । आातपन वव्‌० (9०) [ आ+ तपन-अनद्‌ | शिव का नास 3 [इतराई । झातर तततू० (०) [ झा +त्‌+ अल ] अन्तर, बीच, आतपेश तत्‌० (०) [ आा+तप्‌ + अनद | पीणन, तृप्ति, मद्जलावेपन । । शआातशक दे० (स्री०) रेगविशेष, उपदंश, गर्मी । आतशवाज़ी दे" (स्री०) भश्नि क्रीडा ।. [शरीका । आता तदू ० ( घु० ) न्त्ता, फछ विशेष, सीताफल, घ्यात्तायीपत तद्‌ ० (ए०) धूत्ता, खछता, शठ्ता । आतायी तदु० (गृ०) धूल, शठ, (5०) पक्षि विशेष, अतीक | शआतिथेय तत्‌० (यु०) अतिथि-सेवा-कारक, अतिथि- पूजकू, झतिधि पेव की सामग्री, झभ्यागत का सम्प्रान करते वाला । आतिथ्य तत्‌० (पु०) अतिथि के भोजन आदि के पदार्थ, अतिथि-सेवा । [ ले उपस्थित । शआरतिदेशिक तत्‌० (यु०) घतिदेश प्राप्त, दूसरे प्रकार घख्रातीपांती दे० (ख्री०) छड़हों का एक देशी खेल | प्रातिशय्य तत्‌० (०) आधिक्ष्य, अतिरेक, बहुत ही । पझआतुर तत्‌० (ग्रु०) रोगी, पीड़ित, गति शक्ति रदित, कातर, व्याकुल, श्रस्थिर ।--ता चब्‌० (स्त्री०) व्याकुछता, घबड़ाहठ, बेचैनी |-- ताई तत्‌० (ख्री ) ज्यम्नत्वा, उत्तावछापन । आतू तद्‌० (स्ली०) गुरुवायन, पण्डितायन | आातोद्य तद्‌ ० (गु०) [था + छुदू + व] वाच्य, वीणा, ». झुरज, वंश का शब्द, चतुर्चिध वाद्य । | आत्त तत्‌» (यु०) [अ्+वदान+-क्त ] सूद्दीव, भास, पकड़ लिया यया ॥--गन्ध हत्‌० (ए्ु०) सृहीब गन्ध, इतदप, अभिभूत, पराजित ।--गर्च लत्त्‌० | (गु०) खण्डित गये, अहक्लूएर चूर्ण, सप्इ॒प । आत्म तत्‌० (ए०) निज, अपना, स्वीय, जीव |-- कलह तत्‌० (ए०) [आत्मन्‌+- कलह] मित्री के साथ विदाद, गुदकलद ।--छार्य चत्‌० (पु) [आात्मन्‌ + कार्य] अपना कास, ओोपनीय कार्य । गरिमा तत्‌» (ल्वी०) [ आत्मन्‌ + गरिसा ] आत्मरकाबा, दपे, अहड्डूगर ।--आाही तत० (गु०) [आक्मत्‌ + अह +- खिन्‌ ] आत्मम्भरी, स्वार्भ पर, सखार्थी |--घांत तब० ( छ० ) [आव्मन्‌ +घात) आत्महत्या, खर्सरण, अपने किये उपाय से सरण । - ज॑ तव्‌० (पु०) [ आत्म + जब + ढ] घुन्न, सन्‍्ताय, बेटा । (घु०) स्व्रोत्पन्ष --जअन्सा तत्‌० (पु०) [ आत्मन्‌ + जन | एुल, तमस, >सन्तान !--जा तव० (सत्री०) [आसन + भन्‌ + ढ+श्ग ] कब्या, पुत्री, ढुहिता, बुद्धि -क्षान सत्‌० (9०) [श्यत्मन्‌ +- ज्ञा + अचट | महा विपय्रक ज्ञान, स्वानुमपष तत्व तव5.. (०) [आव्मन्‌ + तत्व] परह्मतत्व, आत्म यथार्ध्य +-- ता तल० (स्ती०) [झात्मन्‌ + ता कन्छुता, प्रएय) सद्भाव, प्रेम, शीति ।--लेपद तत्तू० (५०) क्रिया का चिन्ह विशेष ।-वश्चेक प्रतू० (०) [ आत्मन्‌ू+बच्च + णक्‌ | कृपण, पापी, नास्तिक (चल तव्‌०. (गु०) [ आत्म- सदश, अपने समान ।“बरा वच्‌० (शु७) [ आत्मन्‌ + वश ] स्वाधीन, स्वचश, स्वप्रधान | +- स्मारि तद्‌० (यु०) अपना पेट पालने बाढूा, स्वार्धी [योनि तत्‌० (०) [आत्मन्‌ 4 ये।थि] ब्रह्मा, विष्णु, क्षिब, कामदेव [--रक्ता तवू्‌० (स्री०) [झात्मच्‌ + रक्षा] अपना रक्षण, आत्म- न्राण +-लाभ तत्‌» (धु०) [आाव्मन्‌-+जाभ] उत्पत्ति, स्वढाभ, स्वार्थ |--शलाथा तव्‌० (स्री०) [भाव्मन्‌र्न-शक्ञाघा] श्रात्ममवे, अपनी अशंसा । सम्भव तत० (० स्वी० ) [भआप्मन + सम्मब ] घुत्र, कन्या ।+>सातू तत्‌* (गु०) [आत्मन्‌ + सात] अपने अधीन, स्वदवस्तमत |-- + शा० पा्‌०७०-६ झात्मा (्‌ ईई ) आदी सात करना (क्रि०) इजम कर जाना, हर प जाना । | आदर्श दव्‌० (पु०) [श्रा+दश+ अल] दर्पण, मुकुर -+दत्या लत (ख्त्री०) [शाव्मन्‌ + इस +क्‍्यर्‌] आत्मघात, स्ववध |--हा तव्‌० (पु०) [शाध्मन्‌ + हन्‌ + क्िय] अपने का भारने बाछा, आत्मघाती, अपने प्रयत्त से झत ।--दिसा (स्प्री० ) आत्मदृष्या । प्रात्मा तब (पु०) [शआ+अत्‌+मन्‌] बल, घृति, बुद्धि, स्वमाव, ब्रह्म, देह, मन, पुत्र, जीव, अर, हुताशन, वायु ।--मिम्रत (गु६) [ ब्ात्मनू +- अभिमत] भराष्मसम्मत, अपना मतानुयायी । [नींद संस्कृत में यद्द शब्द पुलिद् है, किन्तु हिन्दी वाले इसका ब्यवहार श्रीलिड्न में करते है] आरत्मिक तदू* (गु०) मन का, अपना, प्यारा । आत्मोय तद्‌० (गु०) [ श्राएमन्‌ + दैय] स्वक्ीय, श्रन्त रेड, स्वजन, आाश्मजन |--ता तत्‌० (स्प्री०) हद्यता, बन्जता, 'अन्तरद्सा, सदूभाव; प्रणय। आत्मास्कर्प तत्‌« (बु०) [झआास्मन्‌ + उत्क्प| अपनी श्रेष्ठता, अपनी प्रभुता, श्रपनी चढ़ाई । धात्माद्धार तत्‌० (०) मोक्ष, अपना दद्धार। अआस्मेद्धवा तव्‌० (स्त्री०) [आ-मन्‌ + उदू मचा] कन्या, पुत्री, भारमजा । मर प्रात्माज्षति उद॒० (स्त्री ०) भपनी बढ़ती | आत्यन्तिक तदू० (गु०) [बर्पन्त + इक] अतिशय, विस्तार, प्रचुर, अधिक । ५ आभेय तत्‌० (पु०) श्रत्नि झुनि का पुत्र, दुवांसा, चन्द्र, राशरत्प रख, धातु ।-ने त्द० (स्तरो०) चदी विशेष, ऋषि पत्नी विशेष । [ समूह । भ्राथर्वण तत्‌० (पु०) चरथर्द वेदश ब्राह्मण, अथवे पध्यादुत दे० (रत्री०) स्वमाव, टेब, बान । पआादुमियत दे० (पु०) मलुष्यन्व । ध्यादमी दे० (पु०) भादम का सन्‍्तान, भादम की ओराद, नर, महुष्प, सानव । पआादषमन्त तद्‌ ० (गु०) आारस्म शे समाप्ति पर्यन्त, आदि से अन्त तक । आदर तत्‌* (पु०) [टश्राकइक भठ] प्रास्था, सम्मान, मर्यादा, प्रतिष्ठा, खातिर --शीय तच्‌० (ग०) सम्मावाई, मान्य, साननीय ।--भार त्तव्‌ब (३०) प्रतिष्ठा, मान, सम्मान । निदर्ष, भतिपुम्तक, सूछ पुस्त5, टीका, चिन्द, नमूना | ध्यादा तदु० (पु०) मूल विशेष, भद्रस, अद्गक | अदान तत्‌० (पु०) [आा+दा + अनद] अ्रदण, खेना, स्वीझार, रोगलचण ॥।-प्रदान तब» (पु०) [तआादान + प्रदान] लेन देन, त्याग ग्रहण । आदि तदु० (पु०) पूब॑, प्रथम, मूछ, श्रम्म, पढ़िला आकार, उत्पत्तिस्थान, यौस (--क सब» (श्र०) पद्विले से, इत्यादि, थीर सब ।--कवि तत्‌० (५०) वाढ्मीकि मुनि, रामाययकर्ता, कट्ते है सर्वप्रथम छन्दोवद्ध कविता इन्दोंते ही की थी, कौप्ठ-्युगल दे। देख श्रक्षप्मात इनकी छन्दोमयी वाणी प्रका- शित हुई, श्रतपृव यद्ट आदि कवि कई जाते हैं । “-कारण तत्‌० (५०) पद्छा कारणा, पूर्व निमित्त, आय हेतु, मूल ऐसु, निदान ।--देव तव्‌० (9०) नारायण, विष्णु |--पराह तन्‌० (पु०) विष्णु का बराह अवतार --राज तत्‌5 (पु०) सर्व प्रथम राजा, एधुराज ।--शूर तत० (पु०) राज्ञा विशेष बद्धाल हे सेनवशीय राजाथों का पद्विल्ा राजा इस राजा का नाम वीरसेन था, परन्तु सेनवंश का यद्द प्रथम राजा था इसी पे इसे भादिशूर भी कहते हैं । पुश्नेष्दि यज्ञ करने के लिये इसी राजा ने कप्चौज से पाँच चेदज्ञ ब्राह्मण बुठवागरे थे, उस समय बोद्धघर्स की प्रदक्षता के कारण बचद्नाल में बेदज्ञ माह्मयों का अत्यन्त अभाव हो गया था । आदित्य तत्‌० (पु०) देवता, सूये, दिवाकर, भ्र्क घृच, भदार या अकौशा वा पेढ, रवि, भाजु ।--वार तत्‌० (पु०) खूथंबाद, सूर्य हवा दिन, सप्ताइ का अन्तिम दिन, इतवार।--मणडल तत्‌ (दु०) सूये- मण्डल सूर्यश्ोक ।--सूचु तत्‌० (पु०)सु्रीव वानर, यम, रनैश्च, सावणिं मनु, चैवस्वत मु, झणे । आदितिय तव० (गु०) भद्दिति के पुत्र देवगण । आ्यादिम तद० (गु०) [थादि+ मद] आध्, प्रधम उर्पत्नयस्तु, पहिला । आदिए तव० (पु) [आ+दिश्‌+क] भादेशित, चाज्ञप्त, श्रनुमत, कथित, प्राप्तोपदेश, गृह्षत झराज्ञा। आदी दे (५०) अदरक (वि०) अम्यस्त। चाद्वत (ृ द््छ ध्यानत ) आहत तन्‌० (ग्ु०) [झआ+द+क्त] शआादराम्वित, | आआधिवेदनिक तद« (छु०) द्वितीय विचाह के छिये, सादर सम्मानित, पूजित, अच्त्‌ ! | अआदेय तत्‌० (वि०) लेने के येन्य । झादेश तध्‌० (यु०) [शा + दिशू+ अल | आज्ञा, मर्जी, हुक्म, अचुमति, व्याकरण में पुकवर्ण के स्थान दुसरे वर्ण की उत्पत्ति, श्रकृति और प्रद्यय के मिल्मान वाले कार्य, ज्योतिष-शास्त्र का फल, फलादेश ।-- तत्‌० (४०) आश्ापक, आरज्ञाकारक गणक, दैवझ् । -प्य ठत्‌० (घु०) [झा कदिश्‌+ तुण] पुरोहित, धाजक, आज्ाकारक, आदेखकर्चा अआदेस तव्‌० (९०) देखो आदेश | घआादों तख्‌० (श्र०) प्रथम आगे, आ्रादि । ध्राद्य तत्‌० (झर०) प्रथम, अगला, पहिला, सोजनीय बब्य |--कचि (छु०) वाल्मीकि झुनि, बल्मा। ध्याद्यस्त तव्‌* (पु०) [आदि +अन्‌+क्त] प्रथम चौर अन्च, म्धम घे लेकर शेप पर्वत, आवद्योपान्त, आदि बऋस्‍्त । [ अच्त तक, घमस्त; सम्पूरे । आदयोपान्त तत्‌० (गु०) [गद्य + उपान्त] आरम्म छे आद्वा तत्‌० (स्त्री०) छुठे दस्त का ता । आधा तद॒० (घु०) आधा, अर्द्धक, अ्र्द्भ, घरावर भाग । --कपाली (३०) सितोररेग विशेष, अर्धृशिरो- चेदना, अधासीसी | आधान तव्‌* (३०) धारण, भर्भधारण, स्थापित द्वब्य अग्ल्याधान) गर्भावान ।-न्क्ति तत्‌० (पु०) [आ के घार+ दृश] रर्भाघान सेस्छार | घझाधार तव्‌० (घ०) आश्रय, आदार, अधिकरण, पात्न, अन्दुधारण, बृच्ध का आालवान्ड | शाधासीसी सद॒० (स्त्री०) अ्रचकपाछी, आधे सिर सें पीड़ा, रोग विशेष । श्राधि तत्‌० (छु०)) [अ+#घ्चे+ कि] मनः पीडा, ब्यसन, वन्घ॒क, प्रत्याशा, ज्ाधार | [ अतिशय | आधिक्य तव० (पु०) बहुत्तावत, अधिक, अधिकत्व, आधिदेधिक ठदु० (गु०) दवप्रयुक्त, देवाघीन, चोड- पद, चुद्धिसम्बस्धी । [ श्रधिह्चर आधिपत्य उुद्‌० (घु०) स्वामित्व, अरुस्व. पेझवर्य शाधिसैतिक दत्‌० (यु) जो सूत्रों था त्त्वों के सम्बन्ध से डलक्ष हों, च्यात्न सर्पादि जीवों कृष अधथम छी के दिया हुआ घन | शाधीन दद्‌० (ग्यु०) श्राज्ञाकारी, वक्ष, नन्न, स्वाधि- कार घुकन, वशवर्ती /-तां हत्‌० (स्री०) बश- चर्ती, ऋघीनाई [समय बीत जाय [ आाधीरात दे? (स्री०) बह समय जब सात का आधा आधुर्तिक तव्‌० (यु०) इदानीन्तन, साम्मतिक, अघु- सातन, नवीन, नब्य, दटका, अमी का, नया। आश्ूत तव० (गु०) आि+धू+क्तीं इंपत्कस्पित, ब्याकुछ- कम्पत, चालित । [का शराधाा। आधेआध ददू* ( पु० ) आधी आध, अर्दार्ल, आधे आधेक ठदु० ( छु० ) अर््धमाग, तुल्य दो मार्गों का एक भाग । श्र हो आधेय बत्‌० (गु०) ्रि+घाऊयु जो आधार का आधोरण तव्‌० (घु०) [आ + घोर +- अनद] हस्तिपक, मदाबत, हाथीवान, हाथी चलाने बालर । आश्यात ठच्‌० (ग्ु०) [झआाकध्मा+क्त]) शद्धित, दुग्ध, अपि संयेगान्वित, (ए०) बात रोग दिशेष, युद्ध, संयत्त । झाध्मान्‌ तद॒० (पु) लि+ध्मा+ अनद] चायु- रोग, वायु से पेद फूलना । [ समसम्दस्घी । आध्यात्मिक तव्‌० (पु०) श्रात्माश्रित, श्रात्मासम्बन्धी, आाध्यान तत््‌० (पु०) [ क्रा+ध्या +अचद्‌ ] ध्यान, चिन्ता, स्मरण, हुर्सावना, अलुशोचना, डःकुण्ठा पूर्वक स्मरण | [ फ्न्‍्य, प्राथेय, स्ार्गेन्यय ) आाध्यनीन दत्‌० ( घु० ) [ श्रध्चन + ईन ] पथिक, शान तदु० ( खत्री० ) और, अन्य, ग्रतिज्ञा, डछुचास, चहिसुल खास, सिन्र, शपथ, कसम, लौगंइ ! (क्रि० ) छाकर । आनक तलब» ( घु० ) [ आन + णक्‌ ] पदह, भेरी, सब, ढक्का, गरजदा हुआ बादल आनक्-दुन्दुसि तद॒० ( ७ ) [ आवक +दुल्हुमि ] श्रीकृष्ण के पिता बलुदेव, छहदू सेरी, बढ़ा नग्राड़ा ! आनत तदू० छाता है, ले आता है, छाते दो । बआावत तच० (ग्रु० ) [ आ+ नस +क्त ] अवनत, अत्यन्त झुका हुआ, छाता हैं; ले आता हैं, छाते ही दि, ८+ नल आम लक टस ड पक वाइलमााक (्‌ बद्ध, मिलित, जोडा हुआ | झानन तद्‌० (० ) [ भनू + थन्‌ ] मुँद, सुस, आस्य, बदन, चेहरा ।--फानन दे० (क्रि० बि०) फौरन, अति शीघ्र, तुरन्त, [ नैश्व्य, सन्निकरप प्रानस्तर्य बच्‌० ( पु० ) पश्चादूभाव, शेष, अनन्‍्तरा्थ, आनन्य तत्‌० (पु०) अ्परिसीमता, अलस्यता, अत्यधिकता, बहुत दी । आनन्द तद० (पु०) [ श्रा+नन्‍द + अल ] हाद, हे, सुस । ( गु० ) इर्युक्त, सुखी |-केर (गु5 ) आल्द्वादकर, सुपननक ।+--कानन (५०) आनन्द" दायक वन, काशीपुर का नाम ।+चित्त तवू० ( गु० ) हपे से प्रफुछचित्त +--पढ ( 8० ) नयी विदाहिता स्त्री का घख, नबोढ़ा का कपड़ा --पूर्ण तब» ( गु० ) श्रधिक आनन्द, समस्त आनर्द [-प्रभव ( घु० ) रेत, वीये, शुक्र |-- श्या ( ख्री० ) नवोढ़ा शयन ।-र्णव ( पु० ) [ आनन्द + भर्णेव ] भाह्मद सागर, सुख समुद्र । --चर्द्धन ( ३० ) यद्ध कवि काश्मीरनिवासी और प्रसिद्त थर्झ्वार शास्त्री थे, श्रवन्ति वर्मा के राज्य कार में यह कश्मीर में तेमान थे, काब्याढो5, ध्वन्याज्ञोक, सद॒दूया रोक नाम के प्रन्थ संस्कृत में ऊद्दोंने बनामे हैं। शवन्तिवर्मों सन्‌ परशेश से झप० के बीच तक रदे, श्रानन्दवद्धत का भी यही समय है (--गिरि ठद्‌० ( घु० ) प्रसिद्ध दार्शनिक पण्डित, यद्द शद्दराचार्य छे शिष्य थे, खृष्टीय नवम शताब्दी में यह उत्पन्न हुए थे, शझ्टूर दिग्विजय नाम$ प्रन्थ दन्दोंने बताया था, इसके झतिरिक्त उपनिषदों का समाश्य, और ओमद मगवद्गीता की टीका इन्दोंनि बनायी थी “नश्ु तत्‌० ( पु० ) [ घानन्द+ शु ] आहाद, हप। “-मयकेप तव्‌० € घु० ) पष्चकओाष के अन्तर्गत, क्ापविरोप, सत्व, प्रधान, ज्ञाद, कारण शरीर, सुपुप्ति। [ छुपा धआनन्दि तत्‌० ( घु० ) [ भानख+-इ ] इफे, आहाइ, आनन्दित तव्‌« ( पु० ) [झा + नन्‍्द + कक ] आनन्द युक्त, इधान्वित, हट । ईघम ) शआानद्ध उव० ( प०) [ धाकनदु +क्त ] चर्मारत बाद्य, नगाठा भादि, छद्पमात्र, चेशरचना आदि, घान्दोलन आनवान दे० ( ख्वी० ) सबावट, ठसक, बनावट । श्रानयन तत्‌० (घु०) [था कनीक धनदू] स्थानास्तर- नयन, ले श्ाना, छाना | आानते तव॒० (पु०) [ आ+द॒त + पल] देश विशेष, द्वारकापुरी, जृत्यस्थात, युद्ध+ शआ्रनते देशवासी मनुष्य । आनर्तित बव्‌० ( गु० ) [ ध्रा+दुत + कक |] कम्पित, नुत्यविशिष्ट । लिते आईये । आनवी तदू० (क्रि० ) लाइयो, ले आाश्रो, के झाइये, आनहु तदू० (क्रि०) छाथो, ले आश्रो, उपस्थित करो । पश्ाना तदू० ( पु० ) चार पैसा, थाना, पास आजा, सेलद द्विस्मा का एक हिस्सा, पुक शाना | पयानाकानी तद्‌" ( खी० ) दालमटोछ । हे घ्यानाड़ी तद्‌ू० ( क्रि० ) अनभिज्ञ, निर्वेधि, अकर्मण्य, अनाढी |--पना तव» मु्खता, श्रतमिज्ञता। श्रानाज्ञाना तद्‌० ( क्रि३) आवागमन, यातायत ) आनि (क्रि०) लाकर, ले आकर । आनिद्दों तदू० (क्रि०) छाऊंगा। लि कराना) आनीत तत्‌० (गु०) [आकनी+कक्त] आनयन करण, धाजुक्ूल्य तद्‌० ( 9० ) भनुइलता, सद्दायता । आ्यानपूर्य तव्‌० (५० ख्ी०) क्रमिक, अनुक्रम, क्रमागत, पर्याय, ठब ॥-नी ( स्थ्री० ) परियाटी। अलुक्रमः क्रमानुगत, क्रमालुसार, एक छे बाद दूसरा । घ्यानुमानिक तत्‌० ( गु० ) अनुमानसिद्ध, श्रलुमान- राम्य, अन्दाजन । [ उल्ले आये हो । प्राउ्ुश्रविक तत्‌० ( वि० ) जिसके परम्परा से सुनते आनुसड्लिर तद० (गु०) म्सड्ाधीन, साथ साथ द्वोने बाला, प्रासप्निक आनृशंस्य तत्‌० (पु०) अनिषप्ठुरता, दया, स्नेद्द । आनेता ठदू० ( घु० )[ आ+नी+छुण ] झ्रानपन, कर्ता, आदरण-कर्ता | आम्तरिक तत्‌* ( गु० ) श्रन्त करण सम्बन्धी, अन्तरस्थ, मनोगत, मानसिक । आन्दू ठद्‌० ( धु० ) हायी बँघने की जंजीर । आन्दोलन तत० (पु०) [ आन्दोछ + घनट_] कूठन, श्रमुशीटन, कम्पन, इधर डघार जाना, चलन, यार बार कथन, ध्यान, धुन घुन । आन्‍्वीज्षिकी शआन्‍्वीक्षिकी तच्‌० (स्त्री० ) स्यायशास्त्र । ध्पान्न तदु० ( क्रि० ) श्रानयव करना, ले श्राना। श्राप तदू्‌० स्वयं, खुद, तुम, जल, पानी । आपः तत्‌० ( घु० ) [ आपू+ अस ] अष्ट वस्तुओं से पएुक, जलू । [दे० ( स्त्री० गु०) स्वार्थी आपकाज़ तल्‌० ( गरु० ) आपकाजी, स्वार्थी । -' ध्यापगा ठत्‌« ( स्त्री० ) [आप +समस्‌ + ठ+श्र] नदी, ख्रोतस्ठिती । शापण तत्‌० ( घु० ) [आ+ऊ+प्णु+अत्ट| पण्य, विक्रयशाल्ता, दूकाल, हाट; छाज़ार /--न्कि (०) बरिक्‌, व्यवप्ताई, दूक्ानदार । आपज्वनक तत्‌० ( गु० ) [जपदू + जनक | पीपदू- जनक, भनिष्टकारी । | क्लेश | आपत श्रापकत्ति तदू० (स्त्री० ) विपसि, छुःख, झापद्‌ या आपदा तदु० ( स्त्री" ) विपद्‌, विपत्ति, दुःख का समय ।-प्रस्त त्व॒० ( गु० 2 विपक्ष, झापत्ति में फँसा हुआ । ध्यापन ( दे० ) अपना, लिज । आपनिक तदू० ( पु० ) पत्चग, पन्ना, सरकत, इन्हे, नीछमणि, देश विशेष । ध्यापत्न तप» (गु०) प्राप्त शरण्य, श्रसाया, आपदअस्त, आपदुश्धाप्त, सट्ुट्ट में पढ़ा हुआ | -सत्वा तत्‌० ( स्त्री० ) [ आपस + सत्व + भरा | ग्संबली ।-- नाश लव॒० (छु० ) [ आप + नशू+ घण_] शआपद्‌ नाश, विपत्ति नाश । आपमित्यक घत्‌० ( ५० ) [ अ्पमित+-अक्‌ | विनि- मय आछ, बदला किया हुआ, गृहीत द्ब्य । आपरूप तत्‌० ( छु० ) आप, ईश्वर, साधात्‌ । - ध्यापस तद्‌० ( धु० ) परस्पर, आप सव, निज, स्वयं । घझापसा तदू्‌० ( स्त्नी० ) आप समान, अपे जैला । ध्यापां ददू" ( स्त्री० ) बड़ी बहिन, आपही, अपनी सता, अहक्लार, सुध छुध। £ श्रापाक्‌ तद्‌० ( एु० ) शवा, पजावा कुम्दारों के मिद्ी के वतन पकाने का स्थान, अवा | [ समान । आपाततः ततु० (अआ्र० ) सम्प्रति, इस समय के आपादु-पर्यन्त तत्‌० ( झ० ) चरणावधि मस्तक पर्यान्‍्त, पैर से लेकर सिर तक । ( दे ) आध्यायित नतकतजज्ज्ज-+-+७७_-नन+-+_+++++__.त#ह#ह8087 आपादमस्तक तत्‌० ( ४० ) चरणावधि सिर पर्यन्ता ध्यापाधापी दे० ( स्त्री० ) अ्रपतती अपनी घुन, छा डाद, खेचातानी । आापान तच॒० (पु०) [ ज्ञा + पा + अनट, ] मधपानाश गोष्ठी, सतवाल्नों का कुण्ड, म्यप, सतवाल्ा । आपासर-साधारण तत्‌> ( क्र० ) [आ + पा/मर + साधारण | अन्‍य मनुष्यों से लेकर सभ्ती मक्ुष्य, सर्वश्लाघारण । झापिज्जर तत्‌० (घ०) स्वर्ण, हेस, कनक, काब्चन | शआापीड तत्‌* ( छ० ) फशिखाप्यित माला, शेखर, शिरोमाला, शिरोमूषण, झुर्ुठ, कक्षगी | आपीन तव्‌० ( छु० ) [ आ+पा+क्त ] गोस्तनः ईघत्‌ स्थूछ, गौ का धन, कठोर, मोठा, घढ्ा । आपु ( सर्व० ) अपना + आपुस दे ( छु० ) श्रापस, पररपर । आपूर्ति तत्‌० (स्त्री० |] आ+एूर +क्ति ] ईपत्‌ परण, सम्यक्‌ पूरण । [ का भ्राचसन ) आपेशान तदू० (घु०) कर्म विशेष, भोजन के फू आएच्छी रच० ( खी० ) [ क्रा+भच्छ + ढक झा ] झाभाषण, आल्ाप, जिज्ञासा, प्रश्न । आछ्त तद॒* ( गु? ) [ आप्‌ू+क्त ] विश्वस्त, लब्ध, लत्य, वन्‍्छु, अश्रान्त, सच्चा, विध्वासित, किसी भी कारण से कभी झूठ त घोछने वाला ।--काम तचू० (खि०) पूर्ण कास, जिस ही सप्स्त कामनाएँ” पूरी हो गयी हों ।--कारी (एु०) [शआ्राप्त + कृ + णिन्न्‌ ] विभ्वासी, विश्वस्त व्यक्ति |-गर्थे सत्तु० (बु०) आात्माहज्लार, वदम्स विशिष्ठ, दास्सिक | >आाही तत््‌० (पु०) खाधंपर, आत्मम्भरि क्ोभी ।--चर्म दत्‌० (पु०) श्राप्मीय स्वजन, चच्धघु बान्धव, माननीय सिन्न सार (पु०) [ श्राप्त + रू + बज ] आत्मरक्षण, स्वशरीर गोपन, स्वायत्त । 5 आंघोक्ति तत्‌*« (ख्री० ) [शआछ्त+वक्ति] सिद्धान्त- चाक्य, श्राप्ततचन, विश्वस्त व्यक्ति का -कथ्न । आप्यायित तव्‌० ( गरु० ) >शा+ प्याय +क्त ] दत्त, प्रीत, सन्‍्तुष्ट, आनन्दित, तर, बढ़ा हुआ, दूसरे रूप में बदुछा हुआ । ह आप्रन्छत कमल ननि नननन+- + पति +त् 33 3-++++5+++++े तर 5 प्राप्रच्छुन तच० (इ० ) आन अच्छे न॑ अनद | आने या जाने के समय मित्रों में परस्पर कुशल प्रश्न जनित आनस्द | ध्याप्तत तत्‌० (ए०) [ बा+प्लु+ भल्‌ ] स्‍्वान, अब- गाहन, जलमय, सर्वत्र डबाव ।--द्रती तत्‌० (एु०) [ झ्राप्टव + बती ] सस्‍्वातक बाह्मण, भाष्लुतबती । आप्खुत तव॒० (पु०) [शआ्रा+॑प्छुर्न क्त] स्नान । (गु०) कृतरनान, विद्वितावगाइन सिक्त, भीगा | (पु०) स्वावक । -बती तत्‌० (३० ) ल्राक प्लुत-,अत + इनि] भह्मचर्य व्यागान्तर जो गृहस्थ आध्रम अवक म्यन करते है, स्नातक म्राह्मण, समाप्त, चेदाष्ययन, स्मानशीढ | आफत दे ० ( खी० ) प्रापक्ति, बला, कष्ट | झआाफू वदू ० ( स्त्री०) ध्रमल, भधफीम अभद्िफेत ) आव दे० (स्त्री० ) चमक कान्ति, बरप, महिमा, प्रतिष्ठा, गुण, छुब्नि कारो दें (स्थ्री० ) कलवरिया, होली-पाशी (स्त्री०) सींचाई । आावज़ोरा ( १० ) गिलास । आयता7य ( स्त्री० ) छवि, कान्ति, छठ | आवदुस्त ( घु० ) सीचना, पानी का रपश फरना। झआाबदाना ( १० ) दाना पानी] आदर दे० ( दि० ) चमकीा, थू विमान । आबनूस दे० ( ३० ) एक प्रकार का पेड । आावादो दे० (स्त्री०) यश्ती, जनस्थान । आतू दे० ( ५० ) धामू नामक पहाड़ । शाम्दिक तर» ( दि० ) वापिक, सालाना धाम तव (स्त्री०) शेमा, कान्ति, पानी । झाभरण तव० ( घु० ) [ था +- भू + भनट_] अबब्टार, गहना । आामा हत॒० ( स्त्री० ) प्रमा, शेमा, दीसि, घुति, ज्योति, भ्ालोझ, उज्दलता, चम्रक, प्रकाश, सडक । थ्राभार तद० (पु० ) यो , गृहप्रवन्ध की देख रेख की जिम्मेदारी, पुदसछान, उपकार ।--ी सत्‌% ( वि० ) पृहसान मानने धाढ्या, उपकृत । आमापष तद* (प०) [ थ्राऊभाष +अब्_ ] भूमिका, अनुछान, उपकमणिका, प्रयन्ध, सम्भाष। झामापण तत% (पु०) [भाक भाप + अनदु] आउा- पतन, कथन, सम्माएय । (६. ७9० ) आमने सामने आ्रप्नात तत्‌» (पु०) [ झा+ सासू + अर ] सरश, प्रतिबिम्ब, छाथा, रूठक, पत्ता, मिथ्याशान, दीसिदोप, चमिप्राय, धवर्तरणिका। [ विशेष । शआभास्वथर तत्‌० ( पु० ) चौसढ सैख्यक, गण देवता आमिवारक तत्‌« (पु०) [ ध्रभि+चर + यह ] अमिवारकर्ता, द्विसा कर्म का प्रयोग करने चाल आमभिज्ञात्य तव्‌० ( छु० ) वंशसम्सन्धी, कौलीन्य, कुलीनता, सध्श, पाण्डि् । आमिधानिफ तत्‌० (यु०) कोशवेत्ता, अभिधानोक्त, असिधेनन मे प्रासिद [ आमिमुख्य तन ( पु० ) संग्रेधन, अमिमुखऋरण, संम्ुसीनत्व, सम्मुखता, सामना | झामोर तत्‌» ( 8०) ग्रोप, भरद्दी॥ ग्वाछ, भौल, बाहाथ के ओरस पे धम्पष्ठा जाति की स्त्री के शर्म नथ उत्पन्न जाति पिशेष, छन्दर विशेष, देश विशेष 7 --पह्िि, पहली तइ्‌० ( स्त्री० ) भोपप्राम, गो चेष । ( स्त्री० ) श्रामीरी, ग्वालिनी | आमूपण तत्‌० ( घु० ) अल्ट्टार, गहना; भूषण । ध्याभ्यास्तर तव्‌० ( वि० ) मीतरी, धन्दर का कि सत्‌» ( बि० ) भन्तरप्ष, मीतरी । आम्यासिकू तव॒० ( गु० ) श्रुतिघर; शस्यासकरत्तों [ आम्युद्‌यिक्र तत० ( ए० ) शा विशेष, धम्युदय सम्पन्न, सौमाग्यवान्‌, शुभान्वित । आम दठव॒० (गु०) [ भ्रम+ घन ) पाकरदित, श्पक्र, कच्चा, असिद्ध, (५०) श्रामाशय रोग, शाप्रफल | “-मन्थि तद्‌० ( ४० ) गन्धयुक्त, चिता का धूम प्रभृति, कच्चे सस्रि के गन्‍्धपुक्त पवार्थ, दुरगेन्घ “चूर तल (पु०)प्राव कासूसा चूणे, भ्राम की र्शई । | आमड़ा तद्‌० ( ० ) एक स्द्टा फक्न विशेष । आमद्‌ दे० ( छी० ) आमदनी, आय । आमदनी दे* ( स्तो५ ) भाष, प्राप्ति, आमद | आमनाय नव € पु० ) श्राज्नाय, अम्याप्त, प्रसम्परा। आमना सामना ( ६० ) से ढ, मुलाकात । आमने सामने ( पृ० ) एक दूसरे के सासने या झुकाबिले वर । आमनन्‍नण (्‌ सामन्त्रण तत्‌० (घु० ) | आ + मन्त्र +अनढ | सम्प्रोधत, ग्राद्ाव, निम्नन्‍्त्रण । आमन्त्रित ततु० (गुण ) [ आन-मन्त्र +क्त ] चिमन्त्रित, आहूत, न्योता दिया हुआ ! मय तत्‌० (पु०) [ आफकमयू+ बल ] सेय, पीड़ा, ब्याधि ! [पीड़ित । आमयाबी तत्‌० (छु०) [ थ्रासद + क्षम्‌ + इच्‌ ] रोगी, आमरक्त तद्‌० ( छु० ) इदर रोग विशेष, छात्त मझ निकलने की पीड़ा, अतिलार, उद्र रोग | आमर्श तव्‌० (प०) [ भ्रा+खशू+ अलू ] परामर्श, विवेचन, सुचिन्ता, सछाह | [ रोष, राग । आमपे वत० (पघु० ) [ आ+ रूप + भल्‌ ] क्रोध, शामलक ततु० ( घु० ) भ्राचल्ला । घ्ामला तदू० ( छु० ) आामछूफ, फछ विशेष, घात्री * फल, कार्तिक मास में हस वृक्ष की पूजा होती है आमवचात धत्‌० ( प्ु० ) पित्त मे उत्पन्न चर्म रोग | आमशूल तत्‌० ( घु० ) रोग विशेष, अ्रजीण हने के कारण उदर कि पीढ़ा विशेष, चाथुगोला, बायुशूल । [ बनती, पान्नू । आामात्य तत्‌० (पु ) [ आमा+ध्पप्‌ू ] अघान, आमान्न तत्‌० (छ०) [झआम+शअबू + क्त] अपक्रान्त तण्डुक, कब्च[ पन्त, सीधा, कारा अन्न । ध्रामाशय चत्‌० ( घु० ) [आम न आ+ कि ++ श््छु अ्पक्व स्थान, आमस्थली, उद्रस्थ एक प्रकार की थैल्दी, भ्रतिक्षार श्रामरोग [ आतपिप त्व्‌ ० ( घु० ) मसि) मत्स्य आदि भोजन की चस्तु, सम्भोग, घूंस, रिसबद; लोभ, सच्चुय, ज्वाभ, काम के गुण, रूप, भोजन |--प्रिय ( छु०) ऋछ्लु पक्ती, वाज पक्षी ।( गु० ) सत्स्य सांस से सन्तुए मलुष्य [--आुकू तच॒० (झु० ) साध सोक्ता, ससाशी ।-नौशी ( छु० ) मत्त्यमॉस-से/ननशीछ, मांस-भक्तक । आसूल तत्‌० (पु०) गूजा पर्यन्त, करणए/कधि सूलाबधि, पह्दिले से, जड़ तक ।.[ डच्छेदित, अपमानित । आउहष्ट तत्‌० ( गु० ) [ आा+ सूप + क ] म्दित, आमेद्‌ तव॒० (घु०) [आफ सुद्‌ + अत | अति दूरगामी गन्‍्ध, सौरभ, हृप, आनन्द, दिल्ल बढ़ छश ) झायुध ादणएखा।दभपृमधवपएप/प७/४७!े-्-:पपथपपप:णथपैपैक्‍नप तल... छाव ।--अमेाद्‌ तव॒ ( घु* ) शानन्‍्द मदन, आराम चैन | आसमेदित तब ( श॒ु० ) [ आकमुदू +क्त व आनन्दित प्रसन्न, जी बहलछ! हुआ, सुगन्धित । अमीदी तव० (गु० ) [ आ+सुद्‌ + खित्र | सुख को सुगन्धित करने बाली वस्तु, प्रसन्न रहने बाला आउ्ञाय दवत्‌० (४० 2 [ श्रानज्ञा + य ] वेब, निगम, डब्देश, प्राचीच परिपाटी, सम्प्रदाय | आस्वर तदू ( स्री० ) कहरुवा, बनावदी सूला । शाम तत्‌० (पु०) फलचिशेप, आम, रसालू, सहकार। ध्याम्राई तद्‌० ( ख्थी० ) आम का बाग, झसराहे । आम्रेंडन तत्‌० ( घु० ) एक ही बात को पुत्त घुनाः क्रधन, पुनरुक्ति, ट्विवार था आ्रिवर कथित । चाय बत्‌० (प०) कान, धनागस, उपाजेन, आमदनी । आायत तत्‌० (गु०) [आ+यम्र्‌#क्त ] दीघ, छम्बा, बिह्तृग (ज्ली०) इन्जील का या कुरान का वाक्य । झायतन ठत्‌० (५०) [ आ+ यत्‌ न: अचद्‌ ] यहुस्पान, देवस्थान, धर, ठदरने की जयह, स्थान, मकान । ज्ञान के सझूर का स्थान | आयति सत्‌० ( छ्ली० ) [ धा+-अम्र + क्ति ] उत्तर- कार, भविष्यत्काल । [ परवशतता । आयात्ति तव्॒‌* (खी०) [ भा +यत्‌ + क्त | श्रधीयत्ता, आयंदर ( वि० ) आगन्‍्तुक, क्रागासी, भविष्य । आयखु तदू० ( पु० ) झ्ाशा, आदेश, श्रेरणा, यथा ४ पहुमाई कह आयख्ु दीज ? |--पश्चावत । आया तदू० (स्त्री०) लदृकी की खिलाने बाली, उप- काल, धात्री, घाय। (क्रि० ) आना का सूत- का । ( आ० ) क्या ! यथा आया तुम वर्हा गये थे कि नही ९ श्रायात तत्‌ू० (यु० ) [ झ्राकया+'क्त ] आगत, उपस्थित, आया। [ विस्तार, नियमन | आयाम तत्‌० ( छ० ) [आकचम घज] छंबाई, झायास वत्‌० ( छु० ) [ आ+यसू + घन ] श्रान्ति, श्रम, छ्लुश, परिश्नस, न्यायास, प्रयास, यल्न । आयु तव्‌० ( पु० ) [त्रा+पअय+ उस | चय, जीवन कान, जीवन समय, उम्र । ह आखुध तद्‌० (पु०) [आ+ झुध + क]दथियार, अख, शस्त्र, धञ्ञप झादि ।--ागरार तत्‌० (पु० ) आयुधिक [ आयुध + भागार ) अश्वगृद [बारी । आयुविक तव्‌० ( गु० ) अखनीयी, शस्तराजीव, अस्त- आयुधीय तत* ( गु० ) थ्ल्चचारी, शख्राजीय । पायुर्तेद तद० (गु० ) [ आायुश्ध + विदू + चल | अधष्टद्श विद्यान्तगंत पन्‍्वन्तरि प्रणीत विद्याविशेष, अधर्वयेद का उजाज्ञ, चिकित्साशाख, वैद्यध्शास्तर, निदानशाख्र (री हत्‌० (गु० ) आायु्वेदश, चिडिस्सा ध्यवसायी, चैद्य । झआायुष्कर तब» (यु) [ भ्रायुसू + कृ+ बड़ ]परमा- युशनक, आयु उद्धिकार के, आयुष्य, थ्रायुवद्धेक ! आयुष्फाम तत्‌० ( गु० ) दीघंजीवी, झायुप्रार्थी । आयुष्धाम तव्‌* ( 4९ ) वायुस +स्वोम-+-श्रल्ू ] यज्न विशेष, भायु बृद्धिकर यज्ञ । ध्यायुप्मान्‌ तव० ( गु० ) [ थायुस_+मत्‌ ] चि>- जीवी, दीपैज्ीबी, दीघोंयु, ( घु० ) ज्योतिष के सघ्तविशति येएएँं में तीसरा ये|ग विशेष ( ४ धयायुप्य तद० (गु० ) आयु का दहितकारक आयु धरद्ध क, ( पु० ) भायु, उम्त । आयेगच तव० ( ६० ) शूद्ध के भौरस से वैश्यों के गर्भ में उस्पन्न जाति विशेष, चढ़ई। आयेजन तव्‌० (३०) [ भा + युज्+ अ्रनट_] तैयारी, बच्योग, नियुक्ति । (रुप, संग्राम । आयेधन वव्‌० (६० ) [ श्रा+चुध्‌ + भनट._] क्‍ धार तदू० ( पु० ) काटा, पैना, श्रकुरा, मद़्छ, शत्रि आर, शुद्दार, चमार, त्ताश, पीनढ + आरिचा तर» (स्री०) सूत्ति', प्रतिमा, घर्चा, पूजा ३ झारज तदू० (ग्रु०) श्राय्य, बडा, थे पल्ण, महारास । | आरणजा दे* ( पु ) वीमारी, रोग । आरत तद्‌» (यु०) भाते, पीडित, दुःफित, ध्याकुछ, अत्यन्त दु सी, दुप्त का दबोचा हुआ, अति पीड़ित दुश्खान्वित | [ एक रीति विशेष + आता तद्‌० ( छु० ) दुल्दे की आरती, विवाइ की घारति तदू० (ख्वी०) देवता के दीप दिखाना, दीपएदर्शांवन, नीरामन, निद्धक्ति / आरती ठद० (स्ती०) देव छे। दीप दिपाना ) ध्यारन तद्‌र ( पु» ) अरण्य, वत, कानन, यथा-- ( छर ) ध्यारुढे # कीन्हेसी सावज ध्यारन रहे” --पद्मावत । आरपार दे० ( घु० ) इस किनारे से उस दिनारे तरु, पछोपार । आरबध तत्‌० (गु०) इपक्लान्त, आरम्भ किया गया। आरस्स तत्त्‌> (युट ) शारस्म, उफकम । आरपो तदू० ( गु० ) ऋषी सम्बन्धी, श्राप । आरसी दे० (स्त्रो०) अगृठे में मेँ दरी की तरह का पु थामूपण जिसमें दर्षण छुगा होता है भौर जिसे स्त्र्या पहनती हैं, 'आसी, दर्पण । आरा त़दू० (एु०) चर्ममेदक थम्त्र, कापष्टभेदुक भ्रम, रात, चुरात, ऋकच कस (क्रि०) आरा चड़ान वाला, कई चीरने घाला | आराजी दे० (स्त्री०) फेत, जमीव।... | दुश्मन । आराती त्तव्‌० ( ४० ) शत्रु, विपक्ष, बैरी, भ्रि, रिषु, ध्रारात्‌ तत्‌० ( ४० ) दूर, निकट, समीप । शारात्रिक तव्‌* (३०) भारति नीराजन, नीराजन बात, भारति अदीप ।.[ सेवक, भरे, पुजारी । आराधक उद० ( ग्ु० ) [धा+राघु+ णक) प्रज, आराधन तत्‌० (घु०) [ थ्रा+राघू + थनद ] साधना, उपासना, सेवा, परिचरयों तोपण तद्‌० (स्त्री० ) [[ भा+राधू+ अत + ता ] उपासना, सेवा, परिषयां, शक्षूपा । आराधित तव्‌० ( गु० ) [जा +राध +क्त| उपाप्धित, साधित, पूजित | आरध्य वद्‌० (यु०) [ताक राधुक+स ] ब्राराधना के योग्य, उपास्य, सेवमीय | ॥ आराम तत्‌० ( पु० ) [ क्रा+ रख +घन््‌ ) उपयन, बाग, विश्वाम्र, आारोग्य, उपशम, पीडा की शान्ति, सुख (-गाद दे (स्त्री० ) श्राराम की जाई, शयानागार ।+--तल्षब ( गुर ) घुल्ल, सुकृमार) आए तत्‌० (स्त्री०) हठ, टेक, जिश। आगिय दे० (स्त्रीन-) पृ प्रद्रार की ककट्ठी जो चौथावे में उत्पन्न द्ोती है । घगरी तव* (हवो०) करांती, दुरपण, काष्ट मेदक रद, बदूई का वद भौजार जिससे वद छकड़ी चीरता है। अआर्देधना ददु० (क्रि०) गला दुबाना, ध्वास रोकमा । आऊरूढ़ तर्‌* [द्रा+ रूढ + क] कृत आरोदण, शृद आदि बर चढ़ा हुआ, असवार, सवार आरोग (्‌ आरोग तदू० ( गु० ) भीरोग, प्राराम, सुखी, सुस्च, सेग रहित, तंदुरुस्त | ध्यारोगना दे० (क्रि०) खाना, मेजन करना | शबरी परम भक्ति रछुपत्ति की, घहुस दिनन की दासी । न्ञीके फल आरोगे रघुपति, पूरण भक्ति प्रकासी ॥--घुर | [ नोट--मेबाड़ सें भोजन करने के लिये “झारो- गाता” ही कहा जाता है। ] ध्यारोग्य तत्‌० (पु०) [ थ्रा+ रुज्‌ + ध्वख ] रोगदीनता, रोगाभाव, अ्रनामय, शआरास, स्वास्थ्य नीरोगता तंदुरुष्दी । श्वारोए ततू० ( घु० ) [ आ+ रुप + अल | सिध्या रचना, कल्पना; बनावट | [ करना । आारोपन तदू» (पु०) चढ़ाव, स्थापन, चढ़ाना, रधापन आारीपश तत्‌० (पु०) [ आ+रुप + झनदू _] चढ़ाब, स्थापन, चढ़ाना । आरोपित तब्‌० (ग्ु०) [झा + रुप + कल कृतारोपण, छाया हुआ, सढ़ा हुआ । प्रारोहणय तत्‌ ० ( ४५० ) [था + रु४ + भनद] उत्थान, अढ़ाव, सीढ़ी, सेपान, नीचे से ऊपर जाना, चुना, अछुर निकलना | शारोद्दी तत्तू० (जि०) चढ़नेवात्टा, सवार ! झाउ्जव दत्‌० (पु०) [ श्रा + ऋज्ञु+ञ् ] खारल्य, सरलता, नश्नता, विनय । शआत्ते तत्‌० (पु० ) पीड़िद, श्रशुस्व, क्‍्लेशित ।--नाद तत्‌० ( छु० ) [आ+नद + धन | पीड़ित ध्वनि, क्लेशजन्य चीष्कार, कातर स्वर ॥--स्वर तत्तू० (पु०) आत्तेनाद । पआार्सव तत्‌० (8०) स्त्री का रज, स्त्रियों का ऋतुकाऊ, मासिऋ पुष्प, ऋतु में उत्पन्न, सामयिक्र झार्खिज्य तत्‌० (४०) ऋत्विज का के, पौरोह्ित्य, प॒शेह्चित का कमे । आशिक तत्‌० (यु) घनसम्वन्धी, उपये पैसे का । घआाद्वें तल» (गु०) सनक बस्तु, भीया, गीजा, सरस, खीला | आद्रंक तत० ( घु० ) देखो आदा। आर्द्रा तत॒० (स्त्री०) नक्षत्र विशेष, सत्ताइस नघ्षतनों में छ३ ) आलवाल चुठर्वा नछन्न ।--ल्ुब्धद तत्‌० (४० ) केतु -+बीर तल्‌० ( घु० ) वाममार्गी |--शानि तत्‌० (स्त्री०) बिजली, एक अस्त्र + हि झार्य तब" ( गु० ) सत्छुज्नोदुभव, श्रेष्ठ, पृड्य, बुद्ध, मान्य ।--पुत्र (पु० ) भर्ता, खासी, शुरुपुत्न । “-भद्द ( छु० ) विष्यात भारतीय ज्योत्ियेंत्ता विद्वान, इसके बताये अत्ध का वाम चआर्यसिद्धान्त है, झुसुमपुर नासक स्थान में ७७९ ई० सें यह उत्पन्न हुए थे । इन्होंने ही भारतवर्ष से सौर- केम्द्रिक मत का प्रचार किया है । इन्होंने प्रभाणित किया है कि एथ्वी तथा अन्धान्य ग्रह, सौर जगत में श्रवस्थित होकर सू्ये की अदविशा करते हैं। इन्होंने एक बीजगणित भी वनाया हैं |--मिश्र (गु०) यौरवाल्वित, मान्य, पुज्य ।--चोमीश्वर / (पु०) संस्क्ृत का एक कवि, चण्डकौशिक नामक नाटक इन्हीं दा बनाया है बल्नाक्त के पाक चंशीय शाजा मद्दीपाक्त की आज्ञा से इन्होंने अपना नाटक लिखा था । इनका समय, १०२६---१०४० के छभभग समझता चाहिये। आार्या दत्‌० (म्त्री०) पावेत्ी, सास, दादी । घआर्यावर्त तव॒० (पु०) [झाये + आवते] विन्प्य और हिमाकूय पवैत का मध्यवर्ती देश, पुण्य*भूमि, आयो का निवासस्थान । ध्यार्ष तत्‌० (वि०) [ऋषि +- भर] ऋषि-सम्बन्धी, ऋषि प्रणीतत, चैदिक, ऋषि-सेबिंत ।--प्रयेग तब» (छ०) प्रचल्षित व्याकरण के नियमों के विरुद्ध शब्द प्रयोग ।--विवाद्द तत्‌० ( छ० ) श्रष्टविध विवाह में एक बिवाह । जिस विवाद सें वर से एक या दो ग्रोमिशुन लेकर कन्या दी जाती है बह आप है । आल तत्‌० (प८) पीतवणे, हरिद्वावण, इरताल, छुछ विशेष । आत्कस दे० (०) चारूस्य, सुस्ती !..[ रहित । आलन तदू० ( घु० ) प्राक विशेष, अछौना, जवण- आलना दे० ( छ० ) घोंस्ला, खुता, खोंता । आल्बाल तद्‌* (यु०) [ आाक्त + बल +घछू ] कियारी, थाह्ा, अआँविका, घेरा जो बृक्षों के नीचे आरायः जल टउहरने के लिये पनाया जाता है| जलूघार, ममला । झाण० पाएन्‍+३े७ झालम ( प्रालम दे5 (पु०) सैसार, भनसमूद । झालम्प तव्‌० (पु) [थ्रा+लम्व + धढ] अवलम्ध, आश्रय, उपजीम्प । घालम्पन तत्‌०% (पु०) [थआा+छम्ब न अनद ] / अवलम्न, आश्रय, रद्भारादि रसों छा विभाग विशेष, जिसके आश्रय घे रख का आविर्भाव होता है, नायक नायिक्रा प्रतिनामक श्रादि, साधन, कारण । [ स्थान, घर, ग्रेह, सकान । धाजय तद्‌० (पु०) [ आ+ली + अक्ष] शुद्क, वास- घालस तत्‌० (गु०) [झा+ल्ख+ अल] आलस्प- युक्त, कर्मानुत्साष्टी (३०) सुस्ती, ठीलठ, फाहिली ॥ नी (गु०) अरकर्मेण्य, सुस्त, ढीला । झालस्य तत्‌० (गु०) [शथ्रा+छस्‌+य] अश्ल्सता, तन्द्रा, मन्दता, कार्यानुस्मादिता, सुस्ती त्याग ततू» जुम्मण, जभाई, गाव्रभक ।..[ अरवा । आला तदु० (पु०) दीया का ताख, छोटा पोद, ताखा, ध्राल्ान तत्‌5 (५०) गजबन्धन स्तम्स, गजपन्धनाण्ज, “ द्वाथी का सूटा, थेढी, पन्‍्धन, रस्सी । झाज्ञाप ठत० (पु०) [थआरा+ छप्‌ +घज्‌] कथोपकपन, सम्मापण, कुशत्, जिज्ञासा, यात चीत, तान । घाछतापना तद्‌* (क्रि०) गाना, तान छडाना । घालापिनी तव्‌० (स्तरी०) [आलाप+ इन्‌+ई] बसी, बाँसुरी, मुर्दी धाक्ापो तब (गु०) [भालाप +इन्‌] गानेबाला प्राज्नाबु तद॒० (स्त्रो०) छौकी, तुम्दी, कदूदू । आाज़ाय-बलाय (या अलाय-वलाय) तदु० (१०) भापद, भरशुम, दुर्निमिस, अशुभ सूचक टिन्द । प्राज्नारासो देन (गु०) छापरवाद, वेफि क्र । आजि तत्‌« (स्री०) सखी, चयस्पा, सजनी, सदचा- रिषयी, सट्देली, सेतु, पक्ति, (पु०) दृश्चिक, अमर । (गु*) विशदाशय, निर्मेडान्त करण, अनये । घालिखित तद* (गु०) [ज्ञा+ जिस + की) चित्रित, क्िसित, भछ्ित । आलिड्डन तव॒८ (पु०) [का+लियृ+ अनद ] झडह्क मिलन, प्रीतिपूतरें्ठ परस्पर मिलना, सेडना | आजलो दव० (क्लोौ*) [भालू+ई] रखी, सदचरी, सद्देज्नी, पक्ति, लकीर, दृरिचिक | झाज़ीद तद* (पु०) [भा+लिह+कत] बाय घोडने छ्छ ) आवनी के समय का श्रासन विशेष, बार्यां पैर पीछे की ओर और दाद्विना पैर सामने रख कर बैठना (गु०) भक्तित, खादित, श्रशित, भुक्त, लेद्धित । आलीशान दे० (यु०) विशाक्ष, सन्‍्य । [हुआ न दे । घालुलायित तद॒० (गु०) बन्धन रद्धित, जो बाँघा आलू तत्‌० (पु०) कन्द विशेष, स्वनाम-य्यात मूल विशेष ।--तुखारा (पु०) एक फल विशेष । आलूचा दे० (पु०) एक फऊदार पद्ाडी बृद । घ्यालेख्य दत्‌० (३०) [भा+लिस+य] चित्रपट, लिखन, लिपि । [ छ्लेप, शेपनीय द्रव्य । धक्तेप तदू० (पु०) [घारनलिए्‌ +घण] सलइम, आलोक तत्‌० (पु०) दशन, दीप, ज्योति, प्रकाश । झालोकन तर० (०) [शक लोक + झनर्‌ | दर्शन, ईछण , देखना । आालोचन तद्‌० (ए०) [त्रा+ रूचू+ अनटु] विवेचन, जाँच, दुर्शन। (श्री०) अनुशील्न, विवेचमा, चर्चा, अआान्दोक्षन +-- (स्त्री०)) विवेचना, विभाग... घाल्ोचित ठत्‌० (गु०) [झआ+खुबू+क] भर्ु- शीछित्त, विवेचित जिसझे गुणदोपष का विचार किया गया दो । [ पिदेचनीय, विचारणीय | आलोच्य तत्‌० (गु०) [भा +लुच्‌ + य| श्रालोचनीय, घआालोडुन तदू० (क्रि०) मन्धना, विछोना, द्विक्नोरना, सोच विचार करना | ग्रालोल ततव्‌० (गु०) चश्बन्न, श्रति चझुत्त । अआयाब्दा ठत्‌० (पु०) पुक हिन्दू बीर का नाम, रुति विशेष, छुन्द विशेष, प्रन्थ विशेष। (मुद्दा०)-- गाना किसी वात के बहुत बढ़ा कर कहना, अपना हाल सुनाना। अआव (क्रि०) आता है, श्रादे, भाता, भायु, एम्त । आ्यावति ) (क्रि०) आये, भथाती है । आवक तथद० (पु०) दीमा, रोकी सहना, उत्तर- आवदार दे० ( गु६ ) अबदार, सुशोमन, पनोष्दरता युक्त, चमकीटा, स्वच्छ । न्‍ झ्ावना तद्‌० (क्रि०) पहुँचाना, पूगना, झाना | आधवनी तदु (स्थरी०) अ्रवाई, निकट आना, आयामी । दियित्व । घावनेहारा (्‌ >७४ ) आशीस्‌ आावनेद्दार दे० (गु०) अ्रवैया, आवनहार । अआचनो दे० (क्रि०) आना, उपस्थित होना । आावशभ्रगत दे ० (स्त्री०) भ्रादर, मान, सत्कार | आवभाव दे० (स्त्री०) आदर, सानन्‍्य ! आवरण ततब० (पए०) [ थ्रा+इ+अनद] ढाल, आवष्छदन, ढकने की वस्तु | आवजेन तत्‌० (प०) [शा + बज + शरद) फेंकना, सना करना, रोकना । घआवतत तत्‌० (छु०) भैंवर,, चक्र, फैर, घुमाव | शआवक्षि तत्‌० (स्त्री०) पंक्ति, श्रेणि, पाँचि घावश्यक तत्‌० (ग्रु०) अ्वश्यक्रतेब्य, प्रयोजनीय । निश्चय उचित ।--ता (स्त्री०) प्रयोजन, दृरकार, अपेक्षा । झावसथ तत्‌० (गु०) गृद, भवन, गेह, ध्रत विशेष । आवद्द तत्‌० (9०) [ आ + घह + श्र | सप्त चायु के अ्रन्त्गंत घायु घिशेष, भूवायु ।--मान तच्‌० (गरु०) क्रमागत, पूर्वापश, क्रमिक । शाचा (क्रिए) झाका, आगया। श्यावाई दे० (9०) आमे की चर्चा, समाचार । “श्ावागमन या आरावागवन तदू० (ए०) भाचा जाना, जन्मसरण । ; है आवाजाई दे? (स्त्री०) नित्य गन, सतत श्राना जाना। “ क्‍या भावाजाई करते देे। ?” शझावरमणो दे० (स्त्री०) छुद्धापन । ध्यावारा दे० (गु०) भुण्डा, बदमाश । [ धाम । झ्यायाख तत्‌० (पु० [आ+चस+घणू] शद्द, घर, घावादन वत्‌० (ए०) आदर से छुलाना, पोढशोपचार पूजा का पुक्क श्रद्ध, मंत्र द्वारा देवता के चुज्ञाचा । धश्राविर्भाव बत्‌० (पु०) प्रकठता, अत्यक्षता, प्रकाश, उत्पत्ति । ध आविशसूत वदत्त० (यु०) [विस + सू कक मका- शित, श्राहुभू त्त, प्रकटित, उत्पन्न । घाविष्कर्ता तत्‌० (पु०) आविष्कार करनेबाल्या । ध्वाविष्कार तब» (५०) [झाविस्‌ +झू+ धन] प्रकाश, प्राकव्ब । [ शित, प्रश्मदित । श्राविष्कृत तत्‌० (गु०) [आविस्‌ + क + क्र प्रका- आविष्ट तत्‌० (गु०) [आ+विश्‌+क] भावेशयुक्त, बल उइ जसमा८ शा भला ७३७१७ अमान का सम पद कार थमा आब5्२ ८ आजाद तथा २२ ०२ जलकर आच्चत दव० (गु०) [्रा+बृ+क्त] चेष्टित, घेरा, कृतावरण, ठका हुआ, अच्छादित। आवचि तव* (स्त्री०) [आ+-बुत + क्त] उद्धरणी, पुन पुनः पाठ करके कण्द करना, बार धार किसी बात का श्रभ्यास ! आविग (पु०) जोश, बमंय । _ आवेदक तत्‌० (पु०) निवेदन करने वाछा । आवेदन तव्‌० (घु०) [झ्रा+विद्‌ + ध्नद] निवेदन, झापन, सतोगरत्त भाव का प्रकाश करण | आविद्य तत्‌० (यु०) निवेदन करने योग्य | आवेश तद्‌० (४५) [ आरा+ विश्‌ + घण्‌ ] प्रवेश, घुलना, सघार, उदय, श्रदवद्भयायर चिशेष, क्रपस्मार रोग] | शिल्पशाला, कारखाना | आवेशन तत्‌० (घु०) [श्रा+ विश + अनदू] प्रवेश, « झावीा दे० (क्रि०) आओ, श्रागे बुढाना ! आांश दे० (त्नी०) रेशा, सूत ! [ दवेजस्वी । आंशिक तव्‌० (यु०) विभागी, हिस्सेदार, मत्तापी; आशंसाः तब» (खी०) [थ्रा+शस्‌ + ७ क आय] प्रार्थना, आर्काक्ष, अजुमान, सह, संशय, इच्छा; अभिल्‍ल्लाप, चाद । आशंखित हत्‌० (गु०) [श्रा+संश+ क्त] प्रार्थित, आक्ाहक्षित, अभिन्पित, कथित । आशड्ूुनीय चद्‌« (यु०) [प्रा+शहूः + अनीय] आशह्ूत का स्थान, भवावह, भयस्थाच | आशडुप तत॒० (खी० ) [ आा+शहूः + भा | भग, डर, सन्देंदर, ऋास, 'आतडूए, संशय । झआाशड्डित (गु०) शह्टित्त, मयभीत । श्राशय तव्‌० (ए०) [श्रा+शी+ अलू] अमिश्राय, लास्पय, आधए, आश्रय, वासना, इच्छा, गढ़दा, खात्त । आशा तत्‌० (खी०) [जआश + ढ + था] दिशा, झाश्रय, भरोसा, थ्रासरा ।--भक्क: तत्‌« (पु०) नैराश्य, भरोसा हूटना, नाउस्मीद । अआशातीत तव्‌० (यु०) [थाशा+ अतीत] आशा से अधिक, चाह से अधिक । आधशिष तद्‌० (पु०) देखों अशीस | [मड़ल प्रार्थना । मनोयोगी, लीन, किसी की धुन में छय ज्ञाना [| ध्राशीस सदू ० (स्व्ी०) आशीर्वाद, बर, श्षुमाशंसा, |] ८-55 5 मी पल न त ( ७६ ) घासन झ्याशीर्वचन तत्‌० (३०) [ श्राशीस_+ बच्‌+ अनद ] चश्य, वशीमूृत, ।--स्वत्व (पु०) भुष्य का अधि- छुमजनक वाक्य, फक्याण वाक्य | कार, अचीन का अधिकार | आशीर्वाद्‌ तद्‌ (8० ) [ अशीस कंबदुकघल्‌ ] | आाश्लिए तव" (गु०) [आा+स्लिप्‌+क्त ] आहलि- श्राशीरवेचन, मझ्छ प्रार्थना, भासीध के (ए०) द्वित, सदा हुआ, चिपटा हुन्ना, लप्ठा हुआ । श्राशीर्वादरर्चा, कक्याण प्रार्थक । आशकेप तत० (१०) [ आ+रिलपूकघन्‌ ] श्राशीयिष तद्‌० (प०) [ थाशी + विष + अल ] सपे, आकिझ्नन, मिलन, झुडना, लगाव | भद्दि, सुजड्, सांप । व्‌» ( गु०) [ द्रा+श्वम नक्त ] श्राध्वास आशु तव० ( पु० ) शीघ्र, दुत, तुरन्त, सुर्ते झटपट, वर्षा काछ में उराद्न होन वाछा पुछ धान्य 7 कवि (पु०) शीघ्र कविता बनाने घाला ।--ग (पु०) शीघ्रधामी, वाण, शर, वायु, मन ।-- तोप ( ० ) शीघ्र छु्ट, मद्ादेव, शीघ्र असस् ह्वोने बाबा । आश्चर्य तत० (घु० ) [ आश +#चर+य ] अपूर्व, विश्सय, अदभुत, चमरकार, विचित्र, अलौकिक | --नन्धित तव० (यु० ) [ झाश्रये + अन्वित ] बमरकृत, विध्मित | झाश्ययित ( गु० ) चकित, विस्मित | प्राश्मम तव्‌० (पु०) [ आश्रम + धल ] शाखोक्त घ्म विशेष, अह्मचारी, शुद्दी, बानप्रस्थ, सिन्षु, श्रद्मचये गईरुप घानप्रस्थ संन्यस्थ ये चार भ्रद्धार छी अन्रस्था, ऋषि मुनि के रहने का स्थान, बन, मठ, स्थान ।--गुरु तव्‌$ (पु०) कुछाचाये, कुझपति | धर्म तत० (पु०) आश्रम ' लिये शाख कथित आज? चर नियम ।--म्रष्ट तव्‌» (गु०) श्राश्रम विरद चटने वाला ।-+ी दत्‌० ( बिर ) आश्नम- युक्त, आध्रम में रहने चाला । आश्रय तत० (पु०) [ श्रा+धि+ थल्‌ ] रारण, अदलग्वन) रचा का स्थान, सदारा, आधार [-- भूत वव्‌» ( गु० ) अवल्म्बभूत, शरण्य, भरोसा गीर --रुपान तत्‌७ ( पु० ) थाश्रय का स्थान, सहारे का ठौर । [ शरण, अवम्थान ९ ब्याश्रयण तद्‌० (पु०) [धा+श्लिक अनद ] श्राश्चय, झाधयणीय ठव्‌० (गु० ) [ आ+ प्रि+अनीय ] आश्रय के याग्य, भाश्रमेपयुक्त आश्रित तथ* ( गु० ) [चा+प्रि+क्त ] कृताश्रय, शरणांगत, भघीन, सहारे पर टिका हुआ, सेवक, प्राप्त, आशायुक्त । आश्वासित तत्‌० ( गु० ) [ था+ स्तन +खिचूक क्त ] भनुनीत, आश्वस्त, दिल्ासा दिया हुआ । आश्विन तत्‌» ( पु० ) मास दिशेष, शरद खा का दूसरा मास, छुआ, अस्ताज । आपाढ़ तद्‌० (पु०) वर्षा ऋतु का प्रचप्त मास्त 77 भू या भव तत्‌० ( पु० ) महल अद, इत्तरापाढ़ा महत्र । आपाढ़ा तत्‌० (खी० ) [ ग्रा+सद्द+क्तर्कआा |] नदश्न विशेष, पूर्वापाढ़ भर उत्तारापाढ़ नदन्र। आपाढ़ी तद० ( ६० ) [ झ्रापाढ़ +ई ] शापाड़ मास की पूर्णिमा। आस तदू० ( ख्री० ) धाशा। मरोसा, भाषरा । आमसकत ( ख्वी० ) प्र/लष्य, सुस्ती । आसक तत० ( गु० ) [ब्राऊसखकक्त ] प्जुरक्त, मेदित, लिस) मभ, लीन (-- तत» (ख्रो० ) अनुरक्ति, ढर्गन, चाद, प्रेम, मोद, इश्क । आखड़ तब ( पु० ) [ था सज्न+ अरछू_] संसर्ग, संसृष्टि, अनुराग । आ्रासकि वद० ( खरो० ) [ धा+सदु+क्ति ] पडम, मिलत, लाभ, न्याय मत से पर्दों का अत्यन्त संब्षिधान, अन्यवद्धित, पदोच्चारण, यद्द शब्दृदोध का एक देतु है, समीपता। आसन तव० (घु०) [ आप + थनटठ_ ] दुखन कक समय यैठने का विय्ावन, पीढ, पीढ़ा, दीकी, द्ाथी का कन्घा, शप्रु भार जिगीपु का अवपर प्रतीकार्थ अवस्थान, कुरा या ऊन का यना हुआ्ना श्रासन जिस पर पूजा के समय चैठा जाता है। येगियों के मैठने का ८० श्रकार, प्मासन, स्वशिकासन आदि। सुरव की रीति ।--ी स्थ्री०) छोटा श्रासन । मुद्दा० सले, ध्याना दे० (क्रि०) भघोन दोना,भवुः छ आसनन्‍्दी (६ ७७ ) घास्य ्ापपपप+-+++_++++्पएपत/+-/>+++त00तत........ गत होना ।॥>डखडुना (क्रि०) जगद से | आखझ़ुर तत्‌० ( छु०) विवाह विशेष, असुर सम्बन्धी | हिछजाना ।--डिगाना (क्रि० ) स्थान से | आखझुरी तत० (सत्री० ) अखुर सम्बन्धिती ॥--- विचलित द्ोबवा ।--डोलना ([ क्रि० ) मच का चब्चल होना ।--मारना (क्रि०) जमकर बैठता: आसन्दी तत्‌० ( द्थी० ) खरोछी. कुरसी | शाससन्न तत्‌० ( गु० ) [ आ+-सद्‌ +क्त ] उपस्थित, निकदत्य, निहूटवर्ता, समीपर्ध, पास, शेष, अच- खान ।--कात्व तल ० (पु०) अन्तिम काल; रहव्यु का समय |--भूत तत्‌० ( घु० ) भूतकाल जो वत्तेमान से मिला हुआ हो |. अझगल बगल | आसपास दे० ( क्रि० वि० ) चारों झोर, इधर जघर, आखमान दें० ( घु० ) आाहछ्मश, गगन, खर्ग |-े ( वि० 2 ऊपर का, आ्राकाशीय झाससान के संस का यानी फीका नीज्ञा रंस । झास्व तव्‌० (घु०) [ भा +सू+ भल्ू्‌ | मय, मदिरा, मधु, मद ।-छुत्ञ तत्‌० ( छु० ) ताल छृक्त ! झासरा दे० ( ए० ) मरोसा, द्वारा, आश्रस आस दे० (स्त्री०) देखो आशा | आसादव तव्‌०» (छझ० ) [ आ+सद्‌ +णिच _+ झनठ,] आयण, लाभकरण, मिलन । घासादित तव्‌० (ग॒ु०) [ भा+सद्‌+णखिच +क्त] प्राप्त, लब्घ, मिक्तित, भच्षित । आसान दे० ( ० ) सहज, सरक्ष, सुगम । ध्रासाम दे० (०) भारतवर्ष में उत्तर पूर्व बंगाल का पुक भाग, इस आन्त काआचीन नाम कासरूप है । ध्यासांमी ( गु० ) श्रासाम प्रान्त का निवासी ( घु० 2 अभियुक्त देनदार, काश्तकार । आसावरी ततव्‌० ( स्त्री० ) रासियी विशेष | झासावसत तदूु ० नम्म; दिगम्बर, नंगा । आसिख वदू्‌० ( स्त्री० ) आशीक्ष, आशीवांद आसिद्ध तत्‌० ( गु० ) [ भरा + सिध्‌ + कर| अवरुद्ध; यन्दीमसूस, चन्दु भा, बनन्‍्दी । धाखिधार तत्‌« ( पु० ) [आास_+ छ+ घज| घुवा और युवती का पुक स्थान सें भ्विक्ृतत चित्त से अवस्थान रूप शत । झआासीत सतत" (गु०) [आल + ईन] उपसिष्ठ, कृतासन, चैठ हुआ, आसन जसाये हुए । आखसोस ( छ० ) उसीस, तकिया चिकित्सा ( स्री० ) अ्रस्नचिकित्सा । आसेचनक्क त्व॒० (यु० ) [ हा+सिच + अनट_+ क | प्िविदर्शन, जिसकी देखने से तृप्ति नहीं होती । अतसेज दे० ( छ० ) सवार का माप्त, आश्विन मास्त। आासखों ५४० ( घु० ) इस वर्ष | आस्कन्दित तत्‌० (गु०) [ आा+ स्कन्द + क्त | घोड़ों की गति विशेष, घोड़ों की पाँचदीं गति, तिरस्क्ृत | आस्कत दे० ( ज्वी० ) भ्रालूस्य, दीज्ञापन, सिथिलता | नयी ( गु* ) शाव्ट्सी, ढीला, ठण्ड, सुस्त । आास्तर तत्‌० ( छु० ) [ श्रा+च्छक अनद_] द्वाथी की कूल, उत्तम, आसन, शब्या । घ्यास्तिक तत्‌० (बि० ) बेठ, इश्वर और परलछोक्त आदि पर विश्वाप्त करते बाढा, ईश्वर के भ्रस्तित्व को मानने वाला, हेश्वरवादी | आस्तीक तत्‌० (०) [ भास्ति + कण |झुति विशेष, जरत्कारु मुनि का उुन्तन, इनकी माता का ज़रवकारी नाम था, इनकी मात्रा स्पराज वासुकी की बहिन थी, सद्॒पि अतीक ने पितृकुछ और मातृछुल का त्वास दूर किया था, पाण्डबवंश।य राजा जनमेजय # सर्पसन्त नामक यज्ञ में सहस्‍्त्मा आस्तीक ने अपने भाई तथा माठुल परभृति को भस्म होने से बचाया था | झास्तीन ( ब्वी० 2 अंगा, कर्ता या कोट की वाह । श्यास्था तत० ( खो० ) श्रद्धा, सभा, आदर । आस्थान तत्‌० ( 8०) [ शा + स्था + अनट ] सभा, सप्ताज, आश्रम्त, बैठने की जगह | आसर्पद्‌ तत्‌० ( पु० ) पद, स्थान, अछ, घंश । प्रास्फालन तत्‌० ( घु० ) [ भरा + स्फाक्ष + अ्नट, ] शव, घमंड, भहड्ूपर ध्रासफालित तत्‌० (ग्॒ु० ) [ श्रा+स्फाछू+क्त ] ताड़ित, गवित, कम्पित | प्रास्फोदन उत्त्‌० (पु० ) [ श्रा+स्फुट + भनद अफुछ होना, विकाश, प्रकाश, ताल ठोकना | छ्ास्माकीन तत्‌० ( गु० ) [ श्रात्मक्ष + ईन | इमारे पत्त का, हमारी तरफ का | आसरूप तत्‌० (पु०) [अश्लू +ध्यय | झुख, मुखमण्डल, ( आस्वाद ...ह.ह0ह0... न 5:पफप5:पणस तप :घघप्त्््त+++++++++5 ७५ ) पझाद्वाद चेहरा, ग्रानन --देश तद्‌० (4० ) मुख का | ध्ाह्यायतव० (घु* ) [ आ+ह+ घन | चुद्र जला- स्थान । आस्वाद तव्‌० (पु०) [ आ+ स्वद्‌ + धर्‌ ] रसाजुभाष, स्वाद ग्रहण, रुचि, चस्का, रस, जायका | श्रास्वाइन तद्‌० (पु०) | आरा +स्वद्‌ + अनद ] रसानुभव, स्वाद ग्रहण, स्वाद चायना । आास्वादक तत्‌* ( पु० ) [ आने स्वद + अर ] स्वाद + अदण कर्चा, स्वाद लेने वाला, जायका लेने वाला । आस्वादु तद० ( गु७ ) सुर, मिष्ठ, स्वादिष्ट, स्वादी, सुस्वादु । आह ( अव्य+ ) शोक, दानि, कष्ट, पीदा भादि सूचक अव्यग्र, कद्ारना (पु०) बड़, सादस । [होता हैँ । आाहद दे० (श्री० ) श्ाने का शब्द जो चचने में झाद्त ( स्री० ) जखमी, घामक्ष, पुराना, कमिरत | आदहर-ज्ञादर दे ( ख्री० ) आना जाना आहरण तद्‌० (५०) [आ+ह+ असग्‌ ] छीनना, लूर॒ना, जसादना । आहर्तंब्य ( दि० ) प्रदयोय, ले भाने छायक । आाहय तत्‌० ( ५५ ) [ भा+ हू +अछ ] रण, युद्ध, यह, याग ) * झाहवनीय तद्‌० (९०) [श्र+ हु + भनीय] यज्ञाप्रि विशेष, कर्मेडाण्द के सीन अप्नियों में से पुछ । आद्वत्तंब्य तव॒० (गु०) [शा+द्व+तब्यों प्ररण काने के योग्य, ले थाने के वेग्य, सैणद्वीतच्य । अाद्ता तू (गु०) [शरा+ह्ृ+व] बआहनेता, भानपन वा उपाजेन कर्ता, छे भाने वाढा । ध्याद्या तत्‌० (प्र०) खेद या आउप बोधक शब्द । आद्वार तब० (९०) [श्रा+ ढ़ + घह] झशन, भोजन, मचण|--क तव॒० (पु०) ग्राइर णकारी, सैम्राद रू । +विदार रहन सइन, खाना पीना, शारिरीक परिचय्यों | श्रादार्य्य- बत्‌« (गन) [भा +द्द+ च्यण] गृहीत, पच्ढ़ा हुआ, सोजन येश्य, घनावटी, ऋद्रित १ (३०) नेषच्य, भूषण भादि के बसा निर्मित, नाटकाक्ति में ब्यज्ञझ विशेष, अज्ञ संस्कार |--- शोमा दत्‌० (द्लोौ०) झृदिम शीसा, चित्र ऋषवा मूपण भादि के द्वारा बनायी शोमा । शय, चदइबच्चा, युद्ध धाह्ान, थामन्त्रण । आदि या ध्याही तद्‌० (क्रि०) है। आदित तत० (ग्ु०) [वत्रा+चा+कऊ] न्यस्त, अपित, स्थापित, रखा हुआ ।-नप्लनि (प०) ललाद्वित + अग्नि] सामरिक, अप्निद्वोत्री । ऋषएितुशिडिक स्व (५०) [अध्दि +तुण्ड +प्जिक्त] व्याल्मादी, साप पहुडने वादा, वालवेडिया । आहिस्ता दे० (क्रि०वि०) धीरे घीरे । आहुे तत्‌० (पु०) राज विशेष, प्राचीन समय में म्त्तिकावत नगरी के राज भोज नाम से प्रसिद् थे, इसी सोजवरश में भमिजित्‌ नामक एक राजा इस्पन्न हुए, उनको युग्म सन्‍्ततति हुई, पुत्र का ताम थाहुक रखा गया, इनकी स्त्री का साप्त काश्या था, इसी के गर्भ से महाराजा श्राहुक के। देवक और उय्रप्तेन नामक दो पुत्र हुए थे; देवक श्री कृष्ण दस्द्र के मातामद थे, और ब्मधेन कं का पिन | [ वैश्य देव । ध्याहुत तद० (१०) भातिध्यसकार, भूतवज्ञ, यज्ञि- आहुति तद्‌० (द्वी०) [त्रा+हु+क्ति] शाइएय, इोम की चस्तु, देवता के वेश से भ्रप्ति में दवि देना, देवयश्ञ, धोम । धयाहृत तब" (गु०) [ भ्रा+ट्र+क् ] निमन्श्रित, आम-#त्रत, छुताद्वान, न्योता द्वुधा, ठुक्नाया दुआ [ छाया हुप्रा । आयात तब» (यु०] [भा ह+ रू] अजित, भानीठ, आई ( क्रि० ) है। श्राह्दी तत्‌० (आ०) विकक्प, प्रश्न, सन्देह, विचार ) आदी पु८पिका तच» 'स्थीक) अहमिक्रा, आध्म- शलाबा, आध्मगविता ॥ धयादोश्वित्‌ तत्‌5 (४०) विकक्प, प्रश्न, जिशासा। आहिक ततद्‌० (यु०) दैनिक, दिन-साध्य, दिव संइन्घी, दिदाइत्य, (पु०) सोजन प्रररण, समुद, ग्रन्थ भाग, निश्यक्रिपा; हृष्देववा की नित्य चाराघनां आहा ठत्‌5 (बु०) जढाणंव । आद्वाद्‌ तत्‌० (पु०) भा+हद + घनर्‌] भानरद, इप) (्‌ तष्टि।--जनक (गु०) दर्पजनक, आनन्दुवर्द्धक, चुश्टिकर । घाह्वादित छह ) इंगुर_ आहय द्व्‌० संज्ञा । (३०) [था+द्े+ अल] नाम, घाह्वादित तत्‌० (यु०) [भा+हाद +णिघ्‌+ क्तधान- | पआाह्वान तव्‌* (पु० [आ+छ+ अचरट] सम्शोधन, निंदृत, द्॒ष युक्त, प्रसतत । आवाहन, निमन्त्रण, ुलावा । ्यि हू, स्वर का तीसरा वर्ण है | इसका उच्चारण स्थान तालु और भ्रयक्ञ विद्वत | हु चत्त्‌ू० (क्र०) भेद, क्रोधित, अपाकरण, अचुकस्पा, खेद, छेशप, सन्‍्ताप, दुःख, भावना | (पु०) काम- देव, गणेश ! इक तद्‌० (गु०) एुक, एक का वूसरा रूप -अज्भ सत्‌० एक ओर का शरीर, आधा अज्ञ, एक शरीर, पुक भद्गा, अर्द्धा, शारीर का अर्थ भाग, एक ओर का, एक सरफू का, पुक पक्ष (“-झआाक (क्रि० बि०) निश्चय, श्रस्थिर |--इसर संख्या विशेष २१ “छुतराज तद्‌० (०) एक छंत्र राजा, चक्रवर्ती राज्य, समस्त संसार का राज्य, प्रतिद्दन्द्री-रहित राज्य ।--ठक त्तदु० (५०) एक ताक, एकदकी; निस्पन्‍्द नेश्न से देखना ।+--ट्ठा तदू० (घु०) एकठौरा, पुक्न्न, जसात |--ठौर-रा तदु० ( ७० ) एकट्टा, समूह ।--इकतारा (०) एक दिन का नागा करके आने बाला ज्वर ।--ताई दे० (खी०) अशेद, एकता ।--तारा दे० (पु०) एुक प्रकार का सितारनुमा बाजा"--राम दे० (9०) इनाम पुरस्कार |--रार दे० (घु०) प्रतिक्ला, ठहराव | +>सठ दे० (पु०) संख्या विशेष, ६३ ।--खर दे० (पु०) सब्श, बराचर।--ल्लौता तदु० (ु०) एक ही, फ्रेबछ, एक होने से अधिक श्रीति पात्र । +-सार (य़ु०) बरावर, सरीखा; ससान, सदश | --सक्कू (यु०) एक साथ |--दरा (ग्रु०) एक पते क्का। इकैाज़ (स्त्री०) काक्रवन्ध्या, वह स्मीजो एक बार नअसव कर फिर बच्चा न जने। इकैासी (छु०) अरकेक्षा वास; पुकान्त चाप | इक्का तदु० (गु०) एकाकी, अकेला, अद्वितीय, अनूठ५ अन्लुपम, उत्तम, (घु०) पुक घोड़ा या बैठ की गाढ़ी, इछाद्ावादी इक्का, पटनादा इक्का इक्कादुक्का दे० (वि०) अकेला हुक्ेछा, एक या दो । इक्की दे” (खी०) [एक + ई] ताश का एक बूटी बाला पचा, एक बैल की साड़ी । इच्तु तत्‌" (पु०) [यज्त + सु] ऊख, ईख, झेतारी, गन्ना ग्रांढ़ा |--काण्ड तत्‌० (पु०) इचुछक्ष, काश, सुज रामशर ।--प्रमेह (पछु०) सूत्र “ सम्बन्धी रोग विशेष ।--मती (स््री०) छुरुछेत्र के पास बहने वाली एुक नदी । - रख तत्‌० (9०) ईख का रख, राव ।--रखेद्‌ तत्‌० (४०) इचु रस का समुद्र ।--सार तस्‌० (०) गुड़, खडि [| इच्चाकु तत्‌० (पु०) चैचश्वत मस्लु का पुत्र, सूर्य वंश का पदला राजा, इन्होंने सर्वप्रथम 'अवोध्या का अपनी राजधानी बनाया, यह रामचन्द्र के पूर्व पुरुष थे, इनके पु का नास कुक्ति था। ( २ ) काशी का राजा, इसके पिता का नास खुबन्छु था, यह हचु-दण्ड फोड़ कर उत्पन्न हुआ था इसी कारण इशक्वाकु इसका नाम पढ़ा था। [ सू'ज) कॉशा । इच्त्वाज्षिका तत्‌० (सत्री०) नरकट, नरकुक, सरपत, इंजन (पु०) संकेत, इशारा । इज्जुला (सतरो०) शरीर की एक नाड़ी का नाम इसका दूखरा नाम ईडा है । यह शरीर के वास भाग में होती है । इज्ुलैगडीय तत्‌० (गु०) इद्क्षैण्ड देश सम्बन्धी । इज्धित दव्‌० (पु०) [झि+क] अभिमराय क्ले अनुरूप चेष्टा, सैकेत, इशारा, इज्जित, भाव, चेट्टा । इंड्मुदी तत्‌० (ख्री०) [इड्गुद + ई] वृत्तविशेष, इसके फरू सैलमय होते हैं, इसका दूसरा नाम शणवि- रोषण भी है, क्योंकि इसके तेल से वण बहुत शीघ्र अच्छे दोते हैं। ह्िंगोड का पेट, मालकँगनी, ज्योतिष्मती इंगुर दे ० («) सिंदूर का एक भेद 3 इछन ( इछुन तत्‌» (पु०) ग्राखि, नेत्र, नयन, दृष्टि, देखना । इच्छा तत्‌* (स्त्रो०) वाच्चा, मनोरथ भआइाडक्ा, च्ज ) |... विभाग, यई से; इस हेतु ।-पर (यु) इसके | बाद, इसके अनन्तर, इस पर | इत्थम्‌ स्पृद्ा, अभिद्वाप --न्वित तत्‌6 (ग्रु०) इच्छुक | इननों तत्‌« (०) अवधि छा योधक्न, इयसच्ावाची, सस्पृद, असिनापी, स्वेच्चंक, वासना-दिशिष्ट 4--- चती (स्त्री०) इच्छा युक्ता स्त्री, भ्रभिलापिणी, रमणी ।--चारी (५०) मनमौजी, अपने मन का, मन छ अनुसार घूमन या करने वार स्वतस्त्र । “मद (स्त्री०) विरेचनवटी ॥+-भोत्न +पु०) मतमाना भोजन । [ चाहा हुश्रा । इच्छिन तत्‌० (गु०) ईप्सित मनवारिद्धत के अनुसार, इच्छुक तत्‌० (पु०) इच्छाम्विव, धमिलापी, प्राकदी चादने वाद्य इक्षराय दे" (ए०) उपयोग करना, जारी करना। इज्लास (१०) भदालत, न्‍्यायाक्॒य, कोट + इज़हार (पु०) गवादी, बयणन । इज्ाज्ञत (स्त्री ०) सम्मति, हुक्‍्मा, भ्राशा । इजाफा (ए०) वृद्धि इज़ारदार (गु०) ठेकेदार, इजारे पर कोई कास लेने चाढा। इजारा (प०) ढीझा, झरिराय, अधिकार । इउज्ञत (स्त्री०) मान, सम्मान । ( गुर, शिक्षक, पूज्य । इज्य त्घ० ( गु० ) [ यज्‌+य ] बृदस्वति, देवाचार्य, इज्या तद॒० (स्त्री०) [यह+य+ओआ] दान, याग, यज्ञ, पूजा, थर्चा, अष्विध धर्म का प्रयम घर्म। ++शीक्ष तद्‌० (पु०) पार पार यज्ञ करने चाला, याजक, यज्ञकारी । इठलाना दे० (क्रि०) इतराना, मटकाना, चुकाने के डिये जान थूक कर '्यनज्ञान बनना । इूड्टा तत्‌० (उत्नी ०) शरीर के दक्षिण भागस्थित नारी, सरस्वती, गौ, घच, घथ्वी, स्वर्ग, धाशु गमन, दैवरवत मनु की पुत्री, चस्द्रमा के पुत्र छुध के स्राध इसका विवाद हुआ था, इसी के गर से प्रसिद राजा पुरूरवा की उइसत्ति हुई थी | इंडटरी दे (म्त्री०) पेडुरी, गंदरी, घीढा।.. [और । इत तत्‌० (धय०) इघर, इस भोर, इस तरफ़, यदाँ, इस इत तत्‌० (घ०) नियम, पश्चममी विमक्ति का अथे, परिच्चेदक, एतना । इतमीनान (एु०) विश्वास, भरोसा ' इतर तत्‌० (ध्र०) अम्य दूसरा, भिन्न, नीच, समान्‍्य | > विशेष (प्रु०) अन्य पे मिन्न, विभिन्नता, प्रमेद । जोक (३०) छोटी जाति, दूसरा छोड । इतरेतर (गु०) अन्यान्य, परस्पर, आपस में ( इतराज्ञी (दे ०) विरोध, बिगाड़, नाराजी । [ परस्पर। इतरेतर तत्‌० (ग्ु०) [ इत्तरन“हतर ] भन्यान्य, इतरेद तत्‌० (श्र०) दूभरे दिन, धन्य दिन | इतराई द० ( ख्रो ) मचलाई, मचलठ पढी | ( छ्वि० ) मचर कर । [ सचलाना । | इतराना दे० (क्रि०) श्रमिमत करना, सदान्ध दोना । इतराया दे० (क्रि०) जेंचला दिखाया, 5५क दिखायी, मचा । इनवार दे* ( छ० ) रविवार, श्रादित्य घार । इतसुततः तद॒० (अ० इतसू+तद॒ +तख्‌] भय तन, इधर, श्घर, चारो शोर । इति तत्‌० ( अ० ) समाप्ति बोचक श्रव्यय, समाप्ति, इतना, पूरा, सम्पूर्ण |-केथा (खी०) श्रध॑ शून्य वाक्य, चजुपयुक्त वात ५-कर्त्तव्य (गु०) कर्म का अक्। उचित कर्तेब्य +--बत्त तव० (पु) पुरा बुत, पुरानी कथा या कद्दानी । इतिहास तत्‌० (५० ) [इति+दइ+ घास ] पूर्व जत्तान्त, भतीत काल की घटनाओं का विवरण, प्राचीन कया, धुरावृत्त, उपाख्याम । इस्तेक दे० (भर«) इतनाही, पुवाद्दी, इतना । इतो दे० (झ०) इतना नियम, अवधि । इतफाऊ तब» (पु०) सेल संयोग, अवलर | इतफाकन दे* (क्रि०) संयेग से, आकस्त्िक । इतफाकिया (क्रिवि*) आकशिमिक । इत्तज़ा ( स्री० ) सूचता ! इसा दे० (वि०) इतना । इत्तो दे (वि०) इतना । इत्यम्‌ तव्‌«» (अ०) इस प्रकार, इस तरइ, ऐसा, यों ! इत्यादि (्‌ झर ) इच्द्रायंश्‌ ०७००८ ००४३ ८२२३००३५८++०ंे+-+-9>>+>939८+ नम सर + 402८ ०>न्‍नभ न उन >> जन ९०3०-4८ आम ७०००न दब # ०५ नल फ ४८२६ +.२६ इत्यादि तत्‌ु० (अ०) प्रभति, आदि, इससे लेकर और खबर [ पान्न | इच्च (पु०) इतर, अतर ।--दान दे० (छु०) इत्र रखने का इंद्भ तत्‌० ( गु० ) पुरोवर्ती, सन्मुस्ठस्थ वस्तु, यही | इद्मित्यम्‌ तत्त्‌>० ( अर० ) यह, इतना, इस प्रकार, निरचय | [अघुना । इदानी तत्‌० (भ्र०) इस छाल सें, इस समय में, सम्प्रति, इदानीस्तन तत्‌० (यु०) आछुनिक, सम्प्रति जात, इस ल्म्तय का, मबीन । इधर दे० (अ०) यर्हा, इस ठौर, इस स्थान, इस ओर । इश्म तदू्‌ ० (9०) आग सुक्षगाने की लकड़ी, ईघन। इन तदु ० (पु०) सूये, समर्थ, राजा, पति, इेश्वर, रु, हसुत नज्ञ॒न्न, १९ की संख्या । इनकार ( ६० ) श्रस्व्रीकार । इसास ( पु5 ) पुरस्कार । इसारा या इन्दास तदु० ( पु० ) कप, पक्का कुर्था । इनेग्रिते ( बि० ) झढ, छुने हुए । इन्द्सि चत्‌० (ख्री०) [ इन्दिरि + भरा | छक्ष्मी, कप्रद्ा, रसा +मन्द्रि (५०) नीछोध्पछ, नील कमतछ “-लथ (४७० ) [ इन्दिरा +आलूय ] पद्म, पछुज ।--चर (9७०) विष्णु, मारायण | इस्दीयर तत्‌० (पु०) [इन्दी + वर + अल ] नीलोत्पलछ, नील कमल । इल्छु तत्‌० (५०) [इन्द+-ज] शशी, चन्द्र, ऋपुर, एक की संण्या ।--फेला (छ्वी०) इन्हुलेखा, चन्द्र- लेखा; चन्द्रकक/ ।--कान्व (५०) सणि विशेष, चप््रकान्तपणि [--कान्ता तत्‌० (स्प्री०) रात्रि, निशा, यामिनी |--न्नत ( पु० ) चान्द्रायद्ष त्रत “अत (०) महादेव, शिव |--म्ती (सी ०) चन्द्र चुछ्छा रात्रि; पौणेसाली, भ्रयेध्या के राजा अ्रज की स्त्री, इसीके गर्स से महाराज दुशरध उत्पन्न हुए थे, यद विदुमेराज की कन्या थी । इन्डुर तद्‌० (पु०) बन्दुर, मूस, चूदा, सूदिक । इन्द्र चच० (३) वेदोक्त देवता | भारतीय प्राचीच झाये अधपिगण जिन देवताओं की आराधना करते थे उनमें एक इन्ज्र भी हैं | ऋग्वेद सें लिखा है कि इन्द्र की माता ने बहुत वर्षो' तक इन्हें अपने घर्स में धारण कर रकख्ा था, उत्पन्न होने के श० प००-१३१ अनन्तर इन्द्र ने अपने पिता को पैर पकड़ के मार डाला । ( २ ) पौराणिक देववा, अन्यान्य देवता इनके अधीन हैं, अतएवं यह देवराज कहे जाते हैं। इलोमा द्वनव की कन्या झाची से इनका चिवाह हुआ था, इनके पुत्र का नाम जयन्त था ।--कील तद्‌० (प०) मन्दर पर्वत, मन्द्राचछ !--कुझजर तत्‌० (पु०) इन्द्र का हाथी, शेरावत हस्ति +-गेय तव्‌० (एु०) रक्त वर्ण कीठट विशेष, खद्योत, जगुनू ।--जाल छव्‌० (पु०) नटविद्या, फरफंद, धोखा, मन्त्र तंत्र, योगद्वारा अचंभे की बाते दिखाने का झन्‍्ध । भाषाऊर्स, छल, कपट, साया |---ज्ञालिक तव॒० (ग्ु०) मायावी, मायिक, वाजिगर |--जित्‌ दत्‌० (प०) लंख्ेश्वर रावण का पुत्र, भेघताद ।--छुरुप सतत" (ग्रु०) इस्द्र के समान सर्वश्रेष्ठ, अधिपति, सर्वोत्तत --- त्व तब्‌० (०) स्वयं का प्रसाधारण धर्म, राजत्व प्रघान्य ।--दूमन (छु०) थोम विशेष । वर्षाऋतु में गन्नाजलू पीपल के पत्तों को छू लेती है तत्र बढ योग होता है ।--धन्लुष तत्‌० (घु०) शक्रघहु, सूर्य की किरण मेघों पर पड़ने णे भ्राकाश में जो धनुष के आकार का दीख पड़ता है |--नील (पु०) सीजक्षम, नीलसणि ।-- नीज़क ब॒दु" (5०) पन्नग, सरकत; पन्ना ।--प्रर्थ तद्‌० (9०) राजा झुधिष्ठिर का बताया छुआ नगर विशेष, हरिप्रस्थ, शक्रप्रस्थ, इत्यादि जिनके नाम हैं | इस सम्रय दिल्‍ली के नाम से वह प्रसिद्ध है, यद्यपि दिल्‍ली यमुना के बाएँ किनारे पर स्थित है, तथापि इन्द्र- प्रस्थ बझ्ुठा के दक्षिण तट पर स्थित था ये तद्‌> (९०) भौषधि विशेष |--घष्चू तत्त० (स्त्री०) अज्ञकीट, चीरक्हूटी विशेष ।-चघज़ा तव्‌* ( पु० ) एक वर्णयूत्त का नाम जिसमें दो तगण, एक जगय और दो गुरु होते हैं| इस्द्राणी तत० (स्त्री०) [इन्द्र +आनी| शी, इन्द्र की पते, माठुका विशेष | इन्द्राजुज़ तत्‌० ( स्त्री० ) [ इन्द्र + अजुज | विष्ण, सारायण, श्रीकृष्ण | [ नारायण, विष्छु । इन्द्रावरज्ञ तव्‌० (ए०) [ इन्द्र + झबर + जन्रू + छः | इन्द्रायण तदू्‌« (स्त्री०) औषधि विशेष । इन्द्रायुघ (६ छरे ) इपृपल हट सन >> को करन +अनि मम का दल डलम कर इस्धायुध तथ* (१०) [इख+धायुध] इन्द्र घजु, | इमली दे? (पु) इंच विशेष, फल विशेष, तिन्तिहो, शक्र घनु। [ आपन, पेरावत इस्ति | इस्धासन तत्‌ (प०) हिल्द्र आसन] झंद्ध का इम्द्रिय ततत* (१०) [इन्द्र + इय| इन्द्री, शानन्द्रिय, कमन्द्रिय, भअन्तरेन्द्रिय, नेन्न, “पेत, प्राण, जिद्धा, त्वक और मन ये छु, झ्ानसाथन, घाक्‌ पाणि गुदा और उपस्ध ये पचि कर्मेंल्दिय भौर सन बुद्धि चित्त श्र थग्झार ये अन्तरेन्द्रिय हें [--गण (पु०) इच्दरिय समृद, एकादश इन्द्रिय ।-मोचर (गु०) इन्द्रियों का विषय, ज्ञानगम्य, ज्ञानपथ वर्दी ।--भाहा (गु०) ज्ञानगम्य विषय, शब्द स्पश रूप रस ग्न्‍्ध झादि |--दोप (प३०) दामादि दोष, कामुकता, रूम्पटता ++निम्रह (छ०) काप्ादि इन्द्रिय दमन, चचु आदि इन्द्रियों को अपने धश में करना ।--विपय (३०) इन्द्रियल प्राह्न, इन्द्रिय गोचर; नेन्न आदि छे पथम्थित नझगेधर (यु) [इन्द्रिय+-अगोचर] इन्द्रियों के शझगोचर, जी इन्द्रियों से नहीं जाना जाय। >जर्थ (६०) इच्दरिय जन्य ज्ञान का विपय रूप रस गरध शब्द स्पन्नं । खुद (एड्ी०) देखो इन्दिए [ छकड़ी इन्घन तद॒5 (पु०) [इुधू+ अनदू] ईंचन, जलावन, इप्छु तत्‌० (यु०) ईप्सित, इच्छुक, लोभी | इफणन (सत्री०) श्रधिक्ता । श्यारत (स्त्री) लेख। इस तद० (९५) गज, कुज्ञर, हष्ति, दाथी, समान, सदच्श, नाई , ताइ ]-पालक (६०) मदावत, हाथीयान । [ घनी । इम्य सद्‌ (गु०) [इम्‌ू+य] घनवात्‌, चनशाज्ली, इमदाद्‌ दे (*प्री०) मदद, सहायता | इपन दे खर का मिलन, राणिनी विशेष ।--कट्यान रागिनी विशेष | इसामद्रता (०) लोदे था पीतन का उसछ | इम्तारत (स्त्री) पक्का सक्ान, विशे८ सदन इम्रि हदृ० (थ०) ऐसे, इस प्रद्ार से, यों, इस तरह ले । इम्तहान (यु) परीक्षा । इस्रती दे० (स्थ्री०) एक प्रकार कि मिठाई)... कुचिया, अमछी इश तत्‌० (स्त्री०) चाणी, भाषा, भूमि, जल, सर- सवती, कश्यय पक्षी ।--धान्‌ (पु०) [ दशा + बतु ] समुद्द, सेघ, राजा, अजजुनपुत्र, असुन के ्ौरतत तथा पेरादत की विधदा कन्या फे गर्भ से यदद उत्पन्न हुआ यथा, कुरुतेत्र के युद्ध में दुर्योधन पच्चीय आर्यशक्ष नामक राचल के द्वारा यह बिहृत छुद्या इरादा (पु०) विचार, मशा, सद्भुत्प | इर्देगिद (गु०) चागे ओर इस्जाम (६०) अपराध, धारोप,अभियोग, कलड्ू, दोष । इस्चिला तत्‌० [स्त्री०) कुबेर की माता, विश्वश्षवा मुनि की पत्नी । इलशा दे० (पु०) दिछसा मामक मत्स्य विशेष | इत्ता सतत» (स्त्रौ०) वैवश्वत सम्रु की कन्या, भरदे विष्णु के प्रसाद से यथ्पि पुष्प हो शई थी, तथापि कुमारवन में ज्ञाने के कारण घुन स्थ्री हो गई, यद् बुध से ब्यादी गहे थी, इसी के गर्भ से पुरुणचा उत्पन्न हुए थे --बत्ते ततु* (०) टैप के. लुब द्॒षान्‍वणंत बे विशेष । इलाऊा दे० (9०) स्थि/प्षत, संसग । इलाज दे० (पु०) चिकित्सा, दृव! कर्ता । इलायचीौ दे० (स्प्ो०) पुक्कायदी, पूछा |-दाना (पु०) पुक प्रकार वी सिठाई । इस्ला दे० (पु०) मग्सा, मस-दृद्धि! इंदयल चत्‌० (पु०) एक दैल्य विशेष का नाम) सकी विशेष [-- स्व» (प०) रगशिरा नष्चन्न फे सिर पर रहने बात्या २ ताराओों का कुंड इव तत्‌० ( आ० ) सदश, समान, उपभा, सरीखा, जैछे, भाई, ततद + इशारा दे० (घु०) सड्लेत, सैन । इश्तहार दे (पु०) विज्ञापन, सूचना । इपु ठत्‌० (पु० ) [इश्+द्‌ ] बाण, शर, तीर, छाण्ड [ध या थी ( पु० ) वूण, बाणाघार, तरकस ।--प्रांन त्त्‌» ( वि० ) तीरदाज, याधय चबाने घाला । किंकड, प'थर फकती है | इृपूपल तत० € छु० ) दुर्ग के द्वार पर की चाप जेए ड््छ ( ] परे ) ईइकू इछ तब» ( पु० ) [ इृष+क्त ] यज्ञादि कर्म, कर्तैच्य, य्थेप्खित, काम, सेैरुशार, यह्ुस्वामी, इण्टदेव, अधिकार, घश | ( ग्रु० ) चाहा हुल्ला, आशंखित, बाब्छित, पूज्य, प्रिय ।+-पगन्ध ( गु० ) सारण, खुगन्धित हब्य +-देव ( घु० ) अमीए देवता, डपास्य देवता +-देवतां ( धु० ) उपास्य देवता सब से बड़ा देवता, अपना देवता, अवश्य पूजनीय देवता । [क्षपत्ति विशेष ) इणापत्ति तत्‌० (स्त्री० ) प्रतिवादी की दिखाई हुई इप्रापूर्तें तत्‌ ० ( ० ) चशखातादि कर्म, लेकेपकाराये यज्ञ कूप खनन आदि। इग्चाह्ञाप तत्‌० ( घु० ) अभिज्षपित, कथेपकथन | इप्टि तत्तू० ( ख्री० ) याण, यज्ञ, अभिज्ञाप, इच्छा । शृष्य तत्‌० (एु०) वसन्‍्त ऋतु १ इष्बास तत्‌० ( घु० ) धनुप, कामुक, शराशन। इस तदू० (सर्वे०) यह | इसपात दे० (५०) एक प्रकार का जेहा | इसबगे।ल् दे० ( घु० ) औषधि विशेष । इसलाम दे० (०) झुसकसानी धरम । इसाई दे० (थि० ) किरस्तान, ईसाई । इसे तद्‌० ( सर्च ) इसको | [दा रहने वाद्या । इस्तमरारी दे० (गु०) अपरिवेतनशी क्ष, परम्पराजुगत, इस्तिरी दे० (स्री०) घेवी का ए यन्त्र विशेष जिसले घुले हुए कपड़ों की सकुड़न सिदाई जाती है। इस्तीफा दे* (पु०) त्याय पत्र । इस्तेमाल दे० (धु०) प्रयेश्य, व्यवहार) इस्ठ्रि या इस्री ढे० (ए०) कपड़ा चिहनाने का यन्त्र, जिपसे घोन्री कपड़े पर कन्नप अनाते हैं । इस्थिर तदू० ( गु० ) स्थिर, निश्चक, भचझरछ ! इस्पात चे० (५०) पक्का लाहा, खेड़ी, परिस्क्ृत लौह! इस्पंज दे० (स््री०) साम्रुद्वी पदार्थ भे। पानी में डाछने से फूछ जाता और दकने पर पानी गिरा देता है । इह्‌ तत्‌० ( अऋ० ) यह सब्र, दंत ख॒त्र ने, इस्दोंने। लोक तत्‌० ( 9० ) यहाँ का लेक ।--काल तत्‌० ( छु० ) यह काछ, यह समय | इद्दवाँ यहीं, इस स्थान । इहयँ तद्‌ यहा, इस स्थान पर, इस जगह । इहि तत्‌० ( क्रि० घि० ) यहाँ, इसमें, इस जगह । ई दीघे ईकार, चौथा स्वर वर्ण है, उच्चारण स्थान सालु । है तत्‌० ( आ० ) विपाद, अजुकम्पा, क्रोध, दुश्ख आाषम, अत्यक्ष, सेन्निधि, ( छु० ) कन्दय, रामदेव (स्वी० ) लक्ष्मी । ईकार तत० ( ४० ) अच्चर विशेष, इंवर्ण ईत्च तदू० ( स्ती० ) दर्शन, इच्षण, देखना ! ईज्ञक तत्‌० ( छु० ) [ ईत््ु+अक्‌ ] अवलेकनकर्तता, दर्शक, दिखैया । [ सर्प, चक्लुक्रवा । ईत्तण तत्‌० (पु०) दृष्टि, दुर्शश, चज्च +-अबा (०) ईत्तित तब० (गु०) | ईंच-+कछ ] दए, अचलेकित, देखा हुआ | ईमुर दे० (पु०) सिन्दूर का भेद्‌ ईसा तदू० (पु०) ऊख, गन्ना । ईजना (क्रि०) खींचता । “इंठ या ईा (पु०) इंदा, इषका । ईंठ तत्‌० (गु०) इष्ट, वाम्छित, चाहा हुआ दोस्त । ईंठा तव्‌० (स्त्री०) स्तुति, स्तव, प्रशंला, नाड़ी विशेष, गुण कथन, म्तिष्ठा । लिलने का दंड । ईडी (स्वी०) भाला, बरछा ।--दाड़्‌, ( झ० ) चैंग्रान ईंडा उत्‌० (स्त्री०) स्तुति, अशंस्ता । [झतस्तब । ईंडिंत तव० (ग्ु० ) [ ईए+क्त |] स्व॒त, अशेखित, ईढ़ (स्री०) इठ; जिद । 'ईंद' दे० (स््री०) सुसलमानें का एक तेचहार । इंदूरी दे० (स्त्री०) इढरी, सिर पर भार रखने की जो सन या कपड़े की बनती है । ईंदूबा तदू० (पु०) उढकना, टेझना । ईति दव्‌० (स्त्री०) औडा, अवास, उपद्वव, आपदा, छः अ्कार क्षी ईति--(अ्रतिदव्रष्टि, अनावृष्ठि, दिल्ली पड़ना, सूखों से खेती का नाश, पहियें से खेती का नाश, राम-विद्रोह से छेश ) । [इस प्रकार । इंद्रकू तत्‌० (गु०) ईंदश, एतत्‌ सरश, इसके समान, दत्त (्‌ च्छे ) ईद्वित ईंटृज्ञ तत्‌० (गु०) एतत्‌ सदश, इस प्रद्यार | ईद्र्श त्त्त्‌० (गन) ईह्क, ऐसा, यह, इथ रौति | इंधन दे० (पु०) बाढने की लकटी या कंडा । ईप्सा तत्‌० (ख्री ) चाह, वाब्छा, अ्मिछापा [ इप्सित तदु ( गु० ) बाज्थित, अमिदप्रित, अभी; चाहा हुआ । किर देना । ईफाय डिगरी दे० (सत्री०) डिंगरी का रुपया अदा ईमान दे० (पु०) विश्वास, आम्तिझृता [--दार (वि०) विश्वास पात्र । [बी । ईरान दे० (७०) फारस देश -- (०) फ़ारस देश इंप्सु तत* (वि०) चादने चाला | ईरथां तद॒० ( सी० ) अदमा, परश्रीकाठरता, द्वेप, दाद, जलन, कुदून, इसद, द्विसा डाह ।--छ्लु ईपा- विशिष्ठ, परभ्रीकातर, द्ेपयुक्त, जरतुद्दा । ईैपी तद्‌० (डु०) पीढ़ी, द्वेषी, दूसरे की अ्रमिद्द्धि से जलने बाला ! ऐप्या तद॒० (द्वी०) हिसा परश्रीकातस्ये, द्वेप, द्वोह ।--- रस्वित (गु०) दिंसऋ, इष्यांकारी |-घान (गु०) ईष्यांकारी, इष्यान्दित, दिंसकऊ--लु--(गु७ ) दिंसा-विशिष्ठ, अद्ान्तियुक्त ईंश तव्‌० (पु०) प्रकु, स्वामी, राजा, ईभ्वर, ऐश्वये- शाल्ी, महादेव, ईशान कैय के भधिपति -- सपा (५०) झुबेर, घनपति | ईशा तद० (एु०) पेग्वर्य, (ख्ी०) दुर्ग । इशान तत्‌७० (पु) भद्दादेव, रद्र विशेष, शिव की भर विध भूतिये! के अन्तर्गत सूर्य सूर्ति, शमी बृष, पूर्व भर उत्तर के बीच की दिशा |--केण (9०) उत्तरपूर्ते के मध्य को कोन 7-2 (स्री०) दु्गों, भगवती, इेश्वरी, शमी धृष्ष । ईजिता वद्‌० (गु*) अधानता, महत्व । (द्री०) अष्ट प्रकार की सिद्धियें! में छे वर सिद्धि जिसे आस कर साधक सत पर शासन करता है । ईशित्य तद्‌० (घु०) प्रभुर्व, आधिपय | इंश्वर तव॒० (पु०) परमेम्वर, प्रसु, अधिएति, घम्े, सूशिछर्ता, घनी, माद्षिक, स्वामी ।--रूत तत्‌« (पु०) ईश्वर रचित, ईश्वर निर्मित ।--ता ततु० (ख्री०) प्रभुता +--निपेध तत्‌० (१०) नासिति कता ।--निछठ तब» (गु०) देभ्वर-भक्त, इस्वर- परायण, झास्तिक +-साधन तत्‌* (३०) मुक्ति साधन, थेय साधन ।-ना (ख्री०) दुर्गों, जक्ष्मी, सरसखवी भ्रादि शक्ति --राघन तद« (३०) परमेग्वर की उपासना, ईश्वर सेवा, जगरकता का भजन --ी तत्‌० (ख्त्री०) परदेवता, दुर्गा, भगवती आद्याशक्ति, मद़ारायी ।-पासक तव्‌० (प०) परमेथ्यर की आरावना करने बाला, भाध्तिक (-- जेपासता तत्‌० (खी० ) परमेश्वर का मजन, ईश्वर की आराधना । ईपण तत्‌० (8०) देखना, दृष्टि, नेत्र, ईचण । ईचणा त्तव्‌» (स्वी०) छाछूसा, वासना, चाह, इच्छा । ईपत्‌ तद० (भ्र०) अक्प, किशिंत, लोश, थोडा ।-- कट ततदू० (०) भ्रत्ययप, किलशिंतू, केश ॥-- पाणड तद« (३०) धूतर वर्ण /--दास तद्‌० (३० ) किश्लिद्‌ दृस्य, भ्रत्यशए सुख विकास, स्मित, मुसकान --वक (ग०) थोड़ा देढ़ा ।-- रक्त (०) भदप, लेदितवर्णे, अव्यक्त राग । ईपन्‌ तदु ० (क्रि०) देखना ) ईंस तदू (५०) ईशा ! इसबगील दे« (६०) इसवगोल, पुक दुवाई। ईसवो दे० (स्री०) इंसा सम्बन्धी, अगरेजी बए | ईसा दे० (५०) इंसाए धममे का प्रचारक ।--६ (9०) किरस्तान मजुदद का सानने वाला । इहग तत्‌० (पु०) कवि (डिंगछ भाषा में) ) ईंद्ठा तव्‌० (स्री०) यत्न, चेष्टा, उपाय, इच्छा, बाण्था । ईद्वाम्टग तद्‌० (९०) कुचा के समान छा पूमर बसे का जन्तु, झूग, तृष्णास्ग, रूपक विशेष, अष्टविध रूपकें हे अन्तगेत सातवाँ रूपक, कुसुम, शिखर, विजय नामक इईहासग संस्कृत में है । इद्वाव्वक घत० (पु०) छकड़बाघा । ईद्वित तब्‌« (वि०) इच्छित, चाँदित डड (्‌ घर ड्श्न 3 2+%++35६:८४+ _के-ननलतेनय 7८ +नतन +पन नित्य 7777 लत +++ 35८०7 2 पर 55 ड ड उकार, पश्ृत्त स्वस्वणे है, इसका उच्चारण स्थान ओए है। उ तत्‌ (५०) शिव, घरह्मा, अज्ञापति ( क्र० ) सम्बो- घन, रेपोंक्ति, अन्लुकस्पा, नियोग, पादपूरण, प्रश्ष+ अज्ञीकार ) ड दे० क्षीणस्वर से उत्तर देना । उञ्ना (क्रि०) उदय हेमा, उगता | उद्महिं दे" (क्रि०) उगते हैं, अद्य होते हैं, निकलते हैं। उच्या दे? (गु०) उद्ित द्वोना; उदय हुआ, यधा-- ०र्ाद्‌ उम्चा झुँई दिया अकासु” (पद्मावत) । उकरण (बि०) ऋण से सुक्त [प्रकाशित हुए । लए, दे० ( क्रि० ) उगे, निकछे, उदय हुए, देख पड़े, उकदठना दे० (क्रि०) गढ़ी हुईं वस्तु निकालना, डसा- डरा, भेद करना; ग्रणचान के प्रकाशित करना, बार चार कहना । डकठा दे० (जि०) सूखा, सूख कर ऐेंढा हुआ । उकठि दे ० डटंग कर, सहारा छोकर, उटपंँगण, काष्ठ, गठीले वा डेढ़े मेंढ़रे काष्ट करके, बिगड़ी हुईं लकढ़ी की; झुष्ठित | [बैठना । लकड़ू वे* ( घु० ) पव भर बैठना, घुटने मोढ़कर उकताना दे० (क्रि०) खिम्ताना, डवियाला, चिढ़ाना । उकारु दे” (9०) उकसाऊ, ग्रवर्तक । डकतारना दे० (क्रि०) सम्माछना, पक्ष करता [ डकलना दे० (क्रि०) उप्रकना, खत दाना, ऊपर उठना । डकसना दे? (फक्रि०) उठना, चढ़ना । डकसहिं (क्रि०) ऊपर उठते या निकालते हैं, उचकते हैं । डउकसाना दे० (क्रि०) उसकाना, उठाना, चढ़ाना, आये बढ़ाना । डकसावा दे० (एु०) ब्व्साह, बढ़ावा ! उकालना दे० (क्रि०) बबाजना । उकेलसना दे० (क्रि०) उधेरदा, खेलना | उक्त तव० (ग्र०) | चचू +क्त | कथित, आपित, उदित, निगदित, डह्लेखित, आख्यात, असिद्धित डक्ति दव्‌० (स्री०) कथन, वचन, उपज, अनैौखा चाक्य। उखड्ना दे० ( क्रि०्) उजड़चा, नाश होना, तितर बित्तर होना | डउख्डा दे० (०) उजड़ा, नष्ट हुआ | उखड़ाना दे० (क्रि०) उखड़वाना, उन्ड़बावा ] उख्म (पु०) गर्मी, तार, उष्ण | उखमज्ञ दे० (५५) कष्मज जीव, क्षुद्रकीर [ [का विधान | उखर दे० (9०) ईख बो जाने के बाद हल पूजने डखरना दे० (इ्लि०) ठोझर खाना, चूकना | डखल, उल्लली तव्‌० ( पु० स्री० ) इखली, ओेखजली, जिसमें घान आदि छूटे हैं । डउस्ला दे० (ख्री०) घटलेाई, डेगची । उखारी दे० (स्त्री०) ईख का खेत | डगत तद्‌० (पु०) उपजना, उद्भव, जन्म, उत्पत्ति डगना तद्‌० (क्रि०) उत्पन्न होना, बढ़ना | [नाश होना | डगते ही जलना (क्रि०) आरम्स सभय सें ही कार्य का उगलना रुदु० (क्रि०) चसन फरना, थूकना, धलदी करना, के करना [ उंगली (व्वी०) अँगुरी । डगाल तदु० (एु०) पाहर, सीठी, थूछ | [वसूल करना । उगाहना तद्‌५ (क्रि०) हकहा करना, एकन्न करना, डगाही दे० ( स्री० ) बसूलयावी, उसिकतना ( क्रि० ) उगलना । [करवाना । उगिल्वाना या उगिलाना ( क्रि० ) के कराना, बढ्टी उच्न त्त्‌० (गु०) उत्कठ, रोड, तीएरण,क्रोधी, कठिन, (छ०) विष्यु, सूर्य, वत्सनाम नामक छिप, महादेव, शिव की घायु मू.त्ति, चन्रिव फे औरस तथा शूत्रा सत्र के गर्भ से उत्पन्न जाति विशेष |--गन्ध (छु०) बल्कट मन्धयुक्त, चीक्षण गन्ध (प०) जहसन, काय- फल्न, हींग |--। (स्त्री ०) अजवायन, अजमेदा, बच, नकदिकती |-चंणडा (ख्री०) भगवती की सू्ति विशेष, इनके अठारह झुजा हैं | आश्विन कृष्णा सचमी के छोदि येगगिनी परिवेष्ठित श्रष्टदृशभुजा-समन्वित्त इसी उग्नचण्डी की पूजा दे!।ली है ।--ता (द्धी०) कडारता |-+तारा (ख्री०) भगवती की सार्ि विशेष, इनझा दूसरा नाम सातब्निनी है।-- स्वमाव (गु०) कठोर चित्त, कठिन हृदय ॥-+« सेन (घु०) यदुवबंशी राजा, आहुक का छुच्न और कंस का पिता, सक्ुुया का राजा | डघवठना ९ ..0.0..........्तत++त3_तहतञ_तत्तततत+त359त्तततनतनततत पद ) डच्छास उघटना (क्रि)) किसी समय के उपकार का ताना के | उचित तत्‌० (गु०) [उच+ क्त] न्यत्त, विदित, परि- रूप में कहना । उघटवाना (क्रि०) पुद्सान जताना, ताना देना, एड सान को अन्य द्वारा कहलाना | उघटा-पेयी दे० (ख्वी०) पद॒घ्ान, इछाइना देवा ! उघड़ना दे० (क्र) नहा द्वोना, व्यक्त द्वाना, प्रका- शित द्वाना। उधर्गद्दि दे० (क्रि०) खुलते ईं, खुल जाते हैं, स्पष्ट दा जाते हैं, नगे दे। जाते हैं । ह्ए। डरे दे० (क्रि०) खुले, भ्रकट हुए, प्रकाशित हुए, खुले उधघाडुना दे० (फ्रि०) नज्ज। करना, खेडना, च्यक्त करना। उचघाड़ू, दे० (प०) उघाइनेद्वारा, भकाशक । डघारों दे० (गु०) खुक्की हुई, रंगी । उच्च तदु० (अ०) उच्च, शच्ञत, बडा | उच्चनीच तत्‌० उच्चनीच, असम्तान, विश्लोश्नत, उच्चान बच, ऊँचा नीचा | उचकना दे० (क्रि०) छूद के उठना, रछुलना, कुदुना । उचका दे० (५०) ठग, याठकटा, चार, छुली, पाखपडी । डउचटना दे० (क्रि०) उखडना, विद्युक्नना, बिखरना, उदास द्वाना, मन नहीं ठयना, नींद का टूटना । ड्दाना (क्रि०) विरद करना, ब्िखेरना, सचना, छुडाना, शपक्‌ करना, अछगाना । उचरड्ू तदु० (१०) पतक, भुनगा । उचरना तदु« (क्रिन्‍्) दच्चार करना, कद्द ना, धीरे घीरे चना, शकुन विशेष, काऊ की ग्रति विशेष से आयी आगमन का अनुमान-- / उचरहू काक पिया सार झावत ?! | डसचलना तद्‌ ५ (क्रि०) विद्ववयाना, अढूग करना । उच्ा दे" ( क्रि० वि० ) उठाय, ऊँचा फर, उमार डभमार कर | उचाद (पु) विरक्ति, उददासीनता | उचादना ततदू (क्रि०) पपक करना, अक्षण करना, डचाट होना, ददास इाना, जी नहीं छूगना, उचाटी छगना । [इचा, डचटा, डखदा, हटा + इचाट्टू सदु० (गु०) इछदा हुभा, ब्यप्रचित्त, उचटा उचाडुना देन (क्रिग) ठगी हुई चीज का नाचना या अद्धय करना । [बराबर छेते रइना । उचापत दे* (१०) दूकानदार छे यहाँ से चीजउधघार चित, य्रोाग्य पदाव, न्‍्यूयय, लायक, सुनासि4, बाजिदद । उचेलना दे० (क्रि०) इधेरना, अलग करना । उचेद दे० (पु०) ठाझर, ठेस, चोट । उद्चय तत्‌० (गु०) ऊच्चे, उन्नत, प्राश, ऊँचा, बडा, तुद्, बत्तर, उच्छित ।-तरू (पु०) नारिकरेल घृक्ष, (१०) ऊँचाबूत्त --ता (सख्ी०) उबे परिमाण, उच्च -- सींच (गु०) निम्नेन्नत, श्रसमान । -भाषी (गु०) कडवक्ता, उम्रवक्त ।+--मना (गु०) सद॒न्त करण, महाशय ।--शिक्ता, (खी०) श्रधिक शिक्षा, उद्धत शिक्षा स्वर ( घु० ) बडा शात्द, दूर च्यापी स्वर। उच्चाठ तत्‌० (पु०) उचाटी, धदास, अरुचि। (प०) पुक तान्त्रिक प्रयोग, जिसके द्वारा सा उखड़ ज्ञाय । _ उद्चार“तल० (पु०) [ उत्‌+ चर + घन ] विष्ठा, मल मृन्र, पुरीष, (बहुत खोग उच्चारण के अधे में उच्चार शब्द का प्रयोग करते हैं, परन्तु घद्द प्रयोग अत्यन्त अशुद्ध है )। उच्चारण दद० (9० ) [ इत्‌+ चर +णि+ अनद ] कथन, कद्दना, निर टना, दढ्लेख, शब्द प्रयोग । डच्चारणीय तव्‌« (गु०) [बद्‌ + चर + णिच्‌ + अनीय] डच्चारितब्य, कथनीय, उच्चारण करने के सेोग्य । डचारित तत्‌० ( गु० ) [ रच+चर्‌+णिच+-क्त ] कथित, उक्त, अभिद्वित, कद्दा हुशना । व्थियक । उद्यायं तन्‌० (वि०) उच्चारण के गेग्य, कइने उच्चे तव॒ु७ (श्र०) ऊच्चे, ऊपर, ऊँचा, बडा [>शत्द्‌ (9०) 5्चचस्वर, चीरकार, चिचियाना, चिल्लाना। “-अ्रवा (पु०) इन्द्र का धेढ़५ देवराज इन्द्र को यह समुद्रमन्‍्धन के समय मिला है। उच्छन्न तद्‌० (वि०) दवा हुआ, लुप्त। [बच्छरी है। उच्छुरना ठदृ० (क्रि०) उड्धरना, निकलना । जैसे पित्ती उच्छलना दे० (क्रि०) उछलना, उद्चाठ सारना। उच्छुव देष (पु०) उत्सव | उच्छाव दे० (घु०) दत्पाद, इमग, घूमघाम [ उच्छास तव्‌* (इ०) [ दब + रवसू + घजू ] श्वास, आशा, प्रकरण, उसाँस | घ्छ उच्छाह ५ ) डकलना डच्छाह दे" (घु०) उत्साह । उच्छितन्न तव॒० (ग्रु० ) [उत्‌+छिद्‌+क्त ] इच्छुक, इखड़ा हुआ, निम्मेल्ष हुआ, विनए, खण्डित, कटा हुआ, छिन्न भिन्न | ता (छी०) नाश, खण्डन ] डब्छिए तत्त (ग्ु०) [ उच्‌+शिष्‌+क्त ] भोजन का अवशिष्ठ, जूहा, त्वक ।--भेाजन (छ०) झुक्ता- बश्षि्ठ आह।/र, अवशिष्ट भोजन, किसी के खाने से छुटा हुआ, जिसमें भोजन के किये किसी ने मुँह छगा दिया दे, जूँढा सेजन | डच्छू दे० (स्त्री०) एक प्रकार की खली जे कि पानी या ससि के यज्ञ में रुक जाने से आने लगती है । डच्छुडुल तव० (गु०) [उत्‌ + ख्छूछ] शछूुछा रहित, अ्रवाध, अनियन्तृत, निरक्कुश, अनर्गछ, विश्स्छुल, औडवंढ । ित्पाटन, विनाश १ उच्छेद् चव्‌० (पघु०) [उत्‌ +छिंद्‌ + अछ] उन्मूलन, डच्छाय तब ( पु० ) [इत्‌ + श्रिफ अछ] पर्वत बुक आदि की उच्चता, उच्च परिमाण । डच्छ्ध्ति ततू० (ग्रु०) [ इत्‌ +श्रिन-क्त ] उन्नत, उच्च, ऊँचा, बढ़ा हुआ | उच्छूघास (ए०) वर्सास्न, ध्वास विभाग, परिच्छेद ॥ उच्छी दे" (धु०) देखे। उत्सच लिंक, उरू । उल्चडुः तत्त« (स्त्री०)) गोदी, गोद, उत्खझ्ल, कनिया, डछुल छूद्‌ (स्री०) अधीरता, चशुछता । [मारना | डछुलता तव्‌० ( क्रि० ) छुवुकना, कुदना, डाल, डक्काड़ दे” (छ०) पसन, ओकि, रद । अल्चाल दे० (४०) कुदान । डछालना (फ्रि०) ऊपर फेंक के सेना उह्ाह तद्‌० (छु०) उत्साह, आनन्द, हप॑ । उद्छीर दे० (ए०) अवकाश, जगह, छेद । उज्र दे ० (पु०) मॉंपड़ा, तूणों से बचा शहद । उज्जड़ दे” (शु० ) उतावका, अप्रचीण, उच्छुद्चूछ, चैगान, शूल्य, पठपर, जनशून्यस्थान | [हिना । उजडुना दे० ( क्रि०्) इखद़ना, बिनशाना, ध्वस्त उजड़र दे* (वि०) उजड़ा हुआ, विनए, निकम्मा | उजड दे० ( वि० ) बज सूखे, असम्य )+पन्र दे? (घु०) अशिष्ठता, बेहुदापन । उजबक दे० (वि०) सूखे, अनारी (ए०) तातारियों की * घुक जाति, घास विशेष । उज्ञल तदु० (०) निर्मछ, चमक, भड़क, उज्ज्वल, स्वच्छ, स्वेत् । उजवाना दे० (०) ढजवाना, उफ्ताहना | उज़्रत दे? (ख्री०) सजूदूरी, भाड़ा । डजयार दे? (१०) बजेत्ा, प्रक्श, चांदनी, रोशनी । उज़्रे दे० (क्रि३) उजड़े, चीरान द्वोने से नष्ट हुए । उज़ला (गु०) हूष्छ, साफ़; सफ़ेद । उजागर दे* (गु० ) चमकझीरा, यशस्वी, प्रसिद्ध, विख्यात, भ्रतापी, मशहूर | उज्ञाडु दे” (४० ) झच्छिन्न, सूना, पटपर, निर्मेन स्थान, जंगल ।->ना (क्रिष ) नाश करना, चैपट करना, नष्ट बिनष्ट करना । अज़ान दे? (ए०) नदी का चढ़ाव, भाट का इक्टा ज्चार । [सिटा करके | डजारि दे० (क्रि०) उजाड़ऋर, नाश करके, नष्ट करके, उज़ारी (ज्वी०) नये अन्न के ढेर में से देवता के निमित्त अ्रन्न निकालना । उज्ञाला तदु० (पु०) चमक, प्रकाश, तेक्ष | उज़ाली दे० (वि०) चदनी, चन्द्रिका | डर्जियास दे० (पु०) बजाज, भ्रकाश, चदिनी। उजियारी दे ० (स््री०) चादिनी, उजियारी । ड्जियाल्ा दे" (पु०) प्रकाश, उनाला । डजीता दे० (ज्रि०) अकाशप्तान्‌, रोशत । डजेरा दे० (पघु०) उजाछा, प्रकाश । उज्जल्ल तद्‌० (गु०) रूच्छ, निर्मल, चम्रक्नीला, प्रका- शित्त, दीघियुक्त । अज्ज्वत्त तत्‌० (गु०) देखे उजछ | उज्ज्वत्लन तत्‌० (गु०) [डत्‌ + ज्वत्यू + अनद] डद्दीपन, प्रकाश करना, चमकना, ऊपर की ओर ज्वाला जाना । [ (देस्के अबन्ती ) उज्जेन तद॒० ( छु० ) इजयिनी नगरी, विशाक्षाएुरी डज्जैनी तदू० (स्थ्री०) देखे उज्जेन । डज्जृस्सित तद« (यु०) [उिचू +-जुम्म +क्त] प्रकुछ विकसित, अस्फुटित, (पु०) चेष्टा, अन्वेषण । उम्ककना दे* (क्रि०) इचकना, ताकता, मर्वकना । उम्ककून दे० (छु०) ओट, ठेंगन, बचकन | उसलना दे० (क्रि०) उँडेलना, रिक्त करना, खाली करना, एक पात्र की वस्तु दूसरे पात्र में रक्षना । बमिल्कला ( #ुए ) उतथ्य उमिला (सी०) ध्वाली हुई सासे नो धन के काम में भ्राती है | इच्छू तब० (गुर) [ बयुक अल्त्‌ | देव, क्ुद ।> बूलि (छी०) सामान्य भीविका, सुनि दृत्ति, कदे हुए खेद में गिरे हुए भक्त से पृत्ति निर्वाह “7 शिल (प०) पपेक्षित श्र|्त का संग्रद | उज्दृणील तद्‌० गु०) उभ्द्नमीवी, श्रति सामान्य कर्स से जीविक्षा निर्धाद करने धाले, मुनि ऋषि | डच्छित बह (यु [ ग्ग्म+ छ ] बवसष्ट, लक्त, बर्लित । उच्नप्नलित तद्‌० (गु०) चेड हुवा, डाडा हुथ्रा। डद एच (९०) वृष, तिनका, ऊर्ण, पत्ता।-ज (पु०) वर्ण शाला, पश्रचित श॒द्द, पत्तों से यना घर | उटकरकस दे" (गु०) क्षिवे षक, इताचला | डठड़ (१०) बढ कपड़ा जेए पद्विलने में दोटा द्दा। अट्ट-ून दव्‌« (पु०) सद्टीत, इड्ित, प्रष्ताए, प्रस्ताव उद्दट्टित वद» (गु०) सैड्रेतित, चिन्द्ित, इत्थापित । उर्देगन दे* (४०) देक, प्राघार, ऋष्नय, था । उठना तू ( क्रि० ) उगदा, चढ़ेवा, खड़ा होना; ऊँचा दावा । सटवैठ तद्‌० [ सी० ) चिलविली, चतट, भसुख, अधिक कलश, “ उठरैड के मैन रात दितताई ? | डटबैया (ए०) ब्वश्लू , वदानेद्वारा । इठदलू तद्‌* (१०) भस्थि(, चपन्न, चशुर्। भ्राकारा । उठा देन (क्रिण) पमरा; प्रद्ठा हुश्ला, तिकन्ना। जधा, ऊँचा हुआ, दरपन्न हुश्रा | कप, ठय, वचका । उठाईपीर मा उठाईमीरा तदू« (गु०) चोह्टा। दय- उठान तद्‌* (पु०) दद॒व, उठने की क्रिया । उठाना तद्‌० (क्रि०) पढ़ करना, उधार देना, दूरी कर्ता, फेचे करता) उठा देना तह दूर करना, माद़े पर देवा | उठोध्य ( दि० ) उठावा, खिसका छोई स्थाव निर्दि्ट, नह्ा। मत' ती डठीनी दे० ( खो ) श्दाने की मा ५ उड़ंकू दे « (गु०) बईनिवाला, उटैया, घलन जिले दाला। उडगणश ठर« (प७०) तारे, नहय्रयण, नफय्समूह । झड़्यजना तद० (क्रि०) भकड़ना, हत॒राना। उड़ती तद्‌० (१०) भस्थिए “-2ए्ा ज्ञाश खाई झलक ठग शिए अिकित पमृत्थ सहित, जनभ्रुत्ति) उड़नखटोक्षा (६०) विमान । थ्राक्रशगमन। उड़ना तद॒* ( क्रि० ) पच्ची का आाडाश में चढना, डड्डनी दे० ( बि० ) फेजनी, जैसे चेचकया ईजे की बीमारी । [नाशशील, भ्रधिक खर्चेढा ) डड़ाऊ तदइु० ( पु० ) अपब्ययी, छुटाऊ, डथा घन उड़ाऋ या उड़ाकू (०) ढडुया, खे खागने वाला आए दरणकचों । उड़ान तदु० (खी०) इंदना, पत्षिये की चाल | डड़ाना तद्‌० ( क्रि० ) षडा देना, मयावा, छुठाना। “पुड़ाना छुशवा, गंवाना, श्रपत्यय धरना, नाश करना । [किसे है । उड़ाचदि तदु० (क्रि०) इडने हैं, भगाते हैं, नाश उड़ाहीं तदु० (क्रि०) गहुते है, उड़ जाते हैं! उड़िया देण (प०) उड़ीसा देशवा्ती | उड़ियाना तव« (प०) १९% साव्रिर चल विशेष उड्िस दे० सदमल, घटकीरा । उड़ीसा दे० इह़छ देए । [आकाश, गगन, भमरवल् । उड्ड तत्‌० (४०) भषत्र, राशि, वाग (->पथ (३९) उद्डव तद्‌5 (पु०) चल्दर, भाव, चरनई, डोगी । उड़ेद्ाना दे० ( क्रि० ) पक बतेन से दूसरे बेन में डालना । उद्दस दे" (4०) खटमक, सटकीरा उढ़िसि उद्डीन तत» (दुल्‍) ढदना, परवान द्वोता । उद्दीय्तान' तत्त० ( ५ ) वहनेवाला, आरशिशगामी, नभचर | डट्कसा दे। ( क्रिन्‍ ) बटन, औधाना, मिदाना, किसी के सद्दारे खड़ा कारना। उढ़ना दे* कपड़ा छत्ता।. सिखुई, रफेडा, दपरती । डढ़री दे* (द्वी* ) बढ ख्ी जा विवाद्धिता ने हे; उढ़ाना दें० भाच्छादन करना, ढकना, पद्वितवा |... उत्तड्न दे* ( वि० ) ऊँचा, इढस्द उद्देलना दे० (फ्रि>) दाना, इकठना । उद़ेया दे* ( १९ ) बढानिवाला, दकने बाड़ । उत्त तद॒ु० ( ०) गधर, इस ओर, एस तरफ उत्तय्ये तव॒* (ए०) [ब्तयू+ य सुनि विशेष, भहिरा का 55, वृदस्प्वी का ज्ेष्ठ सहोदर “लि ( ६० ) हितिप्य + भज॒ज] दृदस्पति । उतना (्‌ कहे 3) उत्कान्ति उतना तदु० (आ० ) उत्ता ही, उत्तता ही, उत्ता, परिमाण विशेष | इतरन त्तद० (म्तरी०) पहिने हुए पुराने देख ।-- पुतरन दे० ( स्री० ) पहिने हुए घुराने फदे बस । उतंरना तद्‌० (क्रि०) नीचे आना, घर जाना, टिकना, विश्वाम करना, किनारे पहुँचना, पार द्वोना, त्ाघिता, घटना, कम दछोना, उदास होना, फीका पड़ना, यथा * आजकल उसका रक्षा उत्तर गया हैं? | उत्तरह्ा दे? ( जि० ) उत्तर दिशा के देश का वारसी ] डतरादि ( क्रि० ) उत'ते हैं, चीचे आते हैं, ठहरते हैं, डेरा करते हैं, विश्राम करते हैं । डउतराई दे० ( खी० ) महादी, मामी का नेस, नदी के पार ज्ञान का महसूल | . उतराजा ( क्रि० ) पानी के ऊपर सैरना, त्राढ़ सी आना जैसे प्राजजलछ अमुक बहुत बतराए हैं। उतरायल ( गु० ) छोड़ा हुआ, उत्तात हुआ, काम में छाया हुआ | न्‍ डउतराव दे० ( छ* ) उतार, ढाल | उतत्वा तद॒० (बि०) उतावक्का, व्यस्त, व्याकुल, व्यग्न । उतान ( ग़ु० ) सीधा, चित्त, पीठ के बल ) उताना बे० (झ॒०) घिछुला, उजटा, ऋऔंधा, विपरीत । उतार तदू० ( ५० ) नीचे आना, घटी | उत्तारन तब्‌० ( 9० ) न्योछावर, निकृष्ट वस्तु | उतारना (क्रि०) ऊँचे स्थान से नीचे स्थान में काना, नकुल्त करना, छगी या कपटी घस्तु का अछगाना जैसे खाल अतारना, ठहराना, वारना, अदा करना, किसी प्रभाव का दूर करना जैसे नशा डतारना, निगलना, घजन में पूरा करना, भोजन की पूरी _ञ्रादि तैयार छरना जैसे पूरिया इतार ली | उत्तारा तद॒० (५) डेरा, नदी पार करने की क्रिया ! उतारि (क्रि) उतार कर, सिरा कर, प्रदच्छुत करः नीचे रख कर। उतारू दे? ( वि० ) तैयार, तत्पर । उताल दे" ( घु० ) ढीठा, ऊँचा। उत्तावल दें० ( ख्री० ) शीघत्रता, वेग, चुर्ताई, कहीं कहीं उताहल भी कट्दा जाता है। उत्तावल्ला दे” ( बि० ) मड़भढ़िया, जलदुबाज । उतावली दे ( गु० ) शीघ्रता, ऊुर्तीक्ापन । उत्क तत्‌० (गु०) उन्मना, अन्यमनस्क, उद्रिस, इच्छुक, उत्कण्ठित । डत्कद तत्‌० (गु) [ उव्‌ + कट + अल ] तीमघर, मत्त, विपम्न, सरुंत, कढित, छुस्सह, डद्दास, कठोर, उम्र, अधिक, हुश्साध्य | उत्कयठा तब्‌० (ख्री०) अमिलाषा, इष्ट प्राप्ति के लिये विलस्त्र का भसहन, भ्रियप्राप्ति के लिए बद्ासी, अन्यमनस्कता, प्याकुछत्ता, व्यस्तता, भावना, चिन्ता औत्सुक्यथ, उद्ेय, विशेष चाह, पूर्णच्छा, बढ़ी अभिकापा | उत्कणिठत तव्‌० ( ग्॒ु० ) उत्कण्ठायुक्त, उत्छुक, उन्‍्मना, इब्विप्च, भावित, चिन्तित --ा तत्‌० (खी०) चित्ता- न्विता, उद्धिग्ना, नायिका विशेष, सक्लेत स्थान में नायक के न घने से अज्चुतप्ता, इसे उत्तका भी कहते हैं। यधां--आप जाय सक्लेत में पीव न शआाये होथ, ताकी प्रन चिन्ता करे उद्का ऋह्ििमे सोय ”?। +-मतिराम उत्कर्प तत्‌० ( घु० ) [ बत्‌+ कृपू न: भल्‌ ] प्धानत्व, ओरेष्ठचा, प्रशंसा, बढ़ाई, उगवा, जोर, उत्तमता, श्रेष्यन ।--ता ( ख््री० ) श्रेष्ठता, उच्तमता । उत्कल्न तद्‌* (एु०) देश विशेष, इसका दूसरा नास ओष़ू भी था, इस खसय उड़ीसा देश के नाम से असिद्ध है । तात्नालिप्ती नदी के दक्षिण किनारे पर बसा है और कपिशा नदी तक चक्ा गया है। इसके मसिद नगर घुरी और कठक हैं । पुरी ही में जाज्ञाथ जी का मन्दिर है । डत्कलिका त्व्‌० ( स््री० ) उत्कण्ठा, तरंग, फूल की कली, बड़े बढ़े समास बाला गद्य। [जादा हुआ। उत्कीर्ण दद्‌ू० (यु०) छत, खादित, उचक्तिप्त, पेषित, उत्कुण तव्‌० (ए०) मच्कुण, छडकीरा, खटमज । उत्कृए तत्‌० (घु०) [उत्‌ + कृष्ट + क्र] उत्कर्प विशिष्ट, अतिशय, प्रकृष्ठ, सर्वोत्तम, श्रेष्ठ /-ता ( ख्त्री० ) डच्तमता, चढ़ाई, श्रेष्ठता । उत्कान्त तत्‌» ( गु० ) [ उत्त्‌ + क्रम +क्त ] निर्गत, ऊपर गया हुआ, उछट्ठित । उत्कानिति तव्‌० ( ख्री० ) रत्यु, मरण, शएता और पूर्णता की ओर क्रमशः प्रदुत्ति। श० प्‌ू०--४३२ उत्कीोश (्‌ न वि सन मनन न ननि न न पआनन न निनन न न न ननभन 770 777 उच्कोश तव्‌» ( पु० ) पद्चि विशेष, कुररी, टिटिम, शहपदी, ( कि ) चिछाना ! उस्खात नव" ( गु० ) [ उत्‌+सद्‌+क्त ] ब्न्मूलित, इच्पारित, विदारित, उपाड़ा हुग्रा । उत्तंस तथ्‌० ( प० ) कर्णपर, कर्णाभरण, शेखर, शिरो- मुपषण, कनफूछ । उत्तप्त तत5 (गु० ) [डद्‌+ठप्‌ +क्त] तप, सन्दतत, बच्ण, दुग्ध, परिप्लुठ, तापित, चिस्तित, सावित । “ता ( ख्री० ) उष्णता, सन्‍्ताप। उत्तम तद+ (गु० ) [ इत+सम्‌+ बढ ] सह, बक््ट, प्रधान, सुध्य, शेष्ठ, सब पे अच्छा (५०) नायक भेद, राजा उत्तानपाद छा पुत्र, इत्तानंप्रद की प्रिया सुरुचि के यर्भ से यद उपपन्न हुआ था, अविवादित भ्रवस्था ही में उत्तम अद्देर खेलने किसी दन में गया और वहीं पक यह ने उसे मार डाला ।“+ता (ल्वी०) इस्कपे, सौन्दर्य |--पद (३०) श्रेषपद, रुूच्चपद्‌ (--पुरुष (३०) सर्वेनाम विशेष जिघ्से वेलने वाले छा पेध द्वौ !>णे (३०) [वित्म + ऋण] ऋणदाता, महाजन |-- सम्रद (प०) सम्यक्न्‌ संग्रह, पुदास्त में परख्ी के साथ परस्पर आविक्नव -- साहस (पु०) विशेष, अस्सी इजार पण परिमित्र दण्ड, भतिशय साइस, दु सादख (-- ( स्वी० ) उत्कृष्ट नारी; श्रेष्ठ +--ेड़ ( पु ) [ उत्तम+ अक्र ] मस्तक, सिर, मुण्ड ।-पेत्तम ( गु० ) [ उत्तम + उत्तम ] चतिशय रत्टृष्ट, श्रेष्ठ से मी श्रेष्ठ, परमेशकृष्ट । “जा तद० (वि०) उसमे सेल या यज्ञ वाला | (३०) प्रधामस्थु का भाई, मु के दुध पुत्रों में स॑ एक ॥ उत्तर तत्‌5 (६०) [ इतु+दू+ भू | प्रतिदचन, पद्विवाक्य, बदढा, पछटा, समाधान, दिशा विशेष, (गुल) अनन्त, (घ०) पश्चात, (पु०) विराट-राजपुत्र काल (चु०) सविष्यत्‌ काठ, आाग्रार्मी समय | “फांशी ( छो० ) हरिद्वार के उस्तर एृरु स्थान विशेष ।--कुछ (पु०) जावुद्रीप _छे नववर्षों के अम्तर्गेत पक बे ।-फोशला (स्लो) धयोष्या गयरी, सूर्यवशी राजाओं की आचीव राजधानी ।--क्रिया (स्तो 5») घविवचनदान, 86 ) उत्तीर्ण अत्यपेष्टिक्रिया, सावत्सरिक कराद.. भादि पिठुझये +--च्छुर (६०) प्रच्छदूपट, श्ाच्छादत बद्ध, पर्लेंगपाए । दाता ( पु" ) जवावदेद | ८ दायित्व (प०) जवाबदेहों ।--दायी (प०) उत्तर देने बाला, जयाबदेह ।--पत्त (०) सिद्धास्त, समाधान, विचार विशेष ।-प्रद्युतर (४० ) चादानुवाद, तके। [नजन्र । उत्तरफाल्पुनी उत्‌* ( खो० ) नदत्न विशेष, बारदर्वा उत्तरमाद्पद्‌ तत» (पु०) छच्यीपर्वा नेत्र । डत्तरमीमाँसा (स्वो०) देदान्त दु्शेन ॥ उत्तरा ( स्ली० ) राजा विराट की कन्या का नाम जे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से ध्याद्दी गयी थी, इसी के गये से शाजा परीहित दुष्प था +“णजगड (चु०) द्विमावव के निकटवर्ती देश +-+विकारी (पु०) बारिप्त। उत्तरायण तव्‌» (९०) सूये का उत्तर दिशा में रमन विपुवद्‌ रेखा के उत्तर भाग में सूर्य का स्थिति- जक्ाढ) माघ से लेकर छ मददीगा, देवताओे! का दिन । [झाधा भाग । उत्तराद्ड तद्‌० (पु०) उत्तर का आधा दिस्सा, पिचुछा उत्तरापाढा तव्‌" (सख्री०) इकीसर्वा नक्तत्न | उत्तराह्या तदू० (वि०) उच्तर दिशा का। उत्तरीय ठव० (गु०) शचर देशवासी, ऊपर रछने को कपड़ा, दुपट्टा, उत्तर दिशा का। उत्तरोचर तद्‌० (यु०) [ उत्त + वत्तर | कत पे; पके के अनम्तर एक, भागे श्रांगें | उच्चान तन» (गु? ) [ उत्‌+तनने घन 4 भमुख, ऊर्द्धयूजे, चित्त ।--पात्र ( पृ० ) ताबा, रोटी सकने का बैन /--पाद ( छु० ) राजा विरोष, स्वायम्भुव मम्तु का पुत्र और छुव का पिता। +शय (9९ ) बहुद छोठा लड़का, चिंच सेने बाज्ना। [सम्ताप, उष्णुता, कष्ट, बेदवा, चोम | उच्ताप ठछ० (4० ) [ बव+ तप + घन ] तेज, गरसी, उच्ताल ठद्‌* ( गु० ) इकट, मददत, थे्ट, भयानऊ। च्वरित | [बहमान । उचिप्ठमान्‌ व्‌" ( गु० ) ए्यानशीछ, वद्चेनशील, उत्तोण उत्‌« (गु० ) [ बचत +हि ॥ पाए, पारइठ, मु, उप्बीत ! उतुन् (्‌ उतुड्ज॒ तत्‌* ( गु० ) उच्च, उध्चे, उन्नत, बहुत ऊँचा | उत्तू दे” (छु० ) चुनत, झुच्छांव, पत्ते, तड, घरी, औज़ार विशेष ]--करला ( क्वि० ) त्तद जमाया, चुनचा, पते लगाना, शिथिक्त करना | उत्यक्त तद्‌० (गरु०) वर्जित, परित्यक्त, छोड़ा हुआ । उत्तेजना वत्‌० (पु०) ग्रणा, बढ़ावा, वेगे। को तीत करने की क्रिया ! उत्तेज्ञित तत्‌० (यु०) [ ब्च्‌+ क | प्रेरित, घुनाः घुनः आदेशित, उत्तेजना से भरा हुआ । उत्तोत्लनव त्त्‌० ( पु० ) [ उत्‌ + छुलू + अनद | ऊध्चे नयन, ते।छना, ऊँचा करना, ताननाः । उत्थान तव्‌० ( छु० ) [ उत्‌ + स्था + झनद्‌ | उठान, आरम्भ, बढ़ती ।--पुकादृशी ( र्री० ) कार्तिक मास के शुक्षाक्ष 'कादुशी, उसी दिन शेपशायी ज्ञाग्रत छेते है, देवगठान पुछादशी । उत्थापन तल» (पु०) [ इ्त्‌ + म्था +" णिच्‌ + अनद्‌ ] उठाना, जगाना, दहिल्लाता, डुल्ठाना | डत्थित तत्त० ( शु० ) [ बच + स्था + क्त ] उत्पन्न, उठा हुआ '--ड्गुलि (स्त्री०) अंगुली फैछाया हुआ पंजा, थप्पड़ | [पद्ी का उढ़ना, ऊपर उठना । उत्पतन उत्‌« (घु०) [उत्‌+ पतन + अनद] उर्द्धभमच, उत्पति तद्‌० (खी०) देखे! रूपत्ति । इत्पतित (गु०) [ उच्च + पतत्‌+ क्त ] ऊपर गया हुआ ऊध्चे गन किया हुआ । उत्पत्ति तद्‌० (खत्री० ) [ डच्‌+ पत्‌ + क्ति ] जनन, जन्‍म, उद्भव, थादि |--शाली ( यु० ) जन्म विशिष्ट, जे! उत्पन्न द्वोता है । उत्पथ तव्‌० (ए०) कुमा्गे, कृमागेग्मच, सत्पषच्युत्त ५ उत्पन्न तद्‌० (यु०) [डव + पद + क्त] उल्त्ति विशिष्ट, जात, जन्मा हुआ । उत्पन्ना सत्‌० (ख्वी०) अगदन बदी एकादशी का नाम । उत्पत्न तव्‌" ( ० ) नीजकमल, नीलफ्झ, पद्ममल से डस्पन्न होनेवाज्ने पुष्प सातन्र |--पत्र (पु०) पद्मपत्र, स्ली-नखत्तत । उत्पादन तव्‌० (9०) सूल सद्दित उखाइना, ऊचम, खेोराई, शैतानी, बदुमाशी, उन्मूलन, जढ़ ले खेोदना ! उत्पात दवु० ( घु० ) [ उत्त्‌ न पद्‌ न- घन | उपद्वद, जी दौएाव्स्य, दुषता, बियाड़, दानि, अन्धेर ।--अस्तः (ग्रु०) उपद्रव चुक्त । डत्पाती ( थु० ) उत्पात्त करने बाला, उपद्रवी ] उत्पादक ( शु० ) [ ब्यू+पदू +णक] जनक, उत्पत्ति कर्ता, पैदा करने वाला उत्पादन तत्त्‌० ( छु० ) [ बस + पदू + खिच + अनदू ] जनन, उत्पन्न करना, जन्माना, उपजाना । डत्पादिका ठद्‌० (द्री०) [उत्‌+ पद + इक्‌+ आ] जननी, उत्पादन कारिणी, माता, प्रति पदुर्थ में एक प्रकार की शक्ति जिसे उत्पादिका शक्ति कहते हैं । उत्पीड़न तत्‌० (छु०) कोश पहुँचाना; दुवाना ' उत्मेक्ञा तव्‌० (स्त्री०) [ उत्‌ + प्र + इच्_--भआा ] अन- बधान, सादश्य भ्जुमानर; अपेक्षा, उपमा, छील, अर्था छड्डूधर विशेष, अतिशय साध्श्य द्वोने के कारण इपभषान यत गुण क्रिया आदि की उपसेय में सम्भावना | उत्सवत्र चत्‌० ( छ० ) [ उद्‌+ छू, + अनद्‌ ] ऋुदना, ज्ांधना, कांफ मारना । डत्फाल तत्‌० (घु०) बांधना, कुदुना, छांफ मारना । डत्फुल्ल तव॒० (गु०) [िव्‌ + फुल + क्र] प्रफुछ। विक- सित, आनन्दित, फूला हुआ । उत्सडर तव॒० (१०) [डिव्‌+ सञ्ञ_+अछू] क्रोढ़, भन्न, कोल्ला, गोदी, बीच का हिस्खा, ऊपर का भाग, (बि०) विरक्त, निलिसत |... [इत्थित, इत्पतित | उत्सन्न तत्‌० ( गु० ) [ बत्‌ + सदू +- क्त ] इत, नष्ट, उत्सग तत्‌० (ए०) [बत्‌ + सूज + भल | त्याग, दान, विश्जंत ।--पत्र (9०) दास पत्र, काय-ह्यागपत्र । उत्खजन तक (पु०) [ डच्‌+स्ज्‌ + अनटू ] जत्खगें, त्याग, छोड़ना, दान, वितर ग, चेदिक कर विशेष जे। वर्ष में दे! वार यानी एक बार पूछ में और दूखरी बार आवयण में देता है । उत्सव तत्‌० (पु०) [उक्‌+सु + धलु] उच्छघ, प्रसन्नता का प्रकाश, आनन्द, इछाह, यज्ञ, पूजा, श्रचों आदि /-जनक (गु०) भ्राज्दाद्‌ जनक, प्रमोद जनक, आनन्दकारी । डत्सारक ततच्‌० (घु०) द्वारपाल, चोाषदार डत्सादून तव० (१०) [ बच +सद्‌ + णिच्‌ + झनट | उच्छेद्‌ करण,-विनाश, दिन्न सिल्र करना । डत्सादून उब्सादित ५ ध्२ ) उद्रिणो इत्सादित तब" ( गु* ) [ ब्व+ सदु +खिच्‌+क्त ] विनाशित, छिल्न भिन्न कृत, निर्मज्ञी कृत शरीर । इत्सारण तत्‌5 ( छु० ) [ बयू> + सु + उनद ] दूरी करण, दूसरे स्थान में मेडना उत्साह तत्‌० (पु०) [उत+ सद _+# घज्‌] अध्यवध्ताय, उद्योग, उच्चस, वीर रप्त का स्थायी भ्राव, उमंग उदाईइ, साइस --वर्दधेन (पु०) बच्मद्रद्धि, उच्च- साथिक्य ।--शीज्ष ( ग़रु० ) उद्योगी, डघम। - [स्थित (गु") उत्साह युक्त, उद्यमी । उत्सादित तत्‌० ((०) इत्साइशाजी, प्राप्तोत्पाद । उत्साद्दी तत्‌* (गु०) [उत्‌ + पद _+खणिव्‌] व्यमयुक्त, डद्योगी, हासिले बाला । उत्सुक तत्‌० (गु०) [उ३+ छु+ कन््‌] मनारप सिद्धि हे लिये इस्कष्ठित, अत्यन्त इच्चुक ।--ता ततु* (स्री०) चाकुल इच्छा इत्सूर तत० (पु) सन्ध्या काठ, शाम । उत्सुए्ट तत्‌« (वि०) थागा हुआ। उत्सेध तत्‌० (वि०) बढ़ती, इश्षति, ऊँचाई, सूजन | उथधलना दे० (कै०) पढद देना, औैघना, तले ऊपर करना | िंर, भीचे ऊपर, क्रममद्ठ । उथज पुथज्ञ दे० (पु०) बढर पुक्ठट, विपरीत, दघर का डथला दे* (गु०) छिछका, कम राहत । जद तनू्‌० (अ्रष्य०) सेस्‍्कृत का इपसग | डद॒क तत्‌० ( पु ) जछ, सबि>, पानी ।--क्रिया (्‌ 484 ) रत मनुष्य का टट्ष्य करके जल देना, जब्अतपण फ्रिया। [(स्री०) उदाचछ की घाटी। डद्घादी तद्‌० (%०) खोली, उधारी, प्रकाश की, डदृध्ि तवु« (३०) समुद्र, जरथि, सागर, घढ़ा, सेघ । -मेसला (स्त्री०) पृथ्वी, भूमि ॥--छुत ठव्‌* (ए०) चल्दमा।, अमृत, शक्ष आदि जो समुद से उगपन्न दा 4--छुता तद* (स्त्री०) जहमी, सीप । उद्न्त दत्‌5 (गु०) बिना दुर्तिं वाला वेापा, तुण्ड | उद्न्पान्‌ तर» (पु०) सम॒द्, पयोधि, वारिनिधि। उद्पान तत्‌० ( धु० ) हुए है समीप का गड़ढ़ा, कमपडलु। हर उद्वैग तद्‌० (५०) [ देखे उद्देग ॥॥। उद्भव तदु* (पु७) [देखे उद्मब] [(वि०) बगल । उदमाद तदु (5०) परागच्रपन, उन्साद -॑ीो ठद्‌* उदय तत्‌" ( ० ) समुब्नति, दीक्षि, मठ, प्राची, घनलाम, उइस्पत्ति, भ्रादुर्माव, बपज, अच्चति |-- काल (एु०) प्रमातकाढ, सर्प विशेष |--गिरि (पु०) डद्याचल, पूर्व का एक पर्चत, जिस पर प्रधम सूर्य उगते हैं। उदयन तत्‌० (पु०) प्रकाश दाना उर््ध गन, श्रगस्‍्त सुनि, वत्सराज, शतानीक के पुत्र इनकी राज- भानी प्रयाग के पाप्त कशास्धी थी, वासवत्ता इनकी रानी का नाम था, पत्सरान और इदयन देना नाम छे ये प्रसिद्ध हैं| विय्यात दानिशनिक पण्दित उदयनाचार्य द्वादश शतादी मे मध्यमाय में मिथिला में उश्पन्न हुए थे। कहते हैं. कि वोद्धों का भाश करने के लिये भगवान्‌ मिपिा में बद़यनाचार्य रूप छे प्रश्ट हुए थे। प्रसिद्ध दाशंनिकऋ प्न्य कुसुमाअति इन्दींका बनाथा है। इसझे अतिरिक्त वाचस्पति मिश्र के बनाये स्यायशास्त के कितने प्रल्थो की टीका भी इन्होने की है। इनकी कन्या लीलावती, उस समय विह्यात पिडिता थी । रे डद्याचल तत्‌० (०) उृदयगिरि, पूर्व स्वेत, पुराणों हे मत के अनुभार पूर्व दिशा का पुक पर्वत जा से सूर्य सगवान्‌ निऊलते हैं | डद॒यातिथि तत्‌* (स्त्री ०) पद तिथि जो सूर्योदय काछ में दवा (शास्त्राजुसार स्नान दान अध्ययनादि कमे डद॒यातिपि ही में होना उचित है) । उद्याद्वि तत्‌० (प०) उद्याचल, उद्यगिरि | उदयारूत तव्‌० (पु०) प्रभाव से सन्ध्या पर्यश्त, इद॒य से भरस्त ले, पूरे से पश्चिम तक | उद्र तव्‌ ० (पु०) पेट, जदर ।--5प्राल्ा (स्त्री ०) सूख, जठराग्नि ।--भन्ञ (गु०) श्रविद्वार, पेट की छुटाई । “--म्मरि (१०) पेटावों, पेह |--रुस (प०) गदर" स्थित पाचक रस --रोग (५०) जररव्याथि विशेष, पेड की प्रीह़ा |-छद्धि (छो०) जलादर रोग, जरूघर । -सर्वेस्प (गु०) दरप्टाबण, पेद -- ग्रे (गुल) जठरावठ, पछाने की शक्ति |--बते (इ०) भासी (“मय (प०) उदरटेस, पेट की पीड़ा, उद्दरभक्न, भतिसार ! इद्सिएी तदू० (स्त्रो०) गर्मियी, द्विजीवा, दुरस्था । ड्द्री (8३ डद्‌री तच्‌० (गु०) उदरिण, इद्रिल, तोंदीढा, थोंद चाल्या | डद्वत दे० (क्रिब) निकछना, दयनाव # उद्चत शशि नियशइ, सिन्धु प्रतीची बीच ज्यों | ? + ग्रुमान कवि | उद्वना (क्रि०) प्रकट द्वोना, उगना, निकलना । डउद्वेग ददू० (५०) [देखे उह्ेग] । उद्भव तद्‌० (पु०) [देखे डद्भव] । [द्वौना । उदसन दें५ (क्रि०) श्रेडवंड हे।ना, उजड़ना, क्रम भजन उदास तत० (पु०) खरचिशेष, देदगान में उैच्चस्वर, काच्याल्नड्गूगर विशेष, नायक विशेष, (गु०) खरित, दया त्याग आदि गुण सम्पन्न, सनाहर, महान, दाता, श्रेष्ठ, योग्य । पि डदांता तत्‌० (छु०) दाता, दुमनशीक, उदार | उदान तद्‌० (पु०) कण्ठस्थवायु, प्राणवादु, डद्रावते, नाभि सपंचिश्षेष । उद्धार तत्‌० (यु) [ उद्‌ + आ+ ऋष + अय |] दावा; महत्‌, सरक, महात्मा |--चरित (गु०) शीलयुक्त, ऊच्च विचार सम्पन्न >>ता (ख्री० ) सरलता, दानशीरूता, वदान्यता ।-त्व (४७०) दा्तृत्व, द्वानशीछता +7+शंय तत्‌ ( गु० ) महात्मा, डदार श्राशय वाढा | डद्ारता (क्रि०) चीरना, फाइमा । डदास तव्‌० (पु०)[ उ्व्‌+ आलू + अल | एकाल्ती, विरक्त, खिन्न चित्त, निरपेच्, छुःखी, सर्वेस्व॒ त्यागी, सुस्त, रंजीदा, व्यप्नचित् | - ना चिंच “व छूगदा । डद्वासी तव्‌० (9०) चैरागी, पुकान्ववापी, त्यागी पुरुष, एुक सम्प्रदाय के साधु |--वाज़्ा दे० (पु०) पक प्रकार का मापा बाजा । उद्यासीन सत्‌० (१०) निःसड्र, शत्रु मित्र को सलमान देखने घालछा, तब्ख्य, उ्पेक्त।युत, समता रहित, बासता शून्य, विरह, संन्‍्यासी, समदर्शी |+-ता तंच्‌० (सख्त्री०) विरक्ति, त्ाग, निरपेता, खिन्नता । डदाहर तदु० (खत्री०) घुंधला रह, सूरा । डदाहरण तद्‌० (१०) इ्ष्टान्त, निदर्शन, उपसा । उद्राह्गनत वव्‌» (गु० )[ डत्‌+ आ+ ह+क्त ] इछान्त दिया हुआ, उत्प्रेक्षित, उक्त, कथित ! डद्ति वत्‌० ( गु० ) [ पद + हक क्त ] इदुणत, प्रकरा- | उद्दाम शित, चआावियूत, प्रकट, अफुछित, कहा हुआ ॥-- चैवना तद्‌० (ख्री०) मुग्ध सायिका के सात भेदें में से एक । [दिशा । उदीची तद्‌« (स्त्री० ) [ उ्वू+अश्लुऊई ] उत्तर उदीच्य तव्‌० (पु०) शरावती नदी के पश्चिमाचतर देश, उत्तर दिशा का रहने वाला । [उच्चारण, वाक्य | डद्दीरण ठत्‌० ( ए० ) [ बच न- ईर्‌ + झनटू | कथन, डद्दीरित तत्‌० (गु०) ब्चारित, उक्त, कबिय । उड्म्बर तव० (पु०) गूहूर, दूमर । डदूखल तल» (पु०) इलूखल, ओखली, यूगन्ठ । उद्॒गत्त तत्‌० (गु०) ऊब्चेंगत, उदित, उत्पित, बथचित । उद्यम तत्‌० (पु०) ज्दुय, आविर्भाव, निक्ास । डदगमन तब्‌० (एु०) ऊर्ध्धशसन, ऊपर जाना । डदुगाता दत० (पु०) सामवेदज्ष, सामवेदवेत्ता ग्राह्मण, स्ामवेद-गायके | डदूगाथा चद्‌» (स्त्री०) श्रार्या इन्द का एक भेद जिस के विषप्त पादों में ५९ और सम में १८ मात्राएँ होती हैं औ।र जिलठे विषम गणों में जगण भहीं द्वोदा है । डद्गार तत्‌० ( पु० ) डकार, बसन, ओोकाई, कण्ठ- डफान, गजेन, बाढ़, घत्वरादट, बहुत दिनों से मन में रखी किसी रे विरुद्ध कोई बात का निकाझना, कसी की गुप्त क्ातों का प्रकट करना। डदृगीत तत्‌» (शु० ) ऊँचे स्वर से गाया हुआ, छुन्द विशेष । [झेझ्भार, छामवेद । उद्गीथ तत्‌० (पु५) सामवेद का अंश विशेष, प्रणव, डद्घाद तद्‌० (पु०) चौकी जहाँ किसी ग़ाज्य की ओर घे मार के खे।छ कर उसकी जाँच की जाय ॥ उदुघाइन वद्‌० (पु) उ्धाइना, प्रक्राशित करना, कुएं से जल निकडने के किये रज्जूसद्विन घट । डद्बात तव« (यु०) आारम्म, उपक्रम, पक्का, ठझेकर, आधात ॥ उद्दण्ड तद्‌० (यु०) अकक्‍्खड़, निडर, उजहू । उद्दंश तद्‌० (पु०) मसा, मशऊ, डरति, मच्छर । उद्दन्त तद्‌5 ( ग्रु० ) दृहइस्त दंतुढ, आगे निरूका डुश्ा दति, चढ़देन्ता । विकहा । डद्दाम तद्‌० (गु०) निरहुश, स्वतेत, महान, गस्मीर, उद्दालक (६४ रे... लीलनस अेणदझ- न धसस अर स/डबडध सजसइइइइचचहडफ - ड ड:क्‍8:-ंक्‍-मयमउँउहऔ8७ डद्दालक तत्‌० (पु०) प्राचीन श्रायं ऋषि, इनका प्रकृत नागर भरारुणि है, इनह गुरु »येदथीम्य स इनका इद्दाक्क नाम रक्‍खा | रवेवफेतु इन्हीं के पुत्र थे ! ब्त विशेष । उद्दिम तद्‌० (पु०) उद्यम, वच्चोग उद्दिष्ट तत्‌० (गु० ) कृत उद्देश, छक्तित, दिसलद्ञाया हुमा, सम्मत, श्रमिश्रत, सनस्थ [न वादा । उद्दीपक्क॒ तत्‌० ( गु० ) प्रकाशकर्त्तां, व्यकधरी, उसा- उद्दीपन तत्‌० (पु०) प्रकाशन, तापन, रखो का विभाव विशेष, उभाइना, बढाना | उद्देश तत्‌० (१०) अनुमन्धान, श्रन्व॒प व, अभिप्राय, नाम निर्देशपूर्वऊ, वस्तु निरूयण, इष, मतलब, हेतु, हारण, न्याय में प्रतिज्ञा ! उद्देश्य तत्‌० (गु०) खक्षप, इष्ट, प्रयोजन । उद्दोंत तत्‌० (पु०) प्रकाश + उद्धव तब» ( गु० ) ए४, भ्विनीत, दु(न्‍्त, कुवाली, अभिमानी, मछ ।--पत (9०) उज्नडू पते, उम्रता । उद्धरश धत्‌* (पु०) बद्धार, मुक्ति, त्राण, फंसे हुए के निश्चालना, ऊपर उठाना, पढ़े पाठ के अम्या साथ घुन पाठ काना, किसी पुस्तर या लेस के अश विशेष को दूसरी पुस्तक या लेख में अविकत्न नक्कल्न कर देना | -ो (स््री०) आदत्ति। डद्धय तव्‌० (पु०) ध्रीकृष्ण का मित्र और मक्त, उत्सव, आमेद, प्रमे।द्‌, यज्ञाप्रि । [सेाचन । उद्धार तव्‌० (पु०) बचाव, छूटकारा, मुक्ति, रचय, उद्धृत सव्‌० (गु०) उद्धारित, रद्धित, किसी पुस्तक या खेख के शरशा विशेष को दूसरे लेख या पुस्तक में ज्यों का तो नकुछ कर देना । उद्धन्घन तब ( घु० ) [ उत्‌ + वन्‍्ध + भवद, ] ऊरर बाधना, गन्ने में रस्सी छगाना, फाँसी टौगन खत (गु०) गले में रस्सी ढाल कर मरा हुआ, फांसी पाया हुआ | उद्दाह तब (घु०) [ उत्‌्+घढ़_+ परत ] विवाइ परिणय, दारक्रिया ॥-पयुक्त (गु० ) दिवाइ उपयुक्त, परिणय येग्य, वयस्क । उद्बोधन तव॒* ( पु० ) [ वर +बुघ्‌ +- चनट ] स्मरण, देत, ज्ञापन, ज्ञान, जगाना। उद्भूठ तव्‌6 ( घु+ ) भज्ञात माम कवि के बनाये हुए ञ ) ड्द्र हो४, प्रवक्त, वदाह, मद्रात्मा, बेजेड, श्नुप्त बीर | ल़िदुभांव, पैदाइश । उद्भव वव्‌० (पु०) [ उत्‌ + मू + अ्रछ ] उरपति, जन्म, उद्भावना तव॒० (५०) [ उब्‌+ भू + भ्रनटू ] कढपना, प्रकाश | [प्रदीघत, जो प्रकाशित हो प्रकट । उद्भासित तव॒० (गु०) [ उत + मास्‌ +क्त | उद्दीपित, उद्धिडा तद० (यु०) बृक्चलता झ्रादि, जे। भूमि फेद कर निरूटते हैं ।--ज (गु०) सूमिमेदन, पूर्वक इप्पत्तिशीढ । डह्लिंद्‌ तब॒० ( गु० ) [ इत्‌+ मिद्‌ + क्विप्‌ ] हे रित या प्रफुल्ित द्वाना, इचचछ॒वा भ्रादि ।>पिद्या (ख्वी०) बृच्च श्रादि रोपये की विद्या, साल्ली का काम | [फेड़ा हुआ, धत्पन्न । उद्धिन्न तत्‌० (गु०) [डित्‌ + मिद्र + क्त] भेदित, विद्ध, उद्मूत तत्‌० (यु०) [डव्‌ + मू+ फ्त] उत्पन्न, निकला हुआ ।--रूप ( ६० ) दृष्टिगोचर होने येग्य रूप । उदृम्रान्‍्त॒ तवब्‌० ( वि० ) आान्तियुक्त, झूठा हुआ, भदका हुआ, घूमता हुआ, मौचक्ा, चकित । उद्यत तब्‌० (गु०) [ बद्‌ + यम्र्‌ + क्त ] त/पर, अच्तुत, उतारू, मुश्तेद | उद्यम तबु० (६० ) [ ब्व+पम+ अल | द्योग, डत्पाद, अ्रष्यकक्ताय, प्रेष्टा, यत्र, कामधन्धा, रोजगार [--ी ( गु० ) उच्योगी, उस्सादी, सतर्क, उद्यम करने वाला । उद्यान तद्‌० ( पु०) [ बदुकया अबदू ] क्रीडावन, डप्वन, बगीचा, भ्रारम पाल ( ४० ) उद्यान रक्षक, माली, वागशन | [समापत क्रिया विशेष । डद्यापन तब्‌० ( प० ) [ उद्‌+या +णिच्‌+ भनदू | उद्युक्ष तव० ( गु० ) [ बव्‌+युन्‌ + क्त ] बचमथुक, उद्योगविशिष्ठ, डत्साद्दान्वित, यबयानू, छगा डुश्रा, परिध्रसी । उद्योग तद्‌० ( पु० ) [ उक+युज्‌ + घन ] यक्ष, चेष्टा डस्साइ, अ्रष्यवसाय, डचम, प्रयाध, आयेजजन, डप(य ।--ी ( गु० ) उद्योग विशिष्ट, यत्तवानू, उद्युक्त, उत्घाड़ी उद्यम करने चाल्या। उद्योत तत्‌* ( पु० ) प्रकाश, चमक, आमा, मछक, झालेाक, उजियाला | उद्र्‌ वत्‌० ( घु० ) ज्दबिल्ञाद, जल की विली | ड्द्व्कि ॒ उद्विक्त तच० (गु० ) स्फुट, स्पष्ट, व्यक्त परिवरृदध, चढ़ा हुआ । [इल्थान, अक्काश । उद्गेक चत्‌० ( घु० ) उपक्रम, आरम्भ, बुद्धि, बढ़ती, उद्विग्न तवू० ( ग्रु० ) [ उत्‌+ दिजू +'क् ] उद्देगयुक्त+ घबड़ाया छुश्ला, व्यग्न ।--ता तत* (ली०) शबड्ाइट, व्यप्नता ।+-मत्रा ( शु० ) उद्धिन्न चित्त, घबड़ाया हुआ उद्धेंग तव॒० ( छु० ) ब्याकृषवा, मनाचेग, चिन्ता, घच- राहट, चिरहजन्य हुःछ +-कर ( ग़ु० ) चिन्ता ज्ञनक, ब्याकुछता वहुंक |-नी ( ग़ु० ) उद्दिम्म, इत्कण्वित, भावनायुक्ता, चिन्तान्वित, घबड़ाया हु भा । उधर तदू० ( अर० ) वर्दा, उस व, उस कौर । डघरा तदू ० ( शु० ) खुला, सुक्त, छटा ! डरे दे० ( गु० ) अक्राशित, फद, खुले हुए । उदार तदु" ( एु ) कज़ें, देना, ऋण । डघारना तदू० ( क्रि० ) मुक्ति देनग, छुटकारा ऊरना, पार करना, बचाना, तारता। डथेडूना तदू० ( क्रि० ) पत्तों का अलगावा, का खेछना, सिल्लाई खेलना, सुल माना, खोलना । उधेड़बुन तदृ० ( घु० ) ऊद्दापोद्, सेचविचार । डन ( सर्ब० ) उस का बहुबचन | डनइस ( स्वी० ) संख्या विशेष, ३६ । उनवाख ( घ० ) संख्या विशेष, ४६ । डनसीस संख्या विशेष, २६ डनस्ठ संख्या विशेष, €६ डनहत्तर संख्या विशेष, १६ । उनहार दे० ( बि० ) लद्श, समान । उनासी संख्या विशेष, ७६ | उनीद ( स्वी० ) कच्ची नींद, अधूरी लिद्वा । ड्लींदा दे० (यु०) नींद से मरा हुश्ला, ऊँघता हुआ । उन्नत तब॒० (गशु० ) [ डत्‌+नम्र +क्त ] बद्धित, बच्च, उसुद्र, ऊँचा; श्रेष्त नाभि ( गु० ) उच्च नाभियुक्त +-नत ( श॒ु० ) उच्चनीच स्थान आदि, ऊमड़खाभड़ । उन्नति तद्‌० ( स्ी० ) [ उत्‌ + नम्र+क्ति ] सब, बुद्धि, अच्चता, बढ़ती; डदय, यरुड़ भार्या : उन्नमित त्व्‌* ( घु० ) [िव्‌+ नम +क्त] उच्ोलित, ऊपर उठाया यया, ऊर्ध्वोक्तत । 8५ ) उन्नयन तत्‌० ( गु० ) इष्वेशायण, उच्तोलन, ऊपर ले जावा ! उन्निद्र तत्‌० ( गु० ) अफुछ, विकसित, अकाशित, निद्धा रहित । उन्पत्त ततर्‌० ( गु० ) [बत््‌ + सद्‌ + क्त | उन्मावयुक्त, वादु के द्वारा चित्त विश्वमी, बरदा, पायकछ, मतचाला | उन्मद्‌ तत्‌० ( यु» ) [ उत्‌ + सदू + अल, ] उन्माद- युक्त, श्रसादी, सिंद्री, उन्मत्त । डम्मना तदू० (गु० ) [ उत्त्‌ +मनस ] इउत्कण्डित चित्त, चिन्वित, व्याकुछ, चब्चुढ् । उस्माद्‌ तव॒० ( घु० ) पागक्षपन, चित्तविमश्नम “हो (० ) इ्मादरोगबुक्त, विदधिस |--कैच ( ० ) बाओओ ग्रस्त, पामछ [ उन्मान तत्‌० (छ०) परिणाण, बैल, नाप । उन्मिषित तब्‌* (शु० ) [ उ्‌+मि_+क्त ] प्रफुछ, विकसित, फ़ूका हुआ, खुला हुआ । उन्मोत्तन तव्‌० (१०) उन्मेप, प्रक्ाश, परखि खेलना । उच्मीलित तत्‌० ( गु० ) प्रश्कुदित, खुल्य हुआ । उन्पुख ठच्‌5 ( ४० ) ऊर्ध्वछुख, ऊपर झुँह किये हुए, उत्कण्ठित, उत्सुक । [दिन बाढा ) उन्मूलक चत्‌० ( गु० ) उन्सूज्ननकारी, समूक उखाड़ उन्मूलन तव्‌० ( छ० ) [उव्‌+ सूलच + अमदू] उत्पा- टन उखाड़ना, ऊपर खींवना, सदियामेठ करना | उश्मेप तत्‌० ( छु० ) नयन उन्मीलन, विक्राश | प्रकाश, ज्ञान, डुद्धि, पलक । डल्मेचन तत्‌० (पु०) परितद्याग करना, सुक्त करय । उन्दारा तब" ( ए० ) डील डाल, रूप ) उप तत्‌० (उपलग) उपलग विशेष ! जिसमें यद लगती है, इनमें समीपता, सामव्यं, भौयता, था न्यूनता येघर अर्थ का बोध होता है [--फंणठ ( ग॒* ) निकट, समीप, ( छु० ) आम के समीप) अभ्यों की गठि विशेष +-कथा (ख्त्री" ) श्रास्या- बिका, इतिहाल, पुराण, कहानी, कक्पित कथा। --झरण ( शु० ) साभगी, परिच्छेद, राजाओं का छुत्र चासर श्रादि, भोजन के लिये ब्यज्षन आदि, नैचेच पुष्प घृष आदि पूजा के लिये सामझी, अप्रधान द्वब्य, साधक वस्तु, साममी | ड्प (्‌ उप कार ..0#...................््++++त+++त__++++++_+++++ डपकरार तर" (६९ ) [ डा+कृ+घत्‌ ] भछाई, हित, नेक्ी, सलूक '“-क (गु) उपकारी, आजु- _ क्ूक्यकारी, सद्दाय प्रदाता, कृपावत्त । इपकारिका तद्‌» ( वि० ) [ उप्‌+ कं+इक्‌+आ ] बपकार करने वाली ( ख्री> ) राजभवन, तंवू । उपकारी तदु० (वि०) उयकार काने बाला । उपकार विशिष्ट उपकारक, नेड्की कने चारा, सद्ायक, भा कराने घाला । [दाता । उपकारेन्छु तत्‌० (गु०) उपकार कप्ने का अ्सिढापी, उपकार्य तत्‌ ( ग्रु० ) [उए+ हू +ध्वण] उपऊारो- चित्त, भिसरा उपकार झिया ज्ञाय “न ( ख्री० ) राजसदन, राजसृद, अच्व रखने का स्थान, गोक्ता । बपऊुर्राण तव० ( पु० ) कुछ दिन छे लिये ब्रह्मवारी, विद्याध्ययनाथ ब्रद्मचारी, भह्मचये सम्राप्त कस्‍्ने के अनन्तर जो गृदस्थ देते हैं । उपक्ूप तत्‌० ( पु० ) छूप के समीप का जछाशय, जे! पशुओ के जल पीने के लिये बनाया जाता है । डपऊृल तत्‌० ( पु० ) नदी ताछाब भ्रादि का तीर | उपझृत ठद्‌० ( गु० ) झृतेपकार, जिधकी सहायता की गई है। [ इचोग, झाचकृति, प्रथम आरम्म । उपक्रम तत्‌ ( ५ ) [ इप+क्रम+ अल ] आरम्म, उपक्राग्त तव्‌० (गु5) समार8ठउ, अजुप्ठित, छृत प्रारम्भ, आरम्भ किया दुश्ना, प्रस्तुत । उपक्रोश तव॒० ( ४० ) [ उप+ छुंश + अल ] निन्‍दा, कुस्सा, मत्सेना, यहंण । उपसान तदु० ( पु ) कथा, इतिहास, इप्ास्याज ! डपगत तत्‌० (गु० ) [ इर्+गम्‌+क्त ] प्राप्त * भद्टीकृत, स्वीकृत [ निकट शमन । उपगमन तत्‌० (पु०) आगमन, ये।ग, प्रीति, अद्जीकार, उपगुद्ध तत्‌* ( पु ) छोटा अध्यापक, अश्रप्रघान गुरु, अपदेशक, शिद्ागुरु | शिंझवार, मेंद । उपगृहन त्तत्‌» (पु०) [उप्+ मूह + भनदू] आलिद्न, उपग्रह तत्‌० ( पु० ) देघुचा, कंदी, भद विशेष, अप्र- घान ग्रद | [ आघात | उपधात तत* (पु०) [इप+ इन्‌ + घन] रेशग, पीड़ा, डपड्डू तद्‌० ( पु० ) बाजा, घाधविरोष । उपचय तद० (ए०) [ दप+ वि+ अल] बृद्धि, उच्चति आपधिक्य, बढती ध्ई ) उपदृंश उपचरित तव्‌० ( पु० ) [ उप +चद्‌ + क्त ] उपासित, घेवित, भाराधित, लक्षण से जाना हुआ । उपचर्या तत्‌० (स्री०) [उप + चर्‌ + क्यप्‌ | चिकित्सा, रोगो का डपशम, प्रतिकार, शुध्रपा | उपचार ठव्‌* (पु० ) [ उप+चर्‌ +घन्र ] उपाय, सेवा, रोयो की चिकित्सा, उपकागा, शुश्रपा, उपक्रम, व्यवद्वार, उत्छोच, घूस नी ततू० ( गु० ) उपचार करने घाला, चिकित्सा करने बाला । [सिद्धित, इकट्ठा । डपचित तव्‌% (गु०) [उप+ चि+क्त] सम्दद, वरद्धित, उपज्ञ तदू० (घु० ) सूक, स्कूति, फुरन, उत्पत्ति, पैदावार । डपजञ्ञत तन्‌० ( पु- ) उपासित, घटित, उत्पन्न । उपजना तदू* (क्रि० ) उगना, बढ़ना, भद्दुर द्वोना, उत्पन्न दाना । उपजह्दि (क्रि०) उपजते हैं, उत्पन्न द्वोते हैं, जन्मते हैं । डपञ्ञाऊ तद्‌० ( गु० ) उपजतनेद्वारा, उर्बर, जरसेज । अपजाना तद॒० ( क्रि० ) ध्लान्न करना, सिरजना | उपजाये ( क्रि० ) पैदा किये, निकाले, इत्पन्न किपे । उपन्वित तद॒० ( गु० ) उत्पन्न हुआ, उपया। उपज्िद्या तद्‌* (ख्री० ) छ्षुद्रा जिद्धा, छोटी जीम | डउपञ्लीयिका तव्‌० ( ख्री० ) जीविका, शृत्ति, शीचनेा- पाय, श्चलस्य | [दूसरे के सदारे रहने बाला | डपश्ञीवी तब्‌० ( गु० ) श्रवलम्वी, श्राभयी, अनुयत, डपत्ञा तद्‌० ( खी«* ) शआ्राद्य ज्ञान, प्रधम ज्ञान, उपदेश के विनय ईश्वादच प्रपस कान ! उपटन ( घु5 ) इबटन । उपदना । डपडना तदु० ( ० ) आधात, निशान पढ़ना, डपड़ना तद्‌» ( क्रि० ) इसइना, उपठना । डपरोौकन तत० ( इ० ) [उप + ढौकू + अन॒दू] पारि- तोपि द्वब्य, उपद्वार, सेंट । उपठन्त्र तत्‌* ( धु० ) [ उप +सम्त्र ] यामट आदि तम्त्रशाध्ष, चूम सूत्र [हु पित, सेदित । उपतप्त तच० (गु० ) [ इप्‌ू+तप्‌+क्त ] सम्तापित, उपतारा तव॒» ( स्त्री० ) छद्ध नक्षत्र, नेत्रगोझक । डपत्यका तत्‌७ ( ख्री० ) पर्वेतों के समीप की सूमि, त्तराई। [रोग, मद्यपान, स्पदंश । उपदुश ठत्‌० (पु०) यर्मी सुजाक, सेग विशेष, मेद » उपदिशा तत्‌० ( ख्री० ) कोण, दे दिशाओं के बीच ( डपदृत्त तत्‌० (पु०) सुकृछ, पत्ता, पाच, पुष्प दुछ, फूल की पत्ती । उपदर्शक तच्‌० (पु०) द्वारपाल, प्रहरी । उपदा तत्‌० (खी०) उपढौकस, सेंट, उपायन, दर्शन । उपद्ल | की दिशा । [झत्तापदेश, ज्लापित । डपदिए तव्‌5 (ग्रु०) [ उप + विश-+-क्त | उपदेश प्राप्त उपदेवता तत्‌० (छु०) भूत, प्रेत, छोटे देवता विशेष । उपदेश तत्‌» (छ०) [ उप + दिश्‌+ अल ] शिक्षा, संत्रदान, दीक्षा, हित कथन, सीख, सिखावन, नखीहत ।--कारी ( घ० ) उपदेशकर्ता, डपदेश करमेबाल्ञा, उपदेष्टा, शिक्षक । दिला । उपदेशक तत्‌० (पु०) उपदेश देनेवाला, नसीहत देने डपदेश्य तव्‌० (यु०) [ उप+व्श्‌+य _ उपदेशब्य, अपदेश ये।ग, उपदेश के अधिकारी । उपदेश तव॒« (४०) [ उप + दिश्‌ + छुणू ] उपदेश- कर्ता, श्राचार्य, शिक्षक, शिक्षागुरु । उपद्रच तत्‌० (०) उत्पात, अन्याथ, बखेडा, उपाधि, ऊधम, अन्धेर, विद्भोह ।--ी (सु०) डपहव छरने घाज्षा, बस्लेढ़िया | जिलमध्यवर्तों स्थान । उपद्वीप तत्० ( घु० ) छोटा दीप, जलत्यक्त स्थान, उपध्र्म तत्‌० ( छु० ) पाखफ्ड, पाप, नास्तिकता । उपधातु (स्ली०) अप्रधान धाठ्ु ठृतिया, सतना मबखी, कासा आदि | शरीर के अंदर रस से बने पसीना, : चर्बी आदि | उपधान तद्‌० (पु०) [ उफ+ था + अ्नट्‌ _] तकिया, उसीसा, सिरहाना । उपधायक तत्‌० (यु०) [ उप+भबा+ णक्‌ | जन्मा- दाता, स्थापनकर्तता । हे उपधि तव॒० ( घ० ) [ उप + घा + कि ] कपटठ, छुछ, जान बृूकझ कर और का और कहना । उपचत तत्‌० ( गु० ) [ उप+ नस +क्त ] उपस्थित, प्राप्त, सम्नीप, श्रानीत । उपनय तत्‌० ( पु० ) [ उप+ नी + अल ] समीप ले जाना, उपनयन, ग्रुह्मोक्त विधान के अनुसार, च्रेदाभ्यास के लिये बालक को गुरु के समीप ले जाना, न्यास का पुक पारिसापिक शब्द, ( ब्याप्ति विशिष्ट देतु में पछणतधर्मों का प्रतिपादक चाक्य । ) ) उपपादन ननििि-ततत_त_तहतनमतत___________तत अ..........0तह#त#ह#ह8हतहमत उपनयन तत्त्‌ू० ( घु० ) [ उप +नी + अनटू | ब्िवर्ण का यज्ञसूत्र धारण संस्कार, उपबीत संस्क्षार । उपनाम तद्‌० ( छ० ) पदवी, पद्धति, उपाधि, श्रकत, अटक स्थापित द्न्प । उपनिधि तद्‌० ( ४० ) थाती, घरोहर, म्यस्त वस्तु, डपनिचेश तत्‌० (घु०) एक स्थान ले दूसरे स्थान पर ज्ञा बसना, थन्य स्थान से आकर वसने वाले की बम्ती, काकानी उपनिषद्‌ तत्‌० ( ख्री० ) [ उप+ नि + पदू + क्विपू ] धर्म, वेदान्त-शाख, निजेतर स्थान, तत्व ज्ञान, चेद का शिरोमाग, भ्ह्मविद्या, वेद्रहस्य | डपनिपध्य तत्‌० ( ख्री० ) देखेः उपनिषद्‌ । डपनीत ततद्‌० (पु० ) झृतेपनयन ( शु० ) बिकट प्राप्त, उपस्थित, समीपागल, उपबीती । उपनेता तद्‌० (४०) [9प+ नी + दण ] आनयनकारी, डपस्थापक, लानेवाक्षा, गुरु, आचायें । डपनेत्र तत्‌० ( ५० ) चश्मा, नेन्नों का सहायक । डपन्ना दे० (४० ) उपरना, ओड़ने का दुपट्टा | उपन्यस्त तत्‌ु० ( गु० ) नित्तिप्त, न्यासीकृत, धरोद्दर रखा हुआ । _ उपन्यास तव्‌० (9० ) [ उप +नी-+-असू-+ घन | वाक्योपक्रम्र, अस्तावना, उपकथा, कहानी, गद्य काब्य विशेष | उपपत्ति तत्‌० ( ० ) जार, गुप्तपतिं, छग्॒वा, नायक विशेष, यथा--- #ज्ये परनारी के रसिक उपयति ताहि बखान ।”? --रसराज डपपत्ति तत्‌० (स्त्री०) [उप +- पदू + क्ति] सद्धति, समा- चान,घटना,प्राप्ति,सिद्धि, चरिताथ द्वोना,हेतु, युक्ति । डपपल्ी तव्‌० ( स्वी० ) वेश्या, परस्री, रखनी | उपयन्न तत्‌० ( गु० ) [ड॒प + पद + क्त] पहुँचा हुआ, प्राप्त, क्षव्ध, युक्त, सुनासिव । डपप्रातक त्व्‌० ( घु० ) छोटा पाप, साधारण पाप (मजुस्खति में परसख्लीयमन, शुरुसेवा, त्याग, आव्म- “विक्रय, गेवध आदि को उपपातकों में माना है ।) डपपादन त्व॒० (छु०) [ उप + पद + खिच्‌ + अनदू | साधन, सिद्ध करना, ठहराचा, युक्ति देकर समा- घान करना । श० पा००-१ है उपपुराण ५ श्द् ॥| उपलक्षण उपपुराण तत्‌० ( पु० ) चैटे पुराण । ये मी भ्रदारद्द हैं, इनके नाम ये हैं--रूतत्कुमार, चारसिह, बारदीय, शिव, हुर्वासा, कपिछ, मानद, भैशनस, बाहण, क्रालिका, शाव, नन्‍्दा, सैर, पराशर, झादिथ, माहेंम्वर, भागंव, वाशिष्ठ | डपवर्ह तत्‌० ( गु० ) त्तकिया, वालिश, बषधान । उपदर्दश या उपबहन ( देखे। उपयह )। डपचीत दव० (9० ) जनेऊ, गरज्ञयृत्र, यज्ञोपवीत अहण, स्वीफार ! हुआ, भ्रत्ित, सेगक़त,अ्धिकृत । उपशुक्त तत॒० (गु०) [ ब्ष+ भुज्ू+ क्र ] भोग किग्रा डपभीक्ता तव० ( ६० ) [ ठप+ मुजू + तय ] सोग- कारी, सत्वाधिकारी । उपभोग तत्‌० ( पु० ) [ उप + झुजू + घज्‌ ] मेजना+ विरिक्त भोग; निर्देश, विास, विपयो का छुख आखवएदुन | उपमा तव० (ख्तरी० ) समानता, बरावरी, सादश्य, दृशन्त, तुब्यता, समानता, शर्थालदुएर विशेष, जे! साइश्य दोने से देता है।..*५ डपभाता तत्‌» ( स्ी० ) दूध पिछाने वाली, घाय, धाभी, माता के सप्तान ( गु० ) उपझ्ा करने बाला, चित्रकार | इपमान तत्‌० ( घु० ) इष्टान्त, साइरय, तुक्यता, प्रति- म॒र्तिं, जिस पदार्थ से उपमा दी जावे, ( जैसे घन्द- मुश्ज में चन्द्र उपमान है ), प्रमाण विशेष । उपस्तित तब॒० ( ग॒ु० ) इप्पेदिपत, चुक्यहत, सम्भावित, जिसकी 5पमा दी ग्रग्री हे । शिप्न्न कान | उपमिति त्तद० (ख्त्री० ) इपमा सादश्य ज्ञान से उपमेय तद्‌* ( मु० ) समतुरष, दृशन्त सेग्य, उपमान के समान गुणयुक्त, घर्णनीय | पेपयम तत्‌० ( ० ) विवाद, संग्रम । उपयुक्त त३० ( गु* ) येग्य, उचित, मुनासिउ ! उपयेग ठग ( ए५ ) काम, च्यवद्दार, छाम, प्रवो- जन, भावश्यकता । [छाने की योग्यता । डपयोगिता सत्‌० ( खरो० ) फलघाघनता, काम में उपयोगी त्तदु० ( गु* ) उपयुच्द, प्रवाजनीय, छाभ- कारी। अमुशूब । हु उपर तत्‌« (गु०) ऊध्ध, ऊँचा । [राहपरस्त चन्द्र या स्य। उपरक्त तद॒* ( धु० ) विषन्न, पीदा अल, (४० ) उपरत तत्‌० ( पु० ) जिरत, शान्त, बदासीन, इृदा दुश्ना, मरा हुआ 3 डपरति तब» [ खो० ) विरत्ति, निशृक्ति, रस्यु, परि त्याग, उदासीनता, डदासी |. [शओढ़ने का दछ्ध । उपरना तदू० ( पु० ) दुपट्टा, उत्तीय वख। ऊपर से उपरवार दे० ( पु० ) वॉयार जमीन, नदी के कितारे के ऊपर की जमीन | उपराग तत्‌» ( पु० ) घूये वा चर्द्र ग्दण, राहुपदण, परिवाद, व्यसन, यंत्रण, लिन्दा उपशद्ी दे० ( स्री० ) ए% दी चीज लेने के लिये कई आदस्ियें का प्रयत्न या डद्योग ! उपराजा तत० ( पु० ) छोटे शाज्ञा, युवराम । (क्रि०) उगाया, उपजाया, उत्पन्न किया, बनाया, रचा, चैंदा किया | [अनन्तर । उपरान्त ठतू० (श्० ) पीछे, परे। पश्चात्‌, इसके उपराप्त तत* (०) निदत्ति, विरत्ति, विराम, झाराम | उपरात्ता तदू० ( ६० ) सदायक, साथी । उपरि तत्‌> ( अ० ) ऊध्वे, ऊपर दृष्टि ( खी० ) तुच्छ देवता की दृष्टि, वायु का प्रकोप । उपरिणत तत" (अ्र०) ऊपर, उच्चे | उपरिस्थ तत्‌० (पु») ऊध्वेत्यित, उपरस्थित,झपर का । उपरी त़द्‌ ० (गु०) उपर का, ऊरर सम्बन्धी, जे।ते खेत के उपर की मिट्टी, मूमि से उखा्ी हुई माटी । (दे०) उपब्या, कदी, छावा । छपदद्ध तव्‌०» (गु०) रदित, मतिरुद | डपरोक्त ( गु० ) [ उपरि + उक्त ] +परकथित, प्रयस- इक्त, इपले कहा हुआ, उपयुक्त । डपरोध ठव्‌० (पु०) श्रटकाव, भ्राढ़ि, ठकना । डपरीद्वित सतत» (६०) कुछगुरु, पुरोधा, परेद्दित उपना तदु० (०) देखे, उपरता । उपर्युक्त ( शु० ) उपरोक्त, प्रधम कहा हुधा। उपय्युपरि तव० (५ ) उध्चे उसे, ऊपर ऊप& ऊपर के ऊपर । उपलों तद॒० ( पु० ) ऊपर का, थादिर का । [वालू। डपल तत्‌« ( घु० ) पाषाण, थ्ोला, रत्न, सेध, चीनी, उपलक्त तत्‌० (पु०) पद्नेत, चिन्द, दृष्टि, श्द्ेश्य । डपलत्तण तत्‌० (६० ) दृष्टास्व, सफ्रेत अन्याय वेगघक । उपलब्ध (्‌ उपलक्ष्य तव्‌« (गु०) देखे! उपल्वक्त । उपत्तब्ध तव्‌० (गु०) [उप + लम +- क्त] प्राप्त, जाना हुभा ।--ार्थी (श्री०) श्राल्यायिका, उपकधा १ उपलब्धि तत्‌० (स्री०) [ उप + छभ्‌ +क्ति ] ज्ञान, अनुभव, मति, प्राप्ति । [गूइुठा । डद्ल्ला वा उपली तदू० (छु०) कंडा, छाना, जपरी, उपल्ला तदु० ( घु० ) ऊपर का; ऊपर वाला भाग । उपचन सत्‌० (घु० ) उद्यान, आराम, कृत्रिम चन, सकान के निकट का छोटा बाग । [दिन विशेष । उपवसथ तत्‌० ( पु० ) भाम, निवासस्थरू, यज्ञ का उपचास तत्‌० (पु०) [डप + वलू +घज| छद्डुन, शना- हार, दिनरात भेजनाभाव, कड़ाका, फ़ाका । उपवासी वत्‌० ( ग्रु० )[ डप +- चस्‌ 4- शित्‌ ] उपवास युक्त, अहोरान्न सेजनाभावविशिष्ट, उपापी, बत्ती । डपविद्य तत* ( ० ) [ उप+ विद्‌ + क्‍्यप्‌ | नाटक चेटक भरादि शिरुपकारादि, शिल्पी ॥--४ (स्त्री०) शिल्प भादि विज्ञान शाख |... [कुचला श्रादि । डपविष तत्‌० ( ए० ) कृत्रिम विप, न्‍्यून विष, अफीम, उपबिष्ट तत्‌० ( गु० ) [ उप्+विश्‌+क्त ] आखीन सूहीतासन, कृतेोपबेशन, श्रासनस्थ, वैठा हुआ । डपबीत तव्‌«, (छ०) यक्षसूत्र, जनेऊ । डपवेद्‌ तत्‌» (घु०) प्रधान चार बेदों के अतिरिक्त वेद, आयुर्वेद, धजुवेंद, गान्धर्ववेदू, स्थापत्य चेद, येही चार उपवेद हैं। आयुर्वेद कमगवेद ले, गान्थर्वेवेद सामवेद से, धजुवेद यद्युवंद ले, और स्थापत्य वेद अधथर्ववेंद से निकले हैं । आयुवंद के आदि अ्वाय॑ ब्रह्मा इन्द्र घल्वस्तरि आदि हैं; गा-न्धर्वे वेद के प्रचारक्ष भरत मुत्ति, विश्व मित्र ने धजुर्विद्या का डपदेश किया, स्थापत्य चेद का विश्वकर्मा ने प्रचार किया, स्थपत्यवेद बहुत दृढत्‌ था। डपचेश्रन तत्‌० (पु०) [उप + विश + अचटू] रूपेबना, घचसना, वस्ता, जासा । हु डपवेशन तत्‌० (छु०) स्थिति, उपविष्ट होना, बैठना । डपशम तन» ( छु० ) [ उप रूम+ धलू |] शारिव, खसमताई, समाहई, शसता, हन्द्रिय निम्रह, बदला; प्रत्तीकार । उपशय तत्‌० (०) [उप + शी + अल | निदान पद्चक के अन्तगंत रोगज्ञापक अनुमान । ) उपस्थिति डपशल्य तव्‌० ( छु० ) [ ब्पनैशलू +य ] मामान्त, आम की सीसा; भाजा । उपश्रुतत तत्‌० (छु० ) [उप+श्रु+क्त ] प्रतिश्ुत्ति अन्ञीकृत, स्वीकृत, चागृदत्त । . उपसंद्दार तव्‌० (9०) [ उप+सं+ह + घन ] शेष, लाश, निष्क्षष, मीसांसा, आक्रम, संग्रह, संछेप, ज्यत्तीत । उपस तदु० ( छु ) दुर्गन्धि डपसत्ति तत्‌० (स्त्री०) [उप +सदू + क्ति | उपालना सेधा, विनय पूर्वक गुरु समीप गमन । डपसना तव्‌० ( क्रि० ) सड़ना, पचना । डपसमे तत्‌० ( छु० ) [ उप+ सजू + घन्र्‌ ] रोगभेद, ड्पद्गव, पीड़ा, दैवी उत्पात, शब्यय विशेष, जे शब्द के पूर्व जोड़ने से उस शब्द में अ्रथे की विशेषता करता है । [उपद्गभव, गौणवस्तु, त्याग । डपसझन तव्‌5 (५०) [डप + रन + पनद ] दारना, डपसपंण चत्‌० (धु०) [ डप + सप्‌ + अनदू | उपासना, अवगमन, असुदृत्ति | उपसागर (०) खाड़ी ) डपस्ल्री तत्‌० (स्त्री ०) रखेजी, उपपत्ती । डपस्थ तत्‌० (ए०) [ उप+स्था+ड ] खी एवं पुरुष का चिन्ह विशेष, निचला या मध्य शरीर का भा, पेहू./ गोद ! -निम्रह्व ( छ० ) नितेन्द्रियर्व, कामद्मन )। पिड़ू उपस्थत्न या उपस्थली तच्‌० ( घु० ) चूतड़, कूष्हा, डपर्थाता सत्‌० ( छु० ) [ डप+स्था+तृण्‌ ] भ्ृत्य, _ सेवक । उपस्थान तत्‌० ( घु० ) [ डप + स्था+- अनढदू | निकट आना, उपासना, जे! खड़े द्वाकर की जाय, पूजा का स्थान, सभा, समाज ! उपस्थापन तथ्‌० (घु०) [डिप + स्था + खिच्‌ + अनठ | उपस्थिति करण, निकट आनयन | डयस्थित तत्‌० (गु० ) [ उप+स्था + क्त ] समीप, स्थिति, चायत, आनीत, उपनीत, वपस्न्न, वर्तमान; हाक्षिर |--चक्ता ( ० ) सद्बक्ता, घचन पड़े | क्रवि (ए० ) शीघ्रकवि, आशु कवि सपश्थिति दद्‌० (स्री०) [वप+स्था+ क्ति] उपस्थान, निडेट द्े।ना, दवाकिरी, प्राप्ति, मैजूदगी । ह्ह डपेत उपहृत तव॒० ( गु०) [ उप+ इन + क्त ] नह, उत्पात | उपाध्यायी तद*० (खी० ) अध्यापकसार्या, पढ़ाने अस्त, आाधात प्राप्त, छत, अशुद्धदव्य । ।. बाली, अध्यापिका, गुरु पत्नी । उपदसित तद्‌० ( गु० ) [ उप़+ हस +-क्त ] उपह्ास्त | उपानत तत्र (स्री०) उपानई, पादुआ, जूती । आ्राप्त, विद्रप । किन द्वब्य, सैगात । | उपानद ( ए० ) पादुझ्ा, जूता । उपहार तत्‌० (पु०) [रिप+ छू + घन] भेंट, नजर, उप- | उपाना तदु० ( क्रि० ) इपार्जन करना, पैदा करना । उपद्यास तद॒० (प०) [ उए+ इस + घत्‌ ] परिहाल, | उपान्त तव्‌० (गु०) निड्ट, सम्रीप, 'णन्तिर, पास या उपद्दत ( १०० ) निन्‍्दाय वाक्य, विद्वप हँसी, ठट्ठा, दिछग्री, बेइजती । उपदास्य तद० (यु०) [ ०ए+दस्‌ #ध्यद ] देंसनीय, निनदनीय ता ( ख्री० ) निन्‍्दा, गद्दां, कुस्सा, दुष्ड्वीतिं । उपदित तब» ( थु० ) [ उप्+ घा + क्त ] स्थापित ! उपद्ृत तव० (गु०) [उप+ छह + क्त] आ्रानीत, दत्त | उर्पांशु छत्‌० (पु०) जपविशेष, नि्नस्थ, असऊ । उपाइ दे० (क्रि०) उफजाई, यढ़ी, बनाई, रची । उपाऊ (६०) उपाय, इलाज, यत्न । उपाकर्म तत्‌० (पु०) श्रारम्स, चर्षाछाछ के बाद बेद आरस्स करने का समय, संस्कार विशेष । उपाख्यान तद॒० (पु०) [ उप+श्रा + स्था + अ्रनद ] पू्े बृत्तान्त कपन, आख्यान, इतिहास, कथा के भीतर की कथा । घिदभाग, अवयव । उपाडू त्द० ( धु० ) अ्रप्रधान भाग, तिलक, टौका, उपाड़ुना तत्‌० (०) उप़्ाढदना, दखछना, नाचना । उपात तद्‌० ( ग़ु० ) शुद्दीव, भाप्त उपादान उत्‌» (० ) [ 3५+ श्रा + दा + झनद है। प्रदय, स्वीझार, शान, परिचय, ये, अपने अपने दिप्रगें की श्रोर इन्द्रियों का जाता, प्रद्याद्दार, प्रबुत्तिजनक ज्ञान, न्यायमत में सम- चायी करण | उपादेय सत॒० (गु०) [ उप्र+आकदाकय ] आय उत्तम, अदण योग्य, उत्कृष्ट, विधेयक्रम +--ता ( स्वी० ) उत्तमता, इत्कर्पता | उपाध त्तदु० ( धु० ) डदद्वव, चम्याय, उत्पात । डपाधि तत्‌० ( धु५ ) छुछ, पदवी, खिताब, चिह्द, उपनाम, श्रल्ठ । उपाधी तदु० ( गुर ) अ्न्यायी, उपद्रवी, अधर्मी उपाध्याय तद* ( घु० ) [ इप+ अधि + इश + घल ] अध्यापक, शिच्वक, आदाणे का पक सेद4_- डपारी (क्रि०) डखादी, नाचली | [चेशा, प्रतीकार । डपाय तत्‌* (पु०) [ उप+पश्रा + हु+ श्रछू ] साधन, डपायन तद्‌० ( ४० ) [ उप 4- यप्‌ + अनद ] 9 पहार, इपढीकन, सेंट, सैयात, नजराता, मत ी प्रतिष्ठा, समीप गमन । उपाया दे० (क्रिग.) देखे उपराग । डपायी तल» ( गु० ) ठपाय करने बाढूत, उपाजेक, सरेजी, सन्घानी, यत्नी । डपारना ( क्रि० ) देखे उप्ादना । डपार्जन तत्‌० (पु०) [ ठप+ अज्ज + धनदू ] भ्रज्जन, घनादि सश्यय, घनझ्ाइरण, छामकरण, एकत्रित करण । पारित तव» (गु०) [ उए+ अज्जे + रत ] सधित, कमाया हुश्रा, इकट्ठा! किया हुथा । उपाल्षम्म तत्‌० (० ) [उप+ शा-+-लमू + घर |] उलदनगा, मिन्‍्दा, शिकायत । डपास ठदू ० (१०) उपवास, अनाहार, भेजनाभाव | उपासक तब” (3०) [उपू+ थास्‌ + यक,] उपासता- कच्चा, भाराघश%, मक्त । ' उपासन सतु० (पु०) [ उप + झ्रास्‌ + शनद_] शश्ूषा, सेवा, आजुयव, भाराधवा। धहुविद्या उपासना ठत्‌० ( पु० ) [ उपरन-भासू + अन्‌ के भा ) सेवा, शुश्रूतरा, परिचयां, भाराधना, दइछ, भक्ति | उपासित बद्‌० (६० ) [ श्प्+ आ्रास्‌ + तक | ग्राराधित, सेवित, पूजित | [मक्त, ठपाप्तना करने वाला | डपासी तदु० (यु०) इपासा, सूखा, उपवासी, सेयक, डपास्य उत॒० (यु० ) [ इप+शरात्तू + ये ] आराध्य, / धेव्य, पूजने येग्य । त्याग, अनादर, तिरस्कार । *उपेत्ता चत॒० ( स्री० ) [ बप्+ईश+ड्‌ | अ्श्वीकार, डपेत्तित तब ( गु० ) [ व्प्+ईछू + क ] तिरछ्कत, निन्दित, परित्यक्त | [पृक्त्रिद, समायत, भ्रासक्ष । डपेत तव॒० (ग़ु० ) [ ब्प+इ+छ ] युक्त, मिद्षित, उपेन्द्र उपेन्द्र बत्‌* ( छु० ) वामन, इन्द्र का छोटा भाई, विष्णु का चामन अवतार, जा श्रदिति के ग्रस से हुआ था ।--चज्ञा तत्‌० ( सत्री० ) दत्त विशेष । डपेद्धात तच्‌० ( छु० ) [ उप +उत््‌ +- हन््‌ + घन्र ] अन्य के थारम्भ का वक्तव्य, भूमिका, नच्य न्याय की ६ सक्ञतियें में से एक । [किड़ाका, उपवास । उपेषण तत० (०) [ दप + घस_+ अमर] अनाहार, ' उफनना दे० (क्रि०) उचज्ञाना, उधलना, उकल्ाना । उफान दे० (छु०) उबाल, उकाछू ! सवकमा दे० (ध०) घमन करना, ओकना, के करना, डल्टी करना, रद्द करना । डबका दे० (9०) वसन, के, (क्रि०) वम्तन की, कु की । उधघकाई दे० (सत्री०) उच्यांठ, उछाल, मचकाई । उबटठन दे० (8० ) उपटन, मनन, बॉटना, अम्यज्ष, बपटन | उबदि (क्रि०) उबटन छगा कर। डवरण तद्‌० (पु०) उद्धत्तेन, बचाव, आड़ । उबर दे० (क्रि०) बचकर, शेष रह कर, बढ़ कर । डबरा तदू० (बि०) बचा हुआ, फालतू। जबलमा दे० ( क्रि० ) सींजना, खलबलाता, पकना, ऊपर की श्रेर जाना, उफनाना । डब्सना दे० (क्रि०) सड़चा, गलना, पचना | उबहन (सत्री०) कुए से पानी खीचने की रस्सी । डबाना तदू०८ (क्रि०) बाला, रोपना, लगाना, तंग करना । (यु०) बिना जूतों का, नंगे ऐर । हे उयारना तदु० (क्रि०) छोड़ना, वचाना, राखना । उधारा (क्रि०) बचा किया, उद्धार किया । उबालना दे० (क्रि०) उसीजना, इसेवना, रांधना | डवास्ती दे? (स्त्री०) जंपाई । उस (पु०) ऊर्ध्व, उपर, हि, दे।। उस तदू० ( गु० ) इसय, दोनें | डउभसक तद* ( घु० ) रीड, भालू, भल्लूक । [परस्पर | डसय तत० (शु० ) झुगल, युग्म, दे। देशों, हि, डउस्यतः वत० (आ० ) पाश्वेतः पराश्वेहक, दोनें ओर से । 9 उम्यनत्न तत्‌० ( अ० ) दोनों स्थानों में, दोनें तरफ़ । उभ्तसना तदू० ( क्रि० ) उठना, बढ़दा, उतरना निक- लगा, निकल आना ५ ६९१०१ ) उस्मेद्‌ ड्राई तदू० (घु०) इतराई, फुछाहट । उभराना तदू० (क्रि०) बहुत भराना, छुकाना [ डभमाड़ना तदू० (क्रि०) उकसाना, उत्तेजित करमा। उभ्ाना तदू० (क्रि०) उठाना, खड़ा करना, उत्थित्त करना, ऊपर उठाना । डभार त्द्‌० (पु०) गूमड़ा, फुछावट, बठाव। [करना। उभारना तदू० (क्रि०) फुछावा, उस्काना, उत्तेजित डसी तत्‌० (गु०) दे, देने, आपस में | * उभ्गत (गु०) प्रसक्न द्वोते हुए | [न्दाधिक्य, छष्टता | उमड्ड तद्‌० (पु०) मझता, मौज, उल्लास, छहर, आन- डमडूुना तदू० (क्रि०) आनन्द से आगे ज्ञाना, उत्साह पूवेक आगे बढ़ना | उमड्गी तद्‌० ( ग़ु० ) उच्चपदामिलापी । उमड़ना तद्‌० (क्रि०) उमरना, परिवुद्ध ह्वाना, उमड़ना, बढ़, कर रहना, वेग से बद्दना | उमर दे० ( स्री० ) भादु, वय । उमरी त्तद्‌० ( स्ली० ) बढ पैधा जिसे जलाकर सन्नी खार लैयार किया जाता है | हिगती है । उमस तद्‌ु० ( ख्री० ) गरमी जे हवा न चलते पर डमहना ठदू० (क्रि०) बमइ़ना, उभड़ना, उठना | डम्तरा तत्‌० ( स्री० ) [ ब+मा +-श्रा ] दुर्गा, अतली, कीति, हरिव्रा, कान्ति, शानित । भगवती, पार्वती, महादेव की स्त्री पाती, यह हिमालय की कन्या थी मैना के गर्भ से इसका जन्‍्पा हुआ था, एव जन्म में यह दुछ प्रजापति की कन्या थी, दुच्च से महादेव की मिन्‍्द। सुन इसने अपना देह त्याग किया, तदनन्तर द्विमाक्षव के यहाँ उत्पन्न हुईं । शिव को पति पाने के लिये इसने कठेर तपस्या की, इसझी कठेर तपस्या देख साता ने “ उन्मा ” तपस्या सत करो, वारण किया, इसी कारण इसका नाम उमा छुश्रा -पत्ति (पु०) शिव, महादेव । --छुत (३०) का्तिकेय और गणेश । डमेठन ( स्त्री०) ऐंठन, पेंच, मरोड़ । उम्नेश (४०) [श्म्रा + ईश] महादेव, शिव । डस्दा दे? (गु०) उत्तम, बढ़िया, अच्छा । उस्पी दे* (स्री०) जी गेहूँ की हरे दाने की घाल । डस्मेद्‌ दे० (स्वी०) आशा, भरोसा ।--वार नैकरी पाने की आशा करने बाला ।--वारी भरोसा, आशा | ड़ ञ््र 08... उम्र दे० ( पु० ) उमर, वर्ण, श्रवस्था । उयेड़ ( क्रि० ) उगा, ददय हुथ्ा, निकश्ना, देख पडा, प्रशाशित हुआ । डर तद्‌० (१०) वच्तम्थल, छाती, दिया, हृदय |-- ज्ञत (पु०) [उरस्‌+चत] फुषफुछ की पीड।, हृदय ध्याधि, छाती का घाव । [नाग, भुजक्व। डरग तव्‌* ( पु० ) [ उर्स्‌ + गम + ड. ] भ्रद्दि, सं, उरगना तत्‌० (क्रि)) सहना, सदन काना, जेःयवना | यथा-- ४ शा सरत्य कहांघौ करे जिय, भाव गुना, जो हुप देय, ते ले उरगे बात सुने ? -+रामचन्द्रिका | उरमग्र तदू० ( ख्री० ) भेडी । [वाहन । उरगाद्‌ तत० ( धु० ) सपंभक्षक, गरुड, विष्णु का उरगारि तत्‌« (५०) [ वरग + झरि ] गरुड, मागरिषु, बैनतेय, सर्पो को खाने वाछा, सपेशत्रु । छरज्ञ तदू० (पु०) कुच, स्तन, पयोधर | उरफ्ना तद्‌० (क्रि०) अठकमना, छगाना, सक्त होना, असक्त होना । उरद (६०) भाष, अन्न विशेष | उरघसी तव्‌* (श्ली०) सेस्कृत में उर्वशी, थरतिप्रिय हृदय में दास करने वाली, देवाह्ना विशेष, एक अप्परा का नाम, नारायण की जह्ठा से यह उत्पन्न हुई थी, श्वेतद्वीप में नर नारायण की तपस्पा भट्ट करने के अर्थ इन्द्र की प्रप्सशयें चह। गयीं, तब नारायण ने उबंशी को सृष्टि की, उबेशी की सैकम्द्ये देख कर और अ्रष्सरायें छशिजित दे! गर्यी मर कैट गयीं । उरमित्षा तदु० (स्वी०) जमिंटा, लक्ष्मण जी की ख्री का नाम, राजा सीरध्वन जनक की कन्या । उरविज्ञा तदु० ( स्त्री ) सूमिसुता, इच्बी से वधपत्न जानकी, शथ्वी की कन्या, सौता, रामप्रिया | उररी सद्‌० (ध०) स्पीशार, अ्रद्लीकार।--कार (३०) स्वीकार )--कत (गु०) अद्दी कृत, स्वीकृत । डरस (प०) घाती, हृदय, वच्स्थढ | ( गु० ) मीरस, कीका [छाय, कवच, दव्यर १ उरसख्ाण तद* ( पु* ) [ इस +त्रै+ भनद ] बच उरहना दे० (पु०) इलइना, शिकायत । ( १०२ ) उलट पलदढ उरा तदु० (खी०) एथ्वी, भूमि । ध उराहना दे० (पु०) देखे उरहना । [छुदकारा । उरिण या उरिन दे० (वि० ) उसछण, ऋण से उरू तत्‌० ( गु० ) [ उर+४3 ] विशाब, श्रेष्ठ, बढ़ा । (पु०) जंघा, जाँध ।--पथ (9०) मद्दापथ राजमराग | -ज्यचा (पु) राचत्त, निशाच( | डरुगाद तदु० (पु) गरुड, सप शत्रु । उर्गाय तद्‌० ( पु० ) [ बरग + ६ + धन ] श्रीकृष्ण, विष्णु, स्तुति, प्रशंसा, सूथे । तिसरा वर्ण । उसज्ञ तत्‌० (पु०) [ उर +जनू + डू ] वैश्य, बनिर्या, उरेव दे० (स्त्री०) इलकाव, वश्चुना । उरेह (पु०) चित्रकारी, नकाशी । उरेद्दना (क्रि.) खींचना, रचना, रहना, छगाना । उरोज़ञ तत्‌० ( पु० ) [ इरस्‌ + जन्‌+ड्‌ ] खन, कुच, पयेघर । [उक्सष्ट । डज्जित तत० ( गु० ) [ १ज्ज +क्त ] पद्धिंत, श्लत, डर्ण तत्‌० ( स््री० ) मेड थादि का रोम, उप | उर्दू तद्‌० ( ० ) उद्द, उस्द, भाप, कक्षाई | उदृविगनी तदू० ( स्तरी० ) अन्त पुर-रफ्तिका, रनिवास की पहरई । दर्द ( ख्री० ) मुसठमानी भाषा । डर तल» [गु०) [ इत+ऋ+ अल ] शध्ययुक्त स्थान, शस्याम्वित देश, उपजाऊ मूमि । उर्वरा तव्‌० ( ख्री० ) उपजञाऊ मूमि । उर्वशी तत्‌* (स्री०) देखे! उरबसी । उर्विज्ञा (स्त्र०) भूमिसुता, जानकी, सीता । छर्दी तव० ( ख्री« ) [उ3र+ई ] प्रष्वी, एथियी, चरणी, धरती [--घर (पु०) पर्वत, शेपनाग | उलडूः तद्‌* (गु०) नमन, दिवस्त, दिगग्वर, दस्ध रद्दित | उलचना तदू० ( क्रि० ) दानना, सुखाता, पसाना ॥ उलभन तदू० (सत्री०) फेसाब, ऊटकाव, अपमाधेव | उलभना ठदू० ( क्रि० ) फैँसना, लिपटना, रंगना 7 उलमेड्ा तद्‌० ( क्रि० ) उठकन, टलमाव । डलद्ना तदू० ( घु० ) पढछटना, आऔधाना, विपरीत करना, दोइराना, सोहना, नीचे ऊपह करना । उलद पत्वद, उलट पुलद या उक्नठा पक्षद्वी तदु० (क्वि० दि* ) ग्ठपट, तज्के ऊपर, इधर का इघर, देर फेर, मड़बड़ी | उसठा (्‌ श्ण्३ ) ड्ब्णीष ह उल्लडा तद्‌० ( गु० ) औंधा, पछटा हुआ, विपरीत ( उल्लास ठद्‌० ( एु० ) [ बत्‌+ छसु +चन्‌ | आरल्ड, फेर हुआ । ह उत्नधता तद ० (क्रिं०) छूद्दराचा, डुकतना ! उलथा दे० ( इ०) अज्जुवाद, भाषानठर करण, अज्ज- करण, रागिनी विशेष । उत्तरना दे० ( क्रि० ) लेटवा, सयन करना ! डललना दे० ( क्रि० ) ढरकना, उतस्ना ॥ उलहना तव्‌० ( छु० ) निनन्‍्दा, दोप, उपारूस्म, गिछा, डगना [देना ( क्रि० ) उपालस्भ करना, पुका- रना, शिकायत करना, निन्‍्दा करना । उल्लार दे” ( थि० ) जिसका भाग भारी हो । उल्लाहना तद्‌" (पु०) उल्दहना, इपालस्भ, शिकायत । डल्लीचना दे० (क्रि० ) उंडेलना, जल फकसा | डल्लीया दे० ( क्रि० ) बलचा, थोढ़ा थेड़ा करके जल निकालना, अद्धनिस्सारण, उद्धाक्षकर जल निरा- लूता। डलूक तत्‌० (8०) डकलू, पेचक, इलुआ | ३--कारब पक्तीय योद्धा विशेष, मद्दस्भारत बुद्ध के पहले हुयेधिन का दूस होकर यह झुधिप्ठिए के पास गया था, शक्कुनि की अ्रजुुमति से दुर्योषिन से पाण्डबों के थुद्धारथ आह्वान किया था, युद्ध के अ्रद्टारह वें दिन यद्द सहदेब के द्वारा मारा गया था। २--बैशेषिक दुर्शव प्रणेता, इनका दूखरा नाम कणाद था, इसी कारण वेशेपिक दुर्शन का औ्रैलूक्य श्रौर काणाद्‌ दर्शन कहते हैं। यह खुशब कह ६०० बर्ष पूर्व उत्पन्न हुए थे | उलूखतल तव्‌० (०) ओखली, डदूखल्, ओखरी उलूपी तत्‌० (स्त्री०) नागकन्या अज्जुन की पत्नी और कारब्य नमक नाग की कन्या । जिरासठे । डल्लेटा दे? (पु०) पराठा) परतदार मोदी पूरी, पलटा, डल्लेड़मा दे० (क्रि०) ठरकाना/ढालना, ख़ाली करना! डल्का सतू० (स्त्री०) लुका, तप्रे का गिरना, आकाश से जो पुक प्रकार का अद्ञार सा गिरता है, अपि- पिण्ड ।- पांत (9०) दारा छूबचा; लूका गिरदा, अशुभसूचक चिन्द, आश्चर्य ।--मुख्वी ( स्त्री० ) 7 ऋगाली; गीदड़ी, सियारिन | डद्घुक तत्‌० ( घु० ) लूका, कोयला, अद्वारा | उल्लडडूत तद्‌० ( पु० ) नघिना, न साचना । डुलास, ग्रसन्नता, हपे । डब्ल्लू बदु० ( ए० ) देखे! उल्ूक (-पन ( मु० ) सूर्खता, गवारपन, उजड्पन । उल्लेंल तच॒० ( घ॒ु* ) [ उत + लिख + भल | लेख, चर्युल, चर्चा, कथन, प्रसड़ः | डल्ज्ेखन तद्‌० (एु०) [ उत्‌्‌ + लिख + धनट्‌ ] चमन, खनन, कघन, उच्चारण । डह्लेखित दच्‌० (गु०) [उच््‌ + लिख + क| श्स्ताबित, कथित, बक्त, कहा हुआ ।. चिंदिनी, बजियारी । उल्लीच तत्‌० (०) [ उत्‌ + खुच+ भ्रज्‌ | छन्द्वातप, उल्लो्न दत० ( घु० ) महातरत्र, कल्लेल, बड़ी भारी -« लहर, हिलेार । [का एक पुत्र । उल्ब॒ण तव्‌० (9०) गर्भावेषटन, जाली, जरायु, वशिष्ठ डश्ना तद्‌० ( छ० ) श॒काचर्य, भार्गव, वैद्यगुरु | डशीमर तब» ( ० ) देशविशेष, चम्द्रवंशीय राजा विशेष । उशीर तद्‌० ( स्त्री० ) खलखस, खुगन्घित॒ण । उपा तत्‌» ( स्त्री० ) वाणराज की कन्या, अविर्द्ध की स्त्री, भार, पौह, तड़का, प्रभात |--काल (8०) अत्यूष समय, प्रभात काल पति (४० ) अनिरुद्ध, कामदेव का पुत्र । डपित तत्‌० (घु० ) [ बस्‌+क्त ] पथु पित, दग्ध, त्वरित्त, स्थित, आश्रित । डर तब्‌० ( घु० ) ऊंट, पशु विशेष । डष्णु तत्‌० ( पु० ) ठप्त, गरस, ओऔीष्मकाछ, निदाब- काल, ऊुर्तीक्षा, प्याज, एक नरक का नाप ।-- कटिवन्ध तत्‌० ( घु० ) कर्क और सक्र रेखाओं के बीच वाला प्रथिवी का भाग, जहां गर्सो अधिक पड़ती है ।--लदी ( 9० ) चैतरणी सदी; बसम- * राज़ के द्वार पर तपी हुई नदी |--वाण्प (प०) स्वेद, पसीना, बाफ़ ।--बीये ( 8० ) सीक्षण, तेज युक्त द्वल्य, रुक, उम्र --रश्मि ( 8० ) दिवांकर, सूर्य, तप किरण । डष्णुता तव्‌० ( स्त्री०) गर्मी, उसख | डप्णिक्‌ तद० ( घु० ) सप्तात्र छुन्दी विशेष । डब्णीप तच्‌० ( घु० ) शिरोवेट्टन वस्त्र, पयढ़ी, पाग, साफा; ठेपी, संकुद । ड्ष्मा (१०४ ) ट ऊद्र उष्या तद्‌* ( स्त्री० ) त्ताप, घूप, गरमी, क्रोघ । उस्त ( सर्वे | सर्वनाम विशेष | उसझाना ( क्रि० ) उम्छाना, उत्तेजित करना । उसता दे० ( घु० ) नाई, नापित | उसरना तदु? (क्रि०) टछना, इटना, डप्सरण करना | डउसलजप्सल दे० ( गु० ) घवराया, इडबढ़ाया । उसारा दे० ( छ० ) श्रेसारा, बरान्‍्दा, दाज्ञान । उसास या 3साछु तदू" (पु०) भ्वास, साँस, पवन, प्राण वायु, दीध निश्वास, ठण्डी साँस | उसिनना ( फ्रि० ) उद्याक्षना, श्रादा मिगाकर रोटी बनाने योग्य गेँघना | डउसीजञता दे० ( क्रि० ) पक जाना, कुछस जाना । उच्चीसा दे० ( ५० ) सिरदाना, तक्या । न उद्यूल दे" ( पु० ) सिद्धारत । उसेना ( क्रिए ) बबाढूना, पाना । डसेवना दे० (क्रि०) गाएना, घानना, पसाना । डस्काना दे" (क्रि०) एकसाना, उमारना । झस्तरा दे० सेंतर्मेत, त्रिन मोल छत, श्रस्तुरा | उस्ताद ( 8० ) शिक्षक, गुर । डस्ताना (क्रि०) दे* जछाना, सुब्याना। उस्तुरा दे० ( 4० ) अस्तुरा, छुरा, छुरा, छुर । उस्त्र तत्‌० ( पु० ) एृष, साढ, किरण +-“धन्वा तत्‌० | ( छ० ) इन्द्र, देवराज । | उस्सा तव्‌* ( स्प्री० ) घेजु, गे।, गाय । | उहदा (प०) पद, स्थान ।-दार (ए०) पदाधिकारी । अफसर । डद्दरना दे* (ध०) पैठना, दुबाना, थियना। उद्दवाँ (गु७) उस हौर, वर्हा । [िलाफृ, ढकन | जद्दार दे० ( घु० ) श्राच्छादन, घेदत, . थरेह्वार, उह्ों चर्दा । उद्दार दे० ( ० ) उघार, खेर, पट) परदा । जहिया दे० कनफटा, सेगियेो! के पहनने का घातु का कडा, यथा--/ कर उद्दिया कप झूग घाला ९ ( पद्ममावव ) उद्ही ( सर्वे5 ) वही । उह्ल तदू० (स्त्री०) तरंग, छद्दर, उमंग । ऊ ऊ नागरी धर्णमाछा का छुर्वा अक्षर । इसका उच्चारण | ऊँचाई तदु० (स्त्री०) बचान,उद्यति,बड़ाई,श्रेष्ठठा,वारव । स्पान आए है । ऊ सत्‌० ( श्र० ) वाक्यारस्म, रहा, मदादेव, महा, प्रश्नवाक्य, वन्‍्धन। मेत्त, प्रधान, चन्द्र । ऊख् तदू० ( पु० ) ईख, इप्छ॒दण्ड, गग्या, पोंडा | ऊसपालोी तद्‌* (स्त्री०) उलूखनत, ओसछी ऊरर तदु० ( प०) बदुम्बर, गूलर, उसर । ऊंगना दें० (६० ) चतुष्पाद पशुझ्लों का वह रोम जिपमे उनके कान बदते हैं. और शरीर दण्डा पड जाता है। ४ ऊगा दे० ( पु» ) अज्या सार, अपामागे, चिचठा । ड्ध दे० ( स्त्री०) ऊंचाई, नींद, निदास । ऊँथना दे? ( छि० ) रूपकी लेना, नौंद भाना | ऊँघाई दे* (स्त्री०) झंघास, नींद, ऊुघ । ऊँच देन (०) जा, श्रेष्ट ऊपर की श्रेणी वाला । ऊँचा तदु० (शु०) रच, इच्चत, वढ़ा, लम्बा । ऊँचा वेलने वाला (गु०) घम"्डी, अमिमानी, झद्दद्वार से बोलने वाला । ऊँचा खुनना (क्रि०) कमर सुनना, बददरापन। ऊँचकानी ( सं० ) बहरापन । ऊँचे दे+ (क्रि० बि०) ऊपर की ओर | ऊँचे वोल का बोल भीचा अद्दड्टारियो का श्रन्तिम पराजय, घुरा परिणाम ।. + ऊँछ दे+ ( घ० ) पुक राग का नाम ऊँछना ( क्रि० ) कघी करना, केश मारना । ऊँद ठदु० ( घु० ) जन्तु विशेष, वष्ट । ऊँटनी ( स्त्री० ) सांडिनी । अँठकठारा देन ( घु० ) औषधि दिशेष, डैंट का सेजन विशेष, मरसाढ़, उटकटाई॥ ऊँदचान दे* ( पु* ) जुट हकिनेदाद्या । कऊंदर दे? ( घु० ) इन्दूर। चूड़ा, मूसा | हू ऊँ ( ६१०४ ) कम ऊहें ( अब्य ) नहीं । : कमर दे० (घु०) इहुम्बर, गूलर। ऊझना ( क्रि० ) उदय होना, उसना । ऊयी दे (स्त्री०) चाँची, चाल्सीक, कर | ऊकक तथ्‌० (गु० ) उल्का, तारा । ऊरू तत्‌० (छु०) जड्डा, जाँघ। अंकलना ( क्रि० ) चूकना, लक्ष्य अष्ट होना । ऊंज तत्‌० (एु०) [ ऊज + अस्‌ ] बद्ध, शक्ति, ५ ऊख तद्‌० ( पु० ) ईख; गज्ना, पोंडड़ा काब्याकड्ार, काविकमतास । ऊखम (छु०) गर्मी, ताप, उष्णता । । ऊज्जेस्वल तव्‌० ( यु० ) [ उज्मेख +बछ] रे ऊखत्त तद० ( धु० ) ओखली, उदूखल | । बलवान, उम्र, अत्यन्त वली | ऊंगरा तदू० ( छु० ) केवल उबछा हुआ ; अज्मेस्वी तत्‌० (गु०) [ ऊज्जैस्‌ + दिदि] ऊजड़ दे० ( वि० ) उमड़ा हुआ, ध्वस्त । बलशाली, तेजस्वी, (घु०) रखात्तद्ूूपर विशेष ऊजर ऊर्ण तप्‌० (पु०) ऊथ, सेढ़ या बकरी के रोए | ऊजरा | दे० ( वि० ) बजला, लफ़ा । ऊर्णनाभ तत्‌० (पु०) सकरी, कीट विशेष, रेप ऊजा है कीड़ा । [स्त्री को प्‌ ऊदना दे० (क्रि०) उमंग में आना | ऊर्णा तत॒० (०) भेढ़ी के रोस, चित्ररथ भल्थेर कर ऊठपठाडू दे- (पु०) अनर्थक, फक्ोड़ियात ऊर्णायु सच» (घु०) कंबल, ऊनी वस्त्र । * ऊढ़ ( वि० ) विवाद्दित । ऊर्ध्ये तद्‌० (०) ऊपर, ऊँचा, उच्च, उन्नत, उचित, ऊढ़ा तवत्‌० ( ख्री० ) विवाद्दिता स्त्री । चुक्न, लम्बा ।--गामी ( गु+ ) ऊर्मैगसनकः ऊत दे० ( घु० ) सूखे, निर्वेश पुतरद्धित, खत मलुष्य ) जुण्यात्मा +--जासु (गु० ) उपरिस्थ जले ॥ ऊद, ऊदविल्लाव तदु० (8०) जलजन्तु विशेष, -तिक्त (०) चिरायता ।--देव (पु०) विष्ण, जिप्तका आकार विछी से कुछ मिलता है। नारायण ।-पाद्‌ ( ए० ) जीव विशेष, शरस | ऊदबती ( खी० ) अगरवत्ती, घुपवत्ती | -पुणडू (पु०) वैषणवी तिरूक ।--बाहु (5०) ऊदुल ( पु० ) महौवा के एक परमार राजा के पु उन्नत हस्त, व्रतविशेष, साधशुविशेष ।--रेखा प्रधान का नाम, एक छूब विशेष “*#५ढ (स्त्रो०) हस्तरेखा विशेष, कुभसूचक दस्त रेखा। ऊदा दे० (ए०) भूरा, छंघला रंग, खैरा +रेता (० ) अस्खलित वीये, कामत्यागी, ऊधम दे० (घु०) उध्पात, उपद्व, बला । आज्ञन्म अह्मचारी, भीष्म, महादेव, मुनिविशेष [ ऊर्धद दे० ( घु० ) औषघट, विकट रास्ता, घुश राख । लेक ( घु० ) खर्ग, सुरलेछ, देवले।क | ऊधी तद० ( छु० ) ( सं० उद्धव ) उद्धव, श्रीकृष्ण का श्वास ( छ० ) रोग विशेष, दमा, ऊर्म चायु, मित्र और भक्त । शीध गमन से उच्चश्वास (--रुथ ( गु० ) उपरि- ऊन तदू० ( छु० ) ऊणी, भेड़ बकरी आदि का रोंशा, स्थित, उच्चस्थ ! ४ स्यून, कम, थोड़ा, उदास, सुस्त (-- ( गु० ) | ऊवंशी त्व० (स्त्री०) देखो उरवसी। है ऊन से बनी हुई वस्तु, ऊन रचित | ऊंमि तव्‌० ( छु० ) तरब्,, लहर, बेदुना, पीड़ा :-- ऊनता तद्‌० ( पु० ) कमी, न्यूनता । [उदास, सुस्त । मात्ता ( स्त्री० ) त्तर्ञ समृह, अ्धिकतरज्ाा ऊना दे? ( छु० ) ऊन, कम, थोड़ा, ( दि० ) घटा, माली (३०) सधुद्द, जलधि । ऊपर तध्‌० ( अ० ) ऊध्वे, ऊँचे स्थान, अधिक | ऊलजलूल दे* (वि०) असम्बद्ध, अंडबंड, अनाढ़ी। ऊपरी तद्‌० ( शु० ) विदेशी, परदेशी, ऊपर का । ऊलूबा तदु० ( छ० ) तृण विशेष । ३ ऊब (स्री०) धबड़ाहठ, उद्देग हि ऊपषणा तद््‌ ५ (घु०) कालीमिच | ऊचवदत दे० ( घु० ) औषट, अगम्प । ऊपर तद्‌० (धु०) चारमूमि, खारी यूमि, सोनी मूमि | ऊबड़ खाभडू (झु०) अटपट, ऊँचीनीची । ऊपा तदू* (स्त्री०) देखे उपा। ऊभ दे० (६०) ओऔष्मता, हुबेछता अष्म तव॒०-( घु० ) गर्मी की ऋतु, सापव +चर्ण श० पाए--१४ ऊसन्‌ ( १०६ ) ऋद्धि ५ 27 उस मम >-+न-ननन "7 न जप न नए लि म्स्लत तत्‌० (घु० ) छ, प, स, द, ये अचर ऊष्म | ऊसड़ दे* (वि०) फीछ, मीठा । कहलाते हैं /-न तत्‌० (स्त्री० ) तपन, गर्मी, | ऊसर तदू ० ( पु» ) वंजरभूमि,“छारसूमि, दिना वपज ओष्सकाल | । की भूमि । ऊसन दे० ( पु० ) तरमिग, पौधा विशेष, जिससे | ऊद तद्‌० ( घु० ) भाद, दु ख था विस्मयसूचक शब्द, जलाने का तेल निकाछा जाता है, यह सरसा दुख में करादने का शब्द । की जाति का दे । ऊहापेह तदू० (पु०) तर वितठके, विचार योग्य । + ह ऋ़ ४ ऋ्‌, सातप स्वर धर्ण, इसका उच्चारण स्पान सूर्द्धा है । उधार लेना, कर्जा करना ।--दाता (गु०) मद्ाजन, ऋ तत्‌० ( अ० | गह॑णवाक्ष्य, निन्‍्दाचचन, (स्थ्री० ) ऋण देने वाला ।--पत्र (पु०) ऋणमग्रहण सूचक अदिति, देवमाता, परिद्यास वाक्य, विकार, (पु०) पत्र, तमस्घुक |-मतकुण (छु० ) जामिन, सूंय, गणेश । प्रतिमू ।--मुक्त ( गु० ) ऋण परिशेोधित घार- ऋष्‌ तत्‌० (पु०) बेद विशेष, ऋगवेद, मन्त्र विशेष । ॥' रहित ।--मुक्तिपन्न (०) ऋण परिशेध सूचक ऋषकध तल्‌० ( पु० ) घन, सम्पत्ति, सुबर्ण, पितृघन, पत्र, फारिगसती ।-मार (पु०) जे कर्जा / ट्विस्सा। | नहीं चुकाता --मार्गण तव० ( पु० ) प्रतिभू, ऋतत ततू& (9०) रीछ, मालू, नत्षत्र, मेष दरप भादि | ४. शशि, भिल्षार्वा, रैवतक पर्वत का पुक श्रश । शौनक धूप ।-- श (३०) चस्द्र, शशघर |--जिह्ना तत्‌० (पु०) कु या कोढ़ का एक भेद [--पत्ति तब्‌० दूसरा कर्जा काढ़ा जाय | (१०) चस्द्रमा, ज्ाम्बवान |-घान तत्‌० (१०) | ऋणिक तद॒० (पु०) कर्दार । पर्वत विशेष जो नर्मदा के किनारे से शुनरातत ऋणिया तदु० (६०) ऋणी, घारता जामिन, जमानत्तदार ।-पनयन ( पु० ) ऋण शेतधन, उधार घुकाना, कर्जा दे देना। ऋणां तद्‌० (पु०) पुर कर्जा अदा करने को जो कक है ! ऋणी तत्‌० (पु०) देवदार, कनंदार, उपकृत । ऋग्वेद्‌ तत्‌० ( घु० ) चेद विशेष ।--ी तद्‌० ( वि० ) | ऋत तद० ( घु० ) सत्य, यथार्थ, बृत्ति विशेष, शथ ऋग्वेद का जानने घाटा या परम्परागत जिसके बूत्ति के द्वारा निर्वाद, अक्ष, मो, ( गुर ) दीछ, ऋश्वेद्‌ का पाठ ही मुक्य दे। । पूमित ।--धामा ( 9० ) विष्णु, नारायण । ऋतचा तद्‌० (स्री०) वेदमस्त्र, चेद, काएडी, काण्डिका। | ऋतपर्ण या ऋतुपण तत्‌० (पु०) भ्रयोष्या के राजा । ऋचीक तव्‌« (५०) जमदप्ि के पिता | ऋतदेय तद्‌० ( घु० ) छोटा, यज्ञ विशेष । परच्छ दे० (पु) रीछू (--रा (ह्वी०) वेश्या । ऋति तत्‌० (स््री०) निन्‍्दा, स्पर्धा, मारे, गति, मक्ल । ऋजीप तव्‌« (पु०) सामछता की सीठी या कोक, | ऋतु त्त्‌० ( धु० ) वसन्‍्त आदि छू प्रकार का काल | लोहे का सपा । “-मत्ती ( स््री० ) स्री-कुसुम, रमेदर्शन, दीछि। ऋज्ञु तत० (गु०) अवक्र, सरल, सीधा, खूधा |-- रजम्बब्या, स्रीन्‍्धर्मिणी, पुप्पवती |-राज् (५०) काय ( घु० ) कश्यरमुनि, ( गु० ) सीधा शरीर । |. इसन्तकाछ [--स्लाता (स्री०) रजेजर्शन के अन- भुज ( गु० ) सीधी रेखा था भुजा ।--मुजत्तेत्र स्तर चतुर्थ दिन स्नाता स्त्री ।--स्षान (पु०) रजे- ( पु० ) वह छेत्र जे कई सीधी रेखाओं छे घिरा दु्शनास्त चतुर्थ दिन का स्नान । [याजरू । दहे। ।--सपमाव (पु०) सरबास्त-करण, सदुन्त - | ऋसग्यिज तत्‌५ (० ) यज्ञ कराने बाला पुरोद्धित, करण विशिष्ट । अऋद्ध ठद्‌० (यु०) सम्पद्ठ, घनादय, समद, शीपन् । ऋण तथ« (ए०) इघार देना, कर्ज /--भहण (०) | ऋछ्धि तत्‌० ( स्तो* ) ससद्धि, घन, सम्पत्ति, विभव, ऋतिया इड्धि, एक औषध का चाम, पार्चती, गिरिज्ञा |-- सिद्धि तद्० (ख्री०) समृद्धि और सफडता ! ऋतिया या रिनिया (पु०) कज़ेदार, घरता ! ऋतली दे० (ए०) देखे। ऋणी | ऋतशभु तत्‌० (पु०) एक गया देवता । ऋश्ुक्ष तत्‌० (पु०) इन्द्र, स्वयं, वचन | ऋश्ञुक्ञा तत्‌० ( ध्ी० ) इन्द्र!णी, शची । ऋषस तत्‌० (पु०) श्रेष्ठ, ऋषिश्रेष्ठ, वैल, ध्प |--देव तत्‌० (घु०) राजा नाभि के पुन्न जितकी गणना विष्णु के चोबीस अबतारें में है |--ध्यज्ञ तत्‌० (४०) शिव, स्षादेव । ऋषभी ठत्त्‌० (खी०) पुरुष के रंगरुप वाली स्त्री | ऋषि तच॒० (०) मुनि, तप्रस्वी, पसी, ताप ॥-- राज (घ०) प्रधान ऋषि ।--मित्र (१०) शान्ति प्रिय, रामचन्द्रिका में विश्वामिन्न के लिये इसका प्रयोग किया गया है । ऋषिकुल्या तत्‌० (स्री०) नदी विशेष | ऋषिक तत्‌० ( छु० ) वाल्मीकीय रामायण में वर्णित दक्षिण का एक देश । ६८१९७: एकचक्र ऋषीक तत० (पु०) ऋषि का घुष्र ऋषीश तत० (पु०) ऋषियों में प्रधान, ऋषिश्रेष्ठ । ऋषणिक (५०) दक्षिण का एक देश । इसका इबलेख वाल्मीकि रामायण में है । ऋष्य त्व्‌० ( घु० ) सग विशेष, चितकबरा झूग । ऋष्यकेतु तत्‌० (9०) अनिरुद्ध, ऊपापति ) ऋष्यप्रोक्ता तत्‌० ( ख्री० ) सवावर, औषधि । ऋष्यसूक् तत्‌० (घु०) पर्वत विशेष, जे। क्रिपिक्िल्था। के पास है । ही ऋष्यश्टडु तत्‌० ( पु० ) तपञ्रभाव सम्पन्न महर्षि, ले।म पाद राज की कन्या शान्ता इनसे व्याद्री ग्रह थी, इन्हीं के द्वारा इत्रे्टि यज्ञ कया कर राजा दशरथ ने चार पुन्न प्राप्त किये थे । ये महाफिं विभाण्डक के पुत्र थे। स्वर्गीय अप्घरा उर्वशी के देखने से विभाण्ठक महपि का रेतस्खलम हुआ | सेयेगवश घह जरू में गिरा, जिले एक हरिणी ने जत्न के साथ पी लिया । बसी गर्भ से ऋष्यश्वद्नः उत्पन्न हुए थे । ऋ ल्ञल ऋ तत्त्‌० ( स्री० ) खर का आउवा वर्ण, देवसाता, शव, असुर, दिति, मय । ल-ल्ट्र स्वर का नवस और दशम वर्ण | हन श्रक्तरों का अगेग बेझे में दाता है, भाषा में नहीं । प्‌ नागरी चर्णमराला का स्थारहर्वा अक्षर जिसका उच्चारण ख्यांच कण्ठ और ताल है । प्‌ तब्‌० ( अ्र० ) अनसूया, आमस्त्रण, अलुकम्पा, आह्वान, सम्बाधनार्थक, ( घु० ) विष्णु | फँड़ा बड़ ( गु० ).उलछरा सीधा । फँड़ी (ख्वी०) रेशम का कीढ़ा विशेष | एक तत्‌० (ग्रु० ) भ्द्धितीय, प्रथम, झुख्य, अन्य; | केवल) प्रथम संख्या । एक शाध तच* कुछ थोड़ा, एक या आधा । एकई सदू ० श्रनन्‍्य, वही, अभित्न, छुल्य, समान | पएकएक तव्‌० एथकू इथक्‌, भिन्न भिन्न, प्रस्येक। ण्‌ घुकक ठत० एकाकी, अकेला, निशला, असहाय | एक काल तद्‌० ( गु० ) सप्तान खमय, पुक सम्तय, चुगबत्‌ । एुककालीन दव्‌० (गु०) समकाल उत्पन्न, पुक समय, एक कात्ठ, एक ही चार | हु एक की दस खुनाता दे* ( वा० ) स्वक्पापराघ का अधिक दण्ड, एक गाजी देनेवाले का दस यालती खुनाना । : एकगाछी ( स्लरी० ) नाव विशेष जे पुक लम्बी कड़ी को खुखला झर बचाथी जाती है । घुकेचक्क तत्‌० ( छु० ) सूर्य, सू्र का रथ । प८ पकयक्रा (. रैण८ ) एकशफ परकचक्रा तब ( स्री० ) प्राचीन नगरी जो चारा के पास बतलाई ज्ञाती है । पएकचर ( वि० ) अकेशा चरने वाला, इका । [मना पएकचित्त तथ» ( गु० ) एकान्ती, पूछ मन, अनन्य- पक तव॒० ( वि+ ) पूर्ण प्रभुत्व, भ्रकणटक । पएकज्ञन्मा तत० ( १० ) थूद्द, राजा । एकज्ञाई तद्‌० ( ख्री० ) सकृत प्रसूता, पहिलाठी । पघुकदक दे० (पु०) एक तार से देखना, सतृष्ण दृष्टि एकट्टा दे० पुक स्थान में सैदय किया गया । [विशेष । पकड़ दे० (घु० ) ६ बीधां का इथ्वी का नाप प्रकडाल (पु०) एकसा, पुर सप्तान, वराजर । (घु०) _ छुरा, कुठार । ॒िन्त्रयुक्त, पुक मतावलम्पी । पकतस्त्री तव्‌» (गु०) ए5 प्रशु छे बशदर्ती, एक पुऊदरा तदू० ( ६० ) अतरिया ज्वत, तिज्ञारी | परकतद्वी दद्‌० ( घु० ) पुक जगह) (स्ली०) मिरजई | एकता ( ख्री० ) एकाई, समानता, सेल, एकाब, » मिलान; अनन्यता, (बहुत लाग पुछता के स्थान में ऐक्यता कद्दा करते हैं जो भ्रशुद्ध है ।) घकतान तत्‌० ( गु० ) एकाग्र, एक विषयासक्त चित्त, लीन, तम्मय, बरावर तान, एक स्वर । पएुकताल तत्‌० (पु०) समस्वित तार, समताल, तुल्यकूप, मेलतताए, पुकस्वर । [गुस्माई । पएकतीर्थी हद्‌० ( प० ) [एक + तीर्थ + इच्‌] सतीर्थ, पएकतीस (दे०) पक ऊपर तीछ, ३३ | [यन्त्र विशेष | एकतुम्धी तत्‌० (छ्ी* ) वानपूश, तम्वूरा, बाद्य- एक॒न्न तद्‌० ( भ्र० ) बुक स्थान में, एक दौर, एक सक्ष में मिद्नित, इकट्ठा ) पञक्त्ना तद॒० ( पु० ) टारल, कुत्न जाइ, इकट्ठा । पक्षित तद्‌५ (वि०) इकट्ठा डुआ, सैगृद्वीत। पएकदा तत्‌० ( अ० ) पुक समय, एक यार, किसी समय | पुकदिकू तद॒० ( ग्ु* ) पुक देश, पु भाग, समदेश | पकदेशस्थ उव० ( गु० ) पुक देशी, समदेशीय | पुकदेशोय छत॒० (वि० ) एक देश का, ये पु डी अवसर या स्थान के लिये हो एुकदेंद तत्‌» ( बु० ) बुधमद, पक शरीर, अ्रमिन्न, गोत्र, दश ! >एकथा दे ( अ० ) छेदछ; दुक दार, पुक प्रसार । पएकन, पकरद तद* एक ने, “नम +ह के निकले; रच का, ने, एक मे, किसी के । [दूसरा । एक न एक ( वा० ) एक नहीं तो दूसरा, एक था पकपद्दा देन ( ३० ) ओढ़नी, पिछौरी । पुकपली तव॒० ( खो० ) पतिध्रता, सती, साध्ची वुकपरामर्श तत्‌० (पु०) एकतन्त्र, पुकमत । एकपलिया दे (पु०) घर जिसमें बढैर न हो । एक्रपाश तत्‌० (पु०) एकपारधे, एक तरफ | एकपमुत्व तद्‌० (१०) एक राजस्व, परुकाधिपत्य । एकवारगी दे? (क्रि० बि०) एक साध, एके दफा । एकगल दे० (पु०) तेज, प्रताप, स्वीक्रारोक्ति । पएकमत दे० (गु०) एक सम्मति घाल। | एकमुंदा दे० (गु०) एक मुँद वाला । एकयेनि तत० ( गु० ) सद्दोदग, एक माँ के । पुकरंय दे० (वि०) समान । पकरार दे० (पु०) स्वीशार, वादा । एकरूपए तत्‌० (8०) समसाव, एकसा ] पएकलत्य सतत» ( घु० ) निपादराज दरघलु का उप और वोणाचये का शिष्य, यह अपनी गुरुमकि के कारण विख्यात है । व्रोणाचार्य ने इसे नीच ज्ञाठि सममकर अ्रस्रविद्या सिखद्ाना थ््वीछार किया, तब यह मिट्टी की द्वोयाचार्य की सूतिं बनाकर और उसीछ्षे अपना अध्यापक्ठ समम, स्वयं अस्प्रतरिया सीखने छग।, कुछ दिन में यद ऐसा अस्त्रविधां में चतुर निशा कि इसही लक्ष्यवेधनाचादुरी देख श्रद्ुन का भी चक्रित द्वाना पढा | पएकला तदू० अर्ेला, एकाकी+ निराला, एकल, सदहायद्ीव । विसन, चादर । पघकलाई तदु० ( 9० ) ओरढ़नी, ९कपट्टा, उत्तरीय एकला दुकेला तदु० पुछाकी, द्वितीय रहित, एक वादा] पएकलिट्ठ (पु०) मेवाड राज घने के प्रधान इषट देव एकलौटा ) त्तदू ० ( पु० ) पुर्काका, अरद्धितीय, एक एकलौता मात्र पुत्र, अकेज्ा ही पुत्र । एकथचन (३०) बहुवचन का ३एटा) जिसे पुक ब्षु का ज्ञान दो । पएकवचार तु» एकदा, पशकालछ | एकशफ ठत्‌० ( घु० ) घेड़ा, पुक खुर के जस्तुमाव् । पकसडूः पएकसद्भ तद॒० ( पु ) [ पृक्ठ+ सञञ +- अच ] विष्णु, एक साथ, सहवास | प्रकसड्री व्तु० साथी, लहवासी, समभिव्यचहारी, संगी, मित्र जो घुख ढुःब में साथ दे | एकसर तदु० (यु०) श्रकेला, एक पढले का। [वार । एकसाँ तदू्‌० ( ग्रु० ) सम्मान, अराबर, समधल, एक एकसार तद्‌० ( धु० ) समान, एकरसा पुकसा । एकहरा दे० (पु०) पतला, सीना, एक परत । एकहन्तर (पु०) खंक्ष्या, चिशेष, ७१ [हुए एक वर्ष हुए। एकहायन तव्‌० ( गु० ) एक वर्ष का, जिसके उत्पन्न एकहारा दे० ( शु६ ) दुर्वक् शरीर, कृश, छ्लीण, एक . पढले रा, एक परत का ! एका वत्‌० ( स्त्री० ) हुए भगवती, पुकाृर्छी, लबू० (एु०) मेज्ष मिलाप, ऐल्य, एकत्ता। पुकरोद्देश्य, सम्मति, सहमति । एकाई तदू० (स्त्री०) पुकता, पुछ का साथ, अडूनें की राणता में प्रथम झद्कू का स्थान, या उस स्थान का भ्रद्ठू । पएुकाएक (क्रि३ वि०) श्रकस्मात, श्रचानक, सहसा । प्रकाएकी तत्‌० (ञर०) अकस्सात्‌, सहसा, श्रवामक । पदुकाकार तदू० (गु०) [ एक + आकार ] एक समान, छुल्य आकृति, एक रूप, खदश, एक धरे, भेद रहित, एकसय, एकाचार, पशु सप्ान आचार । पक्काकिन्ह तदू० ( छु० ) अकेले को, श्रसद्ाय को । पएुक्काकी ततु० (गु०) अकेला, एक ही मात्र, केचछ एक, आपदी भाप, सहाय रद्वित । शिक्काचाय । पकाक्ष तत्‌० ( छ० ) एक आंख वाला, काना, कैझआ; पुकाक्तर तत्‌० (घु०) मन्त्र विशेष [-+ तत्‌० (बि०) एक अ्रक्तर का मन्त्र चिशेष । पक्काश्र तचू० ( ग्रु* ) [ एक + भग्‌ + र | अनन्यचित्त, पुकसना, श्रसिनिविष्ट, मनेयेगी, एुकचित्त, आविषट, जिश्चका मच एक ही ओर छगा हे। ।---ता (स्त्री ०) पुकाग्न चित्तता, अमिनिवेश अखिधाय, विशेष सावधानी ले ध्यान, अउल्लुढता --चित्त लचू० (वि०) स्थित चित्त | परकातपत्र तब» (गु०) [ एक + घ्रातपत्र ] सार्वमाम, सद्दाराज, चक्रवर्ती, परकच्छन्न | (६ १०६ ) णकाहिक जादभृभप६तृूह7णपप-:पज:-ज-::::--ज-+3त+_र.. पएक्रात्मता तव्‌० (स्त्री०) [एकात्सन्‌ + ता] असेद, एक स्वरूपता, अभिन्नता ॥ [एक देह, अभिन्न प॒कात्मए तब्‌ू० ( ० ) [ एक+आल्मन्‌ ] एक आण, एकादश तत्‌० ( ए० ) [ पुक + दशन्‌ + ढट्‌ ] संस्था विशेष, ३१ ग्यारह ]-] ( स््री० ) तिथि विशेष, पक्त का ग्यारदर्चा दिन, चन्द्रमा की पुकादश कक्ा की क्रिया विशेष, दरिवासर, वैष्णदों का श्र विशेष । एका्दिक्रम तब (पु०).[एक+-आदि + क्र + अल्ूू] आहरुपूिक, अचुक्रम, क्रमानरूप, क्रमिक | पुकाधिपति तव्‌० (ए०) [ एक + अधिपति | चक्रवर्ती राजा, सम्नाट्‌ सिस्ठुत्व । प्रकाधिपत्य तत० (घपु० ) पूर्ण अधिकार, पूर्ण एणकाऊुः तव्‌० ( वि० ) पुक अद्ज का | ( छु० ) छुघप्रह, अन्दन ।--ी तत्‌० ( वि० ) एक ओर का, एक पक्ष का, एकतरफरा, हंठी । एकान्त उव* ( श॒० ) [एक+ अन्त] विभ्वृत, निर्जन, निराला, चलग, भिन्न, अ्रत्यन्त, नित्तान्त ॥--+ कैबल्य तत्‌० (5०) जीवनमुक्ति, सुक्ति विशेष। “ता तत्‌० (सत्री०) अकेलापन, तनद्ाई ।--ी तद्‌» (पु०) भक्तविशेष +--वास॒ तल» ( घु० ) अक्लेछा रहना, सब हे न्यारा रहना ।-बासी तद्‌० ( वि० ) निर्जन स्थान में रहने बाला ।-- स्वरूप तत्‌० (वि०) निलिप्त, सहन । पएुकान्तर तत्‌० ( धु० ) एक ओर, श्रढ्वगंट /--काश चत्‌० (पु०) एक ओर का कोना । एकायन तत्‌० (यु०) एुकमति, एकमार्ग, एकविपया- सक्त चित्त, एक स्थान ! एकार तव्‌० (पु०) [ए+कार] ५ अक्षर, पुकाद्श स्वर वर्ण -पन्‍्त जिसके अन्त में ए हो | पकार्णव तत्‌० ( छु० ) [ एक + अणेव |] शुकाकार, पक समुद्र । तिलये चाहा, एक श्रवात्रा । एकार्थ तद्‌* ( गु० ) [ पुक + अर्थ ] समानाये, छुल्य- एक्लाध्रित तव्‌* (यु०) [एक + आश्रित] अनन्‍्यगतिक, - एक के ही आश्रित | घुकाह त3० (पु०) एक दिन, झेवल एक दी दिन जीने बाला कीर, एुक दिन में पूरा होने वाछा | पकादिक तत्‌० (ए०) [ एक + अह + इक | एक दिन पएक्कीरुसण साध्य, एक दिन में ही उत्पन्न द्ोने बाला, प्रति- दिन उत्पक्तिशील । पकोकरण तत्‌« (प०) एक करना, गह्ठु बहू करना। एकीकृत तत्‌० (वि०) मिक्नाया हु आरा, मिश्रित किया । पकीमाव तत्‌” (घु०) मिहरना, मिज्लाना, इकट्ठा देना, पएुकत द्वोना । परकेला तद्‌० (पु०) एकाकी, अकेला । पकैक तद० (गु०) प्रस्येक, प्रति एक | पएकातरसे (वि०) १०१ । परक्रेतरा (वि०) पुक दिन छोडऋर झाने वाढा। (पु०) रुपये सैकरे ब्याज | पकेदिएट तत्‌० (पु०) श्राद विशेष, जो पुर पिढ के उद्देश्य से वर्ष में पक ह्वी घार किया जाय । व्यक्ति! एक तद्‌* (गु० ) एक भी, कोई भी, श्रनिर्धारित, एकौऊा दे० (वि०) अ्रकेला, ५काकी।| एफोतना दे० ( क्रि० ) घान गेहूँ में उस पे का निकक्षना जिसके गासा से बाढू निकछती है, गर- भाना | पक्का दे” (बि०) पृक वाला,भरकेला, पुक घोडे की गाडी विशेष, इक्ा ।--घान दे० (पु०) इका इकिनेवाला । “-वानी दे० ( स्ली० ) इका हॉक्ने का काम । पक्यानवे दे* ( पु० ) ६१ । पस्यावन दे० (१०) २१ एक्यासो दे (स्रो०) ८ । विश्वादुभाग | पढ़ दे० (ख्री०) घोडे के चलाने का काटा, चरण का पड़क तद्‌० (पु०) मेड, सेढ़ा, मेप 4 पड़ी ( ख्री० ) पैर का पिछुछा साग । पढ़ा तद्‌० (वि०) दक्की, बवान । पढ़ा देढ़ा दे० वौका, तिरदा, टेढ़ा । एण तत्‌० (पु) इरिण, स्वग, द्विरन रो (स्त्री ) दिरनी, रुगी ।-ेन (स्त्री०) दिरत का बहुवचन “मंद (पु०) कम्पूरी एतत्‌ ठद॒७ ( सर्व० ) यद्द, पुरोवर्ती, सम्मुखस्पित ॥ “+कॉल (घु० ) उपस्यित काल, इस समय, सम्पति --कालीन (पु०) [प्तत्‌+काल+ ईन] इस काब्वर्ती, भ्राधुनिक | एतदूर्थ तव्‌० ( ऋ० ) इसलिये, इसकारण । ( र१० ) ण्द्दो एतद्देशीय तद्‌० (वि०) इस देश का, इस स्थान का । एंतना दद्‌० (गु०) इतना, इत्ता, पत्ता । घरताइक तद॒० (गु०) एवाइश, ऐसा, एलादी । एताद्वश तद्‌० (गु०) ऐसा, इसके जैसा, इस प्रकार का; ऐसा ही । घ्रतावत्‌ दव॒% ( अ* ) इतनादी, ग्र्द्ा तक | पएतावता तत॒० ( अ० ) दस्त करके, ईस कारण, इस हेतु, इसलिये। घतावन्मात्र तदु० (श्र०) इतना ही, यही, केवल । पतिक दे० (वि०) इतना, इतना ही । घुनस तदू० (पु०) पाप, अ्पराघ । नी दे० (9० ) एक बहुत चढ़ा घूद्द, जे दषिण के पश्चिमी घाट में पाया जाता है | एमन दे० (पु०) पृक शाग विशेष । प्रयड तद्‌० (३०) भरण्डी रंडी ।-खरबुज़ा (३०) पपीता +--सफेद दे० (पु०) सेशशल्ी, बागररेंढा, नी हद» (स्त्री०) पुक प्रकार की काडी, मिस्र छुंगा, धामी भर दर्रेंगडी कहते दें । दराफिर या एराफेरी दे” (३०) हराफेरी, सट्टा बहा । परी दे० (स्त्री०) सम्येधत । दाना जाता है। पलक दे* (एु०) चलनी जिसमें मैदा पा मद्दीव धादा पल ठत्‌० (स्त्री०) इलायची, पुलाची । एढ्ुवा दे (३०) चौषध विशेष, झुतच्बर । एलोई दे० (१०) हे दमारे ईस्वर | पलेईरे (अब्य) यह देखे, व्यज्ञ सूचक शब्द । एल्लाक तदु० (४०) यद्द लेक, यह संसार । घुच दव्‌० (अ०) ऐसा, इस प्रकार का, निश्य करके, माद्र, केवक्ष । [कार।--अस्तु (ध०) ऐसा ही दह्ो। एवम्‌ तत्‌० (अ०) ऐसा द्वी, इस प्रकार, और भन्नी- एड (सर्वे ०) यह । पद्तियात दे० (पु०) सावधानी, चैकसी, परदे । पएद्दसान दे० (पु ) हतक्षता ।-सन्‍्द्‌ दे* हृतश । पद्दा ठदु० (पु) यह, ऐसा, यददी | पह्धि दद्‌* (यु) इस, इसके । पहु या एट्ट तत्‌० यह भी, और भी, यही । एट्टेतुफ़ ठव्‌० (गु०) इस लिये, इस कारण । पद्दे (अष्यय) अरे, दवा, सम्बेधनवाची शब्द । पे ( (११ ) पं एपमः अिनननननप नल» 39 न न+++++-+4 4० _ 2 सतपार-3++ 7 + -पन-+-+-+> न ऐे्‌ , ऐद्वादश खरबर्ण है, सस्वेघन श्ा्धाव, स्म॒रणार्थ, कक... आमन्त्रण, (पु०) सहेश्वर, शिव | ऐँच (पु०) खिचाव, तान, सछुतेच । ऐचना (क्रि०) खींचना, तावना 4 एचाताना (ग्ु०) देखने में जिसके श्रास् की पुतल्ली दूसरी ओर हे। जाय । ऐँठ ( खी० ) मरोढ़, गाठ, लपेट, पेच ।--म ( खी० ) मरोइन, लपेद ।--ना ( क्रि० ) बढचा, मरोद़ना । “-खाना (क्रि०) दूसरे से मरोड़वासा | पऐुँठा (पु०) रस्सी घटने का पुक पंच । एूडयैंड (गु०) टेढ़ामेढ़ा, तिरद्धा । ऐंड्रा (गु०) देढ़ा। ऐंडुरी (स्री०) गेंडरी, बीड!।.. [सिम्मति; सहमति | पऐक तदू० ( छु० ) स॑० ऐक्य, एकता, पुकमत, एक ऐेकमत्य तत्‌० (पु०) सम्मति, एकता, पुछमत । ऐकान्तिक तत्‌० ( शु० ) निवास्त, अत्यस्त निज्जन, पुकान्त, पुकान्तवासी, वैष्णव सम्प्रदाय के भक्त विशेष । [पुक दिन के श्रन्तर से उत्पन्न, अन्तरिया | पऐकाहिक तद्‌० ( गु० ) एक दिन का, एकाहनिष्पन्न, ऐक्द तत्‌० (५०) समानता, एकता, मेल । ऐगरुण तदु० (७०) श्युण, अनाढ़ीपन, दोष । एच दे० (छ०) सड्ोच, इंच, खेंच, टान। ऐंचना दे० (क्रि०) ईचना, खींचता, टानना । ऐक्क्तिक तत्‌० (गु०) इच्छा पूर्वक, स्वेच्छाधीन । ऐँट दे० (ख्री०) बल, मरोढ़, गाँठि, अकड़ । पऐठना दे० ( क्रि० ) मरोड़ना, बल देवा, वक्ष खाना, मरुद्द जाना । पेडूरी दे? (स्त्री०) गेदुरी, हडुरी, बीड़ा | - फेतरेय तत्त्‌० ( पु० ) ऋग्वेद का एक ब्राह्मण, वान- प्रस्यों के लिये एक झरण्यक । उेतिहासिक तत्‌० ( वि० ) इतिहास सम्बन्धी, जे इतिद्दास से सिद्ध हे। । छेतिहा तब (ए०) परम्परा प्राप्त प्रमाण, पौराणिक, इतिहास 'प्रसिद्ध प्रधादु कथा | फेल तदू० (पु०) (सं० अयन) घर, सकान,च्यान, (वि०) डीक, ज्यों का व्येरं, “ऐन समग्र पर पहुँचू गा ३” पेनक दे० (ख्री०) चश्मा, व्पचकझु । पेना दे० (पु०) आइना, दर्पण । ऐेनि तद्‌० (धु०) खू्॑पुत्र ।.. [दरिण मारने वाढा । पऐेणिक तव० (पु०) सेपचाशक, सेढ़ी के सारनेबाल्ता, ऐेन्द्रआजालिक तत्‌० (घु०) इच्द्रजाछकारक, साथावी, सायावान्‌, वाजीगर । ऐपन तदू० (पु०) चावछ हल्दी के एक साथ बट कर तैयार की हुई साइ्नलिक द्ब्य जो देवकर्म में काम आती है । पेब दे० (४०) देप, दूपण । ऐबी दे० (बि०) खेटा, छुरा, दुष्कर्सी । ऐवारा प्रा० (पु०) सेड़ बकरियें का वागू । ऐया दे० (स्री०) दादी, सास, बढ़ी वृढ़ी सी । ऐयार दे० (पु०) चालक, धूर्त, चलताएर्ज़ां | पऐेरागैरा (जि०) वेगाना, इधर उधर का, तुच्छ । ऐरापति तदु* (पु०) ऐे्‌रावत हाथी । # घबक,, बरम, पऐेरापति देख्यो, तरगगन ते धरणि घसावत | /--सूर ऐेरावण तत्‌० (गु०) ऐराचत हस्ति, राषण के एक जुच्च का नाम । पऐेरावत तब ( पु० ) इन्द्र के हाथी जो समुद्र से निकला था, इन्द्र का सीधा घनुप, इराबान मेध, बिजली, ,एक माग का साम, नारंगी, बदृहर [-नरी (स््री०) ऐेरावत की हथिवी, एक पौधे का नाम, एक नदी क्या नाम, रावी जे पंज्नात्र में हैं, बिजली । ऐेरेय तत्‌ (9०) मद्य चिशेष । फेल दत्‌० (३०) इल्लपुन्न, परखा ऐश दे० (छ०) भोग विलास, चैंन, श्राराम । ऐेशानी तद्‌० (वि०) ईशान कोण सम्बन्धी । ऐेश्यू दे” (पु०) चौपाये जानवरों का पक रोयविशेष जिसमें वे पागुर नहीं करते, क्योकि इसमें उनका झुँद् बंध जाता हैं । छेश्वर्य तन्‌० ( घु० ) बिभव, सम्पदा, गौरव, सहिसा, महत्व --शाती,--वान्‌ ( शु० ) भाग्यवान्‌, आरब्धी । [साल । ऐ ेपमः तत्‌० ( अऋ० ) वर्तमान, संचत्लर, एसें, इस छेषीऊ ग वधय जम दया" तव० ( ७० ) व्वष्टादेव का मन्त्र पदकर चलाया ज्ञाने घाढा शख विशेष | पेसा तद्‌० ( गु० ) इस प्रद्रात, इपके समान । देखा तेघा तद० कुछ पेदी, न सलए न बुरा, न वाद वाह, न दी छी | ( ११२ ) जझौथल पोधल ऐसे ( क्रि०्तरि० ) इस प्रकार, इस ठेव छप्रे--हि इसी प्रह्चार से, इसी तरह से । पेद्दिक तत्‌» ( गु० ) इस लेक के भे/ग, या द्वोने चारा, यर्दों उत्पत्न, सासारिक, दुनियावी ॥ हः पेहे दे ( क्रि० ) आ्रावेंगे, आचेगा । शो ओ त्रयेद्श स्वसवर्ण, इसझ्ा इधारण ओछठट और कण्ड | से द्वेता है, ( श्र० ) करुणा रम्टति, सम्येघन, ब्रह्मा, विष्णु, आइ, आाद्ा । अं (था०) हाँ, अच्छा, तथास्तु, प्रणव । ऑदइछना (फ्रिण) चारना, न्‍्योछावर करना । आँठ तब्‌० ( घु० ) ओ्रोड, ग्रेट, अघर, द्वोठ । आँड़ा दे० (पु०) गद्दरा; गम्मीर । आधा तद्‌० (पु०) औंधा, डलटा, तल उपर । आ्ीझा दे० ( घु० ) दापी फ़साने का गड़ूढा । ओई दे० ( पु० ) बृछ विशेष । झोक तत्‌० (पु०) घर, मकान, गृढ, स्थान, आश्रय । ++ना सद॒० ( क्रि० ) के करना, |--पति तत्‌० (३०) यूये, चन्द्र ।-- ६ दे (स्त्री०) वन, के ) ओ:फारान्त (वि०) दे शब्द जिनके अन्त में ओ हे। असली तदू० (खी०) उछल, इलूखब । अ्रोगरा तद्‌० (पु०) सिचढी, पथ्यविशेष ॥ शोध तव्‌* (१९) समूह; देरी, थोक, राशि । आरोट्टार घत्‌* ( पु० ) [ ओम + कार ] प्रणव, आय बीजमन्त्र | ओडछीा तत्‌« (पु०) छिद्वारा, इचका, रतावला, नीच । आओज्ञ तव्‌० (६०) बढ, दीप, तेज, पराक्रम, प्रताप । आओजस्वी ठत्‌० ( चु०) प्रवापी; बली, सीदंणचित्त, तेनध्वी | शोक दर (पु०) पेट की चैक्ी, पेट, अति | आम तद्‌० (पु०) मेक, घक्ता, ठाकर, पचैनी, रत । झोसल तद० ( खी० ) भाइ, भोट, छिपाव, परदा, दही, एचआान्व ।--करना (क्वि०्) छिपाना, परदा काना । ओकफ़ा तद्‌० ( धु० ) मोकस, टोनहा, यन्त्रो, सान्त्रिक, उपाध्याय, उप्राध्यय शब्द का ही यद अपम्ंश है, इसअा प्राकृतरूप उवम्मश्रों है, उपच्माश्रो डी से ओमा मिकरा है | सरयूपारी, मैथिल प्राह्मणे की धुक जाति ।-- ई या यत तद्‌० ( खी०) साड फूक। झोद त़्दू० ( ख्री० ) आई, पक, टद्ठी, छिपाव, बचाव -करना ( क्रि० ) छिपाना (द्वीना (क्रि०) छिपना । [विने।ठा निकाक्नना आओटना तदू० ( क्रि० ) भाई करना, रेतना, रूई से आओटनी दे० (स्री०) कपास भोटने की धरसी । आओडा तदू० ( प्रु६) झाड, लुकाव, बैठन, परदे की दीवाद्व । आठ वदु० (३०) श्रेष्ठ, श्राठ, ह्वाठ, अघर । आओठमंना (क्रि०) थ्राराम करना ! ओडइशहि (क्रि०्) रेकेंगे, व्चादेंगे । लिछवार । झओोड़न तदु* (०पु) ठाल, फती] - पाँड़े पटेवाल ढाछ, घोड़ा तदु० (पु०) साँचा, दोकरा, दौरा । शरोढ़न दे० (वु०) चादर, चद॒रा | आओढ़ता तदु० (क्रि० ) पदनना पढ्विसना, ( पु० ) रजाई, ओडढ़ने की वस्तु, पह,। लेई | झोडढ़नी तद्‌ ० ( ४० ) ख्त्रियों के थरेढ़ने का कपड़ा । ओढ़र तद्‌० ( प्राकृष ) ( घु० ) बदाना । औरत तत्‌० (गु०) आराम, श्रालस्य, घुना हुआ, गुपा हुआ | ( घु० ) ताने का चूत । ओवप्रोत तद% (शु ) आदा टेढ़ा, ताना बाना, लम्बाई में प्रथित, चैौडाई | ( पु० ) ताना बाना । झोता दे० ( वि० ) उतना | न्‍ “मोदि कुछछ का सोच न झओता । -- जायसी आतु तद॒« ( खो० ) घिछी, पिछड़े | आतुप्छुत ठत्‌० ( गु० ) उल्टा, विपतत ] आओयल पोयल देर उठा, चित्त, उटए पछट ॥ आोद्‌ आद दे० ( पु० ) नमी, तरी, सील | आोदक तद्‌० ( पु० ) पानी, जन्न । आोदन ततव्‌० ( पु० ) भात, रींधे हुए चांवल, अन्न ) ध्योदनी दे० (प०) बरियारी, बीजब्रनन्‍्च | ध्ोद्र दे० (पु०) उद्र, पैट । आदा तवब्‌० (छु०) गीला, भींगा, भींज्ञा, आदे * शोधे तद्‌० ( घु० ) छगे हुए, अधिकारी, भीतरिया, बम सम्प्रदाय में ठाकुर जी की रसेई यनाते वाले को भी कहते हैं | [पानी का निकाख । झोना तद॒+ (५०) ताछाव में पानी मिकलने का मार्ग, ओनाडु दे० ( थि० ) ज्ोरावर, बली । ओनामासी तदु" ( ख्री. ) भचरास्म्भ । आप ठदू० (स्त्री०) सुन्दरता, उमचमाहट, घेंट, जिलइ । आोपची तद्‌० ( घु० ) अखधारी, मिली, येद्धा । आपसा तदु० (क्रि०) घेटना, साक्ष करना, जिल्ह करना । आपार लदू्‌ ० (घु०) नदी के इस पार [ ध्योम्त तत्‌० (क्न०) प्रणव, ओोछ्ार ।. [छेर, सीमा । ध्योर तदू० ( स्ी० ) पार्व, तरफ, दिशा, 'प्रलग, पार, ओरमा दे० (धु०) पुछद्दरी सिलाई। पऋोरहना (छ०) इलहना, शिश्वायत | झओरी दे० (पु०) पक्षपाती, ओलती, ( अब्य० ) स्थियों को सम्बाधन के लिये शब्द आोरे दे ० (9०) श्रोक्ते, उपकछ, वर्षा के पत्थर । झ्योरेह्दा दे* (पु०) निर्माण, सृष्टि, रचा । परोत्त दे” (पु०) सूरण, सनाती, जमीकन्द । आोलती दे० ( कवो० ) ओरीनी, शोरी, ढालघे छुप्पर का वह हिस्सा जिससे द्वोाफर घरसाती पानी सीचे गिरता है । झोला दे० (पु०) शिलाइएि, पत्थर, विनैत्ती, इन्द्रोपछ, ६ शृ३ ) झओौंजना मिठाई विशेष दो ज्ञाना ( क्रि० ) खूब ठंढा द्वोता । हे घोली दे० (स्री०) गोद, अचल; पला | ओलेना तदू० (पु०) उदाहरण, तुछनसा | खोपशधि तत्‌० (स्त्री०) घनस्पति, तृण, घास, पैधा । आोप्लीश तत्‌० (पु० ) चन्द्र, शशधर, चन्द्रमा, कपूर । खोप वतच्‌० (पु०) होंठ, शोठ, भ्रघर, रदच्छद, वृन्त- चब्छद ।->रोग (पु०) सुखरोग विशेष, ओ्रोष्ठणण आोष्टी दव्‌० (ख्री०) थिंचाफल, ऊुंदरू । श्रोष्य्य तव्‌० (गु०) थ्रोष्ट द्वारा उच्चारित वर्ण । व छाप फबभम--वे शोष्त्य वर्य हैं । आपछ तद्‌० (स्त्री०) पात्ता, शीत, शवनम | आोखर दे० ( छ्त्री० ) क्षार, जवान गौ, कब्र गाय या भैंस । लिम से । आखरा दे० (प०) बारी, पाली, दांच, पाला पाली, थोसरी दे० (छु०) देखा झोसरा | [क्रिया । ओखाई दे० (स्व्री० ) भ्रत् का भूले से अछगामे की आसार दे० (पु०) दालान, बरासदा । छझोसखीसा दे० (घु०) सिरह्वावा, तकिया । घोह या ओदी तब" ( झ० ) सस्वेधधनवाचक, वाह वाह, दास, झाद्दा । ओोहर दे० (स्त्री ०) ओदट, प्रोकठ | _ + शोहर द्वोहु रे भाद मिखारी | ”--ज्ञाव्सी आरोहरता (क्रि०) कम होना; घदता ) झोहरी दे ( स्त्री० ) थक्राचट, शिथिलता । जोहा तदू० ( छु० ) गाय का थन | झोहार तद्‌ ( घु० ) रध या पाछकी के ऊपर का ऋषदे का परदा । घश्रोष्दि दे० उसझीा, उसे । छरोहे (अज्य०) हप या विस्मयसूचक शब्द | तो आर चतुर्दश स्वस्थर्ण इसके उद्ारण का स्थान कण्ठ और ओष्ट है।(झ० ) श्ाद्वात, सम्बेधधन, विरोध, निर्णय, और (एु०) अनन्त, विःस्तन । ऋं तत्‌० (अ०) थ्रूद्धों का भणव । आओंगी दे० (9०) झुप, सौन, शुंगापन | श्ोंघाई (स्ववी०) निद्वा; ऋपकी ! आंघना दे० (क्रि०) रूपकी ख्राना । आना दे० (क्रि०) अ्रकुलाना, ऊबना | श० पा ---१* औओड़ ( १४ ) ओऔरस ओंड देन (३०) वेडदार, मिद्दी खोदने चाछ। मजडू। । | श्योस्कप्य नत्‌* (एु०) श्रेष्ठता, उत्तमता । झोंठ दे? (ख्री०) किनाग, डोर । आड़ा दे० (पु०) भ्रधाद, गद्विरा, गम्मीर । आोधना दे० (क्रि)) उलट जाना पत्ट जाना । आधा दद्‌० (गु०) उच्चरा, तलऊबर, पट | करा (पु०) औवढा, घामत्टकी ! चला तद० (पु०) घाद्दीफत आम उ2छी, अदिरा -- सार (बु८) गन्धकू विशेष | झौकन दे० (स्त्री०) राशि, ढेर । झौकात (पु०) दैसियत, समय | लिछार हे । अ्रौकारान्त तत्‌० (गु०) ऐसे शब्द जिनके श्रन्त में आौखद या ओऔसूध तद्‌० (१०) बैष्दधि, दवा । आखा दे० (पु०) गाय का चमडा या चरसा । शआौगत तदू० (स्त्री०) दुदंगा, दुर्गंति | आगाहना तदू० (क्रि०) अवगाहना । आमी दे ( स्त्री ) कशा, कोटा, चाबुझ । आगुन या ध्मौगुण तद्‌ ० (३०) अवगुण, देप, सेट, कलछ्ू ।--ी (गु०) गुणदवीन, निर्गुणी, मूर्ख + आदर तन» (गु०) भरगम्य, दुर्गेम, हुस्तर । पौघड़ दे* (३०) भघोरी, सैतज्नी, श्रपशकुन ! के तदु० (श्र) औरचरट, हृटाव, अरकस्मात्‌ 'चा- नक, सहसा | थ्रौचट दे ( स्री० ) सड्ूट, प्रदस, कठिनाई । आोचित्य तव्‌० (३०) उषयुक्तना, उचित का साव | आह तद्‌० (घु०) दारू इक्दी की जड़ | श्ौजार (६०) बढ़ई, लुद्ार आदि के इथियार । आओमाड़ तद्‌० (प०) डेल, घक्का, खाच | आझदन तदु« (पु० जलाव, स्वाछ्, ताप, छुरी । झोदना तद्‌» (क्रि०) जघाना, सुखना, उवालता | ओड़लेमि तत्‌" ( घु० ) चेदान्तवैत्ता थे ऋषि या आचाये तिनका मत वेदान्ससूत्रों में उदाहत है | आदर रे० (ज्रि०) मनमीजी, अ्रटपदी ढार, थे सममी की डरन, बिना पियार #' प्रखनता | आोतार तदू० ( ६० ) अवतार, प्रकट, जन्‍म, अ्रदतीय् होगा (देखो झचतार)। शौत्तमि तद« (पु०) १४ सनुओझों में तीसरे मनु । आओच्तानपादोी तद्‌* (३०) उत्तानपाद के घुष्ध, प्रसिद्ध मक्त भुव, देखे घुच । ऑरत्छुक््य तव्‌० (पु०) उत्खुकता, श्रसिछापा, भावना | आथरा दे* (वि०) छिद्ठा, कम गहरा ) # भ्रति श्रगाध अति ओथरो नदी छूए सरवाय । +विद्वारी । शौदनिक तत्‌» ६ गु० ) सूपकार, परचक, रन्धनकत्ता, रसाइया विद्यर्षी, पेट, उद्र सम्बन्धी आओद्रिक तत्‌० (गुर ) उदरमात्र पेप5, पेटपेशसू, आदात तब» ( गरु०) श्रतदाता, ग्वेत, गौर, शुक्त, सफेद, धाला । दान दे» (३५) घडुवा, सेंत का, सेंत मेंत ऋा । आपदा ठत्‌» (यु०) मदत्व, श्रेएव, सरझता, श्रका- पथ्य,-दातृतव, सात्विद्ध नायक का गुण विशेष ! आऔद्ास्थ तत्‌० (पु०) इदासीनता, चैराग्य, भनिच्छा, मनेमालिन्य ।--माव ( 43० ) पैराग्य भाव, उदासीतता । श्रौद्दीच्य तद्‌" (प०) गुजराती ब्राह्मणों की एक जाति। श्रौदुखर तन्‌० ( वि० ) गूलर का बना, तवे का दना हुभा। आद्यालिक तद॒० ( पु० ) दीमक और बिलनी आदि की वाँबी क कीट के बिठ का चेप या मधु, तीर विशेष । ओद्धत्य तथ॒० (पु० ) पराये गुण का न सइ्ट सझने का आव, छट्टता, दीरास्म्य, उ भट्ट पन,इप्रता, ग्रक्सड पन । ओद्वादिर ठव० ( यु० ) वियाह सम्बत्धी घन, विवाद में प्राप्त खत । आते पैौने तद्‌७ (गु०) अपर, न्‍्यूनाधिछ, घटी बढ़ी । आौपचारिफ तत्‌७ (यु०) उपचार सम्यस्धी, जो केवल कटने सुनते के किये ढ़ शरीर यपार्थ त हो ! ओपसयिक ठव« (गु०) न्याय्य, वपयुक्त, येशय | बद्ध त्त्‌० ( गु० ) भ्रदेवाट, बुरा या कठिन मार्ग, औमट, औघट, दुर्ग । हे ओर दे० (भ०) औ, फिर, चधिड, विशेष, याक्यान्तर- च्छेदक ।--पुक, दूसग, कोई, और कोई -- हो , ब्रिडकुल दूसरा, अत्यन्त मिन्न | आरत दे० (द्वी०) नारी, मद्दिला, खी | आरस तब ( घु० ) पुनविशेष, स्वच््पादित पुत्र, सवयां ख््री के गर्म से उत्पन्न पुत्र, स्वपृत्र | झआरस्य ओरस्थ तव्‌० (5०) श्ररस उुच्र, स्वपुन्न । ओद्धंदेद्ठिक तत्‌» ( गु० ) प्रेत क्रिया, अप्निशेस्कार, आदि अन्त्येष्टि क्रिया, श्राद । औज्लाद्‌ दे० (छु०) सन्तान, सनन्‍्तति औदल्ल दे" (ग्ु०) सर्वोत्तम, सर्वेत्कि्ट प्चान, मुख्य । औदे त्तत्‌० ( पु० ) बाइवानछ, निमक, पुराणों के मतानुवार भूगोल का दक्षिण भाग जहां सब नरक है । सुनि विशेष, भ्युवंशीय ऋषि । औरधेशेय तत्‌* (०) वसिष्ठ, अगस्त्थ, उ्बशी का पत्र ( शृ६ ) कगर और्घध तद॒० ( ए० ) अगद, सेपज, दवा |-ंत्य (पु०) वैच्ययूह, दवाख़ाना । औसना तदू० (क्रि०) डबसना, सड़ना, पचना । आऔखर तत्‌० (पु०) अश्रवसर, अवछ्ास, चुटद्दी । औरसान तदू « ( ए० ) चेतना, बोध, साहस, समाप्ति, अबवान । औसेर तदू० (घु०) चिस्ता, भभर, खटका। औएहत तदू० (ख्री०) अपसत्यु, कृगति । औहाती दे० (सत्री०) भहिवाती, सुद्ागिन । कक के ज्यक्षत्र का प्रथम चर्ण | इसका उच्चारण ऋण्ठ से होता है | ््ि क तत्‌० (3०) शिर, जल, सुख, केश, श्रप्मि आत्मा, कामदेव, काम, ग्न्थि, एच, घन, अकाश, वहा, बायु. विष्णु, मयूर, मन, यम, राजा, शब्द, शरीर, सूये । कंस तत्‌० (०) ताँबा और रॉया मिश्रित घातु बिशेष, काँप्ता; मथुरा का स्वनाप्रस्यात राजा, कंसराज, भोजवंशीय राजा उमग्रलेन का चेत्रञ धुद्र, जरासन्ध का दामाद, दानवराज ढुमिंल के औरस और उम्र- घेन की पत्नी $ गर्भ ले यह उत्पन्न हुआ था, भग- बान्‌ श्रीकृष्ण के द्वारा यह सथुरा में सारा गया । कंसकार तव्‌० ( पु० ) प्राह्मण के औरस तथा बेश्या के गर्भ से उत्पन्न जाति विशेष, कंसारी, कंसेश, वत्त॑व बेचने वाला । कंसताल (घु०) एक प्रकार का बाशा । कइकई कैकेयी तदू० (स्री०) राजा दशरथ की रानी, भरस की माता, झेकब देश क्ले राजा की कन्या । कई तत्‌० (अ०) कितवेक, कितने, कई एक, कति,कियत्‌ । कपणुक तदू० कुछ थोड़ा, एकाथ, अल्प कत्तिपय । ककई हे० (खो०) कंबी, ककही । [किकरी । ककड़ी तठदू० ( स्ती० ) खीरा, एक प्रहार का फ्ल्छ ककना दे० (8०) कझ्नन, खियें का आभूषण । ककनी तदू० (स्त्री) पहुँची, कह्ूूय, खतरियों के हाथ सें पहिमने का गहना ॥ ककराली तद० (स्त्री०) कंजारी, वग्रल का फोज़ा | ककया दे० (9०) कंघों । ककरेजा तदू० (ए०) वैजनी रद, बैजनी । ऋकफरेँदा तत्‌० (पु०) छोटा औपधि का पैधा विशेष । कक्हरा तदू० (पु) क से लेकर ह' तक कण, बारा खड़ी, वर्णमाक्का । [कपास विशेष । ककही तदु" (ख्री०) कंघी, चैप्यका, छाछ रहा का ककुत्स्थ तत्‌० (पु०) इक्ष्वाकु राज्ञा का पौश्न, इसका दूसरा नाम पुरअय था, देवासुर संग्राम में युद्ध के लिये देवताओं की भरार्थना इसमे स्वीकार की और इन्द्र के वाहन बनाकर, समरक्षेन्न से अवत्तीर्श होना स्थिर किया, इन्द्र मे वृषभ रूप धारण किया | उस्‌ पर चढ़ कर घुरक्षय ते युद्ध किया, तमी घे इसका नाप ककुत्स्थ पढ़ा, ओर इसीसे इलके वंश घर काकुत्स्थ कद्दे जाते हैं । ककुंद् तत्‌० ( पु० ) राजचिन्ह, पर्षत्त विशेष, शिख्रा, बैठ के कंधे का कुच्ण्ड़ू । कक्ुभ्‌ तत्‌० ( ए० ) भद्धेन का पेड़, वीणा के ऊपर का झुड़ा हुआ टेढ़ा भाग, एक राग, दिशा, छन्द विशेष। ककेरना दे० (कि०) खरोचना, खेदुना, उखाइना । कक्कड़ दे० (०) छेछी हुईं तमाखू की चूर, खत्रियों की - पुक अछ | ककका दे? (प०) काका, केकय देश, नग्राड़ा । कक्त (छ०) वगल, काख । ऋखरी तदू« (५०) ऊकाखि, काख, वग़द्त | कोरी तदू० (स्वी०) कांख का फैड़ा।. [निकाछ | कगर तदू० (पु०) छोर, शेष, किचाता, पारश्व, चिवास; फैगार (्‌ शहद ) कघलेदा कगार या कगारा तद्‌० (स्त्री०) कगरा, टीला कड्डु ठद॒* (६०) किट्टू + भ्रच] मासमछी पी, बक, बंगला, यमशज, ब्राह्मण चेषधारी युधिष्ठिर का माम क्योंकि विराद के यहाँ चुघिष्टिर ने व्राक्य बेप बनाया था, छलत्रिय कड्भूण तद्‌० (पु०) [क+कंणू+ भर] कंगना, हाथ का आमरण विशेष, दाक्ता, कडा, वल्यय | कट्टुपन्न तत्‌* (पु०) चाय विशेष, एक प्रकार #ा बाण जे उद्ता है [(दिकडे फड्डुर तद्‌० (पु०) कॉकिर, रोड, पत्थर के छोटे छोदे कट्ढाल तन्‌० ( ६० ) [ कड्ू + भाछ ] ठठरी, अस्थि पञअर ।--मॉला (स््री०) हाडहो की साला ।- माली ( पु० ) भस्थिमय्य साला पहिनने बाला, महादेव, मरव । कड्ढठालिन तद्‌० (सत्री०) डाकिनी, डापन । [बलुवा । फड़ें ला तदू० ( शु० ) पथषरेज्ना, पधरीजा, किरकिरा, कड़ोल त्तदु० (पु०) शीतछ चीनी के बूद्ध का पुक मेद | फड्न तदु* ( पु० ) स्थिये। के पहुँचे से पहनने का गहना, कटा । कडूनी तद्‌० ( स्ली० ) चूदी, कझ्नन, कंगना, ककनी, छुन्द, कागनी, अ्श्नविशेष | ऋड्ूरोई तद्‌० (पु०) रीढ़, पछ्चि विशेष | कट्टार ततदु० (पु०) मार बहन करने बाला । फड्ञाल तद्‌० (धु० ) दीन, दरित्र, दु खी।--लो (स्री5) दरिद्रता, दीगता | कड़ाल चोका दे० (पु०) द्रिदर भर भ्मिमानी ! कड्यूरा दे* (पु०) शिखर, इ्चप्रदेश, प्रेत, अथवा ऊँचे महान का ऊपरी मार | कड गूड़ी दें* (द्वी०) कान का निचज्ञा भाग। कट्ठा दे? (एु०) कघा, छ्ेशमाजेनी । कच ततव्‌० (पु०) केश, बाल, रोम, लेम, मेथ सूथ्रे फेशे का खूँट या पपड़ी, कुड, अंगरले का पद, सुग्न्धवाला, मलविधा का पुक दबि! थसने या घुभने का शब्द जैचे सुई ढच से चुसी, कद का अर्थ विशेष में कच्चे का मी द्वाता है--जैले कच- लोह | चुदस्पति का पुत्र, यह देंवताओ के सादेश से खतभण्जीवनी नामक द्विद्या सीखने के लिये शुक्राचाय के समीप गया था, बर्दा अनेकानेक, यर्ाँ तक कि तीन तीन बार प्राण संदार तक का कष्ट झठा कर इसने विद्या सीखी पुन' स्वर्ग में उस विद्या का इसने प्रचार क्िय[। कचरू दे० (ख्री०) कमकस, किरकिर, कुचलने से जो चोट लगे दद चोट | [किरना । कचकच दे० (स्त्री५) दाग्युद्ध, कगडा, व्यर्थ कोलाइल कंचकना दे० ( क्रि० ) मुरकना, फिरना, दृबाना, ठेस लगना | कच+$चाना द* ( स््वी० + दति पीपता, कचकच शब्द करना, खूब जोर उयाना--मैसे उसने कघचकचा ऋर स्या लिया | कचऊड़ दे० (पु०) कठुश्रा का खोपडा | कच्रऊा दे" (पु०) कछुआ का छिछका । कचकेला दे* (प०) कच्चा केला, श्रपक कदली । कचकैया दे* (प५) घक्का, दाझर, ठेस । कथनार दे (प०) टु७ विशेष । कचपच दे० (छ्वी०) मदामच, सघन, घना, विवि, गिचपिच ।--ी दे० (स्थी० ) कृतिक्ा नक्षत्र, #तेदि पर ससि जे। कचिपचि मरा” -जायसी । कचपचियां दें० (ध०) ग्ुच्छा, समूह, कृत्तिका नवन्न । फचपन देन (पु०) कचाइट, कचाई। कच्चचय दे० ( पु० ) कदझे वाले, 'भ्धिक सन्तान[ -यी दे (स्त्री०) चमकीली कटोरी जुमा बने सितारे जो द्लियाँ शंगार के लिये कनपट्ी और गाज्न पर छगाती ईं, चमकी। [सघन । कचमच दे० (ध्वोौ०) बदघड़ा, यक्रवक, युस्थयम गुप्या, केचबना दे (फक्रि०) स्कृतस्त्रता पूर्वक खाना, निश्रिन्त भाष से मोजन करना । हु कचरकुट रे» (पु०) मारझटद ।- कचरना (दे०) राइना, दवाना, कुचछना । “कीच बीच नीच ते कुट्टम्द ४! कचरिदी 7! +>पह्माकर | कचरपचर दे « (छु०) गिच्पिच । कचरा दे* (यु०) ऊच्चा सरवुज़ा, इुढ्ठा करकट । ऊचरी दे० (पु०) शक फल विशेष, फट छट्टित चन की टदनिर्या कचला दे" (ए०) गीली सहो, चदला, कीचड़ । कचलोंदा ३० (पु) क्षाड़े, कच्चे आटे का केंदा कचलेन ( शृ१७ ) कर्क उसचत्तान दे? (पु०) विद लवण, काला नमक । कचल्लेहिया देन (स्त्री० ) मरिया लोढा, कच्चा लोहा । कचलेहू दे० (पु०) घाव का पानी । कचवाँसी दे० (स्त्री०) बीघे का श्राठ हज़ारवाँ भाग, २० क्चर्चासी की १ चिह्र्बाली | [जमखड़ा | कचहरी दे+ ( स्म्री० ) विचारस्थात्त, ससा, समाज, कचाई दे० ( स्प्री० ) अजी्, अपच, कच्छापन | कचाल दे" (पु०) रूगढ़ा, चिचाद, फछद | कचालू दे" (पु०) कच्चू, वष्डा, घु इयाँ, मसाला डा कर एक अछार ले प्रभाये हुए श्रालू, कन्द पिशेष। कचिया दे० (३०) हंसुबा, दती । कन्रियाहठ दे० (स्त्री०) कच्चापन | द्विना । कचियाना दे० ( क्रि० ) हिचकृूना, सहसना, छतोत्लाह कचूमर दें० (घु०) अचार विशेष, कुचकछा ॥--- निफालसा ( क्रि० ) नष्ट कर देना, भुरकुल फर खालनए खूब सारना । कच्चूर दे० (ए०) झुगन्निल कन्द्‌ विशेष | कचेर। दे० (४०) जाति चिशेष । विडृहि कचौड़ी चे० (स्त्री० ) पीठी वा धेई भरी हुई परी, कच्चा दे० (ग्रु०) अ्रपकव, काचा, कविया |--धड्ढा त्तदू ० (ह०) झाजें पर झनपकाया घड़ा +-िद्ठा तदू० पूरा और ठीक ज्योरा | कच्ची दे? ( स्थी० ) कन्च, का स्प्रीलिज' !--रसोई दे० (स्त्री०) केवनच्र जल में सिद्ध किया हुआ अत्त, सिद्धान्ष | कच्चू दे” (५०) घुंदर्या, अरुवी, कद विशेष ! कच्छु दे० (पु०) देश विशेष जो गुजरात के पास है; कछ्धार, ्ाग (घोती की) । कच्छूप तत्‌० ( $० ) कछुआ, फंसे, छम्ठ, मदिरा खींचने का एक यंत्र; नवनिधियों में से एक, शुक नाग, विश्वामित्र का पुक, पुत्र, तुन का चुक्ध ) दोदा विशेष, लालू का रोग विशेष “ये त्तत्‌० (स्त्री०) कछवी, छोटी वीणा कच्छा तदू० (पु०) दी प्यार की चएटी बड़ी नाव। -जी दे + (ग्रु०) कच्छ देशवासी था उत्पन्न कह दे? (७०) कच्छप, नितम्ष, कांच | कऋछना दे० (9०) छुटने के ऊपर तक यंघी घोती | कछुनी दे ० (स्त्री०) दखे कछूया ! ककछुलस्पट दे० (गु+) अजितेन्दिय, खुब्चा कछुवाहा बे० (8०) राजपूतों की जाति विशेष, कहते हैं कि श्रीराप्चन्द्र जी के एुश्न कुश के ये घंशधर हैं । कछेर दे? (प०) खादर, दियारा, नदी या तालाब का तट ] ऋछारना दे०. (क्रि०) छांदना, धेना, अधासना । कछु दे « (गु०) कुछ, थोड़ा, एकाघ, किल्लित्‌ ऋछुफ दे" (एु०) छुछ, घोड़ा सा; कुछ एक, इसका अयेग शम्तायण में बहुत आया है । कछुचा दे० (३०) छूसे, कच्छप, कसठ । कछाटी रद" (ख्री०) रंगाटी, फोपीन, कथुनी । करने तदू ० (पु०) कक्ष, कम, ऐव दोप। कजेक दे० (बु०) हाथी का भछ्ुर । कजरा तद्‌० (पु०) काजल वह बैल जिसके नेत्र काले हो ।--री ६३० (वि०) काजलहूवाल्टा, काला | कज्जरी दे* (स््री०) फजली, बरसाती गीत विशेष | कजरीठा दे० (पु०) काजल रखने का पान्न । कजला तदू ० (गु०) काला, काजल छगाये, ख़रवूज़े की एक जाति जो जानबुर में उत्पन्न होती है |--ी दे० (स्थ्री०) देखे कज़री | कजलौटो तद्‌० (स््री०) काजछ पारने का पात्र । कब्नेल तच्‌० (पु०) छाबछ, श्रक्षन, सुरमा।-गिरि ( ३० ) काछा पह/ढ़, काजल का पर्वत, सुरमे का पहाड़ । कजा (सरी०) माड़, कांजी । ऋज्ञा (खी०) साठ, रूत्यु ज्तिरा | कब्म्यन तत्‌० (पु) सुबर्ण, सोना, बाति विशेष, घन, कञ्चनक दव्‌० छु०) कचनार, सेवफल । कच्चनी दे० ( रूती० ) वेश्या, पतुरिया, नाची, ऋणुतत ज्ञासि की स्वी, सुवर्ण की पुतली । जिली । कज्चु तव० (पु घोन्ी, अँगिया +--की (स्ली०) के तत्‌० (पु०) पद्म, कमछ, भह्या, अस्त, सिर के वात्त । कञ्जड़ दे” (घु०) बारी बेचने बाली जाति [ का दे० (पु०) भूरी अरख वाला | कश्षियाँ दे० (स्त्री०) अखों कली श्रक्षनी । ऋल्ज्ूस दे० (घु० ) सूम, कृपषण, लालची |- ( स्त्री० ) कृपणत्ता । [नाम की घास, दही, खस । कद ततव्‌» ( घु० ) कडि, कमर, गण्डस्थल, एक तरका कृदक तत्त० (घु० ) वलूय, पर्वत का मध्य माग, कठ्की नितम्प, मेपछा चक्र, सेना के रहने का स्थान, समुद्दी निमक, पहिया, समूढ, द्वाथी के दातो पर #गे पीतक्त के बन्द, देश विशेष, पर्वत की सममूमि, दल, सेना, कंचइय । कठकी तदू० (गु०) कटक नगर की बनी हुई चस्तु, परत, रोज, पहाड़ । + कटकना तदु्‌० (क्रि०) बाधनू, ढाँचा, उपाय । कठकाई दे० (पु०) दल, सेना, मुण्ड । कटकर्टहिं दे? ( क्रि० ) कटध्टाते हैं, क्िचकिचाते हैं, क्रोध का शब्दे करते हैं । कठखना तद्‌० (गु०) कटदा, दिया, कटोवा । कंडघरा तद्‌० (५०) करहरा, का, लकड़ी का घेरा । फकटठती (स्त्री०) बिक्री, खपत । कटने दे० (पु०) काट कतरन | कदना दे० (पु०) कद जाता, बीतना फनि है० ('जी०) काट, प्रीति, रीकना । कटनी दे० (स्त्री०) कटाई, लैमाकाछू, काटने का हथियार, द्राती । कटफल दे० (पु०) कायफछ, कैंफक । कटरण दे० (प०) चैक, दाट, निशास, शहर का बीच, शहर के मष्यम्थान जहाँ हाथ बाज्ञार हें। । कदटहर दे ( घु० ) करहल, फठ विशेष । कठदरा दे" (पु०) काठ का बड़ा पिमड़ा, कटघरा । फठहल दे० (पु०) देवे। कददर । कंठहा दे० (गु०) कटौदा, कटखना, हकिया । कटा दे* ( छु० ) हत्या, दघ, काटाछाटी [|-ई दे० (स्त्री०) काटने का काम, काटने की इज॒रत -- फटी दे० (स्त्री०) मारकाद । [आअरॉख का सह्लेत । कव्यत्त दे० ( घु० ) तिम्छी चितवन, मावयुक्त दृष्टि, कटान दे० घट जाना, पैना । कटार दे* ( पु० ) कटारी, सझर । फठाल दे० ( पु० ) हुघार, समुद्ध का चढ़ना | कठाव दे० ( पु० ) नदी का किनारा, मद्दी के वेग से दद्दता मूभाग | कटाह् तव्‌० (पु०) कशद्दी, कह्ठाद । कटि तत्‌० (पु०) कमर, शरीर का मध्य साग +--तट ( छु० ) कटिदेश, नितम्ध |-देश ( पु० ) शरीर का सध्याववव ।-वस्त्र ( इ० ) घोती । ६ रैशेंष ) कठे कटिवन्ध सत्‌० ( घु० ) कमरबन्द, एथ्बी का ठण्डा ग्रमें आदि भाग्य । डिद्यव, प्रस्तुत । कटिवद्ध तव॒5 (गु० ) कमर बे हुए, तैयार, किया तदू्‌० (स्त्री०) सन का दता इगद्मा वस्द्ध विशेष, रत्रों के नगे! क्रो काट छॉट कर सुडोल करने वाला कारीगर, कुटी, साय बैज्ञ का कटा हुआ चारर। कठिसूत्र तदु० ( घु० ) कटिमूपण विशेष, ऋरघनी, कमर का डोरा | कटीला दे० ( गु० ) पौधा विशेष, कण्डज्युक्त, कि चाला, सावस्त, कण्टार, कऋतीरा गोद । कु तत्‌० (गु० ) श्रप्रिय, दुर्गन्‍्ध, कट्टरस युक्त, मत्सर, सीक्षण खुगन्धि, चरपरा, कहु था कटुओआ ( पु० ) मुपरत्मान, नहरो के बँबे, काले रय का एक कीट । कदुक तत्‌० ( गु० ) कडडन्ना, तिक्त, तीखा । कठुकी ठत्‌० (स्त्री०) कहुकी, चरैषधि । [सो । कटुप्नन्धि तत्‌० ( स्त्री० ) औ्रषध विशेष, पिपरामूल, कडुन्कठ वा कठ्ुमद्र तत्‌० ( स्त्री० ) सेी । कठुमी तदू० ( स्त्री० ) मालाझांगुनी । कदठुरेहिणी तत्‌+ ( स्त्री० ) कहुकी, च्रीषधि । कट्टसा तत्‌» ( स्प्री० ) फूडड़ाई, दुवेचन। फरेहर दे० (पु०) खेपा, हल की बड़ों मिसमें फाल छगा रहता है । करैया (पु०) काटने बाला, सटकदैया । कटैला (पु०) एक कीमती पत्थर । कटोरदान ( घु० ) ढकनादार पात्र विशेष। कशेरा दे० ( घु5 ) बेला, पान पात्र विशेष । कणीरिया दे० ( स्त्री० ) कटोरी । कटोरी दे० (स्त्री०) बिलिया, छेटटा बेला या कटोरा । कोल दे० ( घु० ) चण्डाछ, फछ विशेष | [दूराप्रदी । कट्टर दे० ( गु० ) काटनेवाला, फ्टौरछ, इठी। फट्टदा ( ० ) मद्दात्ाह्मण । कट्ठदिं दे० ( क्रि० ) काटते हैं, काट लेते हैं । कद्ठा दे० ( घु० ) मापने की वस्तु, विधवा, जिससे ग्येत नापे जाते हैं । कठ उुय्‌० ( पु० ) [ कद + अय्‌ ] सुनि विशेष, वेद का कठ नामक शाखा, ( वि० ) जगली, निरूृष्ट जैसे ४ कठ उदलू । ?--शासता ( स्त्री० ) ऋग्वेद का. कंठघरा एक भाग +--पनिपत््‌ ( स्त्री० ) पुस्तक विशेष, बेदान्त शास्त्र, दशे। पनिषत्‌ में एक उपनिषत्‌ । कठघरा तदु5 ( घु० ) कटरा, घेरा, बेड़ा, काठ की वनी हुईं चारदिवारी । [कठड़ी। कठ दे ( पु० ) कठरा, कठौवा, करती, ( स्व्री० ) कटठन्द्र दे० (पु०) काष्टोदर,रोगविशेष,पेट का कड़ापन । कठविरुकी दे० (स्री०) से5, ऊखरसाड़ा । कठरा दे? ( छु० ) काठ का बना पात्र विशेष, श्राह्मत, देदी, चहबच्चा ( स्री० ) कठरी । कठला दे० (छु०) देखे 'कठुला' । कठथ्षता दे० ( स्री० ) काठ का बर्तन विशेष, कठौता । कठहँसी तदू० (छ्ी०) शुप्क्दास्य, काए्द्ास्य, बिना कारण हास्य | कठारी दे+ (घु०) काठ का वना कमगडलु । कठिन तत्‌० (ग्रु० ) [ कठ+ इन्‌ | ककेश, कठोर, निष्ठर, कड़ा, दृढ़, स्तव्च, छुष्कर, दुस्साध्य |-- ता ( स्वी० ) कठारता, निठुरता दुरूइता |--त्व (पु०) कड़ापन, कठिनता | -पुृठ्ठक ( ४० ) झूमे, कच्छप, कछुआ ।--ान्‍्तःकरण ( गु० ) निष्ठुर, शकू अन्तःकरण, निर्य । [कठिनी । कठिनिका तत्‌० ( स्त्री० ) [किड + इक +आ] खड़ी, कंठिनी तल्‌० (स्त्री० ) खड़ी, मिद्ठी, छुई । कठिया दे० ( घु० ) कठैती, फादा, जाला, काठ की भाल्ठा, काठ का छेठा पान्न, ( वि० ) कढ़ा, कड़े छिलके का, जैसे कठिया बादाम | करिछ्ल दे० ( पु० ) करेला, तरकारी । [विशेष । कछुला दे० ( पु० ) गल्ले में पहनने का एक आभूषण कहठेंठा दे? ( स्त्री० ) कड्डी, कठार, दृढ़ | कठेठी देखे कठेठा । कठोद्र तत्‌० (घु०) पेट की एक बीमारी कठोर तत्‌० ( गु० ) कठिन, कठोर, दृढ़, निष्ठुर ३-- ता या ताई था पन (स्त्री० ) निद्धरता, निठुराई । कठोरा देखे कठोर ! लिया पात्र । कटेोलिया दे० ( स्त्री० ) काष्टनिमित पान्न, काठ का क्रटोत या कठौता (ए०) देखे कठचता। [झुमा पात्र । कठेती ( स्त्री० ) काठ की ऊँची कोर का चसला- कड् दे" ( छु० ) कुसुम या उसझा बीज, (हिंगल- भाषा में) कमर, बर । ( ११६ ) कढ़ी कड़क दे० (७०) घड़ाका, चटक, गजन, कड़कड़ाहट, कड़ाका, गान, वज्, कसक | कड़कना दे० ( क्रि० ) चटकना, धड़कना, गरजना । कड़क कर दे० गज्जंच के साथ, सामिमान | कड़कच दे० ( ए० ) लेन, लवण, ज्ञार, समुद्र का रूवण विशेष | [शिष्द्‌। कड़का दे० ( घु० ) बिजली, तड़ित, गर्जन, भयक्लर कंडखा दे० (०) युद्ध में पढ़ाचा देना, उत्साहित करना, यान विशेष जिसमें शूरवीरों का यश चणित हो। । कड़खैत दे० ( छ० ) भार, बढ़ावा देने वाल्तम, चारण, इस जाति के ज्ञोम राजपुताने में अ्रश्चिक पाये जाते हैं ; वहाँ इनका जागीरें मिल्ली हुई हैं ; ये छड़ाई में वीर राजाओं को अपनी ओजस्विनी कविता से उत्साहित किया करते थे । कड़वी दे० (स्त्री ०) तीखी, कट, जुबार बाजरे की डॉठी ! कड़ा दे० (ग्ृ०) कठोर, इढ़, सख्त इत्झट, (पु०) हाथ का भाभूषण, वलय, कड़ाही का पकड़ने के लिये हत्था, बेंढड, एक प्रकार का कबूतर +-हं तबू० (स्त्री०) कढोरता, सख्ती । कड़ाका दे० ( घु० ) उपवाप्त, रवका, निज्जंज्ञ उप- वास, किसी वस्तु के हटने की आवाज । [कर । कड़ाड़ा दे? ( पु० ) नदी का ऊँचा तीर, किनारा, कड़ाह या कड़ाहा तद्‌० ( छु० ) लें का पाक, लेहे की बड़ी “कड़ाद्दी” जिसते दूध श्रोंटा जाता है । कड़ाही तद्‌* (स्त्री०) छोटा कड़ाद्द । ऋड़्डिहारु दे० (पु०) कर्णघार, मल्लाह, क्ेवट, मस्ती | कड़ी दे० (स्त्री०) छोटी धरन, जुण्जीर की लड़ी, छोटा चऋछा जे किसी वस्तु को अटकाने के लिख दे, गीत का एक डुकढ़ा ।+--दार दे० ( वि० ) छल्लेदार, जिसमें कड़ी दवा । कडुआ तत्‌० (गु०) कढ़, तीता, शुस्सैल । कडू दे० (वि०) कड़वा कड़ोर दे० (०) कड्ैड, संख्या विशेष, से राख । कढ़ना दे० (क्रि०) निकालना, उठाना, बढ़ जाना । कढ़ाई दे? ( स्त्री० ) कड़ाही + कढ़ाना, कढ़वाना (क्रि) निकल जाना । ऋढ़ाच दे०(पु०)कसीदे का काम, निद्चास | [बनी हुई पस्तु। कढ़ी दे० (स्त्री०) भोजन विशेष, बेसन और बह्ली से कदुआ ई ( १२० ) ित कल लोसस सच िजलत->नस ५3 स+--नम--मनन अप नरन-+कम+ कतरन कदुआ दे० (गु०) उधार, ऋण निकाला हुआ, | कएउमाला तत्‌० (स्त्री०) कण्ठ में पहनने की साढा, जातिच्युत । कढ़ेरना दे० (क्रि०) घसीटना | क़ेया दे० (स्त्री)) कहाई। । कहेरना दे० (क्रि०) घसीटना । कण ततव्‌ (पु०)[ कण +श्र७ ] अतिसृक्ष्म, कणा, अशुकरिका, किनका ।--ज्ञीरा (पु ) श्वेत जीत (--भक्षक या भाज्ञी ( ५० ) कणसेजी, कणामदसुनि, पक्ति विशेष । कणा तत्‌० (स्त्री०) पीपल । कंणाद तत्‌० (१०) [ कण + भदु+ अच_ ] सुवर्णकार, मुनि विशेष, वेशेपिर दुर्शनकर्चा, यद _तण्डुठकंणथा खाकर श्रपनी जीविरा करते थे, इसी कारण इनका कणाद नाम हुआ है। इनका दूसरा नाम उलूक था; भतपुव बैशेपिक दर्शन छा औलुक्य दर्शन भी कद्ठते हैं। यद परमाणवाबिये। में थे इनका बनाया दर्शन पडदशेन के अन्तर्गत समझा जाता है] कशाप्तान्ष तव5 (पु०)पक हिन्दु ,किशिस्मात्र,यहुत थे ड़ । कंणिका तन्‌« (स्त्री०) [कणिक+ शा] लेख, विम्दु, कणा, बेटा भाग, चावल के टुडे । फिण (३०) गेहूँ आदि अनाज की बालू | [दुु्ड्ा । कंणी तद्‌७ (स्त्रो०) घिटक, दुकडा, भाग, बहुत पतया कंणटक तत्‌० (६५) [ कण्ड + णक्‌ ] काटा, क्षद्र शबु, रेमाशु, दोष, विश्न, वाघक, ऋवच -दुप (३०) ७ युक्त वृत्त, शाक्मलीदूष ।--प्रावुता (स्त्रौ०) चुतकुमारी, घोकुपारी ।--फल (पु०) पदस, छट- दर, सिधाड़े |-भुफ्‌ ( एु० ) ऊँ, शड़।-अय (४० ) कटे से भरा, बहुत रूरि वाट ।--लता ( छवी० ) पीरा, फह विशेष। -रि भटच्टैया, सेमद्ष । [का (स्त्री०) सटकटेया । कयुदार देन (गु०) कटीरा, खसरदरा, कण्टकम्य --. कणिटया हे? ( स्त्री० ) अस्छी, दोटी ढील, मथकती पकड़ने की थंसी की पैनी कीछ । फैयठ तब» (१५) शला, घाटी, यह ।--ला (छत्री०) माढा, कण्ठी, गण्डा, गले का आमूष्ण ।+-स्य (पु०) स॒लस्थ, मुखाप्र। र्स्मी। फशुठपाशक तत्‌» ( घु० ) द्वाथी के गले में बॉयन की कंरूठभूपा तत्‌« (स्त्री5) कण्ठासस्श, प्रेदेषक, हार । रोग विशेष । ऋग॒ठा दे० ( पु० ) कण्ठमूपय विशेष, घदे दाने की माला --गत ( गु० ) [ कण्ठ + आगत ] शरीर त्याग के उचोगी, मरणोद्यत --पम्र (गु०) हिण्छ + अग्र] सुपर, क्यठस्थ, भुखस्थ । [वाला । क्ग्रिठधारी तदू* (पु०) बैरागी, भगत, कण्ठी पद्नने कगटी दत्‌६ ( द्वी० ) कण्दामरण, कण्ठमाला, तुलसी की माठा | कऋषणदीरव तत्‌० (पु०) सिंह, व्याप्त, शोर । कगृठ्य तत्‌० (गु०) कण्ठ से उच्चारित होने चाले अचर, कण्ठोचारित । करडा दे० (प०) उपला, बपरी, गेहरी । करशडी दे० (स्त्री०) छोटी उपली । कंरयडपुप्पी तव्‌* (खी०) शखाहुकी, श्रीषधि विशेष ! करसडझू तत्‌० (पु०) रोग विशेष, खुलद्राहट, गुजली। स्थज् |--प्न (ए०) पर्वार ब्रषधि, कण्डू रोग दूर करने की औपधि। झिना । कयडूति तत्‌० ( छी० ) कण्दूयन, खुनलाइब, खाम फर्डेरा तद० ( छु० ) काण्डकार, बाय बनाने घाली जाति, घुनिर्ण । पित्र। कंणडील दे० ( पृ० ) बाँध का घना भ्रश्च रखने का कण तल» (घु०) सुनि विशेष, एक भाचीन ऋषि का नाम, यह शकुन्तछा के पाठक पिता थे; मात्षिनी नदी क तीर पर इनका श्राश्रम था, कुल्टपत्ति की इपाधि इन्हे सिल्ली थी, क्योंकि इनके आश्रप्त में अ्रनेक सहस्र बात्नक शिक्षा पाते थे। कत तदृ० [ झ० ) कहाँ, कयोंकर, क्‍या, कैसा, किप्त वास्‍ते, किस्र दिये । ( धु० ) कुल्तम की ने।कू का आदी कटने | कतक तद्‌० (१०) रीठा, निर्मली | कतनई तद्‌० (द्धी०) सूत कातने की मजूरी | फतना चद॒० ( क्रि० ) काता जाना | ( भ्र० ) कितना, किप्त परिमाण में । कनमती (स्थ्री०) सूत कातने री टिडुरी । कतन्नो दे (स्त्री०) रची, कतानी | कतर हांट (स्त्री०) ढाट दाटि, कतर ब्योंत १ कंतरन तदु ५ ( स्प्री* ) क्ाटन, छुटिय । कंतरनां कतरना (क्रि०) छाठवा; छा करना; छाट छूट करना ! कतरनी तदू० (स्री०) केँची, काटने का शख | कतर्येंत ( पु० ) कतर च्रढठि, काट छाट, हेर फेर, डल्ट फेर | [किया हुआ | कतरा तद्‌० (वि०) भिन्न भिन्न किया हुआ, डुकड़ा कवतराना तदू्‌० (क्रि०) करवाना, भ्रम कराना, एथकू | देना, शलग होना । कतरी दे* ( खी० ) केक्हू का एक विशेष भाग । जमी हुईं मिठाई का डुकुड़ा, एक औज़ार । कतरचाना (क्रि०) कातने में सहायता देना । कतवार (३०) छूड़ा करकट, घास फूस । [ओर भी । कतहँ दे० ( भ० ) कहीं भी, किसी जय भी, किसी ऋतल वे० (पु०) बध हत्या |--कऋरना ( क्रि० ) मार डाबना [--म' (पु०) घोर वध | क॒ताई तद्‌० (स्रौ०) कातने की उन्रत | [क्रमान्वय | फत्तार दे० ( छु० ) पात की पति, घारी, क्रमिक, कंति तद्‌० (ग्रु०) केतिक, कितने, कितने एकू (--पथ (गु०) थोड़े, कम, कुछ एक । ऋतिक (वि०) कितना । कतिपय (घि०) श्रदप, कितने ही, थोड़े । कतीरा दे" (३०) निर्यास- ग्रोंद विशेष । कठुवा दे? (8०) तद्ला, तदूआ, सूचा। कतेक दे० (गु०) कति, कितने, दे। एक । करत दे० (झ्०) कहा, कयोंकर । कत्ल दे० (घु०) कथा हुआ हुड़ा, पत्थर की गढ़ाई में निकले पत्थर के छोटे दुकड़े । काता तद्‌० (99) बॉस फोड़ने बाल्तें। का एक औज़ार, बॉका परसि,; बाकी छोटी तलवार कतो तदू० (खी०) छुरी, कटारी | कत्तास दे० (घु०) छुरा, कटार, यमघार । कव्य दे० (पघ*) लोहे की स्यादी । कत्यई दे० ( बि० ) कत्या के रंग का, खैरा रंग । कव्यक तदू० (पु) गाने बजाने वाली हिन्दू जाति विशेष [जाता है । कव्था दे० (5०) खैर, खद्रि, जे। पान के साध खाया कथक ठव्‌० ( ग॒० ) | कघ्‌ + णक्‌ ] वक्ता, पुराण की कथा वर्चाते बाला, बचने बाला, पुराण चक्ता । कथक्कड़ तद्‌" (घु०) वहुत कया कइने वाका । ( रहे१ ) ल्नजप्प्पप्प्प्नन्ञ-+------+-+त+तऋतत...|.र छः कद्न्न कथख्न ठतव्‌० (अ०) किस अकार । कथश्वित्‌ तत्‌* (अ०) किसी प्रकार, अधिक कष्ट से । कथन तत्त्‌० (पु०) बाढ, कद्दन, उच्चारण, उक्ति, विव- रण करण। कथनो (ली०) देखो कथन कथनोय तव्‌० (गु०) वर्णनीय, कहने योग्य, वक्तब्य, कहने के छायऊ, निन्‍्द्नीय । [सम्भावना । कथम्‌ तत्‌० (अ०) दे, गहां, श्रकाराध, सम्भ्रम अन्न, फथरी तद्‌० (स््री०) युदढ़ी । कथह्िं तद्‌० (क्रि०) कहते हैं, वर्णन फरते हैं, गान करते हैं, बयान करते हैं । ह फेथा वद्‌० (ख्री०) शत, इतिद्वाप्न, पर्वारा: चत्तान्त । --प्रवन्ध ( पु० ) आख्यायिका, कहानी, किस्सा, गल्प ।-प्रसहः ( गु* ) कथेपकथन, क्षातचीत, संपेरा, मदारी, विपवेद्य ।--प्राण॒ ( गु० ) धादक- चक्ता, कंघक ।--म्ुख ( ४० ) कथा का प्रारम्भ, अन्य की अस्तावना, आख्यायिका।--वार्तो (स्त्री०) कथेपकथधन, वातचीत, सम्भाषण, आहलाप |--- सचिव ( ए० ) सम्मतिदाता, मन्त्री, बात चील करने में सदायक । सारांश, कहानी | इधानक तत्‌० (9०) बढ़ी कथा का संदोप या कथित तत्‌० ( यु ) [कघू+ क्त] उक्त, कहा हुआ। कथितव्य तत्‌० (ग़ु० ) [ कधू+तब्य ] चक्तत्य, कथनीय, कथनाई, कहने के येग्य । केथीर तद[० ( घु० ) राँगा | कथेदूघात तत्‌० ( ६० ) कथा प्रारम्भ, अस्तावना ! कथे।पकथन ठत्‌० ( छु० ) [ कधू+ उप्‌ + कथन ] आहाप, बातचीत । [वाह । कृथ्य तत्‌० (यु० ) [ कघ्‌+य |] . वक्तव्य, कथितब्य, कद तब्‌० ( अ० ) कब, कहिया, किस समय, कदा । कुद दे० ( ४० ) डीलडेल, ऊँचाई । कदृत्तर तद्‌० ( पु० ) कुत्लित्‌ दण, ख़राब श्र । कदध्या तव० ( अब) | कद + अध्वन्‌ ] मिन्दित पथ, कुल्पित मागे, कुपध । कंदुन तत्‌० ( छु० ) [ कद + अ्रनद, ] पाप, युद्ध, मार, मदन, बधिक, नाशाक, दुःख । कदन्न तद्‌5 ( घु० ) [हद्‌ + झन्‌ + क्त] ऋत्लित अन्न, अपविश्न अनश्न--जैसे कोदी, केसारी, ससूर आ्रादि । शा० प्रा---१६ कद्म कदम तद्‌० ( 9० ) कठस्‍्द बूक्त, छत विशेष, चरण, पाद । कद्म्ब तत्‌० ( पु०) [ कदू +भ्रम्पर ] बृत्त विशेष, समृड़, कदम इंच । -क (प०) सम +-कछ- साकार ( गु० ) गेक्षाकार, चतुद्धाछार । कदर (१०) दाकी; सफेद काया, गेखरू, अद्डुश, झारा | कंद्राई या ऊदाई तद्‌० (सत्री०)) कादरता, कादरपन, भीझता, कायरता, डरपे।क्षपना । कदूर्थ तव्‌० ( गु० ) [ कद्‌ू+ अर्थ ] निरथेक्ष, बुरा, कुत्पित, ( घु० ) बिधर्मी चीज, कूडा करकद। “मा बच» (सी ) हुरति, दुेशा । कद्ययें तत्‌* ( पु० ) कृष्सित, निर्दित, अपकृष्, मंद, छ्लुठ, कमूस, सूम, मकश्लीचूस । कदूसी तव्‌० ( स्री० ) कदठक, केले का बूछ, काले और काछ रह का म्ग । [क्द, कमी | कद तत्‌० ( अ० ) [ छिम्‌+दा ] कर, किस समय, कद्ाक्वाप तत॒० (गु० ) [ कद्‌ू+आा+ कू+घन ] कुष्पित भ्राकृति, कुर्प, बदसूरत । कद्दारुति त्त्‌० ( खरी० ) कुस्सित भ्राकृति, कुरूप । फदाख्य तत्‌० ( वि० ) बदनाम । [समय । कदाच तर० ( अ० ) कदाचित्‌, कदाचव, कमी, किसी कदचन तत्‌» ( अर० ) किसी समय, कसी । कंदायार तत्‌० (घु० ) घुगा व्यवहार, कुचरन, लिन्दित कर्म, श्रमद्गाचार, दुराचार । कदाचित्‌ तत्‌० ( श्र० ) कया जाने, कघी, कभी, कम, किसी समय; शावद १ की, करू ९ कंदापि तत्‌० (अ० ) [कदा + श्रपि] क्धी भी, कभी कदीम दे० ( गु० ) पुराना, प्राचीन । कदीमा दे० ( पु० ) शावद्ध, छ्लेदागी | कदूदू दे० ( पु० ) अडाबू लैछा, लाडी, लै।ई | यद्भ तर ( बु ) घूघ्रश्णें, (स्त्री०) नागसाता का ज्रास, कश्यप मुनि की स्त्री, दृष्ठ भजापति की कन्या । इन्हींछे गर्भ से सर्पी छी इतत्ति हुई है। जाषुध् ( घु० ) सपं, सुपर >छुव (घु०) नाग; सप भुजफ । कधी दे० ( '्र० ) कथू, किसी समय । ग कन तदू* (१०) कण, अछ, अनाज का दाना, प्रसाद, बू*द,चावजे। ही इृछ, ही, खत, रारिर सायन्दी € १२२ ) कनिक शक्ति, यौगिक शब्दों में कान के भी कन ही कहते दैं जैसे कनफटा, कनटेप आदि। हि कनई ६ स्व्रीष ) नूतन शास । फनअगुली (स्त्री०) छंगुलिया, सन से छोटी उँगुली । कनऊ तत्‌० ( ४० ) स्वर्ण, सुबरणे, घवूरा, पछाशबत्त, नायश्ेसररत्त, गेहूँ का आदा ( कनक की रोटी ) । --करसिपु दिर्यऋशिए, प्रहाद के पिता का नाम। --चम्पर ( पु० ) बच विशेष, कनऊचंपा ।-- रस ( ए० ) दरिताल ।--लेचन ( १० ) दिर ण्याज़्, एक रातचस का नाम [--ाचल ( छु० ) सुमेरु पर्रत, अगस्त गिरि, दान विशेष । कनफत्ञार (पु०) सुद्रागा । कनऊदा दे* (गु०) बूचा, कर्येरहित । कनकी दे० (स्वी०) किनकी, हटे चविझ | कनसजूरा दे० (पु०) कनशलाई, ग्रेजर । कनखी दे० (स््री० ) सैन, संरेत, इशारा, कटा । कनशुसिया (छी०) छियुनिया, सबसे छोटी द्वाथ की ऑऔँएुली । कनलेद्दन (पु०) कण वेघ सेस्कार, कान छिंदाना। कनटप ( ए० ) ठोप, काने के ढकने, ऐसी टोपी विशेष । सिसीप का भाप । कमनपदी दे० (ख्री० ) परपड़ी, गण्डम्थज्न, कान के फऊनफदा दे० (पु०) साधू विशेष, नाथसम्प्रदायी साधू | कनफूल (पु०) कर्णफूक्न, कान में पहिनने का आपसु- पण विशेष । [चीत घुनने का इच्छुक । ऋचसलिया दे" ( छु० ) कर्रफिक, सीतक्ष, यप्त कनल तदु० ( पु० ) मिलावा । कनवई कनवा कनयाई दे ( स्ती० ) कर्णवेध, कान छेदना | फनसलाई दे० ( ख्ी० ) कनज़जूरा, गोजर। कनद्दार दे० (घु०) पतया0 कण । कनद्दा दे? (पु०) अच्च झ्री जाँउ फरने वाला | कना देखे कन । कनागत तत्‌० (पु०) पितृपक्ष, अपरपथ, कन्यागत कनात दे (घु०) मेटटे कपड़े की दीवार जिससे आठ करने के लिये स्थान घेरा जाता है, दस्यू । कनिक दे० ( पु ) गेट का पिखान, आटा । | छुटाक । कव्िया ( रैर३ ) कच्या जज डी खत "न ञत+त्नत>> 3 +-_.तत+०3......... कनिया दे० (स्त्री०) गोद, ब्छज्ञ ।. [निकल जाना । श॒द्दा, पर्वत की सुरक्षा (--न ( घु० ) पर्कटो चक्ष फनियाना तदू० ( क्रि० ) कतराना, आंख बचाकर कनियाहर तदू० ( खी० ) भड़क, सट्डगेच, खींच ! कनिएछ तब्‌० (गु०) छोटा, जहुरा, श्ज्जुज, अति युवा, पश्चात्‌ उत्पन्न, द्वीन, निकृष्ट | कनिएा तव* (खी०) छेःटी, सबसे छोटी, नीच, निक्रष्ट। | कनिछिका तत्‌० ( सत्री० ) छिगुनी, हाथ की सब से छोटी कँँगली । कानिद्दा दे” (एु०) घुना, श्रतिहिंसक । कभी ( खी० ) करुणा, कणिका, छोर, लिरा, अति सूक्ष् भाग । [जियरी । कनीमनिका तत्‌० ( स्त्री०:) आखिं की तारा, छोटी कत्रीयान्‌ तव ( गु० ) कनिष्ठ, अचुम, छोटा, 'अति- युवा, भ्त्यक्प । कने दे” ( अर० ) पास, समीए, खाथ, सक्नः । कनेकी (ए०) कीनका सान्न का भी । कनेठी वे० ( स्री० ) कान मरोडूना, थप्पड़ सारना । कमेर दे० (३०) कनेछ, करवीर, हस्तिवेश्या, पहले लिसके प्राण दण्ड की राजाज्ना होती थी, उसे कनेर के फूलों फी माला पहनचाई जाती थी। ४असेन विज्ञव्‌ करबीर माक्षम्‌ ।” (मच्छकदिक) “-कनैया तत्‌० (पु०) कर्णवेधन, कवछेदीनी । कमीज तदू० (पु०) नगर विशेष, एक नगर का नाम। कमैमिया तदू० (पु०) फनौज के चासी, ब्राह्मण विशेष, कान्पकुब्न ब्राह्मण । कनोड़ा दे० (यु०) सह्गोची, सुखचोर, अपंग, खोंड़ा, कलड्लित, तुच्छ, दवैल। कन्त तदु० (पु०) स्वामी, प्रिग्रतम, भत्तार, प्रिय, स्वामी, ईध्वर । कन्धा तत्‌० (स्त्री०) गुबड़ी, कथढ़ी, पुराने बस से बना ओोढ़ना |--धारी (प०) सिक्षुक, संन्‍्यासी, संलारत्यागी, यूदुड़ बादा । कन्द्‌ तत्‌० (पु०) [ कम्द + अल ] गूढ़ेदार और बिना रेशे की जड़ जैसे--जमीकन्द, सूरत, झकरकन्द, जिंदारी कन्द, सूरण, ओरल, गाजर, हहखुन, मूल जड़ १-- वद्धेत (७०) सूछ, मोल ।-घूल (०) मुनिमोजन विशेष | म्द्रा सतत" (स्ली०) [ कन्दर +श्रा ) खोह, गुफा, अखरोट बच्ष, पाकर का पेड़ । ऋन्‍द्रात्त (पु०) पाकर, हिंगोंट, पकैटी । कन्द्प तव्‌० (पु०) [कें+दपू + भ्रच] काम, सदन, कामदेव, भ्नक्गक, सन्नीतशाखतर में ११ प्रताल्ों में लें एक ताल । कन्दुल तत्‌० (ग्ु०) [कन्द्+>का+ढ ] उपरास, नवीन क्र, विवाद, कलह, झगड़ा, लड़ाई, सोना, कपाल |-- कन्द (ए०) ज़िमीकत्द, सूरन, खूल पिशेष । कन्द्त्ा तदू० (०) पाला, रैनी, गुल्ली, चांदी की लम्मी घड़ जिससे तारकश तार तैयार करते हैं। [प्राप्त । कम्दलित,तत्‌० (गु०) अस्कुटित, अड्कुरित, अडकुर कन्द्सार तद्‌० (५०) झूग, हरिण, कुरद्ा, नन्‍्दन दस| कन्दासी तदू० (०) पुष्प श्र भौषधि विशेष, अियधासा ।.[ फड़ा ताँवा, सॉकिछ, कही, बड़ी । कन्दु तत्‌० (पु०) [ कन्द +ड ] लछोहमय पाकपान्न, कल्दुक तत० (पु० ) गोल तकिया, सुपारी, वर्णहृत विशेष, गेंद । कस्घध तत्‌० ( घु०) का, कन्धा, डाली, शाखा । कन्धनी दे० (ख्री०) करधनी, कसर में पहने का पभू- पण, सेखला, किछ्किणी । कच्धर तत्‌० (पु०) प्रीवा, घेहुवा, गछा, गर्दन, मेघ, सौधा, मुस्ता । कन्चा तद्‌ ० (पु०) कन्धा, स्कन्च । कन्धोर चत्‌० (पु०) श्रफ॒ग़ानिस्तान के पुक नगर था नाम, कन्दृहार, गान्धार, कहार, मलछाह । कम्धि तद्‌० (१०) समंदर, सेव । छान्धियाना तदु» (क्रि०) क्रान्ध पर रखना, कन्धे का बल देना, कन्बे का सहारा देना | कन्येली तद्‌० (स्री०) जीन, खोगीर, गद्दी, चदद वस्तु नो चैलों फ्री पीठ पर रखी जाति है और उस पर चनिये झन्न लादते हैं : कन्जैया तद्‌ ० (पु०) फझन्हैया, श्रीकृष्ण का चास । कनन्‍्यका तत्‌० (सत्री०) अविवाहीता कन्या, पुत्री, दश चर्ष की छकढ़ी । कन्या तद्‌० (स्त्री०) कुमारी, कड़की, येदी, दुहिता बारद राशियों में से छठी राशि, घीकुवार, बढ़ी कन्हरोया इंछायची, बॉस क्कोरी, चाराहीइन्द, चार शुरू । वाले वर्णाय॒त्ति का नाम |--काल (घु०) कन्या ' की दुश पबर्ष की अवस्था, रजोद्शन की पदली अवस्था [कुमारी तत्‌० (स्त्री०) रास कुमारी, देप कुमारी, रामेभ्वर के समीप का पुक अन्तरीप + --शत (पु०) कन्यानिष्ठा, कन्या राशिस्थित, कना- गत ।--दाता (पु०) विवाद में कम्यादान करने का अधिकारी !--दान (५०) विवाह, बर के कन्या समपैण ७-पति (ए०) ज्ञामाता, डपपति, ब्यभिचारी +--भाव (पु०) कुमारिदछापम, कुमा- रीख [--रजि (पु०) पष्ठ राशि, निरम्मी चस्तु, छज्ञजित, सलज्न । कन्दरीया दे० (६ु०) कण्डारी, मम, कर्णघार, सछाह । फन्दाई देन (छरी०) कनहाई, खेत ऋूतना, (पु०) श्रीकृष्ण का प्यार से बुलाने का नाम | कन्हैया दे० (5०) श्रीकृष्ण का नाम, अत्यन्त प्रिय | कपकपी तद्‌० (स्थ्री०)) थरपरी, फुरफुरी | फपद तत० (पु० [क+पदू+ भू ] अयथाये घ्यवदवार, चुछ, प्रतारण, चातुरी (--ता (स्त्री०) धूतेता, शठता वेश (पु०) छुछ बेष, मिथ्या, क्पिन वेष ।--वेशधारी (पु०) छुठ वेशघधारी, प्रनाएक, घोखा देने घाल्य, ठग ।--ू्‌ (स्त्री ०) माया की भूमि, जादू की घरत्ती, साया से बपन्न भूमि, माया जनित मूमाग ] [ छप्मवेशी । कपदी त्तत्‌० (गु०) छस्ती, वहुरूपिया, खोला, क्पटकारी, क्पड़फाट दे० (पु०) सीमा, तम्बु, ढेरा । कपइछन दे० (६०) कपदे में किसी पीसी बारीक युकनी को छानना । फपडुद्वार तद० (पु०) चस्थागार, त्तोशखाना । कपडधूलि (स्त्रो०) करेव, रेशमी मद्दीन वस्त्र विशेष । ऋपड़विण तद्‌* (पु%) दरजी, रफूगर । कपड़ा दे० (पु०) बस्ज, छुग्गा, छत्ता | कपड़े से होना दे रहस्वल्ा होना | कपना तदु७ (क्रि0) कापना, थरपरारा । कपड़ौदी दे० (स्त्री०) घातु या किसी औ्रौदधि के भम्म करने के उसके सम्पुट पर गीली और कपड़ा हूपेरे ज्ञाने कि किया । फपरियां तत्‌० (पु०) पक नीच ज्ञाति! ( रेश४ ) कपिवचत्र कपद या कपदंक तत्‌० (पु०) मद्दादेव की जा, चराटिका, कौडो | कपदिका तत्‌० (स्त्री०) घराटिका, कौदी । कपदिनी तत्‌० (स्त्री० हुर्गां, शिवा, मानी । कपदी तत्‌० (घु०) शिव, मद्रादेव, जदाघारी । कपाठ ततद्‌० (प०) क्रिबाढ, ढिवाडी, द्वार, देदली, घर, आवरण | कपार तदु० (५०) देखो कपाल | कपाल ततद्‌० (घु०) [क+ पाल + अछ] लबाट, भाल, कपार, अदृष्ट, साग्य क्रिया (स्त्री०) संस्कार विशेष, अधनले मुर्द के शिर के बॉस से फोडना | ही (पु०) शिव, महादेव ।-पमोचन (३०) काशी के एक ताछाव का नाम ।--भ्ुत्‌ (प०) शिव, महादेव, महद्देश्वर । फपालिका तव्‌० (स्त्री०) [दुपाल + इक + झा] दन्त रोग विशेष, खोपड़ी, घढ़े के नीचे या ऊपर का द्दिस्सा । [ घारियी । कपालिनी तत्‌० (दत्री०) छुों, मगवती, कपारछ- कपोली तत्‌० (पु०) शिव, मद्दादेक द्वार के ऊपर का काठ, सरदल, वर्णसझ्टूर जाति मिप्तकी उस्पत्ति कद्दार और ब्राह्मणी के भोग से होती है, कपरिया । कपालीय तदू० (गु०) भाग्यवान्‌, कपार के बसी । कपास या कपाखू त६॒० (६०) रई, कपास । कपासी (वि०) कपास के फूछ का रंग, यानी इृढ्का पीछा रक्न । कपि तत्‌« (पु०) [कप+इ) बन्दर, मरझट, हाथी, कमा, सूर्य, शिलारस नाम्ती श्रीषधि जो सुगन्षित होती है, यन्त्र विशेष +--कच्छू (स्त्री०) घृच विशेष, केवाच [--कुझ्जर (पु०) दानरों का राजा, प्रधान, राजा, हनुमान । कपिञ्जल तत्‌८ (पु०) चातक पद्यो, तित्तिर पक्षी, गौरा पहछी, भरदेल, कादुमस्वरी कथा के उपनायक का पक मिन्न, मुनि विशेष । कपित्य रुव॒० (६०) कैया, कैय, फडपिशेष । कविध्यज्ञ तद॒० (पु०) अज्जुन, त्तीसरा पाण्डव । कपिपरिय तद्‌० (घु०) वैध, कया । कपियक्त्र तव्‌० (ग्रु०) बानर के समान मुखवाढ्ा | कहते हैं कि नारद जी ने विवाइ करने की इच्छा 9 कपिरय ( श्२£ ) फफ एएए+++ज+ज_ज++++.नन्‍.न्‍हऊबईनन्‍..झकतझन्‍नन्‍ननजऋ..0त0तत््त्े॒॒_ से सुन्द्र बनने के जिये--से भी भगवान्‌ के | कपिलागम तव्‌० (प०) सांख्य शास्त्र । समान--भगवान्‌ से प्रार्थना की, भगवान्‌ कपिश हच० (पु०) कार पीछा, रंग, बढ़ामी, स्प उनके आध्यात्सिक 4क्‍्याण की ओर ध्यान देकर पीठ मिश्चित वर्ण | हुन्देर बनाना तो दूर रहा, इनका झुंह वन्‍्दरों का कपिशा ( स्त्री० ) कश्यप सुनि की स्त्री का नासा खा घना दिया कि आप अब चड़े झुन्दर ड्ो गये । मेदिनी पुर के दक्षिदा में बहने बाली कसाई नदी सारद जी भी स्वयस्वर स्थान सें पहुंचे और कन्या को माचीन नाल (राजा, संधोवग के सासने इस अभिलापा से खड्टे हुए कवि यह मुख ली फ कक ० (पु०) कपिखासी, बानरराज, धानरे देखे और वरण करे | परन्तु चैसा होना नहीं था ; पेश तद्‌० (३०) हपिसानी। बानरराज, धानरों का किन्तु उनको सामने खड़ा देख, कन्या उधर से अपना सुँह फेर लेती थी । परन्तु चारद जी कथ | कयुत्र तदु० (पु०) कपूत, कुपत, कुंड द्धिलछुतत | मानने वाले थे, जिधर वह मुँह फेरती थी, उधर ही कपूत तद्‌० (पु०) निन्दित पुन्न, दुराचारी पुन्र +-ी आप भी खड़े हो जाते थे | इनकी लीला देख वहा (स्त्रोौ०) दुए पुत्रवाली माता, (थि०) श्रयेग्यता । के छोगों ने कहा, यह वानससुँह इधर उधर क्‍यों कपूर तद्‌० (एु०) कपूर, सुगन्धि ब्वब्य विशेष |-- कपीश्वर तत्‌« (पु०) सुभीव, बानरों का राजा | दौड़ता है ! श्रव नारद जी का सन्देह हुआ और तिलक ( पु० ) पुक हाथी का नाम जो चह्माचर्त- लत् के समीप जाकर अ्रपना मुँह उन्होंने देखा, तव बिहर में था । ते। बचके निर्णय हे। गया । कपूरी तदू० (स्त्री०) पान, पत्र दिशेष, रह विशेष । फपिरथ ततच्‌० (9०) श्री रामचन्द्र जी, अर्जुन | है कपिल तल (पु०) भूरा रंग, मट्मैठा सत्र का, तामढ़ा | * पे तव« (स्त्री०) कबूतर, परेचा, कं (के चर्ण॑, श्रप्ति, कुत्ता, चन्द्र, चूहा, शिलाजीत, विष्णु, पालिका (स्न्री०) घर के बाहर की झोर झाड का सूर्य, मदादेख, वरना पेढ़ | सुनिविशेष जिन्‍्दोंने बता इुआ पक्षियों के रहने का स्थान, छुतरी, चिढ़िया समर के छड़कों को भस्म किया था | कुशद्वीप के खाना ।-बर्णी (स्त्री०) छोटी बज -+ श्रन्तर्गत एक वर्ष का नाम । विख्यात साड्ख्य बड्ढा व" (स्त्री) त्राह्मी बूढ़ी ।--द्ुसि तत्‌० शास्त्र प्रणेता कपिछ सुनि, यह कदम प्रमापति के (स्त्री०) आकाश इत्ति, रोज़ कमाना रोजु खाना । औरस से और देववती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, ““खत तद्‌० (४०) दूसरे के झस्याचारों के खुप- यह भगवान के पाचर्वे अवतार हैं, उनका बनाया चाप सदना ।-- सार तत्त्‌० (ए०) छुत्मा (धातु) । ९ छुआ्ला साइल्यदुर्शन पड़्दर्शन की श्रेणी में समझा न्जिन तब" (०) झुरमा € घाद ) ।“-ारि जाता है । साइूस्यदु्शन के लेग निरीश्वर दशत की (३०) चाज पछ्षी।ननाक्ष (४०) हि कहते हैं ( इस दर्शन में अ्क्ृति और घुरुष का विशेष । [ तरकारी । निरूपण बहुत दी अच्छी रीति से किया गया हैं। कपोतिका या कपोत्ती तव्‌० (स्त्री०) कबृतरी, मुली, कपेल तव॒ु० ( छु० ) यार, गण्डस्थछ, रुखसार ।-- --धारा (सख्ी०) गछ्ना, तीर्घ विशेष, काशी और गया का पुक स्थान घिशेष । पर कल्पना तत० (स्त्री०) गप्प, मनगढ़न्त --कब्पित कपिजता तत,० ( स्ट्री० ) खूरापन, लक्ताई, पिलाई, सव्‌» (वि०) बनावदी, मनगढ़न्त, मिथ्या +-- सफ़ेंदी, केबाच, कौंछ, घेंटिया । - [ का नाम । मेंदुआ देन ( घु० ) गढतकीया, गार के नीचे फपिलवस्तु तत० ( घु० ) मैतम बुद्ध की जन्‍्मभूसि | रखने का तकिया । कपित्ता सत्‌० (स्त्री० रे रंग की भराक घेलु, दर | &व्यर दे० ( छ० ) कपड़ा; छम्गा । _ राजा की एक कन्या का नास (वि०) सीधी, (स्त्री०) से वर ( घ४ 3) कम के; बनकर का चतड़। (वि) जे, चीटी, पुण्डरीक दिगयज की स्त्री का सास, | 49028 235 33% कप फ छात्र, रक्त वरण ! रेशुक्का चाग्नी सुगन्धित और; सध्य भ्रदेश की एक नदी का नाम । कफ तद्‌० (प०) स्लेप्मा, खखार, चक्शस, शरीरस्थ क्फन ( एरई ) कमला धातु विशेष, कमीज के बांह के आगे की मोटी | कम्य तत॒० (पु०) पितृश्राद्ध, पितृदान | कपडे की पह्ी जिसमें बटन छगाये जाते हैं, नाछ [--प्न ( गु.) ञइफ़नाशक, श्लेप्मानाशक | “वर्क ( गु० ) कफ बढ़ाने बाढा, तगर घूक्ठ । “विरोधी (४५) मरिच -नरि (४०) धुण्डी, सोंढ | कंफन या कृप्फन दे* ( पु० ) वह रूपडा जिससे लपेट कर मुद्दा भस्म किया ज्ञाप या गादा जाय -ीी दे० (स्त्री०) साधुओं के पदिनने का वह कपड़ा मिसे शले में थ्रट््ा कर पहना करते हैं । कफीणी तत्‌० (६० ) बाँद के बीच की गांठ, व्टोदनी टिहुनी । फब दे० ( श्र० ) कदा, कदिया, किस समय |--तक ( भ्र५ ) श्रवधि वाचक ब्रव्यय, किस समय तक । --लीं कितनी देर तर । कपहेँ दे* ( श्र८ ) कभी भी, छिसी का | फघकय दे० ( क्र० ) किस क्रिप समय | कबझी देन ( स्थी२ ) मारतीय पुर खेछ । फवन्थ सब॒* (पु०) रड, मस्तक्द्दीन देह, बिना शिरर का धड, धुक रादस या सास, पीपा, बादल, पेद, जल । [जाते ई। फ़्वेर दे (रत्री०) जिसमें मुसझमानों के सुर्दे गा कबेरा तु? (स्त्री) क्थुर, चितकपरा, चितल्ा | फबहूँ पदु० (अर०) कमी भी, झिसी समय भी, कमनिझ जून । कबाड़ देन (स्त्री०) आग सगड, रद्दी चीन । [धौदागर। फवाड़िया था कवाड़ी (पु० ) हूटी फूटी चस्तुओं का कवारू दे० (६०) काम, उ्यम, गुण, फकट, हुनर । कंवित दे (पु०) पक प्रकार के दिन्दी मापा के धृन्दु का नाम । [ झूघीर के मताजुयायी । झदीर दे० (बु०) पुक बैरागी का नाम --पन्‍्धी (वि०) फंबीला दे० (स्प्रो०) स्त्री, जोौरू प-नी कबूतर दे* (पृ५) कपोंत, परेदा । कबूली दे० साभी हुईं, मजुर की । फब्जा दे० (६०) दस्ता, मूठ, लोहे के चने हुए दो इकढ़े जो किताबों या सन्दक आदि में झगाये जाते हैं। कम्ज्षियत (स्लरो०) साछठावरोध, साफू दुस्त न दोना। क्री दे० (०) क्दावि, कधी, कमू। -कमू दे (प्र) कब्र, कभी, कधू, कदापि । कमर ( वि० ) थोडा, न्यू --असल (वि०) दोगणा । कम्ची (स्थ्री०) पतली खचीक्ली साठ या छड़ी । कप्रच्छा (सत्नी०) गोदाटी की एक देवी का नाम । कमजोर (वि०) शक्तिह्वीव, वद्चरद्दित । कम तत्‌५ (पु०) कछुवा, दैँत्य विशेष, मुनि भाजन, चाँस, सलई का बृछ, प्राचीन बाजा पिशेष । कमड़ा दे० (पु०) वॉस का धजुप कमान । कमठी तत्‌० (स्त्री०) कच्छपी, कछुई, घलुद्दी । फमएडल था कमणडइल्मु तद० (५०) करवा, कठारी, साइश्रों छा जल्पाप्न, साधु संन्पासियों का प्रिट्ट या काठ से बनाया जलूपात्र, पार का पेड । कम्रढ़ा दे" (पु०) पेठा, कुहँडा, कोहटा । कमती (स्प्री० स्यूनता, कसी । [(स्स्य। कम्नीय सत्‌० (गु) सुन्दक सुपरा, सुघड, मनोहर कमनैत (पु०) ततीरकमान चलाने बाला।-ी (स्त्री०) तीरस्प्नान चलाने की विद्या] कमर दे० (स्त्री०) फट, शरीर का सच्य भाग । कमरफस दे० (०) ढाक का गोंद, दितिया पोंद | कमरख तद्‌० (9०) एक प्रकार का पद्दा फल और चंख विशेष | ' कमरट्रदा (ब्रि०) कुषजा, कुन्डा | [की टोरि। कमरबंद (3०) इजारबंद, पैज्ासा या एहंगा बाँधने कमरा (१०) केठरी, तसवीर वतारने का यंत्र, बढ़ा; करत ॥ कमसिया (स्त्ी०) छोदा कपछ कमर, हाथी विशेष, एक रोग विशेष, चरणी की छकड़ीं यिशेष । कमझा तत्‌० (पु०) पत्म, जलछूज;, श्रम्युज् +ज्ञ (३५) ब्रह्मा |-मास ( घु० ) पद्मदाभ, भग- बान्‌ विष्णु |--वाय या वाई (9०) छाप्रटा रोग, पावर, पक रोग विशेष जिसमें शरीर थर आस पीछी दो जाती हैं |--मच शद० (० ) मह्या ।- मूल तद्‌० ( धु+) सपीडा, मुरार ! “यानि उत० (० )अक्षा कप्रलगद्टा (4०) कमल का बीज | फम्रला तव्‌० (स्प्री> ) लक्ष्मी, विश्श॒पन्‍नी। घेनः कमलाक्ष सारी फल, लिरहुत की एक नदी, चर्णकृत्त विशेष, ढोला, कट '-कर (8०) तालाब | जिघ वाल्याव में कपल पुष्प अधिकता से पाये जाते हैं [--कान्त (पु०) कमल के समान कान्ति पे सम्पन्न, विष्ण ।--पति (०) विष्णु भगवान, नारायण ।--सन ( 4० ) [ कमछ + प्रासन ब्रह्मा, भोग का पुक आसन । - सना (स्त्री० ) लक्ष्मी, सरस्वती । कमत्ाज्ञ तव" ( पु०) फ़मछ नयन, पद्मनेत्र, पद्म पद्म के समान 'अंखों वाला, कमलछगद्दा | कमकद्िती त्तव० (स्त्री०) कमोदिनी, कम्लों का समूह | कमली तव्‌० (०) ब्रह्मा, छोदा कंवक । कमाई दे० (स््ी०) उपाजित धन । कमाऊ दे० (छुु) कमानेवाला, ड््यमी, परिश्नमी, यह्नी, उत्पन्न करने वाला । कमान देन (ए०) घाुप, कमठा |. साफ़ करना। | कमाना दे० (क्रि०) प्राप्ति करना; निर्मेल करना; कमानी (स्तरी०) लोहे की तीली ।-7दार (पु०) कमानी हूगा हुआ, कमानी घाला। कमात्त (चि०) परिपूर्ण ता, निषुखता । [उ्द्यसी, सादसी । कमाखुत दे० (9०) कमेंरा, श्षमी, कमाने बाला, कमेरा दे० (घु०) सजूर, सहायक, कामकर । ( १२७ ) कमला दे० (प०) कुस्ाईखाना, वधस्थान | कमेदिनी दे" (ल्वी०) कुसविनी, कमछ विशेष, का फूछ यह रात के विकसित होता है | कंमेरी दे० (स्वी०) सठकी, गगरी, बढ़ा बड़ी । छक्म्प तत्‌० (5०) कंपकपी, _ चरथधराहट, सल्याह़न +ज्यर (छु०) कम्प सहित ब्वर, ज्वर जिससे शरीर काँपता है, जुड़ी ।_[ चलन कम्पन तत्‌० (घु०) थरषर, डंगडंग, स्पन्दुन, कॉपिन, कस्पवायु तल (घ०) रोग विशेष, शरीर की अचशता | | कम्प्मान्‌ तद्‌० (छु०) कम्पन् युक्त, सकम्प । कास्िपित तन्‌० (गु०) कम्पायमान, डगमगा ] कंम्बत्त॒ तव्‌० (उु०) कामरी, लोई, ऊनी कपड़ा दोशाला । डर कम्चु तव॒० (घु०) शझ्झ, घोंघा, द्वाथी ।--प्रीय (यु०) शह्ड के समाच कण्ठ चाछा | कोई | पे, गान्नादि कषदयी दे० (स्री०) दिशेरा, थविया, वडुत चोट आम। करस्हें कया दे० (व्रि०) काया, देह. शरीर । कुयामत दे० (ए०) अन्तिम दिवस, प्रद्य ] कृयास दे (पु०) भज्ुमान, विचार; ध्यान, ख्याल । कर तद्‌० ( पु० ) हाथ, राजस्व, मदसूछ, राजघन, इस्तिशुण्ड, हाथी, की खूँड, ओला, किरण, हस्त- नज्ञन्न ] ' कर ? का अधे 'का ! भी होता है, जैसे "राप्त तें अधिक रास कर दासा? -- तुलसी | ( क्रि० ) करके, करना | करइ दे० (क्रि०) करे, छरें, करते हैं। | क्करई दे० ( क्रि० ) भालुआ, मटकैना, चुकड़ा । | करड दे० ( क्रि० ) दरो, करे, करिये, कीजिये । करक दे० (स्त्री०) पीड़ा, दर्द, कड़क, रह रद कर उठने वाली पीड़ा, कप््डलु, करवा, पछास, मेलसिरी, करील, ठठरी, नारिछय का खौपड़ा। अनार, जैसे _-."बीध्ये। कनकपाश झुक सुन्दर केरक बीज गहि चूँच” (-खूर | करकच दे० ( छ० ) समुद्री लेन, छवण, निमक । करकट दे० (०) छुड़ा, बठारन, कतवार । करकचि दे? (छु० ) किचकिचाहट, हल्ला ग्रुल्ला, अपुष्ट, कोमल । [करकराती है। करकना (क्रि०) रह रद्द कर दे का दवोना। जैसे माखि करकर (9०) सम॒द्व ले निकलने वाला निमके | करकरा दे» (०) करकरिया पद्ची (वि०) खुरखरा | करका तत्‌० ( ख्री० ) शिक्षा, ओला, पत्थर पढ़ना, शिल्रावृष्टि । करकाना दे० (क्रि०) लचफाना, झुरकाना ) क्करख तद॒० ( छु० ) खैंच, खिचाव, हठ, अधिक द्वब्य, साप विशेष । [लाग डॉट, कालिख, छा्लोज । करखा दे० ( घु० ) छुन्द्र विशेष, उच्तेजना, बढ़ावा, द्ूरखी तदू० ६ क्रि० ) खींची, आकर्षित की, अपनी ओर खींच ली, (ख्री०) कजली । करगत तत्‌» (सु०) हस्तगत, हाथ, जया ड्डुभा; आप, हव्घ, हाथ में आया हुआ, (पु०) इस्तनद्त्र ध्ित्त चन्द्रमा । करगता तद्‌० [घु०) करघनी+ कटि वन्‍्धन | करगही (स््री०) जड़दत, सोडा चाच । क्स्प्रद्द तव॒० ( घु० ) विवाह, पाणि-अदण, परिणय, तू ० कर गहना । करड करएछ्ट दे० (पु०) पञ्र, पशिरी, हड्डी । करघा (पु०) दवाथ से कपड़ा विनने का यंत्र विशेष । करद्दा या करली ३० (स्मथरी०) कबद्डी । करहछुल ) करलुली | कब््छी । करन तव्‌ू० (पु) द्वाप से उसतन्न, अ्रंगुक्षियाँ, नख करंज्, केगा । करकन तत्‌" (पु०) करिज्ञा, वृत्त विशेष । कर तक (पु०) कृछलास, गिरगिट, काक, कौग्रा, हाथी का गाल, कुष्सित जीवी, नास्तिक । करी तद० (पु०) दायी, रंगा, (खत्री० ) काक पत्नी, कौश्ा की ख्री करण तत्‌० (१०) [ क+ अनर] साधन, निर्माण, इच्द्रिय, येगियों का आसन भेद | व्याकरण का तीघरा काएक | ज्योतिष में एक प्रकार के समय विभाग के करण कद्दते दे, थे करण ११ हैं, इनमें ७ सात चल ओर ८ स्थिर हैं, दो करण पुर चन्द्र दिन के वरावर दोता है । करी ठत्‌« ( स्त्री०) [ कृ+भनद+ है ] खुर्पो, रॉपी, गणित शाप्र में बढ राशि निसह्मा सूछ निश्चित न हो । करणीेय तत्‌ (गु०) घवश्य कतेब्य, करेप्य करे ६ करणेच्छा व्‌" (स्त्री)) [ऋण इच्छा] निर्मा य्रेच्छा, करने की इच्छा । [ पेटिका ६ करणड तथ्‌० (१०) काझ पह़ी, कौवा, डिब्शा, डिविया, 'करनू या ऋरत (%०) करता है, करते हो । करतय तद॒० (गु०) कराम्त, काम, झरनी, कला, गुण ।-- (गु०) गुणी, करामाती, पुरषर्ची, निपुण । करतल तद्‌ (पु «) इस्तवऊ, इयेली, दाप का ताल । फरतार तदु० (बु०) ईश्वर, विधाता | करतारो दे (स्त्री०) दाप ही ताली, थपरोडी, ताछ ) फरताल तद* (०) पु बाजे का नाम, कठतान्, मऊामि, मनीरा । ( शब्द, ताली धरोडो | करताज़ी तद० (स्त्री०) हाथ बजाना, दाथ बजाने का क्रतुत दे० (स्थ्री«) करनी, कबा, गुयय । करतूति या करतुती दे० (स्प्री-) काम, करमी, सपा--/करदूतो कट्दि देत, श्राप कद्दिते नि साई ” । +->उंद्मर ( शरद ) फरमाला करतोया त्व्‌० (स्त्री०) नदी विशेष, यह नही बग्लाल में है। [ तदृ० (पु०) पद्ठा, राजस्व सूचछ पत्र | करद्‌ तव्‌« (वि०) कर देने वाज्ा, अधिनस्थ --पत्र करदा तद्‌» ( पु०) बिक्री के मात्त में मिला हुभझा झूंड़ा करकट, बद्दा ।..] गुजार, कर देने चाशे । करदायी तव॒० ( यु ) [ कर + दा + खिन्‌ ] माछ- करज्ुस तत्‌० (गु०) करनिद्वित, इस्तशत । [विशेष । करघनी दे० (स्त्री०) कमर पर पहिनने का भाभूषण करनधार तदू० (३०) कर्णाधार, महाद। [ विशेष । करनफूल तदु० (०) स्त्रियों छे कान का श्रामूपण करनवैध तत्‌« (घु० ) वालक के कान छेदने का संस्कार, कनदेदन | करन (कर्ण) तदू« (५०) कान, श्रवण । करना दे० (क्रि०) वनाना, रचना, सुधारना | करनाठऊ पु०)इछ्षिण भारत का एक आठ विशेष, मैदूर मंगलौर, बगलौर, आदि कानाटह प्रान्त दी में है । करनाल (पु०) नरसिद्दा, भाौपु, एक प्रकार का ढोल पु प्रज्नार की तोप, पंज्ाद का पक नगर । करनी दे० (स््री०) करनूव, पूर्वक्ृत कम, करने वाली, ++था करने के येग्य । करपत्र ततु० (पु०) करांत, आरा, क्कच । करपीड़न त्तत« (पु०) पाणी अ्रद्ृण, विवाद $ करपुद तत्‌० (०) कझृत्राअल्ति, वद्राज्षद्धि | करवत्ञा (स्त्री०) निर्जेल निजन ध्यान, तामियों के ०७. दफनाने की जाद | 'करवाल तत्‌० (पु०) अ्रसि, सम्न, जड़, तलवार । फरबालिका तत्‌ (स्त्री०) घुरी, कटारी । करवी दे८ (स्त्रो०) नारी, डाठी, छुश्ार या बामरे की डॉँठी, पशु मदप तृथ । करम तु" (पु०) ऊछ, हाथी का बच्चा, करएप्ठ, कमर, दोहे के पक सेद का नाम । करमीर तद्‌० (१०) सिंह, स्टगराज । करमूपण तव* (ए०) झूकनए, कंतन, पहुँची, कट्ठा $ कऊरम तर्‌० (पु०) कमें, काम घर्चा, भाग, साग्य कल्ना (पु०) गांद गोभी वाँघी गोमी ]नाशा तसदु« (स्त्री०) एक नदी का नाम ] कंणस्मठ (वि०) करें काण्डी, कर्मग्रिय । करमाला तत« (स्प्रो०) जपमोदा, जड़ करने की कर्मैती छोटी साला, स्मरण या इंगलियों के फोरों की साला | (पु०) अ्मल्ताप्त । करमैती (स्त्री०) श्रीकृष्ण डी एक भक्ता बराहाण कन्या । | कररुष्द तत्‌० (पु०) नाखून, सख । करलमुवा दे (ध०) खीवश, ख्रीजीतू । करवद दे० (स््री०) पंसवाढ़ा, पॉजर, पाश्वे परिवर्तन । करवरे दे० (पु०) विपदा, श्रदष्ट, होनहार । करवीर ठत्‌» (प०) कंडीर का फूड या पेड़, कमेर का वृक्त या पुष्प, खनन, श्मशान, चेदि द्वरेश का पुक नगर । करणशाला तत्‌० (स्त्री०) झुंगीघर, महसूल् घर । करपा दे० (घु०) ईर्ष्या, बेर, क्रो घ, रिस, अनख, कालिमा, उत्तेजना, बढ़ावा यधा-- #पृक्कहिं पुक बढ़ावहिं “ करपा ? --तुलसीकृत रामायण 7 करपि (क्रि०) खींच कर, घींच कर । ऋरसस्पुद तत्‌० (पु०) द्वाथ जोड़न, वद्धाजलि ) करसी दे? (प०) जंगलीगे।हआ, गेबबरी, कंडों का चूर । करहा दे? (५०) कहुद्ा, कटि, कमर । करहार तत्‌० (9०) शिफाकन्द, मैनफलछ | [विशेष | करहांटक तत्‌० ( धु० ) शिफाकन्द, मैंनफल, ओपधि “करई (क्रि०) करते हैं, करें । करांत दे" (ए०) क्रकच, आरा; करपत्र । विछा । करांती दे" (सु०) झारे से चीरने वाट, छकड्ी कादने करा दे० (गरु०) कड़ा, कठिन, खोटा, ऋूठा (स्त्री०) कव्टा, किया । कराइहि तदू० (क्रि०) करावेंगा, करवाचेगा | कराई दे० (स्त्री०) मूली, दाल का छिलका । करात (ए०) पौछ विशेष । कराना (फ्रि०) करने में छगावा, करवाना निर्माण कराना | करामात (स्त्री०) करश्मा, चमत्कार (-+ी (वि०) चमत्कार दिखाने बाला । करार दे० (ए०) कशारा, किनारा, ठहराव, कैल, झते । करारा दे? (पु०) नदी का ऊंचा तट, टीला, कठोर, इृए्ट, उअ, तेज, चोखा, अधिक गहरा, घोर, हृद्दा कट्टा, चक्षवान्‌ -पन दे० (पु०) कड़ाई, कड़ापन। कराल तप्‌० (पु) भयद्ू-र, भयानक, डराबना |--+ कृति (स्त्री०) भयह्ूूर स्वरूप, डराचनी सूरत । ६ रैरे६ ) करुणा करालौ तत्‌० (स्त्री) भयक्कूर, कठिन, अग्नि के सप्त- जिल्लाओ्रों के अन्तर्गत जिल्ला विश्षेप | क्ररावली तत्‌* (स्थी०) किरयों का समूह । कराह दे० ( ३० ) बढ़ी कढ़ाही, छुःस में निकला हुआ शब्द । [ लेना, पीढ़ा में झ्राहें भरना | कराहना दे (क्रि०) सास भरना, दुःख करना, उसासे कारि तदु० ( घु० ) हाथी, हस्ति, रामायण में इसका प्रयोग आया है (क्रि०) करके --क्ुम्स ( 8० ) गजकुम्म, हाथी का मस्तक --गर्जित (छु० ) हाथी का गर्जन, हाथी का शब्द |--ज ( पु ) हस्तिशावक, करभ, हाथी का बच्चा (-- नी (स्त्री०) हथिनी | " [ #च्छूता । करिखई दे० ( स्ली० ) श्यामता, काकापन, कालिमा, करिखा दे० (ए०) कालौंच, कालिख । कारिण तद्‌ ० (9०) हाथी, शुण्डवाला । करिणी त्तत्‌० (स्ली०) हधिनी, चैश्य पित्ता और शूत्र म्पता के गर्भ लें उत्पन्न छड़की । करिया दे? (घु०) पतचार, कर्णघार मछाह, (गु०) काल्ठा, श्याम, सांचर | [ विशेष [ करियाद्‌: तत्‌० ( पु० ) सूस, जलहस्ति, जललन्तु करिष्णु तद्‌० (यु०) कर्तव्य, करणीय, करणशीक । करिष्यमाण हत्‌० (गु०) करिष्यत, इधचत, यत्षवान ! करिहाँ या करिहाँव तद्‌ ० (घु०) कमर, कटि ) करी वद्‌० (पु०) हाथी, गज, माता (स्त्री०) कढ़ी, घरन, कली, छुन्द विशेष /--न्द्र (छ०) [करी +- इन्द्र] प्रधान हस्ति, ऐरावत हस्ति । करीना (५०) दांकी, किराना, मस्ताला, ढेंग, पद्धति करीजे दे० (क्रि०) करिये, ।कीजिये, करें, करना येस्य है, करना ही चाहिएु। करीर तल» (पु०) चंशाइ्कुर, बश्च का फोपड़, रेतीली भूमि में उत्पन्न होने चाला वृक्ष विशेष जिसे ऊंट खाते हैं, वो का पेड़, घड़ा करीत या करोत्ा तदू? (ए०) देश करीर । करीप तत्‌० (ए०) खूल्य गोमथ, वनकंड्रा, अरनाकंडा। करुआई या करुआई दे* (स्ोी०) कड॒आपन, तिवाई+ तिक्तता [ करुण तत्‌० ६ धु० ) इत्त विशेष, करुणा, डचित दया, बुद्वि विशेष, रखविशेष !--विधन्लस्स-(४०) खब्नार श७० पा-+१७ करुणा. ( १३० ) कर्णाठहुनल 7 रप्त का भेद विशेष, नायिका या नायर में से कफन्धु तत॒० (व०) बदरी शृत्त, चेर का पेड कोई पुछ लोझान्तर चला आय, परम्तु पुव सम्मि- , ककश सत्‌ु० (ग़ु* ) कठोर, कहित, कड्ा, निदेय; छत की श्राशा हो, ऐसी अ्रवस्था का नाम करण- विप्रल्लाभ है । | ( ४० ) उख, खांड, ( स्रौ०) कक्‍क्ृशा --वाज्य ( पु० ) निप्दुर चचल, परुष याक्यें | ऋस्णा या केसमा त३० (स्री० दया, कृपा, धडुप्रह; कच्यूर तत॒० (६०) शक्त विशेष, सुमन्‍्ध हृम्य का अनुकम्पा, राप्तायण में इस के स्थान में कहता का प्रयोग प्राय किया गया है ।- कर (६०) दयालु, कृपाबानू, दया की शशि ।--निधान (गु०) दया घार, दया का आधा? सानुकम्प, अतिशय दयालु। --रदित (गु०) कह्णायुल्व, दुयाशुन्य मय (गु०) दया के रूप, दुयामय, दुया करने बाला, दालु, दयालु |--यतेन (प०) दया के स्थान | --ईँं (६०) कल्यानिधान, दुयालु, करणामय । करुवा तद्‌" (पु०) कम्रण्डलु, करवा, कढारी, मिद्ठी का केपा वतन ।--चौथ दे० ( स्तौ० ) एक पर्व या त्योहार जो कार्तिक चंदी चौध या होता है । करेकर दे? (प्र०) पुकत्र, बरायर, संग संग |? करेत दे० (७०) सप विशेष । करेणए तव० (पु०) दापी, गज, कर्णिकार चुद फरेरा दे? (7०) इक, कग्रेर, कड़ा । फरेत्ठा तत्‌७ (पु०) तरकारी विशेष ) करेत धत* (६०) देखो करेत । करोंड दे* (ए०) कहोड, कोटि, सौ छाप की पक सैष्या, १००००००६ [-पती (वि०) एक करोड रपये रपने बाला । करोड़। दे० (पु०) बगादने बाला, प्रधान । करोनी दे* (स्त्री) खुर्चन, दूध का जलन | फरोर दे* (१०) करोरी, देखे। करोड । फरोरी (पु०) रोकडिया, खजामची, क्योड का स्वामी फरेएना (फ्रि-) खुरचना, खप्तोडना । करों दे० (क्रि०) करता हैं, बनाता हैँ, करूँ, रच) करोंदा तद्‌ ० (०) फरमदुंक, पुक खद्दो फत्न का नाम! कर सद्‌ « (३०) केकदा कऊराशि, चतुर्थ राशि, दन्नि, ५ ये) घड़ा, काश्यायनसूच के एक झात्यकार | फक्द तव्‌० (१०) केंकआ, चौथी राशि, नाग विशेष, कऋश्करिया, जौद्ी, दूत्त की ज्िज्या, सृश्य विशेष, कप्रलल सूछ, मुम्दी ।--ी तथू७ (प्रो०) क्धुई, कछडी, सतरोई, काझइामींणी + | भेद, सुवर्ण, कपुंर । [ का एक ब्तेन | कहछेनी दे+ (ख्री०) करोचनी, सुर्चन, पाक बनाने कह्धों दे० (३०) डढ॒च्रा, डब्ब, कछुँ । काल देन (खी०) फुर्शाच, कृद, चौड्डी + कछ्ल दे० (घु०) कर्दी, करछुली । कज्ञे ) (पु०) ऋण, डपार लिया हुआ घन ।>दार कर्जा | (यु) ऋणी । कण तत्‌० (पु०) कान, श्रवण, पतथार, अज्नराज, राधेय, युधिष्टिर का बडा भाई, सूर्य के भौरत से - कुन्ती क गर्स में बढ़ इधपच्ष हुआ, अपनी वीरता के धारण यह प्रसिद्ध था, इसने परशुराम से अश्व विद्या सीखी थी । प्रिभुन खेत में भुज और कोटि की रेखा के भ्रतिरिक तीसरी रेखा का नाम, चतुष्झेय खेत में उप्त कोने का नाप्तणो सामने के कानों से सखींची हुई होती है ।--कंयड (३०) कर्ण रोग विशेष, कान की खुजछाइट | -- छुददर ( पु० ) कान की गोज्ाई, गोलक | >-ग्राचर (३५०) श्रवणज्ञान, किसी धात हो सुन लेना ।-घार (पु०) माम्दी, नाविक, नाव चलाने बाला, चड़नदार ।--पिशाची (३०) एक तान्निक सिद्धि जिसके द्वाग दूसरे मनुष्य के मल की बात बतढछा सकता है ।--फूल (१०) कान का भूषण विशेष, कर्णालछ्ूार, कनफूछ ॥--मल्ल 'चु०) कर्णगुपभ, कान का मेल [-वेध (8०) सेस्कार विशेष, कान छेदन |--वेध्टन (४३) कुण्ड, छान में पहनने का गदइना | कर्णाकर्णी त-ु० (स्त्री) काना कानी, शोदरत | कर्णाद हव्‌ ५ (पु०) देशविशेष, स्वनास प्रद्तिद्र देश ! - के (३०) कर्णाद देश में उत्पन्न सनुष्य ) ऊर्णाटी तथ॒० (ख्री०) गागिनी विशेष, कर्णाट देश में इस्पन्न मनुष्य या बह्तु | कर्णानज्ञ तव" (ब०) ऊर्ण का छोटा भाई, शाचा यूधिछि है कर्ासरण कर्णासरणा चतू५ (इ०) कणएलडूतर, करणोसूपण, कये- फूल । कंणिका तत्‌० (स्त्री०) कान का एुक प्रकार का महना, हाथी के श॒ग्ड का अतिशय पतला भाग, हाथ की मध्यमा अड्गुली कर्णिकाचत्त ठत्‌० (पु०) सुमेरु पर्वत । कर्शिकार तल" (३०) बरक्ष प्रौर पुष्प विशेष । कर्णीरथ तत्‌* (१०) क्रीड़ाघे छोटी याद्टी, स्त्रियों के आने जाने के किये पर्दादार रथ, पुक्का कर्गीजप तत्‌० (पु०) पिशुन, दुजन, ठग, इधर मी लात बधर कहने वाला, चुसुरूख़ोर । ऋर्णीछुत तत्‌ ० (छ०) कंसभाज ) कत॑न त्‌० (पु०) कतरन, काटन, छुदिन । कर्तनी तव० (स्त्री०) कत्तरी, कतरनी, कैंची । कच्तब्य तद॒० (पु०) करणीय, करणाह, करने योग्य, बपयुक्त, बचित (“ता (स्त्री०) उपयुक्तता, उपयुक्त । [ दिशेष, छुरी । करत्तरिका ठव्‌० (स्त्री०) केंची, काटने के लिये अस्त कत्तेरी तव॒० (स्त्री०) काटने का अ्रस्त्र, कैंची । कर्ता तव॒० (घु०) प्रश्, स्वामी, बैस्‍वर, अधिकारी, करने बा ला, अधिपति, प्रथम कारक । कर्तार तत््‌० (पु० ) ईश्वर, सृष्टि करने बाला; सिरजनहार । [ छाता हुआ सूत * फत्तित तत्‌० (गु०) छाटा हुआ, चिक्न, खण्डित, कतेक तल (प०) कारक, खाधक, कार्य, खाध्य, बनाया हुआ । कस कर्मभाव (छु०) कर्चा और फ्से का सस्प्रस्ते । कतूत्व (घु०) कर्ता का घर्म, प्रसुता, स्वामित्व, अधिकार | करतृप्रधान तदू० (गु०) जिस वाक्य में कर्चा की प्रधानता हो, जिस वाक्य में कर्ता क्रिया के अजु- सार हो । [ बाली क्रिया । कतृंबाचक्र या चाची (गु०) कर्ता कारक को कहने कतूंवाच्य ठत्‌० (०) जिल वाक्य से कर्चा काबोध अधान रूप से हो कदम तव्‌० (पु०) कादो, कीचड, चहल्हा, पक, पाप, छाया, स्वायंभरुव सन्दन्तर के एक प्रज्ञापति ॥ कर्घनी दे” (3४०) करिवन्ध, खूत या चांदी छोने का बना हुआ कमर में पहनने का गहया | ( १३१ ) च्क कर्मसूल कर्पासस तत्‌० (पु०) कपास; रुई, बाँगा । कर्पासी रुच॒० (ु०) कपड़ा, सूत, बख, सूती कपड़ा । कर्पूर तत्‌० (घु०) कपूर, श्वेत चरण सुग्र्ध द्रव्य विशेष, चन्द्र । कर्वया तत्तु० (स्त्री०) वनतुत्नली, कृष्ण चुलसी ॥ कम तव॒० (ए०) क्रिया, कुरनी, भाग्य, दूसरा कारक कार्य प्रयोजन, व्यवहार, छप्न से दुशर्चा लम्मा - कर (ग़ु०) जो मजदूरी लेकर काम करता है, भूल, नौकर, समस्त काम करने वाला +--फरायड (छु०) सेस्कार विशेष, जप यज्ञ होम शादि, बेद्‌ का एक अद्भ जिससें कर्म करने की विधि लिखी है --कार (पु०) जाति विशेष, शूद्धा के गर्भ और विश्वकर्मा के घौरस से दरपन्न एक ज्ञात्ति, छुद्दार, चैन, चेमार --क्कारक ( पु० ) दूसग कारक, कर्त्ता के ब्यापार से जिसका क्ञाभ पहुँचे ।- घारय (9०) विशेषण, और विशेष्य के सदश अधिकार वाल, वह समास जिसमें दोनों का समान अधिकार हो |--व्युत (पु०) काम से बाहर किया हुआ, कर्मम्रष्ट, पद॒च्चुत । कर्मचारी तत्‌० (१०) कार्यकर्ता, काम करने घाला ! कमेठ तव० (पु०) कार्यपडु, कर्मेनिष्ठ, कर्मकाण्डी । ऋरमयला तव० (म्न्नी०) कार्यकुशलता, तस्परता । कर्मनाशा तत० (स्त्री०) नदी विशेष जो चौथा के पास है, कहते हैं कि उसझे जलस्पर्श, से महुप्य के मम नष्ट हो जाते हैं । [ में निष्ठावान्‌ । कर्मनिष्ठ तच्‌० ( वि० ) क्रियवान्‌, शास्त्रविष्ठित कर्मों करम-निपुणाई तद्‌० (स्त्री) कर्मकुशलूता, कर्म करने की चतुराई । [ अपना उद्देश्य | कर्मपथ तत्‌+ (घु० ) कर्म मार्स, वेद की रीति, कर्मप्रधान तत्‌० (घु० ) जहाँ कर्म की प्रधानता हो (क्रिया ( स्त्री० ) कर्मवाच्य क्रिया । कर्मफल तत्‌* (9० ) कम का फल, कर्मविपाक, सुख दुःख, करनी का फल ) कर्ममूमि चद॒० (स्विी०) आयदविते, भारतवर्ष, जरा कस करने से विशेष फल हो। कर्मसोग ततद्‌० (पुणे) प्रारूघ छा मोग, कर्म घछें उत्कन्ष फ्चों हा भोग | [ पहिली अवस्था । कर्मसूत्त चत्‌० (घु०) कमी की जढ़, कुश, कर्म की ह] 7 नि टिम टमिल 7 +मप कर्नल कर ( ३५ ) कलझज जब रन परत कर्मयुथ बद० (४०) कलियुग, चौपायुग, शेषयुत।.. | कर्षक ठतु० ( पु० ) किसान, एप, खेत करने कर्पएटू च* (पु०) क्माख, छल विशेष । बाला, हृपिजीदी, स्वींचने वाल १ कर्मणिंत तत० (जीव) आरध्ध का केस, कम की रेखा | | कर्पेण वव७ (३०) [छुपू+ श्रनट्‌ ] सच, टांग, दर्मचाच्य या कर्मताचऋ किया तव० (स्री०) कर्म जोठना, कृपिझमे ।.[ भाकणी, लगाम, रास । की प्रघानता सूच किया विशेष । ५४ ५ € छी० का दृष, बैकुशी, वशी, दर्मवादू हद» ( 3) करेगे, ममता जिसमें डे का ५ कक हक बा , अ: 0 गया दै।-टो हद० ( धु०) मीमी- योग्य, ज्ञौवने योग्य खेक, सींचने योग्य । सह, कर्म को प्रधान मानते वाजा । कर्मविपाक तत* ( पृ० ) कूमे का छठ, हु ए सुछ, | कर्पफला तद" (खी०9[ कप + फल +०< ) आप» कर्मपाल बताने वाले एक ग्रन्थ का नाम । ] . छकी वृद्ध, वहेढा कर्मशीज तत्‌* ( मु० ) स्वभाव ही से कर्म करते देण ( पु० ) हैपों, इश्साह, विरोध, क्रोध । «पारा; डसाही, इ्यमी, परिध्रमी । 9 कहिचित्‌ तत॑० (ध०) किप्ती काल, किसी समय, हक नि (पु०) कमेंठ, कमनिषुण, कर्मदुट, कृद्ाचितू, अनियम्रित काछ में, अनिद्ि € काल में । ब्द्योग मन्त्र, श्रमात्य, दीवाने फर्मसचिव हत्‌० ( घु० ) ल करने है" उ्यागी, 28: का डे कक श 7 75 फर्मसत्यास तद* (8०) कम का फन्न त्यो७, व्यतीत ्ा * पाती बिन, स्॒यवा, आराम, निष्काम कर्म ।-- [घु०) कम स्थायी । नव दर्मसमाधि रब० (पु) कामों से पिरषि, किसी | | ३ काम के। नहीं करना। कल्तई दे० (सत्री०) राणा; सुठम्ग, भेद! कर्मसात्ती तत> (ए०) दुष्कर्म सुकर्त के अरष्ट/ सूबे | फेलक (प०) रंज, दु ख, चिन्ता, बैंकटी कर्द्र, यम, काल, एथिरी, जछू, अति, बाद, | फेटेक्यड तद्‌ « (3०) हें कपता७ क्षफिह, क।६७, मधुरस्वर युक्त । ६ अष्काश ५ [करने का इ्योग। कर्मसाधन तव्‌० (३०) फार्य सम्पादत। कर्मसिद्ध कजकलज हद» (१०) [कल के कह + अल ] भस्फुट शब्द, केलाहर, राज़ | कर्मस्पान (०) ज्योतिष सतानुप्तार जन्म कृष्ठछी में १० संस्थान कर्माधर्मी तद्‌* (गु०) जप्तप्रिया, भाग्यवानू, खथने कस्तकर्नि (स्तरी०) हैरानी, परेशानी, खिन्ठा | लिए, स्वकर्मनिरत ।..[ वमरख, फल विशेष ३ कलकी तद्‌० (पु०) मग़वात के अवारों में थे दश्रा अवतार, भावी मगवाद्‌ का 'पततार । कलगी दे० (पु०) कलको, चूडा; शेक्, पगड़ीया झुक में छगाने का पूक धामूषण विशेष । कलड्ू तव॒० (प०] अपवाद, भ्रपयश, दुष्दीति, दाग, दिग्ह। दोष, सिथ्या अपाथ।. | कलद्धिनी । कल्नड्डी दच० (यु) दोषी, पापी, शरपराधी, ( छी० ) कल्नन्नहवा दे० (गु०) रलूटा कराई [ कलनिन तत« (यु०) देपी, हिंर, दुर्लेन, पापी, पायाए्मा, काछशिद्धा । कलचज तख्‌- (पु० ) [कर्ल +जतु+डू ) तमाई का पौधा, द्विरत, पृक विदिया, प्ठी का मासः ३० पछ का तौछ | कार्मार तबु० ( पु० ) फर्मकार। लौदआर, वश, चईस, करमिए तहत (यु) कर्मप्रधीण चेदिक करे करने आए, कर्मेझाणदी, कियादान कर्मी तव॒* (३०) कर्मतेसक्त, कर्स कानबाला, काम* लि शमस्मेयुक्त, मास्यताद, कर्मेनिष्ठ । कर्मेन्द्रिय तवू० (घु० ) करमेतम्पादुन करनेत्रढो पंच हस्द्रियो, यपा--नवारू, प्रा, बायु, पढ़, और व [ बिदेव ॥ कूर्रा (वि०) कढा, कदोर, (३०) जुजाडों का यन्त्र कर्ष हत्‌र (६५) सेन मागे की तैत्न, अस्पी री, खींचन्प, स्रेली, विरेप, ताव, कोश, यथा-- थातद्टि यात कर्ष वढ़ि झरावा ? | जाशमादण कंलञ् कलनच तत्‌० (ए०) [ कल +त्र | भार्वा, री, सितम्ब, किल्य, दुर्ग |--ल्वास (०) पत्ती-लास, भार्या- प्राप्ति, विवाह । [ हुआ रुपया । कलदार (वि०) पेंच छगा हुआ, सैशीन द्वारा बना कलघोत दत्‌० (पु०) सोना, दी, सुवर्ण, रजत, मधुर शब्द । [ मछुर शब्द | कल्लध्चनि तत्‌० ( पु०) कबूतर, कोइल, अव्यत्त कल्नन्द्र तद० ( ए० ) वर्यंसछुर जाति विशेष, रीछ बन्दर नचाने वाल्ग, मदारी | कल्प तदु० (घु०) ख़िज़ाब, कक्फू, कक्प का अपभंश + अ्थ--बह्य का दिन, प्रलढय, मनोरथ, सामथ्य, कव्रनाए, पलट, बदुल, (क्िि०) बन कर, दुरुर हरे छर ।--तरू (धु०) कल्पवृत्त, देवबद । कत्तपना दे० (क्रि०) अनुताप करना, पश्चसाप करता, ढु/खित होना, कुढ़ना + कल्तपाना दे” (क्रि०) दुःखित करना, कुढ़ाना । कलपित वदू ० (कलिपत) मिथ्या, बनावटी, कृत्रिम । कतल्फ दे० (घु०) छलप, माँ | कत्ववत्त दे? (8०) दरवि पेंच, छुछ्र, कपट | [का बच्चा ! कलम तत्‌० (पु०) करम, दस्तिशावक, हाथी था ऊँद कलम तदू्‌० (पु०) स््वनाम ख्यात लिखने की वस्तु, लेखनी, पेड़ की डाली जो अन्यत्र क्गानेया किसी दूसरे घृक्त में पैबंद लगाने को काटी जाय, साही घान | -कार (०) चित्रकार, रस भरने वाला, कल्षम्॒ की दुस्तकारी, करने बाका +- घराश कल बनाने की छुरी ।--द्ान मस्ती और कलम रखले की पेटिका । कलमकल दे० (खी०) घवराहरट, दुःख ! कत्तमख तदू० (छ०) पाप, दोष, लांछन दागू कलमलाना दे० (क्रि०) छुटपटाना, कुछबुलाना, चलु- रूता भ्रक्राश करना | छुल्तमी दे० (स्वी०) लिखा हुआ, थे फल जो दो वृक्षों के संयेग से उत्पनक्ष किये जाते हैं. कक्नम या रबादार । [ दिलेडुले । * कऋलमतले दे० ( क्रि० ) च्यूछ हुए, चुदपयाये, रे, ऋलपुँदा (वि5) काले झुँह चाला, दोषी, लांछित । कंजरव तन्‌० ( छ० ) मधुर और अस्फुट शब्द, जन- समृह का शब्द, स्किल कबूतर आदि का शब्द । ( श३३ ) कला कल तव्‌०(पु०) सर का श्रच्छादन करने घाछा चसे, जरायु कल्लचसिया (स्त्री०) शराब ही दूकान | कलवार दे ० (पु०) ज्ञाति चिशेष, मध बनाने वशत्ती जाति, शुण्डी, काल; कार | ऋलविटड्ठः तव्‌० (पु०) पतक्ति विशेष, गौरैया पक्षी । कलश तत्त्‌० (पु०)घट, घड़ा, गगरी, मिट्टी का जल- पान्न, मन्दिर का शिखर, चोटी, सिरा, भघान अझ्ध | उत्कृष्ट च्यक्ति जैसे रघुकुल कलश |. [ वाला । कलशिय दे० (गु०) कृष्ण मस्तक विशेष, झाले सिर कंलशी तत्‌० ( सत्री० ) छोटा जलपात्र, गगरी । व्वक्षस तद्‌० (पु०) घट, घढ़ा, एरिमाण विशेष, सन्दिश आदि का सुकुद । कत्तसा वदू० (५०) शिखर, ः्ब, चूढ़ा, धातु का बना घढ़ा। [ या उसका श्नादर सर पीछे पछतावे । कलहंतरित (स्थी०) वद्द नायिका, जो पति से रूगढ़ा कलहँस दवद्‌० (डु०) सुन्दर हंस, राजहंस । कलह ठत्‌० (प० ) [ कलू + हन्‌ +डू | विरोध, विवाद, रूगड़ा, दन्द्क, तछचार का म्यात, राष्ता । ““कारी (गु०) विवाद करने वाला, मंगढ़ालू। प्रिय--(छु०) विवादब्रिय, विवादसन्तोपी, नारद । कल्नहान्तरिता ठत० (स्त्री०) [ कलह + अन्दरित न आ ] नायिका विशेष, स्री पहले अपने पति का श्रपम्नान करती है, और पीछे उसके चले जाने पर दु/खित होती है पधा-- # क्षद्मो न माने कंत को, पुनि पीछे पछुताय ”! ऋल्लद्दान्तरिता वायिका ताहि कद्ठत कविराय ” -+मतिरास कृल्लहारा तव्‌० (गु०) छड़ाका, रूगढ़ालू, कब्नहप्रिय । कलही क्व्‌० (ग्रु०) रूणाड्रालू, विस्तेध करने बाला, (ख्री०) नखरा करमे घाली स्त्री । कला वव्‌* (सख्री०) चन्द्रमा का सोालहर्वा माय, अंश, साय, दिस्स्ग, राशिचक्र का अत्यम्त सूक्ष्मभाय, बुक राशि के सीस मात होते हैं, इसमें एक भाय का खाठवा साथ समय का परिमाण | शिक्षर घादि विद्या, इसके चौसठ सेद होते हैं, दे थे हैं । ( १) गीत ( छ० ) गाना, यह चार प्रकार हेत्ता है; स्वर॑स, पढुग, ववयग भोर अवधानग। (२) वाद्य कला रे. इसऊे श्रनेक भेद हैं। (३) नृत्य नाच, प्रधानन इसे दो भेद है। नाव्य श्रौर अनाव्य, कसी के कार्यो का अनुक्रण करना नाख्य है और डेवच साव बताना त्था रस उत्पन्न करना अनाव्य है । (४) आल्ेख्य चित्र, तसपीर, इसके छू अद्ग होते है --रूप भेद, प्रमाण, भाव झौर सुन्दरता फी येजना, जिसका चित्र हो उससे मिलान, लिखने की विशेषता, और रहों का ययास्थान पक्तिवेश | थद भ्रस्य और शपने चित्तविनोद € क्षिपे बनाया जाता है (५) विशेषकस्छेय मस्तक में तिलक कराने के लिये भूजपत्र आदि के विविध प्रकार सांचे बनाभा। (६) तणडत्त कुसमवल्लि विकार बिना हूटे हुए चवलों घे अनेक प्रकार की देवमरिदर में साँची कादृना, श्रार फूलों छे सक्षिदेशदिशेए से विविध पस्तु बनाना । (७) पुष्पास्तरण भो अनेक प्रकार के पुद्पां से भस्तु बनायी जाती है, जिसे पुष्पशर्थ्रा भी कहते हैं। (८) दशनवसनाडूराग दांत, रूपडे, भार शरीर रगने की विधि ) (३) मणिभूम्रिकाकर्म प्रीष्मकाऋ में सोते रहने फे लिये स्थान बनाना | (१०) शयनरचन शय्या विद्याना, ह॒पमें यह ध्यान रुपना पदतता है कि जिस पर सोने से श्रद्ध पच जाय | (११) उद्कवाद्य जल में छद॒न्न भादि के ससान ध्यनि निशाना, जलताक बनाना | (3२) उदऊघात हाथ या यत्थ--कछ से जब फेंक कर मारता। (३) विन्योग प्राकृतिक मतों में विशेषता उत्पत्च करना, काले बाल के अफूद, था सफेद का काला करणा आदि। (१४) माल्यप्रत्थविरुब्प माला गूधने के अनेक प्रकार #ी रीति । (११) शेसरका-पीडयोजन शिर के आगे की थोर ज़टकऊने घाल्े फूलों से बने हुए एक प्रका? छ गहने के शेपरक कहते हैं। शोटों के चारों भ्रोर गोक्षाकार छूल्ों को भाज्ा हे आएीड़ कहते हैं। इन दोनों के दिविध दर्णे के धुष्पों से बनाना, और यधास्थान पद्विननाव (१६) नेपश्यप्रयेग देश शाछ के अनुसार दद्च, भामूषण श्रादि से श्रपने शरीर के सजाना | (१७) कर्ण- पत्रमड़ हाथीदोत और शक्ल आदि के गहने ( ररे४ ) कना बनाना। (१८) गन्धयुक्ति सुयन्‍्ध पदार्थ बनाने , की रीति । (१३)--अजड्डास्याग सेपेग्य और असंयोग्य दो प्रकार के अल्डूगर होते हैं । जिहका सैयेय किया जाय--कयही, कण्दा, चेपाकल्ली श्रादि संये।ज्य है । कहा, कुण्डक श्रादि श्रसंपेज्य है| इनऊे बनाने की प्रक्रिया । (२०) प्रेद्रआाल इम्द्जाल आदि शाझ्लों के बनाये हुए कमे, अदभुत कम दिखाना। (२३) कौछुमारयेग छृन्दर बनने और बनाने की रीति । (२२) हृस्तल्लाघव समी कामों में शीक्रवा ।(२३) विचिभ्णाकथूप- भक्ष्यविकारक्रिया अनेक प्रकार के शाक, यूप, पेय भक्ष्य बनाने की प्रक्रिया, श्राहार ध्नाना | (२४) पानकरसरागासवयेअन विविध प्रकार के शर्वत, आसव, अर्क, भ्रादि धमाना। (२४) खूचीयानकर्म इसके सीवन, उतन ओऔर विर- चन में तीन भेद हैं। अगरखा, कोट, कमीज, कुतता, आदि का सौना सौवन है। फटे कंपडों का सीता ऊत्तन और फैयडी भादि सीगा विर* जन है। (२६) सूत्रीकीड़ा एक ही सूत के अनेक प्रकार बना कर दिखाना । (२७) चोशाइमसफबादय वीणा और दमरू बताना, यद्यपि ये मी वाध हैं, तथापि इनमें अ्रधिक्र कदिनता होने हे कारण ये अलग कहे गये हें। (२१८) प्रदेत्षिका विनोद के लिये पद्देलियाँ, ये प्रसिद्र हैं | (२१) प्रतिमाला इसे अन्याचरिका भी कहते हैं। एक प्रकार का शाखाथे, क्रम से एक के कहे हुए श्लोक के अन्वि- माछर जिस श्लोक के थादि में दो उसका कद्दना । (६०) दुर्वाचक्योग पर्यारण और 'र्थ में कटिन शब्दों का प्रयोग करना जिंपे कट कहते हैं (३१) पुस्तकवाचन महाभारत श्रादि का स्वर ल्‍य के साथ गराना। (३२) नाट्काख्याय्रिफादर्शन नाटक शौर आय्यायिका का ज्ञान प्राप्त करमा। (३३) काब्यसमस्थापूरणा सामान्य *अभिप्राय ज्ञान कर कविता बदाना या कठिन अ्र्रिप्राय समझ कर शक्ोक बना दुना। ब्रिपद समस्या सूँक समस्या आदि इसडे अनेझ मेद हैं।: (३५) यहिं- फाचानविडल्प पलक, कसी चादिका बेतया * और किसी वस्तु से असेझ प्रकार का घुतना कला (३५) वक्तकर्म बिगड़ी छुई चिज्ञों के खुघारना (६६) तक्षण बढ़ह के काम । (३७) वास्तुविद्या शुह बनाने और खजाने की रीति | (३८) रुप्यरत्व- परीक्षा प्लौचा, चांदी, हीरा, आदि का परखना। (३६) घातुवाद मिट्टी, पत्थर, तथा अन्यान्य धातुओं के प्रधक्‌ करने, शोधच करने और मिलाने आदि की विद्या । (४०) मणिरागाकरक्षान हीरा, आदि रल्ों को रेंगने की विद्या, इन मशियों हक उत्प- चिस्याम का ज्ञान छरना (४३) बृक्तायुवेंदयेग बुचचों के रोपना, बढ़ाता, अनेक दोषों का हटाना और कलम आदि करने की विधि | (४२) मेषलाब फकुक्कुस्युद्धविधि सेढ़ा, लाथा और कुक्कुट मर के युद्ध की भ्रक्रिया, इसे सजीवयत ऋहते हैं, यह किसी प्रकार के ठहराव घछे किया जाना है। (४४) शुकसारिकाप्रल्लापन छुक, सारिका को पढ़ाना, ये पढ़ाते पर मनुष्य भाषा में बोलते हैं । उत्सादन शरीर दुबाना श्ौर तेक्ञ कमाना | (४२) ध्क्तरमुष्तिकाक्थन धुप्त वात का कहने के लिये संक्षेप में कहना | (९६) स्लेच्छितविकल्प झद्ध शब्दों में लिखी हुईं भी बात का अच्षरों के उजटने पलदने से अर्थ समझना, या साह्लेतीक शब्दों का अथे सममझना । (४७) देशभापाविज्ञान अन्य देशियों के साथ व्यवहार करने के किये उनकी भाषा जानना। (४०८) पुष्पशकडिका एुष्पों से निमित छोटी गाड़ी । (११) निमित्तज्ञान प्राकृतिक छक्षणों से, श्रथवा पशुओं की चेष्ट! बोलने आदि से भावी शुभाशुम फल का ज्ञानना * (६०) यन्जमन्निका गम्तन बृष्टि छड्मई आदि के लिये सजीव'या निर्जीच यन्त्रों के छक्तेण चताने चाढा शाख, जिसे विश्व- कर्मा ने बनाया है। (११) घारणमाज्रिका पढ़े हुए पन्यों को स्मरण रखने के शाख॥ (३२) संपाद्य विना सुनी हुई वात के उसके जाननेवाले के साथ पढ़ना । (५३) मानसी सन की बातें ज्ञानने की चिद्या । (१४) काव्यक्रिया संस्कृत, आ्राक्ृत, श्रपञअंश आदि मापाश्रों में कविता करना ॥ (१९) अभिधानकेाष शब्दों का अर्थ निरूदण ऋकरना। (९६) छुन्दोज्ञान छुन्द बताने चाले शा््यों का ज्ञान! (१७) क्रियाकदप काव्य चनाने की बिघि । ( १३४५ ) कन्मम (५८) छूत्लित दूसरों के ठममे का उपाय । (२६) चस्त्रगोपन अच्छे प्रक्षार से बल पद्दिनना फटे ह्ढ्ए कपड़े को भी ऐसा पहिनना जिसल्ले उसका फटना सालूम न पड़े, बढ़े वल्ल का भी पहन कर छोटा बना लेना | (६०) चूतबविशेष निर्जाब चत खेलना (६१)आकर्षक्रीड़ा पाप्ते काखेल, चौपड़ | (६२) बालक्रीडनक गुड़िया आदि के द्वारा लड़कों को असन्न रखना । (६३) घैनयिक्री स्वयं नर्न होना और दूसरे को नम्र होने की शिद्धा देना, घोडे और हाथियों के चाल सिखाना । (६७) वैजयिकी व्यायामिकी विज्ञय शाप्त करने और व्यायाम करने की विद्या |-- येही चौसठ कल्ायें हैं | कल्लाई दे० (ख््री०) पहुँचा, दाल विशेष | कलाकन्द दे? (५०) सिशष्टाज्न विशेष, बरफ़री | कल्नाकर तत्‌० (पु०) चन्द्रमा, घृष्त विशेष । कलाघर तत्‌»० (०) चन्द्रमा, दण्डकछुन्द का भेद विशेष, शिव | हे कल्ताना दे? (क्रि०) भूनना, श्रकोरता । कल्वानाथ (पु०) चन्द्रमा, गनन्‍्धर्व विशेष । कल्ानिधि तद्‌० (०) चन्द्रमा, शशाह्ल । कत्ताप सत्‌० (०) [कला+पा+ड| सम्रह, ढेर, राशि। प्रवकित संस्कृत व्याकरणों में से एक व्याकरण । मोर की पंछ, झुट्ठा, पूछा, बाण, लरकस, कमरबन्द, करधनी, चन्द्रमा, व्यापार , आस विशेष, वेद्‌ शाखा, अद्धंचन्द्रकार शख् रागिनी विशेष, सूपण [--क (पु०) कविताओं के पर्थ करने की रीति, चार श्लोकों का एक साथ श्रन्वय। समूह, धरुद्ठी, दाथी के गले का रस्सा, मयूर । कलापट्टी (ख्ी०) जहाओं की पटरियों में की सन्धियों का खन आदि से वनन्‍्द करने की क्रिया । कलापिन (स्त्री०) मोरनी, रात्रि, नागर भोधा । कत्तापी तव॒० (8०) सयूर पत्ती, बरगद का क्षत्त, काकिज्त, वैशम्पाचन का एक शिप्य । कल्वापूर्ण तव० (चु०) पूर्णिमा का चन्द्रमा, प्रसिद्ध शिक्पी | कलावत्त, दे० (गु०) सोना चंदी का पतज्ना तार जो रेशम के साथ यटा जाय । ऋत्ताबाज् (६०) दे० कत्ता खेलने बाला, नट । कल्लास (छु०) वाघ्य, ददग, उक्ति । कतार . दे (पु०) जाति विशेष, कलबार, शुण्डी ! कलारित दे० स्ती०) कलवारिन, कबवार छी ख्ली ] झलाल दे० (५०) देखो कलार | कत्तायन्त तद्‌० (पृ) कथक, गायक, गानेवाला, गीत नृत्य से जीविका करने वाली जाति । कफ़लि तत्‌" (प०) [ कट्‌+इ ] चौथा युप, कलह पाप, सूरमा, वीर, शिव का नाम (--कांल (एु०) कलियुग ।--मज (पु०) कलिकाब के कुछमे |-- भलसरि (ख्री०) कर्मतासा नदी ! कुलिका तत्‌« (स्त्री०) [कलिक+अआा] अ्रविकसित पुष्प, कोपछ, कछौजी, सुहूत्त, अश | कलिड़ तन (पु०) देश विशेष, यह देश शडीसा से दछ्ठिण की चोर गोदावरी नदी के मुहाने पर है । इस देश की राजधानी का नाम कलिक्न नगर है, पुर मदीने रंग का पद्दी, कुटन, इन्द्रजी, सिटस, दाकर, तरबूज, रागविशेष | कल्िडड़ा (प०) राग विशेष जो रात में गाया जावा है । (वि०) कलिक् देश का वासी । कलिय्वर तद्‌० (पु०) पुर पर्वत का नाम , यह पर्वत धुराण प्रसिद्र है, भ्राज मी यद्द श्रपत पुराने नाम से विध्यात है, यद बुन्देट खण्ड के भर्तर्गंत करवी के पास काब्िज्ञर, नाम से प्रसिद ईैं। [ हुआ ४ कलित (वि०) सुन्दर, रुचिर, मनोहर, रचित, चनावा कलिन्द (९०) सूये, बहेढ़ा, परत विरोप, जिमसे पप्तुता निऊक्नती है।-जझ्ञा (ल्थरी०) यधुना । (०) पाप, कलुप, दोष | कलियाना (क्रि०) कल्षियों का लगना, विडियों के नये पख निककना पुन्पित होना, फूलना । फल्ियुग तव॒० (बु०) कर्मचुग, चौथायुग |-- (वि०) कर ग का, दुशाचारी, चुरा । कलिल (दे०) पक, कीचद, चइला, दलदल । कली तद्‌ « (स्त्री०) कब्रिका, दोड़ी, गर्द विकसित पुष्प य्रपान-- “पद्ति कलीदि पै करें श्रागे हौन हवाल"/ हा +-दिड्वारी सरसई कलींदा दे० (पु०) तरबूज, दिनवाना । कह्नुप तव० (पुणु मै, मज्जिनता, दोष, पाप। फल्लुपित तव्‌० (गु*) मछदूपित, पापप्रस, मल्‍पूर्ण, दातकी, दुष्ह्ृती । कल्लूटा दे० (यु०) काला, कुरूप, कर्राहा कल्लेऊ तद्‌० (पु०) प्रातकाठ का भोजन, कल्लेवा, जक्पात् कल्लेज्ञा दे (पु०) आ्रांत विशेष, यकृत्‌, उत्साह, सादस, हृदय की दइृढता, छात्ती |--डलठटमा अधिक के करना । -फटना श्रघिह् दु थ से व्याकुल्ठ होना । “+उसढठा करना मनोरष सिद्धि, अमिलापा की पृति '--जलना दु सी होना, दूमरे की उब्नति न सहना, भनुत्ताप करना +--काँपना भयभीत होना |--पर साँप ल्ोढना भ्रज्ञतप्त होता ।-- से लगा रखना धत्यस्त प्रेम काना ।-में डाल रा्पना बहुत चाहना, किसी बात को छिपा रखना । कल्ेवर तत* (पु०) देह, शरीर, काय, धह्क । कलेवा तदु- (पु०) प्रात काल का जलपाल । कल्लेस (स्लेश) तदू० ( अ० ) ( घु० ) हुःथ, कष्ट आपत्ति, विषद्‌ । कलोर दे० ।पु०) नयी गाय, श्रोसर । कलोल तदू० (पु) खेलकृद, क्रीडा, कछ्ोछ, विनोद । कलोलिनो वद्‌० (स्त्री०) कल्ोकिनी, प्रवाह से बहने वाच्नी नदी, तरडक्णिणी, खेलने वाली नदी । कन्तोंज्ी ढे० औषधि विशेष, कच्चे आामकी भाजी विशेष । कढठक ततू» (धु०) मल, चूणे, पीठी, गृह, पासंड, शठ्ता, कान का मैज्न, विष्ठा, पाप, थ्रौषधि की चनी चटनी, अवलेद्द, वहेढ़ा ।+-फंल ततद० (पु०) धनार । कल्की तत्‌” (पु०) विष्णु का दधवा अवतार, कलियुग में होने बाबा, (यु०) पापी, अपराधी ) कल्प तब्‌० (५०) [छिप + घल,] बफाप, अरमिप्राय, विधि, प्ररूष, त्रद्मा का दिन, शास्त्र विशेष, कमेकाण्ड, विभाग, अह्मा का पुझ दिन -क (पु०) काटने बाद्या, नाई, कष्पना करने चाल । -“तद (पु०) देवदृच, * करपदच, दाता |-ठुम (३०) भ्रमिलपित छल देने बार, मुर्ुम -- पादप (१०) कह्पवुत् )--शस झाथ मर प्रयाग बास 7-खुन्र (पु०) वैदिक कर्मकायढ, सूध्दि के भारम्सभ का समय “नन्‍्त (प०) [ छृष्प + अत] ब्ढ्य का दिनावसान, युगात्त, ऋटपना प्रद्ययकाल्, नित्य स्थायी, अक्षदय । ऋढपना तत्‌० (सुद्री०) रचना, वचावट | कदिपत तत्‌» (गु०) [ क्लिप +क्त ] रचित, आगेषित, ऋुन्रिम, मिथ्या प्रकाशित, ऋषपना सम्सूत | पेपमा (स्त्री० ] डपस्ा विशेष । [ झड़कना । कट्मलआाना दे० (क्रि०) कलप्रत्वाना, कुलबुलाना, ऋद्मप तत्‌० (ध०) पाप, अधमे, अपराध, नरक विशेष । [ चितकबरा, रक् बिका । ऋदमाप या कत्ममाप तत० (३०) [कलू + मप्‌ + घर] कल्य सत्‌० (पु०) [ कल्‌ू+य ] मातःकाल, प्रत्यूष, आने वाला दिन या ध्यतीत दिन । कद्पाण तत्‌० (पु०) कुशछ, महृछ, छुस +-भार्य (छु०) बह पुरुष जो थार घार विवाह करे किन्तु उसकी स्त्री मर सर जाय | ऋल्याणावर्मन्‌ तत्‌० (छ०) यह पक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और ,देवग्राप्त के रहनेाले बघेल क्निय थे इनका बनाया स्रारावली नामक ज्योतिष का अन्ध विद्यामान है । यह प्रसिद्ध ज्योतिषी बराहमिहिर के समकालीन थे, ऐसा चिद्वानों का अलुमान है। मण० स० सुधाकर दिवेदी जी के मताजुसार इनका समय सन्‌ ५७८ ६० शलुमान होता है । कल्याणी (छ०) श्रानन्दु करने वात्टी, सुन्दरी । कह त्तदू० (गु०) बचिर, श्रवणेन्द्रिय-रद्ित, बहरा । कलर दे० (पु०) ऊल्तर, चारभूमि, खार । कह्ठा दे० (पु०) घेहुवा, गला, अंकुर, गॉफा । कह्लाना दे? (कि०) जरून, दृंहव, जछन पड़ना, पीड़ा द्वोना | कल्लापस्वर दे० (घु०) एक प्रकार का ऊ्ुँजा हुआ चवेना । कोल तच्‌" (पु०) मद्दातरक्ष, बढ़ी लहर, गजब, कीड़ा, अति हर्ष की हिल्लोर । कल्लोलिनी तच्‌० (स्त्री०) तद् वाली नदी, घारा के साथ बहने बाढ्टी नदी | कह तद्‌ ० (अ०) कछप, आगामी या अतीद दिन | यह शब्द अतीत या श्रगले आने वाले दिन के अर्थ में प्रयोग किया गया है, यह बात प्रसद् से जानी जाती है। कर्द्वारना (क्रि०) भूनता, तना। ( १३७ ) दार काल ।-नान्‍्तस्थायी (०) | कल्हण तव० (एु०) एक संस्कृत कवि का नाम, यह कबिराज्ञ काश्मीर निवासी थे, और सहाराजा जयसिंह के समय में विद्यप्नान थे, हन्होंने काश्मीर के राजाओं का इतिहास लिखा है, जिलका नाम राजतरक्निंण्णी है [ राजतरप्िणी से १६४८ ई ० कल्हण का समय निश्चित किया जाता है | कवच तत्‌० (घु०) सन्नाद, वद़्तर, धर्म, मिलम । कबन दे० कौन ।--ी कौनसी । कथयी दे० (स्थी०) मत्स्य विशेष । [घ, ढम। कचगे तत्‌० (५०) ककारादि पचि अत्तर, क, ख, गी, कचल तत्‌० (घ०) प्राप्त, कौ।, निवाल्य, छुकृमा कवलित तव्‌० (प०) [ कबछ +क्त ] असित, भुक्त, खादित | कचलीक्ृत तद्‌० (ग्रु०) अ्रधीनी कृत्त अलित, भ्रुक्त ! कबंप तत्‌० (पु०) ढाल, एक कि का नाम । ऋायद दे० (स्त्री०) व्यवत्या, व्याक्रण, निम्रत्त। कवि तवू> (9०) [ कब्‌ + इन्‌ | कविता करने बाला, काब्यकर्ता, अ्मा, व्यास, वाल्मीकि श्रादि, झुक्का- चार्य, सूर्य, पंडित, डल्‍्लू [--क तव्‌० (०) क्षमाम --ता (स्वौ०) कवित्त, पद्म, श्लोक, चन्द, हृदय के भावों के लौकिक पदार्थों के लाथ मिलान कर नियमित छुन्द में प्रकाशित करना | कविका तत्‌० (खोी०) [ कथिका + श्र ] जगाम, घोड़े की राप्त, केबड़ा, कबई मद्ली । कविताई दे० (स्त्री०) पद्च, पद्य रचना, कात्य । कवित्त (५०) एक छन्द् बिरोप, काव्य साद, बंएली वैद्य । कविनासा ठदू« (स्त्री०) क्ंताशा नदी, इसका अगेश रामायण में किया गया है । [ की भूमि। ऋषिमाता वत्‌ (म्त्री०) श॒ुझाचार्य की माता, काश्मीर कविराजया कवरिराय तव्‌० (घु०) अधान कवि, एक संस्कृत य कबि का नाम] बड्ढाक् के सेनवंसी राजा लक्ष्मण सेन की सभा में ये समा-पण्डित थे। अतएव इनका समय भी लक्ष्मण सेन फा समय ही सानना डचित हईैं। लक्ष्मण सेत का समय ११३६ ई० निश्चित हुआ ई | इनके बनाये अन्य का साम राघबपाण्डवीय है | इससे रामायण और मद्दाघारत की कथा साय ही साध लिखी गई है। भाद, वंगाज्ञी चैंचों की उपाधि । श० पर००-भेरक कविशेससर ६ रैरेष ) - कसेरू कविशेखर तत्‌* (पु०) मद्गानकुवि | कम्य वत्‌० (पु०) विसरों के दिया जाने बाला अच्च ।-- वाह (पु०) भ्रप्मि विशेष जिसले वित्यज्ञ में चाहुति दी जाती है । [ असमजस । क्शमकश दे० (स्त्री०) ऐंचातानी, भीड़भाड, दुविधा, फशर दे० (१०) छूछ विशेष, कचनार | कशा तत" (स्री०) [क्श+ ड़] घोडा थ्रादि के मारने का चाबुक, छोटा, श्रींगी ।--घात ( पु० ) कशा- प्रदार, कोश मारना |--हूँ (गु०) [कशा + अहं ) कशाधात येग्य, काडा मारने के उपयुक्त, अपराधी, दोपी । _ [ कपड़ा । कशिपु (१०) तकिया, बियौना, अन्त, भात, भासन; करशेरझ तव० (६०) कन्द विशेष, जल में उत्पन्न होने बाला पुक प्रफार का कन्द, तृण कन्द । फश्चित तत्‌० (ध०) काई, अनिद्धि'् मनुष्य कश्मत्त तत्त्‌० (पु०) मूच्छा, अचैतस्य, पाप । कश्मीर तत्‌० (पु०) देश विशेष, काश्मीर |--ज्ञ (पु०) केसर । कश्मीरि (बि०) कश्मीर देश का निवासी | फश्य तत्‌० (गु०) क्ोढा मारने योग्य, दुमन करने येग्य, घोडे का तक, शव । कश्यप तत० (पु ) एक सुनि का नाम, यह महि मरीचि के पुत्र थे, देवता, दावन, मनुष्य झादि इन्दीसे उत्पन्न हुए हैं। अदिति और दिति दो इनकी स्तिया थीं। कश्यपमेद तत्‌० (प०) पुर पर्वत भौर एक देश छा नाम, उसी पर्वत पर दसने के का(ण काश्मीर का कश्यपमेरु सी कट्ठते है | + फप तन" (पु०) [कप्‌+ अल] सेने चाँदी की परीक्षा फरने का पत्थर, कसौटी ।.[ द्राकर्पण, सज्जन । कपण तर (पु०) परखना, परीक्ष', जाँच, सींचना, कपा तत्‌« (स्वी०) चाजुक, झेदा [ कषाय दद० (पु०) कचेढा, दसाद, क्याथ, काढ़ा | कष्ट तत्‌+ (०) [कप +क्त] परीदा, क्लेश, कृच्छ, विषद |--कर (गुण ) कष्टदायक, पीड़ा देने बाल [--कत्पना (क्वी०) ईचतान की कब्यना, विष्ययेजन कल्पना, दुस् की कत्पना करना। “त्ताध्य (यु०) कष्ट से साधन करने येग्य ॥ कछ्टित तब्‌० ( गु०) [ कष्ट + इत्‌ ] हु लित, पीढित, कष्टयुक्त | ! कष्ठी वत्‌० (धी०) प्रसवबेदना से दुःणी ख्री । कस द॑० (थ०) कंपे, किस तरह से, क्यों, कस लिये, काह का, कैसा, क्या, प्रश्नार्थक अव्यय | कसऊ दे* (पु०) पीड़ा, दु ख, धीरे घीरे पीड़ा होना, फटका, ( क्रि० ) कसकना, दरकना, फटना, पीड़ा होना । [ स्वाद रद्धित । कसकसा दे* (शु०) किसकिरापन, ककरीलापन, कसन <० (पु०) कसने की क्रिया, घोड़े का तंग । कसना दे० (क्रि०) बाधना, खेचना, परखना, जाँचना, परीक्षा करना [--ी (स्त्री ०) बांधने की वस्तु, वेठन चोली, कह्तौटी, परीक्षा । कसमसात दे० (क्रि०) घबराते हो, ब्याकुल होते हैं कसमसाना (क्रि० ) दिचकिचाना, आगा पीछा करना, सेचना, बिचारना | कसवा (पु०) बडा गांव । कसवाना दे० (क्रि०) जोर से बेंघवाना, कसान! । फसविन या कसवो (स््री०) रंडी, वेश्या । फसर (स्त्री०) कमी, न्यूनता । कसरत (स्वी०) ब्यायाम, परिध्रम । कसा दे० (गु०) संकुचित, स्व, बधा हुथा। कसाई दे* (स्री०) सैचाव, वांघन, सेचाहट (9०) घातक की जाति । फसार दे० ( पु० ) गेहूं के झाटे झे। घी में सूजकर उसमें चीनी मिटाने खे जो मिठाई बनती है उसे कसा! कदते है, पजीरी । कसाला दे० (पु०) कष्ट, तकलीफ । कसि (फ्रि०) कस कर, दबा कर, परीक्षा करके । कसी द० (क्षो०) इलकी कुप्ती, भूमि मापने की रस्सी विशेष, चाढा | कसीदा दे० (एु०) कपड़े वर सुईकारी । फसून (पु०) कजी आखखि का फेडा | फुछूर (६०) अपराध, ऐय, दोष । कसे (क्र) कसने से, दुदने से, पतीचा करने स ) कसेरा तदू ० (१०) जादि विशेष, ट्ठेरा, कास्यझार, सारतीया । कसेरू (३०) फछ विरोप जो तालाबं में एगपन्न दवोता है | कसैया ( श३६ ) क्ाँचा कसैया दे० (शु०) वघिनेवाला, कसने चाला, परजैया । कसैला दे० (घु०) कपाव, कसाव | कैली (सत्री०) कलैली वस्तु, सुपारी । कंसिरा दे* (घ०) मिट्टी का प्याला । कसीरी तद्‌० (स्त्री०) एक प्रदार का काला पत्थर जिस पर घोना चदिी जादि परखे जाते हैं | कसौंदी दे० (स्त्री०) कर्सो्रा, एक धद्कार का पौधा । करुतुरा दे० (स्त्री०) शद्भ सहित एक प्रकार की मछली । कस्तूरी तद॒० (घु०) सुगन्धि दब्य, औपधि विशेष, सगमद, हरिण के नाभि से उत्पन्न होने चाली सुयन्धित घस्छु । [ काकिक क्रिया । कह ततु० (क्र०) कहता है, कहकर, कहे, पूर्व कहत तदू० (क्रि०) कद्मते हुए, कहते ही, कहता हैं । कहतूती ३० (स्त्री०) कथा, आख्याबिका, कद्दावत, लोके।र्ति, कहसूत । [ करना । कहना दे० (क्रिक) बोलना, मकाशा करना, आज्ञा कहद्वेवा दे० (क्रि) जता देना, चता देना, बंतत्य देना, प्रकाशित करना । फहनावत देण (स्त्री०) इश्टान्त, भात, लोकोचि, थथा-- ७ राई से पहाड़ होत सांची कहनाचत दे । ” कहनूत (स्त्री०) कहावत, कहतावत, बात । कहरत दे ० (क्रि०) कहरता है, कराइता हैं, पीड़ा सूचक शब्द करता है । .[ चिल्लाना, कॉखिता, कराहना । कहरना दे० (क्रि०) भाह भरता, चीख मारना, कहलाना दे" (क्रि० ) सन्देश मेजना, बढवाना, जतेठाना, जनवाना | [ निर्भीक । कहवैया दे० (गु०) दीठ, निर्भय, निडर, स्पष्टनक्‍क्ता, कहूँ ( अलय ) के लिये, चास्ते । # इस कहूँ रथ गज बाजि बनाये । ?--छुलसी । कहा, कहा त्तो, के कहहि दे० (क्रि०) कहता है, कहैं । कहाँ दे ( क्र ) किधर, किस स्थान में, अधिकरण, प्रश्नवाची शध्यय | [ विल्स्व तक । कहाँतक दे* (अ०) कप्रतक, कितनी दूरतक, कितने कहां से दे” किल स्थान से, किस थोर से । कहा दे० (पु०) कपन, बचत, आज्ञा, घ्रादेश ।--छुती (स्त्री०) वाद विवाद, ऋणगढड़ा । कहाकही दे: (स्त्री० ) कथोपकथन, उच्ति मत्युक्ति बातावाती, ऋूगढ़ा | [ बढ़ी छात्त । कहानी दे० (पश्नी०) कथा, क्स्पा, कहावत, -धर्णन, कहार दे० ( घु०) घीवर, पालकी ढोने बाला, काम करने वाल्टा, शूद्ध वर्ण की एक जाति । कहावत दे (स्त्री०) कथा, वार्ता, दह्ान्त | कद्याय दे० (9०) कथन, घरणुन, कहावत, कथा बार्ता, बयान । कहि दे० कहकर, कहें, कविता में प्रयोग किया जाहा है ।--ज्ञात कहा जाता है, चर्णन कथा जाता है | कही (क्रि०) कह दी, वर्णव की, बयाव की । कहीं दे० (अ०) कहा, किधर, किसी स्थान में, अनिश्चित अधिकाण बाचक अच्यय ।..[ किसी स्थान पर [| कहीं न कहीं दे” किसी न किसी स्थाव पर, जिस कहूँ (श्र०) कहीं, किसी दौर, व हैं । कहूँ दे० कहां, क्रिसी स्थत्न पर. किसी ठौर पर । कहेड दे० (क्रिक) कहा, वर्णन किया, कह्द दिया । कहेऊे दे० (क्रि०) मैंने कहा, मैंने ब्णेन किया । कहेऊ (क्रि०) मैंने कहा, च्राव किया । कॉाँशयाँ (गु०) घूते, चालाक, फरेदी [ कांकर दे" (पु०) कहूड़, रोहा, पत्थर के बोटे घोदे इुड़े +--ो छोदी केऊड्री । [ श्राकाइचा | काँक्षा तद्‌० (स्त्री ०) इच्छा, अभिलापा, सनोरथ, चाह, काँल तद्० (स्री०) पारबे, कक्ष, कोप, पॉजर, चाह, ओर, बाहुम्बुल के नीचे की शोर का गड़ृढ़ा | काँखना तद्‌० (क्रि०) कहरना, छूथमा; झाद भरना, मछावरोध होने पर उसे निकालने के लिये पेढ की यायु के! दवाना ! काँमन तदू० (घु०) फक्षण, कंगना; हाथ की कन्नाई में पहनने का ख्रिय्रों का सूपण विशेष, एक प्रफार का अन्न, जिसे ककुनी भी कहते हैं । काँगनी तद्‌ ० (स्री०) देखो कांग्रत । काँत्ती देश (खरी०) धूवी, शंगीदोे, आय रखने का बतेन । [ शीश, दषण, रोम विशेष । काँच दे+ (पु०) अपक्व, बिना पक्रा हुआ, कथा, काँचा दे? (मु०) कच्चा, विद्या पका, शझसिद्ध, दिना सिद्ध हुआ; यद् शब्द झंज सापा छी कविता में प्रायः प्रयोग किया जाता है । कौंचरी काँचरी या काँचुली तद्‌० कॉविली, श्रंगिया, चोली, कच्चुड्दी, जनानी कुरती, सांप की कचुश | काँमी तत्‌० (पु०) पेग्रविशेष, मा विशेष, प्रक्रिया से भाव का बनाया हुआ जछ । कौंद या राँदा तत्‌० (पु०) कण्टक, शा, शूठ, तौबने के लिये छोटी तराजू, इंशी जिससे मदलियाँ पकडी जाती हैं। शरीर में चुमने वाली वस्तु -- सा निकल जाना हु प्रो से छुटकारा पाना, सट्ूद से उबरना, किसी श्रापत्ति से बचना ।-- काँदों पए घसतीटना नम्नवाघूचकर वाक्य अपनी प्रशंसा सुनकर नम्नता प्रदट करने के किये ऐसा कहा ज्ञाता है। कांटे घोना अपने या दूसरों के दु पर पहुँचाने का प्रयक्ष करना, शाप दी आप दु प में फेसना, दु ख का सामना ऋरना । काँठा तदु० ( पु० ) गल्ला, उपऋण्ड, समीप, पास, यथा # गुना के काँठे कन्हैया मेरो यार ”! काँड़ना दे० (क्रि०0) पीटना, मारना, चलना, रोंदना। फॉड़ो दे० (सत्री०) चली, भारी चीजे दफेलने का काट का डंडा, जड्वाज के छगर की डॉडी, बास या व्यक्षड्ी की धुनिया जो छुप्पर या छत के। सदारने के छगाई जाती है | श्ररद्दर का सूखा ढठल । काँयरी (स्त्री०) फया, क्थरी, गुदटी । काँदव (प०) पड़, कीचट | काँदा दे० (पु०) प्याज, पत्राण्डु, अरदी, मूछ विशेष । काँगू तदु० (१०) जाति विशेष, मइमूजा, दलवाई, चीनी का हाँदा काँदो दे? (५०) कीचड, चदढा, पहुं, कादा, कीच काँधना देन (फ्रि०) उपकृत करना, स्वीकार करना, अग्री छार करना, सानना, सार सद्ना, उठाना । फ्ाँध या काँचा तदू० (पु०) स्कस्घ, कि, कन्धचा, फध ।-देना सद्ायता देना, कार्य बटा लेना काँप दे० (पु०) दु ख, ददाव, ब्याकुटता ।--चाढ़ाना दु द्वित करना, ब्याकुछ करना, दवाना [| काँपना तद॒* (क्रि)) दिल्ना, थरवराना, डुछना, कम्यित होना, कपता । काँपर (छ्ी०) गद्ाजल ले जाने की यहेँगी विशेष | काँवरिया (०) छामार्थी, कवर ले जाने बाला | (_. १४० ) ...ह...#0.......्््््जज्जतहनतमातपघ+:फफनननफ39३लसआअकककफफफस स मछ- स भ फफक्‍चपच-छफक्‍च+त3+5 काकु काँप ठद्‌० (धु०) तृण विशेष, घातु विशेष । काँसा तदू० (पु) एक पकार की घातु जो पीतक और तांबे के मेल से बनती है| कपकुद । काँस्प तत्‌० ( पु० ) देखे काँसा |--कार ( पु० ) कप्तेरा, के पारी ) का प्रयय--सम्बन्धसू वक या पष्टी विभक्ति का चिन्द्र । काई दे० (स्त्री० ) कीट, जलमैण, शैतराल सिवार, हृण विशेष जो जल्न में इत्पव होता है, किसी हे। काऊ दे० (क्रि० वि० ) कभी, क्वहूँ, किसी ने, किसी से, काई । काक तत्‌० (५०) कौवा, कांग, वायप, पत्तिविशेष | -जड्ढुए ( स्थ्री० ) श्रौषधि विशेष, चकसेनी, घुंघची, एक प्रकार की सूरी --टम्बपुप्पी ( स्री०) श्रौषधि विशेष, मद्ामुण्डी +--तालीय अकस्मात्‌ किसी काये का होना +--तिक्त ( स्त्री० ) काऋजहा ।-दुन्‍्त ( पु० ) असम्भव, अदूभुत बात |-- पच्छू य पत्त पट्टा, शुश्फी, सामने के बाल बनवाना और कदपटी की ओर छोड़ देना, कौदे के पर +--पदी त्रौषधि विशेष !-नवम्थ्या (स्त्री० ) सकृत्पसूता सत्री जिसके पुक ही यार लटका उत्पन्न हुधा दो काफड़ा दे* (५०) चर्मविशेष, एक प्रकार का चमटा ।+-सिंघी ( ०) झोपधि विशेष । काकमुशझुण्डि या कामभुशुण्ड तत्‌० ( पु- ) एक मुनि का नाम जिसका सुँद काक के समान था। रामायण का प्रसिद्ध वक्ता | काकरयी दे० (स्त्री०) ककड़ी । काकजी (स्प्री०) मछुत, ध्यनि, सादीबान, गुझ्ला, संगीत का स्थान विशेष, संघ लगाने की सबरी | काका दे० (पु०) पितृब्य, चाचा, पिता का छोटा भाई, मसी, काकोली, कठमूर, घुधची, मकोय । -तुझा (पु०) प्छी विशेष । काकिणी या काकिनी ठत्‌० (स्त्री०) बीस कौडी, पौव गण्डा कौडी, छदाम, माशे का चौथाई भाग; घुंघची । [ पत्नी, कौए की मादा काफी दे» ( स्त्री० ) काका की ख्रो, चाची, फिलृम्य- काऊु तत॒० (पु०) स्यक्ष बचन, बक्रोक्ति, टेढ्ी बोली, स्वर विशेष के द्वारा निषेध वाक्य की विधि और काकुत्स्थ विधि चाक्य से नये का अर्थ निकाछृमा, ताना। --क्ति (स्त्री० ) [ काकु +उक्ति ] काततरोक्ति, च्यज्ञः कथन ! [ राजा । काकुत्हय (घु०) श्रीरामचन्द्र, क्षकुर्स् वंशोदुभव एक काकाद्र तदु० (०) [ का + रदर ] झ्ुजक्, सर्प, फरणी, साँप, कौन का पेट ।. [ चिपेज्ी घातु . काकेत्त तत्‌० ( पु० ) नरक विशेष, एक प्रक्तार की काकेत्ती तब्‌० (स्त्री० ) ओपधि विशेष, ज्वर- नाशक श्रोषधि । फाकेलूकिका तत्‌० (स्प्री० ) काक और उल्ल के समान शत्रुता, अधिक शन्ुता । काख तदू० (स्प्री० ) काख, कण, पाश्व ।--पत्ताई (स्त्री०) कखौरी, पाश्वेब्रण, कि का घाव --+ ससेती कस से कब्चे त्छ। क्षाग दे० (पु०) काक, क्ौध्ा, बक्षविशेष, बोतल में लगायी ज्ञाने बाली डोद|--ंखुर (प्र८) एक दैत्य का नाम जिले श्री कृष्णचन्द्र ने मारा था। कस की प्रेरणा से काकू का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को मारने के लिये गोकुछ में गया था, घहाँ इसे श्रीकृष्ण ने मारा (-नवा/सी (ख्री०) मम जो ध्रातःकालछ छानी जाय, सोती विशेष | काराद या काग्रज़ दे” (9०) कागज, पत्र । काँच तदू० (०) स्वच्छरस्तिका विशेष, मणि, रुफटिक, शीशा, आईना ।--माशि (ए०) र्फदिक सझि | क्ाँचक तद्‌० (०) पापाण विशेष, स्फाटिक, कचि । काँचा दे० (गु०) छन्चा, अधूरा, असिद्ध । कांचरी (स्त्री ०) केंचुली, सूखी सेंघ, कथरी । काचा (वि०) कच्चा, भीरु, कायर । काची (स्त्री०) दुधेड़ी, दूध रखने की हाड़ी । काचो (थि०) असार, मिथ्या । काछु तद्‌० (घु०) निकट, समीप, नदी का किनारा, लॉग, घोत्ती का भ्रन्तिम छोर। काछुन दे? (स्त्री०) काछी की स्री, कादिन | काछुना दे० (क्रि०) काछ मारना, बटोरता, बनाना, पहनना ॥ काछुनो दे> (स्त्री०) कसकर और कुछ ऊपर चढ़ा कर पढ़नी हुई घोती जिसकी दोनों काछे पीछे खोँंस जी जाती है । ( श्छ१ ) काठ काछिय दे० काछुना चाहिये, पहनना उचित है, पहनो, परिधान करों, काछिये, पहनिये | यथाः-- * जस काछिय तस नाविय नाचा ” रामायण । काछी दे० (५०) जाति विशेष, तरकारी बोने और बेचने बाली हिन्दू जाति विशेष का मनुष्य, झ्राव | काछे दे" (क्रि०) पहने हुए, बनाये हुए, बनाने से, काछने से, (क्रि० वि०) निकट, पास । काज तदू० (पु०) काज, कर्स, काम धन्धा, क्रिया, कारज --कसे, क्रियाकर्म, क्रिया और दूसरे ब्यापार। [ सुरमा, अ्रखि में छगाने का अ्रजिन ॥ काज्र या काजल तदू० (पु०) कण्जल, अज्ञन, काजलि तद्‌० (एु०) इक्ष विशेष, मत्स्य विशेष । काजी दे० (9०) ब्द्योगी परिश्रमी, धुखलमान जाति के विवारक या व्यवस्थापक, कृजी । काँजी दे० (स्त्री०) सा हुआ राई का जल । काजू दे० (छु०) एक प्रकार की खूखी मेवा । काज़े दे० लिये, विमित्त, हेत । कान तत्‌० (पु०) सुबर्ण, स्व, हेस, सेना, पद्म, केशर, स्वनाम्रख्यात पुष्प, घुक्षविशेष |-क (४०) घातुविशेष, हरताछ ॥ कदली (३०) सुवर्णकदली, चम्पा, क्षेक्षा ।-गिरि (पु० ) सुमेरु पर्वत, सुबर्ण पर्वेत |--चम्म (४०) सुबर्ण प्रचत, छुमेर ।--प्रुष्पिका (स्त्री० ) सूसली, ओपधिबिशेष ।--मय ( ग्रु० ) [काछुन 4 सयदू] कनकम्रय, सुदर्ण का ।--चक्ष ( 9० ) सुवर्य का पंत, सुमेरु पर्वेत | काखनार ठत्‌० (पु०) कचनार का घृक्त । काश्चनी तत्‌० (स्त्री०) हरिद्रा, इल्दी । [ भाग । का तव्‌० (पु०) मेखला, चन्द्रहार, करघनी, मध्य काओ्ी तव्‌० ( स्त्री० ) [ कप्चि +ई ] मेखक्ा, स्त्रियों को कटि देश में पहचने का गद्ना | सप्त पुरियों सें से एक घुरी, तीर्थ विशेष, इसके दो भाग हैं; एक का नाम विष्णुकाज्ची और दूसरे का नास शिव- काब्ची है ।--पद्‌ (ए०) जघन, नितम्व । काज्िक तत* (पु) बसी भात से निकाला हुश्ला अल, माण्ड, पसाया जल । [ खण्ड खयड करण काठ दे० ( घ० ) चीरा, कदा हुआ, मेल, मज्लीनता काटकृद ( ए४२ ) कादम्ब कायऊफूद दे० (स्त्री०) छ॒टि छुट, कतर ब्यॉत, छेदन मेदन [--करना झतरना, काटना, काट डाठना। काटसपाना देन (क्रि० ) काटना, दशन करना, आश्मण करना । काटना दे० (०) चेदन करना, तोइना, टुकड़े ठुक्डे काना, कंतरना, चीरनां, काटबाना, खा ज्ञाना, खा लेना; कुछद्ाटी या आरे भादि थे काटना, कम करना । कादि दे? (पु०) कमर, कटि, मध्यमाग, रामायण में कि का कारि प्रयोग किया गया हैं । काट दे? (पु०) काटने बाला, छेदक, बकडिदारा या लकडद्वार, कटा | काठ तदू० (पु०) छाए्ट, छक्डी, दारु, काडी ।-- कवाड़ू ( वा० ) काष्टठ की वस्तु ७-का डद्न्ू ( वा० ) मू्स नासमझ, अनाडी। -चवाना (चा* )दु प से निवोद करना, काल कांटना, समय दिताना “मे पाँव देना स्वयं दुख सोगने के लिये बचत होना ।--पुतली ( वा० ) छक्दी की मूर्ति के सम्तान दूसरों की इच्छा से चलने बाला, नितान्त श्रनमिज्ञ, मूर्ख । काठ-कोड़ा दे० (स्री० ) खटमज्न उद्दीस, खाद का कीर।, खटकिरवा । [ करीया + काठड़ा दे? (छ०) काठ का बना हुआ वतन, काठमांडू तत्‌० (पु०) नैपाछ् राज्य की राजघानी । काठिन्य तव्‌5 (पु+ ) कठिनता, दृढ़ता, निष्टरता, क्टोरपन | [ भाग विशेष । काठियावाड़ ( ु० ) देश विशेष, गुजरात का एक काठी दे ( खी० ) परोल, शरीर का गठन, काट, डौल, घोड़े पर रखने की जीन, कठियावाड़ में रहने बाले चत्रियों की एुक जाति । काड़ा दे ( घु० ) युवा भैंसा। काढ़त (क्रि० ) निदश्चउता है, निश्माठते ही | काढ़ना दे। (क्रि०) निश्ारना, उधेडना, बाहर करना, निर्माण करना, देक्ष बूटे लिद्चालना, धोडे का चाट सिल्चाना | काढ़ा दे० (गु०)फ्वाथ,कपाय, कप । [(स्वो ०) ढाणी । काणा तत्‌५ (गु०) पुक चण्ि चाटा, पुकाक्ष, करना, काणयड तव्‌५ (पु) खण्ड, प्रकरण, सेर, बाय, शर व्यापार, द०्ड, बगे, परिच्द्ेद, भ्रवसर, प्रस्ताव | “कार (4०) वाय बनाने बाला (--ग्रह (घु०) प्रकण ज्ञान !--पद जवनिका, पर्दा ।--प्रष्ठ शक्ष से जीने बाला, व्याघ |--रहा ( ख्त्री० ) कटु डी दे । [ पर मुनि विशेष) काशडपि तब (पु०) बेद्र की पुक शाप्रा का अध्या- कातना तदु० (क्रि०) सूत कातना, रह से सूत बनाना, चरणे से धूत बनाना ' कांतर तत्‌» ।गु०) भयभीत, ब्याकुछ, डरपोक, किसी पस्तु में भासक्ति के काण घकराहट, अघीर, अत्त' ।--ता (स्त्री०) ब्याइुब्षता, उद्देग । काता (घु० )काता हुआश्रा सूत, डोरा । फकातिक तत्‌० (पु०) आठरवा मद्दीना, देवताश्रों के डठन का मास, कार्तिक मास | कातिकी तदु० ( स्व्री० ) कातिकी की वस्तु, कार्तिक पूर्णिमा [ बाला । फाती दे* ( स्त्री० ) दोटी तलवार । (१०) सूच कातने कात्यायन तत्त० (पु०) विष्यात धर्मशाघ्षष्ार, (१) विश्वामरित्र के ऊुद् में इनका जन्म हुगा था, कास्यायन-श्रौवर्सूत्र भर कात्यायन गृहासूत्र नाम दो प्रन्थ इनके बनाये सर्वतास्थ थै। (२) आलिद स्टूतिकता, यद मदपि ग्रोसिए के इन थे, ४ कर्मप्रदाप ? नामक इनझहा बनाया एक स्मृति ग्रन्थ है। (३) प्सिद्द वैवाकरण, पाणिनी के धर्ों पर इन्होंने बासिक बनाया है। इनझे पिता का साम सामदत्त था, वे वससबहियों की राजन घानी कीशास्त्री में रहते थे । इनका दूसरा नाम वररुचि था । कात्यायनी (स्त्री०) देवी विशेष, स्थ्तितिशेष, कास्या- यनवरी भगवती की एक सूति, काह्यायन ने सब से पहले इसकी पूजा की थी। इसी कारण इसके कात्यायनी कदते हैं। इसही कथा माऊेण्डेय इराण में विस्तार से लिखी है, भयुया दख पहनने वाली अधेद विधवा ख्री, याजवदक्य की ख्री का नाम | कादुम्वर तरृ० (१०) क>ईँ प, राजईस, मुस्दर ईस। कदम्य का पेड, इं, बाय, दछढिय का पृस्‍ओुू प्राचीन राजवश | कादुम्बरी ऋदुस्व॒री तत्‌० (स्त्री०) मदिरा, मय, सुरा, सरबती, मैंदा या कोयछ की बाणी, अन्ध विशेष, बाण- भद्ठ के द्वारा निर्मित कादम्बरी नाप्तक अन्य की नायिका | [ सह । काद्स्विनी तत्‌० ( स्त्री० ) मेघमाला, मेघण्ेेणी, मेंघ- कादर दे० (गु०) रात, डरपॉक, भीर, सुस्त, नामदे, अधीर, घवराया हुआ | -ता (स्त्री०) भय, डर, ब्याकुछता । कद्राई दे० (स्थ्री०) भंय, प्याकुछत्ता, ढर, भीरुताई । कादा दे० (प०) कादो, कीचड़, पड; चहला। कान (पु०) कर्ण, श्रवण, श्रचणेन्द्धिय ( स्त्री० ) आन, लजा॥ शपथ, कृसम ।-- पेंठन वा झमेठवा कान खींचता, सजन करना, भत्सन करना भरना (वा०) विरोध डालना, किसी के विरुद्ध भड़काना । >+-पर जूँ न चलना असावधानता, प्रसाद ऊपर रखता ( वा० ) स्मरण रखना, उत्छुक रहना “पर हाथ धरना अस्वीकार करता, नहीं मानना ।--पकड्ना ( बा० ) अपनी भूल समभ लेना, श्रच्छे उपदेश मानना | -फूडना बदहरा होना, किसी की न सुनना, कानों के दुख पहुँचना ।--फोड़ना ( बा? ) बड़ा शब्द, भया- नक ध्वनि ।-फुकना अपने अ्रधीव करता, मंत्र देना ।--छुकाना (वा०) खुनमे की अभिल्‍्ापा। +-द्वा कर चलो जाना (वा०) भाग जाना, किसी बात का निपटारा किये विन्ा या अच्तर सुने बिना चले जाना ।--धरना (वा०) सावधानी से सुनना »-दे सुनना (बा०) सावधानी से सुनना ) +>ौदेंना सुनने की ओर सावधानी करना।-- काडना (वा०) पराजित करना, छुकाना (--खड़े होना (वा०) सावधान होना, सज्ञम हो जाना। +-स्तैाल देचा (वा०) सावधान करमा, सजग करना )-तल्गाना (बा५) ध्यान देना ।--मलना ( था० ) ताड़ता करना, सजा देना में उंगली देकर रहना (वा०) उदासीन होचा |--में तेल डालना, नहीं सुतता, उपेक्षा करना ।--में तेल डालकर से। रहना (वा०) बिलकुल उद्ासीवता दिखाना, असावधावी ।-न दिल्वाना कुछ उत्तर न देना, उपेज्ञा की दृष्टि से देखता (--फुंसी ( श४३ ) , औनन्‍्हडा सल्त्रणा करना [कानों करना (चा०) चर्चा करता, अफवाह डड़ाना -- कान कहना (वा०)“ अति गुप्त रूप से कहना । फानऊुष्ज (पु०) कनौलिया चाह्मण, देशवासी | ऋतणड़ा (वि०) काना, एक आंख चाला, पुक राग चिप | कानन तल» (पु०) घन, अरण्य, कान का बहुबचन, दे कान, म्ह्मा का सुँदद । काना (वि०) एक भ्राख बाला ॥ कानाफूसी (स्त्री०) कान के परांस धीरे धीरे कहीं हुई बात) ; कानि दे० (ए०) रू्जा, मान, सक्कोच, शर्स एक अखि वाली, खानि [| कानी दे० (स्त्री०) एक भ्राख वाली स्त्री, सब से छोटी जैसे कानी उंगली, शर्म, लब्जा, सच्भतेच [ कांनीन ततू० ( गु०) कर्ण और ब्याप्त, अविवाहिता सस्‍्वरी से उत्पन्न पुत्र, कन्याजात, अनूढ़ा पुत्र, अविवाद्िता गर्भम । कालून (४०) विधि, नियम, आई | कान्‍्त तद्‌० ( छु० ) [ कम + कक] पति, कुदकुम, छौद् विशेष, श्रीकृष्णचन्द्र, स्वामी, प्रिय, चन्ड् मा/ विष्णु, शिव, क्ार्तिकेय, वसन्‍्त ऋतु +--ल्ोह (०) श्रयस्कान्त, शुद्ध लौद्द, कान्िसार लौह । कान्ता (स्थ्री०) नारी, स्वान्वसुन्दरी सन्नी कान्तार त्तत्‌० (घु०) महावत्, कुपध, ुर्गंस पथ । कान्‍्ताह्वा तद० (स्त्री०) शपधि विशेष, अियड्मु । कान्ति तत्‌० (स्त्री०) शोभा, दीघि, चन्द्रमा की एक कला ॥+-दायक (ग्ु० ) शोभादगयक दीप्ति कारक (--पापाण (३०) झुम्दक पह्थर । कान्दा तत्‌० ( छु० ) धूल विशेष, जर का कल्‍्द, कल कंदरा | काधिी दे० (क्रि०) कंधे पर उठा कर स्वीकार ) कास्यकुष्ज तव* (छ०) [कान्य + कब्ज] देश और ब्राह्मण विशेष, इसका नाम और प्रचलित झप- अंश कन्नौज हैं, यह नगर कुछ दिनों तक भारत की राजघानी रद्द चुका है । हानदर दे+ (४) भगवाद श्री कृष्णचन्द्र जी का एुक नास । कान्दडा दे० (घु०) एक रागीनी का नाम | कान्यकुण्ज कापट्य कापद्य तत्‌० (घु० ) कपदता, शठता, पूर्तता, + घृल, प्रतारण ' ऊापड़ी ( घु० ) कठ्षियाबाइ श्रास्त में वसने बाली थूक जाति । [ झाम्टा, छुहा रास्ता | कापएथ तव्‌० (पु० ) कृप्ध, कृष्सित मार्ग, दुर्गम काँपा दे० (कण) ढरा, धर्सया । कापात् तत्‌० (प०) प्रादीव श्रद्व विशेष, बायविडंग, ९५ प्रदार की सुलद था सन्धि | -ो (पु०) शिव, वर्ण सट्टूर विशेष | कापालिक तन्‌० (पु० ) चर्णसट्टूर जाति विशेष, धाममार्गी, अधो८ सम्प्रदाय के मनुष्य, छोड़ का एड भेद विशेष, यद्द बढा विपम्त है श्रार कष्ट साध्य द्वीता है। [ वेत्ता, झूरा । कापिल तत्‌० ( गु० ) साहर्य शास्र, साइस्यशास्तर, कापुरुष तत्‌* ( धु* ) कुश्वित पुरुष, निम्दित पुरुष- कायर, निकम्मा +-त्य (पु०) »घमत्व, नीदता। आफिया दे? (५०) तुक, सज, भ्न्तिम चलुप्राप्त क्ाफिए दे* (दि०) निदपी, कोई, काफिर देशवासी, नास्तिक, जो मुसटपघान न हो । काफ़ी दे० (वि०) पर्याप्ठ, पूर्ण, बस, पूरा, पर्यास, मतलब मर के किया, पर्याप्त ! काफूर (०) कपए । काबा दे (पु०) सुपढमाना के पुक सीर्ष का चाम्त जो अरब में है थीर जईाँ इजरत मे।इस्सद रहा करते थे। व्यविज्ञ (वि०) धविद्वार प्राप्त, श्रधिड़ार रखने वाद्य कायुल (पु*) नदी विशेष, थरफुगानिस्तान का पुक प्रधान नगर या उच्तका पुराना नाम | काउुली (६०) काउछ देशवासी । काबू (६०) कृप्जा, हणिनियाद, बढ, चारा, शक्ति । काम तत« (पु०) [किम+घज ] मदन, कन्दप, इच्छा, वासवा, भ्रमिछाष, रमणेच्छा, कार्य, काज, चार पदायों में ( श्रधे, यमे, काम, माद्ठ ) से शक, बधावा, सुम्दर, विपप्र, घरधा ।--प्ाना (वाण्) राम में झाता, ब्यडदार में आना, रण में दत होगा (पूरा करना (ब०) समाप्त करना, समा्ति ।--चलासा किस प्रकार काम मिशालना में जाया (बा« ) क्‍ करता ।+ निकालना ( दा० ) इष्छापूं करना । ( ह४४ ) कामशर --काज्ञ हारोवार, कामघत्था 4--कला (स्त्री०) का्मदेव-फनी, चन्रमा की घोलडद कढां, कोम- शाध्य, मैयून, रति ।+- काप्री (गु०) कामासक्त, सम्सोगी |--कार ((९) कामेच्छ, सम्भोगी ।+- केलि (सद्रो०) सुस्त, रमणशक्किया। चर (वि०) इच्छानुघार घूमने फहिने वाढहा |-चलाऊ (वि० ) हुछ कुड् उपयोगी ।--चारी ( प० ) कामुर , स्वतस्त्र, उच्छुद्ड “चोर (वि) आहूसी।-द ( गु० ) कामद।ता, मनारथपूर$) --तद (पु०) इत्पदुव, सुरतद “दें भाई (धपरो०) कामधेनु,। --दा (स्त्री०) ामधेजु, मगयती ।-दुधा (स्त्रो*) कामघेलु, श्रमिदापा पूर्ण कानेवालो गौ --दती (स्त्री) पत्तस्त खत कुम्मी ।दैय (पु4) मदन, कखप |-थरेश्ु (स्त्री०) देवता धों की गी ।--रूप (7०) इच्छा- जुसार रूपधारण करने चाछा, देशविशेष जी श्रासाप्त में है।--तख तव्‌ः (पु०) छक्परष, देवरण, स्वेष्छानुसार चलते वाढा, अप्रतिहंत- मनो(थ ।--शाख्र (प०) मैथुन शात्त । कामद्क तद० (पु) भारतीय पक तैतिे विद्वान का नाम, इनके बनाये झस्य को सास कामन्द- कीय नीति है, चाणक्य के पीछे उप हुए ये। क्रामदानो (स्मी०) कहावतू भ्रयत्ा सब्मासितारे के डे हुए बूटे व बेछ ।.[ मनोरष, बाई, गुतद । कामना तनु» (स्त्री) ईच्छा. बासवा वाश्या, ऋपषपल्ली तव्‌० (स्त्री ०) रति, कामदेव की स्त्री) कामपाल तत्‌० (4२) बलगरेव, बढसम, मदादेव। काम्रपोड़ित तद्‌० (गु०) काम्सक्त, काम से दु सी | काम्रमत्त तर० (गु०) इच्छानुसार भोजन करनंवाह्ा! मक्ष्यामद्षपर विचाररद्वित कामपाव (चु०) सफर, बची । कामरो दे? (स्परी०) कम्दछ, छोई, कमरी ! कामरूप त्तर० (पृ०) इच्छादुसा' रूप घरने बाला) स्वेच्दाचारी, सुरदर, देशविशेष । फ्रामरूपो दत्‌० (गु०) विधाधर, यदुरूपिया । कामजा तद्‌० (स्री०) पाण्डु रोग । कामलोक तर" (गु०) चश्दछ चछचित । ऋमश्वर ततुन (३०) कर्द्प बाण ! कामाक्या काम्राह््या तत5 ( खी० ) देवी विशेष, इन देवी का स्थान डिवख्गढ़-आसास में हैं । काम्रातुर तत्‌* (गु०) कामातं, काम पीड़ित, कामुक, समागम की इच्छा से व्याकृद । कामात्मा तत्‌० ( गु० ) कामुक, लम्पट, व्यसिचारी | काम्राधिकार तत्‌* (घु०) प्रेम की उत्पन्ति, स्वेच्छाधीत, काम का अधिकारी । काम्राधिष्ठटि व्‌» ( गु० ) कामाभिमृत, कामवशग । कामान्थ ततव्‌० (ग्ु०) [ काम + भ्रन्ध | छाम के चशीभूत, काम के द्वारा द्विताहित ज्ञानशून्य, विवेक भ्रष्ट । कामायुद्ध तत्‌० (पु०) [काम+ अग्युद्ध ] कामदेव के बाण, कामदेव का युद्ध, आस | कामारण्य तत्‌० (पु०) [काम + श्रणय ] मनोहर घन, उष्तस बसीचा | शिव, मह्दादेव । कामारि तत्‌० (प०) [ काम + अरि ] काम के शत्रु, कामात॑ तत्‌० (गु०) [ काम + भारत ] काम-पीड़ित, कामाहुर, काम # वशीभृूत । कामार्थी दे० (छ०) कामरिया) गल्जाजलिया । फामासत्त त्ततु५ (सु०) [ काम + आसप्क ] कामप्तुर, काम पीड़ित । [ का नाम । कामिका तद॒ई (सख्त्री० ) आवण कृष्ण की एकादुशी कामिनों तत्‌० (स्वी०) [ कामिन्‌+ ई ] अतिशय कामयुक्ता स्त्री, भी, स्त्री, स्री, सर्वसाधारण ख्री, युवती, मदिरा, दारुदल्दी, पेड़ों का चंदा, माछकोष, राग की पुक रागिनी, काएविशेष । फामी तल" (पु?) [ काम + णिनर्‌ ] कामातुर, इच्छु रू, अभिलाषी, चक्रवाऋक पक्षी, कबृतर, चिड़ा, लारस, चन्वुमा, काकड़ासिंगी, विष्णु का एक चास। (स्री०) कमानी, सीली, सेने का दुकढ़ा । कामुक त्च्‌० (पु०) [ कम +- बक्रण्‌ ] कामी, कामातुर, ल्म्पट, कांमासक्त, चाहने वाजा ॥ कामोदा तत्‌० (स्त्री०) रागिणी विशेष । काम्वोज्न तत* ( 9० ) देश चिशेष, स्लेच्छ जाति विशेष, #म्ब्रोज देश के घोड़े, बड़' के दक्षिण पूर्व का देश । फाम्य त्व॒० (गु०) [ क्रम + ध्यस | कमनीय, सुन्दर कामनायुक्त, अ्मभिक्ापषा का विपय ।--कमे ( १४५ ) >+-->+>न 9 न>-9+-मं-न- पं नन--_-«-+«» «3 मन नन+-म-ननननमऊन न नन--ं न ननननभ नल पनननननन-+-+«मसं-म न न न ८न-+ >> >+ न» --+++-प न -++> ०-4 कारक (छ०) इच्छिस फठसिद्धि के लिये धर्म कार्य [-- त्व (घु०) आाहांक्ता, अभिलाप ।-दान ( प० ) कामना सहित दान, भैमित्तिक वान. किसी पर्व विशेष सें दान। कास्येष्रि तत्‌० (स्त्री०) वह यज्ञ जो किसी कामना की सिद्धि के लिये किया जाय । कराय तद॒* (७० ) प्रजापत्य त्तीथ, कविष्ठा और अनासिका अयग्रुज्षी के नीचे का भाग, सूति, देह, शरीर, सु व, तन, डील /“-स्थित' (गु*) शरीरम्थ । [ जीच, शारीरिक | कायक तत० ( ग्रु० ) शरीर सम्बन्धी, देही, शरीरी, कायक्लेश तत्‌० (9०) [कायक-क्नेश | शरीर सम्त्रन्धी दुःख, देह छा कष्ट । कायथ तद ० देखो, कायरुथ । कायफल्त दे० ( छ० ) एक औपधि का नाम, यह सुपारी जैसे रूपरज्ञ का होता है । कायम (वि०) स्थिर, उपस्थित । कायमने वाक्य तब्‌० ( ग्रु० ) [ काय+ सनस्‌ + बच +ध्यण ] शरीर सन और बचन । कायर दे० (गु०) कातर, भीरु, डरपोक, आलम्ी, कादर |->ता (स्त्री ०) भीझवा । न्यायत्त (बि०) मानने वाला * कायरूथ तव्‌० ( पु०) ज्ञाति विशेष, कायथ जाति, कायस्थ नाम से प्रसिद्ध ज्ञति । कायस्था तत्‌० (स्त्री०) हरीतकी, धात्रीदृक्त, आधिला, श्राम क्री, छोटी बड़ी ईलायची, तुल्ठली, काक्ोली । काया दे० ( 9० ) शरी।, देह, तब, काय ।“-कढप (पु०) शरीर का संशोधन करना ।- पत्लढ तवू« ( छु० ) बहुत बड़ा परिवर्तन, भारी अदलापदली, नये रूप की प्राप्ति । कायिक तव्‌० (ग्रु०) शारीरक, देद्दिक, शरीर सम्बन्धी । कायोढज ठत्‌० (पु०) प्रजापष्य विवाद से उध्पन्न पुत्र । कार (एु०) [ कृ+घज्‌ ] व्यापार करने बाला, कर्ता, यत्न, काज, व्यापार, उपभ्य, ऋछाम काज । कारक तत्‌० ( छु० ) [ कृ+णक ] कर्चा, हेतु, करने चला, वैयाकरणों के मत से क्रिया से सम्यन्ध रखने वाले विभक्ति छे श्रथ, क्रिया, निमित्त | - च्यीपक (घु०) शलछूसर विशेष | ्े श० प--१३ कारकुन फारकुम (५०) कारिस्दा, प्रवन्ध कर्ज्षा | कारखाना तदू० दे० (पु०) कार्यालय, हुमांश्य, वह जयद ज्र्दा ब्यापार के लिये कोई वस्तु बनाई जाती है । कारगर (वि०) इपय्रेगी, असर करने वाला । कारगुज्ञार (वि०) मली माति काम काने चाला | कारचेादी दे० (१०) वच्च विशेष, चांदी सान के तारों द्वारा जिस सख्त पर बेल बूरे बनाये दा । कारज दे० ( प्रु० ) कार्य, कर्म, काम, काज, काम चघन्धा, कारयर। कारण तत्‌० ( प० ) [ कू+ णिच्‌ + अनद्‌ ] जिसके बिना जिस कार्य की सिद्धि नहीं बढ इस कारयेका कारण है । हंतु, वी, निमित्त, प्रयोजन, निदान, चास्ते, लिये ।--करण (छु०) कारण का कारण, घरसेस्वर, समा' की सृष्टि करने वाद्य ।--गुण (३०) हेतु के गुण, कारण के घर्म--ता (स्त्री०) द्ेहुता निमिचता (-चादी (३०) श्रदांघ करने बाला, निवेदक, अभियेश उपस्थित करने वाल) फरयादी । --घारि ( ३० ) सृष्टि उत्पन्न करने वाला जल, सृष्टि के प्रधम का जल्व--विशिष्ठ ( स््री० ) युक्ति सिद्ध, उचित ॥--माला ( झ्थी५ ) फारणसमह, घटना परम्परा (-शरीर (५० ) सत्वप्रधान, अज्ञान, आ्रातन्दूमय काप, सपुत्ति शरीर ।-मूत्त ( गु० ) सूट कारण, देतुमूत । कारण्डच तत्‌5 (पु५) पक्ति विशेष, हथ विशेष * कारपरदाज़ (वि०) छारकुन, प्रतिनिधि, कारिन्दा। कारवार देुं० ( पु० ) व्यवसाय, वाणिज्य, व्यापार रुर्म, काम । * काखारी (ति०) काम काजी ) काररवाई (स्वी०) कृत्य, काम, विवरण । कारबल्ली या कारवेल् तद्‌» (ख्री०) कटुफछ, करेटा, तरकारी विशेष । कारधाई दे+ (स्री०) काम, कृर्य, प्रयक्ष । कारवी तव्‌० ( स्वी० ) [ कारव +ई ] मयूर शिखा, रुदजटा, धजमोद, कलाजि, औपधि उिशेष । कारस्तानी (स्री०) गुप्त कारचाई | कारा वत॒5 (द्ली०) [कार + था] वन्धन, पीड़ा, स्वाघी- नता लाश ।--गार (३०) किरा + आयार] जेछ ( १४६ ) लकी की जिम / 57 (4 प घट नकल जम: 222 492 मील लक अर 33229 जी बज आम कात्तिक खाता, बन्‍्वनगूह, अ्रवरोधरस्थान |- गदर (पु०) बन्धनगृद, कारागार [पुत्रों कु शाप्तन में था | कारापथ तत्‌० (पु०) देश विशेष, जो रद्मण नी के कारावास तत्‌० (पु) कैद, जेहल कारिका तब» (्वी०) नटी, किसी सूत्र ही श्लोकपदध व्याख्या ! _. [चलझ, दोष | कारिख दे० (पु०) करिखा, कारण, स्याद्दी, श्यामता, कोरी तदु० (ए०) छृहविशेष, कार्य कर्ता, करने चाढा, (स््री ०) काली, श्यामा, काले रग की, ययार्थ|मरपूर | कारोगर दे० (म्वी०) शिएपी, शिक्षकार, राम करने बाला -+ी दे० (श्ली७) हुनर, कार्य, शिक्षपषकारी | कारु, कारुंकर तत्‌» ( पु०) विश्वकर्मा, शिष्षपरी; शिक्षाशार, निम्मांता, सुवर्णकार, थवई | कारुकादि तद्‌० (पु०) कारीपरी, हुनर । ! कारूणिक या कारुणीक तव्‌० (१०) दणष्णलु, कृपालु, करुणा युक्त, कृपादान्‌, सेदरवान | कारुएय ठव्‌० (पु०) दषा, कृपा । कारो (वि०) काला, म्थाद । कारोबार दे० (डु०) न्यबसाय, प्यौपार, काम को । कार्फश्य तद्‌० (पु०) कढोरता, कठिनता, कर्ता, परुपता, नीरसता, करता । कार्संचीर्य तव॒० (प०) झतबीये राजा का पुत्र, सदल- घाहु श्रश्ञन, य नमेदा सीरस्थ हैहयराज्य के अधि* पति थे, कार्तचीर्य का दूसपर नाम हैदय भी था, इन्हीं के नामानुशार इनके राज्य का मी नाम पढ़ा है | इनकी राजघानी का शाम माहिष्मती नगरी है । ब्रिल्ोकविजयी सवण हा भी इनके पराक्रम के सामने नीचा देखना पढ़ा था| रावण इनके यर्दा बन्‍्दी हुआ था । परशुराम ने कातंबी्य को मारा था। यह राजा तन्त्र शास्त्र का एक राजा समझा जाता है। इधझा बनाया कार्तेवीय तनन्‍्त्र का शार्क्ो में विशेष श्रादर ई ! [विशेष । कार्सस्वर तव्‌० (० ) सुबर्ण, द्ेम, सेना, पुष्प कात्तोन्तिक तद॒० (घु० ) ज़्योतिवेत्ता, ज्योति शाख्नज्ञ, दैवक ! कार्तिक तब॒० ( बु०) रारद ऋतु का दूसश मदीना, कातिक मास, इस सास की पूर्णिमा को चन्द्रमा कृतिका नहत्र के समीप रहता है। का्सिकेय कत्तिकेय तत॒० (५ ) पडानन, महादेव का ज्येष्ठ पुत्र, चन्द्रमा की स्त्री, कृतिका हे दूध से यह पातठा गया था, इसी कारण देवतांओों ने इसका ऋतिकेय नाम रखा | यह देवताओं का लेनापति था । तारकाछुर के बंध के लिये यह' उत्पन्न किया गया था। इसने देवसेता ऋआ परिचालन किया और तारकासुर के मारा | तारकासुर के मारने के बाद इसका नाम तारकारी पढ़ा था, इसकी ख्री का नाम देवसेना था जो ब्लह्मा की पुत्री धी। देवसेता छा दूसरा नाम पष्ठीदेवी है । ( अह्मबैचर्त ) कार्पश्य तत्‌० ( ग्रु०) कृपणवा, दीनता, अत्यन्त घनलोभ, कम खच करना; अमजुक्तइ सत, इस शाव्द्‌ के अ्येग झे स्थान में, “ कार्पण्यता ” का प्रयोग करना अ्रजुच्चित श्रार श्रशुद्ध है । [ कपड़े । कार्पास तत्‌० (धु०) रुआा का पेढ़, कपास, रहे, सुती कार्मण तव्‌० (७०) कर्मदक्ष, कमंठ, मूलकमे, फ्रषणधि . मन्त्र श्रादि के द्ववरा साहब वशीकरण उच्चाटन आदि कर्म, शन्रुपराजय आदि के सिये मन्त्र सन्त्र का योजना । कार्मिक तत्‌० (गुट) विचित्र वस्त्र, जड़ाऊ बस्तर, कारचोबी के कपड़े, वह वस्त्ष जिसकी घुनावट में ही शह्कू चक्र स्वास्तिक आदि थे चिन्ह बनाये गये हों । कापछुँक तब" (४०) धनुष चक्षाप, कर्मेसस्पादेग करने बाला ।--भ्ुत्‌ ( पु० ) घलुद्धांरी, घानुष्क, वीर, योद्धा । कार्ये तत्‌० ( पु० ) [ कृ+ध्यण्‌ ] कर्म, कास, क्राज, हेतु, प्रयोजन, फल, ऋण सम्पन्धों विषादादि, “जन्प्रकुण्डली का दसर्वा स्थान, आरोग्यता । +-कर्त्ता तत्‌० ( पु० ) कर्मचारी; काम करने बाला (कार (9छ०-) कर्मचारी, उपकारक, सहायक ।--कारक ( घु० ) कार्य कर्ता, कसे सम्पादन करने बाला ।--कलप ( छु० ) कार्य समूह, अनेर कार्य, छार्याधिर ।--कुशल (ग्र॒०) कर्मठ, छायददा, चतुरता से काम करने वादा! -+क्षम (यु०) कार्य करने हे येप्तव, कृती, ज्मता- बाचू | -तः ( झ० ) यथार्थ रूप से, निश्चित रुप से, किया हे रूप से ।“-पक्ष (सु०) फर्म में ६ १७७. ) कालख |; अनन्त त3+ 5 नकल ना-++_+पननहऋन>स+++नस+-+4न ०-२० + 7८3 निएुण, कमेंठ, कमे कुशक ।--निछ (यु०) काम में छगा हुआ, कार्यातक्त कामकाजी | +पटु ( गु। ) कर्मदक्ष, कर्मेकृशन ।--अ्रद्देंप ( ०) श्राजस्य, अलखता |--वाही (खी०) काररवाई । --विवरण ( छु० ) कार्यों झा चर्णन +-हन्ता (ए०) प्रतिबरन्ध5, दाघक, कार्यनाशक [--नध्यज्ञ (एु०) श्रूसर ।+झयधिकारी ( 9० ) कास करने बाल्ला, प्रतिनिधि, कर्मचारी |--धिष्ठाता (५०) श्रेष्ठ, खेद, कार्यातक्त, व्यापारकम ।-ाधीश (पु०) कार्याध्यक्ष, स्वामी, श्र । [सम्बन्ध । कार्य-कारण भार्व तत्‌० (ए०) कार्य और कारण का कार्यालय तव० 'पु०) दफूर, कारख़ाना। ऋारंबाई देखे काररवाई । काश्य तत्‌० (स्त्री०) चीणता, कृशता, दुर्दक्षदा । ड़ कार्षाक तव्‌० (पु०) [ कृप्‌ + शक ] कृषक, किसान, कपणक, खेतिहर । ४ कार्षापण् तत्‌० (घु०) सिक्का विशेष काल तत्‌० (०) [ झलू+ घन ] समय, कण, झुह्त, अवलर, बेल, रत्यु, मरण, शिव, शत्रि, यम, ऋतु, सदँगी, हुष्छाल, झकाल, साँप, सपे, रस कारक अन्तु या द्ब्य, भ्रागामी था व्यतीत दिन, नियत समय ।--क्राठना ( बा० ) ज्यर्थ समय नष्ट करना, निरर्थक बैठे रहना +-गर्धाना ( बा० ) बचिव ससय पर काम न करना विताना ( वा० ) कार काटना ।-कूंढ (पु०) हलाहल, घिप, जहर ।--क्षेप' (०) समय बिताना, दिन काटना, भगवान के भ्रुयाजुवाद करके था खुनके समय ज्यत्तीत करना ) कालक तत्‌० (पु०) तेत्ीस अरकार के पेचुओं में ते पक, आँख की पुतली, बीजगणित की दूसरी अव्यक्त राशि, पानी का सांप, देशविशेष, यकृत । काल्चकील तच्‌० ( छू० ) घवड़ाइ८, कोलाइछ, इडबड़ी । कालकैय तव्‌० (घु० ) राज्ल विशेष, इस नाप्त के राजसे का एक समूह जे। बृत्ाघुर का साथी था। कालकोठरी (छी०) शअधेरी छोटी कोठरी । फालक्रम तत्‌* (पु०) समयाजुसार | कालख दे० (ब०) रूदसन, तिक्ष, मस्था । कालत ६ रेष८ष ) कालापानी ब्लड: न: नक--नसऊनओ:: इ अक्‍ असकफ इकअअइ ७ ् झा कालक्ष तत्‌» (गु०) समय ज्ञाता, समयानुसार काम | कालमेषिकरा तत+ ( ख्ी० ) मजीठ, वाकुची, औषधि करने बाला | [का वहा महन्त । विशेष । कालझर वत॒० (पु०) शिव का पुक नाम, वाप्रमार्गियो | काल्ममेपी तत* (खी०) प्रजीठ, काला निप्लेत | फालघम ठत॒७ (घु०) समय के घमे, रत्यु, मरण ) | कालयवन तत्ु० (पु) प्रसिद्ध चली यवनराज्ना, यह कालनाभ तत्‌० (पु०) हिरण्याद का पुछ घुत्र । शिग्मुल्ल । महफि गए के औरणस से गोपात्नी मामक किसी फालनियास तथ० ( पु० ) सुगन्धित द्वव्य विशेष, अपष्सरा के गर्म से उत्पन्न हुश्या था। मद्दविं, गर्ग कालनिशा नत्‌० ( स््री० ) प्रत्य की रात्रि, दिवाली ने पुत्र पाने के लिये ला चूणें साकर बारह धर्ष की रात, अत्यन्त शँधेरी रात, मरन समय, अत सक तपस्या की थी, इसी का फलस्वरूप काल- की रात । यवन हुआ । घटनावश काछयवन को पुत्रह्ठीन कालनेमि तत्‌० ( घु० ) दैद्य विशेष कएटी झुनि। यवनराज ने पाला और श्रपने बाद इसे द्वी श्रपना (१) यह दैद्य देवासुर संग्राम में कुबेर भ्रादि झा जीत कर ध्रन्त में भावान्‌ के द्वारा मारा एया | (२) शाघस विशेष, यद्द विष्णु के तेज से डर कर रावण उत्ताथिकारी भी बनाया। सगधराज्ञ जरासन्ध तथा उसके पत्तवाले ने काल्षयबन का कृष्ण से लड़ने का भेजा था । के नाना मुमाली के साथ पातात् में साय गया था। | फालरा दे० (5०) विशुचि का रोग, ऐजा । (३) रावण का मामा, सभीवनी बूटी क्षाने के समय | कालराज्ि तत्‌० (स्प्री०) प्रढ्य कार की शत, दिवाली हलुमान्‌ को रोकने श्रथया मारने के लिये रावण ने की रात्रि, मगषती का नाम, झत्यु समय, अ्रघेरी इसी को सेज्ा था । यह कथा रामायण में है । रात । फालपालक तत5 ( पु० ) समय की अपेदा करने | कालशाक नत्‌० (पु) पहुश्रा साथ, करेमू, सरफेंका । बार, गूढ नीतिज्ञ । [दाश, मग्ण रम्छ । | कालसार तठ« (०) तेंदुश्रा का पेढ़ । कालपाण या कालपास तद्‌० (पु०) यम्रपाण, झत्यु | फालसूत्र तत्‌० (पु०) नरक विशेष काजम दे5 (१०) किसी संवाद पत्र का स्तम्म । कालसर्य तद्‌ (ए०) प्रढय काल का सूर्य । फालपुरुष तत्‌० ( पु० ) यमराज के अजुचा, ज्योतिष | +लस्कन्ध तत्‌* (पु०) तमाल रच, तिस्दुक दूध । शास्त्र, शुमाशुभ जानने के लिये कल्पित द्वादशा | फालस्वरूप तनु ( घु० ) झत्यु का आकार, रुष्यु के राशियों का पृरुपाफर, यमराज, से बढ्मा हे पैत्र समान भयहूर, घातक, हिसक । ह शोर सू के पुत्र हें। इनका स्वहय चल्यन्त भयद्वर | काज़ा देन ( गु० ) काले रझ का, कृष्णवर्णे, कलौटा । दा इनके ६ मु, १६ हाथ, २४ असिं, और ६ “शुरू (६०) [का + अगर] सुगन्धि-्द्वष्य विशेष पैर हैं। इनका रह्र काछा दे आर ये बान्न रक्र के कृष्णवर्णे सुमन्धित काठ ।--मि (पु०) भ्रय छाछ चद्ध पदनते । की आग, काज्नानछ, संद्वारकारक भ्रप्मि ।+-चे।र फालपर्णी तद्‌० (स्री०) श्रापषचि विशेष, काला निसे।ठ (वा०) अपरिित मलुच्य, श्रनज्ञान, चेजान।--त्यय कालप्रमात तव्‌० (पु०) शरद्‌ ऋतु, शरस्चाल । (पु०) समयनाश, समय का दुरुपयेग (--स्तक काजदजा तल» (ख्ली० ) अ्येग्यध्ाल, किसी काम (०) यमराज, घरमेधज ।--उत र (६०) समयास्तर, करने के लिये निर्दित समय । लिप बैच । दूपर समय ।--मुँह करना ( वा० श्रम्यादित कालबेलिया दे> ( पु* ) सपप का दिप उतारत बाला, करना; अप्रतिष्टा करना, डॉटना, लक्षित द्वोना फालमेरव तक, (पु०) शिव ड अग से डस्पन्न, इनका या करना, झुँद में कारिव बताता । अदुचर, सहाशान-यूल्य, प्रह का पाचय सल्तक | काल्ताकछूदा (वि-) अस्यस्व काझे रग का । काटने के क्षिये इनडी :स्पत्ति हुई थी। कालाचार (पु०) मारी चेर, तुच्छ परच । फालमा <ं० (पु०) सैशय, सन्देद, दुविधा, पटछा । | काज्ाप ततु० (पु०) कलाप व्याकरण जानने याक्ला | कालमूत्त त्त३० (न) लप्ट चित्रक, औपध विस्षेष | | क्ाज़ापानी देल (०) देश विशेष, ज्दाँ का जल कालायस ( श्ट६ ) कांव्यं " शत्यन्त ख़राब होता हैं. । एक द्वीप, जिसे एयडमन टापू कहते हैं । इसके चासें ओर का जल श्रत्यन्त खारा है और काटा है इसी से इसे कालापानी कहते हैं | जिन्हें देश निकाले का दुण्ड दिया जाता है, वे वहीं भेजे जाते हैं * [इस्पात लोहा । फालायस तच्‌० (पु५) [काछ + आयस] ले; विशेष, कालिक तत्‌* (यु०) कालसम्बन्धी, सामयिक, (पु०) नाज्त्र मास, काला चन्दन; ऋ्रौंच पक्षी । कालिका तत्‌० (स्त्री०) कालीदेवी, महाकाली देवी) कालिख, रोमराजी, जदार्माली, काक्राली, शुगाल्री; कीबे ही मादा, सेध, सूचर, स्पाही, सदिरा, हर विशेष, एक नदी, 'भराश्ष की काली पुतत्नी, दक्ठ ही पुक्क बेटों, कुदरा, हलकी भादी, विच्छू, सिर मलने की काली मिट्ठी, चार वर्ष की कन्या, रणचण्डी । कालिकला (क्रि० बि०) कदाचित्‌, कभी, किसी समय 'कालिकल्ा काशीनाथ कहे विवस्त्त हैं ।?? ज-ठुलली क्ालिख (स्त्री०) कालेंच, स्याही । [नामक एक बच । कालिख्या तत्‌० ( स्त्री० ) घृक्त विशेष, किन्दुवाली कालिडु तत्‌० (पु०) फलविशेष, तरबूज ! कालिझजञर (9०) पर्वत विशेष जो वाँदा ज़िले में है । कालिदास तत्‌० ( घु० ) खनाम प्रसिद्ध संस्कृत के मदाकवि, विक्रमादित्य छी सभा के नवरत्रों में के प्रधान रत्न ! इनका समय #८ं८ ई० से पूर्व का बताया जाता है। सीलेत का राजा और महारति कुमारदास इनका मित्र छ्वो ग्रया था। कालिदास विक्रमादित्य की सभा छोड कर, कुमारदास के पास सील्लान गये थे, और वहीं इनकी समाधि हुई । (२) दूसरे कालिदास को पाश्चत्य जास मद्दाकवि भवभूति के समय का मानते हैं। इनका समय ७७८ ई० निश्चित हुआ है । (३) तीसरे कालिद/स्त मसिद्ध विद्वान और प्रन्धकार राजा भेत्ज के समय में थे । इनके पिपय में बहुत सी किंचदुन्तियाँ भी प्रचलित हैं । शजा भोज ११ वीं शताबढी में हुए थे, अतएुव उनके समकालीन कालिदास का सी वहा खमय बताया जाता हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई काकिदाप्त हुए हैं । कालिन्दी तत्- (स्त्री० ) कालिन्द पर्वत से उत्पन्न, यझुना, यह सूर्य की कन्या हैं। यमराज और शनिश्वर ये दोतें इसके भाई हैं ।-भेदन (घु०) बलराम । कॉलिमा तत० ( स्त्री० ) [ काछू + इमन्‌ ] कृष्णता, मलिनता, सालिन्य, कलडूः, काछापन । फालियडुः त्दू० ( छु० ) मज्य चन्दन | कालीय या कालिय तदू० ( घु० ) सर्पराज, काली- नाग, गरुड़ के भय से समुद्र में रहना छोड़ ब्रज में यह रहने छगा था, घर्हा कृष्ण फे द्वारा परा- जित हुआ और उन्हीं के आश्ानुसार पुन ससुद सें जा कर रहने लगा । काली तत््‌० (सखत्री०) श्यामवर्ण, कासे रक्नः वाली, शआद्या प्रकृति, शान्चचु राजा की पत्नी, कालि शा, भगवती, हिमालय की एक नवी, अमप्रिदेव की सप्त जिल्ाओें में से प्रथम । कात्तीदृह्ठ तद्‌० (पु०) ब्रज के एक सरोवर का नाम, जहाँ कालीनाग रहता था । काल्लीन था कातलीना तत्‌० ( गु० ) सामयिक, समयगत्त, निष्टिट समय का, चिरकालिक, बहुतत पुराना, श्रति बृद्ध । ऋल्ीन दे” ( पु० ) ग़लीचा । [लेने बाला येगगी । काल्लेश्वर तत्‌० ( पु० ) महादेव, शिव, झत्यु को जीत काली (पु) काछ भी, रस्यु भी, ससय भी, करद भी ; काह्पतिक तत्‌० (ग्रु०) कल्पना हे उत्पन्न मनगढृन्त, कह्पित, मिथ्या, आरोपित, कृन्रिम, अस्वाभाविक | ( ० ) कछ्पना करने बाढा (“ता (ख्री० ) कुन्निमता, बनावरी । कावा देुं० ( छु० ) काठिय्ावाड़ में पक लुटेरी जाति जिसने अजुन और श्रीकृष्ण क्री राचियों को लूटा था। [चक्कर देना, घोड़ा फ़िराना ! काला देना दे" ( क्रि० ) घोड़े के चाल सिखाना, कावेरी तत्‌० (स््री०) नदी विशेष । कान्य तत्‌० ( पु० ) स्सयुक्त वाक्य, जिनसे चित्त चमस्कृत है, कविता ।--चैर ( छु० ) दूसरे की कदिता का स्राव या पाद झआश दरण करने वाले [ +-व्व (छ०) काव्य का घसमे, काव्य का विशेष लक्षण, काव्य का स्वरूप +-लिड्ः (४०) अलक्कूर विशेष + कात्या ( ६४० ) किचांकय नजभ++++++-+-+++त>त>_ततततत+म_तन्‍तमततंमाित््तम.लॉॉलॉॉबत काया तत्‌* (खतरी०) पूनना, बुद्धि । कांग तब» ( ३५ ) हृण विशेष, साँसी, खेखी, सवा का रोग एक प्रद्धार का चूडा सुनिविशेष | देद्‌० ऊास ।--प्ली (ख्रो०) भारणी औषधि । काशि त्द* (९०) सूठे, रवि, दिश्कर । - राज (पु०) फाशी का राजा, दिवेदास, ध-वन्तरि । काशिफा तव्‌० ( ख्री० ) वाराणसी घंत्र, काशीघाम, व्पाकरण के एक गअन्ध का नाम +-प्रिय ( प० ) विश्ववाप ।--राज़ ( पु० ) विश्वनाथ, वाराणसी का शजा, दिवेदास, धन्वन्तरे आादि। काशी हव* ( छी० ) शिवएुदी, बाराणसी । -[ गु० ) काशरेगी, दीपिमानू, तेजेम्रय +--नाथ ( घु० ) शिव, विश्वेग्वर ।--राज़ (पु० ) काशी का राजा, दिवेदास, घन्वन्तरि |--फल तव्‌० (पु०) छा कु्दडा, कदूवू “करवट (ु०) काशी में एक सी स्थान, जद पर भारे के नीचे लोग अपना शरीर चिरवाया करते थे | फाशीश तदू० (यु०) उपधातु विशेष, कसीस, ह्वीशाकस । काशमरी तव्‌० (स्रो०) दक्ष विशेष, गेमार का बुच । काशमोर तब॒० ( पु० ) स्वनाम्स्यान देश, कश्मीर का रदने बाला, पुष्करसू>, वेसर, सुह्ावा ।-- ज्ञ (६०) चीषधि विशेष, हट, काश्सी( में इपक्ष होने बाला पदार्थ, कुछ्ुम ।--ी ( बि० ) काश्मीर चाघी । ज़िका? का अगूर + काइमीरा दे० ( ए० ) सेटा ऊनी चच्च विशेष, पुकछ काश्यप नद्‌* (६० ) अणद मुनि; झगविशेष, गगन विशेष, कश्यप मुनि झा घश । काश्यपमेस तद्‌७ ( ० ) कश्यप मुनि का वासस्थान, पर्वेन विरोप जित पर कर्पए झुनि रदते थे। प्रसिद्ध काश्मीर देश |. [पथ्दी, घरित्ली, प्रजा । काश्यवि ( इ६ ) अरुण, सूर्य का साइधो) - सब्‌० कापाय व१५ (३०) गरेरच्ा रप का कपड़ा ) काए तव्‌० ( पु० ) इन्चन, दाद, क्री, काट ॥--- पिक्रेला (पु०) छकदी चेचने बाला, >झडदारा। फाछ्ठा त्तत्‌० (स्लवी०) हद, सीधा, व्दचि, उस्छ्प, एक कल्प का ३९ वा माय, दिशा स्थिति, दुड की पक क्या, चस्द्र दी पुक कला, दौद ठगाने की सु] काप्ठी तव्‌७ (का०) फथ्की, फिटकिते कास (ए०) काश, श्वॉय का रोग, सापत, सरहरी, एक प्रकार की घास । कासनी (५९) एऋ ऐधा विरोप, रण विशेष कासवरी दे* (४० ) तांती, केपडा विनने वाल्या, तन्तुवाय जुलादा, कोरी + कासा (०) प्याला आद्वार । कासार तत्‌« ( धु ) बोल सरोत्र, छोड तालाब, दुण्डऊ बृत्त विशेष, कसार, पंजीरी । कासो (फाशो) (ख्री०) एक घटी का नाम, आनन्द चन, अदिमक्त दंत्र | काछु दे? (सर्व) किसछे, किसका । [ कौन काम । काद् दे० (१०) किसछ्ठी, किनछो, क्या कौन वस्तु, काहनी दे (श्वी०) कद्दानी, भ्रश्यायिका, कथा | काहण तत्‌० ( छु० ) हार्पाएण, सेलह पण, मान विशेष । काहार दे० (धु०) भ्ृत्य, कर्मक्र घोवर, कहार । कादि ( खी० ) किसके, किफे, किससे । काछिल (दि०) सुस्त, भ्रालसी ।--ी (स्त्ी०) सुस्ती | काह द्वे० किपी, कोई, किसीका । काहे दे० क्या, झिप्त लिये, किस प्रयोजन से | कि दे (अ०) दो याक्यों का परस्पर सम्बन्ध-सूचक अश्यय, क्या, भ्यों, किस लिये + किफत्तेव्य-विस्ूड उत्‌० (वि०) हृकक्का बकका, सौंचवका; आकुल, व्याकुछ, बढ मजुष्य जिसे पद न घूम पढ़े कि क्या किया जाय । फिंच्‌दन्ती तत० (ख्री० ) उद्ती खबर, अ्रनिश्चित समाचाः, जनध्रुति, अफ़वाइ । फिंचा (५०) वा, या, अथवा, यद्वा । किंशुक तद« (पु) पछाश बृष्, देखू, बिउल, ढकि । फिए् देन किये से सी, करने से भी ; किकियाना देन चिछामा, रोना, इकारणा, दुह्माई _ देना, कोर से श्रावात देना | रिड्डुर तद॒० (पु५) [क्िक्कृकनअ ] दास, भ्ृध्प, नौकर, नफर, सेवक, चाछर ये (घ०) दासाव, अधीनता, (स्ी०) कीडूरी, दासी । किड्टिणों तद॒« (स्त्री० ) *दि सा आमरण, शुद्द, घण्टिका, करंघनी दिशेष । क्‍ दे। (पु०) कच पच, से दें, ब्य केश।इड, किचकिचाना श्रव्यक्त शब्द विशेष, पक पक्की का शब्द | किच किच करना । [ पीसना, अधीर होना। - फ्िचकिचाना दे० (क्रि०) क्रोव के चश होना, दौँव कियड़ाना या किचराना दे? (क्रि०) श्रखि का रोग विशेष, अआखि भ्राना किचंपिच दे० (पु०) काँदा, किचड़, पक, स्पष्ट उत्तर न देता, अव्यक्त ध्वन्ति, चानर आदि का शब्द । फिसपियाना दे० (क्रि०) गड़बड़ावा, किसी प्रछार का कतंव्य स्थिर नहीं करना, दोलायमान चित्त; मन की दुचिधा । _ किचिरपिलिर दे+ (पु०) सिचपिच, कीचड़ । [धोतक * फकिश्ल तत्‌॒० (अ०) और भी, दूसरा भी, वाक्यान्तर 'किस्वित्‌ तव॒० (अ०) अन्प, ईपव, कद थोढ़ा। किचिन्मात्र तत्‌० (श्र०) कुछ, स्वहप, अत्यूकषप, बहुत थोड़ा, यत्‌किब्चित्‌ । किआ्र्क तत्‌० (५०) सिफाकन्द, फूल की पाँखढ़ी, फूछ का रज, केशर, पराग, कप्तठ् के बीच की जरा । किठकिट दे» (पु०) वादविवाद, किचकिव ] किट्ठि तथ० (छु०) शूकर, सूअर, बराह। किठिसि तत्‌० (७०) जाँ, केशकीट, ढील । किट्ट सतद्‌० (४०) मल्ठ, विष, बीट, मेला -चर्ज्ित (गु०) मल नद्वित, श॒द्ध, स्वच्छ । [ शब्द । किडुकिड़ दे” (9०) दांतों छी रगढ़ से उत्पन्न किड़किड़ाना दे? ( क्रि०.) अतिशय क्रोध युक्त होगा, फ्रोध से अन्धा होना, क्रोध के आशेस ले दति पीसना । [ मादकता उत्पन्न होती है। कियव तत्‌० ( छु० ) मदिरा वीज् जिससे मच में कित तदू० (अ०) कितनी, कहा, किघर, क्य, कुंत्र । फितई दे० (अ०) लॉ, तक, तलक, पर्यन्‍्त । कितना दे? ( छु० ) परिणास बिपयक प्रस्नार्थेक | --ही (वा०) बहुत अ्रधिक, प्रचुर एरियाम । कितव ठत० (ए०) घूत, वश्चुक, भ्रतारक, ऊुश्ना खेलने बाढा, झुआरी, धतूर , सोरोचन । किता (छु०) सीने के लिये कयड़े की कद छठ | किताब (स्त्री ०) पुस्तक, प्नन्ध । क्रितिक (वि०) कित्तना, किल अकार । कितेक दे? (गु०) वहुत अधि&, पचुर, कितना ही। किले दे० (अ०) कहा, किघर, किस शोर । ( ए१ ) किम्‌ फकितो (बि०) कितना । फिक्ता (वि०) कितना । फिसि तद्‌० (स्त्री०) यश, कीतिं यथाः-- « श्रखण्ड कित्ति बोय, देयमान लेल्यि”? >-धमचन्द्रिका | किदारा दे? ( स्त्री० ) रागिनी विशेष, यह गरमी के दिनों में आधीरात के यायी जाती है | किघर दे० (श्र०) कहाँ, क्सि ओर | पर क्िथों (अ०) या, अथवा । किन दे० (#०) किस का वहुवचन, क्यों नहीं, किसने, कौन, किसके । किनका (०) श्न्न का छोटा दाना ) किनबेया दे? (यु०) आहक, खरीदमे बाला, गाहक, लेने वाला । [ मोछ लेना । किनना दे० (क्रि०) सूक््य देकर लेना, खरीद करना, क्रिनहा (वि०) जिसमें कीड़े छगाये हो ।.[ बाला । किनार (9०) कार, किनारी |--दर (वि०) किनारी किनारा (5०) तीर, तट, समीप, पार्श्य, घोती आदि का प्रात, कार |--खींचना (वा०) श्रढूग होना, धोखा देना, विश्वास घात करता । किनारी दे० (स्थरी०) गोदा, गोठ, सगजी, कोर, वस्त्र का प्रान्त, पअस्त | हि किन्तु त्त० (अ०) तो क्या; पहले कही हुईं बात के विरुद्ध बात, परन्‍्ठु, अथच +-वादी ( गु० ) दूसरों के कही हुईं बात के 'काठने चारा, औरों की न सुनने चाले । किन्नर तद्‌० (एु०) [ कि +नर ] स्ववामण्यात देव- येनि विशेष, किस्पुरुष, जैन विशेष, गन्धवे देव- ताओं के यवैया । किन्नर दो तरह के होते हैं, एक का शरीर आदृमियों का सवा; परन्दु मुंह घोड़े के समान द्वोता है, दूसरे का झुंह आदमी का सा और घड़ घोड़े का सा होता है । किन्लरी तव्‌" ( स्प्री० ) विद्याधरी, अप्घरा । किल्नरेश्वर तत्‌० (५० ) [ किन्नर + देश +घरच्‌ | झुचेर, यदपति, देबताओं & क्ापाध्यक्ष । किफायत (स्त्री) कमखर्ची | [ प्रकार । किम्‌ तद० (सबे०) क्या, क्यों, कैश्ा, क्योंकर. किस स्घर्गीय-बेश्या, किमपि किमपि तत्‌० (श्र०) कुछ मी, जो कुछ, यत्किसित्‌ | फ्िमर्थ सत॒» (ध०) किस लिसे, क्यों, कादे », किस ' निम्मित्त से, किस प्रयोजन से । ( १५२ ) किलविलाना किसतक तत० (पु०) चिरायता, औषधि विशेष । फ्ियन (वि०) पास; निकट । [ भादि । फ्िराना दे० (प०) वस्तु विशेष, अल आदि, मसाला क्िर्मात्र दे० (५०) खजुर्दा, कोच का दृर्ध और फल | [किरिय दे० (पुन) इकडा, एण्ड, पु प्रकार का शख्र विशेष, किर्वांच । [ से, किप्त तरह । किम तदू७ (सर्व०) क्योंकर, किस भाँति, किस उपाय फिम्मुत तत्‌ ० (श्र०) प्रश्न, वितक, विकक्प, श्रतिशय, सम्भावना | किम्पच तत्‌० (गु०) भ्रदाता, कृपण, सूम । विशेष | किरिया दे० (स्त्री०) शपय, सेंड क्रिया, सौगन्‍्द । फिरीठ तत्‌० (६०) शिरोमूषण विशेष मुकुट, राजाओं की पगडी या टोपी, ताज, बर्णबृत्त विशेष |. , क्रिरोटी तत्‌० (पु०) अरुन का पुछ नाम, इन्द्र राश। किम्पुरुष तत० (पु५ ) किन्नर, विधाघर, स्प्र्तीय ' किरोर ( पु० ) करोड, कोटि । गायक । ( गु० ) कुश्पित पुरुष, निन्दित मलुष्य, | किरो दढे० ( पु०) किडद्वा द॒ति, दूटा दौत । हुराचारी | किम्म्ूत तत॒० (गु०) [ किं+ सू+क्त ] किस्त प्रकार | ईसा, कीशश |-शक्रिमाकार (वा० ) कुत्मित | [ सम्रच्चय । | आकृति विशिष्ठ, अनभिज्ञता । क्ैरोना (पु०) कीढा, कीट । किये दे० ( स्त्री०) फास, किरीच, सह, ख़पाच, भस्ष विशेष, छोटी तलवार के श्राकार का एक शस्त्र । राजाओं की पगड़ी था टोपी, वर्णशृत्त विशेष । _ किस्या तत्‌» (श्र०) अथदा, वा, विकरप, यदि, था, | किर्मीर ततु० (पु०) राद्सविशेष, वक नामक राषस कियत्‌ तत० (गु०) कितना, कितना परिमाण । कियारी दे० (स्त्री०) मेंढ, छकीर, थेंवला, क्यारी, खेत, तखता, चसन [ किये दे० (क्रि०) करने से, करे । [छकदी, फिरकिरी | किरकिटी दे५ ( स्त्री० ) आँख में की कणिरा, छोटी फिरकिरा दे* (गु०) रेतीली, ककरीछा | किरफिरो देन (स्त्री०) किरकिटी, प्िट्ी या तिनका जो भराज़ में गिर कर पीढा इस्पच्च करता है। किरच (स्त्री०) नॉडदार टुकड्ा, लड़ चेशेष फिरण तल» (स्प्री० ) दीप्ति, रश्मि, मयूस्र, सूर्य का तेज, प्रकाशमान्‌ पदों का लेज ।--माली (बु०) घूय, चन्द्रमा ।--हेस्त (पु०) चन्द्रमा, सूबे। फ्रिनि (स्त्री ०) रश्मि, किरण । किरपा (स्त्री०) रूपा, दया। किरमिली (वि०) दिर्मिजी। किरराना (फ्रि०) दांत पीसना। फ़िर्दान तद्‌० (एु०) कृपाण, तर्यार, पड । फिरात तद्‌« (०) भील, जाति दिशेष, निषाद, देश विशेष, एक प्रकार की ज्ञालि, दिरायता, साईंस | --ताजुनीय तद्‌० (पु०) कवि मएविकृत १८ सो का पुछ काव्य +-पति सतत (पु०) शिव, मददेव | का भाई, धूत में पराजित होकर जब पाण्डव वन में गये तब वहाँ इसी रादस ने उनका रास्ता रोका था। भीम झागे यढे और इस> साथ युद्ध करने छगे। अन्त में भीम ने इसे मार डाला। फकिल तसत्‌० (अ०) निश्चय, दृढ़, म्थिर | किक दे० (स्त्री०) चटक, चमरऊ, प्रभा, दीपछि, प्रकाश, पक प्रकार का नरकुछठ जिसकी कछम बनाई जाती है | फिलकना (क्रि) कित्तकारी मारता, दिए शा कर एंसना । किलफिश्वित्‌ तब ( घु० ) श्षियों का द्वाव विशेष, खडपर दी ५$ क्रिया विशेष, यपा--- “इरप, गरव, अभिलाप श्रम, दास रोप अर भीत । होत पृक डी सग हैं, किलकिडिचित्‌ यद रीत ॥” “-मतिराम | किलकिता (प०) किछकार का शब्द, यानरों ही पुक प्रकार की योली । किलकित्ताना दे० ( क्रि० ) किलकिल शब्द करना, गन करना गुर्रोना ] किलकिलाइट दे० (पु०) बानरों झा पूक्र प्रकार का शब्द गज्जन का शब्द | किलनो दे० (पु ) छद्द जन्तु चिशेष, कुत्ते का जुंवा। किलजिजाना (क्रि०) कुल्बुछाना । ४. [कलचाना किलवाना (क्रि०) कील ठुकवाना, तंत्र या मंत्र द्वारा किसी सूत प्रेत के इत्पासों के रुझवा देना, जादू यथा टोना करवाया | (रिचना । किला दे» (पु०) क्लोद, गढ़, दुर्ग ।---चंदी (स्त्री ०) च्यूड क्िलाना दे० (क्रि०) देखो किलवाना । किलकारी दे० (स्त्री०) चीख मारना, चहुत जोर से गर्जन करना [मारना प्रसन्नता के साथ हँसना, प्रसक्षतरा जनाने छी इदपएड चेशार्ये किस्तोल (०) कल्लोल, कलोल । किल्ली दे? (स्त्री०) अर्गज, कीली, बेड । क्रिडिविप तच्‌० ( घु० ) पाप, दोष, अपराब, अशुम, अनिष्ट, रोग ।-- (गु०) अपराधी, अधर्मी, पापी, शेंगी | किवाड दे० (प०) कपाठ, द्वार बन्द करने के पहले । कियार दें? (४०) देखो किवाड़ । क्िश तय तत्‌* (छु०) नवीन पत्ते, केमल् पत्ते, फूलों की पंखुड़ियाँ | किशोर सत्‌० ( पु० ) अवस्या विशेष, वाल्यावस्थ/ के बादु की अवस्या | १० से १९ वर्ष की ब्वस्था तक का बालक, बाढू और युच्ा की मध्य की अचस्था | [ झुबती स्त्री । किशे।री तव्‌० ( स्त्री» ) कृतारी, अविवाहिता युवती, फ़िक्किस्था तत,० (पु०) पर्वत विशेष, बानरराज बालि की राजघानी का नाम, यद पर्वत दक्षिय मारत में ६ । किसलय तत्‌० (पु०) देखो किशलूय । किस दढे० (सर्व०) कौन, किसकेश, किसी को | किसनई दे० (स्त्री०) किसान का काम, खेती बारी) किसमत (स्त्री०) भाग्य, अदष्य, नसीय। किसमिस्र वव्‌०(एु०) सेवा विशेष ।--ी (वि ०) रंग विशेष । फिसान दे० (०) खेली करने चाहा, कृपक । किल्ती दे? (सर्च०) किवके, किसका, किसी को । किस दे० (सर्व०) कविता में किस की जगह किस आयः आता है । फिसे दे० देखे किस । किस्ती या श्िश्त दे? (पु०) भाग, जैसे ऋणा झुधान को थोड़ा घोड़ा रुकया देना, हिस्से में देवा | किस्ती या किश्ती दे० (भन्री>) नौछा, छोटी रही सुन्दर नाव, पनछुदेया । ( श%३ ) कौडुक्‌ | किस्म (स्त्री०) जाति, श्रेणी । | ऋ्रिस्पत ( स्त्री० ) देखो “किससत्ता । किस्सा दे० (घु+) कहानी, आख्यायिका | फिहनी दे० (स्त्रो०) कढनी, ठिहुंनी । की दे० (क्रि०) करी, कर दी, कर डाली, प्रत्यच्, प्ठी विभक्ति का चिन्ह, “ का ” का स्त्रीजिझ । कीक (स्त्री०) चीख, चीव्कार, चिल्डाइट । कीट तत्‌० ( छु० ) देश विशेष, मगध देश, कृपण, बरिद्व, पापी । कीकड़ या कीकर दे० (पु०) बबूल्ल, कर्यीछा पेड़ | क्रीकृस तत्‌० (घु०) हाड़, अस्थि, हड्डी । कीका (एु०) घोड़ा । कीच दे० (५०) पहुः, कांदा, चहला । कीचक तव्‌* (पु०) बायु के संयेग घे बोलने बाला बॉस, फटा हुआ बा, केकय राजा का पुत्र, रास विश्येप, देल्य चिरोप । मत्त्यदेश के राजा विराद का सालू7 | यह बड़ा पराक्रमी था | इसके भय से अस्त समय के आरयः सभी बलवान डरते थे, यहाँ तक कि हुरयेधिन सी इसके भय से मह्स्य देश पर चढ़ाई नहीं करता धा। यह द्रौपदी को बुरी इष्ट से देखने लगा, इसका समाचार खुन कर भीम ने इसे भार ढाला । कोचड दे० देखे कीच | जिहिये, करिये । कीजिय या कोज्ञिये दे* (क्रि०) कर, कीजिये, करता कीजी दे० (क्रि०) करिये, कीजिये, करना उचित है । कीड तव्‌० (3०) रंगन व डइने बाल्य क्ृमि। कीड़ा, कीरा, पतद्न, सेल, काइट ।--प्न ( छु० ) सन्घरा अपच विशेष |--सड़ तत्‌० (पु०) न्याव विशेष जिम्तक्वा प्रयोग उस समय किया जाता है अब दे। व अधिक बस्तुएं एक रूप की हो जाती हैं ।-- मणि तत» (७०) जुगनू | [हुआ, घुता, किरहा | कीड॒दा या किरहा दे० (ग्रु०) कीद्युक्त,-कीड़ा खाया कीड़ा दे? (४०) कीट, पिलुयआा, नदी डे ।--ी ,स्त्री०) छोटी कीड़ी [कला हुश्ा | कीं दव० (गु०) श्राच्छव, विछिस्त, व्याप्त, प्रसारित; क्लीतनक्त तद्‌» (9०) मुलदटी, जेठी मछ | कोती (स्री०) कीति, यश, अशंखा । कोद्ठकू तत्‌० ( गुर ) किस मरद्ार का, केंसा, किस्मूत | न कनिन-नननन-ंन-म-मनन मनन मन श« परा०---२० कौ कीदूत्त च्त्‌्ई्‌ (4*) कैसा, किस प्रकार का । (६ रैशछ ) कुक्कुड कोल्ा दे० ( स्प्री०) छोदे की पूरी, छवा सूँटा ! कीना दे०/( क्रि० ) किया, परणेकिया, ( पु० ) बैर | कोज्ञाल तद० (पु०) जल, रक्त, श्रमत, मधु |-चथि शब्रुता ) करैनिया (वि०) कपटी । कीछ्ा या कीनना दे५ ( क्रि० ) फ्िनना, खरीदना, सूछप देकर लेना । कीरद दे « (क्रि०) किया, बनाया, रचा, सिरजा । कीरदे दे+ (क्रि०) करे, किये, करने से । [दामों के) ख्रेम्नत (स्त्री०) मूल्य ।-ो (जि०) सृक््यवान्‌ अधिक कीमिया दे० ( स्थी० ) रसायन । कौमियागर (पु०) रसायम बनाने घाकछा : कोर तत्‌० ( घु० ) शुक, पद्ची, तेवा, छुग्गा, छुआ, | वदेलिया, काश्मीर देश, काश्मीर देशवासी । कीरत, कीरती तद० ( स्त्री० ) कीलिं, यश, बढ़ाई, | प्रशंसा । कीरा तद्‌ ० ( ५० ) क्ीडा, सार, सप॑, कीडा, सुभ्गा | कोन तत्‌० ( पु५ ) कंघन, घर्णन, गुणगान, यशे- दर्शन । फिने से उपाजेन कर जीने वाजा | कीत्त॑निया तद्‌० (पु०) गापक्र, कथक, गाने चाडा, फीर्सि त्‌० (स्त्री७) स्किया, सस्कार, स्मरण करने गरेण्य काम, सुक्यानि, यश, पातुक! विशेष ---ऋर (गु०) प्यांति करने बाल्ले कम, प्रसियि पदाने बाले काम ।--पताऊा (१) सल्कमम की प्रसिद्धि, यश का चीन्द |--प्रिय (१०) यश चाहने बाला, फीलिंकामी ।+-मान्‌ या धान (पु०) कीक्ति विशिष्ट, यशस्वी ।-शेप (पु) मरण, यश की समाप्ति, दुष्कर्म के द्वारा सुकर्स का दद जाना। कीत्तित तत्‌० (पु०) कथित, ख्याति, वक्त, प्रसिद्द, कहा हुआ । कौछ्ष तव* ( पु* ) हा, मेस, काटा, रंडी, कील, डोहे का कटा, परेग, तिलुका। तृण, स्तम्भन पत्र “फटा (घु०) साक्ष समान, औजार प्रछृनि । कीलक तत* (६०) परेफ, सूँढा, सूँदी, कीक्ष, मंत्र का मध्य भाग, दूसरे मंत्र के प्रभाव क्रे। रोकने बात्या सत्र, ६० या में से पक वर्ष का नाम, सेलुविशेष, रोक, किवतद की किछ्ली, स्तोन्न विशेष $ कीक्षना दे* (छि० ) मन्त्र फुँडना, बन्द करना, स्कावट डाटना। (घु०) सपुद, सागर | | कीलित तत० (गु०) बन्द, रद, स्तम्मित वशीकृत । कील्ली तदू* (स्त्री० ) चक्र या पद्विये के ब्ीचो पीच की वह कील या लघ्डी जिस पर चढ़ घूमे कीश तत० ( पु० ) बानर, बन्दर, मकेठ, कि, लेगूर, सूर्य (गु०) नह, विदस्त -पर्णी ( स्थ्री०) अपामार्ग, चिरचिरा। | कीस दे ( ६५) गर्भ की थैली, जरायुज, बन्दर । | कु तबू० ( ० ) पाप, कुरसा, स्यूनता, अ्रश्पाधैक, मर्द, कुरिपत, भरध्म, खेद, निन्‍्दा या न्यूजता बोधऊ । जिन शब्दों » पदले थद्द आता है उनका अर्थ कमी बुरा, कभी न्यूज, कमी निन्दित हो जाता है। ( स्थी० ) पृथ्वी । कुंअर (०) झुडका, पुन्र, जपुश्र । कुष्माँ दे० ( घु० ) कप, इनार, इमारा । क बर तदू ० (घु०) राजा का बेटा, राजकुमार, राजपुत्र । कुचरि या कु चारी तदू* ( ख््री६ ) शाजपुत्रो, राज- कभ्या कु खारा सद्‌० दिन ब्यादा १ कुाँरी तद्‌० दिन ब्याही, अ्रविवाद्धित कम्या । ऊुकम तव (५९ ) [ क+झृ+मन्‌ ] बुध कमें, कुर्मित कर्य, दुशाचार, श्रन्याय, पाप, प्रनुचित, अघमसे (-- ( गु० ) कऋष्मित कर्मचारी, प्रापात्मा« दुराध्ला, दुराचारी | कुकुर (9० ) यादव उत्रियों की एक जाति खाँसी ( छी० ) सूपी खांसी ।--दुन्ता (वि०) २दे और श्रागरे निमले हुए दाते वाढा +-माद्ी (स्वी०) मरी विशेष जे पशुओं स्े चिएट जाती है -“मुत्ता (पु) कुष्रैंवा --ी (स्त्री०) कुतिया। कुकुरोंढी ( सी ) कुकुरमादी कुकुद्दी ( स्वो० ) वनमुर्गी, मुकड़ी, काले दाग जो बानरे की वाली पर लगने हैं । कुतडुड, छुकेद तब॒ु० ( ० ) भ्रद्णशित्र, तांम्र- चुद मुर्गा, कुच्दा, चितरगारी, खूछ, जशशचारी ॥ जालाड़ी ततु० (स्त्री० ) नली यायश्र मिवसे भरे ब्रतन का जछ रीते बरतन में जाय |--पांद ऋषुदक 5) तत्‌० ( धु० ) पर्घत जिसे अब कुकिंदार कहते हैं और जे गया से आठ कोस उत्तर पूर्व की श्रोर है। “मस्तक तत्‌० ( घु० ) चब्य, चाय (--ब्रत तत्‌० ( घु० ) भाद्रशुक्ला सप्तमी का किया जाने बाला झत विशेष --शिख' तत्‌० ( ० ) इछुम का पेड़ या फूल । कुक्कुडक तत्‌० ( 9० ) श्रद्धा पित्ता और निषादी माना से अत्पन्न धर्णसकुर जाति विशेष, वनसुर्गी । कुबकुर ततू० ( छु० ) कूकर, कुत्ता, श्वान ( बि० ) गठिदार । डिढ़ी सेढ़ी क्कड़ी । कुकाठ तद्‌० (पु०) घुरी लकड़ी, सही घुनी लकड़ी, कुक्रिया तव० ( स्त्री० ) दुष्कर्म, निन्दितकम, निम्वि- ताघरण, विग्रीत किया । कुत्ते तत्‌० ( पु० ) पेट, बदर । कुक्नी तत्‌० (स््री०) कोख, पेट, गुद्दा, सन्‍्तति [ कुख्याति तत्‌० ( स्वी० ) अपयश, दुर्नाम, भिन्‍दा । कुत्रह तत्‌० ( पु० ) सन्दग्द्द, खोटे अ्रह, दुखदायी ग्रह, श्रश्ुभ अद्द । [अधिक नीच लय रहते हों । कुप्राम तस्‌० ( घु० ) निन्दित गाँध, जिश्लन गबि में कुघाठ दे० बेडौढ, कुरूप । क्ुधात दे० कुसमय में मारता, समेस्थान में मारना । कुड्ढेंड दे” (६०) एक में एक सछुकुचित, एकट्ठा । कुड्डुडा दे० ( गु० ) बलवान, खयड झुसण्डा, स्वास्थ्य युक्त, दरप्तु्ट । कड्ड थम तद्‌० (9०) केशर, सुगन्ध द्ृव्यविशेष, रोरी ) कुछ्कूमा दे० ( घ० ) युलाल रखने के लिये छाख का 7“ छा हुधा पात्र । [ ब्रोज, छाती । कुच तत्‌० ( पु० ) [ कच + झल्‌ ] खत, थन, चूं ची, कुचकुचवा (५०) उल्लू । _[ घन का झुंड, वोढ़ी । कुचकुड्मल तव्‌० ( ४० ) स्तन के ऊपर का भाग, कुचन दे० ( छु० ) कृषिआना, तद करना, कुच का बहुवचन | [ छुपन्धि का चन्दन [ कुंचन्दन तव्‌० ( घु० ) छाक्ष चन्दन, रक्त चन्दन, बिना कुचर दे+ ( छ० ) निन्‍्दुक, दोपासुसन्धिग्सु, दोप हूढ़ने वाल। ।... [दिना, डुकड़े ढुछड्े कर देना । कुचलना दे० (,क्रि० ) चूर करना, मधघलना पीस कुचला दे० ( छ० ) औषध विशेष, विष विशेष । ६ १५४५ ) ऋश्चकी जाजपीिज-म्-िजजज-फ कक ंइक्‍्ंकफ-प---+-_--_-_-तत्त>त-त+__+ततततततलतहतहत.ञल.हलतहतहलुतह0 कुचाग्र तत्‌० ( पु० ) स्तन का अग्रभाष, चूची का बोंठ, मिटनी, भेडुला । [ बदार । कुचात्न दे- ( पु० ) कुरीति, घुरा चलन, कुटेव, कुष्य- कुचाली दे० (०) उपद्रची, खेटे चाठ चछव बाला । कुचाह दे० (5० ) अनिच्छा, अरश्ुम इच्छा, प्रेस रहित, कपट स्नेह, अशुभ बात, अम्ल । कुचि या कुची दे० ( ० ) छुद्मारी, बढ़नी, मार्जनी, शोधनी, भादू, कूची जिससे दीवार पर सफ्रेदी पोती जाती है।. [भाग, छोटी छोटी टिकिया | कुचिया दे० (पु०) छोलकी, कान के नीचे का कोमल कुचिलना ( क्रि० ) देखे। कुचछना । [ कम्थाधारी | कुचेत्वा तत्‌" ( गु०) बल्लीन, मजीन पस्त्रधारी; गूदड़ी, कुचेष्ट तव्‌० (एु०) बुरी चेष्ठ चाला ।. [बुरा माव | कुचेश तच्‌० (स्त्री० ) कुप्रमक्ष, बुरी चाल, मुख का कुचैला दे० ( वि० ) मैले कपड़े वाला, मैला, गंदा | कुचोद्य तत्‌* ( ० ) कुल्सिद प्रश्व, कुतक, खुचुर, बित्तण्डा । कुछ दे० ( गु० ) धकप, थोड़ा, एक आध ओर गाना ( वा० ) मूठी बात करना, दूसरे के स्थान में दूसरी बात --क (चा० ) थोड़ा बहुत, कुछ कुछ ।-से छुछ होना--का कुछ द्वोना (वा० ) बलटा पलटी, विपरीक्षा। |+--कुछ ( बा० ) थोड़ा थोड़ा +-न कुछ (बाण) घोड़ा बहुत, यत्किब्लित्‌ [-धहीं हो (वा० ) निष्प्रयाजन, न्‍्यर्थ |--हो (वा० ) जो कुछ हो, इसका प्रयोग उस वस्तु के किये किया जाता है, जो ज्ञानी हुई न हो और उसके जानने की आच- श्यक्षत्ा भी न हो । कुज तव्‌० ( धु० ) मझछगद्द, नरकासुर, मझ्ज्नवार, बृच्त, पेड़ ।--+ा तव्‌० (स्त्री० ) सीता, कत्या- यिन्री का एक नाम | कुजलीवन चत्‌० ( धु० ) कुण्लरवन, हाथियों का घन, जिस चन में श्रधिक हाथी हों | कुजति तत्‌० (मु० ) नीच जाति, अधस जाति, जातिच्युत, जाति-अ्रष्ट, दुराचारी, पतित व अधम पुरुष । [ अ्रशुम सेग । कुजोग तद० ( घु० ) भ्रनमेलल, संबन्ध, खोदा योग, कुत्धकी तदू० (ज्ली०) चोली, श्रैगिया, काचली, कूछा [ कुश्ि ( १४६ ) कठारी जप" कु दें" (५० ) पसर, धरलि । | कुटनी तर» ( स्री० ) कुदनी, दूसी, सम्देस ले ज्ञाने सुझिरा तत्‌+ ( स्री० ) कुज्जी, ताली । वाली |--पना दूती कर्म । कुश्चित तत्‌० (यु० ) धूमा हुश, टेढा, छुब्लेदार, कुठाई ( ख्री० ) फूटने का काम । घूंदर वाले । कुडिया तइ० ( ख्री० ) पर्यंगृद्ड, ठय निर्मित गृह, कुझ्जी तत्‌० ( खी० ) ताली, ऊुन्नी । ।. ध्वास फूस का बना घर! ऊुझ् नत० (धु० ) रुता आदि से ढका हुआ स्थान, | कुठित तत्‌० ( गु० ) [ कुट + इल्‌ ] बढक्, का, झता के द्वारा बना हुआ अ्र्रित्रिस गृह | तत्‌० देढ़ा, ऋर, दुष्ट, दुगाव्राज, कपटी, छूल्नी, खोदा । (द्री०) रत्ाध्टादित, उद्यान का स्थान, त्द़ जगद | ++ता (स्त्री०) कुटिल्त्व, वक्ता, शठता, अुरता। कुझड़ा दे” ( ६० ) एक मुसलमान जाति जो तरकारी “-न्‍्त करण ( गु० ) कप्टी, खठ, असत्‌ अन्त - फन्न फूल आदि बेचती है । करण, ऋ्‌र । [ टेढ़ापद। कुझर तत्‌० ( पु० ) हाथी, वलवान, श्रष्ठता | यह शब्द कुटिलाई तद्‌० (म्प्री० ) छुलछ। कप्ट, वक्ता जिस जाति वाचक शब्द के आगे जोड़ा जाता है, | कुटिहा तदू०”(वि०) ब्यग्य से हँसी उड्ञने वाला, हट उसकी भ्रधानता बत्तढाना है। जैसे--नरकुअर, कहने वादा | * प्रधान मनुष्य | यथा-- कुटी तत्‌० (स््री०) फेपडी, मढ़ी, छोटा धर |“-चक «८ कपिकुझरहिं बोलि लै थाये ” (पु०) पुत्र के अन्न से जीने बाला, चार प्रकार के +>रामायण । सैन्यासिये। में से प्रधम, द्रिदृण्डी संन्यासी ।- चेरे एक नाग का नाम, केश, देश विशेष, पर्वत विशेष, ( ४० ) पति विशेष संन्यास की प्रधम भ्रवम्था, हलुमान की माता प्रजना के पिता का नाप, कुटिक, छु्ती चुगुलसार । छष्पय विशेष, पौराणिक उद्ध, शुकप्ी विशेष | ऊैंटीर तत« (५०) छुदणद, कुदी । जिसने महयिं च्ययत के उपदेश दिया। इस्त | कुदुम तद्‌० (पु०) जाति बान्धव, सन्‍्तान, सन्तति, नक्षत्र, पीपछ, आई की सैख्या । परिज्ञन, परिवार, कुनवा, सानदान | कुजिका तत्‌» ( द्वी० ) कुजी, काला जीरा | कुडमी तद्‌० (५०) कुदस्य विशिष्ठ ॥ कुशी दृ० तत्‌० (स्री०) चाबी, ताली, स्याद् जीरा, | कुडुम्ब तत्‌« (पु०) देखो कुदम । घह पुम्तक जिसमें किसी दूसरी पुस्तझ का अर्थ | कुटुम्वी तत्‌० (पु०) कुनवेवात्ा, नातेदार ( मालूम हो, ' की ! | कुटानी (स्री०) धान कूटने की मजदूरी । छुठ तत्‌० ( घु० ) समूह, शिखर, साझतिझ शब्द, | कुटेल दे० (पु०) बरी आदत, छुरी बात | पर्वत शोदने घाली दथोड़ी, घर। कुद्टुनी तव्‌० (म्त्री६) कुटनी, दूती । कुटकी दे० ( खी० ) एक औपध का नाम, मसाब्ा। | कुद्मित तत्‌० (३०) [ क्द्ध+मा+क्त ] स्क्ियें की कुठज्ष सब्‌० ( पु० कुरैया का नास, इन्द्रयव, अग्रम्त्य एक प्रकार की झड्टार चेश्ठा । वधा-- मुनि, द्ोणाचाये, पुष्प विशेष । #जरईा सुकव अरु दु व सी, प्रगट, करे जे वाम) कुदनई दे* ( खी० ) कुटनापन, कुटना के गुण । परम ललित यह द्वाव ह, दत कुद्रमित नाम कुटना दे० ( क्रि० ) कटना, खण्ड करना, ठोड़ना, च्यशांज | चूरों करना |--( ३० ) भण्ड, संडवा, छुकमे के लिए बहकाने घाला ।--पन (पु०) स्त्री छे। पर घुरुष के पास और पर पुरुष छा घर झी ऊे पाप्त पहुचाने का काम 4 कुटनाना दे« (क्रि० ) फुसलाना, वश में करने | आज्ञाकारी बनाने का उद्योग करना | कुठला दे ( घु० ) नाज सपने की झह्ठी ४! बढ़ा पान्न, चूने की मद्ठी | कुठाउ, कुठाँय दे० ('त्रो०) बुरी जगईट, कृर्टावि । कुठाद दे० (धु०) घुरा साज, चुरा प्रयन्ध । कुठार तत्‌० (पु०) फरसा, कुछदाडी,.कुएद्दादा । छुटारी दत्‌० (स्त्री०) कुक्दादी, अन्न रखने का स्थान । कुठाहर ( श्श्७ ) कत्सा कुठाहर दे० (स्थ्री०) श्रसमय, वेढिकाने, मर्स स्थान, नीच स्थान । कुडकना दे० (क्रि०) कुडकड़ करमा, घूरना, गुरोना । कुड्मा या कुरमा दे० (ए०) कुट्धम्क, परिवार, कुनवा । । कुडय तन (एु०) पुर सेर का पचिर्ता भाग, अ्रनाज नापते का चार शअग्रुछ चौड़ा और चार अपुन्द गहरा नाप | कुढड्भ दे० (पु०) अशिष्ट व्यवहार, द्ानिकारी आचरण । कुढमा दे० (क्रि०) मत ही मन क्रोध करना, दूसरों की उन्नति देख मन हीं। मन दुखित होना, डाह । कुढव दे० (घु०) बेडव, कठिन, दुस्सर । ऋद़म (स्त्री) चिढ़ना, मन ही मन कुपित देना । कुद़ाना दे० (क्रि०) चिढ़ाना, खिन्नाना, जलाना । कुरिदत तत्‌० ( ३० ) [ कण्ठ + कल] ऑंयरा, गुल, मन्द्‌, निकम्मा | कुण्ड तत्‌० (६०) [ कुण्ड + अल्तू ] परिमाण विशेष, जलाशय, खड्डा, जलाधार विशेष, चौवच्चा | वारद ग्रशार के पु्रों में श्रे एक प्रकार का पुश्च । पत्ति के रहते उपपति से उत्पन्न सन्‍्तान को कुण्ड कहते हैं । हवन करते का गढ़ढ़ा, यज्ञगत्ते। कुण्ड त्त्‌० ( पु ) ऋर्णमूपण विशेष, पहिये के आहार का गोल गहना जो मींथ, लकड़ी कांच यथा गैड़े की खाल या सोने का बना दाता है श्रार जिले गारखभाथी साधु कामे। में पहनते हैं । कुणडलिया दे० (५०) एक भाषा के छुन्द्र का नाम, इस छन्द में १४४ आन्रा द्वाती हैं, जिस शब्द से प्रारम्भ किया जाय, उसी शब्द से इसे समाप्त करना चाहिये, बल छन्द में ए5 वाक्य कुण्डरूबत्‌ दुबारा पढ़ा जाता है, इसीले इसका नाम कुण्डक्िया है कुण्डल्ली तत्‌० (स्त्री०) छक्षविशेष, कचनार, ग्ुड़च, जलेवी, कुण्डछाकार, चक्र विशेष जो किसी के सम्मकाल-स्थित अहों के बतल्लाने के लिए बनाया जाता है । गेंडुरी, सौंप के बैठने का आसन [--- कस (पु) सांप, वरुण, सयूर, चित्तल हिरन, विष्णु, कुण्डलचारी + कुशिडन चत्‌० ( घु० ) पूक सुनि का नाम, नगर विशेष, चिदर्स नगर, वरार प्रदेश के मध्यवर्ती एुक चगर का काम, इसका दूसरा नाम विदर्भ मी हैं । बरदा नदी के किनारे पर यह बला हुआ था ; यह दो भायों में विभक्त था, असरीय कुण्डिन की राजधानी तमराबती थी, और दक्षिण कुण्डिन की राजधानी प्तिष्ठाननगसर था | जिज्ञीर कुयडी दे (स्त्री2) किवाड़ बन्द्र करने की साँकलछ, कुतका (०) डंडा, लेटा । कुतः तच्‌० (अ०) अन्नार्घेक, कह से, क्यों । [यछराज । कुंतच्ु तत्‌० ( अ० ) कत्सित शरीर | (8० ) कुबेर, कुतप तव० (ए०) दिन का झआराठवा स्राग, दिन का शआठ्वा मुहत्तें, एकाहिए नामक श्राद्ध प्रारम्भ करने का सम्रय, मध्याह्न, अ्रतिथि, सूर्य, अप्नि, द्विज, अतिथि, भाजा ।- कोल [छ०) गरसी का समय, मध्याह्न समय । कुतरना तद्‌ ( क्रि० ) दतिया चोंच से छोटे छोटे छुकड़े करना । [वच्चा ॥ कुसरू सदु० (पु०) काटने बाला, पिछा, कुत्ते का झुतको तल (०) झृत्खित तके, निन्दित तर्क, दुर्वल युक्तियों के सहारे का तर्क, विरुद्ध विचार ।-ी (गु०) कुतक करने वाला, हुजती । * कुतल तद्‌ ० (०) धथ्वीतक्ष, भूतलछ । कुतवार (ए०) छूतने वाला, श्रन्द्राज्ञा करने बाल्ने । कुवार दे० (पु०) असुबिधा, अंडलस । कुतिया दे० (ख्रो०) कुइरी, कुत्ती, कुत्ते की मादा । कुतुवस़ाना दे० (१०) पुस्तकाढूय | कुतुवचचुमा (पु०) दिशाएं बताने वाज्ञा यंत्र विशेष । कुतूहल तत्‌० ( पघु० ) 'पूर्व वस्तु देखने की लालसा, आमेद, कातुक, परिद्वास, उत्सुकता ।-- ने (यु०) अपर, अ्रदभुत, प्रशस्त, आमेदी, काठुकी, डचद्योगी | कुतण तद्‌० (पु०) निन्दित ठूण, घुरी घास | कुत्ता दे* (4०) कुकर, म्रामस्म (स्री०) कुत्ती ! कुज तन्‌० (श्र०) कहाँ, किप्ल स्थान पर ।--पि (क्षण) कहीं सी, किसी झिछाने ) [सलपनिकरण ६ कुस्लन तव॒० (8०) [ छुल्स + श्रनट्‌ निन्‍्दन, सत्संत, कुन्सा उद॒» (ज्यी० ) निन्‍्दा, कुष्छा, ग्दा, छुराई, अउज्ञा, अपमान |--ज्ञनक ( पु० ) निनन्‍्दा कराने बाला, ग्क्वानिकर । कुन्सित ( रेश्ड ) कुम्तिमाज कुम्लित तव्‌० ( पु० ) [ कुस+ छ ] चापषधि विशेष, | कुनाल ततू० ( घु* ) प्रसिद्ध मद्दाराजा अशोक के एफ कुट, के।रैया | (गु०) निन्द्रित, मल्लीन, नीच । कुध तू (९०) कप शरद दायी पर का विद्वावन ग्रास्तरण, द्वापी की झूर, रथ का ओडार, प्रात काल स्नान करने वात्ता घाह्ण । कृषरी या कुथली दे० (स्री०) मे।ली, फेधली | कुदकना तद्‌० ( #छ्ि० ) ऋूदना, फ़ादना, उदधरना फुदकना । [ विछ, दुँबी ) कुदरत ( ख्री० ) प्रकृति, देवी, शक्ति ।--ो स्वामान कुद्रना तद० (क्रि०) फादना, कूरना, इद्धृक्ञना | कुद्रा तदू 5 ( पु० ) दोटा छुद्रार जिससे मिद्दी खेदी जाती है, झुदाली । कुद्दान तत* (पु०) थुगा दान, खोटा दान, अनुचित दान, दे? डछटठने का स्थान, वृदने का स्थान । कुदाना तद्‌० (क्रि०) कुदवाना, केंघवाना, उद्धलवागा ] कुदार या कुदारी तदु० ( पु० ) भूमि खोदने का साधन, येकने, कुदारी, कुदाढू | कुदाल, कुदजी तद्‌* (पु७) दंग्पे कुदार । कुद्न रत ( पु० ) दुर्दिग, मेघाच्छादित दिन, खरे दिन; दु ख के दिन । बुद्दश्य तव्‌० (गु०) अभष्य, ऊुरूप,झद॒स्यप | कुट्ट्टि चत्‌* ( खो ) पापदष़ि, बुरी नजर, डरे आराय 7 से देखना । रिद्वित देश । कुदेश तत॒० (१०) अमुस्थकर देश कुश्सित देश, गग्मा कुद्दात्त तत्‌० (१०) देखे कुदार । कुघर तह" (३०) शेर, पर्वत्त, पदाढ़, शेपनाग [ कुधातु तत्‌" (धु०) बुरी घातु। लेइा, लाद, यधा-- # पारम १रिस कुधातु सोहाई | ?-.. रामायथ फुधारा तन | म्त्री० ) दु््यंवदार, कुरीति, अस्म्ए चात्रय । कुप्न तब्‌* ( पु० ) देखे कुचर । कुनकुना दे० (वि०) गुनगुना, कुछे गरम | कुनख त३९ (६०) रोग विशेष, कृमित नख युक्त ॥ >ी (गु०) रख रोगी, बिंपदे नश्व याढा। कुनवा दे* ( धु० ) कुटम्व, परियार, कुछ | कूनदी ( पु० ) एक हिन्दू जाति जे अधिक तर खेती याएही करती है। [दुद्यरित्रा रम््णी । कुनारी तद६ ( स्थी७ ) हुए स्वरी, अष्चचरिता स्त्री, बुच्च का नाम, पटरानी पद्मावती के गर्भ से यह उत्पन्न हुआ्ना था, यह भ्रतिशय सुन्दर था, धंतपएुंद इसकी सैतेल्ती मा सिप्यरद्ा इस पर श्रासक हुई और अपना दुष्ट अभिप्राय उफसे प्रकाशित किया। परन्तु कुनाछ ने उस्ते साफ स्वाफ जवाब दे दिया! इस कारण कुद्ध होकर बत्तने प्रतिज्ञा की कि कुनाह की भ्रसि मैं निकलवया लूँगी * पुक समय मद्दा शज्ञा अशेज् विद्रोह शारत करने के लिये तचशित्ा गये और त्तथ तक के लिये देख रेश् तिष्यरपा, ( उनकी दूसरी स्थ्री ) के साप गये। तिध्यादा ते इसे सुयोग समझ कर, श्रपने प्रधान कर्मेचारी कै कुनाल्ष की अर्सि निकाटने # क़िम्रे ध्रादेश दिया । इसे राज़ाशा समझ कर, कुनाल ने अपनी भर्फि क्थय निकाल दीं इसकी स्वर जब श्रशाक के छगी, तब उन्होंने तिध्यरक्ता के बध की आज्ञा दी। परन्तु इनाछ ने बढ़ी प्राधना करके अपनी विपेणी सौतेक्षी माँ की रचा की । [ स्पवद्दार । कुनोति तब्‌० ( स्थ्री०") घन्याय, कुवियार, झलुचित कुन्त ततु० ( घु० ) माला, बर्छी, पानी, प्र, राजा विशेष,, कुन्ती का पिता, गवेधुछ, गौडिशा, जूँ। अनप | कुम्तेल वत्‌ू० ( पु० ) इंश, बाल, शिस्रां, देशविशेष का माम जो चोछ देश के इतर की ओर है। कुरुगढ़ के दक्षिणस्थ कक्यातदुर्ग नामक मगर कुस्तर देश की राजघानी थी। इस समय के हईैदगयाद राज्य के दृद्धिण पश्चिम का भाग ही किसी समय कुन्तछ देश था। प्याहा, जौ, घुगन्घवाला, इल, चुतघार, रापविशेष, बहुरूपिया, श्री रामचन्द्र जी की सेना का पुक बानर+£ धर्दन ( पु० ) सह्राज बूच, भंगरिया । कुन्तवर्दन ( छु० ) भंवरैया, भक्राज | कुन्तिमोज्ञ तब» ( घु० ) पुझु राजा का नाम, ये राशा सूरछेन के पिया की भढ़िन के आइके थे; पे निसस स्तान थे, इसी से हन्दोंने शूरसेन की कन्या एपा के गोद लिया था। इसी कारण छवा का इुन्‍्ती नाम हुआ था। म्रद्ामारन के युद्ध में यइ सम्मिन लि टुए ये | क्न्ती कुन्ची दत्‌० ( स्त्री० ) राजाशूरसेन या चसु की छन्या, पाग्डु के साथ इसका चिवाह हुश्ला था। नारद मुसि ने इसे वशीकरण मन्त्र चवकाया था, जिसझे प्रसाद से झुन्ती देवताओं को बुल्ला लिया करती घी । यह युविष्ठिर, अजुत और मसीम की माता थी | “ कुन्द्‌ तव्‌० (६०) पृष्पब्॒क्ष विशेष, कुन्द का फूल, एक प्रकार का श्वेत घुष्प, कमल, पर्यतत का न्यम, सवनिधियों में खे एक, नौ शी संख्या, विष्सु, खराद । (वि०) मौथरा, गुठठल्, मन्द, स्वब्ध । कुन्द्स दे० (पु०) बढ़िया खालिस सोने का पत्तला पत्तर जो नमीनों के जड़ने में काम आता है। अच्छा सेना, विशुद्ध सोना | छुपति तद्‌० (घु०) दुए पत्ति, दुष्ट स्वासी । कुपढ़े दे" (बि०) अनपढ़, मुख । कुपथ तत्‌" ( पु० ) कपँथ, कुमार्ग विषध, कुस्सित मार्ग, हुव्यंवद्वार, दुशचस्ण ,गामी (गुर ) हुराचारी, पापात्मा, पापी । कुपथ्य तत्‌० ( ग़ु० ) श्रपथ्य, भनुचित भोजन, समय ओर प्रकृति के विरुद्ध भोजन, बद॒परहेजी । कुपराशम तव्‌० ( छु० ) इत्सित मन्‍्त्रणा, सिलावन, घुरी सब्याह | कपान्न तत्‌० “गु०) अथेग्य, अपाध्र, अनुपयुक्त । कूषपित तत्‌" (गु०) क्रोधित, कोपित, कोपयुक्त | कुपुञ्र तत॒० (9०) कुसन्तान, दुराचारी पुत्र, कपूत ! कुपुरुष तव्‌० (ए०) चिकृष्ट मजुष्य, श्रधम मजुष्य, समाञ्ञ-बहि५्कृत पुरुष ! छुपूत तच० ( छु० ) कपुन्न, कपूत, कुसन्तान | क्प्पा दे” ( झु० ) चर्मम्राण्ड, चाम का बना हुआ थी था चेक रखने का बरतन, (स्त्री ०) कुप्पी । कुव था कूच दे* (ए०) छूबड़, कुब्ज, पीठपर का ढीछू । कुबजा तदु० (पु०) कुंबढ़ मनुष्य । कुतड़ या कुबड़ा दे (३०) देढ़ा, कष्न । 'कुवड्डी (खी०) फुक्की या टेड़ी मूठ की घड़ी । कुबरी (ख्री०) कंस की एक दासीका नाम जिसका छुबढ़ा पन भ्रीकृष्ण ने दूर किया था, कब्जा ! कुबुद्धि तत्‌- (वि०) मूल, डुडेंद्धि । कब्ज तव्‌० देढ़ी पीठ, अपामारे, छरभीरा | खोदा ( श्ट्टृ६ ) कुमारिका कृब्जक ठत्‌० (पु०) मालती , [ चारिका का नाम । कुब्ज्ञा तत्‌० ( ख्री० ) कुषड़ी ख्री, राजा कंश की परि- कुब्जिका तत्‌० (स्त्री०) दुगाँ का नाम, आद बर्ष की ' लड़की । कुवत तत्‌० (स्त्री०) निन्दितत बाता, निक्षप्ट वार्ता | कुमार्या ठत्‌० (स्त्री०) कलही सी, ऋगढने चाही स्त्री, कुछटा भायों । [ इस्वा भाव । कुमाव तत्‌० ( पु० ) निन्दिन अ्भिप्राय, कुदज्ठि, कुश्ृत तत्‌० (१०) घुरा नौकर, शेपनाग, पहाड़, सात की सेख्या | कुमर दे० (स्त्री०) साहाय्य, सदद । कुमकुम वद्‌० (पु०) केशर, कुमकुमा | कुमकुमा तदु ० (१०) छाख का बना पोज्ा तथा गोल या चिपटा जट॒द जिसमें अबीर था ग्ुठालक भरा जाता है । इसे दोली में छोष पुक दूसरे पर मारने के काम में छात्ते हैं । ऋुमणडल तत्‌० ऊुत्सित मनुष्यों का समूह, धरा- मण्डछक, प्रधिवीमण्डल । कुमति तव्‌० (स्त्री०) भ्रल्य,बुद्धि, हु्डद्धि, हुमेति । कुमद्‌ नदु० ( पु० ) कुल्खितमद्‌. दुरभिसान, कप्तकत विशेष । [ दोन वाह्वा कम । कुमद्नि तद्‌० (स्त्री०) कमल विशेष, रात को विकसित कुमस्नया ठत्‌० (स्त्री०) अ्सत्परामश, अधम सम्मति। कुमन्त्री दत्‌० (धु०) अ्रसतूपरामर्श देन बाला | कुमाच दे० ( घु० ) पुक प्रकार की रोदी,, एक प्रफार का रेशमी घस्त्र, गंजीफ के पत्ते के पृक्ष रंग के भी कुमाच कहते हैं । कुमार तत्‌० (पु०) कार्तिदेय, नाठकेक्ति में युवाराज, पाँच वर्ष का छढ़का | जैन विशेष, कुर्श्नारा, भ्रवि- बाहित्ता वाजक, राजपुत्र. सिन्धुनद, सुग्गा, चोखा साझा, सनक सननन्‍्दुन आ्रादि बालखिल्य ऋषिगण। अदह् विशेष, मंसलअढ, साहस, अश्निपुत्न, अपनि, प्रज्ञापति विशेष, बुढ्द विशेष --पाल्त ( पु० ) शालिबराहन राजा, देखे शालिबाहन । कुमारिक्का तद० (स्त्री०) कुम्तारी कन्या श्रवियाद्विता, मारतवर्ष का एु5 भाग विशेष, डपद्दीप विशेष, जो भारत के दक्षिय की ओर है, जो भारत का पुक खण्द सम्का जाता है ) सिंहल राज की छत्या का ्ड पु कुमारिल शाज्ा की क्‍न्‍या। इसछा शरीर साधारण स्त्रियों का | सा था, परन्तु मुँह बकरी का । इसने अपने प्रयत से पुन मनुष्य का मुख प्राप्त किया / ( स्च्न्द पुराण देखे ) । कुमारिल तव्‌० (पु) विष्यात दाशनिक पण्डित और | बेदो का भाष्वकार । ये श्रादि शट्टराचा्य के समय । में उस्पन्न हुए थे। इन्होंने मीर्मासावातिंक और | तम्प्रवातिक नाम हे प्रग्य लिखे हें श्रार येही शवा- ' भाष्य तथा श्रौत सूत्रों के दीक्षाऋार मीदै। ' जिस समय यद उस्पन्न हुए थे, इघ समय भारत की स्थिति विधित थी । बौद्ध धर्म का बोलराता , था। कुप्तारिल ने बौद्ध शाघ्त्र का ध्रध्यप्रन बोद साधुप्रों से किया, पुन उसका खण्डन किया । शुरु- | द्वोद के पाप से छुटकाटा पाने के लिये प्रयाग में प्ुपानल में उन्होंने अ्रपने शरीर के भल्‍्म कर डाला । जिप समय ये अप्नि में श्रपता शरीर मध्म कर रहे थे उस समय शझ्टराचार्य इनई पास भेंट करने के लिये पहुंचे ये | यह दर्चिण देश में उसतन्न हुए थे। इनका समय सन्‌ ६५० से ७०० ई० के दीव निश्चित किया गया है । कुमारी तत्‌० (स्त्री०) दस वर्ष छी कन्या, बिनव्याही, अविद्याद्िता, जम्बूद्वीए, घीकुभार, नवमलिका, बडी इलायची, श्यामा पढ़ी, जानकीजी *ा नाम, पार्वती, दुर्गा, भारतवर्ष का एक श्रन्तरीप, चमेज्ञी, सेवतती; भूमि का मध्य भाग । शाकद्वीपी सप्त सरिताओं में से पुर, अपरामिता ।--प्रज्ञा या पूजन (स्त्री० ) सन्प्रशास्त्रोक्त ध्ाराधना कुमार्ग तत्‌० ( १० ) कृपय, छुचा,, दुराचरण, दुर्ग पथ, भधर्म ।--गामरी (वि०) दुगचारी, अधर्मो । कुमार्गी (वि०) देवा छुप्रागेगासी । 5 कमद्‌ या वुघुद्‌ तत॒० (घु०) श्वेत कमत्, रक्त कमल, कुमोदिनि, कई, चांदी, विष्णु, राम की सेना का एक यन्दर | भाठ दिग्गजों में से नेक॒लय कोण का दिग्गज । देय विशेष, द्वीप विशेष, कपूर, नात ( १६० ) _........................._-.ह.............. नाम, सिदलेश्वा शतशद्ग की कन्या और मात- | झुमुद्नी या कुम्तोदिनी तत० (स्रौ०) कुमुदयुक्त सरो- क्म्मी बार, कमलिनी, पद्मिनी, निलोफर --पति तव० (घु०) चन्द्रमा । कुम्म तत्‌० ( घु० ) घडा, कलश, घट, हाथी का मस्तक, एुक राशि का नाम, मान जो ६४ छेर का होता है । पृक पर्व का नाम, गुग्गुल, वेश्यापति, प्राणायाम के तीन भागों में से एक, पुक गज्ा का नाम, यद्द मेवाड़ ऊे बाज्ञा मुकुछ के पुत्र थे | मद्दा- गाजा मुकुछ के छुक्क से मारे जान पर १४१६ ई० में कुम्म सवाड के मद्ाराणा हुए। यह विश्यात शूर और पण्डित थे । ज्यदे३ के ग्रीवयोवि-द्‌ की पु टीका इन्होंले लिएगी है। सका का रहा मदसूद अपनी और गुजतत के राजा की सेना लेकर चित्तार पर चदढ आया | कुम्म ने बडी मराग्यता के साथ अपनी बीशता प्रधाशित की । शत॒सेना का इराकर, मदसूद के इन्दींन कैंदू कर लिया | पुन बसझे साथ राणा कुम्स का ब्यवद्वार दपापूर्ण ही रदा । महमूद ६ मद्वीने तक वित्तौर में ढद रदा । दिल्ी के वादशाद ने जब चित्तौर प चढ़ाई की उध समय मदसद ने अपनी जाति के विद तत्दआर उठाई थी --ऊ त्तव० (प०) प्रायाय/म की एक प्रक्रिया जिसले सांस खीच कर बाधु का शरीर के भीतर रोढते हैं ।--कर्ण (प०) राइस विशेष, रावण का छोटा भाई ।--कार ( पु ) शूद्धा के गर्म से और विश्वकर्मा के असर से उत्पन्न जाति विशेष, कुम्दार, मु॒र्गा। -कारी (स्वी०) कुम्दारिन, कुल्थी, मैनसिल (“-ज (३०) कुम्म से उपत्, वशिष्ट और भगत मुनि, मोणाचाय |--बोर्य (१०) रीडा ।-सम्मत (१०) कुम्म से रतपन्न मद्र्चि वशिष्ठ, अम्स्य भुनि, होयाचाय । [ बेरवा । कुम्मा तव्‌० (९०) थोदा घडा, पक राजा का नाम, कुम्सिका तद्‌« (स्त्री०) जल का पुक प्रकार का तृथ, बढ विशेष, वेश्या, कायफन्न, नेत्ररोग विशेष, पर चढ् का पेड, क्िक्ञ का रोग विशेष । विशेष, विष्णुपरिषद विशेष, केतु तारा, सक्लीत्त का पक त्ताल | ( वि० ) कजूथ, लाढची |--वन्छु (६०) चन्द्रमा, कमुद्‌ का सित्र ऋष्मिनी दे (स्तोौ०) शप्वी, भूमि, जमाल गोटा । कुम्मी उत्‌० ( ख्री० ) ठयविशेष, ज्ञो पानी पर जमा डुआ दोना है ( पु० ) दााथी, मगर, गुर्युद का कुम्पीनस इच्, एक विषेज्ञा कीट, मछली विशेष, बालकों ज्ये क्लेश देने वाला राक्षघ । कुम्भीनस तत्‌+ (५०) फणधघर, सर्प, साँप, सवण । कुम्भीपाक तव्‌* (छु०) नरक विशेष । [ मपर । कुम्भीर तत्‌० ( घु० ) जलजन्तु विशेष, नक्क, मकर, कुस्मोरुणा तत्‌० (छी०) औषध विशेष, निर्तोंत । कुम्दड़ा तदू० (ए०) फल विशेष, पेठा | यह ढो प्रकार का होता है । सफेद रंग का और पीले रंग का, पीले रंग के झुम्हड़े के कदूदू या काशीफल भी कहते हैं | कुम्हडौ।री या कुम्हरारी तदू० ( स्त्री० ) पेडे की बरी । कुम्डल्ञाना दे? ( क्रि० ) मुरसाना, सूखना, रह बदल जाना ॥ कुम्हार तत्‌० ( पु० ) कुछाज, कुम्मकार, घढ़ा आदि मिद्दी का बतेन बनाने बाला । ( ख्री० ) झुम्दारी, जन्तु विशेष, कुम्दाार जाति की खो । च्ुषश: तत्‌० (०) हुर्गंस, अपयश, दुष्क्रीतिं | कुयाण तत्‌० (०) दुष्ट्योग, दुःखदायक मद । कुयाशी तत्‌» (पु०) विपयाजुरक्त, विषय भोगी । यधा-- “पुरुष कुयमोगी ज्यों उरगारि, मोह विटप नहिंसकत उपारि? +-रामायण । कुरकुरी, या कुकूरी दे” (वि०) भरभ्री ' कुरदू तव्‌० (घु०) बादामी रह्र का दिरन, स्व, एण (वि०) घुरा रक़् ।--+नयवा या नयनी (ख्रो०) स्टयनयनी, सुगलोचनी ।--लामि (प०) कस्तूरी, स्टगवामि । कुरणटक तत्‌० (पु०) श्रोपध्चि बिशेष, पियवसा | करता दें० (पु०) प्ररुषों के पद्चिलमे का सिडा हुआ बस्तर विशेष | कुरती दे० (स््री०) ख्रियों की फछुद्दी । करवक तत्‌" (पु०) औपधि का नास, कटसरैया । कऋरमा दे० (पए०) कुनवा, घबाना । कररतत्‌० (०) कुरलपत्ती , उत्कोश, वक, बघत्ठा, कोच । कररी तत्‌० (स्त्री०) पक्षि विशेष, कुज, जक्ष के किनारे रहने वाली एक चिड़िया, चील्ढ, मेड़, मेषी । करसी (स्त्री०)) काठ की बनी वैठकी विशेष |--नामा (पघु०) वंशाबली । [ करना, ढेर छगाना | कुराई दे० पाव फँसने मेग्य, विलम्ब, उक्टना, राशी ( एह१ ) कुल कुरान (३०) सुसलमानों का घर्म अन्य । यु कुराद तदू ० ( स्त्री० ) कुप्ता्ग, छुरी राह । कुरिया दे० ( स्त्री० ) फूस की कॉपड़ी । करी तत्‌० (पु०) जाति, कुछ, घराना, सत्र जाति अभेक जाति, अरहर की फ़ली । [[ कुच्यवद्वार, कुचाल । कुरोति दत्‌० (स्त्री०) निषिद्ध आचरण, कदाचार, कुरीर तत्‌० ( घु० ) मठी, मढ़ी, रतिक्रिया, रमण, मैथुन । कुरु लव० (०) चन्द्रबंशी राजकुल, देश विशेष, जो अत्तर भारत में है । पृथ्वी के नवल्नण्ड में से एक खण्ड, कर्ता, भरत ।--क्रेतु (छु० ) दहुर्केधन, युधिष्ठिर, परीक्षित ।--द्ोंन ( 4० ) दिल्ली के पास का एक मैदान, जहाँ कौरव पाण्डवों की लड़ाई हुई थी, यहाँ इसी नाम का पर सील भी है जो थानेश्वर के दृक्षिण की ओर है । यह सरस्वती नदी के दक्षिण, और दृषद्वती नदी के 3त्तर है ।-- जञाड्ल तच्‌० ( घु० ) एक प्राचीन देश जो पाध्वाछ देश के पश्चिम, था ।--पंति-राय (पु०) करुराज, हुर्येधिन, युधिष्ठिर ।--घंश ( ४० ) राजाकुद की सब्तति । [ अजीण । कुरुचि तत्‌० (स्प्री० ) नीच चासन/ हुरमिलाष, कुरुषक तत्‌० (पु०) श्रोषधि विशेष, करबक | कुरुत दे० (०) घूँगुर, चिकुर । कुरूप तत्‌० (५०) झत्ल्ित श्राकृति, कदाकार, कुटौल भदेखा, बद्खूरत, बेढंगा ! कुरेदता तल्‌० (क्रि)) खुरचना, करोदता । कुर्कुद ददे० (पु०) कड़ा, साइन, घुहारन । कुकटी तत्‌० (छु०) सेमर छूच । कुर्क्नाल दे० (स्त्री०) कूद, कर्लाच, चौकड़ी | कुर्व्या दे” (घ०) कुष्ज, कुपड़ । [ करती है । कुर्म्मी दे” (०) एक जाति का नाम जो खेती का काम कुर्मक तदू? (पु०) सुपारी । कर्याल दे० (स्त्री०) सुख, आराम, चिन्ता-रद्धित ।--में ग़ुलेल लगाना ( वा० ) निशश होना, सुख के ससय दुःख । कुर्स दे० (स्त्री०) हेँगा, पटरा, सुद्ागा, करकरी, इह्ढी । करी तत्‌० (स्त्री०) फेसल अ्रस्थि, उप-श्रस्थि । कुल तव्‌० (पु०) गोत्र, वंश, जाति वर्ण, स्वजातीय श० प्‌०७--३१ झुलकुला जौ ++++++++++++-+++_+त+++]++++___+__-................ गण, नंद समड, घर, सक्रान जैसे ऋषिकुछ द० (बि५) समस्त, सब, सार, पूरा ।--कशड्क (३०) झुपुत्र ।--कन्या (स्त्री०) कुलीना कन्या । -+ऊकर्म ( घु० ) परस्परा का व्यवहार, कुल्यचार, कुलक्रिया |--कारति तदू० (स्त्री०) कुछ की सर्वादा, कुछ की कज्ञा ।-घाती ( गु० ) इझछ भरश४ (--ज्ञ ( गु ) कुनीन, सब्कुलादुमव, स्ेशी१ |--तारण (ए०) सुष॒त्र ।-द्रीही (गु०) कुमार्पी, चंशदूप |--घर्म (पु०) कुछ्त ब्ययद्वार कुठछचा। [नाश (घु०) सन्तानहीनता, कुछभ्रष्ठता ।--पूज्रर (४० ) पुरोहित, कुन्नदेद * -+ छू (स्प्री० ) पततिप्रता, कुबस्त्री “-वाडू ( गु* ) कुछताराक, घरधालू। कुलकुला दे० (पु०) कुर्यय, कुछकुची, गण्टूप ! फुलकुजाहा (क्रि] कुअकुछ शब्द काना | ( धा० ) आँतों का कूतकुलाना, श्रयत्त भूय। होना ) कूलकुली दे+ (एत्री०) खुनत्ी, चुउबु की । कुलचा ३० (३५) सूछ धन, पूजी । [ मूझ विशेष । कुलएशन दे० (६० ) भ्रोषधि विशेष पान की जद, कुलत्तणा वद्‌० (६५० ) इुचाक्ष, दुधध लचण कूलक्ञणी तव० (स्त्री० ) दुराचारी, धुराचारिणी । फुलक्ष तत्‌3 ( पु० ) राप, भाट, कुछाचार्य | कुलदा तत५ (स्त्री०) भ्रसठी, व्यमिचारिणी । कुजथी तर्‌५ ( स्प्री३ ) भ्रग्नविरेष, कठाई विशेष । कुलयुल्ञाना दे* (क्रि७) खुजकाना, कह मब्यना, चुटबुलावा | [ बछाइर ) औुजबुलाइट दें० (स्त्री० ) कीई रा चक फेए, सुल्र कुलमा दे ( पु० ) रक्षचा, भोजन विशेष । जुलदन्त तदु० ( गु« ) कुज्पात्‌, कुलीन, श्रेष्ठ ३ ुजपन्ती तच (स्त्री०) अच्छे घराने की स्त्री] पतियता, बड़े घर की बेटी ॥ चुलपतद तदू३ ( धु० ) कुछीन, सर्देशज । फुलद हर० (६५ ) दोगी, इुच्ाह, सिर पर पहले का पक कपड़ा 7-ये (स्त्री ) टोरी । कुजा तब ( स्त्री० ) सनशिक्ष, भौपदि विशेष | कुलाच दे (३०) दद॒वा, फदगा --मारना चौकड, चुल्ाँयिटा, फौडना। ऊुताइना सत्ु७ ( स्त्री० ) कछीच स्ट्री ! ( ₹#६२ ) कुवलयापीड 3 की 32: व अकबील 20% बकरी कुल्लाज्ञार तत्‌० ( पु० ) सत्यानाशी, कुछ ताशकारी | कूलाचार तत्‌« ( घु० ) वशघम, कुछरीति, हान्निक रीति। कुलाचार्य तत्‌० ( एु० ) बंशगुरु, पुरीहित | कुत्नाल तत्‌० ( ५० ) कुम्दार, कुम्मझार । कुलाड तत्‌० ( घु० ) देखे कुलद। कुलाइत् तद्‌ू० ( पु० ) केल्ाइब, बुवृदल, शो। । कालि [ अर ) सम्पूे, कुछ, सर । कुर्ििया दे० [ स्थ्री० ) कुझहा, सार, छावा ]-में गुड़ फ़ीड़ना (धा+) गुप्त छाप करना ] कुनिण तत० (० ) हीरा, बच्च, श्रीतमह्ष्णादि मंगवद्वतारों के पैर का चिन्द्र |--घर तद्‌» ( इ० ) इन्द्र, बच्ध घने बाबा । कुल्ती दे० (०) रेल के स्टेशनों पर जो मजदूर धमदव उदाने के रहते हैं, मजबूर, बोक ढोने बाला । कुलीन तव्‌० (गशु० ) भ्रेष्टवशोद्भूत, सदृशजात | कुलतीनाई तन्‌० (श्री०) कुलीना, उत्तम कुल । कुत्चुफ दे० (०) ताला | कुल्ू दे (एु०) एक प्राचीन देश | कुल्लेत (छी०) खेल, फोड़ा | | करने की एक क्रिपा। कुल्ला दे० ( धु० ) झुँद् में पानी मर कर मुखर को साफ़ कूछाऊल्ली दे० ( ३० ) मुखारी, कुछाची, गरारा । कुज्दड़ दे* (३०) करई भेजना । कुज्दाड़ो दे+ (ज्री०) झुठार, रौंगी, चसूछा । फुह्दिया (श्वी०) थोटा कुप्दड़ > फुपक्नय तत्‌० (पु०) श्वेत कम, नीलेफर (--व्यि ( ६० ) पु शाजा का नाम, यह महाराजा शावस्त का पौध और शददृश्व का पुद्च था, इंसडे पिता- मद धाबस्त ने श्रावस्ती नामक नगंदी वसाायी थी । मदाराज कुवछयाश्व ने उत्तड महर्षि ही आज्ञा से घुन्घचु भनाक रास को मार डाढा, तव पे इनका इन्घुमार नाम पढ़ा | ( २) शदुिद्‌ वामक राजा का पुत्र, इनका नाम ऋतुष्यज्ञ थात। कुबढप नामक घुक तेज घोड़ा इनझे पास था, इसी कारण इनश कुबछयाश्द कहते ये] गर्बयें राज की कन्या मदालया इनसे व्याद्टी गयी थी । कुपत्वधापीड तव॒5 (६० ) [ कुबकप क था क पीड मे हस्ति रूऐ पुर दैवय, कसराज का पुक दापी । कुवाक्य कुवाक्य या कुवाच्य तत्‌ु० (यु० ) परुष कठोर बात, गाली । कुवादी तछ््‌० ( गु० ) छुए, कुवचन वक्ता, सुंहफट। कुवार (०) कुआर, आश्विन श्रसेज । कुवारी (स्त्री०) अश्वित में होने चाछा घान कुमारी । कुषिक्रम ततु० ( प० ) श्रत्याचार, उपत्षव, शह्ता! जनी (ग्रु०) उम्रद्रवी, दु्जंच, दुरात्मा, शठ | कुविचार तत्‌० (पु०) अन्याय विचार, अयधार्य विचार, नीच चिचार । कुविन्द तव्‌० ( घु० ) तम्तुवाय, कपड़ा बनाने चालू, शूद्धा के राम और विश्वकर्मा के औरल से जाति विशेष, जुलाह्दा | [ पुत्र] कुविन्दु तत्‌* ( छु० ) नीचवीये अधसमपुन्र, हुए का कुविद्दड्ड तत्‌० ( धु० ) अधस पक्षी, वाज पक्षी कुबूत्ति तल्‌० ( पु० ) अधम ब्यापार, मीच कर्म, निन्दित वासना । कुवेर तत्‌० ( धु० ) यद्राज, घनेश, किन्नरेश, घन का देवता, देवताशधोों का कोशाध्यक्ष, सहर्पि पुछुछय का पोता, और विश्रवा के ये पुन्न थे। यक्ष नामक भूतयानि विशेष के ये राजा और चौथे व्योकपाछ हैं | इनक्की राजघामी का नाम श्ररका है | इनका नाम वैश्नवण है । परन्तु इनके छ्तिशय कुरुप होते के कारण इसका सास कुदेर पड़ा। इनके तीस पैर थार आठ दाँत हैं, और देज़ने में मी अत्यन्त कुरूप हैं। महपिं भरदहाज की कन्या देवबरिंनी के गर्भ से यह उत्पन्न हुए थे | कुश तत्‌० (४०) [ कुश्‌+ भरत ] स्वानाम सिद्ध तण विशेष, दुसे, छुशा, द्वीप विशेष, महाराज श्री रामचन्द्र का पुत्र; यह महर्षि वाल्मीकि के तपेथलछ से सीता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। इनकी राजधानी का नाम कुशावती है, जछ, सप्द्वीपों में से एक द्वीप, कुली, काल |--ध्वज्ञ ( ३० ) मिथिल्ला के राज़ा का नास, राज़ा हस्व रोमपाद के यह पुत्र थे, सीतादेवी के यद् चाचा आऔर सीरध्चजण अनक के छोटे भाई थे। साण्डवी और शुतकीतिं नाम की इनकी दो कच्यायें थीं, जो यधाक्रम भरत और शब्रुद् से च्याही गई' थीं । --कठु ( 8* ) राजा जनक के माई का नामी ,. ६ हई३ ) न न मानक 3 कान हनम2: 0, 42: न आप: 20 2 विन नडि मई कुशेशय जज हक मलिक धमकी हम कमल न “+चाम ( ६० ) महाराज कुश का उुत्र, प्रजापति बह्मा का पक पर्मक्रमी पुत्र का कुश नाम था, उसके चार पुत्र थे, उनमें एक का नाम कुशनाम था। कुशनाभ ने सहोद्य नाम का एक नगर बलाया था। कुशकम्िडिका तद्‌० ( स्री० ) सब अकार के होमों के लिये अमि का संस्कार करते की घिथि, इसे हवचर्श््त्ता कुशालन पर चैठ दृद्विने द्वाध से कुश लेकर और कुश की नोक से चेदी पर रेखा खींचता हैँ कुशप्रुद्विका तद्‌० ( स्री०) कुश की पैती, कुश की कुशल तव॒० (8० ) भलाई, कल्याण, मड्नल, एण्य, ( गु० ) शिक्षित, निधण, दक् ।--ता कुशछज्ेस, कल्याण, निएुणता, दक्तता ।-- क्षेम (घ०) मम, कल्याण । [ शत्ता, चौकसी, छुरुस्‍्ती । कुशत्लाई तद्‌० ( रत्री० ) मन्नलमय्, चतुराई, निपु- कुशलता तदु० ( ख्री० ) कुशलक्षेम, मजढछ। कुशस्थक्ती तत्‌» (ख्री०) द्वारका, श्री कृष्ण की घुरी। कुशा वत्‌० ( स्त्री० ) कुश, रस्सी, पक्ष प्रकार का मीठा नीबू ।---म्र तत्‌० ( बि० ) तीव, तेज़, नुक्कीला। “-चर्ते तब" ( छु० ) हरिद्वार के एक तीधे का नास) एक ऋषि का नाम ।-श्व तत्‌० ( धु० ) इंक्ष्व(छुबंशी पुक राजा ।॥ कुशासन तव्‌० (9) कुशनिर्मिव आसन, कुष्सित शास्तल, भ्रत्याचार सद्दित शाखन । कुशिक तत्‌* (घु० ) झुनि विशेष, पुकु राजा का नस, ये राजा मद्॒पिं विश्वामित्न के पितामद और गाधिराजा के पिता थे । [ सिक्लावन । कुशिज्ञा तत» (ख्ी०) श्रसदुपदेश, दानिकारी कुशी तु» (पु०) क्ृशवाला, वाल्मीकि ऋषि, घाव । कुशील तत्‌* (यु०) दुशध्षमा, दुष्ट स्वभाव । कुशीलच तत्‌० (पु०) नटविशेष, कथक, देश विदेशों में कीतिगान करने घाले | कुशूल घान्यक दवद्‌* ( घु० ) ग्रहस्थ जिसके पाल सीन वर्ष तद खाने के लिये अन्न का सच्च॒य दो । कुशूला तत्‌० ( खी० ) देदरी, कुठिकी, अन्न रखने के लिये मिद्दी का बना पुक्ठ प्रक्रार का बड़ा भाण्ड कुरोशय तत्‌० (घु० ) कम्तठ, पद्म, सारसपत्ी | “++कर ( घु० ) सूये । [ ऊँदरी । 5 कद 8 न पसनय लक नमी ( र६४ ) क़ूकर तव० (पुन) पुष्पित, प्रफुछित कुझुस्म सत्‌5 ( पुर ) पुष्पविशेष; इसुम हूछ ते ( घु० ) रह विशेष, अफीम और भाग को मिला, कर बनाया हुश्ना एक नशा विशेष। (खी० ) अचाढ़ू शुक्ल छुठ ।-ो तद» (स्त्री०) ढाल खा। कूसूर (पु०) अ्रपराध, चूक) कुस्वप्न वच० (३०) दु खत, अरिष्ट दशेत । क्रुहू तद्‌5 ( छुल ) कुबेग । कुद्दक तब्‌५ ( घु०) माया, इन्द्रजाए, जाएं, मायावी, कुटिल, फरेदी, छुछी, मेढ़॥, मु्गे की पास । कुदद़ वुउ॒द॒ड्ठ तर ( पु० ) कृष्माण्ड, कहिदा) कदनी (सो ०) बाद का जड़ ४ ऋहचर फीहसर दे* (५५) स्तन विशेष, विधाई के अनन्तर वर दुल्द्विन के बैठने के किये सभा हुआ घर [का साग, कण्ठ शब्द | कुहर तव० (पु०) गह्नए, पिंड, ुद्दा, कान ओ वीष ऋदरा दे” (5०) कोइरा, झुशासा | कुदराम दे* ( ० ) विछविछाना। ब्रिल्ाप, गेता, रोदन, दलचल, गुलगपाडा । कुद्दासा दै० (३०) हरेलिका, कुडप । कुंद्दी दे० (५०) पद्ीविशेष, बाज पष्ठी | कुद्दु तब». (स्री०) भ्रामावस्या, जिस भामावल्या ढ़ चन्द्रमा नहीं दीख पढते, केकिल आति, कोइल का शा । कुदुक तद ० (प०) धैकिल् का शद | बुडुच ना दे० (क्रि०) प्िये। का मीठे स्वर में बेबता | कह वतत देखे कद । कझा दे" (4०) हुए इनारा। फृपार दे० (घ०) आखिन मास, सातर्वा सह्टीना | फूंच दे (पु) री, भोज विशेष, छुलाई का मज़ा | कूंची दे० (छी-) वहारी, पचारा, बढ़ती; टिका ) ऋूजडी (खी०) कुमड़ा की औरत | (५०) कैगढ़ ! कूतना दे* (क्रि०) भेक्र स्डराका। भूज्पनिध्षेत्ण करता कूक दे० (द्घोौ०) शब्द, ध्वनि, धाते ध्वनि, दुणिव श्द्ध। ल शाह मारता, विलाप करही | कुफना दे० (कि०) सिछाना, बे।एना, कुंड्कुद्ठ ऋता। कूछर तद« (३०) कृत्ता, कुकुक स्थान ।“निर्दिया (दवी०) कुत्ते की नींद के समान भींद ।7 छा कुजोदुक ठद० (३५ ) [ कुश +शद॒क ] कुश सद्धित ज्ञक, सपेण ) कुदती ( क्षी६ ) मश्टयुद। कूचीड़ कत्‌« (ए०) चूक्ति, भीविका, सूद लेकर पण देना, ब्याज #मैश्रा, वार्ड पिक, ( गु० ) जड, चेश- बदित, निर्देय । फुछ तद० (5५ ) [कण +क्त ] छोड़, रोगविशेष, महदाव्याधि, इस रोग के अठारद मेद ईं। जिनमें साथ महादु धन और कष्ट साध्य श्रग॒वा असाध्य हैं। शेष ग्यारह इतने भपक्टर नहीं है तो मी कष्ट दागी अवर्य हैं । पुक प्रकार की लता ॥--छून्तन (छु० ) ईबर (--लाशिनी ( खी० ) एक प्रकार की बेझ मिससे कुछ रोग छूझसा है | सेभराशी सेपमराह बछी (--खूदम ( घु० ) श्रोषधि विशेष, क़िर्वासी ॥ कूष्ठी त० (गु०) छोदी, कएरोगी । [ भर्तुआ कंप्मागृड तव्‌० ( पु० ) फछ विशेष, कंदिड़ा, कुम्डढ़ा। कुसगुत (०) भ्रसगुव। कुसड़ तव० (०) हुनन, सइवास। कूसहूत तद्‌० (३०) बुरा साथ, दुजन सह । फूसमड़ तव॒० (पु०) अनयप्तर में भी, बुरे दिनों में मी, आपत्ति का सामान कुसमय हव्‌* (8०) किन समय, खोदे दिन । - कुसाइत दे" (एु०) इस सुहूतें, ईुसमय | कूसीद तत॒« (३०) सूद, ध्याज, स्यान्न पर दिया इश्रा घन [--कि तव॒० (वि० ) खूढ पर रुपये देने पाछा, सद्ागन ।--पृथ वदु० ( छु० ) ध्याज पर रुफये लगाता | कूछुम तब" ( 8० ) घुष्प, फूए, पुर प्रकार का लाछ कूट, जो कपदा रेंगने के काम में थातता है। छोटे धोदे वाक्यों छा गद्य, भेतश्रशेग, रजोदशंन, हम ।-पुर (पु) नगर विशेष, पाटलीपुत्र, पद 5 जाए (पु०) कामब्रेव ->शर (पुणे ऋमुँच, मइन--स्तउक (३०) इंच; युष्छा, फूलों का गुच्छा +>नकर ( छु०क ऋतु विशेष, धंसन्तऋतु (-वझज्ञलि ( ५० ) प्रष्वामत्ति, प्रन्य विशेष, न्याय शाध्य का पुर झत्य -वयुथ (३०) कन्दफ, मदन | (ए०) एक बरसाती फैधा ।--लेंड़ (घु०) कुत्तों का मैथुन, व्यर्थ की भीड़ । कूकरी दे* (स्री०) सूत् की गद्ढी, कुतिया । कूकू दे० (पु०) कबूतर का शब्द । कूच ( छ० ) यात्रा, रवानगी, प्रयाण, सेना के प्रस्थान के लिये प्रायः ऋूच कहते हैं । कूचा दे० (पु०) गली, चोद रास्ता | कूचिका दे० (ज्री०) तूलिका, चूली. ऋूच्टी, सज्ञाई । कूचिया (स्त्री०) इम्ली कानपट्टी । कूची दे" ( स््री० ) तृणनिर्मित तूलिका जिसले दीवार - में चूचा कगाया जाता है । कूज्नन त्त्‌० (पु०) शब्द, स्वर, ध्वनि, पछ्ठी का शब्द | कूजना तदू० (क्रि०) शब्द करना, बोलना | कूजित तत्‌० (गरु०) पद्दी क्ी ध्वनि, विहड्डश्वनि । क़ूजहिं तदू० (क्रि०) ऋनते हैं, गुजारते हैं । छूट तद्‌० (धु०) पव॑त, पद्दाढ़ की चोटी, शिखर, कपट समूह, राशि, छुल, सड़ा हुआ, घोका, दो मानी बात, (क्रि०) कुचछ कर, झट कर, कागज, ब्यडस्योक्ति, श्लेषयुक्त बात ।--क्र्म' त़द० (पु०) छक्त, कपट, घोला (--कर्मा तत्‌" (वि०) छली, घोखेबाज / --ता त्तू० (स्त्री ०) कठिनाई, कुठाई, छुल, कपट । --नीति अधर्मीनीति, धघोख्ेबाज्ञ +--पाश (३०) पच्ची, पकड़ने का फंदा ।-क्लेख ( छ० ) झूठा था बनावदी लेख, जाकी दस्तावेज |--लेखक (६०) जाज्ी दुस्तावेज पनासे चाछा ।--साज्ञी ( पु० ) मिथ्याप्ताक्षी, कृडागवाह़ । कूठरूथ ( घु० ) अ्विनाशी, अठल्क, भ्रचत्ष, आत्मा, पर- सात्सा | साँख्य मताहुसार परिणाम रहित आवक पुरुष जो जागृत, स्वृष्व और सुपुप्त - तीनों दक्ााओों में समान रहता है । [ मारना । कुठना दे० (क्रि०) पीसना, कॉड़ना, कुचलना, पीढचा, कुटार्थे तत,० (ए०) गूढ़ार्थ, क्‍लीशार्थ । [ डाली । . छूटी तद्‌० (&की०) ब्यंगवचन (क्रि०) कुचली, कुचल कूहू (छु० ) पुक प्रकार का पौधा | इसके द॒स्ते का आदा फछाहर के काम में झाता है | कूड़ा दे० ( पु० ) भाइन, बुदारत, कतवार, घाप्त पात, अगड़ बयड़ | [ अघरी, झुड़ी । कूड्धि तत्‌० (स््री०) लड़ाई में पद्धिरने की जोड़े की खोषी, कूृष्माणए्डा कूढ दे० (पु०) सूख, अलमसू, भ्नसिज्ञ । कूत दे० (ए०) घटकल, श्रद्ययच, परख, अन्‍्दाज़ कूतना दे० भन्दाज़ करना, परखना । कूथना दे० (क्रि०) कहरना । कूद तत० ( ख्त्री०) कूदने की क्रिया ! कूदना दे० (क्रि०) बछुजना, फांदना, हस्तत्ेप करना, क्रमभड़ करके पक जगद्द से दूसरी जगह जा पड़ना, शेखी मारता । कप तच्‌० ( 4० ) स्वनाव झुवात जलाशय, कुर्ता, इचारा, नदी के सध्यस्थ पव॑त या बृक्ष | -“भयणड्क ( ६० ) छूए का मेढक, अत्पक्ष, बह मनुष्य जो अपना घर छोड़ वाहिर न गया हो । कूपार तत्‌० (पु०) समुद्र, जलधि । कूवरी दे० ( ख्री०) कंश की दासी, काठ की था वसि की अुड्ठी हुई लकड़ी ] छूर तद्‌ ० (गरु०) कपदी, कठोर टेढ़ा, दुष्ट, भ्रकर्मण्य । करन ) ( ख्री० ) करता, निर्दयीपन | कूरन ( घु० ) छम, कच्छप; कछुओरा । कूर्य तत्‌० (घु०) भौंदों के मध्य का स्थान, मयूरपुच्छ, अंगूठे श्रार तजनी के बीच का स्थान, भूड, पाखंड, छूंची, मस्तक | कूनी तत्‌० ( स्री० ) दृष्या, करछी, करछुत | कू्मे तत्‌० ( पु० ) शच्छप, कहुआा, वहा वायुविश्वेष, पृषिवी, नाभि चक्र के पास की एक नाढ़ी, '“-- चक्र (प०) कृषि सम्बन्धी एक चक्र विशेष, पूजा के लिये यन्त्र विशेष ।--पुराश (१०) १८ पुराणों सें से एक -प्रष्ट (३०) कछुवे की पीठ --राज (पु०) कच्छपराज, भगवान्‌ का अधतार विशेष [ कूल तद्‌० ( 3० ) तीर, किनारा, छट नदी आदि के जल का समीप चाहा ताकाव क्र (8० ) कृत्रिम पर्चत ।-द्लुम ( घु० ) तीरस्थित बुच । कूल्दा दे० (ए०) ैख के नीचे कमर में पेह के दोनों . और की निकली हुई हृष्टियाँ । कृष्माण॒ड त्व० (पु०) गणदेवता विशेष, कॉंदढ़ा, पुर ऋषि, शिव के पिशाचगण, वायासुर का प्रधान- अमास्य कूष्मायडा तव्‌० (च्वी०) देवी विशेष, भगवती । कृकर कुकर या छुकल तत्‌० (पु०) मस्तक का वह पवन जिषएे बेग से छोंक आती है, शिव, चभैना, पी विशेष, कनेर का बूद्ठ ।.[ झार्तिकेय, पडानन । झाक्वाक तत्‌» (पु०) मयूर, मोर ।--ध्वज्ञ ( छु० ) रूकलासख तत्‌» (पुण) शिरपिट, सरट ऊच्छू तब॒० ( घु० ) तपध्था, कष्ठ; पीड़ा पापनिवार- शणाथे सम्तापनादि ब्रत, रोग विशेष (गत ( शु० ) यस्त्रणयायुक्त दु खी, पापी, रोगी । कब्छानिच्कछू तव० (पु०) प्रायश्चिताक्ष बत विशेष । कन तत्‌० (गुर) किया, बढाया, रचित, कथित, खुजित, ( पु*) सतयुग, चार की सैझवा, एक प्रकार का पॉसा, पुक प्रद्दा का दाप्त।क (गुण ) काक्रनिक, कृत्रिम, नहझली |--कर्मा (गुर ) कार्यक्षम प्रवीण, शिक्षित, निप्रुणं, देक्त ७-कार्य ( शु* ) सम्पादित काये, चरिताच, सफडठसनारथ, क|मियादी ।--फाह् ( पु० ) थनिश्चित समय) +-छत्य, पूर्णकाम, कृतकार्य, प्राप्त मनोरष ।-प्न ( पु० ) इपकार न सानने वाछा, नमऋदराम । ->मभता ( स््री० ) भ्रक्ृतज्ञता, नमकदरामी ।-- प्ताई (स््री० ) दवितैपी के प्रति अ्रहिताचरण। अकृतश॒ता, नमख्ददरामी --ह्ञं ( पु० ) का मानते बारा ।>ता तत्‌*» (स््रो० ) निशेरा मानना, पुद्पानमन्दी । कूतसत्य ( थि० ) सफलमनोरथ, सम्तान प्रदर्शित काने के लिप इसशए ब्यवद्वार किया जाता है | ऋतजुण रद (१०) सत्यपुण, उश्चति का समय धादि युग, १७२८६०५० वर्ष का यह युग होता है । छतवर्मा तद्‌० ( पु ) यदुबशी राजा कनक का पुष, यद झृतवर्मां स्ड्ामारत के युद्ध छे कृतदर्भा से पमिन्न है । छृतचिय तब ( घु० ) शास्रज्ष, शाघ्तदद, जानकार ! कृतगरीर्य तद्‌« (बु०) छुपविरोष, यदुबशी पर राजा का नाम । झूताओलि (वि०) जिसने दा्य छोड़े दो ६ कुतात्मा (१०) जानी, शुद्धाचारी ॥ कृतान्त ठत्‌० ( घु० ) अन्‍्त करने बाज, यमराज, झस्यु, काल, सिद्वास्त, शमाशुम, पाप, शनिवार, मरणी नद॒त्र, दो की संस्या | ६ रैह5 ) छृणाहु झृतार्थ तव० ( घु ) सम्पादित कार्य, सिद्ध मनोरष, निद्ाल, मनोरथ के पाये हुए, कामयाय | कृति तत्‌० (क्री ०) काये, काम, आचरण, उपझार, करण, करनी, आधात, इन्द्रजाल, वर्गेसएया, डाकिनी, उन्दविशेष, कटारी, बीस की सेस्या। [भोजपत्र ] कृत्ति तत० खी० ) चकडे की रस्पी, झृतिका सह्चत्र, कत्तिक्ना तत्‌० ( छ्ो०) तीसरा नछन्र, छूकड्टा, गाही । कृत्य तत्‌० ६ घु० ) कर्चेंब्य, कर्म, वेदविद्वित करंब्य काये, करतब | [ भयानक काम कर सकती है. _ झृत्यक्ला तत्‌० (स्प्री० ) बह स्त्री जो हत्या श्रादि बट छृत्या तत्‌० (स्त्री० ) तंत्रानुप्तार किसी शत्रु के न करवाने के लिये मन्त्र द्वारा उपन्न की हुई स््री अभिचारिणी, दुष्ट स्त्री ॥ कृत्रिम तत्‌० ( वि० ) बनावटी, जाली, घारद् प्रकार के पुद्नों में से एक, (पु०) कचिया नोन, रसेंवे। छदन्त तत्‌० ( ए० ) वे शब्द जो धातु में कृत ग्रत्यप के जोड़ने से बनें । [रजर्दि। छूप तत्‌० ( घु०) कृपाचायय, वैदिक काछ के पुक कृपण तन्‌० ( पु० ) कजूध, नीच, छुव्र ।“+ता तव० ( स्प्रो६ ) कजूपी, मक्‍्प्रीचूधी । कृपनाई तत्‌+ ( खी० ) कृपणता, खूमढ़ापन । कृपया ( क्रि० बि० ) कृपापूर्वेक, दयापूर्वर । कृपा तब॒० ( स्त्री० ) अहमद, दया, इम्ता ।--घाये हतु० (पु०) द्वोणावाय छे साले |-पात्र तत्‌० (प०) कृपा का अधिकार । कृपाण तत्‌० (पु०) तटबार, असी । ऊृषपाशिका (स्त्री ०) कटारी, छोटी तछवार ) रृपाल या कृपांसु (विन) दवालु ।--ता दुपामाव । कषपिण (वि०) कृपण, कजूप ३---तो कंजूसी । कृमि तद्‌० ( घु० ) चोटा कीट, कीड़ा, किरवा ॥-प्र (पु०) बायबिडक़ [--जग्घा (पु०) काछा अगर कृामेल तव्‌० (गु०) कीडें से भरा, कीट्युक्त । छश नव्‌« (गु०) दुवेल, दुब॒छा, छीण, पतला, सुदूस | “ता (स्त्री०) दुबंहता, ढोणता --क्त (गु०) मन्दृ्धष्ट । [छीणाड़ी | कृणशाडरी तन ( ख्थी० ) पहली स्त्री, दुर्वज्ञाही; छशाद्ु या रुखानु तद॒० ( घ० ) भरप्ति, इनल, भाग, बन्दि, चीता | च्च्स्व कुश्न (बि०) श्याम, काला, श्रीकृष्ण मगवादू, बेद- व्यास, छुप्पय छुन्द्‌ का पुर सेद, अजब, झोयल, € रह ) ऋृष्णगाफल कृष्णचन्द्र (पृ०) देखे कृष्ण । कृष्पञ्ञीरा तद्‌ु० (पु०) काला जीरा, क्लैंजी । कीचा, कृष्ण पत्त, कलियुग, नील, लेहहा, सुरमा, | कृष्णता तत्‌० ( स््री० ) झृप्यवण, काक्षापन, घुद्भुची, , करौंदा, झूद् विशेष । कऋशाभ्व तत्‌० (पु०) मुनि विशेष, राजा विशेष ! कऋृणशोद्री तत्‌० (गु०) पतली कमर वाली । कृपक दत्‌" (पु०) कियान, कपक, हल छी फाल । कृषाण दे० (9०) किसान, खेतिहर । कृषि तव्‌० (स्त्री०) खेती, चास, वैश्यबुसि विशेष। +-क्र्म (छु०) हल चलाना, खेती छरना। ++जीवो (गरु०) कृपक, क्सिन। [क्ृपिजीबी । - क्ृपी तत्‌० ( सत्री० ) खेती ।+- बल ( पु० ) किसान, क्षय तत्‌० ( दि० ) काला | ( 9० ) विष्यु का पूर्णा- बतार । यह माता देवकी ओऔर पिता चसुदेव से डरपन्न हुए थे, इन्होंने अनेक प्रजापीड़क, राक्षस प्रकृति, दानचें के। मार छर घसें स्थापित किया था | -ह्वेपीयन (३०) महर्षि पराशर के औरस | + ते + ! | + । | श्यामता । कृष्णतुललसी तच्‌० (स्री०) काली तुझली । कृष्णपत्त तव्‌» ( पु० ) अंधेरा पाख, बदी, चन्द्रमा के- हास का काकत । कृष्णफला तत्‌« (छी०) बाकुची, क्रींदा, करमहक कृष्णुभद्गा तव्‌० ( स्त्री० ) श्राषध् विशेष, कुटकी । कृष्णभूमि तत्‌० ( स्त्री० ) काले चर्ण की रझत्तिका युक्त देश | री कृष्णमय तव्‌० (गु०) कृष्ण में लीन, अ्रधिक कृष्ण । कृप्णलेह तय ( पु० ) अयस्कान्त मणि, खुम्बरक पत्थर । कष्णवक्तू तत्‌० (पु०) काले मुँह वाल्य चानर, लंगूर । कृष्ण॒वर्त्या तत० (पु०) अ्प्नि, हुताशन, चित्रक छुक्च कृष्णवानर तत्‌० (9०) काला वानर, क्ृरावर्ण कपि । और दासराज की पालिव कन्या सल्यवती के गर्भ । कृष्णदृत्तिका ततु० ( स्त्री० ) कम्मारी श्राषधि का से यह उत्पन्न हुए थे। इनही साता से अपना गर्ल द्वीप में फेंक दिया था, इस कारण इनका नाम द्वैवायन पड़ा था । इस्हेंने वेदों का विभाग किया - था, इस कारण इनझे। व्यास नाप्त से लोगों ने असिद्द किया | इन्हों महर्षि ने अष्टादश पुराण बनाये हैं । कोई काई कहते हैं. कि व्यास नाम के अनेक मह॒षि हुए हैं। झतएवं अशादश पुराणों के कर्ता ब्याल नामवारी भिन्न सिन्न ऋषि हैं। --मिश्र ( छ० ) प्रवेधय-चन्ह्रोद्य नाटक के कर्ता ये ही कृष्ण मिश्र थे।ये राजा कीिंव्मा के समभासद्‌ थे | यद कीतिवर्मा चन्देल राजा था। इसमे चेदि के राजा कर्णदेव का पराजय किया था | इसका समय सन्‌ १०३७० देन से १११६ ई० के बीच में निश्चित होता है, अतः कृष्णमित्र का भी यही समय मानना पढ़ता हैं । कृष्णकर्मा चत्‌० (घु० ) निन्दित कर्मकारी, पापा- चारथुक्त, पापचिशिष्ठ, अपराधी, पापी, दुष्कृति ऋृष्णुगन्धा तव्‌० ( स्लरी० ) शेभाजझ्नब॒त्ष, सहिजत का बूछ । [सूत्रचतुर्दशी । न्ञाप्त | [कृष्ण के आश्रित । क्ष्णान्रित तत्‌० ( छु० ) कृष्ण के भक्त, बैप्णच, श्री क्ृष्णुसख तत्‌० ( छु० ) कृष्ण का भिन्न, अज्जुन । ऋृष्णसर्प तत्‌० ( छु० ) काक्मासपं, करहट सपि | कृणएसार छत» ( १० ) हिरत विशेष, यज्ञीय ख्ूग, काछा हिरल क्ृष्णसारड्ः तव्‌० (घु०) कृष्णवर्य झूग, हरि । कृष्णा तद॒० ( स्त्री० ) काले रञ्ञ की स्त्री, औपदी, यह जन्म के समय काली थी, इसी कारण इंसखका नास सी कृष्णा पड़ा था। यमुना, नदी का नाम, यह नदी दक्षिण मारत सें इसी नाम छे प्रसिद्ध है । काली सरला। बिलरास | ऋृष्णाश्रञ्ञ तत्‌० (पु०) श्रीकृष्ण का बढ़ा भाई, बलदेव, कुष्णापगर तच्‌० (पु०) काढा अगरु । क्ृष्णाचल तत्‌० (छु०) काला पहाड़, रेवदक पर्वत, यह गिरता के नाम से इस समय प्रसिद्ध है; काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास एूँ । ऋृष्णाज्ञिन तव० ( घु० ) कृप्पसार झूग का चर्म, काछास्ग चर्स चयाचतुर्दशी तब ( फी- ) छष्णपप की चमुईशी, | झृप्णाफ्स्ड स्व॒० ( ए० ) व्वएीमिदे | कृष्णापंण ( एुढंद ) फेरल कृष्णापंण तत्‌5 ( घु० ) निष्कास कमें, अपने कम फ श्रीकृष्ण मगवाद्‌ के निवेदन करण, फल काट्का से रहित कमे सम्पादन। कृष्णाट्मी (छी०) माद् कृष्पपत्त की अष्टमी, श्रीकृष्ण की जन्मतिथि । हृष्णेशपकुक्या तव्‌० (स्त्री०) श्रैषध विशेष, पीपरी | कृष्णामिसारिका ( स्त्री० ) भ्रधेरी रात में अपने धेमी | के पाप्त निर्दिष्ट स्थान पर जाने थाली नाप्रिका विशेष । । झूसर तत्‌० ( घु० ) सख्वीचडी । [ (गु०) जराघारी । ! चल॒त्त तत्‌० (गु*) रचित, स्थिरीक्रत, बिमित । - केश के दे” (अ० ) सम्बन्धवोघड़, पश्नार्थछ, कान का, | छोटा रूप, सम्बेन्चक विभक्ति का बहुचचन | । केंश्रोड़ा दे० ( पु० ) क्तकी, पुष्प विशेष । केंचुवा दे० (घ० ) कीट विशेष । केकड़ा दे? (पु०) छक्षेट, गेंगटा । । के ( प्रद्यय ) सम्बन्ध सूचक “छा” का बहुदचना |. फेड ( सच ) कोई । [दिश की सीमा पर म्थित है। | केकय तत० ( पु० ) राजा विशेष, वढ देश के सिन्घु केकयी तत्‌० (स्त्री०) अयेध्या के अधिपति महाराजा दशरथ की स्त्री और भरत की माता | केकय या कैफेय राज्य के राजा की यह कन्या थी। क्रेकय देश पञ्षातर में विषाप्ता शत्रु के बीच में है, घाचीन वाह्लीक प्रदेश के दक्षिण की ओर है । केकर तद्‌० ( गु० ) डरा, मेंगा, वक, टेढ़। | केश तत्‌» ( स्त्री० ) भयूरध्वनि, मेशर की बोली | फेकी तत्‌० ( पु० ) मे।र, मयूर, शिस्ती, केडावल | फैचित्‌ तत॒० (भर) कोई । क्रीशा, केडा, काम, चिन्द । क्ेत, फैतन तत्‌० ( पु० ) शृदद, प्वजा, निममम्प्रण, फेतिक दे ( ग्रु० ) बोदे, दे। चार, अदर परिणाम, कितना, ऊितना पुर, किस कदर | फैतकी तन्‌० (स्त्रो०) केवटा का बृछ्च, केंदढे के फूल | | फ्रेता दे० ( क्र० ) कितना । फरेतु ठद- (३० ) ज्ञान, दीप, निशान, ध्वजा, पताका, मवमप्रद, राहु का शरीर, पापप्रद, उत्पात | दिन्ह, दानवविशेष, [ समुद्र मन्धन के अनन्तर | देवतागण पक्ति से वेदकर असझृत पान करते थे, । केतु दानव भी देवरुप घारय कर यहाँ थैठ पा, चन्द्रमा और सूर्य ने यद्ट बात प्रकाशित कर दीं। उसी समय मगवान ने यथपि इनका सिर काट डाब्टा, तथावि अमृत पान करने के कारण वे मरे नहीं, किन्तु पुक के दो हो गये | मस्तक भाग का नाम राहु और शरीर का नाम केतु हुआ ॥ ये दोनों अद माने जाते हैं। केतु की दशा प्तात धर्ष तक रहती है। ये दोनों पापग्रद हैं । ] केतुतारा त३्‌* (स्थ्री०) घूमरेतु, अशुभ सूचक तारा, पुच्छक्ष तारा । [पक खण्ड । केतठुमाल तत्‌० ( घु० ) जम्बु दीप के नंबखण्डों में से कैते दे० (प०) कितने, #, कतिका | कदली तद्‌० ( स्त्री० ) रम्सा, कदुली, केटा, एक वार फूलने वाला पेढ । केदार तत्‌० ( पु० ) क्यारी, खेत, 'न्न, पर्वतविशेष जो बररीनारायण के पास है, सी्ैम्धान, शिव; भूमिविशेष, मेबपन का चतुर्थ, पुत्र ।--खयड ( 9 ) खण्ड विशेष, सुघन्दपुराण के अन्तर्गत एक भाग या खण्ड |--नाथ ( पृ० ) केदार पर्वत के स्वामी, मदादेव | फेन (सर्व) किसने | केन्द्र तत्‌* ( घु० ) छग्न का चौथा, पर्विाँ भौर दरशर्वा स्थान, गोढाकार वस्तु का मध्यस्थान गोला कार या वृत्तचेश्न का चढ़ स्पान जर्दा से परिधि तक खींची गयी रेखाएँ थ्रापम में वरावर दो । केद्रीमृत तद० ( घु० ) राशिक्वत, एकत्रित, सकुबित, सट्टीण, अस+पूर्ण । कैमडुम तदु० ( पु० ) जन्मकाछ का गड्, ये।। विशेष, दरियेग। [ बचुरच्ा, बहुँटा। फेयूर तद« (३०) अबद्ूडवर विशेष, श्रहद, वाजूवरइ, फेर तदु- ( अ० ) सम्बन्धारयक, का, की, ने (३०) केला डूच, सम्बन्ध चोतक का स्थ्रोलिन्न । फैरत उव्‌« (घु०) देश विशेष, मालावार देश, पश्चिमी घाट नामक पर्वेद और समुद्द के बीच का पुक भाग जो कावेरी नदी के उत्तर की झोर है। इस देश की मुख्य नदियाँ चेन्रवती, शरावती और काली नाम ही हैं। सम्भव द इसी काजी नदी का पहले मुरठा नाम उह्दा हो | ग्राज केरल कवाड़ा का पक भाग समझा जाता है । केला ( शेईंह ) कैकसी केला या कैरा तत्‌० ( घु० ) बृद्ध और फल विशेष, कदली । क्लैलि त्तत्‌* (स्त्री० ) परिद्याल, खेल, विहार, क्रीड़ा --कैल्ना (स्त्री०) रततिक्रिया, सरस्वती की वीणा । केलियद्र तत्‌० ( घु० ) नाटकशात्ता, रहशाला, नाटक खेलने का स्थान [ खेल । केललो तच्‌" (स्त्री०) खुखशयन, आनन्द, झुख, कीड़ा. केवट तद॒० ( घु० ) क्षत्रिय पिता और चैश्य माता से उत्पन्न ज्ञाति विशेष । कैवत॑, घीमर, सछुवा, मललाइ । [ छा जल | केचड़ा दें० ( पु० ) इत्त विशेष, फूलविशेष, एक प्रकार फेवत्त तत्‌० (ग्ु०) मात्र, ग्रसहाय, अन्यहीन, एुछाकी, एक प्रकार का ज्ञान, निर्णीत, उत्तम ।--ध्यतिरेकी (पु०) अ्रचुमान चिशेष, शेपवत्‌ |--न्वयी (७०) पूर्वचद अनुमान विशेष |. [ सुक्ति, जन्मपत्नी । 'कैचली तत्‌० ( गु० ) एकाकी, अन्धविशेष, जैनियों की , कैवाड़, केचाड़ा दे” (०) द्वार, कपाट । केवा, कैचान दे० (पु०) कंबछ, कप्तकल (घु०) आता- कानी, सहूुगेच । “केचा जचि किजै, मोरि सेवा सब माति जीजे ? --रघुराजसिंद । फेश तत्‌० ( पु० ) बाल; रोम लोस) सिर के चालू, कच, किरण, धह्म की एक शक्ति, बरुण, विश्व, विष्णु, सूचे --कत्ताव (पु०) क्ेशसमूह, चोटी, जूढ़ा --अ्रह ( छ० ) केशाकर्पण, केश पकड़कर खींचना ।-पाश ( घु० ) केशसमूद्, भालों की छठ ।--विन्यास ( 9० ) चोटी धन्ताना |-मा- उजेनी ( स्त्री० ) कंघी, ककद्ी । कैशर तत्‌० (छु०) नागकेशर छुक्ष, फूछों की पंखुड़ियां, स्वानाम प्रसिद्ध सुमनन्‍्ध द्वव्य विशेष, केसर | सिंह और घोड़ों के गरदत पर के बालू | केशरज्म कत्‌० ( पु० ) मैंगरा, पौधा, बुद्ध विशेष । केशस्या, कैसरिया तद्‌० ( ४० ) पीज्षारक्ञ विशेष, केसर का रह, एक प्रकार का पहनावा जिसे राजपूत युद्ध के समय पहनते थे, यद्द पहनावा एक प्रकार का शपथ समेझ्ा जाता था, श्रर्धात्‌ केशरिया पदनकऋर युद्ध से हट नहीं सकते, मर भत्ते दी ज्ञॉय । क्रेशरी तद्‌" ( छ० ) सिंह, झूगराज, पुक बानर का नाम) इश्लुमानजी का पिता । केशव तचत्‌० (७० ) श्रीकृष्ण, विष्यु । भगवान्‌ के केशव नाम पढ़ने का कारण भगवान्‌ से स्व कहा है कि सूर्य चन्द्र का क्ञादि प्रकाशशील पदार्थों को केश कहते हैं, वे हमारे हैं, ऋतएवं हमारा नाम , केशव है । यथा # श्रेशवों ये अकाशम्ते मस ते कंशसेज्षिताः | सर्वज्ञाः केशव तस्माव्पाहुस द्विनसचमः ॥ ? “महाभारत | केशाकेशी तत््‌> ( 8० ) परस्पर घारू पकड़ के लड़ना; मॉटाखिचावलछ, मोटा झोंटी । फेशिनी ( स्त्री० ) जटामांसी, अप्सरा, सुन्दर बालों बाली स्त्री, राजा सगर की रानी का नाम, रावण की मादा, एक प्राचीन नयरी का नाम, पारबती की खहचरी, दसयन्‍्ती की एक दूली । केणि था केशी तत्‌० ( शु- ) इस कैश युक्त, (०) यह राजा कंल्ल का अजुचर था, कंस की शाज्ञा से घोड़े का रूप चनाका वृस्वावन गया और अनेक गोपाल तथा गौशओों के इसने मार डाला, पुनः भगवान्‌ कृष्ण ने इसकी शास्ति की और इसे पार डा । घोड़, सिंह, के्चाच । केसर तव्‌० ( छ० ) कुंकुम, नागकेखर, घोड़े के गरदस पर के बालन, श्रयाक् केसरी तत्‌० (घु०) सिंह, घोड़ा । केस तद्‌* (घु०) ढाऊ, टेसू, प्तास । केहरी बंद | (ए०) सिंड, एक बानर का साम | केह दे० ( अ० ) कौन मछुष्य, कोई, कोई व्यक्ति, अनिर्दिष्ट ज्यक्ति । कैहा (घ०) मयूर, मोर । करेहि दे” किसे, किसके । कहूँ (बि०) किसी प्रकार । [ किज्ुली । कैंचली दे० ( स्त्री० ) साँप का खोक, सर्प॑चर्म, फैचुल, कैंची दे० (स्त्री० ) कतरनी, अख त्रिशेष । कै दे० ( सर्व० ) कित्तना, कितेक, चहुत, कौन | कैकेयी तत॒० (स्त्री०) देखो केकयी कैडून तच० (प०) किक्नुरत्व, नद्यता, दासपव, नवघा अछि का एच श्रद्ध । कैकसी तत्‌० (स्त्री०) लक्षेश्वर रावण और कुम्मकर्ण आदि फक्ी माता का नाम, सुपाक्ञी राक्षस की कम्या और चिश्रदा सुनि की पत्नी थी | शान पा*--स्र कैव्स (६ १७० 3) काप फैठम तत्त० ( पु० ) पुक दैल्य का नाम, शेपशायीं भगवान्‌ के कर्णेमढ स्रे इसकी इत्पसि बतछायी जाती है, यह बहुत बढा घीर था भगवान्‌ ही ने इसे मारा था ।-ारि (घु०) नारायण, भगवान्‌, विष्णु +-श्वसे (स्प्री०) दुर्गों, मयपती । [ और, तरफ । कैन दे० ( ६० ) फल चिशेष, कैया, दौथ | ( स्त्री० ) कैतक तत्‌० (९०) केवडे के फूल, केतकी पुष्प । क्ैतव तत्‌० (५० ) धुल, कपट, लगा, मूँगा, घतूरा । “याद ( पु० ) घलना, उगना, प्रवन्चुता, औपध विशेष, चितायता | ' कैतवापाहुति ( स्त्री० ) अछ्भार विशेष । कैय, कैथा दे० ( १० ) बृज्ठविशेष, कैत । कैथी दे (७०) मुडिया भत्तर, विहार के का्यस्पों के द्वारा फश्पित एक प्रकार की नागरी लिपि | कैद ( स्त्री० बन्धन, कारागा |--खाना (पु ) बन्दीगृदठ, कारायार ।--ी (पु०) बेँधुदा, बन्दी | क्लैघों (अष्य०) भथवा । कैमुतिकन्याय तद्‌* (६०) न्यायविशेष, भनायाप्तसिद्धि, एक की सिद्ि से दूसरे की अनायास सिद्धि | फैयट तू ( ६० ) ध्याकाण मद्दामाष्य के टीकाकार, ये कारमीर के रबने याल्े थे, ये अपने समय के ब्याकरण के विद्वानों सें प्रधान सममे जाते थे । इनका समय व्यारहवीं सदी विद्वानों के मत से निश्चित है | (१) ये मी छाश्मीर निवासी थे। ३७७ ई० में इन्होंने भानस्ददर्दधन के देवीशतक की टीका दिखी है | इनझछे पिता का नाम बद्धा- दिल चार दिवामद ढा नाम बकलभदेव था । कर दे० (५०) करीड । + [कई फ़ैरब तद्‌० (पु०) सरेद कम, शत्रु, ब्वारी, कुमुद, फैरति नव» (4०) चन्द्रमा कैरबी तल» (स्प्री०) चादिनी, सैत्री ) (र्गिकी। कैसी दे० (स्त्री 2 छोडा झाम, कच्चा आस | (बि०) मूरे कैल देन (पृ०) अंकुर; कपछ, गामा, पक प्रकार का यैलों का वर्ण, मठमैा फः | फ़ैलास च० (०) दर्बंतबिशोष, शिव और इुबेर का दासस्थान |-निकेतन (प० ) महादेग, क्चेर [ “जाख उद« (१०) माण, सत्यु ) कैवर्त तद्‌* (०, महलाइ, मुग्रा, कणंघार | कैवल्प तद्‌» ( ६० ) मुर्ति, मोक्त, निर्वाण, परितन्राण, परमधाम प्राप्ति [ बडे बा््धों वाला । कैशिक तत्‌० (स्त्री०) बाल्नों ढी हट | ( वि० ) बड़े कैसा दे० ( अर० ) छिस प्रकार, किस सांति ।--ही (वा०) किसी प्रकार का | कैसे दे (अ०) किस प्रकार से, क्योंकर, किस भ्द्र ऊे । कैसों दे० कैमट्ट, किसी तरह भी । कैदो दे « करूँगा, कहँँगा । [ छा चिन्ह, झौन | को दे० (अ्र०) कर्मदाचक, द्वितीयाविमक्ति, सम्प्रादान फेाझ दे (पु०) रेशम के की का घर, टसर नामक रेशम का कीडा, कटदल के पके वीज, महुप्‌ का पका फल, कापा | केाइरी ढे० (ए०) एक ब्ोटी जाति। कोइ या फेई दे० (श्र०) श्निश्चित, अ्रनिरिंष्ट, कई में से पुर, करिचत्‌ | - स्रा (बा०) कोई आदमी । न कोई (वा०) यह श्रथवा वह ) केाऊ दे० (स०) कोई मलुष्य, भ्रनिश्चित व्यक्ति । केाएरो दे० ( 9० ) जाति विशेष, काड्डी, खेसी करने बाली जाति। है केचना दे० (क्रि०) वोघना, सोदुता, घुमाना । कॉंढ़ा दे० ( पु ) कुष्माण्ड, केहटा, कुडा जिसमें सॉकिल लगायी जाती है। कॉपल दे० (६०) भ्रकुर, करछा, कनखा | कफ तत० (६०) चक्रवाक पद्ी, चकवा, दधेरा, इस नाम का पुक खड्कारी कि जिस! बनाया अन्य को कशाख के नामछे प्रसिद्द है, जड़ली मे ड्िया, सड्रीव का छुटवाँ भेद, विष्ण, मेढक, मेडिया ।--नद्‌ (५०) छाछ कमल [--शास्त्र तत्‌० (०) काक कृत रतिशा्रन | केका दे० (५०) चकवाक, चकई, चश्या, घायमाई, फरिया, कब, वद्धविरेष [ _ पभझिाम्नकूच। केकिज तत्‌+ (धु०) कोषद, पिक वास (प०) केकिला तदू० (स्री०) देखे ककित । कोकी तद्‌« (ध्वो०) चकवाढी, चहई। केडुण ठव० (६०) शश्रविशेष, देशविश्षेष, यह देश दद्िय मारत में है । हि कोस तद्‌ ० (यु०) कुछि, गर्म, जठर, पेट, पारवे |-- बन्द [ु+) बन्स्‍्वा, सन्तानहीन | केाचीन केचीन (9०) दुक्तिण भारत का एक देशी राज्य + कोछा, कोछी दे (स्वी०) गेदी, लड़कों की डुल्ाने की फकोली + च्िंचरा । केछे ,दे० (०) कोख, कुक्ति, उत्सद्न, गोदी शँचछ, केोज्ञागर ततू० (घु०) आश्विन सास की पूर्णिमा; शरद का पर्व, मह्देश्सव । ] कद, या कोट्ट तत्‌० (पु०) गढ़, किला, दुर्ग । (दे०) एक प्रकार का सिल्षा घर जे कमीज के ऊपर पदना जाता है ।--धारण (छु०) चार दीवारी । कोर तत्‌5 (घु०) बृक्त का खांखला, खोंढरा, खाहड़, किले के आसपास का वन्तावटी बन जो ढुरेरक्षा के लिपे छशाया जाप । कीटदी तद्‌० (ख्री०) नप्म री, विवस्त्र नारी । [राज्य ? कोटा दे० (9०) एु5ल्‍७जगर क्वा मास, राजपूताने का ए5 कैदि बव्‌० ( छु० ) करोड़, सैलाख, ३००००००० एक झोर का भ्रुज, शस्त्रों का श्रप्रभाग, पतछा भाग, धनुष का सिर, श्रेणी, पूर्वेषछ्ठ, उत्तमता, अ्रध॑चच्ध' का सिरा, समूह, करोड [--कल्प (५०) स्वंदा, सर्वक्षण ।--वर्ष (पु०) करोड़ वर्ष, वाणा- छुर के लगर का मास । कैडिक तव्‌० (बि०) करोड़, बहुत श्रधिक, अमित । क्रोडिर तत्‌० (9०) जगा किरिठ, मुकृठ । कोडिशः चत्‌० (क्रि० बि०) बहुत तरह से, अनेकानेक केटीश तच्‌० (गु०) कोट रुपये का धनी, महाघनी; करोड़पती । केास्याधोश (चि०) करोड़पती । केठर तद्‌० (घ०) देखो कादर । केठरी तत््‌० (स्त्री०) छोटा ग्रृद । क्रेठा तद्‌० (पु०) घर, गह | [ भण्डारी । काठार दे० ( घु० ) भण्डार ।-ी चद॒% (घु० ) कोठी तदु० ( रुत्री० ) मद्मजनी घर, जहाँ देव लेन होता है वाल दे० ( पु० ) साहूकार | +-वाल्ली ( स्त्री० ) साहूकारी । केोड़ना दे? (क्रि०) खोदना, खखेरवा, खेत गोड़ना । क्ोड़ा दे० (पु०) चाइुक, कशा ।--करना (व०) वश में करना, अधीन करना ] कोड़ी दे० (स्त्री०) वीस संख्या से परिमित्र कोई वस्तु | केढ़ दे० ( घु० ) कुष्ट रोय |--में खाज, निकलना ( रू ). कामलताई ( वा० ) एक हुलख में दूसरा दुःख, हुःख पर दुभ्स् पड़ना | कोढ़ी दे” ( ग्रु० ) कष्रोगी, कुष्ठी ! कण तत्‌० (धु०) ग॒ह का एक कोना, अस्त्रों का अश्न- भाग, चीणा आदि बजाने का साधन, कमानी, राज, भम्नलमह, शनिम्रह, दो रेखाओं का सन्धिस्थान | कातल दे० ( पु० ) श्रश्वभेइ, बिना सवारी का झज्ञा हुया घोड़ा, जलूली घोड़ा, खाली अश्व । कोतवाल ( छ० ) नगरपाल, पुकिस का नगर में बड़ा अफस्तर | [ कोतवाल का दफूर । क्लेतिवाल्ली (स्त्री०) काददाऊ का काम या उसका पद, क्रोथमीर दे० ( ४० ) कच्ची धनिया, धनिर्या की हरी पत्तियाँ । कोद्‌ दे० ( स्क्रो० ) पत्त, ओर, कोना । काद्य्ड तव्‌० (पु०) घञुप, धन्व/ धडुदी। कोदों तदृ० (एु०) अन्न विशेष, कषेद्रव । काद्य ) तदू० (ए०) भ्रज्न चिशेष | कोद्रिब्य ) तत्‌० देखो कोदों । कान, कोना तदू० (०) खूड, फोण । कोना, कुथरा दे० (बा०) कोण, किमारा, छोर, गोशा । कान्‍्त तव्‌० (पु०) छुन्त, भाला, वर्डो, बतलम | कप तत्‌० ( ६० ) क्रोध, राग, तामछ, रिस ।-+न्‍्ध ( इ० ) अद्यन्त कुद्ध, कोध में बावढा | क्ापना तदु० ( क्रि० ) क्ोघित होना, कुपित द्वोना, कप करना । कपर या कॉपल तदू० (एु०) कठोरा, कदोरी, तर्पण करने का पात्र, तष्ठी, सस्‍्म पत्ते , नचीन दरू, ताजे चिझले हुए पत्र, फ्ूठों की पसखड़िपां । केपान्वित तत््‌० ( शु० ) ऋद्, ऋोधित । कोापित त्तर० (यु०) क्रोधशील, गुस्सा । क्लापी तद्‌० (गु०) क्रोधी, कुषित हुआ, कोई भी । केापीन तदू० (स्त्रीौ०) छूगोड, लंगोटी । केविद्‌ तद॒० (४०) पण्डित, कवि । कोधी दे ० (स्त्री ०) एक तरकारी का नाम, छुच्नाक, गोभी । क्ामल तव्‌* (गु०) नरम, खदु, सुलायम, सुकुमार, सनोज्ञ, मनोहर ।--ता (स्न्री०) स्ूहुता।! कामलताई तद्‌० (स्त्री०) खदुलत/क्रैमरूवा,वरमाइद । काय क्वीय (सर्व5) कोई । फ्ीयर (प०) सब्जी, खागरात । फेयल तदू" (प०) केकिल्त, कोइल्ट पक्की ) फेयला दे० (०) श्रह्नारा, खीरा, कोछा । फोया तद्‌० (धु०) श्राँख का ढेला, श्रॉख का कोना | फेये दे० ( पु० ) भ्राँख के डेले, आँखों के धीच का श्वेत देछा या ढेंढर | कोर दे० (०) फिनारा, छोर, कपर, प्रान्तमाग | फेोरक ठत्‌० ( घु० ) कली, सुकुर, अ्विकसित द्वच्य, झुणाल, शीतलचीनी । फ्रोरकसर (स्त्री) कमी, ब्रटि । फोरड़ी दे (स्द्री०) दोदो इलायची । फेरा दे० (१०) नया, नवीन, विनत्ररत्ता, बिना उपयोग में झ्राया हुश्ला, ( इसका प्रयोग वत्तेन कपड़ा फागज भ्रादि के लिये होता है । ) [ न होना । कोरे रहना ( वा» ) मिराश होना, मनोरध सिद्ध फेोरि दे (०) खुरचकर, खाद कर, कोड़ कर | कोरी दे० (स्त्री०) सादी, विनवर्ता, हिन्दू झुछाद्दा, कपड़ा दिनने थाली जाति विशेष | फेल्ल दे० (१०) खाक्नी, खाल, सकड़ी गक्षी, पदाढ़ियाँ, सूकर, सूभर, पु जफली जाति, गोद, चित्रक, शन्रिप्रद, घे(फल, फकालौमिच, कोरा, गेद । कोला दे (पु०) देखे फोजल । कोल्लाइक् तस्‌« (प०) रौक्ा, कजरव, शोरगुल, बहुत दूर तक जाने वाला, श्रनेक प्रकार का धस्फुट शब्द ) फेालियाना दे० (क्रि०) गोद में केना, काला लेना । कोली द० (च०) धन्द॒वाय, ठांती, कपडे बनाने चाली बुक जाति, छोटी गजी, साकइ गली । फेल्डू देन (पु७) चग्खी, तेल निकालने वा ऊद्ध से रस निकालने की कछ । फेपिद तव्‌« (4५) पण्शित, दुघ, निपुण्य, क्षानी ! फाश तद्‌० ( पु० ) कपल का म्ध्यमाग, तलवार की भ्यान, अस्प्रों का। रखने का घर, अण्डडाश, मण्डप, खज्ञाना, शब्दसप्रद, अमिधान | कोशल या फोशला तद्‌« (द्धी०) भगेर््या नगरी, देश विशेष का नाम, इसका वर्णेन रामायण में आया ई। यह सरयू नदी के किनारे दै। पहले इसे दो ( ७२ ) कला भाग ये, उत्तःझेशछा और दछ्िणकाशला | यह सूर्यवंशी राज्ा्ों की राजधानी थी ।--पुरी [स्त्री०) श्रवोध्या ।-नधीश (०) श्रीराम, कोशक् के राजा ।--चृूद्धि ( स्थ्री० ) भण्दपृदि का रोग, घन की बढ़ती । काप,तत्‌० (०) घनागार, खज़ाना । केपाध्यत्त तत्‌० (पु ) केापाधीश, केपाधिपति, अण्डारी, खर्जाची । केाएछ तत्‌० (पु०) गृहमध्य, कोष्टमध्य, पाकाशय, खाना, खाव +--की तव्‌० ( पु० ) दीवार, लकीर चिन्ह विशेष, (_) पुक धकार का चिन्द्र [ ] “चद्ध ( ० ) मल्लावरोध, मंछकी रुझायद, शोगविशेष । केोछ्टागार तत्‌० ( घु० ) मण्डार, कोप, खजाना | केस तद्‌० ( पु० ) माग॑ की हरूम्वाई का परिमाण, प्राचीन काठ का कास आठ हजार या चार हजार इाथ की लम्बाई का होता था ' वत्तेमान काल का काप २ सील या ३१५२० गज या ७०४० हाय का ड्ोता है, दो मीठ | [ करते रइना ! फेोसना दे० ( क्रि० ) शाप देना, यातों मे दुखी केसा दे* (५०) छीमी, फ्ली, रेशम विशेष । फेसिला (स्वी०) देखे फेशजा । कमी (क्वी०) नदी विशेष, कौशिकी केह तद्‌० ( पु० ) क्रोध, रोष, कोप, ( इस चर्थ में काहु थौर काट्टू का भी प्रयोग रामायण में किया गया है । कोहनी तदू० ( स्री० ) याँद के पीच की गढठि | काइवर दे० (१०) कौतुक गृह; देवगूद | केहरा (३०) कुद/सा, कुदरा कोद्ाना दे* (क्रि० ) कोव करता, क्रोध करना, सिसियाना । [ मान करना, रूप जाना | क्ोद्ाव दे ( पु० ) कोध, कोए, रूठना, काइना, कोद्दी दें० (गुर ) क्रीघ, क्लोपी, यधा--+ » कर कुटार मैं अरुण फोही ” आगे अपराधी शुरु द्ोद्दी ज्चञामायण ) कोइ, याष्ट तव* (पु०) देगा काह। को दे* (ध०) का, के । कौआझा कैशा दे० (छु० ) छाण, काक |-ना (क्रि० ) चकबकाना, सोते में वर्रावा, स्वप्त में वकचा ॥ कँघ दे* ( खी* ) श्रकाश, प्रचाष, दीधि, चमक । कैधिना दे* (क्वि० ) चमकना, प्रकाशित द्दोना कौधा दे० (छ०) विज्ञली, विद्युत, चमक [| कसा दे० (पु०) कमरा, संतरा, नीवृचिशेष, नारही । करैठ्ल्य तत० (५०) कुटिछता, चाल्ाकी, कपट टेढ़ापन । कैहुम्बक तब्‌० (गु०) झुटुम्त्र सम्बन्धी । कड़ा दे० (छु०) बड़ी कैड़ी, शह्दुविशेष । कैड़ियाला दे" ( पु० ) स्पविशेष, पैसेवाला, घनी, नदी विशेष, सरयूलदी । चित, कमाई | कड़ी देन ( स्वी० ) वरायक, वरायिक्ता, छेपा शझ्ढ, कीशप तव्‌० ( छु० ) राक्षस, रात में चलने बालेर की एक जाति । ग्रिप्त, चाणक्य | कैणिडन्य तत्‌० ( 9० ) कुणिदन मुनि का पुत्र, विष्णु- फ्लैठतुक तच्‌» ( ० ) कुतूहल, उत्सव, हर्ष, परिद्वास, अचम्भा, दिललमी, तमाशा, खेलहइूद -“+ी ( ग्रु० ) इर्पाभिलापी, परिद्दाल करनेचाला, रसिक । कतुक्किया तदू० ( छु० ) कीतुक करने वाला, खेल करने धाक्षा, खिलवाढ़ी, तट, चिधाह कराने वाला नाई या पण्डित | तो कैतुकिशन्द भारूस नाहों, चर कन्या अमेक जागमाहीं। ” “्वामायण ) कीछुकी तत्‌० ( थि० ) विनाद शीक | कैतूहल तत्‌० ( गु० ) अपूर्य वस्तु देखने का अ्रमि- छाप, हप, कातुक । क्लौथ दे- ( बि० ) कौन सी तिथि । कथा दे० (वि०) किल संख्या का, गितती में किस सँख्या या स्थान का | [किस प्रकार का । कैन दे० ( सर्व ) प्रक्षा्थक सा ( वा० ) कैसा, द्लैम्ता तदू० ( स्थी० ) कुन्ती, पाण्दव की साता । कैन्सी तद्‌० (स्त्री०) झुन्तघारी, भाका धारण करने चाला। क्लैन्तेय तत्‌० ( घु० ) कुम्ती के सुत्र, पाण्डव, अ्ुन । क्लैप तत« (०) कृप सम्बन्धी जल, कुपेदक । _फ्रीपीन तब" ( घु० ) कोपीन, लेंगाटी, शरीर केचे अ्द्ग जे। कापीन से ढक जाय, पाप, अलुचितकर्म 6 ( शछ३ ) कौशल्या कोौम (स्त्री० ) वर्ण, ज्यति, नस्ल । क्ैमार तव० ( ए० ) कामारावस्था, जन्म से लेकर पचि वर्ष की ब्दधि तक।-- ( स्त्री० ) मात काविशेष, कार्तिक की शक्ति, घराह्दी कन्द, प्रधस विवाद ही स्त्री, पार्वती का नाम । क्रैमुदी तच० ( स्त्री० ) चन्द्रिका, ज्योत्सना, चन्द्रमा, कम प्रकाश, कीतिकोल्सव, कातिकी पूर्णिमा, भ्राश्विन नही पूर्णिमा, व्याकरण का एक अस्च । कमादकी तल० (म्त्री०) विष्यु की गदा का नाम, श्री कृष्ण की गदा | कर तव्‌० (पु०) कवछ, ग्रास, ग्रिरात | [रहने चाहा । क्लैरव तव॒० ( छु० ) कुस्माज का पंश, कुरुदेश में कैरब्य तव्‌० ( पु० ) कुदराज का बेश, मुनिविशेष, महाभारत में वस्पित एक नगर । क्वैौरा दे० (घु०) द्वार का वह भाग जिपसे दरवाजा खुले रहने पर किवाड़ चिपटे र६ते हैं । कोरी दे० (पु०) काना, गोरी, चरालिज्षन । कैल तद्‌० (गु०) सब्कुलादूभव, कुलीन, तान्त्रिकों के श्रतुसार कुछाचार मास्क वाममार्ग के डपासक, सह्ंशज, घरह्मश्ञानी, कबछ । ( छु० ) प्रण, वादा, कैालव तव्‌० ( 9० ) एकादश करणों में का त्रीसरा करण | कैन्निक तत्‌ ( गु० ) कुलपरम्पराप्राप्त, कुलूपरूपरा- झुसार कार्यकारी ) ( पु० ) शाक्त मतालुयायी, तन्तुवाय. तांती; पाखण्डी कैली दे० ( स्त्री० ) श्रंकवार, मोदी । देय तव्‌० ( छु० ) कुकुर, कुत्ता । क्लीलेली देन ( घु० ) गन्धक । कैवा दे० ( एु० ) काग, काश, कब्वा | क्ैवाली दे० ( स्थी० ) एक प्रक्तर का गाव विशेष | कबेर ठत्‌० ( पु० ) कुबेर सम्बन्धी, कुबेर का, छूट मास शआऔपषधि, उत्तर दिशा | कऔैचेरी तत्‌० ( स्त्री० ) उत्तरदिशा, कुबेर की शक्ति ] कऔ;ैशजल त्तथ० (ग्रु०) अदधघपुरवासी, निषुणत्ता, दक्षता; मझनल्ल, चठुराई | क्लै|शली तत््‌« (स्त्री>) कुशलात, ज॒द्दार, कुशल अन्न । क्ौशल्या त्व्‌० ( स्त्री० ) राजा दशरथ की पण्रानी श्री रामचन्द्र जी की ये माता थीं, ये दक्षिण कैशाम्वी € १७४ ) क्रय छोशलछ के राजा की कन्या थीं और रामचर्ध जी | कतुमाली दे० ( ख्री० ) ग्रोषधि विशेष, किरवात्री [ के अश्वमेष यज्ञ समाप्त द्वोते पर इन्होने परले|क यात्रा की, ( २ ) पुरस्राज की स्त्री, (३ ) सत्वान्‌ की स्त्री, (४) इतराष्ट्र की माता, पश्ममुखी झ्रारती | फरीशाम्वी तद्‌० (स्त्री०) वन्‍्सदेश की राजधानी का नाम, प्रयाग से ३० सील दक्तिण-पश्चिम की ओर है। कैशिक तव्‌० ( पु ) मद्॒र्षिं विश्वामित्र का दूसरा नाम, ये महाराज कुशिक के वश में श॒पन्न हुए थे, गाधिराज इनझे पिता का नाम है। इस्त्र, डएलू, नेवला, रेशमीवस्प्र, मज़ा | कैशिकी तत्‌> ( स्त्री० ) एक नदी का माम जो दर- मद्गा के पूरद की श्रेर बहती है, भागलघुर के उत्तरी भाग में और ज्ञो पुश्निया के पश्चिम की ओर है । आज कल इसके कुशी कद्दते हें । इसी नदी के तीर पर महपि ऋष्यशक का श्राश्रम था, चण्डिका, पुक रागिनी, काब्य की प्रधम वृत्ति | फैशेय तत्‌० ( घु० ) पदवम्त्र, पीताम्बर, रेशमी घेती आदि । कैसुस्म तत्‌० (पु०) बनकुसुम, कमल शाक विशेष । कीस्तुम बव्‌० (पु०) विष्णु बच्च म्थित मणि,मुद्रा विशेष! बचा दे० ( झ० ) प्रश्नार्थद, कि, काइ | प्यारी दे० ( स्त्री ) धेंवरा, मेंढ, उपवन, चमन | फ्यें दे० ( ० ) किसलिये, कादे को, कैसा | क्योंकर दे० ( श्र० ) किस प्रशार, कैसा, किस तरह | पयोंकि दे० ( थ० ) इसलिये, इस कारण, किन्तु । ऋ्रकव तत्‌० ( घु० ) करपत्र, आरा, करांती, करील का पेड, नरक विशेष, गणित की <क विशेष क्रिपा | फ्रतक तद्‌० (पु०) घासुदेव के पुक पुत्र का नाम । क्रतु तद« ( पु० ) यज्ञ, याग, पूजा, चदिकरम विशेष, निश्चय, संट्टूरप, इंप्छा, विदे॥, इन्द्रिय, जीव, विःणु, झाषाढ़, ग्रद्मा के पुक मानस पुत्र विश्वेदेवों में से पुछ, हृष्ण के पु पुत्र का नाम, छच द्वीप की पु नदी ॥--द्वेपी (४० ) असुर, दानक, दैद्य, नाखिद्र ।--ध्यंसी ( इु०) शिव, महादेव, इन्होंने ददप्रवापति छा यज्ञ ध्वंस किया था ।--पुरुष ( घु० ) नारायय, विष्छ) >आुज (४० ) देवा, भमर देव ।-विक्रम (पु ) घन खे इर यज्ञ छे फछ़ बेचने दाल | क्रधन तत्‌० (१०) सफेद चन्दन, ऊँट | कन्दुन तव्‌० ( पु ) अश्रुपात, रोदन, कदिना, रोना | --कारी ( गु०) विछात कनेवाज्ा, रोदन करनेवाला | रा कऋ्न्दित दत्‌" (गु०) अनुशोचित, विछ॒पित, रोदित। ऋम तत्‌० ( पु० ) परिपाटी, रीति, बैदिक विधान, कट्पविधिग्रनुक्रम, भांति, शक्ति, श्राक्रमण, चलन, तुल्सीदाप्त जी ने क्रम को कर्मे का भ्रपश्नशा बना कर प्रयोग किया है। जिसका श्र्थ है, कर्मणा। यधा--" मन क्रम बदन चरन रत होई | १ +-क्रम (पु० ) शने शने ।-भड्ढड (४०) अनियम, विधिद्दीनता, साद्दित्य का पुक दोप। +-येग ( थु० ) विधि नियोग ।-संन्‍्यास (५०) आश्रम क्रम से लिया हुथ्रा सैश्यास ।--ंगत ( गु० ) कप प्राप्त, क्रमास्थय, परम्परागत --- पछुयायी ( गु०) विदित, व्यवस्थित, नियमा- मुकूठ ।--लुसार( श्र० ) क्रम क्रम से, नियमा- लुसार ।“+न्वेय ( यु० ) क्रमाइयायी, य्धा- क्रम, क्रमायत, पुक के वाद एक । क्रमण तत्‌० (प०) पैर, पांव, पारे के जो। अशारदह संस्कार किये जाते ईं इनमें से एक | [ थोड़ा करके । क्रमश (बि०) घोरे घीरे, क्रम से, सी क्षसिलेवार, थोड़ा क्रमिक तत्‌० (वि०) क्रमश । क्रमुक तद० (धु० ) सुपारी, कसैली, नागरमोया, कपास का फछ, पठानी छोघ, पक देश का नाम | फ्रमेल, क्रमेलऊ तद्‌० ( घु० ) ऊंट, बट । फ्रय तत्‌० (पु०) द्वग्य देकर वस्तु छेना, मूकय द्वारा पदार्थ अइण, मोर लेना चरोदना |--क्रौत खरीदा हुआ (-विक्य (५० ) छेन देन, व्यापार | क्रयशीय तच० (गु०) क्रेष, प्लेतध्य, मोल लेने येग्य । फथिक तवब्‌> (पु०) केवा, मोर लेनेवाढा, खरीदार । कऋयी तत्‌० (गु०) कऋषकत्तां, मोर लेने वार) क्रय्य तत* ( गुल ) बेंचने के लिये बाजार में फ़ैडाई टुईं पस्तु । ऋब्य सत्‌० ( पु ) माँस, गोश्त कऋब्याद्‌ क्रन्याद्‌ तत्‌० (पु०) चिता की आग, मास खाने चाला क्रान्त तव॒० ( शु* ) शआाक्रसित, पददलित, दबदवा, डका डुश्रा ] क्रान्ति तत्‌० ( स्ली० ) आक्रमण, उपत्व, अत्याचार गति, खग्रोढ्ल के बीच में किल्लित्‌ वक् रेखा, सूर्य- पथ, दीसि, प्रकाश, फेरफार, हेग्फेर, उल्नटफेर । , 5 च्त (स्वी०) सूर्य का मासे ।--मगडल (छ०) राशिचक्र [ व्वन्न हो जाते हैं । क्रिमि ( छ० ) कीड़ी, पेट का रोग जिसमें पेट में कीड़े क्रिय तत्‌० (घु०) मेपराशि। क्रियमाण तत्‌० ( गु० ) व्यवहारान्वित, भारव्धकर्म, चारि प्रकार के कर्मी का एक सेद्‌ । क्रिया तत्‌० ( खो० ) व्यवद्दार, कृत्य: काये, कर्म, शपथ, व्यापार, श्राद्ध, व्याकरण का वह साम जिससे किसी कर्म का होना या किया जाना चिदित हो, उपाय, विधि (--म्वित (सु० ) कर्मान्वित ।--पढु ( ग्रु० ) चतुर आक्ष, दऊ, विदग्ध (-पर ( ग्रु० ) ,कर्मठ, सुकमों, पढ़। +पाद्‌ ( 9० ) चत्तष्पाद, व्यवहार का तीखरा पाद, साक्षियों का शपथ करना |--वसन्त ( गु० ) पराजित +-वान (गु० ) कर्मोद्यत, कमेड्योगी, कमे में नियुक्त) विशेषण ( 8० ) अ्न्‍्ययशब्द ।--रूप ( घु० ) धातुरूप आख्यात । +-लोप (घु०) कर्म में विरक्ति, कर्म निददत्ति । क्रीठ ( ३० ) सुकुड, किरीट, सिर पर धारण किया जाने वात्ता गदना । क्रोडनक तत्‌० (१०) खेकन, खेलने की वस्तु । क्रीडा' तचु० (छ० ) खेल, केलि, कौतुक, कमें, परिहास |--वन ( पु० ) प्रमोद्वन, केलिकानन | ++स्हुग (ए०) खेल के पथ, चानर श्रादि | ऋीत तत्‌० ( 3० ) मूल्य द्वारा ग्रहीव, ख़रीदा हुआ ।! “पुत्र (० ) बारह श्रकार के पुत्रों में से पुक छुच्च। कुद्ध तव० ( गु० ) क्रोधित, कापान्वित । कुमुक तच्‌5 (०) सुपारी, पुंगीफछ । क्रुश्वा ततू० (पु०) खैगाऊ, सियार । क्लूए तत० (वि०) परद्वोद्दी, निर्दंय, चशंस, कठिन, (घु०) अथक,; छुतीय, / पन्‍्चम, सप्तम; नव्स ओर: एका- ( रैण४ ) क्रौश्य दुश राशि, मति, जाल, कनेर, बात पक्षी, सपेद चील, रवि, मड़लल, शनि, राहु, हेतु '--कर्मा (गु) भयकूर कर्म करने वाला, हुराव्मा, निष्ठुर- कमेकारी, (ए०) सूरजसुखी, तितलोकी का पेड़ | #+शग्रन्ध ( छ० ) उम्ययन्ध, तीखा यन्‍्ध, गन्धक। जअह (छु०) रवि, मड़ल, शनि, राहु, केतु कर अह साने यये हैं, विषम राशि |--ता (स्त्री०) खलता, निष्ठुर्ता, निर्दंयता ।--लेचन ( छु० ) शनिग्नद, शनैश्वर ।-रुवरा (घु०) ककश ध्वनि- युक्ति, भयडूर शब्द +-ाकार (प०) रावण, भयझूर, आकार [--ाचार (गु०) भयानक, नुशंस, निठुर । [ गरेग्य। ऋतब्य तव० ( ग्रु० ) क्रेय वस्छु, करयणीय, खरीदने क्रेता तव्‌० (मु०) क्रयकर्ता, ख़रीदार । क्रेय तत्‌० (ग्ु०) क्यणीय, ख़रीदने येग्य ! , क्रौड़ तत्‌० (पु०) दोणों बाहु के बीच का भाग, अर काला, चक्षस्थछ ।--पत्र ( छु० ) अतिरिक्त पत्र, प्रधान पत्र के खाथ दूसरा पत्र । क्रोध तत्‌० (पु०) कप, रोप, भ्रमपे, ब्रह्मा के भौंह से उत्पन्न, शरीरधारियों के स्वाभाविक छः शब्रुों के अन्तर्गत एक शत्रु, साठ संवत्सरों में उनसठर्वा संबत्सर ।--पमूच्छित (ए०) सुगन्ध द्वब्य विशेष, ( गरु० ) अतिझापी ।--तुर ( शभु० ) क्रोधी |-- नथ (गु०) क्रोध प्ले अन्धा । ऋेिधने तत्‌० ( छ० ) कोधी, क्रोधयुक्त, क्रोष्यस्वित (१) कौशिक के एुक पुन्न का नाम । (९) श्रद्ुत के पुत्र और देवातिथि के पिता का नाम | (३) एक संबत्सर का नाम 7 ऋ्रोधित तद्‌० (ग्र०) प्रकृषित, कोध दीछ, कुद्ध । क्रोध्वी तव्‌० (ग्ु०) कोघयुक्त, रागी, रिसहा । क्रोश तत्‌० (घु०) चार हजार या श्राठ हजार हाथ के मार्ग की लम्बाई, केस | ऋ्रोष्टा तत्‌० (०) श्वगाछू, शियाल, गीदढ़ | « क्रोश्व तत्‌० ( घु० ) वकपच्ी, पर्ववविशेष, जिसके छिये परशुराम और कातिरुय दोनों कड़ेशे॥। द्वीपभेद, एक शक्लस का नाम जो यमदानव का पुत्र घा, पुक श्रकार का शख ।-द्वीप (9० ) सात महाद्वीपों के अन्तर्गत एक द्वीप ।- - क्रय. ( र७ऊई ) त्तत्न , कोर्य दत्‌० (प०) ऋरता, निष्ठुस्ता | झ्वार्त तत्‌० ( धु० ) भ्रान्त, थक हुआ्ना, थह्मा मादा, यक्तित (-मना ( गु० ) श्रान्तमन, बद्विन्नचित, दिषादयुक्त ! छ्ाम्ति तत्‌« (स्त्री०) श्रान्ति, श्रम, परिश्रम, पकावट । “कर ( गु* ) श्रमजनक, श्रान्तिकर--च्छिद (7०) विधाम, स्वास्थ्य | [सला । छिन्न तव» (गु०) भाव, मीणा, सनछ, गीला, कलेदयुक्त द्विशित तद्‌० (गु०) फ्लेशयुक्त, दु सी, पीडित, द्वि्ट। द्विश्यपान तत्‌० (पु०) सन्दापित, पीढित | हिट तत्‌० ( पु० ) पूर्वोपर विरुद्ध वाक्य, दु खो, कठिनता से सिद्ध देने बाला ।|--ता (स्थ्री० ) कहिनाई, झापत्ति ।--कर्मा ( पु० ) दृशंस कर्म करने चाला, पीडित । कोच त्त्‌० (२०) नपएुंसक, पुरुपाथेद्दीन, निर्वे्र दिज्वडा, काया, डरपोक |... [ ग्रीज्ञापन, मेल । फ्ल्तेद्‌ तदू* ( घु० ) चाहता, स्वेद, पसीना, ग्रोदापन पल्ेद्न तव्‌० ( पु०) पसीना काने की क्रिया, पचि प्रकार छे कफ के अ्रस्तर्गत कफ विशेष । फ्लेद्ति तत्‌० ( गु० ) भींया हुआ, भाजं, स्वेदित । पलेश तव्‌* ( पु० ) दुख यन्त्रणा, उत्पात, पीढा, कष्ट, धापास, भय ।--कर ( ग्ु* ) दु खदायक, कषटदायक ।-- दू ( गु० ) दुजकर, ब्यथा देने- बाला --वान्‌ ( गु5 ) आपसिप्रस्त, भापत्च+ दुगंत | पह ( शु० ) क्ल्लेशनाशकारी । पफलेशित उद० (गु०) बलेश विशिष्ट, हु खयुक्त, द्वि्ट। फ्लैज्य धत्‌७ ( पु० ) दुर्षंाता, मानसिक निम्रेलता, अनुस्साद । [ बहुत कम । फछच्ित्‌ तव्‌० ( क्रि० द्वि० ) कभी, कुछ नहीं, छाई, करण तत« ( पु० ) ध्वनि, वीणा भादि का शब्द । काथ तच्‌« (पु०) काढ़ा, निर्यास । छाए ( पुृ० ) आरश्विनमास, असेन महाँना (-पन (पु०) कुमारपन | छारा नद्‌० ( वि० ) विन स्याहा, कुँघारा । क्षई तद्‌* (स्व्री० ) दयरोग, कफू और रक्त का निकलना सूखी खासी | ; क्षण तद० ( पु० ) काज़विशेष, तीस कज्ा परिमित समय, दशपक्षपरिमित समय, उत्सव, पर्दे, भवसर, सूक्ष्काल, छुन, लहमा ।--दू तन्‌० ( घु० ) जल, ज्योतिषी, रतौंधिया, जिसे रात में न दीखे | +ददा ( श्री० ) शात्रि, निशा |-दाकार तव्‌० € पु० ) चन्द्रमा ।-दान्ध (गु०) रात के भन्धे, प्राणिविशेष, उक्लू ।--द्युति ( स्त्री०) विधुव, चपडा, विनज्नी |--घ्यंसी ( थु०) अतिशप अख्थिर, उणमात्र ही में नष्ट होने धाला ।--भेगुर (गु०) उण ही में नष्ट होने वाला, विनाशी | क्षणक तत० [9०) क्षण, काछ । त्षणप्रति तत० (श्र०) सतत, अनवरत बराबर । क्ृणरुचि तत्‌० (स्त्री०) विजली, चमहझ, भकाश | ज्षणिक तत्‌० ( गरु० ) उणमात्र स्थायी, भएपकाल स्थितिशील । त्षणिका तव० (स्त्री ०) विज्ञकी, तड़ित | त्षणिनी तद्‌० (स््री०) रात, मिशा । ज्ञषत तत्‌० (प०) घाष, चार, घण, फेड़ा | (वि०) जिसे चोद हगी द्वे, मिसहे घाव झूगा है ।--कांस (पु०) कास, रेगयूविशेष शेष |--म (१०) रक्त, शोणित, ' रुघिर, जाह |--अ्रत ( गु० ) नष्ट परत ।-मण (पु०) चाट लगे हुए स्पान की चीरन से जे। घाव होता है, इसे क्षतमण कहते हैं । ज्ञतप्नी तद्‌* (ख्री०) बाघ, लाइ । ज्ञत-ह उत्‌० (वि०) छत से हष्पन्न, लय, (घु०) दंधिर, चढ़ प्यास जो शरीर में घाव छगने पर झगती है | त्ततयानि तत्‌० (बि०) वह झ्री जिसका पुरुष के साथ समागम द्वे| खुकः है | त्ततविज्षत तव्‌८ (वि०) बहुत घुटीला, उट्टू लूडान । क्षता (धो०) विवद् दाने के पूर्प पर पुरुष मे भागी हुई कन्या । [चिप । ज्ञति तर्‌« (स्री० ) अपधार, अनिष्ट, हानि, श्रपचय, त्षचा तव्‌० (पु) समयि, दरधान, मचुनी, य्र के ओरस से च्रिया € गे से उत्पन्न जाति विशेष, दासी पुत्र, नियाय करने वाढा पुरुष | त्तन्तन्य ( वि० ) माफ़ करने येग्य चन्ता करने येग्य ज्ञन्न तद॒० (पु०) बल, राष्ट्र, घन, शरीर, जछ |--कर्म (पु) इग्रियेलचित कर्म +--थन्धु ( घु« ) निम्दित चत्रिष ।--धघारी ( पु ) गाजा, मूपाक्व ।--पति (६ धुर ) बूप, राजा ।--म्तक (पु) परदराम | क्षत्रिय जबनिय तत्‌० (३० ) बह्मा के बाहु से उत्पन्न चर्ण विशेष, कन्नी, राजनय, दूसरा वर्ण |-- ( ख्त्री० ) छक्षिय जाति की सत्री।-ंणी ( ख्री० ) क्षत्रिय खीजाति, छन्निय पत्नी | ज्ञत्नी तत्‌० (पु०) देखा छत्निय । जझज्निन दे (स्त्री० ) क्षत्रिय जाति की सखी | क्षतरानी दे० ( स्म्री० ) कत्रियानी । चापणक सत्‌० ( चि० ) निलज्न | ( छ० ) बद्धविशेष, सैन्‍्यासी, उन्‍्मच, राजा विक्रमादित्य की सभा के नवरत्रों का दूसरा रत्न | इखछा बनाया कोई अन्य अब तक न देखा गया है श्रार न खुना ही गया है | थमी तक इसका भी पता नहीं क्या है कि'किस नाम का अन्य इसने बनाया था। परन्तु फुठकल सत्तेक इसके नाम प्ले पाये जाते हैं। यह विक्रम के समकालीन था, इसका भी समय खुष्टीय छठी शताब्दी भाना जाता है । क्षपा तत्‌० ( स्री० ) रजनी, रात्रि, निशा, हक्दी ।-- कर ( पु० ) चन्द्रमा, शशाहु, कपूर +-नाथ ( छ० ) चन्द्रमा, कपूर । त्ञपान्त ( घु० ) प्रातःछाल, सबेरा, भार । क्षम तत (ग॒०) गेग्य, समर्थ, उपयुक्त (ता (स्वी०) स्ामध्यं, शक्ति, योग्यता किसना । ज्ञमनां तदू० ( क्रि० ) सहना, क्षमा करना, खुआफृ क्षमा तव्‌० (न्व्ी०) सद्दिष्णुता, सहत्त करने की शक्ति, घरथ्वी, अपराध-मार्जन, दया, रात्रि, हुर्गा, कृपा, आपराधमुक्ति, एुक वर्णावृत्ति, राधिका की एक सखी |--वान्‌ (म०) दयाछु, क्षमा करनेवाल्य, चैयेंशीछ, सहिष्णु |--शील्ल (वि०) छमावान्‌ । ज्ञमापन तत्‌० ( घु० ) कमा करना, अपराध माजना कराना । ज्ञमिय दे" (यु०) क्षमा कीजिये, स॒ञ्अफ्‌ कीजिये । ज्ञमिता तव्‌० (गु०) उमाशील, सहिष्ण । 7 ज्ञमी ततव० (गु०) क्षमाशील, क्षमावात्र्‌ जझम्य तत्‌० (वि०) माफ करने योग्य | ज्ञय तथ्‌० ( छु० ) रोगविशेष, यद्ष्मारोग, छई, विनाश, प्रकय, अ्पचय, धीरे घीरे घटना, सा संवस्सरों में अन्तिम संचत्धर, ज्योतिष मतानुलार एक माश्च- विशेष ।--काल ( पु० ) प्रत्यकाल | -कास ( शृऊछ७ ) | | ज्ञीर विन कल न लत न मजा आल जय. अर अप आकर 2 आम बनना, पलक अल महल क कम (ए०) यदक्ष्माकाल, राजरोग ।--थु (०) खांसी । “पत्त ( छ० ) कृष्णप्त ।--मास, मरूसास, अधिमास | ([( 8० ) चन्द्रमा । क्षयी चत्‌० (वि०) नष्ट होने बाला ज्यरोग का रोगी । क्षरण तत्‌० (पु०) ख्व॒ण, स्ाव, चूना, भड़ना, टफ्कना। ज्ञान्त तव्‌० (ग्रु०) सहनशील, सन्तेपी, घीर, सहिष्णु, क्षमान्वित । [अपकार न करना । ज्ञान्ति तत्‌० ( स््री० ) शक्ति रदने पर भी किसी का ज्ञाञ्ष (बि०) छन्निय सम्बन्धी । ज्ञाम तव्‌० ( गु० ) छीण, ढुबंल, निबेल |--कयठ ( (० ) सूखा कण्ड, मन्दशव्द । ज्ञार तद्‌० ( घु० ) खार, भस्म, नाना, सज्जी, काँच, गुड़, ल्वणविशेष, समुद्रीछृवषण +--पन्न ( छ० ) चशुआ, शाक विशेष |-भ्ूमि ( स्त्री० ) खारी सूमि, ऊसर खेत ।+-खत्तिका ( स्त्री० ) खारी- मिट्टी ।--श्रेष्ट (३०) ढाकब्ृक्ष, पल्ास |--सिम्धु (३०) लवण समुद्र । त्ालन तत्‌० (पु०) प्रक्तालून, धोना, स्वच्छ करना । ज्षिति तव० ( स्त्री० ) एथ्बी, भूमि, मेदिनी, अवनि, घरती, गोरोचन, जय, प्रज़यकाल ।--ज्ञ ( छ० ) सैसाखुर, मन्नल ग्द्द, घाहु उपधातु आदि जो पृथ्वी से निकलते हैं, नरकासुर, केजुया, ध्ृक्ष । सैदान में खड़े द्वैने या और चारों श्रेर देखने पर चारों ओर दिखताई पढ़ने बाज्मा वह चूत्ताकार स्थान ज्ाँ श्राकाश और ध्रध्वी मिली जाम पड़े । नाथ ( ३० ) राजा, शासक, रक्षक -पाल ( पु० ) राजा, दुपति |--मण्डन ( छु० ) ब्रह्मा, आदर्श घुरुष | ज्षितोश तव्‌० (पु०) राजा, नरेश, एथ्वीपाल | जितीश्वर तत्त्‌ू० (9०) प्रशु, स्वामी, सद्टीश । तज्षिप्त वत्त्‌० ( गु* ) फैछायी गयी, त्यक्र, अपमानित, पतित, बात गोग अस्त, पायल ] त्ञिप्र तव* (पु०) शीघ्र, उततावछा, अविलम्ध [--हेस्‍्त (वि०) ऊुर्चीलछा, फुर्दी से काम करने घाल्य । ज्ञीण तब्‌० (यु०) विवंद्, दुर्बछ, क़ृश, दुवछा पतला । ऊता (ल्वी०) कमी, घटी, हानि ।-नडः (ग्रु०) दुर्चैलाडा। क्षीर तत्‌० (घु०) दूध, हुग्घ, पथ [--कंयठ ( ४० ) शा० पाप-रेशे त्ञीरस्वामी ( एड ) क्षाणि बच्चा, दुधमृर्दहा बालक ।--गीर ( वा० ) अमेद- | ज्ुरिका ( ख्री० ) छुरी, पालकी का शाक | भाव, गाढ़ मैन्री ।--घृत ( पु० ) मक्खन ।--थघि (३० ) समुद्र --समुद्र (इ०) दूध का समुद्र । त्तोरस्थामी तव० ( पु० ) प्रसिद्ध सैस्कृत कवि, ये कश्मीर के सद्दाराज जयापीढ़ के राज्यकाल में विद्यमान थे, शाजतरड्लियी में जयापीड का समय ७०० शाक्ले अर्थात्‌ ७७६ है० से लेकर सन्‌ ८३३ हैं० तक दिया गया है और यह भी लिया है कि छीरखाऊी जयापीड़ के थुर थे। बीरसखासी ने अमर- काश की टीका लिखी है तथा और मी व्याकरण सस्वस्धी ग्रन्थ लिखे हैं । त्ञीरी तद॒० (स्त्री०) बूत्त और फल विशेष, खीरी, थन । त्तीरोद तब्‌० (पु०) क्षीर समुद्र ।+-तनया ( ख्री० ) लक्ष्मी, रमा, कमछा |. [चित्त, खेदयुक्त सन | झुणण तद्‌० ( गु० ) चूर्योहन, छु.खित, सन्तापयुक्त ज्षुत्‌ (स्री०) भूस, छुघा । चुस्पिपासा ददु« (स्री०) भूख प्यास | क्षुत ( ६० ) घींक । कुद्र तत०" (पु०) चावल के छोटे टुकड़े, (बि०) भरप, थेढा, नीच, भ्रधम ॥--घणिटका (खत्री०) कटि- भूषण, करघनी ।--ता (स्त्री०) अछ्पता, नीचता, अधमता |--युद्धि (वि०) नीच बुद्धि । क्षुद्रा (स्त्री०) नीच स्व्री, वेश्या, रही, जटामांसी, याल- छटट, सधुमक्सी विशेष, कीडियाला, दिचकी । चुद्राशय (वि५) कमीना, नीच । च्ुधा वय्‌* ( स्री० ) चुघा, वुभुक्षा, खाने की इच्छा, भूस ।-तुर (गु०) क्षुपा से व्याकुछ छघापी- दित ।--छु (वि०) सुक्चइ |--वन्त (गु०) भूखा, अलब्त भूम्वा | चजुघित त्‌० (गु०) क्षुम्दिधात, चुभुदित, सूख्या। ज्षुप (9५ ) कददीठा इूछ, रतिबध, श्रीकृष्ण के एुु पुश्र का नाम | श्दधि ॥ कुख्च त१« ( वि० ) इश्चल, भघीर, विद्वठ, सयभीत छुमित ( वि६ ) छुब्ध । जुर तत« (६०) धस्तुरा, छुत, छुरा, खुर, झूँज़ ।-- क ( पु७ ) गोलरू, शृद्ध सिशेष --धार (पुन) नरक विशेष, याण विशेष झुरपम (५०) खुपा, पैना बाण । छुरो (पु०) नाई, खुर वाला पशु, छुरी । चुल्लक तव० ( पु० ) छोडी, नीच, छुद्र । सत्र त्तत० (पु) खेत, पुण्य भूमि, शरीर, राशि, ख्री, तीथे, सिद्धस्पान, द्वृब्य, प्रकृति, सुद्द, नगर |-- गणित वव० ( पु० ) &त्रों के मापने और उनझे क्षेत्रफड निमालने की विधि विशेष, बतलानेवाली गणिद विद्या विशेष ।--ज्ञ ( पु०) श्पनी श्री से दूपरे के द्वारा उत्पादित पुत्र ।--श (9०) भास्मा, जीव शरीर का देवता “देवता ( पु* ) खेतों के अधिष्ठाता देवता ।--फन् (पु०) खेत की टस्बाई चैडाई --पात् ( पु० ) देदता विशेष, खेत का रक्षक, क्सान '--वित (पु०) कृषिशाल्ष वेत्ता । “ञाज्ञीव (गु०) कृपक, कपं४ ।--धिप (पु०) सेत के श्रधिष्ठाता देवता, मेघ आदि, यारद्द राशियों के स्वामी, खेत का स्वामी, जमीदार । क्लेप सत्‌० (पु०) ह्याग, फेंकना, गोहर, शर निनन्‍्दा; दूरी, बिताना | ज्षेपक तत्‌० छोपकरत्तां, त्यागी, क्षेवकारक, प्रग्पों में मिल्य हुआ, उपछयाओ्ों का भाग, ग्रन्थों का श्रति- रिक्त या अशुद्ध भ्रश, निन्‍्दुनीय, भांग । च्षेपण त१० ( 9०) पेरण, फेंडना, गुजरना, श्रपाद | क्षेपणी (छो०) नाव का डंडा भौर घढली | क्ञेम तव्‌० (स्री०) कुशल महब, भलाई, धर्मशापन के द्वारा इसपन्न किया पुज, त्राप्प वस्तु की रक्षा ।कूत (गु०) कल्याण कारक, मद्नलकत्तों ।--कर शुभकर, महलछर ।--कर्ण ( पु० ) चुन छा पुत्र जस्मेजय का सेखा ।--कुशल (५०) आगेग्य मज्ञख | सेमकरी ( खी० ) देवी का नाम, कुशल करने दाली । ज्षेमेन्द्र तत* (पु०) ये रूश्मीर निवासी पुछ प्रसिद्ध कवि हैं, करमीर के राजा अनन्तदेव के समय में ये कश्मीर में वर्तमान थे। इसका समय १) ग्यागद्री शताब्दी _ निरिचत हुश्रा है |क्षम से कर्म इनके बनाये २३०० ३० ग्रन्थ इस समय प्रसिंद हैं। इनकी कविता शक्ति और छौकिक ज्ञान विशक्षण था। इनके प्रन्‍्थों में एक का नाम “अवदान कक्ष्पता” है। इसमें बौद्ध अद्वास्मा्थों का इाल दिया गया है । स्ाणि तत्‌* ( ख््री० ) धृष्वी, मेंदिनी, अवनी, पृ ज्ञोणी की संख्या -ग (सु०) कितिय । (पु०) मद्ल | “पं (घु० ) राजा, नरपति |-हेव (घु० ) बक्षण, मूसुर ! कोणी तत्‌० ( ख्री० ) इथिवो, भूमि :--पति ( घु० ) नरेश, राजा । ज्ञोद्‌ (३०) छुछनी, चूर्ण, चूर्ण करने की क्रिया । क्ताभ या क्षेभू तर (पु०) क्रोष, पश्चाक्ताप, विचलता रंज, छे।भ, सेह, मसता । त्ञोमित तत्‌० ( वि० ) ब्याकृुण, चलायमान, रंजीदा । त्नौणि, क्ञोणी तघ्‌० ( (स्त्री० ) देखे क्षोणी | ( १७६ ) खज़जानची त्ौद (प०) मथ, शहद, जल, घूक, चंप्रा का पेड़, एक वर्णसकूर जाति ।--ग (ययु०) मु ले उत्पक्ष पदार्थ ! त्ौम तत्‌० ( घ० ) श्रण्डी, पहवस्तर, घर या श्रद्ाारी के ऊपर का होठा, अटढा | त्ञौर तव॒० (०) क्षुरकर्म, बाय बनाना, मुण्डन । क्ञौरक या ज्ञौरिक तत्‌० (प०) छ्षुरा, नाई, नापित। क्षमता तनु ० ( ख्री० ) घरणी, धरा, श्रथिवी, एक की संख्या ।--ततल्न ( इ० ) कातन, मूतछ. प्रथियी चल ।-आुक्छू ( ४० ) सूमिसोक्ता, राजा ।--मेत्‌ ( 3० ) राज्य, तृपति, पर्वत, पहाड़, । तन न>-+-. ख ख' नागरी वर्णमाला में प्रथम कवर्ग का दूसरा अचर जिसका वच्चारण कण्ठ से होता है। ख तव» (५० ) आकाश, गपनमगडलछ, शूल्य, विन्दु, गृदद्िद्, देवछोर, इन्द्रिय, सुख, घह्म । | खरई चतू० (जत्री०) भु्च्चा, मैल, जज, तकरार, लड़ाई । | खखारना दे० ( क्रि० ) खसिना, कफू निकाछूना, दूसरे का ध्यान अपनी ओर श्राकर्पित करने को शब्द विशेष करना | खखस्तेरता दे? (8०) कुरचना, काड़गा, खेदना, छिप कर कोई श्रज्ञात वस्तु तत्नाश करना । खग तत्‌० ( ४० ) पत्ती, चिड़िया, आकाशगामी, वायु अह, खेचर, तारा, वादुक्त, देवता, सूये, चन्द्रमा, गन्धर्व ।--कैतु (०) गरुडू ध्वज, श्रीविष्यु (-- नाथ--तायक (प०) सूर्य,चस्द्रसा,गढ्डू “माह | ( 8० ) बैनतेय, गरुड़, पक्षिराज +--पति ( पु० ) गरुड़,सूर्यचन्द्रमा |--मात्ता (स्त्री ०) पक्षि ससूह। --हा (9५) पक्षिघाती, गेड़ा, बाज, ज्याथ । खगेन्द्र तत्‌० ( धु० ) पक्षिराज, गछड़ । खगेश त्व्‌० (पु०) पक्षियों का स्वासी, सरुड़, चन्द्रसा खगेलल तत्‌० (पु०आ्राकाश-मण्डछ ।--विद्या तव्‌० (स्त्री ०) अह आदि फी गति का ज्ञान करानेवाल्ी विद्या विशेष | खग्ग तव्‌० (ख्री०) खड्‌ ग, तलवार, खांड़ा । खड़ुना दे० (क्रि०) कम द्वोना, घटना, (पु०) न्यूनता, असल्पता | खड्ढूर दे० (१०) मामा, लोहे का मैक्ष, छोहचून। खद्भुगपर था जकार दे+ (३०) थूक, कफ । खड्गलना या खगारना दे० (क्रि०) घोना, बतंन साफ करना, भ्रर्धासवा । ख़त ( गरु० ) दलैला, बड़े बड़े दुति वाला । खचमा दे० (क्रि०) सम्मिलन करना, जे।हना, सठाना, रेखा करमा । खचर तत्‌० (पु०) झाक्राशमामी, चभचर, पणि, नक्षत्र, चायु, त्तीर, रास, कसील, ताल या रूपक विशेष | खचरा तब (वि०) दोगला, हुए । खच्चर दे० ( घु० ) पक्ष विशेष, गदभी और छोड़े के संयोग से उत्पन्न पशु | खचा दे० ( ग्रु० ) खचित, जड्डित, जड़ाऊ, जद़ा हुआ, खींचा हुआ । [स्ींचकर । खच्चाई दे० ( स््री० ) बनवाई, निर्मित कराई, खींधी, खयाखच दे* (8०) ठसाउस [ खचित तद्‌० (गु०) जढ़ित, जड़ाऊ, निर्मित, लिखित । खजखिया ( स्ली० ) योकरी सौ ! खची दे० ( ख्री० ) घनी, निर्मित । खजीना दे० ( खत्री० ) छकीर) रेखा । खजरा दे० ( गु० ) मिला डुश्ना, सिलावदी, मगरा, बण्डेरी, ऋप्पर के बीच का उठा हुआ भाग । खजला ( पु० ) खाजा । खज़ानची (पु०) केयाध्यक, रोकड्िया । खजाना ( हैंएण ) सड़बीड़ा साज्ञाना (१०) बाप, घनायार ॥ सजुध्ा, सझुवा दे० ( पु० ) खाजा, मिठाई । ७ दोनों मेलि घरे है सलुआ ”-सूरदास । अ्रज्न विशेष, मटनास । खजुली (स्री०) फ़ाज, खुशली, छोटा खाज्ा सज्ूर तद० (० ) छुद्दारे का पक भेद [विशेष । फजुया दे० ( पु० ) गेजर, कनग्रेजर, विपेखा कीट सख्ज़ूरिया दे० ( पु० ) सजूर । [आकाश की ज्योति । खज्येतति तत्‌० ( पु० ) खज्योनि, चराश्श का प्रचाश, खज ठत्‌० (१०) बड़डा, लूला, पंगु, विश्छगति ।-- ता ( स्त्री) चरण का अभाव, पगुद, लूछापन | खथ्थेन तद्‌० (पु०) पज्ञरीझ, पथरी विशेष, खडेबा, रपडस्टी च । सक्षर देब ( पु० ) कटारी, भस्त्र विशेष, दाव । खब्री दे० (स्नी०) वाद्य विशेष, खज्नद़ी । खज्नरीद या खझ्रीर तत्‌* (पु०) खज्न पद्की ) खज्ञा (स्त्री०) बृत्त विशेष जिसके सम चरणों में २८ छघु भौर अन्त में लघु होता है, तथा विपम पद में ३० छघु भौर प्न्त में ३ गुरु दाता है । पठ दे० (स्त्री०) खाद, कफ, अ्रधा कुर्धां, पूसा, कुदद्दाडी, पट, छू , सटखट ध्वनि | स्पदक दे०( पु०) खटका, शझ्ढा। सन्रेद, संशय | खदकना दे० (क्रि०) बशाना, कगइना, छड़ना, सन्देद हो श्राना, शब्द हाना, चिस्ता होना । फदका तत्‌« (पु०) सन्देह, मय, चिग्ता, पेच, कीज़, कमानी जिसके दवाने से कियाड़ या पढला खुले सुद्दे। ध्विनि के द्वारा सूचना, लना, छझराना सदकाना दे" (६8४० ) श्रादट देना, शब्द काना, संदकीरा (पु०) सटमतन | ः खदख्द (श्रौ५) रगदा, मंफट, बस्वेड्ा। [ध्वनि करता | खटणादाता दे० (७०) दकठकाना, ठेझना, स्ट खट सद्छप्पर दे (पुर ) छप्पर खट, खाट का प्‌ मेद, शय्या | खटना दे० (क्र) चलना, ठदरना, टिझू रदना [-- स्तव्पद दे* कंगद्, रूडाई, विरोध | स्ठपटियां (वि०) रूगड्ठा, डटारी, बम्पेड्रिया सच्पाटों क्षेमा देन (स्रोौ०) इठ दिखाने की दिये का काम धन्धा खाना पीना! आदि छोड़ना । खद्युना देन (घु०) खाट छुनने दाक्षा, खटबुनवा । पद्मल दे* ( पु० ) खटकीरा, मककुण । खटमिद्दा (वि) कुछ खट्टा चार कुछ मीठा । [घिखेश । खटराग दे० (पु०) प्रनमेज, विशेष, बेजेह, मंझट, खटला दे० (०) परिवार, धाडा, खत्रिये। के काने। के थे छेइ जिसमें ये दालियाँ पद्चितती है । खटपा तदु० (सत्री०) खाट, सट्वा, पकड़, शब्या खदाई दे० (छी०) फट्टा ण्न, भम्ता, ध्रमचूर, इमली । खटाऊा दे० (पु०) सयट्टूर ध्वनि, धढ़ारा, चटाका । खटापटी दे० (स्त्री०) श्रनवन, विरोध, बैर, झगड़ा, जडाई । खदाव दे० (घु०) निर्ाह, नाद बांधने का खूँटा । खटास दे० (स्प्री०) खठाई, शट्टापन, ( घु०) चार पैर का बिल्ली की जाति का अन्तु विशेष, गन्धम्रिलाब । सटादि दे० ( क्रि० ) स्थिर रहते ईं, ददरे रहते हैं, पढ़े रहते ईं, खच छोते हैं । खटठिऊ, खटीक दे० (५०) जाति विशेष, बह्ेलिया। खटिका तत्‌ ( स्त्रो० ) लडकी के लिछने की खदी। खेलखदी ! खटिया दे (स्त्री०) खाट, शयवा, 'चारपाई । खटोला दे" (१०) पालना, मझा, घोटी खटिया | खट्दा दे" (गु९) श्रस्ल, भप्रम्बरत, तुरसाई, श्रम्झता | खदट्टिक दे० (पु०) खटीक, बह्ेलिया । खटूदु दे* (५०) बनिद्वार, मजूर, चाशर । खटचा तव्‌० (स्त्री०) खाद, पछग, खटवा | * ग्वद्वाड्ू तत० (पु०) सूर्यवशी एक राजा, चारपाई का पाया या पराठी, शिव का पृक धअस्प्र, प्रायश्षित्तास्मक मिच्ची संगिनि का पक पात्र, तंब्रिडा मुद्ा विरोप । सड़ दे (स्त्रौ०) पयार, सृय, खर । स्थान । खड़क दे ( एु० ) ग्रेशाला, गरोष्ठ, मै के रइने का सड़कना दे० ( क्रि० ) कनमूनाता, यनाना, अम्यक्त ध्वनि । [छरना । खड्खइुएए देन ( (छि० ) रघयकाला, लड़ सह घ्नि सडसड्िया देन (स्वो०) पाठडी, देली, पीनस ] जडघड़ (स्त्री०) पटपट । खडबडाना (७ «) घना, दितर विनर द्वोना । खड़वीड़ा (वि०) ऊँचा नीचा | ढ़ खड़चीहड़ (.९८२ ) खतके खड़बीहड़ (चि०) उभदखाभड़ । खड़मणडल (७०) गड़बड़ । खड़लीच तद्‌० (पु०) खब्जरीट, खक्ज़न । खड़सान दे० (घु०) शान, पत्यर विशेष, अस्त्र सेज़ करने का पत्थर | [दिण्डायसान 4 खड़ा दे० ( गरु० ) डठा, सीधा, ऊपर के उठा हुआ, खड़ाओं दे० (पु०) पाहुका। ख्ड़ाका (घ०) खटका । खड़िया दे० (स्त्री०) दुधिया मिट्टी, सेलखड़ी, खुर्जी । स्मड्डी दे० (स्त्री०) श्वेतवर्ण स्त्तिका, दूंडायमान । खड़वा दे० (१०) बाला, वलय, कूड़ा | खड़े खड़े दे० ( घा० ) शीव, तदच्षण; तुरन्त । खड़चड़ दे” (9०) पहीबिगेष, खब्दरीट, खत्म । खडज्ठ॒ तत्‌० ( घु० ) असि, तलवण, गेंड़ा, जन्तुविशेष, चोर, तांधिक मुद्दा विरोष । सह दे? (०) गढ़ा, यडढा । [या चिन्ह । खड़्ढा दे० ( 8० ) गढ़ा, श्रधिक रगड़ से उत्पन्न दाग खगड तत्‌० (पु०) इकड़ा, ख़ाढ़े, अध्याय, भाग, हिस्सा, देश, बष, ने! की संख्या, गणित विद्या में समीकरण की एक क्रिया, खाँड, काछा निमक, दिशा । ( वि० ) श्रष॒रा, ऊघु, छोटा |--कथा तत्‌० ( ८त्री० ) कथा विशेष | इसमें चार प्रकार का बिरह वर्णित रहसा है और रखें में करण रस की प्रधानता रहती है | इसमें संत्री श्रथवा धाह्मए लायक रखा जाता है और कथा पूरी होने के पहले ही इसका प्रन्ध पूर्ण हे। जाता है [-- काव्य तत्‌* ( छ० ) जिस काब्य में काव्य के लव छत्चण न पाये जांय, जैसे मेघदूत ।+--खगड (घु०) इुकड़ा हुकढ़ा, भाग क्वा भाग | खबडन तत्‌० ( पु० ) दूपण, तोड़ना, छित्न सिन्न करना, झशुद्ध प्रमाणित ऋरना, काट देना । खगडना तदू० ( स्प्री० ) दूधण देता, खण्डन करना, काटना । किसने के लिये । खण्डनाथे तत्‌० (गु० ) खण्डन करने के लिये, ' खणडपरशु तव्‌० (9०) शिव, सद्ठादेव । खणडमलय तत्‌० (घु०) छोटा अलय, वह प्ररूय जो ब्रह्मा का एक दिन पूरा हे।ने पर दो, किसी देश था खण्ड का लाश, सदाकृरूड । खण्डर दे० ( 8० ) उ्माड़, चीरान, गढ़हा, गढ़ा, कतवार ख़ाना, खण्डदर । [करना, काटना । खशणडरना दे० ( क्वि० ) हुकड़े इुकड़े करना, खयडन खराडशः तत्‌० ( श्र० ) खण्ड खण्ड, छुकड़ा दुकड़ा । खगणडसार दे० ( पु० ) शक्कर का कारखाना ! खण्डित ठत्‌० ( गु ) छेदित, भिन्न, अ्पूर्ण काटा । यया ॥--करना, वात काटवया, खण्डत करना । खएिडिता तत्‌० ( छी० ) नायिक्रा विशेष, पति की अन्यासक्ति के कारण दु/खिता, यथा देह-- # पति तन और नार के रसि के चिन्ह निहार। दुः/खित द्वोय ले। खरिडता वरमत सुकवि चिचार ”॥ रखघरात ' ख़त (घु०) चिट्ठी, हजामत | ख़त्म (वि०) समाप्त, पूर्ण, इति । ख़तरा (३० ) डर, भय, ख़ौफ़ । खतरानी दे० (स्त्री०) खन्नी जाति की स्त्री । ख़ता (स्री०) श्रपराध, कसूर- दोष ' [दिसाव | खतान दे० ( खी० ) जमाख़च की खतोनी, लेखा खतियाना दें० ( पु» ) दैनिक दहिसाथ लिखना । खतियैनी ( खी० ) चह खाता जिसमें व्यक्तिगत प्रथक प्रथक्‌ हिसाव हे। । खत्ता दे० ( पु ) अन्न रखने का गढ़ा; खत्ती । खच्चिल दे० ( छु० ) पोर्त । 'खत्ती दे* ( छु० ) श्रन्न रखने का छोटा खा । खन्नी दे० ( पु० ) जाति विशेष, पञ्ञाव की रहने बाली एछ व्यापारी जाति। खद्खदाना ) किसी वस्तु के उ्थालने के समय जा खद्वदाना ॥ शब्द देता है | खदान (स्व्री८) जान । खद्रि तव॒० (४०) सर, कव्या । खदेड़ दे" (०) दौड़, अद्वेर । खद्ेड्ना या खदेरना दे० ( क्रि० ) दौड़ना, भगाना रंग्रेदना | खच्चोत तत्‌० ( छु० ) छुगुनू, पटक्षीषना । खज त्तद्‌० ( ४० ) खण्ड, साग, चण, समय, सुरूत यधा--- # चेरी घाय सुनत खन घाई * |--जायती खनक तव्‌० ( घु० ) खोदने बाला, रूस, चूद्ा, सेंघ खनकना ( रेपरे ) | खर 5 ने नम नम अप ननकटन+ 9८ तन रन ++ मनन ब्गाने दाला, मूतवजिद्यानवेचा, सोने आदि की ट दे० ( गु० ) सपरा से बना हुश्ा, खरा खानि । [घनि, छतखनाना | समफना है* ( क्रि* ) खनखन शद्ध करना, ठतदन खनकाना ( क्रि० ) सनफन शब्द करना | स्नप्यनाना ( क्रि० ) खनकना | [खेदुना, गेइना । सनन वध» (पु०) विदारण, खानऋरण, गड़ा सनना तदू० ( क्रिष ) खेदना, केदना, सनन करना, सोडना। खंनहन ( वि० ) इलछा, पतला, दुतत्या, सुन्दर । सना तव्‌5 ( स्री० ) प्रसिद्र ज्योति शाख-विदुपी खो । यह विकम।दिय छे नवरत्त सभा के पुक रत्न घराहमिद्दिर की खरी थी । यद्द मिहिर वररुचि के मुप्र नद्ीं थे किन्तु इनछे पिता का नाम बराद्द था | यराह भी प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। खना ने छड्ढा में" गाज्ञसा से ज्योतिबिंचा पढ़ी थी। इस विद्या में बढ इनमी चढ़ी बढ़ी यी कि समय समय पर इसके पति और भ्वसुर को भी नीचा देखना परश्ता था । खनि तत्‌» (स्री०) घातुश्रे का उलत्ति स्थान, आकर, स्ानि। (क्रि०) खेद कर, ऐोद करझे | खनिज्ञ (लि) खान से निकला हुथवा, सान का | सनिन्न तद्‌० (पु०) अख्तर विशेष, खादने का अख्, खन्ती। उनन्‍्ती दे० ( स्त्री० ) मद्दी खाइने का औज़ार, वह गडूढा निपमें से सिद्दी निकाली गयी हे । सपनो ( स्त्री ) कमाची, बॉस की तीक्षी । सपा दे? ( पु० ) टीइरा, ग्यपरा, खरे के टुकड़े + खपड़ा (प०) टिउ्गं, सपरेस । [घर । सपडैल या सपरेस्त ( स्त्री०) खप्ते से छाया हुआ ब्पत दै० ( स्व्री० ) विक्वव, कटती, बिक्री, समाई, गुंमायश + खपनो दे० ( स्व्रो० ) देखे प्पत ) सपना दे० (क्रि० ) रिकृता, विक्री देता, घश्ना, कम देना, खगना, निमना, घट जाना, नष्ट द्वेना | यह सेर बदन की है सपनी--नत्ीर ख़परा दे० (पु०) शदाच्छादत छी सामग्री, खएरा। स्पपरिया ( स्क्री० ) पुर उप घातु, रसक, दिस, कीट विशेष | [ध्ोटा खपरा। खपरो दे० (स्व्री* ) घदा आदि का फूटा भाग, निर्मित, सपद से छाया हुगआा। स्पपाच दे० (स्त्रो०) चैला, काठ या बाँतत का डुकंदा | खपाँची दे० ( स्त्रो० ) खर्पाव, चैल्ली | खपाना दे० (क्रि० ) बेचना, विकदाना, समाप्त करना, लगाना, काम में छाना | खपुआ दे० मंगोडा, डरपेक । खपुर तत्‌* ( घु० ) सुपारी का पेड, खर्ग, श्राशारा, मद्गमेपा, बधनखा + लिल्रसिद, मिस्‍्या | खपुष्प तत्‌० ( घु० ) असम्मव काम, भाकाश पुष्प खप्पर या सघड़ तद्‌* (५० ) साधुश्नों का पात्र विशेष, खै।पढी, कपाल, मु्दे की सोपड़ी का पात्र । खफा ( वि० ) शष्ट, अप्रसष्ठ, कूद । खफोफ ( वि० ) तुष्छ, दृढ्शा, थेदा । [चाक । खबर, खबर दे० ( स्त्री० ) संवाद, सप्ताचार, दाल सबरगीरी ( स्त्री० ) सम्दाल, देसभाल | स़बरदार ( यु ) सजग, सावधान | खबरदारी (स्त्री *) सावध्यनी खबसा दे० (पु०) काँदा, चश्छा, पछू । खब्वा दे० ( गु० ) बॉयाहस्पा, याँया, डेढ़ इत्या । सतत ( पु० ) पायरपने, उन्‍्मतता, सनक । सतती ( वि० ) सतकी, पागल । सम तव्‌० ( घ० ) ताल, भुजा, सम्म ॥-ठोंऋना ताह ठेाकना, पइलेवानें की पुक प्रचार की मुद्रा | पमस 4० ( प० ) निर्वात, वायुरद्वित, प्रीष्म, उम्स, ऊध्म, अप्स | स्पमार दे० (पु० चोम, मेड, इरचज, खदबद | [दढठ । समाद दे० (पु०) पेट की जबन, घदरादद, इृदयड़ा- स्समीलत दें० (पु० ) यहावट, क्ान्ति, श्रवमाद, आन्ति ! सम्बा तद० (पु०) धस्मा+ शुनि, म्तम्म । खम्मा तद्‌« (१०) स्वम्म, खम्बा, थासा | सम्माव ( स्त्री० ) रागिनी विशेष जं॥रात में दूसरे चहर गायी जाती है। स़यानत ( स्थ्री० ) थेईमानी, घरोइर इृठप जाना । ग्वयाल (१०) घ्यान, याद, स्मरण । खर सत्‌« € वि० ) तीकण, तेज, कड़ा, ( पु० ) ठण, घास, गईम, खब्चर, बगचा, कावा, सकत्यरों में खरक (्‌ श्प्डे ) खपर नल नम ५-4 ८०-५० करन कल-ने “नमन कक भ+>म मनन कर न रन पकने» पक >-% ३ मन» « »मलन्‍ कक न ४ सल>++ मन नमक नगर ३>- २० अप: पचीसर्वों, कंक, उत्तम, पुक राक्स का नाम, यह रासायण की प्रसिद्ध सूर्पनखा का भाई था। सुमाली शक्षस की कन्या विसश्नवाम्र॒ुनि से च्याही गयी, उसीले खर उत्पन्न हुआ, चैौद॒द इज़ार राहसें के केकर यह रावण की श्राह्ला से जनस्थान की रा करता था | सूपनखा के नाक कान कटने के चाद यह अ्रपनी सेना के साथ रामचन्द्रजी से लड़ने गया | बहा अपनी सेना और दृपण शआादि चीर घेनापतियें के साथ सारा गया [|] खरक दे० (पु०) गाशाला, खड़क | खरकना दे० ( क्रि० ) खन्तकना, गिरना, स्खलित होना, धमकाना, भगाना । खरका (9०) दाँदि करोदने का तिनका ] खरखर या खरखरा दे० ( गु० ) खरहरा, द्रदरा, शीघ्र , तुत । ख़रख़शा (छ०) ख़टका, बखेड़ा, टंटा । ख़रगे।श (प०) खरहा । ख़रल था खरा (पु०) ज्यय, खपत | खरचना (क्रि०) व्यय करना । खरछूरा दे" (ए०) खड़वड़, भड़यड़, दरद्रा | ररज्ञा दे० ( छु० ) पदाव, पक्का बनाया हुश्रा, पक्की सढ़क, बहुत पकने से जलती हुई ईंट | खरतत्त दे० (चि०) खरा, स्पष्टवादी, साफ दिलवाला । ख्रदूपण तच्‌० (३०) रावण के खर और दूपण नाम के दो भाई ज्ये दण्डकारण्य की चौकी पर नियत | थे, घतूरा। खरपन्न तव्‌० ( घु० ) छुगन्धित पौधा, भरुवा ] खरपा दे० ( छ० ) खराऊँ, जट्टाऊँ, उर्भा, स्त्रियों के पहनने का जूता, चवगला खरब (उु०) संख्या विशेष । खरबर दे० ( ख्री० ) खद्वड़ ध्वनि, अड़बढ़ | खरबा ( छु० ) जूत्ती, पैर के तलुबा में खाल के फड जाने से जो दरारें हे जाती हैं।. [गिल फल खरबूसा दे” (घ० ) ककढ़ी की जाति का एक खरमभर दे० (स्वी०) छोस, बोस, अचसादु, खलबली, ) डयल घुधल, शोर, इक्तचक्क । खरमश्षरी तत्‌० ( स्व्री० ) ऊंग, अपासाये । खरमिदाव (पु०) जलूपान, खुजलाइद दूर करना । खरयप्टिका तद्‌० ( स्त्री० ) खिरहरी, ओपधि विशेष ! खरत्त दे ० (५०) औषपध छूटने का पत्थर का पात्र, खल्द । खरहरा दे० ( घु० ) घोड़ा आ्रादि के साफ करने का ऊंधा, अरहर के उंठलें का क्ाड | खरहरी (स्त्री०) सेवा विशेष। खरहा दे० (पु०) शशक, खरगेश | खरदारना दे० ( क्रि० ) छुद्दारना, साढृना, पटेरता! खरही दे० (पु०) टाल, ढेर, राशि, खरगे।श की मादा | खरा दे० ( ४० ) चेखा, श्रेष्ठ, उत्तम, बट्टिया, चेज़, तीखा, पैन, गरम । खराई दे- (स्थ्री०) सत्यता, सच्चाई, उत्तमता । खराऊ ( स्त्री० ) पादुका | खराका दे० ( इ० ) घढ़ाका, खड़कट्राहट | खराद ( पु० ) छकड़ी चिकनाने का यंत्र विशेष । खरापन (9०) सत्यता, निर्मयता [ ख़राब (वि०) छुरा, नीच, दीन, तुच्छ । [श्रीरामचन्द्र । खरारिया खरारी तत्‌० (५० ) बरदेत्य के शत्रु, खराहिन्द दे? ( स्त्री० ) जली घास, दुर्गन्‍्ध । खरिक दे० ( छ० ) सोशाल्ट, सड़क, ऊख जे। खरीफ की फूसल के बाद बाई जाय । । खरिदान (५०) वह स्थान जहाँ खेत से काट कर श्रना ५. बुक किया जाता है । घी, गदंभी । खरी दे० (ग्रु०) उत्तम, श्रच्छी, चोखी, भल्ती, (स्त्री०) ख़रीद्‌ दे” ( 9० ) क्रय, कीनना । ख़रीदा दे० (ग्रु०) क्रयक्रिया, सूल्य देकर लिया | ख़रीददार दे० (ग्रु०) क्रेता, ऋयकर््ता ख़रीफ (स्त्री०) श्रापाठ़ शरे श्रयहन भर में काटी जाने बाली फसल ! खरे दे० (गु०) उत्तम, शच्छे, चेाखे, जड़े । खरो दे० (यु०) चोदा, खरा, उत्तम, चीखा | खरेाचना दे ० (क्रि०) खुर्चना, खसेडना, घकाटना ( | खरेंठ बे० (सत्री०) खरोंच, चकाट, खलेड | [चाका । | ख़र्चे (पु०) ब्यय, खपत ला अधिक व्यय फरने । खजे तदू० (पु०) पड़ज, दाग उद्यारण का स्थास विशेष। खज्जूर तव्॒‌० (०) खजूर, छुद्ारा ! खज्ज्‌ रिक्रा तच० (स्त्री०) पिण्डी खजूर, पिण्ड खजूर । खज्जुरी तव्‌० (स्री०) मूसली, अऔपध विशेष | खर्पर सच्‌5 (ु०) खप्पर, खोपड़ी, सिर, कपाछ | खब्बे (६ रैंप ) ससाटना सर्व तब" (9०) कुपेश का घव विशेष, संख्या विशेष ३००५०००००००० (गु०) शुद्ध, वामन, छोटा, हस्व, नाढा, बागा |. [पर्वत पर वसा छुश्ना गये | सर्च (३०) चार सी गयी के बीच इसा हुआ शाँव, सर्वज्ञा दे (पु) दैसे सरदूजा । [चिद्गा, फलरा। खर्रा दे० (३०) पापइुलिपि, मसद्रिदा, दद्वर, खरफरा, ॥ खर्राद्य दे० (पु०) पऐेनने में घुर्रान्य, गाढ़निद्वा, सीधया | ! खलीन तव्‌* (०) कविचा, छग्राम ! खलीता दे० (ख्री०) चैी, पत्र, डिड्ी पत्री । | खज्नीफा (पु०) श्रष्यक्ष, दद दर्जा । | खल्लू तच्‌* (अ०) निश्चय, नि;सन्देद, संशय रहित । ' खेल दे० (१०) कुलेक, गढ़ा। खल्ते दे० (क्रिग) अछरना, भारी मालूम धोना, (३०) दुर्शे का बलों को,पद शब्द रामावश में प्रयुक्त दुआ है। खल तव* (गु) दुष्ट, नीच, धधम, सशूमिस्थान, डण्टी | सह्लिव तद» (गु०) चस्दठा, गम्जा, खवाद| से श्रक्ष निकालने का स्थान, खलिहान, झुर, दुज्ज न, श्रोषधि कूटने का पत्थर का पात्र +--कथा (स्त्री०) यूर्तों की कपा, चापलूसी बात |-ता (स्त्री०) दुष्टठा, चीचना, पूततता, खूरता। सलई (क्ि०) घलता है । सलऊ (३०) दृष्टि, ययत, संसार । सलकत (स्त्री०) खुष्टि, समूद, भीड । सलजलंद ५ (ध०) खलबठ, खड्जद, नदी के बेग में ज्ञठ की ध्वनि [ प्रक्नड्वा ३५ (४०) शए्वन, रमणीय बांग, सनेहरचन । खलदा 4५ (१०) चमदा, छा, खाक । [श्रधीरता । खलवज़ दै० ( पृ० 9) इछचलछ, कुतूदलठ, धस्छुकता, पतक्तथक्ञाना दे* (क्रि० ) बफनना, उपर उठना; उदलछना | सलचली दे (स्त्री) भीत, भय से घबढाइट | ग्पलल (घु०) बाधा, विरेष, रझावट |. [पितुरिया। खली तब (स्प्री०) दुष्ठा स्त्री, श्रथम, बेस्या, पातुए, खलाना दे* (क्रिग) खाली करना एजएए दे (स्प्री५) नीची भूति, रत्न ६ खज्ारि त्व्‌० (१५) नारायण, विष्णु, सज्जन | फपलास (वि०) मुक्त, समाप्त, ख़तम | पिवेर । खासी दे" (स्त्रो०) मुक्ति, छुटकारा, छुट्टी, छुली, खजाद दै० (१०) निदान, खलार । स्थान । एलियाय दे* (बु०) छठा, खछ, भग साफ करने का खतियाना दे० (क्रि०) छीवना, वघेड्ना, रिक्त करना खादी काना ) खज़िदान दे० (१०॥ देपो सल्ियान | साली तद्‌० (छ्वी०) घल, नीच अघम, सासा, तिछ | खल्वाद्ध तव्‌० (पु०) मिसके सिर पर बान्न नहीं, गझजा; चन्दृल्ला सवा दे* (३०) कन्घा, रकनन्‍्ध, कि | खदबाना ( जि ०) खिलाना, भोजन कराना । सवास (५५) राजा्ोों का बढ नौकर जो इनडछेः पान खिलाता है, हुका पिलाता है भौर पोशाक १हि- नाता है खबेया (३०) सामे चाढा खण या संस तत्‌० (घ०) पुर प्रकार का सुगन्धित तृण, उशीर, देश विशेष, यह देश पर्दत प्रधान है और भारतवर्ष फे चर की भोर है। यहाँ के श्रथ्रिवासी को भी सथ कटते हैं । सप्तकन्त देन (स्री०) चम्पत होना, गुम द्वोना, मास ज्ञानां, भागने को शद्यत | खसकना दे (क्रि०) नीचे आना, गिरमा, इंटमा, एृछ स्पान से हट जाना, चाहे नीचे या ऊपर सरकना । सासकाना दे" (क्रि०) सरकाना, इटाना, बढ़ाना, । खसखस दे« (पु०) पेस्ता का दाना, इशीर, खस | संघससा दे० [ए०) गढा सखना|गले की सुरसुराध्ट । संस्दा 4० (पु) बड्ढी, घाटा, पूटी, सुमझ्जी | खससना देश (क्ि०) धसना , गिर पड़ना, नौचे भागा । सतसम्र (०) पत्ति, मर्तों, स्वामी । स्तसरा (प०) बरी, खरी, छेटी चेचक, खुशस्टी । खंखाना दे० (क्रि०) गिरना, परचागपद करना | ससिया (१०) बद्चिया, नपुसर बकरा । सतस्तो दे (स्ये०) गिरी, सरकी, नीचे भावी शाम्राथण में इस शब्द का प्रयोग किया गया है। पधा-- “सी मात्र मूरति मुसकानीए आदि का तैण रद्दित चू्य ।--फार (पु०) अपर | ससेठना दे* (क्रि०) निकटता, भरम्याय से ऊिसी का अपिष्ट | $ घने लेना, नाचना । खस्फाडिक ( श८४ ) खाना खरूफटिक दे० ( घु० ) काँच, सूर्य मणि, आकाश की संणि । खली (पु०) बकरा ! खांग दे० (छु०) बढ़ा दति, नाकीली वस्तु । खाँगड़ (गु०) शस्त्रचारी, कटीला | खाँगना (क्रि०) घटना, ज्ञंग आना। खाँच दे० (ए०) कीचड़, कांदा । स्ॉँचना दे ० (क्रि०) लिखना, चिन्ह बनाना । खाँचा दं० (ए०) देकरा । खाँडु दे० (पु०) शक्कर, चीनी । खाँड़ना दे? (क्रि०) छाटना, कूटना, आघात के द्वारा अज्नादि का साफ करना. निस्तुपीऋरण | खाँडा दे० (५०) जड्ग विशेष, अस्त्रविशेष, लेगा |-- खाँड़े की घार पर चलना (दा०) हुप्कर न्याय, झतिशय कठिन, उचित मार्ग पर चकना | खाँसना तद्‌० ( क्रि० ) खेखना, खखारना, खों खो करना, हों ठी करना । खाँसी तदू० ( स्त्री० ) रोग विशेष, कासरोग, खोखी । खाद दे० (क्रि०) खाकर, भोजन कर । खाइय दे (क्रि०) खाइये, भोजन कीजिये। खाई दे० ( क्रि० ) खाली, भोजन कर लिया | (स्त्री०) किले के या नगर के चारों ओर की नहर, गर्त, गडुद्दा, खात, माल्ठा | [जा ज्ञाने चारा । खाऊ दे" (१०) पेद्द, पेटर्थी, मेजन लेगलुप, श्राक्सी, ख़ाक ( स्त्री० ) राख, घूल । ख़ाका (पु०) ढांचा । [एक फ़िर्का । खाकी ( वि० ) भूरा ( छु० ) मुसटसानी फरकीरों का खाम (पु०) दे० गेंडे की सींग । खागा दे० (घु० ) खन्ना, तलवार, खीाढ़ा | खाज्ञ दे० (स्त्री०) खुजलाहड, खुजली, कण्डू | खाजा दे० ( छ० ) एक प्रकार की सिठाई । खाज्ञा दे (पु०) काठ का बड़ा पात्र । खाद तदू० (स्त्री०) खट्वा, पत्नद्भ, चारपाई । खाड़ (०) गड्ढा, यते । खाण्डव तय” (पु०) बन विशेष, इन्द्र का बन, जिसे अज्लेच ने जलाया था और उसे जलाकर अश्लि का अजीर्ण रोग दूर किया |-प्रस्थ ( पु० ) नगर विशेष | खाल ततव्‌० (9०) पेखरा, गढ़ा, गढ़हा, खाद, गोचर | खातक तद्‌० (१०) ऋणी, घरता, अधमर्ण, कृज्ेँबन्द । ख़ातमा (पु०) रूच्छु, अन्त | [लेन देन । खाता दे० (०) एक स्राथ दँघे हुए्‌ पत्र, हिसाव, वही, ख़ातिर दे० ( पु० ) थरादर, कारण, लिये क्षमा ( स्त्री० ) विश्वास, सनन्‍्तोप ।-दारी ( स्ट्री० ) आदर, आवज्नाव ।--ी (स्त्री०) आदर सम्मान | खातेऊ दे० (क्रि०) खा जाता, खाता, खा लेता, मैं खा लेता, खाते हुए भी, रामायण में इस शब्द का प्रयोग किया गया है । खाती दे० (स्त्री०) खंती, भू खेदनेवाली एक जाति [ (बु०) जाति विशेष, बढ़ई । [थ्रादि, पखसि । खाद्‌ दे० ( घु० ) मेवर, क्तवार, सढ़ी वस्तु, मर खादक तत्‌० (५१०) खाने घाला, खबेया, ऋणी, क॒र्जो, अधमर्य | खादन तत्‌० (प०) भोजन, मज्षण । खादि दे (पु०) वस्त्र विशेष, हाथ छे बन खूत का ” बस्तर विशेष, खदर, खाद्य, कवच, दल्याना । ख्ादिम (३०) लेवक, दाल | खादुक (ग॒ु०) हिंसक, हिंसालु । खाद्य, खादु तत्‌० ( छ० ) भोजनीय वल्तु, भछणीय, खाने ये।ग्य वस्तु, खाने के उपयुक्त पदार्थ | खान तदू० (४०) भोजन छा ढक्क, यथा--४नका खान पान ते। देखे (--पान तदू" (छु०) खाना पीचा; खाने पीने का श्राचार, ख़ाने पीने का सम्बन्ध, यथा--हमारा उनका खान पान चंद है । खानखर दे० (एु०) गे, सुरक्ष, खोह । खानख़ाना (छु०) सुगल्न सरदारों की पुक उपाधि, लरदारों का सरदार | खानगी (वि०) घरेलू, निज्रका (स्त्री०) रंडी, पचुरिया। खानदान ( ४० ) कुछ, वंश (-- ( वि० ) कुल्ीन, सदृकुलेदूसव, परम्परागत; पुश्तैनी |. [नाम । ख़ानदेश ( घु० ) वम्बई दाते के भन्तगंत एक अदेश का ख़ानसामा ( ४० ) अ्रेंगरेश्ञों का बबर्ची या भंडारी | खाना दे० (पु०) सेजन, सकण, आहार |--तलाशी (स्त्री०) घर में किसी चोरी गयी हुई चस्तु के लिये पुकिस हारा खोज | छा० पू+-२४ सानि ( रद ) खिसना खाति दन्‌ (स्त्री०) सान, उत्पत्तिस्थान, आहर, तरफ | #४ पिरता चारो सानि । ? तरद, ढड् " चारि सानि जग जीव जदाना । तुलसीदास । खानिक तद्‌० ( गु० ) घानि सम्बन्धी, खानि का, आकर का, सदान का | पानी तद० ( म्त्री० ) यान, आयर, खोदी । साप दे? ( स्त्री० ) तत्तघार की पोल, म्यान, काप । खाबड़ दे० (पु०) ऊँच नीच, अडबद । खार तद्‌० (पु०) चार, लाना, सल्नी मिट्टी | सारका दें० (१०) छुदगा । खारय दे (फ्रि०) खाली करें, का निकालें, साफ करें । सारा दे? (पु०) नेना, ढार, तीज़ा । सारी दे० (स्त्री०) कडुवा निमक, तीखा तान । खासुया दे० (६०) एुऊ प्रकार का लाछ मोटा कपड़ा! साल दे० (स्त्री०) चमढा, धौकनी, मस्त्रा, चरम, खाली जगद, गद्दराई, अवकाश [--स्ैंचना (क्रि० ) शरीर पर का चमडा उतार लेना, खलडी उघेरना॥ एपालसा ( वि० ) सरह्वरी, जिस पर एक का माढ- काना दो | साला (गु०) नीचा । ज़ाला (स्त्री०) मैसी । प्राज्षिस (गु०) श॒द्ध, वेमेल । साली दे (पु०) रीता, रिक्त, ग्रूल्य । खाल दै० (५०) देद का चर्म, सेदना । खाले दे० पोदे, पेट करे, नीचे, गइदे में । स्याविद (पु०) पति, भर्ता, स्वामी । पास (वि०) प्रधान, मुख्य, निन्नी, प्िय।. [इशर। खिचड़ी दे० (स्त्री०) खिचरी, मिश्रित मोजजन विशेष, सिचना दे (क्रि०) तानना, ऐँचना | ख़िचाय दे (क्रि०) सिचवाकर, तना कर, इस शब्द का प्रयोग घजमाषा में होता है । खिंचाव दे" (पु०) तनाव, स्वेचाव, ऐेंचाव | सिचांचट दे* (पु०) ऐंचापट, तनाव, तनना, ऐंडना । जिमडो दे? ( छो० ) येगी छा आसन, येगी खटिया | लिंदना । पिड्जाना दें* ( क्रि* ) कुपित द्वेता, ऋुद द्वोना, छिन्नाना देर ( किए ) फुछ करता कुषित करना। ज़िज्ञाब ( ० ) केशक्द्प, सफेद वाले को! काल्ले करने क्री दवा । पिर्क दे (छ्ली०) क्रोध, कैप, खिसियादट। पिस्काना या खिभल्नाना दे| ( क्रि० ) चिढ़ाना, तंग करना, खिज्ञाना | खिड़की देन (स्री०) मरोपा, गवाक्ष, गौख, दरीची। खिगण्डाना दे (क्रि०) िपराना, विसेरना, दितराना ) फिताय (पु०) उपाधि, पदवी । पिच, दइल। खिद्मत (स्वी०) सेवा --गार (३०) सेवक ।-गारों सिन्न तत्‌० (यु) खेदित, द्विपाद प्राप्त, बदास, दु खित, दु सी, दु खिया | प॒िरनी दे० (स्री०) फछ विशेष, खिन्ची । खिराज (5०) कर, माल्युजाती । फिल दे० (पु०) चागल, अगेल, धच्ची । फिलखिलाना दे० (क्रिग) खुब जोर से दँस्ना, ढट्वा करता, हँसना । हिपषित द्वाना । खिलजाना दे० (क्रिक) विकसित द्वोना, श्रफुछ होता, पिलना दे* ( कि० ) विकसित दाना, फूबना, पृष्पित द्वोना । फिलवाड़्‌ (स्वी०) सेल, तमाशा । खिल्लाईदाई दे० (स्री०) धात्री, धाय, खिलाने पिलाने बाली, प्रतिपाढन करने वाली। खिलाऊ दे० ( गु९ ) खिलाने चाछा, फूँडने बाला; अधिरुब्यथी, भपव्ययी । [शावारा, उच्डूद्धछ । फिलाड़, खिलाड़ी दे* (ए०) चध्चल, खेटने वाढा, खिलाना दे० (क्रि०) मोजन करना । फिल्लाफ (वि०) विरुद्ध, उिपरीत । खिलैया दे० (६०) खेल्न करने बाढा, सिक्षाढ़ी | खिलौना दे० (१०) गुदिपा, धुतल्ली, पेजने की पस्तु । पिल्ली दे० (स्ो०) दंसी द्देली, परिद्दास, ठट्ठा, पान की बीढी, खील | सिललू दे* (यु०) खित्ाद, खिलाड़ी, खेडने वाला । सिल्लोी दे* (ख्त्री०) भ्रत्यधिक इसने वाली । फिसकना दई० ( क्रि० ) चम्पत होना, सरकता, चढा- ज्ञागा, माशना । [दाना । सिसकाना दे० (्‌ क्रिन ) इटाना, भगाना, सर सिसना दे० ( करिए ) रख होना, नवना, मुझना, शरणागन शाना | खिसलना खिसल्वना दे० (क्रि०) सरकना, फिस्रल॒ना, पिछलना, गिरना । 'बिसलदहा दे० (गृु०) चिकना, फिसल॒हा, चिक्ण । -खिसलाहट दे० (ज्री०) खीऊना, क्रोध, क्षोप । खिखाना दे० ( क्रि० ) हटना, ठारुना, अलुत्साहित हे।ना, क्द्ध होना । हििसना, डलना । खिसाय रहना दे० (क्रि३) अप्रसन्न हे जाना, द्िच- सिसियाना दे० ( क्रि० ) चिड्नचिढ़ाना, कोष करना, खिधाना, सर्माना । खिसियानि दे ० (स्वी०) लज़ित प्लोमा, ऊज्या, जाई | खिसियानों (ज्ली०) शर्मायी हुई, छजानी हुई, हारी हुई । खिसियाहूद दे० (स्त्री०) क्रोच, कप, खीस, खीज । खींच दे० (स्त्री०) अ्रप्रसक्षता, अनवन |--तान दे० (स्त्री०) इेचातान, किसी शब्द' फा किट कक्प्ना के सहारे अन्यथा श्रथे करमा। [देखो खेँंचाखेंची । खींचातान, खींचातानी खींचाखींची दे० ( स्त्री० खोज दे० (स्त्री०) क्रोध, काप, कुंकाहट | खीजना दे० ( क्रि० ) क्रोधित होना; कुपित होवा; खिजलाना । खीभा दे० (स्त्री०) ख्ीज, क्रोध, फुंकलाइट | स्लीच तदू० (गु०) ज्षीण, दुबंल, दुना, पतला, नाजुक, सुकुम्तार [!छ०) बंगाली मिठाई विशेष । खीर तदूं० ( छु० ) ज्षीर, पायस, तसमई |-मेहन ख्ीरा दे" (३०) फलछविशेष, चैमासे की ककड़ी | खीरी दे० (स्त्री०) सेवाविशेष, पिल्‍्ता, गौ, मैस आदि का ऐम । [छावा । खील, खील्ला दे० (स्त्री०) घान का ज्ञाघा, महार्थ खील्नी दे० (स्त्री०) पान की बीड़ी । खोस दे० (स्त्री०) देटा, घाय, न्यूनता, कमी, कोध, दाँत का निकास । खीसना दे० (क्रि०) क्रोध करमा) खीस निकालना । खीसा दे" (पु०) खलीता, जेब, थैली (म््ि०) घटा, उतरा, सरका, गिरा | खीह दे० (स्त्री०) रेह, सज्जी सद्दी ). [लछने बाला | खु ठकढ़वा (५०) कान मेत्तिया, कान का सेल निका- खु दुलना दे० ( क्रि० ) कुचलना, रौंदना, पद्ाहत करना | (६ रैफ७ ) खुबना खुझआर (वि०) ख़राब, श्रमतिष्टिठ, आपदूअस्त । खुआरो (ख्री०) नाश, ख़राबी । [खिछुक, छूछ्ा । खुख, खुकस दे" (गु०) अकिब्वन, वरिद्र, दीन, कश्नमल, खुचर या खुच्चुर (स्त्री०) व्यर्थ दोष निकालना । खुजलाना दे" (क्रि३) खजञ॒धाना, सुहाना, सुहराना, खुलबुत्ञाना । खुजलाहद दे० (स्त्री०) खुजली, गुदगुदी, सुरसुरी । खुनल्ली दे० (स्त्रो०) खाज, कण्डू । हिस्सा | खुडमा ( घ० ) मेल, तबछुद। फछादि का रेशेदार खुझराद्दा दे० (गु०) कृपण, अर्थ पिशाच, लीचड़ | खुदकना दे० ( क्रि० ) सन्देह करना, कुतरना, सेश- यित्र होना । खुटका दे० (३०) सन्देह, शह्डूग, ब्यग्नचित्तता ! खुदचात्त (स्त्री०) नीचता, बुरी चाल, उपद्रव | खुदाई दे - (स्त्री०) हुएता, अधमता, खेटापन, सट- खदी, वद्माशी । खुदाता दे० (क्रि०) वरावर करना, तुरुय करता, समान करना, निःशेप होना, च्ीण द्वोना, न९ द्वोमा | खुदानी दे० (क्रि०) पूरी हुई, निःशेष दे। गईं । खुद्दी दे० (खी०) पूंजी, रोकड़, मूछधन । [वास, बेहड़ । खुडल्ता दे० (पु०) पक्षियों के रदने का स्थाव, सुर्गों का खुड़ी दे० (स्त्री०) पायखाने में पैर रखने का पायदान । खुगडला दे० (प०) कादर, बृच्ध का छिद्र, खेखर । खुत्य (पघु०) पेड़ के ऊपर का भाग ।--े (स्त्री०) खूदी, घन, बसनी । खुद स्वयं, आप । खुदरा दे? (बि०) चोदा, फ़ुटकर । [सुड़्वान । खुदवाना दे० (क्रि०) फेइबाना, मादी निकलबावा; खुदा (४०) ईश्वर । [डक्कड़ा, च्त्तछूट । खुदी, खुद्दी दे" (स्त्री०) कशिका, कर, चाबकत का खुद्दे दे” (स्त्री०) भ्रन्तर, ज्यवधान । [अ्रन्ख । खुनस, खुनुस दे० ( पु० ) क्रोध, कप, रोप, छाग, खुनसाना दे० ( क्रि० ) क्रोध करना, डाह रखना, रिसाना, खिसाना। खुनसी दे० (घु०) क्रोधी, कापी, रिस॒द्वा । खुन्द्लना दे० (क्रि०) खुरचना, पैर से दवाना । >लुफिया (वि०) छिपा हुआ, घुस । जिमाना । खुबना दे० ( कि० ) छुभना, चिंधना, पैडना, पघसाव सुधार सुवार दे* (पु०) विगड़ा हुश्रा, नष्ट । खुभना दे० (क्रि०) खुबना, खुभना, दिघना । सुभी दे० (स्री०) कर्णभूपण, कान का गद्दना, लाग। खुमारी दे० (ख्री०) मद, नशा, नशा उतरने की दशा, जिसमें बदुन में थकावद भार सुस्ती मालूम दोती है। रात भर ज्ञामने की थक्मावट, शरीर की शिथिल्ता । [धर घर का शब्द । गुर तन्‌० (१०) गाय के पैर का नख ।- खुर (5०) खुरखुरा, खखरसर (वि०) समतल नहीं, रूबर | खुरचन दे० (खत्री०) दूध का उतार कडाददी से उसकी जलन फरोच कर अर उसमें कन्‍्द डाब्ट कर जो मिठाई मधुश में बिफ्ती हैं । सखुस्खना दे० (क्रि०) छीलना, उघेडना | खुरणड दे० (०) खूँटी, सूखे घास की पपडी | खुरपा देन (पु०) घास छीजने का अ्श्न, लुपां, खुर्पी । खुरपी दे० (ख्री«) छोटा खुरपा । ख्॒समा दे० (पु०) खजूर, एक प्रकार की मिठाई । खुरहर (स्री०) सुर का चिन्द, खुर से घना रास्ता। /उुराक (पु०) सेशन, खाना । /पुराफात (स्त्री)) गालीगलैाज, उपद्रव । युर्रद् दे० (गु०) बहुत पुराना, जीर्ण, चालबाज । खुरिया दे० (१०) घुटने की चऋति, घेद् | [रपेटना । सुरेरना दे० (क्रि०) खदेढ़ना, मागना, रगेदना, खेदुना, खुलना दे० ( क्रि० ) प्रकट दाना, छिपान या रो घाली वस्तु का थल्नग ट्टोना, द्ियरना, धृदले का छितर पितर होना। [करवाना । खुलवाना दे० ( कि० ) छुल्षवा देना, घुड़वाना, मुक्त खुला (वि०) स्वष्ट, प्रकट, मुक्त --सा (यु०) संछेष, सारांश | [कापली । खुली देन ( स्त्री० ) थैल्नी, तोढा, रुपया सपने की रुक्ेयन्द दे? ( वा० ) प्रकट रूप से, प्रद्माश रूप से+ निर्मीझुता । सल्ले ग्राय, प्रझूट रूप से ! खुल्लमस्पल्ला दे० (वा०) प्रदाश साव से, निर्मोझता खुश (वि०) प्रसक्त, मप्न ।--ीे (स्वौ०) प्रसक्षदा खुशामद (ख्री०) चआपलूसी । खुश्की, ख्युशगी दे० ( गुल ) निर्जेल भागे, सूखा, नीरस, पेंदल मागे खुलुछ फुछुर दे (पु०) छानाझानी । > ( रैद८ ) खेंटक स्युँच दे (ख्ली०) नाडी विशेष, जानु वी नाड़ी । ख़्ट हैः (६०) कान, कोना, छोर, ओर, भाग, कान का मेल । खूटना दे ( क्रि) सूचित करनाः सट्टठीर्ण करना; ओऔषध विशेष, उद्यत होना । सूं टला दें” (पु०) औपध विशेष | खू ठा दे० (पु०) थम्मा, मेप, धम्मल्ा, खम्मा, काठ का ठेकना, जिसमें गाय मैस री जाती हैं । सूटी दे० ( खी० ) चोदा खू टा, नीछ, अरदर, ज्वार के वैौधे की बह सूखी डठल जे फपल्त काट छी जाने पर खेत में पही रदती है। गुछछी, वा्ों के डंडल जो बा मूँढन पर रद जाते हैं । खूटना दे० (क्रि०) तेइना, खप्तेटना, उप़ाइना, उधेडना | खूडी दे* (स्री०) खुटी, पवडी | ग्वूड दे० (घु०) रेघारी, भट्ट, साई, खान । रुद या खुद दे (पु०) स्वय, श्राप, तलउंट, खाद | खूदराना दे० ( क्रि०) दुल्की चलना । सूंदना दे* ( क्रि० ) पैरों से रौदना, दाप मारना, खेोदना, रेदिता, कुचलना | पून दे० ( घु० ) ल्ेहू, झरूघिर ! [झ्रौपधि चिशषेष । दैयून सराबा या खून सरायी दे (घी०) मारकाद | खूब दे ( वि०) अच्छ', भक्षा, उत्तम |-गी दे० (स्त्री०) भलाई, श्रच्छाई ।+-छुरत (वि०) सुन्दर, सुघद । खूमना दे० (क्रि०) पुरावाझैना, श्रज्ञीर्ण देना । खूसा ( पु» ) ब्तलू ( वि०) मनहूस आसिक, खेऊसा दे० (१०) चिन्द, पद्चिचान, छच्चण, पावठ फ्के आकार का फछ जिस पर काटे कटे होते हैं | खेचर तत्‌० ( पु० ) भाकाशगामी, शिव, पछी, विद्या घर, सूर्य अन्द्रादि प्रद, वायु, देवता, विप्रान, बादल, पारा, कसीस | खेचरी गुटिका तदु० (खो० ) येग सिद्ध पुद् गोली जिसके मुद्व में रपपने से भाकाश में उद्ने की शक्ति था जाती है ।--छुठ्ठा त३९ (स्थी०) येगग की पुक हुद्रा विरोष । सेन्नड़ी देन ( छी० ) शर्म का पेद । * सेद तत्‌० ( घु० ) प्रइ, भरहेर, अछय्र, दारू, कफ, लाठी, अमड्ठा, दूय घोड़ा, खेरा! स्ेटक तब» (पु०) ग्राम विशेष, छोटा नगर,गदा, खेडकी (६ शृदह ) खोझाना चलराम की गदा, अदैर, अस्वविशेष, ढारू, व्ठाढ, तारा । खेटकी तत्‌० (घ०) भट्ठरी, भर्डोंत्ा, शिकारी, व्धिक | खेडिक तद्‌० (१०) वधिक, ब्याघ, बहेलिया । खेड़ा दे० ( घु० ) छोटा गाव, भराम, घुरवा | खेड़ी ६० ( ध्त्री० ) लौढविशेष, कान्तिसार, इस्पात । खेढ़ी दे० ( स्श्रो० ) यर्भावरण, मिलती ! खेत तद्‌० (5०). क्षेत्रमूमि, पुण्यभूमि, पावनभूमि, समरभूसि, कृषिभूमि, पशुओं के उत्पन्न होते छा स्थान, पेनि ।--छ्षेड़ना युद्ध ले भाथ जाना ।-- रहना छढ़ाई में हतस होना, सारा जाना । खेतल तत्‌० (पु०) आक्राशमण्डल्ठ ! स्ेतिहर दे० ( ० ) किसान, खेती करने वाह | खेती तद्‌२ ( स्त्री० ) किसान का कमे, जेशताऊ, कृषि, कास्तकारी, किसानी |--वारी (बा० ) खेत का क्लास, किसानी । खेद तच्‌० ( पु० ) सन्‍्ताप, दुःख, शोक, पश्चात्ताप, पद्दुत्ताबा, मनस्ताप, ।--स्वित ( गरु०) शोकान्वित खेदयुक्त, दुःखी |... ह सखेदना दे० ( क्रि० ) दकिना, भगाना, खताना । खेदा दे० ( घ० ) हाथी पकड़ने का स्थान, शिझ्तार । रेद्ति तत्‌० ( गु० ) दुःखित, पीड़ित, वल्लेशित, सताया सया | ह खेना दे० ( क्रि ) नाव चत्टाना, दिताना, काटना । खेप दवे० ( स्त्री० ) एक बार का भार, बोझ जो एक वार उठाया ज्ञा सके, एक बार में उठाकर कहीं ले ज्ञाया जाय, जैसे “तुस कितनी खेप लाये, ” “तुम एक दिव में के खेप ढो! सझते हो ?-- हारना ( चा० ) हानि उठाना । खेपा दे" ( गु०) शन्‍्मत, पासज्ष, वातुल, बकवादी । - खेम दे० ( छु० ) छेस, कुशल । द्वोती हैं । खेमठा दे० (३०) ताज्न विशेष, जिसमें बारह सात्राएँ खेसा ( पु० ) डेरा, तंवू, कृनात । खेरा दे” ( छु० ) बजढ़ , गाँव, डीह । खेरी दे० ( स्त्री० ) बंगाल में उत्पन्न होने बाला एक प्रकार का गेहूँ, एक प्रकार का पत्ती । खेरे दे० ( पु० ) गाँव, छोटी वश्ती।..' खेल तदू० ( घु० ) की डा, कैतुक, सवेरक्षत, विनाद | “ फैरना या समक्कना सत्‌० तुच्छ समक्तता। खेलना ( वा० ) बहुत तंग कामा --बिग- डुमा ( वा० ) रंग में संग होना, काम ब्रिगढ़ता । खेलना दे? ( क्रिए ) खेल ऋरता, क्रीडा करना -- खाना (वा०) मजे में' दिन विताना । खेलवाडू दे० ( पु० ) खेल, तमाशा, दिल्लयी | खेला दे० (० ) खिलवाड़, खेल)... खेलाउव दे० ( क्रिए ) खेढाना, तड़ करना, सताना | खेवक, खेबद तदृ० (पु० ) सकी, डॉडी, कर्णघार मल्लाह। खेवट दे० ( पु० ) पटवारी का पुक कागज जिसमें हर एक ज़मींदार की माल्शुक्षारी आदि का विबरण रहता हैं |--दार दे० (०) हिस्सेदार, पद्टीदार । खेवडिया दे० ( घु० ) नाछा चलाने बाला, सल्लाहा स्ेवट | खेचनी दे० ( क्वि० ) डॉड मारना, नाव चलाना | खेवा दे ० (३०) नौका, नाव का शुर्क,नाव की उतराई का भाड़ा, वार, दफा, नाव से नदी पार करने को कास | स्ेचाई दे० ( स्त्री० ) नाव चलाने दी क्रिया, नाव खेने की उज़रत, रस्सी जो नाव के डॉडि वाधने का झाम देती है ! खेस, खेसड़ा दे* ( घु० ) कपड़ा विशेष | खेसारी दे० ( स्प्री० ) अ्रन्त विशेष | खेह दे० ( स्त्री० ) घूली, खाक, भष्म | खेंच दे० ( ख्ी० ) उखाडा, ऐंच, ठान : खेंचना दे० ( क्रि० ) ऐचना, कसना, टाबना, तानना, चित्र बनाना । किगड़ा, चिद्देप । खैंचाखेंच दे* (चा०) विरोध, ऊड़ाई, खेंचातानी ।-+ी खैर दे" (9० ) कथ, कव्या, खदिरि, कुशछ, भल्लाई (आ०) अपेक्षा सूचक श्रव्यय, अस्तु । [चिन्तकता । खैरुख़ाह ( वि० ) शुम चिन्तकता ।-नी (स्त्रो० ) छुम खैरा दे० ( छु० ) भूरा रंग, मछकी विशेष खैरात ( इ० ) दान पुण्य | खेरियत ( खो ) राजी खुशी । खेला दे० ( ७० ) दोहन, बढ़ा, नया चेक्ष । खोाओ दे० ( पु० ) मावा विशेष, खोया | खेाशाना दे० ( क्रि० ) द्वार जाना, ठगा जाना, सूल ज्ञाना, हरा आना | ग्योई (१६० सोलना ) खाई दे० (क्रि०) नष्ट कर, खाफर + [कपल की घोधी । | खादरा दे? (गु०) दरदरा, अडबड । सोई देन ( छी८ ) छिलका, उच्च की झरीठी, छाई, साँऊ दे० ( गु+ ) टढाऊ, खर्चोन्ना, अपव्ययी | सेॉंपफना द्‌० (क्रि०) कॉसना, सस़ारना, कफ निका कनगा, खाँसना । स्ाँखी दे+ ( पु० ) सती, कास, रोग विशेष । सोच 4० ( पृ० ) चीर, खोष, किसी चीज से कपडे का फट जाना, छेद द्ोना । खेोँचना दे० (क्रि०) घुपतेदना, टेलना, चुमेना | खेाँचा दे० ( ७० ) चीरा, भराब, ठेस । सेची दे० ( स्री० ) थ्त्न, फछ, तरकारी भादि से बह थेदा सा सागर जे धर्माच में मिसमगों के और छेपटी सेवाओं के छिये इतरजनों के द्विया जाप) सेडिकल 4० ( ६० ) गडदा, गढ़, कोडर । स्ौंता दे० ( पु० ) खोधा, घेसिला, नीड, पक्चियों के रहने का स्थान ! [गोफे । खाँप ६० ( पु० ) सलछगा, सिद्धाई के दूर दूर टॉक के खोपा दे० ( घु० ) गाढ़, ताथ, जूडा, धन्‍न रखने के किये ठण निर्मित णह विशेष | सेॉँसना दे० ( क्रि० ) ठोसना, भरना, घुपेडना | खेंजला दे० (एु०) पैक, छूदा। शल्य, रिक्त, थोथा | सखेंसा दे५ (पु०) रुपये चुकी हुई हपडी, बालक,पच्चा। खाज दे० ( पु० ) दाद, दृढ़ना, श्रनुसन्धान करना, अम्बेपण, यत्न, चिन्द ।--ी (बु०) सेमनेवान्टा । साज्ञा(पु०)ननले,वादशादी जनानखाने के नौकर विशेष | सोाज्ञाना ( क्रि०) दिरा जाना, न मिलना । पोढ् दे* (स्वी5) दुर्गुथ भवगुण, मूल, बुराई, ऐव, द्वानि, चट्टा | खीदा दे० ( गु० ) दुगुंणी, मूदा, पापी, दुराचारी॥ सीटी दे खोरा का स्रोलिड़ । दिशा । सतादाई या सेदापन देन ( स्री० ) भ्रषमे, दुराचार, सोयछला दे* (गु० ) पेषला, अइन्त, दात रहित) सेोइस तद्‌ « (गु०) पेलइ, से।रद, सैब्या विशेष, १६ । सोद देन ( १० ) चेचि, खुदाद, ओम्ूद, म्थोेक, कटा हुआ, सरोदा हुआ + खोदना दे० (क्रि०) सनना, गाड़ना, काइना, गोहता खरादर दे० (पु) सइदढ़, ऊँचा नीचा, अदबद, दुपट, दौड़ खादुलिनोद चानयीन, पूछ तांछु, चेरदाड | खोदे दे" ( क्रि० ) खाद डाले, वस़ाडे, नष्ट कर डाले, निममूठ कर दाले ॥ [नाशना । खोना दे ० ( क्वि० ) गंवा देना, उड़ा देगा, नष्ट करना, खेनचा ( पु० ) फेरीवालें! का पचमेल मिठाई या निमष्ठीन से भरा यात्त | घ साप ढे* (१०) खाच, चेद, ब्लिद्ध। वीर । | खोपड़ा (द०) सिर, कपाछ, सिर की दड्डी, गरी -- (छोी५) खोपड़ी ५ [श्रीफर, गोला, बढ़ा सिर | | खापरा दे० ( पु० ) नारियल की गरी, फन्र विशेष, सापरी दे० (स्त्री०) सिर की इड्ढी, कपाछू। सत्रापा दे० ( पु» ) मत, मैण, खूद । साबार दे० (प०) छुथरों छे रहने का घर । खोया दे* (९०) नारियब का गोला; जूंढा, साप्ना। (क्रि)) सोने का सूतकाढझ । [मांगे । सोरि दे० (स्त्री०) ऐब, दाप, दुर्भूय, गली, सट्ठृचित सेप्यि (स्त्री०) छोटा कदारा, पुक उत्सव हे। स्वियाँ छकें के वियाहेस्सव के अवसर पर करती हैं जिसमें थे तशद्व तरह को रूप बनाती और गाक्ियाँ गाती हैं । 4 ,खेरे दे० (गु०) हुगुंणी, दोषी, पेरी, लक्नश । खेल, या खेली दे० ( स्त्री० ) गिलाफ, प्रो ना, स्थान, रजाई, दाहर, शरीर । [गढ़ा, गत॑। साजडा दे० ( धु० ) कटर, खोपला, खेद, गददा, सेोजना दे० (फ्रि०्) छोड देना, मुझ काना; कैराना, खघेडना | अलअिम्श्र रखने की बस्तु । खोली दे० (ध्थ्ी०) खोल, चोगी, नविद्या, गिढाफृः साया (३०) माया, सोया । [छो डाले | से दे० ( क्रि० ) दिखावे, बरिनाश करे, नष्ट करे साह द० (०) श॒ुफा, गुद्दा, छन्‍दरा सोड़ दें० (१०) तिलक, चन्दन करण, सौर । सीफ (प०) भय, डर खेर दे० (१०) रुदरियादार, चन्दन का भादा टीका यथा--“खोर माद्च है। घाइत नीडे | सतारा दे० ( बु० ) पच्चओं का रोग विशेष, जिससे डनझे याक्ष गिर जाते है । खेलना (क्रि०) श्यालना, गरम करना, शटण होना । ख्यात ख्याव तत्‌० (पु०) ख्यातियुक्त, द्ीतिमान, »सखिद्ध, यशस्व्री |--ब्य (गु०) अतिषछ्ठा येग, ग्रशंघा येगग्य ख्याति तत्त्‌० (स्त्री०) प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, नाम, यश, कीति --प्ल ( गु० ) दुनांम जनक, अपवादी । *“-मत्व ( धु० ) यशस्विता, दिश्वत्ति, प्रतिष्ठा (५: ६६. ) गड्ढंग -ऋक+-न-++-न्‍ई..>.....झब"न्‍-न-.हत#तह/हतकैऔऔ ख्यापन तत्‌० (०) प्रकाश, विज्ञपन, प्रसिद्धि होया । खयाल दे* (पु०) कातुक, स्वॉग, खेल, तमाशा, एक प्रकार की छावनी (--ी (स्प्री०) कल्पित, वहसी, सनकी, कातुक्की । खी दे० (पु०) ईसा, क्राइस्ट । खीशियान दे० (पु०) ईसाई । ख्वारी (स्त्री०) नाश, बर्बादी, अपसान । ख्वाहिश (स्त्री०) इच्छा, चाह, श्रमिलाषा | ख्थात्यापन्ष तत्‌० (ग्रु० ) कीतिमसानू, यशस्‍्वी, , झतिष्ठिव। पिलाने बाला [ ख्यापक ततत्‌० ( पु० ) प्रकाशक, व्यञ्ञक, द्योत्क, ग्‌ ग यह क॒द्र्ग का व्यज्षम तीसरा दर्णे हैं| इसका उसच्चा- | ... रण कण्ठ पे दोता है | शा तत्‌० (प०) गीता, गणेश, गन्धर्व । गहया दे ० (स्त्री०) गाय, गो, घेनु । गई दे० (क्रि०) जानना क्रिया का स्त्रीलिड् रूप, गमन किया, जाती रद्दी, चली गई । गईवहेार दे* (गु०) गयी हुई को लैडा ले आने चाजा, बिगड़ी बात को बनाने वाला । गँठकरठा (प०) चोर, जेवकतरा, स्तेन । [करने बाला | गंचाऊ ( गु० ) जड़ाने वाढल, खोने चाछा, नाश शँवाना ( क्रि० ) खोना, अष्ट करना, विस्खत द्वोना, भूलना । गँबार (8०) गयँई का, अनपढ़, सूखे, भलमक | गंसी (स्त्री०) गवि, प्रास, देद्दात, आस्य | गकार तत्‌० (8०) कवर का तीसरा वर्ण ग अछार । गगन तत्‌० ( पु० ) श्राकाश, ब्योम, झूल्य, नम ।-- कुखुम (५०) खपुष्प, असम्भव, मिथ्या ।--गामी (गु०) क्राकाशगामी, नक्षन्न आदि |--चारी (ु०) श्राकाशगामी ।+“-विहारी (यु० ) चन्द्र, सूर्य, न्नन्न, पक्षी |--मण्डन (इ०) आकाश मण्डल, खयगेज्न ।--स्पर्शी (यु०) श्राकाश छू लेने वाला, बहुत ऊँचा | - गगनभेड़ दे० (१०) इड्गीला, गिद्ध, गीध ! शगरा (४०) पीतलछ लेहा आदि का घड़ा, कछसा । गगरी ( रछी० ) मिद्दी का छोटा घड़ा । शहु तदू० ( ख्थी० ) गद्गा, नदी. देवनदी।-कंवि | हिन्दी के एक प्रसिद्ध ऋषि । गड्जुग तत्‌« (०) जाम्इवी भगीरथी, सुरनदी, स्वनाम असिद्धि नदी (--ज्ञत्त ( घु० ) गज का जछ, गज्गोदक :--जमुनी ( गरु० ) दो धातुओं का बना हुआ, तावे व पीतत्त का बना हुआ | चादी व लोगे का ।--जलिया-जत्ती (स्त्री ०) सीसा, ता, पीतछ अथवा काँव की वनी सुराहदी (9०) गड्ाजछ रुपर्श करके शपथ खाने वाला |--दास ( प० ) एक संस्कृत कवि का नाम, इन्द्रोंने छन्‍्दोमअरी-नामक छुन्‍्दः शाख की एक पुस्तक बनायी है गापालदास चैद्य के ये पुत्र थे, इनकी माता का नाम सन्तेप था । इन्दोमझ्री के अ्रतिरिक्त श्रच्युतचरित्र, क्षण्ण- शतक और सूर्यशतक नाम के और भी अन्ध बनाये है | ये कचि १२ शताब्दी के इधर दी के मालूम होते हैं यह कवि वेष्णव थे -छार ( पु० ) हरिद्वार |--धर (पु०) शिव, मद्दादेव, समुद्द, इस नाम का एक संस्कृत कवि, गोविन्दुपुर के शिक्षा लेख से मालूम द्वाता है कि सच्‌ १३३६७ ई० यह कवि वर्तमान था । इसके प्रपितामद्द का नाम दमेदर, पिदासाह का नाम चक्रपाणि, पिता का नाम मने।रथ, चचा का नास दृशरथ और भाईयों का नास सद्दीधर तथा धुरुपोक्तम था। यह नहीं कटा जा सकता कि विल्द्ण के समकालीन यही गद्गाघर हं या दूसरे +--प्राप्ति (छ०) गह्माक्मभ, सरण, रूत्यु +-यछुनी ( गु० ) श्वेत कृष्ण वर्ण का, मिश्नण, दे वर्ण की धातुओं का सम्मिठन [-- यात्रा (दी०) मरणासन्न पुरुत का मरने के किये यया तद पर छे जशसा -लास ( 3० ) ख्व्यु, गद्गीमृत ( रैह३ ) दी करण ।--सांगर (ध०) गद्ा आर सागर का जा संगम द्वेता हैं उस स्थान का नाम गड्ढा सागर ह “स्नान (५० ) ग़ज्का जी का स्नान ॥-- खुत (पु०) भीष्म, कार्तिहेय +-स्नायी (०) गद्धा स्नान शील ! गड्जीमूत सत्‌० (गु*) पवित्र, पावत | गड्ढोदक नत्‌« (पु०) गद्न्‍लाजल । गय दे (पु०) पक्की छुत, स्थूल, सेटा । गचमीना दे० (गु०) ढींगना, छोटा मेतटा । गचपच दे० ( ख्ती० ) मीदशाद, गेलमाल, घनता, इल्नर पलट | तदू० (पु०) स्थान, बीद्दों का स्थान, मठ विरोध स्वीकृत, स्यास चम्धक बूदच्ध । गज सत्‌० (ग०) कुआर, हाथी, देश्हाथ का परिमाण, चास्तुम्धानमेद, घातु आदि जारने के लिये गढ़ा। --हुम्म (ए०) हाथी का सिर ।--गमनी (स्त्री०) हाथी के समान धीरे घीरे चजने वाली ख्तरी, गज- गामिनी ।-गांद (5०) दाथी घोड़े का आमृपण । +गैनी ( घ० ) गजयामिनी ।--चिर्मठी (प०) इुन्द्रवारणी, इनासन--च्छाया (म्वो०) श्राद्ध का नियमितकाल, आश्विन मास की मधा नक्षत्र युक्त ब्रयेद्शी ।--ता ( स्त्री० ) गज समूह, हाथी का यूथ ।--दुन्‍्त (पु०) इस्टि संबन्धी दति, हाथी के दति +--दुन्‍्ती ( गु० ) हाथी द॒त्ति का दान ( पु० ) द्ाथी का भद्‌ जल, द्वाथी के मस्तक से निकला जठ +-पति (घ०) दाधिये के यूथ का स्वामी, राजा, ग़जस्वामी । - पाठल (३०) कज्नछ, काज>, सुरमा ।- पाल (पु०) दार्यीदान्‌,मद्दावत, फीलवान ।--पिष्पक्ती (स्त्री) पीपएर विशेष, गज- पीपर ।--पुडूय (पु०) मुख्य गज, प्रधान हाथी पुट (पु०) औषध पकाने के लिये पुक प्रकार का गढ़ा ।--मिपर्‌ (३०) सांढि [-मुख (पु०) द्वाथी, गणेश ।--मु) (छो०) दाथी के मस्ट का सध्यम्ध मोती ।--मेती ( र्त्री० ) भजमुक्ता >थूघ ( इ+ ) इयिये। की दाल्ली, दाथियों का मुण्द, एम्तिसमूद [--राज़ ( पु ) ददा हाथी --रि तद्‌* ( पु० ) शेर, बाघ, सिह, ब्या4 --- घ॒दुन (६०) गजमुष्त, दृत्तिमुछ, गणेश ॥--प्रणो (पु०) बढा हाथी, ऐशाबत ।--ध्यत्त (पु०) हाथी का अधिपति, दस्तिस्वामी ।--नन (पु०) गणेश, गज़वदन ।--रि (पु० ) सिंद, सगराज, घृत्त विशेष ।--शन ( पु० ) पीपल चृक्त, पीलुबृध । +-स्य (पु०) रूम्बेदर, गणेश ।--हुय ( पु ) नगर विशेष, हस्तिनापुर ।-- नद्र (६०) ऐेरावत, दिग्गज्ञ । गज़व (पु०) रिस, केप, आफृत, झुकम, भरमाम ! गज़र तद्‌० (पु०) गाजर, पुक मूल विशेष | गज्नर बज़र (पु०) घालमेल, गिचपिच [ गजल (खो०) बदूं फारसी की पुक प्रकार की कविता जिसमें श्टगार रस ही प्राय रद्दता है । गज़रा तद्‌ ० (१०) गाजर के पत्ते, सोटी फूले। की माला । गज्ञाना दे० ( स्त्री० ) सड़ाना, पाना, गस्ध देना, बसाना । [विड़, छेश, केला । गजबुसता ततद्‌» ( पु ) कदछी, कदलीबृच, फ्रेजे का गत़ा दे० ( ३० ) खुर्मों, खजूर, मिष्ठात्न विशेष । गज्ज दे० ( पु० ) रोग विशेष, पक रोय जो सिररमें द्वोता है, राशि, ढेर, समूह, द्वाठ, बजार, खजाना । गजना दे ( क्रि०) यातना, चेदना, पीढा, दु छ, ग्टानियूचक वाक्य । गश्जा तत्‌० ( क्रि० ) जिसके (सिर में थाल न दों, रोग विशेष, गाता, मद्यगृह । [णि्वित, पीडित । गज्जित दे० ( गु० ) अपमानित, कबद्वित, छु सित, पक दे० ( घु० ) जय में भाप्त घन, जीता घन । गम्कीन दे० ( शु० ) घन, सपन, घना, निविढ़। गदठई ( स््री० ) गईन, गढा | गठफजना ( पु० ) निकालना, स्वाना | गठपद दे० (गु०) इढट पुछ्ट, एकग्रित करना, समदा।। गठाग वि० ( घु० ) घडाघढ, बराबर, छगातार । गदापारथा ( घु० ) पृक प्रकार का गोंद ! गठी दे० (स्त्री० ) समूद, राशि, यूथ, यथा--सव जान फटी दुख की दुपटी, कपटी न टटे जहं पुछ घटी निघटी रुचि, मीच घटी हूं घटी जगजीव यतीन की छूटी चटो, अब ओघ की थेरी करी विकटी, जिझटी प्रक्ठठी गुण ज्ञान गढ़ी, चहुँ भोरत नाचत युर्ति नदी, गुण घून जटी जटि पद्य्टी ?! शामचद्धिका | गद्द शह ( प० ) गले से निक॒छा हुआ निगलमे का शब्द | गह्द दे० (प०) स्वनाम प्रसिद्ध मिठाई, शुल्फ । गहुर दे० (घु०) गदट्दा, चड़ी गठरी । गद्ठा दे० ( घु० ) बड़ी गठरी, प्याज्ञ छा गट्टा । गठकटा ( चि० ) चईई, गिरहरूद । गठन तत्‌० ( छु० ) निर्माण करण, रचन |] गठना तदू० (क्रि) छुड़ना, मिलना। सम्मिलित होना, कन्नित्त द्वाना, परस्पर प्रेमी वनना । [को बिता । गठबंधन (छु०) गठ जोड़ा, वर बधू के वम्त्रों के द्लार गठर दे० ( घु० ) बड़ा गठ, सठित्ठा गठरी ढे » ( स्थ्री० ) गांठ, मेठ, गठर, केक, भार । गठवान। दे० ( क्र० ) गठाना, गढठ बचना, वंघवाया, जूता यठबाना | लछिगवाना * गठाना द्वे० ( क्रि० ) गठबाना, सिलवाना, पैदन्द गठित सत्‌० ( शु० ) रचित । गठिया दे० ( स्त्री ० ) गठरी, प्रन्थि; गाँठ, घात रोग विशेष, ग्रन्बियुक्त । गठियाना ( क्रि० ) गांठ में वधिता । शठिहा दे० (गु०) गढिं वाढा, अन्यियुक्त | गठीला दे० (थु० ) सख्त, पुष्ठ, हृष्ठपुष्ठ, दृ्धाकंद्धा, सण्डसुसण्ड | गठुवा दे० ( गु० ) कपड़ें की गि, सूत की मन्धि | शड़ (१०) झोर रोक, आ्राढ़, चारदीवारी, खाँडे, गढ़ । गडंत दे० ६ छु० ) गण्डा, देना, एक खेठ का नाम । गड़क दे ० ( ४० ) एक प्रकार की मछूली | गड्गड़ाना दे० ( क्रि० ) गरजवा, गर्जन, करना, मेघ या नगारे की ध्वनि । [प्रावाज़ । / गदंगड़ाहद ( स्त्री० ) कड़क, सर्जन, गरुड़मुढ़ाने की गड़गड़ी ( स्त्री० ) नगाड़ा गड़गूदर दे? (छ०) चिय्ड़ा, फटा छुराना कपड़ा । गड़न दे० ( छु० ) धवाव, दलूदक, गढ़त, निर्माण, मूत्ति, आकार | [पिंठना, आशक्त दोना, छिदना। गहुनो दे० (क्रि० ) धसना, घंसजाना, रहजाना, गड़य (95 ) जब में किसी वल्छु के अचानक गिरने का शठद |--ना ( क्रि० ) निकलना, किसी वस्छु का पचा जाना । शड़प्पा (४०) घेले का स्थान, बड़ा गहरा गढ़ा | गड़बड़ दें० ( वा० ) गटपट, इछट, पुछट । ६ हैई३ईे ) शंढ़ाई अप+775८-ै्न्र 5 +-++८८+०+२०++7२++-त्++++++२ गड़वड़ाहट दे० ( सत्री०) खड़बढ़ी, भय, डर, भीति, - अनियमिक्ति, अनिश्चित | गड़बड़ी दे० (ए०) खलबरछी, मड़ाश, मिलाव | गड़यत्त दे” ( 8० ) परिद्याल में इस नाम से पुकारना चानर का दूसरा वाम । गड़रिया दे० ( 9० ) सेपपाल, भेड़िहारा, जातिविशेष, भेड़ पालनेवाली जाति । लवण दे ( छ० ) सांभर नेन | गड्डहा दे० ( घु० ) यर्त, गढ़ा, ताल । शड़ही (ख्वी०) तलैवा, छै।दा गढ़ा । गड़ाना दे० ( क्रि० ) विधना, चुभाना, खेसना | गड़ारी (स्त्री०) गोल ज्कीर, घेरा ।-दार ( वि० ) चेरदार, क्यारियाँ | हिधियार । गड़ासा ( छु० ) करबी आदि की कुटी काटने का गड़ियार दे (गु०) मगरा, सचछा, भ्रड़दठी, भालसी, अनुद्योगी, जड़ | गड़ी दे० ( क्रि० ) धसी, छूवी, घस गयी, डूब गई। गड़आ दे? ( ए० ) टेटीदार कोटा, इथद्धर । गड्र तदू ० (छु०) गरुड़ पत्चिराज, वेनसेय । गडडुवा दे० (०) नछवात्र विशेष, कलश, गछुआ । गड़ेरिया दे० (छु०) गड़रिया, चरवाद्म, मेपपाज, भेड़ आदि पाकने घाला | गड़ेाना दे० (क्रि० छेदना, खेसना, घुभाना, विधना । गड्ड ( ० ) तद् पर तद्द, एक ही वस्तु का त्तद ऊपर रखा हुथ्रा ढेर, बहुत वस्तुओं का मेल | गड्डालिका तत० ( खी० ) देखा देखी कार्य में प्रव्॒तति ” होना, अ्रविचारित कर्म में श्रद्नत्ति, भेड़िया घसान | गड्डी दे ( स््री० ) अंटी, पुला, दृसदस्ते काग्रज़ ! गढ़ दे० ( छ० ) दुर्ग, कोट, किज्ला, गढ़ी, राममहल | गढ़न दे० (पु०) बनावद, रचना, निर्माण । [सुधारना । गढ़वा दे० (क्रि०) निर्माण करना,वनाना,रचना,ठोंसना, गढ़नि दे० (स्त्रो०) वनावट, रचना, गढ़ का ग्रहु बचन | गरढ़न्त ( वि० ) बनावटी, कल्पित । गढ़वार दे० ( गुर ) मेटटा, स्घुछ, गाढ़ा । गढ़वात्न दे? (४०) किले का रक्षक, गढ़ रक्षक, गाढ़ा, सादा, ए७ नगर का नाम जो उत्तर भारत में है ! गढ़ा ढे० ( छ० ) गढ़द्वा, गत । गढ़ाई दे (ख्तो०) गढ़ते की सजूरी, गहने की बनाई, ख० पा+-रेर गढ़िया (्‌ श्६७ ) गयडप बनाने का परिश्रम | ( क्रि०) गढ़गा, गढ़वाना, गढ़ाना । गढ़िया दे० (खी०) माला,वरछी, बललम, इुन्त, प्रास गढ़ी दे* (छ्वी०) छोटा कोट, गढ़। [खिदा हुआ यढ़ा । गर्देला दे० ( गु० ) गडदा, खडदर, गढा, गद्दा हुग्ना, ग़ेया दे० ( ए० ) चोटा पोश्वर, तछाई | गण तत* (पु०) समूद, थोक,जाति, मुण्ड,यूप,रद्ध का अजुचर, प्रथम रुत्र का गण, सेना, संप्या विशेष, २६ रथ, ८१ घोड़े, १३५ सिप्तह्दी इस सेना में हतते हैं। घन्द शास्त्र के आठ गण, १ भगण, २ जगण, ३ सगण, ४ रगण, * ययण, ६ तगण, ७ म्गण, ८५ नगण, इनझा छत्तण ऐसा है “श्रादि मध्य चबसान में मज स द्वोंहिं गुर ज्ञान, य र त ह।हि ठघु क्रमहिं से म न गुद छघु सव जान !? गणक दत्‌« ( पु ) गणना करने बाढा, ज्योतिषी, दुवज्ञ, उपरोतिदेता, गणनाकारी गणता तंत० ( खी० ) गण फा धर्म समूहत्व, पछठ- पातिता, धूतंमण्डली ।. [मिले हुए श्रनेक देव । गणदेचता तत० ( पु) मिल्नितदेववा, संहतदेवता, गणन तत्‌० ( पु३ ) सैप्या करण | गणना ततव्‌० (स्त्री०) सैप्या, गिनमा, पछदात | गणयनाय, गणुनायक तत्‌० (पु०) गय स्वासी, गणेश । सगयनीय (वि) गरिनने येग्य, प्रध्यात सिंप्याके मालिका। गणपति तत्‌८ ( घु० ) गणेश, समाजपति, सम्मिलित, गणपाठ ( पु ) ग्रन्थ विशेष । गणराऊ तदु० (६० ) गणराज, गणनाय / गणाधिए तद* ( बु० ) शिवपुत्र, गण्येश, गज्ानन | गयणाध्यक्त ( धु* ) गंशेश, शिव। [स्वैरिणी, कुलटा । गसणिका तव्‌० (स्त्री० ) वाराद्रना, वेश्या, पतुरिया, पातुर, गणित त्‌* (पु-) भट्टूदिया, ज्योति शास्त्र, सैख्यात, गणना किया हुआ ।--कार (पु०) गणक, ज्योति- घेंचा, भरद्टूवेता |--छ ( 8५ ) ज्योतिषी ] गणेश तव* (पु) शिवपुत्र, देर, बम्बोदर, राजानन, ये पावंती के धुद्र हैं, इनका सम्पूर्ण, शरीर देंचों का सा परन्तु मुश्न हाथी का है! शिवजी छी थाज्ञा से पार्षदी ने पुण्यक शत का अजुष्दान का विष्णु को प्रसत्त किया, विष्णु ने पुद्च के लिये वरदान दिया, जिसडे फछ से गणेश का जन्म हुआ, गणेश जी को देखने के लिये सभी आये, उनमें शनिश्चर अपनी दृष्टि की मद्दिमा जानते थे इसी कारण गणेश के देखने की उनकी इच्छा न थी, परन्तु पार्वती ने ्रजुरोध किया, अतए्‌4 उन्होंने मी अपनी दृष्टि उठायी, बनके देखते ही गणेश का मस्तक ऊपर ढ़ गया, देववाओों ने विष्णु की स्तुति की, विष्णु ने द्वाथी का साथा जोड़ दिया |--क्रिया (स्त्री०) येगाम्यास की पक क्रिया, इसमे क्रिया विशेष द्वारा मछद्वार से मल साफ किया जाता है।--चतुर्थी ( स्त्री० ) भादों, साध, और फागुन. शुक्धा ४ चतुर्थी। इन ठियियों में स्मार्त जोग गणेश जी क! घूम धाम से घूजन काते तथा मत उपचास करते हैं । गगड तत्‌० ( धु० ) कपोछ, गाल, कमपुटी, फोड़ा, चिन्ह, गठि, नाटंझ का वीयी नामझ पके 'भरक्त+ जिसमें भ्रचानक्क भश्नोत्तर धों,गजकुम्म | गयहऊ तत्‌० ( पु० ) गेंहा, गढि, चिस्द | गणडकी तदु० (स्री०) स्वनामख्यात गदी,जो विद्वार में है और नैपाल से आई है,निसमें शालिग्राम निशकते ै। गयडमालो (स्प्री०) कण्डपाला, गल्ले के नीचे का रोग जिसमें माद्ठा की तरद गर्टि गर्दन में उढ थराती हैं गणडमूर्ण व्‌» ( वि? ) बडा मूर्ण, भारी, पेवइुफ । गगडगैत्न तद० ( घु०) पर्वत से दूदश हुआ बढ़ा पत्यर, छोटा पद्ाड । गयरस्थल ( घु० ) कनपटी, गाछ, कपेछ | गगडा दे० ( घु० ) संख्या विशेष, चार कड़ी, चार पैश्ला, चार झपय्रा, चार धाम आदि, तत्व्र मस्त किया हुश्ना सूत, देंसशी, कण्ठा |-स्त ( पु* ) ज्योतिष प्रताजुसार येशय विशेष । [शिक्ष विशेष । गड़ासा दे० ( 9० ) कुटी काटने का यहा गेंदासा गेंडासी दे० (छी+ ) छेटटा गंहासा । गणिडिका तदु» (स्रो०) नदी विशेष, गण्डकी । गगिड दे* (पृ०) सेग विरोप, गण्डमाठा । [स्थान । गयी दे० (द्वोौ०) घेह, रेखा थादि के द्वारा सीमरावद गगणडीर तद्‌० (प०) संडुड बूछ, गया, उस | गयद्वगल तदु० ( गु« ) प्रफुछ, विकसित । गयड्प तत्‌« (स्ट्री०) पानी का कुश्छा, इायी के सूंड की रोक, द्वाय के भठुड़े का गदा | गयड़ेरी (्‌ गणडेरी तद्‌० (स्त्री०) ऊख के डुकड़े, कटे हुए ऊख के गुछ्े । हिरने भेस्य । गंएय तव्‌ु० (गु०) सणसीय, गणनाह, माननीय, संख्या गत चत्‌* (यु०) श्रचीत, ब्यत्तीव, विज्ञात, इत, चष्ट, भिन्न गया, निकृष्ट, सुक्त, लीन,प्राप्त ) जाछ्ठ (वि०) शाया, यीता, जिसमें सत्पुरुषोचित कोई चिन्ह न है। ।--कछुम ( ग्रु० ) विश्वान्त, भ्रमरहित --अप (यु) चिल्॑ज्व, छज्जा रहित ।--ध (यु०) प्रभ्ा हीत, निषप्रभ ।--वित्त (गु०) गत विभव, निधेन, दरिद्र !--चैर (गु०) निरुपक्वव, शत्रुरद्ित, श्रजात- श्ह४ ) गधा गदलाई दे० (छ्वी०) सैलापन, घुसीलापन, कालुप्य । राद्शन्नु तत० (पु०) वैद्य, औषपध। गदह तत्‌> (ब०) गधा, खर, ग्रदहा |-पत्तीसी दे० (स्वी०) १६ से २४ वर्ष तक की अचस्था, जिसमें इस अ्रदस्था वाले का अजुभव नहीं रहता और उसकी बुद्धि कब्बी रहती है |--पन दे० ( छु० मुखता, अनसमस्त, वेवहूफ़ |--पूरना ( ख्री० घुननेवा, बढ़ी, ओपषधि विशेष ।--ह्तेटना (स्त्ती०) वह स्थान जहाँ गवह् लेटे हों | | शद्‌ह्ा तदु० (पु०) बैद्य, रोग मिटाने चाल्य, गंध । शत्रु |--ध्यथ (गु०) अछ्ेश, क्लेश रहित, खुखी | ->गत ( घु० ) यातायत, गरमनायमन, झाना ' जाता, पक्षियों की गतिविशेष, आवायमन, जन्म सरण, श्राया गया (--धि ( शु० ) सुखी +-- जुगतिक (ग्रु०) श्रत्ुकरण करने चाला, शलुकारी, पिबल्ग्णू +--युः ( गु० ) ब्यतीत आयु, जीवन का ध्क्‍सानकाल, मरणालन्न, मुम॒पु--र्थ (गु०) अमिप्रायसिद्धि, पुक से दूसरे का निष्प्रयाजन होना। ) गति तब्‌० (स्त्री०) यात्रा, दशा, चाल, हरकत, पहुँच, ( सहारा, विधान, ढँग, रीति, जीव का पक शरीर छोड कर दूसरे शरीर में जाना, मरने के वाद जीव की दशा, मोक्ष, पैतरा, अहों की चाल, सितार ! आदि छे वादव की क्रिया विशेष |--क्रिया (स्त्री०) | विलम्ब, कारुचेए, शिथिलता (--विहीन (गु०) गतिहीन, यमनशक्ति रद्धित । गत्ता दे० (१०) दफूती, छुट | गथ त्तद्‌% (पु०) पूँजी, माल, मेल, घन, कुंड । शाद्‌ त्तत्‌० (पु०) व्याधि, रोग, श्रीकृष्ण के एक भाई का नाम, ओआऔरीरामचन्द्र की सेना का एुक बन्‍्दर, असुर विशेष । शदका दे" (ध०) पठ, दण्ड विशेष । गदकारी तत्‌० (शु०) रोग उत्पन्न करने बाला (पदाथे) | गदगदा दे" (गु०) सोटा, स्थूल, चुन्दिक, तेंदिला । गदर (६०) चछवा, हरूचछ ] है गद्रा दे० (वि०) गदर, 'अंधपका | शद्रासा (क्रि०) पकते पर दवोना, जवानी में अंग्रें का पूर्णतया का प्रा्ठ देला | [या कीचढू मिला हुआ १ | गद॒हिया (स््री०) गदददी । गंदा तत्‌० ( स्त्री० ) लाहे का श्रस्त्र विशेष, लोहे का सुख्र यार छाठी |-- घर (छु० ) विष्णु, नारायण, ओकृष्ण |--युघध (३०) य्टि, छाठी, गदा |--- युद्ध (६० ) युद्ध विशेष |--रि ( पु० ) सेयशत्रु, रोगनाशक वैद्य ! [का ओऔज़ार विशेष ) गदाला दे० ( १० ) हाथी पर का गहा, सिंद्दी खादने गदाग्रज्ञ तत्‌ू० (प०) श्रीकृष्ण, विष्णु, भगवान्‌ ) गद्ति तद्‌० (०) उक्त, कथित, भाषित, कहा हुआ । | गदी तत्‌० ( छु० ) विष्णु नारायण (गु० ) शद्ा विशिष्ठ, रोगयुक्त, रोगी ) गदेला दे० (०) शिक्ठ, बचा, सा का दूध पीने चाका बच्चा, कोरे का बच्चा, सेटा बिछेला | | गदुगदू तत्‌० (यु०) इलछकित, प्रचद्ध | शहद दे० (छु०) कामल स्थान पर किसी वस्तु के गिरने की आाबाज़, अजीणे, अ्रनपच । गद्दर दे० (गु०) अ्चे पक्कर, अधपका, गदरा ) गद्दा दे० ( छु० ) रुई या घास आदि से भरा मोटा बिछ्चैना, दाधी के द्वादे के मीचे कसता-जाने वाला शद्दा । गद्दी द्े० (स्त्री०) विद्छौता, सोदा विछौना, सिंहासन, रोजगारी के बैठने का स्थान, अधिकारी का पढ़, किसी राजा था आचाये की शिप्प परम्परा -+ नशीन ( बि० ) सिंदाखनासीन, गद्दी पर बैठने चाला, उत्तराधिकारी । गद्य तब» (पु०) उन्द रहित चाकय, प्रवन्‍्ध |-त्मक तत्‌० (बि०) गद्य का, गयमय, गद्य सम्बन्धी | । गदता दे (गु०) मैडा, छमीला, मल्िन, गंदा, मिद्ी गधा दे० (५०) गदहा, गहस, खर । गन ( १६६ ) गरभस्ति 'ननन-न--न+3नननननननननन++3नननननन---नयननीनन+ननननननननननननीनीनीनीनी-लन मन मननऊननीन- नी यननीनीनीननीभीन-न ली नीनननननीम॑-न-क-क-कन-कत-न-3बीननननीननननीनीीय+भीीत.-क्‍--<_ गन तइ॒० (१०) गण, र'मूद, यूथ, सजीवा का समूह । गनई तद० (स्त्री०) गिनता है, गिनती करता हैं | गनगौर (स्ट्री०) चैत्रसुदी ३ जिस दिन गजगारी का पूजन द्वोता है । [झा प्रह येग देखना । गनना तद्‌० (स्त्री०) गणना, गिनती, विवाह में वरवधू रानी (वि०) धनवान, शत्रु ।- मत बटी बात, धन्यवाद देने योग्य घत, मुफू का माल | गन्तव्य तल» ( धु० ) गमन योग्य, सुगम, जाने का स्थान, गमनशील | गन्दना दें० (पु०) कन्द सूल्ट विशेष, लहसुन की गांठ में जा डाल कर योने से पैदा टोने बात्ली घास विशेष । गन्दा ढे० (वि०) मेला, घिनाना, अशुद्ध । भन्ध तत० (पु०) नासिका से ग्रहण करने येग्य पदार्थों की वास, मद, अमेःद, सैारम, धाण, सम्दन्ध, प्रणय |- गर्भ ( पु० ) वेढरच्ठ +>द्भव्य ( गु० ) सुगन्धित बस्तु, सुवासित व्बब्य |--द्विप (थु० ) उत्तम हस्ति [--पुष्प (पघु०) चन्दन और फूछ |-- प्रिय ( गु० ) घाणलुष्घ, गन्धग्राही |--धणिक्‌ ( धु० ) वर्णेध्तद्टूर, जाति विशेष, अत्तार ।--मादन पर्वेत विशेष, घानर सेनापति |--राज़ (पु० ) चन्दन, सुगन्धित फूछ ।--चद्द (१०) वायु, पवन । +-वाद् ( पु० ) पवन, कप्तुरिया हरिन, नाक, नासिक ।--सार (पु०) चन्दन, श्रीखण्ड | गन्धर्वे तत्‌० ((घु० ) स्वर्गंगायक, यच, देवये।नि घोड़ा, कस्तूरीस्टग, एक यायक जाति की कथाएँ | +-यिथा (स्त्री०) गीत, बाघ, नृत्य [--विवाह (पु०) भ्रष्टविवाइ का पुक भेद, ज्त्सवद्दीन विवाद] --बैद्‌ (१०) सम्रीत-विद्या, गीतशास्त्र |--नगर >(पु०) अल झा, गन्घवों का वासस्थान, असत्य नगर, मिध्या नगा, कर्पत नगर । ( स्थ्री० ) सब्धर्वी | गन्धक तत्‌« (स्प्री०) पृछ खनिन्न पदार्थ ! गन्धान तद॒० (०) सुवर्ण सेना। गन्धाना दे* (क्रि०) दसाना, गरछ देना, मँदकना | गन्धाश्मा ठ5« (पु०) गन्घक, उपधातु विशेष । मन्धार तद्‌० ( ६० ) स्वरों में रागिनी विशेष, देश विशेष, कम्धार, तीसवा स्वर, यान्घार | गन्धारी तदू» ( स्त्री० ) देग्दो साम्धारी, पार्वती की एुक सस्त्री का नाम, जयास), गांजा, बाएँ नेत्र से निकलने चाला ध्यास | यधा-- गन्धारी वामज्ष निवासी, इयजिह्वा दक्षिण दिग्वासी ? +ज्ञाननरत्न गन्धि तव (स्त्री०) गन्ध, वास, गन्धक | गन्धिका तत्‌० (खो०) चाहूवेर, गन्धक। [लाजवन्ती | गन्यकारिणी तत्‌० (ख्री०) टजारु, औषधि जिशेष, गन्धिपर्ण तत्‌« (पु०) छत्त विशेष, मिसके पत्तों में गन्ध दो, छतिवन घृत्त लिलुप । गन्धिलुस्थ तत्‌० ( गु० ) सुप्न्धामिजापी, सुपन्‍्ध- गन्धी दे० ( छु० ) सुगन्धि बस्तुविक्रेता, श्रणर बेचने घाली जाति, एक-घास, पुक की्ा । गन्धीला ठद्‌ ० (बि०) मैला, रैंदला । ! गन्य तद्‌6 ( शु० ) गिनने के योग्य, गण्य, शि्ष्ती में, गिनती करने लायक । गप दें० ( ३० ) गपराप, इघर उधर की बातें, निरर्षक बातें, मूठी बाते, गपेढ़ा, कद्दानी । [निगल जाना । गपकना दे० (क्रि०) खा ज्ञाना, शीघ्रता से ख्वा जाना; गपड़ दे० ( घु० ) मिलावट, व्यथे, निरर्थक। >बौव (वा०) अज्ञात, अनिश्चित, अनियमित । गपशप दे० (वा०) मूठी सच्ची बात, मनारअन की बात] गपेड़ (बि०) गप्पी, डींग दइ्निवाला । गयेड़ा (प०) मिप्या कथन, गएशप ।-- बाजी (खरी०) निरथेक बकवाद गप्प दे* (स्त्री०) कट्ठानी उपह्चा, झूठी बातें । गएपी दे* (पु०) वकवादी, असत्यवादी, वाहुछ) अवि ध्वसनीय वक्ता । गण्फा (पु०) बढ़ा प्रास, लाम । गफलत (स्त्री ०) मूल, भ्सावधानी, प्रमाद गयन (पु०) सायानत, घरोदर दड्रना । गवरगगड (वि०) जड़, मूर्ख, अनारी । [पति, दूकदा | गधर दे० ( वि०) जवान, युवा, पद्ठा, सीधा (६०) गयरून दे० (वि०) वस्त्र विशेष, द्वीन । गवादन दे० (पए०) चमंझा।, चण्डाठ, स्लेच्छ । गरमस्ति तत्‌० (५०) किरन, ररिम, प्रदाश, स॒थे, वाँड+ हाथ । ( स्थ्री० ) स्वाद, अप्नि की स्प्री ।-मत्‌ (पु०) सूबे, पराताल्ठ विशेष, तलातछ | गर्भीर गभीर तत्‌० ( शु० ) गहरा, गम्भीर, अथाह, अगाथ, - सूक्ष +-ता (स्त्री०) अगाधता, नीचे की ओर का परिप्ताण ।--त्व (घु०) गम्भीरता, निम्नता | गशुआरे दे० (गु०) गर्भ शिक्ष, बालमें के जन्‍म के चाल, मंगुत्तिया धाल, कुप्पेदार बाल, भंडइूले केश, घूं घरवाले बालू । [दाम्) रंज, दुःख । गम तल» ( छु० ) [ गम + श्र ] सहवासः गस्ता; शमऋ दे० ( 9० ) तबल्ने या स्टृदुझ्न की संभीर ध्वनि, राग का स्वर विशेष, ज्ानेचाछा, सूचक । गमकीला दे० ( गु० ) गन्धवान, सुगन्धित, सुवास, गसकदार सहकने बाला । [सहनशीछता । गमखोर ( वि० ) सहिष्णु, सहनशीछ ।-+ी (स्त्री०) समत ( दि० ( ० ) मार्ग, राष्ता, व्यवसाय । गमन तत्‌० ( घु० ) [ गर+ भनद्‌ | प्रयाण, यात्रा, जामा, चलत) चाल, गति, बिदाई, विप्तज॑व, प्रस्थान, घूमना, आअमण, सम्भोग, सैथुन ।-- गन ( पु० ) झाना जाना, यात्तायत । गमना दे० ( क्रि० ) ज्ञाना, चलना । गमला दे० ( छु० ) मह्दी का एुक बरतन जिसमें चोटे पेड़ लगाये जाते हैं, ( कमे।ड ) अथरा । गमाना ( क्रि० ) खाना । गमार दे० ( पु०) गवार, देहाती । गर्मी तत्‌० ( झु० ) [गिम्‌+ ईन्‌ | गमनकर्ता, जाने चाला, चलमेबराला । गमी दे० ( सत्री० ) सेग, मरनी, रझत्यु । गम्भ्ारी तस्‌० (स्त्री०) बृक्त विशेष, गम्मीर का बृक्त | "गम्भीर तत्‌० ( गु० ) गभीर, अ्रगाघ, अतरूस्पर्श, अ्रथाह ।--ता (स्त्री० ) गाम्मीये, गमीरता | +पेंदी ( ६० ) [ गम्भीर + बिदू + णिन्‌ ] मच हस्ति, दु्देसनीय हाथी, हस्ति विशेष, जे दस्तिपक की शिक्षा न माने । गस्मत दे ( स्त्री० ) विनोद, मौज, वहार, हँसी, दिश्लगी । गस्‍्प तव॒० ( गु० ) [ सास +-य | प्राप्य, गरसन करने सग्य, जाने येग्य शक्‍्य, भोग्य साध्य, प्रवेश में येस्य । मान ( ग़ु० ) अश्रति क्ान्त, गसन क्रिया का च्॑धान श्राश्नय ।--गम्य (झु० ) खाध्या- साध्य, सदुकठोर, स्वक्प कठिन; कर्तेब्याकर्तव्य । ( १६७ ) गरई कानिनततम-न्‍तततततततततलल.र गय ततच्‌० (छु०) घर, आकाश, धन , प्राण) पुत्र, हाथी। ४ हय गय वलह हंस रंग जावत! 7 सूरदास है ) धर्मपसयण सत्कर्सी एक राजा का नाम, ये असुर्तशय के पुत्र थे, इन्होंने ३०० बर्ष तक यज्ञ का अन्न खाया था, अग्नि फे वर से वेद पाठ का अधिकार इन्हें श्रास्त हुआ था, शात्रुनाश पूर्वक इन्होंने अपना राज्य विस्तार किया था । ये अति दिन एक छाख साठ हजार गा, वश इजार घोड़े और पुक क्षात् निष्क ( झुद्दा विशेष ) दान करते थे। इन्होंने पूक यक् किया था, जिस की बेदी की लम्धाई ३५ येोजन थी, घढ् वेदी सोने की बनी थी | (२ ) एक असुर का नाम इसी असुर के न्ञाम पर हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ गया स्थापित छुआ है। यह असखुर होने पर भी विष्णु भक्त था, विष्णु की * प्रसन्नता के लिये क्ोज्नाहलछ पर्चत पर इसने छठे(र तपस्या की थी, इसके दर्शन सात्र से पापों के छूटे और स्वर्ग ज्ञान का घर विष्णु ने इसका दिया था। ( ३) श्रीराम की बानरी सेना का एक सेनापति घानर । गयल ( खी० ) शस्ता, पथ, गली, वीधी | गयन्द तद० (३०) गजेन्द्र, प्रधान इस्ति, बड़ा हाथी । गया तल (ख्री०) [ सय +आा |] गय नामक राजा की पुरी, तीथे विशेष ।--धात्त (०) गया के बासी, गया के पण्डा |--खुर (घु०) भ्सुर विशेष । ग्यारस तदु० (सत्री० ) ब्तविशेष, एकादशी, एकादशी तिथि ) श्यारद तदू ( पु० ) संख्या विशेष, द और एक, एकादश, १३ [--र्धा ( वि० ) ग्यारहदवीं रूँख्या का, ग्यारहें स्थान का । गर तत्‌ ( पु० ) [ गर+ खल ] एकादश करणों में का एक क्षरण- रोग, विप, हत्शाहल, गरल्, बत्ख- - चाभ नामक विप का भेद, (तदू ०) गला, कण्ठ | न ( गु० ) [ गर + हस्‌ न- टक्‌ ] विपन्न, रोग- नाशक | --द ( यु* ) विपदाता । गरई दे? ( क्रि० ) गन जाता है, सड़ता ऐ, विनष्ट होता है , नम्न द्वोता है। ध न गा > गरगरानता (६ रैश्द ) गर्ग न दैे। (क्रि० ) गजना, कोलाहब करना, जोर से चोलना ॥ गरज ( ग्रज ) दे* (३०) अयेजन, आशय, कार्य ( हन्‌० ) चिंबाद, गज, घोरनाद, भयानक शब्द । गुए्ज या गरजी ( वि० ) इच्छुक, मतरूवी, प्रयोशन, झाराय, झावस्पक्ठता ।--मंँद ( बि० ) इच्चुक, आावर्यकना रखनेबाठा । [वा सिंह का नाद्‌ *$ पसवर (वि० ) दीन प्रतिषाढक /-नम (वि०) भज्रा बुत, गरीय के योग्य । गरीयान्‌ तत० (गुल) [ गुदह+इयस्‌ ] श्रतिगुर, शरिष्ट, ( स्त्री० ) गरीयसी । गरुश् दे० ( गु» ) भारी, बोस्श, बोसैजा, दोखदाला । ग़रुआई दे० (स्त्री०) मारीपन | गरुड़ तत्‌ू० (पु०) प्र्टिरान, परवत्मान्‌, वैनतेप, गरजना दे* ( क्रि० ) धद्घदाना, भयानक ध्वनि, मेथ गर्‌ ( गई ) ६० ( छ्वी० ) रण, घूर, गरदा ( गु० ) विष दुने बाढय। गरदन दे० ( 4७ ) गा, कप्छ, शरीदा । गरदनियाँ देन ( स्री० ) अर्द्ध चस्द्र, किसी को किसी ॥ स्थान थे गएदस पकड़ का निडाजना | गरदा दै० ( स्त्री० ) गाद, रज, घूर, घूलि । गरव (३० ) घमड, अभिमान । गरवीक्षा दे० (वि०) घमंशी, अमिमानी गरम तदू* | पु०) गरम, झुचि, पेट, उद्र, अन्ता, मौतर, थहम्रार, श्रमिमार् । शभरमे है (यु०) #'य, तप्त, सन्त, क्रद्ध, कोच, कोप। गदाप्रर था शमी देन ( स्त्री ) बच्यभा, ताप, एक रोग विशेष । गराज तथ्‌» (पुर) | सर +ह ] विष, से विष छाप का पूटा +--।रि (गुव) सरकत मणि, पत्चा | गरवा दे (गु०) भारी, बोमडार, थोर, प्रतिष्ठित [--- पने ( पु० ) बोझाई, मान्यता । गरगरी दे" (+श्री०) देवदासी, देवदास्पृ्ठ, देवताड | गररी, गराप्ठी देन (स्थी०) रस्सी बटने का यन्त्र, चर्दी, टकुवा, कुएँ से जछ निकाडने के किये काए- निम्मिंत गोश्ाछार यहतु विशेष, गिरी | गरिमा हद ( स्त्रौ७ ) गुस्मा, बड़ाई, दस्भ अदृद्भूर, विष्णु का याहत पत्ती, प्रजापति ऋषि कश्यप के प्रारस और विनता के गर्द से इनका जन्म डुश्वा था + इन हे ज्येष्ठ आता अरुण सूर्य के सःरधी का काम्त करते हैं।गरइ ने सवा से अझत लाकर अपनी माता का दुसस्द छुडाया पा। एक बह जुशुधित गरइ ने थपने पिता से भोजन के लिये कहा, एक साज्णय में दाइते हुए गन ओर कच्छुप को खाने के ज्िये पित्ता ने प्रेरणा की, ये गज कच्छप पदले विमाइसु औ सुद्रतिक्ष सास सददोदरं तपस्वी थे, पास्तरा के शाप्र से इस योनि में चये थे, गहइ ने अपने चंगुल में उन्हें पकड़ छिया, और एक बरगद के पेड पा खाते ही इच्दा प्ले थेठे, उनके बैदने दी, उस पेड की डाल हुंट गषी, गरडू ब्रिम्तित हुए व्योडि बर्सी डाल में सारधिनित वाहघिलय ऋषि थे, प्रतए॑व ग्रुट उस उृद्ध शाखा वो छोकर अप्रने पिता के प्रास कतव्य स्थिर करने के लिये मये | पिता के अनुवेध से वाएखिक्य बा ले दूसरी जगह गये, गरंइ भी पक पवेत पर आकर सुख पूर्वक्त भोशन करने छोग़े |--मढ्ा सा* आवि प्र) ]>#कऋ ( पु० ) विष्णु, नारायण ।--ंग्रज्ञ (पु०) अस्ण; सूर्य सापि ३-उसन (ए०) गरुड पर का ब्रासक, दिष्णु ॥ 48 योभी की आद अचार की सिद्धियों में की पृऋू सिद्धि (>औ्वित (धुन ) इाम्भिक, अमिमानी। गरियाना (कि ) साक्षी देन्त, अपशब्द कहना । गरि ददु० (गुल) गिर + हट] भरतिशुर, भारी, गरबा, श्रतिश्रतिशयुक्त, अतिशय माननौण [गोला । गरी है ( छो+ ) नारियल के भीवर रा अश सोका, शरीब दे ( दि ) दीन, हीन --नेवाज़ नियाजू, निधाज ( वि० ) दीलों पर दया करने वाले [-- गहतू तद्‌« ( घु० ) पद, पंख, पर “-माय्‌ [ पु ) गदता तदु० (स्त्री ०) मारीएल, गुरता, िक, बहा) गज ( बि० ) मारी, युर, वोफ़िक । गझगाई दे* (स्त्री) आरीरन, गएपाई । गरूर (६०) घमंड, चमिमाठ, गये॥-री (वि) बसड़ी। गये तच्‌+ ( घु० ) सुनि विशेष, बढ़ा के धुष्ठ, विप्याड ज्वोतियेसा ऋषि ये यदुवंकयों के कट परोह्ित थे, श्े संहिता सपा ज्योतिष झे डाह कई अन्य गर्गज इनके बनायें हैं ; इनके पुत्र का भाग्य और कम्या ” का गार्गी नाम्र था। बैंठ, गयोरी, दिच्छू, केडुआ | गगज दे० (9०) गरुमट, शिखर । गर्गया ( दे* ) पक्ि विशेष, गौरैया । गर्गरी दे? ( स्त्री० ) माठा, दद्वेढ़ी, गगरी, सथानी। गज तत्‌० (पु०) [ गज + अल] शब्दृध्वनि, नाद, रच । गर्जन तत्‌० (० ) [ सज + अनट ] शब्द नाद, उत्कट ध्वनि, भव्सन कोप, युद्ध, सेघताद, सिंदनाद, स्पंध्वनि क्रुद्ध वीर की ध्वनि | गर्जना (क्रि०) नाद करना, दृह्महना । गर्जित तत्‌ ( ग॒ु० ) [ गर्ज+क्त ] मेघ शब्द, कृत शब्द, मत्त हरित | गत्ते तत्‌० ( घु ) गड़हा, सूमिस्थ, बिवर, घर, रथ, जलाशय, एक नरक का नाप्त, देश विशेष, त्रिगर्ल यह उवेरा छात्तु नदी के पूर्व की शोर था। अजकक् के पटियाक्ला के उत्तर है, इसे आज शत- लत के नाम से पुकारते हैं । गर्द ( स्त्री० ) धुल, खाक |-खोर (थि० ) घूल पड़ने पर भी जे खराब सा न जान पड़े । गर्दन (स्त्री३ ) गरदन, गला ! गर्दृभ तव० ( छु० ) पश्च॒ विशेष, रासभ, खर, गद॒हा, गधा |--ी (खस््री० । सधी, क्षुद्रोप विशेष, एक ऋड़ा, सफेद कैद कस, अपराज़िता क्षता । गद्धो तत्‌० ( ७० ) [ गछ + थक | लिप्पा, स्ट्टढा: पत्तखा, पाकर । गर्भ तत्‌० ( पु० ) झूण, अन्तरापत्य, शिश्षकुछि, मध्य, अन्तर, उदर, पेड /---क डक ( छु० ) पनसफल, कटइल “-काल (छु० ) ये घात्य के लिए उपयुक्त समय, ऋतुकाज्ञ [--शह्द ( छु० ) सूतिझा ग्रह, सौर !--घातिनी ( स्त्री० ) जा- लिका बृछ, गर्भनाश कारियणी स्त्रो | च्युत (गु०) गर्भ सें पतित, अपूर्ण गर्भ से उत्पन्न +-ज (गु०) गर्भजात, क्षेत्रज पुत्र विशेष (--दुस (पु० ) दासी पुन्न, जन्‍म से दी दास, गर्भ में से ही परा- धीन ।--धारिणो ( स्त्री० ) जननी, माता, गर्भवती ।--पात (०) गर्भगश, पेट गिरना ।-- चती (स्त्री ०) गर्भधारियी, गुवियी, ससत्वा, अन्तर | पश्यसद्विता, साभिन, दुजीवा +--छ्लाव ( घु० ) (६ ह&६ ) गले गर्भपात, गर्भ सिरता ।--नगार तत्‌० (पु०) शदद के सध्य का स्थान, वाघणशूद्द, सूतिकाशह, अख्चग्यह ।--नडुः (घु०) नाटक का अछ्ूू विशेष । नजयाधान (पु० ) गर्भ घारण करने के लिये संस्कार विशेष, प्रथम संध्कार, मिपेक क्रिया । पाशशय ( 8० ) जराबु +-नाए्म ( पु० ) ग्र्से हे।ने ले आठवां मास या आठर्वा बच । सर्भिणी तत्‌« (स्त्री ) [ गर्भ + इस्‌+ है ] गर्भवत्ती, गुर्बिणी, ट्विजीवा, दुपस्था । भर्भित तव॒० ( ग॒० ) | गर्स+क्त ) गर्भस्थित, उदर सध्यध्य, पूर्ण, सरा हुआ, काव्य का एक देप। गर्रा दे० ( वि० ) छात्र के रज्ञ का, रुद्देडखण्ड की पुक नदी । गर्य तव्‌० ( छु० ) [ गयवे + श्र] दर, अदृदूधर, अभि- माद |-ज्ञनेक ( गु० ) अहह्ुतर जनक, दर्पा- न्वित ।--न्धित ( गु० ) अदद्भूपरी, दर्पी दस्भी | मर्वित तब्‌० (ग्रु० ) [गर्ब+इतच्‌ ] गर्वयुक्त, दर्पी, अहः क्रुत, जातसवे, गरूरी 7--( स््री० ) नायिका जिपछते अपने रूप, गुण अथवा प्रेम का घमंद हा। | गर्विष्ट (बि० ) अभिमानी, धमंडी। गर्वी तव्‌० ( श॒ु० ) [ गये +ईन | अहकारी, घमंडी। गर्वीज्ञा तद्‌० ( बि० ) घमंढी, अहड्ूूतरी । गहँण तव्‌ « ( 9० ) [ यह + भनद | कुत्सल, निन्‍्दस, देषप देना, निनदा करना | ग्रहणीय त्द्‌» ( शु० ) [ गह + अनीय ] निन्द॒तीय, तिरस्करणीय, दृषणीय, दूधय, निन्‍दा करने येग्य, घुरा, श्रपवाद के योग्य । [निन्‍दा, दुर्देचन, छुराई, । गहाँ तत्‌« ( स्त्री० ) [ गह +डः ] तिरस्कार, झपवाद, भहित तत्‌० ( ग॒ु० ) [ गहं +इतच्‌ | निन्दित, तिर- स्क्कत, प्राप्तमढ्ां, जुगुष्छित । गह्य व ( ग॒ु० ) [ गहं+य्‌ ] अधम, नीच, निन्‍्द- सीय, निन्‍्य ।--चवादी ( ग़ु० ) निकृष्टवादी, अप« आपी, दुवेचन वक्ता ।-द्लूत्ति ( स्त्री० ) अघम जीव्रन, निन्दित जीविऊा। यल्न दे० ( पु० ) गला, कण्ठ, राज, गह्मकू मछुछी, प्राचीन बाजा विशेष ( पंजाबी भाषा में धात-- यद कैसी गर है”) [--व़ियाँ ( दा० ) परस्पर गलऊा (्‌ २०० ) गवन कन्प्रे पर हाथ रख कर चलना, प्रथय का खुद्धा विशेष, प(स्तर गले में बाह डाबनना । गललका दे० ( पु० ) फेडा, रोग विशेष । गलगगद तद्‌ ० ( पु+ ) गण्डमाला, कण्ठपाला, गले में ग्रतिरिक्त माप्त लटकना । गलगन दे० ( पु» ) चडई्ातरा, पकछी विशेष | गलगन्ञा दे० (वि०] मींगा हुआ, तर । गलगुच्छा दे? ( पु+ ) गलगुच्चा, गालों तक मोल । गल्नग्रह तत्‌" ( धु० ) भ्रनष्यार तिथि विशेष, श्वासा- बरोध, कंठरोेघ, श्रापत्ति जो कठिनाई से टले, मदन्दों का काटा । गलअम्दूड़ा दे० ( पु० ) गन्नासटी, गल्ले का' हार, बढ ज्ञो कभी पिंड न छोड़े, गले में क्टकती हुई पट्टी जिसमें चुटीछा या घायल द्वाध रखा जाता है | गल्ण्डा ( पु० ) भ्रह्मान, ढाक, पुकार, गुद्ार । गलठस (स्प्री०) बद्द व्यक्ति अपवा घसझी सम्पत्ति, . जिससे काई सम्तान न हो । - गल्नत दे० (वि०) भशद्ध, असत्य । - श्श॒द्धि, मूल । गल्तनो दे० (स्थ्री०) गलबन्घन, गढे का बघना । गलना दे० (क्रि)) पिधरना, नरम द्वोना, घुठना, घुछ जाना, जी द्वेना, दुबढा द्वोना, बेकाम होता, चुशाना होना, नष्ट दे।ना | गलन्दा (गुः) कटमाषी, सुख, दुमुंख। [भपनी प्रशसता | गलफदाकी दे० (स्त्री०) बडाई, घमण्ड, अपने मुँद गलफड़ा दै० (पु०) क्‍्पेल, गाल, जबड़ा, गाले। पर का मास | गलऊांसी दे (स्त्रो०) गल्ले की फॉसि, जजाक । गलवांद दे० (स्त्री०) गेदी, ब्रालिक्षन । गलभद्ट दे० (गु०) स्वरवद्ध, चैडा टुश्ना कण्ड । गलसुपा दे० (पु) पक रोध जिसमें थाले! के नीचे के भाग में सूजन भा जाती है। [नकिया, वालिश | गलखुई दें० (स्त्री०) तकिया, सिरद्वाना, घछ्ोटा गलस्तन तद्‌« ( पु ) गहन, यकरियों के गले के नीचे की घन नुमा दो घोटी पतदी चेक्धियाँ गल्तस्तनी ६० (स्प्री०) बकरी, चजा । गलहूँड़ दे* (पु०) यछगाढ़, चेद', गठसेग । गलहदस्त दे* (पु) गलप्रदण, मढ्य घोरना, ग्रढा दयाता, गले में हाथ लगाकर निराद्ष देना । | । गलही दे० (स्त्री०) नाव के आगे का माग । गला दे० (पु०) गछ, गर, कण्ड, गरदन --पद़ना (( था० ) भारी शब्द देना, गला घनघताता |-- फॉसना (वा०) उद्धन्धघन करना, फाँसी देना ।-- बैठना (वा०) शब्द का मारी दौसा, गद्मा पहना, एक अरूार का रोग |-घेठना (व०) गा दवा- कर सार डाज्ञना, फांसी देना । गलाना दे (प०) पिघरटाना, द्वव करना घुछाना। गलाव दे० (ए०) पिघलना, बद्ाव, द्वव । गलासी दे० (पु०) पशु बांधने की रस्सी, पगद्ा । गलित तत्‌० ( गु० ) [ गल्‌--इंतच्‌ ] पतिठ, भ्रष्ट, * चअ्युत, द्रवीमूत, सडियल ।--कुष्ठ (०) श्रप्ताध्य कुछ रोग, मद्दा ब्याधि । गलियाना दे* (क्रि०) गाली देना, छुध कद्दना, भ्रभि शाप देना, सेजन करने पर सोजन कराता। गले में दूसना । [िलियारी । गलियारा दे० (ए०) छोटी गज्ञी, पेंडा, रथ्या। (स्त्री०) गली दे ० (स्त्री०) छोदा मार्ग |-गल्ली (वाश) पक गली से दूसरी गक्की में, गली गली में, प्रत्येक गली में, यथा -/गली गली उत्सव द्वो रद है, वह गल्ली गत्ली भाग गया? । गलीचा या गलेचा दे० ( पु० ) कालीन, मोटा शुना हुथा गुदगुदा बिद्यौन , रोयेदार दिधीना । ग़लीज्ञ (वि०) मैजाकुचैणा । गले दे* ( छु० ) गड्के में, गर में :--पदना ( घा० ) खुशामद, विलैथा दुयंडबत्‌, मिध्या प्रशक्षा ।-- पड़ी वजाये सिद्ध (वा०/ अ्रनिच्छा पूर्वक ऊिसी काम को करना, अरुचि पूर्वेक कमें काय का हार द्वाना (वा० ) अतिशय प्रिय, श्रत्मन्त प्यारा +-लगना धाक्षिद्वन, भरछूवार | गलेफ दे० (स्प्रो०) दोहर, दुद्दरा ओढ़ने का चादरा । गलीझा दे० (पु०) गाल, कन्दत॑ के गाले। के भन्दर की घैद्ी [ [$दानी, ध्राख्यायिका | गद्य दे० ( स्थो० ) उपन्यास, करिपत कथा, इपछथा, गल्ला दे० (पु«) झादी, अन्न राशि, हारा । गछ्ठाला देन (०) कुक्छी का काढ़ा। [मयेजन,औसर । गये दे० (चु० ) घाक, दाव, भवसार, मौडा, यरज गवन दे० ( पृ ) गमन, चब्न, यति। गवना गयता दे० ( पु ) मौना, चधूप्रवेश, स््री का पति के धर दुवारा शझ्ाना, द्विागमन। गधति या गवनी दे० ( सत्री० ) गमन करने वाली, "*चढ्ने बाली, गई, चली गयी |. [समान पथ शपय तत्‌० (पु० ) जद्ली पशु विशेष, गाय के गर्मसेणरट दे (स्त्री०) राजज्ञीय शासक सण्डली, शासन पद्धति, राज्य ! गवनी डे० (क्रि०) गई, चलछी गयी । गवहिं दे- ( ऋ० ) गौ से, प्रयोजन से, अचसर से, मैके ले, मतलब से, चुपके से, ( क्लि० ) जाते हैं, गमन करते हैं । शवाक्त तत्‌० ( पु० ) [गब+ भ्र्ध ] सरोख्य, सेःखा, खिड़की, एक बानर का नाम । शावना दे० ( क्रि० ) शान कराना | शवासा तदू" ( घु० ) गोभछक, कसाई आदि) गवाह दे० ( ए० ) साक्ी, खासी “नी (स्थ्री०) सापछ्ली का वयान, साक्ष्य । ग्रवेशु्का तव्‌० (स्त्री ०) तृण, घान्य विशेष, गंगेरुआ | शवेषणा तप" (स्त्री०) खोज, छान चीन, भन्वेषण | गचैया दे० ( छु० ) गायक, साने वाला | गनेहाँ बे० ( बिल ) मामीण, देहाती, गर्वार । शब्य तत्‌० ( छु० ) गोसम्बन्धी नब्य, दुग्ध, घी गोबर शआादि | किस, चार मील । गब्यूति त्त० ( छी० ) दो हजार घहुुप की दूरी, दे' शश (६० ) वेहोशी, सूर्चा । शशत ( छु० ) दौरा, अमण, घूसना । शससा दे० (क्रि०) जकडुना, गठिना, बाँघना, ठसना | शस्तान ( स्त्री० ) कलदा स्त्री, ज्यभिचारिणी नारी । गरुसा दे० (छु०) आस, कौर । [कर, घर, घर कर । गह दे० ( पु० ) बेंट, हत्था. हथकंढ्ा, पकड़ी, पकड़ गहई दे० (क्रि०) स्वीकार करते हैं, घरते हैं, पकड़ते हैं, गहरण करते हैं। . [(क्रि०) कपछना, लदकता | गदक दे० ( स्त्री०-) मत्तता, उनन्‍्मत्ता, असक्ष या शहगहू ( बि० ) यदरी, भारी, घोर । गहगह दे० (गु०) नगर का आनन्द शब्द, सर्वेत्र प्रसक्ञता, चथा-- “इस समय चर्हाँ मह गह हो रहा है?-- ( वि० ) प्रफुल्छित । [वहुत प्रसन्न होना । गहगद्दाना दे० ( क्रि० ) क्द्वकना, द्विकोरना, उमगना हु २०१ ) गाँठ गहगहे (क्रि० वि० ) चड़े दर्ष के साथ । सहन दत्‌« ( घु० ) गहराई, थाह, कक्ष, दुःख, जल, अहण, कबडूए । ( वि० ) घत्ता, दुर्भय, घन, कान, दुर्गम, गहरा । गहनकर दें० ( छ० ) भत्त होना बमगना, आनन्दित होना, पकड़ कर | गहना दे० (क्रि० ) पकड़ लेना, अहयणय करना। (8०) सुपण, अककुर, गिरजी, उन्‍्धक, न्यास ! ( ब० व० ) गहने । गहना दे० ( स्त्री० ) सन, पलछास, काली पत्ती | गह॒वर तदू० ( गु० ) सघन, शोचयुत, भरा छुआ कण्ड, * हुमम, व्याकुल, चेसुध, ध्यानसग्न । गहरवार दे० (पु०) ज्षत्रियों में एक जाति विशेष | गहरा दे० ( गरु० ) गरभीर, गम्भीर, अगाघ । गहरु दे० (एु०) ढील, देग, विछम्ब, श्रतिकाल, भ्रसा । गहलौत दे० ( ० ) छषत्नियों की एक जाति जे! सेवाड़ में है । पु गहवा दे5 (४० ) घिमटा, सण्डासी, पकड़ने की वस्तु । गह॒चार दे० (पु० ) क्षत्रिय जाति ,का एक भेद, गदवार क्षत्री, क्षन्नियें की जाति विशेष । गह॑चारा दे० ( पु० ) डोलच, हिण्डोक्षा, पाना । गहिरा (वि० ) गम्भीर, अधाह ।-ह (६ स्त्री० ) गम्भीरता, गहरापन | गहरे तत्‌० ( घु० ) गत॑, गुदा, वन, कानन, खेद | शा दे (क्रि०) गया, चला गया, जाता रहा गाश़ो । शाई दे० (स्त्री०) गौ, गाय, धेनु । [गारँ, गान करूँ। गाँऊ दे० (घु०) गाँव, आप, नगर, पुर, पुरठा, (क्रि०) गाछुना ( क्रि० ) संधना, पिशेना | गाँजना दे० ( क्रि० ) पूजी करना, विलेहइना, राशि करना, एकत्रित करना; बटोरना | गाँज्ञा दे० ( छु० ) भक्न की पत्ती, गम, सन; भन्म, सचजी, मादक तृण विशेष । गाँस्क्ा दें० (० ( गाँजा देखे । गाँठ दे० ( छु० ) सन्धि; जोड़, बनन्‍्घ, गिरह, गिलदी, से।टरी |-उखड़ना (घा० ) जोड़ ख़ुल जाना, इड्डो या चसख का विचणचा -नका पूरा (वा०) घनी, धनवन्त धनशाली ।--का खेोना (बा०) अपनी हानि करना +--खोलना ( बा० ) घर्च श० पा--२६ गाँठना ( ०२ ) गादना करना (-गठीला (दा०) हद्दा झद्य, /बूत्र बल- चान्‌ शरीर कड़ेा गरइ्ट चाहा मनुष्य |-पड़ना (वा) किस्ती के साथ विरोध द्वोना, मनामालिन्स चढ़ना । [प्रमुस्व जमाना, अधिकार करणा | ग्रॉठना देप ( किए ) बाथदा, वश में करना, अपना भाड़ (स्लो० ) पुद्धा। अपात | ग्रुद्ा मैथुन करानेवाक्ा । शाडर दे० (गु०) गदेरा, गइदे का । गॉडूर देन (धु०) कस, तृथ विशेष, सरसों का खाग | रपडर दे (बुर ई-क्ुईपकप, गन्ना + [सीत उड़ता । गाँयता दें ( क्रि० ) यूचना, बनाता, श्रशिवद ऋरना, गोष दे० (०) बस्तो, पुरचा, नगत, झाप्त गाँसता दे ( कि ) दरमाना, छिद्ध बन्द करना, पिरेता, गूँदता । [वीक्षणता । शाँसी दे" ( स्रो० ) श्झों के थ्रागे का भाग, घीर, भामर दे५ (स्रोौ०) घड़ा, गपरी, कस, कछसी, घट ] गाद्रेय तत० (पु०) गड्ापुत्र, कातिं ध्य, मीष्य पिनामड, छुबए [घाल मिर्च) गाले देब (दु०) इड़, पेड, रूख, तर ।--प्रिर्च (१९) गाओे देन ( पु) गजब, शोर, काम, फेन, विधत्‌ बिजली । किक, गरजना | गाजत। दे। ( क्रि० ) गर्जमा, सिदमाद्‌ बरना, हर्षित गिर दे० (९०) गज़रा, गक्षन, मूछ विशेष, इसका छान धर्मशास्तर से निश्िदित है। गाजावाजा ढे* (६०) बहुचिध वाच, अनेक दाजे, हाँ दुएँ उत्सव है गाड़ दे० (०) सईद, गढ़ा।--तोप (सी >) मिट्टी देना, कथुर करना, शश्लीए पा निन्दिल बात के दिवाना, बाढ़ कर दिपाना | गाड़न्ए दे (#०) सोपना, मिद्टी देर, दिपाना । गिड़र देन (६०) भेद, मेष, सेशे, सरती | गाड़दे तद्‌5 (धु०) मादइ, सर्प का विफ मखाड़ेवे छा मम्तर, (०) भप्े का चिप इतारने कात्य ) एाड़ईी रे+ (क्रिन) गहरे हैं, जप में दकाले हैं। गाड़ा दे* ( ६० ) खाई, दब, गादी, केटी गाड़ी, गढ़, देदका का गदन्द | है गाड़ी रेस (दो) शक, रच, इ़कड़ा, झड़प ग्राड़ीवान दे (४०) सारी, चहक्षवावू, रफ्काद | गाढ़ चत्‌- (०) घन, तरह नहीं, गाढ़ा, अल्मम्त इढ़, कष्ट, थरापद्, वेदवा, विपत्ति, कढिनाई, अक्षार, फंकट ।--ता [द्वी०) घनता, पाहापत । गढ़ दे? (गु०) जे। पहछा न हो, छठित, इढ़, एंक के समात, मेरा; पढ़ा, घना, देख विशेष ग्राह्मलिज्लून तद्‌० (पु०) भ्रालिफक, भ्रक्‍्त्रा, भेद | ग़ाशपत्य तत्‌» ( पु० ) गणेश के उपासक, गणेश ड मक्त स्मांते, इपासता का एक सेई | [दृलू, पतुरिया। गाणिका तह (9० ) गणिकासमूह, वेश्पाथें का गागढीव तव्‌० ( पु ) अर्जुन के चनुप का भाम, यह चनुप अ्जुन के णप्ति की असश्षता मे मित्ता था, अप्य, कामुक (-धर (पु०) अजुन, तीकए प्राण्डव ॥- ( ४९ ) भजुन, गाण्टीद नामक घनुष का घरण करनेवाब्श | [बदन । गात्त तदु० (स्री६ ) गाय, देद, तन; शरीर, तनु, भरकर, गाता तव० ( गु६ ) [ ै+त्ृण ] गाय, गरान॑करत्तों, गान छाक । गाता दे० (पु०) पढ़ा, पिदौता, जिद ।. * शाती ३० ( छी० ) चादर थाने की एक प्रक्रिप जैसा साधु याथा करते दे, पढुंदट, ऊर्णप् । शांतु देन ( १० ) शावक, गरेया; गाषेबाज़ा, केकिल, अआप्ा, रस्थवे, गएन, पण्रिक, पथिबी शाघ तत्‌० ( पु» ) काय, देह, शरी), बपु, गांव, अप्र ।-+करयूड़ ( ख्ी० ) शरीर की खुहछादद। >>यैदना (स्री०) शरीर की ब्यधा, अक्रपीह | + भड़ी ( पु ) शरीर की विकृति, विकार, 'भक्ञ की बराबर --सेपनी ( खी० ) शरीर में लगाते का सु्स्थित शृब्पविशेष, उबटज ।--सवाद्वत (५९) शरीर दबाना, अ्खो की पीझ निकाछला ) गायक तद्‌० ( गु० ) [गै+ चर] गाषक, गानकारक गवैश, कथक । गाथना तदु« (क्रि० ) अम्यव करना, गुँथना, बनाना । गाया ठव्‌० (सी०) [ गैक था | रजेछ, घस्द। गीत, वा कहानी, गीत, गात, पद्च, छुंद । गाय तद॒« (कि) गरुयें, पिरोये, एसडा प्रवेश ध्जमापा सें किया ज्ञाता है और रामायय में भी गोद दैं* ( पृ० ) तलछुद, सैठ, काईंट |. [अप्तदा गादुना दे+ ( &० | दढ़ करना, स्थिर करना, दुशना; गमादर गादर दे० ( 8० ) राशि, यग्रेक्र, ढेर, टाल, ( बि० ) डरपेक, सुस्त । [कचरी [ सादा दे? ( 8५ ) कच्चा अन्न, चता मटर का दोरहा, गादी दे० (छी०) सिंद्ासल, राज्यासत, अ्रधिकारासन, गही |-पति (४० ) सम्प्रदाय का एक बड़ा सहन्त, सैन्‍्याली । गाठुर दे" ( घु० ) उसगीदढ़, चमगादुर । गा[थ तद॒० ( धु० ) लिप्सा, रुपद्ा, अभिल्वापा, स्थान, घाह, नदी का वहाव, फूछ ॥-- तत्‌> (स्त्री०) गायत्री स्वरूपा महादेवी । गाधि तत्‌० ( पु० ) चर्द्रवंशीय कुशिक राजा क॑ पुत्र, प्रसिद्ध सपसदी विश्वामित्र के पिता। मद्दाराज कुशिक की रानी पैरकुत्सी के गर्भ से द्वेवराज गाधिरूप घे उत्पन्न हुए थे. भाधि की कन्या सत्यवतती का विवाह सदर्पि आगु के साथ हुआ था| इसी सत्यवती के गे से महर्षि जमदसमि उत्पन्न हुए थे ।--ज्ञ ( घु० ) विश्वामित्र धनि। -+ चन्दन (०) विश्वामिन्न सुनि ।--पुर (एु०) छान्‍्यक्ुब्ज देश ।--छुवन (9०) विस्वामित्र सुनि, राजा गाधि के उुत्च । [छनि । गाथेय तद्‌० (छु० ) [ गाधि+ ढक | विश्वासित्र शान त्तत॒» (9०) [ गैं+खिच+ श्रन॒द्‌ ] गीत, गाना, वेखान, कीतेन, ध्वनि, सञ्जीत । शाना दे० (क्रिप्) झ्राक्मपना, राग । गान्धर्व तत्‌० ( गु० ) सन्धर्व सम्बन्धी ( छु० ) गान, विचाह विशेष, सत्री पुरुष की इच्छा के अ्रनुसार विवाह ।-चिद्या ( खी० ) सह्नीतशाख ।-- विद्याह ( इ० ) कैचल वर कन्या की इच्छा छे विवाह | गान्थार सत्‌» ( प० ) सिन्दूर, खर विशेष; जम्बू द्वोप का उत्तरीय भाग जिसश्ली प्रासिद्धि कान्धार के नाम से हैं ।--राज़ (घु५) शहृनि, हुकेंघन के सामा । गान्धारी त्तव्‌० ( छु० ) [ गान्धार +ई | जैनिये का शासक देवता विशेष, यवासा, मादक अब्य विरंप, राजा क्रोष्डु की पत्नी और अनमिन्र की माता, ऋत्तिकावती नगरी में रददन वाले राजाओं झोे सोज ऋद्तें हैं | इस्से सोलवंश्ीय राजा कऋ्रोष्ड की पु _ पत्नी का नाम; ( रब ) 4 गायत्री ९ (३) राजा छतराष्ट्र की रानी । गान्घार देश के राजा सुबढ् की कन्या और दुर्योधन की मात्ता | इनके छोटे भाई का नाम शकुनि था। ग्ान्घारी ने तपस्या द्वारा एक सी मुन्न आप करने का घर पाया था, मीष्म्पितामह ने छवराष्ट्र से गान्‍्घारी का विवाह कर देने के किये राजा सुब्रल से अनुरोध किया * सुब॒ल् ने इसे स्वीकृत किया, यह बात गान्घारी को मी मालूम हुईं । गान्घारी का भावी पति श्रन्धा धा श्रतएवं उन्होंने भी अपनी आँखों में पट्टी वाध ली, ये पनिग्ता थीं, इन्होंने भ्रोक्ृष्ण क्यो शार दिया धा, जा सच निकला | जवासा, साँजा । आजझित्तार, कीड़ा । गास्थ्रिक तत्‌० ( पु०) सुगन्ध द्वब्यः व्यवहारी, शाफिल दे० ( यु० ) क्रापरचाह, अ्मनेायेगी, भछस, जड़, आलसी । गाम दे? (पु०) गर्भ, पेट, ढेढा । गाभा दे० ( पु० ) नवीन पत्र, कोमछ पत्न, केले की. नयी पत्तिर्या, राई से निरली पुगानी रूई, कन्चा अनाज, डायथ की अपु केयें की संधि । गासित, सामिनी दे० (द्वौ०) यर्मिणी, प्म्तरा पत्, झुबिणी, दुपस्टा गाम तदु< (प०) झा, गांव | गामिलि, गामिलों तद्‌० ( सत्री० ) गसनकत्री, समन करनेवाली, जानेवाली, चलनेवाली । गामी तव्‌० (गुर) [ गम + खिन्‌ ] गमनशील, गधय करने चात्या, अख्याचकारी, चलन बाल्त, जानेवाल्य । शामुक तत्‌० (गु०) चलने वाल्वा,गमनकर्तों | [ुरुता [ शास्मीर्य ८० ( छ० ) गम्भीरता, गमीरत्ता, घीरता, गाय दे० ( छ० ) गौ, घेहु गया, गर !--गेठ तदू० (ए०) गोशाला, गौओं के रहने का स्थान, गे । --गेरू या गेररू ( छु० ) गैया, ग्रोरू, सो समूह, गौशहला, गे गोछठ | आयक तत्‌० (गु०) यवैया, गाने चाला । शायक्ली ठद्‌> ( स्री० ) वेदसाता, मन्व्रविशेष, छन्दी- विशेष, ढुमों, भगवती, छः अछर छे पादवाढा इन्द, इसके तीच पाद द्वेतते हैं। बेदें में किखा है कि चृइस्पत्ति ने एक समय गायत्री का सिर फाड़ दिया; परन्च इससे गाषवत्री की झत्यु नहीं हुई; गायन ६ २०४ ) गिरते पड़ते डिन्‍्तु गायत्री के सम्तक थे वपट्‌कार सामक देवटा की दरात्ति हुई ।बहुत लाग इसका रूपफ समझते हैं, गायत्री हिन्दू धर्म छा बीजमन्त्र है। उ्॑ग्पति या चार्वाक नास्तिक मत जे प्रचारक थे, दिन्दूघर्स के नाश की इन्द्वेने बहुत चेष्टा की, परन्तु सफर नहीं हुए। पह्म पुराय में लिप्श है कि गायती बह्मय कि स्त्री है। (पु०) खैर का पेड । [गाते से जीने चाल । शायन तत» ( गु ) [ ै + अन्‌ ] सायक, गानकारी, रायव (वि०) गुम, गुप्त, छापवा । शार दे (श्री० ) गाली, श्रभिशाप । यथा--जसे बरनत युद्ध में, ज्या विवाह में गार” >-युन्दसत्सई । शगारत (वि०) मटिय्रामेंट, वर॒फद्‌ |. [का एुक दुस्ता । गारद ( स्री० ) सिप'द्धिया की ए टाली, सिप।हिया गारना दे० ( क्रि० ) निदाडना, दुद्दता, निश्यलना । गारा दे * ( पु० ) चहला, सानी हुई मिट्टी, इंटे जाढ़ने के लिये गिलावा | शारि दे* (श्री०) देसे गारी । लिप । गारी दे० ( श्ली० ) गाक्षी, छुवाच्य, अपणक्ध, भ्रप- गाण्ड तत्‌० ( 4० ) मरकतमणि, पद्धा, एक पुराण का नाम, ग़रुदपुराण, म्वर्णे, विपमन्ध, विपवैद, कार येज्षिया, सपेता, सपदद। । गाड़ी तद्‌० (स्री-) देखे गारद । गार्कत (१०) पछा, गरइ का अ्ख । गाईपत्यामि तद० (गुर ) यज्ञीव अपनिविशेष, यज्ञ के श्रिविध श्रप्मियो में एक्क अभि। ग्हिस्थ सम्बन्धी | गाहस्थ्य तन ( ५० ) गृइस्वाथम, ग्रृदेस्प का घसे, गाल दे (पु*) कपोक्ष, गण्डदेश, ऋपट, छ०। - चन्नाई (प्री ) वचबाद करे, चात बनाकर, ब्यते ही यहुत थी बातें घकना, मुँहजारी । गालय तप» (घु०) मुनि विशेष, गारूव मुनि के पुत्र + गाता देन (पु) रई की फची,इुनी हुई रद का गे | गात्नी तत्‌० ( ख्लौन ) अपमान घेधक राब्द, कुक <० | +गेलीन्न था गुप्ता (वा०) चुद गाली । शालू दे० (पु०) बाल, टेट | यथा-- पक रूंग भद्ि होदि, मुशालू। इसर छाय फुराटब गालू ” | ++रामाययथ । गावधप्पू ३५ (घु०) चापलूस, फुसलाऊ, स्वार्थो | गावदी दे* ( घु० ) उज्ञवक, मेला, गेगढा, अशान, जड़, सूखे, भ्नसमर । गावदुम (3०) चढ़ाव उत्तार, छलुर्वा । [[हं, गाते हैं । गारवदि ३० (क्रिग्) गारा है, गाव करता है, गान करते गाह तद्‌० ( पु ) आह, कुमीर, सगर; नेक, जलमन्तु विशेष गददन, दुर्गम । गाहक तद्‌5 (पु०) प्राइक, खरीददार, क्रेता, कीनने- वाला, चाइनवाला, छेनेवाला, घरीदार गाहना दे० (फ्रि०) टूंढना, पकडना । गाद्या तदू (ख्री? ) गाया, कथा, कहानी, प्रदण करना, लेना | टिद्द छुगा कर । शाहिगाहि दे ( गु० ) ढढ़ इरढ़ का, खोज खोज कर, शाही दे० (श्वी०) पाँच की संस्या, पचि सैखया परिमित गिजाई दे० (द्वो०) कीट विशेष | गिचरपिथ दे० (पु०) कचपच, मीदमाह़ । गिचपिचिया दे० ( ३० ) गिच्पिच करनेवाला, भीड- - साड करने बारां | गिरकारी दे* (धी०) गिड्गिदी, गिट्टी । [के ढुकड़े । गिय्कारी दे० ( स्ती० ) पथरी, पंर्धरनिर्भित, परपर मिटपिठ दे (स्री०) निरर्थक शब्द | गिट्टी दे० (स्त्री०) पश्चर के छोटे छोटे डुकठे, फिरकी । गिड़गरिवाना दे (क्रि० ) झडनय करता, बिनती करना, धिधिश्राभा । पिनती दे० (स्त्री०) गणित, गनना, सँैल्या, दिंसाव । गिनना दे (क्रि) गणना करना, गिनती करना । गिन्नी दे० ( स्प्री० ) गिनी, चका, निष्क । गिद्ध त्द* (5०) गीघ, शनि, पदिविशेष । गिर तदू* ( पु) पद्वाठ, शाहूर आउनाय के दस प्रकार के गुसाइयों में से एक [--ज्ञा तव॒ (स्प्रीन) पार्वती ।--घारी तव० ( प्र० ) श्रीकृष्ण !>“चर तत्‌० ( घु० ) प्रशाह़, बड़ा पहाड़ सिरगिद द« (पुल) शर्ट, छुछछास, गिरगिटोन । घिस्त है० (क्रि०) गिरते ई, मिरता हैं । टहिरना दे० (फ्रिन) पढ़ना, खसना, ऋदना | गिरपड़ना ढे* ( क्रि० ) कद पहना, करके पदता, फिसल ज्ञाना, पतित होना * पपिरिश्षम से । मिस्ते पड़ते दे* (दा> ) बहुत कदिनता से; पहुंत गिर गिरा तद्‌० (स्त्री०) वचन, वाणी, बाक्‌। (दे?) गिर पड़ा, फिलल गया, खला ञराम (० ) आम भाषा, गर्बवार बोली, उजाड़ आम नष्ट आम । ४ गिराना दें० (क्रि०) औंधाना, पढकना, छुछकाना । गिरि तत््‌५ (छ०) परत, पहाड़, भूघर, श्रचल; सैन्या- सियों की एक जाति |--केसटक ( ३० ) बच्र, अशनि ।--क्रक (४० ) मदह्दा सींग, चहुत कइची )--कदल्ी ( म्त्री० 9) कदली विशेष, पहाड़ी केछा ॥+-ज्ञ ( घु० ) शिज्षाजीत, पर्वत से उत्पन्न घातु ।--जा ( स्त्री० ) पाती, पर्चत पे उत्पन्न, पर्वत की कन्या, भवानी ।--ज्ञानन्द्‌ ( घू० ) गणेश, कातिंक्रेय ।घारो ( छ० ) श्रीकृष्ण चन्द्र, हनुमान ।-“न्दा ( पु० ) गिरीन्द्र, परबेतराज, हिमालय, सुमेर +--नन्दिती ( स्त्री० ) पार्वती, गिरजञा, भवानी । नाथ ( छु० ) छ्िव, सहादेव, भव, शद्डर, हिमालय, पर्वचराज । --राज्ञ ( ५० ) हिमालय, खुमेर।--चर ( छु० ) पर्वत श्रेष्ठ, सुमेर, द्विमालय, विन्ध्य खछ (स्त्री०) गेरु, उपधातु विशेष |>लाहय ( इु० ) शिल्ाजीत । गिरिर (छु०) छकड़ा, जगड्रवध्चा । मिरोन्द्र ल६० (पु०) गिरि इन्द्र, पर्ववराज्, हिसाकूय * गिरीश तत्‌० (घु० ) महादेव, शिव, केलासपति द्विमालय, सुमेरु । _जात्ता है । गिलई दे० ( क्रि० ) नियछ जाय, लीं जावे, लील गिलदी दे० ( स्व्री० ) गठि, अन्धि, सूजन, फुक्षाव, फेड़ा [सक्षण | गिव्लन तत्‌० (8० ) [ छ+ अनद्‌ | निगरण; खाना, गिलन या गेलन दे० (छु०) छु+ बेतक का परिक्तण । गिलहरा दे० (छु०) पान का छव्त्रा | शिक्षहरी दे० ( स्त्री० ) रुखी, चीखुर, एक प्रकार का जानवर, गिछली, चिखुरी । हु गिलाफ दे० (प०) आच्छादन, ढांकन, खेल | गिल्ित तत» (गु ) [द्कक | भक्त, भक्तित, जादित । [ड्रीला । गिलियर दे? ( गु० ) आलसी, आसकती, शिथिलज, गिलेय दे० (स्त्री०) अम्ृता,अन्द॒ तक्षता,गुड्ड च, गुद्ूची । (६ रण४ ) गुजर मिली दे० (स्त्री०) गिले।य, छत्ता विशेष, शुद्दच । सिलौरी दे० (स्त्री०) बीड़ो, खीली, पाव की खीली गिल्ली दे (स्त्री०) मछ्दे की डुड॒ढी, गिलदरी, गिरली। थी तत्‌० (स्त्री०) सरस्वती, वाणी, बोलने की शक्ति गीज्ञ दे० (स्त्री०) सुसलमानेर कप्सेजन विशेष [ गीजना दे० (क्रि०) मलचा, केश देना, महंत करना । गीत तव० ( पु० ) ग्रान, त्वल बाजे के अनुसार गाना ।--बादूव ( ४० ) ग्रानकीतन !--मेदी (8०) गित् + सुद्‌ + इन] किन्नर, स्वर्ययायक । गीता तव्‌० ( सत्री० ) ग्रान, अध्यात्म चिद्या का अन्ध, रामगीठा, भगवदूगीता, गणेशयीत्ा आदि | गीति तत््‌० ( स्त्री० ) [सिं+क्ति] गात, सीत, झआार्या छन्द का एक भेद, यह मात्राइस है । गीतिका तच्‌० (पु० ) एक सा श्रिक छुन्द्‌ विशेष,गीत, घाना। गीदड़ दे० (छ०) सियार, श्यगाऊल, अम्बुक --भपकी (वा०) मन में डरते हुए भी ऊपर से दिखावटी क्रोध जतलाना । गीध्र दे० (५०) गिद्ध, शुद्ध, शकुनि, पक्ति विशेष। गीर्चाण दव॒० ( पु० ) [ गीर+ वाण ] देवता, देव, सुर, असर ॥- कुसुम (५० ) मन्दार जुप्प, लवझ्पुष्प ।०-ी (स्त्री०) संस्कृत भाषा, हिन्दुस्तान की प्राचीन भाषा, शास्क्रीय साथा । गील्ला दे? (गु०) भीगा, झाद, ओदा, तर । गीष्पति तत्‌० ( घु० ) [गीः + पति] बृहस्पति, देवभुरु, देवों के गुरु, विद्यानू, पण्डित | गु दे० ( पु० ) चिष्ठा, मल । शुद्यलिन दे० (स्त्री०) स्वाकिन, ग्वाजा की स्त्री । गुइयाँ दे० (स्त्री० पु०) सखी, सखा, लाथी, सहचरी॥ सहचर ६ गुखरू दे ( ए० ) गोखरू, गुरखुब । गुग्मुलिया दे० ( घु० ) सदारी | शुग्गुर दे० ( घु० ) गुणगुल । ल्विब्य विशेष | शुग्युल तत्‌० ( घु० ) यूगक, गेंद विशेष, सुगन्घित शुच्छा तद्‌० ( छु० ) गुच्छक, स्तवक, रूप्पा, ऋब्या | -शुच्छे ( चहु० ) ऋज्बे, फुदना । शुच्छेदार दे० (स्त्री०) मब्बेदार, गुच्छयुक्त । शुज्र या गूजर दे० ( पु ) जाट, श्रहीर, योष, जाति विशेष, स्वाद, निर्वाह | गुजरात ( रे०्ई ) गुणागण गुजरात दे० ( ६० ) भा्त हे पुक प्रान्त का नाम। --ी ( १० ) युजरात है वासी, गुजरात सम्बस्ची (१०) पुक रोग का नाप्त यह्मा | गुज़िया दे० (स्त्री०) कर्ण कूठ, कान का मूपण विशेष । मुझ तत्‌० (पु०) पुष्पम्तवक | जिब्द । शुज्ञन सतत्‌० ( पु० ) गुत्र गुर करना, अ्रमर थ्रादि का गुज्ला तत्‌० ( स्त्री० ) छता विशेष घुड्ोची, लालरत्ती परिमाण विशेष । [माई । ग़ुज्नाइश या गुजाइश (घु०) सावकाश, सुविधा, गुझान तद्‌० ( गु७ ) गाढ़ा, मेटा, धना | गुझ्चार या गुजर ( पु ) मैरो का गूजना । गुरूफा तद्‌5 ( पु» ) गाोक्का नाम के बाँस की कीछ, कटीछी घास, गे।रा, सूद | ( वि० ) गुप्ठ, छिपा हुआ | (गु०) ढीला, शिथिल । ग़ुमिया तदू० ( स्त्री० ) एक प्रकार का पकवान) एक प्रका? की सादे की मिठाई । ग़ुटकना दे० ( क्रि० ) झू कू करना, निगक्त ज्ञाना, कबूतर की त्तरद गुटरगू करना + गुठका दे० ( स्त्री० ) छोटे श्राकार की पुस्तक, औपध विशेष, लड्डू, गुपथुप मिठाई * गुटरगू दे० (पु) कबूतर की चेलली । [गे।की गुद्का तव्‌० [ स्थ्रो० ) बदिरा, गोली, चऔौधप की ग्ुद्द तद्‌* (पु०) समूइ, यूच दल, मण्डल्ती । गुद्चल दे ( ति० ) बड़ी गुढली ( का फछ ) सुख, गुठली के भ्राफार का। (पु०) गुल्थी, गिछटी। गरुठलाना दे० ( स्प्री० ) फल्नें में गुठल्ी इाना, दाँत +.. का खट्टा होना | ग़ुठलो दे० ( स्‍्पो० ) बीज, घास का चीज + [शाकर । गुड़ तत० (पु०) [गुड + अल ] ईखव का विकार, जाल गुड़मुड़ाना दे० (क्रि०) गुब्गुढ शब्द करना | गुड़गड़ी 4० ( स्त्री० ) द्वोदा हुछा शुड्ाकू ३० (पु०) गुड मित्रा हुआ पीने का तवाहू । गुड्ठाफेश तव्‌* (पु०) अजझुन, निद्रा के अपने वश सें करने के कारण अजेन का यह नाम पढ़ा है, शिव । शुड़ञाना दे ० ( क्रि०) खोदना, खुदवाना, सघनना । गुड़िया दे० ( स्त्री० ) कपदे की थनी लडकियों के खेलने की पुनली | शुड़ो दे० ( स्त्रो० ) गुद्ढी, पतड़, सनऊवा, युद्धिया। तदू० ( स्थ्री० ) गांठ, द्वेप, कीना । गुडूची वव्‌* ( स्थी० ) गुर्च, गिलेय | [लेठती है। गुड्टा दे० (पु०) कपडे का बना पुतछा जिधसे लद़कियाँ गुड़ी दे० ( छु० ) कनकावा, पक, चग । गशुदी दे० ( स्प्री० ) छिपन का स्थान । गुण ठव्‌ ( पु० ) स्वमाव, विरोपण, सद्विा, विनय आदि, सत्व रज और तम, शुक्ल, कृष्ण, रक्त, पीत आदि, निपुणता, फलछ, शील, तीन की सैख्या राजनीति हे अनुसार दूसरे राष्दों से ब्यवहार की ६ रीतियाँ । [ यथा--सब्धि, विग्रह, यान, श्रासन, द्ध और आश्रय ] प्रकृति, बव्याकरणानुसार श्र ए--श्रे। -ओ गुण कदते हैं। घलुुप का रोदा, नाव ग्रींचने की रस्सी |--कथवें (पु०) यशोावर्णन, स्तुति, प्रशसा झरना ।- करना (क्रि० ) भत्या करेंना, लाभ पहुँचाना।नस्‍शी पल्दा देना (वा०) प्रत्युपकार करना, भराई के यदले भलाई करना |--कारी तव्‌० ( वि०) ल्ामद्दायक ।--गान ( पु० ) खुति, प्रशसा ।-० शृह्य ( पु० ) सदगुणयुक्त, गुणी ।--प्राम (३-) शुण समूद, ग्रुणाकार (--प्राहक ( गु० ) परुण अदणकर्ता ।--श्ष (यु०) गुणबेचा ।--य्यान (य०) बुद्धिप्रभाव ।-दर्गी (गु०) सासमरादी ।-दाता (गु०) शिद्वक, गुर ।--धर्म ( छ० ) उत्तम पदार्ष सार पदार्थ ।--न (पु) भ्रद्म दृद्धि करण, दिसाब विशेष |--निधि (गु०) गुण सिल्छु, गुणसागर ०० चन्त (गु०) गुणवान्‌, गुथी प्रवीण “शान (गु०) प्रवीण, निपुण, विद्वान ।-वांचक तव* (वि०) विशेषण, जो गुण के बतणावे | गुणन तत्‌5 (पु-) गुया, जरव, गुय का बहुवचत + गुणनफल ततव्‌> (घु० ) संज्या जो पक सैंस्या 3 | दूसरी संख्या के साथ गुणा करते से निकने । शुणना (क्रि०) धुणा करना, जरव करता | [गुणवात्नी ग़ुणयन्त ( वि० ) गुणी, गु्यवाला नी ( छी० ) गुणा तद्‌ू० (५० ) अरद्टू गणित की पृ प्रक्रिया) जरब, यार, बेर, पाज्ञा | गुणाकर तत्‌* (पु०) गुणों का समुद्र, युयनिधि गुणयागुण तद्‌० (पु०) गुण देाप, मन्ना दुरा। शुणाद्य ( २०७ ) शुप्त न तततयतय3 चली यियी_न यम आन ना+ ऊन +फ नम कक मऊ ममन--+-+कन न --3+ न ननन मन पर मा लक पा 3+७+भम कर ++न+थन-++ «43० «मन स+ननस-सन++ज-नन. गुणाढ्य तत्‌० (9०) एक संस्कृत का रवि, इस कचि ने घ्रृहत्कथा नामक एक पिशाच भाषा का प्रन्थ लिखा था | कथा सरित्सायर सें कात्यायन और ब्याड़ी के समकालीन इसके ग्रताया गया है। काद्यायल का समय सत्त्‌ ३१४ ६० से पूर्व माना ज्ञाता है। अ्रतएव युणाढ्य का भी वही समय लिश्वित द्वोता है| बुदलूथा के दूसरी बड़ाह कथा भी ऋट्ते हैं। ये कब्रि श्रत्ति प्राचीन और सत्कवि थे | इस बास को योवद्धनाचाये ने अपनी आर्य्रा सप्तशती में लिखा है | मुणातोत तध्‌० (ह०) [गुण +अतीत] एुस्पों से परे- भिग्ुण, गुणशूल्य, परअह्म गमुणाछुवाद (छु०) बढ़ाई, प्रशंसा । भुशिव तत्‌* (गु०) [गुण + क्त] पूरित, गुणा किया हुआ, प्रण किया हुआ ।-- (स्त्री०) गुणवत्ता, गुणयुक्त | शुणी तत० ( ग॒ु० ) [ गुण + ईन्‌ ] भुणवाल्ा, गुण- शीछ, सदुगुणान्वित, पण्डित, निषुणननुष्य, नावत, ओक्ा ।--कृत (पु०) ग्रणित, पूरित +-- भूत ( घु० ) अप्रवान ।--भूतत्यड्ठ' (एु०) ध्वनि विशेष, फाब्य विशेष । शुखभ्वर तव॒० (पु०) परमेश्वर, चित्रकूट पर्वत । मुणेपेत तत्‌+ (वि०) एणी, ककछानिषपुण । गुणात्कर्ण दव्‌ (पु०) [ गुण + इस्कर्ष | गुण की प्रधानता, ग्रुयय की सुन्दरता, ग्रुणव्याख्या | ग़ुणात्कीतन सत्‌० ( 8० ) [ गुण + उस्कीर्तन | गुण- कथन, पुणगान, स्तुति, यशगान गुणेशत्ष तत्‌० ( छु० ) [ खुण + भव | गुणससूह । गुग्डा तच्‌० ( पु० ) रम्पठ, दुष्ट, दुराष्मा, दुराचारी, निल्स्म, लुच्चा हु शुए्य तत्‌" (8० 2 [ शुण +य ] झ॒ण्यक्क, गुनीय, जे। अमन गुणा किया जाय, पूरणीयादुः । झुत दे० ( प० ) डदासीन, सोच, गस्भीरता, चुपचाप, लापरवाही । गुत्यमझ॒त्था (एु०) द्वाधाचादी । गुत्थी (ख्री०) उलछम्ूम । शुद (स्वी०) गुदा । [छोमल, मेगा, पुष्ट । सुदस॒दा दे? (गु० ) मांसछ, गुदेदाग सुलस्यस, गुदग॒दाना दे० ( क्रि० ) सहल्ाना, छुलघुलाना, गुद- गुदी करना ! मुद्दग॒दी दे० ( स्ली० ) सुदराइट, चुलबुनी | शुदसुदाहठ दे ० (सत्री०) गुदराहट, सुदरराना । खुदड़ी दे० ( सत्री० ) कन्धा, कथड़ी, जीणे बस्त |--- वाज्ञार दे? ( पु० ) बाज़ार जिसमें फटे पुराने कपड़े तथा अन्य हूटी फूटी चीज़ें सिल्ें! [चलते हैं । गुद्रत दे* (क्रि०) जानता है, जनाता है, जाते हैं, शुद्रना दे० ( क्रि० ) ज्ञालमा, ज्ञाना । यद शब्द रामायण में प्रयुक्त हुआ है । शुदाना (क्रि०) गेादने की क्रिया कराना | मुदाम दे० ( ५० ) गोला, वस्तुओं का भण्डार, जहाँ बहुत सी बसस्‍्तु जमा रहें । शुदारा दे० ( पु० ) घटहा, एक स्थान पर इस पार से उस पार ले ज्ञाने वाली नैका, खेबानाव, बलारा । श॒दी दे० ( स्थी० ) भाव बसाने का स्थान, ओवा । शुद्दा दे० (पु०) अन्सःझार, सारभाग, गूदा, पेड़ की मोदी ठाद्व | शुद्दी दे? (स्त्री०) यदन, ओवा, अन्त:सार । शुनर तद्‌० ( एु० ) गुण, खभाव, विशेषण, फल, कला, रस्सी ।--झुना ( गु० ) कुनकुना, थेड़ा गरस। शाह (गुर ) गुणग्राहक, गरु। का आदर छरने वाल्टा, थथा---गुन न दिरानों गुणगाहक हिराने हैं---झुनाना (क्रि०) गुनयुन करना, अमर आदि का शब्द ।--द (यु०) गुणदायक, लाभकारी, फायदेमंद |--ह ( पु० ) दीप, पाप, कसूर, अपन राध ।--हु (क्रि०) बिक्षारो, गुणन करो, समस्हे। ! शुनह्‌ दे? ( क्रि० ) विचारों, गुणन करो, समरूढ, ( पु० ) लाभ भी, फायदा भी । गुनिये दे ० (क्रि०) लेचिये, विचारिये, सुणत छीजिमे । झुन्ानि दे ० ( स्त्री० ) मानसिक कपपना, अमिलाप । झुनी दे० ( ग्॒ु० ) गुणी, गुणवान्‌, ओमा | झुप्त ठत० ( गु० ) [ गुप्‌+क्त | कृत रछुण, रक्तित, गूढ़, छिपा हुआ । ( घु० ) वैश्य जाति का अछ पिशेष गति ( छु० ) चर, चार, दूत, सन्देसी, चार्ताहारी +-चर (9० ) गेपनीय दूत, गृूढ़चर, जासूस, भेदिया, खुफिया +--वेश ६ गरु* ) छुली, कपदी । गुश्तार #..0........+_+++]++++++++++++++++++++5 ( २०८ ) ग़ुदवाइन गुप्तार दे* ( इ० ) दिपना, लुकना, झुझाव (--घाट | शुस्या दे० (स्री०) मनिश्रा, साझा के दाने, दाने | (| ३० ) अयेध्याजी फे एक घाट का नाम । गुप्ती दे० ( स्त्री० ) अस्त विशेष, एुक प्रचार की छडी जिसमें छोरी तलवार छिपी रहती है । शुफना सद्‌० ( पु० ) घुसाऋर पत्थर फकने की पक प्रकार की गुलेल, गेफन | शुफा दे० (स्त्री०) गुदा, खेह, कन्दरा, बिल, गद्धर । +शुमाना दे? ( क्वि० ) चुमाना, गहाना+ गाड़ना, चीघना । शुवार ( 9० ) गरदा, पूछ । [उडाया ज्ञाता है | गुख्यारा ( घ० ) कागज का येां, जे चाकाश में शुम (वि०) गुप्त, छिपा हुआ । शुमठा दे० ( छु५ ) पा फोडा, बण, गुमेझा, कपास का नष्ट करते धाला एक कीड़ा । शुमटी दे० ( स्प्री० ) गुकट, ढाठ, कक्षस, शिखर, छोटी केठरी, वस्प विशेष, यद मिथिला में घनता है, तथा थल्यन्त सम्मान सूचक समा ज्ञाता है, प्रायः राजा की घोर से यद पण्दिता को दिया ज्ञप्ता है । शुमडी ( म्थ्री० ) छोटी फुड़िया । गुमसना दे० (फ्रि०) दुर्गेन्ध देना, सडना । ग़ुमसा दे० (गु5 ) सदा, गरा ।--दृद दे* (प०) सड्ाइन, पचाइन | शुभान दे० ( पु० ) भ्रमिमान, मान, अदृक्भवार।- (गु०) भददद्वारी, अ्रभिमानी, एक कवि का नाम, ये कवि कमायूँ प्रदेश के रहने वाल्ले ये चर संस्कृत सपा साया के कैचे थे । गुभाश्ता (पु०) ब्यापारिवों का कफकुन । शुरक तत" ( पु० ) [ युग्फ+ घल्‌ ] अन्धन, गायना, गुधना, वाहुमूपण विशेष | शुम्फित तब» ( गु७ ) प्रंथ्ित, प्रणीत, गुदा इचा | शुम्मा (इन) बरी ईैट। शुर तदु० ( पु ) सू>मग, सार, चइ प्रद्चिया जिससे कोई कार शीघ्र हे! जाय | तत्‌० (पु) तीन की संच्या । [मेदिया, सुखबिर ! गुरणा तद्‌« ( गु० ) शिष्य, मौका, अनुचा, शुरच दे ( पु० ) गिलाय, गुदची गुरजना देन (०) घुस्टना, घुदकना, गर्जन करना शुरू तत्‌० ( घु० ) [ गर+उ ] मन्त्रदाता, उपदेशक, शिक्षक, अआाचार्य, पुरोहित, द्विमाओ्रिक भरकर, श्रा, है, आदि, गुरु पांच प्रद्चार के द्वोते है, पिता, डपनयन करने चाल, विद्यादाता, अन्नदाता, और भय से रक्षा करने बाला | बुंदस्पति, चह पुरुष ज्ञे। श्रपने से विद्या, बुद्धि, वतन, घय या पद में बढ़ा दो। ( गु० ) भारी, बेमिर ।--ऊँल तव्‌० (घु० ) गुरु या आचार्य का स्थान जा यह विद्यार्थियों के रसकर पढ़ाये |-कार्य ( पु ) आवश्यक काये, फरवाब्‌ कार्र (जम (ब०्) उपदेश, बडे ल्लेग, माननीय |-तर (गुण ) ब्रद्त बढ़ा, बहुत भारी; मानवीय ]--तव्पग ( ग़ु० ) सैतेली मा के साथ सम्बन्ध करनवाला, गुरु की ख्री छे हतने वाछा ।--तद्पतत ( पु ) गुरपली हरण का प्रायश्वितत |--ता यः त्व (खी०) सारीपन, सार, गैरव ।--दुशा (ख्त्री० ) गुर की दशा, वृहर्पति की दशा ]--दत्षिणा तव॒९ (खी०) गुरू की मंट, विद्या पढ़ चुरुने पर झावाये को जो मेंट दी जाय ।--दार (खी०) युरु की खा, वेदा- ध्यापक अथवा मस्जदाता की ख्री जैव ( ए० ) अभीष्ट देव, पिता, थ्राचायें ।--दैवत (पु०) पृष्प नषन्न ।>छारा तत्‌* (पु०) पुरु, आचायें के रदने का स्थान, युरु का स्थान पत्नी ( स्प्री० ) गुर की स्त्री | - पाक (गु०) दुष्पच, जिसका पिलम्ब से परिप्राक हे! |--पाप (गु०) क्ठिद पाप, मद्रा> पाप, अतिप्रातक ।-प्रमेद (पु० ) अ्रतिशय आनबन्‍द्‌ श्रत्यन्तदप ।--भाई तदु० (६०) पुक दी उर के शिष्य ।--पम्रुस्त (गु०) लब्ध मन्त्र, दीषित गृद्दीत मन्त्र |-म्तुप्त देना (क्रिब्) मन्त्र लेना, चेल्ा दाना, गुरु करना +--मुखी तत० ( स्त्री० ) पंजाड में प्रयक्तित एक लिपि | मंतर (६०) इषटट मन्त्र, दीढ़ा में भराप्त मन्त्र |-ल्षघु (गृ०) मान्य, अमान्य, प्रधान, अप्रधान, इस्व, दीधे ।-धार दद॒० ( यु० ) बृदश्पतिवार |--शथ्ूषा ( स्थरी० ) युरुपेवा, गुरु की आउाधना ।-सेया (स्थरी* ) गुरुपूजा गुरूवाइन तदु० ( स्थ्री७ ) गुरुपबी, माता । गुरुवार (२०६ ) सुर्हाजनी शुरुवार तत्‌० (8०) बृस्पतिवार । गुरूपदिण तव« (गु० ) [ झुरू+ उपदिष्ट ] गुरु से शिक्षा या धपदेश घहण ! गुरूपदेश तद्‌« (पु०) गुरु के समीप की शिक्षा | शुर्गा दे” (छ०) बासन मजिने वाल्टा, सत्य, भेदिया । मुर्गावी दे? ( स्त्री० ) सुंडा जूता । सुर्गरी दे० (स्त्री०) कम्पण्वर। जूड़ी, जड़इया | गुजर तत्‌० (१०) देशविशेष, गरुजरात्र, गुजरात के बाली, एक जाति विशेष । [विशेष ! गुर्जरी तत्‌० (स्त्री०) गुजरात क्ली स्त्रियाँ, रागिनी शुर्री दे” (ख्री०) भ्रुंजा हुआ तथा कूठा हुआ जब । गुर्घेज्चना दे० (स््री०) गुरुपल्लो, सपली, माता, सैतेली मा, साननीय स््री । ग़ुर्वादित्य दे० (9०) ये।ग विशेष सूर्य, और वुदस्पति के एक राशिस्थ दो!ने पर यह येग होता है, इस येग में विधाह आदि मज्ल कृत्य नहीं होते | गुर्चिणी तत्‌० (स््री०) गर्भवती, गर्भियी ! सुर्ची तब" ( बि० ) गर्भवती, भारी | ( खी० ) बढ़ी चाश्रेष्ठा स(तरी | शुल्ल दे० ( छु० ) अज्ार का गोला, दीपक की बत्ती का अग्रभाग, पुष्प |--करना ( क्रि० ) बुक्काना, शेर करना, इछा सचाना, हारा करना ।-गुला ( पु० ) सीठी पकड़ी, पकवान विशेष । ( वि० ) सुलापम, केसल ।-- शुत्ताना (क्रि०) पिवकछना, नरमाना, नरम करना हैँँसाने के लिये बदन को सहक्ाना |-सूथना यात्वफूछा, रूठना, कोह्मना | “-भादी (स्त्री०) ब्लमकन, गठि |--हल्ती (स्त्री०) सीछा भात, नये चावल का भात्त ग़ुलकंद (०) मिश्री या चीमी में मिली हुईं गुलाब के फूछ की पखुरिया _ ग़ुलगपाड़ा (प०) हछा, शोर । शुल्लगुल (वि०) कामल, नरस | [प्रहार । गुलला ( छ० ) प्रेम एवेंक याकू पर अंगुलियों का शुल्नछूर्य (०) भेश्य विछाप में साज मारना ] झुलाव दे? ( 8० ) परष्पचिशेष, गुल्मन्न के फूलों का सार, (श्रवर) पाठल् पुष्प | [छा खुशबूदार पानी । ग़ुल्ञावजतल्ल चदु० ( घु० ) गुछाब का आसब, गुलाब शुल्लावजामुन दे० (सत्नी०) मिठाई व फल विशेष । शुलाल दे* (पु०) अचीर, रज्ञः विशेष । शुत्षिक दे० ( ४० ) सेत्ती की साला के दाने । सुलिया दे (स्त्रो०) सिर के पीछे का खड़ढा । शुल्लो दे? (स्त्री०) गुछ्ली, चाजरे की थूसी । गुल्लेल् दे० (बु०) एक मकार का घनुप | शुल्द्रू तत० (पु०) फीली, पैर की गांठ । ग़ु्म तत्‌० ६ घु० ) रोगविशेष, ड्लीहा, सेना की संख्या विशेष ।--शूल्र (पु०) रोग विशेष | गुल्लर दे० (पु०) उदुम्बर, ऊपर, गूज़्र | [छोटी गोली | शुल्ा दे” (घु०) गुले या ग्ोफन की गोली, माटी की गुल्लाला दे० (एु०) फ्रूछ विशेष । शुल्ली तद्‌० ( स्त्री० ) किसी फल की गुठली, रूकड़ी का कबातरा छोटा हुकढ़ा | शुवा दे० (७०) सुपारी, छुंगीफल | गुवाक दे० (पु०) झुपारी का बृक्ष | गुनैया दे० (स्क्र०) सखी, लद्देली, वयत्या । गुवालिन दे० (स्त्री०) अद्दीरिन, गोप स्त्री | गुचालियर दे० ( छु० ) मध्यभारत क्षी पक राजधानी का नाम, ग्वालियर । गुष्टि तदू० (स्त्री०) सम्मति, सकाह, मिन्नता | गुर्साई या गेरसाई' चद्‌० ( पु० ) खामी, जितेन्द्रिय, बब्नाली, पञ्षावी भार कुछ माझरणों की भर । गुह तत्‌० ( पु० ) [ घुड़ + भच्‌ ] कात्तिंकेय, निषाद, निषपादाधिपत्ति का नास, कायस्थों की एक पद्धति का नाम, विष्ठा, भछ [--पछ्ठछी ( स्त्री० ) अ्रगहन मास की छछ्छ पष्ठी ।॥ ग़रुददक तत० (ए०) एक श्रताये राजा का नाम, इसका अगेषध्या के समीप राज्य था। हृत्की राजधानी का नास,; श्ड्ववेरघुर था, यह महाराज दशरथ का सित्र था, इसी कारण रामचन्ध्र जी भी इसका आदर करते थे | वनवास्त के समय इसी अनाये . राजा की सहायता से रामचन्द्रजी ने गड्ा का पार किया था । मुहर दें० (यु०) गुप्त, छिपा, ढका, लुका । शहने दे० (क्रि०) गाँविना, यूथना, पिरोंना । [करना । गुहराना दे० ( क्रि० पुकारना, समीप छुन्नाना, सहाय गुद्ांज़नी दे० ( स्त्री० ) भाख पर की फुड़िया, युद्देरी, दिक्कनी | शा० पा--१७ मुद्दा ६ २१० ) गृह शुद्दा ठद्‌० ( स्त्री० ) गुफा, कन्दरा, खो, पयेद श्रादि का गद्दवर ।--शंद ( ५० ) कन्द्रा, गते ।-शय (पु०) विष्णु, व्याप्र, सिह | [शे झाद्वान, पुकार | गुहार <० (०) आातंसखर से सहायता के लिये किसी गुहारी दे० (ग्ु०) ग़ुद्दार करने वाला, गुदग़ने वाला । गुदिल तत्‌० ( पु० ) घन, वित्त, विभव्, निधि, मेवाड़ के प्रथम राज्य स्थापक का नाम, सिप्तोदिया कुछ के राजाओरे का पहला राजा, इसी राजा के नाम से सिसेदिया उत्री भ्रपने का गुद्िलेत कहते है ! गुहेरी दे० (स्त्री०) गु्दाजनी, ासफ़ की चरामी पर की फुडिया । कहते दे यह बिष्ठा को देखने से होती है, इसीसे इसका नाम गुद्देरी पढा है । गुह्य तत्‌० ( बि० ) गुप्त, गोपनीय, गृढ़ | (पु०) चल, कपद, दम्स, गोपनीय अग, वित्णु शिव। [यक्त | | गुह्यक तत्‌० ( घु० ) देवये।नि विशेष, हुवेर के श्रुचर गुह्क्रेश्वर तत्‌० (पु०) कुबेर, यदराज [ निज्ञीन स्थान |-चार ( घु० ) गृढ़ पुरुष, गोइन्दा !--ज (५०) ज्ञारज्ञ पुत्र --पत्र (पु०) करवीर ब्रह्य, करील बत्ष, नागफनी ।- पथ (प०) अन्तकरण चित्त +-पाद्‌ | घु० ) सर्प भझुजा, श्रद्टि ।--पुरुष ( पु० ) चर, दूत, गुप्तचर (--- भाषित ( पु+ ) गृढ़वाद, गुप्त विज्ञापन ।-र्थ ( गु० ) गुप्त अर्थ, कठिन अथे, जिसका अर्थ जल्दी समऊ में न थ्ावे ] गूथ दे० ( घु० ) सूतत की जही । गूथना दे० ( क्रि० ) गायना, यू धना, तागना | गृदड़ दे? (थु०) पुराना बम्त्र, कन्या, (गु० ) कन्याघारी । गूदड़ी दे? ( स्त्री० ) कन्या, रखाई, सूजनी । गूठड़, गूदर दे० (पु०) फटा पुराना कपड़ा । [सेजा । मृदा दे* ( १० ) फलें का साशाश, मिंगी, श्रन्त सार, गूदिया दे० ( गु* ) लेाभी, ईच्जुरू । गू दे० (पु०) गुद, सछ, विष्ठा | [ा, शब्द रहित | तठद्‌० ( गु० ) गुप्त, छिपा गूं गा दे० ( गु* ) सूक, मान, अनवेल, बिना वाणी । मूमड़ा दे* (४० ) फोश, सूजन, गिलटी, धण ) गूंज दे० (पु०) प्रतिध्वनि, प्रतिशद । गूमड़ी दे" ( स्त्री० ) गाँठ, झन्यि गूं जना दे० ( क्रि० ) गूँज करना, मिनमिनाना, अमर गूलर दे० ( पु० ) दूमर, उदुस्‍्बर, ऊमर । झादि का शब्द करना । मू डा दे० ९ घु० ) नाद का आड़ा काठ । गूथना देन ( क्रि० ) शुदना, पिरोना | यूं दना दे० ( क्रि० ) धानना, एकश्रित करना, सेवा बनाना, मादिना | [छसारा, लभेरा । ग्‌ ठनी दे ( स्त्री० ) गुदेछा, घृष विशेष, गोद, गृदा दे० ( पु० ) अन्त सार । गूंघन दे० ( पु ) लेई, पेडा | गूं घना दे० (क्रि०) सानना, गूँदुना, माडना | गूगल, गूगुल दे० (पु०) गेदविशेष मुगन्धितद्वब्य । गूगला तदु० ( स्त्री० ) घेघा, सीप। [पक भेद । गूज़र तवू० ( पु० ) ज्ञाति विशेष, जाट, श्रद्दीर का गूजरी दे० (स्त्री०) गूज़र की *ब्री, एक रागिनी, स्थ्रिये के एक भाभूषण का नाम । गूर्छा तव्‌» ( पु ) पुक पकवान जे अकसर द्वोहछ्ी के र्योह्दार पर बनश्या जाता ई, यूदा । गूढ छत्॒‌० ( यु" ) [ गुद+क्त ] गुप्त, छिपा हुथा, गद्य, भभ्रकाश्य, कढिन, सूक्ष्म, पुकान्त, गुदा, गूहड्िया दे० ( घ० ) घूरा, झूडा, कतवार, गोवर । गूझ्नन तत्‌० (पु०) गाजर, लहसुन, प्याज शुक्ष तत्‌» ( गु० ) छाक्षची, लेभी, इच्छुक ता ( स्त्री० ) लेलुएता, ले।म, थराहुगद्ा, अमिराप | गृद्न तत॒० ( 9० ) गीध, गिद्ध, पढ्चिविशेष /--राज ( 8५ ) जटठायुपद्दी ३ | गृध्रा तदु० ( गु० ) मरभूखा, चेमी, सवाजची । गृष्ठी तत्‌० ( स्प्री* ) एकबार की व्यायी गा, लता विरोध, घगाही कन्द । शुद्द तत्‌० ( घु० ) ईटा आादि से बनाया डुब्ा स्थान। घर, गेहद, भवन, निश्चेतन, आगार, कुटुम्ब, वश । -कन्या ( स्त्री० ) घतकुमारी, धीकुमारी |-- कम ( पु० ) ग्रद सम्बन्धी कार्य |--गेधिका ( स्त्रो० ) विसतुइया, छिपछ्ली ।--छिद ( ६० ग्रहदेष, घर की गुप्त बातें, गृशकलछछ ।-तटी (६ स्त्री० ) गली, घीयी, घर छे चादर का चैतरा । ऊझादास ( ए० ) गढ़ का सल्य ।-नदादक (१०) आततायी, घर में श्राय छगान धाक्ा, गुदनाराक | ग्रृहिणी ( रशर३ ) गेौइठा निर्माता ( पु० ) धर बनाने बात्य |- पति | गेद्य ढे० (३०) पक्तरद्धित चिड़िया, पखहीन, बच्चा (8० ) ग्रृहस्खामी, घर का माकिक |--पालक (०) झुकर, ग्रहरक्षक |--शाढिका (स्थ्री० ) घर के समीप का बगीचा ।--ब्रासी (गु०) घर में रहते वाढा ।--भड्डे ( झु० ) ग्ुदसेद5, प्रचास। +समेदी ( ग़रु० ) घर क्ला दोष प्रछाशित करने बाला, दूध, सूचछ |-मरत्ति (घु० ) प्रद्दीप, दीपक ।--मेघी (४०) ग्रृही, सूद रति, घर बात ! । +-विच्छेद्‌ ( छ० ) कुटुस्वकल्द, परिवार के | साथ विचाद |--रूथ (पु०) द्वितीयाश्रमी, ज्येछा- अश्रम्ी, ग्रह, सेखारी |-स्थता ( स्त्री० ) ग्रद ब्यापार, ग्रुइस्थ का धर्स “-स्थाश्रम (० ) चार आश्रमों के धन्तगंन दूसरा श्राश्षम ।+गत ( इ० ) भ्रायन्तुक, अतिथि, प्राइच ।-थ (य॒०) घर के किये, गृह के मिमित्त ग्रह्िणी तत्‌० (स्त्री०) ग्रइस्वामिनी, भारया, स्त्री, पत्नी । गृही तव्‌० (पु०) गृहस्वामी, धर का मालिक, ग्रदस्थ, घरवाला | [अहण किया हुश्रा । गुद्दीव तव॒० ( गु' ) पकड़ा छुश्ा, स्वीकृत, अन्नीकृत, “४ भुद्दा तच० ( ग्॒ु० ) गद्दासक्त, गृहस्थों के कर्तब्य कर्म, कर्मोपदेशक शास्त्र विशेष, अदण करने योग्य । --प्रत्थ ( 9० ) धर्म संहिता, कर्मकाण्ड ग्रन्थ | - सूत्र (७० ) स्मृति शास्त्र -ाप्नि ९ घु० ) सृद्द सम्द्रन्धी भर्मि, अम्निद्वेश्न का अप्नि। संस्क्षत में श्रप्मि युछिज्न है, किन्तु हिन्दी में यह शब्द कहां कहीं स्त्रीक्षिज्ञ मी मान लिया गया है। गेंडा दे० ( ३० ) पुक जन्तु का नाम, इसीके चमड़े की ढान्ठ बवती है। गेंद दे० ( घु० ) खेलने की एक वल्तु गेंदा । गेंद दे। (प०) पुष्प विशेष, गेंद । गेंदी दे० (स्त्री०) खेलने की गे।ली । गें गरा दे ० (घु०) केंकढ़ा, कद । मे दे० (स्त्री०) गये, चले सये, छीत गये ] गेगली दे* (गु०) घेदुली, फ़ूदर, कुरूप स्त्री । गेडआ दे० ( छ० ) तकिया, सिरद्वाना, उपधान, टोटी 7 द्वार लाटा । गेड्डरी दे० ( स्त्री० ) ऐेंडरी, बींडरा, इडरी । गेदूरा दे” (एु०) अनबूझ, अज्ञाव, मोंदू, अवेध | | गेय तव॒० (8० ) [सै+या ] यानयोग्य, सद्ीव करने के उपयुक्त, यानेये।ग्य । गेया ( ए० ) मिदनी, वोदा, खण्ड । गेरु दे० (9०) देखे गेरू । गेरुआ दे* ( शुरू ) गेरू ले रंगा हुआ चस्त्र विशेष । गेरू दे० (पु०) गैरिक, पढाड़ की छाहूमद्दी, उपधातु | गेह तदू्‌० (पु०) ग्रूइ, सबन, घर ।--शूर ( घु० ) शद्द प्रिय, गृहासक्त, घर ही में बीसता दिव्यमेवात्ा । गेहनी चदु० (ख्री०) घरवाली, खी | गेही तदू० (पु०) गृद्दी, गृहस्थाश्रमी । गेहूँ दें० (पु) येहूँ. गेधूम, अन्नविशेष | [बादामी । | गेहुँआा, गेहुँचां दे० (३०) गेहूँ के रंग का, गेहूँ वरच, गेंडा दे० (पु०) गेंढ़ा, एक जन्तु, जिसझ्ी पवित्र हड्डी, की अँगूठियाँ अर्घा आदि पितृतप॑ण में काम आते हैं | मेंती, गैती दे० ( खी० ) कुदाल, सिद्दी खोदने का अख विशेष | गैन यथा गैना दे० (पु०) नाटा बैक |* मैया दे० (ज्री०) गाय, घेजु, गे। । गैर ढे० ( थि० ) अन्य, दूसरा ।--मासूली ( वि० ) असाघास्य ।--पुनासिच ( वि० ) भ्रहुचित (-- मुमकिन ( वि० ) अपेग्य, अनुचित ।--बाजमिव (वि०) अयोग्य, अनुचित । गैरा दे" (०) घास का पूल्ठा, अ्रटी, सुद्ठा । गैरिक रुव० (ध०) छाल रक्ष की मिट्दी, गेरू। गैरेय तच० (प०) शिल्ाजीत | गैल्ल दे० ( घु० ) मार्ग, राह, रास्ता, गली, रथ्या, पथ | गैहरी देन (स्वी० ) इण्ड, रोकने का दण्ड, अ्रगल्, बेंडा गे। तत्‌० (स्त्री०) गौ, थेचु, गेया, पश्च, किरण, दिशा, चचन, पृथ्वी, माता, छुपराशि, इन्द्रिय, सरस्वती, वागीश, आंख, विजली, जीम, दूध देने वाले ज्ञानवर बकरी भेड् आदि, ऋपस ताप आपधि विशेष, ( घु० ) बैल, घेड़ा, सूये, चन्द्रमा, बाय, गवेया, प्रशंघक्त आकाश, खर्ग, जल, वच्ध, शब्द, सी का भर, शरीर के रोम | ओंइडा चद्‌० ( छु० ) जछाने के के लिये सुख्लाया ड्डुश्ा गोत्र, कंडा. उपला । गांठा (६ र३२ ) मोतर गेंठा दै० (१०) उगढा, उपरी, केंडा, छाना, गोहरी । गेदी दे* (छी०) चेचक, सौतला, रोय विशेष । गाँद दे० (५०) छासा, चेंप, निर्यास शांदवी दे* (स्त्री 5) ठृणविशेष, नरकट | शेदा दे* ( पु० ) पी के खाने की लाई जिससे पच्ची फ्ाये जाते है, जमेरा, लसोडा । गेदी दे* (सो०) बृद् विशेष । गेल तदू« (१०) गेपाल, गरेष, भ्रद्दीर । गेई दे० ( गु० ) गुप्त की, छिपाई, दिपाई हुई । गाए दे० गुप्त डिये, छिपे हुए । गेकणं तत्‌5 ( ४० ) परिमाण विशेष, पृद्ठ पसर, झूग विशेष, खच्चर, अध्यत्त, संपविशेष, गणदेवता विशेष, तीर्थविशेष, पर्यतविशेष, गाय का कान, बालिश्त ।- नाथ (पु०) एच्तीर्थ का नाप्र, जिस के प्रधान देवता शिव हैं। गराकुल वद० (पु०) गौथें का समूह | बज में मथुरा के पास का पूक गवि, वहीं नन्‍्दजी रहते थे, यहीं सागानू श्रीकृष्ण ते झपना बाल्यकाछ बिताया पा। गोकुल्तेश तद० (घु०) गोकुछ का अधिपत्ति, श्रोकप्ण- चब्ते | [सपणविशेष । गोद तदू० ( ६० ) गोक्षरक, पुरू श्रीषधि का नाम, गेँख़ुर दे (६० ) सी का खुर, एक पौधे का नाम | गौप्रास तद्‌* (३०) भेजन करने के पूर्व, गो के लिये विकाटा हुआ भाग । ग्रीघात ( श्ी५ ) गोहलया । गीचना दे (६०) धरना, पकइ लेना, गेट्टू और चना | गोचर तन» (पु०) इद्धियो से ज्ञानने योग्य, इच्दियोः का विपय, ग्रलक्ष, सन्प्रुप्र, सामने, गौंचा # चरने का स्थान, जन्म राशि से खेकर कतिपय राशिये झू नाम | सोचर्म तक" (छु०) [ गो +चर्मन्‌ ] गौ का चमद्रा | गाया दे (यु )दशना, धोया देना --गोंघी (्‌ चा० ) चोखे पर घेम्या, दृदाव पर दक्षव, चछा- कार से घोजा देना । ग्रोचारण तव्‌० ( ३० ) गे।पाज्नन, गौ के चराना । गोचिकित्सा खाद (छी>) सी की औषधि, गी की दवा ! गोद दे ( ३* ) झूँच, मोध, गोंडा । गजल तत्‌० ( पृ० ) गेसूत्र शोज़ई दे० ( पु० ) मिश्रित अश्न, गेहूँ और जब | गोजर दे ( पु० ) कनखजूरा, कत्तिर, कानपराई। सोज्ञिफा दे० (स्वी०) बृदविशेष, एक प्रदार का पौधा । गोज्िह्वा तत« (खी०) गेमी, कोरी । गोसा तद॒० ( ६० ) सूका, गुमिया, पकवान विशेष । शोद दे ( पु०) ढिनारा, मगली, भोज, जातीय सेहत, चा०्ड खेलने की गोटी | भोद्य दे? (पु०) किनारा, किनारी, कोर, चांदी धान के तारे से जे! बनते हैं । गेटी दे ( स्री ) चेचऋ, शीतल, दाक्ते गे हद्‌० ( एु० ) सरोष्ट, पश्चश्नों के रहन का छ्थार, सभ्ाा$ समूह | शा दे० ( पु० ) पद, व, पिडली, गे, पैर शेड़ना दे० (क्षि०) खेदना, खुरचना। शाड़िया दे? (पु०) जाति विशेष, पदार | गेड़ी देन (ख्री०) प्राप्ति, छा, प्राप्ति का धायेजन । गेण था गन तद्‌० ( ४० ) थोरा, पैठा, घाणा, चन्र रखने का सेला | गेणी तद्‌० (स्वी०) मैन, पैछा । गैतत सब॒« ( घु० ) गोत्र, बश, जात, कुछ $ ग्रात्तम हद० ( 8५ ) ऋषिबिगेष, गेतममुनि, स्याय दर्शन कर्ता, ध्यक्तपाद देसो १-न्‍्यय ( ४० ) शाक्यमुनि, घुददेव ।-नमारी (श्ली० ) गोतम अनि की स्त्री, अदल्या ! गेतमी तव० ( ख््री० ) दुगों, कण्व सुनि की सगिनी । ग्रोता ठदू० ( ६० ) गेन्न, वश, कुछ, जब में डुबकी लगाना ।-सेर दे० (५०) डुधही छगाने बाढा। गतिया तदू« ( घु० ) परियार, इड़म्वी, जातभाई, सम्रन्धी, स्वग्रोतीय / गेती तद्‌० ( गु० ) मेथ्ज, धशज, छुटगवी । गे।तीत तत० ( गु० ) इख्दियों से परे, इच्कियों छे न जानने योग्य, हन्द्रियातीत । यया--“गिराक्षान गेतीत”” । --रामायण । गाश्न ठत्‌० (पु०) दंश, कुच्न, जाति, गोत, भादि पुरुष, पर्देत,पद्ाइ ---ज्ञ (वृ०) गोत्र में उन्पन्,शञाति कुडण, चरशीय, पर्वतीय घातु |--धन (५०) प्रैश्िक धन, पिला का घन [--शघ्र (३०) इस्दशक, कुछाद्वार । गोद गेदद्‌ दे० (स्त्री०) देखे गे।दी ! गेदना दे० (क्रि०) छुमाना, ग्रे-ड्रवा, शरीर पर तिल के आकार के चिन्दर बनाता, चेचक का टीडझए लगाना । गेादन्‍्त दे० (घु०) हरिताल, पीले रंग की पुक धातु | शेधदा दे० ( छ० ) पीपछ व बड़ के पक्के फछ । (स््री०) गोदावरीनदी, श्रीरक्षनाथ की विवद्धिता सख्ती; ग्रोद्दा अम्ता । छिण्य कर्म विशेष । शेददान तल्‌० ( घु० ) सौद़ान, गे। को श्रप॑ण करना, गादाम दे० (3०) साल असबाव रखने का बढ़ा घर। गे।दावरी तव्‌० ( खी० ) नदी विशेष, हस नाम की प्रसिद्ध एक सदी, यह पविन्न चढ़ियों में से है और दक्षिण में है । गेदी दे० ( खी० ) अकवार, गेद, कनिया, सूजन, पैर का मेटा होना,दत्तक पुत्र त्तेना --पसारना ( वा० ) मॉांगना, शाँचना, याघ्वा करना |-- त्लेता ( वा० ) पेसना, पालना, दुत्तक बनाना, पेसत पूत्त करना । गेदिहन तत्‌० ( घु० ) गाय छुदना, ग्राय से दूध निकाछना | दिहनी- घूचा। गेदिंहनी तद्‌० ( स््री० ) गेदिहन पात्र, दुधेढ़ी, गे।धन तत्‌० ( पु० ) गोसमूह, गारूप घन, दीवाली के समय की पक पूजा, गेवर््धनपुजा | गेशधा तत्‌० (स्त्री० ) धनुष के ज्या के शआधात का शेकने के लिये चर्मपट्िका, दाथ की कलाई पर बाँधने का चमढ़ा, जिसे घतुधारी ल्लाग मघिते हैं । शेधिका तव्‌० ( स्री० ) गोद्द, जलन जन्तु विशेष | भेश्यूम्त तत्‌० ( इ० ) शस्यविशेष, एक भ्ज्ञ का नाम, सारक्षी, गेहूँ, शऔीपधि विशेष । भेश्यूली तत्‌० ( खीं० ) सूर्य के अस्त और उदय होने के दृधर १ घड़ी 'और उधर $ घड़ी छा समय | गेघेन्ु तद्‌० ( ख्रो० ) दुग्घवत्ती गो, दुधार गाय | शेजि(रा दे० ( स्त्री० ) सायदूल, सन्ध्याकाल । शेनन तदू० ( स्त्री० ) टाठ, कंबल, चमड़े आदि की बनी बढ़ी खुर्जी, जिसमें श्रमाज त्यादि भर कर बैल या ऊँट की पीठ पर छादते हैं । गेलन्ीय तत्‌० (घु० ) पतक्षलि मुनि, व्याकरण सहाभाष्यक्वार । ( गु० ) गोनद देश का, गोनई देश सम्बन्धी । ( २१३ ) वोपिका गेतना (क्रि०) छिपाना | गेषफ तत्‌० (9५ ) [ से+पा+ड] जातिविशेष, श्रद्दीर, ग्वाडा, ग्वाल, राच्ा, जु्मींदार, एक कीड़े का नश्स | -कन्या [स्त्री०) अहिरिन। [स्वामी । ग्राषक तल्‌० ( छु० ) गोष +- क ] बहुत में का ग्राषति तव्‌० (पु०) साईड़ि, हुप, बैल, गे।रदक, अ्रहीर, आभीर । गे।पद्‌ तत्त्‌० ( पु० ) गोष्पद, गाय के खुर का जृसीन पर बना हुआ चिन्ह, गाओं के रहने का स्थान । शेशपन तत्‌» (प०) [ गुपक अनहू ] दिपाव, छ्ुकाव अप्रकाश, रक्षण, तेजपात | --हूँ ( गु० ) छिपाने येग्य, गोप्य, गुक्ष ।-ीद ( घु० ) सोष्य, अग्र- काश्य [--पह्ली ( रत्री० ) गेफें का बाल स्थान | +बष्घू ( स्त्री० ) गे स्त्री, गे।पाक्षता । शेपर त्तत्‌० ( वि० ) गीत, इन्द्रियें से परे । शेषपा तल» (स्त्री० ) [ गेपष+शा ] छताविशेष, श्यामलता, सिद्धार्थ छुद्ध देव की स्त्री का नाम, कपिल्वस्तु नयर के समीपस्थ कलिराज्य के -अ्रधिपति की ये कन्या थीं, इन्हों के गर्भ से बुद्ध देव का पुक पुत्र उत्पन्न हुआ था, उस पुत्र का नाम राहुल था, गोषा असाधारण बिहुपी श्रीर पति- भक्त स्त्री थी, पति के बनगमन के बाद गोपा ने भी पुत्र के साथ, डुद्धाश्रम में प्रवेश किया था, बुद्ध के मरने पर ये ही उनके आश्रप्त का सन्नाछूम करती रहीं | गे।पाल रुत्‌० ( पु० ) गोष, श्रह्ीर, विष्णु का पूर्ण श्रवतार, यद्द वसुदेव के पुत्र थे परन्तु श्रञ्ञ में ननन्‍्द्‌ के यहाँ इनका वाल्य समय जीता था अतपुथ इन्हें नन्‍्दनन्दन भी कहते हैं। पद्मपुराण से लिखा है कि यह सर्वेरा बाल्यावस्था के समान योग्य वेष ही सें रहते ये । गेपालक तव+ (छु०)) गेोष, अद्दीर,, खाला, गेफ्वाल दे० (५०) ) गाझाला, गौपालनेवाला । गेपालय तत्‌० (पु०) गेपगद्द ग्वालों का घर, कल | गेपाएमी तव्‌० ( स्त्नी० ) कातिक शुक्क अ्रष्टमी, इस दिन मौ की पूजा की जाती हैं। शेशपिक्ता लच्‌० ( स्त्रो० ) [ गोौष + इक + श्रा | योपी, गोपस्घी, गोपाह्ना; अद्दीरिन । गोपित गेपित तत्‌5 (गु०) रद्धित, पालित, गुप्त, भ्प्रकाशित । गे।पी लत (खतरीौ०) [ गे +ई ] गेपछी, सेपाझना, स्वालिन ।+नाथ ( पु ) श्रीकृणण, गेपियों के पति। गेषपीचर्द ( घु० ) पक प्राचीन राजा का साप्त जिसझे जीवन की घटनाएँ जोगी लेग सारगी पर गाया करते हैं । [वीत वर्ण चन्दन विशेष । मेपीयन्द्न तत्‌० (पघु० ) पक प्रकार का चन्दुन, गे।पुच्छ ततू० ( छ० ) दार विशेष, गौ की पूँच के समान बना हुआ हार, गौ की पूँछ । मेंपुर तत० ( छु० । नगर द्वार, शहर का फाटक, पुरद्वार, किले का फाटक, मन्दिर का फाटक । गेप्ता तत्‌० (9० ) [ गुप्‌+ तृश्‌ ] *छक, पराष्ठक, रफ्ाकर्ता, अप्रराशक । ग्रेष्य तद्‌० ( गुर ) [ गुप+य ] रक्षणीय, गे।पनीय, दिपाने योग्य, छिपान लायक । शेप्रकाएड तव्‌० ( पु ) श्रेष्ठा गौ, उत्तमा गौ । गेफणा ठत्‌० ( ख्री० ) गेफन, पध्यर फ्रेंकन का अस्त विशेष, सिन्दिपल, ठेलवेस, गुफना, जेम्त की पट्टी । गेफन तदू० ( घु० ) ढेलवॉस गुफना। गेफिया दे८ गे।फन ढेढवास ! गेववर दे* ( पु५ ) गेमय, गौ का मछ, ग्रेविष्ठा +-- गनेण (8४० ) अकमेग्य, श्रत्स, जड, स्थूक्न, महा, सूछे गायरी द० ( ख्रौ० । गे।बर का ज्िपाव, गेमयलेपन । गे।वरास दे* ( पु० ) गेयर का कीडा | गेावरिला देन ( पु- ) गे।रींदा, कीट विशेष । गेमिल्त तत्‌० ( थु० ) मुनि विशेष, स्ामदेदी संघ्या के सूध्रकार, गोमिदगृह्सूत्र नाम का कर्मझाण्ड प्रन्थ इन्हीं का एनाया है, इस ग्रन्थ का कसेछाण्डी समाज में विशेषत सामद्रेदिये! में बडा आदर हैं) गेससी दे* ( खो० ) कली, अकुर, सयाशाघरा, फ़ैचा विशेष गराजिह्ा, काबी | गेमफा तव्‌० ( पु ) कम्दद्या, केहदा । गेममती दद्‌> ( छी० ) स्वयाम प्रसिद्ध नद्दी विशेष, चैदिक मत्य विशेष । गामन्त तव॒० (पु०) पर्वेत विशेष, पुक पह्ठाड़ का नाम | ( शह४ ) गोरस ग्रेमय दत्‌० (पु०) [ गे। + मयदू ] गेवयर । गे।मत्तिस्ना तत्‌० (स्त्री० ) दश,र्डात । गेमायु तत्‌० (पु० ) [ गोकमा+वउणु ] व्थगाल, सियार, गीदढ, उल्हा मुसक | गेमिथुन तव० ( हु० ) देश गौ, गौ की जोडी । गेामुख तत्‌० ( पु० ) सेंघ, सुरक्र, चोरी करते के किये एुक प्रकार से सझान में जिठ करना, गो का सुख, नरमिंदा वाजा, ताक नाम का शह्जन्तु, योगासन, टेढ़ामेढ़ा घर, ऐपन, एक यक का ताम, इधर जयन्त के सारथी का नाम |-च्यात्र तत* (५०) बह मनुष्य जो देखने में तो सीधा और भोला भाछा धर्मास्मा दीसे, दिन्‍्तु मनकझा घढा सारा ओऔः दुष्ट हे । शेमुखी तद० (स्थ्री० ) [ गोमुस +ई ] दविमाछय पर्यत से गद्ठाजी के गिरने का स्थान जे गोमुस के समान बना हुथा है, सीधे विशेष, जपम्ाल्ली, जप माठाा रखने की माली ! [्रिज्ञान, भ्रवोण । गेमूढ़ तद॒० ( गु० ) गो के समान सूखे, भतिशय, गामूत्र तव्‌* (१०) गोमृत, सौ का खत । गे।मून्रिका तद० (स्त्री०) ठुशविशेष, काब्य का एक भेद, चित्रफाब्य विशेष, पद्य बनाने का पुद्द प्रकार, मुक बनन्‍्ध का साम । गेमिद्र तत॒* ( पु- ) [ गो+मिदु+ भल्ू्‌ ] पीके रह का गौ के सम्तकस्थित पदार्थ विशेष, गौलेचन, शीतलचीनी, कब्मावचीनी, ग्रोमेदक मण्णि । गेमिध तद्‌० (पु०) [वो +मिघ्‌ + शरद] यज्ञ विशेष । भर तदु० (गु०) गौर चरण, (१०) गौर, फरसा, कथ, समाधिस्थान --मदायन इसद्गधघनु | यथा--४ घन है यह गेरमंदायत नहीं शरधार बहे गलघार बधाष्टी ? | गेररख्पन्‍्धा दे ( घु० ) एक प्रकार का गोरसधन्धा, गोरस्पपन्थी साधुओं के पास द्वोता है| बह यद कि पुक डे में बहुत सी कहियाँ जढ़ी इइती ईै ! छाई ऐसा काम जिसमें वी बडी उत्मने या दाँव पेंच दे । कगड्ा, उलमान, पेंच | गेररस तब्‌० ( ु« ) यब्य, दूध, दी, मद्र, तक चादड --न तत्‌० ( पु० ) गाय के दूध से पला हुथा बच्चा । भोरसी ( रह ) मोविन्द्‌ गेरसी तदू० ( स्त्री० ) दूध सदस करने की अंगीठी । | गे।ल्वार तदू (पु) गे।ठाई गेलता, डेर फेर । गेरक्ष सरु० (गु० ) [ गो+रक्त + अच्‌ | गोपल, गौ रखते वाल्मा |--नाथ (छ०) प्रसिद सिद्ध और धर्मप्रवर्तक, खूर्टीय १९ वीं शत्ताव्दी में ये महात्मा उत्तर पश्चिम प्रदेश में उत्पन्न हुए थे ये कब्रीर साहब के समकालीन थे । इमके अनेकों शिष्य थे, शिष्य इनका गुरु गोरद्नाथ था गुरु मोरखनाथ कहते थे | इनका कहना है कि खब से श्रष्ठ संसार से येगी सेही हैं। इन्होंने उदार घर्स का अचार किया है, सभी श्रेणी छे मचुष्पें के ये अपने सम्प्रदाय में लेते थे | उदारवादी द्वोने के कारण राजा रहू सभी इनका आदर करते थे। इन्होंने योरत्त-संहिता नामक ये।ग का ग्रन्थ संस्कृत साथा में लिखा है । गे।रा तदू० ( गु० ) गौर चर्ण, गोर, उनका, फिरही पढटन के जवान । ( स्त्री० ) गारो ! शेधराई ( स्त्री० ) सैनदये, खूबसूरती । गेरू दे० ( 9० ) गो, गौ, छपभ, पशु! शेरुत तत््‌* ( घु० ) दो काश, क्रोशहय । गेरिचन, गेरेिचना तत्‌० ( स्त्री० ) खनास ख्यात पीतवरणं द्वल्य पिशेष, गोमस्तक स्थित श॒ष्कपित्त शेरह्व तव्‌० ( पु० ) बच ज्ञ, गोलाकार, सपडलाकार । गे।ल्लक तत० ( पु० ) पति केन रहने पर जार से उत्पन्न पुत्र, उपपत्ति के द्वारा उल्पतञ्ञ चिचवा पुन्न कु'डा, इश्र, अर की छुतली, शुंबद, सन्‍्दूक या चैल्ली जिसमें किसी कार्य विशेष के लिये थोड़ा थेड़ा घन डाला जाय; फंड; इन्द्ियों। का स्थान । गेतयत्वा दें० (छ०) गोलन्दाज़, चोप चलानेवाले । गे्लमाल दे" (पु०) गड़बढ़ । गे।ल्ममिचचे दे० (स्त्री०) कालीसिर्च | हि शेल्ला दें” ( छु० ) अंढ, कन्दुक, गेंद, बेरा, मण्डल, बुछ, तेप का गोला, लोहे का मोछाकार पिण्डा, भारियक्त, शल्न रखते का स्थान, सण्डी, जा अन्न ब्िकता है । - बड़ शूत्त तव॒० ( घु० ) पक अकार का बन्दर जिसकी पूछ गाय जैसी होती है । शेतत्ताई दे० (स्त्री०) गोछापन । शेकल्लाकार तत्‌र ( श॒ु० ) गोलरूप, गोल । ग्रेल्लाध्याय तथ्‌० ( छ० ) ज्योतिषत्रिद्या, ज्योतिष के पक पन्ध का सास | गेस्‍लताहँ तत्‌० (पु०) इथिवी का आधा भाग ! गेतल्ली दे० (स्वी०) छे।डा गोला, बन्दूक की गोली |-- सारना (वा०) अलदूक चलाना, बन्दूक सारना। गेलतिक तन्‌० ( पु० ) श्रीकृष्ण का स्थान, नित्यधाम, चैकुण्ठ ।--प्राप्ति ( सत्री० * बलुभाचार्य जी छे सम्प्रदाय की मुक्ति, यतित्रिशेष ।--बासी (8०) अगवान्‌ श्रीकृष्ण, राजा । $ शैत्तामा तत्‌० औषछ विशेष, बच । शेशधश्र (पु०) गोहत्या, गौ का बंध करना । गेाचना दे० (क्रि०) छिपाना, लुकाता, ढाक्िना । गेवरद्धंन तत्‌० (०) बन्दावन के पुक पर्वत का नाम, स्वनाम प्रसिद्ध पवेत, पूजा न पाने मे कारण जब इन्द्र ने घज को बृष्टि से नष्ट करना चाहा था, तव श्रीकृष्ण ने इसी पर्वत कला उठाकर व्रजवासिय्रों की रक्षा की थी | इस पर्वत को श्रीकृष्ण ने अपनी कमिष्ठा अंगुली पर धारण किया था, बछभाचाये जी ने इसी पर्वत से श्रीनाथ जी का अविष्छार किया था ।>घारी ( छु* ) गोवर्द्धन पर्वेत के धारण करनेवाला, श्रीकृष्ण । हु गेवर्द्धनाचाय तव्‌० ( 8० ) संस्कृत के कवि, श्टक्वर के प्रसिद्ध श्रायासपशति नामक अन्य का कर्ता, अपने गीतमोधिन्द्‌ में जयदेव ने इनका उल्छेल और बढ़ी प्रशंसा की है । श्र गाररस की कविता लिखने में यह सिद्धहस्त थे। इसई पिता का नाम नीलाम्बर था | उमापतिघर के समसासय्िक ऐमे के कारण ३२ वीं शताब्दी का प्रारम्भ और सध्य इनका समय सिद्ध होता है । जेवशा तत्‌० ( स्त्री० ) कन्‍ध्या सौ, बद्धिछा याय । गे।चिन्द तव्‌० ( पु० ) विश्व को जानन वाला, ज्ञाच- सिन्धु, गोपाल, श्रीकृष्ण, गोअधिपति, बुद्दस्यतिं, वेदान्तवेत्ता, शह्लुराचाये के गुरु का नाम | सिक्‍्खें , के दुस गुरुओं में से एक, परन्रहा ।--ठक्कर (8०) यह मिथिलावाली सेस्क्ृत पण्डित् थे, काव्यप्रकाश की कारिकाओं की टीका इन्होंने लिखी है, जिसका नाम काब्यप्रदीप हैं इनका समय अभी तक निश्चित नहीं हुआ हैं परन्तु अनुमान से ३२ रची सदी का भ्रन्तिम भास ही दिद्वानां ने इनका समय गोशाला ( २१६ ) गैठतम सिद्ध किया है --राज़ ( पु») मनुध्मति के एक टीकाकार का नाम, इन्हीं छी बनायी टीका का अवलम्य करके कश्लूक भट्ट ने मन्वर्थमुक्तावली नाम की टीका बनायी हैं। इनके पिता का नाम साधव था। ग्यारहवीं सदी हे अन्तिम भाग में इन्होने मनुस्मति का समाध्य बनाया था | गे।शाल्ा तत्‌० (खतरी-) सोग्रद, गाय वघिने का स्थान, गोपाल । भेछ तत्‌० ( पु० ) बादा, गौओ के रदने का स्थान, भनुरुखति के अनुसार पुर श्राद्ध जे कई मनुष्य मिक्ञकर करते है। परामर्श, दल, मण्ढली ।-- विद्वार ( पु० ) गो चराने के समय श्रीकृष्ण के केलि । गेष्ठी तच्‌० (स्त्री० ) सण्डक्षी, वार्त्ताल्ाप, परामर्श, रूपक या नाटक विशेष, परिवार, समा, कुटुम्ब, ज्ञाति। [ख़र का प्रमाण । गेष्पद्‌ तत्‌० ( पु० )सगौ के रहने छा स्थान, गौ के शेासद्टत्त तत॒० (पु०) चमरी याय घ बनगौ | गे।साई या गुसाईँ तद्‌* (पु०) संन्यासिये। की श्र, ईध्वर, मदन्त, गुरु, अतीत, मितेग्द्रिय प्रभु,स्वामी | गेर्ैया दे० ( पु० ) ईश्वर, परमेश्वर, प्र । गेसस्तन तब» (ध०) गौ की थन, गुच्छ, घौध स्तवक । गेरुतनी सत्‌० (पृ०) द्वाद्या दास, अगू/ | ग्रेस्थान सतत» (पु« ) गोकस्था+ अनट ] गो, गोद, गोकुब, गोशाला । गेष्थामी तव० (पु) गोपति, गोरद्७, वछभाचार्य के घशीय, जितेन्द्रिय, बम सम्प्रदाय के गुर | गोद ३० (पु०) विसलेपरा, योधा, विषसपरा + गोहस्या छत्‌० ( स्प्री० ) गोदष्य, सोहिंसा । गोदरी दे ५ ( स्त्री | उपरी, कण्डा, छाना | गौद्दार दे ५ (गु०) हुछ़ह, शाला, गुर गपाड, दु्वाई, सद्वाय, सहायतार्थ आद्धान + गोदी दे० (स्त्री०) गढि, गुठजी । गोंई दे- (इ०) गेहूँ, घोधुम । गोदुवन ३० (बु०) सर्प विशेष, काल रद्न का साँप । थी दे* (स्त्री०) दाव, सुमीता, अवसर, मौका । मीः देन (स्त्री०) याय, गौ, गैया, थेजु। गौर द० ६ घु७ ) गवाघ, खिद़की । मैंखा दे० (स्त्री०) ताक, श्राला, दिश्ररवा शैगा (पु०) किवदन्ती, श्रफवाह । गै्नई दे० (स्त्री०) अछुर, कैरी, फुनगी । गै।ड़ तत० (पु०) स्वनाम ख्यात देश, बद्माल का पूर्दी मांग, गौड़ देश का वासी, कायस्थ विशेष दशविध मराह्मणो के श्रस्तग्गंत एक त्राह्मण ।--पांद (4०) शझूराचार्य के गुर के गुरु । इस्होने सायथ का टीका का साध्य और माण्ट्क्योपनिपद्‌ की ब्यास्या लिसी है ! जोड़ा दे० (चु०) उदीत्ता, कद्ार [के मतालुयायी । गाड़िया दे० ( 9० ) गौ् देश के वाघी, प्रभु चैतन्य भेड़ी तत० (स्प्री० ) गुइ की मदिरा, रागविशेष, काब्यरीति विशेष । प्रिमु। गीड़ेश्वर तत्‌० ( घु० ) कृ्ण चैतन्य स्वामी, गीराक़ गैण दत० (गु०) श्रप्रधान, अघीन, गौणीदृत्ति के द्वारा बेधित अर्थ ।--कात्न (१०) श्रप्रधान काछ | शैणी तव» (स्थ्री० ) अस्सी प्रकार के क्यो के अन्तगंत एक क्षद्षण का नाम | गशैततम तत्त्‌० ( पु० ) (१) बुद्धदेव का दूसरा नाम, से कपिल वस्तु के राजा शुद्धोदन रे पुत्र थे। इनकी माता का नाम मायादेवी था। ये अपनी साता की ४१ वर्ष की अवस्था में उत्पन्न हुए थे, इनझे जन्‍म के ७ दिन के बाद इनकी माता परलेक गामिनी हुई । यह अपनी माता के एक सात पुश्र थे | ये स्वभाव से ही दयालु थे, संसार के दु सो पे उद्धिम्म द्वोकर इन्द्रेने राज्य छोड दिया चर धन चल्ले गये । पीछे येडी बुद्ध नाम से प्रसिद्ध हुए । (२) गोश्न प्रवर्तंर भारद्वाज मुनि का नामानन्‍्तर, ये मद्॒पिं गातम के घुच थे । (३) हृपाचाय का नामान्तर, ये गौतमगेजीय शरद्वान के घुन्न थे । इसी कारण इनका गौतम भाम पढा पा! (४) न्याय दर्शन के अ्रसिद प्रणेता और आचार्य । यह ईसा से ६०० धर्ष पहले हुए। (५) अ्रदलया के पति ॥ (६१ सप्तयियों में से एक (७) पर्वेत का नाप्त जिसपे योदाचरी निकलती है और जो नासिक के पास है । (८) गौतम स्शति नामक स्खति पे निर्माता ऋषि | गेतमी गैत्तमी ( खी० ) अ्रदत्या, सौतम की बनाई स्छति, गोदावरी नदी | शक्न्तछा के साथ राजा दुष्यन्त के पास्त गयी हुईं एक तपस्विनी | गेठुम नारि तव्‌० (स्त्री०) अदृस्या शेन तद" ( सत्री० ) बोरे के घेले जिनमें अन्न मर कर वैज्ञ पर ्ादे जाते हैं | [प्रधमवार आगमन ! शैा दै० ( छु० ) द्विरागमन, वधूप्रवेश, पति के घर शैननहार या गौन्हार दे० (प०) सौने के बराती, बघू- प्रवेश में दूक्ददे के साथ ज्ञाने चाले या वह स्त्री जे दूल्हे के साथ ससुराल जाय | गै।र (थि० ) गेर, श्वेत, उज्ज्वल | ( छु० ) धव छुत्त, चन्त्रमा, सुबणे, केसर, माप विशेष, पर्वेत विशेष । शोर (ए०) ध्यान, लाच विचार | मैरच तव० ( पु० ) [ गुरु + प्यन्‌ ] गुरुता, प्रभाव, मर्यादा, गुरुव्व, भार, आदर, सम्मान, पज्यबरुद्धि, प्रतिष्ठा, यश, प्रशंसा, बढ़ाई, भारीपन, ब्रड़प्पन, रुकाव |--जनक ( गु० ) मर्यादाज नक, सम्मान सूचक [--न्वित ( ग्ु* ) प्रतिष्ठित, सास्य, गौरचयुक्त, पूज्य । शैौरा तव्‌० (स्री०) पारवती, दुर्गा, पक्चिविशेष | शैरराहुः वद्‌० ( गु० ) श्वेतवर्ण, सुन्दर; पीतवर्ण, यूरो- “पियन, विष्णु, श्रीकृष्य, चैतन्य देव, गौर अज्ञचाला । शैरि तल (स्त्री०) देखे गौरी। [की कन्या । शैरिका तत्‌० (स््री०) [ गौरी + इक-|-आा ] आठ वर्ष गौरिया दे० (स्नी०) चटक, गीरा, मिट्टी का हुक्का । गैरितला तत्‌* (सत्री०) एथिवी, धरणी, घरती | शैररी तत्‌० (स्त्री०) [ गौर +-ई | पार्वेती, उमा, अष्टव- चीया कन्या, हरदी, दारूहरदी, भ्ोरोचना, प्रियंगु- बृक्त, पृथ्वी, नदी विशेष, वरुण की ख्री, बुद्ध की पुक शक्ति का नाम, श्वेतदूवाँ, राणिनी विशेष, माकव राग की पत्नी, जदा्मासी (--पति ( छ० ) शिव, महादेव ।--घुज (ए०) कात्तिकेय, गणेश । शैरीश या गोरीस तव (घु० ) शिव, मदादेव, भवानी पति, उमापति | [ भा घर, गोछठ । शैशशाला तद्‌० ( स्ती० ) मौओं के रहने का स्थान, ग्यास्स दे० (सत्री०) एकादुशी तिथि, मतविशेष । ग्यारह दें० (छु०) एुकादुश सेख्या, दुश और एक, ११ ॥ 22 रु 4) ( रश७छ ) अहण ८नपसनल-++न-न+त्उत्ततत१३++++++२६-२+737>+०++२०-८+- 55 मे 5 अथित चत्‌* ( झु० ) [ अन्य +क्त ] कृत्मंथव, श॒ुया छुआ, पिरोया हुआ । ग्रन्थ तत्‌० ( ग॒ु३ ) अत्नन्ध, शास्त्र, एस्तक, सिक्‍्खें की चर्मपुस्तक का नाम; श्रज॒ुष्ड्पू बन्द, छोक ।--कर्ता ( पु० ) [ अन्ध + कू + तणू ] अन्यकार, निवन्ध- कार, शाख्कर्त्ता |--कार ( पु० ) [ अन्य + कृ + अणू | झन्धकर्त्ता | ग्रम्धक दत्‌० ( छु० ) [ अन्ध + णक ] निर्माण कर्सा, निग्रन्धकार, रचयिता, माल्ठा का सूच्न | अन्धन तत्‌० ( घु० ) [ प्रन्ध +- अ्रनद | गुम्फन, अथित करण, गाँधन, रचन, गूँथना, निर्माण । ग्रन्थि तत्‌॒० ( ख्री० ) [ भन्‍्व +ई ] वास भादि की गिरह, ढेररी आ्रादि क्री गांठ, सायाजाल, कुटिज्षता, आलू, भद्गमाथा । ग्रन्थिक तख्‌० ( छु० ) दैवज्ष, गणक, सहदेव नासक पायडव, पीपरामूल, करीर, गुग्गुज्न, गठिवन | ग्रन्थित तदू० ( गु० ) [ झन्ध + इत ] अथित, गाँधा हुआ, रचित, मिमित। 5 अन्थिमान तत्‌० ( ४० ) [ प्रन्धि + सत्‌ ] दरसिंगार, जड़, इड़ जोड़, वह औषधि जिससे टूटी इड्टी जड़ जाती है ! पु अन्यिल तत्‌० (० ) पीपरामूछ, अव्रण्, श्रादी, काँकई बृक्त, करील, आ्रालू । अखन तत्‌० ( पु० ) [[ अस्त + शरद | भक्षण, खादव, निगछूना, आक्रमण, अहण । अस्त तच्‌० (गर॒ु० ) [अस्त +क्त ] युक्त, ख्ादित, आच्छादित, आक्रान्त, राह प्राप, असस्पर्य वाक्य, गृद्दीत, खाया गाया ।--रुत ( घु० ) चन्द्र सूर्य का अहण # अनन्तर अस्त देना |+ोदय ( पु०) [ अस्त +: बदय ] राहु प्रस्त ( अहण लगे ) सूये और चन्द्र का उदय द्वोना | अह्द तद ( ० ) [ ग्रह + अल ] सू्थ आदि नवप्रह, नी की संख्या, अलुमद, निर्वेन्ध, प्राप्नह, हठ, अध्यवस्ताय; राहु, स्कन्‍द, शक्क॒नी -आदि रोग |-- कल्लील ( 9० ) आ्वा ग्रह, राहु | अद्दण तव॒० ( पु० ) | अह्‌+ श्रम | स्वीकार, कमा, अपक्षव्धि, प्राप्ति, चन्द्र और सूर्य का उपराग ।-- एन्‍त ( छ० ) अद्रण की समाप्ति, मोक्ष, उप्ह । श० पा+-रशे८ अहस्थापन ( रह ) ग्ले १७७७७ शभ"शशशशणएएणशएणण०० भाप नमक आवक सहस्थापत्र तत्‌० ( धृ० ) नवग्रह्े की स्थापना, पूजा | ग्रासक तत० (ग॒ु०) भचक, यादक, धेरतेबाढा, विशेष गअहणी तत्‌० (स्वी०) भतिसार रोग, संग्रदणी रोग ) परद्ेशीय तव० ( गु ) [ अहू + अनोय ] प्रदण करने गेए्य, गधा | बह्वत दै० (वि०) गृहीत, पकढा । पद्दीता तब्‌० (गु०) प्रदणकर्ता, ग्राहक, पकड़ा इंच । प्राम त१० ( ए५ ) रूमूह, सलुष्मेः का समृह, गाव, बस्ती, पुरा, सेडा | यथा--गिरि ग्राम है ले इरि आम मार, मत्री प्मतीदत् दस्ती विद्ारै । +>शामचन्द्रिका । सप्तड, शिव ।--कुक्कुद ( पर ) पेत्ता झर्ग । “झैंठ ( ६० ) श्रत्जाति [--गृह्म ( गु० ) गवि का बाहर |--्तत्षा (०) गाव का बढ़ई) “याजक (पु) गंवि के पुरोहित।-वासो » . (गु० ) गषि का रहने वाला | परामणी तद* ( गु० ) ग्राम के सुसिया, (धु०) आमा- भिपति, गदि फ्े स्वामी, विरणु, मण्डक्ष, नापित, यह ( ख्री० ) वेश्या, नीछ का पेड | आमिकर तब ( गु० ) प्राम्य, दिहाती, गद्ेद्र्यो । प्राम्रीण तद« ( गु० ) [ आम + इन ] ग्राम में उत्पन्न, प्रामवा्ती, पर्वार, गर्देइर्या ( पु० ) गदि का सका, इकर भादि । [रब के मुखिया । प्रामपश तब॒० ( ५ ) शव के झूयई भरिदाने चाले, प्रामेश तद* (पु ) (ग्राम+ईश ] गवि का मालिक, जमींदार । प्रास्न तत्‌* (गु०) [प्राम्म + यु प्राम सम्पन्धी,प्राम शत, सूर्ख, गवार, घुत्ञ कपद रद्दित । (पु) काप्प का एड दाप,श्रलील शब्द,मैथुन, मिशुर राशि, गधा, थोड़ा, सझ्प, बैठ भादि पशु जो गये में प्ले केसे जाते हे! ।--देवता ( 3० ) प्रामरदक देवता (-धर्म तत्‌० (पु) अधुन, खीपमह। आंच तन्‌* ( ५ ) पर्वत, प्यर, शछा, दिनाही । शभ्रास तब (१० ( प्रसू+घन्र ] रुूवछ, कार, (०) भक्त, सर, रोटी कपड़ा हड पक. | पघ्रथ या चम्द में अडय छगना ।-नच्छादन | स्वैंडे रोइने बाला, छिपाने वाला, दुबाने वाटा | ग्राप्तना तदू" (क्रि० ) रोकना, घेरना, दुवाना, डिपाना, भदण करना | आह वत्‌० ( ३० ) [ झहू + घनू | प्दरथ, जछ अन्तु- विशेष, यूँ स, जक्द्ाथी, प्राइक, सान, नक्त, मगर ) | भाहक तत्‌5 (गुल) प्रदण करनेदाद्ा, प्राहक, ररीदने वादा, ब्याल्प्राही, सपेरा [--ता ( स्री* ) ले म, ग्रहण करने की झमिढापा | श्राह्दी बद्‌ू० (गु०) [ अह+णिन्‌ | मल रोघक, घारक, प्रहणकर्तता, कैप । [मनेन्ीत,प्रभिकपित।) ग्राह्म तदू० ( गु० ) [ प्रहकष्यणू ) ग्रहण के येण्य, ग्रीधा तच॒७ ( स्ली० ) गला, गर्दन, कप्ण, गछे के सीचे का भाग, किसी रद्द के पीछे जुइने पर इसस्ा । रूप “प्रीय” रद्द जाता है बधा--/हयप्रीव”! 'सुम्रीक” (भर (१०) कण्ठमूपण, कण्ठा। प्रोष्म तब० ( ७० ) ऋतुविशेप, ऋतुओो के भ्रस्तगत पुक खऋतु का नाम, उध्ण, निदाघ, गामी के दिन । काल ( ३० ) बिदाघ, उप्णकाढ | अधेय तद्‌० ( थृ० ) [ प्रीवा + दक्‌ ] कण्ठमूपण, गद्य का गदना, कण्ठा, इँसुली इत्यादि । ग्जपित उव्‌० (गु९) [ सक्षप्‌ +क्त ] श्रवमन्न, यकित, श्रास्त, भकाबंट | उजद् तत्‌० ( ५० ) झुए की बाजी, पण, दाव | उज्ञान तत्‌० ( गु० ) [ ग्लै+क्त ) गेग द्वारा। दुर्दल शरीर, रोगी, खित्र, कमजेतर । है म्वानि तत० ( स्ली० ) [ रखे + कि ] थास्ति, नित्दा, मानस ब्यया, मन की यकावट, श्रदुचि | उपार ( स्प्रो० ) एक पौघचा जिसकी कक्ती शाक के ऋाम में श्राती है ।--पाठ ( पु ) धोडुभार । ग्वाल तदु० ( घु० ) अट्टीर । ग्वाज्ा देन ( ५ ) अहीर, गोपाल, गे । | ग्यालिन दे० ( स्त्रौ० ) अद्दिरिद; गोपी । | ग्वैंठा दे० ( अ० ) समीप, निकट, भाप्दास, नगर के छमीप, निषरेध्ती ३ दे ( अ० ) पास, समीप, निच्ट । है | स्ली तब ( घु+ ) चंद्रमा, शरि, विष्णु, कपूर। न ( २१६ ) घ्र्डी घ घ च्यक्षनों में से छपर्ग का चौथा श्रच्तर | इसका उच्चारण | घटन्त देर ( खी० ) हास, हीनता, उतार भ्रत्पता, जिह्मामूछ या कण्ठ पे द्वोता है । थ्र तत्‌० ( छु० ) धण्टा, घ्घर शब्द, मेघ, धूप । चेंघेःरमा दे» (क्रि०) सलिन करना, कल्लुपित करना, कछारना, सेंदला करना । घंच बे० (पु०) गछा, कण्ठ, नरेटी, ग्रीवा । घंघरा, घंघरी दे" ( ख्री० ) लहँगा, साया, चण्डा- तक, खत्रियों के पदनने का छुकू वस्त्र । घचाधच दे० (वा०) उसाठस, मचमच, अत्यन्त सट्ठूत- णैता, छवाज्षव भरा। घद् तत्‌* (9०) कक्षस, कुम्भ, गगरी, घढ़ा, परिमाण विशेष, देह, श्रन्तःकरण, मन (--ज्ञ ( छु० ) कुम्मजकषि, अगस्त्यभुनि ।- देसी ( खरो० ) कुटनी, दूती, सज्ञमकारिणी ।-ये।नि (३० ) अगस्त्घुनि, कुम्मल | घढ्क तत्‌» ( प० ) योजक, येजनकारी, कुटना, दूत, सध्यस्थ, विचबैया, चिचवनिया, दृलाल, चारण, घढ़ा, मध्यस्थ ।--ता ( स्री० ) येजकता, दै।ल, कुटनापन | घटकर्पर तत्‌० ( पु० ) राजा विक्रमादित्य की सभा के पएुक सभासद पण्डित, इनकी बनायी एक छोटी सी घुखिका है, जिसका नाम घटकर्पर है, इसके अतिरिक्त नीतिघार नामक एक और भी ग्रल्थ इनका घनाया है | घटकपर काव्य बनाकर इन्होंने अपनी यमकप्रियता का परिचय देना चाहा है, घट- क्र के समान पक राक्षस कान्‍्य भी यमकप्रधान है । सम्भव है वह भी इन्हीं प्रकाण्ड पण्डित का बनाया हे। । विक्रमादित्य के समकालीन द्वोने से इसका समय भी छुठवीं शत्ताबदी माना जाता है | घटका (०) मरते समय कही स्थिति, घरों । घढती तद्‌० (खी०) कमी, न्यूनता, झत्पता, अवनत्ति । शठता सत्‌० ( स्री० ) येजन, मिलन, सेख्याकरण, अकस्माद, काये, अद्भुत, कमें, विलक्षण दृश्य, (क्रि०) कम द्वोचा, स्यूल होना । घटनीय ततच्‌० ( गु० ) [ घदन + अनीय | ग्रेजनीय, सम्भाव्य, घटने योग्य, द्वोले येगग्य स्यूमता । [निर्माण करना ) घटव दे० (9०) कम होना, क्षीण हाना, न्यूच हे।ना, घटबढ़ दे० (ख्री०) कमीवेशी, न्यूनाधिकत्ा । घट्वार, घरदवारिया, घठवालिया द्वे० ( पु० ) घाट वाला, जो बड्ढी के पार उतारने का काम करता है, घाद पर बैठकर दान ब्ेने बाला ब्राह्मण, घाट का देवता, घादिया । घटहा दे० (3०) घाट का ठेक् लेने वाला, नदी के इस पार से उस पार जाने वाली नियत नाव, अपराधी, दोपी । घटा दे० ( खी० ) मेष, बादरू, मेघें का उभड़ना, भीड़ | (गु०) कम हुआ, घट राया, न्‍्यून हुआ । घटादोप तत्‌० (घु० ) [ घढ+ भाप | ओहार, पालकी का आच्छादन, पदां, जवनिका, दुम्भ, अभिमान, बादलों की चारों ओर से उसड़ी हुईं घटा, अत्यन्धकार, गद्दरी बदली | घढाना दे० ( क्रि० ) कम्त करना; न्‍्यून करता, बाकी निकालना, काटला, अपमान करना । यथा--- + उसने अपने आप अपने का घटा दिया है| ? घाव दे० (५०) उतार, कमती, न्‍्यूनता | घटिक तव॒० ( पुं० ) घड़ियाली या वह ब्यक्ति जो घंटा पूरा द्वोने पर घंटा बजावे | घटिका तच्‌० ( स्री० ) घढ़ी, स॒हू्, दण्ड, गुक्फ, घड़ी यंत्र, २४ मिनट का समय, ग्रगरी, एड़ी के ऊपर का साथ ।. सजिंयुक्त, बना छुआ, रचा हुआ । घड़ित तव्‌० ( गु० ) [ घट+ इतर ] मित्रित, येजित, घटिया दे० ( गरु० ) निकृष्ट, अघस, अ्रक्‍्प मूल्य की . चल्तु |--६ (स्त्री०) नीचता । घटिद्दा दे० (वि०) अछाक, घात पाकर भ्रपना मचछब साधनेवाला, घे।खा देनेवाल्ा, दुए, क्म्पट । घी तव्॒‌० (स्त्री०) [घट+ ई] दण्ड, घढ़ी, छुद्ध घट, समयसूचक यन्त्र | ( दें० ) दानि, घाटा, देटा। -+कआर ( घु० ) घड़ी बनाने वाला, घड़ीसाज़, कुम्हार [--्यन्त्र ( घु० ) समयसूचक यन्त्र, घड़ी, जल्ष निकालने का यन्त्र | घदे ( २२० ) घन घंटे दे० (क्रि०) बने, बनाये गये, कम हुए, योडे हुए | घट्रौत्कव तत्‌० ( पृ० ) राच्स विशेष, हिडिम्बा राउसी का पुत्र, द्वितीय पाण्डव भीस के औरस से और हिडिस्वा के गर्भ से यह उत्पन्न हुआ था। मह्ठमारत के रणछेन्र में इसने पाण्डवे। की ओर से युद्ध किया था। कर ने श्रज्भुन का वध करन के लिये जे इन्द्रदत शक्ति रद्तित की थी, उसी शक्ति से इसे कर्ण को मारना पढा, दूसरी गति डी नहीं थी । क्योंकि इसके पराक्रमानल में कौरव सेना दुग्ध दे रही थी । यदि कर्ण उस शक्ति को काम न में लाते, ते समस्त करव सेना नष्ट भ्रष्ट दो जाती । परन्तु इससे अज़ैन दुर्जय दो गये और कर्ण को भी उसी समय यद निश्रय दा गया कि में अजुन के द्वारा अवश्य दी मारा जाऊँगा। घशेकरं तद० (३०) (१) शिव के एक अनुचर का भाम, यद्द मदल् का पुत्र था, इसकी माता का नाम सेघा था । इसका दूसरा नाम घण्टेश्वर था। शाप फे कारण मलुष्य योनि में इसे उत्पन्न होता पढा था, उज्नयिनी नगरी में हृसका जन्म हुथा। विक्रमादित्य के नवरत्नों का परास्त करने की इच्छा से इसने तपस्या की थी, परन्तु कालिदास के अतिरिक्त अन्य रक्ों के जीतने का इसे वर मिलछा। (२) दरिवंश में लिए है कि घटोरऋएँ विष्णुद्रेपी एक रास था, हरि का नाम न सुन पडे इसश्े क्षिमे यह सर्ेदा काने में घण्टा यधिकर दजाया करता था। शिवजी की आाज्ता से वद्रिकाश्रम में जाकर इरि रूपी भ्रीक्ष्ण की इसने स्तुति की और मुक्त हुथा। घट्ट, घट्टा तव्‌० ( पु० ) घाट, नदी का या ताव्याव का किनारा, स्तान करने का स्पान | [दोना, छेठ । घट्ठा दे* (पु) गिक्करी, काम करने से चाम का मोटा घड़घड़ाना दे० ( क्रि० ) गरजना, सड़कना, घड़घड़ करना, गड़ग दाना । घड़त दे० (स्त्री० ) बनावट, सांदा, आइति, डीछ | घड़ना दे ( कि ) गदना, पनाना, निर्माण करना | घड़ा तद॒« (१०) गगरा, करस, घट, कुम्म | घड़िया दे० ( स््री० ) कुकिया, पुस्वा, मिद्ी का द्ारा दरतन, जिसमें रबर सुनार सोना चाँदी गाते हैं, शहद का छुत्ता, गर्माशय, पानी के रदँट की छेग्यी छोटी दिलियाँ | [धण्टा, बाद्य विशेष । घड़ियाल दे० ( छघु० ) मगर, नक्र, जलजन्तु विशेष, घड़ियाली दे० (गु०) घण्टा बजाने और बनाने वाढा। घड़ी दे० ( स्त्री० ) समय का परिमाण, स्लाठ पत्र, समय बतानेवाला यन्त्र ---में ताला घड़ी में माशा ( वा० ) भव्यवस्थितचित्त, जिसझा चित्त उुण दण बदुलता रहे । [एलहंदा । घड़ोचा, घड़ोंचो दे० ( छु० ) तिपाई, छटकन, घरणुटा दे० ( घु० ) घड़ी, वाद्य, विशेष, कॉम्यनि्मित, वाद्ययस्त्र, घडियाछ्ल +-पथ ( घु० ) संत्रि का प्रधानमाण |--शब्दु ( पु० ) घण्डा का शब, समयसूचक ध्वनि । ख्िसातकी । घग्ठालि तदू० ( स्थ्री० ) छोटा घण्टा, वृष विशेष, घणिटका तत्‌० ( ख्री० ) तालु के ऊपर की छोटी जीम, घाटी, लेला । घी दे० (स्त्री०) लुटिया, छोटा क्ेटा, छ्लोटा घंटा । घण्ट्ट दे” (० ) हाथी का घण्डा, प्रताप, उत्ताप, घण्टीमाढा । [घरेष्कर्ण, मड्रछ का पुत्र । घगरेश्वर तत्‌० ( पु० ) देववा विशेष, शिव का गण, धतिया उद्‌० (पु०) घातक, मुशंस, झुरकर्मा, दृद्यारा | भन तत्‌० (पु०) तरदता रद्दित, याढृ, निविड्, अ्विरकत, मेघ, बादल) ठोस, पोढ़ा, इढ़, मोटा, अधिक, सजातीय, तीन चझ्टूें का पूरंय करना, गणित विशेष, दृधौड्ा, कपूर ।--काल (ब०) परषांखझत । >+गेल$ (पु०) सेना और चौदी का मिलान । गरज्ञ ( पु० ) सेघ शद, मेव गर्जन ।--घन (पु०) सर्वदा, घदा ।--घनाना (किन) घन घन शब्द करना |--घेरा (पु०) घत्ररा, छद्ेंगा ॥-: घेर (पु०) मेघ कौ गस्मीर ध्वनि, घनधनाइट [-- ज्याला (स्त्री०) विद्ुद, विधुली [--ता (स्त्री०) गाढ़ता, निविदता । ध्यनि ( पु० ) मेघगर्जन, सेथ शब्द |--निद्दार (पु०) तुपारराशि, अधिक तुपार |--नाद ( घु० ) मेघ का शब्द, मेबनाद रादणय का पृश्र इन्द्रमिद +-पदुवों ( स्प्री* ) आाकारा, अन्तरि्त, स्येम, मम ।--फल ( पु० ) भट्टूविध्या विशेष, गणित विशेष «सूत्र ( 9० ) पूरण करने येग्य स्वश्ात्ीय तीन अक्लों का सूछ घनचक्कर अक्ल ।+>रख (पु०) सघन, गोंद, अवलेह, सस्यक्‌ पकाया श्स ।-श्याम (पु०) अधिक कृष्ण वर्ण, भ्रेघ के सदश काला, श्रीकृष्ण ।--समय ( ० ) वर्षा ऋतु |--सार ( छु० ) कपूर, पारद विशेष | [गर्दिश, चक्कर, फेरफार, जंजाल । घनचक्कर तद्‌० (छु०) चन्लुछमना पुरुष, मुख, निठल्ला, घना दे" (छु०) राहरा, सघन, वहुत देर, अधिक प्रचुर। घनासन दे० (9०) मैंला, महिष । धनात्तरी तत्‌० (धु०) मनहर छुन्द, कबित्त | घतात्मक तत््‌० ( वि० ) जो क्षम्त्राई चौड़ाई सोठाई अथवा ऊँचाई व गद्दराई में बराबर हे। | घनाहु तत्‌* ( घु० )[ घन+आहु ] औपध विशेष, नागरसेोथा | ' घनिए तत्‌० (बि०) गाढ़ा, घना निकटस्प । घने तदू० (वि०) बहुत, अनेक । घनेरा या धनेरे दे० (एु०) बहुत से, बहुत, अधिक, ( बहु घ० ) धनेरे (स्त्री०) घनेरी । घन्नई दे० (स्त्री०) घढ़ों के व्ठकड़ियें में दाधकर बनाया गया थेढ़ा, जिससे छेटो नदियाँ पार की जासी हैं | शपयी दे० ( स्त्री० ) लिफ्ट, दे दाथ की चिपट | भपला दे० ( 9० ) गढ़बढ़, गेलमाल | धवराना, घबड़ाना दे? (क्रि०) ब्याकुछ हेता, हड़- बढ़ाना, बहिझ होना । डिद्ेग, व्याकुछता । घबराहट, घवड़ाहट दे० (स्त्री० ) दुःख क्लेश अंवरी दे० ( रुघी ० ) गुच्छा, स्तवक । घमण्ड दे० (पु०) दपे, अभिमाच, श्रहक्लार, गव॑ । घमरयडी दे" (गु०) अददक्लारी, श्रभिमानी, दाम्मिक । घमरील दे० (स्थरी०) रैलय, कालाहक, मीड्भाड़ ! घमस दे० ( स्त्री० ) निर्वात, वाघुरहित, अमस | घमसान, घमासान दे० ( ए० ) भयहूर, घोर, भवा- नक, लड़ाई, युद्ध । घमाधम दे० ( गु० ) कचाकृच, घमथस शब्द, आधघात्त का शब्द, अधिक धूप, धूप दी घूप । घमाना दे० ( क्रि० ) धूप में बैठना, धूप दिखाना, तापना, पशीने में बृड जाना ।. [पीघा, भड़माड़ । घमेई या घमे।र दे० (स्त्री ०) एक प्रकार का कटिदार चमैरी दे० ( स्त्री० ) अम्मारी, ओघौरी । घर तदू० (पु०) गृह, मकान, वासस्थान [--घालना ( रर१ ) घरोंदा ( क्रि० ) शूद्ध में रख जेना, उपपल्ली करना, सूद नाश करना ।--चलाना ( बा३ ) गृह क्वा अवन्ध करना, घर का सर्च॑बर्च चछाना |--जाना (बा०) घर पर किसी आपत्ति का पड़ता, बजड़ना, बिग- , डुना |--डुबोना (वा० ) घर में कलह उत्पन्न करना, श्रन्य काया अपना घर नष्ट करना | फोरी दे० ( स्त्री० ) घर फोड़नेवाली, घर में फूट कराने वाली, इधर की उधर व्गाने बाली, चुगल - खेोरिन ।--ड्बना ( वा० ) नाश द्वोना, घर का नाश द्वाना । बैठना ( वा० ) निकस्मा बैठना, कास काज न करना, घर का हृठवा ।--बैठ जाना ( वा० ) निश्चिम्त होना, काम न रहने से घर बैठ ज्ञाना, घर का हटना, दिनष्ट होना ।“>होना (वा०) स्त्री पुरुष में घपस का ग्रएय होना | _ घरऊ दे० (गु०) घरेला, घरुषा, घर सम्बन्धी, घर का । घरनई दे० ( स्त्री० ) चौधड़ा, बेड़ा, घेर, घन्नई । घरना दे० ( क्रि० ) गढ़ना, बनाना, घपण करना, घिलना । [यिहिणी । घरनी दे ( स्त्री० ) स्त्री, भाषां, पत्नी, धरवाली, घरवराच दे० ( ३० ) घर का श्रढाल्ठा, चीज वस्तु । घरवार दे० ( ४० ) कुद्धम्ब, परिवार | [की एक अल | घरवारी दे० ( भु० ) गृदस्थी, कदम्मी, माथुर भा्मय्णों घररा दें" (घ०) खरखराहट, दुःख, पीड़ा | घरराटा दे० (घ०) धुनिविशेष, नासिकाध्वनि ! घरवाला दे? ( ४० ) झदी, ग्रहस्थी, गृदस्वामी । घराऊ देै० ( वि० ) घर का, आपस का । घराती दे? ( ३० ) विवाह में दुलहिन के कुट्ुम्बी या कन्या कि ओर के नेतरिया।. [वर्ग, खानदानी । घराना दे० ( ७० ) कटुस्ब, वंश, घर के लोग, परिवार घरामी दे० ( पु० ) छुवेया, घर छामे वात्ना | घरिक दे० (अ्र०) एक घड़ी, घढ़ी भर, थोड़ी देर । |, घरिया दे० ( स्थ्री० ) प्रघटी, मिद्दी की बनी छोटी कटोरी जिसमें रखकर खुनार घेना,्चादी गलाते हैं। चरी दे० ( स्त्री० ) तह, चुन्नट, तहरऊगई, एक नियत खमय, घड़ी । सिम्बन्धी, घर का । घरेला दे० ( ग॒ु० ) घर का पोसा, घर में उत्पक्न, घर चघरोंदा, घरोंधा दे" ( ० ) खेल के लिये छड़कों का बनाया घर, छोटा घर। ९ घघर ( रशर ) घामड़ घधघं॑र त्त० (पु०) शब्द विशेष, शूकर का शब्द, चक्की का शब्द्‌ । धर्घरा द० (स्वी०) घागरा, एक नदी का नाम, सरयू | भ्रम दद्‌० (पु०) घाम, धूप, गरमी, धमवारि, स्वेद, पसीना ।--दुति (५०) दिवाकर, सूर्य ।--घिन्‍्डु ( प० ) स्वेदविन्दु, स्वेदकणिझा, पसीना ।--नक्त ( गु० ) पसीना से भोँगा, स्वेद से कऋदफदू। घर्षणा तव० ( पु० ) [ छप्‌ + अनद ] मार्जन, महंन, घिसन, रगढ़, छिस्सा। चघर्पित तव्‌० (गु०) [ प्‌ +क्त ] एष्, घिसा हुआ। घन्लुआ, घलुवा दे० ( पु० ) संत, बिता दाम का खरीदार जो दूकानदार से लेता है, रूँक । घचारि दे० (१०) धेए, धींद, गुच्छा, समूद्द ( क्रि० ) छुकन्न होकर ) घंसना दे० (क्रि०) धर्षण करना, रगदना । घसिदना (क्रि०) किसी चस्तु का सूमि से रगढ खाते हुए खिचना ] [वाला । घसियारा दे० (पु०) घास काटने वाढा, घास बेचने घसतोटना दे० (१०) कढेरना, कढ़ेरना | घलसीला दे० (गु०) भधिक घाक्ष, तृणमय, दरियाली | घस्मर तत्‌० (गु०) पेद्ठ, खाऊ, पेटार्थी । घरनत्र तद्‌० (६०) दिन, दिवस, अहर । घल्षा तव्‌« (१०) द्विसक, भ्रपकारऊ5, नृशस, फूर । घद्दराना दे० (क्रि०) गर्जना, घध॑राना, चिग्घाडना । घद्दरात दे० (क्रि०) ट्ूटले पढते हैं, टूरते डी, गरजते ही । घाई दे (श्लो० ) घात, दाव, माका, अंगुली का मसध्यस्थान । घाईन दे० (सो०) पाला, वार, बेर, ब्रेसरी । घाउ दे« (पु) घाव, चे।ट, इत, प्रण, फोड़ा ॥ घाऊंघप दे* (दि०) खाने वाढा, हदप जाने वाला । घांदी दे० (द्वी०) रेद्रवा, नकँस, नरेटी, कंठ । [सेंवर ॥ घाई दे* ( ख्वी५ ) ओर, तपफ, अलग, दार, पानी का घाऊ दे० (१०) घाव, उत, चाट, जस्म | धाथ दे० ( य॒ु* ) चतुर, भजुभवी, बुद्धिमान, पद्चि- दिशेष, पुछ चतुर भनुमवी पग्डित जिसकी कही खेती, ऋतु, कास्ट भादि के सम्दन्ध की कद्ठावतें उत्तर मारत के देदाते। में प्रचलित हैं. और टीकुू डतस्ती हैं । घाँघरा दे० (५०) लहंगा, एक नदी का नाम । घाद दे ० (०) नदी का तट, जहाँ नाव से उतरते या चढ़ते हैं, तय पद्ाड़ी भाग, पद्ाड, ओर, नई दुलद्विन का लगा, ड्ौछ, रूप, सूरत, भ्राकृति, बनावट, न्‍्यून, कम, अपप, अपराध, दे।प, भेखा देना! घाटा दें ( ६० ) घटी, हानि, चढ़ाव, पद्दादी, भागे, बटी घाटी ।--रोद्द दे+ ( पु० ) घटवदी, घाट का रोकना, घाट पर चढ़ना । घादि दे० (स्त्रो०) नीचशमें, मीचता, घाटियाई, पम्बई में कुलिये। शी एक जाति। घाडिया दे० (पु०) घाट पर रहनेवाला, गझपुत्र, गज़ा तट पर दान लेने वाले ब्राह्मण । घाटी दे० (स्त्री०) पद्दाड का मागे, पवेत पर चढ़ने का सगे पथ। [साग, मस्तक के नीचे का भाग | घाण्ड दे० (पु०) घाटी, ओऔवा, पढा, गले का पिछुन्ना घात ठद« (पु०) [ इन्‌+ घन्‌ ] प्रद्वार, भ्राधात, चोट पहुँचना अद्टूपूरण, अवसर, दाव “करता - (वा७ ) प्रतिज्ञा अष द्वाना, कहे काम को पूरा न करना, अदसर पर घोसखा देना।-ताकना (वा०) समय देखना, अवप्तर देखना । घातक तव्‌० (३१०) दृशथ, कूरकर्मा, हत्यारा, पेषिक | घादा ढे० ( पु» ) श्रुऋूबता, सप्तेमाव में किसी वस्तु का मिलना, मेहल या तैं।# से भ्रधिक मिलना । घातिनि था घातिनी तत० (स्प्री० ) इद्ारिन, मारने बाली स्त्री, ऋर स्त्री धातिया या घाती तद्‌० ( गु० ) [ दव्‌+ ईन्‌ ] पध- कारी प्राथनाशक, दाद लेने चाढा, छुली, कपरी, अपघाती । .... [कूर, प्रपकारी, निद्वुर, इस्थारा। घातुक तत्‌० ( गु०) [ हन्‌+ उद्चन्‌ ] दविंसक, नाश, घात्य तव॒० (ग०) [इच्‌+ ध्यणू] इनन येग्य, मारने के चेग्य बिर डालने की परिमाय | घान दे० ( घु० ) कोक्टू, उस्ली, चक्की झादि में एक घानी दे (स्त्री०) देखे घान, समूह । घावरा दे (गु० ) ब्याकुछ, उद्दिप्त, भस्पिरचित्त, घबड़ाया हुआ | घाम द* (०) धूप, गरमी, घर्मे, स्‍्वेद, पसीता ! घामड़ दें ( गु० ) सीधा, मेंदू, मौका | धाय ६ २२३ ) घुड़ चाय दे० (पु०) फोड़ा, कब, छत, घण, चोट | - घायल दे० ( गु० ) आहत, छत, चाट खाया हुब्ना, आधा्त आ्रप्त, चेटटिल, चेटटेल, जख्मी । घाये दे० (क्रि०) दिये, दे दिये । खिल्लुआ, रूंक घात्त दे* ( स्त्री० ) छुराई, बिगाड़, द्वानि, अपकार, घातक दे ५ (घु०) नाशक, श्रपकारक, घातक, वछ्चिक | घालन दे० (६०) दनन, बधर, सारण । घालना दे" (क्रि० ) डालना, फेंकना, वद्रियाइना, डजाड़ना, रखना, रख लेना, मारना, पठकना, लेप दागना, त्तेप का गोला छोड़ना । घालसभेल दे” (गु० ) मिश्रण, मिलावट, पचमेज, ख़विचढ़ी, गड्ड बहु, मेलजेल । चाल्ना दे० (क्रि०) नाश किया, सिल्ाया, रखा, डाहा, गड़बड़ किया, मारा, धोखा दिया, धोखे से मारढालछा | _नष्ठकर, मार कर । घालि दे० (क्रि०) डालकर, रखकर, फेंककर, घालित दे० ( गु० ) मारा हुश्ला, न किया हुआ, बजाड़ा हुआ | धाल्नी दे? (क्रि०) डाल दी, फेंक दी, ये शब्द रासायण मेँ प्रयुक्त हुए हैं, उन्देलखण्ड की भाषा में इनका विशेषतः अये।ग द्वोता है । चघाघ दे० (छु०) चोट, आधात, छृत, छत । घास दे० (9०) तण, खर; फूस, पशुओं के खाने का छुण विशेष । विंचकर पेट पालने बाला । घासी, घास दे” (एु०) घास बाला, धसियारा, घास धिग्घी दे? (स्त्री०) द्विचझ्ल, ढर के मारे झुंद्र से स्पष्ट शब्द का न निकलना ।--वैंध ज्ञाना दे० (क्रि०) अस्फुट बेछना, भय से शब्द न निऊत्तना | धिधियाता दे० ( क्रि० ) स्वर भञ्ञ' होना, जड़खड़ाना, अक्रनदून करता, चिछाना, लल्लीचप्पे। करना, अमुनय विमय करना । (भाड़, भीड़ भड़का । प्रिचपिय दे० ( अ्र० ) घना, सघन, पास पास, मीड़ू घिन तद्‌" ( सत्री० ) घणा, घिनान, अरुचि, ग्लानि, अवज्ञा, चीसत्स अरुचि होना ! पघ्रिनाना त्तदू० ( क्रि० ) घृणा करना, नफरत करना, घिनीना दे० ( गु० ) छणाकारी, अरेचक, घृणाजनक | घिनारी ( स्री० ) ग्वाज्षिन नाम का वरसाती एक कीट विशेष । | खिया दे० ( स्त्री० ) घिया सुरहे, नेजुआं, एक तरकारी , का चास | घिरत दे० ( छु० ) घी, धुत, झ्राज्य । घिरना दे० ( क्रि० ) घिर जाना, थेरे में आना, रुकना, फुस जाना, परवश होना, भेथों का उमेंडना | घिरती दे० ( स्री० ) गरारी, कुएँ से जल निकालने की चरखी ।--खाना घूम जाना, चक्कर खाना । घिराना दे० ( क्रि० ) थेरा करवाना, बेड़ा बनाना, हृदुबस्दी करना | घिराव ( ३० ) घेरा । पिच ( पु० ) घी । घिसधिस दे० (स्री०) अनावश्यक्त बिहस्त्र, गढ़वड़ी ! घिखना दे० ( क्रि० ) रगड़ना, खियामा, मर्देन, सलरना । घिसाव दे० (छ०) रखड़, धर्षण, खियाव । घिसावद दे० ( स्री० ) रगड़, रगड़ाहट, घिश्लाव | घिप्तियाना दे० (क्रि०) घसौटना, घर्पण करना । घिस्सा दे० ( पु ) रगढ़ा, धक्का, बालकें का एक प्रकार का खेल, बढलाना । थी तदू% (प०) घृत, घीव, श्राज्य, सर्पि । घीकुआर या घीकुवार तदू% ( स्त्री० ) घुतकुमारी, घीक्कार, औषध विशेष, एक पैधे का नाम । घुग्घु दे० ।8०) पतक्ति विशेष, पण्छुक, पेचापेचक । घुछुज्मा (पु०) डण्लू, ख्॒यं चित्त ल्लेट कर बालकों को घुटनों पर रख खिलाने की एक क्रिया । घुठ्कना (क्रि०) पी ज्ञाना घुठकी (स्त्री०) घोंडने वाली नली । घुटना दे० (घु०) ठेवना, ठेहुना, गोढ़, जाछु, (क्रि०) सास रुकना । [चलते हैं । घुदने चलना दे० (४०) टेहने से चलना जैसे बालक घुठना दे० (०) घुटनों तक का पायजाना। घुटाई दे? ( स्री० ) चिकनाहट, सफाई, ग्रढ़ाई, उत्तमता, (क्रि०) रुढ़ाई | [कराना । घुझाना दे० ( क्रि० ) झुड़ाना, छौर करना, चिकना घुडी या घुट्टी ( न्नी० ) बच्चों को पाचनार्थ पिन्नाने योग्य दवाई विशेष | घुड़ दे” ( छ० ) घोड़ा, घेशटक, अश्व, इच --चढ़ा (गु०) घोड़े पर चढ़ने चाला, सवार, चाजुक सवार | घुंडकनां -दौड़ ( स्री० ) घेडे का दवाडाना, बाजी रस कर घोड़ा दीडाना |-घहल ( छी० ) घोड़ा का रेप, चार पढ़िये का रथ, घेष्शा गाड़ी “-मुद्दों ( गु* ) घोडे ऊ् सप्तान मुंहचाला, किस्वर विशेष, “साल ( एु० ) तवेला, थस्टव०, घे।हे के रहने का स्थान ।--सना (गु०) घुँगर करना, पेंच देना | घुड़ुकना, घुडुकना दे० ( क्रि३ ) दुबाना, घमकाना, घम्रकी देना, रोद जमाना | [विरिस्कार । घुड्की देश ( स्ली० ) धमकी, भभन्नी, मिडझी, धुण तथू० (पु०) ढीढा, कृि विशेष |--नत्तर (ए०) [घुण + भर ] घुन के बनाये अपर, घुन छे चख्षने से जे। झचर बन ज्ञते हैं| अकम्मात्‌ सिद्ध, बिना प्रयत्न छे प्राप्त, इड्नित, दिना परिश्रम के प्राप्त। घुगडी दे" (स्री०) बटन, बुलाप्त या बेतताम, बन्द । धुन तदू्‌* (गु०) काष्टकीढ, काश्कृमि, घुण, वे जन्‍्तु जे काठ वा प्रनाज का सीतर से जाकर पेज्ा कर देते हैं | खिला, पेला[ घुना तदृ० (शु० ) घुना हु, घुन का खाया, घुनाक्षर तर्‌० (६०) घुन के काटे हुए चिन्द, घुने। की काट कर बनाई हुई रेथाएँ। * घुनधुना दे० ( धु० ) एक फिलैना जे। हाय में सलेकर दिलाने से ऋषफन करता देते घुनिया दे० (गु०) घुना, क्‍्पदी | घुप दे" (३०) भम्घकार, ध्रचियारा | घुप्रघुमा दे० (पु०) धुमाव, दालना, फिर फिए बड़ीं। धुम्घुमाना दे० (क्रि०) घुवाना, फिराना, आत फेरना, बात वछटभा | घुपदना देन (फ्री-) मेपों छा धिर भाना,हुदिंन हेता। घुमरो, छुमड़ो दे" (स्वो०) तिमिंरी, चकए, यु, ए७ रैणा, मुष्छों, परिकमा | धुमठा दै* (१०) चक्षर, घुमरी । घुम्मरदि दे० (%०) घुमरी खाते शुमाना देन ( कि ) बइना, दहछाना | घुरकना दे० (०) घुश्कवा, घमझाना, दुबाना | घुरको दे+ (स्लो«) धमकी, मिडकी, घुटकी | घुरघुरा दे० (प०) रीट विशेष, युक प्रकार का रोप शलगण्ड का भेद । न को ६, चक्ष छात्रे हैं । फिराना, बहकाना, घोखा देते ( ३१४ ) बूघू । घुरना देज (क्रि०्) खराँदा सारना, नाझ का रास्ता शब्द्‌ा घुरनी दे० (स्त्री०) घुमरी, तिमिंरी, चकर [देखा ।) घुरुका तदू० (पु०) मीमपेन का पुक चुश्न, (घटोषफद घुलता दे (क्रि०) गरना, पकना, पिघठना, सड़ना । घुलमिल दे० (गु०) मिल गया, घुछ गया, १$ थया | घुजाऊ दे० (गु०) पिवदाऊ, गछाऊ, घने ये।ग्य । । घुल्लाना दे" ( क्रि० ) पिथटाना, गढाना, सडाना, नरस करना, पशाता । घुलावट दे० ( स्त्री० ) पिघटावद | छुवा दे ० (5०) प्ेमर की रूड़े । घुसना दे० (फ्रि०) पैठना, प्रविष्ठ होना, मीतर जाना । घुसपैठ दे० (प०) श्राना जाना, पहुँच, पैसार, प्रवेश । घुसाना देन ( क्रि० ) पेठाना, घुस्ेडवा, ढाढूता, गाडना, क्षगावा ! [छोपना । घुसेड़ना दे* (क्रि०) ठोसवा, पैदाना, घुमागा, घुस्की दे० ( स्तो० ) कुशश, दुशचारियी, प्यमिवा- रियी स्त्री | घुझुण तब (प०) एन्घ द्वम्य विशेष, कुड्डुम। घु इया (स्ी०) अरुई, भरवदी । जिदि। घुंघनी (धी०) घी या तेल में तढा हुघा, चना मदर घुं घरारे (चि०) घुक्लेदए, श्रेगूटियाँ, कुटचित केसे के छिपे यद्ट विशेष प्रयुक्त दाता है! धूं बची देह (ख्री०) छाल रत्ती, गुजा । घूं थे तद॒ु० ( पु० ) श्रेद्रनी का वह भाग जिम्मसे ख्लियो का मुंद ढक रदता है, घेमदा । घूं घर दे* ( घु० ) वाले| $ छुश्ले या मरोद़ | घूं घरू दे" (३०) पैर का पक गद्ना जे। छुमपुम शब्द काने के किये नाचने के समय पढ़ना जाता है | घूंड दे० (६० ) पक यार में पीब वेम्प पानी झादि, यथा--पुक घूंद पीले, मैं खून का घूँट पीछा रद गया। हि । घूं दना दे ( क्रि+ ) निगझना, ज्वीछ ज्ञान, पेट में घूंठो दे (स्थी०) दा घूँट, बाढकों हो औपध देने की प्रात्रा, दाढ़के की औपधि ] घूंस देन ( ६० ) मूँथा, चूदा, मूपिक, रिशयत । । घू सा दे* ( ५० ) मुझ, डक, मुष्टिका, सूछा । । पूछू देन ( ३० ) घुग्कू, ऐेचाप्रेचक । घून ( २२५ ) चेष >+-...ज-_+>7_+++++"+5+++++“+*5+ घून दें" (स॒० ) हेष, विरोध, द्वोद, अनवनाव, खडन पट, ऋयड़ा । घूना दे० ( गु० ) कपरी, द्वोही, छली, घुना | घूम दे० ( बु० ) घुसाव, घेर, फेर । चूम दे० (वा० ) घुमाव, चक्कर | किरदा । बूमना दे* (क्रि०) रहना, फिरना, छुड़कना, उद्योग घूमि (क्रि०) घूस कर, चक्षर खाकर ।त घूमा हुआ | घूर दें० ( छु० ) ताक, देख, निहार, झूड़ा, कतवार, कूढ़ा ढालमे की जगद्द, घूरा । घूरचो दे० (स्त्री०) इलमेढ़ा, फुसाव, उलकन ) घूरना दे० ( क्रि० ) ताकना, देखना क्रोध से आँखें पिखासा । घूरिया दे० ( छु० ) धूरा, छड़ा। घूर्णन तव्‌० ( घु० ) [ घुण + भनदू ] अमण, चाक क्क्े समान घूमना, आस; आनिति, बेश, सिर हिलाना । घूर्णित तब्‌० (गु०) [वर्ण + क्| अमित, घुमाया गया। घूस दे० ( घु० ) बढ़ा मूला, घूछ, रिशवत, उत्क्रच | घूसत दे" ( घु० ) उल्लू का बच्चा, घुसना । घुणा तत्‌० (स्त्री० ) जुग॒ुप्सा, अत्यन्त अ्रवद्देल्ा, अ्रवज्ञा, घिन, रलानि ।--हे (गु०) गर्हित, कुव्लित, चुणा के येग्य ।--स्पद (यु) घृणाकर, घिनाना, क्ुव्सित, निन्दित । [भ्रवश्ञात, निन्दित, कत्सित । चूणित तब» (गु० ) [ घृथ+क अश्रद्धान्वित, छुृण्य तव॒० (मु ) [ घृण +य्‌ ] गद्य, गहँणीय, तिरस्कार के योग्य | घृत तव० ( घु० ) [घृकक्त ] घीच, घी हमारी ( स्त्री० ) घीकुषारी “-नक्त (गरु०) घुत सिश्चित; घृत में डुेया । घुतावी तत्‌ (स्त्री०) स्वर्ग की एक अप्सरा का नाम | घुष्ट तत्‌० ( गु० ) [ घुपूर्न-क्त ] धर्षित, पिस्ा हुआ। च्रूष्रि तब्‌० ( पु० ) [घिष+ ति] घिसना, मारना, क्‍ सुश्नर (स्त्री०) चिप्णुक्रान्ता नाम की औपधि। पघथा दे० (9०) घेधा, फूली गर्दन चाला | चेंढ दे" (छु०) गला, गन | चेंढा दे० (१०) शूकर का बच्चा । चेगा, घेधा दे० (पु०) पलूगण्ड रोय, घेघुआ | चेतल, घेतला दे० (पु०) जी विशेष | चेपना दे० ( क्रि० ) मिछाना, मिश्रण करना | चेर दे० (०) मण्डल, परिधि, घेरा । -घार ( पु० ) विस्तार, खुशामद, चौतरफ घेरना । घेरना दे* ( क्रि० ) चारें ओर छे छेकना । घेरली दे० (स्त्री०) रहैंट का हत्या । [मण, मुहासरा। चेश दे" (०) परिधि, घुमाव, दृत्त, हाता, पेटा; आक- घेलवा दे (प०) घबुआ, खूक | घेवर दे० (पु०) मिठाई विशेष, गुपचुप । चेाँघा दे० (०) शब्बूक, खेखला, सीप । चघेँठना दे० ( क्रि० ) स्पढ़वा, मना, ( घु० ) सोंदा च छोड़ा, भंग घुटना | रिद्॒मे का स्थान । घेसला दे० ( छ० ) खाता, वासा, नीड, पक्षियों के चेखुशा दे० (६०) देखे वेंखला । घेखना (क्रि०) कण्ठाग्न करमे का धारबार पढ़ना । घेघी दे? (खत्री०) जेब, चैन्ी, कोली, धांधी । चेठक तव्‌ (5०) भ्रभ्व, घोड़ा, चुरक्ष, गाजी । घे।दसा दे० (क्रि०) परिश्रम करना, अभ्यास करना, डरविना, मूँड़ना, मरोड़ना, पीसना । (| घे।दती दे" (व्वी०) सढ़िया, लोड़िया, कोढ़ा, बेशटना । चोदा दे० ( इ० ) घोटने की छकड़ी, पीसने का लेटा, कपड़े पर चमक पैदा करने की घस्सु । घेडाला दे" (ए०) घपला, गढ़कड़ ) चेषटटू दे” (०) नमन, मीठा सथुर। ब्रेंट्ट दे" (४०) गुठना, गिदुआ | चेड़ा दे० (छ०) अध्य, घादक, छुक्ा ।+गौड़ी देण ( स्री० ) वह गाड़ी जेः घोड़े से खींची जाय । ( स््री० ) घोड़ी, घुड़िया । घेप्पा दे० (पु०) शोढ़ने की एक चीज, गुप्त स्थान । चेर वद्‌० (ग़॒ु० ) [ घुर +अछू ] भयद्वर, मपानक, विकट, अन्धकार ।--तर ( शु० ) शत्यन्त भया- नक, डरावना ।--रूपी (गु०) भयानक) भीपण, अयज्भर । घेतल दे" (छ०) मद्दा, छाछ, मद्दी, तक्र | [कछमिसता। घेल्लघुमाव दे? (8० ) टाढूमटोल, बनावठ, चघेलना दे० (क्रि०) सिकाना; घेरना | चेलला दे" (एु०) गंदला, छुमिला, गाढ़ा, घोल हुआ | घेप तव5 (०) श्रहीरों की बस्ती, अद्दीरों का गाँव, - तट, ईशानकाण का एक देश, शब्द, ताछ का एक भेद, वग्नाली कायस्थों की पृद अछछ | शा० पू+-२% घेषणा ( १२६ ) चकरातरी चापणा तद० (छी०) [ घुप्‌+खिच्‌ + अनद + था ] | घोदा (एु०) चुरेढ । इच्चै शब्ध प्रकाश, दिदोरा, विज्ञापन, मुनादी, डुसी (“पत्र तंत० (घु०) बंद पत्र जिपमें ब्राण दव्‌* (खी०) नासिक, नाक,।-तर्षण (प*) सुगन्धि सौरभ । राजा की ओर से प्रजामात्न की विजप्ति के लिये : प्राणेद्धिय तब (पु०) धिणक इखिय] नासिशा, कई आज्ञा छिसी दे ६ नाक सुगन्धि लेने वाली इन्द्री॥ घापणीय व" (गु०) [धुप + चनीय] प्रचारित करने | ध्लात तत्‌« (गु०) [प्राऊक्त ] शुद्दीत गरघ, पृष्प योग्य, प्रकाशित काने येग्य । चघासी तत्‌० (पु०) सुसलमान अद्दीर । चोद, घौर दे० (पु) युच्छा, स्तवक्। आदि का दा्घ क्षेमा | | प्रायक ठत्‌* (गु०) [ मा+णक्‌] सन्‍्ध भादक, गन्ध ग्रहण करने बाला, सँघनेवाला । डे कवर्ग का पशुम वर्ण, निह्वामूल से इसका वच्चारण होता है, इस कारण इसे जिह्वामूत्नीय कद्दते हैं । ड्ः डा त्ततु० (पु०) विपयष्तद्दा, दिपय, शिव, सैरव । ह। थे ब्यम्जर्नों में से चवर्ग का पहला पर्ण है, तालु से इसका रुच्चारण होता है । थ ततू» (ध०) समाद्वार अन्योग्याथे, समुच्चय, पचा- न्तर। पादुपूरण, श्रदघारण, द्वेत, और, पुन , भी, (पु०) कपुन, चन्द्रमा, चैर, दुजेंन | : शइ (पअम्योे हाथी इसने का पक इशारा । चद॒ते (१०) चैत्र मास | [ का सका । चडक (पु०) चौडा, बेदी +--(स्वी०) दौडी सिपादियों चउर तदू० (६५) चामर, सेरदुट, राजबिन्द विशेष चौर, चबेंर चउतरा (३०) बरतरा। घड़रा ( १० ) भामडवतादि रा चयूतरा, चावल का पक प्रक्वार का चना | चक त३* (पु०) चकया प्री, अपने थ्रधिकार की मूमि, क्रयविक्यध्यान, सेतों की सीमा का भेद, तागामा (३०) पद्दा, अधिछारपत्न ] चकह तदु० (स्वरी-) घिलीगा, भोर काठ या टीन की यर्नों चढ़ई हें छम्दी दोरी बाँध कर ऐसे फेझले हैं कि यह चहई भपने धाप डोर छप्रेट खेती है, पद्दिविशेष, हवा वी मादा | घकचका तदू« (गु०) यदरा, उम्दज्न, स्वच्छ, निर्मज, प्रदशाशभय, दीप्तिमान । घकल्ोंघ (पु०) चकर्चौघ, हथा बपका । चकचको दे (द्वी०) करताक्ष नाम का याजा । सकहछुदी दे" (स्त्री०) चदुस्दरि चकड़वा दे* (५०) चच्छल ! अआकताना दे० (क्रि०) हुअचौरा, बैठता । चकती दे० (द्वी०) गेंढे की खाल, फर्कि, पैय्द । थकता दे० (स्री०) चिन्द, शरीर पर के गेल दाग, दाँव से काटने का दाग । [दवना) आकर ( क्रि० ) चकित होना, चैकपकाना, विस्मित अकमाचूर दे (३० ) दुक हुरु होना, दूर्य होगा, द्वृब्ना । (वि) अत्यन्त आरत। चक््पक तत्‌० (त्रि०) चकित, स्तम्मित। [विकमा) अक्रपफाना ( क्रि० ) विस्मित ढेइर चारों श्रेर चक्मा दे* (०) पक प्रडार का उनी कपड़ा, मेरा» चेाषा, ज्ञाति विशेष ! हे घकरवा दे० (१०) इल्ा गुछा, बसेदा, पेर, उेचर। . “-मचाना ( वा> ) घुमधघांम काना । चकरा देन ( ३० ) दाह का बढ़ा, पानी का संवर) ( वि० ) चैड़ा । [पकाना, घदड़ाना। चकराना ( क्रि० ) चक्कर खाना, आस्त होसा। चके- चकरानो दे० ( श्री६ ) रहलई, टदकनी, नौकरानी, दासि, सजूरिय । बकरी ( रर७ ) चक्राडरित सपना 22 चकरी तदू० (स्री० ) चक्की, चक्की का पाट, लड़कों | चक्कस दे० ( छ० ) चिढ़ियें का अड्डा । का खिलौना विशेष । चकल्ई दे० (स्री०) चौड़ाई, चकलाई । चकतल्ा दे० (पु०) पतुरियें का महल, वेश्याक्षय, पाद और सूत से घना कपड़ा, देश क्ा प्रास्त, अदेश, सूबा का चका--क्ाढ या पत्थर का, जिस पर शेटी पूरी बेली जाती है। (जि०) वौड़ा ।--दार (घु०) शासक, कर बसूल करनेबाला अधिकारी | चकलाई दे" ( ख्रो० ) चौड़ाई, फैलाब, विस्तार । चअकलाना दे० (क्रि०) चौड़ा करना, चौड़ाना फैन्लाना । चकवा तदू० (४०) चक्रवाक, हंस जाति का एक पक्ठी। चकदथी तदू० (स्ली०) घकवा की मादा । सका तदू्‌० (एु०) चक्र, पद्टिया, कुम्हार का चाक, रोटी पूरी थेलने का चकला | सकाचयक दे० (ख्त्री० ) पूर्णता, प्ण, तृप्तिकारक, जैले--" चक्षाचक घनी है, चकाचक है । ? चकारचोंथ दे० (स्वी०) उजास, जुगरमगर, उजात्ता, -: तिलमिछाहड, तिलमिली । चकादू तदू० (पु०) चक़व्यूद, युद्ध के समय सैनिकों को रणाछेन्न में विशेष ढक से खड़ा करना । खकार ततच्‌० ( 9० ) वर्णमाला का छुठर्वा व्यक्षन । चकावी दे ( स्वी० ) मैंसिया दाद । अक्वित तव्‌० ( गु० ) अवम्भित, विस्मित, आश्रर्या- र्वित, व्याकुज, हैरान । चअकेरा दे० ( गु० ) बड़ी अखि वाज्ञा, घड़आखा | अकोन्ना, चकेसरा दे० (०) नीवू विशेष, बढ़ा नीचू । चकेार तत्‌० (पु०) पत्ति विशेष, तीतर का एक भेद, यह चन्त्रमा को देख बहुत प्रसन्न द्वाता है। यह आग खाता है। क्षय कहते हैं की यह पर्णिमा के दिन यदि किसी लिजारी ज्वर रोगी की ओर प्रसन्ञता से ताक दे, ते _... उसका ज्वर छठ जाता है और घुनः ज्वर नहीं झाता । चकॉड़ दे” ( छ० ) चकादा, एक प्रकार का पौधा, जिससे दाद छूट जाती है, चकाचोंध | चक्क तद्‌० (पु०) पहिया, चकक्‍छा, चाक चअग्रकर, ज़क्र | (पथ में) चकवा, कुम्हार का चाक, दिशा | चअक्कर तद्‌० (पु०) चाक, गेलाकार घेरा, सण्डक्ाकार सद्क, श्रक्ष पर घूमना; जटिकत्य, छुसरी, जंजाल, अर विशेष । चक्का दें० (० ) चक्र, ग्राड़ी का पहिया, बहा चिपदटा टुकड़ा, थक्‍झा, अधरी, ईटा पत्थर या कछ्ूडु का ढेर जो माप के लिये क्रम से हृगाया गया है। चक्कान दे० ( ग॒ु० ) गाढ़ा, धक्का, श्रमित, धकित । चक्की दे० ( स्ली० ) पाठ, जाता, आटा पीसने के लिये पत्थर का यन्त्र । चक्कू दे० (स्त्री०) छुरी, चाकू । चक्कवे दे० ( छ० ) चक्रवर्तों राजा, बदयास्त प्यान्‍्त राज्य शासन करने घाला । इस शब्द का प्रयोग रामायण में किया गया है । चकऋ तठतत्‌० ( 9० ) रधाझ्न, रथ का पढ़िया, कुम्हार का चाक, अ्ख्र विशेष, सुदर्शनचक्र, जल का घुमाव, त्तगर का फूल, मण्डल, ध्यूहरचना विशेष, हस्तरेखा विशेष, राष्ट्र, देश, येगानुसार शरीरस्य ६. पक्ष रेखाओं ले बने चौखूदे या गोल खाने। सामुद्रिक के श्रजञुसार हाथ पैर में महीन रेखाओं के धूमे हुए शुमाशुभ फल्तप्रद्‌ चिन्ह, अमयण, दिशा, वर्णवुत्त विशेष, घोखा, जाछ +-धर (क्रि० ) विष्णु, बाजीयर ।--पाणि ( श॒ु० ) विष्छनारायण, श्री- कृष्ण |-वबत्‌ ( ह्र० ) चक्राकार श्रस्त, चक्र के खमान ।--चर्ती ( ० ) सार्वभाम, समुद्व पर्यल्त अजा पालन करने बाला, सम्राट्‌ बशुआ का साग। +वाक ( ए० ) पक्षि विशेष, चकबा |--वांत सद्‌० ( बु० ) हवा का चक्कर, बवण्डर वाल (ए०) ले।कालेरक पर्वेत, सण्डछाकार, दिक्‌ समूह । --च्द्धि ( स्त्री० ) बुद्धि पर बद्धि, बाढ़ पर पाढ़, सूद दर सूद (--ध्यूद (३०) झुद्ध के लिये मण्डला- कार घेना को सजाना, चक्रव्यूह के युद्ध ही में सोलह घपे के पीरश्रेष्ठ अज्ञेनपुनञ्न॒ अभिमन्यु के नराधम दुर्योधन के पत्त के राजाओं ने मित्न कर मारा था +-छलत्तण, ( स्त्री० ) ग़ुरुच, अन्ठतछता । अक्ा ठच्‌० ( स्त्री० ) समूह, गिरोह, गेली [--कार (ग्रु०) गे।छाक्ार, घेरु ।ह्ढ (०) हंस । चक्राद्लित तच्‌ु० ( वि० ) जिसने अपने चाहुमसूल पर चक्र का चिन्ह छंगवाया द्वे । श्रीवैष्णव, श्रीरोभा- चैक्रित ( रेरेद ) चदकदार न शुजाचार्य तथा श्रीमध्वाचायं सम्पदाय में चक्र | चचुलाई दे० ( स्त्री० ) चचेडा, तरकारी विशेष । अट्टित कराने का नियम है । चकित तदू० (गु०) चकित, विस्मित । चखक्रीं तव्‌० ( घु० ) विष्णु, चक्रवाक प्ची, हुम्भफार, कुम्दार, सप, तेल्ली, किलेदार, मतन्नी | ( गु० ) चक्रविशिष्ट चक्रेजा तद॒« (गु०) गे।लाकार,चक्राकार, गाल, चतुल । चच्चु तत्‌० (प०) आँख, नयत, नेत्र, लेचन । (१ ) भजमीढ वेशी एक भूपति, (२ ) पूक नदी का नाम जिसे ग्रावसस कदते हैं । चअज्नुप्य (वि०) भ्रलि का द्वितकारी, मनेहर । चात्न तद्‌० (पु०) चछ, अप, नेत्र । घन तदू० (१०) श्राँख़्र, चसख, चश्लु, यथा-+* चपत चखन वाडा चांदनी में सडा था ?? (सानखाना) | चसएना दे० (क्रि०) स्वाद क्षेमा, चीखना । चज़ाचखी दे० ( स्त्री० ) बैर, विरोध, रूगढा, टठा- खायदढाँट । लिगाना, चासना । चजख्ताना दे० ( क्रि० ) सिलाना, भोजन कराना, चस्का चगल्लाना दे० ( क्रिए ) चनछाना, दुति से पीस कर खाना । चहक्रमण्य तत्‌० (५० ) [ चं+ ऋण + अनट ] पुन पुन अम्रण, बाधचार भ्रमण, चक्कर छगाना ! चड्ढू तब» (वि०) शेमन, सुन्दर, दत्त, पढ़, रोगद्दीन, सुस्थ, दे* (४० ) गुड्टी, पतक्न, दुरमिलापा से मत्त द्वोना | यया--/ बद चड़ू पर चढ़ा है, ? / जब वह चड्ढ पर चढेगा, ते आप दी उसहझी दुग्गति हा ज्ञायगी, ? / इसे तो मैंने चड्ढ पर चढ़ा लिया। ” चड्ढा दे* (वि०) भक्ना, मुसी, निरोग, स्वस्थ । चटगूर दे० (गु०) उत्तम, श्रेष्ठ सरस, चाया, बढ़िया, मनेदर | [इल्षिया, कुछ रखने का पात्र | चट्टेंस, चड़ेंरी दे० ( ४० ) दास भादि छा बनी छोटी चड्ठेंगा दे (५०) शाँचा, टोकरा, दारी । चड्ढेरी देन ( स्त्री० ) टोघरी, डकिया, तय चादि का सना पास विशेष । चचा द९ (१०) पिठा का भाई, काका, ताऊ, पिलृब्य । (छत्री६) घी, चाचा की स्त्री, काी । चदोर दे+ (१०) रेखा, दण्दीर, छकीर | चचेरा दे० ( पु० ) चाचा का, चाचा सम्बन्धी, अपने सस्वन्धी से सम्बन्ध रखने वाढा । चचेरना दे (क्रि०) चूसना, नियादना, निरालना । चस्चनाना दे? (क्रि० ) चिल्लाना, चनचन करना; बकना | चस्चनाहद दे० (पु०) टीस, भुंछुछाइट, चपक । " चस्चरोक लत्‌० ( घु० ) [ चत्धरी + क, ] अमर, मधु कर, श्रत्ति ॥ चज्घचल तत्‌० (वि०) प्रस्थिर, उतावन्न, चपल, घाड्ाया हुआ, नटखट (पु०) हवा; कामुक, रसिक्र, छसद | ता (स्त्री०) भस्थिरता, चद्धलत्य, नटखटी। चश्चला तव्‌० (स्त्री०) विद्युत, चपछा, विजलली, लक्ष्मी, पिघली, चटपटी । [चपछता, घुलघुलादट । चश्चलाई तद० ( स्त्री० ) एष्टता, ढिठाई, दइण्डता, चत्चलाना तद्‌० (क्रि०) चश्चल द्वोना, भ्रस्थिर होना। चश्चलाहद तदू० (स्त्री०) अस्थिरत्ता, चपछता । चज्था तद॒० (स्प्री०) नरकट की टाई ।--घुरुप (3०) तुण का मनुष्य जेः पशु पद्दी भ्रादि के डरवाने के लिये खेठे में गाडा जाता है । चच्चु तद्‌० (स्त्री०) पत्नी का श्योठ, पची का ढेठ, ठेर, चोच, (पु०) चेंच, रेड का बच, द्विरन। चर दे० (श्र०) तुरन्त, शीघ्र, त्वरित, झदटिति, फटपट । अटक तत्‌० (स्त्री०) पह्छी विशेष, गैरिया पी, चमक, घडाका, कटक, कडाका, फुरती, जरदी, भडक, शोना, सैन्दर्य, करिपत शे।भा ।--मठक (स्त्री०) बनाव, >इक्षर, नाजनपरा, ठसके, चमकेद्मक ॥ चदक रुव० ( पु ) संस्कृत भाषा फे एक कवि का नाम | काहण ने राजतर्निणी में लिखा दे कि # मनाहर, शह्ददत्त, और सन्धिसान, जयापीड़ की सभा के कवि थे | इससे चटक का समय भी जया पीड़ का राज्यज्ाल अर्थात्‌ सातवीं सदी का धन्तिम भाग ही निश्चित माना ज्ञा सऊता है | यद कश्मीर निवाी थे। इनके बमाये ग्न्य अमी तह नहीं पाये गये हैं। अतपृष यह नहीं कद्दा ज्ञा सकता कि इनके बनाये प्रन्य हैं कि नहीं। कुछ थनुसन्धिस्सु (खे|जी) इनका नामान्तर चाज्क यतडाते हैं । चदकदार दे० ( बि० ) चटशीला, मइकीला 4 सठकना ( शरह ) चढ़ना चटठकलना दे० ( क्रि* ) कड़कड़ाना, चड़कना, टूटने या फूटने का शब्द, दरार पड़ना, ऊँसली फोड़ता, अन- बन द्वोना, खटकना । (पु०) थप्पड़, धष्प, धप्पा, घोल, तमाचा । चटकनी (स्त्री०) किवाड़ बन्द करने की कुंडी विशेष | चदकमदक (स्त्री०) श्ज्ञार, चमक, सजघज | खटकरना दे (क्रि०) छुरत करना, रूट निगल जाना। चटका दे० ( ए० ) देटा, चट्ठी, पप्टा, दाड़ा, मेरा, गरगौआ पत्ची, गैौरैया । [चिढ़ाला, कुपित करना | चटकाना दे ( क्रि० ) ताड़ना, उचाटना, छोड़ना, चटकारना दे० ( क्रि० ) पशुओं का उत्तेजित करने का शब्द विशेष । जिसकदार ! चटकीला दे० ( गु० ) चमकीला, सुन्दर, मनाहर, जंट्खना दे० ( क्रि० ) बीच से दूटना, चटकना | चट्चंटिया दे० (गु०) हड़बढ़िया, उचुज्, उत्तावक्वा । चअदठना दे? (ए०) चटोरा, पेदू। अटनी दे० ( स्त्री० ) भोजन का सेद, चाटने की वस्तु, छोटे शिशु छे खेलने की वस्तु । चठपढद दे० (अ०) मटपट, शीघ्र, चुरन्त | चठ्पदा दे० (स्त्री०) फुर्तीछा, तेज़, शीध् काम करना, मेन का एक भेद्‌ विशेष । लिड़फड़ाना । चटपटाना दे* ( क्रि० ) ब्याकुछ होना, फढ़फड़ाना, चदपदाहट दे० (सत्री०) ब्याकुलतता, शीभ्रता । चट्पंटिया दे० (यु०) फुर्तीला, चत्तर । चदापकी दे० ( स्त्री० ) उततावली, इड़बड़ी, घबड़ाहट, फुर्तीली, चश्चछ) चपल ! अव्याना दे० (क्रि०) चटाना, सान घराना | चद्शाल दे० (स्थ्री०) छोटे घालकों की पाठशाज्ञा । चदसार दे० (स्त्री०) पाठशाला | घट तदू० (वि०) चण्ड, चाज्माक, सयाना, घूर्च छुदा हुआ | [तिनकों का बना विद्लाना ; चटाई दे० ( स्त्री० ) आस्तरण विशेष, पाटी, साथरी, घटाक दे० ( स्त्री० ) घढ़ाका, खड़ाका, घारनाद॥ चढाका दे० (पु०) घड़ाका, कड़का, तढ़ाका । चदाचठ दे० ( पु० ) शीघ्र शीघ्र, लगातार, चटाचट शब्द, मतिध्वनि । [विरोध, चैर । चद्ायन दे० ( स्ली० ) शिक्षा, पत्थर, पापाय, उ्मोघ, घखद्ापडी दे० (स्त्री०) चण्पटी, शीघ्रता, फुरती, किसी फैलने वाले रोग के कारण बहुत से लोगों की शीघ्र शीघ्र झुत्यु का हेना।. [चासे बाका | चटिया दे० (ए०) विद्यार्थी, शिष्य, बात्र, चेज्ा। (यु०) चअटी दे० (स््री०) ध्यान, स्थिरता | यथा--निघरटी रुचि मीचु घटी हु घटी कगजीव जतीन कि छुटी चटी ॥ “-रामचन्ध्रिका । चद्ठु तच्‌० ( घु० ) खुशामद, उदर, वत्तिमों का एक आसन, सुन्दर, ममेहर । [तत्‌० (सत्री०) बिजली । चदठुल तव्‌० ( गु० ) चपल, सुन्दर, मनोहर ।“- चड्यर या चणारा दे० (ए०) स्वादले|छुप, लेभी ।--- पन दे० ( छ० ) भच्छी अच्छी चीज़ें आने का व्यसन, स्वादलेलुपता । चटोरी दे० (सत्री०) चाटने वाली, स्वादी सत्री | चद्ट (वि०) तुरन्त, समाप्त, छुप्। (सुद्ा०)--करना समाप्त करना | [जिटाई, खुला मैदान, दाग । चट्टा दे० (०) विद्यार्थी, पाठाशाज्रा का छूड़का, पेज्ला, अरद्टान दे? ( छु० ) पत्थर का छोटा हुकड़ा, दान, शिक्षाखण्ड | अद्धावद्दा दे” (०) एक प्रकार का खिलाना । अद्डी दे* (स्री०) चटका, घटती, टेदढा, हानि, पड़ाव, स्लीपर जूती, पैर का ज़नाना गहना | चड़ दें० ( ४० ) छकड़ी या बृक्त की डाली हूटने का शब्द, तमाचा, धप्पढ़ । चड़चड़ दे” (छ०) चटचठ, पटपट, टेंटें, चकशक | चड़चड़ाना दे० (क्रि०) फादना,तड़कना,द्वृथ्ना, फूटना । चअड़पड़ाना दे? (क्रि०) फटना, फूटना । अड़वड़ दे० (पु०) वद़्बढ़, वकबक । चड़वड़िया दे० (ए०) चक्की, वकवादी, गप्पी, क्बार । चड्ढ़ी दे० (श्वो०) लड़कों का खेल जिसमें जीता हुआ लड़का हारे हुए लड़के की पीठ पर लदक्र पूर्व निर्दिप्ट स्थान तक जाता है ) चद्इ दे० ( क्रि० ) चढ़ता है, ऊपर जाता है, सचार द्वोता है, घाचा मारता है । चढ़के दे० (क्रि०) जान बूछ के, चढ़कर, बलात्कार से | चढ़त दे० (स्थ्री०) देवता की सेंट चढ़ता है | बढ़ती दे? (स्वी०) ब्भ्, अढ़वारी, बुद्धि ! चढ़ना दे० ( क्रिए ) भारोहण करना, ऊपर जाना, धादवा करना 4 चंढ़नी ( २३० ) चगयडावज चढ़नी दे० (स्री० ) छद्ाई की तैयारी, शप्र पर चढ़ाई करना | चढ़नदार दे (पु०) चढ़नेवाल्ता, आरोही, क्ंघार | चढ़यैया दे० (प०) सवार, श्रध्वारोद्ी, घुड़चढ़ा | चढ़ाई दे० (स्ली०) चढ़ाव, धावा, शत्रु पर चढ़ ज्ञाना, उब्नति, चढ़ने का भारा । चढ़ाना दे* (क्रि-) इठवाना, वक्षिदान करना, श्रपिंत करना, दोलक थादि बाजे। का कसना | चढ़ानी दे० ( क्रि० ) निवेदन करना, बढ्षिदान, इस शब्द का प्रयोग विशेषत ब्जभाषा में होता है । अढ़ाव दे० ( पु० ) इठाव, पढ़ाड की चढ़ाई, धघावा, ज्वर आना, बढ़ती, बृद्धि, साधुओं की स्नान यात्रा को विशेष पर्वों में द्लोती है | चढ़ाचा दें* ( पु० ) बर की श्रेर से कन्या के लिये विवाह के दिन दिया हुआ गददना कपड़ा आदि, पुज्ञापा, दैवता पर चढ़ाई वस्तु, उत्साह । चढ़े दे० (क्रि०) चढ़ जाय, सवार छ्लो, ऊपर आये, घावा मारे, चढ़ाई करे । [भभिमान में चुर । चढ़ेत दे० (प०) चढ़वैया, घढ़ने बाला, घढ़ा हुआ, चढ़ेता दे* (पु) चढ़चैया दूसरे! के घोड़े फेरनेबाला, चाहुक सवार | चढ़ोंवां (१०) एढी चढ़ा जूता। चणक तत्‌० ( घु० ) चना, बूट, भरद्च विशेष, अभ्व भोजन घोड़े का दाना, एक झुनि का नाम--त्मज (पु०) बास्याथन मुनि । चढ़ तन्‌० (गु) पवत्न, भ्रचण्ड, उग्र, तीश, तेजस्वी, तेजिल, भयानक, डराबना, अतिक्रोघी, तीखा, सीक्ष्य | ( पु० ) ताप, कास्तिश्ेय, इमली का घूचच, कुबे( का एक पुत्र, शिव, का पक गण, विन्णु का एक पाषेद, राम की सेना का पुक चानर, सच्चाट शयिवीराम का पुर सूरसामन्त, पृक देश्य का नाम ता (श्री*) इप्रता, कठारता, कड़बाइट, सीक्ष्यता । हि चयड़ तव॒* ( पु० ) विश्यात शुम्मासुर का प्रधान सेनापतति । इसके छेटे भाई का नाम मसुण्ड था। चण्ड के मारने ही से मगयती छा चण्डी या चण्दिका नाम पढ़ा हं।(३) सेवाद के राना छाडा के पुक घुध् । राजपुताने के इतिहास सें यह दूसरे भीष्म सममे जाते हैँ । मारवाद के राजा ने चण्ड का लड़की देने की इच्छा से नारियल भेजा था | ल्ञाघ्ा ने हेंध्ी में कदा कि हमारे किये ये थोडे ही नारियल ढाये होगे इस वात की सपा उसी समय चणड के छगी, चण्ड ने प्रतिज्ञा दी कि मैं इस लडझी से व्यादद न करूँगा | पिता ने बहुत कहा, परन्तु उण्ड श्पनी प्रतिज्ञा से वाल मर भी नहीं टले, भन्त में राना ने कद्दा कि यदि विवाद नहीं करोगे, ते राज्य से भी तुम्हें द्वाथ धोना पड़ेगा, दृढ़ भ्रतिज्ञ चण्ड ने इस बात फो प्रसन्नता पूर्व स्वीकार किया, उस ह#टूकी से भ्रागे पीछे सोचकर राना ने विवाह ऊिय्रा | नयी महारानी के हृदय का खटऊा दूर करने के लिये चण्द अपनी प्राणोपमता सातृमूमि छोड़ने को शच्यत हुए चोर नयी रानी से कद्ठते गये कि दुख पढ़ने पर मुमे स्मरण करना | हुआ मी ऐसा दी । नयी रानी के पिता रणमल और भाई जोघा के ग्रावरणों पर मेवाइ के सरदार सन्देह करने छगे, कुथ विने| के बाद रानी की भी भरें खुलीं, इसी समय उसने चण्ड के पास पत्र भेजा, चण्ड थाये, और मेवाह की पविन्न राजगद्टी को घड़े भयानक पहुू में फ्रंपने से बचाया । चणडकर (पु०) धूय । चणडकीाशिक (पु०) विश्वामिश्न का नाम । चयडता (स्त्री) प्रखतता, तीक्ष्षता, श्रधिक क्रोध । चणडमुयठ (घु०) चण्ड और सुण्ड नामक दो राचस थे लिठिन, किए्ण । चणडाँशु तब्‌० (३०) [ चण्ड #चैश ] सूर्य, दिनसर। चयहा बव्‌० (ख्त्री० ) नायिका विशेष, सगवनी के शक्तिमूत, भ्र्विध नाविकाओ के पन्‍्तर्गत नापिका विशेष, सुगन्धि द्वप्य विशेष, शब्धपृष्पी, शपेतदूर्वां। * पुक नदी का नाम । [चोद्वी, बहँगा। चयण्डातक तत्‌० ( घु० ) पदनने का पद्च, कुष्वकी चगडाल तत्‌० ( पु० ) वर्णंसकर ज्ञाति विशेष, थद्ध और घाह्मणी से उत्पन्न, अधम, पण्चमवर्ण, पविक अन्त्ज, देम । (स्ी०) चण्डालिन, चण्डाली | चगडायल दे ( छु० ) सेवा का पिचुला भाग, पीछे रहनेवाढ्य सिताह्दी, चीर सिपाही, संदरी । चणिडिका चण्डिका तत्‌० (स्तरी०) हुगां, कड़ाकी स्त्री, यायन्नी देवी । (बि०) ककशा, लड़ाकी | चगडी तस्‌० ( स्त्री० ) दुर्गा, सगवती, यौरी, पर्वेती, गिरिज्ञा, क्रोध करने वाली रुकी, कापना स्त्री, कलूडी |--छुछुम (पु०) छाछ कनेर का फूछ |-- मण्डप ( पु० ) भगवती की पूजा का स्थान, देवीयूड । खगणडु तत्त> (पु०) सूपक, मकंट, छोटा बन्द्र । चयड्ट चेंडू दे” (प०) नशे के लिये नत्ती के द्वारा पिया जाने धाल्ला अफीम का किवाप्त | चणइूल, चंड्रल दे० (पु०) एक खाकी रह्न का पच्ची । चगडेल द्वे० ( छु० ) पुक प्रकार की पाछकी, पक्ति विशेष, ढेल्वा | _ चह॒ुःपाश्वे तत्‌* ( ० ) चतुर्दिक, चारों तरफ । चत॒/शात्र तव्‌० (घु०) गृदविशेष, सुनियों का भाश्रम। चतु्पापि तत्‌० (स्वी०) चार श्रधिक साठ, चौसठ, ६४, कह्नामक उपविधा (देखे! कत्ता) सज्गीत विद्या चत्ुर तव॒० (ग्रु०) कार्यक्रम, ्रातषस्य रहित, दत्त, पड़, निषुण, धूत, बुद्धिमान, हेशियार, चालाफ ।--ता (स्त्री०) प्रवीणता, दक्तता, स्यानापन | चतुरई तद्‌० ( स्त्री० ) चतुरता, प्रवीणता, दक्षता, चूततेता, होशियारी । चतुर् तव० (०) हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल इन . चार भागों में बढी लेना, शातरंज का खेल ।-->्नी ( स्त्री ० ) चार श्रैगों वाली सेना, चतुरक्ः सेना, सेवा की संख्या विशेष । अतुरब्भुत्त तत्‌० ( गु० ) चार अगुल का, चार श्रेगुल परिमाण विशिष्ट, अमछतास | चतुस्णुज (घु०) विष्णु, चार भुजावाले | चतुसमुख (०) चार सुँदधाला, ब्रह्मा । चतुरस्त तत्‌० (ग०) अतुष्केण चैंकाना, चौखूंा । चत्तुरवस्था तत्‌० (स्त्री०) चार अ्रवस्थाएं, जाअच, स्व॒प्त) सुपृप्ति और छुरीय । बाल्य, औढ़, यैवन और इद्ध । अत्ुरा तत्‌० (स्प्री०) सयानी, अवीणा, दक्चा ! चतुराई तह० (स्त्री) दक्षता, निपुणता, चाज्ञाकी चअतुरानन तत्‌० (ए०) [ चतुर + आवन ] चार झुख चाल्म, बल्मा, आत्मनूू, विधि, चिघाता । ( श३१ ) चतुभुंज चतुराश्रम तव॒० (पु०) चार आश्रम, बह्मचर्य, गाहस्थ, चानप्रस्थ और संन्यास । चतुरास तच० (स्त्री०) चारो ओर, चहुँओर । चतुरासी तदु० ( गु० ) भ्रस्सी, चार, ८०७, संख्या विशेष ।-येनि (गु०) चेराली प्रकार के प्राणी, यथा-- दोहा # नव जलचर दश व्यामचर, कृमि ग्यारह वन चीसख, ये चौरासी जाविये, मनुज चारी पशु तीस!” चतुरुपवेद्‌ तध्‌० (9०) चार उपवेद, वे ये हैं, गान्घर्व- बेद, धआयुर्वेद, धजुवेद और धर्मशास्त्र । चतुर्गूण तव० ( ४० ) चारगुणा, चौगुना, एक को चार से गुणन | चहुर्थ तत्‌० ( घु० ) चार के पूरा करने वाली संख्या, चौथा, चौथी ।- कात्त (प०) चौथा काल, उपचाल के दूसरे दिन की रात्रि ।-- वस्था (स्त्री ०) बुढ़ापा, बुढ़ाई, मरणकाल । चतुर्थी तत्‌० ( स्त्री० ) तिथि विशेष, चौथा । चतुदंश तव्‌० (गु०) च्यर और दश की संयुक्त संष्या । € गु० ) चार अधिक दश, चौदह, १४ ।--विद्या ( स्त्री० ) चौद॒द विद्या, यथा--छः प्रह्मों से युक्त चार वेद, धर्मशास्‍्त्र, पुराण, भीमाला और न्याय ये अत्तु्दृश विद्या हैं |--रल (प०) दौदह रल जे सम्रत्र थे मिकाले गये थे, थे मे हैं, अस्त, चन्द्रमा, लक्ष्मी, घन्वन्तरि, पे्‌रावत, कैस्तुभमणि, उच्चैश्रवा, शह्झ, अप्सरा, कामधेच, कल्पतु, मदिरा और विप ।--मल्ु (३०) चौदद स॒श्टिकर्ता सचु० यधा--- स्वायम्भुच, खाराचिफ, उत्तम, तामस्, रैवव, चाक्षुप चैवस्वत, सावणि, दच्चलाचर्णि, ब्रह्मपावर्णि, घर्म- लावर्णिं, रुद्धसावर्णि, देवसावणिं, और इन्दर- सावशणि ।--क्षेक (प०) चौदह लेक, सप्त, खर्ग और सप्त पाताब, यधा--भूतल, ख्रुव:, स्वः, मदद: जन) तप, सत्य, ये सात स्वर्ग लेक हैं। श्रतत्त, वित्तल, सुत॒लछल, रसातल, चलातलछ, सहातल और पाताल, ये सात पात्ताल दैं।.. [तिथि, चौदस । चतुर्दशी कव्‌० ( स्त्री० ) [ चहर्‌ + दश ] चौदढ़वीं चहुसुंज तद॒« (पु०) चारश्ज्ञाघारी, विष्णु, नारायण, भीक्षष्ण, रेखागणित का एुक स्वरूप, जे चार रेखाओं से घिरा रददता है ,--क्षेत्र (पु०) चौमेंड़ा जेत । चतुमुजा चतुर्मुजा, चतुर्मुजी तव« ( स्त्री० ) चार सुजावाली अर्थात्‌ देवी, भगवती | चतुर्भोजन तव० (9० ) चार प्रकार का मोजन, यथा--भेज्य, भक्ष्य, लेहा, चोप्य । चतुमूंस़ दव॒" (पु) चतुरानन, बह्मा, विधाता, विधि । चतुम्तुक्ति तव* (स्त्री० ) चार पह्चार की सुक्ति, सायुज्य, सालेक्य, सामीष्य और सारूप्य । चतुर्येनि तत० ( पु० ) चार प्रकार से इत्पन्न जीव, स्वेदज, अण्डज, उद्धिज भौर जरायुन । चतुर्वंद त्तत्‌० (पु०) चारो वेद, साम, यजु, ऋक, और अधवे ।-- (६०) चार वेद जाननेवाला, घतुवंद- घक्ता, ग्राह्यण भेद, माथुर ब्राह्मण, म्रद्माणो का अछ विशेष । चतुर्घग तस्‌० (पु) पृण्पार्थ चतुष्टप, घर, भथे, काम और मेत्त िप्निय, वैश्य और श्रूद्ध । चतुर्घर्ण तत्‌० (पु०) ब्राह्ययादि चार वर्ण, माद्मण, चतुर्विण तत्‌० ( गु० ) चौवीसर्वा, चार और बीस । चतुर्चिशति तव० (गु०) चौदीस, २७। चतुर्घिघ तत्‌० (गु०) चार प्रकार, चार तरह | चत॒ुप्क (वि०) चीपदछा (१०) एक झकार का सवन । चतुष्फेय तत्‌० (१०) चीकेन, चौरस । चतुष्टय (पु०) चार की संप्या, चार घसतुओ का समूह | चतुष्पय ततू० ( घु० ) चौरादा, चौक, चार मार्गों के मिलने का स्थान | चतुष्पद्‌ तत्‌० ( धु० ) पथ, चौपाया, चार पैर बाला । --धर्म ( 4० ) चार अन्लों से युक्त घमें, धर्म के चार प्रह्ष ये हैं - विदा, सत्य, तपस्थ॥, दान | चतुप्पदी ततद्‌5 ( स्त्री० ) चौपांई, छन्द, चार पाद का गीत, चार पवि वाली | चतुस्मम्पदाय तव० (घु०) वैष्णवें के चार प्रधान सम्प्रदाय रामाजुज, श्रीसाप्व, रद और सनक | श्रीरामानुत्र श्रीपझ्षाष्व, क्‍ ध्रीषलमीय । चतुस्सदम्य तर० ( गु० ) चार हजार, संख्याविशेष, ४००७! [बच्षपेदी ] चत्त्यर तव॒* (पु०) [ चत्‌ + वा ] चौरम्टा, पज्चस्थान, चदरा दे* (ए०) चादर, चइर | घाद्रि तद्‌* ( पु» ) फपूर, धन्द्रमा, हाथी, सार । ( २३३ ) चद्ध चद्र दे० ( स्त्री० ) चाइर, किमी धातु का वा चौड़ा चौकेर पत्तर | [ज्ाना, सिलना, चटकना | चनऊना दे० ( क्रि० ) चटक ज्वाना, फट ज्ञाना, फूद चना नदू० ( पु० ) चणा, चण5, बट, भद् विशेष | चन्द तदू० ( घु० ) चन्द्रमा, चन्द्र, चाँद, शशघा, निशाकर । चन्दून तत्‌० (पु०) [ चस्क + झनदु ] स्यताम सिद्ध बूत्त विशेष, श्री खण्ड सलयागिर, गन्धसार, सुपर न्थिकाष्ट, वानर विशेष, रक्त चन्दन, बडा तेगा | चन्‍्दूना दे० (पु०) तोता, सुआ, श॒क, पक्िविशेष । चन्दुला दे० ( गु० ) गजा, खत्वाद, जिसके सिर पर वाल नहीं * चन्दवा दे० ( पु० ) चांदनी, छाया, मेधाडम्वर, गेल आकार की चकती, पैवंद, मेःर पद्ध की चन्द्रिका _ चन्‍्दा तद्‌० ( पु ) कर, दान, उगाईी, संवादपत्रों का वापिक सूद्य, सहायता, चन्द्र, चल्धमा । यथा--“देसति रद्दी खिलौना चन्दा आरि न कीजिये याछुग्राविन्दा ” पान प्रजमविटास चन्दिया दे० ( खी० ) चांदी, खोपदी, घेग्टी रेदी । चन्दिदा दे० (गु० ) रुपहला, झग्ये का घना, चाँदी का यनाया, सफेद, श्वेत । चन्देत्ता दे० ( पु० ) चन्देल चत्री, पत्रियों की पर जाति, चन्देल नगर के रइने वाले, चन्दवा | चन्देली, चन्देरी दे० ( ख्री० ) एक नगर विशेष । (वि०) चन्देल नगर के कपडे । चन्द्र तत्‌० (६०) [चन्द +२] शशाह्ष, चन्द। चन्द्वमा। सुब॒र्णे, द्वीप विशेष, कपूर बिंदी, जे सानुनासिई वर्य के ज्पर ठगाई जाय; द्वीरा, खगशिरा नपत्र (वि ०) कमनीय, सुन्दर, शानन्‍्ददायक न्न्कता ( स््री० ) चन्द्रमा की सेब कला, इनके नाम ये ह-..चम्गता, मानदा, पूषा, पुष्टि, तष्टि, रति, छठि; शरिनी, चम्दिका, कान्ति, ज्वे|सना, श्री; प्रीति अड़दा, पूषणा, पूर्णा ।--कान्त ( ० ) सयि- विशेष |--कुयड (व०) कामरूप का प्रसिद्ध पर तीथे, सरोवर गुप्त ( घु० ) भारतीय प्राचीत प्रसिद सेर्यबरशीय एक राजा। सब्र ३०० ई” में सवर्विसिद्धि या मइानन्द नाम के एुक राजा राग्य करते थे । इनकी दे। लिया थीं। मुरा के छड़के का ] नाम सौर्थ, और सुनन्‍्दा के नो पुल्ों के लवनन्‍दु कहते थे । पिता ने नवनन्‍दों के राज्याक्षन का भार सौंपा और मौर्य के! उसका सन्‍्त्री बनाया। मन्‍्त्री मैर्य के अनेक छुत्र उत्पन्न हुए, उन्हें हे।वहार देखकर नवनन्द ईर्ष्या और अपनी अआ्रापत्ति की इत्प्रेल्ला करके कॉप गये, अतपुव उन्हेंने मौर्यों का बन्दी किया, परन्तु किसी कारणवश चन्द्रमुप्त को डहोंने छोड़ दिया, चन्द्रगुप्त थोड़े ही दिनें में अपने सदुयुणों के कारण सर्वेप्रिय हा गया। यह देख नचनन्‍्द भयभीत हुए, उसे मारने की चेष्टा करने रूगे, हसकी खबर पाते पी चन्दगुप्त ने सोच विचार कर अपनी रक्षा का उपाय हूँढ़ निकाला, दृढ़ प्रतिज्ञ अध्यवसायी और राजनीतिश चाणक्य का काशल से अपने पक्ष में करके चन्द्रगुप्त राजा हुआ। “+अ्रहण ( प० ) चन्द्रमा का अहण, राहुआस । “-घणटा (स्त्री०) देवी विशेष, चददुर्गा के अन्त- गत तीसरी दुर्गा--चयूड़ ( छु० ) शिव, सहादेव। --आभ्ा (स्त्री०) चन्द्रकिरण, ज्योत्स्ना ।-भागा (स्त्री०) नदी विशेष, चिलाव नदी, एज्ाव की पृ नदी का नाम ।--भ्ात् ( छु० ) श्रीमहादेव, गणेशजी |--मरणि (एु०) चन्द्रकान्त मस्िि, शित्र --भण्डत्त (पु०) धन्कृविस्व, चन्द्रमा की परिधि | ->मलछिका ( ख््री० ) एुप्प विशेष, छत्ताविशेष, इलायची ।--मप्ुखी (खी०) चन्द्रमा के समान मुंह वाली, सुन्दरी, सुसुखि, परवर्णिनी ।-समेलि (ए०) मद्दादेव, शिव [--रेखा (स्त्री०) चन्द्रकछा, चन्द्रमा की एक कच्चा “--रेझु (ए०) कान्यचेर, शब्दचौर, बायबद्दारी | - लेक (०) चर्छूसा का लेक, चन्द्रमण्डज |--ज्वोह (पु०) चाँदी, रूपा, रजत ।--चंश (एु०) श्रसिद्ध राज सनन्‍्ताच चिशेष, अन्त्रमा क कुल में उत्पन्न राजा |--वाला (स्री०) बढ़ी « इत्शायची ।--ब्त ( छु० ) प्रायश्चित विशेष, ब्रत विशेष, राजधर्म, राजधर्म का पालन रूप दत | +-शाला ( स्ी० ) अ्रद्मलिका, अदारी ।---शिखा (स्री०) चन्द्र्थ्डा, चन्द्रमा की कला का अप्रमास । शेखर ( छु० ) शिव, मद्ादेव, पर्वत विशेष |-- लिता (स््री०) कपूर |-+खेन (०) प्राचीन भारत चन्द्र ( २३३ -) . $ चन्द्र का एक पराक्रमी राजा का नाम, इनके पिता का नास » सप्र॒द्नसेव था, कुछुछेन्न में पाण्डचों की श्रेर से यह लड़ते थे और उस्ी युद्ध में अध्वत्यामा द्वारा यह दा के लिये रणभूमि में से गये । (२) चम्पावती नगरी का एक राजा | यह शिकार खेलने बन में गया था और झूग के धोखे से पक मुनि पर इसने बाण छोड़ा। सालूस द्वोने पर इससे मुनि का अनेक प्रकार का श्रनुनय विनय किया, परन्तु किली प्रकार सुनि का क्रोध कम नहीं हुआ, मुनि के शापर्स राजा काला और बूढ़ा दे गया । शापमुक्त देने के लिये राजा ने अनेक यत्र किये, किन्तु सभी निष्फल्त हुए । अन्त में एक मुनि की सस्मति से बसनन्‍्तपुर ( जयपुर राज्य के अन्तर्गेत एुक नगर ) में जाने से इनका शाप नष्ट हुआ, खृष्टारद की प्रथम शताब्दी में हन्ढ्ेंने चन्द्रावती नगरी स्थापित की | यह नगरी चन्द्रभागा नदी के तीर पर है, यह माल्ठाघार की राजधानी है । ( ३ ) परशुराम के द्वारा यह राजा सारा गया था, इसकी गर्भवती रानी ने महर्षि दाल्भ्य के आश्रप्त में जाकर अपने आणों की रक्षा की थी ।--हार (४०) प्रकद्भार विशेष ।--छाखस (3०) [ चन्द्र + दस + घन || खन्न विशेष, ( १ ) रावण के खड़ का मास, (२) एक धार्मिक राजा का नाम इनके माता पिता बात्त्यावस्था ही में इन्हें अकेछा छोड़ परलेक यात्री हुए । उस राज्य का प्रधान मन्त्री, पडयन्त्र रच कर, इन्हें मरवाने की चेश करने छगा । भ्रतः चन्द्रहाल के भ्रपनी राज- धानी छोड़ वन में जाकर छिपना पड़ा । इस समय भी स्वर्गीय-वात्सल्यभाव-पूर्ण-हृदया हनकी उपमाता से इनके नहीं छोड़ा, किन्तु उसी ने इन्हें वन में ज्ञाकर भ्राणरक्षा करने का सत्परामर्श दिया और स्वयं भी वह साथ आयी | किसी श्वसर पर राज- मन्त्री से इनडी सेंट हुईं । राजमन्त्री ने इन्हें पह- चाना और इन्हें मारने के लिये इसमे अपने गुप्त- दूत उनके पीछे क्गाये। परन्तु सगवान फ्लो चस्छू- हास का सारा ज्ञाना उचित नहीं मालूम दोता था। इसी कारण मनन्‍्त्री के लभी प्रयल निष्कल हुए और यही राजा हुआ और मन्‍्त्री अपने 'ही कमों से निःसनन्‍्तान होकर दुर्यति के साथ मर गया । श० पा००-३० सच्ेमा चन्द्रमा तत्‌* (६० ) चन्द्, चन्द, चन्दे। निशाकर, दिपु, शशि, शशाहू ।[चँंदवा, गुदे, इडायची अ्रन्ठ्रा तत्‌० (प्रु०) मुण्डछा, गज्ञा, चुद्धिमान्‌, (स्१०) अन्द्रातप तव्‌» ( पु० ) चदिनी, चन्द्रिका, चन्द्रणा का प्रकाश, भ्ाच्छादन विशेष, वितान, चैँँदवा, जाहता, उसिपारी, चन्द्रकिरण । खल्दाना देण ( क्रि० ) सूपना, सुरफाना, सूझूणा, पश्चाक्ताप द्वागा, परिताप देना । चन्दरापीड्ट तत्त० (पु०) वाणभट्टकृत सेस्कृत गय काव्य कादुग्परी के नायक | इनके पिता उल्नयिती के राजा ताराऐीद ये, इनकी माता का नाम विलासबती पा कादुस्वरी में किया है कि शाप के कारय चन्धुमा ही के मद्ारानी ,पिलासदती के गर्भ से उश्पण् देना पढ़ा था, हनके प्ित्र और मन्दरिएुवव चैशम्पायन थे ॥ चन्द्राचल्ली तत॒० ( ख्री० ) पक गे!पी को नाम | यह राधा करी उचेरी बहिन थी, राघा के पिता वृषभाजु झे जेंढ भाई घम्द्रभानु की यह लडकी थी । अन्चा- चली गे।द््नम्ष छे व्याही गयी थो, यह गेवरदन- मछ करढा नामक गि का रहने यात्ना था | चच्दिका तत्‌० (ल्लो० ज्योत्तना, चख्रमा की किण चहिनी,प्रशाश विशेष 'व्योकरण की पुस्ठक का नाम, चक्र, मोर के पद्ु की गोक्ठ गोल अंखि, बढ़ी धोदी इठायची, पक भवज्ञी, कनफ्रोद्ा घास, जूही, धमेत्री, मैधी, चनमुर, पक देवी, एक चर्णे- रह, वासपुष्या, माधे का दुक भूषण | चन्टीदिय तव॒+ ६ पु+ ) चख्मा को बरव, रात का _म्रथम प्रदर, शेष विशेष, चर्चा / घस्क्रीपल तब० ( घु० ) [कर + बपण ] चन्द्रकान्द अं, गिर किट का ज्ड घनछुर ३* ( ६५ ) हालम, बुर शाक विशेष चपकेत है ( ० ) दुक अकार का बेतासा, लस्दा अतरजा। ससिहना, सरसा | चपकता दे० ( क्लि० ) चिप्टना, झड़ना, हँयुक्त होना, चपकाना दे* ( 2 मदाका, आता; लिराना, जोइना, सदाना, एपराना रे चपटना दे* ( क्ि० ) चरट सेना, मिल जाना, सट जाना, रूप जञागा, झूपरनाव ( रहे ) चपेद चअपदा दें* ( गु० ) समान, बरायर, तुल्य, चौरस, छोड़ा, चौलूँश। चअपदाना दे ० (क्रि०) चपदा करना, मिल्राना, रुपटाना । चपदो दे० (स्री०) बैठी वस्तु, चपटी वस्तु, मित्नी हुई बियाँ, संयुक्ता, किछनी जे पशुओं के चिप्दत्ी ई, ताक्षी, येशनि । चपडगटटू (दि०) विपदुप्नस्त चपडयपड़ देः (३०) स्वाना के साने का शल्र्‌ चणड़ा दे० (१०) पुछ प्रह्वर की लास | चपड़ाऊ दे० ( गु०) निलज्ञ, दीढ, इष्ट । खपडूाना दे० (क्रि)] खेटा करना, दीठ कहता। वह काना, थरता ६ खपड़ो दे० (ख्री०) गेवरी, छूप्दी, तश्ती, पिया | चपत्त तत्‌० (पु०) चढ़, तमाचा, थप्पढ़, तडी । चंपना दे? ( क्रि० ) दबाता, लजित होगा, अंधीद द्ना, मद्दित होना, भप्तण जाता । चपनी दे? (०) दकनी, टपती, ढकत, ूटोरी चपरगद्ट्ू (वि०) चौपटचरन, अमाया । चपरास दे* (स्त्री०) कमर में विने का विन्‍्दे, स्वामी औए सत्य के पद छा घूचन करता है। खचपरासी दे० (५०) नैहझ्क, दृतत, हरकारा । अपरि दे* ( अ० ) शीम्र, तुरस, दवकए दशधछा, भूमि से मिलकर, घुस कर। श्वपत्त ततू5 ( गु० ) चुद, श्रश्थिर, तरठ, विकेट, उद्विश्च। (पु०) पारा, मदजी, छुटउ॒ढा, जव्देवाज, चातक, पत्थर विशेष, सुगन्धिद्श्य विशेष, राह, पुक अकार का चूद्ा ।--्ता ( छी० ) श्चछता, चाधृत्य, चापत्य, अस्यिरता। चपल्ञा भव्‌* (सी०) टक्सी, बियुत्‌, अधुत्ता, इुंश्वली, बैश्या, अस्थिरा, कटटा, ब्यम्रिचारिणी, पीपण, ज्लीम, मद्िरा, प्राचीन समय की एक नाव । चपलाई तदृ० (घ्रो०) चट्ठ॒लता, चिहविछापत, शुट" घुलाइट ३ चपाती दे (सी) रेटी, फुरका | [छिित छाडा | चवाता देब ( किए ) दादना, घेपनर, छमाना, चपेट दत* ( पु ) तमावा, घथा, थप्पड़, हपेली, अंक, चापा । [पड घेसा । चपेद, चपेदिक्रा चत॒« ( खी० ) वर्षसद्भग. घौड, अपेदी चपेटी (स्री०) भाद शुक्ल पष्ठी । * चपोटी दे० ( खी० ) एक प्रकार की छोटी पगड़ी, पुरानी पगढ़ी । जिनी उठी न हो । चपौरा दे० (पु०) जूता जिसकी एड़ी स्लीपर जुमा दे। : ज्यप्पन दे" ( छु० ) ढकना, उक्कन, ठपवा, चपनी, छिछुला, कटारा | चप्पत्त दे० (पु०) एक प्रकार का एड़ी बैठा जूता । चप्पा दे० (ए०) चार अँगुलियें का निशान, किसी रप्नः से दीवार या कपड़े पर बनाया जाता है, चत॒धांश, थाड़ा भाग, चार अगुल जगह, थोड़ी जगद्द । चप्पी दे० ( स्री० ) देह दुद्यवा, अद्गभः मर्देन शरीर द्वाना | [का डॉड दबाने वाला । चप्पू दे” ( पु० ) कलवारी, डॉड़, देण्ड, नाव खेवने चफाल दे० ( ख्री० ) पछ्ुः परिदृत्त द्वीप, जिस दीप के चारों ओर दलदुल दवा । [कुचलना, चुभलछाना । चव्लाई दे" ( ख्री० ) चवलाना, दुतिं से पीसनगा, अवल्लाना दे० (क्रि०) चचाना, कुचछना, पीखना । चधाई दे* (स्री०) कुचलाई, चवैण | चवाड दे० (9०) मुखर, वतकद्दाड, कद्दासुनी, निन्‍्दा । खबाता दे० (क्रि०) चाबना, चिबल्लाना । चबूतरा दे० ( ए० ) चौतरा, चत्वर, श्रधाई, चौपड़, - बैठक, क्ौकी, थाना ) बेला दे० ( छ० ) चपंणक, दाना, चवाकर खाने का दाना, भ्ुजैना, भार में भूजे अन्त । अबेनो दे० ( ख्री० ) मिठाई या जलूखबा जो वरातियों को रास्ते में दिया जाता है । खब्य तत्‌० (सख्री०) ओपधि विशेष, चाव | - “ खभक दे० (५० ) डंक, कटा, पानी में किसी वस्तु के गिरने की आवाज़ | अभेरना दे० (क्वि० ) गाता देना, मिगाना, तर करना । “ ताते तुरत चभोरे थी के | +5खरवास। अभक दे? ( ख्री०) चिहलक, भड़क, चदक, उज्वछता, प्रभा, दीसि, दुमक, शोभा, छचक, चिक । अमकता दे० ( ग्रु० ) उनागर, उमा, जगमग, जगरमगर । [घना । शखमकतना दे० ( क्रि० ) ऋल्कना, लैकना, श्रकाश्म हो खमकाना दे ० (क्रि०) प्रकाश करना, ऋलकाना, साफ करना, चिढ़ाना, मठकाना, ओचना | | ( रेहे४ ) चमू चमकाच दे० (बि०) चमक, उजार, उजागर | चमकाहटठ दे० (ख्री०) झलक, सलरल । [गाहुर। चमगादड, चमगीदड़ दे० ( छ० ) दाहुर, चमगादुर, चमगाढुर दे० (पु०) देखो चमगादड़ । चमझशुदड़ी दे? (स्वी०) रात में चलनेवाली चिड़िया । चमचड़क दे* (श॒ु०) क्षीण, कृश, दुर्बेल, सफरा | चमचमाना दे० (क्रि०) शेभवा, श्रधिक शेमा देना, चमकाना | चमचमाहठ दे० (स्री०) चमकाइट, शेभा, दीघपि । चमचा दे० (9०) चम्मच, कलडी | चमची दे० (स्री०) छोटा चम्मच | . चमया दे० (प्रृ०) चिमटा । चमड़ा दे० (पु०) चर्म, त्वकू्‌ चाक, खाल । चमत्कार तत्‌० (पु०) [ चमद्‌ +झू + धन्‌ ]| विस्मय, आश्चय ज्ञान, करामात, डमरू, चिचढ़ा !-री (गु०) विस्मय-जनक, विचित्र आश्चय ॥ चमत्कारक ( बि० ) अद्भुत, आश्चर्मप्रद । अमत्कृत तत्‌० ( गु० ) आश्चर्यान्विल, विस्थित | (ख्री०) विस्मथ । चमर तत्‌० ( यु० ) चवर, 'चामर, व्यालष्यजन, राज चिन्ह' विशेष, चमर नामक पशु विशेष । चमरख दे ( पु० )रद्दटा क्षी छ्वामग्री, एक प्रकार का खद्दा फत्न । [खिरागाय) चमरी तव० ( खी० ) सुरा गौ; चसर नामक गौ, चमरू दे० (पु०) चमढ़, खाल, चरचा । चमस तत० (३०) [ चम्र + अस ] यज्ञपात्र विशेष, चमचा, कलबी, चम्मच, दुर्वी, पापड़, लड्डू, उर्द का आदा, एक ऋषि का नाम, नव येगीश्वरों में से षुक । चमाई दे० (ख्री०) माल, पीका । चमाऊ दे० (खत्री० ) खढ़ाऊ, चरणपादुका, चमर | चअमप्राचम दे० ( वि० ) रूलकते हुए, चमकते हुए । ४ बरतन चमाचम सजिना । ? चम्रारु त्तु० (पु० चमेंकार, मे।ची, जूता वनाने वाज्ा । चस्तू तत्‌० (स्त्री०) संना,दुल, कटक, सेना विशेष, ७२३ हाथी, ७२६ रथ, २१८७ घोड़े, ३४४५४ (किसी के अतानुखार ३६४१) पैदल यद् चम्‌ है ।--चर (०) सेनापत्ति, सिपाही |--पति (घु०) पेनापति । चमूफन ५ चरचरा ४ चयन नन मनन निभा टन फनन ननन ल+-लनननप स्व नि नन चमकन दे० (प०) किलनी, पशुओ का छुँवा । चमेदा तदृ० (पु०) चपेदा, घपेडा, घौर । ट्घिमादा दे० (प०) चम्ड की थैली किप्तमें नाई अख रखता है, या बह चमडे का टुकडा जिस पर उम्प्रा की घार पकी की जाती है । चम्मच दे० (५०) देखे चमचा । चम्पक तत्‌० ( पु० ) पुष्प विशेष, चापा का फूल । --कल्षिका (खत्री०) चम्पा की कली । चम्पत दे० (वि०) दिपा, अ्द्श्य, अन्त्धांन, भगना | हीना भगजाना, दिपनाना, चलाबाना, गया पुरुष, दूसरों की वात जानने के जिसे घुमने बाला, कपट बेशघारी, दूत, खाना, मेज्नन, खेजन- पही, कौडी, मद >, पसि छा जूथा, नदियों के फ़िनारे या सफमस्थान की बह भूमि जे नदिये की लाई हुई मिट्ठी से बनी दो (डेल्टा ) दलदत, नदियों के बीच बालू का टाएू, दिला पाती। (गरु०) चटनेवाला, चउने येग्य, जड़ म। खानेवाला। चर्स दे० (खी०) जानवरों के पानी पीने के लिये पानी जिसमें मरा जाय वह कुण्ड । चरक तत्‌ (एु०) वैद्यम प्रन्थ विशेष, कुष्ट रोगका अ्रत्नएय दाना । [रक्रा हुआ। चम्पन दे० (ख्री०) पीत बह, पीत बे, पीले रद्ग से चम्पा तत्‌० (सत्री०) कर्णंपुरी, अद्भदश की राजधानी, भागलपुर का भदेश, चम्पारण्य, चम्पारन, पुक प्रकार का मीठा केत्ला, एक जाति का घोड़ा, रेशम का पक किम्म का कीड़ा, बहुत घड़ा सदा यद्दार पेद मे। दष्चिण में दाता है ।--थिप दे० (पु) चम्पारण्य मास्क प्रदेश के श्रधिपति कंणणैराज, (द०) एक फूट आर बृच्च का नाम । चम्पाऊछ्ी दे* ( स्ती० ) भूषण विशेष, पुक प्रकार का गइना, यद्द गले में पहना जाता है । [नगरी । चम्पावती हत्‌० (स््ली०) नगरी विशेष, चम्मा भामक चम्पू तथ* (स्त्री०) काब्य विशेष, गद्य पद्य समय काथ्य | यथा सोज + चम्पू | चग्या 4० (पु०) मुंहचिरा, एक भिश्लुकों की जाति । चम्बू दे० (पु०) जलपातन्र विशेष, टेटीदार पात्र, यह देव पूजन फे काम में श्राता है । [चमेज्नी का फूल | म्बेली दे" (स्री०) पक प्रकार छी लता आर पुष्य, चम्मल दे" (१०) चरम), तुम्बा, एक नदी का साम | चय तत० ( पु० ) [ चि+भल्‌ ] समूह, राशि, प्राचीर, प्राशण, चार दीवारी, टीडा, गढ़, नींव, चबूतरा, चौकी, ऊँचा आसन, यज्ञ का अपम्ि संस्छार (चयन) विशेष ) चयन तत्‌* ( घु० ) सैम्रद करण, आदरण, यहेरना, पृकश्न करना, एकद्मा करना। € दे० ) भानन्द, कुश>, चेम, चैन । बर सत्‌० ( घु० ) उठने योग्य, बालुक, टेझ, द्विप कर राजकीय बार्तों को जानने के लिये नियुक्त किया भेद, मुनि विशेष, विस्यात वैद्य प्रत्थ चरक सहिता के रचयिता, अनन्त देव चर रूप से छिप कर प्रधिवी पर आये और उन्होंने देखा कि यहाँ के बासी अनेक रोगों से श्रधिक कष्ट डा रहे हैं। मनुध्पों का कष्ट देसकर उन्हें दया श्रायी और चढ़क् वेद ज्ञाता महर्षि करा रूप उन्होंने घारण क्रिया सथा सासारिक व्याधियों से ममुष्यों की रदा करके प्रसिद्धि प्राप्त की | घतस्त देव चर रूप ( गुछबेश ) से एपिवी पर भवतीण हुए मे । ही कारण उनका नाम चरक पढ़ां। इन्होंने भत्रि के पुत्र भारद्वाज से श्रायुर्वेद की शिद्ा प्राप्त वी थी। दूत, मेटिया, बडोद़ी, पथिऊ, बौर्दों का पक सम्प्रदाय, मिल्चारी । [प्रत्ष विशेष । चरकसहििता तब" (स््री०) चरकसुत्ति प्रणीव वैधक का चरकदठा दे० ( पु० ) ऊँद या दापी का चाश काटने बाल्वा,तुच्छ मनुष्य | [दागने का निशान,हानी,घका ) चरफा दे० ( पु० ) छोढ़, कुष्ट रोग विशेष, श्वेत कुष्ट, चरसी दे० (घ०) छुष्ट रोग वाला, रवेत कोढ़ी | चरण दे० ( पु० ) चक्र, चका, घेरा, चौफेर, पढ़िया, खराद, रहेँट | चरणखा दे* ( पु० ) सूत काटने का यस्प्र, रहेंटा | चरस्त्री दे० (स्वी०) रहटी इईटा, विरनी, एक म्कार का यन्त्र जिस पर आदमी को पैदा कर घुमाया जाता है, पक धरकार की ग्रातिशवाजी । [चन्दन कयाना | चग्चना तदू० ( कि० ) लेपना, लेपन करना, घरों में चस्वर दे ( घु० ) बकदझ, गए, निरथक बोल ! चस्थरा दे० ( गु०) वकी, वड्बद़िया, निरयेक बोलने यचाला, मजपूत 4 चरयराता ( चरचराना दे* (क्रि० ) चटकतना, कड़कढ़ाना, ऋुद होना, कुषित होना | चस्वा तद्‌ 5 (सत्री ० ) चर्चा, कीति, जिकिर | चरचेज्ञा दे? (गु० ) मप्पी, बककी, सुखर, वक्रबकद्ा । चरचैत देन (गु०) चरचा करनेवाछा, कीतिसान्‌ । चरदठ तत्‌० (पु०) खल्‍्जनपक्षी, खशुरीट, खड़लीच ॥ अश्ण तत्‌० (० ) पव, श्रद्ध्रि, पैर, पशु, पत्ती आदि के आ्राद्ार के छिये घृमना, छन्‍्दू का चौथा हिस्सा, बढ़ों का साक्रिध्य, चतुर्थाश, मूल, योत्र, क्रम, आचार, धूमने का स्थान, किरण, अलुष्ठान, समन, चरने का काम )-कमत्न (पु०) कोमल चरण, कमल के समान चरण |--दासी ( ख्री० ) चरण सेविका, स्ली, भार्य्या, पैर पर गिरा हुआ, जूता, खढ़ाऊँ ।--पद्‌वी ( खी० ) पदाह्ग, चरण का चिन्ह ।-- पीठ ( ४० ) पादपीठ, पैर के पीछे का भाग, खडाऊँ, पाँचरी, चरण रखने का पीढ़ः, चरणाखतन [-व्यूह ( छु० ) एुक प्रल्थ॒ का नाम, यह चेद्व्याल का बनाया है इसमें वेदों का विधरणा ज्िखा गया है युगल ( पु० ) परदयुगल, चरणयुग, दोनों पैर ।-- सेवा ( स््री० ) उपासना, भ्राराधना, 'अचना, सेवा, छुश्नपा। “महंत ( घु० ) चरणोदुक, पादोकद, सान्यों का पैर घोषा हुआ जछ +-युधर ( घु० ) छुक्कुट, मुर्गा ।--। रविन्द्‌ ( छु० ) चरण कमल, पादपक्म । +मेद्क (8० ) पादगप्रत्ञाजन जछ, चरणास््त, देवता श्रादि का चरण धोया हुआ जरू (--पान्त ( पु० ) चरण के समीप, पदप्तान्त। , घरशि तत्‌० ( घु* ) महुष्य। चआरती दे० ( घु० ) ब्त न करनेवाला, श्रव्ती जरना दे ( क्रि० ) चुगना, घूमधूमकर घास खान्ा,(घु०) पैर, चरण, एक विशेष दोहा जाति । चरनी दे” (स्री० ) कहरा, ठांव, स्थान, चैल्ोों को घास खिलाने के लिये जो मिट्टी का बहुत लम्बा बनाया जाता है । खरत्ती दे० ( ख्री० ) चार घाने, चैश्रन्नी, सूकी । चरपरा दे? ( गु० ) तीता, ख़ट्टा, कड़वा, तीखा, फुर्चोछ्ला, साइसी । [दर्द होना, झंकनाना । चरपराना दे० ( ख्री० ) परपराना, वेदना मालूम डोचा, श्र ) चस्ति चरपराहठ दे० ( छ्ी० ) परपराइट, संकमाहट | चरपसिया दे० (ग॒ु० ) मनचल्ना, सुन्दर, सुघर । चरफर दे० ( घु० ) प्रवीणता, निषुणता, दच्नता । चरफरा दे" (गु० ) दक्ष, निमुणदा, दक्षता । चश्फरादि दे" ( क्रि० ) चरचरातें हैं, दूटते हैं, चराति हैं। ि.हस, उत्साह । चरवरयाणगी दे* (ख्त्री० ) फुर्तिलापन, चतुरता, चरवाना दे” (क्रि० ) ढोल को रहती कसना या न्महे से मढ़ना। चरवी दे० ( स्ली० ) सेदू, बया, पीह | चरम तत्‌० (गु० ) भ्रन्तिम, शेष, अवसान पराकाप्टा का “( घु० ) चाप्त, चमड़ा, ढाल, फरी --काछ (पु०) शेप काल, अन्तिस समय, सरते का समय -- प्वल (०) अस्त प्वेत, अस्तगिरि +--नद्वि (प०) अस्त पर्वत, अस्ताचलछ । रिखिने का झूत्य | चरवाई दे० ( स्नी० ) चराई का मूल्य, चराने का या चरखाहा दे० (प०) चराने वाल्टा, रखने वाजा, रख- घारा, गूढ़रिया | चरस दे० (४० ) मादुक व्च्य चिशेष, पुरवट, मोंढ, पानी निकालने का चमड़े का बड़ा एक प्रकार का बरतन, चमड़े का बढ़ा डोछ | चरसा दे० (०) श्रधाड़ी, खाल, चमड़ा, चरस, मोंट | चरई दे० ( स्री० ) चराने की मजूरी, चराई का काम, चराई की क्रिया । [का पक्षी । चसक दे० ( पु० ) चरानेवाढा, चरघाहा, एक प्रकार चराचर तव्‌०( शु० ) [चिर+-अचर] स्थापर-जम्नम, चत्त-अचल जड़-चैतन्य, सजीव-निर्जोव, चकने वाले न चलने धाले । (७० ) जम्रत; आकाश, नभो- मण्डल, जड़चेतन, सजीव निर्जोव, कौड़ी | चरान दे० (पु० ) चराई, चायान, पटपर, पशुओं के चराने का स्थान । लिगाना । चराना दे० (क्रि०) पशुओं के घुसाकर घास खिछाना, चराबव दे* (० ) चरने योग्य खेत [ चरि सच्‌० ( छ० ) पछ, चौपाये | चअरित सत्‌० (गु० ) [ चर्‌ न- क्त ] गत, पात, माप्त, लब्ध, अधिगत | ( घु० ) चरित्र, ब्यहार, आच* रण, रीति चीति, उपख्यान, कथा वार्ता, बूचान्त, हाल, अहृवाल +जजार्थ ( ग्ु० ) प्राप्त प्रयोजन, चरित्र जिसका इष्ट सिद्ध हो चुका है, रृतकाये, कृतार्थ, जो पूरी तरह घटे, जो ठीक ठीछ बतरे । -र्थता ( स्त्री० ) क्ृतायंता प्रयोजन सिद्धि, इष्ट लाम चरित्र तद० (पु० ) [चर्‌ + इत्र | सुइभाव, आचरण, ब्यवहार वर्क (५०) भाट, कवि, अन्यकार, खरित्र लेक । चारो दे० ( खी० ) जममीदारों से फिसानों का जो मूमि बनझे पशुओं के चराने के लिये मिलता है, पश्चओेः के थ्वाने योग्य करवी । चर तत्‌० (० ) यज्ञात्र, यज्ञ का शेप अन्न, खीर, होम करने की वस्तु । चहरुओआ दे० ( पु० ) मिट्टी का चौडे मुँह का बरतन जिसमें प्रसूता स्त्री का गरम जत्ठ किया जाना है। चेक तद० ( गु० ) चर्चा करनेधाला । चर्चता दे० (क्रि०) विवारना ध्यान करना, लेपना | चर्चर दे” ( पु० ) शब्द विशेष, दृटी याढी के शब्द, गमनशील | अ्चरी तत्‌० (श्री ) [ चर्च+र+ई ] वाध विशेष, रागविशेष, गानविशेष,करेशरचना, होली का धसव। चर्चरीफ तत्‌० (घु० ) शिव, महादेव, मदाकाल, केश विन्यास, शाक | चर्चा तत्‌० ( स्त्री० ) बतक्द्ाब, जिक्र, अफवाह | चर्चित ततू० (गु० ) [ चर्च +क्त ] चम्दन के द्वारा , सेपन करना; डिप्त, खुगन्धित, निरूपित, निर्णीत | चपठ तल» (पु० ) चपेट, चपेट, चापढ ( वि० ) है अ्रधिक,चिपुक्न ।--(स्थ्री०) एक अकार की रोगी । चम तत्‌० ( ६० ) छात्र, खक्, चाम, चमद्ा, खाल, अस्त्रविशेष, दाल ।--कार, (पु० ) चमार, मोची, जूता बनाने वाला /"-चटिका ( स्व्री०) चमगुदरी |--ज्ञ ( पु० ) रुचिर, केश, वाल, पशम, ऊन ।--दुएड (०) कशा, चाजुक, केोठा | “पात्र (४० ) चमढ़ा का ढाल । ( छी० ) चमदे का जूता ।--पुट्क ( ६० ) चमें लिर्मित पात्र विशेष, कृष्पा जिसमें घी तेत्न श्रादि रया जाता है (--धर् (पु०) चमदे का वना बस । चर्मा ठत्‌० ( गु० ) दाल रखनेवाला, चमेघारी, डाल बाला | चर्य तत* (वि०) करन येग्य ५ 0 5 लक चलाऊ चर्या तत्‌० ( खी० ) बढ़ जो किया जाय, भ्राचरण, काम काज़, आचार, जीविशय, मत थे, ग़मन | चर्चण तत॒० (पु०) [ घ् + अनट्‌ ) दाते से चूर किया या पीखा इुच्ना, चत्राना, चरैता । चर्चित तत॒* (गु०) कृत चर्षेण, भफित, खाया हुथा । चर्वितचर्वण (ध०) पिष्पेषण किये हुए झछामर को दार बार काना, कद्दी हुई बात का वार बार कहना ! चर्व्य तत्‌० (चि०) चबाने योग्य, (६०) जे। चंबा कर खाया जाय। अल्ल तत्‌० ( गु* ) चम्चज, अम्थिर, श्रस्थायी, गमन, कूच, छिक्न भिन्न --कर्ण (4०) एथिदी से प्रहों की यथार्थ दूरी ।केतु ( ० ) इच्तलताता विशेष । चलाव ( छ० ) याया की तैयारी ।-« चिच (गु०) अस्थिर मन, चद्चुठ +-देना (छि०) साय ज्ञाना, उपेद्ा करना --निकलना (क्रि०) निहन्ठ चलना, सीमा के श्रतिक्रम करना | चलत दे० (क्रि०) चलते हैं, बलते ही । चलता दे० (ए०) फिरता हुआ, घूमता डुधा । चलदल तत्‌० (पु०) पीपल का पेड, अखरप । चलन तव» ( १० ) [ चल + ध्रनद्‌ ] गमन, झमण। कम्पन, सरण, वहन, आचरण, स्यवह्ार। धारा, प्रचार, रीति, चालू | चलना हे० (क्रि०) ज्ञाना, गमन करता । चन्ननी दे० (ख्री०) हगा रॉगी, पीतछ के सूत भधवा चमड़े पे बना अनेक छेद बाला एक बर्तन, जिससे ब्रा चाला जाता है, आटा की घुनती । चलपन तत्‌० (पु०) भरश्च्यठक, चणदक, पीपक | चलपूनी तद्‌० (ख्रौ०) चक्ष घन, पुक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने लायक घने, सुवर्णे, सोना; रुश्या पैसा आदि ! चल्नफेर दे० (१०) घूमचाम« गमन, गति, हुलाव | चलविघर दे० (गु० ) श्रदियल, मचजने वाला, काछज्ञ, अवसर जानने चाडा |. [अ्रिग्यवम्धित । चलविचल दे० (गु०) अपने स्थान से चला टुआआ। चत्ता तव्‌* (खो०) बह्ष्मी, चृथियी, बिजली, पोषक, ( क्रि० ) चल निकला, चल पडा, प्रचलित हु, जाया चाइता हैं, मरा उाइता है। [छिमने धाता। चजाऊ दे* ( यु ) टिकाऊ, मगबूत, बहुत रु चत्ताचल चलाचतल तत्‌० ( शु० ) [ चत्न + अचल |] चल्ाचली चाद्य, चलेचले। | [चलने के समय की हड़वड़ी | चलाचली दे० ( स्री० ) चलने की तैयारी या समय, चलान दे (छु०) भेजाव, पहुँचाव, प्रेषित करण, सांग दिख्लाना, अपराधी का न्याय के लिये न्‍्यायाल्‍ूय में भेजना । चलाना दे० (क्रि०) दै।ड़ाना, हिना, गमस कराना । चतलायसान तव्‌ (ए०) चल्लुल, अस्थिर, अस्थायी । चलाव दे० (पु०) चलन, रीति, ब्यवाहार, चाल । चल्ताचा दे० (प०) चलाया, हक, प्रचलित किया। चलित तव्‌० ( शु» ) चिलू + क्त] कम्पितगत, चढन, ब्यवहारी, चफ्ल, व्यवहारिक, दिलता हुआ । चखितव्य तत्‌० (ग्रु० ) [ चलू + तब्य ] चलने येह्य, *».. गन करने के उपयुक्त । चलिलन्री दे० (गु०) खिलाढ़ी, रसिक, चघ्चुछ |. « चक्षे दे० (क्रि०) चछ निकले, प्रचलित हुए, जाने लूगे। चल्लेम्ठ्रिय तत्‌० ( गु० ) अजितेन्द्रिय, इन्द्धियपरवश, इन्द्रियाधीन, जम्पट, असदाचारी, इन्द्रिय- सुखासक्त | चत्ते दे० (क्रिग्) जाब, डढे, देड़ो, फिरो । चलना दे० (छ०) चरखे का डण्डा।. [चूता है। चचई दे" (क्रि० ) छुबे, बहै, टपर्क, टपकता है, चअबय दे० (क्रि० ) छुबे, वह, टपक, ( इन देानें शब्दों का प्रयोग रामायण में हुआ है ) । चबाई दे० (पु०) चिन्द॒क, दुजन, पिछत, लवालुतशा+ घुगबख़ोर । [कठा कलछूए। खबाच दे० ( पु० ) निन्‍दा, दु्यश, अपवाद, खुगली, चप तस्‌० (प्ु०) नेत्र, अखि । चपक तत्‌० (पु०) जलूपान्न, आबख़ोरा, पीने का पात्र, मदिरि पीने का पात्र, गिछास, शहद, मद्रि | च्वपणि दव० (छु०) भोजन, * खाना, मारण। (स्री०) मुच्छा,मदान्धता.पय:दुर्बेहतता दुचज्ाई,बध, हत्या । जखपात्त त्व० (पु०) यज्ञ के खम्मे के ऊपर रखा हुआ युक प्रकार का काष्ठ, सधुस्थान, सधुकाप ! असक दे ० (स्ी०) टपक, पीड़ा, टीस, चेदना ! चसकना दे० (क्रि०) टीसना, टपकना, व्यथा करना | खखसका दे० ( पु० ) शौक, लालखा, चाट, स्वाद, अभिन्नाप, टेव | ( रेश६ ) चाँचर अ---ज+-+म8_+++-ब............... चसना दे० (क्रि०) मसकसा, कसकना, यढ़ना, मरना | चस्सी दे० (स्त्री०) अपरस, रोगविशेष । [चाहिए। चह व्‌» (०) चाहता है, दरकार है, श्रपेक्ठित है, चहकना दे० (क्रि०) चमकता, चहचहाना, शोमित द्वोना, चिड़ियों की शहचहाहट | चहका दे० (पु०) जलन, ब्यथा, आय देना, बनैठी । चहकार दे० (स्त्री०) चिचियाना, चहचहाइट, चिड़ियेंई का शब्द < चदकैठ दे० (गु०) चौदन्त सॉॉढ़, बलवान, बक्तिप्ठ । चहचहा दे० ( ग्रु० ) खूब गहरा रहा हुआ, अति मनेाहर ! चहचह्ाना दे० (क्रि०) चिड़ियें का रब । चहचहाहट दे० (स्त्री०) पक्ति समह का शब्द | चह॒वद्या दे० (३०) होदा, झृण्ड, पामी का गढ़ा । चहंदी दे० (स्त्री०) चुटकी काटवा । [थकित होना । चह॒त्तता दे० ( क्रि० ) कड़िना, झँचना, श्रान्त द्वोना, चहलपहल्ल दे० ( स्त्री० ) आनन्द, हँसी, खुशी, हप॑, डत्खव, मड़तठ | चहसि दे० क्रि०) तू चाहता है। [है, अ्पेद्तित है । चहिय दे० (क्रि०) चाहिये, श्रावश्यकता है, दरकार चहला दे० (पु०) कीचढ़, पाक, पहुए, कांदा, कॉंढों, कींच | शअहँ दे* (यु०) चारो ।--चक दे० (यु०) चारो! श्र, सब शेर) चहुँदिश, चारो खूँट |--दिश दे० (०) सब ओर, चारो ओर, चहुँ ओर ।--घा दे ० (०) चारो ओर |--थुग' दे» (पु०) चारो थुग; चारे युग में, चतुयुंग ! चहःँक (स्त्री०) चौंक, चिंहुक | चहूँ दे० (यु०) चार, चतुः/चौधा | [मनसूवा करता हूँ. ! चहीं दे० (क्रि० ) चाइता हूँ, इच्छा करता हूँ। चाँई दे० (ए०) चोटी जात, कक्षर | (बहुधा इस जाति का चार जाति भी कद्दते हैं. श्रतएपुव इस शज्य का अर्थ भी चार ही दवा गया है) चोर, ठग, उचक्का । चाँईचू ई दे० (स्त्री०) ग्षरोग । चाँकना (क्रि०) हृद बधना, सीसा में करना, गोठना ) चाँचर तत्‌० (9०) गीत विशेष, स्त्री० (दे०) परती छोड़ी जमीन, सद्यिर सूमि विशेष | दे० (9०) टट्दी, परदा जो किवाढ़ों की जगह छगाया जाय चाँचु . चाँचु (०) चोच । शाँटना दे० (क्रि०) चापना, दावनः, चिन्द्र करना | चाँदा (१०) पप्पढ, चएत । चाँदी (स्त्री०) चींटी । च्ाँड दे० (स्त्री०) थूनि, धम्बा, सम्मा, टेकन, टेक । तत्‌० (वि०) बलवान, उम्र, श्रेष्ठ, तृप्त | चाँद्‌ तद० (पु०) चन्द्मा,चन्द्र, साम ।--रात (स्त्री ०) पूर्णिमा की रात ।--मारना ( क्रि० ) लक्ष्पवेध, निशाना भरना ।--ने खेत क्रिया (बा०) चन्द्र उदय हुआ ।-मारी (स्थ्री० ) निशाना बाजी चन्दूक से लक्ष्य वेध का अम्प्रास । चाँदना दे० (पु०) मरद्वाए, ज्योति, तेज ।-पत्त ($०) शुक्ल पछ, सुदि, छज्ञेला पाख | चाँद्नी दे० (स्त्री०) चन्द्रिका, उजियाली, अभेोरी शत, बिछ्याते घी चादर, स्वच्छता |--चैक ( ४० ) चौड़ा बाजार, लीक, दिलछी के चौक को चाँदुनी चौक बहते दे । चाँदी दे (स्प्री०) रूपा, रमत | चाँप दे० (स्त्री०) बन्दूक का फछ, काठ, दबाव | चाँपना दे० (फ्रि०) दाबना, दवाना, जे।डना । था दे० (स्प्री०) पैबा विशेष, जिसकी पत्ती प्रात और सन्ध्या पी जाती है | आसाम की श्रार यद्द बहुत दोती है, चाय । चाउर दे० (५०) चावल | चाऊ दे० (६०) चाव, शौक, उत्साद | (वि") मनाइर, मन भावन, पसंदीदा । चाक़ तद्‌ ० (पु०) चक्र, कुम्दार की चक्ह्री,पाट, चम्की, जिसे कुम्दर वासन बनाता है । चाकऊचफ़्य तत० (पु०) दीप, उज्वछता, स्वच्छता । चाकना दे० ( #्रि० ) दद खींवना, पद्ददान के लिये चिन्द्र लगाना, छापना । (ख्रो० ) दिज्ञली। (रामायण में यह शब्द मिलता है ) । चाकर दं० (पु०) भ्ूस्य, कमेंचारी, साकर [ चाकरानो (स्त्री०) नै।शरानी, दासी । चाकरी दे* (स््री०) सै।करी, टइल । चाका दे० (पु०) चक्र, रप का पदढ्िया । चाफी द* (स्री०) चक्झी, पाट, जाता | चाकू दे" (पृ०) छुरी, असिषुद्धि, कलमतराश । ( रे४घ० ) चाणक्य चाक्रायण तत्‌० ( ग़रु० ) चक्रऑऊपि के घशज, जिनका नामेक्लेख छन्दोग्य उपनिषद में पाया ज्ञाता है । चाक्षुप (गु०) नेत्र सम्बन्धी, प्रत्यच्ष | 5 चाख दे० (क्रि०) चज कर, खाद लेकर | चाखना दे० (क्रि०) स्वाद क्लेना, चना । चाडुला दे० (प०) घोड़े का रक्त विशेष चाचा दे० (पु०) पिता का साई, काका, चचा | (खी०) काकी, चाची, चचा की ख्री | चिपत्य । चाञ्चल्य तत्‌० (५०) चश्नुढुता, भ्रस्थितता, चपलता, चाठ दे (स्त्री०) चसका, उत्मुझता, लाढसा, लाभ, छाबच, मादक, पदार्थों में रुचि छ्वोने के लिये पाच वस्तु, रसास्वाद । 4 चादक तव्‌० (पु०) मण्डल्नी, विद्या, इन्द्रजाल १ चाठकी तव्‌० ( गु० ) चाटक विद्या जानने बाला, है-द्रजालिक । चाटना दे० (क्रि०) चीसन, रसासाद लेना । चाटी दे« (स्त्री०) मथानि, मथनिया | चाडु तत॒० ( घु० ) प्रियवाक्ष्य, मीठा वचन, स्तुति, प्रशसा, छुशामद, लेइ का पात्र विशेष +-फार (पु०) प्रियभापी, श्रजुनन विनय करने धाछा, चापलूस ।--पटु (४०) मण्ढ, भाँड, ठगनेवाढा, मस्खरा, विदपक, ,खुशामदी ।--वादी ( ४० ) स्तुति करमेवाल्टा, प्रशधा करनेवाला, ,खुशामदी। चाड दे० (स्त्री० ) सद्वारा, श्राश्नय, धावश्यक्रता। प्रयोजन, चाट, ढंढली, दबाव | चाणक तत्‌० (१०) मुनिविशेष, गोत्रविशेष, उमाइने बाली बात, क्रोध उत्पक्ष करने वाली बात ॥ चाणक्य तत्‌० (१०) एक नीति के प्रन्ध का नाम, सुनिविशेष, नीति शास्त्र के भ्रसिद्ध पण्डित, यह चणक गेश्न में उत्पन्न हुए थे श्रतपुव उन्हें चाणक्य योत्र कदते थे । इनका प्रद्धत नाम विष्य॒गुप्त था । इमका बनाया अर्थशास्त्र और चाणक््यनीति दो प्रन्ध पाये जाते हैं । यद्व पाटलीपुत्र के चन्द्रगुप्त के मनन्‍्त्री थे । मुद्राराचस में इनडी नीति कुशकतता का वर्णन ई। गुणाव्य ने मृदत्कथा में इनझओ स्मरण किया है। अतएुव घन्द्रगुप्त का समय, इ९९ ० से पूर्द का मानना चाहिये | चाणर (६ इर४१ ) चारपाई चाणर तव० (५०) दानव विशेष, यद्द क॑सराज का | चापत दे० (क्रि० ) दवाता है, दबाते ही । योघा था, जो कृष्ण द्वारा सारा गया । चायडाल तत्‌० ( पु० ) एक अन्त्यज वर्णसझूर जाति विशेष, चण्डाब्च, भ्वपच (“- (स्त्री०) चाण्डालू की स्त्री, चण्डाली, चण्डालिन | सातवक तत्‌० ( धु० ) स्वताम ख्यात पक्ती, पपीहा | “-नन्‍्दुन ( ० ) सेघों के आते का समय, वर्षा ऋतु, बरसात का मौसम । चाताकिनी तत० ( ख्री० ) चातकी | खातर दे० ( पु० ) मद्दाजाल, ढुजेनों का जमाव, दुश्च- रिन्नों का सम्नुदाय, पडयन्त्र । चातुर तत० ( गु० ) चहुर, चढछाक, धूत, प्रवीण, बुद्धिमान, कुशल, चार, चौथा,प्रियमापी, नियन्‍्ता चाततुराभ्रम्य तच्‌० ( प० ) बह्मचयय, गाहंस्थ्य, बान- प्रस्थ और सेन्यास, इन चार आश्रर्मों का घ्म । चातुर्मास्य तत्‌० (पु० ) चार मास में समाप्त होने वाला ब्रत | िक्त, शठत्त ! चातुरी तत्‌० (स्वी०) दक्षता, नैषुण्य, कौशल, चतुरता, चातुर्य तत्‌० ( घ० ) चहुराई, चतुरता, घूत॑ता । चातुर्घणय तत्‌० ( छ० ) चतुदुण के धर्म । चासुर्वेद्ध दत्त" ( ६० ) चार बेदों के ज्ञाता, चतुवेदज्, बततुबेदी बाह्मणों का भेद विशेष | [की सामग्री । खात्वात्त तव्‌० ( छु० ) गते, गढ़ा, गदर, अ्निदोत्र, ज्ातृक दे० ( घु० ) पपीदा, चातक । चादर दे० ( ख्री० ) एकलाई, ओड़ते का एके अकार का वस्त्र, पिछौरा, पिछौरी । चाद्रा दे” ( छ० ) मरदानी चादर । चान्द्र तच० (गु०) चन्द्र सम्बन्धीय, चन्द्रमा का, सौम्प । आार्रमास तत्‌० ( गु० ) चन्द्रमा का मद्दीना, कृष्ण असिपदा से पूर्णिमा को समाप्त होने वाल्या माल । चान्द्रायण दत्‌ ( छु५ ) धत चिशेष, चन्द्रन्॒त, एक प्रकार का प्रायश्रित्त, इस च्रत में चन्द्र॒म्ता की क्या की घटती ओऔर बढ़ती के अचुसार भोजन में घटाव _ बढ़ाब किया जाता है। यह अत पुक महीने का होता है! स्वाप तत्‌० ( छु० ) घब्रुप, कोदण्ड, घलुर्दा, दाव, दवा, पुक बच का नाम [-कर्ण ( छ० ) घहुप झा रोदा, धजुप की प्रत्यंचा * ! चापत दे० ( घु० ) दवाना, दाबन | “मुनिवर शयन कीन्ह तब जाई, छगे चरण चापत द्वाड साई ?--रामायण | चापतत तव्‌० ( ए० ) चल्लुढाई! चपत्माहट । चापलूस दे० ( छ० ) खुसामदी, प्रशंघक, स्वुतिकर्तता, हा में दाँ मिलाना | [मद, अलुनय | चापलूसी दे० ( स्त्री० ) पल्लोपत्तो, फुस्रलाहद, खुशा- चापल्य तत्‌० ( पु० ) चपछता, श्रधीरता,नव्दी बाजी । चापी दे० ,पु०) दवाई, छिपाई, खुकाई। [पकड़ते हैं । चाफन्द दे? ( स्त्री० ) जाल, मकछाह जिससे मछली चावना दे० ( क्रि० ) दांतों से कुचठछना, पीसमा। चांदी दे० (स्त्री०) कुझ्ी, ताक्ी,कुची, ताले की कुझी | चाधुक दे० ( पु० ) कोढ़ा सवार दे० (पु०) घोड़े की चाल सम्हालने चाका । चाम तदू? ( ए० ) चर्म, चम्तद्ा, त्वक, खाल ! चामर तत्‌० (9० ) चमर, चँवर, राजा का एक चिन्द | चामर पाउना दे० (क्रि०) दांतों प्ले होठ काटना दाँव कटकटाना | चामोकर ठव० ( प० ) सुबर्ण, स्वर्ण, सोना, घतूरा । चाप्तुग्ंडराय दे० (३०) शथिवी राज पुक सामस्त राजा का नाम । चाछुण्डा तद्‌० (स्त्री० ) ढुर्मा, देवी, काली, येगगनी, चण्डमुण्ड राउसों को मारने वाली देवी, मातृका भेद) पुक देवी का नाम) येगनी का चास | चास्पेय तत्‌० (पु०) चम्पा एष्प,चम्पा का फूल, नागकेशर | चाय तव* (० ) [ चि+धन्‌ | सश्य, समूह, हफपं स्वाद आस्थाद, चोर, चाहता। दे० (स्त्री) चा, टी, एक चनस्पति जो श्रासाम में पैदा होती है | चार तथव्‌० (पु०) गृढ़ घुरुप, दूत, खोजी, अज्ुसन्धान- कारी, क्ारासार, दाप्त, आचार, कृत्रिमविष, सैख्या- विशेष, ४ (---क में (घु०) छिपकर देखना ।---चक्षु (पु०) राजा, क्ृपति ।--ठुक (वा०) डुकड़े डुकड़े, साफू साफ, छुल रद्दित । चारक त्व* ( छ० ) साइंस, चरवाह्दा, चराने बाला । चारण ठद्‌० ( घु८ ) जाति विशेष, भाद, यन्दी, स्तुति करने वाज्नी जाति, अमय्यकारी | चारपाई दे (स्त्री०) खाद, खटिया, चरपाई | श० पा००-- ३१ चारपाया चारपाया दे० (पु०) चैपाया, जाववर, पथ । चाय दे० (६० ) पौधे, छोटे घूछ, पश्चश्नों के साने की चीन घास आदि ।“गोई (स्व्री० ) फरियाद, दोदाई देना चारि दे० ( पु० ) चार की संख्या, चतुर, यधी, खुगल+ छवार ।--अधरस्था (स्त्री०) चार, अवस्थाएँ यथा जाग्रत, स्वप्त; सुपुप्ति, तुरीय । [निश्चज्षा हुआ * चारित ( गु६) चढाया हुआ, सीचा हुआ, भर चारित्र (६५ ) चाल चलन, स्वमाव | चआारी तद्‌० (गु०) चल्नेयाछा, गामी, चारों, चार । चार तत्‌* (गु०) सुन्दर, सुद्दावना, मनेहर, रमणीय, मनेक्ष | (५०) इृदस्पति, कुटकुम, केशर, कृष्ण के पुत्र का नाम | ता--(स्त्री०) सौन्दर्य, सुन्दरता, शे।भा ।--पर्णी ( स्त्री० ) सस्धपसारन श्रौषधि विशेष |--फन्ता ( स्त्री० ) दास, अडगूर, झिस* मिस ।--चाह ( पु ) श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम (--उिक्रम ( गु० ) बक्षवान्‌, वर्ठी, वक्तिष्ठ, मनोदर, गति विशिष्ट |--मती | स्त्री० ) श्रीकृष्ण जी की पृष्ठ कन्या का नाम, वुद्धिमान्‌ ।--केचन (गु? ) सुन्दर श्राॉंख वाला। (पु० ) हरिण, सूगा।--शिला ( स्त्री० ) मणि विशेष, हीरा! “-शील् (गु०) सुरुप, सुन्दरस्वमाव ।--दा सिनी (स्त्री* ) सुन्दर सुस्क्यान धाली । चारेत्तण तद्‌० (५० ) [ चार +ईंबण ] राममन्त्री, राजनीतिज्ञ। सिपल्ञावण्पयुक्ता रमथी । चायंड्री तत्‌० (स्त्री० ) मुन्दरी नारी, सुरुषा स्ट्री, चार्षाक तव« ( पु ) वाहंस्पत्म, सैकायतिझ, तक्िक, नास्तिक भेद, नास्तिक मत प्रवतंक ऋषी ) किसी का कहना है झि यद्द देवगुर छृइपस्ति ही थे । किसी के मत से चार्वाक वृद्स्पति के शिष्य ये । किछ्ली किधी का कष्टना है रि चार्दाक इस नाम का कोई था दी नहीं | यद्द न्‍्याय मत के सामान पुक दाशंबिक मत है| चायाक स्वर्ण, मुक्ति, भादि को पहीं मानते । ये लेःग स्वर्ग, मुक्ति यज्ष, तप, दान, भादि का खण्डन किया करते हैं। बेद के विधय में इनछी सस्मति भ्रत्यस्त निन्दिति है। ा्वाक दर्शन का दूसरा नाम खेकायत दर्शन है, क्योंकि लाकि६ विषय ही इस दुर्शंन का सर्वेस्व ( सर ) चालीस है | चार्वाक के मत से परलोक एक पद अर हु बार दो मठ ले को इक: अलरतक वह चस्तु है, अतएव वे उसे नहीं मानते | किस समय इस मत का श्रचार हुआ यथा यह निश्चय करना कठित है। विष्ण॒पुराण में भी इस मत का उब्लेख किया गया है । मद्दामारत के शास्ति पर्ष में चार्वारु को दुर्ाचन का मित्र बतझ्ाया दया है। वाज्मीकीय रामायण और तेतिरीय धाह्म थ में मी इस मते का पता चलता है। चाल दे० ( खो० ) चबछन, गति रीति, व्यवद्ार, परि री, घेग्श देने की युक्ति.गढ़न, छप्पर, घोंद ।-- जन (प०) ग्राचरण बर्ताव, 'रित्र |--पैकड़ना ( क्रि० ) कैहना, चढना, प्रचलित होना, घोड़े के गति सिखाना --चलना (क्रिण्) निवाहना, प्यवहार करना, घोया देना, घूतेता करना ।- ढाल (सं० ) चाल चलन, रीति भांति, व्यवहा(। चालक तत्‌० ( ०) [ज्टू+णहू ] चालन कर्चा चलाने बाबा, भेदक, रेचक, नटख दाथी । चालति (क्रि० ) चाढती है, धानती है | चालन तब» ( १० ) स्थानाम्तर, नयव, प्रेरणा) दूरी करण, साशण । चालना दे० (क्रि०) मोडना, पद्चाइता, छातना, भादा चलना, फटकना, देखना, झारना | चालनी दे ( खी० ) भ्राघा, भरना, छानतने का पात्र, आटा भ्रादि का मोटा भाग निकालने वाजा पात्र, श्राट छानने का पात्र, चढनी | [विए,कपठघोखा। चालवाज़ ?* ( ग़ु० ) घूक्ते, कपटी, छली-टी ( ब्ी० चाज़्ा दे० ( पु० ) गति, यात्रा, प्रस्थान; मुद्दत्त ! चालाऊ दे० ( पु० ) पूछ, निपुरण, दध, इशछ | चालाओी दे० (स््ी०) घूत्तता, निषुणता । चालान देन ( पु० ) भेपे हुए माछ की मूल्य संद्वित सूची, बीचक, रवच्ा, अपराधी का अपराध प्रमाणित किये ज्ञाने के लिये पुलिस द्वारा न्यायालय में उप- स्थित करने को भेजना । चालिया दे* ( वि० ) धूक, छुछी, कपटी | [रसिक। चाली दे* ( गु० ) नटखट, चम्बठ, चपत्न, रसिया, आानोस दे* (यु) दे। बीस चत्वारि शव संण्या, विशेष, ४० ।--याँ (गु०) चालीस संख्या का (१९ ) झुसलछमानें का मृतक उन्सव विशेष, चदए्तुम | चालीसा चाल्ोखा दे० (गु०) चाल्लीख वर्ष की अवस्था वाला,चिल्ला, ४० पद का कोई काव्य जैसे “हनुमान-चालीसा 7 चाह्तुक्य (5०) दक्षिण रा एक प्रवक् पराक्रमी राजवंश । चाच दे० (छ० ) चार अब्ञडठ, चाह, उत्कण्ठा, रुचि, अधिलापा, उमझ, हुलार, म्ेस | / [का स्थान । खावड़ी दे० (ख्री०) पढ़ाव, चट्टी, सुलाफिशों के उतरने चाचल्न दे- ( ३० ) तंण्डुट, चित, भ्रन्न विशेष | चाष तत्‌० ( पु० ) नव चातक, छूहटोरवा, नीजकण्ड, चयधा-- 'चारा चाष, जम दिशि लेई, सनौ सकल महल कहि देई। ?”--रामायण । ' ज्यापु तदू० ( पु० ) नीठकणठ । चास तदू ( ० ) खेती, कृषि, जेतवाई । चासा तद्‌० (पु०) किसान, खेतद्वा, हरचाह, जेततहा | चांह दे० ( स्त्री० ) इच्छा, अमिलाषा, प्रीति, सनारथ, लालसा, साँग, श्रादर | [हितू। चाहक दे० (पु०) चाइनेव/लछा, छेही, प्रणयी, द्वितकारी, आहत दे० ( स्त्री० ) चाह, इच्छा, भीति, अभिलापा, प्रेस स्‍्मेह | छिपा करना, पयक्ष करना । खाहना दे० ( क्रि० ) प्रेस करना, इच्छा करना, अमि- चाहा दे० ( पु० ) न के सप्तीप बसने वाला बगत्ते की जाति की पुक चिड़िया, इच्छित । चादहरचद्दी दे० ( स्त्री० ) परस्पर प्रीती, भ्रन्योन्य मैत्री | आदि दे? ( अ० ) देखकर, चिहार कर, इच्छा से, ब्वाजसा से, भेम से, चाह कर। _ अआादहित दे० ( ग्ु० ) इच्छित अभिरछापित, भिंय, . सनभावन--चादिता ( स्त्री०-)। चाहिये दे० (अ०) उपयुक्त है,उचित है,येग्य है | [की | च्ाद्ी दे” (क्रि०) देखी, देखने की इच्छा थी, चाहना चाहे, चाह) दे? ( अ० ) श्रथवा, किम्बा, वा, या, चाक्यान्तर सूचक | ड सिंओआँ तदू० ( बु० ) चिंचा, ईमली का बीज | चिंडदा दे? (9० ) चींटा, पुक कीड़ा जो सीडे के बहुत पसन्द करता है । चिंडेंटी दे" (स्त्री) चीटो, पिपीलिका । विउड्भा-घिडरा दे ( पु० ) च्योरा, चिड़वा, चूरा | चिक दे० ( छु० ) जवनिद्ा, परदा, वास का बना हुमा परदा, रोग विशेष, कप्ठाभरण विशेष, ऊण्ठा -. विशेष; कसाई, हुंढी ( रहई ) चिकीर्षा चिंकदा दे” (घ्ु० ) वस्र विशेष, उसर का बर्ना कपड़ा । ( ग़ु० ) चिट) तेल का मैल । चिकठा दे० ( घु० ) लेली, तेल बनाने वाली पक जाति विशेष | चिकन दे ( पु० ) एक प्रकार का कपड़ा, सद्दीनसूतती कपड़ा जिस्म पर हाथ छे घेछ जुडे काढ़े जाते हैं । चिकना दे" (छु० ) साफ़ सुथरा, सुन्दर, स्विग्घ, सेलहा, देलोंस, थोंदा हुआ, निर्लज, लम्पट । +घड़ा (चा०) जिसके मन पर किसी के कहने का कुछ भी प्रभाव न पड़े । छुद्ध स्वभाव का [+- चाँद (वा०) सुन्दर, रसणीय, मनेहर, मनोज्ञ) खुहावना । चिकनाई दे० (क्षी०) चिकनापन, स्निग्धवा, फिसक्षन । सिकनाना दे० ( क्रि० ) उज्वछ करना, साफ़ करना, चिझुन बनाना, घोंढना। चिरनापन (धु०) चिकनाई चिकवाहद ) चिकनाहठ दे०-( स्त्री० ) चिकनापन, चिकनाई | चिकनिया दे० (४०) चैछा, विस्ववी, लौखीन, छम्पट | चिमलना दे (क्रि०) मसल्ला, पीसना, चबाना; चूर करना / (जाति, चकरकला | चिकया दे० ( पु० ) ज्ञामि विशेष, मास बेचने वालि' चिक्मार दे० (पु०) गुल, कोछाइल, चिह्लाइट । चिकारन दे" (क्रि० ) चें थें करना, नाकी देना, कालाइल करना, युल करना, शोर करना, चिछाना। खिकारा दे” (धु० ) वाद्य चिशेष, एक प्रश्मार की सामह्, चीख, डरावता शब्द । 7 चिकारी दे (म्त्री०) मसा, फूडड़ाई, फूदरपन | , चिकित्सक तव० (६०) [कितव्‌ + सच + भ्रकू | चिकित्सा करने बाला, रोग दूर करने वज्ना, सिपक्‌। चिकित्सा तत्‌० (स्त्री० ) [ कित+ सन्त +आ ] पीड़ा प्रतीकार, व्याधि का अ्रपनय, रोग हठाना, ८ चैद्य कम, औषध करना, बैदकी ।--त्तय ( छु० ) [ चिकित्सा + श्राउय | चिकित्सा करसे का स्थान, ओऔषपधालय, दवाख़ाना (--शासरुन ( घु० ) श्राथु- बैदविद्या, चिकित्सा करने का शास्त्र | खिकित्खसित तत्‌* (णु० ) [ चिकित्सा + इत ] चिकित्सा किया हुआ । [की इच्छा, अभित्लाप | चिकीपा ठव्‌० (स्त्री०) [ क्ृ+ सन्‌ + भा ) करने चिकीर्षित ( रह ) चिंदना विक्रीपिंत तव० (यु ) कछि+सब+क भा ] अभि | चिड्डी दें० (स्री०) चिझ्षारी, पतक्, कीट! डापित, चाश्ड्धित, चमिप्रेठ, दृ४, चाहा हुद्या | विकीर्ष तन्‌० (घु० ) करने ही इच्छा रहनेवाल्टा, अमिलापी । चिक्ुर तद॒» ( पु० ) केश, छुस्तल, झूदंज, वाल, पक्षि विशेष, दुछ विशेष, रेंगने बाले सार श्रादि चंद दर, गिलदरी | (वि*) चपछ ।-पाश (पु) केश समूह । [चिरद्दोरना, सलेशना । विकरना ६० ( क्रि० ) चोचियाना, चोंच से विसेरना चिकोरा दे० ( गृ० ) चल, चएछ, तरल । चिक्र दे० ( गु० ) दशुन्दर, बकरी, घज़ा, छत, चिपटी नाक वाढा | यथा -- +श्राह्दे सेत चिक्क घन भर विटियन बढ़वारि, येते पर जो नहीं नसे तो ज्ञाइ करे अघवारि । ?” चिक्रट दे" ( गु० ) चिछ्टा, मलीन, मेंडा, तेलहा। चिक्रया ठत्‌« ( ग़ु० ) छििग्ध, चिकना, लिक्कन, सचि- बकत, किखतनेदाा । (३० ) सुपारी, इढ, दुच तेज अप्रि | चिंक्कन ( वि ) चिझुना, मैठा ] चिक्कता दे+ ( वि० ) चिहता, फ्रिसटनदार । चिक्कनों तद्‌* (स्री०) दकिखिनी सुपारी । चिक्रना ( क्रि० ) चिए्छाना, सिंघाठ मारता 3 विकरादि देन ( कि. ) दिक्लारते हैं, चिघारते ई, द्वायी का भयद्वर शब्द करना । चिक्कसे दे" (३० ) बादा, जव का मंदा, जद या गेहूँ करा मद्दीन भारा। हल्दी मिटा हुआ जव का घाटा । चिक्कद्दा दे” (५० ) चिकवा, छसाई | चिफ्का दे। ( सी० ) छुदुन्दरी, चूदी, सूस की पक जाति जिसे सर्प नहीं पकदइता । चिफकार दे० (पु०) जिघाई, दवापी का सयद्ूूर शब्द । जिपकी दे० (स्रौ५) सदी सुपारी । चिखुरन दे० ( ध०) नज्नली घास, सेत निराने पर निश्ची हुई घास । [घास निकालना | विखुएना दे ( कि० ) निताना, जोड़े ड्वए खेद मे विक्ूड्ठा, चिट्ठड़ी दे* ( छी*) कीटविशेष, औऋींगा, मींगा मछली । चिड्भनी दे* (खो) मुरपी रा बच्चा | चिड्ठा दें* (ध०) झुरगी का दच्चा ! विड्डाड दे० हघु०) चिकार, भयद्टर शब्द, द्वापी वा शब्द >मारना ( बा० ) भगदूर शल करना, चिक्कारना, हाथी का शब्द करवा | विड्डाड़ना दे ( क्रि० ) किज्रकारता, चिह्माद सारना । चिचडी दे० (स्री०) किलनी, एक घास विशेष चिघिड़ा दे* (प०) तरझारी विशेष ।. [शल करना | विचियाना दे० ( क्रि० ) चिल्लाना, एकारनां, जोर पे विठ दे० (खी*) टुकदा, अश विशेष, एक छोटा भाग; चम्जी । [हुआ, [पद्म में) चिता । चिंट॒कला दे? (पु०) रेट, कीचए, खुद्ध डुधा, इपित चि्कारा दे* (३०) चिन्ह, भड्ठ) दाग, ींटा। चिटकी दे? (स्री०) घूप, धाम, ताप, गर्मी । चिट्ठा दे० ( गु० ) गोरा, गौर बे, रवेत, सुख्दर रुपया, मुद्रा | दे० ( पु० ) साक्ष भर के नफ़ा शुकुसान के दिसाव की फुदे, चस्दर की सूची, उनेरत, मजदूरी, पूरा तथा ठीक ठीक घृक्तान्त। चिंट्टी दे ( स्तौ० ) पाती, पत्रो, बढ, छाय्री, परी, पत्र [पत्नी ( वा० ) लिक्षा पढ़ी; खतरों किता बत ।--रसा दे? ( पु» ) डॉक बॉदने वाली, डॉकिया । चिझ दे? (३० ) घान्यच्मस, चिफिरिक, गैरिया | चिड़ दे ( पु० ) भरुचि, द्ोच, घुणा, गढानि; कुटन, जबन, सिमाव, चिदू चिड़चिट्ठा दे० (गु०) क्रोघी, खुतसाई, चिदकने वाह । +-ना (क्रि०) तरकना, दरकना, चंटकर्ता, सुर्सः दाना | चिड़वा (६०) चिउ॒या। व चिड़ा दे० ( पु० ) चटक, पत्ति विशेष, गौरेया। चिड्ठाना दे? ( क्रि० ) सनाता, सिन्ञाना, कुंद्ध कला, छेश्ना । चिड़िया दे* ( ३० ) पषी, थण्डज, प्लेस, पदी ० स्ताना (१०) चिडिये की नुझभायरागाद । चिट्ठी (जी०) पर्दी, पलेह, ताश का एक रह का पदा। चिड्ठोमार दे* ( पु० ) बदजिया, ध्याप, हशाशारी। बधिझ) खिढ़ दे* ( श्री० ) देखे जिद । ज़िींमना । चिद्वना दे* ( क्रिः ) भपसद्न देना, मछान। बड़ेता। *+ चिणिड चिग्रिड दे" (स्री०) नृत्य विशेष । चचित्‌ तत्‌० (स्त्री०) ज्ञान, चेतना, चैतन्य, चित्त की चृत्ति, ( संस्क्त का एक प्रत्यय है जे अनिश्चय चाची है जैसे कश्रित, किश्विद्‌ ) | चित तदु० (छु० ) मत, चित, हृदय, अ्रन्तःकरण, सुघ, स्मरण, ओऔंधे का उल्टा --चाय ( वा० ) अभीष्ट, मनभावन, मन के इच्छा मालूम छोने वाजा ।--चेता (वा०) मनमाना, उचित सालूम द्वोना, जंचना, पसन्द आना ; ( क्रि० ) सावधान हुआ, चौकन्ना हुआ ।--चे।र ( वा० ) मन हरने बाला, अत्यल्त प्रिय ।--देखा (वा०) ध्यान देना; मन लगाना, भ्रधिक उत्सुकता से करना +- ह्वगना (चा०) मनाहर, सुद्दावना, सनभावना ।-- लाना (वा०) सावधान हैं। जाना, सचेत हो जाना। (स्त्री ०) दृष्टि, दीठ, श्रवलेकन, समझ चूक + (गु०) श्रय्टाचित, सीधा छ्लेटना, सुँह ऊपर करके सेना, बतान पढ़ना |--करना (वा०) उलटना, डतान गिराना, जीतना, हराना, पराजित करना | चित्कबरा दे० ( घु० ) चितछा, सतरंगा, रक्नविरज्ञा, कबरा, कछुर, श्रवछक |... [अवलेकन करना । सितना दे० (क्रि० ) रप्ना जाना, ताकना, देखना, खितरना दे० (क्रि० ) चित्रित करना, रह्मः देना, रह्ञमा, चित्र श्रनाला | सखितला दे० (गु०) दित्तकबरा, कछुर । चित (क्रि०) देखता है, घूरता है । चितवत (क्रि०) देखेता है, त्ताकता है | [नज़र, देखना। चितचन दे० (स््री०) दृष्टि, दुर्शन, म्ाकी, अवलेकन, चितवना दे० (क्रि०) देखना, दशेच करना,क्रटाच करना | चितह॒र दे" (ख्री०) खींचे, अनिच्छा, घुण्या । चिता तत्‌० (स्त्री०) झुर्दे के फूँकने के लिये चुनी हुई लकड़ियों ६ा ढेर ।--भूमि तत्‌० (स््लरी०) मरघट, श्मशान ।--शायी (ग्ु०) झुदां, मरा हुआ | विताखा दे० (स्त्री०) चिठा; स्टतक शंय्या । बिताड़ दे० (गु०) चित्त, उतान | [सूचित करना । चिताना दे० (क्रि०) जनाना, जताना, सावधान करना, फिताचना दे० (क्रि०) ज्वाना, चौकस करया | सिताचनी दे० ( स्त्री० ) जवायनी, सावधान करने का डपदेश | ( र8५ ) चित्र ज््््काशणऊशफएपएअइअ»४ अप ढ०»अअ अ्ज-&प--++++---+++तत_त>तन_.............. चितेरा तत्‌« (० ) चित्रकार, चित्र बनानेवाज्ा रंगसाजु । खिले (ऋ०) देखकर, ताककर । [करना | चितवीना दे ० ( क्रि० ) देखना, विल्लेकन करना, दर्शन चित्कार तत्‌० (पु०) चिल्लाना, चिच्ियाना, उच्चे:शब्द | बिच तत्‌० ( पु० ) [ चिव +क्त _ अख्युसन्धान करने वाली अन्तःकरण की ध्रुत्ति, मन, हृदय, ज्ञान, खुधि | -ताप ( घु० ) सन फी पीढ़ा, मानसिक दुःख ।--प्रसाद्‌ ( 8० ) भाहाद, हुफ॑, चित्त के सास्विक भाव का प्रकाश ,(--वान (प्रु०) अनु- आहक, कृपाबानू, दुवाहु ।--विश्नम (सु०) उन्माद, चित्त का ज्ञान शल्य दे! जाना |--विज्ञेप' (०) मन की चल्ुलता, उद्धिम्ता, ध्याकुछता |--तुत्ति ( स्त्रो० ) चित्त का विकार, चित्त की दशा |-- समुन्नसि (स्त्री० ) दम्म, अ्रहक्लार, सन का बढ़ना । खित्तत्व तद्‌० (पु०) पु जाति का ट्विरन, चीतल [ चित्ता तद्‌० (०) औषधि, पीधाविशेप । चित्ति तत्‌* (स्त्नी०) श्रघवे ऋषि की पत्नी का नाम, ख्याति, करें, बुद्धि की बृत्ति | वित्ती तद्‌* (स्त्री०) बुँद॒की, छेटा दाना । चिक्तोद्देंग तत्‌० (पु० ) चित्त का उद्देग, विरक्ति, व्याकुन्नवा । चित्तोज्नति बद्‌० (स्त्री०) गे, अ्मिमान, अदृदुगर | चित्तौर (इ०) मेवाड़ की प्राचीन राजधानी, राजपूताने का यह प्‌क प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर है और इसे गदलेतवंशी वष्पारावछ ने चसाया था [० चित्य तव॒० (छ०) समाधि का स्थान । चित्न तत्‌० (६० ) [ चित्र + अछू | तिज्षक, छवि, पट, आलेख्य, श्रदूभुत, विस्मय, मनेद्धर, श्रनेक पक्कार का रक्ष, तसवीर, बेलबूड़े |+--कंण्ठ (०) कबूतर; पारावत, परेवा |--फन्द्‌क (०) ज़िमी- कन्द्‌ ।-कार ( पु० ) चित्र बनानेवाले, दितेरा | +-कारो (स्त्री०) चित्रकार का काम, चितेरापन | +-+काय (३०) वाघ, व्याध, शेर, चीता “कूद (3०) पर्वत विशेष, छुन्देछखण्ड के अन्तर्गत कामता पदाढ़ के नास से घढ प्रसिद्ध दे ।--कैतु ( छु० ) इस नाम का पुक राजा हो गया है [+ चिंच ( रएई ) मुप्त (धु०) यमराज के लेसक का नाम, जा सब के पाप पुण्य लिखा करते हैं, क्गरस्थों के आदि पुरुष हैं । पुराणों में इनहे विषय में लिखा है कि इनकी उत्पत्ति बद्म। के अरद् से हुई है। सष्टि करने के पश्चात्‌ जब बह्मा ध्यान में मप्न थे उस समय कछम दवात किये श्रनेक वर्णा से चित्रित एक मनुष्य उत्पन्न हुश्ना । उसने उत्पन्न होते द्वी ब्ह्मासे पूछा # क्या करना है ” ? ब्रह्मा की श्रशज्ञा पाकर ये प्राणियों! के पाप पुण्य लिखने छगे | इनहझा लिखा विचित्र लेस गुप्त रहता है, इस कारण इनका नाम चित्रगुप्त पटा | ब्रह्मा की आज्ञा ही से कायस्थ इनकी जाति निश्चित हुई । अम्बष्ठ, श्रोवास्तव, माथुर, गौढ, मटनागर आदि नाम के नव पुत्र इनझे थे। ये यमराज के मन्ध्री हैं! कार्तिक शुद्ध द्वितीया के इनकी पूजा द्वात्ती है ।--देची ( स्त्री० ) इन्द्रा, वारुणी |-पक्त ( धु० ) तीतर माम का पी [--पढ (५०) प्रति, सूत्ति, फोटो | -“-भाज्ु ( ६० ) सूम॑, श्रम्मि, भ्रनठ, दिवाकर | भेपञ ( १० ) कहूमरी, एक औषधि का नाम । “-श्थ (पु०) गन्धव विशेष । इनका नाम श्रज्मार- पर्ण था | इनक पास पुर अनेक रहो से चित्रित रंय था इसी कारण इनके क्षेश चित्ररथ कहने छगे। इन ही ख्री का नाम कुस्मीनसी था।पाण्डवो के बनवाया के समय में अजुन ने इनऊे उस रथ के जला डाला । न4 से इनका नाम दुग्धरथ हो गया था । (२) घर्मरथ नामक राजा के घुत्र का नाम । यलिराज़ के चेन्नज पुत्र का नाम अड्ञताम था, येही अफदेश के राजा थे। राजा अक्न के घुत्र का नाम दृधिवाहन था, घर्मरथ के पिता दिविरथ इन्दीं के पुत्र थे। घममरथ के दी चित्ररथ चुच्र थे [--लिफसित ( गु० ) चित्र में ब्िखा हुआ, निस्‍्चेष्ट, चेशददीन, चेष्टा रहित ।-लेपा ( स्री० ) अच्सरा विशेष, छन्दे विशेष । दैस्वराज वाणासुर की कम्या पा की सस्ती का नाम। यह वायणासुर के मन्त्री कुष्माण्ड की कन्या थी। इसीने इया सी शाधेना आर द्रेवषिं नारद छी सद्यायता से अनिरुद्ध के श्रीकृष्ण के भवन से हर किया था 4--खेाचना (छी०) मदन पक्षी, मैना पद्ची -- विचित्र (गु०) चित्राहुद' नामावर्ण का, बहुरज्ली, अनेऊ प्रकार का, नाना विध --शाला (खती०) चित्र बनाने का स्थान, जिस स्थान में अधिक चित्र हाँ ।--शिखणिडज्ञ (घु०) दृढस्पति, देवगुरु ।--सारी (स्री०) अठारी, सजाया हुप्रा कमया ।-सेन (पु०) गस्धर्वे विशेष अद्वेत वन मे पक सरोवर के निकट इनका वास था । पाण्डव भी निर्वासित होकर, हसी वन में रहते थे । एक समय दुर्योधन श्रपनी सेना और मित्रों के साथ अपने चैमव को दिखाकर, युधिष्टिर आदि का दु सित करने की इच्छा से चंढा। इस तालाय के निशट जब वह पहुंचा तर चित्रसेन को चर्डा से इट जाने के लिये उस्तन कद्दा | चित्रप्तेन ने भी उचित उत्तर दिया। अय दोने। पत्त में युद्ध होने लगा। दुर्योधन की सेना द्वार गयी, कर्ण भादि बीरपुक्व पकड़ जाने लगे, दुर्योधन का एक सेवक युधिष्टिर के समीप गया और उसने भत्यस्त नम्नता से सहायता माँगी | मीम सद्दायता देने के बिख* कुछ विरुद्ध थे । परन्तु युधिप्टिर ने समझा धुमा कर, भीम, भ्रज्जुन, न$छ घोर सददेव को हुयेविन की सद्दायता के लिये मेज्ा | इनसे पगक्रम से अन्धर्वे सेना के छक्के छूट गये। यद इधर उघर मागने लगी | इन कोगें ने हुयेघित, उनकी खिर्षा तथा कर्ण झादि रथियों को कैद से छुदाया | गर्धर्व- राज, दुर्येचन आदि ओ लेकर युध्रिष्टिर के समीप आये, थार उन्हीने अपना अपराध क्षमा कराया। दुर्योधन ने भी “ चौते गये छुब्चे बनने दूवे घन छे घर भाये ” । की लेझेक्ति चरितार्थ की । ह खित्रा तब ( स्री० ) श्रीकृष्ण की एक सखी का नाम, चौददर्दा नहत्र, एक नदी का' नाम, भप्सरा विशेष, चितकवरी गाय | चित्राड़ तव० (४० ) [ चित्र +श्रक्त ] साँप, रक्त चित्र, हरताल, चीतल, ईगुर | चित्राजृद_ तत्‌० (थु० ) चन्द्रवशीय राजा विशेष ! महाराज शन्‍्तनु का राजकुमार, सद्धावीर मीष्म- पिल्यमद का सैतेला भाई था। सत्यवती के गम से इसकी उस्पत्ति हुई थी। इयके छोटे भाई का साम विचित्रवीयें था। शन्‍्तनु के झनन्‍्तर पद चित्राज्दा राजा हुश्ला था | इससे प्रजा प्रसक्ष थी | चित्राह्द नामक गन्धर्वे के साथ इसझा तीन वर्ष तक थुद्ध द्वोता रहा, उसी युद्ध में शन्‍्तनु कुमार चित्रा- डरद मारा गया। वित्राड़दा तत्‌5 (स्त्री०) अर्जुन की ख्री, मनीपुर के राजा चित्रवाहन की यह ऋन्या थी। इसके गने से वश्नुवाइन वामक पराक्रमशाली पुत्र -उत्पन्न हुआ था । अपने नामा के वंश में उनछा कोई उत्तरा- घिकारी न रहने के कारण, उनके राज्य का मालिक हुष्ला । [प्रकार की छी ॥ विन्षिणी तत्‌० (स्त्री०) चार प्रकार की खियों में दूसरे 'बित्रित (वि०) चित्र में खींचा हुआ, रह्गा हुआ । चित्रोक्ति ( ख्ी० ) अलक्कार युक्त भाषा में कहना, च्योम, आकाश । चिथड़ा दे० (५०) फटा हुम्ना कंपड़ा, गूदढ़ । चिथड़िया दे० (गु०) गूदड़िया, यूडढ़वाबा, चिरझृटिया, चिधड़े बाला | [चीरना, धज्जी घज्जी करना । चिथाड़ना दे० (क्रि०) फाइना, ज़ताइना, लथाढुन, चिये।ड़ना (क्रि०) फाड़ खाना, सभेरना । चिदू तत्‌० (पु०) चैतन्य, सजीव, जीवधारी | चिदाकाश तव० (घ०) चेतन्य,प्राक्ाश,ब्रद्म,परमाव्मा चिदात्मा तत्‌० ( पु० ) ज्ञानमय श्स्मा, ज्ञानखरूप, परमात्सा [परसात्मा । चिदानन्द्‌ तत्‌० ( छु० ) ज्ञान और आनन्दस्रूप चिदाभाप्त तत्‌० ( पु० ) ज्ञान, ज्ञान का प्रकाश, जीवात्मा । [(बि०) स्कृर्तोप्तानू, मनेहर । वचिद्रूप तत्‌० (गु०) ज्ञानमय या ज्ञानस्वरूप परसात्सा, चिनक दे० (पु०) घुनचुनाइट, जलन सहित ढंढं, सत्र चली की नज्नन और पीढा । चिनग दे० (पु०) जलन, सूत्रकृच्छूरोस । चिमसना दे० (क्रि०) दीसना, जछून द्वाचा, चिंछाना | चिनगारी, चिनगी छे० (स््री२) लूका, अपि स्फुलिद्ध | खिनबिनाना दे० (क्रि०) चिललाना, चीखना, आह सारना | [घिचिया केला, चिनिया बादाम | चिनिया दे" ( वि० ) चीनी, सफेद, छोटा, जैसें-- चिन्त तदू० (स्त्री०) चिन्ता, चिस्तना, ध्यान, सोचा फिक्का, स्मरण) सुघ | चिन्तन तत्‌० (एु०) अभ्यास, ध्यान, स्मरण । !॥ 3 ( २४७ ) € चिप चिन्तना तद॒० (क्रि०) अभ्यास करना, सनन करना, ध्यान करना। [फ़रिक्क करने योग्य, सोचने येग्य | चिन्दनीय तद्‌० (बि०) चिन्ता करने योग्य, भावनीय, विन्तवन तद्‌ ० (०) चिन्तन देखे । चिन्ता तत्‌० (स्त्री०) चिन्तन, ध्यान, भावना, उद्धेंग, उत्कण्ठा, विषाद, कातरता, भय, न्नास, सोच, दवित चस्तु की प्राप्ति न द्वोने का दुःख ।--को मुद्रा ( वा: ) ध्यानमम्नता, से।च की अ्रचस्था --कुल या तुर ( ग्रु० ) [ चिन्ता + आाकुल या शातुर | उद्ठि्न, च्याकुल, चिन्तित |--ग्वित (गु० ) चिन्तायुक्त, उदास, उनन्‍्मनस्छ ।-पर (ग्रु० ) सावमायुक्त, चिन्तित -मणि ( घु० ) ब्रह्मा, कक्पित मणि, परमेश्वर, एक बुद्ध का नाम, फण्ड़ में चिन्तामणि, मैँवरी वाल्य घोड़ा | एक गणेश विशेष, यात्रा का एक योग, सरखती देवी का मंत्र |-वैश्म तत्‌० (पु०) मंत्रणागृह, ग्रेष्टीयुद्द । चिन्तित तद्‌० ( गु० ) [ चिन्ता + इतच्‌ ) चिस्ता- निवत, भावनायुक्त सोची | चिल्त्य तत्‌० (वि०) बिचारणीय, विचार करने येग्य । चिन्दी दें ० (जी०) डुकडढ़ा, कपड़े का डुकड़ा। चिन्मय तत्‌० (पु०) चैतन्यमय; परमात्मा । चिन्ह तत्‌० ( एु० ) छक्षण, पहचान, धक्के, दाग,, परिचय, पताका । चिन्हवाना (क्रि०) पहिचान कराना | लिल्द्यानी दे० (ख्री०) निशानी, सहिदानी । चिन्हार तच्‌० (पु०) परिचित, पहचाना हुआ, ल्लज्षित, अट्टितत, जान पहिचान । चिन्हारी तदू ० (स्थी०) परिचय, जान पह्िचान | चिन्हित तद्‌० ( गु० ) चिन्हयुक्त, अद्वित, मनेनीत, सक्लेतित, दागी । चिपकना दे० (क्रि०) लगना, सदना, चिपक जाना, सटजाना, दे वस्तुओं का श्रापस में मिल जाना। चिपकाना दे० (क्रि०) सटाना, छग्राना। [लिजकिजा। चिपन्निपा दे० (यु०) बसदार, छछ्ततनाता; स्ब्मेवाला, चिपतच्िपाना दे (क्रि०) छसलसाना [ चिपदना दे (क्रि०) लिपटना। विपकना, सता! चिपटा दे* (यु०) सदा हुआ, चिपका; लिपटा, चैठा च घैंसा हुआ, चपटा | विपटाना चिपटाना दे? ( क्रि० ) सटाना, छिपटाना, चिप्पी लगाना, चालि्ञन करना । चिपड्डाद्या दे” ( गु० ) किचड्ाई या किचराई हुई आँख, कीचइ भरी अखि। . [क्ण्डी, गोइठी । चिपड़ी, चिपरी दे० ( स्री* ) उपरी, गेहरी, उपला, थिपरा दे* (4०) गोद, छासा। विपरक दे० (पु०) धान्य चमस, चिड्डा । चिप्पक दे (यु०) बिछलाडा । (पु०) प्िविरोष । दिप्पा दे० (पु०) चीप, पैवन्द, जोड । विप्पी दे० (सत्री०) टिकिया, पैसंद, थिगरी, टिक्री, कूटी और फटी बच्तुओ में जे। जोडी जाती है । पिवावला दे० (१०) जलटकपन, छडकेकासा, छुछहूछा। खिविल्ला दे० (१०) नटसट, चित्रिक्त, चिल॒विक्ा | चिघुक सद्‌« ( चु० ) ओढ के नीचे का माग, हुड्डी, ढेढ़ी, दाढ़ी, बृषविशेष, सुचकुन्द बृद । विमच्मा दे० ( १० ) तेल्ट, तेल्न का मेल, जमा हुआ तेल । [सिटना । विमटना दे» ( क्रि० ) चिएकना, चिपटाना, क्षिपटना, चिमटा दें* (५०) सोचना, चौमटा, आग उठाने के लिये लेई या पीतल रा पुक भ्रकार का बतेन सेंढसी, शिवटा ! [छगाना । चिमदाना दे० ( क्रि० ) लिपटाना, चिपटाना, सल्ले चिमटी दे० (सत्री०) घुंटकी, खेंदेसी, छोटा चिमटा । चिमड्ा दे० (यु०) रुचीछा, कड़ा, दिमद्ा, चीम३ | चिमड़ी द० (श्री०) वर्ड, सूसी हुईं शप्क। चिमसा दे० (५०) पानी का सरेस, लसलसा। खिर तत्‌० (अ०) बहुत काल, दीघेकाल, बहुत दित का, यहुत दिन तक, विल्म्प, देरी, अरसा ।-- कारी ( भु० ) विल्म्य से काम करने बाला; चाल्सी, दीधंसूती, शिपिल, दीला |-काल (पु०) दीघेक्ाल, अनेक दिन, सदा, सव समय [--- चिराना ( क्रि* ) चिदचिद्वाना, कटकटाना ॥- जीयक ( गु० ) दिस्ज्ीवी, बहुत दिनें तक ज्ञीने बाला एक बच विशेष ।--जोपी दीघेजीवी, विष्णु, काक, जीवक दृष्त, शात्मल्वी बृद्द, सारण्डेय मुनि, अस्दृष्पासा, यनि, ब्यास, हनुमान्‌, विभीषण, ओर परशुराम, ये चिरजीवी है |- स्थायी (ब०) नित्य, सेदा रहने बाला | ( रद ) चिलकना चिरई (स्त्री) पक्षी, पंछी, चिड़िया । चिरकना (क्रि०) थेटा थोड़ा पाखाना फिरमा । चिय्कायी (यु०) दी सून्नी, भआाजसी | चिरम्‌ तत्‌० (अ०) देर, देरी, अरसा, अतिकाल । चिरज्ज्ोव तद्‌० ( ग़ु० ) दीर्घायु, बह भाशीर्षाद के अ्रध में कहा जाता है । बिला, दीघांवु । चिरज्जीवी-तद्‌* ( वि० ) चिरऔबी, बहुत दिनें जीने चिरकुद दे० (पु०) चिट, डियशा, फटा; घुराना। चिस्कुटिया दे* ( गु० ) गुदडिया, चिड़िया, गूदड़ बाद, योगिये का एक भेद, स्थायी झोपड़ी | चिरचिरा दे० ( पु० ) भ्रपामायं, पौधा विशेष, एछ ओऔपध का नाम । चिरचिराना दे० ( क्रि० ) चरचराना, चरचर शद होना, बरुदाद करना, क्रटकटाना, केंटकना । चिरचिराहुट दे० (स्प्री०) चरचरापन, मनमानाइट। चिसजीच तद्‌” (गु०) दी्घ जीवन, दीर्धायु, ढपर । चिरण्टी तत्‌० (स्त्री०) युवती स्त्री, पिता के घर रहने वाली युवी, विवाहिता या अविवाद्विता पन्‍या । चिरन्तन तत्‌० (गु०) पुरानी, प्राचीन । बिरवाना दे० (क्रि०) चिताना, फडवाना । चिराद दे" (धु०) माँस सूनने की गन्‍्ध । चिराग दे* ( ए० ) दिया, दीपक, प्रदीप, पधा-- ४ चिराग जबाओे ? | घिराग घुझक गया,” « चिराग तल्ले अंधेरा । बिराना दे० ( क्रि० ) फड़वाना, चिर्वाना । ( वि ) चिरझलीन, पुराना, फटा हुआ, खिए गया, सडक गया, चटक गया | दीघ॑नीवी । चिरायु तत्‌« (9० ) देवता, (गु० ) चिरजीवी, विस वद्‌* ( 8० ) बाहु और बन्धे का जोड़, मोढ़ा । चिरेया दे० (स्मरी०) चिहिया,पी,वर्षां का पुष्य नघचन्न | विरोंजी दे० (स्त्री०) पियाढा, शुप्कफछ विशेष । चिररी द० (सत्री०) विनती, प्रार्थना, विनय, श्रजुनव, खुरशामड | चिमंटी तव्‌० (स्ट्री०) कछड़ी । चचीढ। चिल दे* ( १+ ) पद्धि विशेष, अतायी, हुई पढ़ी, चिलक दे० (ल्यी०) चमक, झलक, प्रकास) दीति | चिलक ना दे० (कि>) चमक, स्टकना, रद रद कर दर्दे की टीस होना । ॥ चिलगेज्ञा विलमे।ज़ा (१०) मेद्या विशेष । चिलचिल्ल (स्त्री०) भ्रवरक, झशञ्रक | [चिढलाना ) - चिलखचित्लाना दे० ( क्रि० ) शोर मचाचा, किकियाना, चिलडाहा दे० ( गु० ) जुये| से मरा हुआ, जुयेटा, चिहलर भरा | चिलविला दे० (वि०) चिह्नविल्का, चपछ, नटखट। चिल्तमम या चिलिम दे० (स्रो०) मिट्टी का एक वत्तेन जिसमें तस्त्राइ और आग रखऊर हुक्क पीते हैं | चरदार (ए०) चिक्षस भरने वाला नौकर |--पर दारी (स्ती०) चिलम भरना, चित्रम पिलाना, चिहृ॒म पिलानेवाल्े का काम |--तमाकू [सत्री०) चिछम और तमाकू । “चर (मु०) भ्रधिक चिलम पीने वारा | चिलमची दे० ( स्थ्री० ) हाथ श्रादि धैने का देग के आ्राकार का पात्र, छोटी पतली चिंजिस | चिलमन, चित्षवन दे० (स्त्री) चिक, रूमरी। यथा- दे “आओ पिया मेरे नैन में, छुतली देईँ विद्धाय । पलछकन चिलतवन डार दूँ, बैठे बीव बन्नाय ॥7! फिलहता दे० (गु०) पट्टिछ, किचढ़ाहा, पंकेला । बिलहीरना दे० (क्रि०) ढेगाना, ठेकराना । चिलिक दे० (ज्वी०) मेंच, हेंच, सेचचट, ब्यथा, दर्द । चिल्लड॒ दे० (प०) चीलर, जूँदे, ढीलू । चिल्लपों दे० (स्त्री०) चिल्लाना, शोरगुलू, पुकार, दुद्वाह्‌ | चिल्ला दे (०) घन्रुष का रोद, ज्य।, पगड़ी का छेर जो कक्षावच्तू का द्वोता है, चालीस दिन का समय, चालीस दिन का विक्वट जाड़ा, “चिल्ला जाड़े दिन चालीस, धन के पस्द्दद्द मकर पीस ।2 लिल्लाना दे० (क्रि०) चिह्दारना, पुकारना, शेर करना, ऊँचे स्वर से बोज्ना । बिल्लाहद बे० ( स्प्री० ) पुकार, चिंघार, शेर्पुल । चिल्ली दे० (स्त्री०) लेथ, वधुआ का शाक, अण्डे का घना भोजन विशेष | [वाला लड़कों का एफ खेल । चिल्हवाडु दे? ( डु० ) पेढ़ें पर चढ़कर खेला जाते चिद्चुक (छु०) ठेड़ी । चिह्यसा दे० (क्रि०) तंग द्वाना, विराग उत्पन्न द्वाना विहिकना दे? (क्रि०) हुढकना, समघताना, पहियों का येलना, पीहिकना | ( रध8 ) चोनो 'चिहुर तद्‌० (३०) चिक्र, चाल, केश । चिहँँकना (क्रिग्) चैकना | चिहँटना (क्रि०) चुटकी काटना | चिहुँदनी दे० (स्री०) छुँघची । चिहँदी दे+ (ख््ी०) चुढकी । चौंठी दे० (स्लो०) चित्रती, चिऊटो, पिपीलिझा | चींचपड दे० ( ल्री ) किसी बड़े था सबक के सामने प्रतिकार या विरेध में किया जाने वाढा कार्य । चींधना दे? (क्रि०) फाइना, चिधड़ा करना, थिल्‍ू- थिल्ा द्वोता चीऊगा दे० (०) कीटविशेष, स्व॒माम प्रसिद्ध कीठ | थोक दे० (छु०) चिहल्लाहट । चीकट दे० (५०) तैल का मैल, जध्षार मिद्दी [ चीकन दे० (वि०) चिकना, फिसकन | चोख़ दे० (9०) चिंघाड़, चिह्लाहट। चोख़ना दे० (क्रि०) चिह।ना, चखना, स्वाद लेना । चोखर, चीखला दे० (पु०) कीच, गारा चीखा दे ० (क्रि०) चखा, स्वाद लिया | चीखुर दे” (०) गिलूदरी, कठबिल्ली । चीज्ञ दे० ( सत्री० ) सत्तात्मक पदार्थ, वस्तु, अव्य | आशभूपण, [जैसे, वह चीज गिरों रक्षकर भ्राये हैं, लड़की हुण्डी है उसे कोई चीज बनवा दो । च्ीठी दे० (स्त्री०) चिट्ठी, पत्नी [ चीड दं० (पु०) देशी ले'हा विशेष, का्ठ जाति । जीत तदू० (एु०) चित्त, मन, दिल । चीतना दे० ( क्रि० ) चाहना, हृच्छा करता, मभारथ करना, चित्र यनाना, चित्र करना, जितेरना । चीतल दे ० (छ०) तेंदुआ, चीता, बाघ, सप॑ भेद । चीता दे० ( पु० ) चाह, इच्छा, मनारथ, छुद्धि, पुक ज्ञाति का ब्याप्र । चीत्कार दव्‌० (१०) चिल्छाइट, चिह्ठड़, छुकार चीथड़ा दे० (छ०) दत्ता, छुराने रद्दी कपड़े का डुकढ़ा । चीथना दे० ( क्रि० ) चिथेड्रता, वकीटवा, फाढ़ना, खरोचना, डुकड़े दुकड़े करना । च्योन तत्‌० (ए०) देश विशेष, भारत के उत्तर पूर्वस्थित देश, अन्न विशेष, जिसका साहा बनता है, ऋंडी, सूत, सीसा, घातु । [देश की बस्तु । चीनी दे० (स्त्री०) खाढड़, शक्कर, शर्त, (ग्रु०) चीन शाण० पा००-झे रे चौनाँघुक सोनाँशुकू तन्‌० ( पु० ) रेशमी दस्म, चीन का बता दच्ध विशेष । करना, जानना । चीहंदना तद्‌" ( क्रि० ) पहचानना, परिचय (महावरा) घोन्‍्दा तदू० ( कि० ) पदिचाना| (पु) बिन्द, निशानी | चीपडु देन ( पु० ) श्र का मछ, भ्रप्ति का कीचई । चीमडू दे* (वि० ] जो क्ींदते मोढने झुकाने से न तो हूटे न फटे | कपड़ा, सादी, खींच | चोर तव० (६०) पेड की दाद, पुराने चत्तर का डुकढ़ा चीरना देन ( क्वि० ) फाइना, फाड़ डालना टुकड़े इकडे कर देना । थीरफाड़ दे (क्वी०) चीरना फाइना। चीय दे* (ल्लो५) परी, गाव की सोमा का पत्थर, चीर कर बनाया हुथा घाव (- उतारना (क्रिब) किसी पूरुप का किसी स्त्री के साथ प्रथम समागम | - बेल्द्‌ दे० (पु०) चीरा धच्चिनेवात्य | ( वि० ) कुमारी, क्यारी । चोरी दे (ख्वी*) मौंगुर, एक कीट विशेष । चीरीता दे० (३०) सूनिम्ब, घोष विशेष । चोण ह्दु० ( पु» ) विदीर्ण, फटा हुआ, प्रण्डित ।-- पर्ण (३०) निम्य घृक्ष, पुराने पत्ते | चौक दे* (६० ) एक पस्लेस का. नाम पट्टा मारना ( धा० ) चह्याफ्र से छीन सेना, सापट लेना | चीलर हे- (६) दीन, यु, यूं, चीहर । चोजा दे० ( पु० ) दूँग ही पीढी या मीठे आरे के थी में सिक्के पुक प्रकार के कढ़ाई में हप से सार कर यभाये गये धुरामडे चीचर तब» (शु० ) संम्यापी का बस्र, कौपीन। चुधान देन ( सख्ती: ) उरण, करना, जल निड्टने को सूति, महर, गदूढ़ा, सोदा । सुप्याना दें (छि० ) निकालना, टफकागा | चु कतती हे (द्री०) निपयारा, समाप्ति, स्याप, फैसछ 5 छु कभा दे (द्ली० ) समाप्त होना, शुद्ता द्ोना, भर होना, घद़ना, न्‍्यून होना । घुका दे। (८०) अुद्ेती, चुचती, चुचका । चुकाना दे* (8०) निपदाना, मे दहराता घुझौता दे० (६०) निपयाया, नियम ] ( २४० ) न चुटला चुकड़ दे" (पु०) कुत्दिया, पुरवा, भोलुआ। चुकार दे० (धु०) गजेन, गरम । चुक्की दे० (खो) छल, घूतोई, धोखा, चार्पन ) चुकी द्॑० (छो०) नियम, तिहपण, परिमित, परिणाम, समाधान, निष्पति, फैसला]... [ अम्डशाक । चुके तद्‌० ( घु० ) चुकू, खट्टा, अम्दरस, खट्टारस, चुगन दै० (खी०) घुनन, विनन, चुनत । चुगना दे० (क्रि०) हूँ गना, घुगना, जिनना। चुड़ी दे? ( ख्ी० ) बन्धान, अ्रष्नदान, भिक्ता, पृ प्रकार का सरकारी कर, ओ दूसरी जगह से थाने बाली नई वस्तुओ्रे। पर छगता है ।--बर ( पु० ) जद चुह्ी वधुल्न थी जाती है। [दिवा, खुमझाना। चुचकारना देन ( क्रि० ) आश्वासन काना, सामलना चुवकारी दे० (स्री०) धुमकारी, फुस राई, पुचझरी | चुवाना दे* (/#०) चूका, टपकना, टपटपाता, गिरना, बहुना। चुद्यड़ दे० (३०) बढी चँची, मोटा स्तन, थड़ी छाती। चुओे तत्‌० (५०) मुनि विशेष, चाच | चुल्लेझ तद्‌* (१०) मेंड, मेष । चुदकी (स्री०) नेचि, दे! भ्रदगुलियें के मिलाने से मे! मुद्रा बनती है। मुट्ठी मर रच, पचरक फूड के किये बाघ, जिसमे कपठा सफेद हो रद माता है। ५१% प्रकार का ग्रोटा, मिले विलियाँ भी कहते हैं. ए6॥ प्रकार का चूरन, छीए हुए कप को फ्रेाना, खियो के श्रेंगूढ़े में पहिनने की अंगूही। पयाई, छुटकी बनाना |--चढ़ानां [वि०)] रुपया पासना। श्रंगुक्षिये। घे कपद्ा चीरना ।>-्गाना ( वा० ) जेब कांथ्ना |लेना (वा०) दुदाना, नाचना, आया करना, गाना, गरम काना बेपद्ात करना। कास करना, दिक करना |--में (वा०) शीम, पहुत शीम ।--बन्ञाते में (वा०) अलन्त शीमर यों पं उड़ाना (वा०) हंसी में बच्च देगा ।-यें में काम हीना (वा०) शीघ राम इशता चुद्युज्ा दे (४० ) विछच्षण वात, क्षदझा |-- डुना (दा०) विलक्षण वात कहना, कोई णेसी चाव कहना जियसे कोई नयी दाठ पेंदा दो चुणफुद दे- (द्वी०) कुटघर चीर ।.. िदीआा। चझुदला दें ( धु* ) चुटिया, यूडा, चार्टी । ( वि? ) चुदाना चुठाना दे० (क्रि०) घाच लहूगना, घुटैछ द्वोना । खुट्या दे० (छु०) लेटी, चारों का स्ेद जानने बाच्ा, (स्री०) शिखा । [चेटिल करता, जखूसी करमा। खुद्याना दे० (क्रिग) घाव करवा, आक्रमण करना, चुटीज्ी दे० (गु०) घायछ, आहत, ज्ञव चिक्तत । चुड़िहार, खुड़ीहारा दे? (प्र० ) चूड़ी बनाने और बेचने वाला | चुड्डधा दे० (पु०) चीऊड़ा, चबेए, चारा । खुड़ैल दे० (स्त्री०) प्रेतनी, डाकिनी, फ़ूडढ़ । चुनखुनी दे" (स्री०) खद्भलाइट, कण्ह्‌, कृमि, खर्जू | खुनस या चुसट दे ० (स्त्री०) खुनन, तह, परत, तल | चुमरी दे" ( खी० ) साड़ी, स्तियों के पहनने का. रह्जीन बस | चुनामा दे० ( क्रि० ) विनवाना, इंटे जुबाना, इंटे चुनवा कर दवा बेना, गाढ़ देवा, तेपना । चुनावद दे० (खी०) चुनट, तद्द। परत । चुनाटी दे० (स्तरी०) चूना रखने का पात्र, चूनादानी। चुनाती दे० (ल्वी०) जलकार, ग्रचार, बढ़ावा, चिट्दा, घिक्कार । झुन्धला दे० (गु०) तिरसिरा, चक्ंधा, नेन्नरोगी । चुन्धलाना दे० (क्रि०) चैंधियाना, तिरमिसा होना । झुन्‍्धा दे० (गु०) जिसे मन सूमे, छोटी अखिंबात्ता | बुला दे० (क्रि०) चुयना, घुरल्लेना, खुनना, विनना । झुन्नी दे० (खी०) छोटी पद्मराग मणि, लकड़ी के चोदे छोटे इुकड़े | जिपन, अवाकू | झुप दे० (यु ) मिः्शव्द, भीरब, मौन, अनबोल, चुपचाप दे० ( ग॒ु० ) सीन, बिन बोले चाले, निःशब्द, गुप्त रीति से, शब्द-रहित । खुपड़ना दें० (क्रि०) चिकनाना, सछना, मसलना | * खुपाचुप दे ०(गु०)छुप द्वोकर,गुप्तरूप से,अछस्माव,सहसता। जुप्पा दे० (वि०) कम बोलने बाला, चुना । चुप्पी दे० ( स्त्री० ) मौनत्व, निःशब्दृता, शब्दृदीनता, ख़ामाशी । बादल । खुमको दे० ( स्त्री० ) डुबकी, घुड़की, गाता, अब- चुभना दें० ( क्रि० ) घूसना, पैंठना, ब्रिघना, छिदुना, छूद्य में खटकना, चित्त सें बना रहना, सझ्सन, लीन | झुसाता या चुमेनना दे? ( क्रि० ) घुछ्तेड़ना, वैडालूना, छेदना, बेचना | ( रह ) चुसकी चुमाना तदू० ( क्रि० ) चूमा दिलचाना, विवाद की पक रीति । चुमकार दे० (छु० ) चुचकार शब्द, फुस्छाना, अ्राश्वासत्त देकर वश में करवा | [जन करना | चुमकारना दे ( क्रि० ) टिटकारना, फुसछात्ता, जत्ते- झुम्मा तदू० (एु०) छुम्बा, मिट्टी, ओेठ से ओेठ छूतता | चुम्बक तत्‌० ( घु० ) एक प्रकार का ल्ेाहा, पत्थर विशेष, ले।हा खींचने वाली एक घातु ! चुस्त्रन तत्‌० (छु०) सुखसंयेग, घुम्बा, चुमा । चुस्वा तदू० (प०) छुम्बन, चूमा। चुम्बित तव॒* (गु०) कृत झुम्बम, घुस्वा सिया हुआ । चुरकी दे० (स्त्री०) चिक्॒र, शिखा, चोटी । चुरकुठ दे० (छ०) फटा कपड़ा,चूरचार, चूरम, बुकनी । चुस्गाना दे ० (क्रि०) घकचा, चिक्काना,वें चें करता | चुरमुरा दे० (गु०) झुर चुर करनेवाल्ला, चर्षण विशेष | चुराना दे* ( क्रि० ) चोरी करना, अपदरण करना, झरना । चुरी दे? ( स्त्री० ) चूड़ी, काँच की फैंगनी । चुरुगना दे० ( क्रि० ) बढ़बढ़ाना, वकना । चुरते दे० (स्त्री०) तन्द्रा, आजस, ऊँघ, ऊँघाई। चुत्व दे० ( स्त्री० ) खुजलाइट, खुजली, सात, कण्डू । चुलकना दे० ( क्रि० ) विछबिलाना, घुलखुल करना, खुज्ञाना । चुलचुल दे० (9० ) चशुरुता, चपत्षता । चुलचुलाना दे० ( क्रि० ) ग्रुदगुदाना, कुलबुछाना; खछुजलाना, चुछखुल करना | चुलचुली दे० (क्रि०) ग्ुदगरुदी, कुछबुल्ली । झुलघुला दे० (गु०) चच्चुल, चतुर, चपक्त, नटखद। चुलदुलाइट दे० ( स्त्री० ) चन्चक्षता, छुटपटिया । चुलघुलिया दे* (गु5) ख़ुलघुल, चम्चक । चुलहाई दे० (गु०) कामातर,फामी, रम्पट,व्यभिचारी | चुलहारा दे० ( गु० ) काम्रक, कामातुर । चुलाना दे० (क्रि०) चुवाना, टपकाना, गिराना | चुल्ला दे० ( ग्र॒ु० ) झुन्धला, डुन्‍्धा, तिरमिरा | झुललू दे० ( पु० ) पलर, पसर भर, एक हाथ का सम्घपुयकार [| चुबाना दे० ( क्रि० ) ठपकहाना, धीरे धीरे गिराना । खुसकी दे० ( ख्ी० ) सुंहमर, मुड़की । चुमकर चुसकर दे (गु० ) पियकद़, खूर पीने वाछा, अ्रधिक | चूड़ी दे० चूसने वाला । चुसाना ( क्रि० ) घुसवाना | चुस्त (गु०) कप्ता हुआ, तत्पर; चलता | ।चुस्सी दे* (स्री० ) झिस्ी फल का रस चुहचुदा दे० ( गु*) शोमायमान, मनोहर, गद्दरा रह्ठा गया, रसीडा । ( १४३ ) च्चूा ( सत्री० ) थ्रामूषण विशेष, इस अलट्डार का पहनना सघवा का चिन्ह है।.. [माग, पुद्टा । चूतड़ या चूतर दे० ( ० ) नितम्ब, जंधा का ऊपरी चूतिया दे (प०) उकलू, उनबरु, नासमस, मूर्ख |-- चकर दे (छि०) चूतिया --पन्‍्थी दे" (खी०) मूखेता, बेवकऋूफी । व्स्ति। जिद खुद करना । | च्यून दे० ( 9०) गेहूँ का चूरन, थटा, पिलाव, पीसी चुहचुहाना दे* ( क्रि० ) भ्रधिक रह, पत्नियों का ब्यूना दे० (9० ) चूर्ण जो ककद पत्थर या सीप के चुदल दे० ( ख्री० ) गोली, उक्ष, विनाद। चुदल्ा दे ( गु० ) मसफरा, ठठोछा, देंखोढ । चुदली दे० ( गु० ) देपे घुददला | च्यूचहाट दे० (ख्री०) विढियों का शब्द । (परयोघर । चूची दे० ( खी० ) कवच, स्तन, यन, छाती, भिटनी च्यूठा दे० ( पु० ) चोदा, कीढ़ा विशेष, जो जमीन में रहता है । [बकाटना ॥ च्यूंठना दें ( क्रि० ) तेोइना, नष्ट करता, फोडना, घूझआना दे* ( क्रि० ) घुलाना, घुवाना, निकालना, मारना, टपफाना चूक दे? (पु०) भूल, अम, भ्रज्ञात अपराध, गठती। एक प्रकार की सटाई का सत्त | ( दि० ) पद्ठा । चूकना दे० (क्रि०) मूठ,अम करना, बढ्ष्य अष्ट होना ! चूका दे० ( गु० ) भूरा, आस्त, लक्ष्य अष्ट । (६०) इस नाम का एक खा शाक | च्यूड़ तदू० ( घु० ) चोटी, कलगी शह॒चूढ नामऊ दैत्य, सम्से या घर का उपर द्विस्था, छोटा कूप, चाभ- रण विशेष, सोना या देदी की चूदी जिले विधवा पद्षनती हैं । दायी के दरतों में एद्विनाने कि चूड़ी, फट कि पादी का सिर या नेक । झूड्डा। तद्‌» ( खो ) मस्यूशिखा, सिर के योच कि शिखा, वाहुभूषण, मस्तक, मम्तकस्थ, वन्‍्धाईइश। दशविध सैस्करान्तगंत सैम्कार विशेष, मुण्डन। यह संस्छार विपम वर्ष ही में द्वाता हैं । यघा प्रथम तृतीय थौर पश्चम ।--ऋरण (9०) संस्कार विशेष धुण्डन,सूडन।---मणि (३०) शिरारत्न,शिरो भूषण, अछद्वार विशेष, बीज, सब में श्रे्ट मुखिया, गुझा। ( गु० ) प्रयात, छ्लेष्ठ, मान्य । -- । (बु०) जग्न रविवार दो सूथ्यंग्रदय अथवा सेमवार के सूर्यप्रदण दी, तव यह येगा छगता है। जला कर बनाते हें, ज्ञो मकान बनाने या. पोतने के काम में भाता है। ( क्रि० ») टपकना भरना, गिरना | -ल्वाताना (वा० ) बडा भारी धोषा देना, दवानि पहुँचाना, लज़ित करना। ( क्रि ) पड्े हुए फट का पेड से हृंट कर नीचे गिरना, टपकना | [श्रादि की रुणिझा । खूनो दे” (खी० ) अठ की छुद्दी कराई; बाबत ज्यूम दे० ( घु* ) टीस, ब्यथा, चमक, चेदना, दर्द) पीडा | ड्स्ना । च्ूमना तदू० ( कि) चूमा लेना, मिद्दी लेना प्रेम खूमा तदू० ( छु० ) छुम्बन, झस्मा, मिट्टी १ चूमाचाठी दे* (स्त्री० ) चूम और चादझर प्रेम दिखाने की एक क्रिया । मल र तद० ( 9० ) चूण, बुऊनी; सुरभुरा, खण्द परज, जे क्षमि कक निमभ, तछीन।, नशे में मइप्र्त | -+चूर ( वा० ) हक दर, सण्ड खण्ड _+फना ( वा० ) मध्त रहना, मम रहना) फर्क शक अतिशय आसक्त होना ।--करना (वा० ) हरे डुइूडे करना, दराना ।द्वोना ( वा० 2 स्सदा, आसक्त ड्ोना । च्यूरन तदू० ( घु० ) घुकनी, रज, पाचन की ओपषधि। चूरा दे? ( प० ) रेत, सुरख॒ुग, चूर, रेतन, बरादा। च्यूरी दे ( स्त्री ) घी चुपडी हुई रोटी, चूदी, त्व्रियों का गदना विशेष | चूर्ण वच* ( ३० ) चूर, घुकनी, रेण, पूक्षि रेत, गूत& आठा, श्सिन, चूरन, सक्तु, सुधा कार ( यु० ) चूना बनाने वाला, दर्शसहर ज्ञाति विशेष | कुन्तल--( घु० ) अछक, छुदफ, केश विन्यात्त विशेष ॥ चूर्या व (घु०) आये छुल्द का पुक भेद । द्न्द हर चूर्णिका चूर्णिका तत्‌» (स्त्री० ) पश, सतुआ, चूरन, गद्य का पुद्च भेद, संच्ोप, श्रीमदूभागवत की एक टीका का नाम, फुटकल बातें, धुक्िका छूट । चूर्ित (ग्र०) चूर किया हुआ | चूर्सा दें” ( ७० ) सिठाई विशेष, घी चीनी मिलाया हुश्ना बादी का चूरा, चूर्मा छड्डू। चूल दे० (६०) चोटी, रीछ् के बाल, लकड़ी का जोड़, कील, छोह का कीछा जो किवाड़ व्हे! चोखट से सठामे रहता है, पाटी का जुकीला भाग जो पावे में कसा रहता है। न्यूलिका (स्त्री ०) हाथी के कान का मैंठ, हाथी डी कनपटी, खम्मे का ऊपरी भाग,नाइक का एक अंग जिसमें किसी घटना को दिखाने के बजाय पर्दे की आड़ से उसकी सूचना मात्र दे दी जाती है | ब्यूढ्द्दा दे० (० ) मिद्ठी की बनी वह वस्तु जिसमें आग २खकर रसाई बनाते हैं। च्यूबही दे० ( स्त्री ) छोटा चूकहा | स्यूचना दे० ( क्रि० ) चुअना, खरना, टपकता, भाढ़ना | च्यूसना दे० ( क्रि० ) पीलेना, खींचलेना, चूराल्लेना । प्यूलनी दे० ( स्त्री० ) चूसने चाल्टी बस्चु या जो बस्खु चूसी जाय | [( छी० ) चूहड़ी भज्जिन । चूहड़, चूदड़ा दे” (५०) मेहत्तर, भंगि,, अधम जाति, च्यूहना दे० ( क्रि० ) चूसना, जूस लेना, चचोड़ना । ब्यूहा दे* (०) मसुफपिक, सूसा, इन्दुर। ब्यूही दे० (जवी०) छोटी मुख, सुपिका, सूसे की मादा । से छापे दे० ( वा० ) कचबच, घिचपिच, शोरणुरू । चेंची दे० ( स्वी० ) सूई रखने का घर ) चे लें दे० (वा० ) चुदचुद्दाना, चर्चे करन0 चूँ्ा, पत्तियों का शब्द । चे चपड़ दे० ( घा० ) नाकरणुकर, स्पष्ट नहीं कहना, पघिचपिच । यथा--'चें चपड़ करने से क्‍या छाभ, “सच्ची बात कह दो, अभी तो वह चेंचपड़ कर रहा है । ” “उसका चेचपड़ ने चल्तेगा। [थुदा, तरुण । बेड दे० ( पु० ) यौवन, युवा अवस्या, छोटा, जवान, चेंप दे० ( ० ) गोंद, छासा, चिप, चिपकने बाली वस्तु, लसलसा, बुत का फलछ [ चेचक दे० (सत्री०) सीतल्म नाम का पक रोग | ( शे४३ ) चेश चेट त्त्‌० ( धु० ) क्रीवदास, दास, सत्य, क्मकार, सैकर, सेव, चेछा, छौंड़, नफर, नाढकों में मसखरे को चेठ कहते हैं । ह चेटक त्त० ( पु० ) दास, नहत्य, उपपति, नायक विशेष, इन्द्रजाल विद्या, ठग़ने की विद्या | चेढका तदू० ( खी० ) श्मशान, मरघट । चेटक्की तत्‌" ( घु० ) इन्द्रजाली, जादूगर ! चेटिका तद्‌ ० ( ख्री० ) दासी, नायिका विशेष । चेडटिकी तद॒० ( स्ली० ) दासी, उपपत्नी । चेड़क, चेड़ा तदू० (8० ) दास, खत्य, चेढा। चेत तद्‌० ( ए० ) सुधि, याद, स्मरण, बोध, ज्ञान, चेतनता । चेतन तव्‌० (पु०) [ चित्‌ + अनद्‌ | श्राव्मा, प्राण, जीव, बुद्धि, अजुभव, बोध, (गु०) प्राणयुक्त, ज्ञनचान । +-ता ( स्त्री० ) चेतन के घमे | चेतना तत्‌० ( सत्री० ) बुद्धि, ज्ञान, चेतनता, चेत | (क्रि०) स्मरण करना, सुध करना, मन में रखना, सोचना, याद आना, ध्यान करना | चैतन्य तदु० ( वि० ) बेखे चैतत्य । [चितन्य हुआ । चेता तद॒० (पु०) सन, चित्त, चेतचा सावधान हुआ, चेतावनी ज़दू० ( स्री० ) सावधान होने की सूचना । चेतौनो दे० ( ख्री० ) चेतावनी, सूचया ! चैदि तदू० ( छु० ) एक प्राचीन नगर जिसका स्मारक चँँदेरी नाम्र का श्रब भी इुन्देलण्ड में है ।--राज तव्‌० ( छु० ) शिक्षुपान्न । जैेप (पु०) चिपचिपाहट,छ्सलसाइट,छल । [जाढ़ना। खेपना दे० ( क्रि० ) सदाना, रूग्राला, चिपकाना, चेय दे० (बि०) संप्रहणीय, घुनने येग्य |. [युक्षाम । चेरा दे० ( पु० ) सेवक, दाल, रूत्य, कममकार, किक्लूर; चेरी दे० (स्त्री०) किह्नूरी,लौड़ी,भ्टत्या | [कपड़ा, खुगा । चेल तव० (४० ) [ चिल+अरल्यू | बस्त्र, चसन, चेल्ला त्व्‌० (३०) संन्‍्यासी श्रादि के पालित पुत्र इनकी गद्दी फा उत्तराधिकारी, शिष्य, (स्री०) चेली । चेचली दे० ( ख्री० ) रेशमी बस विशेष, चेक्की का बना बस्तर । चेष्टा तव्‌० (ख्रौ०) कायिक व्यापार, यत्र, उद्योग, श्रम, अन्वेषण,अनुसन्धान [नाश (०) प्यज्ञ, रा्टि का झन्ते ॥ चेहरा ( रश्४ ) चाट . ड्ड इचडं्ड्डअख नझसफफसफसफ ननबफ ्ॉक्‍क्‍क्‍्क्‍ेक्‍ॉोर्::. डस सज फ रंृंनज-..तंेनेेनततेननततन्‍तबेत+नत--त+>-त« चेहस ( पु० ) मुखदा, शक्त, मुंह पर रूमाने का मिट्टी का रास वानरादि का मुखडा । चैंदा दे० (६०) काडा चीडैंटा | चैन तद्‌० (पु०) चेश्र महीना, वर्ष का पहिल्ला सास । चैतन्य तन्‌० (पु०) जीवात्मा, परमात्मा, बद्य, बुद्धि, ज्ञान, विचार, विवेचना, चेत,चेतना, प्रकृति, (गु०) सचेत, चेत में, चौकूस, चेतन, चेदनता । ( घु० ) किसी किसी के मत से सगवान्‌ का आविर्माव विशेष | यह महात्मा १४८५ ई*० में बह्नाल के नवद्वीप नगर में उत्पन्न हुए थे। भ्रीदद्द निवासी जज्नाथ मिश्र के यह पुत्र थे। इनडी मात्ता का नाम शची देवी था, इनका नाम बिम्ताई और इनके बड़े भाई का नांस विश्वरूप या। ये दोने। भाई यथा ज्ञान ल्टाभ काझे विसक्त हे। गये | इस समय के नवद्वीप ह पण्दिते में, ये सर्वेध्रेष सममे जाते थे | घीरे घीरे यद् ज्ञान राज्य में अप्रसर : होने लगे | थे दिना में इनही प्रसिद्ध चारे ओर फ्रैल गयी। इनके थनेक शिष्य है। गये | कहा जाता है कि इन्द्वेन बड़े बड़े चमश्कारिक काम किये ईैं। इन्होंने श्रपता अन्तिम जीवन पुरी और बुन्दावन में रिताया। उत्कऊ देश के मम्दिरो में विष्णु मूर्ति के साथ इनकी मी प्रतिमा स्थापित है । ये गौहिया वैष्णव सम्प्रदाय के झाचाय माने जाने हैं। चैता ( पु० ) पची विशेष, माना विशेष | चैती ( सखी ) चैत्र में काटी जाने वाली फसल, रबी, राघ विशेष | (गु«) चैत माप्त सम्बन्धी । चैत्य तव ( बु७ ) देवायतन, मसूनिद, गिजां, चिता, गाँव का पूज्य यूद, अम्ब'्य घृद, मकान, यश्शाला येछ् का पेढ़, बौद्ध संन्‍्यात्ी, चौद्धों छा मठ । चैत्र तन» (०) देत, चसन्‍्ल ऋतु का पहला महद्दीना, इस महीने की पूर्णिमा, चित्रा मछतत्र से युक्त होती है। मषु मास, बुद्ध रूंन्यासी, किन्नरों के ए पर्वत का नाम, चित्रा के गन से युद्ध के एक पुत्र का नाम, यज्ञमूमि, मन्दिर । चैत्ररथ तव्‌० ( ५० ) चिह्रप नामझ गन्ध् के बनाये हुए कुबेर के पुछ बाग का नाम, कुबेर का ड्यान | चैद तब (६० ) चेदी देश का राशा रिशुपाल, दमघोप खुत। . चैन दे० (५०) सुख, आनन्द, कक्ष । चैत्त तत्‌* (पु०) बद्च, वसन, कपड़ा ।. [जलावन । चेल्ला दे० (पु०) चीरी लकटी, जलान की लकड़ी, चेँकिना दे० (क्रि ) चेमसना, गे।मन, गाना, धरडाना, आश्रयित द्वाना, अचम्मित द्वोना, श्रचरत्ञ में आना, सोते सोते वर्ग उठना, गे! का दूध पीना चांगला दे० (पु०) बॉस ही नली, जिसमें कागज या घुस्तकें रसी जाती हैं । चाँग दे० (पु०) नली, नजुझआ, नत्न । चाँगो दे० (स्री०) नली, पेला नक्ढी । [का चाच । चाँच दे० ( पु ) चन्खु, ठा , ठेड, माघ, चिडियों चेँचला, चायला दे० (१०) हँसी दिलगी, द्वाव माव, चखरा, विज्ञास, नाड | “घनियों के चाँचले।” “होश की अपमे छुछ दवा क्ीज । मुझसे नाइ न चेचचला कीजे ॥ चाँदला दे० ( प० ) घुदीला, चेंवरी, बाज गूँथने की छोरी, जिपसे चोटी गूँपते हैं । चौँड़ा तद्‌" (धु०) चूड़ा, जूडा, भ्राल का जूड़ा चेंथना दे* ( क्रि०्) चीरना, फाइना, चीपना, ब्रद्याटना, नाचना । चाप दे० ( घु० ) उत्साद, बछाह, चाह, इच्छा, पोने का पुक गइना जिसे सिर्या द॒तिं में पढनती हैं, हृठइठी । [पक कर गिर फल, फली । चाश्या दे० (पु०) सुगन्धित द्रव्य विशेष, दाका फल, चेाम्ाड दे० (पु०) पहाड़ी ज्ञाति विशेष, पहाड़ी डाई । चेऊर दे० (पु०) सूसी, सीठी, तुप, असार, श्राटे की सूसी, रई, रवा | चेला दे० ( गु० ) उत्तम, श्रेष्ट खरा, सचा, शदध, तीक्षण, तेज घार वाला । (स्री०) चोसी । चेतणाई दे* (श्री०) उराई, श्रेष्टठा, शुद्धता, पीक्षण ता । चेगा दे० ( ३० ) चाग, चििये! का खाना, कामदार पुकछ प्रकार जामा चेाचला दे० (पु०) दब भाव, नसरा, नाज । चाज्ञ दे” ( ० ) दूसरे! को हँसानेवाली युक्ति, युक्त .. गत, सुमापित, व्यद्ग पूर्ण बपटास । चोद द्े० ( स्त्री० ) घाव, चपे, घुस्सा, पटझन, सुछा, घक्का,ब्राघात,पद्धाद ।--स्पाना (वा०) मार खाता, आदत द्वोना, हानि उद्यना, चूक जाना +-पर चोदा चेद ( वा? ) छुशख पर दुःख, पुक विपत्ति पर दूखरी विषत्ति । चेटा दे? ( पु० ) बच्चा, जूसी, केश, घुड़ का सैंल, सूद) डिंगढ़ा करना ! चादियाना दे० ( क्रि० ) छुदालना, चोदी पकड़ना; चादी दे० (स्प्री० ) शिखा, पहाड़ का ऊपरी हिस्सा, सिर के मध्य का चाक्ष समूह, मेंटा, मोटी । -- श्रांकाश पर धिसना ( वा० ) अहक्लार करना, अल्यन्त घम्ण्ड करवा, अ्भिमान करना -कठ ( बा० ) दास, शिष्य, अपने शधीन का | ->कढ- बाना (वा०) दास होना, अचुगत होना, अधीन बन जानां [--किस्सी के हाथ में आना (बा०) किसी के अपने अधीन करना, अपने वश में करना दबाना, प्रभाव जम्ताना, श्राज्ञावर्ती बनाना, अधिकार जमाना । चाद्ा दे० (पु०) चोर, तस्कर, बटसार | चेड़ दे० ( पु० ) जनानी छुरती, अँगिया, रांचली, » झूछा | तत्‌० (०) बचतरीय बस्च, चाल नाम का प्राचीन देश । जात, चेशथ दे० (छ०) ग्रोवर, गोमय । चेथना दे० (क्रि०) फाइना, चीरना, चेंण्ना, नेशचना, खल्लेटना, उधेढ़ना । चेन्धत्ता दे० (गु०) चुन्धला, अन्घा, तिरमिरा - चान्धलाना दे० (क्रि०) चुल्धलाना / [अन्घापन । चेाम्घी दे* (ख्त्री० ) छत्थ, छुन्थलाई, तिरसिरी, चाप दे? ( घु० ) औंप, चाव, इच्छा, हुए, मनेररथ, बत्लाह, उछाह, हैसका, छूगन ।--ना ( क्लि० ) स॒ग्ध होना । हु सेावकारी (ख्री०) कलाबत्तू का काम । चेवदार (०) अश्लावरदार, चोव लेने वाढ्य नै|कर | चेभा दढें० (छ०) खेंच, खीछ, कीला | चेभी दे० (ज्वी०) छोटा चोमा | ५ जिच्य। चैया दे० ( पु० ) चोशा, पृष्ठ अकार का सुगल्चित जार तत्‌० (एु०) [ चुर्‌ +अच्‌ | तस्कर, दूपरे का धन छुराने वाला, चेष्डा, अपदारक, अपहरण कत्ता; बिना कट्दे सुने वस्तु ले जानेवाला ।--खाना, घर (वा०) गुप्तश॒द, तहखाना, छिपा हुआ सकान [-- मार्ग ( पु० ) छिपी राह, खिड़की का सा । ( २४४ ) चाष्य चोर कवि तत» ( ० ) यह संस्कृत के कचि काश्मीर निव्ससी थे। इनका दूसरा नाम विर्दण था। ८४ विकमाइू-देव चरित ? “कर्ण सुन्दरी” नाटिका और “ चैर पश्लाशिछा ? ये तीन म्रन्थ इनके आज्ञ तक उपलब्ध हुए हैं। सुसाफित अन्धों में इनके नाम से और भी डद्छत रल्तेक पाये जाते हैं, इसे से विद्वानों का अज्ञमान ऐ कि इन्होंने और भी कोड़े अन्य बनाये होंगे। चौरपब्चाशिका निर्माण का डेतु बड़ा ही अद्भुत खुना जाता है | गुजरात के राजा बीरसिंद्द की पुद्दी रशिकका वो यह पढ़ाले थे, इस की सुन्द्ता पर यह मोहित हे। यये। इनका गान्धर्वे विवाद भी हे। राया । इसके सुनकर राजा ने इनको ब्ध करने की श्राक्ा दी । वस्य- स्थान तक पहुँचते पहुंचते, अपनी श्रेसिका के वर्णन में इन्होंने पचांस श्लेक बना डाले ! इनकी काब्य रचना का हार सुनकर राजा को बड़ा आश्रय हुआ । इस अद्भुत शक्ति और शुद्ध प्रेम जे देख कर राजा ने अपनी लड़की विल्हण को ब्याद्व दी।! ये कक््याण क्ले राजा विक्रमादित की सभा के पण्डित थे | इनका समय ११३ थीं सदी का अन्तिम और बारहवीं सदी का पझादि काल निश्चित जान पड़ता है। चोरी त्व० (स्त्री०) अपहरण, हरम, चोरी करता । चोलल तदू" (पु०) औषध विशेष, सजीठ, एक देश का नाम, यह देश कावेरी नदी के किनारे पर है । इस समय सेखूर राज्य का दक्षिण भाग । चोछ देश को कर्चाटक भी कहते हैं । चोला दें० (ए०) बस्तर, काय, शरीर, यथा-यझुनादासत ने चेकला वदल दिया, भ्रधाव उनका शरीरान्त दो गया, श्रयवा उन्होंने कपड़े बदंछ दिये ।--छोड़ना, चद्लना (वा०) प्राण त्यागना । खेली दे० (स्वो०) अंरिया, कांचली | [विशेष । चावा दें० ( घु० ) चाझा, अगज्ा, सुगन्धित द्धब्य चैेप (घु०) रोय विशेष | रिसरि का स्वाद लेना । चक्षेपण ठव्‌० (ए०) [ छुप्‌ + अनट्‌ | चूसना, चाभना, चेप्य तव॒० (गरु०) [ चुप+य ] चूसने येग्य, रस लेने योग्य, छः प्रकार के भोजन के भ्न्तर्गंत एक श्रकार का भोजन | चासा चेस्ता देन (१०) वह रेती जिम्तले टकडी रेती जाती है चाहड़ू दे० ( पु* ) जयडा, इलु, ठोढी, ठड्डी, गले का ऊपरी भाग | चेाहला दे० (पु) सोचा, चामा, कीछा, की । चाहाड़ दे० (१०) एक पहाड़ में रदने चाली जाति । चेाहान (पु०) उत्रियो की पक जाति | [काढ। सी। दे० (पु०) चार संप्या, ७) पिठले दांत, इलका चीध्यन्नी दे० (स्री०) चर थ्राना, १) रुपये का चौथाई भाग । चौंक दे? (स्वी०) भिसइ, सटऊ, आशद्टा, चिहुँड | चौंकना दे० ( क्रि० ) मिमकेना, टिठकता, अम्मा करना, ध्चरज करना, चाश्नयित देता चौंफ्लिल दे० ( गु० ) मिककने वाला, सडकने बाढा, बनैणा, जड्जली चोंगा दे० (१०) कपट, छुछ, व्याज, फुसलाइट । चौंगी दे० (खी०) फुसलाइट, छल, कपट । चोंडू द० (पु०) मृढ़, नियोध, ्रनसमझ, बेसमक । चौंतरा दे० ( पु० ) चयूतरा, श्रोटा, धाना, भ्धाई, चपाट । [तीस, ३४ । चैंतीस दे* (गु० ) संस्या विशेष, चार अधिक चौंघ दे० (धु०) आँख तिरमिराना, साफ प्ताफ नहीं दीपना, तितमिक्ती | चैधियाना 'दे* ( क्रि० ) धृष्टे का भन्‍्द पट ज्ञाता, स्याकुछ छ्वाना, घबडाना, उद्विग्त द्वाना । चीरा दे० (पु०) श्रन्न का तलूघर, खाद, अर रखने हे हि लिये अमीन में क्रिया हुआ घढ़ा । चोरी दे० ( छ्ो५ ) चवरी, छोटा चेंचर, चामर, राज चिन्दद विशेष । चैसर दे० (३६०) खेछ विशेष, चैपद, यद सेन वाला से घेटा ज्ञाता है, ज॒ुए का एच भेद, फूलों की माला । चौक दे० ( पु० ) आंगन, मैदान, नगर का प्रधान बाजार [नो ( ख्लरी१ ) तरत, काष्ठ निर्मित 9 पाये घाज्ञी यैठते की वस्तु, बाजार, द्वाट, पैट, चौरादा, चौद्दद्य, घाटा थाना, बाका | चौकठा दे* (३०) चौदटा, चौझर दनी दस्तु । चेाक्ड़ दे (गु०) सुन्दर, मनाइर, शत्तम, रमणीय, श्रेष्ठ, भला, यल्ली, पजवान्‌, द्वए चुष्ट । ( २४६ ) चैफे चऔौकड़ा दे० ( पृ० ) सूपण विरेष, दे। मोतिये। का बाज्ला, जिपे लढ काने में पदनते हैं। करे सूपण । चौकड़ी दे० (छी०) दल कूद, फर्राग) उच्चाल, चार आदमिये। का गुद्ठ, थ्रामूपण विशेष, चहतु्य॑गी, पत्चथी | चार वस्तुओं का समूह, चार घोड़ो की गाडी |--भरना ( वा० ) कूद हद कर चरुना, जैसे इरिण चलते हैं| उचुलना, छुदना |--भूलना ( था० ) अपना काम्त भूलना, मोद में पड जाना, सैचफ्का रह जाना |--मार वपैठना (वा०) चाहें पैर मोड़ कर बैठना, पशुओं का सुखासन, संउुचित होकर बैठना, सिमिट कर बैठता | चैकन्ना दे० (गु०) सतर्क, सावधान, चौकस, सचेत, निषुण, जाभ्रत, जाया हुप्ा, सचेष्ट, इद्योगी | चैकपुरना दे० (घा०) वेदी बनाना, कुच परम्परा क्के व्यवहारानुसार चेदी पर बेल वूटें बनाना | की चऔैकभरना दे० ( वा० ) वियाह शादि महु कार्यो में चौक दनाना, चौक का मिठाई से मरना । « चेक दे० (गु०) प्तावधान, चौऊग़्ा, सतके, पढ़ दक । यथा “दीनेश श्रपने काम में चाकस है !” चैकऊसाई दे० (स्री०) सावधानी, सत्ता । चैकसी दे० (स्री०) धुन, रदा,कर्तेब्यक्ञान,सावधानी | चाका दे० (प०) लीपा हुआ स्थान जईख रसोई दनायी जाती है, चौयूदा स्थात, चौहेनी मूमि, रसोई बनाने या ब्राह्मणों के सन्ध्या पूजा करने का स्थान, चौखूटा पत्पर, चकरा, सीसफूलठ चार सींग वाला अद्लली बकरा, चार वस्तुओ का समूह, चार यूटिये बाल ताश का पत्ता | चौकी दे० (खी०) दौझानी काठ की बनी हुई वस्तु, कुरसी, रचा, पहरा, चौरूसी: चौकीदारो झे रहने का स्थान, सूपण विशेष जिसे छड़डे या स्थ्रियाँ गल्ले में पदनते हैं ।--दार (पु०) चौकी टठेन वाला रहो काने बाढा, पदर्आा।-दारो ( स्प्री० ) चौहीदार छी सजूरी, चौकीदार ढ्ी तनवाइ | देना (क्रि०) रखवारी करना, रचा करवा, पढरा देना +-माएना (क्रि०) छिपकर मदइसूट आन चुना, समदसूलठ मारना + स्थान ! चौके दे० ( पु० ) चकले, हरसे, पवित्र छीपा हुथा चोकाना चौकेाना दे" (गु०) चहुष्केण्य, चौखूंटा, चार केने का। चैकर दे० (यु०) चौकाना । ह्वार का ढाँचा । चौखट दे० ( इ० ) द्वार के चारों ओर का काठ, चैखदा दे० (०) चौकठा, चौझेर काठ का ढाँचा चौखना दे० (वि०) चारमंक्षिछा, चार खण्ड वाला | चैाखा (पु०) वह स्थान जरईई पर चार गांवों की सीमा मिले । [मिण्डल चतुर्दिश । चऔखू ८ (बि०) चारों ओर, चारों तरफ | (छ०) एथिवी चैखू टा दे० (गु०) चौझेना, चौकेर, चतुप्केय | चऔरगड़ा दे० (घु०) खरहा, शशक, खरगेश, शसरा | चगड्टा दे० (०) स्थान जर्हा पर चार गावों की सरहद मिले, चौहट्टा, चार चघ्तुओं का समूद्द ॥ चैगान दे० (पु०) मैदान, एक खेल विशेष, गेंद खेलने का स्थान, नगाढ़ा बजाने की छकड़ी। [है, सटक | चैगानी दे० (स्त्री०) हुक्से की नली जे सीधी द्वेती चौगिद्‌ दे० (वि०) चतुर्देक़त ॥.. [करना, चहुर्गुण । चोगुना, चारशुन्ता दे० ( ग्रु० ) एक के चार बार औषघड़ा दे" (घु०) पात्र दिशेष, जिसमें चार घर या चार खूठ हो।, पत्ते की खोंगी जिसमें पान के चार बीड़े दा । बड़ी जाति की गुजराती इलायची | चैड' तत्त्‌> ( धु० ) चूढ़ाकरण संस्कार | तद्‌० (वि०) चौपट, सत्यानाश । चौड़ा दे० (गु०) फैला हुआ, प्रस्थ, चकल्ा, पन्‍्हा । औड़ाई दे (ज्जी०) पाट, चकलाई, फेलाब, विस्तार, चिष्तृति । चैड़ान दे० (पु०) बिस्तार, फैक्षाव, चौड़ाई, चकल्लाई । चऔड़ाना दे? ( क्रिं० ) चकलाता, फैलाना, विस्तृत काना, चौड़ा करना । विाल्की । चऔैडेाल दे० (घछु० ) पालकी विशेष, चौपलिया चैतली दे० ( स्थ्री० ) छोटे बालकों की चारतनी दार टोपी, चौगेलिया टोपी, चौकल्षिया टोपी | चै।तरका दे० (घु० ) पद सण्डव, वस्त्र ग्रह, तस्वू& कनात, राबदी । चैतरा दे० (घु०) चौतरा, चबूतरा । चै।तद्दी दे० (स्त्री०) सेटटा चार तह का विद्लौना । चैताय दे० ( छु* ) वाद्य विशेष, चार तार का बाजा, यह्द तम्वुरे के समान द्वोता है । बिल | चैताल्ल दे" ( छ० ) राशिनी विशेष, खदुक का पुक ( २४७७ ) चौपतिया चैथ दे० ( प० ) चतुर्थीश, चौथा हिस्सा, ख़िराज़, एक प्रकार का कर जा सराढें के ससय में लिया जाता था, चतुर्थों तिथि +-पन दे* (छ०) छुढ़ाई, छुड़ापा । चौथा दे० ( घयु० ) चहुर्थ, चार हैण्या की पूर्सि ।--पन (३०) चौथी अबस्था, छुढ़ाई । चैथाई दे० (स्त्री०) चौथा हिस्‍सा, चौथा भाग | चीधि दवे० (स्त्री०) चहर्थी तिथि । चऔधिया दे० ( पु० ) चोथे भाग का सालिक, चौथ लेने वाला | -- ज्वर (पु०) चौथे दिन थाने बाला ज्वर, चातुर्थिक ज्वर । [जे। चौथे दिन की जाती है । औधी दे ( गु० ) चौथा भाग, विवाह की एक रीति चैदृन्त दे० ( गु० ) चार दांत का बच्चा, पशुओं की अबस्था विशेष, बली, हट पुष्ठ । जिबृण्डता । चैौदन्‍ती दे० ( स्व्री० ) शूरता, वीरता, अत्हढ़पन, चैदस या चैद्श तद्‌० (स्त्री० ) चतुर्देशी, चौदहवीं विथि । चैदूह दे० ( गु० ) चत्॒दंश, सेक्या विशेष, १४। चैद्निया, चादामी दे० ( स्त्री० ) कर्णभूपण विशेष, वाला या बाली विशेष जिसमें चार मेतत्ती छुगाये जाते हैं । [हिए पृष्ठ । चऔधर दे० ( ग॒ु० ) बलवान) बली, मेद। ताज़ा, चऔधराई दे० ( न्‍्त्री० ) चौघरी का काम, प्रधानता, मोटी, से।टपन, ऊुखियापन, अयुश्रावच, नेतृत्व | चआैधरो दे* ( पु० ) समाज का श्रगुआ, नेता, प्रधान, सरपच्चू, चाज़ार का सुख्तिया, हड्ढे का घुखिया | औपई तत्‌० (स्त्री० ) एक छुन्द का नाम। 'हीरों की होली की वद्द मण्डली जिससे वे फगुआ गाते घर घर घूमते हैं | > चौपठ दे० ( घु० ) उजाढ़, नष्ट, चरवाद़ हूटा, फ़ूटा । -ऋरना (वा०) उदज्चाढ़ना, घजाड़ देना, नष्ट, करना, विगाढ़ना । “| चौपट्द्दा (वि०) चौपट करने वाला सत्याचाशी | खोपठा (वि) सत्यानाशी, सर्वदाशी | खिल, घृत ॥ आओपड़ दे० (छ०) चौंसर, खेल विशेष, पासों का जोपतिया, चोपत्ती दे (स्त्री ०) छोटी पुस्तक, लिखने की छोटी कांपी, हयबहि, गेहूँ के खेत से ऊत्पत्न होने वाली चह घास जो गेहूं की फसल को श० प्रा०--१३ चौपत घड़ी द्वानि पहुँचाती है, डटगन, कसीदे की चार पत्तियों वाली बूटी, ताश का एुक सेब दिशेष । चौपल (३०) पत्थर विशेष | ल्ौपहला दे० (५०) चौपाला, चारों थोर से समान, वह वस्तु जिसकी लम्बाई चौदाई वरावर दो । स्ोपाई दे (स्त्री) हिन्दी का एक छन्द, मिसमें चार परदे होते हैं । बधा--+ सज़्लहूमवन, अमझप्नबद्वारी द्ववहु सुदशर॒य, अनिरविद्ारी / ?? रामायण घोपाड़ दे० (पु०) बैठ, पैठका, गृह विशेष । चोपाया दे० (१०) पश्च, जन्तु, चार पैर के जन्‍्तु खदवा, खटिया । चोपाला दे० (पु०) पालझी, चौडोला, यान विशेष । चौपुरा दे० (५०) धार पूर्रो के चलने के किये चार धार्टो वाला कच्चा । [बडी ऊँट गादी । चौपैया दे* (4०) पक घून्‍्द विशेष, चार पदियों की चौवश्धा दे० (ु० ) चौकोना गदा, कुण्द, कृत्रिम कुण्ड । चोयरसी त्तद्‌ू० (स्त्री०) श्राद्ध या उत्सव जो दौरे यप॑ किया जाय। िान। घोवारा दे० (१०) उसारा, ढावा, चार दुरवाजे का चौबीस दे" (गु०) चार अधिक बीस, चार भौर बीस, ३४ । खौदे 4० ( ३० ) चत्ुवेदी, चतुवेदशाता, धाद्यरयों की पक अणल।, माथुर बाह्मण | (श्त्री०) चौबाइन । आवोला दे (५०) एक मात्रिक छुन्द विशेष | घोमड़ दे* (स्थ्री०) दाढ़, भिप्तसे खाद्य पदार्थ चहाया जाता है या कुचला जाता है । घोौमासा दे* (पु०) पावथ, घपोआत, चतुर्मासा, आपादू से कुझ्ार तक के चार महीने | घौपुज दे* (गु० ) चार सुंद बाला, चौमुद्दा, चार दस्तियों का दिया, वद मकान जिसमें चारो ओर द्वार हो चौमुखी दे (स्त्री०) घद्ाणी देवी, चारमुख वाली दुर्गा । चौधुद्यानी दे+ (स्त्री०) चौराहा, चौरस्ता । सौर वत» (०) चोर, चोरी करने बाढा [--कर्म (पु) चोर का कामप्त, चोरी करना, अपदरस्थ करना ।"-सय (३०) चोर का सथ चौर से दा । ( २४८ ) सोदान चौरड दे० (पु०) चित्त, उतान, चार श्रक्न, दवि पेच। चोरस दे* (यु०) धर्ान, सुल्य, समभूमि, वराबा, एकता, पुक सूध॑; एक सूत में, सीधा | चौरसाई दे० (स्त्री०] समता, बराबरी, तुल्यता, सीधाई। चोरा दे* (पु०) चबूतरा, सती की चिंता, बीरों की खिता, आम देवता का स्थान | चौराई दे० (श्री०) चौलाई नाम का शाक | [१४। चौरानवे दे० (गु०) नब्बे और चार, चार श्रधिक सब्बे, चोरासी दे० (गु०) अस्सी चार, ४७; चार अधिक अस्सी | वितु"्पथ, चौमुख़ापथ, चौदृट्ट । चोराद्दा दे० (पु०) चारों शोर जाने का भागे, चौक, चोरी दे० (स्त्री०) चार बार धोई हुईं छाख, चौपाद, चौबारा, छोटा चैंवर जो धोडे की चूँछ के वालों का बनता है, छोटा चयूतरा ) चौलड़ा दे" (गु०) चार छर बाढा,चार करकी साला । चौला दे* (5०) अ्र्न विशेष, छोड़ा, बोरों । चोलाई दे (स्त्री०) शाक विशेष, चीराई का शाक ) चौयर दे० (गु०) बडवान, साइसी, श्चोगी, उत्सादी । चौधा दे० (पु०) चार दगढियों का विस्तार या माप, चार बूटियों घाढ्वा ताश का पत्ता, पशु, चारपाया, दौपाया । [से चलने वाली हवा । चौवाई दे० (स्त्री०) श्री, मफड़, अन्‍्ध, धारों तरफ चौचार द॒० (5०) सर्वेत्ाधारण का बढ स्पान जा किसी रहसव या विदार के लिये ढोग इकट्ठे दोते है, पशायती घर, सवेसाधारण की यैदऊ ) चौस दे० (घ०) भादा, मैदा, पिसाने, चार बार जोता हुआ खेत । [ चोसर दे- (4०) चौंसर, चौपर,लेह विशेष | [साठ । चौसठ दे० (गु०) चार और साढ, ६४, चार भ्रधिक चांद दें० (वु०] चीरादो,चौमुफा पथ,चौमु हानी,घौददा चोहट्टा दे ( पु० ) चौराहा, बज्ञार, दौक चज्ार। चोदड़ दे* (4०) जावडा । [भ्रघिक सर ! चौदत्तर देन (पु०) सत्तर भौर चार, ०५, चार चौदरा दे० (पु) थार हट चाद्या, चार परत वाला, चौंगुना थौद्यान दे* (व०) राजपू्ों की पृ जाति, किसी समय ये मारत के सन्राट्‌ थे, इनका पइएा चतुर्षाडु और अन्ठिम राजा सश्यट्‌ इप्वीघज थे । च्यचद ( रष्ृ६ ) चादर च्यवन्त तछ्‌० (क्रि०) चुना, टरूपना, ऋरना । (पु०) प्रसिद्ध एक भाचीन ऋषि,पुल्ोमा के गर्भ और भूयु के औरस से इसका जन्म हुआ था। गर्भवत्ति घुकोमा को कोई राचस वलास्‍कार पूर्वक हर कर लिये ज्ञाता था, इस अय्याचार से पीड़ित होने के कारण उसका गर्भ गिर पढ़ा | अतएवं उनका नाम च्यवन पड़ा। क्योंकि संस्कृत च्यु धातु का अर्थ गिरना है [ च्यवन एक दिन देवसमा में चेडे थे कथोषश्थन में इन्हें, मालूम हुआ कि मद्दाराज कुशिक के वंश से हमारा चंश संयुक्त हुआ है | इससे कुशिकराज को नष्ट करने की ये चेष्ठा करने लगे | परन्तु महाराज की भ्रसोम योग्यवा और सहनशी लता देख इनको अपने विचार बदलने पड़े । च्यवन के पौत्र ऋचीछ से कुशिरु की पौन्नी ब्यादी गयी थी । किस्तो सेरोवर के तीर पर च्यूचन तपम्या क्र रहे * दे छू व्यक्षन का सातर्वा वर्ण, इसका स्थान ताल है, | छक्कड़ दे० (४०) घीछ, घप्पढ़, पेह, खाने चाला । छक्का दे” ( पु० ) छः का समृद, वद समृद जिसमें छः अथोत तालु के द्वार/ इसका ड्चार्ण द्वोता है । अतपुव इसे वाल्टव्य कहते हैं ! कु तव०( पु० ) छेदव कादना, (यु०) निर्मे्ष, तरल, (दे०) छः, संजय विशेष, पट, ६ । छुई तदू० (स्त्रो०) कसी, रोगविशेष, राजरोस, एुछ रोस जिसमें ऊुँद॒ के द्वारा कलेजे से रक्त निकछता है! शरीर हुबछा दो जाता है । वाव का छृप्पर, गह्टी | छुकड़ा दे० (छ०) गाड़ी,चैलग/ड्ी, शकट, रदडू, लद॒ढू । कछुकड़ाता दे० ( क्रि०) चौंधियाना, घक्राना, चकराना, अज्ञा का गर्भ संस्कार कराना । [कद्दार लगते हों । छुकड़िया दे* (स्त्री) पालकी जिसे उठाने को छः छक्कना दे० (क्रि०) अधाना, छृप्त द्ोना; सन्तुष्ट होना, व्याकुल होना, उह्विम्न दोना, सश्वित होना छकाई बे० (स्त्री०) खबाई, ठृसि, सन्तुछ्ठता । छुकाकछुक दे० (वि०) परिपूर्ण, भरापूरा, छछ, अघाना । छुकाना दे ( क्रि०) सनन्‍्तष्ट करना, खिलाना, तृप्ति करना, अघवाना, निरूत्तर करना अचम्मित, करना, शह्कित करना । थे | उनका शरीर मिट्दी से ढका हुआ था। केवल दो अखें दीखती थीं। शयोति की पुश्री सुकन्‍्या को बढ़ा कुतूहल हुआ्रा | उसने उसकी आखिं फोड़ डाली | च्यवन के क्रोध से शर्याति की छेना का मसछमन्न बन्द हो गया। धहुत अजचुसन्धान करने पर इसका कारण मालूम हुआ। छ्षयांत्रि की प्राथेना से झुन्ति असन्न हुए | राजा ने सुकस्या का दिवाह च्यवन से कर दिया ! यद्द सुझुन्या प्रसिद पतिद्वताओं सें से हैं ।--आ्रश तत्‌० (पु० ) आयुर्वेदीय पुक प्रसिद्ध भ्रवलेह जिसे खाकर धययन ऋषि थुवा हो गये थे च्युत चत्‌० (गृ०) पतित, पढ़ा, अष्ट, गिरा, नह्ठ |-+ संसुकारता (स्त्री०) काव्य में व्याकरग्र का दोप | च्युति चत्‌० ( स्री० ) पतन, स्जबूम, गिरन, हानि, खिल्नता । च्यूड़ा दे” (३०) चित्रढ़ा या चूरा । हों। एक प्राकर का पिंजड़ा जिसमें जाली लगी रहत्ती है | हुए का पक दाव, छुः बुन्दुकी का ताश का - पचा, सुध, संज्ञा, श्रैसान !--छूठना (क्रि०) द्षेश उढ़ना, हिम्मत द्वारता |--पंज्ञा करना ( चा० ) इधर उघर करना, छत्तना(,ठगना,घे।खा देना। प्रतारया ! छग तत्‌० (9०) छाग, बकरा, अज। भेंड़ा | छुगरी तत्‌० (खत्री०) बकरी, छेरी, छिरिया | [डागल । छूगल तब (एु०) नीढा दल्, बकरी, छेरी, अजा, छाग; छंगुदी दे० (ज्री०) चूलनी, शे।पणी, छनना, कनिछिका, फानी डैँगली, छः गुणा । छुँगुली दे (ख्वी०) छः शंपुलिया, कचिप्ठिक्ा । छक्तिआ या छछिया दे० (स््री०) छाछ पीने या नापने का छोटा वरतन, छाल, मद्, मरा, तके | छछु दर या छुछू दर दे० (स्री०) सूसे की पुक जाति, प्रायः यह रात के निकलती है | इसकि दुर्गेन्धि दूर दूर तक फैलती हैं | कद्दते हैं कि इसे रात ही के सूसता है दिन के हीं । छ््ज्ञ 22 5 2 नरम पद तन +-++-_+-_तनतञ्नन न तनमन रन छूज़ देण (गु०) राटसण्डी, फाइ पताई, बता जमुक । छूजना दै० ( क्रि* ) शेना देना, सजवा, ठीक जचना । छुज्ला दे? (प०) वरापद्ठा, उसारा, द्वार कै क्‍पर की रुकडी, सम्भो दे ऊपर की पटरी । [शब्द केड़कना | छूनछूनाना दे० ( फ्रि० ) सनसनाना, गरम घीढ़ा छुटना दे० ( पु० ) पक प्रकार की चलनी । ( क्रिं० ) पृथक ऐना, समृद्र से अलग होना, घट्टना, स्यून दोना, विधुडना । - छूटपढागा दे* (क्रिब) घुथ्पद करना, वफवा, विवश देकर ले।टना, मृच्छित द्वारर भूमि में लेयपेट करता | छूट्पटी देप (स्री०) घबडाइट, विरुखता, चाह विशेष । छूटवाँ दे" (4०) निहुए, भढग डिया हुथा, बीड्धा, बराया, सम्राजच्युत, समाज से निरला। हुशा। छूठदा दें० (गु०) चिटचिद्म, कद भरा, पुकान्त भ्रनुरागी, विक्षण॒ण प्रकृति का । छुटाँफ दे० ( ख्री० ) सेर का सोलदर्वाँ भाव, मान विशेष, पाँच वाह, कनेवाँ, तेल विशेष | छूट तव्‌* ( ख्ी० ) उनावा, उगास, शोमा, दीधि, प्रदाश, सह्द, समादाह, समंदर, छुना हुश्रा, घना हुआ्रा, चालाक ।--फल ( ४६० ) नारियाल बृच्त। ताल बुढ, सुपारी का पेड ।-न्या (स्री०) विधुत, विज्ञकी, सढ़ित, सैदामिनी । [वना, बनवाना | छद्यना द० ( क्रिए० ) छुटवाना, श्रल्ग करवाना, घुन- छुट्टे दे” (दु०) छुे हुए, बने हुए, पक हुए, चहुए, चाह्राक, थपना मतब्ब साघनें वाल्ते । छठ दे (ख्री०) पष्टी, छठ, पष्टी तिथि । छट्ठी दे+ ( स्थी० ) छुठवीं, पष्टी, उडके के जन्म से छुथ्श दिन, संस्कार विशेष, जो जन्‍म के छटवे दिन होता हैं, तिथि विशेष, प्रत विशेष, इस ग्रत में सूये देद की उपासना ही ज्ञाती है । छूड दै* (स्त्री०) पष्टी तिथि विशेष । छूटा (दि०) छ नम्बर का, दृट्याँ । छूडी दे (छी०) पष्टी तियि विशेष | छुट्टे दे (यु) दग्वें, घंढयें, पढ़, दवा । छूड्ट दे! (सी ०) ये दे लकड़ी, सेद्दे की चड, का सौंकच), डदा, डाठी; तितका। छुर, भासि का दुए जे रवेंत इंता दे । ६ रहैं० ) | छुड़ना दे० (क्रि०) घान के घिझके निरुलाता, छटिना, छुतरो चावल चौंपना | छड़ा दे० (पु०) मोतिपों करा वच्छा, पैर में पहनने को चूड़ी के आकार का एक गहना। (वि०) धरेला जैसे छुडी सवारी । छड्ठाना दे० ( क्रि० ) चावछ साझ करना; चुकछा छुडाना, भूसी अलग करना। छड़िया दे० ( प० ) पदरेदार, दरवान, भरामातररदार, कब्चुकि, राजा का परिचारक, सम्रेत गली, हे किया । छुड़ियाना दे* ( कि. ) घटी मारता, छड़ी हे समान करता, भार करके क्म्बा करना । कड़ी दे० (स्त्री० ) बेंत, लकडी उण्डा, हाथ में रफने का डण्डा, छुड्गी के थाहार की एक बह्तु, नो फूलों से बनायी जाती है। गुण्चुडी, फूएबड़ी, पास फी सूसी बहडी, द्विकनी, छाइ़न ।--बखार (४०) चेयदार | है प छड़ीवा, छरीला दे? (१०) जधामासी, हष्प विशेष, पक प्रकार का सुगग्धित सेवार, काई, कदर की मिद्दी, ( वि० ) एकाड़ी, धक्ेला | छू तद्‌5 (० ) छण, पछ। मुहूर्त, बिन, 'यहप्काल । छेंडवाना दे० ( क्रि) किसी पत्तु का फाटदू भाग कटवा दैया, चुतवाना, कटबावा, छिनेबाना। छुँटाई दे० (स्त्री०) चुटिने की मजूरी, छुटिने का कास । छेँदाव दे ( एु० ) घान की कुटाई, छूटना, भकछा निऊलाई | [चुना । छेंडुना दे० ( क्रि० ) छोड़ना, स्याग करना, हजना। छंडुआ दे० (घु० ) छूट, दोडा हुआ, प्यागा टरुभा। लुड़ौती देन ( छवी० ) छुट्े, छोगना, भवश्चाा सुर) अदण्डय, देवदा के ढहेरेय से छोड़ा हुए, छूट । छुत मद" ( एु० ) बत, फोड़ा, भाव, चिन्द, निशान, दाग ( वि० ) घुसा इुचा । ( स्त्री० ) गच, दत्त, पटान, पाटन ।--कुम्मझ्त ( १५ ) कनेर, करपीर, कम्देख +--ज ( छु० ) रक्त, रधिर, छोहू, पी, संवाद ।--लोऊ ( स्प्री- ) छत पर छोट रुगाना | छुतना दे* (१०) छत्ता, छम्र, ध्रातपवारण, दाता | छूतनार बे० (गु०) फैल! इ॒भा,विस्दृत,सघन,छायादार । छूतरी तइ« (स्त्री०) छाता, मण्डल, राजामों की चिता या साधुर्चों छझे समाधि रपाने पर थनाया गया कछ्वा (२६१ ) छ्न्द्‌ स्मारक भवन । कवूतरों के बैठने के लिये बस | छत्तर दे० ( ० ) एक स्थान पर राशीकृत अन्न, अन्न का टहर जो एक ऊँचे वि पर बचा जाता है। इक्डे या बहुल का छुजिन, कुछुरझुतता । छता दे० (०) चाता। छुति तद्‌० (स्त्री०) छति, हानि, घाटा, चुकसान, योर । छतिया दे० ( स्त्री" ) छाती, हृदय --ता ( क्रि० ) छाती से छूगाना। छतिवन दें (एु०) इच्त चिरोष । छुतीला दे" (वि०) चतुर, सयान, चाहाक * (घु०) नहिं [--पम दे (४०) मकारी। [दन्र, छत्ता । छुर तद्‌" (घु० ) छुत्त, भोजन स्थान, सत्र, अन्न छुत्ता दे० ( पु ) मधुमक्खी का घर, मधुमक्खियों का छात्ा या छुत्ता, चाक, गदार, छाता | छत्तीस दे” ( गु० ) तीस छः, ३६, छुः अधिक तरस ! छुत्तीसी दे० (स्त्री०) छिन्नाछ, व्यभिचारिणी, छुरा- चारिणी, पर पुरुपरता रुत्नी | छुत्र तत० (8०) दृष्टि थ्रीर धुप सेकने के लिये आवरण विशेष, आत्तपत्र, छात्ता, छुतरी, राजाओं के लगाने का छ्ाक्ष छुत्ता जो राजचिन्द समझा जाता है .-- चक्र (पु०) चक्रविशेष, नछत्र मण्डछ ।-- छह ( स्‍्त्री० ) रा, शरण (--घर (सु०) छंत्रपति, शाज्ा, महाराजा।--पति (५०) तिछकधारी राजा, महाराज, स्थाधीन, नरपति |--भड्ढः (५०) चैचष्य, रणएंडापा, चृपसाश, राजनाश, अराजक (--बन्‍्धु (३०) सीच घत्रिय, ज्षश्रिवाधम, चनत्रिय के समान, चन्नियों छा हितू।. फूल, कुकरस॒त्ता, छताक । छुल्नक तव० (५९) दृश विशेष, भू फोर, धरती का छुत्रा तत्‌० ( स्त्री० ) धनिया, घरती का कूछ, खुमी, सोया, संजीठ, रासन १ छुत्नाक (एु०) ढिगरी, खुमी, ककुरम त्ता, जलबबूला। +जी (स्त्री०) एक दुवा का नाप) छुत्नी तदू० (पु०) धन्रिय, दूसरा बर्ण, चीर जाति, राज जाति, नाई, नापित । (सत्री>) छोटा चचा, मृत मनुष्यों छा एक प्रकार का स्पारक, श्मशान में “निर्मित यद्द विशेष, सरत की छुरानी प्रया के अजु- सार ये अभी भी पुसने हिन्द राज्यों में बटायी जाती है।॥ [कुठीर, पर्यकुटी । छत्वर तत्‌० (पु०) घर, गृद, कुज्, लताब्छादित ग्रढ, की राशि, गोल, ढेर कूद तत्‌« (पु०) पत्र, पत्ता, पत्ती, पक्ष, पंख, आवछा- दुन, ठकना, छुफ्ना, तमालबृक्त, घुननंवा औपध, गद्दपूरता, द्वारा, चाल, रीति । छुद॒न तत्‌० (पु०) पत्र, पत्ता, पच्च, तमालवृत्त, तेजपात अच्छादन,ढकना,चान,छत्त,लोल,गिल्ाफ ! [माया कुद्ाम दे० (एु०) इुकड़ा, दो दमड़ी, पैसे का चौथा छादि तत« (स्त्री०) छुपार, छानी, शुहाच्छादन, एाटन छद्किरिपु तव्‌० (छ०) छोटी इलायची, घप्तन रोकने की श्रौषधि | छुद्द तत्‌० (पु०) कपट, छुल्र, धोखा, स्वरूपाज३ादुन अपने को छिपाना, अन्य वेश --लापस (०) झूठा तपस्वी, कपटी सुनि ।--बेश (९०) गुप्त रूप, दूखरा रूप | छुप्मिका वव्‌० (स्त्री०) गुहूची, मनीठ । छ्ी तद्‌० ( वि० ) छली, कपटी, बहुरूपिया | छुन्ना दे० ( क्रिष ) निश्ुइना, गछना, साफ़ दाना, बतना | यथा--मरने से छुनक्तुत कर पानी शाता है। पूड़िया छुन रही हैं। छुनकाना दे० (क्रि०) श्राच पा रख जक का जलाना, बल्काना, सचेत करना, सावधान करना। “बैठा ते अचेत था परन्तु हम लेशों ने उसे छुनका दिया।” [घीया तेल में पानी पड़ने का शत्द' | छुत्ाक दे० (६०) किसी बस्तु के हटने का शब्द, गरस छुनाका दे० ( छ० ) शीघ्र जछ नाना, पानी या दूध का शागमें शीघ्र जजऊना, खनाना, ठनाझा, रुपयों के बजने का शब्द िखिक विचार धाला | छुनिक तद्‌० ( पु० ) क्षणिक, अव्यवस्थित, इचक्का, छुतेक तव॒० (०) उणिक, पुक दुण, एक मुछूत्त छुत्दू तत्‌" (पु०) अछरों की गयणुना के श'्नुसार वेद वाक्‍्यों का भेद्‌ यद्द भेद सात प्रहार का है | वेद, वह विद्या जिसमें छन्दें के भेद आर सखाछणादि हों, काब्य प्रबन्ध | श्रमिलापा, स्वेच्छाचार, गोंठ, | जाखछ, कपद, रंग, ढंग, अ्रभिप्राय, एक्ान्त, बिप, ढक्कत, पत्ती, एक प्रकार का हाथ का थरामूपण | - गति (स्त्री०) इन्दीं की चाछ, छुन्द बनाने की रीति [-ोवद्ध ( वि० ) पद्माव्मक, ्छोकयुक्त ।-- छ्न्द्ना शास्त्र (०) पिड्नक सुनि प्रणीत शाख, जिसमें छन्दो का वर्णन किया है । [में पडना । छ्न्द्ना द्वे० (क्रि०) राठना, बन्धना, उल्लयक्ना, दलझन छुन्दपातन् तत्‌० ( पु० ) कपटो तपस्दी, छुल्य तापस, धूते तपस्‍वी, तापस वेशघारी घूते। छन्दबंद दे" (प०) छुलबल, कपट, प्रतारण, मकर | छन्दासुवर्तती तद० ( गु० ) भाज्ञाजुवर्ती, श्राज्ञाधीन, आजक्ञापा॒क | छून्दी दे* (पु०) कपटी, धूसे, प्रवारक, छुली, ठग ! छम्देग तत्‌० (१०) सामवेदी, सामबेदवेत्ता, सामग, सामवेदाध्यायी !-परिशिष्ट (५०) सामवेदी ग्रोमिछ थादि सूत्रों का परिशेष शास्त्र, जिसे मदर्पि कात्यायन ने बनाया है। उसमें सामवेदिये। के कमे बताये गये हैं | सामवेद्‌ सम्मत शास्त्र विशेष । डे छम्दोभड़ू (ए०) भशद्ध पद्च, दूषित पद्चमयी रचना | छुप्न तव॒० ( गु० ) [ घबदु+क्त ] थ्राच्छादित, नष्ट, उन्मत्त, गूढ़, गुप्त रहस्य, छिपा हुआ, ढाँपा हु प्रा, एकानन्‍्त । दिनना । छुन्ना देन (पु०) दूध झादि छानने का कपदा, गाछना, छप्नी दे (स्वी०) छोटा छुवना, भूषण विशेष | छप्तू दे* (गु०) दानने वाबा। [जल से निकलता है। छुप दे ( १० ) रद्द विशेष, जे। श्राधात पहुँचने पर छपई दे० ( स्ली० ) छू पद का छन्दे, छ कढी का छुन्द, चप्पप, छ पैर वाढा। छपकली दे० (स्यी०) जन्तु विशेष, विसतुहया । छपकाना दे० ( क्रि० ) पानी डाटना या पानी में डालना । [मारता है । छूपकी दे० ( स्त्री० ) पक जन्तु का नाम, जे छिप कर छुपना दे* ( ० ) छापा होना, मुद्ित करना, छूप आना, छिपाता ॥ छपरा दे० (पु०) छष्पर, घर दाने का चप्पर । छूपरिया दे० (#श्री०) चोदा छपरा । ». छपरी देन (स्री०) मढ़ी, मेरपड़ी । >” छुपवाना दे" (कि०) छाया कराना, अष्वित कराना, चितवाना, सुद्वित कराना | छूपा रद्‌« (स्री०) रात, निशा | ( रह१ ) छ्रे छुपाका दे० ( पु० ) शब्द विशेष जे ज्ञठ में किसी चस्तु के ढालने से होता है | छृप्पन दे० (गु०) पचास छ , ५६, छ अधिक पचास) कृप्पय दे+ (प०) छ॒ पद का चस्द,छुपाई, पट पदी छन्द । छप्पर दे* ( पु० ) आच्छादन, छुदि, छावन --खट (पु०) पलक, पाट, मसहरीदार पकड़ | छुप्परवन्द्‌ दे” (६० ) घृष्पर पनाने वाला, चाक्ष बाँघने वाला | लिहदये, शेमा, प्रभा । छव दे० ( स्त्री० ) डाछ, श्राकृति, श्राआार, ढब, रूप, छवि दे० ( पु०) झाकार, शेषमा, सैन्दय, *ैतसवीर, चित्र । लशिमित मुँह, मनाहर | छवीला दे० ( गु० ) रमिक, रासिया, रूपवान्‌, सुन्दर+ छब्पीस दे० (गु०) बीस छू, २६। छुम दे० (गु०) उम, समर्थ, योग्य, शक्तिमान्‌ ।- हु ( क्रि० ) छमा करो, माफ करो ।. [दुराचारी | छूमकट दे० ( पु० ) कपदी, व्यभिचारी, छिनलछा, छुमछुम दे० (३०) शब्द विशेष, भूषणेः का शब्द । छूमछुमाना दे* (क्रि०) चमचमाना, रमकना, शे/मित द्ोना। डिलक) छुमणड दे० ( घु० ) निराधार, निरवल्मम्त, भनाथ छुमा (स्त्री3) छसा, दया, सद्दिष्णुता, माफ़ी, धरणी, सइन| -पन (१०) दयालुता,मिदरवानी,धमापन । छुमासी (स्त्री०) छठवें मास का, श्राद इत्य विशेष छमाईी। छामाददी (स्त्री) प्र्येक घर छू मासका। छुमि (#०) इमा करऊे ।-हर्हि (क्रि०) कमा बरेंगे । छुमिच्छृत (स््री०) हशारा, सड्ढेत, चिर्द, समस्या | छू तदू* ( घु० ) ढय, नाश, विनाश, घटी, द्वानि। रोग विशेष, छुई ।--कारो (५०) नाश, विगांद। नारिम (पु०) चई।, उई। छूर दे* (धु०) जयामासी,फडदण्डा । पिखरा'पापाना । छरलबि दे० (स्लौ०) फाई फिरने का स्थान, शोचस्पात, छुरस दे० (पु०) चू रस, पटूरस | छूसिन्दा दे (गु०) पुछाकी, असद्ाय, अकेला, रिक्त- हस्त, शून्य द्वाथ, रीते दाथ ! * छूरी दे० (स्त्री०) देखे छुट्टी * ! िम्र। । छरे दे० (गु०) छंटे, चुने ट्भए, यराये हुए, उत्तम हम छुपाई दे* ( स्त्री५ ) छापने की मजूरी या दापने का । अलग किये हुए, वीने हुए | छुदेन (६ रहेरे ) छाहारा ै! छुदूंच तत्‌० (प०) [ छर्द + अचद्‌ ] छाँट, कय, चमन, उल्टी । छु्दायिव तत्त्‌० [छंद + आयन] खीरा, ककरी । छु्दिं तच (स्री०) बमन,; छाट; खाली । छुर्य दे* ( ० ) दादी छोटी गाली, जे बच्दूक में भरी जाती हैं, एक नवीव तहर का तिलक जो अड्डुलियों से खींच कर लगाया जाता है । छुल तत्‌* (ए०) छुद्, ब्याज, कपठ, शठवा, प्रतारणा, ठगई, फरेव, घेखा, बहाना, चातुरी ।--कारी (गु०) छुछ करनेबाला,.ठण, धघूत्ते, घेलेबराज़ +-- ग्राह्दी (गु०) छुल हूँढ़ने बश्छा, प्रतारक, शठ; घूर्त । छुल्लक दे० (ख्वी०) उछाल, उफान, इसड़, आघात से ५» जहू आदि द्वब पदार्थों का पात्र से थाइर निकलना! छुत्नकना दे० ( क्रि० ) उप्तदना, दलकना, दछुछना, बाहर निकछना जऊ आदि का । छुलकाना दे० (क्रि०) उस्तकाना; उछ्ेलना, गियाता ) छुल्तड्रुना ढें* ( क्रि० ) कूदना, फदिना, उछुलना, छुर्लांग मारता । छलहछुलाना दे० (क्रि०) जल की गति, बे रोक टोक शति, झशब्द गनि, भरी हुई गन्ना आदि नदियों का शीघ्र गरामी अ्रवाद्द । [ (गु०) कपटी, छूली । छुल्लछिद्र तद्‌० ( प० ) छछबलछ, कपद, थाषा (री छल्बक्छू तद्‌ू० (घु०) कपट, घेखा, शब्ता, शाव्य । छुलविनय तदू* (पु०) कपट से बढ़ाई, घेखा देने के लिये ग्रशंसा । छुलना तदु" (क्रि०) छुज् करना, दगना, कटकना। छुली दे० ( स्ली० ) चलबी, आटा चाछमे का छेद- दार पा । छुत्लाँग दे० (ख्री०) कुदाव, फरल्रॉग, उछाल, फाँद -- मारना दे०* उछुलना, कूदना, कुर्लांच मारना, इर्पित होना, आानन्दित दे। कूदना । कुल्लावा दे* (७० ) लू, खुक, लुका, ऋद्यलूक, भूत- : प्रेतादि का उपद्वव । छुलिया दे० (गु०) घूर्त, चुलकारी, घेखा देने चाज्ा । छुल्ली तत्‌० (गु०) कपटी, घूत्त, शठ, धोखे बाज । छल्छा दे* (बु०) आ्रभरख विशेष, ऑँग्रूठी, सुन्दरी, अगुलीयक । है खििंपा । छुघड़ा दे० (पु) बांस भादि की वनी ठेकरी, दौरा छुत्ि तत्‌» (खी०) शेसा, सै'्द॒य; काल्ति, प्रसा | छूवैया दे० ( ७० ) छुप्पर छाने वाला) छुप्पर बनाने चाहा, ठाट बनाने चात्वा । हिने का शब्द । छऋुटरछुदर दे० (छु० ) शब्द विशेष, अधिक चृष्टि छुदरराना दे० ( क्रि० ) छितराना, बिखरना, दूडना, फेलना । यधा-- कन्छु5 चूर चूर भई तानी।! हूओ तार मे।त्ती छहररानी --पप्मावत । छाई दे० ( ख्री० ) सुंदर पर का रूहसन, छीप, रोग विशेष जिससे झुँद का चमड्ठा काछा हो जाता है । छा दे० ( खत्री० ) छाहि, छाया, प्रतिविम्व । हे छाँय दे” ( खी० ) खीढ, वान्ति, उभ्रकाई, खूद, छिलका, काटने का उल्ल, पृथक की रायी मिकस्मी बस्तु !/--करता ( बा० ) उबाल करना, घमन करना; के करना ।--त्तेना ( वा० ) बीछ लेना, बराय लेना, चुनना, छुन लेना | छाँटन दे० ( सखी" ) उछटी करना, चमन करना, भूखे से अन्त निकालना, कतरन, कोथकृंट, फथ्कना, साफ करना, सुधारना, अलग करना, छुनना, इकड़ा, छिछ॒का, वरावन। [छिन्न करना, पछोरना | छाँटना दे* ( क्रि० ) चप्तत करना, क्वंटना, कतरना छाड़ना दे० ( क्रि ) छोड़ना, स्यागना ) कोँद दे० ( ख्री० ) पगद्दा , पश्चश्रों के पैर भान्धने की रस्सी, पैकड़ा, जञाछू, नोई । [जकड़ना । काँदना दे० ( क्रि० ) बान्धना, गसि रोकना, रोकना, छाँदस तव० (वि०) बेदपाठी,बेद सम्बन्धी, रटूहू, सूरज । छाँदा दे० (पु०) भाग, श्रश, खण्ड, हुकढ़ा, हिस्पा। छदिग्य तत्‌० (पु०) सामवेद का पुक ध्ाद्मण विशेष, छांदोग्य भाहण का वपनिषद्‌ । छाँवड़ा दे? ( छ० ) जानवर का बच्चा, छोटा बच्चा । छूंद्दा दें० (सत्री० ) छाया, परचाई, प्रतिविम्ब, डा | यथा+-”' कीन्हेसि, धूप सेव ओ छाहा । हे कीन्देसि, मेघु बीज तेदि मद ॥ >>प्मावत । छाँही दे० ( खी० ) छाहि, परछाहीं । छाँद्वारा दे" ( गु० ) छाग्यावान, छायेला, छायायुक्त, छायान्वित | + छाई ( २६४ ) झाती 2 छाई दे ( क्रि०) चाय गयी, छा गयी, फंल गयी, ध्यात्प हो गई, पाटी, पाट दी, विस्तृत दो गयी, ( ख्री० ) राघ, परस । छाक दें० ( पु० ) कल्लेघा, जझूपान, जज्ञपवा, ककप । ( ख्ी० ) तृप्ति दुपदरिया, नशा, मस्ती, माठ । #छिन छाके उद्चरे न फिर खरी विषम डुवि छाफ |" ++बिहारी । छातना दे० ( क्रि० ) फटकना, निर्मेठ करना, साफ़ करना, शुद्ध काना मझ दूर करना, मछ हटाना, तृप्ति द्वोना, अफर न।, अ्रघाना | छाके दे० ( घु० ) मत्तवाल्ले, उन्मत, पिश्वकद, पिया हुआ, हैरान, तन्‍्मय, तृप्ति, भघाये हुए । कछाग तल" ( पु० ) बकरा, अज्ञ, पशु विशेष ---वाहन ( चु० ) श्रप्मि) बहि, श्रगछ देवता “भेजी (गु० ) छाग मत्तक, बकरा खाने बाछा, वधेरा, मेडिया।--मुस्‍्त तत्‌७ ( पु० ) आातिकेय का वह छुठवाँ मुख जो उ्तरे का सा है, कात्ति धय का एच गण ।--मांख ( पु० ) बकरे का सात +-रथ ( थु० ) भप्मि, श्रनज्ञ, चढ्ि। छागल त्तत्‌० ( धु०) दाग, श्रन, पाठा, एक आमूपण । +-गेत्ी ( गु० ) व्यभिचारी, वद् कामुक जिसे गम्पागम्य का कुछ भी विचार न द्वो । छागी तत्‌* (स््री० ) बकरी, चेरी, पाठी, अज्ा | छाछ् या छाद्ठी दें० (५० ) तक, मद्दा यथा --“अपनी छाल को कौन खट्दा कहता है ॥7 छाछुठ ( पु० ) संपणा विशेष, ६६ । छाज्ञ दे* (घु०) शेकसा,उप्पर|मार्ग,उज्जा,सूप,फो चत्क्स ॥ छाज्ञा दे ( पु ) सादा, शोसा, शोमित हुआ, सच्चा, सूप, डगर, छप्पर, दाद । यथा +- “मुकतानिकी राबरनि मित्षि, मनिलार छज्ता छाजही | सन्ध्या समय सानहटू नखनेगन, छाछ अम्बर राजदि॥। जई तहईीाँ वरघ उठे, ईक्ष किरन घन समुदाय है मानो गगन तम्दू तन्‍्यो, साई सपेत तझाय हूं ॥? ++मूपण । “छाज पषोले तो बोले, चढछनी मी बोले जिम बद्दत्तर सौ छेद । छाजन तदु* (स्री०) दस्त, रुपड़ा, छुप्पर, घुवाई, पुक चमेदोग । छात्रना दें० (क्रि०) शोसना, फवना, सजना, खुब्नना, डचित मालूम होना, योग्य होना | छाड दे० ( घु० ) राग, स्थाग, कर, तज के, छाड़ कर, नदी का छोड़ा हु स्थान, मिद्च, बिना । छाड़े दे० ( क्रि० ) चोडे, त्यागे, छोड़े हुए । छात दे+ ( स्त्री० ) छाता,धराधार, चत्त | चत्‌० (वि०) दिल्न, दुर्वत्र, झृश । छाता दे० ( घ० ) छुत्र, छत्ता, आतपत, मधुमकिबयों का छुत्ता, पहलवानों की छाती, विशाल वद्ध स्थल । छाती दे० (स्त्री० ) ढोदा छाता, पर, हृदय, बच स्पछ, सीना ।--पर घर के कोई नहीं के आयगा ( वा० ) श्रपने साथ परलोछ ले जाना अर्थाद्‌ आप क्‍यों घवटाते हैं, इस पस्तु को कोई ले नहीं जा सकता, अ्रथत्रा यद वस्तु ऐसी अच्धी नहीं है जिसे कोई ले जाय । (तुच्छ सी पस्तु का ज्यादे आदर करते देख इस वाक्य हा प्रयोग किया जाता है ।)--पर ते द्वाथ रसे ( घा० ) इस वाव की सश्यता या औचित्य के तुम्दारा हृदय स्पीकार करता है |--पर चढ़ कर फीन पी ज्ञायगा ( वा० ) किसी वस्तु के! रहित द्वोने के विषय में यह कहद्दा जाता है ।--पर पत्थर रखना ( वा० ) सम्तेष करना, झिसी वस्तु की अमिद्रापा छोड देना, घीरम वचिना, चैयें धरना ।-पर संग दुल्वना ( वा० ) दु पर दने के श्रभिप्राय से उसके सामने ही अप्रिय काम करना, चिढ़ाना, कुड्ाना, मम बेघना ।--फटना (वा०) चिन्ता से धरराना | -“पोटना ( वा० ) विद्ञाप करना, दु खित द्वीना, शोकित होना, विडबिलाना, यवा--राम के वियोग से सीता छाती पीट पीट कर रद्द जाती ई “ ।--ठोंकना ( वा० ) उस्तादित होना, साइस प्रकाश करना; प्रतिज्ञा करना, भरोसा देना, अमथ देना, पधा--“छाती टोंक फर भीम अपाई में इतर गये ” " झ छाती ठोक कर इसके लिये प्रतिज्ञा करठा हूँ (”--उंढी द्वोना ( वा० ) आनन्दित द्वोना, प्रसन्न होना, ”तुमका देखकर छाती ढंढी हुई ” फिर इमारी छाती कब ठंढो होगी ॥--का पंत्यर (वा० ) दु घद, शस्रु कण्टक, ” छाती का पत्थर इटाना ही इचित छाती है। ” आ्राज कत्न तो इमारी छाती पत्थर की हो गयी है [--स्ेल कर मिलना ( चा० ) प्रेम से मिलना, बत्खाद से सिल्यना, यधा--+लिक्ला पे जौदकर भ्रीशमचन्द्रजी छाती खोलकर भरव से प्िले ” ।--ल्गाना--से लगाना ( वा० ) औीति करना, अम करना, प्रेम से मिलना, छोटों के प्रति बड़ों का प्रेम, जनक ने रामचन्द्र की छातो से लगाया, पिता ने पुत्र को छातों से लगाया ?।--निकाल कर चलता (वा>) अकड़ना, भ्रकड़ कर चलना, अहझ्ूकगर से चलना, ऐँढ कर चलना |--भरें (वा०) परिमाण विशेष, छात्री के बराइर, छाती जितना, “यह पेड़ छाती भर का हो गया, छाती भर पानी में चद्ाओ !। भर झाना ( या० ) कहते कहते कण्ठ रुछ जाना, आंखू निकल णढड़ता, सुग्ध हो जाना, मोद्द के विवश होने से ज्रात का नल मिकलनाव। + पर बाल होना ( बा० ) साहस बीरता और इड़ता का अश्ुुमान होना, सासुद्विक का चिन्द विशेष, यधा--- “जिसके छाती एक न बार सौ ऐशों का वह सरदार । ” छात्र तत्‌ू> (9० ) शिष्य, भन्तेवासी, शिक्षार्थी, विद्यार्थी, चेटा, मछु, सघुसछिका विशेष, सरघा | - जय तत्‌० ( छु० ) वह स्थान जा विद्यार्थी बरस, बोडिक्रहाउस |--गंणंड तत ( घु० ) तीढ्षण चुद्धि वाछा विद्यार्थी '--छ्ुति (स्थरी०) पढ़ने के लिये खर्चा, वह दृत्ति जो विद्या अर्जेन के निमित्त दी जाती है । पारिवोषिऊ, प्रशंसा पूर्वक परीक्षा उत्तोर्ण करते वाले विद्यार्थियों के जो दिया जाता है | छान तदू० ( घु० ) बपना, ढकता, ढकन, श्रआच्छादन, ढकिने का चस्त्र ! छादान दे० ( घु० ) जछ रखने का पान्न विशेष, ससक, जल रखने के लिये चप्तड़े का दनाया पत्र, जलथेली । छाद्वित (वि०) ढका हुआ, भ्रच्छादित । छात दें* ( ख्री० ) धप्पर, छांद, घाज, छृत ।--बिन ( चा० ) खोज, अजचुसन्धान, जाँच। - बन (वा०) अक्की प्रकार विचार, परिपूर्ण अलुसन्धाच ऋषम, अजुशीलकून, अन्वेषण, तदारुक करना, तसहकीकृत (६ रेई॥ ) छाया <एणााएएए्रशानाशाथाथणशभा भला भा ५ थामा थणनायात्आाभभ८ आता कल मल करना ॥-मारना (चा० ) खोजना, हूँढ़ना, हेंढ़ मारना । [दिखभाल करना! छात्रना ( क्रि० ) चलनी से छान कर साफ करना, छात्रवे दे० (गु०) नब्बे और छुप, ६६; छः अधिक चब्धे। छुलनस दे? (खी० ) शूसी, चोछर, तुप, अन्न की आस्सी, केरायी । [ढिकना । छात्रा दे० ( क्रि० ) छाया भरना, पाटला, पाठ करना, ऋाज़ाना दे० (क्रि०) ढक ज्ञाना, छाया होना, पट जाना, घिर जाना, विस्तृत होना, व्याप्त होना, फेटना | छात्ना दे० (क्रि०) निख्वारना, मारना, हूढ़ना, खेजना। छाप दे? (स्रो०) टिकट, दाग, अँगूठे का चिन्ह, छाई, मुद्रण, नकल्ट करना, सोदर, चिनद भू, हस्ताक्षरी, कार्यालय की मुहर, वाद का चिन्ह. विशेष जिसमें इसके विपय की बाते छपी रद्दती हैं, धार्मिक चिन्द्द विशेष, तिलक । बधा-- जपमाला छापा तिछक सरें न एका काम । मन कार्च नाच बथा, स्ांचे राचे राम॥ “+विद्वारी । छापना दे० (क्रि०) छापा करना, भद्नित करना, मेददर लगाना, झुद्नित करना । छापा दें० ( छ० ) छुपाई, चिन्द, मुद्रा, तिछक [-- ख़ाना (४०) गेस, छापने की छल जिसमें कितावें छापी ज्ञाती हैं -मारना (वा०) घावा करना, डॉका डालना ।--लगाना (क्रि०) दिकद छगाना, सोहर छूगाना, चिन्द्र विशेष से श्रट्टित करना |-- हासिल (वा०) 3पड़े छापने वालों का कर, छीपों से ऋपड़े छापने के लिये जो कर लिया जाता है, कपड़े छुपने के प्यवसायियों से लिये जीने वाला कर | छापी दे० ( 9० ) कपड़े छापने बाला, जाति विशेष, जे। छूपड़े छुष्पने का काम करती है, छीपी । छाम तद्‌० ( ग॒ु० ) क्षाम, दुर्बछ, बल्हीन, वलतरदित,' चीण, पतला, कृश +--द्री ठद्‌० ( थि० ) छोटे पेट बाली । छायल दे* (१०) एक जनाना पहनावा | # छायत्त बेंद ब्ाए गुजराती ++जायसी । छाया तच्‌० ( स््ी० ) छह, अंश, शरण, रक्षा, साथा, घूप रहित स्थान, अनातप देश, श्रकस, प्रत्तिविम्प, शा० पा०--ह३४ छाया ( रहईई ) प्रतिच्छाया, परदाई, भ्रमुकरण, सूर्य की स्त्री का नाम । सू्े की स्त्री का नाम संज्ञा था, संज्ञा के गर्भ से यम और यमुना दे। सन्‍्तान उत्पन्न हुए थे | संज्ञा सूबे का तेज नहों सदर सच्ठी थी, अत- पथ उसने अपनी छाया के सजीव वनाऊर अपने स्थान पर बैठा दिया और वह स्वय पिता के घर चल्नी गयी उसड्डी यद्द करतूत पिता को पसन्द नहीं श्रायी । पिता ने चट्डुत समझा बुझा कर पति के पास जाते के लिये थाज्ञा दी परन्तु संज्नः ने पिता की आज्ञा न मानी, वद 5च्तर देश में जाकर थोड़ी के रूप में रदने लगी, छाया के गर्म से मी स्वयम्मू और शर्ैश्वर माप के दे पुत्र हुए थे। अपने और सैतेले पुत्र के पालने में भेद देसने से सूर्य को मालूम हुआ कि यह संज्ञा नहीं है | पुन चाया से सद बातें मालूम हुई । सूर्य विश्वकर्मा के समीप गये । विश्वकर्मा ने कह कि मेरे पास संज्ञा आभी ते थी, परन्तु मैने पुन से तुम्दारे ही पास खैदा दिया। सूर्य ने उसे यहुत ढ्ूँठा। पता लगने पर घोडे के रूप में बससे जाकर मिले। उसी समय अध्विनी कुमारो की उत्पत्ति हुई । सूये ने अपने तेज को घीमा करने की भतिज्ञा की (क्रि०् वि०) झाच्छा- दित ऊिपा; दॉक दिया ॥ - ग्राह्दी ( छु० ) ध्राऊपक, आक्रपंण करने बाढा ।-आहिणी ( ख्री० ) पृद् शा्षसी,चाया अदण करने बाजी स्त्री |--दान तवू्‌ (पु०) पुछ प्रकार का दान | (कस के कटोरे में घी या तेज भर दान देने वात्षा चपने मुझ फो देख उस पात्र में कुछ द्व्य डाटकर घनपात्र को देता है [-- न (पु०/पुक रागिनी --पाद्‌ (५५) छाया से समय मालूम करना, भपनी छाया के परिमाय से समय स्थिर करना |-पथ (पु०) देवप्थ, अन्तरिद्द,नमाभाग।--पुरंष (पु०) भ्राछ्ारा में देखी गयी पुरुष की छाया, अपना छायारूपी पुरप --- मणडप (पु०) चन्द्रतापयुक्त स्थान, चदनी # नीचे का स्थान, विवाद के लिये बनाया हुश्वा सण्डप | “मित्र ( प० ) छाता, घत्र, आतठपत्र |-सिद्ध (धु०) पूछ प्रकार के तान्त्रिक जे। छाया के द्वारा शुभाशुम ज्ञान करने की शक्ति भ्राप्त करते है ।-- झुत (१९ ) म्रद विशेष, शनिश्वर, रानेशर । डिकनी छा तद्‌० ( स्त्री० ) चार, भस्म, दुग्ध, राप, “”फ़उयएफखइउय ४० ज्षत्न क्र पय (लो- ) जा, मल, बाण, एए, पके, खाक, खार, खारी निमक, खारी पदार्थ । यथा-- « छास्ते सर्वारिके पदाइुह्ृते भारी ,किये॥, गति मभये पंत में पुनीत पच्च पाईके ।? तुलसीदास | छारदछूवीला दे० (पु०) सुगन्धित चस्तु विशेष, पुक प्रकार का जल का सेवार जे सुगन्घित द्वोता है जो धूप के काम में झांता है । छारी तदु* ( ६० ) दारी, छार करने बाला, दाइका भस्म करने घाला, महादेव, रद्र छास दे० (प०) निनार्वा, निनर्वा, रोग विशेष, जिसमें मुँदद पक जाता है । ल्‍ छाल देह ( छु० ) घिलका, घकला, बेकला, स्वक, चर्म, चककत्त, पुर प्रकार की मिठाई । ७ मतल्ड हाक्ष और मरहेोरी। माठ पिराके और झुँदेरी ॥”?.. -“जायसी। चीनी जे| अच्छी तरद सफा न की गयी दे ।->ठी द्वे० (स्प्री०) छाए का बना कपडी। सन या पदसन का बना वस्त्र विशेष | छाला दे ( पु० ) फफेणा, फुन्पी, फेडा, फुद्रा, घाव, चमदा जैसे सूगढ्धाला । [का पात्र । छातिया दे* (पु) एक मकार की सुपारी, छायादाल छाती दे० (स्त्री०) कटे हुए सुपाडी के दुकडे, सुपारी । छात्ेना दे" (क्रिग) ढक लेना, घा जाना, चैघेरा करना। छावना २० ( कि ) दावा, पटना, छाथा काना, छुप्पर बंकाना । छावनी दे० (स्त्री०) शिविर, सिषाद़ियों के रहने का स्थान, पलछटन के २दने का स्थान, पटाव छान का काम, पाटने का काम) छाबा दे० (यु०) दाया गया, छादिया, आच्छादित किया, ढापा डुच्ा । (9०) दच्चा, पुत्र, ३० से २० वर्ष तक का डायी, सुवा हाथी | छासट ( घु० ) संब्या विशेष, साठ और छू + ६६ | 'छाद्द ( श्री० ) माठ, दी, घाद । दिल ( ३० ) ढाइ, पलारा । छिकनी ( क्वी० ) नकद्ठिकनी मासक घांस | * डदिकुनी दे० (स्व्री०) छड़ी, कमची, वास की छंड्टी। सीटी, दिना यनाया वौस या देंत का दुच्दा | क्किः ६ रदे७ ) कछिनार छिकका तत्‌० (स्त्री०) झ्ुत्‌ दीऊ। [सिने से छींके धाती हैं। छितरवितर (गु०) फैले हुए, तितर चितर । क्िक्किका तत्‌० (स्त्री०) नकदिकनी, एक पैधा जिसझे कछिगुनिया, छिगुनी, छिसझुली दे ( स्त्री० ) छेडी अँगुली, कनिष्ठिका, कनअँगुली | किचड़ा दे ( पु० ) फोड़े की पपड़ी, घाव का नया चमढ़ा, मछ की थैली | छिचड्रेल दे० (मृ०) दुबला, दुर्बठ, चस्चिचड़ | छिलछड़ा दे० (प०) खड़ा, चमे, चमड़ा, छेवर । छिछुला दे० (गृु०) दथला, कम गदरा, उठी हुई भूमि | -ई (स्त्री)) डथल्वाई, घिछुछापन । छिछुली दे० (स््री०) एुक प्रकार का लद़झओं का खेल, घोड़ी रददरी नदी आदि । [पव, नीचता | कछिछिरपन, छिछ्षिरापन दे” ( प० ) इबता, ओछा- छिलका, छिछ्लौड़ा दे० ( पु" ) प्रभाव रहित, द्वीन, ओ छा, अविभ्वासी, नीच, हर्का, अचम | छिदकना दे० (क्रि०) फैलना, विखरता, व्याप्त होना, विस्तृत द्वेना, फैल जाना, “ चांदनी छिटक रही है” (धु०) विकाश, प्रुछता, मनेइरता, रमणी- अत्ता, “/ बसन्‍्त में फूलों का छिटकना क्‍या भरता मालूम द्वेता है ” | [विलियाँ । छिदकनो दे० ( स्ली० ) सिटकिनी, किवयाड़ों की किछ, छिटकाना दे० ( क्रि० ) विलेन, बिखराना, फ़ेलना, छीदना । [दिस्सा । क्ियका ( छु० ) परदा, थाढ़, पाठकी का अगला दिठकी दे० (स्ती०) फैली हुई, खिली हुई । छिव्फूट दे ० (यु०) बिखरा, इधर उधर पड़ा हुआा। छिड़काई ( छी० ) सिंचाई । सींचने की मजदूरी । छिड्ढकना दे? (क्रि०) घिटना, सोचता, मिगाना, भाद् बनाना, पानी छिड़कना । [स॒ींचना । छिड़काना दे० ( क्रि०) छिट्वाना, सिंचवाना, छिड़काघ दे० (पु०) सींच, खिंचाव, छिटाव । छिंड़ना दे" (क्रि०) फारस्म होगा, चल पढ़ना (जैसे ऋंगड़ा किड़ा) | [चिढ़वाना, दुस्वाना, दुःख देना। क़िड़ाना दे ० (कि ०) छिनाना, छिनवाना, चिढ़ाना, छितनिया, छितनो दे० ( ल्ी० ) डलिया, चस की मं बनी हुई फूल डाली, दैररी, चड्लेली, चड़ेरी, ढाका | छितरना दे० (क्रि०) फैल जाया, बिखर जाना, छिट- फुट होना । छितराना दे० ( क्रि०) बिखरामा, फैंछाना, ब्याप्त करना; विस्तृत कान | छिति तद्‌० ( ख्री० ) छिति, प्रथिवी, घरती, घरनी, घरा, भूमि, जमीन | यथा--पाल (पु०) राजा ।-- रूह (प०) छू, पेढ़ । + छिति जल पावक गगन समीरा। [ज्घ रचित यह अ्रधम्त सरीरा ॥” +>ञामायण | छिदना दे" ( क्रिः ) विधना, खुभना, गड़ना छिल्र होना, रोकना, रुकावट डालना, रोकने की चैष्टा करना ! (प०) वरिच्छा, फलूदान, मैंगनी। क्िदनी दे" ( ख्रो० ) अस्म विशेष, जिससे चेद किया जाता है । छिद्रा दे० (वि०) छितराया हुआ, छेददार, जजर । छिंदवाना दे० (क्रि०) छेद करवाना | छिठ्र॒ दच० ( एु० ) छेद, विषर, विछ, रन, दूधण, दैष, कुबान, पेब ।--सुसन्धान (पु०) देष का अज्जुसन्धान, देप हूँढना +--न्वेषण चत्‌» (9०) दोष द्रेँढ़ना, ख़ुचर निकालना ।--न्वेषी (यु०) छिद्र का अनुसन्धान करने घाला, देफ हेँठ़ने वाला [--दुर्शी (वि०) दे हूँठने बाला । छिद्वितं तच॒० ( गु० ) [छित्र + का व छिद्र, बेधित, छेद किया हुआ, बिज्न बनाया हुआ; दूपित । छिन दे० (पु० ) कण, खिन, छन, अक््प समय, अस्पकाछ, थोढ़ी देर, स्वक्प समय विश्वेष का परिमाण ।--छिन ( झ० ) अति छण, परढूपछ, अव्येक पल, सदा, सदा ]--भर में ( चा० ) एक पक्ष में; चहुत द्वी शीघ्र । छिनकवा दे० (क्रि०) सांस को जोर से निकाल कर साक् का मर या रहेट निकाजना | भष्टकः कर मभागना । (बन्‍्दृक छा) रंजक चाट जाना । छिवरा दे० (पु०) पर स्त्री-गासी, व्यभिचारी, लूम्पट छितवाना दे० (क्रि०) छुथ्वाना, छुड़वाना, ले लेना, वलपूलंक अदृश्य करता | छिनाना दे० (क्रि०) छिनवाना, दरण कराना । छिनार, छिनाल दे० (स्त्री०) वेश्या, वेश्याशत्ति करने वाली स्त्री, कुचाली, ज्यभिचारिणी, दुष्टा | छिनाला ह्विनाला दे० (पु०) ब्यभिचार, कुल्टोपन, कुवाल । छ्िनेक दे* (पु०) चेक, एक उण, पुक पड द्विज्त तत्‌० ( घु० ) [ झिद्‌ +क्त ] सण्डित, देदिव। --धन्चा (पु५ ) रणएस्यछ में जिस योदा का चनुप हट गया दो ।-नासिका ( गु० ) नकटा, जिसकी नाक कट रायी हो (-मिन्‍न (गुण ) स्वण्डित, क्टाकुटा, दृटाफूटा, तितरवितर, श्रम्तब्यम्त, नश्भ्रए +--मस्तक ( गु० ) कबन्च, कदा सूंड, मस्तक रहित, भस्तक हीन (--मझ्ता ( स्त्री* ) देवी विशेष, दश म्रद्मावि्या के अन्तगंत छठ्वीं महदाविद्या [-संशय ( पु० ) सशय शून्य, सन्देद शुत्य, सम्देद रदित ।--रुद्दा (खो ०) गुर्चे,गिशेय । छिल्ना तव्‌० (स्त्री० ) [ ठित्रक झा ] गूरची, गुदची, वैश्या, पुंश्चली, प्यभिचारिणी, ठिक्ष मस्ता देवी छिप दे" ( पु ) वनसी, वडिश, मछल्ली पझंडने का यन्त्र (टिकटिझी । विपकली दे" (स्त्री) शृहन्गोधिछा, विखतुइया, द्विपका दे० (स्त्री०) चुपका, गुप्त, ठिडकाथ, सिचाव । छिपना दे० ( क्रि० ) लुकाना, गुम द्वोना, गुप्त दाना, दुबकना ! क्विपा दे० (गु*) लुका, गुप्त, श्रप्रकट, अप्रकाशित, गुम। “रस्तम दे५ (पु०) अ्रप्रसिद्ध, गुणी, गुप्त गुडा । छिपाना दे० (क्रि०) गुप्त करना, गुम करना, ठिपाना, लुकाना । ल्िपाय दे० (पु०) पोपन, दुराव, झुकाव। डिपी दे ( स्त्री५ ) ठिद्र बन्द करने की ब्कड़ी। काग, छोरी चान्षी [जरदी, शिताती । छिप तद॒० (स्थ्री० ) प्िप्र, शीघ्र, तुरन्त, ध्वरित, पिप्ेक्षणा सदू० (स्तरी० सुदूची, अस्टठा, अब्ूत्त- रूता, गुरुच । दिमा तद्‌* ( स्प्री० ) चमा, भपराध माफ करता (-- योग्य ( गु5 ) उमा योग्य, साफ करने स्यायक, सुमा करने क देग्य | दिवालोस दे (गु* ) चालीय चैरछ, ७६, छ अधिक धाकीस, चष्ट चत्वारिशस्‌ । दियासठ देन ( गु* ) पाठ और दू , ६६, छाटठ, छ अधिर साठ, चटुषष्ठी । फिल्सी, पड़शीति छियासी दे (एु०) अष्सी और छ , ८३+ छ अधिक ( रईप ) क्िलका दे० ( पु० ) बकला, वकझछठ, डाल, खक ऋीटना स्वचा, फल भादि के ऊपर का छाछ | किल्लना देह ( क्रि० ) रगइना, घिसना, चप्तड़ा उस ज्ञाना, रगद से चसडा छिल जाना। छिलाना दे० (क्रि० ) कटवाना, रगश्वाना, छाल उतरवाना, रगइ छगज्ञाना, कटब्ाना । छिलेया दे* (पु०) छोजने वादा, स्गटनहार | छिलौरी दे० (स्त्री०) शेण विशेष, मोरी श्रगुल्ली के कार पर का घाव, घिनही, कुणी । [सत्तर, पट्सप्तति। किहत्तर दे० ( गु० ) सत्तर और छ, ७६, छु अधिझ छिहना ( क्रिए ) ढेर लगाना, एक्ना करना |. २ छिहरना ( क्रिब ) छितरना, दिखरना | दिद्वानी दे* (3०) रमरपन, मसान, मरघर | [क्ि्यण। छी दे० ( झ० ) घिक्काराप॑६ भव्यय, कुरिपत श्र्थ वाचच् छींक दे० ( स्त्री० ) वेग के साथ नासिका चार सु से सदसा वहिगंत होने वाली वायु का कोंका पा रफोट । छींकना दे* ( क्रि० ) नासिकामुख द्वार से जोर मे साथ वायु का इस प्रझार निकाहना कि शब्द हो। ह्ींका तद्‌* ( पु० ) रस्थी या ज़ोदे के पतले तारों की बमी प्‌क प्रकार की जाली जिसको ऊपर डॉग कर इसमें दूध धी ध्यदि रखे जाते हैं, सि+६२, शिक्य। कीट दे० (स्जी०) दरेस,छपे कपड़े, पुक प्रकार का कपड़ा जिसमे बेजबूटे छापे जाते हैं,जअठकण, जन्ठ ही यूँद। ६ राधे ठिरकत छींट छवीजी ” “-सूरदाल। छींटना दे* ( क्रि० ) दिखराना, खेत में अन्न फैडाना, डितराना, खीज योना । छींदा दे० (पु०) छौटा, जछ के छोटे छोटे भशुद्ध रण । छीलुड़। दे* ( ५० ) एणित मांस, भमच्य मांस, चमई के समान अभद्य। छीड्ालेदर दे+ ( स्त्री० ) दुर्दशा, दुर्गंति, खराबी | छीज् दे० (सत्री०) घाटा, कमी, इशनि, छति | [होना | छीजना दे० ( क्रि० ) घटना, कम होना, सूसना, न्‍्यून छीजे दे० ( क्ि० ) घटे, कम दो, थोडा हो, पीण दो,_ कट जाय, दुबल्ा दो । छीड दे० (स्त्री०) छरा हुचा काड़ा, घाट, छोटा । छीडना दे० ( क्रि० ) फ्रडशा, विधाइना, बिखराना, लष्ट करना, फैडाना, विस्तारित करना) पानी छिद्कना, साथों सरसों भादि छोटे छोटे अन्न बोता छीन ( रदेई ) छुद्रा लत्-+++++त-__++_+_______.नहहनबन.्-.ह.हैहै.0...औ03औक्‍हक्‍हक्‍#ऑऔ48॥औ॥[॥ै _ै॥_॥] छीन ददु ० (गु०) छीण, दुबेज्, दुब॒छा, बलूद्वीन | क्लीनना दे० (क्रि०) कटक लेना, खींच लेना, ले लेना; शानना, हस्तगत करना, अहरा करना $ छीना तद्‌० (गु०) क्षीण, हुबछा, रहित, दीन, अत्यन्त हुबढा, कमज़ोर,पोढ़ा।कम,छीव लिया,काट डा । छीनाक्ोनी दे० ( स्री० ) छीनासूपटी । छीनास्ूपदा दे० ( खी० ) बल पूर्वक किसी वस्तु को- किसी से छीन लेने की क्रिया।. [कत्तर कर | क्ीनि दे” (क्रि०) छीन कर. घल पूर्वक लेकर, काट कर, छीने (क्रि०) दे* दोने हुए, वरवस लिये हुए. न्यूच हुए, नए्ट हुएु,क्रम हुए,इलात्कार से छीन ले, कोठ काटे ! छीप बे० (स्त्री०) छाई, लुहसन, लहसुन,लकड़ी विशेष, जिसमें सछली परूड़ने के लिये सूत बाधा जाता है| ( बि० ) तेज्ञ, वेंगवानू । क्लीपना दे० ( क्रि० ) कपड़ा छापना, छीट बनाना | छीपी दे* ( ए० ) ज्ञाति विशेष, जो कपड़ा छापती है। छीवर दे० ( छी० ) मोटी छींद । छीमी दे* ( ख्री० ) फरी, किसी पेड़ की फत्ती, केषपा, स्वक्‌, छिलका, छात्ठ ) छीर तद्‌» (ए०) क्षीए, दूध, दुग्ध, पय (--फेन तदू० ( छु० ) मकाई, फेना ।-समुद्र ( प० ) दूध का समेवे, छीरसागर, यधा --+ रे “ख्ानि पतार पानी तह काढ़ा छीर समुद्र निकस तहँ ठाढ़ा? पद्मायत । छीत्लन दे+ ( ख्री० ) काटन, कंतरन, व्योतिन, छान । छीलना दे० ( क्रि० ) कतरना, काथना, छाल उतारना हु फल आदि का छाल निकालना | छुप्रत (क्रि०) दे० छूते डी, छूने ही से, स्पर्श करते दी, हाथ लगाते ही, छूता है, स्पश करता है। - छुआदूत दे" (इ० ) अपविन्न, अघस का स्पश, स्पर्शास्पश | छुटमुई दे ( ख्री० ) पक पौधा विशेष, जिसको छूने से डलकी पत्तियाँ मुरमता जाती हैं | ऊजवन्ती, छूजारी । छुड्ञलिया दे० ( एु० ) कनिष्ठिका, अंगुली, छिंगुली, चेटी श्रेयुज्ञी ! [फरटकारना । छुत्रका रना दे। (क्रि०) लहेकशना, मिड्कना, डांटना छुक्कआना दे? ( क्रि० ) व्यर्थ इधर उधर घूसना छुछुल्द्र दे० (स्री०) पक आत्तशवाज्ञी, छुछ्धंदर विशेष। छुक्कहड़ (स्री०) खाली हांडी । हे छुट दे० ( अ० ) बिना, चोड़के, अतिरिक्त, छोदा । छुटकझाना दे० ( क्रि० ) छोड़ना, सुक्त करना, उद्धार करना | छुटकारा दे० ( पु० ) मुक्ति, छुटाव छुड़ाच, दद्धार । छुव्खेलना दे० ( क्रि० ) मनमानी करना, उच्छुद्नछत्ता का व्यवहार, शुंडई, वदमाशी । छुट्खेला दे: (गु०) बच्छुछ्डछ, गुंडा, घदमाश, लुक । छुटखेली दे० ( ख्ौ० ) ल्ुचपन, छिनालछ, ज्यमिचार [ छुटना दे ( क्रि० ) मुक्ति पाता, बद्धार पाणा, छुट जाना, निकलूलः । छुटपन दे० (१०) छुटाई, लघुता, वाढकपन, छड़काई। छुटान, छुटानी दे० ( ख्री० ) छुट्टी, अवकाश, अनध्याय | छुटया दे* ( घु० ) छुदाई, लघुता, छुटपन, छेडापन । छुट्टा दे” ( बि० ) ज्ञो वंधा न हो, अकेला, निदचत्या | छुट्टी दे” (ख्री० ) छुटकारा, अवकाश, भ्रनध्याथ, विश्रान्ति समय, विश्राम विद्दा | छुट्टे दे" छूद गये, बाकी बचे, अलग हुए | छुड़वाना दे” (कि ) मुक्त करना, छुड़वा देना, छुटकारा कराना। छुड़ाना दे ( क्रि० ) उद्धार करना, कृपा करना, दूया दिखाता, घंधी, फंसी, उछमी या क्षगी हुई किसी चस्तु के झलगाना,दूसरे के कब्जे ले ग्रछग करना | छुड़ावा दे० ( पु ) सुक्ति, छुटकारा ।_ [महसूछ | छुड़ोती दे० ( ख्री० ) छुड़ाने का भुक्य, दास, कर, छुतिदर दे० ( घ० ) कुपात्र, नीच समुष्व, अश्चि बस्सु के संसर्म ले अशुद्ध हुआ वरतन या घढ़ा [ छुतहरा दढे० ( गु० ) अशुद्ध, अपविश्न, शुद्ध रद्दित । छुतिहा दे० ( वि० ) छूत चाक्षा; भरस्षृश्य, दूषित, पतित्त, निकृष्ट छुद्ट तद्‌० ( ग॒ु० ) झुद, अविश्वसनीय, छोटा, अधम, सचीच, अल्प, थोड़ा सा ।-धरिवका (स्त्री० ) करधनी, सेखला ।--मेखला (स्त्री०) चुद्धघण्टिका, करघनी ।.. [छुडारा, कठाई साम का एक पौधा । छुक्ल्ी दे* ( खो० ) घिच्ली, विनोद, कछोल, खेल । | छुद्गा। तत्‌० ( खरी० ) नोज स्त्री, कु्तटा, चेश्य, पतुरिया, छुदावल छुद्रावल तदू० ( पु० ) थ्राभरण विशेष, कम में पहि- नने का गहना, करघनी, छुद्बघघण्टिका | ग्रधा-- “*करदि छुद्गावेज् अभरन पूग | पयिन पहिरे पायक्ष चूरा॥ ?--पह्मावत छुपा तदु० (ख्री०) क्षुचा, भूस,मुपाप्त,खाने की इच्छा । छुघित तद॒० (गु०) क्षुषित,मूखा,व॒ुधुछ्षित, सुधापीडित । छुप तद्‌० (पु०) स्पर्श, काडी, वायु । (वि०) चच्च॒च् ] छुपना दे० ( क्रि० ) दिपना, लुझऋना, लुकाना, अध्श्य होना, आंखों की श्रोट में द्वोना, गुप्त द्वेना | छुपाना दे* (क्रि० ) लुकाना, छिपाना, ढाकना | छुपा दे० ( गु० ) लुका, छिपा, गुप्त, भ्रश्नकद | तदू ० ( छ्ली० ) पैधे, तुण विशेष । छुमित तद्‌* (गु० ) क्षुमित, छ्ोम के। घराप्त, मानसिक व्यथा से दु पी, भयभीत, मोद्दित । छुमे दे० (गु०) डरे, भयभीत हुए + छुए तत्‌० (प५०) छर, छुरा, छुरी, उस्तरा । छुरा तद्‌५ ( पु० ) बढ़ी छुरी, उत्तर, बाल सूदने का अख्र, नाहयों का अख्तर विशेष । छुरिकका तत्‌* ( स्रो5 ) छुरी, चर । छुरिन ( पु० ) विजजी की चमक, शृत्य विशेष | छुरी तद्‌ ० ( स्ली० ) भख विशेष, चककू, छुरिका । छुलरना दे० ( क्रिव ) छुछक के गिरा, पानी आदि का छशक के गिरना, कष्ट से मूत्र श्रतव ए छुनछुलाना दे० ( क्रि०्) छशक छरक के गि(ना, चम थम के गिरया । [वषला उतारना । छुजाना दे० ( क्रि० ) चुवौना, स्पश कराना, छीहना, छुलद्दजा दे० ( गु० ) चछुर, चपढछ, चित्रि्ठा ॥ छुवान। ( कि० ) छुलाना | छुगाव दे० ( पु ) क्गाव, सम्पस्‍्ध प्रतिमृत्ति, भकृति हति, रूप, समानरूप, उयमा । छुद्दाना दे* ( क्रि> ) उजज्जाना, उत्तान करना, साफ़ करना, चूना फेशना ।_ [पेड और बसछा फछ || छुंद्दारा दे० ( पु० ) पजूर विशेष, खजूर छे समान पक हुद्दाचट दें" ( स्रीं* ) जगावट, स्पर्श, छत । छुद्दे देन पेप्ते, लीपे हुए, लॉपने से, दातन से | हू दे* ( ६० ) मंत्र की फुंक, छुबे। दुषमाना दे० ( क्रि५ ) छुलाना, म्वशं कराना, छने के क्विय भेरित ररता। ( रे ) छ्ेठा छुशानों दे० (खी०) फोडा फुसी, घाव, दरीरा । छूई दे० ( ख्री० ) दुधिया मद्दी, सड़िया मह्ठी, मिले बच्चे लिजते हैं । छुईमुई दे० ( स्दी० ) छजवनी, एजव-ती, छपनी, पु पौधा, जो छूने से कुम्दहछा जाता है । छुद्छ, छुद्ठा दे” ( गु० ) खाली, रीत, रिक्त, घून्य। छुछ्लला दे" ( गु० ) बोदा, बोदछा, भ्रारूसी, निर्वेच, अनभिज्ञ छुद्दा दे* ( गु० ) रिक्त, खाली, खोपला, शूज्य । छूल्ली, छुद्दी दे” ( ख्वी० ) कुष्सित, मीच, शून्य, रिक्त । छूट दे० ( ख्ती5 ) बच्दा, छुशव छुडाने का कर, चमक दीप, दमक,झाव,थवाघ,स्वातनय । [उद्धार पाना | छूटना दे० ( क्रि० ) छुटना, निकलना, भुक्त होगा, छुटे (क्रि० वि०) देसे। छुटे । छूत दे० ( ख्री० ) भ्रपविनवा, अशुद्धता, 'गत्टश्य से हुमा हुआ, अध्युश्य, धष्णए।..|५, छूना दे० ( क्रि० ) स्पश करना, छुता, छुश्ावा। द्वाथ रफ़ता, चूना ऐप्रोतना। कफ दे० ( पु० ) छेद,, कटाव, विभाग | तल» (प०) घर के फाल्तू पथ पक्ती, नागर, छेकामुप्रास | दे (प्वी०) रोक,रकावट प्रतिबन्ध,अ्रटकाव -लनुप्रास (पु०) प्रदाछ्ट्ार विशेष +--परुति (9०) अलडू।र विशेष जिसमें युक्ति द्वारा सत्य प्रनुमाव का चिच्छेद किया जाता है। छुंकना 4० ( क्रि० ) रोकना, अटकाना, घे(ना, डुकरे डुकडे करता, सण्ड सण्ड करना | छेंडविया दे० ( पु० ) रुच्यैया, रोके बाल अदकान घाला, घरने वाला, रुशावद दालवते बाला । छुँकाव दे" ( पु० ) छेंकऊ, रषाद, श्टकाव, घिराव । छेझ्ेक्ति तत3 ( सख्री० ) चतुर की उक्ति, चहुर का कथन, परिदास, व्यडूग्य, काब्यालझ्टार विशेष | क्था+-- जहें कद्ठत शपनाम है छेवउकद्ठि तेट्टि मान, (इदाइरण)”' जे सुद्रात सिदराज को थे कवित्त रसमूठ जे परमेसुर का चर तेई चाद़े फूट 7! “भूषण ) छेदा तद० ( स्ली० ) देटा, बाधा, रुचयट। छेड़ ६ २७१ ) छोड़वाना वन नल ननननननननननान मनन -न-«+ >> जन >> न +-- ८ +--+ मन न>>न सनम नन+-+ अत पक -++++नरेननक+++ ८२००-००... छेड़ दे० ( ्वी० ) दुखाव, पीड़ा, खिजावट ।--खानी | छेद्द (७०) निश्चल, नृत्य का भेद विशेष, नाश (ज्री५) ( स्वी० ) चेइथाड़ ।--छाड़ ( वा० ) छेड़खानि, चिढ़ाने वाली वात छेड़ना दे ० (क्रि०) चिढ़ाना, छुपित करता, खिजाना। छेड़ा ( एु० ) रस्सी, साठ, ज्यक्ष, उपद्ास द्वारा तंग करने की क्रिया । छेन तदू० ( पु० ) क्षेत्र, खेत भूमि, युद्धस्घान, युद्ध करने के लिये मैदान, तीघे, पुण्यस्थान, सदावतं, अज्ञसत्र ।--फल्ल (9०) छेन्रफछ, स्थान का नाप घन फुट में । [(जैसे वंशछेद), खण्ड, दोष, ऐव । छेद्र तच० (३०) चित्र, बिल, फॉक, मुँह, नाश, ध्वंश छेंद्‌क तद्‌० (०) छेद करने वाल्म, थेदतकर्त्तां, चेचक, विभाजक, नाश करने वाला । [करना, बेघना । छेुद्य तत्‌० ( छ० ) [ छिंदू + धचद्‌ ] छेदना, दिद्र छेंदना तदू" (क्रि० ) गड़ाना, खुसाना, घसाना, घेंधना, पार करना | (पनीर, पेवस । छेना दे" ( छ० ) सिरसा, छेवता, फाड़ा हुआ दूध, छेनी दे० ( ख्री० ) रुखानी, पत्थर या लेहा काटने के लिये अख्तर, टांकी, छेचनी । छेप या छेपा तदू० (खी०) सुख, आनन्द, मड़ल |-- कुशल (ख्ी० ) आनन्दमज्ल, कुशलमभल । छेमकरी वद्‌० ( स्री० ) चेमकरी, मझ-तदायक, मडक करने वाला, एक पक्षो का नाम । [चाहने वाली | _ छैमडूःरो तदू० (स्री) कल्याणकारी, मज्लकारी, भला छेमणड तत्‌० ( घु० ) बिहा रा बाप का पुत्र, हुअर मुरदा, अनाध, रघकद्दीत । [पतला दस्त होना । छेसना दे० ( क्रि० ) श्रपच्॒ रोग होना, दृस्त होना, छेरी दे ० (स्री०) बकरी, छागी | [एुक वार का कटाद । छेच दे" ( छ० ) पाछ, छोटा घाव, कुदाली आदि का छेवना दे० ( क्रि० ) दागवा, श्रक्धित करना, काटना । दे० ( स्त्री० ) ताड़ी, सादक वस्तु विशेष | छेपनी दे० (स्ली०) दौकी, पछुना, रखानी ! छेघर दें० (पु०) चमड़े की तह, छिकका; खक्‌, स्वच । छेवा दें* (०) छकीर, चिन्ह, पाई, चोट, घाव, किसी अख्र थे चिन्ह करना, सीमा जानने के लिये कुदारी शआ्रादि से क्कीर कर देना | यथा-- #क्ाबानेसि सुमानस्तर केचा; खुबि सुभवैँर भा जिच पर छेवा ।? --पच्मावत । राख, मिदी, छाया, सीरक | छेहर तद्‌० (स्०) छाया, साया | छै दे+ (स्त्री०) क्षय, पट, छै संख्या । द्वैना (क्रि०) चीमना, काम देना, नष्ट होना ! छेँया दे० (पु०) वालक, शिशु, छेपकरा, लड़का । छैल या दैला दे० (एु०) बनाठना, समाधजा, अहड्डूनरी अमिमानी, शोहदा, का, श्रकदेत, बाहरी दिखावे में जनठन कर रहने वाढा [--चिकानिया (पु०) डैना, श्ेहदा ॥-छुवीला दे* ( छु ) रंगीका | छे। तदू ० (9०) छोह, प्रेम, दया, क्षोभ, कोप । ( बिल्ली को भगाने के लिये भी 'छे। छो! कहा जाता है ,) छाझा दे० ( पु० ) चोट, गुड़ की मैट, जूसी, चीनी बनाने के लिये गुड से जे। मैं निकाका ज्ञाता है । छेई देन (म्वी०) गन्ने के ऊपर का छिल्नक्षा जे। दोछ कर फका जाता हैं। गहरी का बद भाग जिप़का रस चूस कर फेंक दिया जाता है | छाँक दे० (४० ) बघार, वघार बाक्नना, तरकारी या दारू भ्रादि का छेडा जाता । छाँकन दे० ( पु० ) बघार फे ससाले, बधार | छाँचला दे० (घु०) प्रेम, प्यार, पियार, स्नेह, चे।चल्टा । छाँछा दे० ( खो० ) बढ़! सुई, सुई की जेल जिसमें बह सुई रखी जाती है। - कछ्लेकरा, छेकड़ा दे० (पु०) शिशु, छड़का, चाढूक । (स्त्री ०) छाकरो, छेकड़ी कन्या, लड़की, पुन्नी । छोकला (पु०) छिलका, चक्कछ, छात्र । छोछ्ि दे० (स्वी०) अछी, गोदी, काला, वत्सक्ष ।- छैडका (गु०) छोटा । छैठा दे० (गु०) कनिछठ, लघु, कमीयान्र, लहुरा । छीोटाई या छाटापन दे० ( स्री० ) लघुता, छोदटापन, लूहरापन। छोड़ना दे० ( क्लि० ) ह्ागना, त्याग करवा, अपने या से हठ देना, झुक्त करना, खतस्‍्त्र कर देना । छोड दे" ( 8० ) छुड़ाव, छुदकारा, मुक्ति । छोडवाना दे* ( क्रि० ) छुटकारा कराना,मुक्ति कराना, किसी प्रकार बन्‍्धन कदवाना | छोडौती ( २७२ ) ज्ञत्त छ्लोड़ीतो देन ( खी० ) छुटकारे छा दाम, छुड़ौती, उतत- शाई, उतारे का दाम । छानिप हू» (पु० ) डोणिए, भूवति, भूमिपति, एथिवी- पति, भूप, भुश्राल, भूगोल, राजा । छेानी तदू+ ( खीः ) चोणी, एथिदी, धरती, भूमि, यपा--“दनी में के छेशनोपति उाजे तिन्द् छत्र छावा, छेनी दैनो, छाये उिति थ्राये निमि राजा के, प्रवक् प्रदण्ड वरवण्ड परवेव्र वायु, बरबे की बोली बैदेद्दी वर काज के, पेले वन्दी विरद्‌ बनाये बर बाजनऊ, बाने बाजे यीरयाहु घुनद सम्राज के, तुलसी मुद्ति मन पुर नर नारी जेते, बार बार हेरें मुफ्त श्रवघ स्गराज के !? कवित्त रामायण । छाप दे* (पु०) पुक बार का क्रिया हुझा रह्भ किप्ती चश्तु पर एक बार रह चढ़ाना; रक्न मरना | छेपना दे० (क्रि०) भरना,रह्तना,फ देना। [ भ्रस्थिशता | छेभ तदू० (१०) ढोम, घश्राइट, मन की चल्नुत्नता, छे।मा दे* (पु०) देखे छोम । [हघर उघर का सिरा । छोर दे० ( पु० ) किनारा, प्रान्त, कगर, पुक किनारा, छेरना दे (कि०) से।छना, छोइना, मुक्त करना । छोर दे० (खो०) लड़ा, छोऋरा, वाल, ( क्रि० ) खोला, स्लेल दिया, गे खेला | छा, छेरी दे० (स्री०) लड़का, लटकी, पुत्र पुत्री | छोरी दं५ ( स्त्ी० ) कन्या, इश्री, बालिका | ( क्ि० ) खोल दी, छोड़ दी । छेलदारी (स्त्र०) खेमा, छोदा तम्वू | छेोलना दे० (क्रि०) छीलना, छाल उतारना | छेला दे० (६०) घास, कटी घास, चना, ईप के काट कर छीलने वाला । छेालनो दे० (स्त्री) खुप्री घास छीज़ने का शस्प्र। छेली (क्रि ०) छीढ डाबी, छील कर | छोद्द दे* (9०) स्नेह, मेहद, प्रेम, प्रीति मुद्रभत | छोट्ट ३० (पु०) प्यार, प्रीति, प्रेम, उक्षतत । छोदरा दे० (पु०) छद्का, बाल 5 ।---छो दरो (म्त्री०) बालिका, छटकी । छोद्दी दे" (गु०) प्रेमी, प्रथयी, अन्ुुरागी, श्रभिलापी। देक दे (पु०) बघार, तड़का । द्ीकन दे० (पु०) बघार, घै!क। दैकना दे" (क्रि०) बधारना, हीना । छ्लौकन दे* (पु०) दीवादीनी,कपदाछादी | [सपटना | द्ौकना दे० (क्रि०) मपटामापटी करना, चौक्ड्ी साथ दैफल दे० (घु०) मपटामपटी करना। द्वौना दे ( पु०) शाव5, शिशु, बच्चा, जानवर का बचा, ल्ढरा, छोरा, बालक, छोटा बच्चा | यथा-- छोनी में न छंद ये! छप्यों छोनिय को दीने॥, छोटो छोनिप छपन ताक पीरद यहुत हैं।। --केवित्त-रामायण | छर तदु० (ए०) झुगढन,माया मुँ हवाना,वालगनवाना । छारा (६०) होयर,ज्वार वाजरे का डठुठ । [थानन्‍्दी । द्वालिया दे० ( गु० ) इपिंत, प्रसन्न, रसिक, विज्ञाप्ती ज्ञ ] ज्ञ, प्यक्षन का थ्राठवाँ भचर,इसका दच्यारण तालु द्वारा द्वाता है | अतपुव यद ताज्व्य वर्ण कट्टा जाता है । ज॑ तत्‌० (पु०) किसी शब्द के साथ संयुक्त दाने पर यह वत्पत्ति अर्थ का वाचछ दे जता है| यधा--मित्रज, अआएमज, देइज, इत्यादि | विष्णु, विष, मुक्ति, तेज, बेग, जन्म, पिता, रुत्युप्यय, छन्द'शास््र का तीन अच्चरों का गण । (वि०) देगवान्‌, तेज, देता । जई देन 'छी*) जा का ठोय अंकुर, जा दी जाति का पुर अम्न, अखुभा जईफ (३०) शद्ध। बढ़ा ।--] (स्रो «) इदावस्था, बढ़ाई । ज्ञक दे० (पु०) यक, रघित घन छा रह 6, ग्रादे घन का रखदारा, कंजूत आदमी । जकइना दे० (क्रि०) कमाना, बिना, खींच खोंच कर यंचिना, दृढ़ बॉधना | जकड़वन्द दे० ( घु० ) भकड़वाय, रेप विशेष, बयु जनित रोग, कुस्ती का पेघ | जऊकुद तत्‌० (पु०) कुत्ता, बेंगन का छूछ, मल्याचढ्र | जकी दे० (स्ो०) घुहबुछ की पुक मातति | जक दे० (पु०) जगव्‌, संसार, दुनिया । जत्त तदु० (धु०) यक्ष, दव यानि विशेष :, ज्ञक्ष्मा अक्चमा दे० (पु०) यक्ष्मा, इस नास का एक शोर | जखनाचारये दे० (पु०) यह राजवंशीय अ्रधान शिल्पी थे, मैसूर के राजघराने में इचकी उत्पत्ति हुई थी, फ्रीष्टीय बारहवीं शताब्दी में यह विद्यमान थे । चित्र-रचना की निषुणता इनमें अल्नैौकिक थी। कहते हैं. इस समय मैसूर राज्य में जो बड़े बड़े प्रधान मन्दिर वत्तमान हैं, वे सब इन्हीं के बनाये हैं । जखनी तदू० (स्रो०) यद्धिणी । - जख्म दे० (धु०) घाव, छत, चेट |--ी (वि०) घायल । जझख़ीरा दे" (५०) कोष, ढेर, समूह, पेढ़ों की पैद्र का भण्डार | जरखेड़ा दे" (प०) जमाव, बखेढ़ा | जखीेया (घु०) भूतये।नि विशेष । जख्म (प०) बाष, फोड़ा । ज्ञग तब्‌० (१०) जगत, झ्ुधन, संसार, दुनिया, जक्म, चने बाले, जनसमुदाय । [स्रज, दिनकर । जगच्चज्षु दत्‌० (पु०) सूझे, दिवाकर, भाजु, सात्तेण्ड, ज्ञणजगा दे० (गु०) दीप्ति सुन्दरता, प्रकाश, शोभा, पीचल का मुलम्मा | छाबण्य । ज्ञगज्ञगाहुट दे० ( ख्री० ) चमक, प्रकाश, उमल्ाई जंगजागी दे० (स्वी० ) अख्यात, असिद्ध, विख्यात, संप्तार में विदित । ज्ञगज्ञीवन तद्‌० (एछु०) जगत्‌ का आधार, जगच्‌ का प्राण, रक्षक, पानी, ईश्वर, मेघ, वायु । अगड्बाल तत« (पु०) ब्यर्थ का आयेजज्ञन, आ्राउम्बर | जग तत्‌० (ए०) गयविशेष, पद्यचना विषयक रीति विशेष, छन्‍्दें का सल्लिवेश और पदचान कराते चाल अष्टध्िध गणों में का पुक गण! जगण में बीच का अक्षर गुरु और झ्रादि अन्त क लघु होते हैं यथा +-- सवार ” इसका देवता जरू है । जंगती तदू्‌० (स्त्री०) शुवन, लेक, प्रथिवरी, धरती, भूमि । +-तल सँखार,नह्माण्ड,समस्त भूमणडल, पृथ्वी तत्ठ । जगत्तू तत्‌० ( घु० ) संघार, जग, देक, आड़, कु का पनघटा, कुएँ का चबूतरा, वायु, महादेव, जड़्म । कर्ता ( ए० ) ब्रह्मा, विधाता, स्ष्टिकत्ां, पर- माध्मा ।-ज्ञाता ( छु० ) जगतारक, जगरक्षक | “प्राण (पु०) वाथु, अनिछ, वात साक्षी ( पु० ) सू्, दितमणि. भास्कर, दिदाकर, भाज्ञु । ( रछ३रे ) जगदुशुरू | जगतसेठ दे० ( ०) इतिहास प्रसिद् सुशिंदाबाद निवासी एक घनकुबेर, इनका नाम फतेहचन्द्‌ था। १७२२ ई० में दिछी के बादशाद्व ने इनश्े जगत- सेठ की उपाधि दी थी, यह झैनी थे। हनके घुरखा सारवाड़ से बज्माकू आये थे | इनके पिता का नाम ज्युयचन्द और माता का नाम घनवाई था । घन- बाई के भाई माणिकचन्द्र के कोई छड़का नहीं था, अत्तएव इन्होंने अपनी बद्धिन के छड़के फतेह चन्द्‌ को गोद लिया । असिद्द धनी माणिकचन्द के सतुलछ ऐश्वय के मालिक फरेह चन्द हुए थे | बज्रात्ठ के ववाय मीरकासिम्त के क्रोध में पढ़फर ज्गचूलेठ #॥ अन्त में अपने प्राण गबवाने पड़े । जिस धन के किये उन्होंने कितने छत्न छपट किया,कितने पड़्यन्त्र रचे,परन्तु मेक पर बस घन से उनके कुछ भी सहायता नहीं मिली । जगद्‌ तव० ( पु० ) पालक, रक्षक - जगद्म्बा या जगद्म्विका तत्‌० ( र्री० ) सब जगत की माता, जगमाता, चेष्यवी शक्ति, आदिशरक्ति, भवानी, हुर्गा ।.. [क्षा प्रारम्भ, परमेश्वर, सह । जगदादि तव्‌० ( घु० ) ज्गत्‌ का भारस्म समय, सष्टि जधदाघार दव० ( पु० ) जगत्‌ के झ्राधार, अनन्त, शेपनाग, संसार का अवलस्तर,वायु,परमाध्मा, धर्म | जझगदानन्द तत्‌० ( घु० ) ईश्वर । जगदीश तत्‌० ( 8० ) जगत्‌ का स्वामी, परमात्मा, ( १ ) जगन्नाथ । ( २ ) नवद्वीप निवासी न्यायशासत्र के एक विरूयात विद्वानू, ६७ वीं सदी के प्रारम्भ में यद्द उत्पन्न हुए थे। इनका वास्यकाल्ठ खेलने ही में बीत गया। भ्रद्टारह बर्ष की अवस्था में एक खेन्‍्यासी से इनकी भेट हुई । ये संन्यासी इनझी बुद्धिमानी देख प्रसन्न हुए भौर इनको पढ़ाने छग्रे। जभदीश बढ़े दरिद् छे पृत्न थे,तथापि धनके कष्टों के सहकर भी विधोपार्जन इन्होंने किया | इनकी बुद्धि तीत्र थी दी, यह पुक बढ़े भारी विद्वान्‌ हे यये हैं। स्यायशास्त्र के १६ उपादेय अन्य इन्होंने घनाये दैं। जगदीश्वर तव्‌० (०) परमात्मा । जगदीश्वरी तत्‌० (स््री०) भगवती, जक्ष्मी । जमदुूमुरु तत्‌० ( घु० ) भ्रद्मन्त पूज्य चा भतिष्ठित पुरुष, शक्लराचार्य्य के सम्प्रदायाचार्यों की बपात्रि, परम्ेश्दर, शिवा; नारद । श० ए[००--हे जञगद्धर जब 2 3 अमल झगद्धर चा० ( पु० ) संम्कृत के एक परशिडत, न्याय वैशेषिद्ठ और व्याकरण के बडे पणिडद थे । चेणी- संदार, बासवदुर्गा, मालती साघत्र आदि संम्कृत ग्रन्थों की टीकाएँ, इन्होंने बडी येग्म्तासेलिखी है| उसके अन्त में इन्दोंन अपना परिचय इस प्रहार दिया है। द्विजाति कुदतिलक चरडेग्वर नामक पक प्रसिद्ध मीमसक पण्ड्ित थे, उनके घुत्र रामे- , श्वर पणिद्ोत भी प्रसिद्ध मीमासक थे रामेभ्वर के , पुष्ठ रादत्घर, गदाघर के पुत्र विद्याघर और विद्या- | घर के पुत्र रबर हुए । इन्हों रत्घर ही के पुत्र । जादुर थे । जयद्धर के पिता की डपाधि | 6 श्रीमन्मद्टापाष्याय, पण्डितराज, मद्ाकविराज, | चर्मांधिहारी ” थी, इसघे इनके कुछ की ठखता जान | पहली हैं। पण्डितवर रासकृष्ण अण्डारकर के | निर्णयासुसतार इनका समय ३४ यों सदी के पढ्िले नहीं दे। सकता । ज्गद्धात्नी तत्‌० (ख्रौ० ) चतुझुंगा, सिद्वाहिनी, भगवती, शरतझ्ाल की दुर्ापूजा के अनन्तर इनद्ी चुना दती हैं| कहते हैं. पुक समय देवताओं के घइ अमिमान हुपा कि हम खेगे से कोई दूसरा यदा नहीं है। ईश्वर या परमेश्वर फोर्ट वस्तु नहीं है। देवताओं के ऐसे वद्धत विचारों के समझे कर, भगवती ज्योतिरूप में उनके सामने झाविसूँन हुई देशता इस ज्योति का निश्चय नहीं कर सके, अत- एवं इसे परिचय के लिये स'सम्मति से घधायु भैमे गये। क्ष्योति के मध्यस्थित भगवती उनझे सामने पक तृथ रख का बोली, यदि तुम इसे उठ? के तव इस तुमझे शक्तिमान्‌ सममेंगी, परस्दु पदाड़ों का वखाइन वाल्ते घायु से वह ठृण नहीं गढ़ सका, इसी प्रशार अम्ि आदि और देवता मी धाये, परन्तु उनमें कोई भी सफर नहीं इच्ना, सब इनका घमिमान दूर हुथा और इन्‍्दोंने समझा कि हम लगें से मी दढू कर काई प्रठापी हैं। उसी मूर्ति केः परमेरवरी पमस्र कर,देवना पूजन लगे | यद भग दती रक्तास्वरा,प्रिनपना और चतुमुजा हैं । सरस्दती । जुगना तत» ( क्रि० ) उ़ना, पडुद होना, जायून होता, निद्रा स्याग करना, नींद से शठना, उत्साहित होना, शसेजित हे।ना, दैवी देवता था मृत का €( रऊंड ) ज्ञगवछमाँ अधिक प्रभाव दिपाना, उमडना, इमइना, यच्नगा, जलना, काये करने के लिये तेपार देता । जगन्नाथ तद्‌० ( ० ) थी ऐेत्र के देवता, जगदीश । ( देसे इन्द्रयुन्न ) इईैश्वर।- पशिहतरांज (५० ) यह अजहर शाख के बढ़े प्रसिद्त विद्वान थै। दिल्ली के बादशाद के दरबार में थे | यह अपने विषय में लिखते है “ विछ्लीषछ्ठमपाणिरलंद तक नीत नवीन बे यह तैलड ब्राह्मण थे, परन्तु काशी में रह कर इन्होंन विद्यास्यास किया था। इकने पिता का नाम पेहुणद्ध था, साता का नाम छक््मी और ज्ञानेन्द्रमिष्त गुरु का नामथ्ा जयपुर के राजा जयसिद्द की ग्राजा से इख्हेनि जयपुर और काशी में वेधशालायें बनायीं थीं। दिल्ली के यादुशाह न इन्हे पण्डितशान ही पदवी दी धो) इन्होंने संस्कृत #ी बहुत सी पुम्ठके बनायी थी | रसगद्भाधघर, मतेररमाइचमर्दन, गड्ा ट8री, कस्णा: छद्दरी, अरवधादी काष्य, सामिनी विल्ञाप्त, प्राणा मरण, आसफविछास आदि इनके बनाये प्रन्‍्पों के नाम हैं। किसी मुसत्मानिन से इनका प्रणव हे। गया था। झतएवं काशी के पश्दितों ने इनझ। जाति बाहर कर दिया। इसनि अपनी शद्दि प्रमाणित करने के लिये गढ्ढाः के किनारे चैंठ कर गठ्मा खहरी बनाते यनाते प्राण ह्याग किये । चढ़ाये में कुछ दि तक ये मध॒पुरी में भी रहे से जअगन्निवास तद्‌० ( पु ) ईश्वर, विष्ण । ज्ञगन्नियन्ता तव०( पु० ) विध्छ इधर | जगन्मय तद० (पु०) विय -यी (खी०) टकमी। जगन्माता तब» ( खो० ) रद्टमी, हुर्गा, धादि शक्ति) अगन्मोदिनों तद० ( खरी० ) मदाक्षावा | जगमगश या ज्ञगमगा दे० ( ग॒० ) धमकीका/ प्रमायुक्त, प्रभावान्‌ | ज्ञगमगित दे० ( क्रि० ) चमचमाता हु, डीपितान) ज्गमंगाना दे० ( क्रिब ) शेमना, 'चमंकना। दीरना । ज्ञगमाता तद्‌* ( खी० ) जगत की मादा, देवी, दुरग* लक्ष्मी, सरस्वती । जगजीनी नदू* ( स्थी० ) धदा, विधाता । झगरमगर (गन) लगमग, चमदीटा ! जगव्दमा मदन (सख्रो5 ) वेश्या, पादुर, पहुरिवा। चमकदार जयवाना जगवाना (क्रि० ) डठवाना, सावधान करवाना | अगह दे० ( स््री० ) स्थाव, भूमि, धरती, दौर, समाई, स्थिति, पद, चौक ॥--सिर खरचन्य ( का० ) अवसर पर व्यय करना, उचित खचे करना | +सिर होना ( वा० ) किसी काम पर नियुक्त होता, ल्वाभवान्‌ कार्य का मिल्ल जाना, यथोचित होना, यथा योग्य नियोस । जगहर दे० (पु०) जागरण, प्रवाध,निद्रा त्याग,जगाई | ज्गाज्योति तद्‌० ( स्त्री० ) जयजागाहट, प्रकाशमान प्रकाशशीक्ष, सर्वदा प्रकाशित रहनेबाली ज्योति, अखण्डदीप, प्रभावशाक्ी देव । जगाना दे० ( क्रि० ) उठाना, सचेत करना, सेत्ते से डठाना, जाग्रत करना) मंत्र आदि का सिद्द करना । जमार दे० (स्त्री०) जागरण | जगाचहु दे। (क्रि०) जगाओ, उठाओे, जागृत करो [ जंगेसर तद्द ० (पु०) यश्लेश्वर,यज्ञपुरुष,यक्ल स्वामी,विष्छ । जघन तन्‌० (पु०) कमर के नीचे का भाग, कमर, कटि; डपस्थ, कठिदेश । - कूप ( एु०) चूतड़ां पर का गढ़ढा ।+--चपत्ता (स्त्री०) चृत्य विशेष, छृत्य का एक मेड, व्यमिचारिणी, दुराचारिणो, वेश्या । ज्ञघस्प तधु० ( गु० ) श्रन्तिम, चढस, पीछे का। चिनिद्त, गहित, कुत्सित, श्रघम, नीच, अन्ध्यज्ञ | >+ज्ञ ( पु० ) छोटा, कनिष्ट, श्रद्ध, चौथा वर्ण जज्भम तव॒० (छु०) चलने वाला, अस्थावर, गति शक्ति विशिष्ट, श्रहिष्णु | शैदों का पुक भेद ।--कुंठी (स्त्ी०) छत्र, आतपत्र ) --ता (स्त्री०) जड़म का धर्म या स्वमाव, चाधुक््य, चपतता, भ्रस्थिरतता ] जज्भुल्न तत्‌* ( छु० ) बन, कानन, अरण्य, बिना, जलू का देश, निर्मल स्थान, बुर्कों का समूद्व “सेतु (पु०) चलने वाल्य सेतु, जे। चाँध चन सके, इटने बाड़ा छुछ।.. विशेष, गवाघ, गौख, खिड़की । जड्ूलला तद॒० ( यु० ) इसाड़, वन्य, प्रट्पर, रागिनी जजुत्लात तद० ( पु० ) चमसमूड, घोरवन, चन्य, चमनय । [स्घच्च, पनवासी । जड्डुली तदू० ( ग॒ु० ) वस्य, वनोदुभव, चनेला, बन में ज्ञज्भरगल तत्त० ( पु ) रेघ विशेष, पुक प्रचार की सुकावट, बांध, सेतु, पुल, डॉट, पार, भमोना, ऋड़ादार बढ़ा त्ततला ॥ ( २७४ ) ज्ञदा जड्भा तद॒० (स्त्री०) जाँघ, जाजु के नीचे का भाग | जट्जिया देन (७०) बस्त्र विशेष, जिसे कसरत करने के समय पहलवान पहनते हैं । भराव्छादन वच्न, कटिपट, जह्ठला पर पहनने का वस्छ जद्ना दे* ( क्रि० ) पसन्द होना, अटकल होना, अटकला जाना, किसी चस्तु की अच्छाई चुराई 'मैर द्वाम का मालूस होना, परीक्षित होना । जचाना दे० ( क्रिए ) अठकल करना, परीक्षा कराना खोटे खरे की परीक्षा कराना, पद चनवाना, अलु- सनन्‍्धाव करना। जचावट दे० ( स्तरी० ) जाँच, परीक्षा, अनुसन्धान । जच्चा दे० ( खी० ) प्रसूता स्त्री | अच्छ ( पु० ) यक्ष । जजमान ( पु० ) यश्मान | जज्ञाल दे० ( छ० ) इलमकन, भोमट, प्रपन्लु, दुःख, कलश, उलकाव, उद्धिझ्तता, व्याकुलता, घबराहट, कठिनता । जजञ्ञालिया दे* ( गु० ) उत्पाती, उपद्रवी, संमाटिया | जश्चाली दे० ( गु० ) क्लेशी, दुःखी, घत्राया हुप्ला, अ्रप्ची, उल्सान में फंसा हुआ । जज्ञोपवीत तद॒० ( 9० ) पज्ञोपवीत, मद्मसूत्र, जनेऊ, डक्वीत, संध्शार विशेष, बरुप्रा, ब्रतब्न्‍्थ, इस संस्कार के अधिकारी प्रिवर्ण हैं। यथाक्रम ८-११ और १२ वर्ष की श्रचस्था में झ्रह्मण, चत्रिय और चैश्य बालकों का यज्ञोपवीत संध्कार होता है । जज्ञाति तदू० (घु०) ययाति,, एक राजा का नाम, एक अन्द्रवंशी राजा ( यथाति देखे ) । जद तत्‌* (म्त्री०) जढा, मिले हुए बाद्ग,वच्चों की लदुरी । जटना दे० ( क्रि० ) सूँड़ना, भूसना, ठगना, घोला देकर ले लेना ज्ठल तवदू० ( खी० ) जटिल, कठिन, गए, बकवाद। जखला दे० ( घु० ) समूह, लछुदाब, भीड़, वेठका, जनता | ज्दा तव्‌० ( खी० ) एक में सदे हुए बहुत से बाल, साधुश्रों की जदा, जढ़ितक्रेश, जदामसी नामक औशधि विशेष, शतावरि, कवछिमूर, वेद पाठ का एक भेद जुड़ ( घु० ) जठा का समूह, संजत बहुत कैश, शिव की जदा |--जचाज्ञ (छु०) ज्ञगायु (्‌ रई ) जठर प्रदीक्त दीएक, महादेव छा तीसरा नेत्र /ठड्डु | जठिया दे० ( गु० ) जठायुक्त, जटाविशिष्ट, जटाघारी ( पु० ) मद्देश, मद्दादेव, रूद्ध ;--धर ( 3० ) मद्ादेव, बालक, योगी | एक काशकार का नाम, बुदधभेद ।--पह्ली (स्त्री) महादेव की जटा, गर्घ- मासी नामक पुक औषधि ।--भार ( घ० ) जदा का भार, जटा समूद्, जंदा समुदाय, बहुत ल्टम्बी लग्वी जटा |--माँखो ( स्त्री० ) औषधि विशेष, सुगन्ध द्ब्य विशेष, वाबछुड [ ज्ठायु तत्‌० ( स्त्री० ) स्वनाम प्रसिद्र पष्ि विशेष, सम्पाति नामक पढिराज का छेटा भाई, मदाराज दशरथ का मित्र, सूर्य सारथि श्ररुण का पुत्र, यह महादाज अतेध्याधिपति दशरप के मित्र थे। जब पश्चवटी से रावण सीता जी का इर के लिये ज्ञाता था तब ज्टायु ने सीता का विलाप सुन कर इनको रावण के हाय से छुदाने के बेहुत यत्र किये थे, जटायु ने बढ़ी बीरता से युद्ध किया रावण का रप टूठ गया, परन्तु भन्‍्त में रादण के अस्‍्त्रप्रहार से जदायु के पंख कट गये, श्रे भूमि पर गिर गये। जब राम खक्ष्मण, सीता के हूढने निझले थे, लव उनकी सेट जटायु से हुई थी। सीता का समाचार सुनाकर ज़टायु परलेकगामी हुए। भ्रोशामचन्द् ने भपने पिता के मित्र की अम्तिम क्रिया स्वर्ये की थी । ज्ञदाल तव्‌० ( गु० ) जठायुक्र, जटाघर, जटाधारी, (पु०) कचूर, बटबृछ बरगद, बड़ का पेड, गुग्मुन्न | रु जगराला तत्‌० (स्व्री० ) जरादनी, जटावाली, जदा- मासी, छघढ, छा | जटासुर सत्‌* ( पु० ) एक राइस का नाम, युधिष्टिर आदि जद बद्रिकराश्रम में रदते थे, उस समप यह | राघस दौपडी को इरण काने की इच्छा से वहाँ , आया और अपने को बहा छुद्धिमाद्‌ परिदन दत्ता कर रहने हगा | एक दिन भीमसेन शिकार के ज़िये वन गये हुए थे। राचस, युधिष्टिर नहुठ और सहदेव फे साथ दौपदी को वाँघ कर ले ज्ञाने लगा । सैयेगवरा भीमघेन से मार्ग में मेट हो गयी। शनि रास को सारहर अपने साई और द्वौरदो का दद्वार किया । जदित ठव« (गु०) जद्डित, झटा दुआ, सैयह, जडाऊ । जटिल तव० ( गु०) जटाविशिष्ट, जठाघारी, जो सरब्तापूर्वक न समझा जाय, कठिन, कठोर उछ मन की बातें दुर्दोध | बटदूढ, धहाचारी, साधथु। एक विष्णुमक्त बालक, इसके विषय में विल्चय बात कट्टी जाती हट 4 यह पाव्शाला जाते डरता था। इसकी माता गोविन्द ग्रेतिन्द मजने का कहा करती थी । माता के उपदेशानुसार यह गोविन्द नाम का स्माण करता हुश्ना पाठशाला जाने लगा | उसझी मक्ति से प्रसत्न होकर भगवान्‌ बालक के रूप में उसके साथ खेला करते थे । एक दिन जठिल पाठशाला में ठीक समय पर नहीं जा सका | गुरु के कारण पूँछन पर उसने ठीक ठीक चता दिया, परस्तु उन्होंद उसझी वारतों पर विश्वास नहीं किया, उसके बत से पीटा, परल्तु इसकी देद्द पर वेंत का दाग नहीं पढा। यद्द देख गुढ के बढा आश्चर्य हुआ । पक दिन गुरु के यहा इत्सव था, बन्‍्दोंने दद्दी ,ले थाने के लिये जटिक्त को कद्द रकखा था। श्राह्यण सोजद के समय एक कूढिया दृष्दी लेकर बात्क पहुँचा, ल्लेाग ढसडा मिडकी सुनाने छगे । इसने ऋद्ठा कि “मेरे मिट गोविन्द न कह्दा है कि चादे कितने दी आदमी इसमें से राय परन्तु दष्दी में कमी न होगा”? ऐसा डी हुआ । तव छोगों को विश्वास हुध्या। जटिल के साथ गोविन्द के दशोन करने छे लिये गुरु धन में यये । जटठिला तत» ( ख्री० ) राघा की सास का नाम, यह भायन घोष की माता थी दुसद नाम का पक आर इसके धुत्र था और पु कन्या थी जिसझा नाम कुटिला था। इच्णप्रणिनी राधा के चरित्र को थटट अत्यन्त करड्धित सममती थी। ग्रद्मघारिणी, पीपल, वव, दाना, सौतम यश की पृ ऋषिइन्या जा सप्तऋतियों के पुत्र वो ब्याही गयी थी । जो सद॒* ( ६० ) बटवुद्द, बरगद का पेड, शिवजी, महादेव, पाशझर ॥ (एक चिन्द । जदुल दे० ( घु० ) तिछ, मधा, छदसन, शरौर में का जठर तद्‌० ( घु० ) डद॒र, पेट, ( गु० ) वद, कढित, कठोर ।-नप्मि (घु० ) पेट की आग, अप्त पचाने जदरा (्‌ चाला, अप्नि, छुघा, वभ्ुक्षा |--नत्त ( छु० ) घद्राम्मि, छघा, चुसुछा ।-पसय ( 8०) अतीसार, जअले।दर, जज्ञेद्ररोी । जठरा तद्‌ू० ( गु० ) सख्त, हढ़, कठित, कझोर | ++गि ( सत्री० ) पेट की आय, जठरापक्‍्नि जठराम तद्‌० ( घु० ) जक्ेपर, जुदरामय, जलन्घर । जठेरा दे०( ५० ) बड़ा, जेढा, अग्रज, (स्री० ) जठेरी बड्ढी, बूढ़ी, भान्या, पूज्या । जड़ तत्‌« ( ग्॒ु० ) मूल, बढदरा, मूढ़, नित्रोध, निरुंद्धि, चल्दव शक्ति हीन, दुष्ट, श्रकायकारी, जे। चेद पढ़ने में असमर्थ हो ( पु० ) जछ, पव॑त, दृष्ठ, सीसा नाम का धातु ( स्नी० ) मूल, पेड़या पौधों का चह भाग जो जमीन के भीतर रहता है। नींव ।--क्रिय ( गु० ) दीर्ध॑ूत्री, आालसी, अलस, निदसाही (--वां ( स्री० ) शूल्वता, अकरढ़पन, मूढ़ता, स्तव्चता, सू्खता, वेवकूफी +--जन्‍्तु ( 3० ) सूड़जीव, सूर्ख जीव, निर्वेध पशु पत्ती आदि ।--बुछ्धि ( श॒ु० ) अज्ञान, निर्योध, सूखे, मूढ़ |--मति ( ग्र* ) निर्ृद्धि, सूख । अड़न दे* ( घु० ) गहने जड़ने का काम, गएनों में मोत्ती पत्थर आदि झड़ना । ज्ञड़न। दे” (क्रि० ) लगाना, बैठाना, ऋदक्षारना, मारना, खाटना, नग बैठाना । जड़्पेड़ दे" ( खी० ) मूल सद्दित पेड़, समस्त पेड़, समूचा तक्ष ।--से उखाड़ना । (वा०) जड़मूड से उच्चाइना, समूल्ठ नष्ट कर देना, निम्मछ कर देना, मूल समेत इखाड़ डाकना जड़वठ दे* (स्री०) खुत्ध, हट, ठूठा, धरगद की जड़ | अड़भय्त तत्‌$ ( यु० ) शाल्आाम नामक स्थान के भरत नाम राजा किलली वन में बानप्रस्थ आश्रम अहण करके रहते थे | एक दिन गरज्मा के निकट, एक दुःखी भ्मशिश्ु का इन्होंने देखा । दया परवश द्वोकर यह इसे अपने आश्रप्त में ले आये। उसकी पालते पेसने क्षण | योंदी थोड़े दिन बीत सये | भरत का प्रेस डस सूगशिशु घे बहुत अधिक हे! गया ! यहाँ तक कि मरते समय तक भी भरत उसे नहीं सूल सहे | इसी का स्मरण करते करते भरत का प्राण छूट गया। झगय्रोनि र७७9 ) जंतु में भरत का जन्म छुआ" | परन्छ इनके अपने पूर्व की बातें स्मरण थीं। अत्तएुव अपने पूर्व आश्रम में जाइर सूखी घास आदि से इन्होंने अपना जीवन वित्ताया | दूसरे जन्म में यह ब्राह्मग हुए । विपये।पभोय आदि से सांसारिक विफ्यें में न फैसने के लिये, यह उन्प्तत्त के वेश में रहने लगे ! अपनी विद्या या बुद्धि का परिचय यह किसी को नहीं देते थे | अतएवं इनका सूर्ख समझा कर, गाँव वाले काम करा लिया करते थे श्रार कुछ भोजन के लिये इन्हें दे दिया करते थे। पता की झुत्यु के बाद भाइये के ब्यवद्वार से यद बन में जाकर भगवद्भनज्ञ करते छंगे । [वविज्ञा घान ॥ जड्हन दे० (ए०) अगहनिया घान, कातिक से कटने जड़दनिया दे० (४०) कतिका घान | [पच्चोकारी । जड़ाई दे० (स््री०) जड़ने का काम, जड़ने की मजूरी, जड़ाऊ दे० (गु०) जड़ा हुआ, जड़ित, जड्ाई किया हुआ, पच्ची किया हुआ, चग जड़ा हुआ, खच्चित, मण्ड्ित,-संल्षम । ” जड़ाना दे ( क्रि० ) जड़ाई करना, जड़वाना, कच्ची का काम कराना, नग बैठाना, शीत खाना [ जड़ाव दें (पुृ०) जढ़ने का काम, पच्चीकारी +--ढ (ख्री०) जइने का कास था उसका भाव | [कपड़े । जड़ावर दे० (स्त्री० ) जाड़े की सामग्री, जाड़े के जड्डित तद्‌० (गु०) जढ़ा हुश्रा, जड़ाई का कार किया हुआ, रलादि जड़े हुए जअड़िनोी दे? (ख्री०) जड़ सत्री, दुष्टा, सूखा । जड़िया (५०) जड़ने वाला, सुनार की पुक जाति । जड़ी दे- (सत्री०) मूल, मूरि. जड़ी हुई, जढ़ दी गई। +-यूदी ( स्री० ) दवाई, चैषषध, रुछरी, मूल । जड़ीभूत तव्‌० ( ग्रु० ) स्तम्मित, चकित, भ्राश्वर्यित, स्तब्घीकृत !. [छील, (सर्ब०) जा, जितने, जेते । जत दे० ( स्री० ) चाल, माति, रीति, श्राकृति, डौज, जतन तदु० (पु०) यत्न, उपाय, उद्योग, परिश्रम | जतनी त्तदू” (यु०) यल्री, उधोगी, उपायी, परिश्रम खुचतुर, चालाक । -“ [से खूचना देना । जताना दे० (फ्रि०) चेताना, बताना, बततलाना, पहले ज्ञती तद्‌> (०) यती, संन्यास, येणी, मिखारी । जतठु तब" (खो०) लाख, ज्ञाष्दा, लाइ, पीपल का गोंद | ज्ञतुक जतुक तत्‌* (१०) ज्ाख, हींग, जद 3 जतुग्रह तत्‌० (१० ) छाक्षायुद, छाद का सुदह, (जमुगृद् ही में दुर्योधन ने पाण्डवे। के बन्द कराऊे भाग झूगवा दी थी |) ज्ञत्रु तनु» ( पु० ) गन्ञे की हड्डी, कण्डज्ा, गले के उपरी भाग की इृष्डी, उन्‍्ये की जड़ । ज्ञया तव्‌० (श्र०) यया, जैसे, जिस प्रकार से, ज्यों । जत्या तद्‌ू ० (पु०) यूच, मण्डली, दल, समूह, समार, टेज्ली, मुंड ।->वाधना (वा०) यूथ बनाना, दल चाँघना, दल्वउन्दी करना । जथायित तदू० (श्र) यपास्थित, ज्यों का हों, जहा का तहाँ, समुचित, योग्य, पूर्वचत्‌, जैसे का तैसा+ पहिले द्वी सा । ज्ञयार्थ तद्‌० (अ०) यपाएँ, ठीक टीरू, बिछकुट ठीड, बहुत ह्वी ठी४, उचित, बहुत उत्तम ) जथे।चित तद्‌० (श्र०) यपायोग्य, यथोचित, जैसा डचित हो, चित, येग्प, जैसा येग्प हा, वाजिबी जद तदु० (पझ्र०) जब, यदा, जिस समय । ज्ञदूपि तदू० (०) यद्यपि, मले ही, पूर्व कयित वाक्य के अर्थ में कुछ विशेष ध्य इस ह द्वारा कद्दा जाता है| “फूले फरे न बेत, जद्पि सुधा वस्पद्दि अन्नद”? ॥ ++रामायण । जदु तद्‌० (पु०) यदु, यादव, चद्धवंशीय उत्रिय। जअदुनाय ततदू० | ज्ञदुनायक तद्‌ ० ज्ञदुपति तदु ० | जदुबंधी तद्‌० (गु०) यदुदशी, यादव, यदुकुल के । अदुराइ या जदुराई तद्‌० (१०) श्रीकृष्ण, पादवपति | जदुराय ज्ञदुयर जदुधोर जदापि तद्‌* (४०) जद॒पि, पे, जेमी अगर्थि । झद्ददद तदु« (पु०) भकपनीय बात, दुर्वेचन ज्ञन स्व" (पु०) मनुष्प, मानव, आदमी, व्यक्ति, दास, अनुयायी, प्रजा, देहाती, समुदाय, भवन, सप्त मद ब्याद्वतियों में पाँचदों, पुर राचस का नाम | खेक मइज्लें # के ऊपर का लेझ। ज्ञनक तव्‌* (पु०) पिता, जन्मझइता, उत्पन्न करने वाढा, सिथिज्ञा पूरी के राशपराने की उपाधि। ) जनक भगवान्‌ श्रोकृष्पचन्द । तद्‌० (पु०) श्रीकृष्णचन्द । ( रछ८ध ) जनमेज्य वश के पूर्वपुर॒ष का नाम निमि था। निमति के पुत्र का नाम मिथि | मिथि के राजनध्व-कात्न में विदेहक । का नाम मिथिठा पद्ा था | जनक मियि के युत्र थे। इन्दीं जनक के नाम पर कुछ का सी नाम जनक रह पडा , सीता के पिता का नाम सीरध्वज जनक था। सीएघ्वज के छोटे माई का नाम कुशध्वज् या। |... उतनया (खत्री०) जनक की कन्या, सीता, ज्ञानी |--पुए (छु०) जनक की शात्रदानी। मिधिलछा | -नन्दिनी ( खी० ) सीता ।--छुवा |... ( स्त्री० ) सीता, जानडी । जनऊैरा तद्‌० (गु०) जनक राजा के सम्बन्धी, जनक के कुटम्बी, जन5 के पद का | ज्ञनख़ा (गु०) द्विजदा, नामदं, जनाना । जनडूम तद्‌० (पु०) चाग्डाल, अधम जाति, भीच ज्ञानि, स्वपच 4 [वाधारण । जनता तत्‌» (खरी०) लेइ समूढ़, जनसमुदाय, सर्व- ज्ञनन ततद्‌० [ जब्‌ + झनट्‌ ] जन्म, उत्पत्ति, बश, कुछ पिठा, परमेश्वर, प्रखय +--शीाच ( पु ) वालनऋ उत्पन्न होने का सूतक | > जनना दे० (क्रि०) जन्म देगा, ड'पन्न करना, प्रसव करना, इश्वति करना, सल्तति उ्पच्ठ करना। जननि तत्‌» (स्प्री०) माँ, माई, अम्मा । जननो तत्‌० (द्धी०) माता, माँ, अम्वा, झुद्दी का दूच, चमवादढ़, दया, गम्घ द्वव्य विशेष । ज्ञनपद ततद्‌4 (पु०)देश,प्रान्त,पदेश,ननस्थान,छे कालय, मनुष्षों की वासभूमि | [की चर्चा,तिरस्कार,जनरव | जनप्रयाद तव्‌* (वु०) लेकपवाद, लोकनिर्द्ा, निन्‍दा जनम तद्‌० (पु०) ब्ति, जीवन। -धूंढी (स्त्री०) बालक के जअन्मते ही दी ज्ञाने वाली धूँटी [दिन ( घु० ) जन्म दोने का दिन --धरती ( स्त्री० ) जन्ममूमि ।--पच्री (ख्त्री० ) जन्मकुण्डली ) +जैच तव्‌० ( १० ) छृद्धि जनित अशौच, अशौद जे। घर में किसी बाक्षक या कन्या के दहन ने पर छगता है! जनमाना (5७) प्रसव कराना, ठत्यक्ष कराना । जनमे तव्‌० (किन) जन्‍्मे, उत्पन्न हुए, पैदा हुए । जअनमेजय सत॒« (पु०) राजा परीक्षित के पृद्च, पुंद राजा के पुत्र । जनयिता ( २७६ ) जन्माना ब---+त+तमत+तमत_तततमतम-+-..त जनयिता तत्‌० (9०) पिता, जनक, वाप, जन्मदाता । | जनिका दे० ( खी० ) छेकेफ्कि, पद्देली, दे। अर्थ कहने जअनविन्नी तच्‌० (स्त्री०) माता, जननी, सहृतारी अम्बा, मैया, माँ । जनरब तद्‌" (पु०) लेककापवाद, जवग्रवाह, जनश्नुति, ख्याति, प्रसिद्ध, छिसी भी वात छी चर्चा । जअनलोक तत्‌० (१०) ह्राकविशेष, उध्देश्य सप्त पवित्र छोझें में से पुक तलाक स्वर्गसेद्‌ । अनवाद तत्त्‌० (पु०) सम्वाद, समाचार, घर घर की चर्चा, छोर्मों की अफवाह | जनवास, जनर्मासा तदू० (एु०) बरातियाँ के ठदरने का स्थान, नगर, आम, घुर ज्नयासे दे० जनवाछे में । अनश्रुत्ति तत्‌० (स्त्री०) क्िंददुल्ली, अफवाह । जनरुपतन तद्‌० (पु०) द॒ुण्डकारण्य, दुण्डक्ारण्य के समीपस्थ पुर स्थान, जर्हा श्रीरामचन्द्र रदते थे । जनहाई दें० (श्र०) मनुष्य सहित, प्रत्येक मचुष्य, प्रतिमचुष्य, हर पुक, प्रत्येक व्यक्ति | जता दे० (पु०) जन, मनुष्य, लेग (क्रि०) पैदा किया | ज्ञनाई दे* (स्री०) जनाने वाली स्त्री, दाई, दाई की मजदूरी, जता कर, सूचित कर | वाले शब्द । जन्ति तत॒० ( गु० ) जत्मा हुआ, उत्पन्न हुआ | जनिता तव॒« (घु ) पिता, पैदा करने बाह्य । / जनिन्न तल" (छु० ) जन्मभुमि, उत्पति स्थान ज्ञनिन्नी तत्‌० ( पु० ) उत्पन्न करने चाली, माता, माँ। जनियाँ ( गु० ) प्रेयसी, प्यारी प्राणप्यारी ! ज्ञनी दे” ( ख्ी० ) स्री, दासी, माता, दन्या पैदा की। जन दे० ( क्रिब वि० ) भाकते, जैसे यथा, जिस तरह, जिप्त भांति | ततू० (स्त्री० ) उत्पत्ति, अन्‍्स। ज्बुक दे ० ( अ० ) माने, जाने। विशेषतः, उपमाधेक! अलनेऊ दे० ( पु० ) यज्ञोपचीत, रल्न का दोष, यज्ञसूत्र । जनेत दें० ( ख्री- ) बरात, बराती, विवशहयात्री, बरयात्रा। | ज्ञनेश तव० ( घु० ) राजा, नृपति । जनेपु तव्‌० मनुष्यों में, जन समाज में । » झनैया ( जि० ) जानने बाक्षा, जन्म देने बाला। अनातिग तथ्‌० (पु) अ्रतिमाहुप, मजुष्य से अधिक, , मजुष्प की शक्ति से याइर की ) ज्ञनाधिनाथ दव्‌० (घु० ) नरपति, राजा; विष्णु | झनाना दे० (क्रि) अन्माना, उत्पन्न कराना। दे० ( थि० ) स्लीसम्बन्धी, न्पुलक,निवंल, ढरपेछ स्वी | झनाम्तिक तद्‌० (०) अप्रकाश,गेपन, छिपा सम्बाद | साटठक में आपस में वात ऋरने की एक मुद्रा । हस्त- सझ्लेत से केचक एक मनुष्य को अपने पास बुला कर घीरे थीरे बात करना जनाम्तिक कददा जाता है । जनाव दे० ( पु० ) मद्दाशय, माननीय, श्रेष्ठ, मान्य पूज्य, सैन, सझ्लेत, लखाव, चेताव, सूचना | (क्रि०) जना दिया, सूचित कर दिया । [अ्रकृषष्ण । जनाइन तस्‌० (पु ) विष्णु, भगवान्‌, नारायण, जनावर ( यु० ) जावघर, पश्च, सूर्ख | अनि तत्‌० (स्री०) जन्फ, उत्पत्ति, उद्भव, नारी, स्थी, माता, पुत्रवधू, भावी, जअतुका, जन्सभूमि। दे नहीं, मत. तिशेघायक ( छबे० ) जिन ) जनेादाहरण तत्‌० ( पु० ) यश, गौरव, कीत्ति, मान, प्रतिष्ठा | जन्तर तद्‌० (छु० ) यंत्र, तान्त्रिक यंत्र, छछ, अजार । --मन्तर (छु०) यंत्रमंत्र, जादू ठोना, मानमन्दिर । अन्‍्ता दे० ( घु० ) तार खींचने का यन्त्र, चालक जनने की किया १--घर दे० ( घु० ) बह घर जिसमें बच्चा जना ज्ञाय, सैरी । जस्तावा दे० (क्रि० ) निच्ाद ना, कुचल जाना, पिसजाना। जअन्तु तब ० (एछु०) प्राणी,जीच,देही.पश्च | [प्न्थ विशेष । अच्द दे० ( पु० ) पारसियों का अत्यन्त प्राचीन धर्म जन्दा दे० ( पु० ) खेती का एक यन्त्र । अन्ना दे० (पु०) जन्मना, वपञचा, उत्पन्न हे।ना | जन्‍्न्र तद्‌० ( घु० ) कर, यन्त्र, चाजा) गण्डा, त्ताचीज, जन्‍्तर, टोटका | जन्म तत्‌० ( छ० ) उत्पत्ति, जनम, उद्धव |--दूं (छ०) -. अन्मदाता; पिता, जनक [--दिन ( छु० ) वर्षगढछि चर्ष द्विन, जन्स की तिथि |--पत्नी (स्त्री० ) लग्न कुण्डली, जनन्‍्मकुण्डली |--भ्ूमि ( स्वी० ) बत्पत्ति- स्थान शोध (पु०) मरण, रूष्यु, जीव धर्म की समाप्ति।--स्थान (घु० ) उत्पत्तिस्थान, स्वदेश | जअच्माता दे। (क्रि० ) उपन्ञाना। उत्पन्न ऋरनाव। जम्मान्तर जन्मरान्तर तव्॒‌० ( घु० ) दूसरा जन्म, द्वितीय जन्म, अ्रन्य जन्म, | जिन्‍्म सम्बन्धी । जन्‍्मान्तरीय तत्‌* (गु० ) दूसरे जन्म का, अन्य | जन्मान्ध्र तत्‌० (गु०) [जन्म +अन्ध] जन्‍म से इन्धचा, आजन्म नेत्रद्वीनू, जन्मावधि इष्टिवेद्दीन | जन्माएमी तव॒० ( ख्ी० ) [जन्म + अटसी ] श्रीकृष्ण की जन्मतिथि, मादों कृष्ण पक्ष की अष्टमि मतान्तर में श्रावण की कृष्णाएमी । जन्मोस्सव दत्‌० (पु० ) [ जन्म + उत्सव ] जन्म दिन छा उत्पव, जन्म उद्धाह, दर गांठ | ऊन्य तत्‌० ( बि० ) उत्पत्तिशीकू, उत्पन्न द्वान वाज्ा, (पु०) ज्ञाति, पुत्र, युद्ध, दाए, निन्‍्दा, दूलद, वराती, दामाद, पिता, दद, ज्ञम्रा, जनवाधारण, राष्ट्र । नाजनकमाय ( ० ) उसपादय-उत्पादक भाव, पिता, | पच्न माव, मैयायिद्वे का पुक सम्बन्ध विशेष । ज्ञन्पा तत्‌» ( सत्रो० ) माता की सैगिनि, बहू की ससी, वधू, प्रीति सम्पु तद० ( पु० ) भप्मि, बद्मा, प्राणो, जन्म सप्त पिंयें में से एक । ज्ञप तत्‌० ( १० ) पुन पुन धीरे धीरे कथन, पुन घुन सन्त्रोच्चारण, वार बार मन ही मन देवता का नाम ध्मप्य करना, जप करना, जपना ।--कारी (पु०) जापछ, जप करने बाढ्ा ।--तप (थु० ) पूजा, अर्था, भजन, सदाचार, पूजा पाठ --नीय (गु० ) जप करने येग्य, जप्य सम्त्र -परायण (गु० ) उपासक, जाएक, जुप काने वाद), जयनशीरज | ामाज्ा (द्वी०) जा के ही माठा, अव्प्ताला, जपसूत्र, स्परणी, सुमिर्नी, १०८ दाने की मास्ठा। “माखी ( ख्री5 ) ग्रेमुखी, पृक प्रकार की थैज्नी जिप्तमें माला रखकर जप डिया जाना है यम तत्‌० (पु०) शत, (वाचिक उपदु, और सानसिद्ये जप के तीन प्रझा/ हैं । जपठ तदु* ( धु० ) जपता है, जप करता है | जपन तत० ( धु० ) देवना का नाम स्मरण, जप जंपना तदु ० (क्रि०) जप कर ना, मन्त्र का उच्च (या करना जपन्‍ता हदु» ( गु० ) जप करने वाला, जापक ॥ अपन्ति तद« ( द्रि० ) जपते हैं, मजते हैं । जपावद« (०) जवा पुषर का दृष्, गुददर रा छूछ । ( २८० ) जमदसि जपीतपी तत्‌* ( धु०) पूजक, ग्र्चक, मजनानन्दी जअपतपपरायण, तपसी तपस्वी | जप्त तदु० (गु०) [ जपू+6 ] जपित, ज्प किया हुआ जव दे० ( श्र० ) यदा, जिस समय जिस काल [-- तक ( अर० ) यावत्‌, जिस समय तक --तलक ( श्र० ) जब तक | जबड़ा दे* ( पु० ) कल्ला, सुँद के भीतर ऊपर! नीचे की दृड्डिया जिपमे डादे ज़ी द्वेती हें । जददना दे० ( कि० ) पूर्ण द्वाना, भर जाना, मरा रहना, सुन ने पढ़ना, कान का जब्इना । जबद्दा दें? (गु० ) अश्नाढी, मोंदू, नासममा, जहू। जवदिया दें* ( गु० ) कुरूप, अधुन्दर, भद्दा, कुश्री, कुस्सित श्रासार बाला । [सिदा, सेंदा । जब न तब दे० ( श्र० ) श्रनियमित, बिना समय से, जवलग दे ( अ्र० ) जिस समय तक, जप तक, जब ढा । [विरजोरी, वरयायी । जवर्ई दे० (स्रोौ०) ज्यादती, सरती, श्रन्याय, प्रग7ता, जवरद्स्त दे० ( बि० ) बन्नी, मगयत] [ज्यादती जबरदस्ती दे० ( स्नी० ) अन्याप, अत्याचार, प्रषतवता, | जबरा दे० ( वि ) पढवानू, (५० ) एक जानवर जे दृष्ठिण भ्रफ्रिका के जड़कें में पाया जाता है | ज्ञमा दे० ( पु० ) जयड़ा, चेहडढ। जमाई दे० (स््री3) ज्म्दाई । जभीरी दे० (पु०) पक प्रकार का बडा नीयू | जम तदु० ( घु० ) यम, यमराज, कृतान्त, योग का पक अरक्क ।-नी ( ध* ) संयमी | [चमुकाता। जमकना हे* (क्रि३) जम जाना, सकत होता, ज्ञमकाना दे०( स्वि० ) छूटत करना; ग्रैठावा । जम्रघट, ज्मपदा, जमघद्द दे० (पु ) भीद, जमा बड़ा, ठट्टा | जमज्ञ दद्‌० ( वि- ) चमज, जुड़श्र।... [इर कर | जमज्म द० ( अ० ) सदा, निरत्तर, ठद्टर ढदर, रह जमड़ाढ़ दे 5 ( छो० ) एक प्रहार की कटारी, जमघर। जमदमि तद्‌० (पु) पृद् ऋषि का नाम) जो पराश- राम के पिता थे।मड़पि ऋचीड़ के पुत्र, ये चैदिरू ऋषि थे । ऋग्वेद के सूक्तों से जाना जाता है कि अमधप्ति और विश्वास्रिन्न, महषिं वसिष्ठ के विदचरे थे । इनढा विवाइ राजा प्रसेनजित्‌ जमदीया की कम्पा रेखुका से हुआ था। जमदझि के पाँच पुत्र थे | रुमण्वान्‌, सुपेन, बहु, चिश्वनराहु और राम, यही राम परशु धारण करने के कारण पीछे परश्च॒राम नाम से मसिद्ध हुए थे। परशुराम यद्यपि सब से छोदे थे, तथापि इनके गुण सब से बड़े थे । महर्पि जमदप्नि का्तेवी्य के हाथ मारे यये थे, पीछे परशुराम ने यज्ञ कर जीवित किया था। जमदीया तदू० ( ए० ) यमदीपक, अर्थात्‌ कात्तिक कृष्ण श्रयेद्शी के जे जम्त के नाम से घर के बाहर दिया जल्लाया,लात्ता हे । जमदुतिया तद्‌० (स्त्री०) यमद्वितीया, मैया द्वेल । कात्तिक शुक्ल २ | इस विन सथुरा में विश्रामचाट पर स्नान करने का विशेष माहात्म्य है । जमदूत तदू० (पु०) यमदूत, खत्यु के दूत, म्प्यु चिन्ह, जे मरते के पहले हेते हैं । ज्ञमधर तद्‌० (पु०) कटार, बिछुआ, अ्रस्यविशेष, सीखी नोक वाली एक प्रकार की छुरी । जमन तदू० ( छ० ) यमन, स्क्ेच्छ, सुसलमान | ज्ञमना दे० ( क्रि० ) उत्पन्न होना, निकलता, उगना, अंकुरित होना, घढ़ना, दृढ़ द्ोना, गाढ़ा ह्वोना, घन होना, देही का जमना,परनी का जमता आदि) जमनिका सदु० ( ख्री० ) जवनिका, परदा, काई । हृदय ज्ञमनिका वहु विधि कागी ।7--ठुलसीदास जमराज्ञ तद्‌० (|घु० ) यमराज) धमेशज, प्राणियों के पाप पुण्य के व्यवस्थापक एक देवता ! लोकपाक्ष विशेष, वक्षिण दिशा के स्वामी जमद्दाई तदू० ( ख्री० ) श्राढछ्त से हाथ पैर दृदना, जुभ्मा, बदन हटना, जर्भाना।. [मात्रप्रखारण । जमद्वाना तदू० ( खो० ) जमहाई लेना, गाजविद्धेप+ जमा दे० ( लि० ) जे एक स्थान पर पएुरन्न किया गया है।, धरोहर के रूप में रखा हुआ घन । ( स्त्ली० ) पूँनी घन, “ उनकी कुछ जमा यौ तेथीदी” छगान, ओड़। चही या कैशबुक का चंद भाग जिसमें आमदनी की रकमे दर्ज की जाती हैं। >खर्च (पु०) आय और व्यय --जथा (स्त्री०) चन सम्पत्ति, नगदी और माल मार (वि०) बेईसानी से दूसरे छा माल मारने चाछा । जम तदू.० ( पु० ) जामाता, दामाद, कन्यापति । (६ रेक१श ) ख़त ा3::-::::: उफफईऑफकफक सफस सलल्‍क्‍््नन-ज--वत-तजत_तभ>न..ल..........................0एत... जम्जुमाली जमात दे (स्त्री०) छम्ृह, साधुओं का समूह, अखाड़ा, ( “पवह्वारी बाच्य की जमात ” ) कच्चा ! जअमादार दे" (पु०) देख भाल रखने वाला अधिकारी, सुखिया । जमानत दे (स्त्री०) जिम्मेदारी । जमाना दे० ( क्रि० ) चोट मारना, श्रभ्थास करना, इकट्ठा करना, राशि करना, वाघिता, यथास्थान रखना, अपने अपने स्थान पर रखना, उत्पन्न करना, अभाव प्ैछाना, प्रभाव जमाना, तररू पदार्थ को ग्राढ्म करवा । [झओफ्ध । अमालगोठा दे" ( घु० ) एक औपध का चाभ, रेचक ज्ञमाव दे० ( ० ) भीड़भाड़, समूह, समुदाय । ज्ञमावद दे० ( ४० ) जुड़ाई, बन्धान, सद्रठन | जमावड़ा दे? ( घु० ) भीड़भाड़, समूह । अमीन दे० ( स्थ्री० ) भूसि, श्धिवी, स्थान, सम्पत्ति। ज़र्मीदार दे” ( घु० ) सम्पाधिकारी, भूस्वामी)-ीी भूस्वासी की अधिकृत भूमि, झुसीव जिल पर ज़्मींदार का कब्जा दहे। । जपुना तद्‌० ( जी० ) यमुना नदी, यह नदी कलित्द पर्बत से निकली है और दिल्ली की परिक्रमा करवी मथुरा इटावा कालपी हे/ती हुई प्रयाग में गद्ना से मिली है। चम्ब्रठ, केन, बेतवा ये तीन नदियाँ इससे मिली हैं। महाभारत के समय में इस नदी की बड़ी प्रतिष्ठा थी, यह सर्वांधिक पुण्पनदी समझी जाती थी । यह नदी गड्ठा की सब से बड़ी सद्यायिका नदी है। अमुद्यात दे” ( क्रि० ) जभाई लेता है, जभाता है । जसोगता दे* ( क्रि० ) सदेजना, सहजाना, भ्रधिकारी को अधिकार सम्भका देना, विचवानी द्वोना। स्वीकार कराया। जप्तानत देच्ा । जम्ना दे० (क्रि३ ) बढ़ना, जमना, पतपना, आँकुर होना । जम्पति तत््‌* ( पु० ) दस्पति, जायापति, स्त्री पुरुष, सरनारी । शिवाल। जस्थाल तद्‌० ( ६० ) प्रकु, कईस, कीचड़, प्ेचात, ऊस्वीरो तद्‌०.( 5० ) मींबू, जम्भीरी नोंबू । जम्घुक तच॒० (घु०) गीदड़, शुगाक्ष, सियार । जअस्घुमाली तव्‌० ( घु० ) राकस विशेष, रावण के सेनापति प्रहस्त का पुत्र [ शण० पा०--५६ ज्स्वू ( रेष२ ) जय॑चन्द्र 5 स्‍पपफपकनन-िन नी जद ननभ न मप्ननना नि न ट्ट तप 7 पर जस्बू तद्‌* ( पु० ) ज्ञाम्न का पेड या फक्ठ, जम्द फन्न । काश्मीर के अन्तगंत एछ नगर, कार्मीर की राजधानी द्वीप (पु० ) सात द्वीपों में ' मुख्य द्वीप | इसमें नौ खण्ड हैं, जिसका पक खयड यह भारतवप है।. [करनेवला, इन्द्र, मद्देन्द । ज्म्ममेंदी तत्‌० ( पृ० ) जग्म नामक राध्स का भेदन अग्मीरो तद्‌० (पु०) अम्दीरी नींरू/ मरुश्रा, सर्व | जम्मू दे० ( पु९ ) जम्बू नगर, काश्मीर की शीतराल की राशघानी । झम्दाई दे० ( छी० ) जैमाई। ज्ञय तद्‌० ( पु० ) जीत, विजय, फतद, शत्रु का परामव, आशीर्वाद, प्राथना। विष्णु भगवात्र्‌ के द्वाररचक | का नाम | जय के छोटे भाई का नाम विजय था। ये देनों सगवान्‌ विष्णु के द्वाएद्क थे। पुक घार सनऊ श्रादि ऋषियों का इन लोगों ने विध्णु दर्शन करने जामे नहीं दिया, जिस कारण मदर्षियें। ने शाप दिया। धुन इनझी प्रार्थना से प्रसन्न होइर महपरियों ने कद्ठा झि “ हमारा शाप श्यर्थ नहीं हो सकता, तथापि तुम छोग विष्णु से शघरुद्ा या मित्रता करके मुक्त द्वो सकने हो। मदृ्षियों के शाप से जय, सायथुग में | दिरिण्यात्ष, भ्ैता में रावण चोर द्वापर में शिक्षपाल् हमरा था, विभय सप्युय में दविरण्यकशिपु, ब्रेता में कुस्मकर्य और द्वापर में दन्तवक्र छुआ था। इन द्वा्पों ने तीनों जस्म में भगवान्‌ घे शत्रुता की श्र भगवान्‌ के द्वारा मारे जा कर मुक्त हुए । “+प (क्रि9) ज्ञीता, विजय दिया, जीत लिया “-करी तव० (स्त्री०) पाई नामक एक छन्द का नाम | युधिष्टि का यनावटी नाम, व्याम, चशीषरण, मद्दामारत में वर्णित एक नाग का नाम, एक ऋषि का नाम, विश्वामित्र, घुवराष्ट, सभ्य के पुद्रों करे नाम, राजा धुरुवसु के पुत्र का नाम, दक्षिण दरवाजे वाठा मकान, सूर्य, अरणी ज्ञाम का पेड़, इन्द्र पुत्र जयन्त ।( वि० ) विंजया । “-अयकार ( पु० ) जीत, श्रम्युदव, झ्राशीवाँदा- थेक ।-जीव दे० ( घु* ) अ्रमिवादन, प्रस्याम ] # कद्दि ज़यजांव सीम तिनद्द नाये ?” >-तुबसीदास । पताका (स्प्री-) जयध्वनि, जब का झण्डा, जञय का निशान, जयध्वजा ।--पत्र (पुणे अम्वमेध यज्ञ हे घोड़े के सिर पर देंधा हुश्ा लेख, विवाद में अयबोधक पत्र, जीतपत्र -महुल (पु०) राजवाइन नामक इस्ती ज्वरनाशक औषधि, प्रत विशेष ---माल या माली बल ६ स्त्री० ) विज्ञय की माका, वह माक्ता जो स्वप्वर में कन्या वर को पहनाती है ।--शोल व (ग्रु* ) सदा जीतने वाढा । ज्ञयचन्द्र, जयचन्द, जैचन्द॒ठद्‌० ( ६० ) कब्ौम का अन्तिम राजा । यह विजयचशस््र का पुत्र था| दिछी ऊँ राजा अनद्भपाल की पृत्रियों पे विजयचस्ध और अजमेर के राजा सोमेग्वर का विवाह हुच्चा था। सेमेश्वर है पुत्र का नाम इस्वीराज, शप्वीराज और जयचन्त देनी दिल्‍लीपति धरनह्रपाज के दौदिशन ये । अनज्ञपाल प्रथ्वीराज को अ्रधिक्र चाइते ये। उनझे कोई पुत्र नहों था, भ्रतपुव उनन्‍्दोंने दिरकी का राज्य पृष्वीराज को दिया। इससे जयचस्द को घढा दुख हुश्ा। इन्दोंने शथ्वीराज डी राज्यच्युत करने का इृढ़ संक्रप कर किया | जयच द प्रतापी राजा थे, बस्दोंने नर्मंद! नदी के किनारे तक अपना राज्य फ्रैजाया या | अपनी कन्या संयोगिता के विवाद के लिये इन्होंने स्वेक्‍म्यर रचा, स्वयम्बर में समी राजा्ों को निमन्त्रण सेजा गया | परस्तु शथ्वीराज और इन यदनोई मेदादू के मदाराया समरसिद्द का निमन्त्रण नहीं भेजा गया, एृष्वीराज का तिरस्घार करने ह सिये इनकी मूर्ति को प३रुआ। वना कर द्वार पर जपचन्द ते खद्य कर दिया था। दैवये)ग से सैवेगग्रिवा ने उसी पीवछ की घृति को ही अयमाला पढ़ना दी | यद सुन कर (थ्वीराज सैयेगिता का से गया | जयचनद ने इसका बदला लेने के लिये यजनी के शहाबुद्दीन गोरी के ११2१ में दिश्ली पर आकमण करने को बुलाया इसका पनीपत फे समीर पृथ्वीराज से युद हुआ, एप्यीरान विप्रपी हुए, यजनी का छुटेरा छघे हाथ फिर गया। दो यर्ष के याद धुन उसने दिरखी पर चढ़ाई की | ग्रे की यार भी वीं क्षदाई हुई, इस युद्ध में श्वीरान जयते € रच ) की मनन नमन न ननन नमन नम -- नामन- मन न नमन पनननन> मनन नमन नमन नमन नननननमन्‍क पनन-नम-मनननन-म«न नमन + नम नमन नमन मनन न न «न नमन- न - भा» २» आम कान+ ०५ न ामालनाबक हार गये | जयचन्द भी परथ्वीराज लें बद॒क्का लेकर खुखी नहीं हुआ | उस पर भी सुसल्मानों ने चढ़ाई की, वद हार कर भाया, नाव पर चढ़ कर नदी पार करता था कि नाव दूूत्र गयो, साथ ही साथ जयचन्द भी हूब गया | इस प्रकार जयचन्द शवर्य से डूब गया परन्तु उसका अघसे नहीं द््बा। जयत दे ( छु० ) बूछ विशेष । जयति तद्‌ ( क्रि० ) यद्व संस्कृत की पुक क्रिया है | इसका अर्थ है जीतता है, द्विन्दी में भी इसका प्रयोग रामायण आदि में पाया जाता हैं | जयदेध सत्‌० ( पृ० ) $--यद एक प्रसिद्ध भक्त कवि हैं) संस्कृत का गीतगे।विन्द्‌ नामक ग्रीत काव्य इन्हींका बनाया है, बद्ागछ में मानसूमि किले के केन्दूलि (किन्दुविल्च) भामर साँवि के रदने वाले थे | इनकी साता का सास चामादेवी और पिता का नाम भेजरेव था | यद् बद्भाल के सेनवंशी राजा लक्ष्मणसेन की सभा में रहते थे। राजा लक्ष्मणसेन का सन्‌ १११६ ई० सामा जाता है, अतः इन्तके साथी जयदेद के समय के विषय में अरब सम्देद करने का कोई कारण नहीं है । २--पह प्रसन्नराघव नामक नाठक के रचयिता हैं। यह विलक्षण कवि और नैयायिक थे | इनछी माता का नाम सुमित्रा और पिता का चाम मद्देव था। इन्दोंने अपने के कैण्डिन्य खिखा है। कीण्डिन्य का अर्थ क्ैण्डिन्य गोत्र, अथवा ऋण्डिनपुर निवासी है, इसका निश्चय करना ऋटिन है। परन्तु कैयिडन्य गेत्न ही उसझा ठीक अथे सालूभ पड़ता है। इनका दूधरा नाम पत्तथरमिश्र और पीयूषवर्ष मी था) चम्द्रालेक नामक अलड्डूधर ग्रन्थ भी इन्हीं का घनाया है | इनके निश्चिव समय का श्री तक हीक पत्ता नहीं है। तथापि १५ वीं शताब्दी में इनका द्वाना भ्रुप्तान किया जाता है । जयद्रथ तत्‌० (पु) सिन्धु देश का राजा | दुर्येचित की बद्विन दुःशत्ता इनहे व्याह्दी थी। इनके पिता का नाम बृद्धकन्न था | जब्र पाण्डव छास्पकवन सें रहते थे, वश्त समय डदोंने ज्ौपदी को कुदी में अकेनत्नी देखे हरना चाहा था, परन्तु उसी समय कहीं से भीमसेन पहुँच गये । उन्होंने क्यद्वथ पी बड़ी अप्रतिष्ठा की, जयद्रध का सिर मुंडा कर चहाँ से निकाल दिया । जयद्घ ने घोर तपस्या की। शिव जी ने प्रसन्न होकर घर साँगने के लिये कहा ते उससे एक ही समय पाचों पाण्डबों को जीतने की इच्छा प्रकट की | शिव जी ने कहा, अर्जुन की, छोड़ कर अन्य पाण्डवों को हुम जीत सकते द्े।। महाभारत के युद्ध में श्रभिमन्‍यु वध के समय, चक्र- व्यूद के रक्षक जयद्रथ दी थे, बसी वर के प्रभाव प्ले इन्होंने युधिष्ठिट आदि के भीतर नदीं जाते दिया। अजुन थे ही नहीं, वह संसप्तक के साथ लड़ रहे थे | घुश्नतध सुन के श्जुन ने सूर्यास्त के पहले छी जयद्रथ के वध करने की अतिज्ञा की | दुर्योधन के चीरों ने अयद्रय की रक्षा करने की 'चेष्टा की, उसी समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने सुदर्शनचक्त से सूर्य को छिपा लिया कौरवों ने समम्का कि सन्ध्या द्वो गयी, अब अर्जुन स्वयं भर जायगा । परन्तु थोड़ी ही देर में उनका विश्वास न हो गया, सुद्शनचक्र का भगवान्‌ ने हदा लिया। सूर्य की किरणें चसकसे लूगों भ्रज्जुन ने जयद्रथ का सिर काद डाला | जय- द्रथ के पिता ने वर दिया था कि जो कोई हमारे पुत्न का सिर भूमि पर गिरावेमा उसझा सिर डुकड्ढे छुकड्टे हे। जायगा । इसी कारण श्रज्ञुन ने जयद्रथ का सिर उनके पिता दृद्धचषत्न की गेद में रख दिया, उस सयस बृद्धचन्न कुरुकेन् के एास स्थमत्तपश्नक स्थान में तपस्या करते थे । जयब्रथ का सिर इन्हीं से भूसि पर गिरा, अतएुब उनका भी सिर खण्ड खण्ड हे। गया । जयद्भथ के पुन्न का नास छघुरध था। जयनगर तत्‌> (४०) राजपूताने की पुधनी राजधानी । ज्यन्त तत्‌" ( वि० ) विजयी, श्रहुरूपिया | (पु० ) १--अयेध्याराज्ञ के एक सन्‍नी का नास्त | २-- इन्द्र का पुत्र पपेन्द्र, पारिशातद्रण के समय इससे और कृष्ण के पुत्र प्रयुन्ष से युद्ध हुआ था । इसीने सीता के चाँच सारी थी। ३--एुक रुद्र का नाम | ४--कार्तिकेय | <--घर्म के एुक पुत्र करा नाम | ६--प्रकूर के पिता का नाम | ७--अज्ञातवास से विराट राजा के पास रहते ससय भीमलेन का बना- बंटी नाम । म+-एुक पर्व॑ंद का नाम | ४-नयान्ना के पएुक येग का नाम । जयन्तों -__ __ ॒ _॒_ि_ि_॒_(_- -_-फ्न्‍्िऋभफऋसकनअ्-+-++ैन्‍त7्+++< ज्ञयन्ती तद॒० (सी० ) विज्विनी, मारी, इन्द्रपुत्री पत्ताका, घृषविशेष, दुर्गादेदी, अपराजिता, येय विशेष, नगरविशेष, किसी असिद देव-चरित्र मलुष्य की जन्मतिथि के उपलक्ष्य में उत्सव, भगवान्‌ के अबतारों के जन्म की तिथी | जञयन्तीपुर तद॒० ( घु० ) सिलरहट से दुस केस की दूरी पर का पुक नगर, जिसे जयन्ता कहते हैं। ज्ञयपाल वबव० (ए०) १--लाहार का एक धसिद हिन्दू राजा, ६७७ ६० गजनी का सुवक्तगिन इन पर चढ़ आया। उसने पैशावर की अपने श्रधीन कर क्षिया | २० हाथी और १० लाख रुपया घूस लेकर पुनः लौट गया | पुन १००१ में उप्तके प्रश्न महमूद ने जयपाछ पर चढ़ाई की, इस युद्ध में यह केइ भी दे। गये थे परन्तु चाविंक कर देने की प्रतिक्ा कर छूट गये | दे। बार इस भ्रकार की द्वार से यह दु सी देकर अश्नि में प्रवेश कर मर गये। इन्हेने अपने पुत्र श्रनह्डपाछ्त को राजगह्दी दे दी थी। (३२ )भ्नफ्पाछ का पुत्र और पहले जयपाल का पैत्र] १०१३ ई में पिता के मरने के बाद यद्द छाहार के सिंहासन पर बैठे थे। १०१२ ई० में इनका भी मदमृद गजनवी ने पराजित करके छाहैर के अपने भधीन कर लिया । यहददी मुसद्मानों के भारत में मावी साम्राज्य की नींव थी । मालूम द्वोता है पिता के घरित्रों के खूब जानने पर मी भमद्रपाल ने अपने पुत्र का नाम द्वारने के क्षिये ही जयपाल रश्सा था । ज्यपेर दे० ( भर ) मै बार, जितने बार, जितनी दफे जयमत्त ( ५० ) १--प्रसिद्व राजपूत वीर | यह बदनार के राजा थे, धदनार मेवाइ का एक सामन्त शज्य है, शयां सांग के पुप्च कहने वाले पएत्रिर स्लछू » कर अंग ग्रये, तद वीरधेष्ठ जयमझछ ओऔर चीरवर पु माठ्भूमि की रचा करने के लिये यडी वीरता से लड्टे थे । दगकी युद्धकुशक्ता देखकर मुगर्लों के छुपके छुट गपे । परन्तु असस्य सेना के सामने दे आदमी क्‍या वस्तु होते हैं | ११६८ ई० में देश के हछिये वीरप्रे्ट जपमढ रणमूत्िं में सर्द के लिये डअदुपसिंद जय भरकर के डर से चित्तौर से गये | यधपि धकदर ने स्वा्थसाथन कं दिये ( रेद8 ) ज्ञय्य हट अ्रति निर्दित उपाय पे इस थीर को मारा या, त्तयापि इनछी दीरता की भ्रशसा बसे कानी ही पड़ी, इनकी पत्थर की मूत्ति बना कर उसने दिछी में स्यावित की थी। (२ ) भक्तमाल में भी एक जय- मल राजा की कथा लिखी है । यह विष्णु-भक्त थे। बडी आपत्ति के समथ मी यह विष्णु पूजन नहीं छोड़ते थे | किसी राजा ने इन पर चढ़ाई की, उस पम्य यद्द विष्णु पूजन कर रहे थे । यह छड़ने नहीं गये, टस राजा की सेना दछिल्ता भिन्न देने छगी । देखते देखते दी केदज् एक चहढ्दी राश ही बच गये । उन्हेंवे जयमठ से एन सब्र का काएण चूछा | भ्न्‍्त में चह मी विष्णु भक्त ६ गया। ज्ञयवन्त तत्‌० ( 4० ) जय करन वाक्षा, जीतने वाला, ज्ञयों, विजयी । जयबती ठत्‌० (स््री० ) श्रम्मि की सप्त जिद्वा के अन्तर्गत एक जिद्ठा ( वि० ) जीतने वाली, जय करने वाजी । पर जया तत्‌० (ख्त्री० ) दुर्गा, जयन्ती बच, तिथि | ( हतीया, भश्मी, अ्रयोदशी, ) इरीतकी, दुर्गा की सछ्ी, विजया, प्रपिमम्थवृष, नीलदूबों) पताका विशेष, साय, शमी या घेंकर का पेड। --स्तराय (पु० ) [ जब+ अस्तराय ] जप का विप्त, जय का विरोधी !-च्ढे (थि० ) [ हुय + आावद ) जप देने बाढा, जीत कराने बाला। [दिशा के राता का साम |] जयादित्य तत्‌» ( पु० ) काशिकादत्ति के कत्तों काश्मीर ज्यादय तव॒० ( स्री० ) जयस्ती और हर । ज्ञयापीड़ तब्‌* ( घु० ) काश्मीर का एक राजा ॥ यह ईंसवी की झाठवीं शताब्दी में हुए | दिशविशय की यात्रा करने के लिये यह निऊक्षा मगर सैनिक ने इसका साथ नदिया,अत गई प्रयाग चना गया और पवर्डहा 8१३६४ थोदे दान किया | जयावती तव« (ख्री० ) पृष्ः माह का नाम || जयाभ्व तद* ( ० ) विराद के एक साई का नाम ] ज्ञय्ी तब॒० ( बि० ) जेता, विजयी, शा्यर-परामव-कर्चा, पराजपकतों, जयवान । जय्य तत्‌० ( वि० ) जय करने के योग्य, खय करने के समर्थ, जयेपदुन, निसझा जब किया जा सके। ज्ञर ( देह ) जरूूथ विज: प्प्प्िि:ा ड ड: _फ _ड-न--सससससचसक्‍क्‍ियतथ-तत+-_हत जर त्तद्‌० ( खी० ) ब्वर, तप, ताप; छुछार, जुढ़ापा ! जरजर तदू ० ( वि० ) जजेर, घुराना बूढ़ा, फटापुराना, गयागुजरा १ [(8०) घुढ़ापा । जरठ तद्‌० (ध०) कठिन, जी, पुराना, बुड्ढा।--पन जरण तत्‌० (७० ) हिंगु, जीरा, जलन, बुढ़ापा, कछुछरोग की औपध, कूट, कालछा जीरा, कृष्ण-जीरक | (वि० ) जीर्ण, पुराना, बुद्ध, छुड्ढा । जअरत चत्‌० ( क्रिक ) जलता है, जलते ही । 'जस्सी तत० (खी०) बुद्धा, बुड्ढी, प्राचीना, डेकरी। जरत्‌ तत्‌० ( वि० ) बृद्ध, प्राचीन, छुरातन, जीण । जरस्कारू तत्‌* (६०) धहुनि विशेष | नागराज बाखुझी के भगिनीपती, बराखुकी की भगित्ती का नाम भी जरस्कारु ही था । (झास्तिक देखो) एक दिन स्त्री ज्रकारु से पति जरत्कारु को मिव्रा से उठाया। इसी कारण क्ुद्ध होकर बरत्काह घर से निकल गये | बनके आने के समय उनकी स्त्री विक्लाप करने छगी | इन्होंने कट्टा / अस्ति ? अर्थात्‌ तुम्हारे गर्भ में पुत्र हैं। इसीपे उनके पुत्र का नाम आस्तीक पड़ा [ जरदुगव तद्‌० (पु०) बूढ़ा वैज्ञ । किछतना । जरना दे० ( क्रि० ) जलता, दुग्ध होना, भस्म होना, जरा तत्‌० ( स्त्री० ) श्रधिक अवस्था होने से बालों का गिरना, शरीर के माँस का शियिल्‍लू होना, बृद्धावस्था, चौथावयस, चौथापन, थोड़ा, अ्र्प । एक राक्षसी का माम, इसने मगध के राजा जरा- सन्‍्ध के शरीर के कोढ़ दिया था | अह्या ने इसका नाम गुहदेवी रखा था | इसी को ले।ग पष्टोदेवी के लाम से पज़ले हैं।खिरनी का पेड़।( क्रि० ) जल गया, जक्षा, वरा, दग्ध | २--(प) पुक व्याध, यादवर्बंश लेप द्वोने पर छुछ के नीचे ध्यानमन्न भीकृष्ण को इस्री व्याघ ने सृग समस्त कर मारा था। लोग कहते हैं यह व्याघ पूर्वेजन्म का वालिखुन्न श्रन्नद था | दे० ( वि० ) थोड़ा, अएप, कप कुछ, तनिक । करा दे० ( गु० ) थोढ़ा, कप्त, अल्प, न्‍्यून। जराँश तदू० ( 9० ) ज्वराश, जूर का भाव, ज्वर की पूर्वांवस्था, सामान्यज्यर, जुकाम, जूड़ी, घुस्वार ; ज्ञरातुर तत० ( गु० ) [जरा + आतुर | जीएँ, दुर्वछ, घूढ़ा, बकरा; मरारोगअस्त | जराता दे० ( क्रि० ) जराना, ज(ना, बालना, जलावना, दग्घ करना, भस्स करना | स्थान, झिल्ली । जरायु तव॒० ( घु० ) गर्भवेष्ठन चर्स, गर्माशय, गर्भ॑- जरायुज तत्‌० ( ग्ु० ) [जरायु + जब्‌ + ड] गभजात, गर्भोस्पन्न, पिण्डज, सनुष्य आदि, घत्तुतिध जीवों में श्रेष्ठ जीव । जरावस्था तत्‌० (स्त्री० ) [जरा + अवस्था] चाहक्या- वस्था, चुद्धावस्था, जी्एविस्था, झुढ़ाई । जरासन्ध तत्‌० (० ) [ जरा + सर्व ] सगध का प्रसिद्ध और पराक्रसी राजा | इसके पिता का नाम बृदक्कथ था, राजा बुहद्बध ने पुत्र के लिये तपस्या कही थी । प्रसन्न होकर देवता ने बनको एक फल दिय और कद्दा कि यद्ध फू अपनी शानी को खिला दो, अवश्य ही पुश्न द्वांगा | बृहृव॒थ की दोनों रानियों मे उस फल को आधा आधा चीर कर खाया, अतएवं उनके आधा श्राधा पर्थात्‌ शरीर का एक पक भाग पृथक उंधकू उत्पन्न हुआ। राजा बृहद्धथ ने उन फाँकों को फिक्वा दिया। जरा नास की एक राजक्षसी रद्दत्वी थी, उसने उन डुकढ़ों के ज़ेड कर पुक शरीर घना दिया और यह पुत्र राजा को देकर उसने कहा ग्रापका यह पुच्च पराकसी होसा। जरासन्ध की 'अख्ति और आछ्ति लाम की कम्यायें कंस की ब्याद्टी गईं थीं, कंस के मरने पर इसने मथुरा पर चढ़ाई की थी | झुधिप्ठिर के राज सूय यक्ष के समय यह भीम फे द्वारा इन्ह्रयुद्र में मारा गया | जराह या जर्राह ( पु० ) शश्त्र चिकित्सक, 'चीड़फाड़ कर फोड़ा छुसी आराम करने वाछा । जरिया दे* (अ०) द्वारा, सम्बन्ध, लगाव। ( जैसे यह काम राम के जस्यि दो सकता है । ) कारण | ज़सी दे० ( स्त्री० ) कारचोबी, सुनहले तारों कर काम, कामदासी । |; जरीव दे० ( खी० ) एक प्रकार की बच्ची या भाता, जे छकड़ी की ट्वोती है । ज़मीन नापने की डोरी जो आयः ६० गम अथवा इससे भी अधिक छम्धी होती है । जरीवाना ( ६० ) अथदण्ड, छुरमाना | अख्ूध दे० (प०) मांस, पल, पिशित, कदुमापी । जरूर दे० ( श्र० ) अवश्य, निस्सन्‍्देदह ।--ी (वि) प्रयोजनीय, सापेदंय, भावश्यक -त (अ० ) आवश्यकता, प्रयोजन । जर्जर तद्‌० ( वि० ) जरातुर, जीय॑, विदीर्ण; सर, | विमक्त, बैंटा हुआ, जॉमर । ( घु० ) शैलम नामक | औषधि विशेष, इन्द्रध्वज, इन्द्र का मगडा, छरीज्ञा । | ज्र्जरी तत्‌> (सत्री०) लदसन, तिल का ( वि० ) | पहु छिद युक्त वस्तु, मामा, जी, जजेर, | जरातुर, खरा, खब्बड, ऊमद-खाभद छत | (वि० ) नष्ट शक्ति छोण-शक्ति, सामथ्य-रद्दित, | चीण सामथ्ये । । जर्या तर० ( पु० ) चन्द्र, चन्द्रमा, इृद ।--(वि०) जीर्ण , पुराना, सडागला, फटा पुराना । जर्तिल तत० (पु० ) बनैजा तिल, वन में उत्पन्न हुआ्रा | तिल, बनतिल, वनमात तिक्ष । [की तम्बाकू । | ज्र्दों दे (वि ) पीतवर्ण, पीछारफ़, ( स्त्रो० ) खाने , जर्री (स्वी०) पीतवर्ण पीक्षापन | * जर्रा (० ) शरण, भ्रति छोटा ुकटा | जर्राद्द दे" ( पु० ) देशी शखचिकिश्सक । ज्ञल तब" (धु० ) पानी, भएू, वारि, पशञ्मसत के प्रन्द्गंत भूत विशेष, सलिल, फस, पूर्वापाढ़ा नछत्र, नेग्रवात्ता | ( गु० ) जद द्वित्तादित ज्ञान* शून्य ।--अलि ( पु» ) पानी का अमर, पानी का भरी, जल अमर |--कयदक ( घु० ) परानीफक सिघाडा ।--कन्द्‌ ( घु* ) केला, कोंदा ।--कपि (१०) जरूअन्तु विशेष, शिशुमार, खूँसा--क्रमज («घु० ) उतपल, प्म --करज्जू ( पु० ) नारीकैल “>फठ, पद्म पुष्प, कमछ, श्भु। घोंधा, कोडी, वराटिकझा, सेव, तरह्ध ।--कद्मप ( 3० ) जल का विष, समुद मन्धन से उत्पन्न विष (कष्ट ( घ० ) सूखा, भनाशुष्टि, भक्पनल |--काक ( पु० ) प्चि विशेष/--कामा (स्त्री०) डँधादहोली, बृक्षविशेष |-किरार (पु०) रेशमी बस्ध विशेष | ज+किराट ( धु० ) पृर दिल जलमन्तु +-छुकद (६०) जछ विद्मम, बन्‍मुर्गा। “कड़े ( ए* ) पनदूवा, पण्डुक, प्षिविशेष। +-#ूपी (स्व्री० ) छूप, गते, गढ़ पुष्करिणी, मेंवरसाब्ाव ।--हूमे ( छु० ) जछ | ज्ञुद्र ( रु ) - -. जल - जन्तु विशेष, घल कपषि, शिशुमार, खूस, सूस- मार +-केतु (9० ) पश्चिम दिशा में शदय द्ोने वाढ्य पुच्छुछ तारा --क्रिया (द्ली०) देवता के लिये जक्ष प्रदान, बदकतपंण ।--क्रीह्ा (स्त्रौ") जलाशय में वरावर वालों के साथ जलन छिड़कना रूप खेट ।-खानि (घु० ) मेध, समुद, नदी । “>खावा देन (पु०) ज़लूपान, क्लेबा +--गगुल्म (8० ) मंवर, कछुशा तत्बाब। चर (पु ) जलजन्तु, जल में रदने वाले प्राणी) -चरकेतु ( पु० ) कामदेव, मदुन, सन्मथ, मीनच्वम्, काम देव की ध्वज पर मछली का निशान दे इसी कारण उनको जट़चरकेतु, मीनघ्वन थादि कहते है।-चारी (० ) मत्य, जलमत्तु ।- लव (३० ) प्रपा, पतशाल, प्याऊ, जर्दा परथ्चिकों को जल पिछाया जाता है, नलदानस्थान जे ( पु० ) पद्म, शह्ध, कमल, भम्मोज (वि०) जल में इस्पय होने वाले पदार्थ |--जला ( गु० ) क्ोधी, झुमकिया, पिक्पिल ।--अलवानां (क्रि०) कुक ज्ञाना, रिसाना, क्रोध करना ।--जात ६ वि० ) जछ में उत्पन्न, सलिबजात।-डिम्ब (३० ) शस्बूक, सीप, दो कपाटी कीडी |-तरड ( ६० ) ऊर्मि, बीचि, लहर, घातुमग्र वाद्य पत्र विशेष +त्तरण ( पु० ) तैरना, नाव या जहाज से पार ज्ञाना, नाव या जद्दाज बढाने की विद्या तर (घु०) जज से बचाने थाका, छाता, घात्र -थज (ए० ) जज्न और स्थल ।-द्‌ (६०) मेध, अजधर घट्य, बादछ, घन, बारिद, मेषा, घास, के शेर) घदा | ( वि० ) जलदान कर्तों, जल देने वादा | >+दागम ( घु० ) वर्षाकाल, प्राइट काल, पावस ऋतु -दाम ( ५० ) मेघदुर्प, मेंघ के समात+ मेघोतम ।->दैवता ( शु० ) वरुण, जल के अ्रधि- छाता देवता दोष ( घु० ) पानी की दिहृति से रोग होना, ओोपबृद्धि रोग, भ्ण्डइल्थि, पानी छगना, जलूविकार [घर ( घु* ) मेघ, समदः खागर, पुर प्रकार की घास | ( वि० ) पानी रखने बाबर ।--धारा ( स्री० ) मरना, प्रवाह, सोता, स्रोत, पानी का गिना ।--थि (पु ) छमद। सागर, दश शब्यु सैफ्या, रावऊच, रदि[--थिला ( स्थ्री० ) कमला, लक्ष्मी, विष्ण प्रिया[--निकोस ( पु» ) नल निकलने का स्थान, चहा से होकर जल निकुरता है, मेरी, पनाज्ा |--निधि (०) समुद्र, सागर, वारिधि (--निर्गम ( पु० ) शद आदि से जल निकलने का मां, मेरी, पनालू", पानी का निक्ास ।--सीम ( छु+ ) वरसी, श्रौषध विशेष [-->घेर ( पु० ) असुरराज, राचसराज) इन्त्र एक बार शिव का दर्शन करने गये | वहाँ एक बृहदाकार मलुष्य बैठा हुआ था | इन्द्र ने उससे शिवज्ञी के विपय में पूछा । कझृछ उत्तर न पाने से रूष्ट होकर इन्द्र ने उप्त मनुष्य के सिर पर बंच्च सारा, मारने के साथ दी श्रप्मिकृण डसझे मस्तक से निशक्षक्षने क्गे, इन्द्र व्याकुल हो गये, इन्हें सालूस हुआ कि मैंन शिव को ही मारा है | झअतएव उन्होंने स्तुति की, स्तुति से अतक्न होकर शिव ने उस श्रप्मि को समुद में फेंक दिया। उसी अ्रप्ति ले एक लड़का उत्पन्न हुआ। जिप्के रोने घे संसार वघिर होने छगा। इसका रूमाचार अलादूं से न४ ।--वही ( स्त्री० ) पैराव, तैराब, हेकाव | +-मय ( छु० ) जल्ामई, ज्लप्र उय, पानी पानी । “+मालुष (पु०) जल्जात मनुष्य, जल और स्पलछ में चबने वाला मनुष्य [-मारजरे ( पु० ) जल- बिडाक, ऊद्विव्वाव | -लता ( स्त्री० ) तरह, छडर ।--रज्ज ( पु० ) वक, घकुछा ।---विडात्त (० ) ऊदविडाव | -विश्ुच्र ( पु० ) तुछा- संक्रान्ति ।--शयन ( घु० ) जन्न मैं सेना, विष्णु का जल. शयन --छूत ( स्त्री० ) नदरबा, जल- जन्तु विशेष !--सेनी ( स्त्री ० ) जन्शयिनी एका- दशी, जिस दिन भगवान्‌ विष्णु शयन करते हैं, * ज्येष्ठ शुक्ल एुकाइशी |--हरी (स्त्री० ) अर्घा जिसमें शिवलिभ्न रखा जाता है| मिट्टी का एक धघड़ा जिसमें नीचे सूराख़ कर और कपड़ा की बत्ती डसमें पिरों देते हैं| फिर पलमें जू मर कर तिपाई पर या किसी कुंड में रस्सी से ठीक शिव- क्िड् के ऊपर टांग देते दें, जिसमें श्विल्लिज्नः पर पानी की दूँद टपका करे। छिंघा । सुन ब्रह्मा वर्हा भाये, समुद्र ने उस ब्राहृक को | ज्ञंलक तत्‌० ( छु० ) वराठिका, कौड़ी, शक्तिका, सीप ब्रह्मा के हाथ समर्पित किया भौर इसको पालन | अत्लने दे० ( एु० ) ज्वलन, तप, बलन | करने के लिये कह्ा। वह लड़का ब्रह्मा की गोदी | जलना दे ( क्रि० ) बरना, दग्ध होता, दृहना । में खेला करता था एक दिन उसने ब्रह्मा की | जत्त उठना दे० ( बा० ) जल्न घाना, भद़क उठना, सूरछे पकड़ कर खींची | ब्रह्मा की शखखिं ले जल घारा निकल पड़ी, इसी कारण ब्रह्मा ने उस लड़के का नाम जअलन्धर रख दिया। बह्मा ने इस छड़के को वर दिया कि शिव के अतिरिक्त दूसरा कोई इसको नहीं मार सकता । बच्दा ने डसके श्रुरों का राता बनाथा उसने इन्द्र को राज्यच्युत कर इस्प्मासन का अपने अधिकार में कर लिया | इन्द्र शिव की शरण यये ! शिव ने उसका बध करके इन्द्र को स्वर्गराज्य दिला दिया ।[ --पक ( घु० ) गप्पी, गल्पक, वाचार ।--पत ( क्रि० 9 बकता है |-पति ( पु० ) वरुण, समुद्र, सागर -पाई ( छु० ) छच और फल खसहसा जलन जाना । जलवबुरूना दे" (बा०) राख दो जाना, क्रोध से अ्रधीर हो जाना, प्रतीकार न कर सकने के कारण अत्यन्त छुःखी दोदा । जला दे० (पु०) कील, वाल्गब, सर, सरोबर, पोख़रा | जअत्ताकर तत्‌० ( छु० ) [ जलन + आकर ] सात, ज्ोत, भरना) नाव वांचने का लेहा, (क्रि०) दुग्ध कर। जलाखु वद्‌० ( छ० ) जलजन्तु विशेष, जकनकुण, ऊवृविछाब, जज विलाई । जलाश्वल तत्‌० ( पु० ) ररना, नाला, सोता, स्तोत | जलाश्वल्वि तत्‌* (घु० ) तपेण,दोनों हाथों में लिया हुं जल्त,करपुटग्रहीत जल,मृतक के उद्देश्य से जलादान | विशेष ।--पात्च ( 9० ) छोटा, घड़ा ।--पान । जत्ताजल ( घु० ) गोटे पह्टे की किनारी या खालर | ( छु० ) कलेवा, सबेरे का भोजन ।--आाय ( 9० ) , मेलाठन ( गु० ) क्रोधी, जही, वद्मिज्ञाज । जन्मय, जरूस्थ |-+असंघ ( छु० ) जकू का नकुछा, हदुबिकाब [---बल ( वि० ) दग्घ, मंत्म, आग जलाद (9०) कुसाई; रत्यु दण्ड पाये हुए अभियुक्तों को फंसी देने दाला । सजलाधार ( शेषद ) जवाला ज्ञ्ञाघार तत्‌० ( घु० ) पुष्डरिणी, बापी, तड़ाग, जलाशय, सरोवर | [मस्म करना ज्ल्ञाना दे? ( क्रि० ) वालना, दाना, दुग्ध काना, ज्ञलापा ( घु० ) द्वेष के कारण वत्पन्न जलन या दाह । जलावज़ा दे० (वि०) खाक हुआ, चिडचिदा, क्रोची, द्ग्घ | ज्ञलामय तदू० ( वि० ) जलमरा। जलमय, जछ में डूबा छु भ्रा, सींग, श्राला, आदर, दादा, गीला । जलामयी देखो नलामय। ज्ञत्ञाल ( पु० ) प्रताप, मद्विमा, भातडू, यरा, तेज | जलाचन दे* ( पृ० ) ईघन, का8, जलान कि छकडी, काठ ऊपरी आदि। [चक्र, मेंबर ! जलावर्त्त दे० ( पु० ) जल का घुमाव, चकोह, जल- ज्ञजञाशय तन्‌० (० ) तदाग, सरोवर, सर, दह, भीख, सालाव । जलाहत्त ( वि० ) जलमय जअलिका दें० ( पु० ) जन्नौका, जोंक । जलिया दे० ( धु० ) घीवर, मच्धीमार, कैवत ! जजील ( बि० ) तुच्च, निशष्ट, भ्रपमानित, छख्त जद्॒क, जल्लुका तव॒० ( खी० ) जोक । जलूस दे० ( पु० ) किसी उत्सव या अवसर के उप- लक्ष्य में, बहुत से ज्लोगों का सनमधन कर; नगर में परिक्रमा करने को निकलना । जलेचर नत्‌० ( धु० ) जल में चढने या चरने वाले _ प्राणी, हँस आदि जडचर पी । [की झाग। जलेग्धन तत्‌» ( पु० ) याइवाप्मि, वाददानक, जल जले पर मोन लगाना दे० ( बा० ) दुख पर दुल् देना, दुखी को दु व देना, सताये को सताना । जल्लेतन दे० ( वि* ) भति रिसिदा, अस्पन्त क्रोची, जलोद्र तत्‌० ( पु० ) जलन्घर, _>7 777 पा श फग सक्रक (8०) हललकण रोण चक्ाम, पेट छुदराम, पेट की बीमारी । जिलिका, जल का कीडा | जलौका वत्‌" (स्त्री०) [ जल + थ्रेकस्‌ ] जोक, जरूर (गु०) अविलम्ब, शीघ्र | -वाज़ (गु०) शीघ्षता काने धाला | जददी दें० ( अर० ) शीघ्र, स्वरा, तुरन्त । ज्ञद्प तव्‌० ( पु० ) दया बकवाद, मूठा रूपड्ा, विजयी की कथा, दूसरे के सिद्वाल्त को ख़ण्डन करे अपना मत स्थापित करने की व्यवध्या, बाद, कथा, शाखा । [वक्‍वादी । जलंपक ततु» (पु० ) धावदू5, वाचात्, गष्पी, ज्ञदपना तदू० ( झ्रि० ) बकना, विना प्रयोजत की बातें कहदना,आप अपनी ढाई करना । विकी,चततो लिया । जदपाक ठत्‌० ( ४० ) बहुत बोलने वाला; बकवादी, ज्ञत्पित तद्‌० ( वि० ) दक्त, कथित, मिथ्या। जल्लाद दे ( पु० ) इृष्या करने बाला) बध करने वाढा घावक । [समा जाता है । जव तदू० ( पु० ) यव, पुक चश्न का नाम, यइ देवान्न ज्ञयन तव्‌० (१०) वेग, दौड़ | [किनात, काई, मेल । जबनिका तवब* (स्त्रीग्) आवरण, भाच्छादन, पर्दा, ज्ञवा दे० (पु०) अंगुली ही एक रेखा जिसे अनुसार, शुमाशुम का ज्ञान सामुद्रिक शक्य बाले करते ई, यक, अन्न विशेष । रे ज्ञवाई दे० (ख्री०) गमन, जाने का भाव । जवाखार दे (पु०) जव से निकाक्षा हुघा ५% प्रकार का खारज्जोरा विशेष | [तय० (ख्ी०) म्जवाइन | जवान दे (घु०) युवा, तरण ।-ी (स्री०) तशणाई जवाव दे० (पु०) वचर ।-+ी (यु ) रच सम्बन्धी । बदबा, नौकरी से एथक किये ज्ञान का हुक्म |“ डादी । तलब (गु-) जिसके सम्बन्ध में समाधान के लिये जलेवा ( पु» ) बढ़ी जलेवी | [छपेद । जवाब माँगा गया हो [-देदी ( खो" ) ददरदा- अक्तेबी दे (स्ली० ) पक प्रदार की मिटाई, कुपइली, वित्त 7---सवालल (पु० ) शझ्टा समाधान, बाई जलेशय (३०) विष्ण, मठुछ्ती । [डल्लपति । विवाद, प्रश्नातर | ज्ञक्षेश्यर दद्‌० ( पु०) जटाधिपति, यदण, समुद्र, झलोय्छवास (५०) जडमें बढ़ने दाली बाइरें, जलडी नाज़्ी किसी ताढाव से झन्यत्र जद देजाने का प्रयधन 4 [दा घादज्नी का विवाद | ज्ञलोत्सग ( पु" ) पतायों के अनुसार साहाद, रूप जवार दे* (घु०) समुद्र की बाढ़, समुद का उफनाना । “-मादा दे (पु०) समुद्र का उतार चढ़ाद ! ज्ञवारा दे० (पु०) मुद्दा, जब, जई, प्रश्न विशेष । जवाज़ा दे० (वृ०) गेावई, चेकर, मिटा ड्रुधा मं और गेडू। ज्ञवास €( रघह ) जहाँगीर जवास या जच्चासा दे० ( पु० ) कटीली घास, दुणय विशेष, गरसी के दिनें सें इसकी टद्टी बनाई जाती है | इसका स्वभाव है कि पानी पढ़ने से सूख जाता है| जवैया (वि०) यमनश्ीक्ष, जाने वाला । ज़ख तद्‌० ( छु० ) यश, . कीति. नामवरी, भलूमली, जैसे, जिल प्रह्वर से, जिस रीति से | हि ज्ञसत या जसता दे० (पु) घातु विशेष, जस्ता । झसथत, यशचच्त त्तद्‌० (गु०) कीतिवान्‌, कीतिशाली । जसवन्त तदु० (पघु०) १---विख्यात घुकाजीराव हे।छकर के पुश्न, इनका पूरा त्ताम था जख्लन्त राघ होकर, छुझछाजी राव के चार पुत्र थे, उनमें यह छेटे थे, पिता के मरने के भ्रनन्तर राज्य के लिये चारों में विवाद हुआ, अन्त में जसवन्त राव ही की जीत हुई। पद राजा बने | इन्हेंति अपने बड़े साई काशी- राब और मतीजे खण्डेशाव की गुप्त हत्या की थी, जिसके फलरू से थोड़े द्वी दिनें में ये पागल द्वो गये ! बहुत दिन तक दुःख भोग कर सच १८१३ ई० में ये मर गये । ३--विझ्यात मद्दारा्ट्र साधु! इनका जन्य १८१४ ई० में पूना में हुआ था, पहले १०) २० चेतन की एक सरकारी नैक्री इन्हेंनने कर ली थी। घीरे धीरे इनकी उन्नती दोस्ी गई। अन्त में यह तहसीऋदार खनाये गये । ११५ ) रुपये इनके। वेदन भी मिल्कने छगा; सिपाही-चिद्रोह के समय इन्हें'ने सरकार की बहुत मदद की थी, अतपुव इनकी इज्जत भी बहुत बढ़ गई थी | इनके चल्ले!ग्र देवता कहा करते थे | एक बार यह कमिक्षर स्राहव से मिलने सतारा गये थे, बर्दाँ इतके दुश्शकों की भीड़ छूग गई । यह देख कमिश्षर साहव ने कलक्टर से इसका कारण पूँछा | कन्षक्टर साहब ने कहा कि “इनको लेग देवता समझते हैं ” कम्रिक्ष साहव ने कहा कि # इनको पेंशन दे दो !। साधु जधवन्त ने अब समन में अपना सन छूगया, द्वोलकर, सेन्धिया आदि राजा इनका बड़ा श्रादर करदे थे | इ--माइबार ( जोधपुर ) के राजा, ये सम्राटू शाद- जरा के पुक धान सेनापति थे । इनकी वीरता देख मेरज्ञमेव इनसे भीतरी शत्रुता रखता था। इनके पुत्र एृथ्वीसिंह का औरडइजेव ने घोखे से सार डाला और भी इनके दे पुत्र काइुछ की छड़ाई में मारे गये ( पश्रशोक से विह्ल राजा जसवन्त को ३५४२ ई० में औरझृषजेव मे चिप के द्वारा सार डाला | जसस्वी तद्‌%* ( बि० ) यशस्वी, कीततिवान्‌ [ जसी दे० ( वि० ) ज्ञीतिमान्‌, यशध्वी | जख्ु दे० (०) देखा जल । जखुमती तद्‌० (स्त्री०) नल्द की रानी, यशोदा, यशे।- मति, कृष्ण की माता | बधा।-- ५ चलत देखि जखुमति सुख्र पाये, छुमुक ठुम्रक घरनीघर रेगत जननी देख दिखावे ? | +-सूर सक्नीतसार | जसेदा तदू० ( ख्री० ) जसुमति, नन्‍दरानी, कृष्ण की साता, यथ४--"सिखावन चढत जसे।दा मैया? | ज्सेमति तदु० ( खो० ) जसुमत्ति, जसोदा नन्दुरानी, यथाः--'जसेमति लटकति पाई परे ” | ज्ञस्ता तदू० ( प० ) जस्ता घातु । जहर दे० (प०) विष, गरलढ ।--+चाद्‌ (३०) जुद्दरीका फोड़ा |--झुहरा (9०) जुहर खीचने बाला काछा पत्पर विशेष | जदरील्ला दे० ( बि० ) विपैछ्ला; विपाह । जहत्स्वार्था तव॒० (सत्री० ) गौणाथ, अ्रप्रसिद्धा् । जहँ दे० (अ०) देखो जा । जहाँ दे० (आझ० ) यत्र, जिस स्थान में, जिधर (-- पनाद ( पु० ) संसार के पालक या रचक । जहिं ( सबं० ) जेहि, जिसे, जिसको, (क्रि० ) मारो, स्यागो, छोड़े ।--आ जब, जिस समय । जहाँ दे ( झ्रा* ) जर्वाँ ही, जिस किसी स्थान में | जहाज दे० ( ए० ) बढ़ी नोका, पोतयान, समुद्र में चलने बाली बढ़ी नाव | जहात दे? ( पु० ) संसार, दुनिया । जअदहानक तत्‌« ( पु० ) प्रत्ञय, समस्त सैखघार का ग्रलय, जगद्‌ का सहाप्रक्षय | रू अहिया ( गु० ) जब, जिन वक्त, जिस समय । ज्ञद्दी ( गु०) ज्ीं, जहाँद्दी | जहाँगीर दे० ( घुन्) भारत का मुगल सम्राट्‌, यद्द अकबर का पुत्र था, जयपुर की राजकन्या मरियम शा० प[ु०--रे७ ज्ञग्हु से यह उधच्न हुचा था इसका पढ़िले सलीम नाम था। थद युवराज की अचध्था में महाराणा प्रताप है विरुद्ध कबने को भेजा गया था, दलदी घाटी के युद में मरते मरते बचा था | इसने अपने पिता के मित्र भ्रवुह्ृफत्रक के विप देकर भार डाला था । इसका विवाद जोधाबाई से हुआ था । पद भी धन्य बादशाहों के समान दुराचारी घार विलासी था। जिससे इसे जीवन के अन्तकाल में दु घ म्ेल ता पढ़ा था । अकबर की मूस्यु के श्रनन्‍्तर, १६५२ ई< के १३ थीं अक्टूबर को इ८ वर्ष की भदह्षा में सक्कीम का झापरे के किले में राज्याभिषेक हुघ्ा और इसका जहागीर माम रक्‍्खा गया। तमधा ओर भीखाडी ये दो कर इसने माफ कर दिये थे । जगद नगद चस्पताल, सराप और कुर्श्ां इसने यन- बाये थे । इसके शामनकाल में बृदवस्पतिवार और रदिवार को पशुदृत्या नहीं दो. पाती थी। मिर्जा ग्याप्त की कन्या से यह पदले डी छे विवाह करना चाहता था, परम्तु श्रकवा की इच्छा द रहने से उनके जीवगकाऊ में ज४गीर का मनोरय पूर्ण नहीं हों सका था | उस छटटकी का विवाद अकबर से किसी दूसरे से करा दिया था | राज्य पार भारत के सखराटू ने पक स्त्री के छोम में पड कर पुक निर- पराधि अरनी प्रज्ञा का बंध करने के लिये सेना भेजी थी चोर वस्तछयो म्रवा कर उसझी स्त्री को मेंगवा लिया था। अस्दु तत॒० ( पु० ) पुछ राजपिं का नाम, गड्जा नदी के पीने से इनडी प्रसिदि टुई है| हनछे पिता का नाम सुहोप्न चीर माता का नाम केशिनी था। सुद्ोव प्रसिद् राजा पुरुतवा के वंशज पे। झन्‍्ह सर्वमेघ नाप्रक यश्ष काते थे, गड्डा घस हथान को डयाने लगी जन्हु ने गड्डा को पी लिया। तभी से गड्ढा का नाम जान्डवी पड़ा है । युवताभ्व की कन्या कावेसी से इनका विवाह छुपा था। इनसे पुत्र का लाम सुन था --तनया (द्वी+) गद्ा, सागीरथी, विद्या । “सप्तमी (छी०) बैल शक्ल सपमी । जाई दे० ( रत्री* ] जनी, बेटी, दुद्धिता, कन्या, पत्री। (किन ) ज्ञाकर, जाती है । जगिड़ा (प०) भाट, गन्दी, यशगाने वाला; दन्पुचा ( ह६० )7 >> तल लत भत्ता +++++++++्+5+++++55 झांगना ज्ञागर बे (पु०) पण्डली समेत जाध-अन्न,गाप,शरीर जाँघ तदु ६ ( पु० ) जहा, जाहु, बस्दशा । आँधल दे ( पु० ) बढा बगुला, वर्पद्िविशेष । ज्ञॉधिया २० ( १० ) कंना, टैंगेटी, एक प्रकार का पहलकवानों का लेगारा । ज्ञॉघिल ( 4० ) साकी रंग का पदी विशेष ) ज्ाँब दे० ( प० ) परख, परसाव, परीका, भनुसन्धान सरे खोदे की पहचान | ज्ाँचना दे० ( क्रि० ) जाँच करसा, प्रखना; ऋसौटी पर कप्तना, थनुपस्धान, यथार्थ पता हूगाने के लिये उपाय, उ्योग करता, दुद्दरामा, किसी के क्रिये हुए काम को देखना, ठीक करना। जाँत दे ( स्त्री० ) डोउ, जठ भरने का ढोल, चढी | ( पु० ) दकव, चाप चढ़ाना, चपौद | ज्ञाता दे० ( स्त्री० ) चड्डी, पेषणी, पीसने का यन्त्र जञाँचव्त ) तथ॒० ( १० ) जॉँविवान्‌ सुप्रीय के एक जआाँववान ) मत्त्री का नाप, ऋवराज। जॉववती दे" (स्रो ०) जाबवान की पुद्री, श्रीकृष्ण की स्लो । जाँयू (१०) जम्बूद्रीप ६--नद्‌ (४५) सौता, भवूरा। ज्ञावर (०) प्रस्थान, रमन । जा दे० (सबे५) जे।, जिए, कोई, नदु० (छ्री०) माता, देवरानी, (चि०) सम्भूल, उत्पन्न (यथा गिरिज्रा) | (क्रि०) जाओ, उता जा, दूर हो | ज्ञाउर या ज्ञाउल (१०) दूध भाठ, खीर, पापम । ज्ञाकड़ दे* ( $० ) किसी दूकान वाले से इस ठदराव पर माल मेंगवाना या लेना कि यदि वह पश्तन्दन आया या ठीक # बैठा ते। वापिल किया जायगा। जाकर दे? (गु०) क्लिपका, जिसका सम्यन्धी, जाथ कर । ज्ञाका दे* ( सं» ) जिसका । ज्ञाखन ( स्त्रो० ) कुए ही नींद में दिये शानेवाला, पढ़िया, जम्पट, नेचार । [ स्थाग, सबेत हो । ज्ञाप दे? ( पु० ) यश, दोम | ( क्रि० ) गायक, निंदा ज्ञामत तदू० ( स्व्रो५ ) जागृत, सापबानी। सरेत, मसाग्पवान्‌ | [ देवी देवता की भयद मद्दिता । जागतीकला ( स्त्री५ ) दिया, दीपक, दीधि, स्योति | ज्ञागतो ज्योति तदू० ( बि० ) पराक्रमी, प्रतापी, चौकसाई | [उठना, सचेत होता, साउचान होना । ज्ञागना दे० ( क्रि० ) निद्वास्याग काना, नंद से जआांगर ( १६१ ) जाति ह जजत-त.वजज-...33..3२३2ौ६8ईॉ28ॉ>ल्‍72.ल्‍_०६३२२६२२६६6६ ज्ञामर दे० ( घु० ) जगरण, देश, कवच । जागरण तद॒० ( घु० ) निद्रा त्याग, मारना, एकादशी आदि का रात्रि जागरण,रात जगा; रतजगा | जञगरित ठव्‌» ( छु० ) जागरण, निद्धा का अभाव । ज्ञागबलिक तत० ( पु० ) याज्ञवक्क्य मुनि ज्ञागरूक तत्‌» ( पु० ) जगरणशीरु, जागरण कचों, आयने बाला, सावधान, कार्यतत्पर | ज्ञागा दें? ( पु० ) ज्ञाति विशेष, हद जागावन्‍्दी दे० (स्त्री० ) हृदरन्दी, सीमानिदेश, नींद, डँघ, ऊँघाई । [ छे लिये होड़ लगाना | ज्ञाभाजागी दे० (स्त्री० ) निद्वात्याग, जागरण, जागने ज्ञामू दै० (थि० ) जागने वाला, जागरण कर्ता च ज्ञाग्रत तत्‌० ( घरु० ) जागता, अनिद्धित, सावधान, जागरण चिशिष्ट, नींद सें उठा हुआ, सचेत । जाडूतल् तत्‌० ( वि० ) जड्नल का उत्पन्न, एक प्रकार का स्थछपशु, निर्जेल प्रदेश । ( पु ) टिटिहरी पत्नी कपिश्लक पत्ती | जाड़ुलिक तत्‌० ( ४० ) विपवैद्य, विषचिकिस्सक, साँप » के काटने की चिकित्सा करने वादा, कालबेलियां | ज्ञाडग्ुल् तत्‌० (०) बिप, कालछकृंट, दल्लाहल, गरत फछ विशेष. [स्पिल्ठा, सेंपेरा, विष ऋड़वैया । जाखगुत्लि तत॒० ( ४० ) विषदैद्य, सर्पक्तत चिकिव्सक, ज्ञाचक तद्‌० ( ५० ) यावक, प्रार्थी, माँगने चाछा, मि्षुक, सेंगन, मिखारी, बन्दी, सागघ; भाट । जांचत तव्‌« (क्रि०) पाचता है, मगिता है, मिद्दाटन करता है! [परीक्षा करना । ज्ञाचना तदु० ( क्रि० ) समॉगना, याचना, परखना, जाचा तदू० (चि०) माँसा, चाहा, अभिल्‍तपित, ईप्सित, प्रार्थित, परखा । [प्राधित चाहा हुआ,मया हुआ । आवच्यमान तद॒० ( वि०) याच्यमान, प्रा्यमान, ज्ञाजक तद्‌० (१०) ग्राजक, पुरोहित, यशकराने वाला ! जाजम दे" (9०) विद्वाना, शतरज्षी दरी, गलीचा, चित्नविचित्र आसन विशेष, जाजिम । ज्ञाज्ञत्ति तब॒० ( पु० ) भर्धर्ववेदज्ञ गोत्र प्रवर्तक ऋषि, यह कुछ दिनें तक दास्मिक हो गये थे, इनका अवनी तपम्था का अ्भिमान द्वा गया था। पुनः काशी के एुछ चया ( छुलाघार ) से घर्सशाख का इपदेश सुनकर इनका चित्त ठिह्ते हुआ [ ज्ञाजा दे० (स्त्री० ) कंजौंजी, (क्रि० ) हृद हट, चल चल ॥ ज्ञाजामन्दी दे० (सत्री०) जयज्यवस्ती एक रागिनी । ज्ञाठ दे? (ध०) राजपूतों का एक अवान्तर भेद, जाति विशेष * ज्ञाठ दे० (प०) लद्ठा, काल्हू की घुरी । जाड़ दे? (१०) मछूड़ा, दतिं की जड़! [सर्दी । ज्ञाड़ा दे० (पु०) शीत, ठण्ढ, जड़काल, हेमस्तऋतु, जाड़ी दे० ( ख्रीौ० ) दन्तपद़क्ति, दातों की कुतार । (बि०) मोटी, स्थूछ |... ज्ञाउ्य तत्‌० (पु०) जड़ता, सूखेता, मूड़ता, शीतछूता, शीत, जड़ का धर्म, अप्रसन्चता, अलछसता, मोख्ये | जात तत्‌० (वि०) उत्पन्न | (ख्री०) जाति, वंश, ज्ञाति, कुछ) समूह, ब्यक्त, उन्निज्ञ ।-कम ( छ० ) दृशविध संस्कार के अन्तर्गत सैध्कार विशेष |-- पांत ( श्ली० ) पीढ़ी, चंश, कुछ, चंशाजुक्रम, चंशावली ।--भ्रतीत (गु०) जात पअत्यय, जिस का विश्वास दे! गया द्वे,, विश्वसनीय ।--बेदाए (8०) भ्रप्मि, भ्रवल, वह्ि।--वेत्ल (9०)-अगिति, खिन्रक, ईध्वर, सूर्य |॥--झूप ( छ० ) सोया, चादी, घतूरा, घत्तुर। झ्ञातक तत्‌० (प्रु०) पुत्र, बालक, उत्पन्न सनन्‍तान का शुसाशुम जनाने वा अन्ध, फलित ज्योतिष का एक ग्रन्ध । िदया । ज्ञातना तदू्‌० (स्त्री०) यातना; पीढ़ा। ब्यथा, दण्ड, ज्ञाताग्ध तच्‌० (ग्रु० ) [ जात+ भ्रन्ध | जन्म घे अन्धा, जस्मान्घ, दृष्टि-हीन । ज्ञातापत्या उत्‌० ( खी० ) [ जात +- भ्रप्चष +आ ] पसूता सखी, जिस स्त्री ने पुत्र या कन्या उत्पन्न किया है । ज्ञाता रहना दे० (वा०) भूजल जाना, नष्ट दो जाना, खोया जाना, अदृश्य ध्वाना, श्लेए होना, मर जाना, चम्पत होना, हाथ से निकल जाना, चला जाना ज्ञापति च्‌० ( स्त्री० ) [ जन+क्ति ] भार्य जाति में मनुष्य समाज का विभाग विशेष जे चष्टि की आदि से जन्मानुसार चला आ रदा है | सोत्र, कुछ, ज्ञाती € श्र ) जाने ..0#....0.._-ततमतततत जन्म, वेश, ज्ञाति, ब्राह्मण, कत्रिय, वैश्य, ग्रद्ध, ' जादा दे० (गुर) अधिक, बहुत, पुत्र, सन्‍्तान, आदि, सैयापिशे क मत से पृक धर्म विशेष, जे |. यथा--शाहजादा, शाह का पुत्र, गरीबगादा, व्यापक दो, यथा मनुष्य का मनुष्यत्व, गे! का | गुरीब का पुच्र । सेल्व भ्रादि | छन्देविशेण, पुष्वविशेष, मारती। | ज्ञादू दे” ( छु० ) साथा, कुदक, ठोना, जन्तर मम्तर। +केश (५० ) ज्ञावित्री ।- पत्नी (ख्री०) जादूगर द०( पु० ) कुइकी, मायावी, टेनहा । जाविश्री, विभद्री का पत्र +-चैर ( पु )स्राभा- | ज्ञान तदू० ( पु० ) ज्ञानी, डीठबन्द, शोका, मायावी, विक शब्रुता। जिस प्रकार नकुच्न सर्प का भौर मैसे | घोड़े का होता है । - ्रश ( पु० ) जाति विनाश, अ्रब्यवहार्यता ।-भ्रशकर ( पु० ) जाति नाश करने बाय पाप, लवविध पापों के अन्त पाप | विशेष।--प्रष्ट (वि) कुश्नच्युत, समाज वहिषप्कृत, ' जति बादिर -स्मर ( वि० ) पूर्व जन्म की बातों | की स्मृति, पूर्व जन्म के स्मरण करने बाले |--दीन € गु० ) जातिश्नष्ट, भजात, कुनात | जाती तत्‌० (स्त्री०) पुष्प विशेष, जाती फूल, चमेली, मालती, जावित्ी ।--पन्नी ( खी० ) जावित्नी | ++फल ( पु० ) फक्न विशेष, जायफक्ष | ज्ञातीय तत्‌० ( गु० ) जाति सम्बन्धी, जाति सम्पर्की, पुृक तद्वित प्रद्यय, यथा -पशुजातीय, थश्व ज्ञातीय । ज्ञातीयता त्त्‌० ( ख्रो० ) जातित्व, ज्ञाति का भाव। ज्ञातु तब॒० ( अर ) कदाचित्‌, कमी, सम्मावनाथक । आातुधान तव्‌* (पु) रास, निशाचर, राजिचर, राचण की ध्रुक सेना का मास जिसके सेनापति रदूपण थे | यथा ---“जातुधान सेना स्तर मारे |? जातेषटि तव॒० (पु० ) पुत्र उत्पन्न दाने पर का ये, नान्द्रीमुख श्राद्ध, जातकसे का एक अफ | जात्य तन० (गु९) कुचीन, प्रधान, श्रेष्ठ, मनोहर, सुन्दर, जाति सम्बन्धी |-जिभ्ुुज्ञ ( पु ) समक्रोण त्रिमुन । ज्ञावा तद्‌ु* (खी० ) देशाटन, पर्यटन, भ्रमण, तीर्थ यात्रा | यधा-- सत्र वह यार न जानौ दूजा जेद्दि दिन मिले ज़ात्रा पूजा । भागवत 4 ज्ञात्यन्ध सतत (गुर ) अन्‍्मान्च, जन्म से अचा, इष्टिहीन आदुव ( पु ) यादव ।-पती ( 5 ) थी कृष्ण सर्वेज्ञ, दैवज्ञ | ( धु० ) यान, सवारी, विमान, बादन। (स्त्री०) प्राण, आर्मा, अतिप्रियं, ध्रिपतम। ज्ञानकार दे० ( वि० ) जाननवाला, भ्रभिज्ञ, चनुर। -. दे० (ख्री० ) परिचय, विज्ञता, निपुणता। ज्ञानकी तत्‌० (ख्त्री० ) जन# राजा कही लड़की, ज़नक- राज-तनया, जनइसुता, स्रीता, थ्रीरामचस्त्र की चर्मपत्नी ( देखो सीता ) /--जञानि तत्‌० (१० ) श्रीरामचन्द [जीवन (पु०) श्रीशमचन्द्र ! “नाथ ( पु० ) श्रीरामचन्द्र।+- रमण (६०। आरीवामचद्र ! [हि। समझता ह्टै। ज्ञानत तत्‌० ( वि० ) ज्ञानी, बुद्धिमान, छान से जानता ज्ञाननहार दे (9० ) जञाननेवाल्ा, सममनेवाल्ा। ज्ञानना तदू० ( क्रि० ) सममना, पहचानना। परिचय करना । [समता । ज्ञानना दे" (क्रि० ) जातना, चिन्दना, पदचानना। ज्ञानवद तत* (प०) जनस्थान, देश, परयना, डरा, चकला | ज्ञानब दे० (क्रि)) जानना, समसना। जना, सममो। ज्ञानपहचान दे० (9० ) विन्द्वार, परिवित, चिग्द पहचान । ज्ञानवर दे० (३०) अन्त, आयी, पश्॒ पथ्दी भादि। ज्ञानद्वार दे० ( गु० ) जवैवा, जानेबाल्ा। गमनशीढ । ज्ञानई ( भ्र० ) माना | हे जाना दे० (क्रि० ) गमन करना, दूर देना, द्वाति देना, खेना, गुजरना, चैपट द्वेना, माना, समझा | जानि द० ( क्रि० ) समम्य कर, जात का | जानी दे (क्रि०) जान ली, समझ ली, पहचान ली। ज्ञाजु तन» ( १० ) घुटवा, धोंद्व, ज्ञानू, देवता, खादना, इस जद्धा मध्यमाग | -पाशि (फ्रि० वि-) घुटने के यल | [घुदना, पटरे पे खप्तान जाजु ! ज्ञान फलक तव्‌« (धु० ) सखुदिया, चकति, मोटा ज्ञानों दे? (आ०) माने, समम्रे। | जान्ना ( शह३ हि ) ज़ायद्‌ लि सडसक्‍ न्‍: 5 न्‍न्‍ ड न >़,क््नतितघत्-ीान तल न हा तजज+नत...................त...... जान्नां दे० (क्रि०) पदचानना, खममना | [में पढ़ना । ज्ञाप तद॒० ( पु० ) जप, किसी मन्त्र का दार वार मन जापक तसत्‌० ( घ॒ु० ) जप करने वाला, भजन करने चांक्ा, जपने वाला, सदा स्मरण करने बाला, जपी, जपकर्ता, सर्वदा मन्त्रोच्चारणकारी ! ज्ञापान ( पु० ) चीन देश के पूर्वे एक द्वीप समूह । का नाम नी जापारू देश की, जापान देश के चांसी | जआाफरान दे० ( 9० ) कुड्कस. केशर । जाफ्रघ्मली खाँ दे० (५०) इनका प्रसिद्ध नाम मीर जाफूर था, इन्हीं की चिश्वासघातकता के कारण फसिराजुह्ौा गद्दी से उत्तारा गया था, सिराज के सिंहासनच्युत धोने पर यद्व बन्नाल के सिंहासन के श्रधिकारी हुए, परन्चु १७६० ई० में इसकी विलासिता अकर्मण्यता देख अड्डरेज़ों मे इन्हें शाही घछे उतार दिया ( जाफूर खाँ ( पु० ) इनका प्रसिद्ध नाम मुझिंद कुछी खाँ था । विलछी के बादशाह श्रालमगीर ने १७०४ ई० में इनको बल्स्‍ाल की नवावी दी थी ! इन्होंने अपने नाम पर प्रसिद्ध नगर सुशिदाबाद बसाया घा। जञाब दे० ( प० ) मम्नन करना, जाना। जाबात्ली तत० ( पु० ) एक ऋषि का नाम । ज्ञाम सद्‌« ( पु ) प्रहर, याम, चार घड़ी, दिन रात का अख्ठवाँ भाग, त्तीन घयदा, प्याला, चपक, मदिरा का प्याला |--/ फना का जञाम ऐसा कि मैं पीपी लूँतू भर भर दे जआञाम्रदृम्य तव्‌० (३०) जमव्नि का पुत्र (देखा परशुराम)! ज्ञामन दे० ( छवी० ) छक्त और फ़क विशेष, जोरन, जेाइन, जिसपे ददी ज्रमायरा जाता है, जो दुद्दी जसाने के काम में श्रात्ता है । झामवन्त तद्‌० ( पु० ) ऋचराज, रामचन्द्र की सेना बव्वा प्रधान सेनापत्ति, जाम्बबान | जामवस्ती तदू० ( स्री० ) जाम्बवान की पुत्री, श्रीकृष्ण चन्द्र की प्रधान रानियों में से पुक रानी; श्रीकृष्या के श्वखुर सत्नाजिन के पास एक मणि थी. श्रीकृष्ण ने इस मणि को सांसा था, परन्तु उन्होंने नहीं दिक्रा । सभाजित्‌ हे छोटे- भाई प्रछेन उस मरि को घारण कर शिकार खेलने गये थे । व्हा उनको घुक सिंह ने सार दाला और मण्पि ले ली। सत्राजित्‌ ने समस्या कि श्री कृष्ण ही ने मणि ले ली हैं। भ्रतः इस कलड्ू को दूर करने के लिये श्रीक्षप्ण बन सें गये । उन्होंने पुक अगह देखा कि प्रश्ेम और सिंड मरे पड़े हैं / अपने साथियों को वहाँ छोड़ कर वह एक पवेत की मुहा से घुस गये, वर्हा उन्होंने देग्या कि एक बालिका उस मंणखि को लिये खेड रही है। श्रीकृष्ण को देख कर बालिका श्रार उसकी घाय दोनों चिल्छा उ्ीं, उनका चिल्लाना सुन कर जाम्वबान्‌ निकला, और श्रीकृष्ण का सामान्य मनुप्य समर कर उनसे लड़ने लगा । जब बह द्वार गया, तब उसने श्रीकृष्ण की स्तुति की भार मणि तथा अपनी कन्या श्रीकृष्ण के अपित की । जामवन्ती घे ब्याह करके श्रीकृष्ण मथुरा लौट श्राये | जामा दे० ( घु» ) अद्भरखा विशेष, घेरदार अन्ना | ज्ञमाता, जामातु तत्‌* (घु० ) कन्प्रा का फत्ति, जमाई, दामाद | जामिनी तदू० ( खी० ) यामिनी, रात्रि, रात, चार पहर की रात्त, थवनों की भापा, अरबी, फारसी | ज्ञामिन, जामिनी दे" जमानत, संरक्षण, प्रातिभव, जमानत करना, बिचवान होना +-दाार ( घु० ) जमानत करने चाहा | जामुन बे० (३०) फछ घिशेष, इसका रंग काल्ठा होता है और बरसात मैं फलता हैं । जाम्ववान्‌ तत० ( पुृ० ) ऋक्षपत्ति यह चह्मा के पुत्र थे + त्रेतायुग में यह सुप्नीव के छेनापत्ति देकर सीताजी को दूँढने में रामचन्द्रजी के सहायक बने थे | द्वापर के श्रन्‍्त में स्थप्तस्तकमणि के कारण इन्होंन श्रीकृष्णचन्द्र से छड़ाई की थीं, श्रन्त में मणि और अ्रपनी झन्‍या को श्रीकृष्ण के इन्होंने दे दी | खोजियों ( भ्ज्युसन्धानकारियों ) का कहना है कि यह जाम्त्रवान्‌ भालू नहीं थे, किन्तु अनाय॑े राजा थे । जास्वुव॒तत तद्‌० ( घु० ) कल्पित भालू | जास्वूनद्‌ तव॒5 (ए०) खुबणो, स्वर्णे,हिरण्यम्थ, काछुन । ज्ञायका दे० (५०) स्वाद, लब्बतत | ज्ञायज्ञ दे० (घु०) डचित, यथार्थ। ज्ञायद दें" (गरु०) अधिक, अतिरीक्त [ ज्ञायदाद ( रध्छ ) बनिश्नत आयदाद दे० (सी०) सम्पत्ति, सूमि । [गर्म मसाला । जायफणज तदु० ( पु० )फल विशेष, जञातीफल, पुक झाया तत० (ख्त्री० ) भागों, पत्नी, खो, बनिता। +जीव ( ४० ) नट, चरण, वेश्यापति “+छुज्लीदी ( पु० ) [ जाया + श्रनुज्ञीयी ] बढ, वेश्यापति, री की कप्नाई खाने वाला, स्त्री से जीने वाछ्ा |--पति ( पु० ) दम्पठि, जम्पति, स्त्री पुरुष, नर नारी, पति पत्धी | जाये दे० ( क्रि० ) उत्पन्न किये हुए । (३० ) बेढक बालक, सुत, लड़का, सन्‍्तान ] ज्ञार 55० ( पु० ) इपपती, गुप्तपति, घिगढा, व्टयचा, यार, दूसरा पति, भट्ठश्रा, रुस का राजा | (क्रि०) जख्टा कर, भस्म करके ।/--कम तथ्॒‌० ( घु० ) ब्यभिचार (--गर्भे ( धु० ) ब्यमिचारी, छम्पट, उपप्रत्ति का गर्भ ।--ज्ञ ( वि० ) उपपत्ति से उस्पन्न सनन्‍्तान, जारोए्पन्न, व्यभिचारजात सन्तान | जारण ततद० (पु० ) [ ज+अनदु ] घलाना, और करना, छय करना, घातु भ्रादि का फूकना । ज्ञारना तदू« ( क्रि० ) जलाना, याठना, लहकाना, दुग्ध करना | झारत दे० ( घु० ) काठ विशेष, १$ प्रकार की छूकदी। ज्ञारा (क्रि०) नलाया,भस्म किया । (पु०) यार उपपति । ज्ञारी (ग़ु० ) बहता हुआ, प्रवाहित । ज्ञारिणी तव« ( ख्री० ) भ्वमिवारिणी ख्री । आारोय ( स्ली० ) माहू, बढ़ती । जाल तत्‌० ( १० ) सूत भादि का बना हुआ सछुछी या चिहिया पकइने का फन्‍्दा, पराश, जालीदार जखिडकी, सरोपा, इन्द्रजाल, घेरसा, फरेद, बनावट | ज्ञालंगि देन ( सवे० ) जिसके लिये, जिस कारण, जिस हेतु । लियेद्ी, मपनी | जाजगेणिका तर* (स््री० ) दुघिमन्धन माण्ड, जालन्धर तर ( 9५ ) ब्रिगत देश, प्रिय देशस्थ, राधस विशेष, ( देखे! झ्लून्धर ) पूछ ऋषि का नाम] ज्ञालन्धरी विद्या तत*० ( खी० ) इन्द्रज्ञाल ॥ जाल रन्थ तव० ( पु०) जाती का ररोखा । जाजसाज्ञ ( पु० ) फरेवी, घोम्रे बाज, मृठी कारंबाई करने बाला ।--ी ( ८० ) फरेव, दयाबाजी | ज्ञाला तदु० ( पु० ) सरड़ी का फॉँए, जज रखते रा बड़ा परमन्र, सटका + हे जालिक 5च्‌० ( पु० ) महुथा, कँवते, धींवर, मच्छी- मार, मच्ढी, मक्रडा ज्ञादे क' मझश, इख्धेज।लिक, मदारी, शजीगर, । ( बि० ) जाख पे ज्ञीने वाला। ज्ञालिया तदु० ( घु० ) क्‍पटी, छुली, मायाव्री, घूश्त, ढग, फरेबी घोण़ा देने बाला | जाली तत्त० ( पु० ) जाछ काने वाद्य, मायाघी, वन्नच, धींवर, व्याघथ, मंँमरी, मरेखा, तत्‌” ( खी० ) तरोई, परवल, दे० (स्त्री०) कसीदे का पृ प्रकार काम । पुच्च प्रकार का मह्टीन छेददार चस्र, कच्चे आम की गुठली के ऊपर की पतली मिल्ली | (वि) दनावट, मूठा | ज्ञाल्म तत्‌» ( छु० ) पामर, कर, श्रसमीक्ष्यक्वारी, सूसे, घूते, भ्रघम, कुदिल, निष्ठर, नृशप्त ] ज्ञाचक तद्‌० ( १० ) यावक्त, धल'्त, सह्ावर, अकदा, ख्वियो के पैर रहने का पुक रक्न । जञावऊा तदु० ( ख्री० ) ढोंग, छौंग का फूछ | जञावनी तदू० ( स्ली० ) अजवाइन ! जावा दे० ( पु० ) उपद्वीप विशेष, दिन्दे मइासागर का उपद्वीप, यह द्वीप डच जाति की अधीवता में हैं | यह की बस्ती खूब घनी है। इसकी राजधावी बटाविया है। लड्ढ। में जे! चस्दु स्पन्न दवोती ई। वे दी यहाँ मी वत्पन्त ड्ोती हैं | [की उत्पत्ति । ज्ञाचाँ दें” ( पु» ) यप्रज, यमन्न, पक साथ दे सस्वान ज्ञासु दें० ( स्वे० ) जिसका, जिमकी । ज्ञाखूस दे० ( पु० ) भेदिया, गरप्त चर, मुख्विर ! ज्ञासूसो दे" ( स्वी० ) जासूसी का काम, मेदिया । जाद्द दे० ( पु० ) घवद्ादट, आपत्ति, विपत्ति, ईसमस, फेसाव | ज्ञाहा दे० ( यु ) देग्या, निरीक्षण किया। यान: # बदती पुनि सरय सरादा; आ फिर मुख्ध मदस कर जाहा” | नह >-प्रशाव्त | ज्ञाहि द० ( सबे०) मिश्तझ, जिस किसी की, जिसे | ज्ञाहिर दे* ( घु* ) प्रदाश कझाण, प्रधार बरण । ज्ञान्हयी तद्‌* (स्री०) मायीरधी, यहा, (दस्गे अन्दर) । जिश्नत दे+ ( कि० ) जीवा है, औवित है | जलिश्ाउ जिश्ाड दे+ ( धु+ ) जिछाव, जीवन दान, शेग छे छुटकारा । मिशन दे० ( छु० ) नुकसान, हानि, छति जिश्ाये दे० पालित जिलाये हुए, पाला पेसा | जिगजिगिया दे० ( गु० ) चापलूस, खुशामदी, मिथ्या प्रशंघक्ष, चिरौरिया । [चापलूसी, मिव्या प्रशंसा । जिगज्िगी दे० ( स्री० ) चिरीरी, खुशामद, अचुनय, ज्िगना दे ( पु.) बच्ष विशेष [ जिगमिप तत्‌० ( श्री० ) गमनेच्छा, गन करने की इच्छा, जाने की ऋभित्टापा | जिममिएु तत्‌० ( वि० ) गमनेच्छेक, वाला, जाने की इच्छा वाल्ला । जिगीपा तब» ( ख्री० ) जीतने की इच्छा, अयेच्छा, पराभव करन की इच्छा, व्यवश्ताय, प्रकरष, चकसा। जिगीपु तत्‌० ( 3० ) जग्रेच्छु, जय चाहने वाल, जय का श्रभ्मिक्नापा करने चाढा । जिघत्सखु तत० (वि? ) [ श्द्‌ + सन्‌ +३ ] वक्ष, भोजन करने की इच्छा रखमे वाला, छुधित, सूखा | जिंघवसा तव्‌० ( ख्री० ) [अदू + सन्‌ + श्रा ] भोजन की इच्छा, भोजन करने की इच्छा, भोजन करने की चेश्टा, भोजन करने का अभित्ताप । जिघांखु तत्‌० ( वि० ) बध-करणेच्छुक, घातक, घातुक, सुशंस, ऋर, बधेथत । जिघासा तत० (खती० ) [ अदु + सच + भा |] छुथा, सूख, भोजन करने की इच्छा, बुभुत्ता। जिजिया दे० ( तत्री० ) ज्येष्ठा भगिनी, बड़ी बहिन, स्तन, चूची । जिीवनेच्चुक । जिजीविपु तत्‌० ( वि० ) जीने की इच्छा करने वाक्ता, ज़िज्ञासन तव्‌० (पु०) [ ज्ञा+ सन्‌ + अनट्‌ ] एश्न करना, पूँछुन, जानने की इच्छा प्रकाशित करना | जिज्ञासा तब॒० (खरी० ) प्रक्ष, पता, जानने की इच्छा । [ ऋच्चुका। जिज्लाखु तत्‌० ( दि० ) अन्न करने वाका, पूँछने चाल, जिक्षास्थ ठघु० (वि ) पूछने येग्य, प्रश्न करने योग्य, जिशज्ञालितब्य, जिज्ञासनीय । जिश्लीय दे* ( ५० ) बेढ़ी, सिक्ड़, शद्डक + जिठाई ( ख्री० ) बढ़ाई, जेटापन | जिटानी दे० (ख्ी०) पति के जेड़े भाई की स्री ।..“] जाना चाहने ( २६४ ) ज्ञिन जित्‌ ( गरु० ) जेता, जय प्राप्त करने बाला । जित उब« ( थि० ) [ जि+क्त पराखूत, पराभाव प्राप्त, पराजित: पराजयी, वशीभूत, अधीन, जिघर, जर्दा | ( घु० ) अहंदुपासक, जैनविशेष ।--हु ( क्रि० ) जीते, जीत ले।, जीत भी | जितना | ( वि० ) परिमाण, अवधि और संख्या- ज्ितेक शक, (क्रि० बि० ) जिस मात्ना भें, जिस परिणास में यथा --जितना सें सेजन करता हूँ इतना कन्हैया नहीं कर सकता । [दाज़ी ली जीव । जितनी दे० (स्त्री० ) परिमाणार्थक, खेन की जीताई, जितयेगनि तत्‌* ( पु० ) हिरन, हरिण, झूग ! ज्ञितवार ( ग़ु० ) जितैया, विजयी | जितवशचु तत्‌० ( ४० ) कृत शत्रु पराज्य, विजयी ! जितबैया ( यु* ) जीदने बाला । ज्ञिता (पु०) हूँढ़, बह पारस्परिक सदायता जे। किसान एफ दूसरे की जताई वे।आई में किया करते हैं। जितामित्र तव (यु० ) [ जित+ अमित्र | विष्य नारायण | ( वि० ) विजयी, जिसने शत्रु जीत लिये हैं। जिताहार तद्‌० ( पु० ) [ जित + आहार ] थ्ज्ञ जयी, जिसने अ्न के अधीन कर लिया है। जिति दे* ( सर्व० ) जितनी, जिंघर, जिस तरफ़ । ( क्रि० ) जीत कर (सत्री०) जीत | जितेन्द्रिय तदू ० ) ( ३० ) [ जित + इन्द्रिय ] इन्खिय जितेन्द्री तत्त्‌० जीत, जिसने इन्द्रियों के। वश से कर लिया है, शान्त, चशी, अकामी जिले ( क्रि० वि० ) जिसओर, जिस तरफ, जिंघर । जितो ( गु० ) जितना । जित्वा ( गरु० ) विजयी, जीतनेवाक्ा । ज़िंद्द दे० (स्री० ) हठ, प्राग्रद, शड़ |. जिघर दे० ( ऋ० ) जर्दा,यत्र, जिस स्थान में । जिन तव० ( पु० ) जैन घर्स प्रचत्तक, आखचाये, जैनियों के तीथेक्टूर, इनके तीर्थद्र:र २४ दैं, यद्यपि सभी स्वतन्त्र नाम भिन्न हैं, सथाएि छेघछ जिन पद से भी डनका व्यवहार होता है | जिन ही को केई कोई बौद्ध वतल्लते हैं और जैन घममं को बौद्ध धर्म की शाखा भसानते हैं, उनका ऐसा समझना निष्कारण नहीं हैं। वोषों में वौद्ध और जैन का नास श्राया जिनकेरे एक ही साथ थाना ही इसझा आय है। परन्तु इपपे अतिशय भिन्न इन दोनों घममर्तो की एचता की ककपना अनुचित है। इनझे सिद्धान्त, घामिक प्रक्रियायें तथा ध्राचार भ्रादि भ्रत्यन्त मित्र हैं| जैन धर्म प्राचीन है, दौद्ध धर्म नवीन | तत्‌ू० (६ पु० ) विष्णु, सूय, बुद्ध, ( सर्वे» ) जिपक्ा यहुबचन । जिनकेरे दे० (सवं०) जिनके, जिस किसी के । [श्रन्न । जिल्‍्स दे० ( पु० ) द्वस्य, वस्तु, पढ़ाये जात, श्रकार, झिन्दगानी दे० ( ख्री० ) जीवन, जिन्दगी, जन्म | जिवरिया दे० ( ख्री० ) जेवरी, मूँज या सन कि बटी हुई पत्ती रस्सी । जिम दे? ( श्र० ) यथा, जैसा, याहश-- !ज़िप्त दशनन महँ जीस विचारी”? रामायण । जिमताना दे? (क्रि०) भेनन कराना, सिलाना, ध्रतिधि सःझार करना । जिमोकन्द्‌ दे? ( घु० ) सूरन, रस्पी | जिय तद्‌० ( घु० ) जीव, पाण, भ्रात्मा, हृदय । जियरा तदु* ( पु० ) जीक, जी, प्राण । जियाना तदू» ( क्रि० ) मिलाना, प्राण दान देना+ जीवित करना, पाना पेसना । [जीवस्त जियोर दे* ( वि० ) सादसी, उत्पाही, वीर, योद्धा, जिला दे० ( पु० ) उपपान्त, प्रदेश के किसी साथ का प्रधान स्थान, जा राजकर्मचारी राज्य व्यवस्था करते हैं, भदद कल स्टर सादव रहते हैं । जिलाना दे० ( क्रि० ) ज्ञीता करना, सज्ीव करना, चीवित करना, जिडा देना । जिद्ध दे? (स्रौ०) पद्ठा या दफ़ी जे। किसी पुम्तक की रचा के लिये उस पर छपा दी जाती है | खाल, घमड़ा |--गर दे ( पु« ) निकद यिने घाला, पुम्तक बन्यनकत्तों, दफूरी । जिय तद्‌* ( पु० ) जिप, प्राण, आत्मा, जीव, चेठम, यथा-- * सुमिरहुँ भादि एक कश्तारु | जे जि दीस्द कीसद संपार ? [--पश्मावत | जियनसमूरी या जियनमूरि तव० ( ख्री० ) सैजीवनी ओपधि, जिलाने दाढी बूँटी । [जयी, विजयी । ज्िपप्ु लव» (५०) अउुन, रिरीटी, इन्द्र, जीतने चात्ा, (२६६ 2: 7 ञ्ञी जिताना दे? ( क्रि० ) जीवित करना । जिस ( वि० ) विमक्ति युक्त विशेष्य के साथ भाने से प्राप्त हुथा 'जे का रूप जिस दे० ( सर्दे? ) जिसका, सम्यस्धाधँ॑बाची । जिद ( स्री० ) रोदा, ज्या, चिल्ठा। जिहाद (०) मुसलमानों का धाममिंक युद्ध । जिहि दे० ( सवे० ) मो, जिस, जियो । जिह्म तत्‌० ( बि० ) कपटो, कटिल, उल्नी, धृत्त, मूढ़, दुष्ट, टेढ़ा, अप्रवन्न, मनन्‍्द | (9०) तगर का पुष्प अधम ।--कर ( ग़ु० ) कपटी, छुली, पूत्त ।-ग ( पु० ) सांप, सर्प, टेढे चछते वाले, धकगामी, बाण, तीर | लिमोर, चढेर । जिहल तत्‌्« ( वि०, ) चटेरा, लेलुप, लेभी, शुब्ध, जिद्दा तत्‌» (स््री०) रसना, जीमा, जीम, रसनेन्द्रिय | +मूलौय तत्‌० ( वि० ) जो जिद्वा $ सूत्र से सम्पन्ध युक्त दे ।-स्वाद ( पु० ) [ जिद + आख्वाद ] चाटना, छेक्षन करना [--म्र ( $० ) मुफ्ताप्र, कण्ठस्थ, वरजवानी | जी दे० ( प० ) प्राण, मन, दिल, हृदय, चित्त, साइस, दम, सह्कृद्य, इच्छा, विचार, चाह, प्रचलित बेल चाज्ष की भापा में प्रतिष्टावादी शब्द, सम्मान सूचक शब्द | --उठाना (वा०) वदासीनता, मन खींदना मित्रता में बाघा “--धुरा करना (वा०) जी मिचराना, उबर क्ाई झाना,अप्रीति करना,उदासीनता दिखाना ।--वढ़ाना ( बा? ) इष्पादित देना; मन को उन्नत करना, बडे बढ़े कार्मो को करने का अमिज्ञापा होना, किसी बडे काम को करने की प्रवल्ठ इच्छा --विस्तरना ( बा० ) मत में मेद द्वेना, चचेत दाना, मूर्च्शा भाता ।- भर ज्ञाना (वा० ) सत्तोष दाना, तृप्ति होना, सन्‍्दृद रहित डोना, सेराय दूर करना, थ्रघाना, श्रधा जाना ]-7 आजाना ( वा० ) किसी वस्तु ही चांद होना, किसी वस्तु का पसन्द दो ज्ञाना। भर श्यांत्रा (बा०) दया आना, दया युक्त दोचा, दया दप अषया सोच से गरा रुक जाना | डिसी के दु व से दुघी डोना ।--वदलाना (बा०) मन बदलाना, मनो* रक्षन काना, मनोविनोद करना ।--पाना (वा०्) डिसी के स्वमाव से परिचित होना, 'डिसि को जी पहचानना “पानी करना (वा ) ललित करना, दुःखित करना, दुःख देना, चिढ़ाना, खि- माना )--पर खेलना ( चा० ) किसी उद्देश्य से अपने को सहूट में डालना) अपने को सह्जु्ट में डाछ कर भी किसी काम को करना, ।--पिघलना ( वा? ) दया भाना, किसी के दुःख से दुःखित होना, मे।ह आया +-पकड़ा जाना ( वा० ) शेष ग्रस्त होना, शो आना, उदासीन होना। “फदना ( वा० ) प्रेम हटना ।-किर जाना (बा०) सन्तुष्ट होना, द॒पघ होना, अघाना, अ्विच्छा होना १--जलना' ( वा० ) मन का दुःखित होना, पीड़ा, चेद्वा, ब्यथा ।--जअ्ञत्नाना (वा०) सताना; दुःख देना, पीड़ा पहुँचाना, दूसरों के कार्य के लिये श्रपने को जज्ावा, स्वयं कष्ट उठा कर भी दूसतें को सुखी करना, निष्काम परोपकार करना | “चाहना (घा> ) किसी वस्तु की इच्छा! छुराना या छिपाना ( बा० ) श्राक्षतत करना, शक्ति के अनुसार काम्र न करना, [--चलना ( था० ) इण्द्रियों के विषयों की ओर सन्त का जाना | चाह, इच्छा, अमिछाप, मनोरध +--चलाना ( घा० ) शक्ति प्रदर्शन करना, सामध्य दिखाना, सन चलाना ।--दान करना ( वा० ) अपराधी के च्प्ता करना --बड़कना ( बा० ) शक्लित होना, घबड़ाना ।-ड्ूव ज्ञाना ( वा० ) शे।कित होना, सुश्छित देला ।--रखना (वा० ) प्रसत्ञ करना; श्रन्‍्य के इच्छानुसार कास करना, इच्छापूतति करना, सवोरथ सिद्ध करना, बात रुख लेना ।-- से उतर जाया ( वा० ) अभ्रिय है। जाना, अनीप्सित (होना, चाह नहीं रहना। से मारता ( वा० ) बघ करना, जान से मारना, सार डाछना ।--करना ( वा० ) चाहता, इच्छा करता, श्रस्विकाप करना |--खेतल कर करना (वा० ) उत्साद से करना, असचछता से करना, किसी काम को साप्तध्य भर करया। --खोलकर कहना ( वा* ) स्पष्ट कहना; साफ खाफू कहना, निर्भय कहना, उत्साह से कहना [ +-पर ध्याना ( वा» ) कष्ट में पड़ना, आफत सें फैसना, अ्रनन्यग्रतिक द्वेना, किसी से लाचार ( २९७ ) ज्ञीतिया हो जाना |--घढ ज्ञांता ( वा ) अनुस्तादित होना, हताश द्वोेना |-त्वगना ( दा० ) भीत्ति करना, प्रेम होना +छागाना ( था० ) प्रेम लगाना, प्रणय उत्पन्न करना ।+--खेवा ( बा* ) मार डाख्ना १--मारना ( बा० ) निराश कराना मत तोड़ना ।-मितलाना ( घा० ) मित्रता करना ।में झाना (वा०) स्मरण आना । +-में ज्षल्त जाना ( बा० ) ईर्पा से दुःखित होना, कुड़ना (में ज्ञो आना (वा० ) आपत्ति से छुटकारा पाना, दुःख के अनन्तर सुखी द्वोना । भय का कारण दूर होने ले निर्भव दोना । +में घर करना ( का० ) हृदय को अपने श्रधीन करवा, अपना श्रेम दूसरे के हृदय में स्थापित करना (-- निकलता ( वा० ) सरना, मर जाना; बेक़॒छ द्वोचा, भय भीत होना, घबड़ाना ।--हारना ( बा० ) भ्रधीन हो जाना, ब्याकुछ होना, निराश हो जाना, धघड़ा कर काम द्ेइना, अजुत्साद्दी हो ज्ञाना (“हट जाना ( घा० ) सन दृट जाना, भेमत हट जाना, विरोध हो जाना, बदासीन दो जाया । ज्ञीआन दे० ( ३० ) जीवन । झोका तद्‌० ( ज्री० ) जीविरा, बुचि, बन्धान | ज्ोडगुराना दे० (क्रि०) सिक्रेड़ना, समेटना, सकुचित करना । औ,॥ीज्ञा ( ए० ) घढ़ी बहिन का पति | जीज्ी ( स्त्री० ) बड़ी पहन । फिराभव । औीत दे० (स्त्री०) जय, विजय, शन्रुपराजय, शत्रु- जीतना दे० ( क्रि० ) जयकरना, अपने अ्रधीन करना, चश करना, शन्रु को हराना | जीतव दे* ( एु० ) जीवन, जीना, खिन्दगी, स्थिति काल । [जितचैया । ज्ञीतचता तदु० ( घु० ) जयी, विजयी, जपमान, ज्ञीतवैया दे० (३० ) जेता, विजयी | ज्ञीता दे? ( बि० ) प्राणघारी, चेतन, जीता हुआ | जीति ( क्रि०) जीतकर जय प्राप्त करझे। ज्ञीतिया दे ( स्त्री० ) बचत विशेष, जीवस्पुन्रिका धत, आशिवन शुक्का श्रष्टमी का महालक्ष्मी का बच, यदद ञ्त प्रायः स्त्रियों सन्‍्ताव जीवित रहने के द्ेत्ु किया करती हैं। शा० पा०--झेस ज्ञीतू ज्ञीतू दे (पु ) ज्यी, विज्ञयी, योद्धा, लड़ाका, जितवेया । ज्ञीते जी दे” (वा०) ज्ञव तक जीता है,जीते रहने तक | ज्ञीन द० ( पु० ) चारजामा, काटी, घेडे की पीठ पर कसने फी चातु, खेगीर |--पोश ( पु० ) जीन के ऊपर का कपड़ा ।- सवारी ( स््री० ) घेडे की पीठ पर जीन रख कर सवार होन की क्रिया । जीना दे० (क्रि०) जीता रहना, जीवित रहना | ज्लीस दे० ( स्व्री० ) निद्वा, रखना, रसनस्व्रिय। “+चादना (था० ) ब्ाक्तायित होगा, उत्सुक होना, किप्ती के लिये श्रत्यन्त उसऋग्ठित दोना +-निकालना ( वा० ) यक जाना, श्राम्त द्वोबा, थकने से भ्रचेत हो ना ।--परूड़ना ( वा* ) येढने न देना, येत्ली बन्द करना, बात काटना, वाक्यों का देप दिखाना ।--बढ़ाना (वा०) चटोर होना द्वानि लाम का ध्यान न करके पाते ज्ञाना, निन्‍्दा करना, यकपक करना । ज्ञीमा ( पु० ) जीम के समान कोई चीज, ज्ञानवरों की चीमसारी विशेष ३ [बक्की, सुदफट । ज्ञीमारा दे* ( वि० ) चटोर, ले।भी, लुब्ध, बढ बादी, ज्ञीमी दे० (स्त्री०) जीम का मैठ साफू करने की वस्तु । जीमना दे* ( क्रि० ) मोजन करना, साना। जीमार दे* (ग्रु० ) घातक, नृशस, मारने वाला] ज्ञीमूत तत्‌० ( पु० ) मेघ, घादल, घन, घटा, इन्द्र, परचेंत, मोया, सुस्ता, सूर्य, पेषण कर्ता, श्राजी- विक्रा दाता | विराट की समा का एक पहलवान, दुशाई के पुत्र का नाम, शारम्त्ती द्वीप के पृ बे का नाम --चादन (पु०) (१) प्रसिद्ध स्माते पण्डित ये ग्यारइवी सदी क॑ प्रथम भाग में दत्पन्न हुए थे, इन्होंने मलुछ्द॒ति का भाप्य बनाया है| (२ ) शालियाइन राजा का पुत्र ।( ३ ) इस्द्ध । ( ४) नागानन्द नाटक का प्रसिद्ध नायक । ज्ञीयत द० (प०) जीवित, जीवते हुए, इस शब्द का > प्रयोग रामायण में किया गया है। [मिसाछा । ज्ञोरक तव्‌० (पु० ) जीरा, बणिऊ द्वग्य क्‍ ज्ञीरा तब॒० (पु०) जीरा,जीरक,स्वताम प्रसिद्ध मसाढा ज्ञोगं वद्‌० ( बि० ) पुराना, बूढ़ा, यूद्, जरा विशिष्ठ, परिपक्र, शजरीमूत, पाक विशिष्ट +--ता (स्थी०) हि ( शहद ) जझोवनेपाय अशक्तता, दुर्वेलता, दीवेल्य, निर्वेतवता -पेख्र (० ) फदा पुराना वद्धा, सदा गछा कपड़ा। ज्ोणि तत्‌" ( ख्री० ) नीर्णता, बृद्धावस्था, परिपाक/ पचाव, अद्धपार | जो्णोंद्धार तव॒० ( ४० ) पुरानी वस्तु्धषों की मरम्मत, जीएे का इद्धार, पुरानी पस्तुओ्रों को पुनः ध्ठी ऋण, घुन संस्कार, मरम्मत। ज्ञी़ दे० (सत्री०) धीमा रबर, मध्यम सवा, तानपूरा या सारड्री आदि का तार । ज्ञीच तत्‌० ( पु० ) प्राण, श्रात्मा, जीव, जिया, जी, प्राथघारी, चेतन, जानदार, अन्तु, प्राणी, बृहस्पति, देवगुर, विष्णु, अश्लेपा नछत्र, बकायन की पेड़ दान ( घु० ) अमयदान, प्राणदान ।--धारी (गु*) प्राणी, चेतन । [च्‌दजो(, सपेरा । ज्ञीवक तत« (छु० ) जीने घाला, पपणक, सेवक, ज्ञीवजानि तद्‌० (9० ) परमात्मा, इरवर, श्रनादि पुरुष, जीवों का भ्राश्नय, प्राणियों का भ्राधार । जीवगर तदू० ( पु० ) सूमों, वीर, पौढ़ा, निर्भव। ज्ञीवड़ा दे० ( घु० ) प्राणी, जन्तु, जानवर। ज्ञीवत्‌ तत॒० ( वि० ) बतंमाव, समीवि, चेतन! --पतिका (खी०) सघवा, जिसछा पढि जीता दवा ।-पिठृक (गु० ) जिश्षका पिता वर्तमान दे। । जीवन तव्‌० (५० ) [ जीव + भ्रनद्‌ ] जीविडा, जल, सक्‍खन, मजा, वायु, पुत्र, ईश्वर, गन्ना, प्राया धार ।--चरित, चरित्र (पु०) जीवन का हाढ | बढ धुरतक भिप्तमें किसी की मिन्दुगी का दाल द्टो --धन (६० ) जीवन का सर्वेश्व, प्राणा बार, म्राण* प्रिय ++भास ( पु०,) जीवन का भय, न जीने का डर ।--मूरि ( स्ती० ) सभीवनी नाम की पद यूदी, प्यारी, प्रायप्रिय ---सूते ( ४० ) जीते जी मरा, जीता हुझ्ला मी खत के समान ।>येति (३० ) रत्न विशेष, शरीर में प्राथ संचार करने वाढा पृद प्रद्यार का रक्त | (रिइना । ज्ञीवना तव्‌० ( स्त्री० ) मेदौपध, (क्रि०्) जीना, जीता जीवनी त्तव॒» ( स््री०) संजीवनी यूटी, जीवन घृत्तात्त, जीवन घटना का बृचान्त । उपाय । ज्ञोवनोपाय तद्‌० (पु०) उपजीविका, दृत्ति, जीने का ज्ञीवनापध ( २६६ 9 ज्ुज्फ नम ५2 न थम 3 कप 268 ज्ञीौवनौपध तत्‌० (घु० ) जिस घ्ौषध से मरे हुए | जुकाम, हुखाम दे० (घु० ) सरदी की बीमारी भिप्तमें भी जी जाते हैं, जीवन रक्षाक्वारी, जीवनापाय, अपजीविका, रजाबृत्ति | जीवन्त तद्‌० (बि०) जीता, जीवित, सचेत, जीवयुक्त ' जीवन्ती तत्‌* ( खी० ) सजीवन बूटी, जीव रहा फरने वाली सहाषध । जीवमन्दिर सत्‌० (पु० ) शरीर, देह, काय, तन । जीवन्पुक्क तव« ( वि* ) | जीवन + सुक्त) ] जीवन दशा ही में क्लानाजन की सडायता से बह्म साक्षात्कार, इस जन्‍म ही में संसार वन्धत से मुक्त महात्मा । जीवा तदू० (ख्री०) जीवन्ती, औपध विशेष, ज्या, घब्ुप की डोरी, जे। एक छोर से दूसरे छोर तक बेंधी रहती है, रोदा, जीविका, बाहूबच, मूमि, जीवन । जीवात्मा तव्‌* (पु०) आत्मा, प्राण, देही, जीच । ज्ञीचान्तक्क तत्‌० ( 9० ) जीवनाशन, जी मारनेवाढा, -बद्देलिया, व्याघ, घातक, कूर । ज्ञीवाघार (ए०) हृदय, आत्मा का आधार | ज्ञीविक्ना तब्‌० (स््री० ) दृत्ति, जीवने।पाय, बन्धान [ ज्ञीवित तत्‌» (पु०) जीवन, भायुष्य, आयु. चेतन | जीविता तत्‌० ( घु० ) जीने बाक्ा, सजीब, प्राण- चारी । ज्ञीवी तथ्‌० ( थि० ) जीवधारी, प्राणी, सजीबी | ज्ञीह, ज्ञीदा तद्‌० (स््री०) जीम, जिह्क, रसना, जुबान ! जुआ दे० (पु०) चूतक्रीडा, वाजी ल्वगा कर पता या कड़ी ढाठना, छुलकर्स, कप कर्म |--चो ९ (पु) औैखेबाज़, ठग ।““चोटी ( स्री० ) ठगी, धोखे- बाक्षी | ज्ञुआँ दे० (घ०) कीड़े जो सिर के बालों में रहते हैं, जूँ | जुआरा ( 9० ) ज्वारी, जुआ खेलने चाला । ज्ञुझरिदि ( छ० ) ज़ारी को, छ॒न्ना खेलने चाले को । जुआर-साटा तदु० (पु०) ज्वार भादा, नदी का बढ़ता घटना, यद्द समुद्र के निकटस्थ नदियों सें होता है । झुझआरि दे। ( ख्री० ) भ्रद्न विशेष, अगहन में होने बाला पुक प्रकार का अ्ज्न, जोन्दरी । कुआंरी दे" (छ० ) छग्मा खेलने बाला, यूसक्रीडा कर्ता, कपटी, घुलकारी । नाक बद्दती और सारा शरीर बेक्ाम रहता है। झुग तदु० ( घु० ) युग, बारद्, वर्ष की अ्रवधि, सत्य, त्रेता, द्वापर और कल्नि, ये चार युग, युगल, युग्म, जोड़ा, युक्ति । झुगत तद्‌० ( स्वी० ) युक्ति, चतुराई, अपने पछ के पुष्ट करने बाल्ली उपपत्ति, अचुभव की हुई सर्वमान्य बातें, अरमान, रीति । [ ज़गनी । झुगनी दे० ( स्त्री० ) खद्योत, ज्योति, रिशण, सग छुगनू दे? ( एु० ) ऋण्ठभूषण, आभूषण विशेष जो गल्ले में पदना जाता है, खथोत, पटबीजना । कुगत्त तदू० ( घु० ) जोड़ा, युगल, दे, युग्म, युग, दुहूँ। जझुगचत दे० (क्रि०) प्रतीक्षा करते, पालन करते, झासरा देखते, यज्ञ करते, परखते, निरखते, जोहते । झुगवना दे० ( क्रि० ) यक्ष या रद्या पू््रझ रखना | झ्ुगविधि त्त्‌० (स्त्री० ) दोनों श्रश्यार से, दोनों रीति से | झ्ुगबैया दे० (गु०) छुगवने वा, रक्धक, बचाने घाढला ज्ुगानज्ञुग तदू० ( वा० ) युयाजुयुग, कई वर्ष, बहुत चषे तऊ, बहुत दिनों तक । झुगाना दे० ( क्रि+ ) यत्ष करना, उपाय करना, रा करना, दुःख से उम्राएना, बचाना | ज्ुगालना दे० ( क्रि०) पुराना, पागुर करसा, रोसस्थ करना, एक बार चचा कर खाये हुए को पुनः निकाल कर चबाना, जले बैल आदि करते हैं । झुगात्वी दे- (खो ) पायुर, रोसन्‍थ, चवित्, चबंण। , ज्ुग़॒ुति दे० (स्वी० ) युक्ति, रीति, तरकीब, चतुराई, अनुमान | झुम॒प्सक ( ग॒ु०) ध्ययं दूसरों की निन्‍दा करने घाला। जुगुप्छा तत॒० ( छ० ) [ गुपू+सन््‌ + आरा | निन्‍दा, तिरस्कार, कुत्सा, ग्लानि, घृणा । झुगुप्लित कद॒० (गु०) [ एुप्‌ + सत्र + क्त ] निन्दित, सहिंत, घणित, तिरस्कृत । जुड़ दे" ( स्वी० ) उमज्ज, साहस, उत्पाद | झुड्जित दे० ( बि० ) जाति पतित, जाति बहिष्कृत | झुज्छु दे? (ए०) मयड्डूर, मूर्ति चिशेष, भयदूःर कसिपित सूचि, कल्रित भूत योनि ! झुज्फ ( स्री० ) युद्ध, बढ़ाई। जझ्ुकाऊ जुक्ताऊ दे० ( वि० ) युद सम्बन्धी, युद्द के छिपे, युद्ध की सामप्री, छडाफा, शूर, बीर ।--वाजा (५०) युद्ध & किये अग्तुत दोते का वाच विशेष, रण मेरी, योद्धाओें ओ उत्साद्वित करने वाला बाज़ा ॥ जुम्तार दे० (पु) छडघा, बीए, मठ, रणर्कुरा, शूर । जझुफावद दे ( ख्ली० ) युद्ध, समर, कलठइ, युद्ध के लिये इम्रडाव | झुमावना दे० ( क्रि०) मरश डालना, मरवा डालने के लिये उपदेश, भसदुपदेश, भव हे विरोध सडा करझे म!वा डाहसा, डा देना । ज्ञुद्॑ ( स्नी० ) जोड़ी, गुट, समूह, थोक ) छुटमा दे* ( कि० ) मिलना, छुड़ना, एकम्रित होना, इकट्ठा होना, लखना, लड़ने के लिये सामने झाना, सम्मोग करना, प्रउत्त होना । झुटाना दे० ( क्रि० ) जोड़ना, एकच्रित करना, मिद्ा रगा, जमाना, जमा करना, मिल्लाना । छदेया दे" ( थु० ) झट जाते पाक्ा, मिदने बाला, मिलने बाला, लद्ाका, लडने वाला | $ जुठारना दे ( फ्ि० ) जूडा करना, उब्टिष्ट फाना। झुठारि दे* (०) जड़ा करहे, उच्धिष्ट करके । जुश्ना दे* ( फ्रिग ) मित्रना, मिल जाना, शुटमाना, सदना, एकत्रित होना ) जुदा देन (६० ) युग्म, जोडा। [जोड़ने का काये ! जुड्ाई देन (प्रो) जोइने की मजूरी, जोडगे का दम, झुडाना दे* ( क्रिए ) विश्वाम करना, थकावर डतारना, दण्दाना, रण्डा द्वाना | [ छठके, यमज सम्तान । झुड़िया, पुड्द्या दे*( घु० ) पक साथ इतना के छुताई दे* ( छी० ) रेत जोतने का काम, चास, जेतना, खेत जोनने की मजूरी । [ कर बनवाना । छताना दे० ( रि० ) प्रेत जोतवाना, पेव दो जोत छुतियाना दे* (क्िि० ) जूतों से मारता, अग्रतिष्ठा काना, पनह्टी मारना | झुत्य दे* ( इ० ) पूष, समूह । छुद्दीं दे* ( वि० ) अछग, छूपक, मिद्च । जुदाई देण ( स्री+ ) विधेड़, विपेग । सदृ« ( पुर ) युद, संग्राम, समर, छडाई, रण । जुधिष्ठिर रुदु* (४० ) भुधिष्ठिस, स्वनाम प्रसिद अम्दृदंशीप राजा, यइ भपदी सतद्यवादिता के कारण ( ३०० ) ज्ञहार देव चरित्र हो गये हैं | पाण्डवों में यद्वी सर से बड़े थे। ( देपे युधिष्टि। ) ! झुन दे० (पु ) समय, छाल, अदसर, मौका | झुन्दरों दे० (स्री० ) जुधाए, अध्न विरोप | [अ्रकाश | झुर्दाई दे० (पु०) चन्द्रमा | (ख्वी०) चांदनी, चर्दिका झुन्देया दें० ( खी० ) चांदनी, ताग, तारढा, धन्द्रमा। झुबान दे० (द्वी०) जम, मुफ्त ।--ी (गु० ) मौफिक, जञनी । छुमना दे* (4०) खेत में खाद डालने कीं क्रिया विशेष । झुमला दे (गु०) सब, सम्पूर्ण (पु०) पूण्णवाक्य । सझुरना दै* ( क्रि० ) पुकला ड्लोगा, मिंठ जाना | जुर्माना, झुरगना दे* ( ए० ) भर्थदण्ड, धतदृण्ड | झुदभा दे* (स्वी०) मार्यों, पत्री, खो, मेहराख, मोर । झुरे दे० (क्रि०) मिक्षे, प्राप्त दो, रब्ध हो, मिल माप । झ्ुम दे० ( पु० ) दाप, भपराध ) झुल देन ( ३० ) बढ़ावा, इसाह देना, छल, कपद झुलना दे० ( क्रि० ) भेंट करता, मिलता । घुलादा दे* ( पु० ) झुसतमान कपड़े घुनते वादा । पक कीड़ा जो पादी पर बै।ता है | [घामी सवारी। सुलूस देन ( ६० ) किसी वश्पाद का समारोद, पूम- झुल्फ ( ख्री० ) सिर के लगे बाल । जुढम ( ४० ) भ्रद्माचार, अन्याय । झुकजाव (४० ) रेचत, दुस्तावर दवाई । खुबती तदू० ( ख््री० ) युवती, युवा स्त्री, जवान पथरी । झुब॒यज़ तदू० ( धु० ) युवराज, राजकुमार, राज्य का अधिकारी, राजपुश्र, ठसाजां | [तस्पा। झुवा तद्‌ू० (धु० ) थुवा, युवादस्था, प्राप्त, ँवान, जुबानी दे० ( १० ) मौखिक । झुवार दे० ( ए० ) भद्य विशेष, जुम्दरी । झुवारी दे० (६० ) झधारी, छक्बी, कपटी | ज्ुहावा ( क्रि० ) एकत्र करता | जद्दाएदे० (३० ) युद्धार्थ यात्रा की विदाई, चीरों के अमिवादन छी रीति, युद्ध का अमिवादुन, राजपूत के प्रणाम करने छी शीक्षी, प्रथाम, नमछाए। दृण्दवत्त, पाछझागन, यपा-- आप आप करदि जञोहारू, यद्द यप्तन्त घब् कहँ पयोहारू। +--प्रधावद ! झुद्दारना ( ३०१ ) लेठरा निता__>हह.........त झुद्दारना दे० (स्त्री०) किली दूसरे से सहायदा लेना, | जूती दे० ( ख्री० ) सुन्दर और छोटा जूता, खूबसूरत किसी का पुहसान उठाना । झुद्दी तद्‌* (स्त्री० ) एक प्रकार का फूबदा€ माड़, जिसमें सफेद सुगन्धिव फूल बरसात में लगते हैं । जुद्दोता तच्‌० ( घु० ) आहुति देने चाहा । जू दे० ( अ्र० ) सम्मान सूचक, माननीयों के आदर प्रदर्शव के लिये यह शब्द उमक्े नाम के अन्त में जोड़ा जाता है ।- यथा: श्रीकृष्णचन्ध्र जू श्री रामचन्द्र ्जूः इत्यादि । तस्‌» ( स्त्री० ) सरस्वती, वायुमण्दल', चैल या घोड़े के मस्तक पर का दीका | जूझ दे० (९०) छुपा, घृत, पाशक्रीडा । जूआहठ देन ( ० ) जश्नढ़, जुश्रा, छकड़ी की बनी हुईं एऋ बस्तु के कहते हैं, जो बैलों के कन्धे पर रखी ज्ञाती है, जिसमें इल बाँध कर खेत जोता जाता है । जूआरी दे० ( पु० ) छच्ा खेलने बारा, बूतकत्ते ज्ञुएु का खिलाड़ी, छुली, कपदी । जूआर दे० ( ७० ) समुद्र का जल उफनाना, समुद्र का जख बढ़ता, समुद्न में उफ़ान आना, चन्द्रमा की पूर्ण छद्धि दोने पर समुद्र में उफान आता है । ज्ू दे० ( स्त्री० ) चिल्ला, चीलड़, एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो कपड़ों के मैल से उत्पन्न होता है | जूक दे: ( ४० ) युद्ध, लड़ाई, संग्राम ।--मेरना (दा०) क्षढ़ कर मरता) जान दे देना, प्राण देना | जूमना दे० (क्रि० ) छड़ना, छढ़ाई करना, मरना, सरने के समान कष्ट उठाना | [ घस्च्र जद दे" ( प० ) सम, लट, जटा, पटसन, पटसनिया जूठ दे ० ( पु० ) भोजद से बचा हुश्रा, उच्छिष्द | जूठन दे० (पु०) भोजन का श्रवशेष, जूहा, युर पिता आदि सान्यों का जूड़ा | हद ज्ूठा दे” ( ४० ) खाया हुआ भोजन, मुँह से छुई हुई बस्तु, भोजन करन धे बचा हुआ अन्न । ज्ञुड़ दे० ( घु० ) शीतक, ठंढा । जूड़ा दे" ( ख्री० ) देघे हुए वाल, खोपा । जूड़ी दे० ( पु० ) झुबर विशेष, शीतदूवर, कम्पज्वर जूता दे० (घु० ) पगरखी, पनही, पैर सें पदनने की चर्म पाहुका, जूती --खोर ( गु० ) निलुज्ज, जद्े खाने चाला। जूता, स्त्रियों के पहनने की छोटी जूती ।- पेज्ञार सत्री०) इंटा, बखेढ़ा, सारपीट, ऋगड़ा । जूथ तद्‌० (० ) यूथ, दल, झुण्ड, समूह, खेवा। - प ( 3० ) यूथरति, लेवाध्यक्ष, दुल का नायक, फौज का अफसर | जून दे० ( पु० ) सप्रय, छाल, बेर, चेहा, अवसर ऑँगरेज़ी वर्ष का छठर्वी सास । .[ (बि०) पुराना जूना दे? ( घु० ) घास का बना रस्सा, चीड़ा, गेडरी | जूप तदू० ( घु० ) यूप, ऊम्ना, यज्ञस्तम्प । जूपी दे० ( ग्रु० ) छुम्रारी । ज्ूमना ( क्रि० ) पुकत्रित होना, जमा होना। जूरना ( क्रि० ) जोड़ता, सिज्ाना | [ खरा । जूरा दे० ( पु० ) बालों की या वँधे हुए बाल, जूड़ा, जूरो दे- ( ख्री० ) समूढ़, कुष्ड, दछ, यथा-- « बाघ तथा थआानी जहाँ सूरी, ज्यूरी श्राय सव सिंदछ परी ” “-पक्मावत्त | छुट्टी, बंधे हुए नये कछले, एछ प्रकार का पौधा, एक श्रकार के पश्चु । जूल दे० ( प्रृ० ) परेह, कढी, रोग के लिये पथ्प | जूह, जूहा दे” ( ३० ) समूह, जूआ, यूय, सेना, पद्मा- बत में इस शाब्द का स्थत्रीलिड माना है, यधा-- ५ हत्धि की जूह आय अंग सारी, हजुमत तथे छंगूर पंलारी ? |- पद्मावत | जूही दच्‌० ( पु० ) यूथिक, पुष्ष विशेष । जुस्भण तत्‌० (9० ) [ जुम्म + भनट | जंभाई, श्रम तोड़ता, मरोड़ना । ज्ञ्म्भा रे नाई, जॉस्मका । तत्‌० (ज्री०) मुखविकाश जैभाई, जुम्मण । जे दे० ( सबे० ) जो, जो लेग, सब ज्ञेई दे० जो काई, मोजन करके, खाकर । ज्ञेऊ दे० जो काई भी, भनिद्धांरित मनुष्य । जेद दे" ( छु० ) राशि, ढेर | ज्ञेठ तद्‌५ ( घु० ) ज्पेष्ट, बढ़ा, अम्ज, पती का घढ़ा भाई, ज्येष्ड सद्दीना, जेठ माल । , औठरा तदु० (४० ) स्मेंप्ड, बढ़ा, पहलौटा, प्रथम उत्पन्न जुत्र, जेठा, ज्वेष्ठ, अ्रप्नज | जेठा ( ३०२ ) लैसी 2 न न पन न नननन+ मनन पतन पपतनन मनन तन जेटा तद्‌" ( पु० ) बढ़ा, जेठ, ज्येष पदलौट, प्रथम | ले दे० ( स्त्री० ) जय, जीत, विजय | जैफाए करना उत्पन्न | मै दी स्त्री । ज्ञैठानी तद्‌० ( खी० ) जेठ की स्त्री, पति के बडे भाई जैठी तद्‌" (ख्तरी ०) बडी, श्रेष्ठ, प्रधानता ।--मधु (३०) ओ।पधि विशेष, एक प्रकार का पौधा, मुल्हटी । ज्ैैठौत तदु० ( पु० ) ज्येष्ठोष्पन्न, जेढ का पुत्र, पति के बडे भाई का पुत्र । ज्ञेता दै० ( वि० ) जितना, परिमाण और संय्याये चाची, तद्‌० ( घु० ) जीतने वाह, विजयी | ज्ेती ( वि* ) जितना । [खाते, मोजन करते । ज्ञेते ( सवे७ ) मिवने, जोधे,, जोबढ़, ( क्रि०्वि० ) ज्ेव दे० ( पु० ) पल्तीता, पाऊेट,, थैली, कपडे में ठगी हुई घैली ।--कठ या कतरा ( गु० ) जेब काटने बाल, चे?र, उचका, गिरदकट |--सर्चे ( घु० ) ऊपरी या निभर का सचे। [ जमाने का साधन। ज्ञेमन तद्‌० ( पु५ ) भोजन करना, खाना, ज्ोरन, दद्दी जेया दे* ( वि" ) जीत जञाने योग्य, जीने के येग्य | ज्ञेर दे० ( पु० ) गर्म बन्धन, जरायु, खेढ़ी, मिली | “बंद ( ए० ) घोडे की मे/दरी में का क्पढ़ा। +-गर (गु०) बतिप्रस्त, ग्रापदूप्रस्त | ज्ेेज़ दे* ( पु० ) कारागार, बदा घर, लानघर, बअधुओ। के रदने का घर, येंघुओं ४ी ध्णि, पदिक्ता “-पाना (१० ) कारासार देंघनात्थय, यन्दीयृह। जैवड़ा देन ( धु० ) स्पा, डोर । जेयाड़ि या जेवड़ी दे० (स्प्री५) रस्सी, डोरी छे।ा ग्स्पा। ज्ञेवना तत्‌० ( फ्रि० ) खाना) भोजन करना | ज्ञेयनार तदू० ( पु० ) पगत का मोजन, दावत, सोज । ज्ञेपरी दे० ( स्प्रीं० ) रस्सी, ढोरी, रसरी । ज्ञेप्ठ ( पु० ) झेठ का मद्दीना । जेप्ठा [ सत्रो० ) श्येष्ठा, नक्तत्त विशेष । [पक घट़े। ज्ेहड् दे ( स्प्री० ) तक ऊपर रखे पानी से मरे कई जझेहन ( घु० ) पारणशक्ति, बुद्धि । ज्लेददग देन (चु० ) मटकी, मिट्दी का पात्र, 'यछदझ्कार विशेष, #िश्रियों के पुक गइने का नाम | ज्ेददल ( पु० ) जेट, कारागार ।+-ख्वाना (पु) जेटलाना । जेदि दे* ( सर्व" ) जिसझे, जिसने, जिसके | जै दे० ( वि० ) मिदना, धैस्या और परिमाणयार दादी (वा० ) जय शब्द का उच्चारण पू्षेक थ्राशीवांद देना, श्रम्युदय चाहना, मड्रठ सनाना | ज्ैगीपब्य तत्‌० ( घु० ) ऋषि विशेष, यह प्रसिद्ध ऋषि श्रसित देव के गुर थे | पहिले भ्रसित देवक नामक एक ऋषि शुद्दस्थ के धर्मों का पालन करते हुए आदित्यतीर्थ पर वास करते थे। कुछ दिनों बाद जैगीपब्य मुनि भी वहीं आये और उन्होंत येगास्यास हे द्वारा सिद्धि आप्त की । महर्षि देवल लैगीपन्य की पे!गसिद्धि देस उनझे शिष्य दो गये । जैत दे० ( पु० ) बृक्त विशेष, रागिनी विशेष । लेतून ( ए५० ) ृष विशेष । झैन्न ( गु० ) पारा ( वि० ) विजयी । जैन तबु० ( पु० ) मिनके धमम को मानने वाला, जिनके बताये घमं के ग्नुसार चढने घाला, जित धर्मी। झैनी तत्‌० ( वि० ) जैन मत वाछा, श्रावरु, सराददी, जिनोपासक । [माढा, जीत की साझा । लैप्राज्त या अमाला तदू० (स्ती०) जपमाल्य, स्वयख्बर झमिन त4० ( ६० ) सुनि विशेष, ग्रसिद दिन्दू दर्शन प्रणेता, इनके बनाये दर्शन का नाम पूर्व मीर्मासा है। इस दृ्शन के मैमिनि दर्शन भी कहते हैं। आम्तिक पढदर्शनों के श्रन्तगंत मीमाँप़ा दर्शन भी है! श्रुति श्र स्टति का जद विरोध है, उनका विचार इस दर्शन में किया गया दै | यह मत्न रूप ही देवता मानते हैं। इनछे मत से सृष्टि अनादि है, इैश्वा सच्चा झे भ्रम्तित्व ग्रादि क उपर इसमें कुछ भी विचार नहीं किया गया है। पद हेप्य ह्वैपायन ध्यास के शिच्य थे | औमिनी में सामरेद ओऔर मद्दामारत इनसे पढ़े थे | मीर्मापता देन के अ्ञीरिक्त एक संद्विता भी इस्दोंने बनाई है, मिसदा नाम जैमिनी भारत है | सुमस्ठ चार सुश्शन नाम के इनके दो पुत्र थे। इनझे दे।नों पृश्न अनुमप्ी विद्वानू थे। इनझे पुत्रों ने भी बेद की संद्षिताएँ बनाई हैं। [द पिता । झैयट तद्‌० (पु०) मद्बामाध्य पर टीका करने वान्ने कैपट लैवात्रिक ( वु० ) चद्धमा। कपूर ( गु० ) दीघेजीदी । ज्ञसा दे* ( वि० ) यथा, मिस प्रकार: उसमानयादी | जैसी (वि*) “ जैसा ” का स्थ्रीजिक | जैसे ( ३०३ ) जाति जैसे ( क्रि० वि० ) यथा, जिप्त श्रकार से,जिप्त ढंग से । जैहें दे० (क्रि०) जायेंगे, यसन करेंगे। जों दे* ( सवे० ) कोई, जोन, यदि, सम्बन्धार्थछ | जोई ( श्बे० ) जो, जो कोई ( क्रि० ) देखी, देखकर ज्ञों दे० ( कि० ) ज्यों, जैसे । [जबजन्तु । ज्ञॉक दे* ( 8० ) जलौका, रक्तपान करने वाहू एक जोंकर दे० ( भ्र० ) जिस प्रकार, जैसा, याइश । ज्ञोघरी (स्त्री०) छलोदी सकाई । ज्लेखिया ( स्त्री० ) चांदनी, जुन्हइया । ज्ोंहीं दे० (अ० ) जिम्त समय में, जिस काल में, जमी । ज्ञोख दे० ( स्त्री०) तौज्, साप, नाप, परिमाण, वजन) जोखना दे* (क्रि०) तौलना। त्तौलू करना, वजन करना, नापना, सापना | ज्ञोजा ( इ० ) लेखा, हिलाब | जोखिम दे० (स्त्री० ) दायिव. हफनि की आशक्ला, विपत्ति लाने चाली वस्तु, जैले रुपये, जेचर, सोना, चांद्री आदि |-डठाना (वा ) दायित्व लेना, रक्षा का मार ग्रह करना, साहस, किसी सपक्ूर काम करते को उत्साहित हेना | जोखों दे० ( स्त्री० ) जोखिम, घाटा, बीमा । जोग तद्‌० ( पु० ) बेग, चित्त की छुत्तियों को बाहरी चस्तुओं से हटाना, चित्त का अ्रन्‍्तमुंख करना, ज्ञान प्राप्त करने का साधन, सपवात्‌ के उचित भक्त बनने का उपाय, मेल, मिंलाप, अच्छा समूह । ग्रह्टें का मेल, तप | ( घु० ) बेग्य, छायइ--माया ( स्त्री० ) मरवाद्‌ की एक शक्ति! के ज्ञोगड़ा दे” ( ४० ) पासखण्डी, '! घर की जोगी जोगड़ा शान गाव का सिद्ध । जोगबत दे* ( क्रि० ) परीक्षा करते, रखते, रक्ता करते । जोगसाधन या जोपाभ्यास तद्‌* ( घु० ) येपास्थास, ये“साधन, येग की क्रियाशों का साधन करता | जोगी तदू० ( ६० ) येगयी, जोगाभ्याली, महात्मा ज्ञोगिनी तदू० ( स्त्री० ) ये/गिदो, देवी की सहचरी येगियों की स्हरे ( देखे येगिनी ) । जझोगिया दे? ( छ० ) जोगी या संन्यासियों का रहा, जोगिया रंग, गैरिक, एक रागिनी विशेष | ज्ञोगी ( प० ) येगी, योगाम्यासी ॥“श्वर ( घु० ) सिद्ध, तपस्ची । जोमीड़ा दे० ( छ० ) एुक प्रकार की तुश्बन्दी! जोगेश्वर तदु० ( पु० ) येगगियों के उपास्य देव, भावान्‌ नारायण, श्रोकृष्ण, शिव [श्रेष्ठ ज्ञोग्य तद॒० (बि० ) योग्य, अच्छा, उत्तम, समर्थ, ज्ञाज्ञन तदु० ( ३०) येजन, चार कोस का साप विशेष | ज्ोद दे० ( $० ) जोड़ा, साथी, सड्ी, सहचर | ज्ोठा दे० ( इ० ) बरावरी का, तुल्य, समान, साथी सहचर, जोड़ी, दोनों । [ मीज्ञान | ज्ञोइ बे० ( घु० ) मेल, अन्यि; जोड़ाई, गांठ, गोद, जोड़ती दे० ( ख्वी५ ) लेखा, गणित, हिसाब, गिनती, संख्या ॥ जेड्न दे० (9० ) जामन, सोद्दाया । ज्ञेडड़ना दे० ( क्रि० ) मिलाना, मिन्नाव करना, एकचित करना, गांठिया, गठि छगाना, पैवन्द छमाना । गणन करना, सह्लूछन करना, घन बटोरना, छगाना, सटाना, चिपटाना, जोड़ देना । जोड़वाँ ( छ० ) यप्ज, दो! बालक पुक ही साय उत्पन्न हुए हो । जोड़ा दे० ( $० ) बुग्म, युगक, खी पुरुष, जूना, एक बार पहनने येगग्य कपड़े ! [ मजूरी । ज्ञोड़ाई ए० ( स्री० ) जोड़ाई का क्ास, जोड़ने की ज्ञोड़ी पु० ( स्तौ० ) दो, शुगल । ज्ञोडू ( स्ली० ) ब्येख, स्री, औरत । ज्ञोत तद्‌० ( ७० ) रस्सी या चसड़े दा तस्मा, जिससे बैज्ञ या घोड़ा, गाड़ी या हल में जोता ज्ञाता है । तराजू के पलड़ों की रस्सी | बढ जमीन जो किल्ली आपखासी का जोतने बोने के मिली हो। ( खी० ) ज्योति, प्रकाश, किरय | जोतना दे० (क्रि० ) हछ से जोतना, चासना, चास करना, हल चलना, दल से खेत को वोने येस्य बनाना | गाड़ी हल श्रादि चछाने को उसमें घोड़ों या बेछों के लगाना । [थीछ । जोतमान तदु* ( ग्॒ु० ) ज्योतिष्मात्‌, चमकदार, प्रकाश* ज्ोदार दे (घ० ) हरखाहा, इजवाद, जोतने बश्ला चासा । जोति तदू० ( स्त्री० ) घह घी का दीपक जिसमें खड़ी दत्ती जिसे फूछबत्ती मी कहते हैं, जलाई जाती है और जो किसी देवी या देवता के ताम पर ज़काया ज्ञातिप जाता है | -स्यहप (प० ) मगवानू, लय, येगिया के ध्येष श्रात्मा, आाप्मा का प्रकाश, जिपका छय येगी ध्यान करते हैं । ज्ञोतिष तदु० (१०) अइनचत्र आदि के विषय की बातें बताने वात्य शास्त्र, काछ ज्ञान शाख, इसछे प्रधा- नन फलित औएर गणित ये दो भेद हैं, नज्ूूव । ज्ञोतिपी तद्‌० ( गु० ) दैवक्ष, ज्योतिषी, शास्त्रवेत्ता, गखणितज्ञ, ज्योतिष विद्या जानने चाढा | ज्ञोती दे० ( ख्रो० ) तराजू के पनदे बाँधने की रस्सी, जुश्गाठ, दच ज्ञोतने वात्ची रधसी, जोन । ज्ञोत्त्ना तद्‌० ( ख्री० ) ज्योत्स्ना, चन्द्रिकायुक्त रात्रि, प्रकाशयुक्त रात, बमेज्नी रात, चन्द्रिका, चादिनी, भ्रच्चाश । [ उज्ञेन्नी रात । ज्ञोन्स्नी तदु० ( स्रौ० ) रात्रि, रात, शुर्धाउ डी रात, जोधन तद्‌ ( पु ) भ्रायोघत, लड़ाई, संप्राम, समर । ज्ञीथा तदु० ( पु० ) मेघघा, चीर, लडाका, छडनेवाल्या, मठ, सेना का सित्राद्दी | झीनराज़ तदू० (पु०) कारमीर के विष्यात ऐतिहासिक । पग्डित, काश्मीर के एक मात्र इतिदास राजतरब्िणी के ये कर्ता हैं | करदय राजवाह्िणी को पूरी नहीं कर से थे, उनझ़े धनाने का शेपमाग पण्डित जोन- राज ने पूरा किया, कक्दण ने १३४८ ३० में राज सरद्विणी में छिख़ा है कि पण्द्ित जोनराज मदा- शव, ३२ सैद॒र्‌ में राजतरञ्षियी बदाकर शिवस्तायुज्य प्राप्त हुए । इसी शराघार पर यढ़ बात निश्चित हुई है कि जोनराज का समय १४ वीं सदी है | इनकी बनाई रानतरहिणी दूसरी राजताहिियी के नाम से प्रसिद्ध है। भारविक्ृत अस्थ की टीडा भी इन्दोंने बनाई थी | इनझ शिष्य क। नाप्त श्रीवर पण्षित था, इन्होंने, १४ वीं और १२ वो सदी के मध्य में तीसरी राजतरह्षिणी बनाई है| ज्ञोनि या जानी तद्‌» ( खो० ) येकनि, स्त्री का विशेष चिन्ह, भंग, डश्पत्ति स्थान, उदूयम स्थान, आाइर, खान, कारण, दतु, जाति, शरीर ज्ञोग्द दे” ( ६० ) चन्द्रमा, चाँदनी | ज्ञोन्दरी ( स्थ्रो० ) ब्वार। झोन्द्राई ( स्प्री० ) चाद्वमा । ज्ञोपे ( अ« ) यदि, घथपि। ( रे०४ ) जरा ज्ञोवन तदू० ( पु० ) यौवन, युवावम्धा, तरणाई, जवानी, स्वन, पयोधर, छाती, चेँची | ज्ञोबचनवर्तती तदु० ( स्त्री० ) यौवनबती, युवती, तरुथी, युवावस्थावली स्त्री, युवा स्त्री, जवान स्त्री। ज्ञोवना, जोवनवा तदू० (घ० ) जोन, यौवन) तारण्य | [ कटिस्विनी । ज्ञोय, जोर तदू्‌» ( स्री5 ) जाया, मार्या, पी, स्त्री, जोर ( प० ) ताकत, बल, जोटा, संगी | झोरणोर ( पु० ) प्रबल्ता, भलद्यधिक । जोरदार ( वि* ) बलवान, ताक्तवा | ज्ोराजोरी ( स्त्री० ) बन्नपूव 5 । ज्ञोरावर ( गु० ) बनवान्‌। ज्ञोरू ( स्त्री० ) स्प्री । जोरों दे० ( स्त्री० ) जोढा, जोटी । [ ठगी । ज्ञोल्ा दे* ( पु० ) कपट, छल, धोछा, धृत्तता, ठगाई, ज्ञायत दे० ( क्रि० ) अभिद्धाप करते, चाहते, देखते । ज्ञेवना दे* ( फ्रि० ) देखना, ताकना, खोजना, द्वैँढना, अनुसन्धान करना, चितवना । [मार्यां, कामिनी । ज्लापित्‌ तत्‌० (स्प्री० ) येपित, सीमन्तिनी, स्त्री, ज्ञापी, जासी दे० (पु० ) ज्योतिषी, ज्योति शाख- चेत्ता, दैवश | ज्ञाहना दे० ( क्रि० ) वाद देखना, प्रतीच्षा करना; ठाकना, खोजना, हूँढना, पता छगाना, मालूम करना, अनुसस्धान ऋरना | ज्ञेद्ार ( पु ) प्रयाम, रामराम | ज्ञादो दे० (वि०) खोजी, दृढवैवा, श्रमुपन्‍्धानी | जोदायना ( कि ) प्रयाम करना) ज्ञों दे* (१०) जिस प्रद्यर से, जो, यदि, जब “लग ( भ्र० ) जबतक, जिस समय तक, जितनी देर सक।-लों ( भ्र० ) ज्बतक | [कुवाच्य कदना । झोकना देन ९ क्लि० ) याली देना, बहता, बड़बइाना, ज्ञौं तद॒० ( धु० )यब, अश्नविशेष, स्वानामप्रसिद भरष्ता जोन द० ( स्व० ) जो, मिप । जौतुक ( पु० ) दर्ढेज, दपजा। [ट्सव का भोज । ज्ञौनार दे? (१० ) जेवनार, मोजद, भोज खाना, ज्ञौपे ( ऋ० ) अगर, यदि । जौरा ( पु ) बह भद्न जो गुदद॒त्त सांग नाई बारी को काम की मजदूरी में देते है । जआलाई औलाई (स्त्री०) ओगरेज़ी चर्ष के सातवें मास का नाम [ जौहर ( घु० ) रतन, तत्व। सारांश, उत्तमता, खूबी, शस्चों की भेद, राजपूर्तों का ुद्दारघत ) जौहरी दे० ( घ० ) रक्तविक्रेता, रलों के परणने वाक्षा, गुण ग्राहक १ ज्ञ तत्‌० ( एु० ) बुध, पण्डित, बह्मा, मड्ीसूत, मश्नल, ( वि० ) श्रभिज्ञ, विश्ग्घ, चतुर | ज्ञात तत्‌० ( बि० ) [ ज्ञ+क्त ] छृतज्ञान, जाना हुआ, बिदित, प्रतीत, अवगत [--सार ( ॥० ) विदित, सालूम | -सिद्धान्त (१० ) शास्बतत्वज्ष, शास्त्र का यधार्थ सम जानने चाछा ।--योवना (स्त्री०) नायिक्ना विशेष जिसे अपने यौवन का छान हो | 'ज्ञातत्य तत्‌० ( स्त्री०) [ज्ञा+तब्य | ज्ञान का विषय, ज्ञानमे योग्य, श्रवगन्तन्य, घोध्य, जेय । ज्ञाता तव॒० (१५ ) [ ज्ञा+-तन्‌ ] ज्ञान्शील, बोद्धा, ज्ञान प्राप्त, जानने वाला, जानकार | ज्ञाति तव्‌० ( घु० ) सपिण्ड, भाई बन्धु, कुट् स्व, परिं- बार, चाम्घव | ह ज्ञान तत० (छु० ) [ ज्ञा+प्रनद्‌ | बोध, चेतन्य, खचेतनता, बुद्धि, अनुमान, अबगम, श्रात्मा का एक शझुण विशेष, समझ ])--काण्ड (छु० ) वेद का एक काण्ड जिसमें ज्ञान भ्राप्त करने की रीति है, जिसमें उपनिपद्‌ आदि हैं ।-गस्य ( वि० ) ज्षेय, ज्ञातब्य, ज्ञान की सहायत्य से जानने योग्य । +-द्‌ ( वि० ) ज्ञानदाता, जग्म देने चाल, द्विता- हित समक्काने घाला ।--दीप ( घु० ) ज्ञान रूप दीप, ज्ञान का प्रकाश, जिससे अज्ञान दूर देता है |-पूर्चवक ( वि० ) सज्ञान, छान के सहित, जानकर, समझकर ।--बवान ( छु० ) ज्ञानवान्‌, पण्डित, प्राज्ञ, विचक्षण --त्रापी (स्त्री०) काशी के पक तीधे का नाम, कहते हैं दण्ड प्रकृति, घर्म- ब्रीही, सुदृम्मद ग़़ोरी जिस समय काशी के मन्दिरों को तोड़ फोड़ कर भारत का घन लूट रहा था, उस समय काशी के प्रधान देवता विश्वता्थज्ी मन्दिर छोड़ एक कूप में छूद गये | विध्वनाथ सन्दिर के स्थान ही पर मसजिंद बनी हुई पूर्व घटना का स्मारक हो रही हैं |--विहीन ( बि० ) छ्वानह्दीन, ज्ञात्त रहित, मुठ, मुर्ख, अज्षान !-मय ( बि० ) ( देश४ ) | ज्यातिरिद्भधण ज्ञानविशिष्ठ, झ्ानमय, ज्ञानयुक्त, छ्ानी. शाजवान्‌। +सार्ग (छ० ) निद्नच्तिमार्ग,, उपन्िषदों का सनन, ज्ञानशभ्यास (--सूत्त ( ए० ) सत्यज्ञान, ज्ञान जनित, ज्ञानोपचन्न । ज्ञानी दत्‌० ( वि० ) [ ज्ञान + इन्‌ | बोद्धा, शानयुक्त, बुद्धिमान, अश्ष; (ए०) दैवज्ञ, महाप्राक्ष, बरह्मवेत्ता | ज्ञानेन्द्रिय दद० (स्ली० ) [ ज्ञान +इन्द्रिय ] जिन इन्द्ियों से ज्ञान होता है, बुद्धि, मन, चछ्, श्रोन्न, घ्राण, जिह्ना, व्वकू | [ जनाना | ज्ञापन तव्‌० (गु० ) [ज्ञा+णिच्‌+ यक्कू ] बेधन, ज्ञापित तद॒० (ग्रु० ) [ ज्ञा+णिच्‌+ऊ ] पिज्ञापित, जनाया, बिदित किया, मालूम कराया । ज्लेंय तच्‌० ( वि० ) [ ज्ञा + य | बोघगस्य, जानने योग्य, ज्ञानने के उपयोगी | ज्या तब० ( सत्री० ) माता, मा, जननी, घ्थिवी, रोदा, घह्डुप का चिल्ला ।--घोप (० ) धह्डप का सट्टूसर, धनुष का शब्द ज्याद्तो ( खी० ) अधिकता, बहुतायत | ज्यादा ( छु० ) बहुत, अधिक | ित्रण करना | ज्यानों दे० ( क्रि० ) जिल्लाना, पालवा, पेःखना, ज्यामिित ( ख्ो० ) छेतगणित, रेखागणित | ज्यायान तत्‌० ( बि० ) [ छुद्ध + ईंचल ] श्रग्मज, बढ़ा, जेढा, ज्येष्ठ, प्रधान, अतीक्चद्ध, चंर्षीयान्‌ । ज्येछ्ठ तघ्‌० ( वि० ) [बुद्ध + ईछ] श्रेष्ठ, अतिदूद्ध । (छ०) जेछपास, इस महीने की पूर्णिमा का ज्ये्ठा नक्षत्र होता हैं और पूर्ण चन्धरमा हसी नज्न्न के पास रहता दै ।--तात ( पु० ) पिता का बढ़ा भाई । ज्येष्ठा तव॒॑० ( ख्री० ) नछच्न विशेष, अठोरहर्या नजन्न | ज्येछाश्रम तच्‌० ( छु० ) [ ज्वेष्ठ + श्राक्षम ] गाहस्थ्य, सृहस्थाक्षस, दूसरा आश्रम --+ी ( छु० ) गृहस्थ, शगूहस्थाश्नमी, सूंही । ज्यों ( क्रि० थि० ) जिस प्रकार, जैसे | [अपरिवर्तित । ज्यों का ज्यों दे० ( ऋ० ) यघारे, ठीक, चैला दी, उ्योति+ तव्‌० ( स्त्री० ) दृष्टि, नक्षन्न, अकाश, दीछि, उन्नाछा, चमक; विष्णु, अप्नि, सूर्य, मेथी (--शाख् ( छु० ) अदद, राशि, नक्षत्र आदि की दिया, खगेलछ विद्या, ज्योतिष । ज्योविरिड्रण तत्‌० ( पु५ ) जगन्‌, खब्योत | शा० पा७--दे£ ... चद्‌० ( पु» ) [ व्योविर 4 गण ] झाकाश- छत पदार्थ । ज्योतिर्विंद सत््‌० ( १० ) [ ब्येविर्‌ +- विदु्‌ नकिप्‌ ] गणक, दैवज्ञ, ज्योति शास्त्रवेचा | ज्यातिर्दियया दव० (स्त्री० ) [ ब्येतिर + विद्या ] ब्येति शास्त्र, खगोल | ज्योतिर्षेत्ा तब» ( पु ) [ ज्येविर्‌ + वेत्ता ] गणक, दैवज, ज्योतिषी ॥..[ बारह राशियों का चक्र | प्योतिश्चक तत्‌० (पु०) राशिचक्र, राशि समूह, ज्योतिष्‌ तव्‌० ( घु० ) बेदाक़्, शास्त्र विशेष, अदण आदि गणन करने का शास्त्र,प्रदादि दिषयक शास्त्र ) ज्योतिषी तत० ( पु० ) गणक, दैवश जोसी। ज्योतिष्ठोम तव॒« (१५) [ज्येविस्‌+ सोम] यज्ञ विशेष, सवगे फक्षक यज्ञ । [राक्ति,रजनी, प्रकाशयुक्त रात्रि ज्योतिष्मती तद्‌ ( स्त्री० ) मालकंगनी, छवा विशेष, प्योतिष्मान, तत० (गु० ) ज्येतियुक्त, तेजखी, प्रतापी, प्रकाशयुक्त । [| शुबनइन्र । ध्येतीरथ दव्‌० ( ३० ) [ ज्योतिर +रध ] शुवतारा, ज्येत्स्ना तत्‌० ( स्प्री० ) चन्द्रमा की ज्येति, प्रकाश, चांदनी, चन्द्रिका, कौमुदी, श्योत्स्नायुक्त रात्रि, पींफ, सफेद फूल की तोरई ।--फऋाली तद्‌« (स्लो०) परुण के धुन्र पुष्कर की पक्षी जो सोम की कन्या थी --प्रिय तत्* ( पु" ) चओर पद्चो +--चूक्त छत्‌० (६० ) दीवट, दीपाधार, बैठकी, फानूस। सील | देन (जो- ) भोज, दाद, रहेफ ज्यर तद* (घ०) [ ज्वर+ भू ] रोग विशेष, धाप, स्‍्वनाप्त प्रसिद्ध रोग | राइस चिशेष, दैल्य- राज चाणाघुर के सेनापति का नाम, इसके तीन ( ३०६ ) मभंँगा पैर, सीन सिर, छू द्वाप और नौ ने थे। हसकी सृष्टि मद्रादेवजी ने की थी, और उन्होंने वाय की सदायता के लिये इसे भेजा था | पृक बार घलराम और अथधुम्न के साथ श्रीकृष्य बाय की राजधानी में गये थे, धाथ ने भनिरुद्ध हो कैर कर लिया था, श्रतएव ध्रीकृष्ण का बर्दा ज्ञाना धाव- श्यकु था। याण सेनापति ज्वर ने ष्हा श्रीकृष्ण को प्रीडित किण । श्रीकृष्ण ने दूसरे ज्वर की सृष्टि की, उसने याण हे सेनापति शो परास्त किया और इस्ते बाँध कर श्रीकृष्ण ३ हाथों समर्पित कर दिया। उसने शरण चादी, शीकृष्ण ने प्रसक्ष होकर उसके इच्छानुसार जगद्‌ में श्रन्य जबरों के न रहने का बर दिया | ( इरियंश )--विनाशिनी ( स्त्री० ) जवर- नाशक औषध । ज्यराते ( गु> ) ज्वर से भराकान्त, बुखार पे दु सी। ज्वरित ( ग़ु० ) जिसे ज्वर हो । ज्वत्ञ (पु०) ज्वाला,लपठ,भ्रप्तिरोशमी । [ोना, श्रम्ति | ज्वज्ञन ततु० ( घु० ) भ्रमरिदाद, तपन, बद्दीपन, कातर ज्वलना ( गु० ) प्रकाशमान । विषयाई । ज्वान ( घु० ) ज्वान, युदा ।--ी ( स्त्री० ) जवानी, ज्यार दे० ( पु० ) शुभार, जुन्दरी, समुद्र का शफ़ात । ज्वाय्मादा दे ( पु० ) समुद्र पानी वा बढ़ाव घराव, समुद्र के निकट बाछी समस्त नदियों र्मे यह ज्वारभाटा हुझ्ला करता है। ड्वारों ( दि ) जुघारी, जुभा खेबने घाला ज्वाला ( स्त्री० ) श्रॉंच, लौ, छूपट, दाएं। प्रकाश, तापजन्य पीड़ा ।--मुखी ( स्थ्रो० ) पीठस्थान विशेष, मद्दादिदा, विशेष, देश विशेष, जिस स्थान से ज्वाबा निकलती हे। ) भ्क के प्यक्षन का नर्वा दर्ण है, इसका उशारण तालु से हे होता है, धतएुष इसे भी तालम्यवर्ण कहते हैं । सेकार तत्‌० (६० ) [ मं+कू+घम्‌ ] ऋन फन शब्द रनकार।[ [ रूरना । मँखना दे (क्रि० ) धदवढ़ाना, सीखना, अनुताप मस्त तव+ ( बैं> ) मीन, मत्त्य, मछली ।--फेलु (१०) मीन केतु, मीनध्दजन, मछली के निशान घालढा, कामदेव, सदन | शशि । मखाड़ देन ( पृ० ) कटिदार घनी माही, पत्र रहित मेगा दे० ( ६० ) रूपा, पद्दिनने का एक वस्त्र | सॉमिया ( ३०७ ) - भेंट अँगिया दे० ( स्त्नी० ) स्ँगुली | ऋँगुल्ा दे। ( घु० ) ऋूगा । सँमुलिया रे दे० ( स्त्री: ) छोटे बाजकों का मूगा हम | या छुर्ता विशेष ॥ मॉँसा दे ( 85 ) ऋि। कि शब्द | ऑभाकार दे? ( घु० ) माँ मे शब्द, स्होंगुर भ्रादि कीड़ों ऑफ दे० ( घु० ) खटपट, प्रपश्ठ, दंटा, बस्वेढ़ा ऑँफाडी दे० ( वि ) रूंगड़ालू । [चिड़कहा । अंफना दे” (वि० ) कढ़वा, चिढ़चिढ़ा, खीऊू, ऑसनाना दे० ( क्वि० ) रंसन शब्द करना, रूण॒स्कार, आमूपषण आदि का शब्द । ध्विनिं, चिहचिढ्ाहट | सँफनादड वे० ( स्त्री० ) सवकार, छुँवरू शब्द, नूपुर- अँफरी दे० ( स्त्री० ) जाली, मरोखा | भोडा दे० ( एु० ) वह लिझ्ेचा या चौकोना चस्त्र जो फिलली लंबे बाँस में टॉगा जाता है| भंडी दे ( स्त्री० ) छोटर डा । भांडूला ( ० ) घद वालक जिसके सिर -पर गर्भ के केश दो । [ खटोली । फपास दे" (पघु० ) पदाड़ पर जाने के लिये एक भावाना दे० ( क्रि० ) घट जाना, पुराना, कुछसना, ऋंवर द्वाना, विवर्ण दाना, फिद पड़ना) ऋऋ तत्‌० ( छु० ) छुकायात, सुस्मुरु, चुदस्पति. देत्यराज, ध्वनि, तेज़ पवन | [ घोखा। सकई ९ स्त्री०) छाया, प्रतिविम्ब, कछक, अन्घकारी, झ्कठवा ( पु० ) टोकरा, ख़ाँचा । भऋक दें० ( पु० ) मैौज, सनक, रूददर (---भोरी (वा०) छीवाछीनी, रपटा फपरी, खैंचा खेंची, लूटपाट, आक्रमण --मारना ( धा० ) व्यर्थ श्रम, बिना, प्रयोजन का काम करना, व्यर्थ समय गदाना [ स्कक भांक दे? ( स्थ्री० ) बकबक, व्यर्थ सी हुलत | अकना दे० ( क्रि० ) बकबक करना, निष्फल बोरते रहना, चिलाप करना । अऋकरी दे० ( स्त्री० ) पात्र विशेष, जिसमें दूध दुह्ा जाति है, दोहनी, दोहन पात्र । भकामूक दे० ( ति० ) बहुत स्वच्छ, चमकता दुआ, स्वच्छ, खाफ सुधरा। भकेर दें? ( छु० ) रोक, कटका । अआऋक्कारना दे? (क्लि० ) दिल्लेःड़ना, केपाना । मकेरा दे? ( छु० ) अन्घड़, बायु का वेग। भकोालना दे० ( क्रि० ) डुलाना, दिलाना, कैंपाना | भाक्क (वि० ) साफ, सुधरा, चमकीछा। (स्त्री०) सनक | अऋकड़ दे० ( छु० ) तेज आधी, अन्धड़, बयार, गरम प्रकृति का मनुष्य, बहुत बकने चाछा मनुष्य भक्की दब ( वि० ) बन्सत्त, पागछ, यक्की, बकषादी, प्रछापी, लद्दरी; तरजी। किामदेच । भऋख (ख्री० ) मछली, मच्छो, साद्दी |--केतु ( ० ) भऋखना दे*? ( क्रि० ) मोखना, पश्चात्ताप करता। भागडमा, भग़रना दे० ( क्रि० ) छड़ता, छड़ाई करना, ख़टपट करवा, विवाद करना, विरोध जठाना, कलह करना, सिद्ना, सामना करना | रूगड़ा, रूगरा दे? (घु० ) लड़ाई, दँगा, फसाद बेर, विरोध, वबिद्वपे | ़े भमगड़ाना, रूगरामा दे? (क्रि० ) छड़ाई कराया, विरोध कराना, कछूह कराना। [_ लड़ा स्त्रीत अऋगडालिन, दे” ( ज्ली" ) ऋगढ़ा करने वाली स्त्री, मगडालू दे (० ) ऋढ़ने घाला, लड़ाई करने वाला, छड़ाका। भमा दे ( घु० ) अरज्ञा, जामा, करता विशेष | ऋगुत्ता दे० ( छु० ) छोटा रूगा, घाज़्क का जामा | भग्रुलिया दे? ( पु० ) छुलवा, चोलढना, बालकों का कुरता | भाम दे? ( प० ) लम्बी दाढ़ी, इृदतकूर्च । मभमूसक दे० ( स्त्री० ) विठक, चमक, भड़क, मूेकलाइट, अ्प्निय गन्ध | (डिपरटना, डांठना, दग्ाना। भमकारना दे० ( क्रि० ) घमकाना, तिरस्कार करना; भसाला दे? ( ० 9 एक अकार की सीठाई । भज्कर दे० ( घु० ) सुराही, जत्षपात्र विशेष, छुजा, मिद्दी का बना जल रखने का एक प्रकार का पाश्र जिसमें अर ठंढा रद्दता है । सच्करी दे० (स्री०) जाली, जालीदार ररोखा, कटा! भञ्फा तद्‌० ( ख्री० ) तेज़ चायु ।--नित्ष (9० ) [ ऋूण्का + भनिऊछ ] ज़ोरदार अंघी -वात ( पु० ) पादी और अधि । अछसी तत्‌० ( खी० ) फूदी कीढड़ी । झाद तद्‌» ( अआ्र० ) तुरन्त, शीघ्र, उसी समय [--पदढ (बा० ) बहुत शीघ्र, श्रति शीघ्रता से, बहुत जल्दी (--सखे ( व(० ) चुरन्त, शीघ्र, जक्दी [ म्य्क € रव०८ ) सपट्टा मस्ूबक दे+ (३०) लूट सप्तोट, खूटतराज । आदकना दे* ( क्रि० ) झटका देना; घे।ले से ले लेना; भुछावा देकर लेना, दुबछाना, जतरना, फ्रीका पड़गा, सूखना | पक अटका दे ( घु० ) खींच, खिंचाव, लूट, इरणं, म्ूठझे से मारने का शब्द + मद्रास का ठागा (घेडायाडी) विशेष | मठास देन (खो० ) बौछार, पानी का जींटा, वायु के रोड से पानी का इधर उधर जाना, झड़ात | भदि दे? (प० ) माइ, बनमाडी अपने से उत्पन्न कठिपय घृर्दों का समूह, रुख़दा, घची। भाटिति तदु७ (भ० ) बुत, शीघ्र, व्वरित, वेगि, पुरन्‍्त, जक्दी ! विल्ले की कह । भड़ दे ( स्वी० ) भ्रघड, प्रचण्ड वायु, करी; औँच, मन दे" (स्रो० ) पदन, गिरत, पड कड धादि का पतन, झरन, बची की गुद्ष या टेम । सना दे” (क्रि०] गिरना, टप%ना, पतन होना, करना, चूना, पड़े फल आदि का चूता, चजना शदगाई दौवत भादि छा । िड्ाई, क्रोध, जोश) रूपट ) अऋड़प दे० ( ख्री० ) दे जीवों को श्राप्रम में भुठमेड, मड़पना दे० (स्री०) छढना, श्राक्रणण करना, हमछा करना, मारामारी करना, रपटना, कपट मारना । भड़ पाभड़पी दे० (ख्त्री० ) क्षदाई दुक्ढा, फरमाद, डपठा डपटी | 7 [चिढ़ाता, सिज्ञात] भादुपाना दे* (क्रि०) कह़ाता, क्रोध कराना मडवरना बे० ( वा० ) सब का सत्र जब जाना, सभी नए द्वोता, समस्त जलना ) मडबेर दे- ) (४० ) जड़ली येर, फादेरी । मड़बेरी देन | (ख्थी० ) [दिदगता ॥ मेडवाना देह ( क्रि० ) मादाना, साफ कराना, मैछ मड़ाक दे ( क्रि० वि० ) तुरन्त, शीम । अंडाक्ा दे० (६० ) शीघ्रता, जर्दी | भिवाद । भड्ामड दे० ( धर० ) चटपर, झटपर, शीघ्र, कमिक, आडाना दे* ( कि ) साफ कराना, झाइ दिज्वाना, मडदाना, झाई फूँछ कराना, मन्प्र तस्त्र करवाना | ऊद्ठी दे० ( ख्री० ) छगातार शूट्टि इराबर पानी बग्सने रहना, भविष्विष्यवृष्टि, दादरी भामदनी, दारपिंक या सासि४ आमद से अतिरिक्त लाम, ऊपरी भामद। भड़ोता दे? ( पु० ) फत्न के समय की समात्ति, फड की समातति का समय, फल मझार। भऋरयदा दे (थु०) च्वना, पताक़ा, कीतिं ध्वज्ञा, यश पताछा, राज चिन्द पिश्ेष, सः#म सूचक चिन्ह विशेष, कठित अधवा बपय्रेगी काम करने बालों का सम्मान सूचझ चिर्द्व, किसी उत्तम काम का स्मारक, सीमा निर्देशक | अऋण्इला दे (वि०) बहुपत्र, प्रभिक प्चों से घना; पहुकेश, बहुत बाल वाड। लड़का, छोदा छड़का जिसके सिः पर गर्भ के वाल द्वा, पिना मुय्डन किया हुआ छड़का। भन तदु० ( पु० ) रूणद्‌ू, भनुक्पण राख, सु्टू्य नूपुर आद़ि की ध्वनि | [ खुद पढ बना) भतभानी दे० ( सत्री० ) सनसनी, किसी श्रक् का फऋतक ठदु० (छ०) ध्वनि विशेष, भा निर्मित बहने! का शब्द ।“/म्रनक ( स्नी० ) गदनों छे बनने से इत्पतन्न हुआ शब्द विशेष | [फिणत्कार करना । ऋनकऊता तदु« ( क्रि० ) सनकनाना, झनमने करना, अऋनकोर तदू ० (घु० ) मोकार अमर अादि की घ्वनि। भझनकारना तह? ( क्रिक ) बजाना, शब्द करता, सेन" मन बनाना | अनवांँ दे ( ४० घान्य विशेष, पुर प्रकार का घान | मनाभान ( ख्त्री० ) सनमूनाइट । मय दे» (आ०) मढ, शीत, तस्त, धरित से शीघ्रतापर्व, खरापूर्वक, मंडप झूठ से | मपझना देण (#ि० ) निद्रा लेगा, पक माता, सपडी आना, पटना, सद्दम बना, छाश्वित दोना । मऋषपकाना दे० | क्रि० ) परक भारना, मदकाता, टम्नित करना, दराना | मपकी द० (स्रो०) उँघाई, दटकी नींद,घेखा, चकमा । मऋषद दे० ( स्री० ) छपडऊ, वेध से भागे बढ़ना, लेते के डिये ध्राक्रमया काना (-ज्लेत्ा (क्रि० ) छीन लेना, ब्रठातुकार से के लेता, जबरदस्ती छीनना । मपदना दढें* (क्रि० ) छपकना, भागे पढ़ना, झरी इच्छा से छिसी की आर धागे बढ़ना, चढ्ठ भाना, जड़ दाढना, छीनता | मरूपदा दे* (६०) घा, श्राक्मण, चढ़ाई, दीन, लूट।--प्रा रना ( क्ि० ) ऋपटनता, सप्ट कर छीन ब्ेता, बट/कार से घौरना, मपट छेसा । ऊऋपताल ६ हे०६ 5) ऋलक्तलाहटड '_शशशशशाश॥शशआशशशशराशशशणणणनणनणशनशणणनणणणणणनाणणणणााणण ऋण व अऋपताल (घु० ) सज्लीत कछा का चाकू विशेष | भापना (क्रि०) पञकों का झुंदवा छुझुवा, अपना, व्वज्चित दाना । [से घेा । सपक्ाना दे* ( क्रि० ) खंगालना, घेवा, खूब पानी _ क्रपाभापी दे* ( स्री० ) इड़बड़ी, शीघ्रता, अ्रतित्वरा | सपाद दे० € स्रनी० ) स्फूर्ता, फुर्ती, शीघ्र, जल्दी स्टटपट । सपाना दे० (क्रि०) रूपकि लेना, उंधाना, नि6्रा लेना, / झरूख बश अपने आप निद्वा आना । पास दे० (स्त्री० ) मीसी, फुंदी, छोटी छोटी दूद, ड़, ठसाई, घूर्ताता । (घु०) घूत्त, भे/खावाज, ठय | भपासिया दे० ( गु०) चली, कपटी, धूर्त, श्रष्मी, ठप ) भपेद | ( स्त्री,.० ) चपद । सपेदा ( पु० ) चपेट, रूपद राझेपरा । - ऋष्पान (छु०) मंपान नामक एक प्रकार की डोली । अआकाना दे० ( क्रिः ) धम्रड़्वावा, चकित करना | अचस्मित करना, आश्रित करना ! फ्बरा था सत्ररीला ( वि० ) विस्रे हुए बड़े बड़े घुंघराले बालों चाजा | . झावा ( छु० ) लदकन, कुंदना, गुच्छा । भऋतियां दैं५ (पु०) भूषण विशेष, क्षिपों का पक गहना । आवुध्ा दे० ( थि० ) कोमश, सबरा, वहुकेश, रॉव रा, बड़े बड़े बाल वाला, जिक्षके वाज्ञ बड़े घड़े हैं। भज्वा दे? ( 9० ) गुच्दछा, लब्कन, स्तवक, फूंदा ॥ सम स्त्‌ू० ( छु० ) सोच्छा, मोजव; कर्ता, खादक | ऋषमक -दे० ( स्त्री० ) चमक, दीप्ति, प्रक्मर, शेभा, मालक | [दार, चिलक, दीपिमानु, प्रकाशशोल | भामकड़ा दे० ( छ० ) चदझ, जगसग, चसकीढा, भड़क [ भऋमकाना दे० ( क्रि० ) चम्काना, चिलछकाता, चस- चम्ाना, नाचना, क्रोध ले हधा उधर हाथ फेंक्रना। भमका बे ( छ०) भ्रताप, तेज, प्रभाव, ज्ञान । रमेको दे० ( स्त्री० ) ऋमक, ऋलक, चमक, चकवक, शोमा। भमफ्कम दें" (श्र० ) लगातार, सतत्त, अश्वान्त, एक के बाद एक, ध्वनि विशेष | श्रविरठ, भमभऋपाना दे? ( क्रि० ) उम्रचंमाना, चसकाता, खिटकना । [दूँद ले । मफमरसमर दे? ( अ्र० ) सदसा ब्रष्टि आया, ऋँद भमाका दे० ( पु ) सड़ी, बृष्टि प्रपात । [शितरत भमवाक्मम्र दे* (अ० ) रूममम, छणातार, सतत; फस्पा दें? (बि०) रप्ा हुआ, दछा हुआ, ध्राप्छादित । सर तन» (9०) विमर, सरना, प्व से निकल्षा हुआ जल्ठ प्रवाह, स्रोत, सेता, सरना। (स्त्री०) रड़ी, चर्पा, आंच जलन । [ गिरने का शब्द । ऋष्भर दे० ( छु० ) सण्कर, सुराही, अन्न आदि के भरना दे ( स्त्री० ) सात, पर्वत के जरू का सोचा, छोटी नदी, निभोर । भरफ ( स्त्री० ) समर, लपट, चेग, टेक । भमरवेर ( 4० ) भाड़ी के बेर, जंगली बेर ! भरहिं दे० ( क्रि० ) भरते हैं, बहते हैं, गिरते हैं, पसीजते हैं, छतकर गिरते हैं, उपकते हैं, चूते ईं, निहझलते हैं | [ कर कर, चुकर, टपक कर | सकरि, सरी, भड़ा दे० ( स्त्री० ) निरन्तर बल बृष्टि, भरोखा दे" (४० ) मंसरी, खिड़की, जालीवार खिड़की, मेला । ममस्हेरा तत्‌० ( स्त्री० ) वेश्या, पतुरिया, कुछ, बारा- बना, तारादेवी का नाम [( ए० ) शिव । मर्भारी तत्‌० ( स्त्री० ) खंजरी, डफली, बाजा विशेष ! सारवा दे० ( छु०) सूप विशेष, जिसमें बहुत छेद होते हैं श्रेरर सससे मिले अज्न पयक्‌ ४यक्‌ किये जाते हैं। ( क्रिह ) करना; गिरना, टडपकना | | भझल्ल दे? ( ६० ) ज्वाला, कोच, काप, जल्नजन्लाहट, डष्ण्ता, आँच, उध्रकासना। समूद । अऋलक दे० (स्त्री०) चमक, जगसग, भ्राभा, पतिब्रिस्त । । अलकत दे० ( क्रि० ) चमकत्े हैं, जगमगाते हैं, आभा श देते हैं, दीख पड़ते हैं, साफ ख्ाफ़ मालूम हे।ते हैं । भलकता दे० ( क्रिन ) अकाशित होना, चमकता, साफ याफ दीख पढ़ना, उज्ज्वल होना । मजका दे* ( पु० ) फड्ोला, फ्राल्ा _ [ प्रकाश! स्लकार दे० ( पु० ) अछव, सक्क, आब, आामा, | ऋलकी दे० (स्त्री>) दृष्टि, कटा, कविली,अपाहइदइष्टि । भालकऋल दें० ( छु० ) चम्रकता हुआ, बहुत ही साफ, अत्यन्त स्वच्छ, पतत्ठा सूक्ष्म, तेज़, वीक्षण, छहक आलभ्कलाना दे? ( क्रिक ) धमकवा, चमकित हो।ना, $ ऋलमल करना, टीसना, पीड़ा करना, क्रो थे करना। | भालमऊलाहड दे* ( स्त्री० ) चमक, ऋकछक, पक्ाश | भसलनां मलता दे* (क्रि० ) दिलाना, इुलाना, सुधार, पंछा करना या इकिता । सलमल देण ( वु० ) इल्डी रोशनी, चमकद्मक । स्लहया दे० (वि० ) शक्षित, सन्रेदी, संशयी, घोखा छाया हुआ, ठया गया, वल्नित । साला दं5 ( १०) इटकी बृष्टि, दौर, पा, मालर | सलाम दे* (वि० ) ज्योतिष्मान, प्रदाशयुक्त, ज्योति विशिष्ट | (गु०] चमकदार, चम्रडीडा । भलाना दे० ( क्रि० ) सुघरवाना, साफ करना, सौंढ्ा लगवाना, किसी वस्तु का रे आदि से जुड़बाना । मभालामत्न ( गु० ) चमकोद्धा, ( स्प्रोन ) चमकदमक । सल्ाबार दे" (वि०) चमकीया, मदकीला, घुशोपित, चम्कार | सेलार दे० ( पु० ) माडो, गइनकानन, घना जह़छ । मेल तव्‌* (घु५ ) माथ, सदर, परद बाजा, खपट | --अणठ ( धु० ) पेरवा, कबूतर फिलेक तप" (६०) रूम, मजीत / [पसीना, पप्तेढ । भलरी हत्‌७ (स्त्री० ) ंडुक नाम का धाना, ऋमि, भला दे* ( धु५ ) ददा शेकरा, चर्षा । भल्लानना देण ( क्रि० ) चिढ़ना, खीजना, किटकिदना | भेप तद॒० [ माप + घक्त्‌ ] मसत्य, सीन, मठकी मकर, भच्छ, बडी भछुली, पाठीन, ताप, भीनराशि | “कैनन या केतु (६०) भदृन,कामरेव,भीनध्वज्ञ । नटाड्डे (६० ) रिप+ अध्टू] श्रनिरुद्ध, ऊपापति, श्रीकृष्ण का पौत्र, कामदेव का दूसरा रूप । ज्शन ( धु* ) [ रूप + भ्रशन ] मर्य भोगी, सीनभषी, शिशुमार, मूस; नश्वजन्तु विशेष | “गोरी (स्थरी० ) [ कप + उदरी | ब्यासदेव की ५. ता, मशस्यगन्धा, येजन सन्‍्चा । मई ( सत्री० ) तिरमिराइट, घुंघरापन, छादा, आषा, ॥ कोई दे* (घु० ) प्रतिष्यनि, रूइसन, पतिविम्ब, खरक, घाय्रा, यया-- मेरी मद थाघा दरों राघा लागरि घोय | जञातन छी माई परे श्याम इरित दुति दोय॥ (६ डिह्ादी की घत्सई ) मऊ देह ( इ ») व विशेष, मऊ, वेदस। माक दे ( स्थो० ) ताक, रष्टि, नजर । ( ३९० ) सॉसा माकड़े, काकर दे० ( घु० ) करिदार काड़ी, करीछ के सूखे झाड ) भाँकना दे० ( क्रि० ) छिप का देखता, ताइसा, भ्रोट से देखना, निद्वारना, कनखी से देश्नना। * मॉकासलोंकी दे० ( ० ) ताका ताकी, देल्ा देसी, परशपर निरीहण, परस्पर रलेकझन | सकी दे० (स्त्रो०) दर्शन, अवले।कन | [हरिण विशेष! मांख दे० ( १० ) जन्तु विशेष, वन्य जन्‍्तु, घरइप्िधा, फाजन दे (स्प्री०) स्त्रिपे! के पैरों में पहने थाने घाले नक्काशीदार पीले कटे, जिनमें कह्ूूड़ी डाज्ली जाती है, जिश्से चब्नते समय ये । क्िष, कम, मन्दा | साँस दे (स्थी०) मनीरा, एक प्रकार का वाजन, हृस्छा भाँम्तिद दे ( स्त्री०,) झगड़ा, कलइ, विद्येघ, ८ण्थ ! मॉम्धर दे (गु०) बहुदिदयुक्त, मिप्तमें भनेक ठिद्ग हों या हो गये हों । माँमरो दे* (स्त्रो०) बहुत देद बाजी कछद्दी, सरता । सकता दे० (६०) रोंए।, कीदा विशेष, भो गर्मियों के दिन में प्राय विशेष द्वोते हैं ।[सलौक बजसने वाला । साँसिया दे० ( वि० ) क्ोधी, कोपी, रिसदा, खिम्मू, माफी दे० (स्थी०) सेल विशेष)-कौड़ी (बा) फूडी कौडी, छुठ नहीं, निरर्थक, बिना प्रयोजन । सराँद दे० (०) गुसाक् के ऊपर के बाल, पशाम, शष्प, अत्पन्‍्त छुद्ध वस्तु । माप दे ( पु० ) दष्पन, दछ्षन, वाँस या तृण का दवा डुश्रा गृद्दावरण विशेष, दीवार फ्री रद्दा के जिये रह, सिरकी की टी | मॉपना दें० ( क्रि० ) दकना, वस्दू करना, भारणादन करना, आश्रुत करता, तोपना, ढाप लेना | आँपो देन (सत्री०) छाप स्त्री, घोविन, पची | माँवरा दे० ( वि० ) काछा, इथ्ण, कृष्णवर्ण का। माँवली दें५ ( स्थी० ) नखरा, चेचढा, हाव भाव | मा दे० ( घु७ ) बडी ईंट, अधिक पकने से दे। तीन या अधिक सी हुई ईंट, दे! छो रगइ छर साफ करने वाल्ली इंट विशेष | माँसखना दे० ( क्रि* ) विगाइना, फुसकाना, सुशामद करई रास्ते पर ले आना, सत्य -खाम का दाम दिखा कर कुछ से ख्ेना, घोला देना, ठाना[ सा दे* (६०) कुधनच्ावा, पीखा, अस्त्य छ्ेभ । स्स्‌ माौँख दे" ( गु० ) फुसलाज, धोखेबाज, धूरत्त, ठग, बिगाड़ । भा तद्‌० ( घु० ) मैथिक् तथा नागर ब्राह्मणों की एक डपाधि।] झकाऊ दे० ( पु०) राज, पौधा विशेष, पिचुल, शफन्र | श्काग दे* ( घु० ) फेन, उबाल, पानी में अधिक तरह उठने से था और किसी प्रक्तार रमबड़ पहुँचने से जो सफ़ेद फेन मिकछता है। फामा दे० ( पु० ) गाता, भांग, एक प्रकार की नशीली पत्ती, जिसका आज कल के महात्मा बड़ा आदर करते हैं, साद वस्तु विशेष । [ स्थान, मेंडवा कोट दे० ( ४० ) निकुश्, छता आदि से घिरा हुआ कऋाड़ दे० ( पु० ) कटीज्षा, सघन पेड़, दीपक विशेष, ज्ञो बृक्त के आकार का पीतल ध'ादि का बनाया जाता है, जिसमें शीशे के बल्ाध लगाये जाते हैं, घत्तियों का राडे। पश्मेशख ।--खणुइ (पु) एक बन का नाम, जो विहार के पूर्व भाग में है, जहाँ चैथनाथ नामक महादेव हैं | पुरी के पास के वन का माम भी राइखण्ड ही है, यथा--“माइसण्ड में भले बिराजो जी” । औरैसा जगन्नाय पुरी में ठाकुर भक्ते बिराजे जी ” |--सँखाड़ ( वा० ) कंटीज्नी सथा सूखी झाड़ी, बीहड़ घन, चीरान जल १+सेटक ( वा० ) काइना, बहारना; साफ सुधरा फरमा |--मूड़ ( चा०) माड़न, बहारन, खफ़ाई सैशोघन, ऊपरी कआ्ञादुमनी, निय- मित्र आय से अधिक आय बचा खुचा ।-- डालना ( था० ) साफ कर देना, तोढ़ देना, स्पष्ट कद देना, तिरस्कार करना, अनादर करना, अन्लुचित कड़े श्र का प्रयोग करना |-पछाड़ कर देखना ( चा० ) खूब देखना, खूब जाँच करना, परखना, अनुसन्धान करना, परीक्षा करना, जाँचना, ऋसौदी कसना ।--फानूस दे? (8० ) शीशे के माढ़ द्वाड़िया और गिकास आदि जो शेशनी और सजावट के काम में छाये छाते दें । --बाँधवा ( वा? ) अ्रविरत बृष्टि द्वाना, खबेदा पानी बरप्तना, किसी उस्तु का सता याँध देना, निरगेल बोलते जाना । साइन दे ( स््री० ) वहारन, घुद्दारन, कड़ा, कचरा, ( इ११ ) 9 क्कारि कत्तवार, साफू करने वाला कपड़ा, वह कपढ़ा जिससे वस्तु स'फू की ज्ञाठी है । भाड़ना दे० ( क्रि३ ) साफ करना, बुहारी लगाना, झाड़ू लगाना, बुह्दारना या कपढ़े से साफ करना, बुन्दिया काड़ना, सेव काड़ना, गिराना, दपकाना, चुआाना, इतारता ।--फूंकना (वा०) भूत उतारना, टेटका करना, मन्त्र से नजर श्रादि हटाना । भाड़न्त दे० ( अ० ) सभी समस्त, सम्पूर्ण, अखिल, सव के सब, समस्त रूप से, पूणरूप से । साड़ी दे० ( घु० ) तलाशी, विष्ठा, मछ । भाड़ा कपठा लेना दें० ( वा० ) हँढ़ना, खोचना, अन्वेषण करना, सार्गण करना, तलाशी खेना । भाड़ा देना दे० ( घा० ) तलाशी देना । भाड़ी दे० ( स्रे० ) छोटा श्रोर घना चत, सघन छोटा बुच्च विशेष | भाड़े फपटे ज्ञाना दे० (वा०) सह त्याग करने जाना, पाखाने जाना | भाड़ दे। ( $० ) बढ़नी, शोधनी, सम्माजिंसी, झुद्यारी; कूँचा ।--कश सेद्वतर, भी, दछालखेर | मापड़ ( छ० ) थप्पड़, त्माचा, चपेटा | झकापा दे” ( छु० ) देकरी, बड़ी टोकरी, दौरी ! भ्ावर दे० ( १० ) पह्किल मूसि, दक्तदल । भावा दे० (पु ) चर्मपात्र, चाम का एक प्रकार का पान्न जिससे तेढ या घी नापा जाता है। क्ुप्पा, कुष्पी, छेद॒दार बड़ा ऋलछा जिससे कड़ाद से पूरियाँ या सेव निकाले जाते हैं, सेव छटने की छेददार कक्नदी । मम ( स्री० ) गुच्छा, कुए से सिद्दो निकालने का यंत्र विशेष । भामर दे० ( पु० ) शान, शाण, सिछी, पथरी, एक अकार का पत्पर जिल पर अख् तीखे किये जाते हैं । क्कामा दे० ( छ० ) रूवा, पक्की ईंट । मभाम मांम ( पु ) रूतकार, राय माय । सार दे० ( वि० ) केवछ, निपट, पुकमात्र सम्पूर्ण, कुछ, समूह | तत्‌* (स्त्री०) ढडाह, आग की छच, अभिक्रण, विस्फुल्षिक्न, अकाश, चरपरापन) - खरड चत्‌० ( घु० ) पर्वत जो वैद्यनाथ द्वोता हुआ पुरी तक फैला छुआ हैं । [ काइकर । फरारि दे० ( क्रिः ) सारकर, गिराकर, सरमराकर, मारी ( ३१२ ) मिलो मारी ६० ( स्रो* ) जठपात्र विशेष, गडुग्रा, करवा, | मिनद्॒ा दे० (वि० ) दुर्बल, पतली हड्डी बाढा, दे दीदार अक्पात्र, सुरादी, समूढ, काड़ी, छुछ समद्द, छुड़ जाठ, कमण्डलु | है माल त्‌5 ( श्ली० ) कट, परक्‍ाइछ तचीवापन, तरह, कामेचडा । देण (खो० ) दो तीत दि की छूगा- नार वर्षा | (६० ) झालने की छ्लिया बढ़ा टोका, चातुघव टूटे बातनों का ल्लोडना, टुढा परतन सुधारना, जडन, डाद ! भालनां दे? (घु०) घोदना, घोठना, चिकनाता, स्निग्घ करना, पाखिस काना, साफू काना, हूटे घात पाश्न का टडि द्वारा छिद्र रोकना । भालडू तदु० ( स्धी० ) पुत्ा के समय बह्ञाया जाने याता घड़ियालड ६ किनार, गोट, मांम्ध। फालर दे५ ( ख्ोौ० ) जानीदार, किनारा, गुस्देदार भालरा देन (०) होता, करना, कुण्ड, बढ़ा कुण्ड । माला दे (प०) दाजपूर्तो की एक जाति ] [ टोकरा ] काया दे। (9९ ) काका, फांवा, बढ़ा जात्ीतार फिम्रक दे (दी०) चौंक, मय, डा, मरक, धचम्सा ] मिसकना दै० (कि ) सदकता, उरना, चौंझना, आश्ववित होना, अचम्मित होना । मिमका देन ( जि ) दींछा हुआ, डरा टुग्मा, सथ- मीत, अ्रचम्मित | [भय दिसाना। मिमकाना दे० (क्ि०) सदझाना, चौंकाना, डरपाना, फमिफरी दे० ( छो+ ) भदक, हीं ७, डर, मय | फिल्मा दे० ( स्री० ) फूदी कौड़ी, कानी कौड़ी, मिगना नाधक पक वृत्त । मिल्स्ायी देन ( सीन ) जियना बूंद विशेष । मिद्क दे* ( म्री० ) घम ही, घुड़ड़ी, फटकार । मिद्कना दे ( किए ) धमकी दुना, घमकाना, घुडकी देलेम फटकारवा, िरस्कार करता, झट देना | मिड्कामिड्की देन ( स्लो० ) रपट, रखा, टंटा; बेड, वदारूद्दी, फटकारना और घमती देना | सिडको दे ( ज्री० ) छुइकी, ददाव, चमझी। मिड्ञकिड्ाना दे (क्रि, ) क्रोध करना, अधिक क्रीघित होरा, चिह्रचिदाना। मिनेया दे० ( थु* ) सद्दीव चिट बास्य चान 4 फ़िपना ( क्रि० ) मेंपना, टछित द्ोना । फिपाना ( क्रि० ) लज्जित काना, शयमाना । खूपड, सुकुटा । फिनमिनी दे? ( स्ली० ) सनसनी, मनमानी, पैर का से जाना । किसी अढ़ फी दस्त दुप जाने छे उनमें पक प्रद्चार की सनसनी है। जाता, पद शरीर की नियक्षता की पहचान है। मिरफ़िर दे? ( ४० ) मन्द प्रवाइ, धीरे घीहे बदता, चेटी घाध पता, हलका | [कष्ट । मिरफिरा दे० ( दि० ) विछकुट पतला या भद्दीन मिरी ३० ( ख्री० ) मिली, मौँपुए, छीटविशेष, दराए, दरज, गड़ूढ जिसमें मितम्रिर का भन्न एकम्र हे।। कुए के दास से निकलवे चाला थोटा पाता, तुपाक पाछा मारी हुई फसछ । फिरफ्िराता दे? ( झि० ) करता, इपकना, गिरना, चहना। ल्‍ मिलेगा दे ० ( पु० ) इतनी खाद, हृदी खाट, मिम्त खाट की विनाथट टूट गई द्वो | पुक प्रकार के सिय्राही, सैनिस विशेष | मितम दे? ( खी० ) कब्रउ, सब्ाह, छोहे का भा जो युद्ध में भर्णों से शरीर की रधा के विमितत पदना जाना है, बेहतर, सिर पर का जोड़े के कटोरे के समान पहनावा।..[ एक प्रहार का घाना मिलतमा दे ( छु० ) संयुक्तमात्त में उतपत देने घाला मिलमित्त दे० (६० ) ट्विछती हुई रेशमी, भस्थिर ज्योति, ए प्रदार का बारीक मुद्ायम कपड़ा) +-7 ( वि० ) मीना, चमछ्ता हुआ्ना । मिजमिल्ाना दे* (क्रि० ) रह रह कर घम्रझना, प्रकाश का द्विरमा, बीच यीव सें एक बार चमक जाना, कभी चमह्ना कप्ी चीय देना । मिहमिलोी दे* ( ख्री० ) तिरदी श्रौर तर ऊरर छगी हुई बहुत ड्वी भादी पटरियाँ जे। रिदाह़ों था खिट- कियों में जी जाती हैं । इतसे मीतर वाला बादिर दैख सकता है, झिम्तु बाहिर बाढ्म मीतर रईीं देख सकता । मिलड़ ( गु« ) दूर दूर पर बुना हुआ वष्ध। मिलिका खव्‌० ( स्वी० ) रोंगुर, छीट विशेष । मिल्ली तर ( ख्री५ 3 भति सूक्षप चयद्ा, पररा बे; ऋऑंगुर किछिका ।--दार ( गु० ) शि्दीवाला । अआफेना भींकता दे० (क्रि० ) पश्चात्ताप करना, अजुताप करना, पछुताना, शोकित छोना, दुगखित द्वोना; दुःखड़ा रोगा | ऊकींका दे० ( ए० ) चक्की का कौर, उत्तना अन्न जितना एक यार में चक्की में डाला जाय | भीखना दे+ ( क्रि० ) सिकिक करता, खीनना, दुखड़ा रोवा | [ धीवर, सासी, कर्णघार । भींगट देन (घु० ) मछाह, केवट, कैवत, दास, भींगा दे० ( स्री० ) चिंगड़ी मछली, पुक प्रकार की मछुली १ भींगुर दे० ( धु* ) कीट विशेष, किदली, शुरघुरा। कसा दे० ( क्रि० ) झुसूकाला। भरीस दे० ( गु० ) कोना; मद्दीन, सूक्ष्म, पतला, पतीछ, इुर्व, बारीक | ( ख्री०) भोनो, हल्की, सहीन । आना दे० ( छ० ) सिरकिरा । भींती दे? ( त्वी० ) मिरम्िर, महीन, पतली [यंधा-- - चादर मोरी क्लीनी, सूरख् सै कर दीनी। हई चादर भार कविरा श्रोढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी। >+-कथीर साहब । भीरुक्षा दे? ( स्री० ) मींपुर, फीट । भ्लीज्त दे० ( स्त्री० ) सरोवर, हद, जछाशब, ताल, बहुत बड़ा ताछाब, प्राकृतिक जछाशय, घारा रहित चढ़ा सरोवर । भींसी दे" ( स्त्री० ) फूढी, छोटी छोदी ब॒ल्दे, फुदारा, मपास, शृष्टि की बहुत दी छोटी छोटी दुल्दें । फ्ुकता दे" (क्रि०) नम्न होना, निहुस्ना, चवना, छचना, सिर नीचा करना, छज्ता से सिर अवन्त करवा, अभिवादन करता, बड़े को प्रणाम करना, नीचे की ओर आना, क्रोघित होना | यथाः-- & क्रुक्ी रानि औरहु अरगानी / [-- रामायण | झुकाना दे? (क्रि० ) नवाना, नीचा दिखाना, नम्न करना, प्रणत करना | 'कुकावद देए ( स्त्री० ) निहुराव, सम्गता, लचाव, लटकाव । क्ुब्फुलाना दे० ( क्रि० ) क्रोध करना, रिप्त करना, चिड़चिद्ाना, शीघ्र क्रोध करना, खिसियाना । ऊठलाना दे० ( क्रि० ) जूठा करना, मूठ सावित करना » भिश्या सिद्ध करना; अशुद्ध करना । ( हेश्३ ) फक्रियाना ऊठाई दे ( स्त्री० ) मूडापन, मिथ्या, असत्य । (क्रि०) कूठा करके, मिथ्या बताकर डे ऊ्ुठालना दे० ( क्रि० ) अशुद्ध बताना, मिथ्या होना सिद्ध करना, प्रमाणों के द्वारा मिथ्यात्व प्रतिपादन करना, झूठा टहराना, झूठा बताना, डब्छिष्ट करना, जूडा करना । मुँह-- (वा०) कुछ खाना, नाम मात्र के खाने के लिये बैठना, स्वरप खाना। सुँहा' मुँह--( वा० ) मुँह पर रूठा बदाना, सामने झूठा साबित करना । झ्ाडड, भ्मुंठ ( इ० ) स्तवक, गरुच्छा, रोंए, छोटा माड़ । झणड दे० (५०) यूथ, समूह, समुदाय, दल, भीड़भाड़, उट्ठ, सण्डछ, खाजुओं का अखाड़ा, साधुचझों का - समूह विशेष, जिसमें निश्चित्त संख्या के साधु रहते हैं । कुंड दे० ( घु० ) पताहा, ब्रैजयन्दी, सोडा । ऋुणडी दे० ( स्री० ) राड़ी, घत्त का सम्रुढ, वनखण्ड, गुच्छा, लाधुश्रों का पृष्ठ दृछ विशेष , कुण्ड के श्रधीनस्थ रहने चाज्ा साधुदल, इसमें भी साधुओं की एक नियत संख्या रहती है । ऋुन दे० ( ख्री० ) साइश्य, सप्तानता, ऊंगाघ, छुवाव । कुनझुना दे० ( घु० ) खिलौना, लड़कों के खेल की एक वस्तु ऋुनकुनी दे? ( स्त्री० ) नूपुर, पैजनी, घुघरु, सनसनी ॥ मुमका दे० ( ए० ) शुच्छा, स्तवक, गुच्छा के आकार का एक गहना, कर्णमूपण, कनफ़ूल, फूछ या फल का गुच्छा, ढेढ़ी, फ्र विशेष ] करना दे० (क्रि० ) सुखाना, सूज् जाना, सूखा दो जाता, कुम्दलाना, सुरकाना | फुप्मुद दे० ( १० ) भीड़, मण्डली, समूह, समुदाय। कई काड़ों का ऐसा समूह ज्ञो किसी स्थान का ढक ले | ऊुस्सना ( क्रि० ) कुछसना, जल जाना, पत्ता मार जाता। ऊुराना दे? ( क्रि० ) सुखाना, शुष्क करना, मुरकवाना, _ सूखा छुआ, झुरकाया हुआ । कुराने दे* (ग॒ु० ) खूखे, सुझ्े हुए, सरक्तामे हुए, ( विशेषण ' कुराना? का वहुवचत ) | फऋुरियाना दे? (क्रि०) वीनवा, बराना, सोदना, निराना, खेत की घास निकाल देना, क्लोकी में भरसा | खा० प[्‌+--३० ऊुर्ना ( रेश्४ ) ऊ्ॉक मुर्ना दे* ( क्रि३ ) कुम्दलाना मुरम्ताना । ऊर्यी दे० ( स्त्री० ) समेट, सिक्तेड़, लिकुडन, शरीर के माँस का सिकुडाव, ढीला पहना । फकुलकाना दे० (क्रि० ) दुग्ध करना, सस्म करना, जाना, जा देना | फझुलना दे० ( क्रि० ) डुठना, हिलना, लटकना, हिडोल्े पर चतृकर द्विब्षना, लटक श्णना | ऊुजनी दे० (स्प्री० ) नथनी में डा कर पहनने का पुक प्रकार का गहना । छल ऊछुली दे० ( स््री० ) कान के पात,ख्रियों के कान में पपइनने के किये पत्ता के आकार का गहना विशेष। [ अघजड़ा द्वोना । मझुलसना दे० ( क्रि०.) भुनना, जलना, भ्रध॑ दग्ध देना, कुलसाना दे० ( क्रि० ) जलाना, जबा दना, अधनत्ा करना श्रर्ध दग्घ काना |. [हिड्दोलया डुछाना। मुनाला दे० ( क्रि० ) छटकाना, डुलाना, ट्विढाना, छुल्ला दे* (स्री०) पहनने का कपड़ा रंगा, चोछा जनानी छुर्ती, मूत्ना । मम दे" ( पु० ) घोसक्षा, सुन्ता, वासा,नीड, पद्चियों के रदने का स्थान, खोता | मू सतत दे० ( पु० ) क्रोष, खुनस, फ्रोघादेश,कोघ चढ़ना, रिस, चिढ़ चिढाहट, कापावेश । भूटर दे० (खरी६ )दोफसली सूमि, दो भ्रत्त चोवी जाने बाली मूप्रि, जिस मूत्ति में दो भन्त योये जाते हैं। [ बचा छुचा । मर ठन मॉठन दे० (पु०) जूठ, मूठ, वच्छिए, भोजन से मूठ देन ( गु० )मिय्या, अशुद्ध भसत्य, निरर्थक। “मठ (घा* )मूठ, सराप्तर मूठ, विलकुछ मूछ, निरा असस्य | दै० ( गु० ) मिध्यावादी, भ्रसतययादी, मृठ बोकून बाला, उच्छिष्ठ, मोजन का बचा भाग, मूछा, भोजनावरेष (--झाठा ( बा० ) जूड़, उच्घिष्ठ । मूना दे* ( पु" ) पश्चा नारियछ, सूखा नारियल का फछ, सूधम बच्च, मद्टीन कपड़ा, चूढदे में भाग जब्ाना । भूमक दें" (स्थी० ) भीड़, समूह, समुदाय, सभा, भूषण विरोष, कर्यूह्ूछ, (वि० ) दिलन बाला, कॉपने दाठा ।--साड़ी (स्वी ०) राछरदार साडी | मूमक्म दे० ( पु० ) मेष, घन, पादुर्लों का इमबना, दिलमिल कर, अदृकुर के साथ हिलना । म्ूमना दे" (क्रि०्) दिलना, डोछना, छद्दरना, ऊघना, मद से झूछना। म्ूमर दे० ( धु+ ) पिर में पहनने का पक घना, जिसे रडियाँ अक्सर पहना करती ई | मर ( वि० ) सूसा, खुश्क, रीता, व्यर्थ, जूठा, दाई, जद्दन, दुस | फूरना दे* ( क्रि० ) कूटना, चू्यं करना, माड़ना, पेड़ से फल उतारना, सूखना, किसी कारण वश दुर्घछ दाना, कलपना, पछुताना, पश्चात्ताप करता, दु खित द्वोना, शोह करना | मरा दे० ( वि० ) सूसा, मुरमाया, कुम्दछाया, धदा- बृष्ठि, अकाल पढना, महँगी पडना, दृष्टि न होना। मूल दे० (ख््री० ) दीजा ढाक्षा वश्च, भोहार, दाथी का ओढ़ना, बैज्ञ घोड़े भादि पश्चधों के भोढ़ने का बस्र, सवारी का पर्दा, श्रोद्दार, थैज्ली, टोपी । झूलता दे० (क्रि०) डोडना, दिदना, छटकना। इुन्दोविशेष, कविता बनाने की पृक रीति। मजा दे* ( ३० ) हिंडोढा, पलना, ढोढा, रस्सी के सद्ारे बंधा हुआ पाट जिस पर मूकते हैं, एप विशेष, ढांख बढ, क्लियो का कुर्ता । सूसो देन (स्री०) कूद, मौसी, कटास, कुदार, पुक नगर का नाम्र, यद्व प्रयाग के सामने दे | पद बहुत्त दी पुराना है। भारत के घद्बवशी राजाभों की राजघानी, इसका पुराना नाम प्रतिष्टानपुर है, इसे ह्वी राजा पुरुरवा ने अपनी राजधानी धनाया था, इसी स्थान पर प्रसिद मीमासक वौद्धविजयी स्वधमंप्रचारक कुमारछमद्द तुपदग्ध हुए थे। कहते हैं यहों के परवर्ता दिसीराजा का माम दौपड था, इस भगरी का नाम उस समय अझन्धर नगरी पडु गया यथा । जो द्वो यह नगर पुराना हे इसमें सन्देद मह्दी मेलना दे० ( क्रि० ) सद्दारना, सदना, रूपर जेना, पानी में द्विलना, दोटना, पचाना | मोंक दे० (स्त्रो० ) घक्का, भराधात, दकेछ, रेडा, मकोरा, बढ के साथ खींदना, कुकाव, बार, अटठ, चाल, ,भदाज, पानी का हिठोरा ।--दैना मोंकना (फ्रि० ) श्राग में छगाना, नष्ट करना, भस्म जक्ञाना, जला देना, फेंकचा, ज्ापत्ति में डालना, खतरे में डाढना । मोकिसा दे० (क्रि०) फ्रेंकना उकेलसा, घुलेडुना, छमाना, डालना, चूलदे में लकड़ी छूगाना, भाडु सोकना, ग्रिदा विचारे करना, निरर्थक करना | भोंका दे० (४० ) भक्षा, रेला, फपदा, फश्ेरा । भोकी दे० ( स्ली० ) सार, वोरू, जवाबदेह्ी । भोंटा दे० ( ० ) ) सिर के बड़े बड़े वाज्न, बिखरे क्लोंढी दे० ( स्री० ) / या उछके बाल, लूट, पिछले बालू, चोटी, लूट, बार, ना, हिंडोले का कोंका ( भ्ोंपड़ा दे० ( पु० ) मढ़ी, छप्पर का छोटा घर, हृण निर्मित गृह, घास फूस का घर, छुटी, आश्रप्त । झ्लॉपडी दे० ( स्री० ) छोटा सोएड़ा, कछुटी । ऊोंपा दे ( इ० ) ग्ुच्छा, स्तवर, फल या फूल का मोप, शे।ट, घेर घिराव, परिधि । मोरा दे० ( ७० ) फल या फू का गुच्छा । भ्लोक दे० ( ख्री० ) धक्का, ठोकर, सदसा चक्कर आता, घूमरी, मरते मरते बच जाना, धाफ॒त झाना, दुःख आना, किसे अकार का उपद्रव । भोका दे० ( 9० ) ठे।कर, ठेस, उठ़क, धक्का, आवात; भफोरा, बलात्कार से खिंचाव, सटका देकर खींचना, कोंटा पकढ़ कर जबरदस्ती खीं वन्य, गिराने की इच्छा से खींचना, सहतस्स खींचना, अचानक अपनी ओर खींच लेना या ठक्केल देना । मोम दे० (५०) खाता, ओर, बड़ा पेट, बम्बेदर, फर्क्ों का बढ़ा घघर, केले का घवद, केल्ले का सोस्क, एक गुच्छे में छगे हुए बहुत से फल । स्ोस्का दे० ( छु० ) बढ़पेटा, बढ़ा पेट चाला, तुन्दिल, स्थूलेद्र । हा यह ब्यक्षन का दरस्वाँ वर्ण है, तालब्य व् है, क्योंकि ताछु से हसका उच्चारण होता है' | मासिका € हे१६ ) झ्य भोटिंग दे* ( छ० ) कॉटेयाला, प्रेतसेद, श्रेतों का भेद विशेष, (क्रि०) कॉका देकर, सोंटा पकड़ कर ज्ञड- काना; केश पकड़ कर खींचना, स्ोटिया कर खींचना । भोडियाना दे० ( क्रि० ) वाल पकड़ के खींचना, फोॉंटा खींचना, मोंदा पकड्ट कर सारना; क्रोध से स्लॉटा खींचता ) कोठी दे० (स्त्री०) छोटा मॉटा, चेटी, पिछल्ले बाक्त, छट, केश समूह, जटा सम्द, तृण भ्रादि का समूह पूछा । मोहन दे (५०) कपड़े की सिकुड़न, ठीक ढाछ, कपड़े का ठीक न हवा, ढे का द्वेना, शरीर में बढ़ा होना, कपड़े का ठीक नहीं बैठना, ' चरकारी का रसस्‍्सा, मसाक्वेदार तरकारी का रस, वच्चे, कड़के | भोलम्काल दे० ( ए० ) ढीज्ा ढाका, चरपरा रसा | श्मोल्ला दे० ( पु० ) भैला, बड़ी कोजी, रोग विशेष, अ्र््धाग्न, ऊकवा, वायु चिकार घे झाधे भ्रज्नका अचे- बन दो जाना, किसी श्रम्नः का सारा जाना पतक्ा। ( चि० ) छटका, सिक्ुड्डा हुआ। भोत्ली दे? (ख्ी०) फाधनी, थैज्री, जेब, चोदा भोला! भर दे० ( घु० ) कढ़ी, तरकारी का रसा। औऔरा दे० ( वि० ) साँचर, माँविर, काला, कृष्ण वर्ण, सबिला, गेहुँझा रह न काला न गोरा, खबक, शुच्छा, रूब्वा [ तरह जलाना | सना दे० ( क्रि० ) जलाना, खूब जला देना, अच्छी भोंसा दे० ( वि० ) जला हुआ, भस्म किया हु, द्ग्घ, ऊुछसा डुआ) जलाया हुआ । भर दे० ( ख्ी० ) झगड़ा, यण्ठा, छडाई। कोरी दे० ( स्री० ) खेत की घास । भोवा दे० ( पु० ) ठेकरी । महोह्ाना दे० (क्रि०) चिडुचिद्धाना, गुरां ना, फुसकारना, मारने के सींम दिखाना, अनायास गिरना | ञ्प्‌ से उच्चारण ठाने के कारण इसके नासिक्य भी कहते हैं, यह चबर्ग का पंचम अच्तर है | ड़ ( ३१६ ) ड्गण बा न न ननननन-नन-निकनत पतन पतन न ननर+ न न ितनचन्तनर (> ट ब्यघुद का ग्यारदर्या बर्णे, यह सूदध॑न्य है। क्योंकि या ढालने वाला, टकसाक्ष का सा माना हुआ, इसका इच्चारण सुर्द्धां से द्वेठा है ( जैवे दकसाली मापा ) पक्का, प्रामाणिनक्न ( ठक- ट तद० ( धु० ) वामन, शब्द, नांद, ध्वनि, चन्द्रमा, गान, रुद, अछ्ुण, बढ़ाई, बद्धावस्था, जरा, नारि यछ का खोपढा । ढक दे० ( स्ली० ) हाक, देख, निशन्‍तर, दशेन, छग्ा+ सार देखना, झनिमेषप्रेषण, दिना पलक गिराये पदम्‌। यस्य गेहे टका नाखि द्वाटके ( बाजार में ) देखना, निरन्तर दृष्टि, भण्डावलेकन, बड़ी तराजू ',..._ ठऊ ठकायते ॥ ?? पुक तौलबविशेष । का चौजूँटा पछठा “--टक ( स््री० ) छगातार | ठकाई दे० (स्रो० ) सिलाई, टाकने की मनूरी। देखते दी रहना, निरस्तर देखना, ब्विरत दृष्टि | टकाना ( क्रि३ ) सिश्वाना, मिलाना। से देखना, अनिमेष दृष्टि से देखना |-टका | टकाही ( खो० ) देखो टकदाई। * ( पु० ) टकटकी, नेश्नों का छुटा रह जाना। | ठकी दे? (खोल ) ताक, दुछ्ल, किप्ती ढी वाश्ष में --व्काना ( क्रि० ) निश्चक्ष दृष्टि से देखता। | दिपना, छुकाव। [वऊुच्रा । --ठको ( स्ी० ) निश्वल दृष्टि ।--ठोना (क्रि०) | ठऊुघ्या दे” (झर० ) छेदने का साधन, वहछा, टहेलना, छुना, हेँढ़ता +--टोस्थ--टोलना | ठऊेत, ट्कैत दे” ( गु* ) घतवानू, घनी, माबदार। ईूँढ़ता, दाय से छुघ्र टूँढना |--ठोदना (क्रि० ) आद्य, घनाव्य, भादरसूचछ पंद। टँढ़ना । [छा । | ठकीर दे० (स्त्री० ) ध्वनि, धन, रक्षार। घुषशार, टकटोसरना (क्रि०) ट्टोबना, इँढना, तडाश घुमझार, चुचकारी, घुमकारी, ठोक बजाने का रास, झुकना दे (घु० ) घुदना, ( झ्रि० ) सिउना थाष, सेंक । टकराना दे० ( क्रि० ) दक्कर रयाना, टकरा जाना, टकर | ठकोरना दे० (क्रि०) सेंडना, तताता, गरम छत, मारना, आयात करना, घका मारना, थेना; इच्ण करना, ताता करना, तप़ाता, ठोकर लगानी, रटोटना । [ दकाना, सिद्धपाना | दजाना । टकवाता दे० ( क्रि० ) झुद्वाना, सिछाना, दगाना, | ठशोरा दे० ( पु" ) छोटा आम थैविया। डकसार या टकसाल तदू० ( पु) रहुनशला, | दकीना दे (० ) टका, देः पैसे । सिक्ा बनाने का स्थान, जिप्त स्थान पर रुपये पैसे | ठकोरी ( ख्रो० ) छोटा ( तौलने का ) काटा । डालने जाते हैं, मुदाढय ।--का सोटा ( दा० ) | टक्कर दे? (ख्री० ) ठोकर, ढोंधर जगना, सहसा शक पहले से ही विगद्मा हुभा, शिदा के समय ही से से झद्न का घढ़ा क्षयना |--साना (वा० ) ठोक इच्ट्ड्ूल, जिपफो भच्छी शिक्षा नहों मिली। खाना, अज्ञात किती चीज से सिड् भागा, थाफुत +चढ़ना (बा० ) शिक्षा पाना, शिद्धित | में पड ज्ञाना, अचानक दुःसी देना, हानि उठाना, साह्ी कथा ) । टकदाई ( खी० ) टडेकी, मीच, कुलटाख्रो, दरमाई। टका दें० ( पु०) रुपये पैसे, जोड़ा पैसे या रपये, यथा,--“ठका धर्म ढकां कम टकैंय परम उपदेश पाना, शिक्षित द्ोने के लिये प्रयक्ष करना, सीसने के किये वेश करना ।--धाहर ( था» ) अशिक्षिठ, प्रनपढ़, मूर्त,. सोटा, बिगड़ा, खाद । टकसालिया तदु* घु० ) डकसाल का काम करने टकसाली ठदु ० धु०./ यारा, जिस टहसाली की ओर से टकसाछ चढता है, सिर्के दर वाने बाबा, दतिप्रक्त होगा देना ( या० ) सिर से ठोचर देना, पशुक्नों का परस्पर झ्राघाद करना /-मारना (वा० ) घम्हा क्षगाना, ठोकर मारना, दड्ेटना, रेलना, पेडना, पटना, झुकाविद्या करना, सामता कान३, बरायर सें खडय पोना। टसना दे* ( घु० ) गुल्फ, घूंटी। टेवता, घुटना । ट्गण तव्‌० ( ६० ) मात्रिकपर्यों में से एक | ड्गर डगर तद्‌० ( छु० ) सुद्ामा, क्री, तगर का इतत । टगरना दे० (क्रि० ) डपरना, लुड़कना, बहना, गिरना । दगरा दे० ( वि० ) टेढ़ा, वॉका, तिरछा, सरग पत्ताल्ली | च्गराना दे? ( क्रि० ) घुसाना, डबराना, खुढ़काना, फियाना । ड्चलना ] _( क्रि० ) पिघलचा, हृदय का द्दीसूत ट्घरना ) होना, घुठना, भछना । व्घक्ताना ) ( क्रि० ) पिघलना, गलानां, घुछामा, व्घराना द्वेव करना । उड्ढू तत॒० (चु०) [ दहुः + अल ] परिसाण विशेष, चार मासे की तौर, टंकी, छैनी, जिससे पत्थर काटा ज्ञाता है। खब्ठ, तलवार, क्रोध, अहद्टूपर, झुहागा, खुरपी, दप, सुदा, सिक्का, खनित्र, खनता, फरुद्ठा, की, तलवार का स्‍थान, कोश, परवत का जडु, कुदाल, खाई, नीछा कैध+ कुछदाड़ी । डड्डुक तवब्‌० (घु०) [ स्ड्टः + क ] रजत मुवा, सिक्का । “पति ( छु० ) मद्राध्यक्ष, कक्रख्राछ् का मालिक, टफसाक् छा अधिपति |--शाला ( ख्त्री० ) मुद्रा- लिर्माणशुद्द, टकसात्ष । डड्डृण तब० ( ० ) सुहयगा, उपधातु विशेष, जिससे सोना आदी श्रादि गछाई जाती है । [रूडना । टद्डुना तद॒ु० (क्रि० ) टॉकना, सीना, कूटकाना, - टड्कलार तत्‌* ( 8० ) ज्या का शब्द, धनुष के रोदे का शब्द, चिलले का शब्द, आश्रय, विध्मय, श्रचम्भा, प्रसिद्द, धज्॒प का भयानक शब्द । हि ड्ढडी ( खी० ) पानी रखने का छोटा चहवच्चा । ठड्ढोरर दे० ( ख्ी* ) घलुप के रोदे का शब्द, धनुप की रक्टूगर, घलुप की सयानऊ ध्वनि, रोदे को पीछे खींच कर छोड़ देने पर जे श्रावाज़ होती है उसे टछ्ठतेर ऋदते हैं । हि पे उड्भोग्ना दे० ( क्रि० ) फाइना, घत्ुप के रोदे को फाड़ना, ज्या को खींचना, उसे साफ करने के लिये खींच कर छोइना । डक्कूडी दे० (स्ती०) पैर, पावि, टयरी, गोडु, फिछी । ट््व दे० ( छु० ) ऋपण, सूम; सूमड़ा, केजूस, सक्‍्खी- चूस । ध ( इ१७ ) च्प डठका दे० ( वि० ) धया, नवीन, कोरा, श्रमितनव, ताज़ा, अभी का, चुरल्त दना हुमा +( घु०) उतरा इतरा। ( स्नरी० ) टठकी, नयी, सीना, ताज़ी। डठड़ी या उूय्री दे० (ख्री० ) घेरा, सेंड, थाला, आलबाल, बृज्षों के सूल में पानी सीचने के लिये जे घेरा बनाया जाता है | खोपड़ी, उडी, टी । डठ्पूं जिया दे० ( वि० ) थोड़ी पूँजी घाला, अल्प सूज घन चाढा, जिसके पास स्वल्प घन हे। । थठ्यानी दे* ( स्वी० ) छोटी घोड़ी, टहुईं। टठिया दे० ( स्री० ) ऊाप, द्वार बन्द करने और दृष्टि से दीवार की रक्षा करते के जिय्रे तृणादि चिभित व्द्चर, स्ट्टी अटीहरो दे० ('स्त्रो* ) पक्षी विशेष, टिट्टिम । डदआ दे० ( घु० ) घोड़ा, छे।टा घोड़ा। खटठुई दे० ( स्री० ) टट्वानी, छोटी घोदी । ड्येलना दे० ( क्रि३ ) दाथों से हुढ़ना, छू छू करके पहचानन), देआ टेाई करना | उट्टर दे? ( ७० ) रूषि, बड़ी टट्डी, टटिया । ट्द्टरा दे० (४० ) ठट्ठा, डींग, ढोछ या चगाड़े का शब्द | दल्डा तदू० ( छु० ) बढ़ा ब्डर । टट्दी दे” ( छी० ) माप, टछ्छ, टिया, छोटा दथटर । डद्टू दे० ( ४० ) छोटा घे।ड़ा, रु भा । ठणठ घण्ट दे० ( घु० ) पूजा का भारी आराडस्थर | डणुठा दे० ( पु० ) ऊड़ाई रूगढ़ा, बखेढ़ा, उपदव | उंण्डा, ठंदा दे० ( १० ) रूगड़ा; बखेढ़ा। क्‍्रपश्ठ । डठिया दे० ( स््री० ) एक प्रकार की भाग । उन दे० ( १० ) टहुयेर, घनुप का शब्द, अ्दृझ्भार घंटे की ध्वनि विशेष, परिमाण- विशेष, 'भ्रद्टाइस मन का एक उन दाता है ।--ठस दे० ( स्री० ) चंटा घजाने का शब्द । [वीक्ष्य स्वर । उनक दे० ( स्ली० ) टीस, कर्कश शब्द, गम्मीर शब्द, डनाउटन दे० ( खत्री० ) घंटा बजाने का छगातार शब्द | उनाना दे० ( क्रि० ) विस्तार करना, चिस्तृत करना; फैलाना, पसारना, बान्धना, खींच कर बान्धना, कसकर बाम्घना ॥ टिप दे० ( खी० ) फिटन, टमठम आदि का चंद साथ- बान जो इच्छाजुसार चढ़ाया था गिराया जाता है। डूँद बूँद वपकने का शब्द, किसी चस्तु के सदसा थ्पक गिरने का शब्द ( आम का टपछना )॥ (६० ) पानी रखने के नाँद के ठग का खुला भढा बर्तन, पुक औजार, बाँध छा देकरा भिप्तपे मुर्गी के बच्चे ढह् दिये जाते हैं | टपक दे० ( पु० ) रद्द रह कर द्वोने वाज्नी पीढाया बेदना, जल आदि की बूँद गिरने का शब्द । टपऊना दे० ( क्रि० ) चूना, बैँद दूँइ गिरना । टपका दे० ( ५० ) पामी डी दूँद, अज्षग अद्ग द्ोझर गिरना, पक्के फलों का बृद्ध से भाप ही झाप गिरना, श्राप प्रे गिरा हुआ श्रास्त का पक्का फल्न |) टपकाना दे ( क्रिब ) छुम्राना, छानवा, निकाक्षता, रह भ्रादि निकालना, छानना । पका टपकी दे० ( खी० ) दूँदा बूँदी, फुद्दार टपन्ञाना दे० ( क्रि० ) कूद जाना, उच्चछ जाना, श्रागे बढ़ जाना, अप्रसर होना, पीछे की दात भूछ जाना, पडल्े की बात के भूल जाना । टपना दे* (क्रि० ) नॉधिना, डॉविना, कृद कर जाना, फाद कर निकल जाना । टप पड़ना दे ( क्रि० ) बीच में छूद पढ़ना, हाथ बद्ाना, दूसरों के काम के थी व भा पढ़ना, अवि- चार से किसी काम के! उठा लेना, किप्ती काम की गुहता या हानि लाम बिना सोचे ही उसप्रमें छम जाना, भ्रघ्नानक भा जाना! टपरा दे० ( पघु० ) छप्पर, छाबन, कोएड़ा । टपाठप दे० ( पु० ) छूगातार, टप टप कर टपकना । टपाना दे* ( क्रि० ) कुदा देता, नेंघवाना, कुदवाना, फ्ँदाना, फेदा देता [ टप्पा दे* ( यु० ) डाक घर, दाकप्गना, पोस्ट झ्राफिस, घरनाई, पालकी ढोने वाक्षे कद्टारों की डाक, धीच चीद में इनहझा पहाव, अन्तर, छोटा सूमिभाग, नियत दूरी, मोदी सीदन, रागिनी विशेष, एक प्रदार के शीत का नाप्त। गेंद छा उछाल, पुक प्रकार का क्राटा (--ाता ( वा» ) शोह्ी या गेंद को इछुबते हुएपु चलना | दष्बर देन ( यु* ) परिवार, कुछ, वश, कुटुम्द । ठमक देन ( छी० ) पीदा, यातना, बेदना, कष्ट, टीस | ध्वनि विरोष, पानी में पानी गिरने का शब्द | ( रेश८ ) टषाई डमकना दे ( किए ) गिरना, टपझना, चूना, टमझ द्वोना, मण में बेदना होना । डमकी दे ( स्री० ) डुगडुगिया । डमठम दे* ( स््री० ) घोड़े से खींची जाने वाली खुली दो पद्टियों की छोटी गाडी । उमटी दे० ( श्री* ) एक बरतन विशेष। टर दे० (स्थी० ) श्रदक्वार, गुमान, भकड़ ऐंठ, मेंढक की देती, हठ, अडड, तुच्छ बात । ( वि० ) मत* बाला, उन्मत्त, अचेत, भ्रसावधघान |--ठर (ख्री० ) बक़पक, बढ़वड |-ट्यनां (क्रि० ) पक, करना, टर॒टर करना; निर्थक बहुत बोछना, थक घाद करना ।-ठरी ( गु० ) वकदादी, बहुमापी, बढयहिया | टरई दे+ ( क्रि० ) हृटती है, दकती है, इटगाना । टरना दे० ( क्रि०) हटना, टल जाना, फिसक्त जाना दूर हो। जाना, सगे जाना । टर्फाना दे० ( क्रि० ) हटाना, सिसवाना, टाक्ष देना । टराना दे० ( क्रि० ) हटाना, इंटा देना, टाल देना, भगा देना, हटवाना । टर्रा देन ( वि* ) कोधी, बकवादी, बढ, गुंडा । टर्साना दे० ( क्रि० ) बकरक करना, चिहचिशाना, क्रोध में भाकर बकना, गाली देशा । टलना दे* ( क्रि० ) दटना चम्पत द्वोगा; भंग जागो; चढा जाना, सरकना, दूर दोता, जाता रहवा, नष्ट हो ज्ञाना ) [भ्रण ) उल्वप दे० (स्री० ) छाट, हुकदी, कंतरन, खण्ड, भाग, डलमलाना देल ( क्रिन ) दगमगाना, स्थिति का भनि- श्ित डोना, संदिग्ध स्थिति का होना, छलचनी। डलाटली दे० ( ख्री० ) धदाना, मिस, दीठाइबाला | टलाना दे० ( क्रि० ) छिपाना, ठकना, लुकाना, इृदवा देना, इटादा कर छिपा देना, सरका देना, लुकवा देना । [ सारददीन वस्तु, ढोहर ॥ टला देन ( घु० ) कूठमूठ, भसत्य, मिध्या, विएधक। डल्ली दे० (प०) पक प्रकार का घॉँस । टल्मेनचीसी दे« ( स्ी० ) ब्यप का काम, निदापन/ यहाना, दाल्मदूल | ड्यर्ग तन ( पु» ) ट ढडढ़ या, टकारादि पंच दर! | ढाई देन ( र्वी० ) ब्यप घूमना । व्स उस दे० ( स्री० ) किसी वजनी वस्तु के खिधकने का शब्द +--से मल्त न होना ( वा* ) जरा भीनच इृदलना, जरा भी न हिलना | उसके दे० ( ख्री० ) ठीस, चमक, दुदे, व्यथा, पीड़ा । दसकना दे० ( क्रि० ) टीस़ देना, व्यदा होना, घटना, इृदना, द्िछना; रोना घोना | [ दूर इद्यना | उठसकाना दे* ( क्रि० ) द्विकाना, चछाना। खसकाना, उसना दे० ( क्रि० ) मस्कना, फटना, फट ज्ञाना झस से मल दे० ( चा० ) इधर से उधर, इस धात से उस बात पर, एक विष्य को छोड़कर दूसरे विषय पर, पूर्व स्थिति को छोड़ कर दूसरी स्थिति पर | डुसर तदू ० (पु०) श्रसर,एक प्रकार का रेशमी सेटटा कपड़ा। दहक दे" (स्त्री५) गांठ की पीड़ा, ज्ण क्री घेदवा । रुहकना दे० (क्रि०) दुखना, दर्द करना; ज्यधा होना, पिराना, पिथलता, दृत्र होना । ठहलह, उहुदहा दे” (थि० ) सुन्दर, नवीन, ताजा मनेदहर, रसणीय, य्टका । ठहना दे० ( घु० ) पेड़ की शाखा, शास्त, डाल [ डहनी दे० (स्री०) पेड़ की छोटी शाखा; दोटी ढाली * बदल दे” (३० ) सेवा, शुषा, ख़िदमत, घर का कास फाज, यधाः--- & नीच ठहल्ल सब गृह के करिददों, प्रव विल्ञोकि भचस्तागर तरिहों ” | “रामायण । +-ठकोर ( वा० ) शश्पा, कास काज, ग्ृहकर्म। -- थकोर करना ( वा० ) सेवा करना, झधघीनता घजाना ) दहलमा दे० ( क्रि० ) चकना, फिरना, घूमना, अमण करना, हवा छात्रे जाना, सन्ध्या सुबह अमयण करता! रूहजानी दे" ( स्त्री०) दासी, सेविक्रा, सेवा करने वाली स्त्री, घर का कास काज्न करने वाली ख्री, मजूरिन, नैकरानी । [दिवा खिल्ाना। उहलाना दे०( क्रि०) घुमाना, फिरना, चछाना, उतना, हठलुवा दे० ( प० ) सेवक, चाकर, नौकर, ग्रह कर्म करने वात्षा, दास, दहल करने बाला । डदल्लई दे" ( स्त्री० ) छोंडी, दासी, चाकरानी, कास करने बाली, डद्ल करने वाले की स्त्री, वह लकड़ी जो दीपक में बत्ती उकसाने के डाकी जाती है। _ ( ३१६ ) डाँठाई डहत्तू दे० ( घु० ) नौकर, चाकर | उही ढे० ( स्त्री० ) युक्ति, जोड़ त्तेड़, ताक | वद्ठका दे० ( पु० ) पद्देली, चुटकुछा उद्दी देड (पु० ) बालक का शब्द, बालक की रुछाई, जन्मते बालक का शब्द । डद्दीक, दह्ोका दे” (घु०) घूँला, चपेटा, धप्पढ़ । दाँक तदू० (पु० ) टू, चार भाशे का परिमाण घीने का साधन, एक प्रकार की सुई, सिलाई, सीवन | [का चलाना | टॉकना दे ( क्रि० ) सीना, सिलाई करना, तुरपना, उकिर दे० ( ० ) छूम्पट,. लुचचा, बदमाश, शुंद्धा, अच्छुक्ुल । टाँक़ा दे० (3०) सीवन, जड़ाई, जोड़, जोड़न, सन्धाय | टाँकी दे" (स्थ्री० ) पत्थर कादने का अस्त्र, छेनी, रुखानी, नासूर, फोड़ा खबूजा या श्रन्य' किसी फक्ष का चैकोना टुकड़ा, जिसले फल का अच्छा घुरा होना पहचानते हैं | कुल्हाड़ी, खसदा, पानी जसा करने का होज़, छोटा चहबच्चा | टाँकू दे” (वि०) टकिने चाला, पत्थर कारने चालक । डाग दे० (स्त्री० ) देंगड़ी, गोढ़, पर, ऐँड्री से घुटने तक का भाग, लंटकाब, टेगाव ॥-झड़ाना ( वा० ) 'अनधिछार चर्चा या हस्तक्षेप |--तलते से निकलना ( बा० ) हार सानना ।+--सेड़ना (वा० ) निकममा करना, किसी भाषा के हूडे फूरे शब्द बोह़ना |--पसार कर सेना ( बा०,) निश्चिन्त सेना | किरना | डॉगन दे० ( फ्रि० ) कछूथ्काना, ऊपर घढ़ाना, लम्बा शाँगना दे० (एु० ) एक प्रकार का घोढ़ा, पद्दादी घोड़ा । टाँगी दे० ( स्थ्ी० ) कुल्हाड़ी, फरसा, लक्षष्टी काटने का एक अस्त विशेष, टागी। डाँच दे? (जि० ) ) हृढीजा, इठी, वक्, टेढ़ा (०) डाँचड़ा दे० (वि० पेच, दुदाव' | थाँद दे० ( स्त्री० ) सिर के घीच का भाग, चांदी, तालु, टस्ड़ी, खोपरी ॥ झँठ दे० ( वि० ) पोढ़ा, ठोस, ससार, सास्युक्त, कद़ा बत्साही, उच्योगी, उत्साइशील । जिगरमता। डॉठाई दे" (स्त्री० ) पोढ़ापन, उच्धाइ; ठोसाई, या टांड़ दे" ( खी० ) दीवालों के बीच जड़ा तस्ता जिस पर सामान रखा जाय। मश्च, मचान, बैठाने के लिये बाघ भादि का बना ऊँचा आसन | टॉँड़ा दे” ( पु० ) खेत, एक सलुष्य का बोर, एक बार छ्े उठाने याग्य चरतु, बनजारे की वस्तु । टाँडी तदु० ( छी० ) टिट्ठी, कीट विशेष । टाँय टाँय दे* ( स्री० ) ककेंश शब्द, बहुबाद । रैंप राय फिस ( बा० ) बकवाद बहुत किन्तु परि- णाम कुछ भी नहीं । [ बिछ्वावन, बोरा | दाठ दें० (थु० ) सत्र का बना हुआ एक भक्ार का दाठऊ दे ( बि० ) टटका, नया, नदीन, ताजा | दाटी दे० ( ख््री० ) टटिया, टट्ठो, माप, टट्टर । टाठी तद्‌* ( खी० ) थाली, मजयूती । टाड़ी दे० ( ख्री० ) ठकडी काटने का श्रस्र विशेष, छोटी कुरदादी, फरसी, घेटा फरसा | दान ( क्ली० ) तनाव, सिचाव | [स्वींचना | डानना दे० (क्रि० ) फैलाना, विस्तार करना, ऐंचना, दाप दे* ( पु०) छवि, नांघ, उलछहुन, डॉ, घेड़े का शब्ध, जो इसके दे।ड़ने पर होते हैं| बलि का बना डुभा पुक प्रकार का टोकरा, जिससे सद्धल्ियाँ पऊद्ठी जाती हैं। मुरंगिये। के बन्द करते का सात्रा। डापना दे? ( क्रि० ) शाप मारना, दृढ़ना, खोजना, ताकते रद्द ज्ञाना, मिराश द्वो जाना, विराश बैठे ताइते रहता, भूखा रद जाना । ठापा दे० (ध० )भर्ज़ावा, वाँस का बना दौरा बडा पिजरा, टघा, मेदान, उदार, झूद । टापू दे* (प० ) द्वीप, भूमि का बढ भाग जो चारों और से पामी से घिरा हो । ( देखो द्वीप ) टावर दे० (ख्री० ) छोटा रोक, तालाय, भक्ृत्रिम चोदा ता । ( थु० ) वाढुड, लड़का । टार दे० ( छ्ि० ) दारकर, इृटाकर, नॉविफ्र, उछहुन कर, सरहा कर। (घु० ) घोड़ा, छौंदा, कुटना, अँदुधा, ढेर । दारन दे० ( ० ) इछहुन, इृदावन, टलन। ठारना दै* (क्रि०) इृटदाना,साहानाखूर करना,टाबना] टारी दे* ( स्प्री० ) दूर, अन्तर, फासिटा | खाल देन ( स्त्री० ) रज्धमटोल, प्याज से कान काटना, प्रद्दाता करके समय निकालते ज्ञाना | खकद़ी धन ( ई२० ) ड्किया आदि के देचने का स्थान, कच्छी का ढेर, अन्न राशि, पदलवानें की क्वटाई का घेपा | टदालटूल दे* ( ० ) ब्याज, पढाना, मिस्र । डालना दे० (क्रि०) इटावा, जिताना, काटवा, निवाइना। टालमग्ल दे० (३०) बद्चानायाजी, कपट, घोल । टठाल्ा दे” (प० ) छक्क, कप्ठ, धोसा। बदनर्भाई। वाला बताना (वा०) थाढना, दादमगेलछ बताना, घोछ घुम्राव करना, इतस्तत करना पट्टीबाजी काना । डाली दे० ( स्थी०) गाय बैल के गल्ले की घटी। जवाब याय जो तीन चघर्ष से कम की हो भोर बहुत चथुद्य द्वो, वड़ी ईंट, एक प्रकार की ईंद। डाली ( घु० ) ८दलुवा, दास, सेवक । विकिटिकी दे० ( स्प्री० ) दिपकिजी, जिपतुहया गृहगोधिका, ठिकठी, उँची तिपाई गिर ११ बच कर अपराधी के बेत छगाये जादे है पा फ्ाँसी ठगायी जाती हैं । दिकठी दे० ( स्त्री० ) तिवाई तीत पाए की टिम्ठी । व्किड़ा दे” (पु०) बाटो, अ्रपाकड़ी, 'बपथ गोल डकड़ा। ( स्त्री० ) दिकड़ी टिकना दे० (क्रि० ) बसना, ठदरना, चलना, रहना, कपड़े थ्रादि का बहुव दिनों तक चढना । टिक्ररी (स्त्री० ) टिकिया, एर प्रकार का पश्चाव। डिकलो दे० ( स्त्री० ) बेदी, स्त्रियों के सिर पर छवाने का एुक प्रकार का भ्रामूषण, सौभाग्य चिन्द, दिकुज्ली, छोटी टिकिया । डदिकस ( पु ) कर, भाड़ा; किराया । टिकाऊ दे० ( बि* ) टिह्रन बाला, 5हारक, चढछाऊ, चलने वाला | जिलाना । दिकाना दे (क्रि० ) रफ़ता, टहराना, बह्तावा, टिकाव दे" (१० ) ठदरते का स्थाव, टिकझते का स्पान,/द्राव,ध्पिति, दृढ़ठा, पड़ाव | [वासस्थान । दिरासर दे० ( घ० ) टिइने का स्थान, रहने की सृूमि; दिकासा दे० (वि०) टिकने चाला, पयिछ,राष्ट्रीनवटोट्टी । दिकरिया दे* ( ध्वी० ) छे थी रोटी, बाटी, पिसी हुई चघ्तु की ग्रे्ध और चिप्रटी यनी दुईं वस्तु, केपले की योर गे टिकड़ी जेा तस्वासू पीन के काम में आती है। हु व्कुरा डिकुरा दे० ( बु० ) दीछा, भीदा । व्छिली । दुखे। + टिकी ? | ब्कियी | दिकेत तद्‌० ( घु० ) युवराज, ऋधिष्ठाता, सरदार, जाथद्वारे के गोसाई जी की उपाधि । विक्केर दे० ( घु० ) लेई, पुल्तदिस, लेप, लेवदी। टिकेारा दे० ( छु० ) श्राम की बतिया । टिक्कद दे० ( छ० ) सोटी रोटी, बाटी । डिक्की दे ( ज्यी० ) लूग्या, प्रवेश, लगाव, पैठ, पैसार, टिकिया, पैवन्द, कपड़े या चम्रढें का टुकड़ा, जो जोइने के काम्र श्रात्ता है । डिधलाना दे० ( क्रि| ) पिथलाना, गढाना, द्ववित करना, पतज्ञा करवा, पतलाना | व्विकारना दे० ( क्रि० ) बैछ आदि को उत्साहित करना, टिक टिक्त करके पशु के ज़ोर से चलाचा। टिलफार दे० ( पु ) टिठकारी से हाँऊना, टिटकारी देकर चक्ाना | ठिथिकारी दे० ( छु० ) पश्च हकिन का शब्द । विडिहरी दे० (पु० ) पछीविशेष, टिट्टिम, कहा जाता है कि इसका वेललना मावी अशुभ का सूचक हैं । दिल्टिस तव॒० ( ० ) पच्चीविशेष, टिडिहरी, रिड्डी । दिड्डा दे० ( धु० ) पतद्, फततिज्ा, फड़न्रा, फरिन्ना । विड्ढी दे* ( स्री० ) तृणनाशक छीट, अनज्ननाश करने चाहा । डिपका दे० ( पु० ) दाग, दीका, भ्रल्लुली श्रादि के द्वारा शा घे किसी वस्तु के चिन्हित करता) विप्पन तदू० ( छु० ) विप्यण, सूक्ष्म टीका, स्वछर विवरण, जन्मपत्न । डिप्पनी तदु० (खो० ) टिप्पणी, टीका, विवरण, किसी विपय का भावार्थ, कसी पर अपना मठ प्रकाशित करना, किसी सन्दिग्ध विषय का समझने के लिये छुलासा करना, स्पष्टीकरण । टिप्पस दे० ( ख्री- ) युक्ति, प्रयोजन साधन का डौल | डिपूसुलतान दे० ( छु० ) मेखूर के प्रसिद्ध सुल्तान हैदरशली का पुत्र, देदरअली के मरने के बाद टिपू उनके यदु का 'अधिक्वारी हुआ, १७८र इंसची [: दिसस्वर का मैसार की सुकतानी इसे मिली, इसका जन्स १७४२ ई० में छुआ था । ईँदरअकी ( इेश१ ) व्मिविमाना और अड्डरेज़ों ले विरोध था, अतएुव हैदरअली के मरने के बाद अड़रेज्ों ले मैसूर पर चहाई करना चाहा था, परन्तु ठिएू की युद्धकुशलूता से थे कुछ दिलों तक दबे रहे, अड्रेज् लेनापति स्याचू ह महीने तक बदनौर में टिपू की सेना से घिरा छुश्ला था । परन्तु अन्त में उसे आस्मसमपंग्ग कर देना पड़ा । बदनार से होदर ठिपू ने मन्नलेःर में अड्रेज़ो सेना पर चढ़ाई की, कुछ दिनों तक युद्ध चलता रहा परन्तु अन्त में सम्धि डो गयी। खम्धिपत्र में लिखा गया था कि अब आपस में छड़ाई नहीं होगी | यह सन्वि हो जाते पर टिपू ने टूवनकोर पर चढ़ाई की, अ्रन्नरेज़ और ट्ूावनकार के राज्य में मिन्नता थी, अतएच घुना आपस में विरोध उपस्थित हुआ। मद्रास के अक्नरेज् छेनापति मेडोज़ ११ हज़ार सेना लेकर छिपू से छड़ने के लिये आये | मरहडे भह्टरेज़ों से मिल गये | हैंदरात्राद के निज्ञाम भी उसी तरफ हो गये । इस युद्ध के नायक बढ़े छाद फर्नवालित्ष थे | चारों ओर से टियू घिर गया, १७६१ ई० में इस प्रेना के साथ दिपू ने बढ़ी घीरता के साथ युद्ध किया, अन्त में इस छेना से समुद्ध के सामने टिपू के। हार मानची पड़ी, इसने सन्धि करनी चाही, सन्धि भी स्वीकृत हुई; परन्तु इस सन्घि के श्रजु- सार दिपू का श्रपने राज्य का आधा हिस्सा छोड़ देना पड़ेगा | सुछुतान ने यह भी मान लिया, « आधे राज्य में से सरहठे और निज्ञाम ने आ्रघा आधा बांट ल़िया। पुर प्रकार से ४७। ४€ वर्ष शान्ति से कठे, टिपू ने इस दीच में श्रपनी बढ़ी उन्नति करली थी, घुनः फरासीसी श्रौर मरहटों की सद्दायता से बलवान होकर श्रड़्रेज़ों सेटिपू ने ुद्ध छाना, वही युद्ध अन्तिम था, इसी युद्ध में टिपु मारा शया । दिसाना दे० ( क्रि० ) ल्ाज्च देता, ललूचाना, प्रतिदिन श्रोड्ठी सी बूृत्ति देना । डिसाव दे० ( छ० ) दिन की थोढ़ी सी जीघिका, ;. ल्यलच मात्र की छूत्ि | जिरखना । डिमटिम दे? ( पु० ) सन्‍्द सन्‍द दृष्टि, धीरे घीरे पानी टिमटिमाना दे? (क्रि०) दीपक का मन्‍्द सन्‍दु जढना | झु+ पर०७--३१ दिलडिजाना ( १२३ ) डुगिड 5-3 +न+सननननननन नस 3 >> सन न नल ननन चलन + दिल दनाना दें० (क्रिक) चिड्ठ ना, छेडका, दध्त ऋता । डिलिया दे* ( खो ) द्वेटटि मुर्गा, मुर्गी का इच!। दिल्यूगा दे* (० ) फुसटाऊ, खुतामदी; चिराद् काने घाड़ा । टिल्ला ( प* ) ऊँची जगह, हीरा | टिहरा दे० ( पु० ) छे रा गाँव, थेटी बस्ती, पुरवा दिदरो दे० ( स्थो० ) दे।टी बस्ती, पछी, गयेंई, पुर राजधानी का नाम जे। उतर भारत में गढुयाज प्रावममंद। दिदुनों दें० ( सतो* ) घुटना, काइनी । दि कना (क्रि३ ) थीं बना, साकझुना, क्रोप्रित होना | टठाट १० ( पु० ) फब बिदेत, कीच का फट, टैंटो । दास रे* ( पु० ) चुटिया, कोटी, सिर चर गले हे पुझ गदने का नाव। थोझा तत्‌» ( खी३ ) टिप्पणी, विवरण, कड़ित श्र या उिपव का साकार्थ कथत, तितछऊई, चन्दन, एुछ गढना ज़िपे ध्ाय स्वथरिपां छछाट चार मम्त5़ पर पहनती हैं। विवाड़ की पुर्र रीति,“जा कन्या- पछवाले चर क। भेंट देंते हैं। पित्राह काने के लिये हिपी वे। मनार्नपत करना, गुदव ना, चेवच और प्लेग आदि था टीश, अ्भिषेष्ठ, राज्य - सिरपेंष्, दिवाद्ामियेद्ठ "-क्रार तदु० (०) ब्य एपा हार । टोकीत २० (० ) टीका विशिए्ठ भ्रभिषिक्त, जिसही टोड़ा! था अमिपेद दोयगगे हो, नाथ॑द्वारे के गेलछामी जी डी परी । टोदजों ३० ( प्रौ६ ) चपध विशेष दोडी है; ( खो ) टिट्टी, शा सम, पत्र ।.. [बदर। टोन हरे० ( पु ) राग, रंगे की कन्नईदार क्ेद की डठोप दे* (१०) अघवण पत्र, तमम्मुष्, दम्तारेव, पेहरे का ठमध्सुझ, मिस पा सूछ और सूद के रुपये घुझुता काने » छिये अन्त धादि का देगा खिला बता दे । स्वत का चारोह, गाते में स्व! दो ऊँथा बढ़ाता, स्माण क्रेकिपे किसी दात का संठिप्त रीति से लिख देना, दोरना, दुदाव, जश्नरकुपान्नी, हुडी |-टाप (स्थत्रो७ ) अनावैट, सजावट दीश शआादि का जर्ड ता मरस्मत करना; थेद। योई, भूपय । डोपना दे? ('क्र)) दशना, श्रधिकार जवाना, प्रमाव फैटाता, ट्टोलना, दाथा से छू टू का हे हुइता, निश्येडना, उिन्दी लगाता, लिउना। छोड़ा दे० ( पु० ) दीचा, भीटा | [प बट । दोमटाम दे० (स्प्री* ) ठष्ट बाठ, तडक अइक, टोल दे ( स्त्रा० ) छेग्टी मुर्था टिलिया। टोज़ा ३० ( ५० ) ऊुँबी भूमि, दाटवा स्थान, मिट्ठ का प्राऊनिछ स्तूट, भीटा | दीव दे ( स्त्रो१ ) पीण, ध्यवा, बेदता, यस्त्रणा ! - मारना ( क्रि० ) पीया होता । छोसना दे० ( क्रिश ) रह रह छर दद होता । दुर तदू+ ( ति० * स्तेक, स्व॒४7, प्रा, नेक, थोडा, ऋणाय परिगण शुमदा द्वेर ( बु* ) हर अर, खण्ड, मांग । दुदृपा दे० ( वि ) शेड सा, जरा खा दुद्ठा देन ( १० ) छेटटी पूँ डक, गधे चूंद। छुद्गाए दे। ( स्त्री३ ) श्रद्चिएरक मोच २, बिना इप्छा के खाना । [ पोच, श्रेद्या, भरत । टुघा रेड ( धु* ) छुबा, छम्ाट, लप श, अश्टतरित्र, ड्च् दे* (4०) पर,नन्‍्दा, छोटा,छे'टे कूद का, ठेंगना । डुद्का 4० ( ६० ) नेद थे । डुडपु विया ( वि० ) बहुत थादे घत्र वाजा । डुद्झें टू देन (वि० ) भ्ररेला, पट, कमजोर । दुठ्ठों तद्‌* ( शरीर ) मामि, बेड़री | दुशडुझ तत्‌+ (५० ) इृए विशेष, स्वोता बूढ । डुगटुताना दे? ( क्रिड ) गुतेगुवाना, चीए चीरे गाना, शर्म दाने ग्रणायना, मन्द मनन्‍द यजाता। डुगद दे ( पु+ ) हथध्टा, भड मक्ष, ठग, शाखा रहित बुइ खुय, हूठ, स्थाए । [गया इ | दुएडा रे ( वि+ ) इचझटा, लूटा, जिपहा द्वाप कट दुशिडयाना द३ ( क्रि3 ) पीठ पर दाय बाघता, सुर 56 कसना, मुर5 चढ़ाना, मुशक दचिता । डुगिड॒ग कसना दे* ( झिः )) सरब्बढ़ावा, सर ठुगिड गा चढ़ाना दे (हिल ) झसता, अउशधी झे टुगिडिया दाँ उना दे$ ( छिे ) | हपों को परीढ़ टी और सोच क( बाचता ] डुण्डि तद॒+ ( स्ो> ) तन्दि, वॉइ, चामी, इमइटी खो, बिना दाप की खझते [ डुसकूना ( हेश३रे ) रेढ़ न लिप अखिल ५ 5 8 जड डुसझना दे। ( किः ) बिठकता, ऋत्दुन करना, रोना, | टेंटर दे० ( छु+ ) फडचियोत, भरांख के भीतर चोट से कूछना, चीखता । टुड्ड झूना दे ( क्रि३) सिउ्क्रता, रोना, रिप्ता जाना, क्रुद हो आना ।[ शब्द, पाद का घीवा शत्द्‌ हूं. दे। ( पु० ) अ्रपान बयु का शहर, भ्रधों बायु का छुगना दे? (क्रि ) चोंचेदना, चोंचों से बितना, कुवरना, पुक एुछ दाना खाना | हूँड ( पुर ) हो, गेहूँ, धान की फलियों के ऊपर की पतनी और नु हीली बाल । [थूणा। डॉडी तत्‌+ ( श्री ) तन्द, तुन्दि, नाभी, ढूंढ, स्थाझ, द्वम्न दे० ( पु ) इुरृढ़ा, खण्ड, श्रणु “सा ( अ० ) थोडा सा, तनि६ सा, जरा सा, अम्प परिमाण में ।--ा ( पु ) ढा ठक का ुक प्रकार का शन्‍्द | डु षड़ा, दिध्सा, खगरड, बखरा, भाग | ट्रूइ तदू+ ( खो ) भ्रुठे, दृदत, कूदन, खण्दन, टेट, कमी, हानि, छुरुपान, लेख का घह अंग जो पुम्तक्ष आदि लिखते सतय छूद जाता है और चढ़ पौड्डे घै लिघ दिया जाता है ( ( स्ी० ) द्वर गया, द्वंटना । हुंगता दे? ( क्रि३ ) दृुइ जाना, खरार ही जाना, बिडू ज.ना, नए हे ना, आक्रम ए झान!, बट पू6 आक- मण व २२, चढ़ जाना, चढ़ाई काना | टन दे+ ( वि ) हटा हफ्रा. फा हुआ फूड ( वि० ) नष्ट अट, सिसे'वि त्े। /बप इदर,खण्डरए् । टरुप् दे* ( ख्थो० ) थोड़ी बात,(चुटक्रि टा, छुपी, आम रग बियेरय -+ंाम ( पुर) थोड़ी पूंजी, अर सूठ घन, कुछ घोी बात । टुस्ता दे? ( छु० ) आंह का फर, ढाम की जग, बू्ज्ो के क्राम्तठ पत्ते, मदार का फट: अरद्ढु 6) द्वत्ती दै* ( सखी? ) झोपज, कली, अं हर । दे (ख्री० ) तेते की बोची की नकृ॒व | [श्रीमडुली। छंगरा, टगरी दे ( पुर ) मर्ध्य विशेष, पुर प्रकार देंबुना ( पु० ) घुसना | [ आंख ! छेघुनी ( छी* ) सहागा, छप्पर आदि के सद'रते का झेंद दे* ( पु ) करीज्ष का फट, कगाप का पक्का फट, कुश्ती, भ्रांखों का जेंढत, धघोती हवा लिय्टाब, जो कपर में पेट कर घोत्ती पदनते हैं, वे३ेसानी, घोखाबाजी । उमा माँस, <ढ१। अदा दे" ( घु+ ) अविचार कही दान, उच्छद्धूछ बातें, आग्रह भरी बातें, हठयुक बात, व्यर्थ कथत, सिर- थैक बेछवा, फूछमरी | डेंदी दे० ( खो० ) करी का बड़ा शर पक्का फल, शोय विशेष, कमर का ए६ रोघ । अुपा दें० ( घु० ) नटई, गन्ने की नस, गले सी घाटी। अं देज ( ह० ) तेते की ब्रेनी, चिल्शझाहट, फ्रिन्न- किवाहट, चीवब, कूझ, निःर्भ८ जिल्ल हट |-का द्वीप ( पु० ) एछ प्रकार हा नया हीरश, ब्रभावटी द्वीरा टेंट नाम के किसी अज्नरेज् ने हसे बताया है, इसी करण इध हीरे का नाम टर्दें का हीरा पड़ा है । हेंइ दे? ( खोल ) शओड, दिताव, श्राड़, ( क्रि३ ) तेज कर मे, तीज्य करके, सीक्षए करके, शा चढ़ा के, स्य हे, तेज क्रिश, सान लगाई, पैनी बरहे । डेउ दे० ( ख्री: ) टेब, आदुत, स्वपाय, बान | देह देः (खीर ) थूती, शिव, सदारा, भषदूस्य, टे न, खम्भा, प्रण, प्रतिज्ञा, हठ सदा | डैेकन देक ( स्त्रो० ) बाड़, थांन, धांमक्ता, रोक । केकना दे+ ( क्रिस ) आइना, चिता, सदारा लथाना, आश्रय देना । शेकती ३० ( स्थ्री० ) थूनी, टेकन, सांग । डक, ठेझरा दे* (पु०) दीड़ा, ऊँदी जुमीन, समिद्ठी का ढेर, मिट्टी का प. ड़ | छेफरी दे० ( खो० ) टी वा, स्वर, ऊँची जमीन । शेहत्ता ( स्म्री> ) रटन, धुन । देफ्ान दे० पु* ) ४६, थ्राइ. अवत्टम्ब | सेक्ो दे” (बि.) दापतिज्ष, प्रतिशा पालन फरने वाला, सत्यनन्ध, बड़ी दइढ्ता से प्रशिक्षा पालन कर- बाला, हड्डी, जिदी । डेइआ ( पु+ ) चाखे का सूया | शेंकुरा दें* ( पु ) पान, साम्बूट । डेकुगी दें+ ( धटी० ) सूत्र कातने का सकृड़ा, चमारों का सू गा, घोर नमक झआाद्ुए्य | दें० ( पु ) पेंड्री, एक प्रकार का अर्खा । दें* (पु० ) बक्र, बांका, ऊभड़ खाभड़, ध्रश्वढ़, लिखड्ठा, सीवा नहीं +-करना ( क्रि* ) झुकाना, द्व्ड| डे ठेढ़ा नवाना, गाँका करना, तिरदा, करना|--चबड़ा ( बा० ) चीस्थ्ीन, तिरछा, बाँछा, वक्र, कुटिक । टेढ़ा ( बि० ) व, कुटिल, उज्जड, नटखट, शरीर ) टेढ़ाई दे। ( खीर ) वक्ता, वकिपत, लिरदाप्न | टेढ़ी दे" ( छी० ) अहड्डार, गये, दुपे, भ्रसिमान, अधमता, नीचता निचाई, हृठ, दुराग्रद । देना ( क्लि० ) हथियार पर घार रखना, हथियार तेज करना, मूँद् के वालों के ऐंड ऐंड कर सदा करना | देनी दे० ( खी० ) छोटी #ठिया, छिक्ुनी जे चरवादे रखते हैं । टेघुज् (६०) मेज,चौझार ऊँची चौफी | [ जेति,समय। टेम देन ( स्त्री० ) पत्ती का जल्ला हुआ शुद्ध ण॒ फूछ, डेए दे० ( श्री० ) कऊय, पुशार, गुहार, दीनतापूर्वक रचा के क्षिये धाद्वान, स्वर, तान, ताल | डेरना दें" ( क्रि० ) पुशारना, ठल्तक्ारना, बुल्टाना, हकि मारना, भाद्वान करना, गोदार करना देसी ( स्त्री० ) पतली डाक, छोटी ८इमी । टेरे दे० ( क्रि" ) बुछापे, धुछारे, हँकारे । टैजना दे* ( छि० ) टारता, धुपेडना, हटाना, ढके- छा, वरपू्व पीछे इटाता । टेघ दे० ( स्थो० ) चान, आदत, इठ, जिद, प्रत्तिज्ञा, स्वपाव, भ्रम्पास, चाल] देवी दे० ( स्प्री० ) थूनी, खम्मा, थम्मा, सद्दारा, दीवार आदि का अवक्धग्य, नाव का सव से ऊपर का छोटा पार । टेचना दे? ( क्ि० ) बाद देना, तेज करना, सीखा करना, पैनाना, सान चढ़ाना, घार देना । देवा दे० ( पु ) रिप्यन, जन्मपत्री, लिपमें जन्‍म के समय की प्रद्गगति गणित के द्वारा ठीक करके क़िस्ती रददती है और प्रद्दों की गति में अन्तर पढने से सद- जुसार भलुष्यों के सुत्र दु की व्यवस्था कद्टी जाती है। डेचैया ( पु* ) तेज करने बाला। डेखू दे" ( पु० ) परारा का फूज, ए% प्रकार का सेल, । सुन्दर परन्तु निगुण मनुष्य । शेहरा दे० (पु० ) गाँव, पुरदा, गेंवई, छोटी दस्ती । छेहता दे० (६७० ) विव्वद्द की पुक सीतिग टैबेस दे* ( ४० ) घर, मइसूल । । ( इशछ ) शेडरमज् डैंटी दे० ( स्त्री० ) देखो टींट । [ डौड़ी । टरैयाँ दे० ( स्त्री० ) पक भरकार की छोटी पऔर चपदी ओपग्माई देल ( स्त्री० ) स्पश, छुधाई । शझारेई दे? ( स्त्री० ) दटोलाई द्ँढाई। टेझ्चा दे० ( स्प्री5 ) अरकाव, रुकाव, रुकावट, रोके | दाह ( स्थ्री० ) छेश्दाड शेह दे० ( पु० ) बोर, सिरा, किनारा, नाऊ, फेता। डोफूना दे० ( क्रि० ) पूछना, यात्रा से जाते हुए को पूछुना, रोकना, ईपाँ करना, बुरी दृष्टि से देखना । दोकरा दे० ( पु० ) दारी, डकिया, कौशा ।--टोकेरी ( स्त्री० ) चोट टोकरा, डलिया, मापा | टाका शोकी दे ( स्त्री० ) पूछताड, घेड़दाद, टोइ- टाझू, रुकाव। [आदि ही किया । टोटका दें (घु० ) अन्तरसन्तर, घशीकरण, डेश्ाटन दोटफरेहाई दे* ( स्त्री० ) थोटका फरने वाज्ी | डोट्रू दे* (4१०) एक प्रकार का घुघघू, पण्डुकविरेष। डोटल दे० ( ४० ) जाइ, ठीक, पेश । डोटा दे० (प०) घटी, घाटा, जुरुसान, द्वानि। टोंटा दे५ ( पु० ) प्टाछ्य, सुर्रों, वारूद की पुढ्ठिया जे अन्दूक में भर कर चलाई जाती है, कारवूत, बॉस के छोटे चोटे दुकई, हृठा, दृपटूदा । शेंटी दे० (स्प्री० ) पनाढा, मेरी, नक्ष, पानी जाने की नली, नालिका ।--दार ( पु० ) जलपा१ विशेष, हथदर जिपमें दोंटी लगी रहती है, गड़ु भा | डे्टरमज़ दे ( ..९ सन्नाट्‌ भ्रकबर के यंद प्रधान राजस्व मन्‍्त्री थे, यह सत्री थे, पक्षार के लदौर में इनछा जन्म हुच्चा था, यद युद्ध विद्या में भव्यत्त निषुण ये । इन्दें सम्राट ने अपने सेनापतियों डी अ्रणी में भी सर्तो किया था | यद गये बजाने तथा कविता काने में भी चतुर ये । यद गणित के प्रसिद्ध विद्वानू से, जानने योग्य आान्यात्य बातों में मी इनझा ज्ञान कुछ कम नहीं था + यद्यपि ये राज्य के सबने हे ध्रष्यद थे तथापि विधा और वीरता में इनही प्रतिष्ठा कुछ कम नहीं थी | टोडामस् 'हे पइले राज्य का द्विवाब हिन्दी में बिखा झाता था। परन्तु इनके समय से फारसी में लिया ज्ञान छगा । २० वर्ष की अवस्था में ये इतने यह राज्य फे दीडान बने थे, कर व्ूट करने के दिये जे नियम डोड़ी ( ३२४ ) ठकुराई इन्हें'ने बनाये थे, उनसे ये चड़े यशस्वी समझे ज्ञाने छूगे। अकबर के राज्य में टोडरमछ के समान आडिटर ( हिसाब परीक्षक ) दूसरा नहीं था। अपनी बुद्धि और परिश्रम से टोडरमल मुहरिर ले दीवान बन गपे थे, इन्हें गज्ा छी सी पदवी मिली थी | डोड़ी बे० ( खी० ) राग्रिनी विशेष । खिलरोडी दे० (स्थी०) चुंगी, कर । झेनचा दे” ( छ० ) बात, पत्ती, लद्दुड़, शेटका । डोनहा दे० ( एु० ) मन्त्री, यन्ध्री, दोटका कानेवाल्ा, जादू करने वात्ा ! टोनहाई दे० ( स्त्री० ) जा हूगरनी, दोता, यन्त्र, सतत | शेनही दे* ( स्त्री० ) ॥ डोना करने बानत्नी स्त्री, दोनदैया हे० ( ख्ो० ) / जादूगरगी । देना दे" ( घु० ) जादू । ( क्रिए ) टढोलना, हृढ़ना, खेजना । (४० ) चशीकरण, छुलन, जादू, « खुछावा +-ठानी (ख्रो० ) मन्त्र यन्त्र का प्रयोग | | “+दामन ( छ० ) टोटका, वश करने के उपाय। शेप दे० (६० ) बड़ी टोपी, कनदोप, साहब लोगों की टोपी, सीवन, टौका | टोपन दे० ( छु० ) टोकरा, वौरा । शेपरा दे ( पु० ) दोहरा, दौरा । ख्षपरी दे० ( स्त्री" ) टोकरी, दौरी । शैेपा दे० ( पु० ) सिर झा दकूना, कपाछ, खोपड़ी, भ्रढ्म चौड़े मुँद्र का वरतन। ठ ष्यक्षन का बारदर्या अछर, यद्द झुद्धेन्य है क्‍योंकि इसका डचारण मूद्धां से ही होता है । ठ तत्‌० ( पु० ) प्रतिमा, देवता, इच्चिय से गण करने टोपी दे० ( स्त्री० ) सिर पर रखने का लिया हुआ पुक प्रकार का वस्ध ।--दार (वि०) जिस पर टोपी हो या जो टोपी छगाने पर झ्ञम्त में आये | -चालता दे० (पु०) ठोपी पद्ने हुए आदसी, ढोपी बेचने घात्या | डोर दे० ( स्प्री० ) कदारी, कटार । झरना ( क्रि० ) तोढ़ना | झेरा इे० ( पु० ) भीत की रक्षा की ओकती, पानी आदि से मीत की रक्षा करने के लिये जिस पर छाया जाता है | शेत्त दे? ( स्न्नी० ) सभा, समिति, अमाव, यूथ, दल, समूह, रोड़ा, सॉट, नीक, महत्ला । दीला दे? ( घु० ) गाँव का एके भाग, खण्ड, श्रेश, नगर की पट्टो, महछा |. [एद्च जाति का बांस | गोली दे* ( स्त्री३ ) समूह, यूथ, चोट महा, सिल, देह दे० ( पृ० ) पता, भनुसत्थान, जोन | दीहना दे* ( क्रिए ) पता लगाना, श्नु सन्‍्धान करता, खोजना, हृढु ना, अन्वेषण करना | डोह्याठाई दे" (स्त्री )) छानबीन, तकाश ! शेहिया ( घ० ) टोद रखने घाला | शेही ( वि० ) तलाश करने चाचा । विमखा है । दौंस (स्त्री० ) एुक नदी का नाम, इसका दूसस भास दूदु दे० ( ६० ) लाहे का धक्का सन्दूक । देन दे (स्त्री) रेलगाड़ी के कई एक जुड़े हुए. ढब्बों की ट्रेन कहते हैं । ठ ठक्रठकिया दे० ( वि० ) टंटा करने वाला, म्ाड़ालू, बखैड़िया | उकठेला दे० ( पु० ) धक्काधक्डी, रूगड़ा, टंटा,-घखेड़ा | फेग्य चाहु, शिव, रहानाद, घेर शब्द, चन्द्र | उकडीश्ा, ठकठीवा दे० ( स्त्री० ) छोटी नाव, ढोंगी, सण्डल, सूर्यसण्डल, शून्य, जनसमूद । ठई दे० (स्त्री०) ददराई,निश्चित की हुई,नियमित की हुई। ठक ( स्त्री७ ) दो वन्तुओं के टकराने का शब्द | पनखुइया, करताल, करताज़ञ ब्ज्ञा कर सिक्षा मांगने बाढा । ढठकार [( पृ० ) 5 अक्तर | ठहठक दे० ( पु५ ) शब्द विशेष, क्कद़ी आदि काटने | ढकुरछुद्दोती दे० (छ०) मीठी सीडी बात, प्रिय का शब्द, कगड़ा, टेंटा । छक्कठकाना दे* ( क्रि३ ) ठोकना, खटखटाना, मारना; ! फूटना, पड़ा करना, चेर करना, विश्ेध करना बाली, झुँढ देखी वात, ख़ुशामद | | छकुराई दे? (स्त्री० ) प्रधानता, मुख्यता, ईश्वस्ता, आधिपत्य, अ्रधिक्ार, सालि क्ाई, स्वामित्व, शज्य | ठकुराइन टकुराइन द० (स्त्री ) ठाइुए की घथ्री, सस्तिछाय दब, स्व! सित्री । ठकुरानी दे? ( स्त्री० ) ढाकुर की रबी ? ठकुरायन दे० ( स्प्री५ ) आधिपत्य । ठफकुर ता० ( पु ) दाकुए, पज्य मूत्ति ठग दूँ» ( ५० ) गठध्ट, चार, घेखा देशर चेरी करने बाक्षा, भुटावा देहर चुाने वाह, प्रतारक्र, थेःसे बाल (>्वाज्ी ( स्प्री० ) दगई, पत्ता ठय का छाप, कपद, छूछ, मादा [>-यिद्या (स्त्री ) हई, धूजता। घेतपा दने की चलु॥ई )--लाना (क्रि० ) छुत्नता, ठागा, घोज़ा देना, बढ़ध्ना, - बद्द्धा कर के लेगा +- क्लीन ( क्रिः ) कपट काना पुर्तश करता, चहने में डाठना, चर से ले क्षेमा । गई दे० ( स्ट्री० ) प्रहारणा, छड़, पृत्तारि, चेसा । टगना दे। (हि५) भुक्नावक, घोसा देगा प्रकाश करना । रगाई दे३ ( स्त्री० ) प्रदारण, घो बा, चोरी, कपट घन्र, यहृच्चा | [बचत होना । टग़ादा दे$ (क्रिक ) इसा जाना, प्रशारिव दवोना। डॉन दे० ( सब्ी५ ) ठक्ती, पूर्ता, प्रतारिध । डमितों दे| (स्त्री०) दयते बाली स्त्रो, घूचों, ढाई करने वानी, ढप की स्त्री, जे। ठगई करती हो | टपिया दे० ( ५० ) बधुझ, प्रतारझ, घोखेत्राज, छुकी, कपदी, घोल! देने बाला | ठगी दें * ( स्त्री ) पृचेता, घोलेयाज । ठोे ( दि० ) छचे, घोधा दिये, बढ झापे डुए। ठगैररो दवे० (ज्लोड ) बगाई, घोद्या, छुछ, मुरात्रा, *.. माया, देसता। झचरा दे० ( ६० ) म्णडा, कब्नह, वै(विशषेष, रण्टा | रद्द दे ( पु+ ) मीइमाड़, मुप्ठ, समूर, द्‌ठ, सण्डडी, थूँघ, गितेद । रुद्वर दे (१५ ) ढठ, चाल, खपरैंश मदन छाने के बिये जो बाँध थे रइर बनाया जाता है, मशन पर रफते हे लिये बाप का बता हु ब्रा ठाढ | उठा ६० (३०) बसी, दिछगी, परिद्ाण, ढौतुऋ, मना- वितनाद। दल, समूह, ऊुंड, भोह करना (क्ि० ) ईंसी डोज कहना, अरद्ास करना, डिद्वाना--मा सना ( कि० )इंपी छाना, ईंसना, ( रेरई ) ट्यदा डपदास काजा और दर हेघना ( वार ) खूर दँसना, धद्टदाप्त करना | उट्टेशज दे* (वि० ) फरिशतग्नेण, ईतादा)-टी ( सी" ) ठट्ठ! करना, दास्‍््य करता । छठ 4० (पु०) रद्द, भीड़, मग्डल्ली, दल, समुद्र, कतार। ठठक दे० ( ख्री०) भतितत्थ, इंहाव, श्रट व, म१ मीति । [दोना, मीह होना, दर जाता । ठठकता दे० ( क्रिः ) रहतडाना, ध्टहाना भश्र्यित ठठना दे ९ क्रि० ) निम्येय करठा, सैसोघन काना, बनाता, सजाना, सजदना, सात करना, दु से से झधघीर द्ोकर श्रपता अद्ग पौटना, स्वथ दुप रठागा, मारता, पटना । डठा। दे ६ (३९) १ क्, २४१ श्राड़, घट, घितर, औोट $ ठठरो दे* (खीर ) दादा, आ्राह नि, धारा! का प्रषम सड्रदत, कर, 55, रथी, दुपंठ शरीर, जिपमें केबए हड्वियां दी शेप हो । तर उठाई दे+ (कि० ) सम" के, पीर ऋर, मर सार झ, अति इत्साद मे, श्रति धवद्रतां से। यय<5 पृद संग भद्ि दो ह सुकायू। इँशव उठाई फुदाउव गाखू। +->२'मायण | ठदाना दे० ( क्रिर ) #गावार माना, मारता, पीदता; हूटना, सि। घुनना, माउते ही जाना | ठठुकि दे* (क्रि!) रु कर, 33568, प्रटफ४0, प्रतिय #ेघत होझर ! ठठेरा देण ( ४३ ) जाति वेगेव, बत्तेत पेचते वाली जाति, कसेरः। [ दी, कपेत ज्ञाति की श्री । टठे रन, ठठेरो दे+ (स्ट्री०) सकेरा ही ग्ग्ो, कसेत डी ठठार ढढ़ोन हेन (१९) परिद सह्ीड़, दद्वेंदात, ठठोत्री काने बाह् । स्थलों दे* ( स्त्री? हंगी, दिलगी, परितास | ठेड़ा ( गु० ) बड़ा । दि ट्टा दे" ( १० ) य॒य्रो के बोर डी अडडी, प्रदढ* । टगणढ़ दे ( रथ) जन्हा, शी।, शीवछाज्ञ सईद ठगद् रू 4५ ( म्थ्ोक ) शीवरता, शीवक्रान्, जाओ हा समय | डयदा दै* ( गुर ) शोतट, सद (--फ्प्ना ( कि ) शौतकहू झरना, शान्त करना, पड़ेठे साममति भथवा ठणडाई (्‌ इर७ ठहराई चििियःण।सखफलसिि_िणेघत.हक्‍ंक्‍त६3)तननम-त+तनत..लवनवल_..............तत..0..ह0ह0हह0हह॥ह0हह0ह0हह8ह क्रुंद़ मजुप्प के शान्त करना, ढाइस देना, धीरज वेंधावा, किसी के सुखी देख कर स्वग्रं प्रसक्त होना, श्रमित्रपित्र सिद्धि से श्रानन्दित होता |-- - पडना ( वा० ) शप्न्त होना, शोतत् होना, न्‍्यून होना, घरन', छोएछ होना; क्रांच कम हो+ः, पौरुष क्ञोग होना, चन्र॒ज्ञता नष्ट होता, उत्थाह का कम होना, भ्रण ग्रादि की जलन कृप होत। ।-होना (चा० ) ठण्डा पड़ना । ठण्ढाई दे० ( स्त्री० ) शीतलसा, शैत्य श्निग्घ, ठण्ढी आपधि, सोंफ, कासनी, गुलाव की पत्ती, खत्बूजे की मांगी, बादाम श्रादि ४॥ पीस कर बनाते हैं | रणढो दे+ (स्प्री+ ) ज्ञाह्टा, -शैत्म, शीत, शीतढछता | +साँल भरना ( वा० ) दुगख करना, पश्चात्तार करना, हाथ माएता, छोंबी ससि लेना | टठस (स्थ्री० ) धातु विशेष ४ बहाने का शब्द। के + स्त्रो३ ) शद्ध, ध्ग्नि ।>का ( पु ) शबलर, ध्वनि +--कार ( पु० ) रुपये .का शब्द ठतऊना दें० ( क्रिर ) ठत ठन शद्द्‌ करना, ठोसना, घमकवा, सि/ का दुखना, अपने किली काम के दुःखपूर्दक अबना हानिकारी समकना । उनगन दें० (-छु5 ) सक्ठ कार्ये' के अवयर पर मेग पाने चालों का अ्रध्तिह् नेग पाते के सिरे मचलना, की धस्तु के किये बालकों का मचडना | ठवठम-ेपाज दे० ( पु० ) छूंछी चर्ठु, निर्धन महुप्प । छनठनाना दे० ( फक्रिए ) ठन्‍्ठन शब्द करना,कन- ऋताना, सनकाना । ठवाका दे० ( १० ) ठत शब्द, झझ्टार, झनकार | ठन्ताठन (क्रि+-वि०) रनझार के साथ रुपये का शब्द ४ उ्ना दे० (क्रि०) परखना, जचिता, ठदरना,निश्चय दोना। ठपना दे* ( क्रि० ) छपना, छुपत्ााना, चिन्ह करना, दाग छगाना | [ ज्ञाता है, मुदर, से!द्र ठध्पा दे० ( पु० ) छतने की वंस्तु, यन्‍्मे जिससे छापा टठप्क दे० ( स्त्री३ ) रुक राझ्ू कर चलना, छचक । छप्तकना दे० ( क्रि३ ) ठहरना, ठहर जाना अड्क कर चखत्टना, किसी कीं प्रतीक्षा करने के लिये ठदरना, किसी की घाट छाकने के छिये 5इरवां ! ठरझ दे० ( घु० ) छुर्राढा, घुराना, नासिकाध्दनि, जो कफप्रकृति के मलुष्यों को सेने पर होती है । उरन दे० (ख्त्री० ) अधिर क्षीत, वहुत् जाड़ा, अधिक जाड़े से अज्ञों का शिथिल द्वोना, दिद्वरन । : छरना दे० ( क्रि० ) दिहुर जाया, शिधिल्त होना। ( छु० ) मादकवस्तु विशेष, एक प्रकार की सदिरा | टरिया दे० ( घु० ) एक प्रकार की मद्ठी का बना हुमा हुक्का | [गादुक चस्तु विशेष | ठर्सण दु० (५० ) मोटा सूल, तनी, भद्दा जूता विशेष, दल्लुआ, ठल्लुचा दे० ( वि० ) तिकम्धा, बेकाम । ठचन। ठयनि दे० ( छो० ) चाह, गति, उठने की रीति विशेष खड़े धोने की विशेष रीति, अकह्ाई की चान, ऐंठ की चाल, पपेटवाली चाक्, बेठक,स्थिति, शासन, मुद्रा, अन्दाज़ | ठचर दे० ( घु० ) ढेर स्थान । ठसत दे० ( वि० ) ठोस, कड्ा, गफ, दृढ़, भारी, घुम्ल, महर, खोदा ( रुपया ), भरा पूरा, चमाछ्य ( उस आइसी ), कृरण, हठी, टसक दे० (स्त्री० ) दर्प, गये, अहक्ार, अकड़.बुया सहत्य, निषकारण महत्व, देखौशा, प्रतिप्दा, गर्बील्ी चेष्टा ठप्तकदार ३० (वि>) घमंड़ी, शानदार | [हट जाना। ठसझफना दे» (पु० ) ठुसकना, पटकना, टूश्ना, ठछ्तका दे० (पु०) पदकाव, अहकूार, अभिमान, ठसछ, खूखी खासी--' खांघी का दो तीन बार ठसका अभी झा ज्ञाता है।। ठसनी दे० (स्त्री: ) ठसितवे की सामओी, जिसमें कोई चीज ली जाती है, शज्ञाक्ा, बन्दूक का गन | उसाठ घ दे० खचाखच, हूस ठूंसा कर भरा छुआ । उठरुछा दे० (9० ) सांचा, आकृति, श्राकार, गठन, ढांचा, अह डूपर, अभिमान | ठहर रुहर दे० ( थि० ) रद रद्द कर, रुक रूछ | ठहरना दे० ( क्रि० ) रुकना; रुकताना, बसना, रहना, खास करना, प्रतीक्षा, बाद ताकना, टिकना, अरठकाना, निश्चय होवा, पक्का द्वोना, निणय दे। जाना । ठहराई दे० (द्धी० ) उदराने की क्रिया या मदंदूरी »« अधिकार। दहपऊ दहराह ( वि० ) टिकाऊ, दृढ़, मजबूत । खदराना दे ( क्रिए ) रसना, टिक्राना। श्रटकाना, बसाना, रहन छे लिये स्थान देना, निश्चित करना, निर्णय करना पक्षा करना, दीझूठक काना, शर्ते करना, नियत करना,निउटा वा,रेकना रोक रखता । टट्दराव दे* ( पु० ) राव, निप्रटाव ठढाने का स्थान, टिझाव, निर्णय, निश्चय, निश्चित विषय, जो चादृदविताद के पश्चात्‌ स्वीकृत हुआ दो॥। मन्तब्य, भ्रस्टाब, विचारविशेष, जो किसी उद्देश्य पे निश्चित किये जाते हैं, शत्त । रुद्रौनी दे ( ख्रो” ) विवाद में देन वाले दापते का ठदराव । रद्दाका दे? ( पु० ) धन्ताका, घढाका, भ्रद्द्वाप्त, जोर डॉ, ठाँव दे० (५० ) बन्दृक की श्रावाज टाय, स्थान, स्थल, दौर, ठिकाना, भूमि | डाई तदू (ख्री* ) स्थामी, बहुत दिनों तक रहते बाला, टॉव, ढौए, पाल्ठ, समीप + ठॉड दे? ( ० ) स्पान, ठांच, दौर, अवसर । ढाँट दे” ( वि० ) नीरस, वेदघ की गौ | ढॉयें दे ( स्त्री७ ) स्पान, जग, समीप, पास | टठॉय ठाँय दे* ( स्त्री०) रगढ। कपड़ा, पन्‍्दूक का शब्द ३ | डाँव दे० ( स्त्री ) स्थान, जगह । ठाँसता दें* ( क्लि० ) ल्वास्ब भरना, दुवा हवा के मरना, हूसना । ठाकुर तद्‌ ( धु* ) खक॒र, देववा, देंववा की मूर्ति, ईश्वर की भूत्ति, स्वामी, प्रभु, मालिक, प्रधान प्रभु, मुस्िषा, नाश, चत्रिय जमीक्दारों की माननीय पद्वी, अप्रीन्दार, पदले मैधिल माझयों को मी दाडुर या व्झुए! की पदवी दी जाती थी, विधापति ढाकुए, ग्रोविन्द्र ठाकुर इल्यादि, नाई, नापित --द्वारा ( छु* ) मन्दिर, देवालय, देव- स्थान, भयवान्‌ का मन्दि? ।--बाड़ो ( स्री० ) मन्दिर, दुेवस्थान, बंगीचा कुस के साप का मन्दिर, जिप्त देदस्वान मेँ दपीचा कुश्नोँ आदि दमा हैं, डाकुरद्ारा (--सेया तव॒5 ( ख्री० ) देवता का पूमत | डाद दें* (३० ) व्वरी, तपारी, पेषर चना, शान, दप्पर का टाठ, तड़कमदृ*, चमत्कार, मुण्ड,समूह, दल ! ( रेरे5 ) अननगरगएगपगगनगनगभगननीनीनीनितिननीननीनीनीन नी लतनिनी न्‍ तट ) न्‍न्‍: ससस इस्‍ [की हँसी।. ठिकानो ढाटब्राद दें* ( पु० ) सतधघन, नढ़क, सडक । ढाटर द* (पु०) रह्टर,य्ट्टी, ठकरी, पञ्ञर, दीं वा, इताद । डाठ देखे। ५ ढाद ” | ढाड़ू दे? ( वि? ) ऊँचा, खा, स्थित, इपत्यित | , डाड़ा दे ० ( वि" ) खड्, सीधा, छम्ब्रायम्रान | डाढ़ देन ( वि ) सड़ा, खडाहुश्रा, सीधा, उपत्यित उपस्थित हुआ, ने पिता ने हे उन “क्लीद चइत ली डा इरि जयदीं । >ठाढ़ करत है. कार तबदीं 77 “+रघुनापढाप | +>ाढ़ी ( भर० ) बहुत शीघ्र जददी, शीम्रता से; तुसन्त तू स्वरितत खडे सड्े। डान तदू० ( स्री० ) समासम्म, अ्जुष्ठाव, घेष्टा | डानह दे* ( पु० ) श्रष्यक्त शब्द, परध्धर भाड!ि कै | लेोड़ने का श्ू, दादूक का शब्द । । छानना दे० ( क्रि० ) प्रास्म्य करना, ददधाता, प्रतिज्ञा करना, निश्चय काना ! ठाना दें* ( क्रि० ) प्रारम्भ किया, ठहराया, निश्षय किया, विचार, दृढ़ क्रिया, प्रतिश्ञा किया | | ठानी दें» ( स्री० ) 5इराई, विचारी | ठाम दें* ( ६० ) ढाँव, टीए, ठिकाना, स्थान, स्थल, ज्ञाह, भदाज, अगेर । ठार ढ* ( १० ) सर्दी, शीत, द्विस, तुपार, पाल, व ठाला दे० (वि०) बिना काम का,बेकार,खाली,क्मेंद्वीय| खाली ( वि० ) खाती, रीता | टासता दे० ( क्रि० ) भरना, दृसगा, दाना, देषा दूवा करके भरता । डिक, ठौर, मौका ! | ढठाहर या ठाहिय दे० ( खो ) स्थान, जगड, म्थद, टिक द० ( सखी) स्थात या अवपर विरोध, पिगढी, चऊकुठी +--ठोर ( खली ० ) ठीकरेबाछी जयद | डिकरा, दिकड़ा दे० (४० ) खपड़ा, मिद्टी के छूटे बर्तन का टुकड़ा । ठिकान या ठिकाना दे* (घु० ) वास, वासस्पान/ ढाँव, हौर, ढाम, पता--ह्ेढ़ना ( क्रि० ) २इने के ढिये स्थान द्वढुनां, रेशगार हृढ़ना “लगाता ( छ्वि० ) प्रवन्ध करना, स्यवस्था कर दैता ] डिकानी दे० ( दि० ) ठिकाने बाढा। जिसडा ठिकगा | छग यया दो । ठिकाने लगाना ठिकाने लगाना दे० (क्रि० ) सारा ज्ञाना, सारा पड़ना, अन्त तक पहुँच जाना, अ्रवधि प्राप्त करना, पूरा होवा। मार डालना, खपा डाकहना, नए अष्ट कर डालना, पूरा करना, समाप्त कर देचा, अवधि तक पहुँचा देना । [खर्व, बीना, वामन ! छिंगना दे० ( वि० ) नादा, छोटा, छोटे आकार का, डिक दे० ( ख्री० ) झाश्चर्य में होना, भयभीत दोना, आध्रयेत होता, अचम्भित होना ।--ज्ञाना (क्रि० ) श्राश्वर्य से घवड़ा जाना |--रहना (क्रि० ) श्रचम्भे सें आकर क्लानशून्य हो जाना, क््तैव्याकर्तब्य निद्»ारिण नदीं कर घकना | दिठकना दे० ( क्रि० ) ठिठफ जाना, अ्रचस्मे में आना, विस्मित होना, झाकस्सिकृ। श्रदूज्ुत घटना से निःस्तब्ध हो जाना, चकित होना । ठिठरना दे० ( क्रि० ) अ्रकड़ना, जमना, पाले से हाथ पैर का सल्न पड़ जाना; बढ़ाना ! [ अ्रकड़ाई । ठिठर, ठिठराहुट दे० ( स्री० ) ठंढक, शैत्ष्य, जाड़ा, ठिदुर दे० ( स्त्री० ) ठिठर, ठिठराहद, ठंढक, अ्रकड़ाई, जकड़ । ठिद्ठुस्ता दे ( क्रि० ) ठिठरना, जकडढ़ना, जमना, ' शीत से अकड़सा ) [ का सारा छुशा । ठिद्ठुरा दे? ( बि० ) ठिठम हुआ, जकड़ा हुआ, पाले ठिनकना दे० ( क्रि० ) घीरे घीरे शेना, शनेः शज्मेः रोना, सिसकना, सिसकी लेना, ठुनकवा | ठिया दे? ( घु० ) जगह, ठिकाना, हद का पत्थर या खंभा, थूनी, कारीगरों के काम करने का स्थान । दिर तदू० ( स्त्री० | पाका, कही सर्दी । ठिरना दे० ( क्रि" ) जसना, घन होना, सझुंत होना, बध जाना, जम जाना, एकत्रित होना, कंठित हे।ना, पाछा क्षगना, जड़ाना | छिललना ( क्रि० ) ठेछना, ठकेलना | डिलिया दे० ( स्त्री० ) गगरी, छोटा घढ़ा, मटकी, मठकनी । [छा खिछोना । ठिल्लववा ( 8० ) छोटा घोड़ा, मिट्टी का चना छोटे चोड़े ठिख्खुआ ( लि० ) ठछुआ, निकम्सा । छिल्ला ( प० ) घड़ा, बढ़ा घढ़ा । डीक दे? ( बि० ) इचित, येग्य, यधार्थ, पूरा, शुद्ध, ( ३२६ ) डघ्॒कि “+जआआतना ( क्रि० ) मिलना, वराघर द्वोना, उचित घटना, जितना चाहिये उतना होता |--करना ( क्रि० ) शुद्ध करना, निश्चित करना, निश्चित कर बना, दण्ड देकर झुघारना, मारता, पीटना, सुधा*« रना।--ठाक (थशु० ) शुद्ध, सत्य, कृतप्रवन्ध, झृतन्यवध्धा, जिसकी व्यवस्था हो गई हो, निश्चित, निर्णात )--ठाक करना ( बा० ) निश्चित करना, अबन्ध करना । >सठीक ( श्र० ) यथार्थ शुद्धता से, यधाथता से, जोड़तेाड़, विल्ञ कुछ ठीक । ठीकरा, ठीकड़ा दे” ( पु० ) ठिक्रा, मिद्दी के फूटे बरतन का ठुरूढ़ा | ठीकरी दे० ( स्त्री" ) छोटा ठीकरा, गिटकी, कह्ट:ड़ । ठीका दे० ( स्त्री० ) निश्चय, ठीक, उचित, यथार्थ, इक, बाजबी हजारा, काम फरने के पहले ही उससे लिये मजूरी आदि का निश्चय कर लेना । ठीकेद्वार ९० ( छु० ) ठोका लेने या देने घाला | ठीप दे० ( स्त्री० ) पुक प्रकार की 'अड्जीठी | ठीलना ( क्रि० ) ढक्केत्नना, ठेलना । टीचन तद्‌ ० ( छ० ) थूक, खखार | ठीहा तद्‌० ( छ० ) गद्दी, हद, सीमा, जगह । छुकना ( क्रि० ) पिठजाना, मार खाना । डुकरावा दे ( क्रि० ) लतियाता, लग्त से मारना, ठोकर से मारना, पैर से था चोंच से दोकर सारना | छुट्टी दे० ( ली० ) ठोढी, दाढी, चिब्रुक, सुँजा चबेना जिसमें छावा न हे।, बिना छावा का चबेना | डुुऋ दे० ( स््री० ) सिल्क, ठिनक, धीरे घीरे रोदन | छुछुकना दुनकना दे (क्रि०) सिशसकना, ठिवकना, धीरे घीरे रोना । छुमकना बे० ( क्रि० ) सुडोछ चलना, स्वामाविक ऐंठन छें चलना | यथा---ठुमक चलत रामचन्द्र बाज्ञत् पेंजनिया 7? छुमका, ठुम्का दे” ( चि* ) छोटा, नाटठा, ठिद्वता, खरे, बोना, वासन | छुमको दे" ( खी० ) पतंग की डोरी के। विशेष रूप से झटका देना, उक्तावट, एक छोटा गीत, खरी छटी प्री ।( वि० ) चाटी, छोटी | छुमरी दे० ( स्नी० ) एक छोटा गीत, अफवाह, ।सप। बराबर, सत्य, यथोचित, यधायोग्य, जोड़। | छुछुकि | खी० ) मन्द गत, रुक रुक कर-चला | ः शान पाब्नछेरे ( रे३े० ) डोल .....8७8.........0..000ह"]++++++-+-++__+___+5++75 छुसकना दे० ( करिए ) पादना, 'अपानवायु का त्याग, घीरे धीरे रोना, दूसरों के कपोपकृथन में कड़ी वात कद दैना, एक न एक अरदक्क लूगाते रहना । छुसकी दे० ( स्ती० ) शब्दरद्वित वायुल्याग, पाद । छुसाना दे० ( क्रि० ) भराना, भरवाना, ठुसवाना, देसाना | [जे गजे में पहना जाता है । डुस्सी दे० ( ख्वी० ) पाटिया, पुक सुदर्ण का आभूषण हूँ ठ ३० ( पु० ) डुढा, विना पत्ते की ढाल, पत्ता डाल रहित वृद्ध, खुत्य; थूणां, स्थाशु, केठा हाथ, हथकदा मनुष्य । [दी गईदेो। हु ठिया दे० ( वि० ) हँंठ बच जिसडी शाखा काट ठूंठी दे" ( खी० ) जूँटी,डोटी अ्रद्न का डॉठ । हेडेना, ठेयना ( पु० ) घुशना, ठेवना । &कुर ( पु० ) देखे भदगेडा | ढें गना दे० ( वि० ) सद, छोटा, नाटा। है गा दे* ( पु०) लाठी, लद॒ठ, बैंगूडा ।--उगी (अ्र०) ढाठा लाठी, परस्पर में सारामारी |--वज्ञाना ( क्रि० ) छाटी घत्ाना, मारामारी करना । ढेंठ ( गरु० ) शुद्ध, केबल, अमिश्षित, प्राकृतिक, स्वमाव- पिद्द, कान का मैंल ठेंठी दे* (सख्री०) कान का सेलफड्ठा । [हच्चा बढ़ा घोरा[ छेक दे० (स््री०) देकनी, सद्वारा, अवरम्य, चन्न से मरा ठेका दे? ( घु० ) दद्या, रोक, ठेपी, ढेंढी, बेतहड आदि का मुँह बन्द करने के लिये टेऐे, रुझावट, वाएँ एर का तझ्ट ।--विकारी (पु०) ठीकादार । ठेको दे" ( स्ली० ) विश्वाप्त का स्थान, जईाँ सिर का घोका इतारने के दिये सुविधा हे। । डेद दे* ( गु० ) भ्रमिश्रित, अममिब, बेमेट, शुद | ठेपो दे ( ख्ी० ) ठेही, दद्ा, डॉट, काग |--झुंह में द्वेना ( बा० ) अवाक्‌ रहना, चुपचाप रहना, कुछ सी नधोलना | ठेलना दे० ( क्रि० ) दछ्ेलना, रेजना, पेलना, घद्का, देना, सोना, हटाना, आगे बढ़ाना । ठेज्ा दे? ( ६० ) घक्का, कझेल, मोर, पर प्रद्रर की माक्ष छादने की गाड़ी, मिसे भ्रादसी खींचते हैं डेली ( भ« ) घश्कमघक्का रेलपेद् | ठेवझा तद॒* ( पु० ) व स्थान अर्डा खेत सिंचाई हे किये बल गिरे । ठेवना दे० ( पु ) घुदना। जाजु, ठेंइना । ठेस दे* ( ४० ) ठोकर, चपेट, चेट, घकका । ठेखना दे० ( क्रि० ) हूँ सना, सरना । हेसरा दे ( घु० ) नझुचढ़ा, धभिमानी, गर्वोच्चा । छेदये दे ( स्री० ) दरवाओं के पल्ठों फे मीचे की वह लग्डी जिस पर किदादों की चूछ घूमती है। ठेद्दी दे” ( खी० ) मारी हुई ईस | डैथां दे० ( खी० ) जगह, स्थान । टैरना ( क्रि० ) ठद्वरना । ठोक दे० ( ख्री० ) प्रदार, घात, गाड॥ [थपाना। ठोंरुना दे० ( क्रि० ) मारना, पीटना, ग़राढ़ना। थप- ढोंग दे० ( ख्ी० ) चोंच अपदा अगुली की मार । ठोंगना दे? ( क्रि० ) 'बॉचियाना, चॉंच से दिखेरना, चिक्द्दारना | ठोंगाना दे* ( क्रि० ) चोंचियानता, ठोंगना । डॉठ दे (स्री० ) चोंच, ठोग, झोठ, पद्दियों का धोठ । ठोंठी तव॒० ( ख्री० ) चने के दाने का कैश, पोए्ता की ढोंढी पु डो ( अच्य० ) संघ्या बोधक, यधा--पुक ठो, दो ठो ठोक दे०( स्री० ) मार कुट, मारने का शब्द, टोने का शब्द । ठोकर दे० ( स्त्री० ) ठेस, पैर की मार, छतियाना, बाधा, पैर में चोट छय जाता |-नप्ताना (क्रि? ) गिर पटना, छुढ़कना, मुझ करना, सूब जाता) चुदुना, हानि उठाना, घटी सदना।-लंगना (क्रि० ) ऐर में चोट छगना। दोझरा दे० (वि० ) कटा, कर्यो, कठिन, कठोर, सख्त । ठोकरी दे ( स्त्री- ) कई महीने की स्यायी हुई गै।। ठोऊूराना दे० ( क्रि० ) आप द्वी भाप ठोकर धाना, चोदा भ्रादि का ठोकर खाना । ढोठ दे० ( वि० ) जड, सूर्स गावदी । डोटठरा दे* (वि०) पोपणा, यिना दर्तिं का मुख, तुण्डा। छोड़ी, ठोढ़ी देन ( स्प्री* ) टष्ढी, चिदुऋ दाढ़ी । डोप दे* ( ४० ) दूँद, बिन्दु! डोर दे* (स्त्रो० ) चोंच, चच्चु, पद्चियों रा झोठ (३०) यहम सम्प्रदायी मन्दिरों में थनाई जाने वान्नी एक अकार की मिह्ाई | डोज दे« (स्त्री* ) ठोर, चीनी में पगी मेटटी सी पूरी । छोला ( इ३१ >2 डकेातिया ठोला दे" ( छ० ) कुल्हिया, चिड़ियोँ का भोजन पात्र, छोरे छेटे बतेन, जिनमें चिड़ियों का खाना और पानी देते हैं | अंगुलियें का पर्व, गठि [ डोस दे० (वि०) पोढ़ा,ससार, कठोर .इढ़,घना, अन्तःसार- युक्त,मीतर से भरा हुआ, भीतर से खेखला नहीं ] ठोसना दे" ( क्रि० ) ठासना, दबाना, भरना; दबा दुबा के भरना | डीसा दे (पु०) ठेंगा चा श्रगूठा, सोने या चांदी की येली, जिस पर देवता फा आरवाइन और पूजन किया ज्ञाता है। डु यह ज्यञ्ञन का तेरहर्वा वर्ण है. मूर्दा से उच्चारण | डकैत होने के कारण इसे मूर्द्धन्य कहते हैं । डा तत्‌० ( घु० ) शिव, भद्दादेव, पदुपति, सय, डर» शब्द, ध्वनि, नाढ, वाड़ुवानल | डुकई दे० ( ४० ) केले की पुक् जाति । डकरा दे० ( ५० ) विष, पुक प्रकार की ओपधि काली मिद्दी ([बि० ) तीक्षण, तीखा, छड़ु, जिधकी गन्ध फैलने बाली दे।, तीए_्षण गन्धि, कडुगन्घि । डकराना दे० ( क्रि० ) बैल या सैंसे की बोली । डकवाहा ( ७० ) चिट्टी बटने वाला । डकार दे० ( स्थी०) उद््‌गार, भोजन से ठृप्ति का सूचक !. मुँद्द द्वारा निककने वाला पेट का एक, शब्द विशेष ।--ज्ञाना ( क्रि० ) खा जाना, पच्य जाना, किसी से छुछ लेकर देने की इच्छा ने करना। --बैठना ( क्रि० ) पत्रा लेना, पचा कर निश्विन्त चेठना, किसी से लिये हुए छो मूल जाना। --क्षेना ( क्रि० ) ढकारता, डकार जाना, हस्त- गत कर लेना, अधीन करना । डकारना दे० (क्रि> ) डकार लेना, गरजता, पचा जाना । डकैत दे" ( छु० ) डाकू, चार, वदमार, लुटेरा, असहाय पर आक्रमण करझे उसकी वस्तुओं के छीन लेने ,. चाल्ला । समूह के डकैती दे. ( ७० ) डॉड, डकैत, ढडैतें का दक, डर्केत डकैती ढे? ( स्त्री० ) डांका मारने का कास, चरसारी । डोहना ( क्रिब) दिक्वाना, तलाश करना | * जो अ्रपना पद पाऊँ से ठोहों। ? ++केशव | ठोहर दे ( षु० ) श्रकालू, तेजी, महर्घ । ठोनी ( स्त्री० ) ठवनि, स्थिति, स्थान |. ठोर देन ( स्त्रो० ) ठवि, ठिकाना, स्थक्न, जगह, प्रबन्ध, मौछा, घात, अवसर, जीचिका का स्थान । --रहना ( क्रि० ) वहीं रहना, खेत रहना, मारा जाना, मारा पड़ना | दें० ( पु० ) ) भड़रिया, भरी के वंशज, डकौतिया दे० ( घु० ) ) एक सट्ूूर जाति, ये ज्योतिष का व्यवसाय करते हैं और शनि भरादि का निकृष् दान लेते हैं । कहते हैं, एक भरी नाम के आह्षणय ज्येततिप विद्या के पारज्नत विद्वान थे, वह कहीं बाहर गये हुए थे, उनके विचार में एक ऐसा सुहू्स दो दिन के बाद झाने बार था। जिस मुहूत्ते के य्॑ से बड़े मारी विद्वान्‌ का उत्यत् दाना निमश्ित हेतता था | वह गृह के लिये प्रस्थित हुए परन्तु वतन का सार्ग भूल जाने से ठीक सप्तय अपने घर नहीं पहुँच पे | मुहूर्त हन्रा पहुँचा, परन्तु भड्टरी जी श्री बन में ही थे | वह बड़े चिन्तित थे | उसी समय पक ग्वालिन जे कहीं जा रही थी वहा उपस्थित हुई | ज्ये।तिपी जी ने उससे सब्र ब)तें कह कर दस बिपय में सम्मति पूछी । उसने कद्दा सहूर्त निकट है, भाप किसी प्रकार घर पहुँच नहीं सकते, ऐसे मुहूर्त का निकत्त जाना, जिसमें पुक बड़े विद्वान के उत्पन्न होने की सम्भावना है उचित नहीं है । मैं यहाँ उपस्थित हूँ। अतझुव यह सम्भव है कि आपके औरल और मेरे गर्भ से उतनी वीयशाली सनन्‍्तति न द्वे, तथापि यह निश्चित है कि सामान्य की श्रपेद्ञा बह श्रधिक वौर्यवान्‌ हेग, क्योंकि मुहूत का भी तो कुछ चल है | मट्टरी जी इस बात पर सहमत हुए | उन्हीं ले उत्पज्न उकोतिया दें | है ड्म डग दे० ( पु० ) कदम, फाल, विन्याप्त) छगड़गाना दे० (क्रि०) दिवना, हिजते दुलते चलना कूरिपत होकर चलना; कपिले चलना, कडसक करना। डगना दे (क्रि०) दिलना, चम्चलछ द्वोना, स्थिर नहीं रहना, फिसल्ष ज्ञाना, क्पना, खिसकाना, चूकना, डिगना । डगमग दे० ( वि० ) चशुल, भस्थिर कॉपने बाला, स्थिर न रहने वाछा, चछायमान, डॉवाडढोल | डगमगाना दे० (क्रि०) दिल्वना, चश्च॒ठ द्वोना, ढौँवा- डोछ होना, कॉपना, लड़सढ़ाना चल्तायमान होना । डरामगानि दे" ( क्रि० ) चघुल हुईं, डमग हुई, डॉवाडेल हुईं, द्विली कॉपी | छगर दे० ( स्त्री० ) मार्ग, रास्ता, राद्द, पथ, पद्धति, पेंढा । यधा--/ प्रेमदग? की डगर कठिन है जे रंपरेज सपाना !! डंगरना दे० ( क्रि० ) द्विलना, फिरना, फिसल जाना, दालदी भूमि से लुढ़ुक ज्ञाना, रास्ते रास्ते घूमना | डगशा दे० ( १० ) रासा, वाँस का वना हुआ टोकरा ले ग्रोल और छिच्छा द्वोता है । शगरिया दे० ( सत्री० ) डगर, रास्ता, राद, भार्ग, पथ, प्रया--/कईाँ गये मनमेह्न श्याम, डगरिया चूक मे पढ़ी । ”--सूरदास । डगा (६० ) डुगी बजाने का ढडा। डगे देन ( वि० ) दिले, खसक, सरके, चले, टसडै, करम्पित दा, चलायमान दवा ।.. [इढ़ीटा घोडा । डग्गा दे (पु०) दुर्बेछ घोड़ा, भस्थिपक्षरावशिष्ट घाटा शट्टू दे* ( पु० ) चमक, विच्छू का छाँटा जे! जदरीला दोता है, विधेक्ाा कोटा, कलम की जीम, निय डफ्क मारा हुआ स्थान या घाव --मारना ( छ्ि० ) पिस्‍्छू या दर का काटना । डड्ढा दे० (१० ) घाचविशेष, दुन्दुसी बाजा, नगारा, चौंसा, नगाड़ा, युद्धयात्रा विवाइयात्रा आदि में थट्ट बजाया जाता ईँ । [जानने वाद्यी स्री डड्डिनी देन (सखी० ) डाकिन, मूत प्रेत की विद्या डड्टियाना दे० ( क्रि० ) डट्टू से मारना, उद्डू से चेट करनए, डडू सारनए, छुदरीछाए काटा घुसाना | ( रे३३२ ) डण्डाडाली डड्ढीला दे० (वि) डहछ्ूबाला, जद्दरीछे कृटि चबाला। डड्ढर ( छु० ) चौपायए, गाय, बैल, सैंस अएदि| डड्ूरी ( सत्री० ) डछ्किनी विशेष, लंबी लकडी । डद दे० ( घु०) निशाना । डटना दे* (क्रि०) उच्च रहना, तैयार रहना, अम्तुत रहना, थमना, झकना,, जल आना, प्रस्तुत डद्वोाकर सडा रइना | दर [ करना | डडाना (क्रि० ) सटाना, भिदाना; जमाना, खड़ा डाई दे० (स्त्री०) डटाने की मजदूरी, डटाने का काम! डरैया दे? ( वि० ) डटाने वाला, वचत, पह्तुत । डट्टा दे० ( घु० ) डाट, बोतक आादि का सुंद बन्द करने की वस्तु, बडी मेल, साँचा, हुक्े का नेचा ) डढ़मुण्डा दे” ( वि० ) दाढी रद्दित, मिस्तकी दाढ़ी झुँड दी गई हो। [बाढा। डढ़ियल दे* (बि० ) दाढ़ी वाला, रूम्यी दाद़ो डदुआ 3) दे० (वि ) जला हुधा, दृग्घ, भस्मीमूत ड्ढ़ाई ) ( ए० ) तेल विशेष जो जहा के निकाह्ा जाता है, पाताल्न यन्त्र से निश्राक्लां हुआ तेल । डंठा दे० ( धु० ) डाँडी, मेंदी, दुण्डी, ढॉँड, श्र या फल श्रादि का डॉड, जिस छकड़ी के सद्दारे वे बृत्ठ में छगे रदते हैं । डयड तद्‌० ( पु० ) दण्ड, अपराध को प्रायरिचतर, अपराधी के उसके श्रपराघ की गुएता भोर लघुता के श्रदुसार सजा देना, जिसके भर्यदण्ड, शरीरदण्ड भादि कई मेद द| ब्यायामविशेष, पुक धद्यार की कसरत, जिसमें दोनों द्वाथ भर चैत के बढ्य पर शरीर का सश्ाक्षन किया भाता है ।--पेल ( पु ) पहलवान, कसरती जवान । डयडचसू तद० ( पु) दुण्दवद्‌, दुण्ड के समान समध््त अर्ों से गिरना, सूमिष्ट होकर प्रयाम - करना, अष्टाक प्रणाम करना | डण्डवार ( पु० ) ऊँची दीवार, चारदीवारी ड्यूडयी ( गु० ) करद, दण्ड देने वाढ्ा, दण्डित । डण्डा तद्‌० ( पु० ) दण्ड, दण्डण, बह, छादी, पैदा, धताका की कड़ी, रण्ड की खकद्टी | डणडाडेाजी दे० ( झ्वो ) भालकों का पक खेल ॥ डरिडया € झ३३ ) ड्र डणिडया दे० ( घ० ) खी का वस्त॒ विशेष, स्त्रियों के | डबरा दे० ( घु० ) सरीजी भूमि, पक्किल भूमि, लिवाड़ ओढ़ने का कपड़ा, दुफ्ट्रा। ओड़नी, बाज़ार का कर उधाहने वाला । डरण्डी तदु० ( स्त्रो० ) सुढिया, दस्ती, हत्या, बेंड, कुल्हाड़ी, फरखा आदि अस्थरों में छूगाई हुई लक्षद्ी, पकड़ने की लकड़ी, नाक्ष, फूल के नीचे का हूम्त्रा पतला भाग, रूपपान, लिझेन्द्रिय। कापए्विशेष, जो तराजू के पलड़ों में छगाया जाता है | ( पु० ) द॒ण्डी, संन्यासी जो दूयड धारण करते हैं | पगदण्डी, चिन्ह, पइचिन्द्र, गुप्त मार्ग, चोर गली । | रेखा, सीधी क्ष्कीर या लीछ। डगडीर, डॉडीर दे० (स्त्री० ) सीधी घारी, सीधी डणा्डोत तदू० ( 9५ ) दण्डबच, प्रशाम । डपठलसा दे० ( क्रि० ) डांटना, दाना, कड़े शब्दों ले लिरस्कार काना, सुधारने के लिये ढट बताना | डपे।रशह्लु तदु० ( पु० ) जे। ऊड्ढे बहुत पर दे या करे कुछ भी नहीं । देखने में चतुर किन्तु वास्तव में , कम्त समर बढ़े डी डौल का सूखे । डप्पू दे” ( बि० ) बहुत मोदा, बढुत बढ़ा । डफ दे ० ( $० ) बड़ी खंजरी, पुर प्रकार के बाजे का नाम, घ्ज्ञ में इसी पर देश्ली गाते हैं । डफला दे० (9०) डफ नाम का एक प्रकार का बाजा१ डफली दे० (स्त्री०) खंजरी । [मारना, ज़ोर से रोना | इफारना दे० (क्रि०) कूछ मारता, चीख मारता, दृढ्ाढ़ डफाली दे० ( घु० ) डफ बनाने वाज्ला, खंजरी पर चमडढ़ा चढ़ाने वाछा, डफ बाज कर भीख मईगने बाला, एक प्रकार का सुसक्षसान फूकोर | डच दे० (एु०) वक्त, सामथ्ये, शक्ति, परस्कम, जेब, बैछा, फ्वला चमड़ा जे। कुप्पा श्रादि बनाने के कास श्ाता हैं । डबकना दे० ( क्रि० ) चमत्कार हेना, शोमित हेना, जगसमानत, चमकना, टी मारना, हूँगड़ा कर / चलना] मिटा, स्थृूज् डबका दे० (9०) ताक्षा, कुएँ का ठदका नकत । (वि०) डबगर दे" ( पु० ) चमकार, सेची, चमड़े के साफ फरने बाला, चसड्गा कमाने बाछा |, ड्वडवाना दे० ( क्रि० ) आंखें मर आना. अश्रासि आना, कण्ठ रुक जाना, अधिक हप या शोक से शब्द न निकलना [ छुपरी, मन्दें जढ का छोटा तालाब, गढ़हा, गंवई का वह छोटा तालाब, जिसमें मेंस या सुभ्रर बैठ कर पानी सनन्‍्दा कर देते हैं। डवरिया दे ( वि० ) ज्तरहत्या, वॉर्या हत्या, बायें हाथ से काम करने वाला । डबरी दे० ( स्त्री० ) चोदा चाल । डबस दे० ( धु० ) रक्षण, चिन्ता, व्यवस्था, तैयारी, जलयात्ना के उपयुक्त चस्तुश्नों का भाण्ढार, समुद्र यात्रा के उपयोगी वस्तु | छवा दे० ( घु० ) ४ डब्बा ” पानी का भढ़ा । डर्वांडाल्ल ( गु० ) चच्चल, भस्थिर । डाबिया दे ( स्त्री० ) छोटा डब्चा डवेाना दे० ( क्रि० ) डुबाना, बोरना, जक्न से गाता खिल्वाना, उजाडुनः, नष्ट अ्रष्ट करना, विगाड़ना । डब्घा दे० ( छ० ) बड़ी डिंबिया, खन्‍्दा, कुप्पा, रेल- गाड़ी का ख़ाना, धातु या काठ का पात्र विशेष | डब्यू, डबुआ दे० ( 8० ) लोहे या पोदल का कछुला जिससे बढ़े कार्य! में दाल अ्रादि परोसी जाती है । डभकना ( क्रि० ) जल में हूवना बत्तरामा | [मथर । डमका ( घ० ) कुएं का ताज़ा पामी भुना हुआ डभसकौरी (स्त्री० ) उरद्‌ की दाल की घरी | डमर तत्‌० ( घु० ) डर से भस्रापता, भय के कारण भागना, राजा के अपने समान भ्रन्य राजा का सय, अल्त्रकत् ह । दि, रठिया । डमरुआ दे० ( घु० ) घुटने की गरढि का रोग, ज्ोढ़ों का डमरू तत्‌० ( छु० ) वाद्य विशेष, शिव जी के धन्नाने का बाजा, कापालिक योगियों के बजाने का बाजा, चमत्कार, आरचय, अदभुत ।--मध्य ( पघु० ) दो द्वीपों को आपस में जोढ़ने बाला पुक प्रकार का भूमि खण्ड विशेष वह भूसि जिससे दो रापू त्रापल में मिले रहते हैं।--यंत्र ( ० ) दुबाई तैयार करने का एक थंत्र | [का चाजा । डम्फ दे? ( छु० ) खंजरी के आ्राकार का एक प्रकार डयत तत्‌० ( पु० ) [ डि+ अनट्‌ | नथेगमन, झाक़ा- शमार्ग में चलना, उड़ना, उड़ कर चलना, पछी की गति | ललिफ ददशत | ड« तद्‌० ( पु० ) भय, न्ञास, भीति, शबूग, घआात्तड्, ( 3३४8 ) डाँडना 3-3 मनन न + «5-3 न ना डरना तदू० (क्रि०) भप करना,न्राख पाता,शह्कूग करना । | डहक दे० (पु०) गुफा, कन्दरा,खोदद, छिपने की जगह | ड्रना डरपति ( क्रि० ) डरती है, भयमीत देसी है । डरपना तद० ( क्रि० ) भय खाना, डरना, श्रस्त द्वेना | डरपाना दे० ( क्रि० ) डराता, मयमीत करना । डरपे दे० ( क्रि० ) डरे, डर गये, भयभीत हुए । डरपेंक़ तद्‌+ ( बि० ) डरने दाला, भीर, डरवैया। डरपेकना तद्‌« ( वि० ) ढरनेवाला, भीरु, डरवेगक | डरधैया तद्‌० ( बि० ) भयभीत, मीर, डरपेक | डराऊ तदू० ( वि० ) डराने वाठा, भयहूत, भयापना । डाक तद्‌ ० ( वि० ) डरने वाला, सीह, भीत | डराना तद्‌० (क्रि०) भय देना, डरवाबा, मय दिग्वाना, भीत करना । डरालू तद्‌० ( वि० ) मोर, डरपेक। डरायना तदू० ( वि* ) भयदायक, भयानक, सयझ्षर। डराबा ( ५७ ) चिड़िया का डराने की एक प्रक्रिया | डरी दे० ( स्त्री० ) ढली, छोर छोटे टुकडे, डर गई। डरोला दे० ( वि५ ) दात्वाढा, टहनीदार । डरोना दे० ( वि* ) डराऊ, उराबना, भयानक | डल दे० (४० ) हुकढ़ा, खण्ड । तत्‌० (रत्री०) मीछ। डलया दे० ( ५० ) दोकरा, दौरा | डलवाना दे० ( क्रि०) फॉकवाना, गिरवाना, भरवाना, फेंकवाना | [ छयद । डा दे” ( पु५ ) डब्ा, टोकरा, यदा टुकढा, दोंका, डल्तिया दे* ( छी० ) घोटो टोडमी, बाँध की बनी फूछ - रखने की छोटी टोइरी । डक्ती ( स्त्रो० ) डुरडा, चोटा इकद्ठा, टूक, सण्ड । डस ० ( स्प्री० ) तराजू की सस्ती, जिससे पलड़े इंडी में वि जाते हैं।सूत, चूत की डोरी, मदिरा विशेष, छीर ( क्वि० ) काद, छेद | डसन ( स्त्री० ) दंसन, काटन | डसना दे० ( छि० ) डडट्टू मारना, चैदना, छाटना, पतली घार वाली चीज से काटना, साँप का काटना, डक्टियाना, घुमाना, गदाना । डखाना (क्रि०) कश्घाना, विच्ाना, विस्दरा विद्याना । डसि दे ( क्रि० ) डस कर, डस क॑, काट के | डसौना देन (पु० ) इसाने की चचस्तु, जिश्लीना, + बिस्तर, निस्‍्तरा । डदकना दे* ( क्रि० ) डौंबना, लाजच करना, बिल- खनः, निराशा से दु खित होना, बिगढ़ता, छल करना, छितराना । डहकाना दे० ( क्रि ० ) खोनां, नष्ट करना, निधश करना, निराश छौटना, वियाइना) धोखा देना, ठगना, सत्ताना । है डहकि दे० (क्रि०) डहरू के, ढगा कर, धोज्े में श्राकर। डददड॒हा दे० ( वि० ) बढलद्वा, इरा भरा, ताजा; भ्रफुछ, खिला हुआ, प्रफुछित । डहृंडद्ाना देन ( क्रि७्) सिहूना, विक्पना, विकसित द्वोना, खिछ जाना, प्रफुछ दाना, हरा भरा हाना। डद्दन तद॒० (पु०) डैवा,पर,पख | (एत्री०) जलन; दाद | डदर दे (स्त्रो०) डगर, माय॑, रास्ता, रद्द, पय, कुदछा, मट्दी का बडा बरतन जिममें श्रनाज भरा जाता है। डदरिया दे* ( स्त्री ) डर, डगर, मागे। ड्टू (५० ) बढ़हर का पेढ़ तथा फ७ | डॉक दे० ( पु ) चाँदी या तबि का भत्यन्त पतला पत्तर, ( स्त्री० ) बमन, इलटी । डॉकना दे* ( क्रि० ) लघिता, फॉदिवा, बमन फरना । डांग दे* ( ख्री० ) परत के ऊपर की भूमि, शिपतर, जगल, वन (पु०) कूद, फर्लाण । डाँगर दे० ( घु० )पकझु, बरुद्दीन पशु, दुर्षेल पद्च, मूली की पत्ती ( वि० ) मूर, दुबढा | डाँट | श्वी० ) अ्घीनता, अधिकार, दख> | डॉँड डप दे० ( खी० ) तिरस्कार, अपतधी को साथ- घन करने के ज्षिये तिरस्कार । फिए्या। डॉँडना दे० ( क्रि० ) ताडना, दुवाना, घुट्कना, भध्पन डॉल दे* ( पु० ) डी, दण्डी, ढॉटी । डॉडी दे० ( ख्री० ) दण्डा, डाली, डठ, डण्डी । डाँड दे* (धु० ) दण्ड, यदुछा, अपराधी को सजा, [ बागृदण्ड, घिरूण्ड, भर्थंदण्ड, शरीरदण्ड, समाज दण्ड आदि इसके भेद हैं |] नाव चलाने बाली रास की बछी, डॉडा, रीढ़, पीद की हड्डी, घकड़ी, डाठी, लट्ट।--भरना (%०]) जुर्माना देना, दण्ड देना ।--क्षेना (फ्रि०) जुर्माना चसुल करता। डॉडना दे० ( क्रिब ) बदुका लेना, सज्भा काना, दण्ड देवा, शाप्ति देना । ट डॉँडा ( इहे४ ) डार व मम मम क 2523 2 लम अप 22%, केमिकल कक सह डॉडा दे० (३० ) मेंड, सिद्दाना, सीमा, किसी देश | डाकिन्र, डाकिनी दे० (स्त्री ०) डाइन, चुड़ेल्ट, प्रेतिसी, आस झादि की श्रवधि, खेत की सीमा! डॉडी दे" (स्त्री० ) कर्णधार, खेवैया, चाव चल्काने बाला, मस्ती । डॉँढ़री तदू्‌ ० (स्त्री०) भुनी हुई मटर की फली [ डामाडेल्त दें" ( पु० ) अनिश्चित, अ्रव्यवस्थित, इधर से चघर, अह्थिर । डाँबू दे” ( ७० ) दलदल में उत्पन्न होने वाला नरगट | ' डाँवरा तदु ० ( पु० ) छड़का, बेटा, पुत्र ! डॉँचरी तद्‌० ( स्री० ) लडकी, बेदी । [बड़ा न हो | डॉयर दे० (पु० ) बाघ का बच्चा, बच्चा जो बहुत डॉयाडेत्त दे* ( जि० ) चक्षुछ, जिच्लित, अस्थिर | डॉँस दे० (घु०) बड़ा मच्छुड़, बड़ी सक्खी | डाइना तदू० (स्त्री०) छुढेल्, रातसी, ठोनहाई, कुरूपा एवं कर्केशा स्त्री | डाक दे० (8० ) घोड़े आदि के बदलने या विश्वास का स्थान, चैकी ।( स्त्री० ) चिट्ढी पन्नी आदि को शीघ्र भेक्षमे का प्रचन्ध, सततवमन उम्र गन्घ, जहाज़ का स्टेशन, नीढाम की बेली--ख़ाना, घर ( 9० ) पत्नादि के आने आने का दफूर (-- शाही (स्ली०) सबप्े तेज़ चलने बाली गाड़ी (--+ चंगत्ता दे” (पु०) वह इमारत जे। सरकार की ओर से यात्रियें। के ठहरते छा बनीं हे |--महसूल दे० (पु०) चद व्यय जो डक द्वारा किसी माक्त को भेजने था सेँँगाने में लगे |--मुंशी दे० (५०) डॉकथघर का बाबु, क्लाक, पेस्टसास्टर | -व्यय दे ० ( घु० ) डॉक महसूक्ष । दिना, इलंघन फरना । डाकलना दे० (क्रि०) बमन करना, ओकना, उम्र ग्रत्ध छाकर (पु०) तालाबों की सूखी मिह्ठी । छाका दे? (छु०) बक्तास्कार से अपहरण, जबरदस्ती छीन लेना, चारों का घावा, छापा, श्राक्अण ।-- ज्ञनी (स्त्री०) छूटना, डाका सार कर सम्पत्ति छीन लेना ।--पड़ना (कि०) लुट जान, डाके से चोरी हो जाना, बरूत्कार घे अपदरण हो जाना, छापा पड़ना ।--डॉलना (क्रि०) रास्ते चलते हुए का साकछ बल्टात्कार से छीन लेना, बल्पूर्वक आक्रमण करना |-+देना (कि०) लूटा, छीनना, हस्तमत कर जोना [ जन्तर मन्तर जानने वाली स्त्री, येगगिनी | डाकिया दे० ( पु० ) डाह्ू, डाका डालने वाछा, डाक ले जाने बाला पियून, पेप्स्टसैन, चिट्दीरकषा डाकी दे ( वि० ) खाऊ पेह, बहुत खामे वाला, ओदरिक, शक्ति से अधिक काम करने वाला। (स्त्री- ) चमन, के । मर डाकू दे? ( घु० ) डकैत, बलात्कार पूर्वकत अपदरण करने वात्टा, दस्यु, साहसी, बटसार, लुटेरा । डागा ( पु० ) नयाड़ा बजाने की छकड़ी | डाठझ दे० ( स्त्री० ) घुड़की, धमकी, तिरत्कार, भत्सेन, अशनादरसूचक शब्दों का प्रयोग, मिड़की, डपट, टेक, रोक, कास, लगाव की रोक । डाठना दे? ( क्रि० ) धमकात्ता, घुढ़काना। मिड़कना, डपटना, सुद्द बन्द काना, रोक रखना, कस कर खाना, बड़ी सजघज से कपड़े पहनना । डाढ़ दे० (स्त्री० ) पिछुल्ले बड़े दाँव जिसे भोजन पीखा और चबाया जाता है। न डाढ़ा तदू ० ( स्त्री० ) दावानछ, आग | डाढ़ी दे० (स्त्री० ) दाढ़ी, दाढ़ का दूसरा भाग, हड्डी, गालें पर के बारू । [कठिल । डाढ़े दे० (क्रि० ) जलाये, भस्म किये | (०) रपक डाब दे० ( छु० ) नारियल का कच्चा फछ, परत्रढा, सलिसमें तछवार रूटकाई जाती है । ढाभ, दर्भ, कुश | डावर दे० ( छु० ) पात्र विशेष जिसमें हाथ थेस्या ज्ञाता है, चिलमची, गढ़हा, यौन तालाब | (दि०) गन्दला, मेला, कलुपित, झाबर | डाभ तदू ० (पु०) कुश, कच्चा नारियक [ छामर तत्‌० (8०) शिवेक्त शाख्रविशेष, तन्त्रभेद, समान राष्ट्र का सय, परचक्रमय,पूना,राज, सर्जरस ॥ डामल दे० (स्त्री० ) जनससियाद, जनम कूद । डामाडेल दे० (वि०) अस्थिर, चम्चल । डायन दे (स्त्री०) डाकिन, चुडैक्ष । डॉार, डाल दे० (स्त्री०) शाखा, ढाल, डाली । (क्रि०) फ्ंक कर, गिराकर--की डार (वा०) झुंड का - झुड, दल्व का दल, पंक्ति की पंक्ति, दाौली, जलव्या, सझूइ, शाखा की क्ाखा | डारना ( ३३६ ) डिम्मि डारना दे० (क्रि०) डाहना, छगाना, फ्रेंकना, पहनावा | डिठोरा ( घु० ) काजल का टीका नजर न लगे इस घरेलना, उम्मठना | डारिय तद्‌० (पु०) दाहिम, अनार, अनार का फल | डात्व दे (सन्नी०) शाखा, टदनी, डाल | डालना दे० (कि०) नीचे गिराना, छलोडना, मिछाना, घुस्ताना, झुछा दना, चिनस्द्र डाटना, पदनवा, सार देवा, पेट गिराना, के करना, झिस्री स्त्री को पत्नी की तरइ रखना, लगाना | [ डलिया डाला दे० (५५ ) देला, बडी डाली, दौरा, बड़ी डालिय तद्‌? ( ४० ) दाड़िम, झना! का फड । डाली दे० ( स्प्री० ) सेंट, उपद्ार; फल आदि उपहार में भेजना, फल्लो की टोकरी, शाखा, फूछ रफने का पात्र, जो प्राय यास का बनता है | डाबर दे० (६०) गदिरा गइहा । डियई। डासल दे० (पु०) विज्यौना, दसैना, बिखर, आसन, डासना द्वे० ( क्रि०) दिछ्लाना, बिखर बिद्ाना विद्चौनां करना। डासनी दे० ( स्री० ) खाद, चारपाई। डाल दे० (क्रि०) बिछा कर, गिरा का, फेंक कर । डासो दे० ( खी* ) विदाई, डाली, पसारी, फैशाई | डादह तद्‌० (स्री०) द्षादद,विद्वेष,दोढ, छाग, गादि;ईष्यों डाहना तू» ( क्रि० ) डाइ रखना, दुख देना। डाही तदू» (वि० ) द्वोही, दादी, ईर्पी, क्रोची, मन्दाप्मि रोगी । डिगता दे० (क्रि० ) दिलना, डगमगाना, अस्थिर होना, मतिज्ञ/म्रष्ट ऐना, शत से ददल जाया, हटना, परथराना, कॉपना । डिगदि दे० ( क्रि० ) इट्ता है, सरकूता है, टछता है। डिगाना दे० (क्रि० ) हिलाना, केंपाना, चब्रायमान करना, प्रतिश्ञाभ्रष्ट करा देन', विचल्ित करना । डिग्गी (खतरो०) चेए्टा तालाव, बाध का साछाय । दिड्डर दे* ( इन ) सोया, स्थूल, पूर्र, दग, घोझे बाज, दास, सेवहच, नाकर । डिड्डल तद्‌* ( बि० ) नीच, दूषित ।( स्त्री० ) राह लिये यद दौरे बच्चों के माथे पर लगाया जाता है । डिढ़ाना ( क्रि०्) मजबूत करना, दृढ़ काना। डिण्डिम तत्‌० ( ४० ) छुगड़गी, डुग्गी, ढिढारा। डिप्डिर ददु- ( पृ० ) समुद्र का फेक, समृद्े का काग। डिविया दे० ( स्री० ) ढक्कनदार काठ या धातु का ए७ प्रकार का गोल पात्र, डब्वा, डिब्दी डिव्या दे० (ए०) बड्दी डिविया । डिब्बी दे ० ( छ्लौ० ) डिविया । डिम तत्‌5 (पु०) सँम्राम, पाफ्ण्ड, दम्म, घूत्त, पय) डिसी तद्‌० (वि० ) पाखण्डी, दम्मी डिम हद» ( थु० ) संप्राम, प्रत्या । डिमडिमी दे० (द्वी०) हग्गी,हगदुगी,मुनादी,टिढिरा । डिग्व तचु* (१० ) पाखण्ड, भय, त्रास, लूटपा० बिना इृचथियार की छडाई, फुपफुप, श्रडा, पिलद्दी, इलचल, कीड़े का छोटा बच्चा । डिम्बक तद्‌* (धु० ) शादव मगर के राजा मरद्मादत्त का पुत्र, इसके सौतेले भाई का नाम था हंँस। महादेव ने इसझो भ्रवष्य बनाया था, देवता भसुर दानव मन्धर्व झ्ादि कोई इसको मार नहीं सहता था। विर्वाद और कुण्डोदर नामक दो मदादेव के गण इसझी रचा % लिये सवेदा हसेझे पाप रहा करते थे | इन खेगों न पृक यार दुवांसा क्षि को बद्य तह किया, उनझे दण्ड कम्रण्डलु भादि कोड /फोढ दिये । दुर्वांसा मे अपने ति/सक्रार का दाल श्रीकृष्ण से कहा, श्रीकृष्ण इस पैर डिम्कक के साय झुद करने के लिये बचत हुए । श्रीकृष्ण इस के घाप युद्ध करने करते उसझे बड़ी दूर तक मगा के गये, दिम्दक सास्यकि से युद्ध करता था। डिम्पक ते समझा थीडष्ण द्वारा दस्रमारा गया, ऐसा समझ कर यह यपुमा में घुघ गया, अपनी निद्षा उखाद कर उसने आत्मइल्या क' छी। कद्दते ्ड् आत्म इस्या के वाप से डिम्दक के बहुत दिनों त£ नरकवाछ का दु ख मोगा पढ़ा | पूताने की पृर भाषा क्रिसमें यहाँ के भाट और | डिसिका तत्‌» ( स्त्री७) कामिनी, काम ही, जडविसव, चारण पच रचना करते भाते हैं | चृश्रविशेष | डिठयारा तदू० (दिल इश्टिवानू, आँविदाबा, दष्टि- | डिम्म तत० ( १६ ) [द्िम्म +चच्‌ ] शि्ठ, पाउक, शक्तियुक्त। सूले, अनारी, अश्वान, दिस्व, अण्ड, पशुराइक, डिम्मक ( इ३७ ) डेढ़. बछद्गा !--चक्र (छ० ) मनुष्यों का शुभाझुस बताने. हुआना दे० ( क्रि० ) घुड़ाना, योरना, गेदा खिल्ाना, वाला एक प्रकार का चक्त --ज्ञ ( ग्॒ु० ) अण्डज, । डुबोवा, नष्ट अष्ट कर देचा, उजाड़ना | ग द्विंज, द्विजन्मा, पक्ती, चिड़िया; शकुन्त । । डुवाव दें० ( छु० ) भ्रधाद जल, प्रधिक्ष जरू) श्रगाघ डिम्मकऋ तत्‌* ( छु० ) वाक्षक, शिक्ष। [ खुँहा बचा । |. जछ; छवने योग्य जल ! डिम्मा तत्‌० ( स्त्री० ) बच्चा, गदेला, अतिशिष्॒, दुध- डुबोना दे० ( क्रि० ) डुदाना, बोरना, छुड़ाना । डींग दे० (घु०) बढ़ाई, अहड्भार, दपे, पभिमान, डुध्वर तदू० (पु० ) बहुम्बर, गूलर का बृच्च, फल । गये --मारना ( क्रि० ) घहण्ड काना, बड़ाई ड्रियाना दे" (क्रि०) चलना, फिरना, रस्सी में हावाना, अपनी बढ़ाई आप करना, स्वयं अपनी याँघि कर घुसताना, व्यथडोर पर धोड़े के! ले चकमा । प्रशंसा करना । - हाँकना ( क्रिं० ) ढींग सारना। | डुचना दे? ( क्रि० ) दिलचा, चछना; कँँपना, कस्पित अभिमाव करना, अपनी प्रशंसा करना | । होना, भूलना, कूले पर रूछना | डी6ठ तदू० ( स्त्री० ) दृष्टि, नियाह |--वनन्‍्दी ( चा०) | डलाना दे० ( क्रि० ) हिलाना, कुछाना, भगवान्‌ के इन्द्रजाल से देखने की शक्ति के नछ फर देवा, | हिण्डोले पर कुलाना, केपाना, टहछाना । नजुरवन्दी, साया, इन्द्रजाल, नथ्विद्या । हूँगर दे० ( घु० ) दीला, भीटा, हद, छोटी पहाड़ी | डोठना तद्‌० ( क्रि" ) दिखाई देना । यधा;--“क्षण ही में सब्र खोद बहावें, डीठा दे० (,क्रि० ) देखा, देख पड़ा, (छ०) नक्षर, दीठ । इ्वॉगर का घर नाम मिटावें | डीठि या द्ीठी तद्‌० ( स्त्री० ) दृष्टि, डीठ, नज़र । --म्रज्विछास [ डीडियारा तदू० ( वि० ) रृष्टिवान्‌, अच्छी आंख बाला, | हूंगरी दे० ( ख्ी० ) छोदी पहाड़ी । छिच्छा। देखने वाला, ताकने वाला, दर्शक, टकटकिया । | ड्ूँगा तद्‌० ( घु० ) चम्मच, डोंगा, रस्से का गोल ड्ीन तदृ० (५०) [डी +क्त| पछ्की का गमन, आकाश डूड्रा दे० ( वि० ) एक सींग का बैल, आभूषण रदित ४ पथ में विचरण, उड़ना। श्राममशाक्ष विशेष । जैले उसका हू डा हाथ बढ़ा छ॒रा लगता है । डीजल दे० ( प० ) आकार, आकृति, काय, शरीर) वेढ, | द्ूूब दे० ( पु ) डुबकी, गेता, घुड़की । ढौल, सट्ठी का ऊँचा हद । | झबचा दे० ( क्रि० ) मश्न दे।ना, हुवकी लगाना, चूना, डीला दे० ( 9० ) ढेला, मद्ठी का डुकड़ा । जरूमप्न धोना, भस्तमित्र होना,सूर्यास्त दाना, छिप डीह ऐे० ( ४० ) वास, वास-स्थान, चहे स्थान जहाँ ज्ञाना, नए होना;बिगढ़ जाना,नष्ट भ्रष्ट है।ना, लीन याँतव आदि बसते हैं ।--पड़ना ( क्रिक ) खंडहर |. होना, ध्यानसभन होता, हौ क्षम जाना, अत्यन्त दे। जाना, ऊजड़ द्वोना, उजाढ़ हो ज्ञाचा । आसख्क्त हो जाना, विवश द्वोना, मूछिंत होना । डीहा दे० (०) टीला, मद्दी का पडाड़ । । डूबा दे० ( वि०) बड़ा हुआ, जन्मप्न हुआ। (ध०) जल डडुक दे० ( छु० ) झुक्का, चूँला। मार । ० का अधिक आना, वाढ़, सूर्च्छा । डुकरवा ऐे० ( छ० ) छुद, बढ़ा, पुराचा) ज्ीयाँ । | डेडढ़ दे० ( खी० ) सन्दूक की बाढ़, डेवढ़ा | डुकारिया दे० (ज्री० ) इंडा, बढ़िया, इंदधा स्त्री। | डेडढ़ा ( 9० ) ब्योढ़ा, आधा और युक | डुगडुगाना दे० ( क्रिल ) डुग डुग करना; डह्का वजञना३ डेउढी ( ख्ती० ) फाटक, दरवाजा, पौर, दृइलीज । डेग दे० ( घु० ) देग, पद, पण, एक पैर रखने और डछ्कून पीदना । हुगड़गी दे० ( स्वी९ ) देखो डिसडिसी । दूसरे पैर रखने के बीच की भूमि । डुग्गी दे? ( खी०) बाँया तबलछा, वाद्यविशेष । डेगना ( छु० ) ठेकुर, देखे अड़योड़ा । डुगड़ या डुणडुभ तत० ( ० ) सर्प विशेष, जल | डेठी दे० (स्त्री०) डंडी, नाल । का सांप | डेड्हा ( घु० ) पानी का सपि। डुपद्टा दे० ( प० ) दुश्हा; चादर। , डेढ़ दे” ( वि० ) एक और श्राघा, आधा मिला डुभा डुबकी दे० ( खो? ) बढ़की, गेतता, अवधाहल ! पुक, १४ [--गत ( ख्री० ) पुक प्रकार का नाच | शब्पा०--धडे डेना ( इहेंद ) डाला 5 नर या मनन नल 2 न नि न न लत++ नल पल नि न -पाव ( ु० ) एक पाव और थआाघा पाव, थ | डामनी या ढेमिन (ख्री०) ढोम की ख्री मुसः चुर्यक +-योौवा ( ४० ) र्घाद, जो ढेढ़ पाव का हो, ढेढ़ पाव की तै।ल । डेना दे” ( पु० ) विदेश का वास-स्थान, बुछ दिनों रहने का स्थान, घर, तावू, पटमण्डप, कपड का मकाद, नाचने गाने वाले! की मण्डली। ( वि ) वाया, ( डेगा हाथ ) | कि स्थान । डेरा दे० ( ० ) खेमा, तंबू, टहरने की जगद, रहने डेरा्ि ( क्रि० ) दराते हैं, भयमीत दोते दें। डेल, डेजा दे” ( ए० ) ढेला, लेदा, डुकड़ा। दे० ( स्री० ) रदी की फसच के लिये जोन कर चोड़ी हुई जमीन | तत्‌० ( १० ) इढलू पद्दी | डेचढ़ दे” ( घु० ) कम, सिलसिला, देचढ़ा। डेवढ़ा दे? ( वि० ) देढ़पुना, पुक भर श्राधा गुना, सादंगुणित । | द्वार, चाखट, डेढ़ गुनी । डेवढ़ी दे० ( ख्री० ) दरवाजा, सदर दरवाजा, फादक, डैना तदू? ( घु० ) उडमे का साधन, पह्ं। पछ, पल, चिद्दियों के पर । दे० (पु ) डाए, शाखा, टद्वनी । डाई देन ( स्ली० ) काद की सूठ की कजछी | डेंगर दे० ( पु० ) हूँ गर, टीजा, पद्ाडी डोगा दे* ( पु० ) नाव विशेष, छोटे नाव। डोँंगी दे० ( ख्री० ) भ्रति छोटी नाव, कछदी । डेंही दे? ( ख्री० ) ढिंढोगा, डुगहुगी, मनादी ।-- फिसना (क्रि०) पुक प्रकार के बाजे के सहारे से किसी बात को प्रकाशित करना, राजहीय बाज्ला की भचारित करना । डार, ठोय दे" ( १० ) स्मविशेष, दो मुंद्ा साप | दाझना दे० ( क्ि० ) चोकना, वमन करना, इब्ठटी करना, उपकाई आना ] डाकरा दे* (पु०) घूद्द, झरठ, जीणे, चुडूढा, बहा डाइरो (श्वी०) दृदा, चुढ़िया, छुकरिया । डाव दे? ( पु० ) दब, डुषकी, युधी, गाता, रह ता | +दैना ( क्रि५ ) रहदेंगा, रहचढ़ाना, गोवा द्वेगा। डेोवां दे० ( १० ) गेठा, डुबकी । डोम, डेामडा दे* ( पु ) जातिविशेष, चन्तयश्ञ जाति, जे सूप आदि बनाने का रोचगा करते ई। ढ्मान जाति के लेग जिनकी स्तिर्या केवल स्त्रिये दी के सामने गाती और नाचसी हैं और मर्द गयेये और इजनिये होते हें । ( श्रीघर ) डोर दे० ( स्रौ० ) सससी, कुएं से पानी निकाक्षने की रस्सी, डोरा, तागा, सूत । डारक ठत» (०) ढोर, सूत, सूत्र, गण्डा; रघासूत्र | डारा दे* ( पु० ) सूत्र, सून,सेते का सूत, धागा, लीक, लकीर, रेसा, तलवार की धार, भरत के कार डोरे, श्राँखों में जो खाल रह की लकीर सी द्वाती है ! ड्ारिश्राये दे ( क्रि० ) रस्सी में वध कर पकड़े । डारिया दे० ( पु० ) एक प्रकार का कपढ़ा, एक प्रकार का बगल, जटठाही का तागा उठाने बाला झठका, पुक नीच जाति जो रजवाश में शिकारी कुत्ते रखती है। [की रस्सी। डॉारी दे* (स्री०) सुतरी, रस्सी, डोर, पानी निहढने डेल दे० (छु० ) कुएँ से पानी निराठने का पात्र जो ज्षेद्दा या चमड़े का धनता है, पश्चना, हिडोरा | डोलयो दे ( स्ली० ) घोटा ढोठ, छपदे का पेना छोटा दोल । डाल डाल दे५ ( पु० ) पाखाने जाना, चल फ़िर । डालत दे० (क्रि०) चलता है, फिरदा है; दिशता है । डालना दे० (क्रि०) चोलना, दिलना, इलना, फिरना, भटकना । डाला दे० ( ५० ) पुर प्रकार की पालगकी जिम पर खिर्या चढ़ती हैं ।+देता । [ क्रि०) सामान्य कुट की स्त्री का विवाह थे लिये इच्चकुठ के घराने में जाना। अविवाद्धिता लड़की का विवाहार्थ भेजना, गअद ज्ञातियों का अपनी विधवा पुप्री के दूसरे पति के यहाँ भेजना, लड़की ब्याह देना, जिचादार्थ भपनी छड़डी या दिन आदि वाजा के समसपिंठ करना, सुव"्मानी वादशाइत ले खमय में रावपूताने के कतिपय राजाओं ने अपनी बद्विन चोर वेधियों का डोचा मुसक्मानों को दिया था। इस विवाद रूपी यज्ञ के ऋग्विज, भामेर फे राजा मगवानदास और मानध्तिंद ये डाली ( ३३६ ) ढनमनी डेल्ो दे” (ख्वी०) पाठकी विशेष, जो खियों छे चढ़ने | डाल दे० (घु० ) ढांचा, अकार, रीति, उम्र हब, के लिये है, चौपाला, खियों की परछकी । (क्रि०) व्योत्त, तरह, भाँति +-डात्त ( छ०) दशा, यह, चली गई, टहल गई | [ गरगन | हालत, प्रयत्ष, चेष्टा, उपाय । डोंगा दे” (पु०) मध्च, मचात, ऊँचा आपन्; | ड्यौढ़ा दे० (वि०) डेवढ़ा, डेढ़गुना । डोंड़ी दे ( स्ली० ) डौंडी, मनादी, ढिंढोरा । ड्योढ़ी दे० ( ख्री० ) डेबढ़ी, डौढ़ी, द्वार, दरवाजा, छोड़ी दे० ( खी० ) डेचढ़ी, द्वार, दरवाजा, उस्ारा | | फाटक |-द्वार या घान (ए०) हार की रक्षा कहने ( गु० ) डेढ्गुना, बच्चस्वर से गाना | वाला, द्रवान, द्वारपाल, प्रतिहार, द्वारपाक्षक | ढ़ ढ़ ब्यक्षन का चौददवा वो है, यद्द मी सूद्धन्य है, | ढक्का तत्‌० (पु०) [ ढक्ा+शथ्रा | बाय विशेष, बढ़ा क्योंकि इसका २च्चारण सूद्धा से होता है । ढे'छ, नगारा, भेरी, दुन्दुभी, डमरू री ढ॑ तत्‌० ( एु० ) बड़ा ढोल, ध्वनि, नाद, गम्भीर शब्द, ( स्री० ) देवी विशेष, दुर्गा का पुक नाम | कुचा, कुत्ते छी पूँछु, सांप । ढगण तत्‌० ( छु+ ) पक मात्रिक गण । छर्ददेना दे० (क्रि०) प्रायेषवेशन से कुछ पाना, घरना | ढड़ दे० ( छु० ) रीति, भका।। प्रथा, लक्षण, चाल- इक स्येतता पान।, किसी प्रक्रार का भय दिखा चकन, रद्दन सहन ! [प्रकार की छमास ! कर अ्रपना कार्य सिद्ध करना, घरना देना | ढठिया दे० ( स्त्री० ) ढही, बायडोर, थोड़े की पक ढक दे० ( ० ) त्तौछ़ विशेष, तौछने का मत, बढ- | ढेंटींगड़ (३०) बड़े डील ढौछ छा,झुस्दंढा,मेटा ताजा । खरा, बांठ, पत्थर था लोदे का गोज़ा जिससे | ढद्धा ( छु० ) डंठछ; ज्वार, जुन्दरी श्रादि का सूखा तौला जाता है। [दिचा, छिपा देना | डंठल, सुरेठा का एक छेर जो सुँद् प्रौर डाढी पर * हकना दे० ( छु० ) ढरता, ढकन, चिपनी (क्रि०) ढक वॉच जाता है । ढकनी दे० ( खी० ) छोटा ढकना, ढकने के लिये | ढट्ठी ( स्ती० ) डाड़ी वचिने का कपढ़ा। छोटी वस्तु । [घ॒छा, टक्कर । | ढाद दे? ( पु० ) ठेपी, ठेंढी, रोक, वजरी आदि भ्न्नों हका तद्‌ ० ( छु० ) तिन छेरा वाद, घाट, बढ़ा ढोल, की डंडी £ जिफब्दी कौआ | ढक्कार लव» ( ए* ) ढ अबर, ढ वर्ण, ढ बगे का | ढडकोओ दे० ( पु० ) पुक प्रंकार का भयानक कौग्रा, चौथा वर्ण, ध्यक्षन का चौद॒दवर्वा श्रक्षर । (सत्री०) | ढड॒वा दे० ( ४०) पक्ी-विशेष, एक प्रकार की चिड़िया डकार, खबु्‌गार, पुक प्रकार का रूब्द जो भोजन जो मैने की जाति की होती दे | के बाद तृप्ति की सूचना छरता है, उद्धबायु । छढड॒ढा दे० ( वि० ) बढ़ा साथ द्वी बेढंगा ! (9० ) हकेल दे० ( ४० ) घक्का, ठेल, रेल पेल । ढांचा, आडम्वर । दक्तेलना ( क्रि० ) ठेलना, धक्का देना, रेकना; पेलना। | ढुंडुढों दे० ( खी० ) छद्या, चरखी, एक पत्ती । ढकैला ढकेली दे" (ख्री० ) ठेखमठेली, रेला | छंढोसना दे० ( क्रि० ) खोझना; हूँढुना, पत्नी छगाना, पेज्नी | .. अल में भूली हुई बस्तु के हूँढुना ॥ ढक्ेलू दे” ( छ० ) धक्का देने बार, ठेखने बाडा, | ढंढोरा दे” (8० ) डिंढोरा, डौंडी, डुगडडगी, बाजे ढ हेलने चाल, हटाने वाला, भगाने बाला के साथ राजाज्ञा सुनाना | ढकोसा दे० (क्रि०) पक सांस में पीना,ज्यादा पीना। | ढढोरिया दे० ( छु० ) ढेंढोरा फेरने चाल । ढकेखला वे० (प०) आडम्बर, णखण्ड, मिध्याजाल, | ढनमनाना दे० ( क्रि० ) गिर पड़ना, फिपल जाना; कृपट व्यवेहार | चूक जाना, लुड़ऋना | [फिपरल गई | ढक्कत देन ( पु० ) ढकना, ढपना, लुकावन; छिपसवन | छनमनी दे० ( स्री० ) ढुलछी, लुदुक ग्रहे, गिर पढ़ी, द्वपएदपाना » विवा ताह के दोलक बज्ञाना ! ढण्ना दे* (क्रि० ) ठझना, छिपना, लुकना, अपने के द्विएाना । ( पु+ ) ठकना, ठकने की वस्तु ढपला दे० ( ९० ) ढकली, वाद्य विशेष ) हढफ्ज़ी दे+ ( खी० ) डफकी । हप्पू देन ( बि० ) बहुत बडा ( ढफ दे* ( पु० ) बडी खंजरी । ढव दे ( पु ) डौछ, भाकार, श्राह्मति, डीलडौच) गढ़न, गठन, बनावट, रुख, तरकीग्र ढवहे दे? (वि० ) कलुप, आविल, गेँदुछा, मैत्रा, मेत्िन, मिद्दी सिल्ा हुआ! जब | हिखान्‌। दवीला दे० (वि* ) ढादार, सुदौज, समीढा, हबुओा दे+ ( ए० ) वाँब्रे का सिक्का, वह छुप्पर जो रेतों के मचानों पर छाया जाता है | उमढम दे० ( ० ) ढोब व नगांदे का शब्द । हमताता दे" ( क्ि० ) लुड्छाता, गिरना, दिपछाना । हपना ( क्रि० ) घ्वक्त दाता, नष्ट होसा। ढरक दे० ( स्रो० ) दालू, छुठ़काव, भीचे की ओोर मुक्की हुई भूमि, दलक, बदाव, ढरकत | दरकन दे० ( खी० ) देसे। दरक । ढरकना ( क्रि० ) गिर कर बदना, दक्षना [ ढरति दे" ( श्ली० ) पदन, ग्रठि, झुझाव, दयाछुता, सहज्ञ दयालुता । [बालचक्धन दर्स दे६ (प०) पथ, शास्ता, शैली, दंग; थुक्ति, ढरी दे? ( स्ट्री० ) ढक्की, लुड्ड्ी, पिघकी, शोर भा गई, प्रसन्न हुईं, अनुरक्त हुई । [फिसलन । दलक ढें० (स्त्री३) ठरक, बढाव, दालू, लुढ़कन, ढलफना दे० ( कि० ) दरक कर जाना, पानी शादि ह्वुव पदार्थों का गिर ज्ञादा, शुढ्ुऋरा, पढ़ता, गिरना । दलजका दे" ( १० ) थाँख का बद रोग जिससे अखि से सदा पानी बडा काता है । (गु« ) घुन्धना, चौंघना, मुझ, छलका । दल्लकाना दे* (क्रि० ) गिरना, खुद़झाना, हींथा कर गिरना, उश्चट कर गिरना, सा करना ६ दलना दे* ( क्रि ) गिरता, किसटया, दीतना, बी जाता, व्यतीत हेदा, रन्नकमा, दगरना, मुझुवा, - ( रे४० ) दपढ़पाला दे० ( छि ) दोल धज्ञाना, डोल्टक पीटना, डादा भर जाना, खाँचे में पिधले धातुशों के भरत अलुझूल दोना, रीमना, प्रसच्च दोगः । ढलतो फिस्ती छौंव दे० (१०) सांसारिक पद्रा५ *. का यरिवतेन, पदाथथों की घनित्यता, फेस्वइड अस्पिरता | डलवलाना दे* ( क्रि० ) चधुह दोना, डगमगावा आत्थिर द्वोना, कॉदना, कम्पित होना । ढलाना दे* (क्रि" ) साँचे से बना सच में डचवाना । ] बाला हुभा। हल्लुझा दे* ( वि" ) उतार, नीचा, छुड़काव, दाल) डल्तेन दे ( पु० ) वीर, भचारी, पैद्धा, ढाठ तलपार वधिने वाया, साइसी ग्रोद्धा। [ छुडवागा । द्ववाना दे* ( क्रि० ) ढदाता, गिरवाना, १ढवाता, ढदना दे० (क्रि०्) गरिहता, पड़ना, गिर पढ़ेंगा, पतित द्वोना, टूट ज्ञामा, दृट कर गिए पहना | ढह्वाए दे० [ क्रि० ) गिराए, गिश दिये, तुब्वाए | हद्ायहि देन (क्रि० ) गिरवाते हैं, छ़वाते | बजढ़वाते हैं । [ भाघा और दुगुना, ३ रे । ढाई वि० ( गु० ) अढ़ाई, दो और भाषा, सार्दशय/ दाँकना दे* ( क्रि० ) छिपाना, ढापना, लुकाना। दोँकी दे? ( क्रि० ) तेपी, ढक दी; मंदी, छिपाई । दंग दे० ( सती ) कन्‍्दुला, शिखर, शुब्। पदाह बी झछटी, पर्वत का ऊपरी माग। दाँचा दे (३० ) ढाठ, साँचा, घर, डील, पगापे जाने घाले का प्रधम रूपसड्नठन, प्राइहप्निएाँ थे, अधवनी वस्तु, प्शाद कर घेरा । [छुपाना । दाँपना दे* (क्रिए ) ढाँखना, छिपाता, लेंशवा, दाँखता दे। (क्रि० ) दोष देना, अछइझ बगाना। अपवाद करना, सूर्ी खासी सेसना । ढाँला दे* (पु) देशष, करुड्ढ, भपपाई। पी की ठसक | दाक दे० ( छो० ) पल बूच, धमाव, ऐगे, मताक पु प्रदार का बाज भा सति के विए इताज के काम आता है।--के तीन पात (था०) सदा बुरी स्थिति में, कमी भरा पूरा नहीं | ड्ादा दे* (2० | एुछ अकार का कपड़ा, जी दादी याँधिते के काम में आता हैं। पुक प्रकाश ढी बद़ी पड़ी क्रो राजपूताने के प्रिय अधिते हैं| ढाठी का ढाठो दे० (खत्री० ) घोड़े का मुँह चाँचने की क्‍ कसन, सुँहदन्धना केड़े के झुह पर अंघा जाने बाला फेदा | ढाड़ दे० ( खी० ) चीज, चिग्धाड़ । हाहढ़ल ददू० (पु०) दाढ्य, इढ़ता, स्थिरता, सानसिक इढ़ता, भरोसा, साहस, घीरता, चैर्य। ऊपैना (क्रि०) भरोसा देना, थैये देवा । “-वधाना ( क्रि० ) थैये रखने का उपदेश देना, साहस देना, धीरज देना, इढ़ता देना, इढ़ होने के लिये पपदेश देना, शान्ति घराना । हाढ़ित दे" ( स्री० ) ठाढ़ी की ख्री | ढाढ़ी दे” (प्रु०) जाति विशेष, गाने बजाने का व्यवसाय करने बाली एछ नीच जाति ।>लीला (६ स्त्री० ) एक फेल, भगवान्‌ कृष्ण की बाह्लीजा का अभिनय ) ढान दे० ( घ० ) बेरा, बेड़ा, पाड़ा, हाता । ढाना दे० ( क्रि० ) दाइना, गिरानए, उजाड़ना । ढावर दे ० ( ० ) गदरा, गेंदला, मेला, सलिन द्वावा दे” ( ६० ) ओसारा, ओरी, चरण्डा, ओकती, वह बासा जहाँ दाम लेकर रोटी खिलाई जाती है। [विशेष, उतार, पथ ॥ ढार दे० ( स्त्री० ) प्रकार, भांति, भेद, भेव, कर्ण सूषण, ढारता दें? ( क्रिए ) डाढना, उलटवा, झधिाना । ढारी दे० ( स्त्री० ) ढार, ढाढू, ढछकाब, ढार दी, * ढरका दी । [( स्टत्ी० ) फरी, फछक, चसे । दाल दे+० ( पु० ) उतार, ढजाव, डद्ाऊ, कुकाच, ढालना दे० (क्रि०) सांचे में उतारना, बियाढ़ना, सीचे गरिराना, किसी घातु को पिधकछा कर खाँचे में उतारना, बढावा, शराब पीना, सत्ता चेंचना, दाना छोड़वा, चंदा उत्तारना | ढालवों दे० ( वि० ) ढालू, उत्तराव, उताछ, लुड़काव, ढल्म हुआ, सांचे से ढाल कर निकाला हुआ । टाकिया ( छु० ) ढाछ कर वत्तेन वनाने वाली पुछ जाति विशेष | बिंड़ा, ढाला हुआ | छालू दे” (वि० ) उतार, विगादू, विगाड़ने चाला । ढास (-घ० ) डाकू, विश्वासघातक ता ( क्रि० ) खासना | ( धु० ) तकिया, डढ़कन । ६ रेह१ ) छुलवाना ढाहति दे० (क्रिष) ठाहची है, ग्रिरता है, नाश करती है | [ करार । ढाहा दे० (५० ) नदी का किनारा, करार, ऊँचा ढिग देल ( 9० ) समीप, पाल, निकट, नयीच, किनारा, छोर ) हि ढिठाई वद्‌ ० ( स्त्री० ) ढीठापन, गुस्ताखी, घृष्टता ढिडिम दे० ( पु० ) टिटिहरी पत्ती, टिट्टिम । ढिंढारा दे० ( छ० ) डुग्डुगिया । ढिवका दे० ( पु० ) ग्रुमश्ष, सिलटी, फोड़े का गहा। ढिबरी दे० ( स्त्री० ) वह छुच्छीदार डिबरिया जिसके ऊपर बत्ती रख कर मष्टी के लेट से गेसभी करते हैं। सांचे की पेंदी, पेच की रोक, वाक्षदर ! डिमढिमी दे (स्त्री० ) डमरू, सॉजरी आदि वाजों का शब्द । ढिलाई दे० (स्त्री० ) सुस्ती, श्रालस्य, शिथिलता । ढिल्लद़ पे" (बि* ) झालसी, भ्रकर्मण्य, सुस्त, शिथिकत । « [स्ताख़ू। ढीठ तदु० ( बि० ) घृष्ठ, चल्लल, बेघढ़फ, निडर, ढीठा तदू० ( 3० ) घृष्ट, सयरा। ढीढ़स्‌ दे ( ए० ) छिंढा, एक प्रकार का शाफ् । ढौल दे ( स्त्री० ) भालस, ध्रसावधघानी, भ्रचेती, देरी, विलस्व, कालचप | ह ढीला दे० ( वि० ) जो तना या कसा न हे । ग्रीला, मुक्त, छुदा हुआ, शियिल्ल, आलूसी, असावधान, अचेत, सम्द । [मिचन, चिलस्ब, कालजेप । ढीलाई दे० ( स्त्री० ) शिथिल्ता, छुटकारा, ब्रक्ति, ढीहदा दें० ( ए० ) दीला, दूँगर, पहाड़ । छुकना दे० ( क्रिए ) घुसता, मवेश करना, भीतर जाना, मिल ज्ञाना, शामिल्ल होना, फुशना, सिर कुकाना हुकी दे? ( स्त्री० ) त्मक, पीछा करना, किसी के चरित्र का युप्त अनुसन्धान करना। ढुनपुनिया ( श्री० ) बच्चों छा एक खेल जिसमें बच्चे छुड़कते हैं, कजली की एछ ढंग ।, ढुसस्‍्कना ( क्रि० ) लुढ़कना, खिसकना । [की गति | छुरना दे० ( क्रि० ) नखूरे से चलना, नाचता, कबृतर छुलना दे० ( कवि ) दुरना, दलया, लुड़कना | ढुलधाना दे० ( क्रिए ) उदवाना, गठरी उठवाना, गिरवाना | ४ डुलाई € रे४२ ) ढारो छुलाई, छुलयाई दे (द्री०) हुल्ञाने ढी मजूरी, गठरी | ढेरी दे० ( ख्री० ) राशि, टाठ, थोक, ढेग, समूह | उठाने कभी मजूरी | डुलाना दे० ( क्रि० ) हुराना, दलवाना, ग्रिवाना | हश्मा दे* ( १ ) मेड, मिट्टी का छोटा चधि जो बृद्धों की जड में डाले हुए पानी को रोक रछने के किये बनाया जाता है। [ थेद । हैं ढ़ढाँद दे० ( क्रि० ) पडता, खोज, अनुपन्धान, हूँ ढ़न दे* (क्रि)) खोज, टोह, सन्‍्धान । हू ढ़ना दे० ( पु० ) खोशना, शोेह्द लगाना, पत्ता हूगाना |--टढाँढ़ना ( क्रि० ) खाना, छेग्ला, तलाश करना, प्रथत्षपूक दूँढ़ना ।_ द्वेंढ़ार दे० ( घु० ) राजपूताने के श्रस्तगंव पक प्रान्त- विशेष जयपुर राज्य का प्रान्त | हूँ ढिया दे ( पु० ) औैन संन्यासी, जैन घर्म के भिश्लुक । ( गु० ) ढूँढ़ने घाला, टोह लगाने बाला, अलजुसन्धानी । हक दे" ( ख्री० ) हुक्की, ताझ | [छ्टिना । हूकना दे० ( क्रि० ) घुसना, पैठना, पास आना, बन्घ हका दे० ( धु० ) थाप, ठेस, किसी की ता में छिपना, डठलछ,धास का मान विशेष जो दस पूछे का होता | हसर दे० ( पु० ) जातिविशेष, वैश्यों की पृद्ठ जाति | दृद्द तत्‌* ( पु० ) देर, टीला । ढेऊ दे० ( पु० ) तरक्र, कदर, यीचि । दें दे* ( प० ) सारस पक्षी । [यन्त्र ढेंस्ली दै० ( ख्री० ) कुश्रों से जल निकालने का पुर ढेंका दे (६०) घान श्रादि का दकला छुटने का यन्त्र ! ढेंकी ६० ( ख््री० ) कूटने का यन्त्र । ढंडस दे० ( घु० ) ताकारी विशेष । ढेंडी दे+ ( स्लरी० ) पोस्ता का फूट, कर्षमूषणविशेष । ढ्ढ़ दै० ( ६० ) ज्ाठिविरेष, एक मीच जाति, कौवा, सूर्से | ढेंढर दे+ ( ० ) ब्रांस की फूली, टेंट | ढेंढा दे० (३०) गम, लम्बोइर, बड़ा पेट, लंबी नामि, पैरों का मध्य माग । ढेंढ़ो दे” ( ख्लोन ) कान का पुर प्रझार का गइना, डेदिया, तरकी, फन्नी, फलियाँ ॥ [चघिऊ । द्वेर दे* ( स्री० ) राशि, गेक्षा, टाजा | (दि०) बहुत, देरा देन (प०) मेंगा,रस्सी ऐंडन की कछ,चिन्दविशेष । ढेला दे” ( पु० ) मिद्दी का दुकडा, पिण्डा, लोदा, खण्ड |--चैथ ( स््री० ) माहें शक्ल की चतुर्थी । इस दिन की रात्रि के अशिक्तित हिन्दू दूसतें के घरों में ढेला फेकते हैं और उसे वदले में गाली सुनते हैं। कद ज्ञाता है ऊि ऐसा करने वाके मनुष्य साल मर ऊल्नट्ली नहीं होते | परन्तु शात्तों में ढेल्ला फंकना कहीं नहीं लिखा है। किन्तु स्वमन्तक मणि के विषय वाली कथा सुनने के लिया है। ( देखो ज्ञाम्यवान्‌ घेर स्यमन्तक )। दैया दे० ( ख्री० ) ग्रढदेक, भ्ढाई सेर का मान, तौछ । टैफर ( वि० ) जन शून्य, उन्ाढद, ऊमड, शूत्य, रिक्त ढोग्या दे० ( पु ) मेंट, इपद्दार, हत्सव विशेष में श्राश्नितों का मालिका के दिया दशा उपद्वार । ढोड़ दे० ( खी० ) ठेढी, फली, बीजकोप | ढोक दे ( घु० ) प्रयास, नमस्कार, अभियादुन | राज पूताने प्लान्‍्त में प्रणाम नमस्कार हे श्र्थ में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है । दृग्डवत्‌ । ढोकना दे० (क्रि० ) पीना, घूटना, निगलना, निगल जाना। ढोका दे० ( घु० ) पत्घर का बढ़ा ढुकड्ां, पाँच की संख्या, आम श्रादि खरिदने में इसका उपयोग किया जाता हैं ढे।ग दे० (9५ ) पाखण्ड, आाउम्बर, घूर्चता --घतूर (३०) पूत्तत्तापाखण्द |-वाज़ी (स्वी०) परावण्ड | ढोंगो देल ( चि० ) पासण्डी । रह ढोटा दे० ( पु० ) वाछ॒क, येठा, धपृश्र, सस्तान। -- तुम्॒ दो ढेठा नन्‍्द दवा के, दम दृपमानु- दुल्वारी ” । ढोडी ( खी० )। ढेटौना (पु०) पुत्र, बेटा, ठोटा । ढेना दे* ( क्रि० ) क्षेज्ञाना, उठाकर खेगाना, इठाता। ०क जगई से उठा कर दूसरी जगद रखना। डोर देन ( पु ) गाय, गरेरू, पश्च, गौ, मस्त थादि पश्च, ढोर , ठोलक, घुनि, क्रम, बस्‍न, छगन | ढोरा दे० ( पु० ) मुसत्मानों का ताजिया । ढोटो दे* ( स्तवी० ) दाइ, ताप, दद़क, रट, घुन, कौ, खगन, बान । ढोजन ( देछ३ ) क्ब्त्लीफ ढोल दे ( ए० ) बढ़ा दोनक | हेलक दे० ( पु० ) छोटा ढोल । डोलकिया दे” ( छु० ) दोल्क बजाने बाला, ढोलक बजाने में निपुण | [वाली स्त्रियां बजाती हैं । ढेलकी दे० ( स्वी० ) छोटो ठोल, ढोल, जिंसे गाने दोलन दे० (६०) प्रियवम,रसिक,रसिया । [द्ोता है । हेलना दे० (१०) पुक प्रकार का बाजा जो ढोक्ष के लमान ढोला बे० ( पु० ) छोकरा, बालक, रागविशेष, अज्ञार का पुक प्राचीव असिद्ध प्रेमी, ढोला मारू की कथा अमी समाज में भसिद्र है। शायद इस कथा की प्रस्तक भी छूप गई है | गामे वाली एक जाति | पुक प्रकार छा कीड़ा, सीमा छा चिन्ह, लद्गाव, शरीर, पति, मूर्ख मनुष्य | होलिन, ढे।लिना दे० ( स्त्री० ) छोछा जाति की, स्त्री, देलिया दे* ( छ० ) ढोल बजाने बाला, दोलकिया, सजा खत्माया पलैँग.विज्ञाया हुआ पहलेंग। ढे।ली दे० ( १० ) ढोल बजाने चाल्य, ढोलकिया, जातिविशेष, ढोला | ( स्न्नी० ) दो सौ पान की आंटी, दो सौ पान की एक गड्डी | ढेलेत दे" ( घु० ) दोल बाला, ढोल बजाने वाला, डोलकिया | ढोंचा इं० ( क्रि० ) छाड़े चार, साढ़े चार भुना अधिक, साढ़े चार से गुरित, साढ़े चार का पहाह्ा | ढोकन तत्‌० ( पु० ) [ ढौक + अनदू ] घूँ का, बत्कोच, डाली, नज़र, किसी प्रशार का ले।भ दिखाकर अपने मतठक्षब को कास कराने का उपाय । ढोरी दे० ( द्ली० ..) ताप, दाह, दुदक, चोंप, रट, घुच, लगना [ इस जाति के छोग मारवाढ़ में अधिकता से पाये | छोसना (क्रि०) हे प्रकट करने के लिये अ्रध्यक्त ध्वन्ति जाते हैं. इनका घन्धा गएना बज्ञाना है। विशेष । णु ण्‌ व्यक्षन का पन्द्र्वा चर्ण, यह मी रुद्धन्य है! ण तव्‌० (पु०) बिन्दु, देव, भूषण, निगुंण, गुणरहित, अख, उपाय, बिद्द/न्‌, जरूस्थान, चिांण, त्रिगुणा- कार । ( वि० ) गुणशून्य । निर्णय, ज्ञान, बोध, बुद्धि, छुदय, शिव, दान, | गण तत« (पु० ) एकसरान्निक्गण बिशेष । त्त स ब्यक्षन का छोलहर्वा वर्ण, यह दन्त्य कहा जाता है, क्योंकि इसके उच्चारण का स्थाय दन्त है । त॑ तत्त० ( छु० ) चौर, अम्तपुच्छ, गे।द,म्जेच्छ, गे) शा, सिवाकर्पूद, चत्च, रल, सुमत, बौद्ध, योद्धा, ' क़ुटिल, तीच, सैरना । (ख्री० ) पुण्य, तरुण) त्मब््लुक ( छु० ) सस्बन्ध, रिश्ता, लगाव नया ( ध% ) छुमींदार का समझूचा भ्राग #दार ( छु० ) ज्मींदार । तपश्मस्खुच (छ०) कट्टरपन । तइसा (ग्रु० ) दैसा, जैला, जैसा | तई दे० ( झ० ) तक, पर्यन्त, श्रवधि, सीसा, लिये, चास्ते, तद॒र्थ | ( स्द्री० ) ताक, दृष्टि ॥ तई दे० ( स्त्री० ) छोहे की छिछली कड़ाही, जिसमें जलेबी मालघुआा आदि बनाये जाते हैं | तऊ दे० ( झ्र० ) तथापि, तौभी, तद॒पि । तक दे० (अ० ) तक्षक, तई, परयेन्‍त, अवधि | (स्त्री०) इृष्टि. त्वक, तराजू, तखड़ी /--तक ( घु० ) पशु आदि के हकिने का शब्द । तकदीर ( स्त्री० ) भाग्य, प्रारध्घ, चलीय । तकना दे० ( क्रि० ) ताक लगाना, दृष्टि रखना, देखा करना, एक्वटक देखना, चितबना, संस्घुद् दृष्टि । उकरार ( स्त्री० ) रूगढ़ा, टंदा, फसल काटे जान पर खाद देकर जोचा जाने चाल खेत । तकरीर ( स्त्री० ) गुफूगू, बहस, भाषण, वार्ताढाप । सकला दे० (घु० ) तकुआ, सूत कातने का यन्त्र, चरखा । (६ स्त्री० ) छीटा तकका, अटेरन, परेता, चर्खी । तकलीफ ( स्त्री" ) दुःख, आपत्ति, मुसीबत । तकवाहा तक्चबाहा दे० ( पु० ) ताझइने वाज्ञा, रछक चोडीदार पहर्था, पदरेचाला | तकवादी दे० ( श्मो* ) रछा, चौहीदारी, पहरा, पहरे- वाले का काम, अगेररना । दिप्टि रक्‍्खो, लक्ष्र करो | हू दे० ( क्रि० ) ताषे।, देखे, अश्रवन्लाऊन करो, तऊसीम ( स्त्री० ) माय । तकराई ( रत्री० ) रखवाली, रखवाली की मजूरी | तझ्ान दे ( पु० ) भावमद्जी, ठव । तकाना दे ८ ( क्रि३ ) ताक रखबाना, दृष्टि रखवाना, लक्ष्य रख गना, रसवाली करना | तकार दे? ( पु०) दचि मधघने का दुण्ड, रई | तक्िि दे० ( झ० ) ताक कर, छक्ष्य कर. देखकर । तकिया दे० (स्त्री०) सिरद्वाने रखने की वस्तु ओसीसा, बल्लीत, उपधान, सिद्ठाना । तकीनी दे० ( स्प्री० ) छोटा उसीसा | तकुआ दे० ( धु० ) सूद कानने की ल्लेहशल्ाका जे। चर में लगायी जाती है, तक़छा । तक तत» ( पु ) घछि, मद्दा, सद्ठी ! तत्त तत्‌० ( पु० ) [ तक्च+ भल्‌ ] श्राच्दादन, कर्तन, -“ काटना) उम्रद, अमर, चित्रानक्त् ।--शिला (प०) प्रसिद ऐतिहासिक नगर, यह पञआब में था, इसका गढलेख यूनानिये के इत्तिदास में आया है । तत्तक त्दु० ( घु० ) [ तच्च + भ्रकू ] बढ़ई, छकडी कारने बाला, स्वनाम प्रसिद्ध सपराज, विश्वकर्मा सूश्रधर्त, वृक्त विशेष । तलड़ी दे* | (स्त्री ) पलढा, तभजू, श्रश्न भादि तपरी दे० “ तौरने की तुठा । तम्समोना ( ६० ) चटरुत्ल अनुमान । तस्तान तदु० (पु०) तब ण,बढ़ई, छकद्ो काटने चाढा, खाती। [अन्त का अच्चर छघु दे यथा जीमून' | तगण उत्‌० ( घु० ) कविता का गणविशेष, जिसझे छगना द« (क्रि०) पीना, सिटाई करना,वागा चछाना | तगर तन्‌० ( धु० ) पृष्पविरेष, सुगन्चित काष्टविशेष, मरा बृष्ठ, सदन बच ! [की मजूरी । तगाई देन ( स्त्री० ) सिद्याईे, तागने का काम, सागने तगादा ( घु० ) रूगि तगाना दे० (०) तागा डालना,सिद्ववाना [जाता है] तग्गा दें ( पु० ) खूत, बटा छुआ खूत, जिससे तागा ( दे४ं४ड ) ठ्ड़े तगड़ी द्वे० ( स्त्रा० ) कधघंनी, ऋटिसूत्र । तड्ड दे? ( घु० ) हैरान, सकता, घुस्त, ओठा, समेत, घोड़े की जीन की पेटी, कसन ) तड़ा दे० (०) दो पैसे, टका । तड़ी दे० ( स्त्री० ) स्गट्टीणंता, क्लेश, गरीबी | तचना दे० ( क्रि० ) सन्तप्त द्वोना; हु सी होना, साम हैा।ना, तपना, तप्त होना । तथा नदु० ( “ब्री० ) चाम, चमड़ा, पाल, गरम । तचाना दे० (क्रि०) गरम करना, तपाना, मलाना | तज दे० ( पु० ) नेश्पात, तेजपात का बृत्त, घोड़, छोड़ दे, दाग, सिवा |-्नी ( क्रि" ) चोद का, त्याग कर । [दिगा है । तज्रइ ३० ( क्रि० ) छोड देता है, त्यागवा है, ल्याग तज्जन दे० (पु०) परित्याग,ध्याग । (व०) चाहुरू,शेढा । तज़ना दे० (क्रि०) ख्ागनता, छोड़ना, सम्बन्ध छोड देना | तन्नि दे० ( अ्र* ) चोद कर, तन्न कर, ह्याग कर तज्िये दे० (क्रि०) छोओे, छोड़ो दो, छोड़िये । बधा-- » जाओ प्रिय न राम वैदेही, तज्िये ताद्दि कोटि बैटी सम यद्यपि परम सन्‍्तही | ?!--तुबसीदास | तज्ञ तद्‌० ( घु०) तत्वज्ञाता, ज्ञानी, आत्मक्ष, पण्डित, स्वरूप ज्ञाता, ईप्वर का जानने चाहा । तज्ञरवा ( पु० ) अनुभव । तज्ञरवत दे० तजरुता, भ्नुभव, विचार, यपाये ज्ञान | तजदोज्ञ ( स््री० ) इ्पाय, निर्णय, पैसला, प्रवन्ध । तद तत» (पु० ) [ तट + थ्रढ्‌ ] तीर, कऋूछ, किनारा, नदी का कछार, प्रदेश, शिव। ( क्रि० वि० ) समीप, पास [--स्यथ ( वि० ) तीर पर रइने वाला, चीर- वासी, सध्यस्थ, रदाप्तीन, अ्रलंग बहने बाला, तर पेत्ष । ( पु) छद्ठ॒णम्वरूप, स्वरूपलच्ण के अति- रिक्त ल्चण, परमाथिकता, अपछपातिता । तदाऊ तथ्‌» ( घु* ) तड़ाण, बढ़ा सरोवर, बुदत्‌ जलाशय, जिस सरोवर में कमछ॥८प हें! । तदिनी तद्‌० ( स्ली० ) [ तट + इव्‌ ] नदी। तटी ततद« (ख्त्री०) नदीइृछ, तर, छठ, किनारा, दटवाल्टा, तीरचाला, सेवक, तराई, घाटी | तड़ दे* (एु०) दल, पछ, गिरोद, जया, ठोली, अब्यक शब्द ।-तड़ (पु ) लकड़ी झादि के त्ड़क हटने का अव्यक्त शब्द बंदी ( छ्ी० ) दुल्मदल्वी, पुक जाति के कुछ ज्लोगों का गिरोड ॥। तड़क दे० (सत्री०) चटक, चाट, युक् रूकड़ी जिस पर से छाजन द्वोती है । [ज्ञाना, छौंक देना । तड़कना दे? ( क्वि० ) चटइना, हटना, फूठना, हट तड़का दे० ( छु० ) प्रातःछालू, मोर, विद्वान, सिन- सार, सवैरा, छौंक, बधार । सिमय | तड़के दें० ( अ० ) सवेरे, प्राशतकाल, प्रातस्काल के तड़तड़ाना दे० ( क्रि० ) तड़तड़ शब्द होना, मिट्कना, फ्रोधित दोना, रिघलाना | [( थि० ) चमकीला । तड़प दे० (स्थी०) चटक, रपट, चसक, भड़क | -दार तड़पड़ा दे० ( छ० ) दृष्टि गिरने का शब्द | तड़पना दे० (क्रि०) तल्‍ूफना, दुःख से छटपटाना, द्वाथ पेर घुनना । तड़पाना दे ( क्रिए ) तत्षफाना; दुशख देना । तड़पीला ( गु० ) प्रमावशाली, फुर्तीका, चटपटिया | तड़फ दे* (ज्री० ) च्याकुछता, घबड़ाइट अस्यन्त दुःख दायी, उद्धिझ्ता, अधिक हुःख से अधीरत्म । यधा-- “ज्यर सें तड़फ रहा है” “ब्रिना जछ के मछुलियाँ सड़फ रही हैं । ” " तड़फ तड़फ कर बसने प्राण दे दिये ।”? [बह्विझ होना, छुटपठाता । तड़फड़ाना ढें० ( क्रि० ) तड़पना, ब्याकुछ द्वोना, तड़फड्ाहट दे० (स््री० ) शुकधुक्री, घरढ़क, तड़क । तदफड़ी दे० (स्त्री०) छुटपदी,धुकधुकी , शद्धूत से छुटपटी [ तड़फना दै० (६ क्रि० ) तड़फड़ाना, तड़पना, ध्याक्ृत् टना, छठपटाना । डिद्विझ करवा । तड़फाना दे* (क्रि० ) तड़पाना, ब्याकुछ करना, लड़ा दे० (पु० ) दापू, उपद्वीप, दोआब । तड़ाक दे० ( वि० ) चमस्कार, भड़कील्ा, चटक्ीजा, देदीप्यमान, शीघ्र, तुरन्त पदक ( अ० ) अत्ति शीघ्र,बरहुत जरदी,श्रत्यन्त शीघ्रता से,शीघ्रता पूर्वेछ । सड़ाका तत्‌० (खत्री०) समुद्र का किनारा, समुद्रतर, बढ़ी बड़ी नदियों क्वा तीर-[ घु० ) सारने का शब्द, हूटने की ध्वनि । घड़ाग वव्‌० ( छु०) व्याब, पेखरा, सरवर, सरोक, जलाशय, रच सौ घहुप के परिमाण का जलाशय | सड़ाबात चत्त० ( 8० ) [ वड़ा + आधात ] ऊपर उठे हुए इस्तिशुण्ड का आघात । € इछ५ ) तद्‌ तड़ातड़ ( क्रि० वि० ) तड़तड़ शब्द सहित) तड़ाड़ा दे० ( ०) नछ की तीत्र घारा, तरेड़ा, तरखा । तड़ाया दे० ( ए० ) रसिकता, डैकापन, चटक, मटर, तढ़क मढ़क । घोरा, छल | तड़ावा दे० ( छ० ) दर्ष, अ्सिम्तान, ऊपरी दिखावद, तडित्‌ तत्‌० ( स्त्री० ) विद्युत, विजली, सौदामिनी, चच्च॒ुछा, चपछा, कौंधा, दामिनि (--झुमार तत्‌० ( छ० ) जैनियों का पुक देवता |--पति तत्‌० (3० ) बादुछ |--प्रसा तत्‌० ( स्री०) कात्तिकरेय की पुक सात्रिका |--वान्‌ तव्‌० ( घु० ) बादुरू, नागरसेधा (--खसमाचार (घु० ) बिजली के द्वारा समाचार सेजना, देल्ीप्राफ, तारबर्की, तार । तड़िया दे० (स्री०) समुद्र तट का पवन | [बिजली | वाडिल्ता तत्‌० (स्त्रो०) [सड़ित्‌ + लता] विद्युछता, तड़ी दे० (स्त्री ०) चपत, घोल, धोखा, बाहाना । तस॒डक तद्‌० ( पु» ) खब्जन पक्षी, खड़ेंचा, खंडलीच, भारद्वाज पक्षी, फेच, अधिक ससास वाला वाक्य, छान की लकड़ी, घरन, घन्नी, कड़ी, तदस्कन्घ, बुद्ध का चह स्थान जहाँ से शा्खे फू्ती है | साफू खुधरा, निमंल | ( ग्रु० ) मायावहुल, मायाघी | छली, प्रवश्ची [कर्तव्य क्पतों का डपदेशक । लण्ड तद्‌० (पु०) शिव का द्वारपाढ़, अजुकर्म शिक्षक, तशडुल तव्‌० ( घु० ) चावल, चाइर, बिता बकल्ले का धान; कदा धान, तत्दुल । तल तत्‌० ( ऋ० ) बुद्धिस्थ परामर्शक सर्वताम, वह, चही, चह्य का चिशेषण, असिद्धाथंक बायु। --कनन्‍्द ( ४० ) अ्रदरक, बारह्टीकन्द ।--कर्तू के (वि०) उसका बताया, उसके हारा बनाया हुआ। --कर्स (छु० ) चंद कमे, वही कर्म, जाना हुआ कार्य, प्रसिद्ध कार्य (--कार्य ( घु० ) बह कार्य, से। काम |--झालत ( पु० ) उसी काल उसी समय, उसी इण, चटपद | कालिक ( वि० ) उस समय का, तदानीन्तन।--कालीम (दि०) इसी फालछ का, उसी समय का ।--क्ालोत्पन्न ( वि० ) उस समय का उत्पन्न |--कूत ( वि० ) उसका अनाबा, उसके द्वारा बनाया हुआ ।--त्षण (घु० ) इसी छण, उसी समय, इसी काज़ में --तुल्य उसके समान, उसके सदश, उसके ऐसा /--पर शक पा०--9४ सतत (बि> ) ब्युछ, अनबसा» झुनिएुय, आसक्त, छगा इच्ा, बद्योग, तसम, मशगूछ तदन्‍्तर, उसझे दश्थात्‌ (-पसंयण (वि० ) तदासक्त, उसके थ्रुरकत, उसके अ्नुवर्ती |>पुरुष (०) समासविशेष, इस समास में उत्तर पद्‌ कि प्रधानता रहती है, यपा--हष्ण का दुशस, हप्णप्गस, कर्मपारय इसी के भन्तगेत है +-- फछत (९९ ) पीलू बृक्त, गजपीपल, जामुन बृत्त, बंदरी इच, के, इबेत कम्तत (--सम्त तव* (३० ) हिन्दी मे प्रयुक्त धन्य सापाध्रों के वे शब्द जिसके रूप मेंया बनावट में कुछ भी अन्तर नहीं पढ़ता । सतत तन्‌० (० ) बायु, विस्तार, पिता, पुत्र, बाजा जो तारों से बने। सतलछन तदृ० ( अ० ) वल्त्ण, उसी समय, तत्काल, प्रहूत शीघ्र | यधा-- “८ ततछुत द्वार बैेगि उतराना | पावा सपहि चन्द्र विदल्ाना ।” पत्मावत । तताथेइ दे० (ख्त्री० ) नाच का बोछ। ततवीर दे९( स्त्री० ) तदबीर, उपाय | चदरी दे* (स्त्वी०] भरदलेलन, बपछा युवती, क्‍ बृच्ध विशेष | [ दिन्दू जाति | द्तवो दे* ( पु० ) जातिविशेष, कपड़ा बीनने बाली तंतहरा दे० ( पु० ) गर्म करमे का हड़ा । तताना दे० है। कि० ) गरम करना, उष्ण करना, सपाना, सकना | ततार दे* ( छ्ी० ) सेक, गरम, टकोर, प्रदाक्षन । ततेड़ा दे* (५० ) पानी आदि गरस करने का स्थान, पानी गरम काने का पा, डा । दरतेया दे ( स्त्री ) बरें, बहुत चरपरी, छाछ् मिर्चा। छत्ता दै* ( विन ) उप्ण, गरम, तेज, सीक्ष्य। तत्ाथबा दे० ( ६० ) बीच बचाद, देमदिल्ासा । तंत्र तब" (आ० ) वहाँ, बर्दा, उस स्थान में, उस विषय में |--त्य ( वि० ) तरस्थानीय, बच्च स्थान का, उक्ष स्थान सम्बन्धी ॥-भयती (स्थ्री०) आायो। सान्या, माननीया, पूज्या, पूजनीया, पूज्य स्प्रीका सम्दोधन ।--भवान्‌ ( पु० ) पूज्य, मान्य, रबाघ्य, भर्देय, गुर अऋगदि माननीय पुरुषों का सम्बोधन '“>>स्थ [ गु० ) तर्स्पानीय, धर्दां रहने ( शे४ई ) तथ्य नि न व चच च चल वाला, वहाँ का निवासी, वहाँ शा (-+पि ( ध०) विना नाम के स्थान का सूचना करने वाला शब्द, उस पर मी, वहाँ पर भी । तत्व दत्‌० (३० ) यथायेता, सूछ, साय, सार, मूड व्यवस्था, सूक्ष्मज्ञान, सूक्ष्म, घमे, स्वरुप, सहामाव, भ्रनुसनन्‍्धात, उद्देश्य, अम्वेषय, सार्राश, सारपस्तु अन्त्य, मतीशा ।--फासक (पु०) पण्डित, यथार्थ वित्क करने वाडा, अरलुसन्‍्धान फरने बाला ज्ञात ( 9० ) भद्मज्ञान, परमाध॥आान, भ्रष्यात्म- विद्या, सत्वविद्या, ।--ज्ञानी ( वि" ) धह्ज्ञावी, बहाज --तः ( थर० ) यथाये सम्यरू, ठीक डीक, सत्य सत्य ।--बादी ( वि० ) यधापैवक्ता, सत्यवादी, वहादादी ।-चार्ता ( खी०) अब समान, भ्रन्देषण ।“-वित्‌ ( बि०) सथवित्‌ मद्यज्ञ, वह्ाहानी ।--विज्ञात (वि०) तत्वत्ञान, यधार्ज्ञान, रहस्पज्ञान | - बेचा (5०) बरद्चज्ञानी। --नमुसन्धान ( प० ) यथार्थ श्ख्वेषण, सारवध्यु ही जद, विशेष बृतान्त का सरधान | विधारक (३० ) रक्षक, रखवाली झरने वाला, अमिभाषक, देखरेप रखने बाल्या ।-“विधारंण ( ३९ ) रचणावेदण, देपरेज. अध्यक्षता ॥-र्थविंद्‌ (वि) तखवज्ञानी ।--ाभियेग लता इच विशेष तत्वावधान (०) देखमाठ, जौच पड़ताल ! तत्य तद्‌० ( ध० ) तथ्य, सत्य, शक्ति, चछ | ( वि) अधान, मुख्य) तथा तद० (श्र०) चै।र, तौर,जिस प्रकार, जिस तर६ जिस भांति |-- गत (१०) बीद्,बढ मगवाद।जिलानि्स --च (अ०्) मैसे।->पि (स*) [ तथा+-श्रषि ) तौमी, तैसा होने पर मी, लिप्त पर भी ॥-स्ख (अऋ० ) थैसा दे, चैवा ,ही हे स्वीकारोक्ति) तथेति तद्‌० ( श्र० ) चैसा, ताइश | तथैव तद्‌० (श्र० ) बैसा ही, इसी प्रकार, यथा के घाय का अर्थ बोधह, चैसा । तथ्य तब" (घु०) [तथाकंय] सल्क हवा, यथापै वचन, यथाष्त्र ॥ ( वि* ) सत्य, यधाये ) “-नुसन्धान ( वु० ) ) हक्ख का अन्‍्वेषण, से का अलुसन्धान, यथार्थ फी जाँच करना, संप्यः सन्‍्घान ) दर ( रे४७ ) तनिया तद तत्‌० ( वि० ) तक, वह, से ।--अंश (छु०) वद अँश, बसका अंश ।--झकर्थ ( 9० ) वैसा नहीं करना, इसके नहीं करदा ।-अतिपात ( छु० ) बच्चका अ्रतिक्रम करना, उछहुंन करना ।---अधिक (थि०) इसके शत्तरिक्त, इससे ग्रघिक, ततो5घिका। “-अनन्‍्तर ( घु० ) उलके पश्चात, उसके बाद । +-अश्छुग ( बि० ) उसके पीछे चलने बाला, तत्पश्चात॒गासी उसके पश्चात्‌ चलने वाला। --अचुगत ( थि० ) उसका अ्रनुगत, उस्रका अजुबर्ती |--अन्नुयायी ( दि०) उसका अचुुगासी | “-अचुरूप (थि०) उसके समान, तादश, तत्तुक्य । --अच्ठुसार ( अर० ) तदचुरूप, बसके समान । -- अन्त (श्र०) शेष, सीसा, अवधि ।>-अन्तः - ( श्र० ) उछ्तके मध्य, उसके अभ्यन्तर |--अन्तः- पाति ( वि० ) तन्मध्यवर्ती, उसके बीच में का । “+पझ्पि (अ०) तथापि, तै। भी ।-अवाघ (०) डख समय से, तब से, उसी समय से ।--अवस्थ ( जि० ) उसी प्रकार की अ्रवस्था को भ्राप्त, एक प्रकार की अ्रवस्था वाले ।--अथथ ( झ० ) तन्नि- मित्त, कल कारण । ( वि० ) तद्मिप्राय, वह अ्मि- प्राय ।-पनु ( क्र० ) उसझे बाद, उसके अवन्‍्तर, उसके पश्चात्‌ ( नि० । +-गत उसमें लिस उसमें अआसक्त ।+-गति (ख्त्री० ) उसकी दशा, उसकी झवस्यथा +-सुणविशिष्ठ (वि० ) बस गुण से झुक्त ।--भाषत्रोधक (वि० ) बस भाव का द्योत्तक, उस भाव का सूचक | तद॒बोर ( स्ली० ) तरक्रीव, उपाय, प्रयत्ष । डे तदा तत्‌० ( अ० ) उस समय, उस काल, तब ।त्व ( (० ) बह काछ, वह समय ।-- दि ( श्र ) तद- चचि, तत्मभृत्ति, तब से, इस समय से। | तदाकार तव्‌ ( वि० ) चैला दी, तद्भूप, तन्मय | तदानीम्‌ घत्‌० ( थ० ) इस समय, उस काछ । लद्दीय तत्‌० ( सर्व» ) तत्लम्बन्धे, उसका |. चंदुक्ति त्त० ( स्री० ) उसका वचन, उसकी वक्ति । तदुत्तम तच्‌० ( वि० ) उसकी अपेक्ता उत्तम । तदुचर तत्‌* (घु० ) बलका उत्तर, भत्युचर; वह उत्तर, उसके बाद, उसके अनन्तर | तदुपरन्‍्त तत्‌० (क्रि+ चि०) उसके पीछे, बसके बाद, उसके अनन्तर । चदुपरि तत्‌० (अ्र० ) उसके ऊपर, उसके मध्य । तदेकचित्त तत॒» (वि०) समान स्वभाव, उसका अजु- रक्त, उसका भक्त, उसका श्रनुवर्ती। तदेच तत््‌० ( श्र० ) वही । तदुगत तत॒० ( वि० ) उसके अन्तगंत । तद्धन तदू» (यु०) [ तत्‌+ घन ] कृपण, व्ययकुण्ड, कस ख़र्च करने चाल्ठा, वही घन, उत्तना ही धन | तद्धित ( ए० ) ग्रद्मयय विशेष जिसके अन्त में लगाने छे शब्द बनता है [ ' तह्नव तव्‌० (9० ) संस्कृत के शब्द का परिवर्तित था * अपसंश, रूर । जैसे काठ का क्राठ, छत का थी । तद्गत्‌ तत्‌० ( बि० ) उसी के समा । तथी दे० ( श्र० ) तभी, ठब ही, दो ही । तन तदू० (छ० ) तब, शरीर, काय, देह, अ्रक्ष स्त्री की शुप्त इन्द्रिय, (क्रि०्वि०) ओर, तरफू (--देना (क्रि०) ध्यान देना, श्रत्यन्त परिश्रम सह कर भी काम करना, शक्ति से बादर का कास करना । तनक दे० ( वि० ) तनिक, थोड़ा, श्रल्प, श्रंश, हुकढ़ा, छोटा, सूक्ष्म, भ्रत्प, ज़रासा, कुछ । तनकाऊ दे० ( वि० ) थाढ़ा भी, ज़रा भी, कुछ भी | त्तनकीह (ख्री०) विचारणीय दिपयों की फहुरिस्त, जांच, पड़ताल । [मिजूरी । तनख्वाह दे० (घु०) वेतन, मासिक द्वत्ति, महीने भर की तनना दे० ( क्रि० ) फैछना, खिचना, विध्लार करना । तनय तत्‌० ( पु० ) पुच्न, सन्‍्तान, आत्मज, खुद, बेटा । चनया तद्‌० ( स््री० ) कन्या, प॒न्नी, हुद्विता, सुवा | तनहां दे० ( वि० ) एकाकी, अ्रफेछा, असद्दाय, सद्दा यताहीन, निरालटस्ब, आश्रय रहित। तनादि तत्‌० (३०) [ तत्‌ + आदि ] व्याकरण की दुश- विध धातुओं के अन्तर्गत श्रष्टम घ्तु | तनाथा दे? (9० ) जवानी, युवावस्था, तारुण्य सख्याई | सनिक दे? ( शु० ) तनक, थेडस, अल्प, सूर्भ! तनिया दे० (स्त्री० ) लैगोटी, कौपीन, कछनी, जिया । तनिष्ठ ( इ४८ ) तप्नाना तविष्ठ तव० (०) [ तद्‌ + इुष | छड, अत्यकप, न्‍्यून, | चीण श्रति सूक्ष्म | [की तनी, तनया, घुती, कन्या | तनी दे* ( ख्री० ) अंगरले का बन्द, अंगरखा वाघने | तनीयान्‌ तब» (वि० ) [तनु+ईयस्‌ ] सूक्ष्मवर, अद्पनर, बहुत योडा, छुद्र, छोटा, ऊघु ! तद्ुु तद« (१०) [ तन+उ ] शरीर, देद, खक, चर्म, | तन, झ्री, केचुली, जन्मइुण्डली में जन्मस्थान। | ( वि० ) दुउठा, कामछ, सुन्दर, बढ़िया ।--कूप | (पु०) रोमहप, रोमझिद् ।-च्छुत्‌ ( वि० ) नम, , ( पु» ) कवच, बपतर, समाद, युद्ध में जाने के उपयोगी परिच्छद (--ज्ञ ( पु० ) पुश्न, श्रात्मज, | सुत, सूनु [--ज्ञा ( ख्रो० ) कन्या, पुत्ी, तनया, दुद्विता ।--ता (स्ली०) च्ीयता, सूद्षमता ।-त्व ( पु+ ) छीणत्व, सूक्षूमरव (-- ( पु० ) कवच, शरीररधाडारी, सडाइ ।--त्राण (० ) तजुच, शरीसत्षय ।-त्याग (० ) रुत्यु, देदत्याग, शरीरपात, मरण ।--वत ( थु० ) पक प्रकार के नरक का नाम ।---ब्रण (४० ) वाल्मीक रोग, » छोटा घाव ।--मध्या (शख्री० ) छीय कटि स्त्री, पत्न्नी कमरवाक्यी स्री।--दझक्ता ( पु० ) रोम, छोम, बाल, केश | तमनुक दे० ( वि० ) भढप, थोड़ा, सृ५म, तनिक। तनू ठत० (५० ) देद, तन, काया, शरीर |--कहु (६ पु० ) पुत्र, भ्रात्मज |--ज्ञा (स्त्री० ) कन्या । *+-नपात्‌ ( धु* ) श्रप्मि, बन्द, अनछ, विप्रक, प्रभापति के प्रशैय का नाम, घी, सरखन ।-भुत ( पु» ) मनुद्य, देद्दी, देदघारी । तनोतु तव्‌० ( क्रि० ) कैले, फैटाये, विस्तृत दोवे । तनोरुद्द दत० ( ६० ) रॉगटे, क्लोम । तन्त दे० (४५०) परिवार, प्रदन्ध व्यवस्था, सुख्तसिद्धि, शुस्‍न्‍्त, शीघ्र, सन्‍्तान, औपधि, उपाय | तसतनाना दे ( छि० ) पिनदिनाना, तनना, तीखा +. दोना,भनाना,क्रोघ से बकना | [पोश,तन्तनाना । तन्तनाहद दे० (स्वी० ) पिवपिताइट बडने की तस्ति रप्‌० ( पु० ) तम्तुदाय, ततवा, कपदा दिनने घाज्ञी एक द्विन्दू जाति। हन्तु तद॒« ( पु सूद, सूत्र, छाया, चाया, हाइर, घंश, सस्तान (--झाप्ठ ( पु० ) तति का काठ । >“+औीद (पु०) रेशम का कीढा, पाटकीटद। --निर्यास ( ०) तालबूद +--वाय (६५ ) कपड़ा उिनने वा छा, जुलादा, ताँती, सतवा, कारी । +--शाल्ता ( स्त्री० ) कपद्ा विनने का घर, ठांववर -सन्‍्तान ( पु० ) अतिसूश्म सूत, बहुत पतले खूत, मद्दीन खूत। तन्ठुना दे० ( पु० ) उतुना, तारा तन्त्र ठत्‌० ( पु० ) सिद्धान्त, परिवार का काम, औषधि, प्रधान, मुण्य, शुत्ति की एक शासरा का नाम, देतु, द्यर्थर, दोतरफी बात, राष्ट्र, अथे- साधक, उपाय, श्रपने राज्य की चिन्ता, प्रवस्ध, शपथ, घनगृद, वपन, बोना, साधन, कुज्न, शिव- पार्वतीकृथित शास्त्र, इस शास्त्र के दो भेद ईं, एक का नाम दुदिशृतस्त्र और दूसरे का नाम वाम- तन्त्र है। ददियतन्त्र में पशुदेव की उपासना साव्विक मनुष्यों के लिये सास्विक्र रीति पर ब्णित है | बामतन्त्र राइसी प्रकृति के मनुष्यों के लिये है । तन्‍त्र के इसी भाग के उपास्के में पश्चुमकझार« सेवन की विधि प्रचल्षित है। इस शाघ्र के बहुत से प्रन्य भ्रव सी उपत्ब्ध होते हैं । तन्त्राधाय तत्‌० (६० ) [तन्न्न + झवाय ] अपने राज्य की व्यवस्था और श्र राज्य की दशा तथा राष्ट्र परराष्ट्र का ज्ञान] तन्धि ठद्‌० (झी०) निद्ठा, नोंद, धूम, जँधाई, श्राल्स्य, आावस --पाल # (१०) राजा जपद्रप । ठन्बी तब्‌* (स्त्रो० ) [ तन्त्र+ई ] वीणागुणवीन * का तार, गुइची, शरीर की नादियाँ, नाइमेकः युवनीमेद | (पु) पुक प्रकार का बाज, सितार, तन्त्रशास्‍्त्री, तन्व्रशास्त्रदेसा ! सन्द्रा तत्‌« ( स्त्री० ) [ तन्त्र + था ] ईपतनिदा, धद्ा- बट, शान्ति, झपकी | तन्द्राद्;ु वर० ( वि० ) [तिन्द्र + ध्रालु] छास्त, धान्ठ, थक्रित, निद्रादुर, आइस, निद्रालु। तनन्‍्द्री तद॒० ( स्त्री5 ) अत्यल्त परिधम करने से इन्द्रियों की अपडुवा, सव्शशैयिरुप तप्ना दे* ( क्रि० ) र्वींचना, फैलाना, विम्तार करना! ठघ्ाना दें५ ( छि० ) तत्तनाना, अकदना, पेंडना, कहा हो जाना, मिशाम गरम करना। « | तक्षिम्ि ( देहह ) तपेधन तन्निप्िस तधु० (आ० ) [ तद्‌+निमित्त | तदथे तदूदेतु, उसके लिमे, उसके कारण, उम्के हेतु | तज्निष्ठ तदे० ( बि० ) [ तद्‌ +निछ ] तत्रस्थ, सद्दर्तो, च्हाँ स्थित । तम्मय तद्‌० ( बि० ) [ तद्‌ +भत्र | दत्तचित्त, छगा हुआ, लवज्ञीन, लीन ।--ता तत्‌० (स्त्री० ) लीनता, पुकाम्रता । तम्मात्र तब्‌० ( पु० ) [ व्‌ +मात्र | केवछ, वही, केबल, एक, श्रद्टितीय, सांख्याचुश्र, पश्चमूतरें। का आदि, अमिश्र और सूक्ष्म रूप, यधा--शब्द, स्पश रूप, रस, गन्घ । [उुन्द्री, कामिनी । सन्त्री तत्‌० ( वि० ) [ तछु+ई ] क्षीणा, कुशाही, तप तत्‌० ( पु० ) [तप्‌ + अछ ] गर्मी, उष्णता, गर्सी न की ऋतु, श्प्नि, पुक कल्प का नास, पक लेक का साम, तपध्या। शरीर संयप्त करने के उपाय, पूजा, भ्राराधना, माघ सद्दीने का नाम । तपत दे० (स्त्री० ) गर्मी, उष्णता । सपती तब० ( स्थ्री० ) सूर्य की पुत्री का नास, यह सूये- पत्नी छाया के गर्भ से उत्पन्न हुई थी, कुरुवंशीय ऋ/ नामक एक प्रसिद्ध राजा थे, ऋण्क्ष का पुत्र संवरण बढ़ा सूर्य भक्त था। संवरण की तपस्या और उपासना से से असक्न होकर सूर्यदेव ने अपनी कन्या संबरण को व्याद दी । तपन तत्‌० ( पु० ) [त_+ अनदू] ओष्स, ताप, सूर्य सूर्यकास्तमणि, नरक्क-विशेष, जहाँ पाप फल का भोग करते प्ले लिये अप्नि से पापी जलाये जाते हैं। सछातक बूब, भिक्ार्चा का पेड, मदार अरची का पेड़, नायिका का नायक के वियोग में हाथ भाव विशेष, खूरजसुखी, एक प्रकार का अप्नि, चूप --तनया (स््री० ) सूर्यपुत्री, शमीबृदठ यमुना नदी ।--मणि ( छ० ) सूर्यकान्तमणि। न-व्मजा ( ख्रो० ). गेदावरी नदी, यघुना नदी । # तपना तदू० ( क्रि० ) गरम होना, दृद्दकना, जंलछना, प्रभाववान्‌ होना, अ्रतितेजयुक्त होना, तेजस्वी होना | [ स्वर्ण, काझुन । तपनीय तत्‌० (पु०) उत्तापनीय, तपाने योग्य, सुवर्ण, तपरी दे० ( ख्री० )'मेंड, घृद्दा, वाच, छेटा वाँघ | लपलोक तदु० ( पु० ) तपोल्योक, स्व विशेष, ऊघ्वे, स्थित सप्लाकों के अन्तगंत छरठों लेक । तपश्चरण तत्‌० ( घु० ) तप, तपस्या । तपश्चर्य्या तत्‌० (स््री०) तपस्या, तपश्वरण । तपसू ठव्‌० ( घु० ) चन्द्रमा, सूर्य, पच्ी शिशिरऋतु, जन लेक के ऊपर का लोड [ तपल्ला तदू० (स्त्री०) दप से,तपस्या करके, के द्वारा, कष्ट से, आराधना से, तापती नदी । [वाल्ला,तपी । तपसाल्ल तद्‌० (घु० ) त्पस्वी, तपसी, तप करने तपसी ठव्‌० ( पु० ) तपस्‍्वी, तप ऋरने बाला । तपरुक तदू० ( धु० ) तपस्वी, योगी ! तपरुय तत्‌० ( घु० ) फागुन का सहीना, फाद्युणमास, अजुन, कुन्दपुष्प, तप, भलु के दस युत्नो में से पएुक । [ इंश्वरसजन । तपस्या तत्‌० ( स्त्री० ) तप ख्राधना, योगश्ताधन, त्तपस्विनी तथ्‌० (स्त्री०) [तपस्‌ +- बित्‌ + ई] तपस्या कारिणी, ब्रतनिष्ठनियसकारिणी, तपस्या करने बाली स्त्री [ तपस्वी तध्‌० (पु०) [तिपसू + विद] तपश्याकारी , ऋषि, सुचि; दीन, दयापान्न, घीक्आार, सछुली विशेष । तपा दे० ( पु० ) पूजंक, आराघक, अचेंक) तपसस्‍्वी | ( थि० ) तप में सस्‍्न | [ करना, आय दिखाना | तपाना दे० ( क्रि० ) रर्म करना, उष्ण करना, तंख तपात्यय तत््‌० ( घु० ) चर्षाकाज्न, प्राजरद्‌ काछू, वर्षा का समय ) [ अलुखन्धान। तपाल दे० ( ५० ) श्रस्वेषण, खोल, सम्धान, हढ़, सपित तत्‌० ( पु० ) [तप्‌ + इच्‌ ] तप्त, उष्ण, बच्ताप- युक्त । [लैेबमी, नियमयुक्त । तपी तद्‌० (पु०) तपल्‍्वी, तपस्या करने बाला, पात्म- तपु तद्‌० ( घु० ) आग, सूर्य, शन्ु।( वि३ ) तप्त, दरस, तपाले बाल्ला । [ थण, तपी । तपेश्वर, तपेश्वरी तदू ० (पु० ) तपस्वी, तपश्र्यापरा- तप दे० (क्रि०) तप जाये, गरम द्वो जावे, तपस्या करे। त्पोधन तव्‌० ( घु० ) तपस्वी, सुनि, ऋषि जिसके तपस्था दी धन है, जिनके घन के द्वारा होंने वाले कार्य तपस्था के द्वारा दोते हैं, दौनामरुषा। ( स्त्री० ) तपश्चा रिण्यी, त्पल्विनी, नियम परायण स्त्री, योगसाधनतत्परा | तपेानिष्ठ € देह० ) तमाकू तपोनिष्ठ ( पु» ) तपस्वी । तपे।वन, तपेवन तहत» ( ६० ) तपस्वियों का आश्रम, वन का प्रदेश विशेष, जहाँ तप करने वाले रहते दें। । तपेवल्ल तत्‌० ( धु० ) तप की शक्ति ।[ स्थान। तपेभूमि तत्‌* ( स्त्री० ) तपोषन, तप करने का तपेमूत्ति तद॒० ( पु० ) [ ठपस्‌+सूत्तिं ] तपस्वी, ईश्वर, तपश्या की सूत्ति, मदातपस्वी | तपेरति तत्‌* (ए०) तपस्वी, जिसकी तप में रति हो। तपे।राशि तव्‌* ( पु०) [ तपस्‌ + राशि] तपस्‍्वी, बडा तपस्वी, जिसकी तपस्या अधिककाल व्यापिनी हो | तपेल्ोक तद्‌० ( चु० ) ऊपर के चौदह लोकों में से छुठर्वां लोइ । तप्त तच० ( वि० ) [ तप+क्त ] उष्ण, तपा हुथा, सैतप्त, गर्म, छुद्ध, दु खित, अविशित्त पीढ़ित। +-कुम्म ( घु० ) नरकविशेष, तपा हुआ, घडा। +-कुणड ( पु० ) गरम पानी का ताक्षाय, गरम पानी का झरना |--छच्छू (० ) ब्रतविशेष, प्रायश्वित विशेष ।--वाल्भुक ( ६० ) नरकविशेष, जो तपी पालुशा से बना हुआ है ।--भाषकऊ (७० ) एक प्रकार की परीक्षा ।--मुद्रा (स्त्री०) शरीर पर ग्रहण किपे जाने योग्य श्रप्नितप्त घातुमय भगवान्‌ के भायुधों का चिन्द् । तप्पा दे ० ( ३० ) चकल्ला, धुरवा, पुरा, पछी, गांव झरम, गवई। तफलोल दे* (स्त्री०) विवरण, ब्योरा | [ विशेषता तफायत दे" अन्तर, व्यवधान, भेद, पथक्य, तब दैे० ( झ० ) तदा, उस समय, इस काल, उस हय ऐसी दशा में, ऐसी स्थिते में, फि र, उस पीछे, तदुनसतर ।--दि या दो ( झर० ) सीक ग्सी समय डसी के बाद । [ बदली, परिवतेन । तबरील (बु०) बदला हुआ, परिवर्तित ।-ये (स्ट्री०) तबक्षची दे* ( पु ) तदला बजाने दाझा | [ चाज्ञा। तथबज्ा ऐे* ( १० ) ताज देन का चमड़े से मढ़ा पुक तवाह ( शु० ) बर्बाद, चौपट, नाश दो ब्राप्त। नी ( छ्ती* ) नाश, अ्रच उतन | तबियत दे* ( ख्री० ) ज्षी, मन, चिछ | तमी दे5 ( भ* ) तवद्ी, सदैव, ढसी समय | तम् तव्‌० ( घु० ) विशेषण शब्दों के अन्त में श्राने छे अनेकों के बीच एक का उत्ूप बोधक, अत्यन्त, सबसे बढ़ कर, भ्रन्धश्नार, तमोगुण, अहड्डार, तमालदूच, तेज्रपात का बृूक्, पाप, क्ोघ, अ्ज्ञान, कालिमा, मे, नरकविशेष, राष्ट्र, घराइ, पैर के थ्रागे का द्दिस्सा । ४ तमः तत्‌* (घु०) प्रकृति का गुण, प्रियुण के अ्न्तगंत एक ग्रुय का नाम, तमोगुण, अ्न्धकार, शोक, पाप, अद्दक्भार, क्रोध । तमरऊ दे० ( खो० ) नेजी, जेशश, उद्देय, क्रोध । तमकना (दे० ) ( क्रि० ) क्रोधित होना, क्रोध से लाल मु होना | तमका दे० ( प० ) बहुत गर्मी, श्रधिहक्र उष्णता । तमझि ( दे० ) ( क्रि० ) क्रोध मुँदद दो, द्योरी घढ़ा के; चिद् के । तमगा दे० ( घु० ) पदक, मेढल, तयगमा, कुद्ध हुआ। तमशुन ( घु* ) तमेयुय। तमचर तव्‌० ( घु० ) रादस, उद्लू। तमचुर तदु० ( ु० ) ताम्रचूढ़, मुरगा, कुवकुंट । तमत दे ( वि० ) अमिलापी, इच्चुक, थार्शादी, प्रार्थी | तमतमाना दे ० ( क्रि० ) छाल होना, श्रधिक क्रोध करना, चिढना [ का नाम । ततप्रभ तत्‌० ( पु० ) न/्कविरोष, अस्धद्ारमप, नरक तम्स तत्‌० ( पु० ) अन्धकार, तमे।धुण, नयर, नदी विशेष, हूप, नरकविशेष, राहु, मभुविशेष | तममसा तद्‌ ( ख्री० ) पुक नद्ठी का नाम, इसी नदी के तीर पर मद्॒पि वास्मीकि बइते थे । तमस्यिनी ठद्‌७ ( ख्री० ) [ तमसू्‌ + विनर + ई] रात्रि, रजनी, निशा, अधेरी रात, इर्दी | तमस्छुक दे० ( घु० ) ऋणपत्र, कजपत्र, वह पत्र जो कजे लेने दाले धनी को लिखते हैं, दस्तावेज/चेख | तमस्तिति तद॒» ( स््री० ) [ तमप्‌ +तति ] अन्धकार समूई, घोर अन्धकार | तमा तव्‌० ( धु० ) रा ( ख्ी० ) रात, निशा | तमाऊँ, तमास्यू दे (५० ) सुरती, स्वनामप्रसिद पत्र विशेष । घूम पान करने योग्य पत्रविरेष, छाने की सुरती, सैनी तमाख्‌ | चमाचा ( हे ) तरकी जाणझः/»/ण/आडएथपएपथपथ/पथिथ,घपडचपएप/७पणणणखओडडडटबडसलअ न ननलनल््ॉइ---् त्््नतनड5ीनतनतस्‍नवनन++ तमाया दे? ( घु० ) पप्यड़, कापड़ | तमादी ( स्रो० ) वादे का घमय व्यत्तीत हो जाना | तमाम दे+ ( पु० ) सकल, समस्त, समग्र, पूरा, कुल, सारा; बिल्छुछ । [ मांण्ड, दिवाकर | तमारि प्रा तमारी तत्‌० ( घु० ) तमेनाशक, सूर्य, तमातत तव ( पु० ) बृच्रच्रिशेष, तिलक, पत्रक, वरुण बच, काऊा खैर, काक्ी पत्तियों वाढछा बृद्ध, तमाहू, सोरपंख ।--पत्न ( पु०) तिरूक, सेजपतन्न | तमाशवीनी (स्त्री० ) बद॒कारी, ऐयाशी, दुष्कर्मंता तमाशा दें? ( घु० ) मेला, नाटक, नाच, आतिशदाजी श्रादि चिस के पसक्ष करने घाज्ते इश्य |--६ दे ० ( घु० ) तस्राशा देखने बाले। तचमि या तमी तव्‌० ( छ० ) रात) से ।--चर तत्‌ ( छु० ) राचस, रजनीचर । तमिल तव० (३० ) [तमिसू + २] तिमिस, श्रन्‍्दकार, क्रोध, पुछ नरक |--पक्त कृष्णयक्ष, बदी पास | तमिस्त्रा तत्‌* ( ख्री० ) [ तमिल + आा] अ्न्धकारमय राजि, कृष्णपक्ष की अँधेरी रात । लमी तत्‌० ( खी० ) [ तम +- ६ ] अत्थकारमय रात्रि, निशा, तमिज्ना --श ( छु० ) चन्द्रमा ।-चर (पु०) राच्स, निशाचर, चेर, व्यभिचारी, लम्पट [ तमीज्ञ दे” ( ख्री० ) विवेक, पहचान, बुद्धि, शिष्ठता, अदव ।--दार (वि० ) बुद्धिमाल, शिष्ठ, विवेकी । तमूरा दे० ( घु० ) वाद्य विशेष, सितार जैसा एक खाजा, चौतारा । समागुण तत्‌० ( ५० ) [ तम्तत+ गुण ] पकृति के ब्रिचिध गुणों के अन्तर्गत एुक शुण चिशेष। मोह; क्रोध आदि के वत्पन्न करने वाला गुणविशेष | तमोंगरुणी तव॒० ( बि० ) प्रहद्डूयरी, अभिमाची, दुर्पी, गर्वी, क्रोधी प्रकृत्तिवात्ता 5 लमोन्च ततु० ( घु० ) तमानाशऋ, दीपक, ज्ञान, अभि सूर्य, चन्प्र, बुद्ध, विष्छ, केशव, शम्मु। तमोज्येगति तच॒० ( घु० ) [ तमस्‌+ज्योति ] ज्योति- रिम्नण, खथोत, जगनू । तमोलुद तव॒० ( छ० ) [ तमसू+लुद्‌ + अच्‌ | सू्, उवि,दिनकर, ईश्वर, चस्ह्र,अप्ति,अ्र्ञाननाशक गुरु $ तमोपद चत्‌> (४० ) [ तमस्‌ + अपू + हल +अ ] अन्घकारनाशक,सूर्य चन्द्र, अम्ि,दीप,दीपक, शान ] । तमोर त्तदु० ( पु० ) ताम्बूज्र, पान | दे० ( छु० ) णुक रस्म ( विवाह का तमोर वादना ) | चमोल तद्‌० ( पु० ) ताम्बूछ, पान, मायर बेल की पत्ती । [ बाली खस््री। तम्रोल्िच दे० ( ल्वी० ) तम्तेली की ख्री, पान बेचने तमोल्वी, तस्वोल्ली तदू० (३०) ताम्दुलिक, जातिविशेष, जो पान का व्यवपताय करता है।.[ का हंडा। तम्बाल्ु, तम्विया दे ( घु० ) तांबे का बरतन, तदबि तस्वू दे० (घु०) पठमण्डप, वस्नगृद, रावटी, छोकदारी, कपड़केट । [ की छीन । तम्वूरा दे” ( ४० ) वाद्यविशेष, तानपूरा, तीम तार सम्बेरस सदू० ( पु० ) स्तम्वेरस, हाथी, कुकर, दन्ती । तम्देंड़ी ( खी० ) तांबे का विशेष प्रकार काहंडा। त्तय (छु०) निर्णीठ, निश्चित । तयला (क्रि०) त्तवना, दुखी देना | [का कम, प्रयल्ल तयार (गु०) प्रस्तुत, तत्पर |--+ी ( ख्री० ) सैयार होने तर तद० (ु* ) [ ढु+ श्रत्ू ] तरता, श्र, छच गति, सा, नाव की जउतराई | ( क्रि० वि० ) तले, धरे, पीछे, भीचे, विशेषण शत्दों के अन्त में आने से यह दो के बीच एुक की उत्कृष्टता बतलाता है। विशेष, बहुत | दे० (बि० ) गीला, शीतल, हरा, मरापूरा, मारूदार | तरई तद० ( ख्री० ) तारा, नक्षन्न, तरैया । तरक दे० ( स्ली० ) तड़क, धरण, कड़ी, तकं, चिचार- परम्परा, ( क्रि० ) कूटक कर, दंड कर ।--करना ( क्रि० ) अलग करना. घ्रथक करना | सरकऊ दे ( झञ० ) तक भी, विचार भी, रोपमी । त्तरकना दे० ( क्रि० ) खेच विचार करना, अनुमान करना, उछुछता, कूदना, कपठना । सरकस दे० ( 8० ) वूनीर, तुणीर, त्रोण, ब्राण रखने का साधा; एक अक्कार का बाखि का चोंता जिसमें बाण रखे जाते हैं । तरका ( पु ) लड़का, मृत सनुष्प का सम्पत्ति | तरकारी तदु" ( स्वी० ) उृछ्तिकारी, व्यक्षन बनाने योष्य फल सूछ आदि; साग, भाजी | तरकि दे० ( क्रि० ) तक करके, इज्जत करके, दृड के । तरक्ी दे० ( स्ली० ) फूछ की तरह का कान में पहनने का एक आमूपण, कर्यकूल । तरकीव ( ३५४२ ) तरल्ायित की िकलमिलि/अएक 026 व यकबर बरद कापर उसपर 5 कप तग्कीद दे० ( खरी० ) उपाय, मेठ, वनावट, शैली, क्‍ ( स्त्री० ) छेटटी तराजू | के तरीडा। तरज्ञुमा ( ए० ) भाषान्तर, अनुवाद, बयां) तरकुत्त ( ६० ) ताड का पेड | [बरतन । | तरण तत्‌" ( पु० ) [ दन-श्रवद्‌ ) उचरण, इतरना, तरगुल्लिया ( स्त्री० ) श्रनाज भरने का एक छिद्वा पार जागा, तैएना, दद्धार, बचाव, डॉया, नाव, तरक्की ( ख्री० );बृद्धि, पढ़ती । स्वगें। ( घु० ) पार होने बाला, उतरने बाला, तरड तव्‌० ( खी० ) लहर, दिलेर, ऊमि,वीचि, ठेऊ, तरने वाला, मुक्त देने वाला | दिल्केारा । ( पु० ) उमडर, मौज, मानसिक उमझ तय तत्‌* (ब्ली० [ तु+श्रम्ि ] नौछा, नाव कपड़ा, घोडे की फर्शाम, सीने छी तारों के उमेठ चेंकुमापरि, घृतकुमारी १९ पु० ) सूर्सकिरण, चर कर बनाई गयी द्वार्थों में पहनने की चुटी । बुद्, अकवन घूठ --रल्त (एु०) मा्णिक्य, मणि, तरझ्लिणी बव्‌० ( स्लरी० ) नदी, सरिता । सूर्यकान्त मदि ।--छुत (प० ) यम, शनि, के । तरड्डित तत्‌० ( वि० ) [ तरक्ष+इव्‌ ऊर्मियान, +-खुता ( छ्त्री० ) यमुना, कालिस्दी नदी ) लदरॉयुक्त, लद्दरात्ता डुआा। तरणी तब (स्त्री० )[ तरण +ई | नौहछा, नाव, तरड्री तत० (वि० ) लइरी, मल्मौजी, चशुत्नमना, धुतकुमारी, तरनी, पद्चचारिणी । इत्साद्दी,उद्ाइबाना, तरह्वाला | तरन्त तद्‌० (पु०) भेकमेडक, कुदासा,झासार, मद । तरखा दे (ख्री*) नल का तीज बदाव,घारा का वेग । तरन्ती वत्‌* (स्त्री०) नौका, ताणी, तरी। तस्तरा दे० ( पु ) एक प्रकार का याल | तरपन तदू्‌* ( पु० ) तर्पण, दृ्ति, मन प्रप्ताद, मत की तरदीप ( स्त्री० ) सण्डन, मंसूखी | प्रसग्नता, मन्त्रों के द्वारा पितरों के उहोश्य से तरदूदुद ( ५० ) सोच, छटका, जलपदान । [छरते है तरतराना ( फ्रि० ) कडछडाना । तरपहिं तद्‌० ( क्रि० ) तडपते हैं, गजते हैं, तरान तरन तद्‌« ( पु० ) तरण, तैर जाने वाला, पार होने | तरफ दे० ( रुत्री० ) पारवे, दिगू। धार, पक, भोर।-- बाला, मुक्त द्वे जाने घाढा ।--तारव ( ५० ) दार (गु०) पच्चपाती, पढवा ला, सद्दाय१) समर्थक, अपने साथियों के सद्दिव सुक्त होने घाला, ,स्वर्य द्विमायती ।--दारी दे० ( स्त्री० ) मचपात | तरे और दूसरों के मी तारे । तरफना दे० ( क्रि० ) त्तहपना, ब्याकुज होना । तरना दे० (फ्रि०) पार द्वेना, इद्धार पाना, तर जाना | | तरवतर दे० ( बि० ) सराबेर, मीया हुआ । तरनि तदू« ( ६०) तरणि, सूर्य, रवि, मु, दिवाकर ! | तरबूज दे० (पु०) स्वनाम मसिद्ध फछ विशेष, कह्लींदा, सरनी तदू्‌० ( स्त्री० ) वरणी, नौछा, नाव। द्विगवाना । तरहुंद ( स्री० ) पानी अथवा अन्य ठिसी तरल | तरल नव्‌० (६० ) द्वार के बीच का मणि, हार, पदार्थ के नीचे बैठा टच मैल । हीरा, छोड़ा, तब, पेंदा, बीढ़ा। ( वि० ) उधर, तरछन (स्त्री०) पानी के नीचे बैठा हुआ मैट । दरवीमूत, पतव्य, दीमियुक्त) (गु* ) घ्वछ, तरल (पु०) तेल्ियों के गोवर धृझ्त्र करने का स्थान | अस्थिर, श्रनिश्रिदचिच, पतला, तीढुण, धोधा) तरछाना (क्रि० ) तिरदी भाँस से संझेत करना ( ता (स्त्री) चछुछता, अवख |-लेचना तरज तदू० ( पु० ) ठजं, डायट, डपेट, डॉठ, तमन, (स्री० ) चच्च॒लनयनी, चपछनेता; नारी, टगी। गान की रीति, गान का प्रकार, रीति, प्रकार, | परला तद्‌० (खी०) [ तरक्ष+ भा _] बवायू, मई ढग | ( क्रि३ ) डॉट कर) निद्वार कर। मख्चिढा, बॉस विशेष ( वि- ) सबसे भीचे बाढा, तरज्जञत तदू" ( क्रि० ) तस्त, तद्पता है, डॉटता है । _ नीचे वाला | [ बचत । तरज्नन तदु० ( ६० ) जन, गजेन, तड़प, उपेट, डडि । | तरलाई तद्‌० ( खी० ) तारहप, तरबदा, चब्चठवा, तरज्ञना ( क्रि० ) फटकारना, डाट बतलाना | तरलापित वद्‌० (वि०) ज्ञातवारकय, जिसमें तरछठा | तदज़नों (स्त्री०) अगूठ़े के समीप की उंगढी,मय, डर । कपपत्र हुई हो। । (प०) इरव ताक) पढ़े तरह ! रु तरलित तरल्ित दव्‌० (वि०) [ तरछ + इत ] चाज्चस्यान्वित, चलित, विचलित, आल्दोल्ित, दृवीसूत | तरव तदू० (पु०) तक, बच, पेड़, रूछ, गाछ । वि । तरचर तद्‌* (पु०) तस्वर,बड़ा छृक्त, उपयेगी चूक्ष, प्रिय तरचरिया दे० (घु? ) तरवार चारण करने बाला, खद्डघारी, तलवार चलाने बाला । सखांड़ा । तरबार या तश्वारि तदु० ( स्ती० ) तलवार, खन्न तरस दे० ( स्त्री०) तट, तीर, रोग, वन्दर, वेग बच्च । ( घु० ) करुणा, दुया, रहस । तरसना दे० ( क्रि० ) बहुत चाहना, उत्कग्ठित हे।ना, ज्ञी कगा रहना, दया दिखाने की इच्छा रखने पर भी दया नहीं दिखा सकता, केवध्य उत्कण्ठितत द्वोना, भ्रभाव का क्लेश सहाय करना! तरसाना ( क्रि० ) आशा उत्पन्न करके उसे पूरी न करना, ब्यरथे छलचादा । तरह दे० ( स्न्नी० ) माति, प्रकार, ढाँचा, ढब, रीति, छुंग, युक्ति, उपाय, हाल, अवस्था । तरदहदटी दे० ( स्त्री० ) पहाड़ की तराई, नीची भूमि । तराई दे० ( स्त्री० ) पहाढ़ या नदी आदि के पास की ततरी या सीड़ बाली भूमि, पदाढ़ की घाटी । तराजू दे० ( स्त्री० ) तुला, पलड़ा, जे। श्रन्न आदि के सौलने के काम में झाता है । तरान् दे० (छु०) डगाहन, भाप्त किया छुश्ला, तहसीला गया, वसूल किया गया, राजकर, चन्दा आदि | त्तराना दे० ( क्रि६ ) पार कराना, उद्धार करना, चचाना, एक गाना विशेष । सरावोर दे० ( वि० ) सराबोर, खूब मीर्गा हुआ । तरार दे० ( ५० ) पानी की छगातार गिरने वाली घार, उछाल, छुज्नाँच । तराखठ दे० ( स्त्री० ) ठंढक, नमी, स्विग्ध भोजन । तरास तदु० ( ३० ) त्रास, भय, शूट, डर, पिपासा, प्यास, तृषा ॥ तरि तद्‌० (स्त्री०) ) [ सु डू ] नौका, तरी, चरणी, तरी तत्‌० (स्त्री०) / [ दू+अ्लू+ह | नौका । सरीका दे? ( 8० ) ठड्ड, भकार, उपयोग की रीति । सख तव" (प०) हक, हुम) गाछ ।--ज ( ग्॒* ) इक से उत्पन्न फू फूतच आदि।--जीचन (०9 बूच खुल । ६ हेश्३ ) तके तख्झा दे० ( पु» ) तछूवा, सुँजिया चांदिल । तरुण या तरुच तत्‌० ( वि० ) नवीन, नूतन, युवा, जवान, खिक्ता हुआ, अफुछित । (घु०) बड़ा, नीरा, प्रण्ड, सोतियां !-ज्वर (घु० ) सात दिन के भीतर का ज्वर, नवज्बर, नवीन ज्वर ।--दूधि ( ३० ) पांच दिच का बासी दद्दी । तरूणाई त्तद्‌० ( स्त्री० ) यौवन, युवावस्था, युवाकाल, जवानी । तरुणी ठ्‌० ( स्त्री० ) युवती, थुवावस्था की स्त्री, जवान स्त्री, पोडशवर्षीया स्त्री, नवयौवना, रसणी, कासिनी, गुदःतन्या, दन्‍्ती नासक बुत चिशेष, पुष्प विशेष, सेवतती का फूछ, ज्मालगोटा, चीड़ा सामक गन्धद्गृब्य, मेघराग की एक रागिनी | तस्नाई तद्‌० (स्त्री० ) जवाची, तरुणावस्था । तरेड़ा दे० ( ० ) टॉटी से पानी का गिरना, धार बाघ कर पानी सिरना ! तरेयना दे० ( क्रि० ) होरी चढ़ावा, भाँख दिखाना, आंखे बदलना | तरेत दे० ( छ० ) वया, लक्षर का चिह्न । तरैया तदू" ( स्री० ) तारका, तारा नकतन्न | यथाः-- “यथा तरीया पात के, सब रूप भगे उद्धास । लखि दिन मणि कर रास छवि,सकुचाने चहुँ आस ।!! कृषि वाक्य | तरोबर ( पु० ) चृछ, पेढ़ । तरोंछी ( स्‍्त्री० ) छुलादे के ६स्ये के मीचे की छकड़ी । 'तरोंस दे० ( छु० ) तीर, तट, किनारा पेंदे में का छू । यधा+--+ £: स्थाम सुरति करि राधिका, तरृति तरनिजा तीर, ऑसुबनि फरति तरौंस कौ, खिनक खरोंदा। नीर ।” “-स्तसई । तरौना दे० ( छ० ) कर्णमूपण विशेष, पुके मकार का गइला;, जिसे स्त्रियाँ कानों में पहनती हैं | पधा-- “छसत रुवेत सारी दिप्यो, तरल तरोना कान | परथौ मनो सुरसरि सलिल, रवि प्रतिविम्ध विहान ॥7” +>सतसई । तक बतु० ( छु० ) [तर्क+ भक] तर्क, ऊद्दारोह, इुद्धि- द्वारा विदेचना, न्‍्यायशास्त्रसम्बन्धी विचार, हुलत _ तकरार, अनुसान, कदपना, 'अनुमानोक्ति--वितर्क छा पाब्- ४४ ।ज तकक शेशछ ) तल्मज्ञाना ( पु ) शहूत, सनन्‍्देह, अनिश्चित दिद्धान्त को निश्चित करने के लिए विवाद, धद्स, बादुविवाद, सेाचविचार +--विद्या (स्व्री० ) आस्वीसिकी, न्यायविद्या +--शास्त्र ( ए० ) पड़दर्शन के बन्त- शंत एफ दर्शन विशेष, गौतम और वेशेषिक का बनाया शास्ध । तक तत्‌« ( ० ) [ तक + झक्‌ ] यांचक, आकादी, तककारक | [ झिया । सर्कन, तकण तत्‌० ( पु० ) तककरण तक करने की तक्रित तद्‌० ( वि« ) [ तक + इत्त ] विदेखित,चआाको- चित, शह्.ित। सम्देदान्वित, सन्देहयुक्त । तर्ी तव्‌» ( गु० ) [तक इन] तकेझारक, सैयापिक, न्पायशाखदेत्ता, विदेचक | (दे०) कर्णभूपण विशेष + तकुँ तद॒० ( ख्री* ) सूत बनाने का यम्ध, तकुओा, तकटा । तकुँदी तव॒० ( ख्री० ) [तहुंट+-ई] सूत्र निर्माययस्त्र, सूत पनाने की कर, तकुआ, फिरकी । तकल दे० ( घु० ) ताइ का घृद्द, त्ताउफल, ताक्षीफक । तर्खा दे* ( पु० ) तीक्ष्यघारा, प्रखर घारा, वेष से चलने वाली घारा, शीभ्रवाद्ििनी धारा | तज़ दे० (खली) शैज्ञी, रीति, तरह, ढब, ढंग, यनाबट, तरीका । तन तत्‌० ( धु० ) [ तजे + अनट्‌ ) भत्पेव, ताइन, राजन, धमकाने का काये, कोच से सयानक शब्द फरना । तन्ञन्री त्व« ( ख्री० ) श्ंगूडे के पास की अंधुली, निर्देश करने वाली अंगुली, बतब्ाने वाली, प्रादे शिक्की | यथा-- हुई कुम्द़ यतिया कोई नाहों | जो तंजेनि देखत मरि जादीं ?--रामायय | तर्जित चद ( लि० ) [ तन + इत |] मत्सित, त्तादित, ५ पमछाया गया । तजुमा दे* ( पु० ) अलुबाद, क्या, एढ मापा में लिसी हुई बात को दूसरी सापा में करना | तणऋ तद्‌० (प०) नवीनव स, तरच्ाछ उत्पन्न बखडा | तततंराता दे+ ( वि* ) स्निग्प, गति चिकन ! ततेराना दे* (क्रिए ) चशुन्नता करना, यलफटाकी करना, सम्रारा भरना | ततेराहद दे० ( स्ो० ) सब्ाटा, गीददू भमकी, गल- फटकी, रढाघा | तपंण तद्‌० (पु०) [ ठप + अनदू ] दृत्िकरण, प्रीणन, यश्ञकाष्ट, मद्दायज्विशेष, पितृयत्न, देवऋपि सौर पिवर्यों के जलाश्जलि द्वारा परितृप्त करता। अन्‍्ध्रों द्वारा पितु पितामद के उहश्य से अछप्रदान । तब दे० ( ख्वी० ) वाद्य की रथ, स्वर, ध्वनि । तर्सना दे? ( क्रि० ) घदबढाना, घकवक करना, कुड़गा, चिदूना, स्वरों का इतार चढ़ाव श्रद्मापना । सर्वेरिया दे० (पु०) वछवार बाँधने वाला, श्रत्नधारी। ते तत्‌० ( पु० ) [ तृप्‌ + धलू ] भमित्वापा, तृथ्णा, इच्छा, समुद्र, सूये। तर्पण व्‌" ( 9० ) [ ठृप्‌ + अनदू ] तृपा, प्रिपासा, तृष्णा, प्यास, अभिलापा, इच्छा | प्यासा। तर्पित तदू० ( वि० ) तृपित, पिपासित, तृपान्वित, तरस दे० (स्त्री०) दया, कृपा, करुणा, श्ल्युझम्पा ॥-+ खाना ( क्रि० ) दवा करना, कृपा करना । तर्साना दे० ( क्रि० ) छबचाना, छुसाना | तसी दे० ( थ* ) परसे। का पिछंछा दिन, परसें के आगे का दिन, वर्तक्षान दिन से पहछा बा पिछला चौथा दिन तक्ष वच्‌० ( पु ) [ वलू + भू ] खण्ड, मद्ीतछ, नीचे, अधेमाग, बढ़ा, कानम, बन, तहा, गनी के नीचे का भाग, सतलूघा, तक्ती, हथेली, सतद, स्वभाव, पाटन, ताड़ का पेड़, मुठिया, गेद,कलाई बिचा, खदारा, मदादैव, पाताल विरोष, ना विशेष |--घर (५०) नीचे का घर, तद्फ़ाना। छेद (पु०) मैंछ, निचाइ, शुदशुदश, भीचे चैठी हुई मैंछ :--प्रठ (पु०) मठमेट, मटियामेट चौषट, विवश ।-फोर ( भ० ) तल फोह़ कर निकला हुआ।.. [ताक पेश, फछ विशेषये तलक दे० (अ्र०) तक, पर्यन्व, अभ्रवधि | तद (६०) तलना दे० (कऋ०) भूगना, सूजना, तेह में सूजता | तलफना दे+ (क्रि०) तड़पना,छटपटाना:ष्याकुछ ऐना । तलब दे (घु०) वेतन, भावशयकदा, माँग । वलमलाना दे* (क्रि०) छछचाना, ले।भाना, विक्ृत “ गति से चढना, दुर्वश्ता से रुक रक का चढनों, दिक्षते डोटते चलना, तदफड़ाना । हे घल्लवरिया ( ३४४५ ) त्तस्छ्‌ तलवरिया दे० (बि०) तलवार धारण करते वाजा [ सलधा द्वे० पैर के नीचे का भाग, पादतल । छदलवार दे? ( सत्री० ) खम्, असि | तलवासना दे० ( क्रि० ) पैर खियाना | तल्तददी तदू० (स्री० ) पहाड़ के नीचे की जमीन, तराई । [जिले के नीचे का चप्ड़ा, तक्ा | तला दे० (स्त्री०) पंदा, अधेसाग, निम्तस्थान, चाह, सलत्लाई दे० ( ख्री० ) सल्नैय॥ छाया तलाव | तल्लाक ( पु० ) सुख॒ज्मान इसाइयों में पति पत्नी का विधिपूर्वेक १/रस्परिक त्याग । सल्लातत् दे० ( 4० ) ले!कविशेष, रखोतक, पाताल, नीचे के सात लोकों में का एक लेक ) तत्लाव दे० (०) परष्छरिणी, पोखरा, सरोवर, तड़ाग। सक्लाश दे० (०) श्रनुसल्घान, खोज, सनन्‍्धानः अस्वेषण, सार्मण, हूढ़ ढौढ़, आवश्यकता, चाह | तलित दे० ( वि०") तल हुआ्रा, घी या तेल में झुत्ता हुआ । [स्वोक, स्वच्छ, अत्प, निर्मल । तलिन तत्‌० (खो० ) श्पा, (पु० ) बिरल, दुर्चछ, तली दे० (स्रो०) ता, पेंदा, जूते के नीचे का चमड़ा [ तल्वुआा दे० ) पाँच के चीचे का भाग । तलवा दे ) --चाढनता ( धा० ) हसाश देना, समिराश होना, हतसमनोरथ होना, खुशासद करज्ना | तल्लवे तत्ते हाथ धरना ( वा ) ध्वार्ष सिद्धि के लिए श्रतुगत बनना, लल्लोपतो करना; लल्ो चप्पा करना, खुशासमद करना, अमुनय विनय करना | तक्के दे० ( अ्र० ) मीचे, अधोभाग से, मीचे छी ओर, बतर के, भढ के, कुछ कम ऊपर ( वा७ ) चक्षट पुकट, नीचे ऊपर, दोनों तरफ | तलेदी तद्‌० ( स्वी० ) पेंदी, तछहटी, तराई । तलेंचा ( इ० ) महराव के ऊपर का माय । तलेया दे० ( स्त्री० ) छेद तकाब । ततदप त्त्‌» ( पु० ) शय्या) परँग, तिच्चौना, अद्दालिका “क्यो (घु० ) बिछौना का कीट, खदकीरा, * * खडसल । [ मरातिव । वल्ला तदू" (घु० ) श्रस्तर, मित्तछा, पांस, खण्ड, तडिका वव« ( ख्री० ) ताली, कूची, कुझो, चामी । तथ तव्‌० ( सर्वे* ) तुम्दास; तेरा । |] तवा दे? ( पु० ) लोहे का छिछछा गेल बरतन जो रोटी सेक्ने के काम में वाया जाता है । 4 ' तचाज्ञा ( स्त्री० ) आवभगत, अ्रतिथि खत्कार । तवायफ ( स्त्री० ) वेश्या, रंडी + तवारीख ( स्त्री० ) इतिदाल । तशरीफ ॑ स्त्री० ) महत्व, बडप्पन, मान्यता । तश्तरी दे" ( रुप्री० ) रिकाबी, थाली जैश्ला इक्का बिद्डल्ा बरतन ! तथन्म दे* ( क्रि० ) भाग देना, बॉटिना, भाग करना। तथरी दे० ( स्त्री० ) पात्रविशेष, तबि का एक वर्तन जिसमें तर्पेण आदि का जरू गिराया जाता है । तए लत» ( जि० ) दुला हुआ, पिसा हुआ, कटा हुआ; छीला हुआ । द तए। तत्‌» ( घु० ) विश्वकर्मा, आदित्य का नाम छीलने वाला, ताँबे की थाली जिसमें भगवान्‌ के। स्नान कराया जाता है। ससर ( झ॒ु० ) तैसा, जिस भरकार | तस्रदीक (ख्री० ) जाँच, गदाददी, पुष्दि | तसमा (ए० ) चमड़े की चौड़ी डोर।.. [का रेशम । तखर तद्‌० (9० ) न्सर, पहुवस्र विशेष, एक प्रकार तसला दे० ( छ० ) कटोरे की तरह का बढ़ा गहरा लोहे, पीचल या तावि का धरतच तसहली ( स्त्री० ) चैन, घीरज, भारास । तसवीर ( स्प्री० ) चित्र तसवबीद ( स्त्री० ) माक्या | उसी (धु०) तीन चार जता हुमा खेत । तस्कर वत्‌० ( पु० ) चोर, चोष्टा, अपहर्ता, दूसरे का धन भ्रपहरण करने वाला, श्रवण, कान, मैनफलछ एक प्रकार का केतु, - गन्धद्वन्य विशेष ता ( स्त्री० ) चोरपन, चेहई | तस्करी तत० ( स्त्री० ) कोपना नारी, कौची खभाव की ख्री, कोधिनी, ऋोघयुक्ता नारी, चोरी, चौथे । तस्म दे० ( घु० ) चमाटा, चमेटी । तस्मह दे० (स्प्री० ) खीर, दृविप्य। तस्मिन तद्‌० ( स्व० ) इसमें, वहाँ पर । तस्में तद० ( सर्व० ) उसके लिए, उसको । सस्य तव्‌० ( सर्ब० ) उल्चका] तस्छू दे? ( पघु० ) मापविशेष, इंच । तहसनहस ( ३४६ ) वांज्ञिया तहसनहमस दे० (झअ० ) नष्ट भ्रष्ट, तिवर बितर, दायाद, घर । तह ( स्व्री० ) परत | तदसील दे० ( पु० ) खजाना, कोश, वसूबी, करग्दण, डगाही, सरखारी कचहरी जदाँ माह्युजार अपनी अपनी माहगुजारी शमा करते हैं ।--दार ( पु०) गजकर की डगाही करने वाल्य भरफृतर । +ददॉरी ( स्त्री० ) तहसीछ॒दार का पद, राजकर चसूछ करने का काम | तदहंसोलना ( क्रि" ) पसूद करना, उगाइना । तहेँ, वहां, तद्॒वाँ दे० ( श्र ) इस स्थान पर, उस स्थान में, उस ठाँव, उस भूमि पर । तहाना दे० (क्रि० ) बपेटन, चौपतना, चौपरत करना, घरी करना, भढ़ना, घुनना, छुनत करना । तदियाँ दे० ( क्रि' वि० ) उस दिन, पदले के दित, पदल्के । [ छ्थान पर । सही दे" ( क्रि० वि० ) धहीं, वर्ड, इस स्थान, उसी ता दे० (सवं० ) उस। दे" ( अब्य० ) तक, पयेत्त । हतू० ( भ्रत्य० ) पृष्माव याच$ अब्यय। जैसे शत्तमता, शब्रता आदि । ता (क्रिब वि० ) नाई, तक । [ घोड़ागाड़ी। ताँगा दे० ( पु) माही विशेष, पर प्रद्मार की ताँत दे० (स्त्री० ) चमड़े की रस्सी, कपड़ा बिनते यत्र, पंक्ति, श्रेणी, तार, कवार |--वाँघना (क्रि० ) बकबक्ी, धमडे की रसस्‍्पी से बाँधना [रिया ( गु० ) दुबठा पतला। ताँंती दे" (घु० ) ज्ञातिविशेष, तदवा, क्रिया, प्रदवा, कपड्ा बीनने वाद्यी एक हिन्दू जाति। ताचड़ा दे" ( पृ० ) ठॉबे का वर्ण, ताँबे की वस्तु, मूठी घुटी । [घतु । ताँब्रा देन ( १० ) धातुविशेष, साम्र, स्वनामप्रसिद ताइत दे० ( १० ) चमंरज्ठ, चमेंदरन्पनी, तन्‍्त्री, ताँत, यन्त्र, जलर, गयडा, टोठका । ताई दे+ ( स्प्री० ) चादी, काह्डी, ताऊ की स्री, काका की छ्प्री, पिठा के यद्ढे भाई ही स्थ्री, कदाददी निसमें अछ्तेवी आदि बनाई जाती है । ताईद ( स्थरी० ) सुपृष्टि, शरजुमेदन, सल्मी श्रकार समन तांऊ है? ( धु० ) बढ खादा, पिता का सदा भाई, पिलृब्य । ताऊस ( ६० ) मेर, केष्टी, मयू(। ताक दे० ( स्त्री० ) डीठ, दृष्टि, दर्शन, लक्ष्य, ध्ष्टिपात, अवज्ञेकन, सन्धान कारण, टकटकी, किसि मौके की याट जेहना, खोज --राँझ दे (स्त्री० ) देख माल ३ ताकर दे० ( सबं० ) उसका, तिसका । ताक दे० ( पु० ) आला, ताखा | [ बलवान | ताकत ( स्त्री० ) बक्ठ, अधिछार |>घर (गु) ताकना दे० ( छ्वि० ) झाँकना। देखता, धूरना, द्ष्टि- चात करना । ([( सब ) ठिसका। ताका ( दे* ) ( क्रि० ) देखा; निद्वारा, विशाल वाँघा, ताकि दे० (क्रि०) देखकर, छखकर। (भव्य ) अत , जिपपे, इसकिये | / [ अजुगेध। ताक्ीद ( सत्री० ) मज्ी प्रकार कट्टी हुईं यात, प्रथा ताखा दे* ( पु० ) भाछा, ताक | तापसी ( गु० ) दो प्रकार की श्रांखों वाढा, पवी। तांग दे? (५० ) डोश, खूब, सूझ, घाया तोड़ ( पु० ) गे।टा, किदारी, घारी । तागना दे* (क्रि-) सीदा,डोरा चक्ताना, टाँडना, टॉँका छगगागा, सुई में घाण छूगाना, सुई में घागा पिरोना तागा दे० ( ५ ) धागा, सूत, मोटा घाया। ताज दे० ( १० ) मस्तक्ावरण विशेष, राजा के सिर की पयड़ी, मुकुट, किरीट | ताज्ञक ठव्‌» ( घु० ) ज्योतिष का ग्रत्थ विशेष ! ताज्नन देश ( पु० ) कोढा, कशा, चाघुक ! साज्वीवी दे० ( श्ली० ) मुगठ सम्राट शाहजर्दोँ को थेयम, सुमताल मदल | ताज्नमदत्व दे* ( छ० ) मुमताज मल का समाधि मन्दिर जो आगरे में सन्नादू शादज्दां ने बना वाया था यह यड्ा डी सुन्दर है । ताज़गी दे० ( खी* ) नपीनता, सरलता, सरसमांव। अध्छापन, टटकापन। (दिध्वृष्ट ताज्ञा दे* ( वि० ) टटका, अस्जञान, रसाल, नवीन, ताज्िया ( ४० ) कागच की न्राहृति मो मुसबमान मेहइरेम में बनाते हैं । पु ताज्ञोम ताज्ञीम ( ख्वी० ) आदर, आदव -- ऐ ( छु० ) अ्रघिक प्रतिष्ठित । ताज्ञी दे० ( पु० ) छद्व श्रश्व विशेष, पढाढ़ी घोड़े की पक जाति, तेज़ घोड़/कुत्ते की पक जाति ( गु० ) दटका, नवीन | [ गहना, क्कूछ । ताठड्डुः तत्‌० ( छु० ) कर्णभूषण विशेष, कान का पक ताउस्थ्य तन्‌ू० ( ५० ) उदासीनता,सब्नि छव,सासीष्य । तांडे दे० ( घु० ) जान पहचान, परिचय, ससम, बाघ, अचगम्त, ताल, ताल घुछ्च, ताड़ का पेड़ । साड़ुक दे० ( छु० ) ताड़ने वाढा, समझने बाला, जानने वाला । ताडुका तत्‌० ( ख्री० ) सुकेतु नामक पक्ष की कन्या, [सुक्ेतु, निःसन्तान था,सन्‍्तान प्राप्ति के लिये उसने घह्मा की अशाधना की, ब्रह्मा के वर ले ताडुका फा जन्म्र हुआ । यह जन्‍म के पृन्र तुन्द को ज्याही गई थी । किसी फारणचश सुन्द अगस्त्य के शाप से भारा गया । स्वामी की रूस्यु का बदला लेने के लिए त्ताढ़का और उसका पुत्र दोनों अगरूय के श्राश्षम में पहुँचे | अगर्य के शाप सेये माता घुच राध्ास भावापत्न हुए । इससे ताढ़का का कोच और भी हिगुणित हुआ और ये ब्राह्मण जाति के शत्रु बन बैठे | धाह्मण के! देखते द्वी ये आग थबूल्ा होकर उन पर श्राक्रमण करने रंगे | इनके अत्याचार से अ्रमस्त्य का श्राश्रस जन-झून्य द्वी गया अपनी रा के लिये महषिं उस आश्रम को छोड़ कर भाग गये । उस वन का साम ही ताइुका वन है। गया । गह्म यमुना के दुक्तिण तट पर जो धारा ज़िला है घही त्ाइका का चन है! ताइ़का और उसके पुत्र के अध्याचार से महपिंवन्द बड़ा दुःखी हुआ । इसके रहा पाने के लिए विभ्वामिन्र अयेध्या पहुँचे, महाराज दशरथ से रास और लक्ष्मण के विश्वामित्र ने माँगा | यद्यपि पुत्नप्रेम के चशवर्ती महाराज दशरथ, रुम छक्षमण को देना नहीं चाहते थे, तयापति राजघर्म की ग़ुरुता . की शोर देख बन्होंने राम और लक्ष्षण को विश्वामित्र के सांथ कर दिया। विश्वामित्र के त्पेवन में थे दोनों भाई आगे, रासचन्द्र में त्ताइ़का का मार द्धात्या और मारीच को चार्णो ६ रेश७ ) - त्तात द्वारा दूर फेंक दिया। तादुका को मारने से स्त्रीयध के देप की श्राशडूत रामचन्द्र पर नहीं की जञा सकती है, क्योंकि जो ताल ढाँक कर रण में लड़ने के तैयार है.जिसने स्त्री जनाचित्त जज्जा और कोमछता छोड़ दी है उसे खी कहना ही किस परि- भाषा के अनुसार न्याय सज्ञत हे सहझता है | ] तंडइडुः तत्‌० ( पु० ) तादछू', कर्णभूषण विशेष, कान का एक गहदना। [आ्राघात, छुड़की, गुय्नन, दण्ड ॥ ताडइल तल्‌० (प०) [तड्‌+ णिचू + अनठ] सार, प्रहार, ताड़ना दे० (क्रि०) जाम लेना, समझता लेना । (स्त्री०) डॉट, धमकी, दुण्ड, भतेसन । ताडनी तत्‌० ( स््री० [ ताडन + है ] घोड़े भ्रादि का मारने की छड़ी, चादुर, काड़ा, कशा। ताडनीय तत्‌« (ज्रि०) [तड्‌ + णिच + 'नीय] ताढ़ने येग्य,ताड़न्‌ करनेफ्े उपयुक्त,मारने योग्य, अपराधी । ताडपत्र तत० ( घु० ) ताड़ू बृक्त का पत्ता | ताडत, ताडित तत्‌« (श॒ु० ) [तढ्‌+ खिच्‌+फ्त | आंधातप्राप्त, जिसका ताड़न किया गया द्वो, मारा हुआ। ( क्रि० ) मारता है, डॉटता है । ताड़ी दे० ( स्त्री० ) ताल रस, नशीकछा ताड़ का रस, मादक द्वब्यविशेष, कयार की मूठ | ताड्यम्रान दव० ( बि० ) [तड्‌ + णिच्‌ + शान] पीड्य- सान, इटाया गया, पीटा गया, शआआधात्प्राप्त, षजाने के लिए ख॒दक़ आदि का आहत करना । साथयडव तव्‌० (६०) दुृत्य, नाच,उद्धत नृत्य, फामलकता विवजित नृत्य । कहते हैं तण्डि मामक पुक ऋषि ने इस विद्या का स्वप्रथम्ष मनुष्यों में भ्रचार किया, इसी कारया इसके तसाण्डव कहते हैं। सद्दादेव और उनके गण इसी नृत्य के पद्षयाती दें । त्ताणग्डवी त्त्‌* ( पु० ) सप्नीत के चैदह ताहों में से ताज्न विशेष ) [भाद्यात्राय सण्डि मुनि हैं । ताणिड तद्‌० ( पु० ) नृत्य शास्त्र, चद् शास्त्र जिसके ताणडी तत्‌० ( छु० ) सामवेदान्तगंत ताण्डय शाखा को पढ़ने वाला ॥ न सात तत्‌० (घु० ) भद्द, मान्य, साननीय, श्रद्धेय, पूज्य, श्लाघ्य, पिता, चाचा, प्रियमाई, प्रियमिश्न, पृष्च | यधा--"तात प्रणाम तात्र सन कद्देक [ +-रासायय | ताठग़ु यहाँ पढला तात शब्द प्रियमिन्रवाची है पार दूसरा पितावादी | प्रिय 'सम्बोधन, पुत्र शिष्य भ्रादि का सम्बोघन, यया --+ "कष्डु लात जननी बल्षिहारी ( वि०१) गरम, इच्ण, तप्त, तपाया हुआ । तातमु ( पु० ) चाचा, काका । (यु) हाक्ष का, दसी या इसी समय का । तातनो तातनो दे० ( ६० ) उसकी, इसका । तातज़् दे० ( वित ) ताता, गमे | ठव्‌० ( घु० ) पिता के समान सम्बन्धी, खोददे का काँटा, पाक, रोग | ताता दे० (वि०) यरम,उष्ण । [प्राशर्य,मर्म,मतल्नब,भाव। सातीज्न (स्त्री०) वन्‍्दी, छुट्टी | (० ) अभिप्राय, ताताथेई दे० (स्त्री० ) नाच का एक बोल । ताते दे० (पवे०) वधसे, उस कारण से, उस देत से। ( बि० ) गरमा गरम, संतप्त, तपे हुये | तात्तालिक तत्‌० (बि०) तसल्कालोश्पन्न, इसी समय का वत्रध्र दुप्रा, तरझाक्बोद्सव, तस्छाल्ीन १ तात्पये, तात्पय्य' तब्‌० (पु०) श्रमिप्राय, अर्थ, मर्म, चआरशप, मतलव | ताखिक तव्‌० ( जि०) ययाए, दीझू ठीझू तादवस्थय तत्‌० ( पु० ) तद्॒पता, उसी प्रकार से स्थित्त, घद्दी भाव ॥ [ जन, उसके लिये। तादथ्यं त२० ( पु० ) समान अंभिष्राय, उसझे प्रया- तादात्म्य तद॒ु० ( पु) तत्धथरूपता, अभेदसम्वन्ध, भेद रहने पर भी अ्रमेद प्रतीति | तादाद ( स्त्री० ) संद््या, गिनती, शुधार, अञ्जमान । सादृश तव्‌» ( ७० ) तठद्गप, उसी प्रकार, उसी के समान, वैत्ता ही, इसे देसा।--ठाद्टशी (स्वी०) सद्गुप, वत्सभान । छान ठव॒* (स्रो- ) [ तन्‌+घन्ष ] खींच, विछार, ज्ञानविशेष, राग, स्वर | (पु०) गान का एक अज्न- विशेष ।--लेड़ना (क्वि० ) परिदस करना, आहेप करना, तात की समाप्ति करना --पूरा ( धु» ) दाच विशेष, सितार के ऐसा एक दाज्ञा । +सेन ( घु० ) नामी गयवैया, यह गौड़ माझयय थे, इन्होने गान विद्या में अद्भुत पारदृशिता प्राप्त की थी ! कहते हैं एक समय अपने प्रतिदन्दी सैसू बावरे के साथ शाघ्यार्य करते हुए इस्दोंने दीपक “-शम्मायण । ( रे८८ ) ताएक राग गाया । दीपक राग गाते ही चार्रो भोर से दीपक आकर इनझे शरीर में चिपट गये | शर्ते ये थी कि तानसेन के शरीर में जद दीपक चिपटने रूगेंगे, उसी समय दैजू दावरा मेव राग गाकर पानी वर्सादेंगे, परन्तु दैजू बावरे मे ऐसा नहीं किया | अतपुव तानसेन का शरीर दुग्ध हो गया ! बस अ्रन्याय से दु फित ट्वोकर इन्द्रोंने अपने जन्म- स्थान को छोड़कर गुजरात की यात्रा की | घटनाक्रम से यद एच गाँव में पहुँचे वहाँ ताता श्र नाना नाम की दो ख्लियाँ जो इस विद्या में बड्ढी निषुणठा रखती धीं उन्होंने हुनको भच्छा किया | हमी से तानपेनी राग का गाना ताना नाना से शुरू करते हैं | तानव तयू० ( ए० ) बचुता, प्वीणता, कृशता ) ताना दे० ( छ० ) फैटाया हुआ सूत, कपदे विनने के बिये फैलाया हुआ सूत, चोत, तानासूत, तानी। चथ -- “ताना नाचे बाना नाचे नाचे सून पुराना । करिगह भीतर कविरा नाचे,यह सनगुर कर थाना” । >>कबीर साहव | ।क्ष,द्री या क्राल्ीन बुनने का यन्त्र या करधा । (क्रि०) ताव देसा, गरम करना, त्पा कर आँदना | तानावाना ( थु० ) फ्ेराफ़ेरी, अदण बदुछा कपड़ा छुनने के समय कम्बे चदे फ्रैाये ड्रुप्‌ सूचत [ विन, तिन्दों को । तानि दे० ( क्रिन ) तान कर, स्ींच कर । ( सर्वे* ) तानी दे० ( स््री० ) ताना बिनने का सूत | (थु8 ) रागी, गयैया ! तानायीरो दें० ( स्ली० ) साधारय गाता। तान्बिक तत्‌० (घु० ) तन्वशाप्नज्ञ, तस्व्रशास्रवैत्ता शास्त्रतववज्ञ, ज्ञातसिद्धान्ठ, सुपण्डित | ताप दे० ( क्रि० ) सोचना, कसना, तम्वू तावना; डानना, फैडाना । ताप तव्‌ (4० ) [ वए+घन््‌्‌ ] सनन्‍्ताप, बच्णता। ब्वाचा, मन की पीदा, दुखार [-अनझ (पु०) बच्य जनक, कु शकर, पीडादायक | तापक ठत्‌» ( वि० ) ठापकत्तों, ठापईने वाला, दुःख दायी, दु लदातठा। ( पु ) ज्वर, बार । तांपन जज भप-->-_++#त+मत्--त_.8हतहन्‍त...क्‍8म-न्न || तापन वव॒« (एु०) [ चप्‌ + खिचू + अचरू ] तप काण तपाया, जबाना, शोकयुक्त द्वोना, पीड़क, सूये, कामदेव के पचि बाणों में से एक, सू्यकान्तमणि, मदार, ढोल बाजा; पएृक्त नरझू, झत्रु के पीड़ा पहुँ- चाने वाला तान्त्रिक प्रयोग । चापला दे० ( क्रि० ) घमाना, रामाना, दे सेंकचा, श्राग के पास बैठना, फूंफना, इड़ाना, चरबाद करना | - तापतिद्ली दे ( खो० ) छ्ोहा, पिलद्दी रोग, पेट का रोग, रोग विशेष | ॥ तापख तत्‌० ( पु० ) तपल्‍वी, योगी, तपश्वरणकर्त्ता, तपस्या करने वाला ।---तरू इच्पुदीकृछ्, एक प्रकार का बुक, जिसके फल्न से तेल मिकलता है, घगला। तापद्दीन तत्‌० ( वि० ) उष्णतारद्वित, पीड़ारद्ित | तापिच्छु तव॒* (१०) बृदविशेष,श्याम तमाल का पेड़ । तादित तत्‌* ( बि० )दुःखित, तापथुक्त । तापी तत्‌* ( स्वो०) एक नदी का साम्र, यह नदी विन्ध्य पर्वत के दक्षिण की और है और अपने नाम से प्रसिद्ध है। तापीय दे० ( ६० ) सोनामाजखी, औपधविशेष् । तापूस तदू० ( छु० ) तमाछपत्न, तेजपात । ताप्य तत० (४० ) धातुमाज्षिक, सोनाभाखी, तापीय | ताफवा दे० (ए०) एक प्रकार का रेशमी कपड़ा, जिप्ले चूपर्छाह भी कहते हैं। [निरन्तर । ताबड़तोड़ दे० ( अ० ) एऋ पर एक, क्षग्रातार, सतत, ताये ( गु० ) बशीभूत, श्रधीन, आज्ञाकारी दा (वि० ) सेवक, नौकर (--दारी (ख्त्री०) नौकरी, चाकरी, झ्धीनता । लाम ( ४० ) ऐव, चिकार, घंबड़ाहड, छू श, ग्लानि, ढरावना, दैरान, कूद । [हुआ घाद् । - तामचीनी वदू० ( ख्री० ) घातुविशेष, तात्रा मिला तामजॉम ( खी० ) पक प्रकार की पालकी । "तामड़ा दढे० ( छु० ) ताँवे के रह का एक सखि। तामरखस तत्‌० ( पु ) कमर, पश्म, ताक, लाम्र, सोना, खुबर्णे, घबरा, सारख |... [ का पौधा! चामलकी तदु ० (ख्री०) भूमिका, अरविला, णुक प्रकार तामलिध्ली तदू० ( खी० ) ताअ्नलिप्ती, एक नगर का नाम; मो दु्धिण बदल में है, तामलूक । ( रेश६ ) तामदाद तामस तद्‌* (लि० ) तामसिक, तमोशुणयुक्त, मद, जड़, हुए, खछ ! (३० ) कोध, श्रदझ्ार, तमोशुण | तामसिकर तव्‌० ( थु० ) तासस, तमेशुण का कार्य, तमेगुणयुक्त, धर्सविदर्जित कृत्य, तमेशुणी/ताससी | तामसी तत्व» ( ख्री० ) निशा, रात्रि, काछरात्रि, दुर्ग, जटासासी | ( गुर ) क्रोधी, भआाछूसी, तमोगुणी, रिप्तहा, कापी, केपन स्वभाववात्ञा | तामह दे० ( क्र० ) तृन्न, डस्लसें, उस मध्य में, उस . थीच में! [धातुविशेष [ तामा तदू० ( पु० ) ताञ्न, ततावा। स्वतास प्रसिद्ध तामिल्न तद्‌० ( छ० ) देशविशेष । तामिस (9० ) सन्‍्धशारसमय नरक विशेष, क्रोध, द्वेष, डाद, श्रविद्याविशेष ! तामेसरी ( स््री० ) ताँत्रि के रंस का एक रंग । तामील दे० (पु० ) सम्पादन करना, श्राज्ाचुसार काम कर देना, मालिक की प्राज्ञा का पालन करना, देश बिशेश | तामीली दे" ( ख्ी० ) सरपादन, भ्राज्ञापालन, ग्राशा पालन करने वाले को जे दिया जाता है। अदा* छठ के चपरासियें का सम्मन तामीकू करने के लिये वादी और प्रतियादी पक्ष से जो सिक्षता है, अथवा वे स्वयं दबाव डाजकर ले लेते हैं | देश भाषा विशेष, वासीक देश की भाषा । तामेश्यर, वाम्रेश्धर तत्‌« (प०) श्रापधविशेष, अपने नाम से असिद्ध श्रषध, ताँबरे का भस्म । तास्वूल् तत्‌० ( धु० ) नागरबेऊ का पा, पान। ताम्वूल्वी तत्‌० ( 9० ) ताम्बूज् की लता, चागरबेक । ताम्वूलिक चत्‌० ( घ० ) तमेकली, पान वेचने चाढा | ताम्र तत्‌० (घु० ) धातुद्वष्यविशेष, चंबा ।--कर (9० ) कपेरा, ठढेरा, ताबे का ब्यापार करने बाला (--कुठ ( ए० ) तम्बाह का पौधा ।-नार्भे (पु० ) दतिया, नीक्षाथोया, ता इनसे निकाला ज्ञाता है ।--चूड (३०) कुष्छुद घरगा, कुकरोंघा --पत्र (पु०) सवा का बना पत्न, पदले लिस पर राजाज्ञा लिखी जाती थी।-बर्ण ( बि०) सौँवे के रंय का ( छु० ) शरीर का यम, सीलेंगन लासक द्वीप । छामदाद्‌ ( स्ली० ) देखे तादाद 4 तायफा € इई० ) तारा वननीन---ननननीन+--मिनिननननननाा-॑नननननीननऊ-+-रीनी नमन ननानी नमन नननन नमी न नी नी तदद3६ह.थथन न ड 5:55 - 386 ला _+++ै _शायफा ० (०) नतेडी सम्प्रदायशरग्डियों का समूह चेश्या, पेश्यासमरंदाय 4 ताया तदु५ (१०) बाय चाचा, पिता का बडा माई। (किए ) तपाया हुआ, गर्म किया हुधा। लोहे आदि घातुओे का खिद्ा हुआ सूत, धातु करा चाय ।-वाॉधता [चा? ) छगातार जारी रफना, किसी छाप के बगातार करना, ताँता चाँच देना ।-टुटला (37०) अक्ग होना, छुट जाना, यद्‌ दोना । तारक तत्‌० (५० ) मन्प्रविशेष, उद्धारकर्ता भन्त्र, रासतारऋ मन्त्र, तारक, सितारा, नक्षत्र, भास की घुतली, तारक एक वास का नाम, देवशत्ु । तारकासुर ने तपस्या से वह्या का प्रश्न करठे दो वर पाये थे । पदक घर यह था कि इस स॑जरर में इप्तसे बलवान दूसभ कोई उत्पन्न न हो, और दूसरा दर यद यह कि सदादेब के पुत्र से दी बह मारा ज्ञाद | ब्रह्मा का वर पाकर बह दवताओं है। दु ख दैने लगा । देवताश्ों के कष्ट फ्री सीमा न रही | उसका वध साघन करने के लिये देव ताधों ने प्रयक्ष करना आरम्भ किया। सद्दादेव के पुन्च शप्पन्न होने क$ दिये देवताओं ने पड़यस्त रखा | क्‍योंकि येगिराज महाँदँव विवाह करता ही नहों चाहते थे | ग्रतएुद उन ढोमों ने छामदेव के इसका भार सौंपा | कामदेद जाकर मद्ारेव की फ्रोधामि में मष्म हो गया। इससे देवता्थों के कष्ट की सीमा मे रही! द्विमादितनया प्रावंती शिदर को प्रतिवाण करने के लिये व दियों श्सी पर्वत पर तपस्या कर रही थीं। घेर शपस्पा करने के अनन्‍्तर महादेव प्रसध्ष हुए और इनसे विवाह किया | उसे गे थे कारिंक्रेय उत्पन्न हुए।द्ेवताशों ने इनका अपना छेनापति बनाया । युद्ध में इन्दोंने तारक्सुर के मार डाक । (२) इन्द्र का शत्रु राचस, इसने इस्र के पढ़ा ढष्ट दिया, इख दिप्णु की राय में गये, विष्णु मे मपुंसक का रूप घारण करझे इप्ते मार दाता | दे तारकारि तत* ( 5० ) [ हाररू + भरि ] सपऋासुर का हाप्रु कासिकय, स्वामिकार्तिक, पडानन | तारकी तत्‌० ( वि० ) तारझ्युक्त, त्तारामदित । तासकूट तद॒० ( पु० ) तान्नहूट, रूपा, पीवढ | तास्क्रेश्वर दव० (पु७ ) सदाशिच, मद्दारेव/ इस नाम का दीयंविशेष । तारटूडना दे* ( क्रि० ) टिक्की बढाना, काशवार नष्ट दै। जाना, प्रवेश बन्द होना, सुटावा देकर अपने चश में छापे हुए का घिटक जाना | तारण तव० (६० ] [ह+पिच्‌ + भवद |] उद्घा- रण, पारकरण, पार उतारना, #द्घार करना -वरण ( घु० ) पार करने बात, उद्धार करने बाद्धा, ध्वय उद्धार होने वाला । तारणा दे० ( क्रि० ) पार शरमा, उद्धार करना, श्राय; करना, उवारता । [करसप्र की पत्नी । तारणी ( स्ली* ) याज और उपपाज को मावाऔर तारणीय वव* ( १० ) [8+खिचू + अनीय_] ताएण करने येग्य, रद्धारणीय, उद्धार करने येग्य, पार करने योग्य! है ताय्तणइल तव० (३०९) सफेद श्वार । तारतस्थ तत5 ( १० ) न्यूनाधिवय, सामान्य प्रेमेद, दो पदार्थों में पृ की अधिकता और दूसरे की न्यूनता, थोढा बहुत मेद । तारतोड़ दे० (पु) कारचोदी विशेष, ९६ प्रझर का सोने छे तागें का काम,वृटेकारी,घृढ/ निकालने का काम । तारन ठद्‌ 5 ( १० ) तारने व'छ्ा, ऊद्ार है तारना दे* ( क्रि० ) झद्वार करना, खाना, पार करना, मुक्त करता | [ फटा दृटा। तारपतार दे० (वि०) तिनरवितर, दिद्यमिश्न, तारपीन ( $० ) चीढ़ छ्कद्ी का तेल | तारढप तत्‌० ( घु० ) दववःक, चएढता | | तारा तद॒« (द्री०) सितारा, नदत्र, भस्ों की पुठक्षी। (१) कप्रिताम वालि डी स्री, यह सपेए तामझ कपितज की कन्या और अन्न फ्री सातांयी। वालि के मारे जाने के प्रनस्तर इसने सुप्रोद को अपना पत्चि दनाया या। यह पहुकस्याओों में है मिनेका प्रात समर्थ करना शाख्चकारों ने बताया है। (२ ) दर मद्ाविा के भन्तात पुक विधा) बह काली का दूसरा रूर है, इनका भाकाए--काफी के समा ते न्टीं-परस्त हामी मसयकूर है। ताराबाई. * इनका वर्ण नीछ है, जीस लम्बी श्रैरर छपछपाती , हुई है, पाँच मस्तक जिन पर अद्धंचन्द्र हैं, चीन आंखें हैं, चार हाथ और व्याघ इनका वाहन है | ( दे ) देवपुरु बृबस्पति की स्त्री, चन्द्रमा इ-की सुन्द (वा पर सेदिन हे'कर एक दिन इनझेो हर ले गये, बुदस्पति से चन्द्रमा का भ्रत्याचार देवताश्रों से कह सुनाया, देवता और ऋषियें ने तारा के दे देने के (लगे चन्द्रमा से कहा, परन्तु चन्द्वमा ने किसी का कहना! नहीं सुना। यह देख रुद्र वृहत्पति की श्रेर से लड़ने के लिये अम्ठुव हुए | बह्मा ने बात॑ का श्रच्रिक बढ़ते देख चन्द्रमा को समा बुझा कर उनसे तारा दि उवा दी, इस समय तारा के थे था, वृःसति न सर निकाल कर अबने पास आन का श्रजुरोध किया, तारा ने उस गर्भ का सरपत पर मिकालू कर रख दिया | उस लड़के का नाम रक्खा गया दुस्युसुत्तम, परस्तु जब चन्द्रमा को यह मालूम हुआ के मेरे औरस से उसकी * शापत्ति हुई है, त्तव चन्द्रमा ने उसे ले लिया, और इसका नाम 'छकखा बुध । भाग्य। (क्रि० ) तार दिया; उद्धार किया (--गण--(8०) वक्तत्र समुदाय, नक्षत्रों का समूड़ |--पति (5०) चन्द्रमा, बुहस्पत्ति, वालि ।--पथथ (पु०) आकाश, गगन मण्डक्ष,. नभेमण्डल ।-पीछ (9० ) चन्द्र, अन्द्रमा, विधु, निशाकर (--मगडल (छु० ) नधत्र मण्डल, नजचन्नरसमुदाय । तायबाई दे० (स्त्री०) प्रसिद्ध सीसादिया और एथ्वीराज की घीर पत्नी ? यह सैालझ्टी राज्ाराव सूरतान की कन्या थी । ताशाबाई के पिता पितामह आदि जोड़ा में राज्य करते थे | पुक बार छायछा नामक अफृग़्ान ने इन पर चढ़ाई छी, सूरतान चर्डा छे भाग कर राजपूताना आरावल्‍ली के पादू-देशस्थ बेदमैर में आकर रहने हूगे ! उस समय ताराबाई युवती थीं, युद्ध के साज्ञ में रहना उन्हें बहुत अधिक अच्छा मालूम द्वोसा था । ध्वकी प्रतिज्ञा थी कि जे मुसलमानों से खेड़ा का उद्धार करेगा इसी से मैं श्रपना विवाह करूँगी । सेवाड़ के राजा राजमल के पुत्र पृथ्वीराज फेर इन्होंने अपना पति चनाया। पुर: इस दुम्पति मे राजपूत सेचा लेकर खे।ड़ा पर ( २६१ 2 : ताल चढ़ाई की और उल पर अपना अधिकार फैला लिया | एथ्वीगज प्रभुराय की विश्वासघानकता से सारे गये, उन्हीं के साथ वीरबाल्ा ताराबाई का भी अन्त हे। गया | (२ ) असिद्ध महाराष्ट्र वीर शिभजी की पुन्नवंघू और राजाभम की पत्नी | १७०० ई० सें पत्ति की रूत्यु होने पर सिंदगढ़ पर औरज्ञज्ंव की सेना की चढ़ाई रेहन के लिये ताराचाई ने योद्धाओं का वेप घारण कर लड़ाई की थी | तीन बरस तक छगा- तार लड़ाई होने के बादु सिंडगढ़ शओरब्जज़ेब के अधिकार में आया था, किल्तु ज्येह्ही औरमजेब वर्हा से लौटा त्योंहीं ताराबाई ने सिंढगढ़ के अपने अधिकार में कर लिया | मरहर्ों के अनेक युद्ध और राजनीति से त़ाराबाई की बिनरुण छुद्धिमत्ता का परित्य मिठ्ता है | १७९३ ई० में ताराबाई ने परल्ेेाक यात्रा की | [राजे की पुत्तली । तारिका लत्‌० ( स्त्री० ) तालीरस, ताड़ी, ( तदू० ) वारिणी तट» (स््री० ) दश मद्दाविधा में दूसरी सदा- विद्या, उद्धारकत्रीं, उद्धार करन वाली €्त्री । तारी दे० ( स्प्री० ) ताड़ी, धादकब्॒न्य, तार का बना हुआ | तेल मापने का बर्तन जिसमें पाँच सेर तेल आता है | तारीख दे० (सत्र ०) दिवल, दिन, तिथि | तारीफ दे० (स्त्री०) प्रशंसा, स्त॒ु्ति, स्तच, परिचय | तारुणय तत्‌० (घु०) यावन, यैावनावस्था, जवानी । दाद तद्‌० (पु०) ताखु, तालू । सारे गिनना दे० ( वा० ) नींद न श्राना, निठलले बैढे रहना,निकम्सा रहना । [न्यायशास्त्री,तके शास्त्रश । ताकिक तत्‌० ( पु० ) तककंशास्त्रवेत्ता, नैयायिक, ताल तत्‌" ( पु० ) हस्तिल, तालीशपन्न, दुर्गा का सिंहासन, तालाब, गान का परिमाण, ताली बन्चाने का शब्द, त्ाड़ का पेड़, खजूर का पेड़, माँघ या हि पर हथेली मार कर किया हुआ),शब्द,मजीरा,चश्मे का एक ताल, बित्ता, सद्वादेव, पोखरा |-छूठा (घु०) ऊामे बजाकर भगवदू भजन करने वाला +-क्रेतु ( घु० ) ताढ़ के चिन्ह वाली ध्वज्ा वाले भीष्म, बलराम |--खजूही (स्त्री ०) दृत्तविशेष,दृ पहरिया बृक्ष ।-+मारना--ठे|करना (चा०) युद्धार्थ क्राद्याव ड्वा० प्‌०-+४६ तालक करना चेष्टा विशेष से महयुद्ध करने के लिए बुद्धाना, एक मुजा के जोड़ कर दूसरे हाथ से उसे ठोंकना । --ध्यज्ञ (पु०) बलराम,श्रीकृष्ण के बडे भाई |-- पत्नी; मूलिक्ना (खी०) भौषधविशेष, सूसली (-- चून्त (पु) पंछा, तालपन्न निर्मित पंखा, व्यज्ञन, बेना, बेनिया ।--दुन्‍्तक ( पु० ) पंखा, ब्यजन । तालक दे* ( पु० ) भागल, विकली, सिटकिनी । तानमखाना दे० (४०) खनाम प्रसिद पैधा, फ़छ । ताल्नव्य तत्‌० ( पु० ) तालू के द्वारा बच्चारित वर्ण, तालुजात [ इ, ई, च, चू, ज, के, ज, य, श ]। ताला दे० (पु०) द्वार बन्द करने की कल्न, द्वार का अवरोधक यनन्‍, बडा तालाब | तालाडु तद* ( घु० ) बल्देव, दहघर, आरा, पुक साग, शुभ लच्णो घाला पुरुष, पुस्तक, मद्दादेव | ताली दे* (स्त्री ०) चाभमी, कुझ्ी , ताला बन्द करने की चाभी, देने। दाथ बजाने का शब्द, थपेरी, ताझू बृद्ध विशेष, ताडी, भुसज्ञी, अरहर |--एक हाथ से वजाना (वा० ) श्रनहदानी दात, भसम्मद | “थधज्ञाना, मारना ( घा० ) हाथ पर हाथ पट- कना। ठट्ठा करना, ठट्ठाका सारना, परिदयास करना, धृतकारना, दुतकारना, घिक्कारना | [अध्ययन । तालीम दे० ( पु० ) शिक्षा, सिसरावन, उपदेश, ताल्तीस तद्‌० ( पु० ) शृचविशेष | तान्लु या तालू तत्‌० (पु०) त्तारू, मुँद्ठ छे ऊपर का भाग, मूरद्धां, तालुभ्ा, ताल, तालबूच | तालेबर (गरु०) घनी, दैलतमन्द, मालदार | ताव तद॒ु० ( पु० ) ताप, सन्वाप, क्रोध, पुंढठ, अकड़ अकढन, तमक, बल, शक्ति, सामध्ये, कागज का तठस्ता, परख, परीक्षा, उतावछ्ली, शीमता, इढ- यही ।--देना ( क्रि० ) मरोहना, ऐंडना, बटना, बल देना, मूँछे। पर हाप रखकर अपनी शक्ति बतलाना, 'चारशनी बनाना।--पेंचखाना ( वा० ) गरम द्वोना, क्रोधित होना | [अवधियाची अच्यव | तावतू ठत्‌5 ( श्न० ) तब तक, वा तक, इतना तझ, तावना तदू० ( क्ि० ) सपराना, गरम करना, गरम करके खराई सोटाई की जाँद करना, ताव देना, परछना, कसना, जाँचना, दल देना, भभदढ्ाना, मरोइना, ऐंटना । ( इई२ ) तिखरा ताव भाव दे० (३० ) मौछझा, अवसर । (वि० ) हलकासा, जरासा | तावर ( स््री० ) बुसार, जलन, ज्वर | तावरो ( बु० ) घाम्र, दाइ, गर्मी, घढककर, मूर्दों, घब्ड़ाहट | तावल ( ख्वी० ) उत्तावलापन, हृडयड्ी । तावान ( घ० ) सजा, दण्ड, डॉट । तावीज्ञ दे० (४० ) धढझ्गारविशेष, गण्डा, यन्य्र | तास, तांश दे* (पु०) गजी फा, बूटेदार पढ,|एक प्रकार का खेल छेलने के लिये कई प्रह्नार के चित्रित पत्ते, सीने का ढोरा | तासा, ताशा दे० ( पु० ) वाद्यविशेष, ए% प्रकार का देशी बाजा । तासीर ( स्री० ) गुण, पसर, प्रभाव । ताछु दे० ( सवं० ) की, उसका, तत्सस्वन्धी, तिसका | तासें दे० ( सचे० ) उससे | ताहम (भ्रव्य०) तामी, फ़िर भी, तथ भी, तिसपर भी । ताहि या ताही दे ( सबे० ) उसको, इसे, तिसको । ताहिरी दे० (स््री० ) भोननविशेष, पुक प्रकार का भोजन, पीले चवित्ठ और यरी | शिय । तिरुतिक दे० ( ० ) गाड़ी आदि के बैछ चढ्षाने का तिऊुरी ढे० ( खी० ) तिहाई, तीसरा, एक प्रकार का यन्त्र जिससे यज्ञोपवीत का सूत बटा ज्ञाता हैं। तिकानिया तद्‌« ( वि० ) त्रिकोण, तीन कोय का पदाधे, तिखूँ रा । तिकका दे० ( इ० ) माँस का छोटा दुकड़ा तिक्त तव* (० ) [ ठिज + क्त ] रसविशेष, तीतरस, तीखा, चिरायता, तिक्तरसयुक्त, त्तीता, कदडभा, चरफ्श। प्रिचपापढ़ा, सुगन्‍्ध, कुटन, बरय बृष्ध | “-तयइुला ( ख्वी० ) पिष्पक्ती, पीपछ +चघक्रा (ख्री० ) कुटकी ! तिक्तक तद॒० (9०). पदोछ़, पवा, जिविक्त, चिटायता, काछा क॒त्या, ईदूगुदी, नीम, कुटब । तिक्तका तत॒० (ख्त्री० ) कडतुम्बी, चिरपेटटा । तिखरा दे० ( वि० ) तिदारा, तिद्दारा, तिद्दरा, तीन- येत |--फरना ( क्रि० ) तीन बार खेन को जोतना, ठीन यार स्वीझार करना । तिखारना € हेढरे ) तिमि तिखारना दे० ( क्रि० ) दो बार जोते हुए खेत के तिथ तत्‌० ( 8० ) आय, कामदेव, काल, चर्षा ऋतु | जोतना, किसी वात की सत्यता जाचने के लिये | तिथितत्‌० ( स्त्री० ) अतिपदा आदि पन्द्धद चन्द्रका सीन बार पूछुचा; परखना । [ लिहरा | तिगुत यो तिग़ुना तदू०(वि०) श्रियुण, तिन गुना, तिग्म तत॒० ( बि० ) [ तिज्‌+म ] चीक्षण, उच्र, खर. कह, पैना, तेज्ञ | ( ० ) दच्च, पीपर, पुरुवंशीय एक चत्निय | [ भाजु, दिवाकर | तिर्मांशु ठतद० ( घु० ) [ तिग्म + अंश ] दूये, रवि, तिघरा ( पु० ) मठकी, दूध दही रखने का वतन | तिज्ञारत ( स्त्री० ) ब्यापार, उद्योग, ब्यचल्लाय | तिच्छुन तदू ( गु० ) चीक्षण, लेन, कठार | 'पिजारी दे० (स्त्री० ) श्रन्तरिया, कम्पज्वर, तीसरे दिन आनेवाला ज्वर | तिजिल तव्‌० ( १० ) [ तिज् + इल ]चन्द्रमा,राषस। तिड़ी विड़ी दे” (दि० ) तितर बितर, छितराया हुश्ला । [ इकदा । तिण॒का तदू० ( घु० ) दुण, घास, तिनक्षा, घास का तितच दे० ( अर० ) तन्न, तहाँ, तहीं । सितना दे० ( क्रि० बि० ) उतना, परिमाणवाची [ तितरबितर दे” ( ० ) छिल्नमित्न, इधर उधर, छितरा हुआ। तितरी दे० ( ज्जी० ) ) कीटविशेष, लघुक्ीट, रंगविरद्र तिलल्ला दे० ( खी० ) / पर वाछा क्ीठ । तितारी दे० ( स्त्री० ) तीन तार की,दीन घृत्र वाली, तीम ताल वाली ![छमावान्‌, घैप्नंवान्‌, घीरतायुक्त | तिठित्तक तस्‌० ( ० ) सडनशीछ, सहिष्णु, घम्ी, तितिज्ञा तद्‌० ( स्त्री० ) घेर, धीरज, चमा, सहच- शीलता | [तितिक्षरछ | तितिह्तु तच० ( पु० ) [ ठिज्‌ + सच्‌+ड ] सहिष्ण, 'तितिम्बा, वितिस्मा दे? (पु० ) शटक, घोखा, धाचल, दम्भ, अचुकरण, अ्रवशिष्ठंश, परिशिष्ट । वितोपु तव्‌० ( स्त्री० ) तरने की इच्छा। तितपूं तद० (ग्ु० ) [तृ+सन््‌+उ | तससखेच्छुक, तरना चाहने बाला ! तिते ( छ० ) तितने, डतने । तितेक ( स्वी० ) इतने, उतना | दिते ( छ॒० ) इतना | तित्तिर दव्‌० ( छु० ) तीवर पछ्छी, पछी, पद्कीविशेष | की क्रिया, चन्द्रकला का उतराव, घटाव, पश्चुदश चन्द्रकला से युक्त काल, दिन,हिन्दु्मों की तारीख़। +पत्र ( ४० ) पश्चाज्ष, जन्‍्त्री, पन्ना ।--क्षंय ( घु० ) तिथि की हानि । [ त्तीन द्वार हों, बैठक । तिदरा दे० ( पु० ) तीन द्वार का दाछान, घर जिसमें विद्रों दे० (स्त्री ) तीन द्वार का छोटा घर, छोटी चैठछ, छुतरी । [ ओर । तिघर दे० ( सर्वे० ) इस स्थान पर, उस स्थाल की विधारा दे” (७० ) प्रौधाविशेष, तीन घारे का सञ्म, त्रिवेणी, तीन घारा वाढा | छिन या दिन्द दे० ( सबवे० ) तिल” का बहुबचन “उन, वे लोग । ( छु० ) तिनका | सिनकना दे० ( क्रि० ) करछाचा, विगड़ना, चिढ़ना । तिनका दे० ( घु० ) खर, डॉठी, घास का हुकड़ा, चुण +-दाँतों में लेना ( वा) शरण जाने की एक मुद्रा, अधीन छोना, जी का दान माँगना, अपराध छमा करना । तिनगना ( क्रि०) विगड़ना, कुद्धदेना,मक्लाना,रूवना । तिस्तिड तत्‌० ( स्त्री० ) इसली, कचिया । तिन्द्‌ चद० ( छ० ) वृक्त और फल विशेष। तिन्दुक तत्‌० ( ३० ) तमालवुष्ष, तेंदुबा । तिन्दुका तव॒० ( स्री० ) औषधविशेष, पीपर | तिन्नी दे० ( ख्री० ) पुक प्रकार का चावकू, जो फछा- हार में गिना जाता और ऋषिपश्वमी के दिन खाया जाता हैं । तिपाई दे० ( स््री० ) तीन पाये की चौकी, दिकदी । तिपैरा दे* (छ० ) बढ़ा रूप जिस पर सीन घाट हों, तीन चरसों के एक साथ चलाने के हो। तिवारा दे० ( ए० ) तीन देर, खीखरी बार, सीन ह्वार का घर या काठा | तिवासी दे० ( वि० ) तीन दिन छा रखा हुआ। तिव्वत दे” ( पु०) देशविशेष, हिमालय के बत्तरस्थित पुक देश का लास । तलिमि तद्‌० ( पु०) शतयेजनविस्तृत मस्त्य, युद्दव्‌ मत्स्यविशेष | ( क्र० ) तिस स॑ति, तिल प्रकार, लिख तरह । तिमिद्विल ( रे$७ ) तिरोधायक तिमिद्विल तत० ( पु० ) रिमि सेभी बढ़ा मत्स्य, | तिरवेनी तदू० ( ख्री० ) बिवेणी । सुपुहत्‌ मछुची, एछ प्रकार का अ्रण्डज जीव | तिमिर तदु० ( वि० ) भोँगा, स्थिर, अचघुल, अचक | तत्‌० ( पु० ) अन्धधार, अधेग, ओअधियारा । - हर ( पु ) सूर्य, रवि चन्द्रमा, श्रग्नि । तिमिष ( पु० ) सफ़ेद झुँदढ़ा, ककद्ी, फूट । तिमी तद० (स्ली०)दछ की पुत्री कश्यप की स््री, मत्स्य विशेष | [ द्वीन रास्ते मिलते हों। सिपुहानी दे० ( स्त्री० ) चद स्थ'म जहाँ तीन नद्दी या तिय तिया दे० ( छी० ) छी, ये।पपिद्‌ नारी, श्रवला । तियतरा(गु०)तीन छदकियों के बाद उत्पन्न हुआ पुत्र । तियला (४० ) स्ियों के वख्र।...[ काने की वस्तु। तिरकोना तद॒० ( वि० ) ब्रिछाण, तीन बानिया, तीन ट्रिखा तदु० ( स्री० ) पिपासा, प्यास । [का अ्रस्त्र । तिरपू टी ३० (स्थ्री०) त्रिध्चाण अस्प्रविशेष, तीन कोने विरछ्छा तद॒० ( वि० ) ठेढ़ा, वका, बक --देखना कनसियों से देखडा, तिरद्छी चितवन से देखना | निरद्धाना तदु० ( क्रि०) टेढ़ा करना, वॉँका करना, इठी ला द्ोना, हुठ करना । तिरल्ली तद्‌० ( बि० ) टेढ़ी, वॉकी मिरहो हैं दे० ( क्रि० बि० ) तिरद्ापन या बडझाप्रन लिये हुए | [ बूंद करके टपश्ना | निग्निराना दे ( क्रि० ) रिसाना, मिर छिराना, दूँद तिग्ना दे" ( क्रि० ) तैरना, इतगना, पैरना, देना | तिरपद तदु» ( पु० ) ) तिपाई, तीन पैर की ऊंची तिग्पदी रद्‌* (स्त्री०) चैकी । तिरपदा 'ग॒ु वि०) वेचाताना,मेंगा | ।अधिकझ पचास | तिरफन दे० ( बि० ) पचास और सीन, १३, सीन तिस्पाई दे० ( स्ली० ) *खे तिरफद । तिरपाज़ दे* (पु) रोगन लगा हुप्रा कनपस जो मेद के पानी से बचाने के छिपे भ्रतान या अन्य वस्तु घे भरे यारों पर रेलवे स्टेशनों वर डाला जाता है । ठिग्पी क्या दे० ( पु ) छिहद्वार, राज्मडल का वह द्वार जिपमें तीन पौरें हों अर हो घनुष रे भारार का बना हु हो तिरफला तदु* (धु*) प्रिफरटा, तीन फ्ल का समुदाय |* झंवटा, हर और वहढा, सीन फट, तीन फठ की हरी तिरभड्डा दे० ( वि* ) टेढ़ामेढ़ा, ऊमदखाभढ, तिरदा, बाँछा । [ नाम ! तिरमड्री तदू* (६० ) छन्दविशेष, श्रीकृष्ण का पुक तिरमिरा तद॒० ( पु ) नेत्र में उत्पन्न एक प्रकार का रोग ज्ञों शारीरिक निर्वक्षता से डपन्न द्वोता है, चकाचौंघ । तिरमिराना (क्रिब्) दृष्टि छा उजेत्ने में न ठहरगा, औरघना, चघियाना तिरस तत्‌० ( बि० ) टेढ़ापन से, घकना से | तिरसठ दे० (वि०) साठ तीन, ६३,त्तीन झधिक साठ | तिरस्कार तत्‌० ( धु० ) निन्‍दा, अ्रवमान, भ्रपमान, अप्रतिष्ठा ॥ छिवा। तिग्स्कृत ततव० ( वि० ) अपमानित, निन्दित, अब तिरस्क्रिया तव्‌० (स्त्री०) अनादर, भप्रतिष्टा, भवहेशा, पढहगावा, भ्राच्छादन ! विरहुत या तिरहुति दे ( घु० ) देश विशेष, विहार का एक प्रान्त, सियिन्रा देश | है; तिराना दे० (क्रि०) तैरना, पार द्वोना, पैस्‍ना, छाम होना । [अ्रधिक नग्बे । तिरानवे दे ( वि० ) नब्ये और तीन, 8४३, तीन तिराव दे० (३०) पैताव, हेलाद, थाई तरने येग्य । तिरासी दे (यु०) अस्मी वीन,८३,तीन ्रधिक अस्पी ! तिराद्दा दे० ( पु ) तिरमुद्दानी । तिगिया दे* ( स्त्री ) स्त्री, नारी, छुगाई, कामिनी, येपित्‌ ।+--चरिध्र ( पु ) स्त्रियों का छठ प्रस्छ, स्त्री का मक्कर | (इब्छ हिरोविरी दे० ( अ० ) सिनरवितर, धिश्वमिश्न उपछ- विरेंदा दे० (घु० ) यंसी के कांटे के छू सात अंगुठ ऊपर देंधी छकड़ी जो पानी की सतद पर तैरा करती ह अर जिसझे टूबने से किपी मधज्ञी के फंस ज्ञाने का बोध होता है| समुद्र में हघली जगद या जब के मीतर चट्टान के बतकाने को जो पीचे चोडई आते ईं, उन्‍हें मी ४ तरेंद्रा ” कहते हैं। बिरोधान तद॒० ( दु० ) [ विसकघा कक पनट़ ] अम्तद्धोंन, लुकान, दिपाव, दकाव, स्थदघात, आच्छादन | तिरोधायक उद० ( घु०) झाड़ू करने दाल ! तिरोभाव तिरोभाव तत० ( घु० ) अद्शन, अन्तर्द्धांन | पिरोभूत तव ० ( वि० ) अद्दष्ट, गुप्त छिपा हुआ । तिगेद्दित ( वि० ) [ तिरस्‌ +घा +क्त ] अन्तहिंत, गुप्त, आच्छादित । ' तिसोंक्रा (यु० ) तिरदा । तिमिय दे० (० ) चघ्चल, अस्थिर, वष्णता से ब्याकुछ, उद्दिझ्चित्त | तिमेराना दे० ( क्रि० ) कूठना, लद्वकना, चींघियाना, व्याकुरता से द्वाथ पैर घुनना, पानी पर त्तेज़ की बूँदों का फैलना । तिर्मिरी दे० ( स्री० ) चकर, घुकड़ी, भैवर । तिर्यकू चत्‌० (थि० ) विग्स्‌+अच्‌ + छिप्‌ ] टेढ़ा, बाका, तिरछा वक्त, कुटिल, प्राणिविशेष +--पति (घ०) सिंद, शादूंल ।--स्लोता ( घ० ) पशु पत्ती आदि, ब्रह्मा का आउवा सर्ग |--येनि ( छु० ) पशु पक्षी आदि । तिहुंत दे० ( घु० ) प्रान्तविशेष, बिहार का प्रास्त, मिथिल्ला, तिरहुत | तित्व तत्‌० ( पु०) मत्थ्य विशेष, स्वनाम असिद्ध श्रन्ञ- विशेष, शरीर का चिन्ह,काले काले शरीर के दाग, श्रत्यल्प, चहुत थोड़ा कुछ (१०) तिल की मिठरदे, तिछ की बनाई घुक प्रकार की मिठाई । --चट्ठा (०) कोट विशेष, तैलपा, ,तैलचोरिका। +-चायत्ती (ख्ी०) मिला हुआ तिछ और चावल, पुक प्रकार का चबेना, काली और श्चेत्त वस्तुओं का मिटाव - चूरी (सत्री०) तिछकुटड, सोदुक विशेष, कुटा हुँश्रा तिल |--लैल (पु० ) तिल का सेक्ष +--घेस्चु ( ख्री० ) तिछ की बनी हुई गाय, ले! दान करने के लिये प्रायः माघ सद्दीने में बनाई ज्ञाती है |--पणी (ख्री० ५ चन्दन । -पिद्य (३० ) तिल का पद्योड़ --पिएक (०) ढिल ; की बत्ती, निछ का उबटन | - वर( घु० ) पढ्ि- विशेष ।--भेद ( 8०) पेस्त का पौधा, पोस्त का बिरवा [ विल्लक वत्त० 6 घु० ) रीका, चन्दन आदि का मस्तक- स्थित चिन्ह, पुष्पवृक्त विशेष, शरीरस्थ तिल, अभ्व- सेद, रोगभेद, राज्यामिषेक, गद्दी, सगाई की रस्म, सूपण, एुस्तकों की ध्यास्या | ( वि० ) श्रेष्ठ, प्रधान, ( रेह४ ) ल्जिहा मुख्य, यह शब्द विशेण शब्दों के श्रन्त में 'आनेखे उनडी उत्कृष्टठा--अधिकता बतलाता हैं ' यथधा+-- “रघुकुलतिलूक सदा छुम सथपन घापन | +-+जानकीमन्जल । तिल्कमुदा ( पु० ) टीका तथा भगवदु श्रायुर्थों पा चिन्ह । ४ तिलमिलाना ( क्रि० ) चौंघियाना । तिलडुग दे० ( पु० ) सिपाही, सैनिक, पैजआदेश से रहने वाले कहते हैं सब से पहले अ्रद्नरेजी घेना में तैलक देश के ही वासी भर्ती किये गये थे, इसी कारण अड्जरेज़ी सैनिकों का नाम ही तिलड्ा दो गया। तिल्लड़ी दे० ( स्त्री० ) गुट्ढी, पतन, चहा । तिलड़ा, तिलरा दे० ( घु० ) तिनलरा हार, सीन छर का हार | ( स्त्री० ) तिल्री | तिलचा दे० ( पु० ) तिलों का छुड्छू । तिलस्म (8० ) जादू, चमत्कार, करामात नी ( गु० ) जादू का, तिलस्म सम्बन्धी | तलहिन दे० ( 9० ) तेल्न के बीजों (जैसे तिल, सरसों तीखी आदि ) की फसल । तिलद्दा दे” ( वि० ) तेल के समान चिकना, तेल में पका या बसा, चिक्रण, तेलिया, तेली । तिल्ला दे० (७० ) सेना. पणड़ी का छेरर, जिसमें सेने के तागें का कम किया होता है, नपुंसकता दूर करने के किसे एक तेक्ष विशेष | तिलाई दे० ( ख्री० ) लानइला, छेटी कड़ादी । तितलाक ( खत्री० ) देखो तलाक | | तिलाझलि तत्‌० (खी०) रतक संस्कार का पुक कार्य विशेष, तिल सद्दित जल की अजक्ि जे म्हत पुरुष ।.. क्षेनाम से दी जाती है --देना (वा०) तिल भर सी सदन्ध न रखना, सम्पूर्शतया त्याग देना | तिल्लावा ( घु० ) बढ़ा कप जिसपर तीन धृरवट चल्ते |. । शेंद, पहरेदार का गश्त | ह | तिलिया दे० ( पु० ) विष विशेष, सरपत । तिल्नी दे० (श्ली०) चिल्ल. जिसका फुल्ते ढ़ बनाया जाता है। तिल्ल॒वा दे० ( छ० ) तिल का लड्छू, तिल का बना लड्डू । [ पण्हुकी । तिलेहा दे* (पु० ) पद्षि विशेष, घुधूधू, पण्डुक तिलोचमा तिलोत्तमा तव्‌० ( द्ी० )स्वगें की अज्जना, देवाक्नना, स्वर्गीय भ्रष्पता | पहले दुत्ययान द्विरण्यक्शिपु के चश में निकृस्म नामक एक दैत्य उत्पन्न हुआ था | इसझे सुम्द और उपसुन्द नामक दो पुत्र थे। इन दोनों ने ब्रिलेक जीतने की इच्छा से कठोर तपस्या की, म्रद्मा ने इन्हें दर दिया कि बत्रिलेक में कोई भी तुम छोगों के मार नहीं सझ्ेगा, दाँ यदि तुम लोग किसी कारण आपस में विवाद कंठोगे, तभी तुम दोनों की परस्पर के श्राधाद से खृत्यु होगी। चतर क्या था, वे उद्भव करने छगे, देवता उनके भ्रत्या- चार से भ्रत्यस्त पीडित हुए | मिक्ककर समी देवता, बच्मा के पास यये, बह्मा न विश्वकर्मा को घुछाया और खाक सुन्दरी रमणी की सृष्टि काने के लिये उधसे कद्या, उम्हेंने संसार के सभी बत्तम पदार्थों से तिक तिल संप्रद करके ए% रमणी की सृष्टि की, जिपका नाम तिलछोत्तमा रखा गया। ब्रह्मा की श्राज्ञा से वह सुन्द उपसुन्द के समीप गई । उसके देख उस अखुरों के हृदय में आप डी भाप विवाइनत्र मडक उठा | वे तिलोचमा के लिये भ्रापस में छदने छंगरे और भापस दी में कट मर गये । यही तिलोत्तमा दुर्वासा के शाप से थाणासुर के यहाँ उत्पन्न हुई थी। तिलोंफ (६० ) तीनब्ोझ, प्रिकोझ्ध मे (४० ) छुम्द विशेष जिसमें २१ मात्राएं होते हैं। तिलोद्‌क तद्‌० [तिछ + डद॒क] तिल और जब मित्ञा- कर तपंण, पितरों का सर्प॑ण,, पिठृतपंण । तिलौदन 5३० ( ६५० ) [विज्ञ+-चोदन ] मिला इच्चा लि भर ओदन, फिचडी, कृशराक्ष | तिलोंदुना ( क्रि० ) ते ल्याकर चिहनाना | तिलोंदा ( वि ) तेलिया रंग या स्वाद वाढा | तिल्ली तद्‌" ( स्त्री० ) पिछट्ठी, छीद्दा, तिछ नाम का अन्न, याँस विशेष | तिथांरा तद्‌" (१० ) दिंदरी, प्रियुणित, तीसरे घार । तियारी, तिषाड़ी तद्‌ « (६०) ब्रिपादी, प्रिवेदी | तिधासो देन € गु० ) तीन दिन का चासी । लिप तदू० ( स्त्री० ) दृषा, तृष्णा, पिपासा, प्यास | तिछना तदु्‌* ( क्रि३ )5ट्वरना, स्थिर होना, दिराजना, छड़ा होना, गति शून्य होना । डे ( ३६६ ) तीकद अंक । ( वि० ) ठइरा हुथा, बैठा हुआ । तिष्य तदू« ( पु० ) [ ठिप्‌+यथ ] पुष्यनद्धन्न, आठवां नप्तन्र, पौस सास, कलियुग, कक्याणकारी | तिसका दे ( सर्व० ) उप्तका, विस्का, तिदारा ! तिसराय ( क्वि० वि ) तीसरी बार । तिसरायत दे (धु० ) वादी और प्रतिवादी से दूधरा, मध्यस्थ, मध्यवर्ती, ददासीन, विचदई । तिसरेत दे० (छु०) दो रगड़ने घालों पे एयर तीसरा, तटस्थ, मध्यस्थ, तीसरे सांग का अधिकारी । तिखूत दे ( प० ) श्रौषध विशेष । तिदत्तर दे” ( बि० ) सत्ता बौर तीव, ७३, तीन और सच्तर। [ त्रिगुणित, तिगुना । तिदरा दे* (धु० ) तिबढ़ा, तीनलद्ढा ।( वि* ) तिद॒राना दे० (क्रि०) तिदरा करता, तीन बार बदन, तीन बार बहू देना, प्रिगुय करना, तीन तह करना | [ काम, तिददरा घना । तिदद॒रावद दे० ( स्त्री* ) तिगुनाव, तिथुना करने का तिदरी देन ( वि० ) त्तीन तह की । तिदरे दे" ( सई« ) तिढारे, तुम्हारा । तिद॒वार तद्‌० ( पु० ) द्योदार, पं) उत्सव । तिददबारी तदु५ ( स्त्ी० ) त्योद्वार के दिन का नेथ जे! क्मीन ज्योगों को दिया जाता है। तिद्दाई दे० ( स्री० ) तीसरा द्विस्पा, तीसरा भाष | तिद्दायत दे० ( घु० ) त्तीरा, डदासीन, मध्यस्थ, पत्चपात रहित । तिद्दारो दे* ( स्री5) तुम्हारी, दुम्दारे सरवन्ध की । तिद्दारे देन ( ५० ) हम्दारे, छुम्दारे सम्बन्ध का । तिद्दारी दे ( पु० ) हुम्दारा, तुम्दारे सम्बन्ध का । तिड दे० ( बि* ) तीनों, तीन [--घुर ( ४० ) ब्रिषुए, दैश्ये! का पुक प्रघान नंगा, हुस लगर का सोश महादेंद ने क्रिया था ।--लोंक ( पु ) प्रिलेक, सीनों खाक, पाताछ, मत्ये और स्व ! तिदेया दे० ( घु० ) इतीयांश, विप्तरा भाग । सो त्दू० ( स्वी० ) खी. पत्नी, अमरावक्ती, नलिनी, मनोदरण छन्द का नाम | तीघन रदु० ( ख्री०) शाक,सावी । [ पिछछा मांग तसीकट दे* (थु० ) नित्म्व, पश्चाइेश, कटे का तौक्ष्ण तीकुण तत्‌० ( वि०) तेज्ञ, त्तीला, पैना, चेखा, क्रोधी, गरस प्रकृत्ति, तीता, कहुवा, उत्साही, सिप्रकारी, चतुर, दत्त, अचीण, निषुण, ( पु० ) विष, लौह, युद्ध, सरण, शस्त्र, समुद्र का नोच, यवक्षार, शवेतकुछझ, तीक्षययण, यथा: -अश्केषा, आदी, म्पेए्ठट, सूत्र | ( बि० ) निरालख, सुबुद्धि, येगी ।--ऋशण॒ लक ( घु० ) धतूरा, वसूल, इंगदी. करीर (--कन्द (धु० ) प्याज, पलाण्ड -हर्मोा ( ६० ) निपुण,दच्ठ,चतुर, कुशल [--ता (स्त्री०) चेज, उद्वणा, प्रखर्ता +--दृछ्ू ( छु० ) शादूल, ज्याघ, बाघ +--जुद्धि तत्‌*० ( वि० ) बुद्धिमान, कुशाग्र चुद्धि चाढा | तोक्णा तत्‌० ( स्त्री० ) तारादेंदी का एक नाम, जोंक, सिच, साक्षकंगनी, रूता विशेष, छु्थ विशेष, बच, केंयाच | [ घारदार । तीखा ततव्‌० (वि० ) तीक्षण, चेखा, पैना, तेज़, तीस तद्‌० ( स्व्री० ) सूक्ष्मस्तर, पतला शब्द तीखुर दे० ( पु० ) इक्त विशेष का सत्त, श्राठा विशेष, फलाहार विशेष, अ्रारूद । तीछन तदू० ( बि० ) तीक्ष्ण, तेज़, घारदार, चेला; पैना, अत्यन्त पैची घारधाऊा ।--ता ( स्त्री०) तीक्ष्णता | [ रूखी, खरी | तीछी दे० ( क्ली० ) तीखी, तीक्ष्य, पैनी, चोखी, दीछे दे" (गु० ) देखे तीक्षय । तीज दे" ( स्तवी० ) तृतीया, तीसरी तिथि, भादों सुदी तीज, विवाह के पीछे की एक रलम । तीजा बे4 ( बि० ) तीसरा; सृतीय,वीसर । झुसकतमानों के यदाँ का सखतक के तीखरे दिन का कसे । तीजिया (स््री०) श्रावण शुक्ल दृतीया का पे, व्योदार विशेष, छोदी तीज ! तीज दे० ( वि० ) तीक्षरा, सीसरे | त्तीत दे ( वि० ) तीखा, कडुआ, तीर, सीता | तीतर दे० ( घु० ) तिद्चिर, पक्षिविशेष ।--के सुँदद में लक्ष्मी ( वा० -) अयेग्य सद्बस, जो जिस कास के येष्य चढीं है इस पर बढ काम सौपना। --के मुंद् में कुशतल्तन ( वा०) अयेग्य के काम से अपनी रहा की आशा, जो जिप्तके लिये सर्वेधा अयेप्य है उससे आ्राशा रखना | | ( इई७ ) त्तीण सीतरी दे० ( स्त्री० ) पक्षी विशेष, तितल्ली, पतम् पतिडय, चित्रित पहचाल्छा कीट | तीता सद॒ु० (थविं० ) चरपरा, कछुआ, कहु, चम, गीछा | दे० ( घु० ) ऊसर भूमि, ठेंकी या रहट का अगला हिस्सा, ममीरे के पेढ़ का पुक नाम । तोन दे० ( यु» ) संख्या विशेष, जि, ३।--कात्त तत्‌० ( घु०) त्तीर्मों काल, भूत, भविष्य, चर्तमान | +-तेरह ( ग्रु० ) तितर वितर,डार्वाडोल,छिटफूट, छित्नमिन्न, दुल का नाश, समृद्द अंश | दीनी ( स्वी० ) तिन्नी का चावकछ एक घान विशेष । तीमारदारी ( स्त्री० ) बीमारदारी,वीमारों की दहलछ | तीय दे० ( ख्ी० ) श्रवला, स्त्री, नारी, यधा:--- सबवैया-- “दीय पद्दारवि पास न जाहु यों, तीय चहाहुर सो कह सोपे ! कौन बचैहे नवाब तुम्हें, भने सूयन सोसिला भूप के रोपे ॥ बन्दि कियो ह॒र्दँ साइसर्खा, जसवन्त से भाव करक्ष ले दोपे । सिंह सिवाजी के वीरन से, हे जो श्रमीरनि वीचि गुनिजन घोषे ।” +शिवराज् भूपण | तीयल दे० (छ्ली० ) स्त्रियों के पहनने के तिन कपड़े । तीयन दे० ( घु० ) तरकारी विशेष, एक प्रकार की बनी हुईं तरकारी | ( स्री० ) तिय का धहुचचन | तीर तव॒ु० (9० ) नदी का किनाग, तद, छुछ, बाण, सर, समीप, निकट, पास |-झूथ ( ७० ) तीर" स्थित, तटघ्थित, त्तीर एर का, किनारे पर का। --न्दाज्ञ (3०) तीर चलाने वाला, निशाने बात | +न्‍्दाज्ञी (स्री ०) तीर चलाने की क्रिया,धन्ुप विद्या | त्तीरथ तद्‌० ( घु० ) तीर्थ, देवयान्ना, देव दर्शनाथे यात्रा, चरणोदक ।--पति, राऊ, राजू ( छ० ) प्रयाग छेन्न, सब ती्थों का राखा, प्याग | यथाः--- # चट विश्वास अचल निज धर्मा, तीरथधराज्ञु प्रयाग सुकर्मा ।?--रामायण । तीस दे० ( ३० ) देखे तीर ! तीण तत्‌*० (ग्ु०) [ठु+क्त] वक्तीणें, पारद्नत, पार हुआ । तोर्थ ( ४६८ ) तुकाराम जीत न ता कक्‍कनक्‍न-प्++33_ 3 <>::>तन न>ण:ओ:ओ:ड 5 ससससअक्‍अब री तार्थ वत्‌ ( पु० ) शास्त्र, अ्रध्वर, क्षेत्र, पुययस्थान, उपाय, नारीरज्न अवतार, घाट, ऋषि सेवित जन, पाये, वरतन, उपाध्याय, उपदेशक, येनि, दर्शन, विप्र, प्रागम निदान, सैनन्‍्यासियों की उपाधि विशेष, ब्राह्मण का दृद्दिना कान [ दद्विन हाय के अंगूठे का ऊपरी माय बद्धाताथे, अगूडे और तजनी का मध्य माथ पितृतीव॑ तथा कनिष्ठ का निवला सांग प्रजापत्यनीय एवं ढगलियों का अ्रग्रमाग देवनीथे कद्ठा जाता हैं। ] चरणास्टव, यज्ञ, मस्त्र, भप्नि, ईस्वा, साता-पिता, अ्रतिथि। >ड्भर (५० ) जैनियों के चौदीस घर्माचाणे अपदा धदतार '--्र्माक्त ( पु० ) तीर्घऋआक, तीथ में रहने वाले का प्रकृति के मनुष्य, मिध्या यात्रिक, श्रद्धामक्ति ह्ीन त्ीयेवात्री |--पर्यटन (३०) वीर्पश्रमण--पाद्‌ तद॒० (9० ) विष्णु पादीय तत्‌« ( घु० ) ध्ीवैष्णव यात्रा तत्‌० (६ स्त्री० ) प्रविद्न स्थानों का सस्‍्नानादि तथा दुर्शनार्थे यात्रा परण्यस्थानों का घूमबा ।रात्न (4० ) तीर्थाधिप, तीर्यस्वामी, महातीर्ष प्रधाग ।--सेदी ( वि० ) पुययक्षेत्र में वास करने बाते, वानभस्पाश्रमी । त्तोर्थिक तव० ( पु० ) पण्डा, बैद्धधमेद्दे थो ग्ाद्षाण । तील्ली हे ( स्त्री० ) तूली, सलाई, पिश्डली । तीवर दे० ( पु० ) वर्णसड्ुर जाति विशेष, वद्देल्षिया, घ्याघ, समुद, मउुचा। तीघ्र तत्‌* ( वि० ) अधिक देन, कट, बडुच्रा, प्रखर, नितास्त, दु,सड्, प्रचण्ड | ( पु० ) लोदा, नदी का तट, शिव [--क्रयुठ तत्‌० ( पु० ) सूपन, जमी- कन्द, ओल [-+गन्धा (स्थ्री० ) जवाईन, अज- चाइत ।--वेदुता ( स्प्री० ) अत्यन्त अधिक कष्ट, मदाययातना | [ ठीन दशा, पीड़ा । तीस दे* ( वि० ) संख्या विशेष, बोस और दशा, तीसरा दे० ( क्रि*) तृदोय, तीसर | तीसाँ (पु) रनतीस के याद का ] तीसी दे* (स्थरी० ) भच्च विशेष, आराठसी, झऋतसी, अत्सी, पसीना, ( वि० ) सीस संख्या से परिमित | ठुच् ( सर्व ) ठघ, तुम्दारा । छुझना ( फ्रि० ) चूना, दपकना, गिर पढ़ना । तुअर दे* ( पु० ) श्स्दर, भाढकी । तुई ( सर्वे» ) व. वही, चुम्दी । तुरू दे? ( ५९ ) "द कह्ढी, छन्द, भाग, यमक,समार पद की योजना, यपा--निदागी, ततिद्दारी भ्रादि। चौपाई त्रादि के श्रन्त में जिस प्रकार के पद॑ रखे जाते हैं | -- दुग्ग पर दुग्य जीते सरजा सिधांजी गाजी, टग्ग माचे दुग्ग पर रडमुड फरके। मूपन मनत वाजे जिते जीत नगारे भाएे सारे कर नादी मूप सिंघल पते सरके । मारे सुति सुमट पनारे इदुभट ठाडे, तारे ढगे भिर्न सितारे गजघर के । गोक्षकुण्दा घी(न के डीजापुर बीरन के, दिल्‍ली दर मीरन के दाम घे दरके। ++ सिवाबाबती ! --बन्दी (स्त्री ) कविता विशेष, जिसमें समाद पद हों, मद्दी कविता । तुकला दे० ( पु ) कीट विरोष, घोदी पतक्, तुकत्ती ( स्त्री० ) ] द्वोटी गुड्डी । तुकास्त तद« (स्त्री* ) धस्तयाजुप्रास, पुकरसदी, काफिया वन्‍्दी । तुफाजी द्वाज्कर दे? ( ४० ) जगप प्रसिद्ध मद्दागनी अदइल्यायाई के सेनापति, अद्ृक्याबाई का इने पर बढ़ा दी स्नेद था, दसी स्नेह का फत् स्वरूप राज" प्रतिष्ठा सूचक “ होलकर! की उपाधि मद्दारानी अद््यादाई ने इन्हें दी थी । तुकाराम दे० ( ५०) एक महाराष्ट्र साथ, १११८ हू ० में घूता के समीपस्थ दहुक मामक प्राम में इनझा हन्‍्म छुआ था| यह जाति के शुद्ध थे तथापि दह्षिण देश के सभी श्रेणी के छोग इनहा भादर करते थे । १४ घर्ष की अवस्था में इनका विवाह हुआ यथा, परन्तु वात्यकाल ही से इनकी प्रवृत्ति घमम की धार मुझी हुईं थी । २० वर्ष की अवस्था में इनक पिता औए माता परक्षे्ध्वासी हुए, इसी समय इनझे बडे भाई भी विरक्त द्वोइर घर सं धल्चे यये | सैयोगदर्श इसी समय दढिय देश में ध्रकाज मी पड़ा टुता था इन्हीं सब घटनाओं से तुका- राम ने संसार का यथार्थ स्वरूप देख बिया। तुकड़ ( डेह६ ) ठुछुल उन्दहीने संसार छोड़ भजन करना ही अपने लिये उत्तम कार्य विचार लिया। इनकी बनाई कविता का नास अभज्ञ' दै। आठ हज़ार से भी अधिक इनकी बनाई कविता हैं | इनकी कवित्ता दक्िण देश में आदर की वस्तु समझी जाती हे। पएुक समय चन्रपति शिवा जी इनसे डपदेश लेने शयगे थे और उपदेश लेकर थे वन में जाकर तपस्या करने कमे। उन्होंने सेसार चिन्ता बिल्कुल द्ोड़ दी। यह देख शिवाजी ही माता ने तुकारास के यह समाचार सुनाया । घुनः तुझाराम ने उन्हें लात्विक उपदेश देकर शिवाजी के कार्य में छग्राया ! घुकाराम फी हऋत्यु का समय प्रायः अनिश्चित है, तथापि अज्ुमान किया जाता है कि संबत३६१९३ में उन्हेंनने परलोक यात्रा की । सुक्कड़ (५० ) तुशुबंदी करने वाह, अपड कवि | कविता के नियमों के विहद्ध कविता करने बाला। ठुक्कल दे० (५५) बढ़ी पतन्न, बड़ी ग्रद्टी । तुक्का दे" ( पु० ) बॉस के डुकड़े, सुढ़ा घाए, भोचर- तीर, पहाड़ी, छोटा पवेत । हु ( छ० ) चेकर; भूसी, छिलका । तुगा तत्‌० ( स्री० ) छुगातीरी, वंशलेचवच ।--क्ञीरी -घंशी ( ख्री० ) पंशलेचन | तुड् तच० ( पु० ) पच्नागबूक्ष, पर्वत, बुध, सारि- केछ, येए प्ेद | ( दि० ) उधत, उच्च, ऊध्वें, अघपन, उप, तीआ ता (स््री० ) उच्चता, सद्त्ता “--भद्वा (सत्री०) दक्षिण देश की पसिद्ध बदी, मैसूर प्रान्त की एक लदी का नाम | न्क्ष (9९ ) नारियल का पेड़ | घुच्छु उत्‌० (वि०) अल्प, थेड़ा, बहुत थोड़ा, श्रवज्ञात्त, तिरस्कृत,हैय,नी च, हीन, अधम्त निठछा निकम्मा । “+क्षाव ( 9० ) देयज्ञान, अनादुर, अम्तात्यता [ +-ता (स््रा०) श्रवज्ञा, देयता,नीचता, अधघम्तता । ्-छुम ( पु० ) नीच छू, एरण्ड चूच | तुस् ( सबे० ) छम । सुस्हे ( स्वे० ) तुमकेा । छुड तत्‌० ( छ० ) संप्राप्र, युद्ध, रण। - छुड़ाना दे० (क्रि०) बैल आदि पशुओं का पगहा चोड़ कर भागना, रुपया भरुनाना, मूल्य घटचाना । छुय्ड तत्‌» ( इ० ) सुख, बदन, चोंच, जैर । छुतठरा (ला) दे० (वि० ) अस्पष्ट उच्चारण करने वार, अग्क शअठक कर बोलने वाला, हकज्ञाकर बोछने चारा ॥ छुतशा ( त्ला ) ना दे ० (क्रि०) अस्प४ उच्चारण करना, अटठक अ्रटक कर बोलना | तठुतिया दे० ( स्री० ) तृतिया, बपधातु विशेष, विष विशेष, चुल्थ, नीलाधोथा | छ॒तुद्दी दे* ( ख्ो० ) बोगीदार छोटी घंदी । ठुत्थध तच्‌० ( 9० ) बूतिया, नीलाथे।था । धुन दे० ( घु० ) चक्ष विशेष, ननन्‍्दीहत्त । छुचकी दे० ( ख्री० ) पतल्ली प्‌क प्रकार की रोटी । तुनठुनाना दे० ( क्रि० ) सुद्ष्म स्वर से बजाना, सित्तार आदि बजाना । ठुन्दू लत» ( छु० ) जठर, पेट, बंदर +-परिसुज ( वि० ) अभ्रल्ूंस, आलखी, अकर्मा, पेट पर हाथ फेरते रहने वाला, मिकस्मा। - छुन्द्लि दत्‌० (बि०) चोरदेंक, क्षस्घोदार, बढ़ा पेटबाला, ढरूम्बे पेटथाला मनुष्य तुन्न दे (ए० ) घन छक्त विशेष |--वाय (ए०) दर्ज, खूचीकार, कपड़े सीने वाला । छुपक दे० ( ख्री० ) बन्दूकू, छोटा बन्दूकृ, पिस्तौल । छुपकिया दे० ( ख्री० ) छेटटी छुपक। ( छ० ) बन्दूकू चलाने वाला । ( आधी पानी | तुफान दे” (5० ) प्राघी, ऑंधड़, पानी, महड़े; तुम दे० ( सर्व०) मध्यम 9रुप का बहुबचच ।--तनों ( सर्चे० ) तुम्दारा, तुम्दारे, सम्बन्ध का ।--हि छुमका, आपके । छुमड़ी दे० ( स्वोौ० ) सेंपेरे की वंशी, एक प्रकार का थाना जिते सेंपेरे बनाते हैं | पुक्ली, साधुओं का का४ निम्मित्त जलूपात्र, सूक्षा कदूदू का पान्न | छुमरा ( स्व० ) छुम्दारा। घुमाई दे० ( स्री० ) छुनाई, चुसाने का पैसा, सुमाने की मजूरी । ठुमाना दे" ( क्रि०्) इनवाना, सुनवाया, रुई घुनाना | छुप्नुल्ल तच० ( घु० ) रण संकुल, सक्लीययुद्ध, अत्यन्त लेममहपंण युद्ध, घोर युद्ध, मधानक युद्ध, शोरगुक्ल, बहेड़े का इछ ! शाण० पाू३७---४७ हुग्बगी ( रेध० ) ५ शुरदृर तुर्यरो तवू० ( छो+ ) बीशा, बीता | तुर्मती दु० (स्थ्री० ) बाज, परद्ीविशेष, ऋर पच्ची। तुझा 4० ( १९ ) सूपा ल३ग्रा या छौझा, मिसडी | तुरहो दे० ( स्प्रो० ) पृद्ध प्रकार का बाजा जे। मुंड घे हुपडी साउ ले।ग बनाते ई तुम्पिक्ा तद» ( छ्वा० ) कदु ६. लाबू, लौसा | तुम्बिया तत्‌» ( छी० ) कमणडल, कावा | तुग्वी तव॒" ( खी० ) लौही, मदारी ही वशी | तुभ्युर तत्‌» ( १० ) बाद्य विरोप, तबुरा, तानफूत । तुम्युय तव्‌* (3९ ) पर्वई विरोप, स्वर्गगायक, मिनो- पसक विशेष, धनिदा [प्राप ही के । तुम्द दे? (सर्व) तुम, श्राप ।--रेहि दे० तुम्दारे ही, लुदई दे ( खो० ) वरछारी विशेष | लुक ठदू (पु) चुरु, देश विशेष, उस दश के ब'सी मुफक्मान हें । ज्ञाति विशेप,ने। तुरकद)स में रहती है, तुरक देशवासी | हुप्टदा (१० ) मुपत्न॒मात। ययन, स्जेच्छ | तुरझान ( पु० ) मुपर्सानों के रहने का स्थान न (पु७ ) तुझे के रहने की जगह। ( बि० ) तुझे सम्बन्धी । तुरकानी या तुरहिन (स्प्री०) तु की स्त्री या तु की भाश तु में उतद्न दोने वाणी वन्‍्तु । (बि०) हु जैसी । तहुए्ग तव्‌* ( पु) लुक, भश्व थे टक, घेदय चित्त, सन, प्रन्‍्त ऋण ।--ग्रह्मचर्य (पु+) न मिडने के कारण खीध्याग ]-नराही (० ) अखारेडी, घाइसरर, घुःसवार [ पुड्क्क्ा घुन्‍सनाए। छुग्मी तव्‌० ( स्वी० ) घोटो, क्रव्वगस्वा। (9५ ) तुरदू तद० (६० ) | भ्रथ्व, घोडा, जादी चलने ल॒ग्दूप तर (ए०) ) बाएा, चित्त | ः छुरद्वाइा का ( यो ) अपन कोष, अखघन्‍्ध, अश्वगन्धा | तुरत, तुएत दै* (श्र० ) ही शीघ्र, खरित, वर्ण, ऋ/पद, जरुरी, भरी साप ही,इपी दम, तरशाल, जऱदरी से तरत हरे, शीत दी, अति शीघ्र ड्डी, शरिव, ऋषपर ) सुर्पन दै* ( स्त्री० ) शा, टॉप, सिराई, तगाई ठाग्ा चढाना, पु प्रचार का दडोटा राधा कोतावा | घुरपना देब ( कि ) सीता, टाझना, टाहझया चढाना | बजाते हैं, रणसिगा, साधुषों के बनाने की तुरही । तुग ( >न्रो* ) शीयता, स्वगा, जरदी । ६ पु० ) भे।डा, मन, चित, शीक्षगामी । ठुराई दे० ( ख्ली० ) तांसइ, गद्दा | (वि) रशा, बेगा । छुतना दे* ( क्रि० ) छूट ज्ञाना, छुड्ाला, वक्ष श्रादि पशुर्गों का बन्‍्धन तोडकर सागना, घशाना। आतुर हे।ना [ तुगपाट दत5 ( १० ) देशाज, इन्छ, छुटेद्े । | तुर्यि ३० ( पु ) घेश, भव्य । तुरों तत्‌* (स्त्रो०) कपड़ा विनने का उप्क्मण विशेष, त्न्त्रकाष्ट, चितेशा, ताती की कछुची, भारी, छायाम, वाव फूर्रों का गुप्छा, सोती की लड़का का मर्द, तुरदी । ( पु० ) सवार, अश्वागेद्ी। तुरीय दव्‌* (वि० ) चहुर्य ध्रवस्था, चौथा, आर संएया के। पू/णय करन चात्री संरवा (पु०) धद्या, श्रश्ार से प्राप्त चेदबता का आधार, अरयुप्रस्थित, चैतन्य, मुक्तावस्था | (खी०) एड भ्रवस्था, भीव ही प्रवस्‍्या विशेष ।--धर्ण ( पु० ) चैयाबर्ण, श्र, भ्रव ब्ण ।ाध्रम (३०) चहुर्ष चराध्म, दौवा आश्रम, सैन्यास अ्राश्रप् । (उसी [ तुध्क तद० ( १० ) तुरुफ, सवन्‍्माव, हुक्किछानका तुखदना दे० ( कि० ) दल्ले। तुर्वता तुरुम द० ( १० ) रैकड५ रिछाउ, बेरो, पादरन्‍्धिनी रज्जू पैर इधित की रासी । तुरुष्स तन्‍० ( पु ) देश विरोध, तुदु४, तुर्कि्तात; मुरही देश, गन्ध द्वब्य विशेष, शिरामर, पूरे, खेबान, घुदसवार [ छे अनुर्प, अम्ब । तुर्झ (१० ) देखो तुर5 |--वाव (पु« ) तुई जाठि तठुकिन ( स्री० ) देंपे। तुरकिन । लुर्मों ( स्वरी० ) टर्सा, शुकिंस्तान । छुर्त दे ( भर*-) हन्त, तुप्त, शीत्र ।-फुर्य (गुण) पहुत ही शीब, बात की भात में हुर्तांच ३५ ( अर ) शीघ्र, धुरन्ठ, त॒ते । हुर्तो फुर्ती देन ( ४५ ) तुसनत, शीघ्र, शीघ्रता से । छुर्तुध दे+ ( शुन ) सतक, लादधान, चेगवात, तेग) प्रत्ता ॥ तुर्य हर (्‌ इ्छ्र्‌ > तुला छुर्रा देन ( पु०) कछयी, शेवी का फुँदना, चोटो किनारा, जटाघारी, केड़ा | छुल तद्‌* ( गु> ) तुल्य, सदश, समान, बराबर |] “+->कर खड़े होना ( वा० ) किसी काम के किये सैयार रहना । - तुलाना ( क्रि० ) रिलिपिलाना, लरमाना, नरम होना! हु ठुलना तद्‌? ( क्रि० ) जोखना, परिमाण करना, कूनमा, तौछना, सान करना | ( न्त्री० ) इृष्टान्त, साइश, उपभा, साहश्यश्यण, समीकरण, बराबरी करना, एक की दूसरे से समानशा, सचना, बँधना, भ्न्दाज़ होना, भरता, उतारू होता | तुल्ननो तबु० (स्त्री० ( तुला या तराजू की डंडी में खुई के दोनों ओर का ले।हवा । तुलजाई दे० (स्थ्री० ) तौछन की उजरत । छतुलचाना दे ( क्रि० ) भौल कराना [ छुलसिर्ता तव्‌० ( स्त्री० ) हरिश्यि, बन्द, तुचसी, पुक्क पव्रेत्र और पूजनीय देवर, इसके पतञ्न संग वान्‌ विष्णु की पूजा में काम आते हैं । घुलली तत्‌० ( स्त्री० ) तुलसिक्रा, हरिप्रिय, स्वनाम प्रसिद्ध देवबक्ष +-दृस्त तत्‌० (पु) वुच्सी की फुतभी, तुलसी की पत्तों । घुलसीदास तव्‌« ( 9० ) भारत के प्रसिद्ध भक्त कवि, यह सरयूगरी ब्राह्मण थे। यछुना के किनारे शाजापुर नामक गांव में ग्रह उत्यन्न हुए थे | हिल्दो भाषा सें इनहे बताये प्रसिद्र अत्य का नाम अज्चानव राषायण'! है। कहते हैं भगव'न्‌ श्रोराम- चत्द ने रामाएण बताने के लिये इनछे खनन में श्रादेश दिग्रा था । उनका दाशनिष्ठ सिद्धान्त विशिष्टद्वत था । रामानन्द स्वामी छे समान यह सी विशिष्टाद्वेत सिद्धान्त के प्रचारक थे | कदते हैं छुलसीदास बड़े दी सत्रीपायण थे | एप दि इनमेकी ख्री रल्ाबली श्रपते पिता के घर चलो सई । तुत्तरीदाप को जब पता जगा ते बढ देंगे दैशड़े अपने ध्वछुर के घर गये, उनकी स्त्री से सेंद हुई, स्त्री ने कहा क्ति इस उमेत्न शरीर मे जितनी तुम्दारी शजुरक्ति है, यदि उतनी राम में दह्ोवी ते। तुम्दारा सैश्षार-कष्ट छूट जाता । खो की इन बातों का चुलसीदास पर बढ़ा प्रमाव पड़ा, बढ़ उसी क्षण से संसार से विरक्त हे! गये | वह तीर्थग्रात्रा को निहझल्ले, काशी, मथुरा अयोध्या आदि श्रनेक्ष तीयों में बहुन -दिनों तक घूमते रहे अब ये अपनी स्त्री आदि को स्मरण नहीं काते थे | घूमते घ॒थतें संपाग वश एक दिन ये अपने श्वपुर के घर पहुँचे। उनकी चुद्ठा स्त्री इनका सत्कार करने लगी। ण्गेड़ी देर के बाद उसने अपनी पत्ति को पहचाना। स्त्री ने कहा-- खशाई छाऊं, सचुटसीदास ने कहा-कोरी में है, स्त्री ने कट्टा--रूपूर कारक सुससीदास ने फ्दा +मोरी में है ।यह सुनकर इनकी स्त्री ने कहा--मरढाराज जब सभी चस्तु आपरी मोरी में हैं, वर एक विद्वारी स्त्री का क्‍या अवध हैं ? छुनसीदास ने अब समझा कि इनझी स्त्री उनसे अधिक ज्ञानी है। मेली उन्हेोंगे उसी समय फेक दी ) सम्बर के राजा उनकी बड़ो सक्ति करते थे। बारछाण्ड तररामाग्रण की रचना तुटसीदाप्त से अयोध्या में दी थी, जब वहाँ के वरशॉगियों से कुड झगड़ा हो गया तब बइ चर से काशी थआा गये ओर घों इन्दोंने अपनी रामायण की पूर्ति की | तुलसीदास जिस स्थान पर रहते थे, चह आज-तझ भी तुलसीघाट के नाम से प्रसिद् है। इनछी परलोकपान्ना के विषय में यद दोहा प्रसिद्र है। “सेत्र्‌ लाग्ह सौ थली, ( १६८० ) थसी गयय के सीर भ्राव णशुर्च! सप्तमी, कु *सी तज्यों शरीर ३! तुज्ञा तव्‌» ( खी० ) ततएजू, तखरी, तौलने का साधन बराबरी, समान, डश्मा, सप्पराशि ।+-कैडि ( स्त्रो० ) तराजू, की ढंडी के दोनों किनारे, तैं।क विशेष, विछिआ, सूपुर, अरब की संज्या |--दान ( घु० ) दान विशेष, अपने शरी( के बराबर किसी चस्तु का दान ।-धार (६० ) काशीनिबासी एक घमेसरायय और वद्यातत्वज्ञ वशिक्‌, इससे महर्पि ज्ाजलि को मोदधघर्म का उपदेश दिपाया। ( ३) वराशणासी निवायी एक ब्यातघ, इसने सत्ता पिता की लेदा के प्रभाव से सन्नदक्षिता प्राप्त ही थी । सभी का जीयनचबुद्ान्त यद अनायास ही जान सकता था। छुलाना ठुलाना तदु० ( कि ) वैल्घाना, सौछ कराना, तुछा पर चढ़ाना | छ॒लित तव० (व्रि) हुडा इश्रा, तैल किया गया; चरावर, समान। [ बर्ती, बच्ी ! हुली ददू० ( स्री० ) तूलिक, चित्र बनाने की करूम; तुले दे” ( क्रि० ) तौला जा सब्े, ताला ज्ञाय ठुल्प तव० ( घु० ) समान, बराबर, संदश ।-ता ( ख्वी« ) समानता, बरावरी, समता [--यैगिता ( स्‍्त्री० ) अ्झ्टार विशेष | तुपर दे० ( पु० ) घरदर, अन्नविशेष, मिसध्ठी दाल होती है । तत्‌ू० ( वि० ) कमैला, श्मम्नद्दीन ! ठुवरी दे० ( स्वी० ) फिटकरी, चाषध विशेष । तुप तत्‌० ( पु० ) भुस, मूसी, चोकर, धान धादि का छिक्षका (--प्रद्द तत्‌० ( पृ०) अपनि । सुपानकज्ष तत० (पु० ) घास फूस की आग, मूसी की भाग | तुपार तद० ( घु० ) शीत, पाछा, द्विम, यफ़े । छुपित तव्‌० ( ध॒० ) शपदैवता विशेष, विष्णु । , छुए ततु० ( ग्॒ु० ) [मुप+क्त ] तप्त, हपिंत, प्रसप्त |--ना (क्रि०) प्रसन्न ह्वोना॥ [ प्रसत्तता । दृष्टि हव* ( स्त्री" ) [ हुए +फि ] सन्‍्तोष;ढप, तृप्ति तुसार तद्‌० ( पु० ) तुपार, द्विम, पात्या, बर्फ । छुसी ( स्वी० ) मूसी, चोकर [ तुद्दार ( सर्वे» ) तुर्दारा, तेरा। तुद्दि ( सर्वे० ) तुमको, सुककेा । सुद्िन तत्‌० ( पु० ) हुपार, तुसार, शवनम । सुद्दी दे* ( सवे ) सुमद्दी । ( स्थ्री० ) काकिए का शब्द, काइप की कूक ) [ सम्बोधन । तू दे० ( सर्वे०) मध्यम पुरुष का पुक बचन, मीच तूकारना दे० ( क्रि० ) अये तथे करना, अमिशाप दैना, गाढी देना, अपमानित करना, अनादर करने की इच्छा से दू तू कदना [ झोबा । सूठना दे* ( क्रि०) हप्त दोना, अफरना, अधाना, प्रससत सूट्ल्यों दे* (पुल) सम्तुष्ट,सन्वोष प्राप्ता.वृष्, दृष्णारदित | सूझ तदू० ( स्वी० ) सरकस, इृपुचि, विषज्ष, तथा | भाया, जिसमें घीर छोग छदाई के हूणीर तद्‌* ४ समय दाय रखकर पीद की ओर छटकाये रहते हैं। 4 हु ( उछर ) तूल तथा तदु० (०) सूखा लॉडी,कद्दू,साथु का जलपात्र विशेष ॥ दूतई दे० ( स्वी०) करई, करवा, मिद्दी का एक पक्रार का बर्तन, जिसमें टोटी छमी रदती है । तूतक दे० ( ख्री० ) तुश्य, नीला थोचा, तूतिया | तूतन दे० ( ३० ) फतरन, कटाकुटा, रेतन | तूतिया दे ( स्प्री० ) नीछायोषा | तूती दे० ( स््री० ) हुइदर्या, कनेरी नाम की पक चिड़िया । तूतू दै० ( ४० ) कुत्ते को बुछाने का शल्य, श्रनादर के साथ बुल्चाना । तूने करना दे० ( वा० ) कगढना, अ्रपसामित करना । तून दे० ( धु> ) पुर पेढ का नास, पूछ प्रकार की व्वकढी, जिसकी मेज कुर्सी भादि बनाई जाती है। ततरकस, भाया, बाण रखने का चैंथा । तूनना दे० ( क्रि० ) छुनना, तूमना । तूनीर ( प« ) देखे “तूणीर” । तूफान ( ३० ) श्रांघी चोर वर्षा का एक साथ होना। दंगा, मुसीदत । तूबर तत्‌० ( पु०) रसविशेष, कपाय, कसैज्ा । चूबरी दे० ( स्त्री० ) तुस्बी, तोदी। तूमतड़ाऊ ( स्त्री० ) बनावट, चटकमटक तडकभडक। सूमना दे+ ( क्रिः ) तूनना, रई धुनना, ध्ाथ से रई के। साफ करना, बिनौटा निकालना) घूमरी दे० ( स्त्री० ) कुम्मीर का कपाछ, मगर की खोपड़ी । दूमिया दे० (४० ) घनी हुई र्‌ई का सूत, रहे घुननेवाला । “5 सूज्ना दे” ( क्रि० ) द्वाथ से रुई सुधारना । तूरी दे० ( य॒० ) समान तुल्य॥ ( छी० ) धरही, एक बाजा | दु्णे दद्‌० ( वि० ) शीघ्र, झुरत, तुरन्त, वहुत जबदी) सूयें तद० ( धु० ) नगाड़ा, मेरी, दुन्दुमी, रणवाद विशेष । (वि ) चार की संख्या पूरण करने वाली संदया, छुरीय, चतुर्थ । दूल ठत« ( घ० ) विनौटा निकाणछी हुईं रुई, बीज रदवित रूपास, शथा, थाकाश; शदतूत, ग़दरे खाल रह का कपड़ा | ( वि० ) तुशुप, समाव ! ( दे? ) तूलनीय ( हेझ३ ) ३ ठ्ध्या श्रायोजन, तैयारी |--तचीत्म ( वा० ) छोटी वस्तु को बड़ी समझना, ससान्य वात के बड़ी समस्त कर उसके लिये बढ़ी तैयारियाँ करना । तूलनीय तत्‌० ( घ० ) कदम्बाइृछ, कदम का पेड़ ) तूलिनी तव्‌" ( छ० ) लक्ष्मणकन्द, रईवाला बक्त, सेमर का पेड़ । तूली तद्‌० ( स्त्री० ) नीछ का घूक्ष, तसवीर बनाने की कल्षस,एद्ध प्रकार की वालों की कृशस जिससे तित्न- कार सध्वीरों पर रहः चढ़ाते हैं। [मी कहते हैं | लूचर तत्‌० ( घु० ) राजपूतों की एक जाति, जिले तूबर तूष्णी था तृष्पीम्‌ तत्‌० ( बि०) मौन, चुप । सूख ( पु० ) भूसा, श्रुस॒ एक भकार की ऊन, पशसीना, चमदा | ( सु० ) करंजई रहा का । लूख ( छ० ) जायफल । तखा ( स््री० ) ठुपा, प्याख, छाछसा । , जुँएा बच (४० ) घास, खड़,खर, घासकृस, तिनका। --हुदी ( स्त्री० ) घास की बसी झोपड़ी, तणा- च्छादित लघु शुद्र (--शज (पु०) सारियक, चारि- यढ का पेढ़, ऊुख, त्तालश्ृ॒त्द --चत्‌ ( वि० )तण के समान, छघू, तुष्छ, साररदित, निकम्मा+ उठ्छछा । वृणचिन्दु तत० (३० ) ऋषिबिशेष, द्वापर के चेद्‌- ध्यासख, इन्द्ोंने २४ द्वापरशुयों में वेदों का विभाग किया था, अ्रतएव इनकी वेदव्यास्व की उपाधि मिली थी | तृणावर्त तच्‌० ( घु० ) दैत्यविशेष, कंस का अजुचर दानव | इसको श्रीकृष्ण का वध करने के लिये कंस मे ग्रोकुछ भेजा था,बवण्डल बस करके येह श्रीकृष्ण को लेकर ऊपर उढ़ गया, परन्तु श्रीकृष्ण बहुत भारी हो गये, इस कररण उनके चढ़ ले नहीं जा सका, और श्रीकृष्ण ने इसका गद्ठा पकढ़ू क्लिया ! श्रतएव यह भाग भरी नद्दीं सका, दानव पेहोश दो कर भूसि पर गिर पढ़ा और मर सया। तुणोद्क त्तत> (9० ) घास और परी, पछुझों का सेशन] हि तृतीय वच्‌० ( वि० ) चीसरा, तीस की पूर्तियाली संख्या ।--प्रकृति ( स्त्री० ) तीसरा, भकृति, स्त्री और पुरुष से विछत्तणा स्वभाव बाला, नपुंसक | चृत्तीया तब ( स्त्री०.) पक का त्तीसरा दिन, तीसरी विधि, गौरी इस तिथि की स्वामिनी हैं ।--न्त (वि०) | छृतीय + अन्त | जिसके श्रल्त में नुत्तोया विभक्ति के चिन्ह हो।।-नैश (ए० ) [ हततीय + ओश | वीसरा भाग, तीसरा हिस्सा । तुपति ( छ्ी० ) श्रसक्षता, तृप्ति । लुप्त तत० (बि० ) [ उपू+क्त | परितोषास्वित, सन्‍्तुष्ट, दर्षित, आप्यायित, प्रसन्न, हुए | तृप्ति हत्‌० ( स्त्री० ) [ ढपू+ का] छन्नियृत्ति, परितोष, श्राह्माद, सन्‍्तोष (---कऋर ( वि० ) सन्तोषजनक, तृप्ति करमे वाला ।--अनकू ( वि० ) तृप्तिकर, आह्वादननक । तृपुयड तद्‌० ( छु० ) श्रिपुषड, तिहूक विशेष, तीन घारी का बढ़ा सिलक, जैसा शैव लगाते हैं | ठृपुर तद्‌० ( घु० ) त्रिधुर एक दैत्य छे चगर फा भाम, ( देखो ज्िपुरारि ) । [( इसे शऔर बहेड़ा । तृफला तद्‌* ( स्न्नी० ) त्रिफला, तीव फ़लछ, भ्रविल्ा, तुवरिक्रम तदू० ( ० ) श्रिविक्रम, भगवाब का चामन अवतार, वामन [ [छ्वती का सप्तम | तृवेनी ततदू० ( स्त्री०) ज्रिचेणी, गला यमुना और सर- तृस्रुबन तद्‌० ( घु० ) ज्िश्ुवन, तीन लेक, त्रिकोक, सवगे, सत्य और पाचाल । [ ब्रिसार्ग । लूमुद्दानी दे? (स्त्री०) न्िमुदानी, तीन मार्गों का सेग, तुय दे० ( स्त्री० ) स्त्री, युवती, त्रिया | तुलोक ठतदू्‌० ( छु० ) त्रिलोक, चीन को | तुविध तदू० ( छु० ) त्रिविध, सीन ग्रछार का, तीन रहा का । [ निसेत । तृब्चूत्‌, तुब्बुला तच्‌० ( स्त्री०) औषध विशेष, निसोय, तुषा तल» ( स्त्री० ) [ तप+ शा ] छृष्णा, पीपास्ा, प्यास, चाह दरकार।--सें ( बि० ) [[ ठृपा + झाते ] पिपासा से पीड़ित, प्यास से व्याकुछ । तूपावन्त ददू० (जि०) प्यासा, पिपासित | चुषित तव्‌* (वि०) [व्‌ + को दृष्णायुक्त, पिपासित, व्ययता, अमिलापी, इच्छुक, क्ारूची। तृष्णा चत्‌० (स्त्रो०) [वप्‌ू + न + आए विपास्त, पीने की इच्छा, उत्कण्डध्भ्रत्यन्त अभिक्लाष,भ्धिक उत्छुता, लोलुपता, जोम [--द्वेय ( छु० ) छृपषा भिदृस्ति, पिपासा शान्ति,वासनानाश,क्तोलुपता की निद्त्ति! धो छतसड्ू ( २५४४ ) तेवरस तूसडू तद॒० ( इ० ) विशक घर सूर्यवशी राजा, राजा हरिश्नन्द्र के पिता ( देखो त्रिशड्डू ) तेज्ममान्‌ त्त्‌० ( वि० ) भतापी, तेजस्वी, चमत्कारी, वज्ची, चीय्येधान्‌। लूसूत तदू० ( पु० ) त्रिसूछ, मदादेव का मुख्य असर | | तेजवन्त तदू ० ( दि०) प्रवापी; चम्रह्ीछा, चमरफारी | सेंदेण ( ग्रा० ) पे; लेकर । तेंतालोस दे० ( वि०) चालीस और तीन, ४३, त्तीन अधिक चालीस | [ त्तीस | सेंदोप दे० (वि ) तीप ब्ैए तीन, ३३५ तीर अधिक सेंदुआ दे० ( प०) थाव, चीता, छोटा पाघ । तेंदू दे० ( पु० ) फठ चिलेप, बूढ़् और फठ | त्ते ( सर्प० ) थे, दे सद | सेऊ (सर० ) वे सर के सइ, ये भी | तेइस दे० (वि०) बीप तीत ३३, त्तीत अधिऊ बीस ) तेकाला दे+ (पु२) अ्रश्न विशेष, प्रिशूठ के आडार का एए श्री, मझूली पकुढने का यन्त्र । लेंग दे* ( घु० तलवार, त्तरवार, कृपाण | तेगबद्दादुर देन ( स्त्रो०) सिक्तयों का नर्वा गुर १६७१ ई० में चऔरफ़नेव की आज्ञा से इनका लिए काटा गया था। इनके पिता का नाम इसग्रोरिन्द था, पद सिर्सों के छठवें गुर थे । हतकी माता का साध नानडी था । सम्राट श्रेरड्मजे व ने इन्हें पर्ड कर दिल्ली मेंगवाया था। मुशक्ान होने के लिये सम्राट ने द दे बडे कष्ट दिये, प+न्‍्तु इन्हें।ने मुखक्न- मात हाना नचाद्ा। तेगददाद ने श्ररने गले में पक कागज का दुछड्ठा पंच कर सम्र/ट से कदा छि इमारे गल्ले में जो यस्त्र येंधा है, उसहे घमाव से ' करा सिर जुट जाता है। उसी समंप्र सम्राट ने सि/ करवा किया, पान्तु सिर न छुटा | उनझे गले से कागज पोस्ट कर देखा गया तो उसमें लिखा था कि “ सिर दिया, सर नहीं दिया? अर्धाव्‌ सिर तो दिया, परस्ठु मन की चातें नहों दीं | लेगा रे ( पु० ) तरुचार, खद्ठ | तेन्न तर (पु) सेजसू, प्रभाव, पराक्रर, प्रताप, भर्ष, चमक, प्रड्ाश, चीय॑, सोना, वित्त, गर्मा, मफक्बन, सउतरा, तीसरा तरद (श्रप्मि) किड्ठ शरीर । तेजपात दे" (पु ) तप का पत्ता, एक गरम मप्ताला, तमाह्पत्र । तेंश्॒वत्त तद्‌* (पु०) चै।पषध विशेष | तेजस व३० ( स्त्री० ) दी छे, ताप, प्रताप, प्रपरता« सीक्ष्शता, उम्रवा, वेग, बछ, चीये, स*वरता, परा> क्रम, तीसवा, प्रमाव, अप्नि, सुब्णें।.. [वुश्किरा तेन्नस्कर तत्‌» ( बि५ ) तेत बढ़ाने वाले पद/प, पृष्टई, तेज्रम्यिनों तत्‌* (स्प्रो+ ) मद्ाज्योत्ति'्मतगी, मद्दा अतापा न्चिता, ते ने।यु का, माहकगती | तेज्स्थ्री ततु+ (बि०) प्रतापान्िता, प्रमचताली, बेड बात, दीप्षिमानू | तेज्ञास्त ( स्व्री* ) ब्यापार, उद्यम, करोचार | तेज ( स्त्री5) उम्रता, प्रवन्ना | [प्रकाशस्वष्य । तेश्नामय तत्‌० ( गु) अप्निद्ठुन, ज्यो तर्मव प्रद्ाशपमय) तैतना ( गु+ ) झतवा, जितना । [साण का । लेता दे* ( बि० ) ताजब, तिनता, डा, डब परि तताला दे० ( पु ) तिमइला, तीव खद३ का संदान, दीन खण्ड की धटरी। तेताली प ( गुर ) संप्पा विरोष ४३। तेति तत्‌* [ ते+इति ] बस वे । सेतिक ( गु० ) उतना । , सेते तदु० ( सई० ) थे थे, जितने, उतने । तेतो दे० (दि० ) लितना, बतता | तेपचो दे ( छी० ) राछा, टोग । [क्शिपा सेमघन तब्‌० ( बि० ) आरा ध्रण, थ्रोदा, गी रा, ब्य मन तेरस दे० ( खी+ ) त्रवोदगी तिथि। [श्रधिहू देश | तेरद देन ( थि० ) दव तीन, १३ संध्या दिशोप, तोन तेख व दे० ( 4० ) तीसरा चप | ध तेल तदू* (4५ ) तैठ, तिद्र विचार, हिगध दृत्या * >चढ़ाना ( क्रि० ) ब्याह की एक रीति, दु रहा ओऔए दुरद्विन की रेड में इज्दी श्रा( ते र तगाना। तेलिन दे+ ( स्थी१ ) नेज्ी की ख्लो तेठ बेवने पराजी, चर्णसद्डू रं जति विशेर की स्त्री | तेजिया द० ( पु० ) पद रक् पिश्येप, तेल झा सा रह, विय विशेष [विटआर । , टैली दे+ ( पु० ) जाति विशेष, वर्यापहुर ज्ञाति, तेरर दे ( धु०) घूमरी, चक्र, विमिरी * तेवर दें ( प० ) तेशध, तीसरा यपे | हेवशाना ( रे७४ ) तिाइचाना तेवरावा दे ( क्रिक ) घ्रूपना, घूमरना, चक्का आना। तेरी दें० (खो) घुड दी, बमरढी, मिटकी, अखि कड़ी ऋरऊे घुड़कना ।-चढ़ाना (वा०) घुड़्कना, अंत दिखाना, सो उड़ाता, घनकाना। तेबच्नद्वार दे+ ) पु> ) पर्व, उत्सव, इछ'ह । तेयों द्रे० ( अ्र+ ) तैसा, ताइत, इन प्रकार, बेसा | हेचोंचा दे० ( बि० ) चूंचा, चू घला, लोॉधा, अन्घा, रात का अन्धा | [ अइड्डूगर । तेह दे० ( पु०) क्रोच, केप, मांफ, साहस, घमण्ड, तेहर दे० (स्त्री०) ज्िपों के पैर के पुक सदते का चान्न | तेंद्ठा दे० ( पु ) तेढ, को बे, कोप | तेही द्े० ( सर्व» ) उसछो, उसी शो | हें दे० ( क्रि० बि० ) ले ( सर्ब० ) व्‌ । लैजितत तू" ( प० ) करण चिरेप । वैजतिर तत्‌० ( पु० ) पक्चि विशेष, तित्तिरपछ्छी, तित्तिर पक्षियों का कुग्ड । लैततिरीय चत्‌० ( वि० ) यज्ञयेंदीवर शाखा विशेष, यजु- चेंदू का बिद्वान्‌, यजुरें दस । [ विद्वाव्‌! चैत्तितीपक बन्‌० ( बि०) यजुवेंद की पूछ शाखा का तैयार दे० ( बि० ) व्यव, प्रस्तुत । । लैएना दे० ( करि० ) पेरना, तरना, देलना, पार होना | हित तव्‌* (घु० ) तेश, तितर आदि से उत्पन्न चिकन पद [--झार ( बु० ) वर्शसद्ूर जाति विशेष, तेल्ली ।--सिद्ठ ( ए० ) तैलमछ, तेल का मैक, | तेछ का कीट | लैलड़ः त३० | पु० ) देश विशेष, कर्णाटक देश का एक प्रान्त विशेष, उस देश के चासी, दशविध बआाह्मणों के अन्तगत एक बाह्मण विशेष । तैलइम दे० (४० ) तैडक देश निवासी, अंग्रेज़ी सेचा के सित्रादी । ( देखो तिलड्ढडग ) । लैज्चे। रिक्ला तव्‌० ( खी० ) तिरूचिद्दा, सैठपा, पक्ति विशेष । ( चारिक्रा । घैलपा तदू" (म० ) पक्षिविशेष, विकचट्ा, तैल- हैज्लमालो त१० ( सख्री ) वत्ती, पलीता । तैजिनी बव्‌० (स्री०) पत्नीता, वी । सैलो तत्‌ू० (० ) तैजकार, तेल्ी ।( वि० ) वेल + सम्बन्धी तैच्रमय । ] हैष तत्‌० ( ० ) पैपमास, पूस का सद्दौच । | क् कं # ता छुन्दिला, मोटा, स्थलकाय बढ़ा पेटबात्टा । हा कक आकर तेंपी तव० ( खोण्) प्ुच्यतक्षतयुका प्रूर्णिता, पौपी ट्द ० देंसा दें ( झ० ) इसर समान, उपके सदश | ते दे* ( अ्र० ) तत्र, सदा, निःसन्देह । तोंद तदू० ( छी० )तुन्द, बढ़ा पेट, जदर, जम्या पेट ॥ ठांदी तद्‌० ( ख्री० ) तुन्दिश, तोंद का सध्य, नाभि, तोरीला तदु० (वि०) त्तादैव उदु० (जि० ) ' ही दे” ( श्र० ) उसी क्षण में, उसी काल में, उसी ससय में ॥ ताहच दे० ( सर्व० ) तुमको, तुमको । ताख (पु० ) ताप,सन्तोप । का नास जिसके प्रतियाद्‌ में याहर'अक्षर हेते हैं । बाड़ दे? ( ० ) हट, फूट, खण्डन, भञन, नदी का की तीत्रता, दूध का या दही का पानी, तक को, तलक, पर्यन्त ।--जै।ड़ू (या? ) वाँब पेंच, नष्ट करना, फोड़ना, दुझड़े डुझड़े करता देना ( क्रि३ ) खोंचवा, नोचना, फल फूल पआआदि का लाइन! दे* (क्रि०ट) फोड़ना, डुकड़ा करना, रुपया ओुनागा, रुस्पे के पैले बदुल्ाना; हल चलाना करना, द्ाप्त घटाना, संख्या का भक्ञ करना, कारखाने का बन्द करना, प्रतिज्ञा भजन करना, तेड्ल दे* ( ४० ) बाला, कढ़ा; क्टु|ण, द्वाथ में पह- लने का गहना | [ भुनाने का दास । ताड़वाना, तुड़दावा दे ( क्रि० ) रुपया भुनाना॥ फोड़ाना, पुनः बनवाने के लिये गहने . आरादि का पूर्णधासी, पूर की पूणिमा | के दे। ( आ० ) त्यों, इस प्रचार । नाभिकुहर । दत्ता तद्‌ ० (वि० ) ॥ तक तत्‌० ( पु० ) सन्‍्तति, सम्तान, पुत्र, कन्या । तायक तत्‌० (पु०)8न्दव्शिप,द्वादशाघर धन्द,एकछन्द च्रेंग, नद्दी की तेज़ी, प्रवाद की प्रबह्लवता, घारा चर, युक्ति ।-- डालना ( क्रि० ) विनाश करना, तोड़ना । संघ छूगाना, कुमारीत्व भन्न करना, श्रश्क्त अलग करना, स्थिर न रहने देना | ताड़वा ।६, छुड्वाई दे० ( स्री० ) वह्दा, फुड़ाई, रुपया छुद्वाना । होड़ा ( ३७६ ) तोषक ..0#......++++9त_+++++++__+_3त+ तोड़ा दे० ( पु० ) रुपयों से सरी थैली, इजार रुपयों की भैल्ी, चटरा, पल्ीता, बत्ती जिम्तते ताप आदि में प्राग छगाई जाती है! सिकशे, गले की सीकरी, पैर में पदनने का चाँदी का एु भूपण घादा, घटी, नुकसान, नदी का किनाश; रस्सी का हुक्ड्ढा । तोड़ाना, ठुड़ाना दे० ( क्रि० ) तेडवाना, तुड़वाना | | तोड़ी दे० ( ख्रो० ) सरसों, राई, भ्द्नविशेष। तोतना दे० ( क्रिए ) निवार, दरी आदि चुनना, गूधना | तातरि दे० ( स्तनी० ) तेतली, बेच्ों की बोली । खेला, तुठछा दे० (वि) अस्फुयवाकू , अस्पबर्छ, कडददइह्ा [ ( बोलना । लेतलाना, तुतलाना दे* ( क्रि० ) इलकाना, भस्पष्ट | तोता दे० ( घु० ) प्िविशेष, छुक, सुधा, सुग्गा। ' +चश्म दे* (० ) तोवे जैसी शाँखें फेरने बाला, वेशीन्, दुशीड, बेघुरीवत (--चश्मी दे० ( खोी० )दु शीदता, बेदफाई | कैतो दे० ( स्ली९ ) देते की मादा, उपपली, रखनी, , सुरेतिन | तोपड़ा दे० ( घु० ) मछिका, सकख्ती, पढिविशेष । तेपना दे० (फ्रि०) ढकिना, छिपाना, छुकाना, चाच्छादित करना । तोपा दे० ( क्रि० ) ढका, ढापा, छिपाया | तापाना दे ( क्रि० ) गद़वाना, छिपवाना, लुकवाना | ताप्यी दे० ( क्रि० ) देखे तेपा | सेोवड़ा दे? ( घु० ) एक प्र्ार की चैल्ली, जिसमें घोडों के दाना सिद्ाया ज्ञाता है। चमड़े की यैबी । ततोमड़ी या तुमड़िया दे० ( म्री० ) तुमडी, तृूम्वी, खाघधुझ का जन्नपान् ६ लेमर तन्‌० (9० ) भरस्नविशेष, वरदी, साँगि, माछा, यद्द अश्च दाय से चढापा ज्ञाता है, पृक छाम्ये डण्डे में शूल छगा हुच्वा रहता है । पक चत्रियों की ज्ञाति विशेष, कविता का पक छुन्द ।--प्रद् ( घु७) वोद्धा, जो साले से छडाई छड़ठे हैं ।--धर( १०) अप्नि, अनऊ, टुताशन । तोय तद्‌* ( पु ) जढ, सल्षिल, बारि, मीर, पूर्वां- | घाड़ा नहत्र |--काम ( ६० ) परिम्याघ, कह में | इपपच्च होने वाला पूक प्रकार का चेत |--वानीर ( वि० ) जलामिछापी, जरूप्रार्थी, अन्न चादने बाला ।-द्‌ ( गु० ) जल देने वाला, तपंणकर्ता। ( घु० ) मेघ, वारिद, घटा +--धर (9०) वारिद, तायद, मेध, जलद्‌ ।--थि (परु०) जलूधि, समुद्द, सागर ॥- निधि ( 9० ) समुद्र, सागर, मढधि | +पिप्पल्नी ( स्री० ) जलप्रीपल, कलम शांक विशेष।-- प्रखादन ( घु० ) कतकफल, निर्मल फछ, जिसझे पीस कर जल में डालने से नछ॒ धाफु हो ज्ञाता है +- खुखक (१०) भेक, वर्षामू, मेदक, जिसके बोक्षने हे धुष्टि होने की सूचना मिलती हैं । तायाधिवासिनी तत० (ख्ली० ) [ तोय+ अधि चासिनी ] छक्ष्मी, पाटक्षा घूछ । सायाशय तत्‌० ( घु० ) जलस्थान, तड़ागादि | लोर दे० ( स्द्री० ) भरदर, ( स्व ) तेरा । ततारई दे० ( स्त्री० तुरई, शाक । तारण दव्‌* (इ०) [िर + अनद्‌ | बदिद्वार, वाद्यद्वार, बन्दनवार, फूल या पत्तों की माला जो इर्सव में छटकाई जाती है, कन्घरा, कण्ठी, महादेव | तोरी द० ( स्त्री०) तरकारी विशेष, सरसों, राई । तोल दे० ( स्तरी० ) तौक्ष, जोख, नाप, परिमाय । तालक उत्‌० (३०) भस्सी, रत्ती मर, पारइ मारो भर तोढा « ( दे० ) बटखर, वॉठ, तौलने बाखा, छुजवैया । [ अस्सी रफ्ती ! तेज़ा तब्‌5 ( घु० ) परिमाण विशेष, बार माशा। तेश ठत्‌० ( धु०) हिंसा, द्विंसक । ताशक दे० ( ६०) झास्तरण विशेष, पर्लेय पर दिछाने का गद्दा ।--स्ताना दे० ( धु० ) वस्षों तथा गइनों का छुठार या भसाण्डार | तोशा दे* ( पु० ) पायेय, मार्ग में भोजन करने के लिये सामभी, मामूल्वी खाने पीने की दुस्तु । “खाना दे० (०) देखे! तोशकवाना । तोप तद्‌5 ( पृ० ) [ चुप +अज्‌ ] तृष्ठि, तृ्ति, इफे, आनन्द, चाहाद । ( वि० ) घोड़ा, भएप | तेपक तय» ( बि; ) [ठप +णरू ] इ्पजनक, परि ठोषक, परितोषकारक,घीरमदाता, ठृप्त करने वाला, प्रसद्ध करने बाक्षा। ताीपण चाएण तद्‌० ( बि० ) [ चुघ्‌ + अनहू ] रुछतिकरण, आनन्दितकरण, तृछ्ति, सन्‍्तोष । है तेवित तत्‌* ( गु० ) इपित, घीरजवान, चुष्ट, दृ्त। तोसक दे० (सखत्री० ) घोशक, गद्दा | ताहरा, वाह्यार ( सर्च० ) तुम्हारा तोहि द० ( सब» ) तुमको, तुमका | [जन्य सन्‍्ताप। तौंसना दे" ( क्रि० ) गरमी से छुछस जाना, उष्णता ले! (क्रि० दि०) ते, फिर। [ विशेष चैतातिक तव्‌० ( घु० ) चुतात भद्दकृत दुर्शनशास्त्र कैन ( सर्व० ) बह, से। (स्त्री०) दूध दुद़वे समय याय के श्रगल्ते पैर में बचुढ़ा बाँधने की रस्सी । वौर्य तव्‌० ( पु० ) झुरण भ्रादि वाद्य विशेष, ढोलक आादि घाजा । [ त्ीच ) लैर्यनिक उत« (पु० ) नु्य, ग़ीत और चाय ये लै।र तथ्‌० (५० ) एक प्रकार का यक्ष | दे० ( छु० ) चाजढाल, प्रकार, भाति | लैरेत दे" ( छु० ) यहूदियों का प्रधान धार्मिक ग्रन्थ | लैक्ष तच० ( घु० ) छुला, परिसाण किया; तोलने की रीति, मौपनद॒ण्ड, जोख, सेल । [तोलछना | लैक्ञना दे० (क्रि०) जोखना, परिमाण करना, तौलबाई तद्‌० ( स््री०) तै।ल करने का काम, तौलाई । चैलाई तदू० (स्री०) तौल की मजूरी, बयाई । लैलाना दे० (क्रि०) जेखबाया, तै|ल कराना | वैलिया दे० ( खी० ) छोटी अगली, शरीर पाछने की अगीछी । [थादि चनाये जाते हैं । 'हैल्ली दे० (स््ी०) पात्र विशेष, बटले।ही, जिसमें भात तौल्लैया दे० (पु०) तेलनेवाला, बया |. [पर भी । हैही दे० ( श्र* ) तैमी, ठग भी, तथापि, इस कैट दे ( श्र० ) तथापि, तै।भी, तेही । व्यक्त तद्‌० ( गु० ) [ ब्लू #+क्त |] कृतत्याग, उल्मरित, विश्नर्जित, चाड़ा हुआ, त्याग किया हुआ, विरक्त, विद्िप्तचित्त ।--ज्ञीवन (पु०) गतप्राण, सूत | व्यक्ताझ्ि' तव॑० (६०) प्राप्ति रहित आाह्मयण, अमिद्वेत्र रहित । त्यज्ञन (०) च्याग, स्यजनीय (यु०) स्याज्य, छोड़ने त्याग तव्‌० (एु०) लिएजू + घन] दान, वर्जन, उत्खत, विस्क, चेराग्य |--पत्र (५०) बज्जेनपत्र, फारस्ती, इस्सिफा ।--शील (३०) दाता, दृः्नशील । ( इछ७ ) च्रथ यिग्य । त्यागन दे० (क्रि०) त्यजन, त्याग, चिराग । स्थागना डे* ( क्ि० ) छोड़ना, तजना, स्यांग करता | त्यागी चत्‌» (वि०) दादा, शूर, चर्जनशीछ, स्याग- कारी, विवज्ञेक, कर्मफल को त्यागनेबाला, बैरागी, छोड़ने बाला, विरक्त | स्थाज्ित तद्‌० (वि०) ह्यक्त, विषर्जित, छेड़ा हुआ । त्याज्य त्व॒० ( वि० ) त्याग योग्य, वर्जनीय, परिष्याग करने के उपयुक्त, त्याग करने येग्य, छेड़ने पेररय । त्यों दें० ( अ० ) बस प्रकार के, उसी रीति से । त्योंधा दे* (बि०) रात का अन्धा, रपेंषिया, चुन्घछा [ लिता, चहराई। त्यानार, त्यौनार देन (स्त्री०) निषुणता, दक्षता, कुश- त्यानारी, त्यौनारी दे० (स्री०) कर्म निपुण स्त्री, भपने काम को चतुरता पूर्वक खच्छ वनानेवाज्ी स्ली | त्यारी दे+ (स्नी०) चित्तवन, दृष्टि, निगाह, घुड़की, घमकी ।--चढ़ाना ( क्रि० ) क्रुंद होना, ाँखें बदलना । (पीछे । स्पेरुस दे० ( पु० ) वर्तमान वर्ष से दो वर्ष पहले या त्याहार तदु० (पु०) पर्व दिन, उत्लव का दिन । त्योह्वारी तद्‌ » (खी०) त्योहार के दिन कमीनें और छोटे के। दी जाने चाली वस्तु । त्यों (क्रि० वि०) त्यो । त्यौरी (प०) स्योररी, चितवव, घपकी | श्रपा तच्‌० (स्त्री०) [ न्रपू+ प्रा ] बीडा छत्जा, छाल, धर्म, इया ।--कर ( ४० ) क्य्जाकर |--र्वित ( बि० ) सलज्ण, रूजालु +--भर ( प० ) पूर्ण लूज्जा, अधिक छज्जा |-चवान, (बि०) न्नपायुक्त श्रपान्त्रित, वब्जायुक्त [प्राष्त, सत्तज्ञ । त्रपित सव्‌० (वि०) [ न्ञपा +क्त | लण्जित, खजना- श्वपिष्ठ तव० (चि०) अत्यन्त छड्नित, अतिशय ओीड़ान लिवित, सल्तज्जञ | > अपु तत० ( घ॒० ) सीखा, राया । . [इलायची | बपुरी तत्‌० (ख्री० ) छोटी इलायची, गुजराती चय तत्‌० ( वि० ) तीन, तीन की संख्या, ३, तीसरा । +गहड्ढ (स्त्री०) त्तीन गद्ला, यथा-सन्दाकिनी, सागीरधी और प्रसावती ।+--ताप (स्त्री०) तीन साप,वेहिक,वैविक और स्ौतिक ।--पावक (प्र०) तीच श्रम्मि, श्राइवनीय, दब्णामि और गाईपत्याश्ि हा० पा००>शे८ हा ञयी € रेछद ) भिकुद अधया जठाानलछ, दावामकहू और बढवानल |-- रेखा (स्त्री०) तीच खकीर ।--शग (9०) वाच- पित्त और कछ से रध्पठ रोग । घयी तत* (स्व्री० ) [ न्रय + ई ] वेदत्रय, ऋगू, यज- और साम्र मे त्तीन घेद, पुरन्धी, ग्रढ्णी, सीम- सिनी, सामराजी इंच |-तनु (३० ) सूबे, आस्का, रवि ।--धं्म ( ० ) वेदेक्त धर्म, कर्म काण्द ।--मय (५०) ईश्वरीय, ईश्वर । -मुख (१०) माह्मण, द्विज, पिप्र । घ्रयादण तत्‌० (वि०) संख्या विशेष, तेरद की सैस्‍्या, तेरद संख्या की पूतति करने वाज्ली संख्या, $३। अयेदशी तत्‌० (स्त्री० ) तिथिविशेष, घन्द्रमा की सेहद्ववीं कच्चा के उड़ने या क्रय हे।ने का समय, चेरस, तेरी तिथि । ५ चसरेणु तव्‌० ( घु० ) तीन परमाणुओं का परिमाण, अग॒ परिताण, गवाद के सूक्ष्म ठिद्रों से जे सूर्य की किएणें श्राती ईं उनमें जे! कय कण सा दीख पडता है रसझे सातवें भाग कै परमाणु कहते हैं तीन परमाणुओं का त्रसरेणु द्वोता है । भ्रसित तदू» ( बि० ) प्रस्त, ढरा हुश्रा, भयमीत भीर, शक्लित, शट्टान्दित । घस्त नद्‌० ( वि० ) शक्लित, ध्यसप्राप्त, भीर | ब्राण तत० ( पु» )[ प्रै+श्रनट्‌ ] रचण, बद्धारकरण, निस्तार, उद्घार, रद, बचाव, कवच ।--कर्ता (वि+) रह्क, उद्धारकर्ता, रहा करने वाला । पाणी तत्‌० ( वि० ) ब्रायकर्तां, रदक । [परित्राण | प्रात तव्‌० (बि०) [ज्+-क्त] रक्तित, कृताछा, घदूष्टत, भाता तत्‌० ( ६० ) | स्वे+ठय्‌ | रह्ाकर्चो, प्राण कर्ता, उद्धारक,बचाने वाद्य | [प्रापरच्षण, रक्तित | ब्रायमाण सब" ( पु०) [प्रे+मान ] रक्ष्यम्मण, चास तत्‌५ ( पु+ ) [ त्रस्‌ +घन्‌ ] श्रय, शा, डर, हीरा झादि मणिये का एक प्रकार छा दाध -- दायी ( वि० ) [ श्रास+दा+णिन्‌ ] भयदाता, राह्ादायक, मयप्रशर्शछ, भयदायक, सयप्रद | घास तव्‌« (वि) पघ्रासदायी, भवदायहू, सयजाता ब्रासता तदू० (वि०) गड्लित, भीत, भयमान । भासित तब (पु०) [ श्रसू+णिच्‌ +-क्त ] मवास्वित, दरपाया गया । चाह तद्‌० ( क्वि० ) ब्राहि, वचाधे, रहा करो, धाण करो |-ऊरना (बा० ) रघा करने के लिये पुकारना, दुख से घ्याकुट होकर रक्तच् को घुकारना । चघादि तत्‌« ( क्रि० ) रचा करो, बचाओ। त्राण क्रो । त्रि तत्‌» (वि०) पैख्या विशेष वाचरू, तोन संझया का बाचक, है) इसका येग अन्य शब्दों के साथ भादि ओऔर अन्त में किया जाता है | लव यह शा्लों के आदि में भ्ाता है, तथ इसहा ठीक ठीक रूप रहता है, पान्तु ज्षर यह शददों के अन्त में ब्रावा है तब त्रि के स्थान में त्रय हे जाता है | यया-- ब्रिभुवन, प्रिदण्ड, ब्रिमूत्ति, जियेद भरादि, तापब्रव, वेदन्रय, भुवनन्नय, दगडत्य थ्रादि। जिंण तत्‌» ( बि० ) तीसवाँ, तीस संझ्या को पूर्ण करने वाली सैस्‍्या। जिंशति तद्‌ ( वि* ) तीस, ३० ॥ भिक तत्‌० ( पु० ) त्तीन संख्या, रे त्रिषध स्थान, तिरमुद्दानी, जिफला, त्िकढ) जिवली, पेट के तीन बल, कमर। हा ब्रिककुदू तत्‌० (प०) परत विशेष, त्रिकट पवेत | मिकच्छफ तत्‌० ( पु० ) धोती पहनने की रीति, रीति के अनुसार घोती पइनना, तीन कछि । त्रिकट तत्‌० ( ४० ) गोपूरीलता, गोखरू । जिक्टु,, भिक्‍्ट्ट ठत्‌० (घु०) मिर्च, साठ, पीपल का मिश्रण । त्रिकर्मा तत्‌» ( वि० ) तीन कर्म ( यामी पढ़ना, पज्ञ करना और दान देना ) करने वाले, मूमिहार | जिकाल तत्‌० ( घु० ) भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान काल, प्रात , मध्याद्द, संघ्या काक्ष ।--य्ष (३० ) युद। (वि०) सर्वज्ञ, त्रिछ्ालदेत्ता ।--दर्शो (8०) ऋपि मुनि | ( वि० ) जिकालज्ञ चिकुट तत्‌० ( पु० ) सिघादा | जिकुटा तत्‌» ( घु ) धोठ, मिर्च, पीपर । भिकुदी तत्‌« (स्री० ) दोनो मौंहों के दीच वा स्थात। निकूद तद० (पु०) पर्वत रिशेष, इसी पर्वत पर छट्ढा सगरी बसी £। यथा -- * मिरि त्रिकुट ऊपर बस लद्ूा+ ठहें रद रावण सदब चराक्ला ।” --रामावय । जिकेाश बिकीण त्तत० ( थि० ) क्तीव कोण, त्रिकोण विशिष्ट; जो स्थान त्रिकोण रेखा के अन्तर्गत है) ( इ० ) येनि, भव, रूप से पविवीं और नर्वी छप्न के त्रिकोण कहते हैं --मिति ( स्त्री० ) त्रिचेण चस्तुओं व! सापने बाजी विद्य ।..[ ये सीन । जिगण तत्‌० (9० ) ब्रिकर्म, घमे, अर्थ, काम जिगर्च तत्‌० ( छ०) देशविशेष, ज्ञालन्धर, पञआव का एक पआान्त विश्वेष ! जिसुण तत्‌० (घु० )सत्व, रज और तमोपुण | (बि०) तीन से ग्ुणित, जे। तीच संख्या से ग्रुणा गया हो ! --क्ृत (वि०) तीन बार जोता इश्ना खेत, तीन चासा ।--ातीत (धु०) त्रह्म, परस पुरुष । (बि०) निर्मुण, जीवन्सुक्त, झानी |-जाव्यक (वि० ) गुणत्रयविशिष्ट, संसार के पदार्थ । जिचतुर तत्‌० ( वि० ) तीच या चार, झनिश्चित । ज्रिज्ञन तत्‌» (३०) श्रिजगत्‌, ठीनलोक, त्रिसुवन -- यानि (घु०) त्रिक्षवनकत्तों,भ्रिजग के बनाने वाला। जिम्रगत्‌ तत्‌ू० (३० ) त्रिक्बन, स्वगे, मत्ये और पातास्त । जिन्नद्या तत्‌० ( खी० ) लक्केश्वर रावण के अन्ताघुर की एक राक्सी | यह सीता की रहा फरने के लिये नियुक्त की भई थी । दूसरी रादसियों का ब्यवदवार सीता के साथ अत्यन्त निष्ठ॒र और झूर था | परन्तु चित्र के हृद॒य में सीता की अलौ- किक्वा भ्द्धित दो गई थी | त्रिजटा सीता के प्रतिं दयायुक्त ज्यवद्वार करती थी ॥ बेल का पेड़ भ्रिक्या तत्‌» ( ख्री० ) व्यास रेखा, श्राघे विस्तार की रेखा । त्रियता तव" ( ज्ो० ) घडुप, कामुक, फमान । भ्रिशाचिकेत तत्‌० ( छ० ) यजुबेद का पुक्त भ्रध्याय, यजुवेंद का एर भाग, यरसवेदाध्यायी । ज्रित तव्‌० ( घु० ) गौतम खुनि का पुत्र पुकत और द्वित नामक इनओ दो भाई और थे। ये तीनों अस्पन्त तपसवी थे | त्रित अपने अन्य दो भाइयों की अपेक्षा श्रधिक्र बिद्वान्‌ और कर्मों थे! एक समय ये सीनों भाई पश्च-सम्रद करने के किसी गाँव में सप्रे। पश्चन्संग्रक हे। जाने के पश्चात्‌ तित के बन में छेइकर दोनों भाई घर € रेछ8 ) चिदिविकस्‌ चले आये | वहाँ एक भेड़िया त्रित की ओर बढ़ा, उससे डर कंर यह आगे । भागते भागते यद एक - हुए में गिर गये। उसी कु मे त्रित ने सेमयश « किया । कहते हैं उस यश में देवगण उपस्थित हुए थे और उसी छुप में सरम्बती नदी का भी आविरभांव हुआ था। इसी कारण उस छूप का इद्पानतीर्थ नाम पड़ा | उस कप का जल पीने से सोमरस पीने का फल द्वेत्ता! है । ब्रित के शाप से इनके दोनों भाई भेड़िया दो गये और वे बच में घूमने छगे जितये तत्‌* ( बि० ) लीन: की पूरक संख्या, तीन संख्या, ३, घमे, अथे और काम का समुदाय | जिद्णड तत्‌० ( 9० ) श्रीबैष्णव सेन्यासियों का सैन्‍्या- साश्रम का चिन्ह विशेष ।--भारण ( ४० ) संन्‍्यासिग्रों हा दण्डग्रहण विशेष, संन्यास आश्रम अहर करते समय कालूदृ०्ड, वागदुण्ड और मने- दण्ड का चहण करना | दण्ड ग्रदणविधि । जिद्यडी तद्‌* ( ० ) [ त्रिदण्ड + इन ] श्रीवैष्णव- सम्प्रदाय के चिदृण्डधारी पति, संन्यासी विशेष, ब्रिदण्ड धारण करने वाले संन्‍्यासी | * जिदृश तत्‌० (०) देवता, छुर,भमर;जीम !-दीधेका ( स््री० ) खवसेयज्ञा, मन्‍्दाकिनी, गत ।--नेदी (ल्वी०) मन्दाकिनी, स्वर्गंपक्षा --व्ू ( ख्री० ) देव ख्री, त्रिद्श बनिता, देवाइना, अप्सरा। -मज्ञरी (स्त्री०) चलसी, बडुमअरी -हछुश (४०) [ बिदेश + झहुश ] अशनि, बच ।-पाजर्य ( छ० ) [ जिदेश +- आचार्य ] देवगुर, शृदस्पति । +नथुघ (३०) [प्रिदृश + आधुध] वच्, अशनि । --रि ( ३० ) [ ब्रिदश + झरि | दवुज, दानव, दैत्य ।-।ख्तय ( एु०) [ त्रिदुश + शाज्षय ] स्वर्ग, ख्रिविष्टप, सुमेरुपचेत (--वास (8० ) स्वर्ग, झुरपुरी, देवकोक, सुसेरुपवेत [-7द्वार (9०% ) (भिदृश + आदाश] ध्रस्तत, सुधा; पीयूष +भ्वरी ( स्री० ) [ त्रिदश + ईश्वरी | देकी, दुर्स ! ज्रिद्व तत्त० ( पु० ) स्व, आकाश, अन्तरिदों ।-- बाद ( छ० ) दाशंनिक सिद्धान्त विशेष | स्िविचौकस्‌ तत्‌० (9०) [जिदिव + भोक्सो स्वगंस्थ, स्वर में रहने काले देवता, अमर [| विदोष ( ३८० ) भिपुरारि न 3 2--- न य नप पन्ना मनन नन३_० बिदोष तत्‌« ( पु० ) दाठ पित्त और कफ का विकार क्‍ तव्‌० (स्त्री० ) [ त्रिपुर + झा ] इंसपदी, देपत्रय ।-प्य ( वि० ) औौषध विशेष, जिससे ब्रिद्वाष भ्रच्छा होता है । व्रिदोप नाशक आऔपध। --ज( वि०) जिदोष जनित रोग, सन्निषात रोग। द्रिधा तत्‌० ( वि० ) तीन प्रकार से, ब्रिविध | बिधाठु तव्‌० ( पुर ) गणेश, हेरस्व, गणेश की सूत्ति तीन धातु की थधिद्न प्रशस्त है अतएव गणेश का त्रिधातु कदते हैं । धातुन्नय, तीन धातु, सोना, चांदी और ताँवा । [धामत्रय, स॒त्यु, स्थगं'पाताल । पमिधामा तत्‌० (प०) शिइ, विष्णु और श्रप्ति, त्रिघारा तद्‌> (स्त्री) तीवधारा, स्रोतत्रय, गद्गा, सेंहुड । जिध्चनि तत्‌० ( ख्री० ) तीम प्रकार की ध्वनि, मधुर, मनन्‍्द थौर गम्भीर । जियनम्रय । प्रिनयन तव्‌० ( पु० ) शिव, शम्मु, महादेव ( वि ) चिनयना त5० ( स्री० ) दुर्गा, मगदती । पिनेत्र तत० (धु०) शम्मु, मदादेव ।- चूडामणि ( पु० ) शशधर, चन्द्र, चन्द्रमा | अिपछचाशत््‌ तत्‌० ( वि० ) संल्या विशेष, तिरपन, तीन अधिक पवास, ९३॥ भिपताक तख्‌* ( पु० ) रेद्या न्रयाद्धित कपाज, नाटक के भमिनय की पूक भुद्गा, तीन अ्ेंगुक्षियों के सक्लेत से दूसरों के रोककर एक चादमी के साथ रहस्य सापण करना। तीन रेखा पद्म हुआ छलाट। तिपथगा तत्‌* ( स्त्री० ) गढ़ा, भागीरथी। ब्रिपद्‌ तत्‌० ( वि० ) परदत्रय, प्रिरेखायुक्त (प०) तिपाई, प्रि्ुज् । गायत्री छत्द प्िपदा तत्‌० (स्ली०) बृद्द विशेष, ह्पदी बृक्य, त्रिपदिका स-्‌० (सत्री० ) घातुनिमित शक्ल रसने की तिपाई । पिपद्री ठद॒« (स्प्री०) द्वावथी के बॉँघने की रस्सी, मापा कविता का पुक छन्द, हसपदी, गायत्री, तिपाई । प्िपर्णों तत्‌० ( स्थ्री० ) शाबपर्णी, बन कपासी । जिपाट सद* ( एु० ) छेन्रविद्या सेद । तजिपादी (३०) प्रिवेदी, तिवारी, ठीन थेदें का ज्ञावा। भिपाद उत* ( पु ) विष्छु, नारायण, ज्दर विशेष । जिपादिका त३० ( स्त्री० ) इंसपदी कठा । अिएु दे० (४० ) सीधा, घातु दिरेप, राया । तरिपुसी देर ( स्टी० ) इत्धवादय, इनादन । मछिक्रा, त्रिहवद । [छोती ईं, शैत्रों का तिकक प्रिधुयड्ध तव्‌॒० (०) विलक,जिसमें तीन 'भाड़ी रेपाएँ श्रिपुणड तद्‌० ( घु० ) तीन थाढ़ी रेपाओों का तिलक, असम आदि घे मस्तक पर बनाई टेढी छक्कीर, टेढ़ी तीन रेपा, जिपुण्ड, देत्यविरेष । बिपुर तद्‌० ( ६० ) मय दानव निर्मित परभव, दैहय विशेष ।--दृहदन ( पु० ) त्रिपुरान्तक, महादेव, शिव, त्रिपुरारि । त्रिपुरा तव्‌० (स्त्री०) देवी विशेष, एक देवी का नाम | जिपुरान्तक तत्‌० (9० ) त्रिपुर बदन, शिव, मद्दा- देव, शम्मु । जिपुरारि तत्‌० ( ० ) मदादेव का पुक नाम, पुर््रय के नाश करने से मद्दादेव मे यह नाम पाया है| तारकासुर के तीन पुत्र थे, जिनका नाम ताकाप, कमलाध और विद्युस्मात्ञी था। इन तीनों ने तपस्या करके वद्या से वर पाया था कि-- तुम लोग तीन नगर में थास करोगे, हजार ये के बाद ये नगर आपस में मिलेंगे, उस समय जो घाण से इन नगरों का नाश कर सकेगा उसीझे द्वारा छुस छोगों का बध द्वोगा ! “यद बर पाकर उन्दोनि मय दानव के तीन तयर वमाते का आदेश दिया, मय ने अपने तपोब से श्वर्य में सोने का, घत्तरि् में रजत का, और मत्यज्लेक में छोड़े का यो तीन नगर बनाये | कमछाक्ष ख्ग में, तारकाद अत्तरि् में और विधुन्माली मत्य॑त्रोक में वास करता था। तारकाछ के इरि मामह पुत्र ने भी तपस्या की प्री उसने भी ब्रह्मा से वर पाया कि इप्तके नगर के एक सरोवर में अस्प्र द्वारा सतध्यक्ति को डुदाने से वह इसी समय जीवित ट्वो उठेगा। ब्रक्षा से ऐसे वर पाकर उन असुरों का अत्याचार बहुत ही पढ़े गया। उनझे अध्याचार से पीड़ित होकर देवता बक्धा के पास यथये । झरद्मा ने विचारा कि मद्दादेव के बिता इन असछुरों का विनाथ दूसरे से नहीं हेया । भत- एवं देवताओं दे। साथ खेकर सहाय मद्वारंब के पास गये | ब्रह्मा रे मुख से चसुरों के अद्याचार की बात सुनरर मद्दादेव को यदा क्ोघ टुशा । इन्‍्द्रोने देव साधों के कएपाण के सिये अमुर्रों के विदाश करने ज्रिपुस ( इहह ) निविक्रममद्ट 9 आजम व अमल एक जम मकर डी अर ५ 2 व नल मिल कक कप कप 8 04: तन आम का सकुदप किया । वह दिव्यरध पर आरूढ़ हुए । ब्रह्म सारधि बने । घोड़ी दूर जाकर 'वह घोड़े पर चढ़े, पुनः चैल्न पर चढ़ कर उन्होंने शखुरों के नयर देखे । इसी समय उन्होंने अश्यों का सतत काटा और बैछ के छुर बीच से फाड़ दिये । महादेव घञप पर पाशुय्त श्रस्त्र चढ़ाकर तीनों नगरों के मिलने की प्रतीक्षा करते हरूग्रे | जब वे पुर मिलने ख्तगे डसी ससय महादेव ने वाण छोड़ कर वन तीनों नगरों के नए अ्रष्ठ कर दिया । घुर के वाली चिछाने लगे, महादेव ने इन सभी कहो जलाकर परिचम समुद्र में फेंक दिया | देवता निष्कण्टक दहे। गये । पिपुस दे० (-ए० ) खीरा, फल विशेष | जिपोल्ियों दे” ( ५० ) सिंदद्धार, राजमढल् का पहला द्वार,तीन द्वार का मकान [हर घोर वहेढ़ा फछ । निफला तत्‌० ८ स्त्री० ) ससभाग मिश्रित अविका, जिचल्ती तद्‌० (स्वी०) पेट पर पढ़ने बाले तीन बल । लिबेनरे तदू? ( स्त्री० ) त़िवेणी | जिभडूः तत्‌० ( छ०) तीन अद्ग फा भक्ग, सूत्ति विशेष । शभिज्ञा तदू० ( छ० ) ेढ़ा खड़ा होना । जिसड्ी तव० ( ० ) घन्द विशेष, श्रीकृष्ण की एक झू्ि विशेष। [ तिनकाना । जिश्लुज्ञ तत्‌० ( ० ) त्रिकोण रेखा, तीच सुज्ना का, त्रिश्चुजात्मक तव्‌० (गु०) [च्रिज्षुज॒+ अए्मक] तिस्ुत, त्रिकोण [ [ स्व; मत्ये और पाताक । जिभुवन तव्‌० ( ए० ) बिल्लेष्की, चेलेक्य, तीच लेक, जिमसु तत* ( पु० ) ऋग्वेद छा एक भाग, मधुवाता आदि तीन ऋणत्ाप्ों का वेत्ता,घी:चीनी और शहद । जिम्ुख7 तव्‌० ( सी ) बुद्धदेव ही मात्ता, मायादेवी | बिमूर्ति तत॒० (४०) ब्रह्मा, विष्छ और शिव की सू्ति| क्रिमुहानी दे० ( स्वी० ) तीन मार्गों का मिलान, ज्दा तीन मार्ग मिले हों । निया दे० ( खी० ) सारी, स्री, कासिनी, बनिता | ज्ियासा तव्‌० (खती० )[ जि याम+ आ || रात्रि, रजनी, निशा, यझूवा नदी; हल्दी, काला निधेय, नीछ का पेढ़। हि ज्रियुग सतत» (प०) विण, नारायण, चसस्त, वर्षा और शरदू ऋतुश्षप । सत्ययुग, द्वापर, ऋेता--ुगन्नय । पनियोनि तद० ( छु० ) जाम आदि से उत्पन्न ककह | लिल्लोक तब" ( छ० ) तीब लेशक, द्विशुवन, स्वर, सत्य थार पाताल ! जिलोकी तव्‌० (छी०) तीन क्षेककं रा समूह, यधा-- सूलोक, भुवर्वोंक और स्व॒स्तेंक, त्िभुवन, प्रिजगत्‌ । नाथ ( 3० ) दोनों लोकों के नाथ, विष्णु, इेश्वर, भगवान्‌ [ शस्मु । निलोचन तत्‌० ( 9० ) त्ििनेत्र, ब्रिचयन, महादेव, बिलोह या चिल्लोहक तद्‌० (प० ) सोना, चांदी और तबा ये तीन घाछु । ( रज और तम । चिदर्भ तत्‌० ( पु० ) धर्म, णथे कार काम, प्रियुण सत्व, जिवर्षात्मक ततद० ( बि० ) त्रेशापिंक, तीव घर्ष का, तीन साल का | [ दीम वर्ष की गौ। ज्िवर्षिका तद० (ख््री० ) प्रिहायणी, त्रिवर्षा गौ, बिवतल्ी तत्‌० (स्वी० ) जठढर का अवयव विशेष, नाभि के ऊपर पेट की चीन रेजाएँ । जिविक्रम तच्‌० ( घु० ) वामनावतार विष्णु, वामन भगवान्‌, इसकी कथा भसिद्ध है। जिंबिकमसट्द तब्‌० ( छु० ) संस्कृत के पुक कवि का नास,; ये कवि प्रसिद्द विद्वान देवादित्य शर्म्मा के पुत्र थे। चाल्पराचस्या में पढ़ते लिखने की ओर इनकी विशेष रुथि नहीं थी, इनके पिया झामान्तर गये | उससे समय एक विदेशी पण्डित राजा के यहाँ आये और उन्हेंने शास्त्रार्थ करने के किये राजा से कहा । उच्च राज़ा का राज्य पण्डित त्रिविक्रमभद्ट के पिता ही थे। राजा ने उन्हें छुछबाया | उनके उप- स्थित न रहते के कारण त्रिविक्रमजी राजा के समीप गये, राजा ने उनई। शाख्राथ करने को कहा और दिन भी नियत कर दिया | विद्या में विशेष परि- चय न हेलने के कारण वद्द चिन्तित हुए श्र सर- . स्वती के मन्दिर में जाकर उनकी आराधना करने लगे। भगवती प्रसन्न हुई और पिता के न श्राने तक सत्र शा्र के झान दोने का इन्हें घर दिया। इन्होंने शास्त्रार्थ में कादी जा जीता और ये नछचम्पू नासक अन्य बनाते कषमे । सात उच्छुबास तक उन्होंने चसाया था कि हनझे पिता बादर से चले आये, झतएूच विवश देकर नलचम्पू हनहें अधूरा दी छेफड़ 'डेसा पढ़ा | खूष्टीय श्राठवी शताब्दी इनका समय अजुसान से लिद्ध किया जाता है। चिध ( देषरे ) नदि छ त्रिउिधि तव० ( वि० ) तीन प्रकार रा, तीन घष्ठा, प्िचा | जिविएप ( ६० ) खगे, तिदुद देश । खिवेन्ी या तियेशी तद्‌० ( खो०/ स्थान विशेष, गढ़, यमुता और सरध्यती का सट्टम स्थाव, प्रयाग, तीन चादो | भिवेद्‌ तत्‌० (प०) ऋफ्‌ यजु और साप्र ये वीन बेड । जिशड्रू तत्‌* ( पु० ) बिद््न, शलभ, चातक, पढ़ी, झद्योत, राजा विशेष, सूर्ययंशीय एक राजा ! इसी शरीर छे रद जाने के लिये इन्होंने मद॒पिं बशिए के यज्ञ कराने के लिये कहा था | इनकी पअमभिरापा पति को वशि्ट ने श्रसम्भव बतछाया । दब में बशिष्टजी के पुत्रों के पास गये श्र इतसे झपनी अ्रभिक्षापा कह सुनायी | उन्होंने कहा कि मिस काम के विपष में पिता की अ्रसम्मति है उस काम को करना द्रप्त लागे के शचित नहीं है। तभ प्रिशकु ते कहा कि जय तुम खाग यज्ञ नहीं कराओ्रोगे, तर से दूसरा शुरु कर छूगा। वशिष्ठ के धुर्पों ने इम्हें शाप दिया, संदनुसार बढ़ चाण्डान दे यये | तदनन्ता विश्वामितर के पास व्िशक्ष गये और अपना अनोरध ऋड़ सुनाया। विश्वामित्र ने अपन य्रेगवट से सभी यातें जान हीं अऔ।? व यश्ञ करने के लिये प्रस्तुत हो गये । एस यज्ञ में ऋषि और देवताओं के निमत्रित किया, केवल बशिष्ठ पुत्र श्रौर मद्देदुय नामक ऋषि निमन्त्रित नहीं किये गये थे | वशिष्ठ के पुर्तों न आपत्ति की कि सिस यज्ञ में उ्िय अध्चयु और चाण्डाह यज्मान है, उस यज्ञ में देवता कर ऋषिगय क्‍्थोकर जा सकते ईं | यद् सुन विश्वा- मित्र का बडा क्रोध हुथ्या | विश्वासित्र मे चशिष् के धुत्रो चो। छुकुश माय भोजी डोम और मद्देदय को तिपाइ द्वी जाने का शाप दिया | विश्वामित्न के श्रनुरोध थे शन्यान्य महपियों ने यज्ञ पारस्म किया, परन्तु कोई भी देचता नहीं भाया। इससे विश्वामित्र का क्रोध आर सी बढ़ा और ये अपनी तपस्या के बल से इस स्वर्ग भैजने का अयत्न करने डूगे। इन्द्र ने शपड्टे ऐसा बढ़ों करने दिया। फिर क्‍या था दिव्यामित्र घुक नयी सष्टि रचने लगे । सप्कऋपि मण्डल थार नदयों की इन्होंने सृष्टि की, यद्द देखकर देंचों ने विश्वामित्रको समझाया, विश्वामित्र मे कहा प्रिशंकु के मीचे नहीं गिरने दंगे। देवों ने यद मात्र लिया, तेद से ब्रिशक्ु अन्तरिक्र में सिर भीचे किये हुए कटा हुआ है । (5६) दरिवंश में एक दूसरे प्रिशकु की कथा लिखी मिछती छै। यट्ट ऐन्द्रावपण के पुत्र थे। इनका पढ़ना मास सरदप्नत था। इन्‍्दोंने दूसरे की ध्यादी ख््री का दर लिया था | इससे इनके पिता प्रप्रसच् हुए थे | तदनम्तर गुरु चशिष्ठ की कामदुधां गौ सार कर इसने गोमांस खाया, इस्हीं तीत पार्षो के कारण इसका ब्रिशेक्रु नाम पड़ा था | इसकी अधामिकता के कारण पिता मे उसे अ्रपने राज्य से निकाज्ञ दिया था। इसकी दु्देशा देखकर विश्वामिन्न के। दया आई ! उन्‍्दोंगे जिशेकु के। पिता का राज्य दिल्कवा दिया। इसी शरीर से स्वगे भेजने वे किये विश्वामित्र ने यश कराया भा। देवठाधों मे इसे स्वर्ग में स्थान दिया, इसझी स्पी का नाम सत्याया या । सत्यरपा के गर्भ से हरिश्रन्द्‌ नामक तिशंकु के एक पुत्र हुआ था। यह पुण्यारमा हरिश्न्दर प्रशदुव नामपे पुकारा जाता है| जिशूल तत्‌० ( घु० ) अख्तर विशेष, मद्दिव भी का मुज्प भस्र ।-धारो (३* ) शिवास्मघारी, महादेव, शम्सु ।--पांणखि ( ६० ) मदादेव। त्रिशूलो तत्‌* (१० ] शिव, मद्दादेव, मददेश । निश्ट॒ट्ट वद० (पघु० ) फिद्ूूट, पर्वत, शिडाण ! [नाम। जिष्दुप ठव० (३०) धुम्दो विरोष, एक बैदिक चुन्द का भिक्षन्धि चत्‌» ( स्ट्री० ) पुष्प विशेष | भिसन्ध्य तव्‌» ( पु० ) साय, प्रात. और मध्यान्द काल ।--श्यापिनी (स्त्री*) जिसन्ध्पए के चस्तगेंत कियत्‌ छणय स्यापिनी तिथि । पिसन्ध्या तत्‌० (प््री०) पाठ ,साथ और मध्यास्दकाक् । निस्थलो (ह्त्री०) भयाग, काशी ओह गया। घुद्धि लव्‌० (स्त्री० ) उति, हानि, अप्रचय, नाश, न्यूनता, भाज्ञाठहुन, प्रतिन्ता का अन्यथा काना। अन, याराघ, सशय, काइमेह, मुहूर्त, उय द्रव | त्मके काल, श्त्प, छोटी इलायची |--कारक ( पु० ) ज्षतिछझारक, हाचिकारी, दोषी, अपराधी | पुट्ित तत्‌* (वि०) खण्डित, मझ्, छत, हटा हुआ। जी तत्‌० (स्नी०) देखे छुंटि। चेता तव्‌० ( स्ी० ) थुग विशेष, दूसरा युस, इस झुग का नास १६१४६००० बचे झ्षाहै। यज्ञाजि विशेष, यज्ञ के तीच दक्षिणाप्नि, ग्राहपत्म और आहवमीय अग्नि |--पि ( पु० ) [ न्लेत्ा + अग्नि ] यक्ष के अगि्ति का रक्चा करने बाला; श्राहिताग्नि। +-झुगाद्य ( स्त्री० ) क्रेतायुग की आरस्म तिथि, छातिक शुक्ला नवमी । ब्ैधा तत्‌* ( अ० ) [ ज्रि+था | त्रिघा, तीन प्रकार । च्रेशुश॒य तत० ( ३० ) त्रिगुण॒ का धर्म, त्रियुण का, स्वभाव, सरव, रझ्म और तमप्त इसका समुदाय | ज्लेबगिक तत्‌० ( वि० ) ब्रिवर्ग सम्वन्धो । बेवारषिक तद्‌० (वि०) वे न्रवात्सक, तीन वर्ष का, प्रिलोवत्सरिक । ज्रेषिद्य तव्‌० ( घु० ) चिवेद्झ्, वेदत्रयवेत्ता । चैविष्य तत्‌० ( बि० ) भक्ारत्रय, सीन प्रकार । ब्रेमासिक तदु० ( वि० ) प्रिमासी, तीन मास सम्बधी, तीच सास का। ब्रैशाशिक तत० (9०) अड्ठः प्रकरण विशेष, जिसमें एक वस्तु कां मूल्य जानने ले तीन घस्तुओं का सूल्य जागा जावा है | वीच की संख्या का गणित सम्पन्धी नियम । ब्ैजिझस्वामी तत्‌० ( घु० ) सिद्ध सैलकस्वामी इन महात्मा का जन्म दाक्षिणात्य त्राह्मणबंश में हुआ था। सन्‌ ५१२६ ६० के पूल्त महीने सें विजिता जिला फे देलिया ग्राम में इनका जन्म हुश्रा था । इनके पिता का माम नुखिंहघर था, यह पड़े दानी थे । इनझी दे। स्त्री थीं। बड़ी स्त्री के स्स से जेलिन धर उस्पत्ष हुए थे | यही ज्रेलिक््थर पीछे प्रेलिक स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए । ब्लेलिडाः की४ण्वर्ष की अवस्था में हनके पिता का स्वगंवास हुआ। पिता के वियेशग के अनन्‍्तर इन्होंने अपनी माता से शास्त्रों का श्र्ययत और यग्रेगाभ्यास की शिक्षा पायी। इनकी &२ वर्ष की अवस्था से साता का पर स्वोकबास हुआ ॥ माता के अ्रन्तिस च्यघीश ए-७एए-७एएननभशशणशणणनानााामाणण> संस्कार के बाद घुतः ये घर नहीं छोटे ! इनके छोटे माई ने घर चछने के लिये “बहुत विनय किया, परन्त इन्होंने कुछ नहीं खुमा। तदनस्तर उनके छोटे भाई ने इनसे लिए वहीं सक्कान बनवा दिये, और सेजन की सी ब्यवस्था कर दी | इसी समय भगीरथ स्वासी नामक योगी के लाथ इनका परिचय हुआ | त्रेलिज्षः इन्हीं स्वासीणी के साथ पुष्कर दीर्थ के गये और बर्हा इन्होंने योग के गूढ़तत्वों का ज्ञान प्राप्त किया । इन्होंने इन्हीं से मन्त्र भहण भी किया | कुछ दिनों के बाद भगीरथ स्वासी, अनेक सीथाँ में घूमते हुए सेहुवन्ध रामेध्वर पहुँचे | वहाँ से खामीजी के चर से एक दरिद्र ब्राह्मण घनी और पृत्रवात्र्‌ हुआ था । स्वामीजी का अलौकिक प्रभाव देखकर लोग बेटा धन आदि के लिये उन्हें सताने लगे | अतएुव विवश द्वोकर स्वामीजी वर्हा से हिमाकूय की ओर नैपाल राज्य में गये और कुछ दिनों सक वहीं येगास्थास करते रहे । वहाँ सर्दी की अधिकता के कारण स्वामीजी पुना भारत में छौटकर नमंदा के तीर पर मार्कण्डेय मुनिक्के आश्रम में रहने छगे | धअनन्तर इन्होंने काशी में अदना स्थिर किया | स्वामीजी का अ्रश्ात्र चारों ओर फैल गया, छोग दूर दूर से इनके दर्शनों छे लिये आते थे। काशी के याश्नी विश्वनाथ के समान भक्ति करते थे । १८० च्ष की श्रदस्था में ये विनाशी शरीर को छोड़कर आक्त हुए । चेलोक्य तत्‌० ( ३० ) प्रिभ्र॒वन, न्िकोकी, स्वर्ग सर्त्य और पात्ताछ, अद्याण्ड +--विज्या तत्‌* (स्त्री० ) भांग, संग । त्रेवर्णिक ( गु० ) ब्राह्मण, छत्रिय और चैश्ण का चर्म! बेयार्षिक तव० ( वि०) तीन बर्ष सस्बन्धी। ज्रेविक्रम तत० ( छ० ) विष्य, वासन भगवान । चेटर तत्त्‌० ( घु०) संस्कृत का एक्र छून्द विशेष, नाटक का एुक भेद । हु ज्ञोठी तद॒" (स्त्री) चन्चु, चॉच,ओरोठ,ढोंठ । [ का धर । ख्ोण दे० ( ४० ) दूण, तरब्स, इपुघि, वाय रखने क्यधीश तव्‌० ( 9० ) ब्रिकाछाधिफ्ति, ब्रिल्योकेश, सूर्य, दिवाकर | ध्यम्घक ( देहछ ) थनी भबयस्वक तव्‌* ( पु० ) शिव, महादेव, त्रिलोचन । व्वरिवोदित तव5 (वि० ) [ त्वरित + शदित ] “-सख् ( घु० ) कुबेर, यद्ध राज, घनाधिष ) शीक्ष ऋथित चावय, जस्दी से कहा राया वज़य | ध्यादिक तत्‌« ( बि० ) तीमरे दिन ट्वेनिवाला, तीसरे | त्वछ्मा तत्‌* ( घु० ) [ स्वचू+ठम्‌ | भादित्य विशेष, दिन का, दे। दिन े बाद देने वाले रोग झ्रादि । त्यक_ तत्‌« (ख्त्री० ) स्पररीन्द्रिय, धाठ, ब्रढ्ऋब, चमई, दालचीनी ।--कणु ( पु० ) फोडा, बण, स्फोटक, घाव, चत |-पत्र (घु० ) तेजपात। +सार (पु० ) वाँव । त्वचा तत्‌ृ० (सत्री० ) चमें, वढकल।, छात्द । स्ववृडाम्रि तत्‌* ( पु० ) श्राप चरण । त्वदीय तव्‌० ( बि० ) तुम्हारा, तुम्दरा सम्बन्धो । त्वण तत्‌« स्त्री० ) बेग, शीघ्रता, दुत, शीर। “कारक (गु०) शीघ्रकारक, द्रुप्चरी | -न्वित ( वि० ) [ व्वरा +- भ्रन्वित ] तूर्ण, त्वरित । त्वरित हल (विष) सवपन्वित, (०) शीघ्र, दूत) सूर्य, दिश्वकर्मा, महादेव, प्रभापति विशेष, एर्ण- सक्कर जाति विशेष, चढ़ईं, चित्रा नधत्र का अधिष्ठाता देश्ता ! «..[ नपत्र) त्वांष्र तत्‌० (पु०) बृत्रासुर,शृत्र,ना पक भसुर,पन्न, चित्रा त्वाप्टी तद० ( खी० ) चित्रा नद्तन्न, संज्ञा नाम की सूय की स्री ! त्विप तव5 ( स्री० ) शोमा, प्रभा, कान्ति, दीघ्ति, धवि, वाक्य, व्यवश्लाय, जिगीषा, जीतने की इच्छा । ख्विपा तदू» (स्त्री०) दीघि, शो भा, राशि, किरण । त्विपाम्पति ठत्‌० ( छु० ) पथ, रवि, भानु । स्विपि तुत० ( पु५ ) किरण, राशि, तेव, प्रमा। क्ल्िजित-+ थ व्यज्षन का सत्तददर्वां अच्तर, दन्तस्यान से उच्चारण होने के कारण इसे दन्‍्त कहते हैं। थ तत्‌० ( घु० ) पद्दाह, रक्तण, व्याधि विशेष, सय- दिन्द, भदण, मप्तलष्वस । * थईं दे" ( स्री० ) जग, देर, अदाक्षा । 'थई देन (ख्री० ) कपदों की राशि, वस्घसमूद ईंदे की बनी चटारी, शद्दनिर्माता, घर बनानेवाला राज, पषई । [ धून्ी, पाया। थंच, थंवा, थम तदु" (पु-) स्तम्भ) खम्सा, स्वुम्भ, धमना दे* ( क्रि०) रहराना, रुहना, सम्दधना, स्थिर डोना । थक दे० ( धु- ) पका, चक्का, चक्कान, देलर, गाँव की सरइद, प्रामसी भा, ढेर, राशि, ,भाटाछा ।--थक्क « ( बि० ) लयपध, तरवतर, सिक्त, असक्त थकसा ० ( कि.) श्रान्त दवोना, झरना, हार ज्ञाना, अधिक परिधम्त से इन्द्रियों का >चदणश होना, दा पै धायदि की शिपिल्ता, घीमा पड़ जाना, सुस्ध द्वो जाना ( थकरी दे० ( स्वो० ) स्िये। फ्रेबाट माढ़ने स्मे खपत की यनी कूची [ थ थक्का दे० ( वि०) श्रान्त, थका हुआ, यकित, छान्‍्त | थकान दे० ( सी० ) यक्रावट, शियिल्नता धफकाना दे० ( छि० ) क्रान्त करना, परिश्रम कराशर शिथित्न करना, हराना ! पका माँदा दे० ( वि० ) थका हुआ, श्रान्त, भ्रमित । थक्कार तब्‌० ( पु० ) यथ अदर, तथरग का दूसा पं । थकरूावर दे* ( खो०) पकान, हरारंत, हरास | थक्ति दे० ( फ्ि० ) थक कर; हार ४र, छाचार हे। | यकित दे० ( वि० ) षका हुच्ला, भान्त, शियिट, अबश छुका हुआ | यक्रेनी ( स्री० ) श्रास्ति, धडावट | थकीहां ( शु० ) चकार्मादा, चका इचा | थकका दे० (ए०) थे।5,चककान, ल्ोंदा, घनोमूव पदाय॑, अप्ता हुआ पदापे, झप्तावट |... [ दीज, सनन्‍्द चमित 4० ( वि० ) रुच्य हुघा, ढदरा डुभा, शियिट, थति ( खी० ) घरोइर, धाती।--हर ( प० ) चढ़ ब्यक्ति मिसडे पास थाती या धरेदर रकखी दे। | थी देन (दि०) पछी, पशी,नियतास्मा,घोक,राशि, ठेर । धन चदु« ( ६० ) सन, शो चादि की चूची, दीरीछेवा । थनी दे ( स्वी७ ) घोड़े और हाथी का एक दोष । थनेज्ा थनेला या थनेली दे० ( घु० ) स्तन का रोग विशेष, स्तन का घाव, घुबरैले की जामि का कीड़ा । घनेश्वरी तत॒० (ए०) क॒रुणेन्र के रहनेचाले बाह्मस | थनैत दे० ( पु० ) गाँद का मुखिया, उद् आदमी जो जुर्मीदार की ओर से छगान वसूतल्ट करने पर नियत हो | थपक दे० ( घु० ) थाप, ठो$, खुसकार । थपकी दै० ( ख्री० ) धपक, जुमी न के पी: कर चौरस करने वाली छाठ की मुगरी, घापी, चुपकारी । थपड़ा वे० ( घृ० ) चपत, चपेटा, थप्पड़ । थपड़ी दे* ( खी० ) क्रताली, हाथों परे ताली देना। थपथपी दे० ( स््री० ) धपकी | धपना तद्‌० (क्रि० ) स्थापना, बैठान(, स्थापित फरना, देवता भ्रादि की प्रतिष्ठा करना | थपा तद्‌० ( वि० ) स्थापित, प्रतिष्टापित, स्थापना किया हुआ । [कराना । थपाना सदू ० ( क्रि० ) स्था'ना कराना, प्रतिष्ठित थपेड़ी दे" ( १० ) घौल चपरेटा, धपड़ा, घक्का, टक्कर। थपोड़ो ( स्त्री० ) घपड़ी, ताली । थप्पड़ दे » ( छ० ) चपत, चपेट, थाप । थम तब्‌ ० ( पु० ) स्तम्म, खम्भ, पाया, थूनी । धमकारी दे ० ( वि० ) रोकने वाक्ता । थमा दे० ( वि ) तुन्दिल, तोदेट, बड़े पेटवाले । थमना, थंसना दे" ( क्रि० ) रुकना, घंसना, ठद्दरना । घर दे* ( 9० ) घछ, सिंह, बाघ का खेोह, बीहड़ जज्ञल, घीरान धन ( स्त्री० ) सह परत । शरथर दे० ( स्त्री० ) कम्प, कपन, डयमग, हलचल, पुक् प्रकार का कम्प। बहुत कम्प, यधा--“ जाड़े से धरथर कपषिता हुआ भी प्रातःकालू गरद्मास्थात करने गया ।--कँपनी दे" ( स्त्री०) पुक छोटी चिड़िया घिशेष । [से कपितां । धरथराना देन ( क्रि० ) कपिता, कम्पित हेता, भय थरधराहद दे० ( स्त्री० ) कम्प | धरथरी दे० ( स्त्री० ) रूपझूऐो । धरदाई, थराई दे० ( रन्नी० ) पुदसान, निहोरा । थरहराना दढु० ( क्रि० ) चिन्ता से कॉपना | थरिया दे ० ( स्त्रो० ) धाल्नी, टादी । [चाज्षी । धरजिया, धरलिया, थरकुलिया दे० (स्त्री०) छाटी ६ रेप! ) धांकना धर्राना दे० ( क्रि० ) कम्क्ति होना, कम्पित करना, केपा देना, शक्लित करना । *थत्र त्तद्‌ ० ( पु० ) स्थल, जगह, ज़मीन, राव, धरती, स्थान, ऊँची घरती, बाघ की माँद; धणम्णप्डल | थल्लकना दे० ( क्रि० ) घड़कना, फड़कना, तज्ञफना, उथल पुधल दाना [वाले मनुष्य ग्रादि जीव । थल्नचर तदू ० (पु०) स्थरूचारी,भूमि पर रहने या चलले थलचारी तद्‌० ( वि०) भूमि पर चलने वाले प्राणी | थलथज्ल दे० ( वि० , मेप्टेपन के कारण कूछता या हिलता हुक्रा घलथलाना ( क्रि० ) सामान्य श्राघात से भी हिल्यम लगना, कम्पित होना, जिस प्रकार सोटे शरादम्ियों का मांस हिलता है । थलबेड़ा दें० ( पु० ) नाव छयने छा घाट | [वरतम थज्निया दे० ( स्ली० ) चोदा घाछ, भोजन बरने का थल्ती दै* (खवी० ) स्थान, बैठक, चालू का सैदात। पाण्डुर, परत या बन की प्रान्त भूमि | थवई दे० ( धु० ) राज, थई, मकान बनाने चालछा, ईटे पत्थर की जोड़ाई करने चाल्ना कारीगर। [दोना। घहरानो दे० ( क्रि० ) कॉपना, शक्वित होना, भीत थहाना ( क्रि० ) थाह लेता, गहराई सापना । धाँगदे० (स्त्री ) चोरों का गुप्त गृद, मद, खोज, पता, सुराग । थाँगी दे? (9० ) चोरों का सेदिया, घाग छगाने चाला, चोरी का साल्‍ मोल लेते वात्ता, चोरों का चोरी के लिये समय स्थान प्रादि की सूचना देने वाला । चोरों का श्रद्ठा रखने बाला, चोरों का सरदार । थाँप्त दे० ( 9० ) खम्भा, स्तम्भ, धूनी । शाॉँभना दे० ( क्रि० ) अवलम्यबन करना, रोकना, अथ- काना, आइना, सहायता करना, विलम्पर करता ॥ धाँवला दे० ( छु० ) क्यारी, अआलवबाल, घाला ) था ( क्रि० ) है का झूव काल, रहा ! थाई चद्‌० (चि०) न मिटने बाल, बवा रद्दने बाह्य (एु०) बैठक, धधाई । थाक तदू० ( घु० ) प्रामसीमा, थे, ढेर का देर, सशि, अटाला ! (क्रि०) धक कर, हार कर | चाकना दे० (क्रि०) घकना, भ्रान्त द्वोना,छानन्‍्त द्वोना | शा० पर्‌क-४े६ थाति थाति, थात्तो (स्वी० ) सश्चित घन, जमा, घरोंद्टर, भमानत | [पश्च बंधिने का स्थाम । थान दे० (पु०) कपड़े का धाम, स्थान, देवल, जगह थानक तद० (पु०) जगड्ड, थाला, फेन, झाग | थाना दे० (पु*) स्थान, ठिकाना, बैठक, चौकी, चौकी, सिपाही के रहने का स्थान, केतवाली, शर्मा ।-- पति तब॒० (प०) दिऊूपाक, प्रामदेवता । धानी दे० (पु) स्थानी, स्थान का स्वामी, स्थान का प्रधान या मुख्य । (वि०) सम्पन्न, पूर्ण । थानेदार दे० (पु०) कोतवाल, पुलिस का पुक अफूसर । धानैत (३०) थानापति, प्रामदेवता । घाप दे० (स्ली०) घौल, धप्पड, पद्च॒ का पवि मर्याद, चैठ5, थपदी, छेःदे ठोल के बजाने का शब्द । धापन तद्‌* (१९) स्थापित कामे का कार्य, रखने का काये | धापना दे० ( क्रि० ) थांपना, गोबर पाथना, उपरी बनाना, यपयपाना, ठोंकना, रखना, रथापन करना, टहरा देना, घरना, मुकरेर करना, बैठना, कलश स्पापन की पूजा । थापरा दे ० (पु०) डॉगी, छोटी नाव । धापा दे० (पु०) पद्ठ के पवि का चिन्ह, पे का दिन्द ।--दैना या लगाना ( फ्रि० ) किसी मगर कार्य के भवसर पर ख्तियाँ ऐपन के थापे छगती हैं। [गया ॥ धापित दे० (वि० ) स्थापित, प्रतिष्टपित, बैठाया धापी दे० (स्री०) धापने का शब्द, काठ की दनी हुई धापी, जिससे चृत आदि पीटते हैं । थाम दे* (पु०) धम्म, थूनी, टेध, मस्तूज्ष |, धामना दे० (क्रि०) रोकना, पछूडना, अटझाना, डाथ में लेना, सेभालना । फिरणा। थाउद्दना दे+ ( स्री० ) सम्माठना, रोकना, विल्म्व -धायी दे० ( वि० ) स्पायी । > [बिड्ठा प्राव्म | धार, थाल दे० ( पु० ) वढी धाढी, भोजन करने का थारा ( सर्वे» ) सुम्दारा थाज़ (०) देशो थार । चाज़ा दे* (९०) चादावाला, थविरा | थाज़ी रे० (स्री०) थलिया, मोजन करने का पात्र । थाव दे (स्लो ०) घाइ । ( ३८६ ) थुधकारनों धाचर तदू० (घु० ) “थावर, प्राणिविशेष, भचछ, बद्चादि। याद देन (सत्री० ) तला, पेंदा, पानी के नीचे की सूमि, गहराई का अन्त, अन्त पार, सीमा, संख्या, परिमाण आदि | किसी पस्तु रा गुप्त रीति से लगाया यया पता, उताराघाट, झाहठ, अदाज, जल का गद्दगाव, जब्न के नीचे की भूमि | थाहना ( क्रि+ ) थाह लेना, पता छगाना | धाहवरा द० (बि०) दिद्वला, जिसमें गद्दरा पानी न दो | चाही दे० ( ६० ) नदी का इ्थला स्थान, जहाँ श्रधिक जल न हा | जिहरी न हो । थाहा दे" (स्त्री० ) इथली नदी, नदी विशेष, जो पिगरी, थिगली दे० ( स्वी० ) 'चहइुती, पैवन्द, फटे हुए कपई का छेद बन्द करने क्र कपड़े का जो इुकड़ा गाया जाता है वह | [रहन, ठहराव ) थिति त्दु० ( ख्री० ) गिधिति, स्थिरता, निश्चितवास, धिर तदु० (वि०) स्थिर, श्रचछ, निश्चित | विरकना दे? ( क्रि० ) निपुणतापूर्वेक नाचना । पिरको दे « (स्री०) चमस्कार,व्शिषता, घूमने की रीनि । धिरता तदु- (ख्री०) स्थिरता श्रचघुरुधव । थिरा तदू० (ख्री० ) स्थिरा, पृथ्वी, घरती | पिराना द० ( क्ि० ) स्थिर हो, ब्रैठाना, ठहराना, मिट्टी के बैठ जाने से पानी का साफू होना | थिर दे० ( क्रि० ) स्थिर दो, कायम रद । थी दे (क्रि० )“ था ”! का स्त्रीकिद । थीर दे” ( वि० ) सुखी, स्थिर । धुकथु काना दे? ( क्रि० ) थुछना, वार घार धूस्ता । घुकटाई दे० ( वि० ) ऐसी धौरत जिसे देख सब्र थूक या निन्‍्दा करें । थुकाई दे० ( स्त्री० ) थूघने का काम | थुकाना दे० (क्रि० ) निन्दा कराता, झ्रप्नतिष्ठा कराना मुँह में रखी वस्तु को गिरवाला हगरघाना। धुस्फाफजीद्वत दे० ( ख्री० ) तिरस्कार, मैं मैं दूं दे, शिक्कार, यूकना या नालत देना । [खुषक शब्द। घुड़ी देन (स्व्री०) छानत छणा और तिरस्कार धुतकारना दे ( क्रि० ) । अनादर के साथ निक्रा शुयकारना द० ( क्रि०) 6 हढना, अपमानित करइ निकाह देना । घुधना ( डेप ) थेपना शुथना ( पु० ) निकछा हुआ ढंवा ऊुँद । धुथनी दे० ( स्त्री० ) शूकर का सेंड | [ छघ्काना । घुथाना दे० ( क्रि० ) भों चढ़ाना, तेवरी चढ़ाना, श्रोड थू' ( श्र 2 थूकने का शब्द, घिक्‌, छिः। दे० ( धु० ) मुह का पानी, कफ, खखार | थूकना दे* ( क्रि० ) थूक फेंकना, खखारना । धूणी तदू० ( स्त्री ) स्थूण, स्तम्भ, खम्सा, सहारे की लकड़ी जो छप्परों में जयायी जाती है। धुनकिया, धुनिया | [(वि०) चुरा, ख़राब । धूथड़ा दें० (पु) शूकर झ्ादि पशुओं का सुख,थूकनी, धूथन, थूथना दे० ( पु० ) थ्रागे निकला हुश्रा लम्बा मुँह, थूथढ़ा, पशुओं का सु ह। थूथुन ( प० ) देखा थूथन | थूमी तद्‌० ( स्त्री० ) थुणी, स्तम्भ, खम्भा, घरत | थूरन दे? ( घु* ) पीटन, कूचन, फूचना, कूटना | धूरमा दे० ( क्रि० ) कुटता, मारना, पीटना, रस्सी , बनाने के लिये झूँज था नारियल के खुक्के का ४... परीटकर पतला बनाना। थूल :तद्‌० ( बि० ) मोढा, भारी, भद्दा | थूत्ला चदृ० ( वि ) सादा, ताज़ा। थूली दे" ( स्त्री० ) दकिया, सूजी, हाल की ध्यायी हुई गौ के। जे। पकाया हुआ दुलिया दिया जाता है चद भी धूली कहाता है। धघूदा तदू० ( घु० ) दीला, हृढ, मिद्ठी का जौंदा। ( र्व्री० ) धुद्ी, घिक्कार । थूहर, थूहड़ दे० (० ) पौधा विशेष, सोंज, सेंहुड़, यह कटीली पौधा होता है । थूहा चदू० ( पु" ) हृढ, दीछा, घटाज्ा । थूही दे० ( स्त्री० ) मिद्ठी की ढेर । थेडथेई दे० ( स्त्री० ) श्रानन्‍द, हर, ऋत्य, जनित आनन्द, बाने के अनुकरण का शब्द विशेष | दे० ( वि० )थिरक थिरकु झा चाचने की खुदरा तथा शब्द । की चिप्पी | -थेगली दे० ( स्त्री० ) दिकड़ी, जोड़, पैव्न्द, कपड़े में थेबा दे ० ( पु० ) नग, हीरा, अँगूठी या और किसी गहने में जढ़े'जाने चाले बहुमूल्य पत्थर थेथर दे* ( वि० ) घका हुश्ा, श्रसित । लैचा ( १० ) खेत के मचान का छाजन | जैथे दे० ( अ० ) वाद्याचुकरण शब्द, ब्रामे के समाल नाचने वाले झरने घुँघरु से ज्ञो शब्द निकालते हैं। चैया दे० ( ० ) खेत के सचाव के ऊपर का छुप्पर । चैल्ञा दे० ( घु० ) बोरा, गोन, लेथा, कोधला | चैज्नी,यैजिया दे० ( स्त्री० ) छेद थैजा, केधली, बहुआ, खेली । थक दे? ( पु० ) थाक, इकट्ठा, सब का सब, एकत्र, समुदाय, राशि, ससूड़, ढेर; एक देश, भाग, चिक्नी का हकट्टा माल, दोज्ा, म्रुहदद्ला दूर दे० ( घु० ) वह व्यापारी जे। खुदरा न बेचकर इकट्ठा माल बेचे [--अन्दो ( स्त्री० ) दलावली, दुलबन्दी । थेषड़ दे० (छु० ) फले हुए केले का गामा; फलितत कदली दूढ का गर्भ, कम, न्यू, 'लछ्षप | श्रेडड़ा दें० (चि०) अप, किल्लित, कप्त, न्‍्यून, तनिक ! --थोड़ा (अ०) कुछ कुछ, भ्रद्प भ्रव्प, शये शनेः, धीरे धीरे, कम कम |--चैड़ा होता (वा०) छज्नित दोवा, घठना। धीरे धीरे आगे बढ़ना, क्रमशः अग्रसर होना |--घहुत ( वा०) घादबादु न्यूनाघिक, फ्मोवेश | से थेड़ा (बा० ) अस्यस्प, बहुत कप्त | थे।तरा दे० (चि०) मेंघर, थेयरा, कुण्ठित्त, तेज नहीं । थेतती दे० ( खी० ) थूथन | [ पेटी, पेक्ली |. थेथ दे" (स्त्री० ) निसुतारता, खेखजापनम, तोंद थेथरा दे० ( वि० ) खेखला, निकम्मा, जे! किसी काम में न भा सके | [ धार का । थेथला दे० (वि० ) अत्तीक्षण,. कुण्ठित, बिना, थेाथा दे" ( पु० ) शऔौषध विशेष, फन्नद्ीन तीर, बिता घार का बाण, मेरा अख, (वि) छूवा, रीता, रिक्त, बेदुसका । ( सबे० ) भद्दा, ब्ेढ पा । थेवथी ( स्री० ) एक प्रक्तार की घास वात दे ( बा० ) अन्थेक वाक्य, बिता प्रयोशन का वाक्य, अर्धहीन वचन, ऊटपर्टांम वात थे दे० ( पु० ) पालकी के बाँल का मुखढ़ा, छोप, डॉप, छाप, सुद्दर, भूषण, अलछद्भूार | शेपड़ी दे० ( स्त्री० ) चप्त, घौछ, तढ़ी । * थेपना दे० (क्रि० ) पुछन्रित, करना, सेंसालना+ थापना, लेपएना, ग्रौजना, बढोरना, साथे सढ़चा | थेपियाना ( देषद ) दत्त थे।पियाना दे* (क्रिष्) चुना, बेँद देँद गिराना, | यार दे* ( घु० ) केच्रे का गाम, थूदर का पेड । मिरमिराना, डुंदियाना । थेररा दे० ( वि० ) थेडा, अल्प. किम्चित्‌ | थेषी दे" (घु५ ) चपेट, चपत घक्डा, सुक्छा। थेररी ( ख्री० ) दीन, अनाय॑, जाति विशेष, थोड़ी । थेव, थे दे। ( ख्ी० ) घरन की थूनी, छढ़ही का | थेाहर दे० ( घु० ) यूदर, सेहुई, सीन । टेकन, छड़ी का टेकन । झेना दे० (घु०) गौने के बाद की स्त्री की घेवड़ा दे" ( पु० ) घूषन । - बिदाई | दृ दू यह व्यक्षव का अद्टारहवाँ और दन्य बरण्ण है क्योंकि | दूशक तत्‌० ( पु० ) कीट विशेष, वन मच्डी, ( गुर ) इसका इच्चारणस्थान दन्त है । इन्ताघातकारी, इड्टूः मारने वाढग, सप॑ आदि । दू ततु० ( पु० ) दाता, पर्वत, दान, दाँत, खण्डन, | दैशन तद* ( १० ) [दश्‌+ ल्युद्‌] काटना, दु्ताघात रचण।, भागाँ, पत्नी, संस्धरण, सुधघारन, किसी |. करना, दीत से काटना ।. [ हुआ्रा, सण्डित । शय के अस्त में झाने से यह देने वात्रे का बोध * दूंशित तदु० ( गुः ) [ दश + इत ] दन्त द्वारा काटा करता है । यथा--धनद, जरद, पयोद आदि। ' दंशी तद्‌० ( वि० ) डासने बाला, प्राक्षेप्युक्त पचन इसका काठता श्रथे हिन्दी में भ्रपसिद है । ।. बोलने वाखा, द्वेपी । ( ख्री० ) चोटा ढाँप । दृइ तद्‌० ( पु ) दैव, भाग्य, भद्ष, इईस्वा, देवता । | दृष्ट तद्‌० ( घु०) [दिंश + श्र] दन्त, रदन, दाँत । जमाया ( वि० ) भाग्यदतत, भाग्य का मारा, | दृष्टा ततु० ( स्त्री०) [ दष्ट्र+ भा] विशाल्त दस्त, दुर्भांगी, भरमागी । --नखविप तव्‌* ( प० ) बिछी, कुत्ता, बन्दर, दृइप दे ) (पु० ) देव, विधाता अध्ष, ईश्वर, मेढ 5, छिपकली आदि वे जीवजन्तु मिनझे दाँत दुई देन # भाग्य। और नगगों में विष हों ।--युद्ध तन (६० ) दूँग (वि०) चकित, म्तन्ध | (पु०) मय, डर, घवराइट | शूकर ।--ल तत्‌० ( पु० ) एक राह का नाम दुंगई है ( वि० ) दगा करने बाला, उपद्रवी + ( बवि० ) बड़े बड्दे दर्तों वाला। [(्िंछ जन्तु । दृगल दे (१०) पहलवानों का युद्ध, समूद, जमावढा। दूंड्री तत्‌० ( वि० ) शृद्दइन्त विशिष्ट, शूकर, सं, दूंगा दे* ( धु० ) फगह्ठा, उपतद्रक, बखेडा । दूंस तव्‌० ( पु० ) दंश । दूगैत ( गुर 2 इण्दवी, बागी । * | दडरना ( कि० ) दौदना, भागता। दुद्दना ( क्रि० ) दण्ड देना, सज्ञा देना । दृक तत* ( पु० ) उदक, पानी, जल, रस | दतिया ( स्री० ) दोटे चोरे दशत। दुकार तद्‌० ( पु० ) तदर्ग का तीसरा वर्ण “ द ””। दृंतुरिया (स्त्री० ) चोरे छोटे दांत । दक्खिन तद्‌० ( घु० ) उत्तर के सासते की दिशा। दंतुला ( गु० ) बडे दुतों बाला । +नी तदु० ( वि* ) दछढ्षिण का, देवी विशेष । दुंदाना ( कि० ) यर्माना, गरसी ख़बना । | ( पु० ) दढिण देश का रददने चाल दूँदी ( घ॒ु० ) एृछ प्रद्यर की मिठई, कगडलू। दृत्त तब» (पु) निषुण, कुशल, प्रवीण, पढ़, दादिना, दवरी ( श्री० ) यैलों द्वारा सूबे अ्रद्न हे डंटबों रौंद- ( 4०) मुनि विशेष, शिव का बैठ, शुद्ध विशेष, वाना, दौय चलवाना। दूंश तत्‌* ( पु* ) दन्तदत, सप्प था चन्य किसी वियैले कीडे का काटा हुआ घाव, डॉस, कवच, असुर विशेष, मृगुमुनि के शाप से भर के नामक कीट की ये।नि इसन पाई थी ।--सोर (पु) मद्दिप, मैंसा अ्प्मि, शिक्ष, मुरगा, विष्णु, बल, बीय। प्रशापति विशेष । यह ब्द्या के दस मानस युत्रों में से एक -पे । इनका विडाह मु की कन्या प्रसति से - हुआ था | इनडी १$ कम्याएं थीं। इनमें से सेरद कन्याएु धर्म को, पृ अप्ति केक, पृ च्ज्ञ ( श्द8 ) दृत्तिणा पिठ्गणय के और पुर शिव को च्याही गई थीं। | दत्तन दे० ( छु० ) दक्ष शब्द का ब्रनसाषा के सिद्यसा- शिव को ब्याही कन्या का नाम सती था | एक सम्रय शित्र ने दुक्त का अम्युत्थान नदीं किया, इससे दक्ष के बढ़ा क्रोध आया और उन्होंने शित्र की बढ़ी मिन्‍दा की और उन्होंने शिव्र को समाजच्युत करके उनवा यज्ञसाग रोक दिया। कुछ दिलों के बाद दृ्ध सब प्रजापतियों के अधि- पत्ति बचाओ्रे ग्रमे, इसले दक्ष का अहह्ुपर और भी बढ़ रया | उन्होंने बृहस्पति सामझ यज्ञ का |, अलुछ्ान प्रारम्भ किया, उस यज्ञ में खभी निम- न्न्नित किये गये, परन्तु शिव और सती महीं। पिता के यज्ञ करने का समाचार सुनश्र सती ने पिता के घर॒ जाने की शिव की अजुमति चाही, ड्ित्र ने श्रनुमति देदी | सती पिता के यज्ञ में उपस्थित हुई | सती के सामने दर्पान्ध द्त शित्र | की निन्‍दा फरने कोसे ' पति की तिन्दा न सुनने के लिये लती ने चहीं शरीर त्यास किया । इसकी ख़बर चारद मे शिव तक पहुँचाई। शित्र क्रोध से श्रधीर दे गये | उन्होंने श्रपनी जटा भूसि पर पठकी । उसमें से वीरभक्ट की उत्पत्ति हुई, वीरभद्ध शिव के अनुचसें के स्राथ यक्षमूमि में पहुंचे और उन्होंने यज्ञ नष्ट अष्ट करके दक्ष का सिर उतार लिया और उले जलता ढाला । पुनः ब्रह्मा की प्रार्थता करने पर शिव ने बकरे का सिर दुच् के कबन्ध में जोढ़ने की श्रनुमति दी | दत्त जीवित हुए । सत्र यज्ञ समाप्त करझे उन्होंने अनेक प्रकार से महादेव की स्तुति की ॥ “-भश्रीमदुमागवत >- चत्‌० (बि०) कुशछता | ( स्री० ) एथिद्दी । --कन्या ( छ्ी० ) दुर्गा, भगवती, सती । ऋतु- ध्यंसी तर० (पु०) मदादेव घीरभव् जा (स्री० ) उम्रा, सत्ती, हुर्ग, सत्ताइल नछंत्र ) >-क्षापति (४० ) चन्द्र, शिव कश्यप, धर्म, अत्नि, रद्ध ++ता (स्ली१) चतुरता, पड़ता, सैदुणय, निपुणता |--सावशि (पु०) नबस मु । >-छुत ( ए० ) दुच्च प्रज्ञापति के पुत्र अचेता । --छुता' ( ख्री० ) सत्ती, उमा, महादेव जी की पत्नी, मवानी | चुसार चहुबचन, यथा--देव, देवन लेक, ल्मोझल | चायक विशेष | यथा-- 5 #दुक भाति सब तियन घो जारो ह्ोय सनेह, सो दृत्तन मतिराम, बरनत है सलि सेह | ” --+रसराज । दृक्तिण तत्‌० (वि० ) लरब्, बदार, अनुकूल, परदुन्दा,- चुवर्ती, भ्रन्यचित्नानुवर्तों, चतुर, प्रवीण, अपसब्य, दक्षिण दिशा, दहिनाभाग, चार प्रकार के पतियों में से एक पति, अ्रदेक नाग्रिकाश्ों को समानभाव से देखने घाल्या। ( देखों वृत्तन ) |--कालिका (स्वी०) मद्दा विद्या विशेष, ध्यद्या शक्ति -क्रेग्द् बढ़वानल, बड़वास्‍्मि। खराड' (पु०) विन्ध्याचल के दक्षिण का देश ।- गोल वय्‌» (पु०) वे राशियाँ (छुला, बृश्चिछ्, घन, मक्त, कुम्भ 'ौर सीन ) जो विषुवत्‌ रेखा छे दक्षिण पड़ती है --ता ( खी० ) अम्ुुकृलता,सरलता सारल्य +--पथ दक्तितन दिशा ! --पूर्चा (ल्वी०) दक्खिज और पूरत्र का केत |७- पश्चिता (छो०) दक्षिण और पश्चिम का कोन | ० हरुत (पु०) दाहिता हाथ ।--ाप्लि (०) [ दक्षिण कश्रप्मि] चज्ञामिविशेष चल (7०) [ दक्षिण + अचछ ]मडटय पर्वत, दक्षिण दिशा का पच्त विशेष ।लापथ ( पु० ) दक्षिण भारत के लिये मार्य /--परा तत्‌० [स्त्री०) नैऋत कण ।- --प्रव॒ण तद> ( पु० ) उत्तर की अ्रपेक्षा- दक्षिण की तगफू अधिछ नीचा या ढालुर्वा स्थान।[ --य्े | ० ) [दिण + भावत्त] शझ्नविशेष, बहिनी ओर सुड़ा इुश्ना शज्ल, बहुमूल्य शहू, पडलसूचक अपि ।--भिसुस्त (जि०) [दक्तिण +- * अमिप्तुख] दृक्चिण ओर का रूख ।--ामुख (बि०) दृक्षिएस्थ, दक्षिण दिशा में कृतमुख --झूत्ति तत्‌० (प०) शिव की तान्त्रिक मूत्ति चिशेष। +-चह तत्त्‌० (ए० ) दछ्धिण से ऋनेचाल्ा वायु । >+ाशा ( स्त्री० ) दक्षिण दिशा | दत्तिणा तव॒० ( स्त्री० ) दत्तिण दिशा घर्म कम का पारितेोपिछ, मेंट, पूछ । कर्म डी सूचि के लिये दाल, नायिका विशेष हें ( बि० ) [ दक्षिण +अइ् ] दक्तिणा येग्य, दुछ्तिणा के अधिकारी [ दृत्ियायन (्‌ ३६० ) द्ड्ा दृत्तियायन तद॒० ( पु० ) सूर्य का दक्षिण दिशा में गम्न, कहे की सैक्रान्ति से धन कि मक्रान्ति तक का काछ, जब सूर्य की दृत्तिणगति रद्ती है । टत्तियी तद्‌० (स्प्री० ) दचिण देश ही भाषा । (पु०) दक्षिणदेश वाली । (वि?) दक्षि देश सम्यन्धी दत्तिशीय तत्‌* ( वि० ) दछ्तिण देश का मनुष्य, दक्षिण देशयासी, दान योग्य, दान पाने का अधिकारी | दुज़न तद्‌* ( पु० ) दकखन, दद्धिण दिशा। द्नो तद्‌? ( वि०) दक्षिण दशवासी, दक्षियद्रेश का। दावत्न ३० (पु०) श्रष्वि छार, सचा, अधिकृत । - दिहानी ( स्थ्री० ) अ्रधिक्रर दिखाना ।--नामा ( पु» ) बह कागज जिप्में किस्ली को किसी वस्तु का कब्जा दिलाने की आज्ञा हा | वृद्धिन दे? ( ० ) दक्षिण दिशा । ५ देख दिन दिशि हय दिद्िनादी ३” +-तुलसीदास | दुखिनहां दे” ( बि० ) दढ्षिण का । दल्विना दे० ( पु ) दक्तिण से थाने वाज्ञा पवन । दजिनी तद्‌ू० ( जि० ) दक्षिण देशवासी, दृक्तिण देश सम्बन्धी, दद्धियों सुपारी, चिरुनी सुपारी । दुस्ोज़ ( गु० ) अधिकार जमाये हुए, ग्रधिकार रखने गाझा |--कार ( धु० ) व जोता जे। किसी खसपर १३ वर्ष तक अविच्छिद अधिकार किये हो। दूगड़े द* ( ४० ) धक्का, ढक्का, नगारा दुन्दुमी। दुगड़ना दें० (क्लिष ) अभ्रविश्याव काना, अप्रत्यय काना । [ दगढ़ | दगड्ढा दे० ( ए०) डगर, मार्ग, राइ, रफ़्तत, पथ, दुगड़ासा दे० ( क्रि० ) डगराना, दौडना, घवाना, चच्चना | [( वि+ ) चमझीला । दुगदुगा दे* (पु०) दर, सन्देद, पक प्रछार की कंदीठ + दुगदगाना दे० (क्रि०) चम्रदाना, चहना, प्रद्यशित होता, साझामरू करना । दुगद॒गाहद दे? ( खो० ) चमक, चमत्कार, प्रकाश ! दृगधना दे ( क्रि० ) बलनगा, छेड़ना, सताना, दुख देना, मानसिक छष्ट पहुँचाना | है दगना € क्रि० ) छूदना, (ब-दरक या तोप का) चढना, जक्वना, कुझस जाना । --नवव.........ज.नज++++त#_...त्तज++++ दुगरा। देन ( पु० ) दे। विरम्ब, रास्ता । दृगलफसल दे० ( पु० ) धो वा, छल, फरेव ! दगला दे" ( धु+ ) बढ़ा अक्का, चोगा, रुई भरा बढ़ा श्रैगरंखा | दुगवाना ( कि० ) दागने का काम दूसरे से छेना । दगद्वा दे* (वि०) दाग बाबा, जिसने किसी स्टतक छे अलावा दो, जे। दागा हुझा दे | दगा दे5 ( ख्ली० ) छुल, रपट, घेण्या -वाज् देर (वि०) चुल्ली, रूपटी |--वाज़ी दे० (छी० ) छुछ, कपट, घेोषपा । [किपदी । दूमैल, दरगीला दे० ( वि० ) दागदार + ( ध० ) छल्ी दृग्ध तत्‌» ( वि?) [दुद+ कर] मस्सीकृत, भस्म किया हृधा, जलाया हुप्रा, ज्वक्तित, श्रप्मितापित। --काऊ ( पु० ) अड़काक, छुढ़कीभा ।--येनि ( वि० ) मष्टबीम, सूत्रध्वंस, उत्पादन, शक्तिहीन | - रथ ( पु० ) गग्धव विशेष, इनका नामया अद्धारपणं, अनेक रह्ों का एक रप इनके प्राप्त या इसी कारण इनछो छोग चित्ररघ भी कहते थे । जिस समय युधिष्ठिः श्रपने माइ्रे। को ऐेका बनवास करते थे, डसी समय कारण विशेष पे अजुन और चित्रसय में घोर युद्ध हुआ, चिग्ररथ हर गये, इसी कारण दुखित दोक! इस्बोंनि श्रपना रध जला डाबा, तभी से उनहछो दाघाप कहने लगे । दुग्या तन्‌० ( स्री०) अम#बतियि, कियि विशेष, वार विशेष, सूय के अ्रध्त होने की दशा | दृग्पाशर ( पु०) पिन शाघ्र में के है, हैं, भें और पथ को दुग्घापर माना ह। छुन्द के आरस्म में इन अचरों का रखना पिद्नछ शाखत से बचाते हैं । दुग्धिका तव्‌० ( स्त्री० ) दग्घ अन्न, जला भात, सुना अन्न, भृश्घान्य । दुः्घोदर तत्‌* (थि० ) [ दग्ध+बदर ) पात॑, झ्षुघा पोड़ित । ( ६० ) भोजन की अ्मिडापा, भोजन वाव्द्ा | दडल दे+ ( घु० ) एक प्रद्यार की चौढी, काएटिर्मित आसन विशेष, मछयुद्ध, बदाददी का युद्ध। तय" अन्धयुद्ध ! ५६५ दड्डा दे* ( पु ) झगड़ा, रौला, हुदछड़, बछवा। द्ज्ञ्ल | छह ) ... दण्डी च््भेत दे० ( वि० ) दबा करने चाल, कगड़ालू । दूघ तच्‌> ( छु ) ब्याग, हिंसा, नाश | दचक दे* ( स्वी० ) ठोकर, दवाव । दुचकना ( क्रि० ) ठोकर खाना या लगना | दूचना ( क्रि० ) गिरना, पड़ना। दृच्छ तव्‌० ( बि० ) दक्ष, निधुण, कुशल ।--कुमारी तदू० (स्त्री० ) सत्ती, दक्ष प्रजापति की कन्या | +-छुता तदू्‌ ० (स््री० ) द की कन्या, खत्ती । दृच्छिन सदू० ( स्त्री० ) एक दिशा का नाम, उत्तर के सामने की दिशा का नाम, (यु ) अज्ुुकुल, सीधा, दृदिना। दृब्छिना त्तदू० ( स्त्री० ) दक्षिया, दान विशेष । दृठना दे + ( क्रि० ) डा, धीरता के साथ सामना करना, अड्ना, खड़ा २हना, पीछे पैर नहीं देना । बड़ कना दे: ( क्रिक ) द्रकना, फदना, चिरना ! दूड़ेया दे० (3०) प्रचण्ठ रूड़/भारी बृष्टि, घक्का, दरेरा । बृड़ीाकना ( क्रि० ) गरजना, दुद्ाढना । बढ़छुड़ा दे” ( बि०,) बिना दाढ़ी का, दाढ़ी रहित, जिनकी दाढ़ी मूड़ दी गई । दक़ियल दे० ( छ० ) लम्बी दाढ़ी वाला । दूसड तत्‌० (०) [ दण्ड + अल्यू ] साठ पल परमित कार, घढ़ी, लाठी, यष्टि, दमन, निमरद, शासन, अपराधी का उसके अपराध के अचुसार शरीर या अथे सम्बन्धी सजा, ऊध्वेस्थिति, सैन्यास धर्म, सैन्य, च्यूडसेद, शत्रु दसन करने बाली राजशक्ति, ब्यूद बचना विशेष, चक्रव्यूड, ग्रकाण्ड, बढ़ा अश्रभ्व, कान, जेण, सानविशेष, भूसि नापने की लाठी जिसका काटी कहते हैं | यम, यमराज, अभिमान, अ्रइ भेद, इक्ष्धाकु राजा का पुष, प्रणाम, छार्शय ! छा नाम । दृशड॒क तत्‌० (पु२) वन विशेष, छुन्द विशेष,एक राजा दृणडकारणय ततद्‌० (पु) दुण्डक् नाम शाजा का देश, शुक्राचायं किसी करणवश राजा से रुष्ट हो गये और उन्होंने बशझे देश के जज्नल दवोने का शाप दिया । तभी छे बढ देश वन हेए गया और इसका दण्डकारण्य नाम पड़ा । यद हिन्दुस्तान के इछ्धिण भाग में है । बनवाप का कुछ समय श्षीरामचन्द्रजी ने सददीं बिताया था | दृशडदास तत्‌* ( छु० ) दण्ड भरतेवाल्ला, जुरमाने का * रूपया नौकरी करके चुझाने वाला | दृसुडघर तत्‌ ० ( पु० ) यमभ्यज्ञ, धमेराज, पुण्य पाप का फडदाता, कुल्लाल, कुम्हार, जयुद्धधागी, दण्ड घारणा करते वाक्ता, शासनकर्त्ता, दण्डी, सेन्यासी, द्वारपाल, दग्यान, सिपाही । [विम्रह, सज़ा,दण्ड | दृसुंडन तत्‌ ८ ( ३० ) [ दण्डू +श्न्‍्टू ] श्रजुगासन, दृर्टडनायक तव्‌* (प०) सेनानी, सेनापति, चतु- *ड्विणी सेना का सम्बालक, दण्डदाता, अपराध विचए कर्ता, सूर्य हल पक नायक का नाम | दयडनीति त्तत्‌० ( स्त्री० ) अर्धशास्‍्त्र, नीतिशास्त्र, दुण्ड्व्यचस्था, अनुशासन | ४ दृशडनीय तत्‌« ( जि० ) [ दण्ड + झचीय |] शान्ति देने योग्य, सज़। देव योग्य । [बान, चौकीदार । दृणडपांशुल तच्‌० ( पु ) द्वारपाल्, द्वाररक्षक, दुर- दृषडपारणि तव्‌" ( 9० ) शिव के एक गण का मास, दण्डघारी, यमराज | [बढ़ने चाक्ा, जक्लाद । दशडपाशक तत्‌० ( पु० ) बच, कर्माघिकारी, फांसी दृष्‌डम्रणाम तव्‌० ( पु० ) सादर अभिवाद्व | दूणडप्रणेता तत्‌ ( पु० ) दण्डरूतां, दग्डदाता | दयडमांत तदू ० ( वि० ) दुण्ड्यसान, दुण्डित, प्राप्त- दण्ड, सजा पाया हुथा । दृराडवत्‌ तन॒० ( ख्त्री० ) दग्ड के समान पतितल देकर प्रणाम, सर्वाह, पातपूर्वक प्रमाण, साष्टांग श्रमाण । दणडये।य तत्‌० (वि5) दण्डाह, दण्डनीय, दुप्ड पामे के योग्य, श्रपराघी । स्टिष्चर्स । दण्डाज्िन तद॒० (9०) [ दण्ड + अजिन | दण्ड श्रौर दृणडाद्यडी तत० (अ० ) छाठी की बढ़ाई, लेदा- घाटी, लाढा व्यादी लीक जट्टा हुआ । दयडायमान तत्‌० (वि०) खड़ा हुआ, दण्डक समान दण्डाश्रम तद्‌० (9०) रंन्यास घर्म, दुण्डी का भराश्षत, सैन्यासी का आचार । [संन्यासी, दण्डी | दृशडाश्ृरमी तद० (9० ) संश्ार त्यागी, विरागी, दूण्डित तत्‌० (वि०) [वण्डू + इत] दण्डप्राप्त, शासित, सज्ञायाफ्रा [ दुसडी तत्‌० (वि०) दण्डयुक्त, लठेत, छठेब्राज़ | (घु०) चतुर्थाश्रमी, यती, येगी, सेन्यासी, दण्डघरी, संन्‍्यासी, सूर्य ने एक पारवंचर का चाभ, द्ण्ड्य ( इधर ) द्त्ता छत्राष्ट का पुक पुत्र, दौन का घृत्त, शिव | संस्कृत के पुक् कवि का नाम ॥ यह बडे प्रसिद्ध कवि हो गये हैं | यद थ्राल्ट्राारिर भी थे। इनझे बनाये ग्रन्थों का संस्कृत साहित्य में बड़ा सम्मान हैं । काव्यादर्श, दशकुमार चरित, छुन्दोविचिति और कढापरिच्छेद ये चार अन्य हृतके बनाये अभी तह मालूम हुए हें | काष्यादर्श आर दश- कुप्रारचरित असिद्ध दी ईं परन्तु छन्द्राविचित्त या कक्षापरिच्देद श्रमी त€ प्रकाशित नहीं हुए हे। इन स्थान का कुछ टीक ठिछाना नहीं मिटता | इभ्व चन्द्र विद्यानागर कद्दते हैं कि य संन्‍्यासी थे । संन्‍्यास्ती कहीं एक जगह पर बनकर पहले नहीं रहा करते थे । संन्यासिये। का दुण्डी मी कहते हैं । अतदुव विद्यासागर का कहना ठाक मालूम द्वाता इ, पृक ता संस्कृत कवियो क समय निरूपण में येदों भमेटा द्वाता है | उनमें भी इन रसते बाबा का सम्रय निरुपण करना बढा ट्वी कठिन हैं। तपापि ऐसा अ्रजुम्तान किया जाता ऊिखच्छ फटिरकार शूद्धकू से ये प्राचीन नहीं थे | इनकी लेखश हर के अनुधार इन्हें कालिदास के कुछ पदल्ने का मान सचते हैं । अ्रतपृव ९ दीं सदी का श्न्त भाग यदि इनका समय माना जाय तो चहुत से कंगडे निपट जायो। इनझे। दण्डिनू भी कद्दते हैं । दृण॒ह्य तत्‌० (१०) [ दण्ड + य | द*डाईँ, दुडयेग्य दुण्डर्नीप । दृतना दे० (क्रि०) डाटमा, सामना करना । दतवन दु० ( स्री० ) पवून, दुन्तधाषन, दांत साफ काने की छझ्ड्ी | दूतारा दे (वि+) ढति वाढा, देँतेटा दतिया दे (स्त्री०) छोटा दांत । (घु०) पद्मादी तीतर, नींछ मोर । घुन्देटसण्ड की पुक राजघानी | दृतुअन दे० ( खतो० ) दतुदन । ददुवन दे० (स्री3) दातें बा साफ करन के लिये नीम घ घबूट भादि की लक्षद्दी की कूची | दतून दे (स्वी०) दतुदन, झुखारी ६ दतूना दे * ।घु०) पीघा विरोध । दतूल्ी दे" (स्वी+) छोटे छेग्टे दात, बच्चों के दात । दूतान दे ० (स्री०) दृवून, दुन्तघावन | दृत्त तत्‌० (वि०) [दा +क्त] दिया गया, दिया हुप्रा। (घु०) दान, राजा विशेष, भगवान्‌ का पुक अवतार, दत्तात्रेय अवतार (देखे दृत्तात्रेय) बद्धाजी कायरपों की उपाधि + द्वादश विध पुत्र क अग्तर्यत पक पुञ्र, जिसे दत्तवुन्न कद्दते हैं | भ्राउत्ति काल में सड्डूब्पपूर्वें& जिस पुत्र झआ स्नेद्दी और धपन समान ब्यक्ति के दें चद्द पुत्र । चैश्यों की उपाधि, यथा--चारुदृत, अर्धदत्त आदि --मुप्त ( पु ) अनसूया और अत्रि के पुत्र ( दखे। दत्तान्ेय ) दृत्तपुन्न तत्‌० ( धु० ) दत्तक, द्वादश विध पुश्नान्तर्गत पुत्र विशेष, पेसपूत, गोद लिया दुआ पुत्र मुतबच्चा । डिगाया हा । दृत्त-चित्त तत्‌० ( वि० ) जिध्न भली भाति मन दत्ता तत* ( ख्री० ) [ दच + आ ] विवाद्दिता कन्या, पात्रस्ारक्तत व( के दी हुई कस्या |-हमा (पिन) दिच + झात्मा] सूय दुत्तपुत्र, जो दूसरे का पृत्र द्वोन के किये सवथथ भ्रपने को दान करे। भनुगत, जिसने अपने को समर्पित कर दिया है।+नैय (३० ) [ दच् +अन्नेय ] दत्तानामक अग्रिपुत्र । भगवान्‌ विष्णु प्रत्रित्ली अनसूचा ४ गर्भ से दत्ता श्रेय के रूप में इसन्न हुए थे। कुशिच्वशी कुष्ठ रोगी पुक घाह्मण प्रतिष्ठानपुर (वत्तमरान कूँसी) में रहता था | उध्की पतिब्रता स्त्री अनक प्रढ्ार्ों से उप्तकी सेवा शुश्रुपा किया करती थी पुक दिन यद्द ब्राह्मण किसी वेश्या पर अजुपक्त ६ । ४९ उसझे पर शे चरने के लिये भपनी स्त्रा से कद्ठा | स्रो उसको कन्धे पर बिठा कर वेश्या के घर छे चत्नी | रात अंधेरी थी, जाते हुए कुष्ठी म्राह्मयय का पैर भणि- माण्डब्य नाम्रक ऋषि की दद् में लगा | इसप्े कुद दाह मुनि ने शाप दिया कि मिप्तका पैर मेरे छगा है बइ सूर्योदय द्वोठे ही मर जायगा। सुत्तिका शाप भुनकर चद स्त्री बहुत चिन्तित हुईं, पुन चढ़ इृ्तापूर्वक बोली," दब सूर्योदय नहीं द्वोगा” प्रतिग्रता का कददना सूठा नहीं दो सकता, रात बीत गई, परन्तु खूथे के दशन नहीं हुए | इससे दवता चढ़े चिन्विद हुपु और सोचने ढये कि अदस्या करना चाहिये, बहुत विचार के अनन्तर देववाह्ों ने यद स्थिर किया कि पतिग्रता को शान्त करना दक्ष पतिन्रता ही छा काम है | शतएव देवता की शरण यये | अचसूया उस पतित्नता स्त्री के पास गई और उन्होंने कहा कि सूर्योदय दोने देश, हुम्हारा पति मर जायगा ते इसे मैं जिछा दूँगी | उस पति बता स्ली ने कहा कि अब सूमेंदय हो, उधर सूयों- दय हुआ, दृघर इसका पति सर गया, अनखझूया ने डसके पति को जिला दिया।| अनसूया से घर मगिने के लिये देवों ने कहा, भ्रनसूया ने कद्दा, मुझे कुछ नहीं चाहिमे, वह्मा, विष्णु महेभ्वर हमारे पुत्र हों। देवताओं ने यही धर दिया । उन्हीं अ्िंदेवों का अवतार द्तात्रेय हैं | इन्हेंगे चोवीस गरुरुओं से शिक्षा ग्रहण की थी ॥ “दत्त ( वि० ) [ दूत + आदत्त ] दत्त श्रवह्नत, दिया हुआ लेना ।--दर (ग्रु० ) [दत्त + भादर] सत्कृत, लेबित, सेध्प्रमाव्‌ (--मयकर्म ( पु० ) दान फरके पुनः नहीं लेता ।--पहल (गु० ) दान करके छीन लेना, देकर के लेना।--प्रदानिक ( १० ) [ दत्त + अप्रदानिक ] अ्रष्टादुश विवाद के अ्रन्तगंत विवाद विशेष, दिये हुए ऋण का शोध कराने के किये विवाद (-बधान ( यु० ) [ दच + अ्रवधान ] कृतावधान, भ्रभिनिविष्ट, आसक्त, आसक्तवित । दृघ्ञिम तत्‌» ( ५० ) दत्तक पुत्र, दिया हुआ पुत्र, गुद्दी् पुत्र, पेससपुत्त। [ ह्ाग, देना । ददुत तत्‌० ( ० ) £ दद्‌ + अनद्‌ ] दान, वितरण, दुदूए दे० (१० ) घद्वा, साफ़ी। दद्रीक्षेत्र दे० (०) भुगुमुनि का स्थान, जहाँ कात्तिक की पूर्णिमा को मेक्षा छगता है । यह स्थान बलिया के पास है! दृदुल्लाना बे" (क्रि)) डॉटवा, ससिना, भव्सेन करमा | दृदा। दे० ( पु० ) दादा, पिताप्तह । दृद्ओरा दे० ( ३० ) दृदिहाल या दाढ़ी का मैका। दृद्ियाल्त दे० ( एु० ) पुरखे, कुछ, घराता, वंश, दादी का घर, दादी का सैका । दृद्या-सछुर दे० ( एु० ) खघुर का बाप । दद्या-सास दे? (स्त्री० ) दंदिया-ससुर की स्त्री ( ददोड़ा, दौरा दे” ( १० ) फोड़ा, गुमढ़ा। फुछाव, घाव, चींटी आदि के काटने का चिन्द । ( ३ ) दृु तव० ( खी० ) दाद, खज॒ली ।--झ ( ए०) चक्र- दधीये मर्देक, चकवड़, एक पैधे का नाभ् (--नोशिनी (स्त्री०) तैलिनी छीट, ददू, नाशकश्रीपध्ष रोगी. ( बि० ) दहु रोग विशिष्ठ, दब सेगयुक्त | दूद्ू तत० ( ४० ) दादरोग | दृचि तव्‌० ( ० ) दह्ठी, जमाया हुआ दूध |--कांदो ( पु० ) पर्व बिशेष का ध्यवहार, जन्माष्टमी था रामनवमी के उपलक्ष्य में ददी और इलदी मिला कर डालना |--मुख ( ३० ) शिक्ष, बाढक, एफ बानर का नाम जो रामसेना का योद्धा था ।- वल्ल (8० ) सुप्रीव के एक पत्र का नाम (-+रिपु ( ३० ) अ्रयस्थ भुनि +-सार ( 4००) मक्खन, नवनीत, घी; छत ।--छुत॑ (०) चअन््लमा, कमल, मुक्ता, मोती, जाजन्धर दैत्य,विप, सकक्‍खन । खुता-- तत्‌० (स््री० ) सीप |-स्मेह् तत्‌० (३० ) दही की मलाई।--स्वेद्‌ ( ३० ) तक, मद्ठा, छाद । दूधीच या दूधीजि तत्‌० ( पु०) सुन विशेष, बरह्मणंड पुराण में यह श॒क्राचार्य के पुत्र लिक्षे गये हैं । महर्षि अधर्वा के औरस से कंस प्रजापति की कन्या शान्ति के गर्भ से यह उत्पन्न हुए थे, यह बात ऋग्वेद में लिखी हुई है ! कहते हैं. कि जिस समय दछ् हरिद्वार में शिवचिह्वीन यज्ञ फर रहे थे, उस सम्रय इस्होंने शिव को निमन्त्रित करने के सलिमे दक्ष का बहुत समझाया, परन्तु दक्ष ने इनकी एक न सुनी, इसी कारण यह असम्तुए होकर दछ के यज्ञ से चल्ते गये | जिस समय वृत्नाखुर के श्राक- मण से देवता दुःखित थे, उल समय उन्हें मालूम हुश्रा था कि दधीचि मुनि की हड्डी से यदि श्रख बनाया जाय ते उससे बृत्रासुर भारा जा सकता है। यद्द जान कर इन्द्र दधीचि के पास उनकी इट्टी मांगने के लिये गये । इसके पहले इन्द्र ने दुधीचि का अपकार किया था । सद्पिं दधीचि तपस्या कर रहे थे, उनकी कठोर तपस्या की बात खुतकर इन्द्र में अलम्ब॒ुपा नास की अप्सरा को तपस्या भ्न करने हे लिये सेजा था । भ्रकग्बुपा का देखकर महपिं का चीयपात हुथा | उसीते सारस्ठत्त चासक पक जुच इत्पक्ष हुआ । इन्द्र के उपस्थित होने पर उदार- हा प[्‌७---२० दुनदुनाना चेता दधीचि उनझे पूर्व अपकार को मूल गये और उन्देंने अपना शरीर श्रपंण कर दिया। उनकी इृढ्डी से वच्न बनाया गया और उससे बृत्रासुर मारा गया। दघीचि का नाम असिद्ध दानवीरं में विप्यात है | दुनदुनाना (क्रि०) दनदन शब्द करना,आनन्द्‌ सनाना । दूनादन दे० ( क्रि० वि० ) दुनरन शब्द सहित, जैसे दनांदन तोपें दुयने ढगीं । दल्यु तब» ( स््री०) प्रमापति दव की कन्या और कश्यप की स्त्री, इसी के गर्भ से वातापी, नरक, थृषपर्वा, निकुर्म, प्रछम्व, पनायु, प्रश्ृति चाक्तीस दानवों की उत्पत्ति हुई थी ।--ज (पु०) दलु से उत्पन्न असुु, दानव, दैल्य ।--जद्विपू (० ) देवता, सुर, अमर, देव ।--ज्ञारि ( पु० ) देवता, देव, विष्णु । +--राय ( पु० ) दिरण्यकश्यप । दृन्‍्त तव्‌० ( पु० ) दाँत, दशन, रदन, ३२ की संप्या, कुक, पद्माद की चोटी ।--ाघ्रात ( छ० ) [ दन्त +भाधघात ] दुरतों का आघात, दुशनाघात, द्वाथी के दांतों छी रकर |--ावल (पु०) हाथी, करी, गज, इस्ती ।-नयुथ (9० ) [ दन्त + आयुध ] शूकर, पराद ।--कथा तत्‌० ( ख््री० ) सुनी सुनाई बात, जवधुति, कर्पित बात] “काछ ( ६० ) दन्तघावन, दाँत साफू करने की लक्डी, देतुवन ।--च्छूद ( ५०) ओष्ठ, ओठ, अभधघर, भधरोष्ठ |--धावन्र (४० ) दन्तशुद्धि, दुस्तमाजेन, दुस्तकाल ॥--धानी (सत्री०) घनिया । पत्र ( धु० ) कुपडलछ, कर्यांट्ह्लार विशेष, कान का पुक गहना, बाली ।--पिष्ट ( दि०) कृतचर्वेण चर्वित, चदाया हुआ ।--यीज़ ( पु० ) दाढ़िम, अनार नामक फ्त् |--चेप्टव ( घु० ) दन्व्मास, मसूढ़ा, मस्कुर (--शठ ( पु ) कपित्य, माई नाम की औषध, जंमोरी /--शूल्न ( घु० ) दन्त- बेदना, दांतों की पीडय । दुग्तवक्र तत्‌" ( पु ) छिश॒ुपाल का साई, विष्णुरूपी श्रीकृष्ण से मारे जाने पर यइ चैकुण्ठयामी हुभा | यही श्रेता में कुम्मकण्ये नामक रादस और सत्ययुग में दिरप्यकरिवु नामक देत्य हुआ था।. रास। दून्‍्तालिका तद्‌* ( स्री० ) ढगाम, प्रय्ठा, प्रयढ; ( रेह४ ) दृबेकना दृन्तिका तत्‌5 ( ख्री० ) घृह्धविशेष, यडी सतावर ! दृन्तिनी तदू० ( स््री० ) हस्तिनी, हथिनी । दुन्‍्ती तत्‌ ( घु० ) हाथी, गज, करी | ( वि०) दंतैठ, दंवीली, वृष्ट्री । ( स्त्री० ) स्वगामस्यात दृष्ठ | ++फल ( ४० ) पिस्ता, मेवा विशेष | दुन्तीला दे ० ( वि० ) दाँतवाला, दन्तेत्र, जिसझ बढ़े बडे दुति हों, शूकर, बृक, सुश्रर, मेडिया । दूर्ठुर वद्‌० ( ग॒ु० ) बबत, दत्तयुक्त, शृइृइन्त विशिष्ट जिसझे दांत उमड़ खामद दो -च्लछुद (४० ) बीजापूर, अनार | दन्तुरिया दे ( स्त्री० ) बच्चों के छोटे दाति। दन्‍्तेत् दे” ( वि०) दन्तेत् दे० ( वि०) दन्‍्तोलूखलिक तदू० ( ६९ ) बे संन्यासी जो शोस्तली में छूटा भ्रश्न ग्रदण नहीं करते । दृन्त्योप्ठय तत्‌० ( वि० ) वे बर्ये जिनका उचारण दति और ओट से हो, “ घ ” भच्तर । दन्त्य ततु० ( वि० ) दुतों की सद्दायहा से इचारण किये गये वर्ण, इ, उ, छे, ज, य भर श। दन्‍्दृह्ममान (गु०) ददकता ट्डुश्चा ) दुन्दनाना दे० ( क्रि० ) निर्मेर द्वोकर काम करवा, निघड़क बैठना, निडर द्वोकर बैठना | दन्न दे० (9०) वन्दूक तोप आदि के छुटने का शब्द | दृपट या दूपेट ( ख्री० ) दा।ड, घावा, सपेठ, पट, घुदकी, डपट, डॉट, घमकी । दृपटना दे० (>8०) मपटना, दैगडना, सपेट छगाना, डॉटना, घुड्कना | दूपदूपाना दे० (>5०) दप दुप करना, चम्कना, दीस ड्वोना, शोमित द्वोना । दुफती (स्त्री०) घुद्दा, जिक्द, गाता । दफन (धु०) झतक को जमीन में गाढने की फ्रिया । दफनाना (क्रि०) मुर्दां गाइना | दफा दे० (स्वी०) बेर, बार, कानून की धारा | दफ्तर दे* (१०) कार्यो्यय |--ो दे० (०) निश्द- साज, कितादें की जिरद दौँघने वाला | दबक दे० (स्वी०) सिकृदन । दूवकना देब (क्वि०) चुर हो रदता, जिप जाना, धिप रइना, लुझाना, छिपाना, धात में बैदना । ) बडे दातवाल्ा, रूम्ये दर्तों का । दबकाना दुवकाना दे० ( क्रि० ) छिपाना, लुकाना, ढापना, डॉटनसा, धमकाना | [छिपाव । दबकी दे० ( ख््री० ) दाव, छिपकी, घात, लुकाव, द्वकीला या दबकैल दे" ( वि० ) दबा हुआ, परतन्त्र । दूबड़ या दुवद्भुध दे० ( वि० ) प्रभाववात्‌, कुशीछू, कुदना | दबदबा दे० (०) आतकझू, राव, प्रताप । दुबना दे० (क्रि०) नन्न देना, नवना, जलाना, अधीन होना, डरना, छिपना, दुबछ़ना। दधवासा (क्रि०) दूखरे से दबाने का काम कराना | दवा दे० ( धु० ) दौँच, पेछ, घात । ( खी० ) आषधि, औषध ॥ [ निश्कने का काम । दवाई (ख्री०) ओपध, मंढ़ाई, डंठछ से अनाज के दाने दवाऊ (गु०) दब्यू , दबाने वाला, गाढ़ी था इक्षा जिसके अगले भाग में पिछल्ले भाग की श्रपेद्षा अधिक वे है। । [छुकाना, घासना । - दबाना दे० (क्रि० ) दावना, उठकंना, छिपाना, दृबामारता दे० ( क्रि० ) कुचल कर मारे डालना, पराधीन को दुःख देना |. [करना, छीन लेना । डवा लेना दे० ( क्रि० ) अपने भ्रधीन करना, वश दबाव दे० (पु०) प्रमाव, दात्र, चाप, पराक्रम, अधघी- नता, अधिकार (--माचना (क्रिग) डरना) सहं- मना, धाक्त सालना | [दार, रोबीला । दबीला दे० ( वि० ) औपध विशेष, ग़रभावचान, शाब- दवेपाँधच बे० (घा०) है।ले दाले, घीरे धीरे, शनेः शनेः, धीमे घीमे । दिश्य । द्वैज्ल दे० (बि०) दवा हुआ, अधीन, परतन्त्र, मजा, पृवे।चना दे? (क्रि०) दबाना, दवाच डालना; पानी में दबेचा देना । '[फत्घर । दूवेस दे० ( क्रि० ) एुक प्रकार का पत्यर, चकमके दूवासना दे० ( क्रि० ) सदपीया, घूँट घूट मदिरा पीना । दुश्र लत्‌० ( बि० ) धोढ़, कम, अक्प । दम तव्‌० ( छु० ) शान्ति, दण्ड, शासन, तपस्था के क्लेश सदन करने की शाक्ति, घर्माज्ष विशेष, * द्वान्ति, दमन, बाह्य इन्द्रियों का निश्रह, क्‍ का दवाना, इन्द्रियों के विषयों से सेकना । गवे। ( इ६४५४ ) दमन अह्डूपर, दम्भ, दर्प, कीचड़, बुद्ध का पुक नाम, दमयन्ती के एक आता का नाम, विष्छु, दवाव। दे (य० ) सांस, पत्र, प्राण, जीवनी शक्ति (जैले अब इस कपड़े में कुछ भी दम नहीं रहा ।) व्यक्तित्व ।( जैले आपदी के दम का सारा खेल है | ) घेखा, घार | --कर्ता (प०) शासक, अधिकारी ।+-घेाष (छु० ) चन्द्रवंशी राजा विशेष, यह चेदि देश के अधिपफति थे। यदुबंशी वसुदेव की भगिनी सुप्रभा दमघेष को च्याह्दी गई थी, सुप्रभा के गर्भ से शिक्षपात्त और दुन्त- बक्र दे। पुन्न डस्पन्न हुए थे। वसुद्ेव की जेठी बहिन कुन्ती के गर्भ से युधिष्टि भीम आदि डत्पज्ष हुए थे। श्रीकृष्ण चखुदेव के पुत्र थे। युध्रिष्टिः और शिक्षपाक्ष श्रीकृष्ण के वूझा के पुत्र ये लि योगी, भेज्जी । दमक दे० (पु०) चमक, सछक, प्रकाश दुप्तन करने दमकना दे० ( क्रि० ) चसकना, रत्तकना ! दूमकत्ता दे० (एु०) एक प्रकार की पिचकारी, वह अगीठी जिसमें केयछा जले। रुपया; पैसा । दमड़ा दे० (छु० ) सम्पत्ति, घन, दै।लत, ऋष्धि, दमड़ी दे० ( खी० ) पैसे का आवा भाग, चित्तच्चिलल चिढ़िया ।--के तीन तीन होना (वा०) उन्नडूना; नष्ट द्वाना, सस्ता द्वोना, व्यर्थ देना दमदमा बे* (प०) सेरचा, छुल | [प्रकाशित होना | दुमदमाना दे" (क्रि० ) दप्दस करना, असिशय दमदार दे» ( वि० ) दृढ़, मज़बूत, जानदारः चेाखा, त्तीत्र ! हु दमन तत्‌० ( घु०) [ दस + अनट्‌ ] वशीकरण दण्ड, शासन, निग्रहकरण, पुष्मविशेष, होना नामक कैघा, विष्णु, शिव, पुक्क ऋषि का नास, एश्न राजल का मास, कुन्द। राजपुत्र विशेष, यह विदर्भराज भीम का पुत्र था | सन्‍्तान न द्वोने के कारण बहुत दिनें तक भीम ने बहुत कष्ट से समय विताया | एक समय विदर्भराज के यहाँ दमन नामक .म्रह्मपि अतिथि द्वाक्र गये, अनके वर से विदर्भ राज के तीन पुत्र और पक कन्या उत्पन्न हुई, राजा ने उन्हीं ऋषि के नामा- जुसार ही अपने घुन्न और कन्या का नामकरण दूमनक किया, तीने। पुष्रों का नाम, दमदन्त और दमन तथा कन्या का नाम दमयन्सी हुआ | दुमनक तर ( पु० ) दौना, एक पौधे का नाम । ( वि० ) दमनशील | दुमनी तद्‌5 (स्नी०) सट्टोच, कब्जा | दमनीय ठत्‌० (वि०) दमन करने योग्य, ताड़ने येग्य, तादून करने के उपयुक्त, तोइने येग्य, यथा--- दोहा +- # झुँवरि मनेाइर विजय बढ़ि, कीरति भति कमनीय । पावनद्दार विरंचि अजु, रेच्ये न धनु दुमनीय ॥7 + +>रामायण । दमनू दे० (पु०) दवाने बाला, दमन करने चाला। दमबाज़ दे० (बवि०) फुसबाने पाता ।--ी दे० (स््री०) भेण्ता, छुछ, बहाानावाजी । दूमयन्ती तत्‌० (ख्री०) नछ राजा की पत्ती, विद््भा- धीश्वर भीम की कन्या, महर्पिं दमन के घर से राजा भीस को यह कन्यार्न प्राप्त हुआ था, अपनी अपूर्य सुम्दरी कन्या का विवाह करने के अर्थ राजा भीम ने एक स्वयम्बर सभा रची, इसमें देवता पर्य॑न्त निमम्त्रित डझिये गये । दुमयन्ती ने इस के मुँह से नल की प्रशंसा सुनी थी। दमयन्‍्ती मे देवता्थों का छोड़कर नकछ का दी चाण किया | कलि और शनि भी इस स्वयम्वर समा में ज्ञा रहे थे, परन्तु रास्ते ही में लौटे ट्डुए देवे। से दमयम्ती द्वारा नल का बरण किया ज्ञाना उन्होंने सुना। इससे दोने वद्ढे अप्रसस् हुए और ये दमयन्ती के कष्ट देने के त्षिये समय टेँढ़ने खगे | ११ चर्ष के बाद कलि नल के शरीर में प्रविष्ट हुआ | नल राजच्युत द्वाइर दुमयनन्‍्ती के साथ वन दन मारे फिरे, इघर शनका भाई निषध देश का राजा ना, इसी प्रकार यहुत दिन नल के कष्ट सहने के भनस्तर कद्ि स्वयं हार कर इनके शरीर से निहइछ यया समझे और दुमपन्ती पुन निषध देश के राजसिंदासन पर विराजे | दूमरक, दुमरख दे* ( रवी* ) चमरतख, कमरखा दूमा दे० ( पु० ) साँस का प्रसिद रोग, स्वास रोग | € देश ) द्यानत दुमाद्‌ दे० ( घु० ) कन्या का पति, जामाता | दमादुम ( क्रि० बि० ) छगातार । दुमाना दे« ( क्रि० ) नवाना; नम्न करना, निड्ठराबा, लचक्ाना । दमामा दे० ( घु० ) घींसा, नयाड्ा, दुन्दमि, डंका | दमारि तदु* ( घु० ) बन की चाय । दमावति दे० ( खी० ) दमयन्ती | #रात्या नल कई जैसे दूमावति [” +-जायसी । दमी ( गु० ) दमनीय, नैचा जिससे दम छगायी जाती है।..[ ख्री पुरूष, जोरू प्ुसम, जोढ़ा। दम्पति, दृग्पती ठत्‌5 ( पु० ) जशायापतति, पतिपश्ी, दृम्म तत्‌* ( घु० ) अदृ्भार, गये, कपट, दुष्टतता, पाप दिखाऊ घर्माचरण, पाघण्ड टोकप्रवष्चनार्थ घर्मांचण । दुम्मी तत्‌० ( वि० ) अष्दद्भारी, पाश्षणडी, छोर्यों को ठगने के लिये घर्मांचरण, स्वार्थ साधनार्थ घामिंक, कपटाचारी, बगुढामगत | दम्मोक्ति तू» ( श््री- ) [ दस्म + बक्ति | गर्वोक्ति अ्रदद्भारयुक्त घचन, गरब्रीक्षी बात | दुम्भोज्ि 7 8 (पु०) बच्चन, अरशनि, इन्द्र का बच्र | दम्य तत्‌० ( वि० ) दमनाह, दमन करने योग्य, दूदड देने योग्य । ( पु०) वधिया करने योग्य यछुद़ा । दया तद्‌० (स्त्री० ) दूसरे कादुस दूर करने की इच्छा, कृपा, स्नेह, करुणा, श्रतुमद्व दृष्टि तत्‌० ( स्थ्री० ) करुणा अथवा भनुप्रद का भाव | >+निधान ठव्‌* (६० ) भव्यन्च दपालु पुरुष । --निधि तब॒० ( घु* ) अत्यन्त दयाल पुरुष, ईश्वर ।--पाश्न तत्‌० (धु०) दवा के योग्य स्यक्ति [-मय (वि० ) दयास्वरूप, साधात्‌ करुणावतार, दृपास्वरूप, दयाशील, द्ृपामय | >युक्क (वि० ) दयावान्‌ ।-ल्व (वि०) कृपाबानू, दयायुक्त [--धन्‍्त ( वि० )--धचान्‌ ( वि० ) हृपावान्‌, करणामय [--शौल ( ९ ) कृपामय, दयामय [--सागर तल» (पु०) भस्यन्त दयालु पुरुष | दुयानत (स्प्री० ) ईमान, सत्यनिष्ठा ।--दार ( गु० ) ईमानदार, सच्चा, सह्यनिष्ठ द्याद्र दयाद्न ( ति० ) दयाल॒, दया से पूर्ण दयानन्द सरस्वती तत्‌० ( यु० ) स्वनाम प्रसिद्ध महास्मा, आर्यसमाज के आविष्कारक ये संन्यास्ी थे। इसके पूर्वाक्षम की बार्ते घिवादसय हैं, और वे परस्पर इतनी अनमिल हैं कि उन पर भरोसा नहीं किया आा सकता है | इन्होंने जिस सम्राज का अभिनव आविध्कार किया है बह आयेसमाज के नाम से असिद्ध है । सत्याथैप्रकाश, ऋग्वेदमाष्य भूमिका आदि हिन्दी भाषा में लिखे इनके ग्रन्थ हुं। श्रायसमाजियों में सल्याथैप्रकाश की बढ़ी अतिष्ठा है । सत्याधश्रकाश में घरमेसिद्धान्तों फी आलोचना नहीं की गई है, किन्तु मलुष्यों के चरित्रों की, अतएुव कतिपय अर्यसमाजी विद्वान भी इस रीति के उत्तम नहीं समसझते। सू्तिपुजा और श्राद्ध आदि के ये वेद विरुद्ध बताते हैं ) इनका दाशंनिक सिद्धान्त विशिष्ठाहत है। परनन्‍्ठु विशिष्ठाहत सिद्धान्त के प्रकाण्ड विद्व/न्‌ कहते हैं कि इसका यह सिद्धाल्त भी भ्रभिनव आविष्कार -झ्टीहै। दयात्त तदू* ( वि० ) दुयाल्, कृपाशु, दया फरने बाला | [लेडी । दूयित तद्‌० ( धु०) पति, स्वासी, भर्ता ! (गु०) प्रिय, दृय्धिता तत्‌० ( स्त्री० ) पत्नी; भार्या, प्रिया, प्रियतपता, स्‍त्री ।--धीन ( वि० 9 स्त्री के वशीभूत, स्त्री के अधीन, स्तेण । दयो दे* ( क्रि० ) दिया, अपित किया, समर्पित । दूर तत्‌० ( ३० ) डर; भय, भीति, श््ड, मोक्ष, भाव, प्रसिष्ठा, खिड़की, ब्रिना किवाड़े का द्वार, रास, छेद । ( स॒ु० ) अत्पाधेक, शेपद्थेक, थोड़ा । द्रकच (स्त्री०) रुगढ़ या दब ज्ञाने से लणी हुईं चोट | दरकना दे० ( क्रि० ) फठ जाव७ अनायास के इकड़े है। जाना, चिरना, विदीणे देना । दरका दे० ( छु० ) फटा, वृशर,बीच का फटाष, चीरा, छिद्व, छेद, फॉक । [टरकड़े करना । दरकाना दे? ( क्रि० ) काइना, चीरना, छेद करना. द्रकार दे० ( पु० ) आवश्यक, अपेद्ित, जुरूरी । दरंकिनार दे० ( क्रिकवि० ) अलहदा, अरूण, थक द्रकी दे? € स्त्री० ) फटी, चिरी । ( इ8७ ) दरमियान द्रखास्त ( स्त्री० ) अर्जी, भ्राथवा, निवेदन | दुरुख्त ( छु० ) पेड़, छुष । दरगाह ( स्त्री० ) मकुषरा, देहरी, दरवा ] दरशुज्लरना ( क्रि० ) छोड़ना; जमा करना । दरञ्ञ सद्‌० ( स्त्री० ) दरार, दुराज, छेद । दरजा ( घु० ) व्गे, श्रेणी, कक्ा। दराजिन दे० ( स्त्री० ) दरजी की स्त्री, दर्जिन ! दरज़ी दे” ( पु० ) सूचिजीवी, सखूचिकर्तका, कपड़ा सीनेवाढा । दरण तत्‌० ( पु० ) ध्वंश, विनाश | द्रद्‌ तत॒० ( घ०) स्लेच्छ जाति, भयानक, भय, हींग, हिगुज्न, किरात, 'बातु विशेष, शिंगरफ, सिल- रिख, पारा । ( स्त्रो० ) व्यथा, पीढ़ा; यातेना, बेदना । द्रदर दे"( छ० ) द्वार द्वार; शेयर, सिस्दूर । दरदूरा दे० ( वि० ) अधकुरा, भ्रधपिसा, मेदा, पिसा हुआ, दानेदार । रे की, श्रघकुटी । द्रद्री तद्‌« (स्त्री० ) प्रथिवी। दे० (वि० ) सेरे दरना ( क्रि० ) पीखना, नप्ठ करना | द्रप दे० ( घु० ) दर्ष, गरूर, घममंड । दरपक दे० ( वि० ) दर्षक, कामदेव, सदन | द्रपन दे० ( छु० ) दर्पण, आईना, सुकुर ६ दरपना ( क्रि० ) क्रोध में भरना, धसंड करना दरपनी तदू० (स्त्री० ) छेप्टा दर्षण। दरपरदा दे० (क्रि* वि० ) आइ में, छिप के । द्रव तदू ( छु० ) इन्य, दान, घातु +. जाता है | द्रबदय दे० (9०) मच विशेष, यह चाविक से बनाया दखा दे० (9० ) कब॒तरों के रखने का खानेदार सन्दूक, काबुक । [का काम । दरवान दे० ( प०) द्वारपाछ +-+ी (स््री०) द्वारपाल दरबार दे" (प०) राजसमा। विचारस्थान (--ों (४०) समासद, दरबार में बैठने वाले ! दरमा दे० (खत्री० ) एक प्रकार की खदाई, दूण निर्मित पुक आसन, चाँच, कट | दरमाहा दे० ( ४० ) रासिक, महीना; वेवन, एक मद्दीने की मजूरी। द्रसियान (छु०) मध्य, बीच ।--ग (०) विचवनिया, दलाल, मध्यस्थ | ( गु० ) बीच का, मध्य का | दरवाज़ा दरवाज़ा दे० ( पु० ) फाटक, द्वार, हुआर, किवाढ, कपाट | [ हुप्मा। द्रविवृलित दत्‌* ( धु०) ईंपदुन्मीलित, थोडा सिला द्रवेश ( पु० ) फकीर, साधु । दृरश तद्‌ ० ( ५० ) दर्श, देखना । द्रुस तद्‌ ० ( घु० ) देसादेसी, दरोन, दीदार । द्रसन तदू० ( पु० ) दर्शन, दीदार । द्रसना ( फ्रि० ) देख पडना । द्रसनी हुडी दे० ( ख्ी० ) देखते ही जिपे रुपयों का भुगतान दो वद हुदी । द्रसाना ( फ्रि० ) दिसलाना, मप्तकाना | द्रही दे० ( खी० ) मछली विशेष | दराई ( खी०) दरने का काम, दरने की मजदूरी । दरांती दे* ( ख्री० ) हँसुभ्ना, हँखुवा, एक प्रद्यार का अख्तर, जिम्से खेत भ्रादि काटे जाते हैं । दूराज़, द्रार, द्रारा दे० ( पु० ) फटा हुआ स्थान, चीर, फॉके, दरका, दरार, निशान। [साव, दर । दूरि तद्‌० ( स्री० ) पर्वत की गुदा, कन्दरा, मोल, दूरित तद्‌० ( वि० ) भीत, चस्त, डरा डुथा, शह्नित। द्रिद्‌ तद्‌० ( धु०) क्ंगाली, कंगाल, नि्धंत | दूरिदर तद्‌ु० ( प० ) दरित्र । द्रिद्र तव्‌० ( पु०) कंगाल, निर्धन, निस्व, रहू, दीन, दुस्तिया, गरीव |--ता (ध्त्वी०) निर्धनता, दीनता, दु ज, दुगगेते, दैन्य । [लिर्घन। दरिद्रति तत० ( वि० ) दीन, दुसी, निस्‍्वे, धनढीन, द्रिद्री तद्‌* ( वि*) दरिद्र, कंगाज़, निर्धन, घनदीन । आ ( १० ) नदी, समुद्र, सिन्धु । दुरियाई ( वि०) नदी सम्बन्धो ।--घाड़ा (४० ) समुद्री घोड़ा |-नारियल (पु०) नारियछ विशेष ।--दित्त ( वि० ) उदार, दानी ।--दिली ( र्प्री० ) उदारता । दूरियाफ्त ( पु० ) मालूम, ज्ञात, जाना टरुधा । दृरियाय दे" ( घु० ) नदी, समुद् ! दूरी तत्‌० ( स्प्रौ० ) गुफा, खाद, कन्द्रा, पर्वत की युद्दा, कन्दर, भासन विशेष, शतरंज्ञी ( वि० ) विदी्य करने बाला, डरपोक -मभृत्‌ ( इ० ) पर्चेत, पद्दाइ, गिरि। दूरीचा ( पु ) खिदडी । ( देहंद ) द््विका द्रीची ( स्ती० ) जयला, सिढकी । (बिहुबचन | * द्रीन दे० ( वि० ) बजमापा के नियमानुसार, दरी का । दूरीवा दे० ( पघु० ) पान बेचने का स्थान । दरेतो दे० ( स्त्री० ) दाक्न या चने दलने की छेड़ी चक्की, खेत काटने की हँसिया | द्रेस दे० ( स्त्री० ) फूलदार छाप का मड़ीन सूती कपड़ा | द्रेसी दे० ( स्प्रो० ) दुरुखी, मरम्मत । दरेया ( पु० ) दरनेवाढा, घातक, माशक | द्रोग (प०) श्रस॒त्य, मूठ, मिथ्या --दृफी (स्त्रो०) मूठी साछी देने का जुर्म ।-- ( पु० ) प्रबन्धक, थानेदार । दर्ज ( स्त्री० ) दरण, दरार । दर्जन दे० (घु० ) दारद का समुदाय । : दर्जा दे० ( पु० ) श्रेणी, कोटि, बगे । दर्जिन दे० ( ० ) दर्जी की स्त्री । दर्जी दे० ( घु० ) कपडा सीने बाला । दर्द दे० ( ५० ) पीढ़ा, ब्यूथा । द्दुंर हत्त्‌० ( पु० ) मेघा, मेंढक, भेक | दह्-ु तव० ( ४० ) दाद, दिनाय। न दूपे तद्‌० (घु०) श्रभिमान, भद्दृद्वार/ गये, धर्मड, आस्मश्ठाघा, धरमस्तुति, मान ।--कारी ( गु० ) अमिमानी । विलय, यरूरी, घमडी। दूपेक तत्‌० ( ० ) कामदेव, मत्मथ मदन, दुप॑ करने दर्पण या दर्पन तत्‌» ( पु० ) रूप देसने का आधार, आदर्श, म॒ुकुर, थारसी । रे दर्पणी तद० ( स्त्री० ) छोटी दपय, सुंदर देखने का छोटा शीशा, बद्दा, श्राईना ! दर्पणीय ठुद्‌० (वि०) सुन्दर, दिवनौट, उत्तम, चष्छा, मने हर ॥ द्र्पी तव॒० ( वि० ) अभिमानी, अद््टारी। दर्बार दे" ( घु० ) दरवार । दूर तद॒० ( स्त्री० ) कुशा, डाम, काश | दर्रों दे ( जु० ) दगार, पद्वादी रास्ता | दर्राना दे* ( किन ) निर्मंवता पूर्वक भागे बढ़ना, थेघटक आगे जाना । दुर्विका तव्‌० ( स्त्री० ) गामी, सरकारी आदि चढाने का बतेन, पात्र विशेष । द्षी (. ३६६ दलाल. 7: कि िकलसती सती की ननतक लनन कमी न न + नम बन स्‍पमसन- नाक टन कप न न न वन न न _-नन--% ५ 4>न-प-नन-+ ५3 मनन नम-++++-न-++3>लनननन+-++5+ «>> ज+ दर्वी तव्‌० ( ख्री० ) कछी, चमची, डोई, सांप का फुन ।--कर (पु०) फर बाला सांप, से, अहि. आजम, भ्रुवक्ग । दूर्श तव्‌७ ( पु० ) [ इशू + अल ] अवल्ी रन, चुर्शन, अमावस्या, पत्चान्तक्त योग विशेष, चन्द्रमा सूर्य की एकत्र स्थिति । दशक त्तच॒० ( घु० ) द्वारपाल, द्वारी, दरद्ात, प्रवीण, दशोथिता, दुर्शनकारक, दिखाने बाल्टा, बताने बाला, निरीक्षक, प्रधान । दर्शन तत्‌० ( धु० ) [दशू + अ्रनद] अवलोकन, निरी- क्षण, देखना, नयन, नेन्न, चश्लु, खम्, बुद्धि, धर्म, इपल्वद्घि, दर्पण, चर्णे, रंग । शाख विशेष, सस्व- विद्या, प्रधान शाक्ष, भारतीय दर्शन, द्वादंश है ! इनमें छुः आस्तिक दुर्शन और छः चास्तिक दर्शन के न्ाम्र पे पसिद्द हैं। न्याय, बैशेषिक्, सांख्य, योग पूर्वमीर्मासा, उत्तरसीर्मासा ये थ्रास्तिक दुर्शन है । ( देखे। पढ्दुर्शन ) माध्यमिक, येतगा- चार, सोन्नान्तिक, लौकायतिक, जैन और बौद्ध ये छू: नास्तिक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हैं । दृर्शनप्रतिभू तत्‌० ( पु० ) प्रतिनिधि, दाज़िर जामिन, वह भद्ुष्य जो किसी व्यक्ति विशेष का समय पर अपस्थित कर देने का दायित्व अपने ऊपर ले । दर्शनी दे० (स्त्री०) दशेन मिमित्त भेंट, उपहार, भेंद, अढ़ाघा, पारितेपिक, एक प्रकार की हुण्डी जिसे देखते ही रुपया पढाना पड़ता है । द्शेनीय तत्‌० ( बि० ) [ इश_+ अनीय ] सनोहर, मनोज्ष, दर्शन येग्य |--मानी (वि०) अपने छा सुन्दर ससभने घाला, अपने रूप का अमिमानी । दुर्शनेच्छु। तत्‌« (स्त्री०) देखने की इच्छा, दुर्शन स्पृद्दा। दृर्शित त्व० (थि० ) -दिखलाया हुआ, दिखाया, डद्त, प्रकाशित ।. [रिक, घिचार करने बाला | धृर्शी तबु० ( छु० ) निरीछक, दुर्शनकारी, द्रष्टा, विचान हल तत्‌* ( घु० ) पत्र, पत्ता, पत्ती, समूह, सझखुदाय, सैन्य संझद, खण्ड, डुकढ़ा, भ्राचा, कीचड़, ऊँचाई, द्वाम, स्थुरुता, मोटाई, स्थान, घत, जल में उत्पन्न देने घाढा छुण विशेष --पति ( छु० ) समूह का नेता, समाजपति, सम्राजश्रेष्ठ, अधान +-वल फौज्फादा, सेना। दुललक दे० ( खी० ) घमक, चमक, धरथराहट, टीछ; गुदढ़ी । [ चौंकचा, डराना। दल्लकना दे? ( क्रि० ) फट जाना, चिर जाना, धर्राना, दल्लकपाद दे० € घु० ) लिड़ा हुआ कपाट, हरी पख- ड्ियों का कोश जिसके पन्दर कल्ली होती है | दृलकि ( क्रि० ) दृदल कर, थर्रा कर, फट कर । दृत्लकोश तत्‌० ( घु० ) कुन्द का पेढ़ । दृलगञ्ञन तत्‌० ( वि० ) खेया के मारने वाला सारी बीर । ( छु० ) घाव विशेष । [औज्ार विशेष[ दूलथम्भ्नन दे० ( घु० ) कमज़ाब घुनने वालों का दुलदल दे० ( स्री० ) घाव, घसान, पह्लिंल भूमि, चहज्ा [-- ( गु० ) दुलदुलवालढा । बृलदलाना दे ० ( क्वि० ) कॉपना, दिलना, डुछना॥ थरथधराना। [ थराइट । दुलदूलाहठ दे ० ( स्ली० ) कम्प, दुकक, धमक, भर- दल्नदार दे० ( वि० ) मोटे दुक घाला, मोटे परत बाला, मोटी तह॒वाला । दलन तव्‌० ( छु० ) [विल्ल + अनदू] मद्ेच, निष्पीड़न; डुकड़े दुकड़े करता, चूर चूर करना । दललना दे० ( क्रि० ) दाल बनाना, दे हक करमा, दाल अलग अज्लग करमाः, रौंदना, सीढ़चा । दलवादूल दे० ( पु० ) मेधों का समूह, घनघटा, घोर- घटा, बड़ी छेना, बड़ा शामियाना, बढ़ा पढ- सण्डप दलमलना दे* ( स्री० ) मीजना, मीसना, मक्तता, दुलछन करना |--ऋरना (था० ) पीसना, मींमना लेइना, तोड़ डालना, मर्दन करमा । [करवाना । - दलवचाना दे० ( क्रि* ) दाल बनवाना, दलने का काम दुलबैया दे० ( ३० ) दुल्नचेचाल्ा, दारू बनाने बाला | दुलखूसा दे० ( घु०) पत्ते का लिरा, पत्ते की नस | दुल्लहंन ( 9० ) चना, सूँग, चर्दे, अरहर, आदि दाल के घन्न | दलदरा दे० ( छु० ) दाल का व्यापारी । दुलान ( छु० ) ओघधारा, बैठक, घरासदा । इलाना दे० ( क्रि० ) दक्षवाना, दाल बनवाना । दलाल दे" ( एु० ) विचवाई, मध्यप्य/ कुटसा, पार- सिये और ज्ञादों की ज्ञाति चिशेष |. [ पाता है | दलालोी दे० ( खी० ) विचवानी, वह डब्य जो दुद्दाल दूलित ( ४०० ) द्श दलित हे? ( गु० ) म्दित, रोंदा गया, फाडा गया, | द्वागिन तदू० ( स्री० ) दशप्नि अधःकृत, तिरसस्‍्कृन । द्वाप्नि, दृचानल तत्‌० ( ०) दावानकछ, बन की दलिद्र तद्‌* (पु० ) दरिद, दीन, दुखी |-न्ता आय, वृर्थों की रगह से खत, उत्पन्न थरम्ति। ( ख्तरी० ) दारिदय, दरिदता, दैन्य, दुख । दवात दे० ( स्री० ) मसिपात्र, स्थाह्दी रखने का पात्र । दल्लिद्री तद्‌० ( पु० ) दरित्री, वरिद्वित, दीन, कंगाल, | दवानल ( पु० ) दावानल्, दुवाग्ति | निधन, घनद्दीन । दवामी ( गु० ) चिरस्थायी, सदैव पुकसा रदने वाढ्या | दलिया दे० ( पघु०) चरघकुद्दा, मेटटा पीधा हुप्मा भन्न । --चवंदोवस्व ( पु० ) घद्द ब्ययस्था जिससे सूसि- दूलिहन दे० ( पु० ) भ्रह्त विशेष, जिससे दाल बनाते कर ( माठगुनारी ) सदा पुकसी रहे, उसमें हैं, मूंग, भरहर, उरद्‌ भादि । कमी बेशी न दे। दल्ती दे० ( वि०) दक्षित, दली गई, दे। टूरू की गई । | द्धारि तत्‌» ( पु ) दादानल, वन की झाग ) दृल्लीपसिंद ऐ० ( पु०) पञ्ञाद केसरी मद्दाराज प्रताप- | दृविष्ठ तत्‌॒० ( वि० ) सु [र, भत्यस्त दूरवर्ती, भ्रतिशय सिह का छोटा छड़का | सन्‌३८३८६० में ७ बर्षे दूरवर्सी | की भ्रचस्‍्था में यद सिंहांसन पर बैठाये गये | | दवोयान्‌ तत्‌० ( वि० ) दूरतर, भ्रतिशय दूरपर्तो । १८४३ ई० में सिख युद्ध के अन्त होने पर पञ्माव दश तत० (गु०) [विशन्‌-डद ] संख्या विशेष, द्विगुण डब्द्ौसी के अधिकार में थ्राया | द्वीपसिंद एक मास्टर की देख रेख में रहने छगे । दुलीपप्तिद के यात्तिंग होने पर, इन्हें दे! छाख की बृत्ति मिठ्ती थी | १८४१३६० में यह ईसाई हो गये। इसके याद दुल्लीप विदायत गये, जिससे इनकी माता करे यहा कष्ट टुप्रा। सन्‌ १८३३ ई० की २३ चीं अ्क्‍टू- पाच, १० ।--करणठ ( पु० ) रावण, दशानव, लह्ठुभ्वर (--करय॒ठपमित ( पु०) श्रीराम, राघव, रघुनाप ।/--%न्‍्ध, कन्धघए ( ५० ) रावण, दशा- नन /--कर्म ( पु ) अश्नप्राशनादि दशविध कर्म वे ये हैं. --(१ गर्भाधान, २ एँसवन, ३ सीमन्तो- बयन, ४ जातकरण, २ निषकमण, ६ नामशरण, घर फ्रे पेरिस के द्वोदल में दत्तीपसिंद मर गये | दल्तीत्ष ( स््री०) युक्ति, तक वितंक [ दलेंती दै० (स्री०) चक्की, जाती, दाद बनाने की कल्न ॥ दल्लेल दे ( स्री०) सिधाद्दियों का पृद्ठ प्रकार कवायद जेय उन्हें दृण्डस्वरूप दी आती है | दूलैया दे० ( पु०) दढने वाढा, नाश करने पाडा | दूलभ त्व॒० ( पु० ) छल, घोद्धा, चक्कर, पाप । दल्लाल दे० ( पु० ) दबाढ, माल विचवाने वाछा। दल्लाला दे ( स्री० ) कुटनी, दूती । दल्लाली दे० ( स्री० ) दक्ात्वी ” [ घन की आग । दूव तद॒* ( पु) बन, अरण्य, वनाप्मि, घनढाद।, दुवना ( पु« ) ढकना, ढाकने का पात्र विशेष । दूवनी ( स्री« ) पौधा विशेष, मैंड्राई, दवारी! द्वरिया दे० ( स्ती* ) दवारि, दावानक्त । दया दे० (स्री० ) औपय, भोपधि । दवाई दे० ( स््री९ ) दवा, औैपषधि। द्धाख़ाना, द्वाईखानां ( धु० ) भैषघाटय | दूधागि दद्‌* ( स्री० ) दावानल । ७ अन्नप्राशन, ८ चूड़ाकरण, ६ वप्नयन, १० विवाद ) मरण के दसवें दिन का कृद्य --क्रिया गणित विशेष, दश गढ्दे की गणना मात्र तत्‌० ( पु० ) सतक का पुक्त फर्म जो डसझे मरते के दस दिन तह्न किया ज्ञाता है | शरीर के दस मुख्य अप +-ग्रोव (५९ ) रावण, छटूंश्वर | +दिक्‌ ( गु० ) पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दद्िण, ईशान, अ्रपस्‍क्‍्लि, नैऋत्य, वायु, ऊध्वे, भर भध । --दिकिपाक्ष ( ० ) दर्शों दिशाओं के भधिपरति, इन्द्र, चप्मि, यम, नैश्वति, वरुण, चाट, इबेर, ईशान, गरद्मा और अनन्त --घा ( ध्र* ) दस प्रकार, दस चार ।-नामी दे* ( पु० ) शह्टर मत के अनुपायी दुस प्रका? के संन्‍्यासी (यथा-- 3 सीधे, १ चाश्रम, ३ बन, 9 अरण्य, € गिरि, ६ परवेत, ७ सागर, र सरख्ती, ३ भारती, १० पुरी )) --पुर ( ३०) देशमेद, माछवार देश का पुक खण्द, पुरमेद ।-भुजञा ( स्ती० ) दुर्गा । “मद्वाविधा ( सती ) दसविध देदी विशेष, ५ द्श ( ४०१ ) द्क्ती फीता उस व खतरा न नी सी तीन तततत-3-नत-न न नन-निनीणीतयात-3>ल»न-+त-...... ( सथा---काल्ी, तारा, पोडशी, सुवनेश्दती, मरदी, | दृशन सत्‌० (घु०) दरत, दन्त, कवच, शि्लर ।-च्छद्‌ द्िन्नमस्त), घूमावती, बगछा, मातद्ी और कमला (--पमुख ( छु० ) दशकन्चर, कछक्लेश्वर, रावण ॥--परुग्बान्तक ( छ० ) श्रीराम, रघुनाथ । सूल्न--( घु० ) श्रोपधि विशेष, दश औषधियों के मूल ।-येगभडुः (5० ) ज्योतिष का नक्षत्र चेव विशेष, जिपमें विवाहादि शुम कम वर्लित हैं ।--रथ ( पु०) इक्ष्वाक कुछोस्पन्न राजा विशेष, सूर्यवंशीय राजा, यह पज् के पुत्र और श्रीराम- चन्द्र तथा इनके त्ीच भाईयों के पिठा थे। इनकी राजघानी का नाम अयेध्या था, इनकी सीन प्रध्नाव रानियाँ कौशक्या, सुमित्रा और केकयी थी । परन्तु बहुत वर्ष चीत गये उममें से किसी के पुत्र महीं हुआ, अतः वशिष्ठ की अनुभति से बन्द्ोंने पुत्रेष्टि नामक य्ज्ञ॒ करना विचारा और बस यक्ष के सम्पन्न करने के किये विभाण्डरू ऋषि के पुत्र ऋष्यश्यद्ग के छुक्ताया । उन्‍्दोंते पुश्नेष्ट यज्ञ कराया और यक्कशेप तीस रानियों को खाने के लिसे भिजवाया | कौशल्या ने राम को, सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुन्त के और केकयी ने भरत को यथा सम्रय उत्पन्न किया | चक् करने के पडले दुशरघ खबया करते बन में गये थे | बहा किली का शब्दु खुन कर इन्होंने शब्दवेधी बाण सारा | उस बाण सें श्रत्घ मुनि का पुत्र सरवण मारा गया। श्रन्ध मुनि पत्र वियेय छे मस्‍्ते लगे । उन्होंने सरते मरते राजा का शाप दिया कि सुम भी पुत्र वियेषय से मरोगे । दशरथ जब अ्रपने धुत्न क्लीरास का राज्याशिपेक करने की तैयारी करते थे, उस द्लमय मन्यरा- के कुचक ले केकछयी ने राजा के पढ़ले दिये दे। वरों में पक से! राम का चनवास और दूसरा भरत का राज्याभिपेक मांगा | इसी घर्स- संकट में पड़ कर राजा दुशरथ के अ्रपने प्राण देने पड़े थे |--शीख ( ६०) दक्ानन, रावण । - हरा (स्त्री०) ज्मेष्ठ शुक्ला दशमी, इसे गद्मादशद्दरा कद्दते | हैं। क्योंके यह गज्रा की जन्मतिथि है |आशख्वित | शुक्ला दशमी | कहते हैं इस दिल रामचन्द्र ने राबगा | के सारा था, पर यह ठीक नहीं है| इसे विक्षया- | दुषश्मी भी कहते हैं । ( पु ) श्ोष्ठ, अघर, होंठ |-श ( छ० ) दुशन झोभा, दल्तरुचि। दशम तत० ( बि० ) द॒श संख्या को प्रण करने वानी संख्या, दुशर्वा ।--लछच ( छु० ) दशर्माश, दखवां हिस्सा । शमी तत्‌० (स्त्री०) पक्ष छा दसवाँ दिन, दुसवींतिथि | दशा तच्‌० (स्त्री०) अवस्था, भाव, गति, बृत्ति, स्थिति, दिशा की बत्ती, झित्त, कपड़े का छोर । दुर्मांश तत्‌० ( घु० ) दशर्वा साग, दुशर्दा हिस्ला। दर्शांयुल्ल तत्‌० ( गु० ) दश अ्रेपुछ का परिकण, खर- बजा, डेपरा | दशानन तत्‌० ( पु० ) रावण, दशकण्ड । [अवतार । दशावतार तव ० ( छ० ) चारों सुर्गों में विष्णु के दस दृशातिपाक तत्‌० ( छु० ) दुःख की श्रन्तिम ध्ययस्था | दशा तत्‌« ( 9० ) देश विशेष, ब्िन्ध्य पर्व के पूर्व और दुच्चिण भाग का देश, मालवा का पश्चिम भाण, इस देश की राजधानी का नाम बिदिशा है । दृशाई लत्‌० ( घु० ) बुद्ध, देश विशेष, यदुरदेश, सहु देश के रहने वाले । दृशाशव तत्‌० ( घु० ) चन्द्रमा, निशाकर | दृशाश्वमेध तव० ( छ० ) दस अः्वमेध यज्ञ विशेष, सीर्य विशेष | दृशास्थ तत्‌० ( ० ) दशधुख, रावण, देशानन | ++जित्‌ ( छ० ) राम, रघुनाथ । दूआह तत० ( पु०) दस दिन में किय्रे जाने वाले कर्म, दूस दिन साध्य कार्य | दशाह्वीन दद्‌० ( वि० ) दुर्भाग्य, हुरबस्था, दुर्ग, दुरवस्थापक्ष, बिना का! का कपड़ा ।| इशोला दे० ( वि० ) सुखी, सुभाग्य, क्रीमान्‌ | धृसत तदु ० ( वि० ) दप संख्या विशेष, पाचि की दूनी संख्या । +माथ दें* ( 8० ) राचण । दइूसख़त ( ७० ) हस्ताक्षर | दखन तव्‌० ( छ० ) दाति । दखवाँ ( गु ) ६ के बाद की सेक्या । दूसी ( स्ली० ) कपड़े के किनारे का सूत, बैलगाड़ी की पटरी, रॉपी, चिन्द, पता $ दक्ती तव्‌० ( घु० ) दशा, धागा, खूत, सूत्र । श० पा००-रै १ दूर्सीखा द्सोखा दे० ( पु» ) पद्धा का सना । दर्सोंद्वार तद्‌० (पु०) दस द्वार,शरीर के मार्ग, विजया- दशमी के वाद का समय | [ प्रशंसक,राय,चारण । दुर्सोंधी दे० (६०) भाद,इन्दी, स्तुतिकर्ता गुणयानकारी+ दस्त तद्‌० ( वि० ) प्रक्तिप्त, पस्थाषित, नष्ट | ( दे० ) हस्त, द्वाथ, कर, पाखाना (--कार (प०) द्वायसे कारीगरी का काप्त करने वाला |--कारी (स्त्रो*) हाथ की कारीगरी । [ सद्दी करना । दस्तसत दे० ( पु० ) स्वाउर, सद्दी, अपने नाम की दस्ता दे* ( घ० ) घातुविशेष, तामचीनि,रगगा, कलई, मूठ, पेंट, गुच्छा फूलों का, सिपादियों की द्वोटी दोली, गारद, चपरास, सेजाफ, कागज के चौबीस ताबों की गड्डी, सोटा, डंडा, हरग्रिका दुस्ताना दे० (पु०) द्वाप का मोजा । [चिक, जुछाव | दस्ताचर दे* ( वि० ) बह दवा जो दस्त छावे, बिरे- द्स्तावेज्ञ दे० (०) बह कागज जिसमें किसी म्यवद्वार विशेष की शतक्ते क्षिखी हों, ऋणपत्र । दस्तों दे० ( वि० ) द्वाथ का। ( ख्री० ) चोटी झूठ, छेदा कलमदान । दस्तूर दे० ( पु० ) रीति, चाल, प्रथा, नियम, विधि | दुस्तूरी दे" ( स्ली० ) हकु। कमीशन । दस्यु तत्‌० ( पु०) सादसिक, चोर, तस्कर, डॉड, डक, दुरंचि, पुक घुरानी जाति ।-चूति अथवा दुश्युत ( द्ली० ) चोरी, ढंऊेत । दस्क तखून (पु० ) शिशिर, ग्दभ, भरिवनीकुमार, अ्रश्विनीसुत्त, जोढा १--दैवता ( ख्रो० ) भ्रश्विनी नाप्रक नषन्र । (वि०) दोहरा, दविसा करनेवात्या। दुछ्लौ तर« (३०) भरिवनीकुमारद्दय, देववैध । दृद्द दे० ( पु० ) गद्धर, गते, गहरा, आवते, जलूकुण्ढ ( स्त्री० ) ज्वाला, लपट, से! । दद्क दे* (स्व्ी०) दाड, चमक, चिद्रक, प्रछाश, शर्म | दहूकना दे* ( क्रि० ) जलना, परश्चात्ताप करना, पछ- ताना; अनुठाप करना, घलना दददकाना दे* (क्र० ) जटाना, विगादना, पश्चात्ताप करना, थनुताप करना, पधुताना | ददड़ददड दे" ( भ० ) वेग से, जोर से, प्रखरता ले, हीक्षणता से ।--अंलना (वा० ) दढ़े वेग से जछना, यहुत धेग से ब्राग का लद्धकना ! (० ४०९...) दृह्ांना दृहदूल दे० ( स्री० ) दहदल । दहन तव्‌« (०) [विहू + अनट] दाद, जछन, भस्मी करण, भस्म होना, अ्रप्नि, अनल्, प्रावक, झाग, चित्रक घृष्ठ, भछातक, सिरलावा, तीन की संझ्या, कबूतर) पुक रुत्र का नाम, ज्योतिष का पुक येग | ( वि० ) दुष्चित्त, ढुजेन, जलाने वाज़ा, दुष देने वाढ्षा ।--कैतन ( पु* ) घूम, धुर्धा ।--प्रिया ( स्त्री० ) स्वाहा और स्वधा, अप्नि की साया । दृदना दे* ( क्रि० ) जक्नना, वक्षना, भस्म देना, बददना, जल्झावित होना । (वि०) दक्षिण भाग, दद्विना । दददनाराति तत्‌० (पु०) [दहन + अगति] जब, सब्निल, लोय, पानी, श्रप्मि का शत्रु । दृहनीय 68० ( ४० ) [ दहू + भनीय _] दाह्ष, दाद्वाई, दुग्ध करने योग्य, जस्गने के उपयुक्त । दृदनोपल तद्‌» (पु) दहन-+-उप _ भ्रमिमय पत्थर, सूर्यकान्दमणि, भ्रावशी शीक्षा । [ सठावे । दृद्य तद्‌० (क्रि० ) जछाबे, तप्त करे, भप्म करे, दृहर तव्‌० ( छु० ) चोश भूसा, चूदा, धुदिया, धृद- दर, आता; भाई, बालक, नरक, वरुण । ( वि० ) स्वत्प, सूक्ष्म | तद्‌ ० (१०) दढ़, नद्ी में पद स्थान जहाँ जढ गहरा द्वो, कुण्ड, गइढ़ा, पाल ("काश तत० ( पु० ) चिदाकाश, ईश्वर । दददल दे० (स्त्री)) मप से सदसा काँए जाने की फ्रिया। दृदलना दे* ( क्रि० ) दवना, शक्जित, शह्ढाक्रान्त, कॉपता, डरनता, सयमीत द्वोना । ददला दे० ( पु० ) ताश का वह पत्ता जिस पर दस बूटियाँ द्वाती हैं। तत्‌५ ( प॒० ) पाबा,भ्रालवाल। दृहलाना दे० ( क्रि० ) दवाना, कैपाना, ऋूम्पित करना, भसयमीत करना | दद्दशत ( स्प्री० ) सय, डर [ विशेष | ददसेरा देन (पु०) दस सेर का तौल। परिमाय दुद्दाई दे० ( स्त्री०) झर्कों की गणना में दूसरे स्थान'पर लिखा डुआ अइ्ड, उस का मान वा माव । दद्दाडना दे० ( क्रि० ) यरणना, डेकारना । दुद्दाना दे? ( क्ि० ) जलाना, भस्म करना, यदनां। देण ( घु० ) द्वार, मशक का मुख, ( नदी का ) मुद्दाना, मारी, घोडे के मुख की लगांस ) दहिज्ञार ( 8४०३ ) चाँव हि दृहिज्ञार दे? ( पु० ) दाढ़ोजार दृहिना दे० (वि०) दक्षिण, दक्षिण भाग । दृंद्दी तच्‌० (पु०) दि, दूध का विकार, जमा दूध । दूँ ( भ्रन्‍्य० ) भ्रथवा, या, किंवा ! दहेड़, वहेल दे० ( छ० ) पछि विशेष ! दढेंडी दे० (स्नी०) दढी की हॉंड़ी, जिसमें दही रखा या जमाया जाता है । दद्ेज्न दे० (प०) दायज, यौत॒क । बृद्देतरलि। (पु०) एक सौ दस, ११० ) दृह्ममातल तत्‌० ( गु० ) [ 4ह+ श्रान ] दग्ध, पुष्ट, ज्वलित; जलाया हुआ | [किया । दह्मो दे० (घु०) दही, दधि | ( क्रि० ) जछाया, भस्म द्वा तव० ( बि० ) देने वाला, दाता, दानी, दानकत्तां | दे० ( पु० ) सितार का एक्क बोर | दाइज दे० (पु०) ग्रैतुक, देजा, दान, कन्याप्रदाता की देयबस्तु, जो कन्या का पिता कन्यादान के उपलत्त में चर को देता दै । चृइजा दे० ( ० ) दाइज । दाई तदू० ( बि० ) दायी, दाता, देनेवाढा, यह जिस शब्द के अन्त में श्राता है उसका देनेवाला अर्थ देता है । ( सुखदाई, हुखदाई भादि । ) ( स्री० ) धाय, धात्री, बच्चे को दूध पिलाने वाली दासी, चअकरानी, नाकरानी, फारसी का दाया शब्द से यह शब्द निकला है । दाई दे० (बि०) दाहिनी । [छा नाम । दाऊ दे? ( ए० ) बढ़ा माई, बढ़ा चाचा; बलदेवजी दा दे० (पु०) दवि । है #सूकि जुआरिहि आपन दा ।?--तुरूसीदास । दाऊदी दे० ( ख्री० ) एक माढ़ अथवा उसका फूल, पक प्रकार की आतशब्राज़ी, सफ़ेदी, यद्द शब्द अरबी के दावदी शब्द से निकला है यथा--(अ०) “-शुरूदावदी, (ढिं )-घुक्दाउदी। (३०) एक अकार का सबसे श्रच्छा सेहूँ । [खिचने की डॉडी | दांडू तद॒० ( ए० ) दण्ड, सजा, ताड़ना, शासन, चाव दाड़ना (क्रि०) दण्ड देवा, समा देना । दाँड़ा दें? (पु०) सीमा, सीच, मेंड, सिवाना |मैड़ा (इ०) सिवाना, छेर, दे। ग्राम या खेतों के दिसाग का चिन्ह विशेष । दांड़ो दे० (६०) खेवक, भाव ख़ेवने के लिये छकढ़ी का बना हुश्ना दांढ़ | दाँत तद॒० (५०) दुन्त, रदन, दाढ़, दुशन [--डेंगली काउना (वा०) अचम्भे में थाना, आश्वर्थित ह्ेना, विस्मित द्ोना, विस्मय करना |--कचकचाना ( बा० ) ऋ्लोघ करना, क्रोध से दत पीसना [-- कदकदटाना (था० ) अभ्रपकारी का बढ़छा न झुका सकने के कारण क्रोध से जरूता ।--काडी शेढी खाना ( वा० ) घनिष्ट मिन्नता करना, दिली दोस्ती ।--खट्झे करना ( वा० ) दूसरे के प्रयत्न को विफल करना, अपने पराक्रम से शत्रु को नीचा दिखाना --तल्ते उंगली द्वाना (वा०) अचस्भा करना, विस्मित होना, भौचक्ष रह जाना ॥-- निकालना ( वा० ) हार जाना, श्रपनी अयेग्यता और विवशता जतलाया [--प२ चढ़ाना (बा०) कलछद्धिसत करना, श्रपसानित करवा |--पीसना (बा०) क्रोध करना, क्रोध यतलाने के लिये दुति कटकटाना ।--वजचा ( वा० ) कटकटाना, क्रोध करना, रूगढ़ना, यक बढ करमा [--रखसा (वा०) किसी के लिये उत्कण्डित द्वोना, स्पर्धा करना, अचज्ञा करना, तुच्छ जानना । दाँतन दे० (पु०) दतवन, दुन्तधावन, दाँत साफ़ करने की लकड़ी, सुखारी | दाँवाकिठकिद (स््री०) वाक्‌ युद्ध,)सगढ़ा,गाली गले।ज | दाँताकिलकिल तदू० (ख्वी०) दन्‍्तकिककिला, वक- ऊक, रूगढ़ा, ग्राली गलौज, बशगुयुद्ध दाँती तद्‌ ० ( स्री० ) घास काटने का हँसिया, 'आारा, के वौँत, दर्रा | दाँया (गु०) बायें का उछूदा । दचि दे० (३०) धात, अवसर, समोकु, बारी, समय, *»पने अजुकूल ससय ।--चत्तना (चा०) जीतना, जय करना; सरस होना, आगे बढ़ता, बढ़ चछना, शतरअ॒शभ्रादि खेलों में गोरी आगे बढ़ना (-- चलाना ( वा० ) अधिकार चछाना, घात करना, चेद पहुँचाना ।-पकड़ना ( वा० ) मछयुद्ध करना, कुश्वी रड़ना, कुश्ती में दांव पेंच करना | --बैंठना ( वा० ) अवसर खाना, हाथ से मौका चढा जाना | दाँवरी दाँवरी तद्‌० ( ख्री० ) रस्पी । दात्ताय तत्‌० (पु० ) गृध पची | दात्तायश तव्‌७ (वि०) दक्ष सम्बस्धी,दक्ष प्रजापति छे पुप्र आदि, सुचण लेकृत । (पु०) सेना,सुनहली चीजे, मोदर, दक्ष द्वारा अचुष्ठित यज्ष, इस यज्ञ में सती मे अपने पतिनिम्दा। क कारण धाण दे दिये थे, पीछे से शिव ने वीरमद्र को भेज यज्ञ नष्ट करा दिया था | दात्ञायशी तद्‌० ( श्वी० ) दुर्गा, सती, रोहिणी नच्य, अख्विनी भ्ादि सप्तविशति नछत्र, दनन्‍्ती बृत्त, जमाहगाोरा का बृछ्ठ ] (वि०) सेने का ।--पति (पृ०) शिव, घन्द्रसा, धर्म । दक्षिण तद्‌० (पु०) कथन, उपाय, श्रधिह्वार, दिण, देशीए, दक्षिण सम्बन्धी, दृक्षियासम्यसत्घी | तत्‌० (१०) एक दोम का नाम । दात्तिणात्य तत्‌० ( बि० ) दक्षिण देशजआात, दक्षिण- देशीय । (पु०) नारिश्ल वृद्ध । दात्िएय तत्‌« (पु) उद्ारता, अनुकूरता, सरलता, सावविशेष, दषियाचाररूप। (वि०) दद्ियाहं, दृष्ठिय का, दष्दिया पाने योग्य ।. [का नाम । दाज्ी तत्‌० (पु०) दत की कन्या, पाणिनि की पाता दाहय तद्‌« (पु०) दच्ता, निवुणता, नैपुण्य | दाफ़ तदू० (पु०) द्वाचा, श्रेगूर, मुनका । दालिक्ष दे* (५० ) प्रपंण, परिशेघररण, ग्रुद्वीत बत्तु का लैयना, जमा करना 3-प्रारित्ञ दे० ( ६० ) सरकारी कागज में एक अधिकासी का नाम्र काट करे दूसरे थ्रघिक्रारी का नाम चंदा देना | - दफ्तर ( घु० ) दवा देना, रख छेना ! दाफ़िला दे ( घु० ) प्रवेश, पैठ | दाग दे० (पु०) स्टवक हमे, चिन्द, अड्, कलछ, देषप भाग धे जछने का चिन्द “>चढ़ाना ( वा० ) कल्न कु छगाना |--देना (बा०) तपे सेहे से चिन्द करना, दागना, जाराना, अस्लित करना, कलझ्ू छगाना ।--लगाना ( वा० ) भ्रयश्वी द्वोमा, राप से कठ॒ड्टी देगा ।--लाना (वा०) दाग लयाना, अप होते दाना । दागना दे० ( क्रि० ) चिन्द्र करना, दाप देना, ठपाये खोद्दे से शरीर जलाना, भ्ट्टित करना, तोप या थन्दूक छोडना, ठोप की याड़ दागना । + € ४०४ ) दाढुर दागी दे ० (वि०) चिन्द्रत, भरक्धित, दण्डित । दाद तदू० (विश) जला हुआ, दग्ध | तत्‌० (पु०) गरसी, ता7, दाद । द्वादना (क्रि०) डाटना, डपटना । दाड़क तद्‌* (एु०) दषढ़, दाँत । दाइस दे० ( पु० ) सप॑ विशेष | [हलायची [ दाड़िम तद्‌० ( पु० ) अनार, बीजपूरछ, फक्न विशेष, दाड़ी दे० (फी०) अनार | दाढ़ दे० (स्त्री०) चोद, पिदुले दांत, पीधने के दाति | दाढ़ा दे* (खी०) बडा दाँत, दन्तविशेष | दाढ़ी देन ( री ) मुख के नीचे का भाग, श्मथ्र, चिब्र॒ु$, ठुड़ृढी के वाछ ।--वनाना (क्रि०) चौर कराना, हज्मामत बनवाना ;--जार दे० (पु०) भज्ी दाढी बाला, स्त्रियो की एक याद्दी । दावे तत्‌» (वि०) छिन्न, कर्तित, घेदग किया हुप्रा, क्राटा हुआ, (पु०) दातृत्य, वद्रान्यता, दाने । दावन दें* (१०) दवून, दुस्तकाष्ठ | [का पात्र । दातव्य तत्‌० (वि०) देने योग्य, दाना, दान करने दाता तव॒« (०) देस्वाढा, दानो, दानशीछ, दान- कर्त्ता, ददान्य, घदार । दावार चत्‌० (वि०) दाता, दामी, देने वाला । दातुन दे० (स्त्रो०) दतिव, मुखारी । दावृता या दाठृत्व तव॒० (५०) वदानन्‍्यता, वानशीजता, दानशक्ति, अकृपयता, दान करन की शक्ति | दालीौन दे० (स्त्री०) दतुबन,। दात्यूह तव्‌* (६०) पछचिविशेष, चाठक, पीदा, मे ! दात्न तद्‌० (पु०) [दा+त | अक्षविशेष, दाँती, हँसिपा, देनेवाल्ा । [किसे बाढी स्त्री दागी ठद्‌७ (स्त्री०) [ दात्‌+ई ] दानकर्णी, वान दाद दे० (ध०) रोगविरोप, दवु, सज, ।--मर्दृन (प०) ददु मर्देन, औषधविशेष, चच्षट । दादनी दे० (स्त्री०) <कुम जो देनी है या 'हुकानी है। पेशगी दी हुई रकम । दाद्रा दे” (पु०) पक प्रच्यर का चछता राग । [साई । दादा दे (प०) पितामइ, पिता का पिता, श्राज्मा, वश दादि, दाद दे० (३०) मुराद, अमीए, मनोवाँधा दादी (स्त्री ०) पितामइ की सती, पिता की मावा,भ्राजी । दाडुर रद ० ( पु० ) दुदंग, मेदक, मण्टूछ । दा ६ 8०४५४ ) दामासाही नि ख-यीतण;:यन-त__-___तल 3 3. दादू दे” ( एु० ) इन्दरेलखण्ड में पुत्र आदि का प्रिय सम्बोधन, छुक महात्मा का नाम, इन्हेंने अपना एक मथा पन्‍्थ चलाया है। इत्तका पूरा नास दादूदयालू है । इनका चलाया मत दादूपन्ध के नाम से प्रसिद्ध है, इनके शिष्य दादूपन्धी कह कर अपना परिचय देंते हैं । यह मति सक्तिप्रधान है | दादूदुयात् दे० ( घु० ) देखो दादू । दाधना दे० ( क्रि० ) दग्धना, जलाना, वाढूना द्ांधिक्र ततृ० ( चि० ) दघिसंस्कृत वस्तु; दधिमिश्रित मिछ्ठान्न, दही बढ़ा । [वंश का । दाधीचि तत्‌» ( ४० ) दुधीचिग्रोन्रज, दूघीचि के दाने तत्‌० ( १० ) [ दा + अनद ] एुण्यार्थ घनत्याग, डत्सर्ग, त्याग, वितरण, कर, महसूच्चन, राजनीति के चार उपायों में प्ले एक । शुद्धि, छेदन, एक प्रकार का सधघु। द्ाथी का मदजकू |-पदि (४० ). नित्य द्ानकरज्ञां, सत्तदाता ++पत्र ( पु० ) बृत्तिदानलिपि, दान की हुई वस्तु पर सम्प्रदान का स्वरव बतढाने के किये लेख । “+पाक्ष (9० ) दान देने थोग्य च्यक्ति ) “लीला ( स्त्री० ) भगवान्‌ श्रीकृष्ण की जीला विशेष :--चज्ञ ( घु० ) दान के लिये वज्जू के समान, वैश्य, एक प्रकार का धोढ़ा ।-बीर ( पु० ) श्रति दानकर्चा, प्रसिद्ध दानी | -चारि त््‌० ( घु० ) विष्य, इन्द्र, देवता ।--वेन्द्र तु ( पु० ) राजा बलि --शाली ( वि० ) दाता, चद़ान्य ।--शील (ग़ु० ) दाता, दानकर्तता, वदान्य दानत्र ततद० ( पु० ) अछुर, दैत्य, दघुज, दलु की सन्तान ।--ारि ( ४० ) देवता, सुर, अखुरशषत्रु । गुरू सत्‌० ( पु० ) श॒क्काचाय । दानवारी तत्‌० ( छु० ) हायी का मद | दृननवी तत्‌० (ख्त्री० ) दानव की स्तरी । (वि० ) दानव सम्बन्धी | दाता दे० (वि०) प्रजुभवी, छुद्धिसान्‌, ज्ञात्ता, अभिन्न । ( छु० ) अ्रज्ञ; अनाअ, शस्य, धान्य, घोड़े का बंधा हुआ चना, भुजा हुआ चना पानी ( बा० ) श्रद्धजल, सयेस, समय | द्वामाई ( स्री० ) घद्धिसानी। दावा-चारा दे० ( पु० ) दाना घास, खाना पीना । दानाघष्यत्त तव॒० ( घु० ) राज्यों सें दान का प्रबन्ध करने वाला अफसर] दानियी तत० ( स्री० ) दान देने वाली स्त्री | दादी तत्‌० ( विः ) दाता, उदार, दानशील, दान देनेबाला, सतसदाता | (पु० ) कर संग्रह करने बाद । [ दान के उपयुक्त दानोय तत्‌० (बि०) [दा + प्नीय] सम्परदान, दातब्य, दान्ेदार दे० ( बि० ) रवादार, दुरद्रा दान्‍्त तत्‌० ( गु० ) [ दस्‌ + क्त ] खुशंसित, वशीमूत, जितेन्द्रिय, तपस्या के क्‍्लेश सहने ये।ग्य । दान्ति तदू० (ख्री० ) [ दम्‌ + क्ति] तप/क्‍्लेश सहि- णुता, तपस्या के कष्टों की सदन करने की शक्ति, इन्द्रियनिम्रह, दुसन । द्वाप्‌ ३० (धु०) प्रताप, दर्ष, गर्व, श्रसिमान, अ्रदक्कूर, शाक्ति, चल, ज़ोर, उत्साद, शेष, क्रोध, रुआव । दापक दे० ( छु०) दब्ावेबात्य, अलिमानी, अहक्लारी; प्रवापी | [ झातझ्लू, अधिकार, रोव | दांत दे० ( स्त्री० ) चाप, दुबने या दबाने का भाव, दाव रखना दे० ( वा० ) छिंपाना, छिपा क्ेना, खुद्ाना, ढकना, श्रधिकार रखना । द्ावि दे० ( क्रि० ) दाब कर, कस कर । दाम त्ततू० ( खी० ) मेप्बन्चन रज्जू, रस्सी, माला । ( छु० ) रुपया पैसा, भेज, भाव, सृरूय | (थि०) एक पेसे रा चौदीसर्चा भाण | दासन दे? ( खी० ) अआचिल, श्रश्चल, चखम्रान्तभाग, कपड़े का छोर, शरण, आभ्रय, 'लवढूस्व -गोर ( शु० ) अपनेवाक्या, दावा करने बाला, पीछे पड़ने वाला । [ ताम्नलिप्त ) दामलिपत तत्‌० (छ० ) ताम्रक्षिप्त देश, ( देखो द्ामचती तदू« (छी० ) साला,खक्‌, फूलों छी साला । दामाश्वन तत० ( घु० ) अध्वादि का पादुबन्धन रज्जु, विद्वाड़ी, घोड़े के पिछले पैर बचने ही रस्सी | दामाद ( छु० ) जमाता, ऋन्‍्यापति | दुमासाद् ( पु० ) दिवालिया जिसकी आयदाद पावने वालों में उनडे पावते के अजुसार बैंट जाय ! दामासाही दे (ख्री5 ) यवार्थ भाग, उचित भाग के काये। दामिनी दाप्रिनी तत्‌० (ख्त्री० ) बिश्वन्ची, तहित, विद्युत! सा -- दाद्दा | दामिनि दमकि रही घनसाहों। एल की प्रीति यथा थिर नाहीं ॥-रामायण । दामी दे" ( ख्री० ) कर, बाद, लगती, लगाव, राज- देश कर --ल्गात। ( क्रि० ) कर छग़ाना, कर ढहराना (-वासिलात ( पु ) गाँव छे प्रधान ऋणगादाता । [ होता है । दामीयात दे" ( छ९) चस्तुविशेष, जिससे रक्त विकार दामोद्र तत्‌० ( पु० ) [ दाम + उद॒र ] शीकृष्ण का एक माम । कहने हैं धीकृष्ण छड़कई में बडे चल्चुत्त थे ।घर की वस्तुओों को वद् सोड फोड़ डाबते थे, इसी कारण यलोदा (कृष्ण की पालिका माता) ने श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी वराध कर उन्‍हें ओघली से बाँघ दिया शौर स्व निश्चित होकर काम करने लगीं | इधर श्रीकृष्प मी समप पाक्षर चैसे ही घर से विंडज् पड़े, उनके घर के पास ही दे। पेड़ थे। उन्हीं छे ग्रीव से ये निकठने ढूणे, परन्तु खली यैंघी रहते के करण वि%७ न सके, उन्दंनि निशलमै के स़िये ज्योंशों मोर कगाया स्याही वे दोनों पेड़ दूर गये | तभी से श्रीकृष्ण का नाम दामोदर ह्वुग्मा । दाप्तीद्र शु्त तर ( चु० ) संस्कृवका एक कवि, यद कवि कश्मीरनिवासी थे। कुदनीमत नामझ पृझ प्रत्य इनका बताया सैस्सत साद्ित्य में पाया ज्ञाता है| कश्मीर के इतिद्वास राजताक्रिणी से भालूस पढ़ता है कि यह कवि महाराजा ज्पापीड़ के सन्‍्भ्री थे, इनका समय संत्र्‌ ७७२ से ८०३ सर विद्वानों मे अलुमान किया है। अतपुष दामोदर गुप्त का भी यही समय मानना चाहिये | चमेन्द् की समयमातृझा कर इनका कुद्ठमीमत ये दोनों एश ही प्रकार के और पएृरू ही ड्दश से लिखे गये ईं। वेश्याध्रों के फदे से बचाने के किये ही उन्दोंने कुददनीमत नामक ग्रन्य किला है । देश्यपों की चात्यकियाँ इसमें खूब साफ दिश्जाई गई हैं। यधपि इसका विषय भ्रश्लील है, तपापि इपडी उपयेयिता की ओर घ्यान देने ( ४०६ ) दायादी से इसकी उत्ततता मानती पहती है। मेरी समझ से हो विदा में न सही, परन्तु कविता में पण्टितराज जगव्ाय से इनकी तुलना कई श्रों में की जा सच्ती है| दमादर मिश्र तत्‌॒» (पु० ) ये कवि मोजराज के समकालीन हैं, इन्होंदी ने हलुमाध्राटक का संप्रइ किया है| इस प्रन्य के सेप्रद करने के भ्रतिरिक्त और कोई इनका इद्लेखयेग्य ग्रन्प नहीं द। ग्यारहदी सदी इनका समय गताया ज्ञाता है। दास्पत्य तद* ( घु० ) परिणयादस्था, विवाद्द की अवस्था, स्लीपुरुषस्म्बन्धी ।-मुक्तिपन्न ( ६० ) तिहाकनामा जिस पत्र के लिख कर स्त्री पुरुष आ्रापस का सम्बन्ध तोड़ देते हेँं। यह रीति हिन्दुओं की नहीं, किन्तु आधुनिक सम्यन ज्ञातियों की है। दाम्मिक तव्‌० ( ४० ) दम्मयुछ्त, शढझ्ाती, आध्म- शढाघी, श्ात्मप्रशसा करने वाढा, पासण्डी, धूत्त। ( ६० ) घकपधी। दाय वह» ( ध० ) यौत॒क श्रादि देवधन, क्पादानि के अमस्तर वर या वर के पिता छे। दिया जानेवाल्ा घन, पैदुइघत, पिता के घन का भाग, वैदाहिक घन, प्रपौती, दाइज) विपत्ति, झापद्‌ -चन्छु ( ३९ ) ज्ञाता, दापढ छाप बइतेयाले पिता के घनाधिकारी ।-भाग (५०) खत शिवा आदि का धनविमाग। मस्ध विशेष, घर्मेशाख का ग्रत्प, जिसमें घनाधि७झशरिये। का निहुपणा है । स्वश्वनिरूपक घर्मेशास्त्र का भाड़ विशेष ] दायक तर्‌* ( पु० ) द्वाता, दैनेवाला, दुग्न कान चाव्दा (दान, यीठझ, दशेज । दायजा तद्‌« ( घु० ) दाव, दाइजा, स्याह सम्बन्धी दायरा ( घु० ) मण्डल, दृत्त, मण्डछी, कद्ा, डेफश्री; खेजड़ी । द्वायां तव॒« ( घु० ) दवा, दावी, भमियोग, बाद | दावाँ ( गु० ) दृद्ठिता द्वायाद तब्‌* ( घु* ) वुत्र, शाति, सपिण्ड, डचराधि- कारी, कुटुम्व, परिवार, घराधिरारी । [कारियी। द्वायादी तत्‌० ( खी* ) कन्या, दुढ्िता, शचराधि- दायाई ( ४०७ ) दालिम दायाह तय» ( शु० ) [दाय + अहं] पिता छे घन पाने का अधिकार | द्यित तत्‌० ( वि० ) निश्वित अपराधी, जिपका दोषी दायित्व तत्‌० (पु०) उत्तरदातृत्व,तवायदार जिम्मेदारी । दायी तत्‌० ( वि० ) दानशील, ऋषअस्त, भारग्रस्त, | क्शयुक्त, प्रतिवादी, किसी काम के बनने या बिगड़ने का जत्तरदाता | दार तत्‌० ( पु० ) पत्नी, जाया, ज्ायां, स्त्री, खुगाई | | --क्रम ( छु० ) विवाह, पाशिग्रदण : ब्याह | “प्यागी ( वि? ) ह्तपत्नी त्यायी, अपनी स्त्री को छोढ़ देने वाछठा +--संश्रह ( ए० ) विवाह; पाणिप्रहण । [ शिशु, द्वछक । दारक तत्‌० ( पु० ) अश्त्रविशेष, काटने का अस्त्र, पुत्र, दरवीनी तत्‌० ( स्त्री० ) दारुचीमीय, चीन देश की लकड़ी, दालचीनी | [ फाइना या चीरना । दृग्ण तत्‌" ( पु० ) विदीएं करना, फाड़ना, वीच स॑ दर्द तत्‌० ( पु० ) विषविशेष, पारा, हिंगुठ। घारमद्ार ( पु० ) निर्भर, आश्रय, ठहराव, निर्भर । दारय दे" ( क्रिए ) नाश करे, विदीण करे । द्वारा ततू० (रत्री० ) जाया, भार्या, ख्री, पली। -+धिगमन (पु०) [दएरा+ अधिगप्तन] पराणि- अदृश्य, चिवाढ, दाराप्राप्ति --पत्य (घ०) [वारा- के अपल्य ] स्त्री, पुत्र | दारिडे ( पु० ) अनार, दाड़िस । दारिका तत्‌० ( स्त्री० ) कन्या, पुन्नी, दुद्दिता, तनया | दारित तत्‌० ( बि* ) कृतविदारण, कृतभभ्न, तोड़ा छुआ, फाड़ा हुआ ! [ कंगाली । दारिद तदू० (४० ) दारिद्य, दीनता, निर्घेनता, दारिद्र, दारिद्र्य तव" (पु०) दरिद्रता, दीनता, ढुःश्, दैन्य, भन्न आदि का कष्ट, निर्धनता । दारी तत्‌० ( ० ) बहु दाराविशिष्ठ, परदारागामी, व्यभिचारी; क्म्पटता,कझ्ुद्धरोग चिशेष,विधाह, पत्ति | (स्त्री०) युद्ध में पकड़ी हुई दाली [--आर (5०) गाली विशेष दासीपति गरुाम, दासीपुत्र । दारू तव्‌० (पु०) काछ, छकड़ी, देवदारु इच्च । --कऋदली (स्त्री०) बनकदुली, घनकेल्गा ।-- गन्धा (स्त्री० ) गन्धद्षब्य विशेष |-पर्भा (स्त्री०) दारु- भयी स्त्री, काष्टनिमित परत्तकिका, कठणुतली | [ दो निश्चित दो चुका है। . +-चोौनी (स्त्री०) पुक वृक्ष का छाछ, दालूचीनी। -ज्ञ (जि०) काछमय, काठ का बना ।--अचित्र (9० ) काठ की पुतली, कठपुतली (--निशा ( स्त्नी० )दारुदरित्रा, दाःरहरदी ।--फत्त ( छु० ) चिढ्ग़रोज़ा |--मय ( वि०) काएमय; काष्टनिर्मित, काठ का बता हुआ महान आदि -हरिद्वा ( स्त्री० ) दारुदबदी ।--हरुतक (-छु०) काठ का बना ड्ाथी, काठ की कछलछी । दारुक तव्‌० ( छु० ) देवदारु, इक्षविशेष, श्रीकृष्ण के पक सारथि का नाप्र, सुभद्राहरुयण के समय इसने अछझ्ुन से कहा था कि में यादवों के विरुद्ध रथ नहीं हाँक सकता इस कारण श्राप मुझे बाधिकर जहाँ चाहें वहाँ जा सकते हैं | र॒स्यु के समय का श्रीकृष्ण का संवाद इसने अर्जन का खुमाया और दुखी हे।कर स्वयं बन में चक्ता गया। द्वारुण या दाख्न तत्‌० ( पु० ) चित्र७। ( वि? ) भयानक, बेर, कठोर, कठिन, असह्य +--वोये ( वि० ) भयानक, घोर, भीस | दारू दे० ( स्त्री ) मद, शराब, मबिरा, घारूद । दारूड़ा दे” (० ) मद, शराब | दारुड़ी दे* ( स्त्नी० ) मद, मदिरा, शराब | दारोगा (पु० ) प्रबन्धक, दरोसा, घानेदार । दारखों दे” ( ४० ) दाड़िय, अनार, यथाः-- देाहा भ सुभर भरयेः तथ ग्रुनकनलु पाक्यो कुबत कुचाल | क्यों था दास्यो ज्यों द्विता दरकत नाहिं न छाल ॥ --बिद्दारी सतसई | दचाढ्य॑ तव्‌० ( घु० ) इढ़ता, १ेठियता, फाठिन्य । दार्वा तव॒० ( स्त्री० ) ओपघविशेष, रखेज्त । दावों तद्‌० ( स्त्नी० ) दारुहरिद्रा, दारहरदी ) दाशनिक सत्‌० (वि० ) दर्शनशास्त्रवेत्ता, द्शन- शास्त्रज्ञ [ झ्ादशित । दाार्शन्त तद्‌० ( थि० ) बपमिति, उपसेय, प्रादुर्श, दष्टोन्तिक ( गु? ) इप्टान्त सम्बन्धी दाल दे० ( स्त्री०) दुछा हुआ चना अरहर रूँग आदि, दुलकूइव ।--गतललना (वा०) प्रभाव हो ना, पेँछु-ततदि । दालिद्रू तच> ( घु० ) दारिद्य, रंक | दालिम दे० ( ७० ) अनार, दाड़िस । द्ाव दाध तत्‌० ( पु० ) जहल, वन, अस्‍्तत्र विशेष, वारी, बपताप, दावानक्ष, वनाप्रि । [ अलछगाना | दावन देन ( पु०) पीदन, मर्दंन, मीना, डॉठ से अ्रश्न दावना दे* ( &० ) दवाना, श्रक्त निकारगा, उठ से अश्च निकाद्धना । ठावरि या दायरोी दे० (स्प्री०) पृक्त प्रकार की रस्सी, जिधपते कुतार से ब्ेछ बांधे जाते हैं और उन्हींसे रोंदवा कर भूसा और भन्न प्‌ क करते हैं । द्वाचा ६० ( पु० ) इक, स्व 7५, स्वत्वप्राप्ति के लिये निवेदन ।--गीर ( पु० ) दावा करने वाला । दया तत्‌* ( पु० ) दावानक । दावात ( स्त्री५ ) मसीपाय, दुवात । दावादार ( पु० ) श्रपना अधिशार ज्ताने बाढा | दावानल तत्‌० ( ७० ) दावापि, दाववन्दि, बन की थ्राग, वनाभि, वनोदुभव श्रप्मि । द्वायिनी (स्त्री०) घिजल्ली, स्त्रियें। के माये का एक गइना। दावी दे० ( स्त्री० ) याचना, प्रापंन,, नालिश। द्ाश तव्‌" ( पु० ) सडली पकड़ने बाढ्य, मक्ल्ाह, कर्णघार, मछुधा, घीवर | दाशरथ या दाशरधि तत्‌० (8० ) दशरघापत्य, दशरथ के पुत्र श्रीशामचस्द्र आदि] दाशाई तत्‌* ( पु? ) विष्णु, नारायण । दाश्प तब? ( पु० ) दानकनों, दाता, दानशीरट। दास तत्‌* ( पु० ) भुत्य, किक्टूर, केव्त, धीवर, शूद्ध, रइलु पा । वप्रनास विशेष, साधुओं छी एक अ्रछ । जय (६ स्त्री० 2 एरपीनता, परतन्त्रता सेक्दाई, पराधीनमाव, सेउ्शमाव ।|--त्व ( पु० ) दाध्य, पेरकमाद ।--नन्दिनी (स्त्री ०) ब्यासमाता, सत्य- चती ।--छृत्ति (स्त्री० ) पताघीन जीवन, नौऋरी, दाप्तता ।--जुदास ( ए० ) सेवक का सेवक |) दासा दे० ( पु० ) पूछ प्रकार का काए, जे टकदी के नीचे दीवार पर रफ़ते हैं, हंखुआ,झोरी की खूटी । दासी त्तत्‌५ (्‌ स्प्रीन ) मुनिष्या, कमेंकरी, किद्कूरी, भूच स्त्री, शूद्धा, परिचारिणी, परिदारीका, चेल्ी, सेवछी, लौंडी दास्तान ( *प्री० ) दुलवृत्तास्त, पर्णेव, कपा ! दास्प त्रत्‌० ( पृ० ) दाम व, पेश, जीविद्य- मृत्यवा, नौझरी । (४०८ ) दिखना दाद ८त ( पु ) ददन, भस्मीकरण, ज्वाला, ताप, जनन्‍न) ांच, सेऊ, झुटसाव।“कम या तिया (घु० ) मुस्दे के झडाने का कम [--ज्ञनक ज्वाज्षाका |-देना (वा० ) दग्घ काना; चन्परेष्ट सैस्कार करना, मुर्दों बठ़ाना --सर ( 9० ) प्रेतावास, >्मशान, शावदाइ स्थाक, चितासूमि [-- हरण (प०) ग्रषधाविशेष, वीरय सूछ, खसखस; सुगन्धित घास विशेष | [वाल्या, दाह देने वाला । द्वाहक दे० ( प०) दाहकर्ता, दाह करने घाला, जराने दाहना दे० ( कि० ) जलाना, वाज्ञना, भम्म करना । ( वि०) दुद्दिना, दक्षिण, दढिण भाग | [किया | द्वाह्य दे* (क्रि०) जलाया (१०) जलन, भस्ण दाद्मत्मक तत्‌+ ( वि ) दाइस्वरूप, दादप्रद | दाहिन या दाहिना दे० (वि०) ददना,दक्षिण,श्रनूहठ, सरब्, सीधा | [उपयुक्त, जडादे योग्य, दृदाई । दाह्म वत्‌5 ( तरिर ) [ ददू #ण्यद | दाद करने के दाहय तत्‌० ( पु० ) दक्षता, निषुणता | दिश्वली (स्त्र० ) बहुत घाटा मिट्टी का दीपध | दिश्या (४० ) दीशा, दीपक ।--वत्ती (स्प्री६ ) दिया जछाने का । दिऊ्‌ तद० ( ४० ) दिशा, दिगू। शोर ।--परति (६०) दिशाष्यक्ष, दिकुपाल, दश दिशाप्रों के श्रभिपति। फऋप से वे ये हैं, पूर्व का इन्द्र, श्रप्तिशेण का श्रप्मि, दृद्धिय का यमराज, नेऋत्य कोण का नैशथ, - पश्चिम का वरुण, वायब्य हा 6 का पवन, उत्तर का कुबेर, ईशान कोण का मदाईव, ऊपर की दिशा का बद्या और नीचे की दिशा का च्नन्‍्त या विष्णु पति ईं ।--शूल्न (३० ) दिशाविशोष में जाने का निपिद्द दिन । शनि और सोमवार पूर्व का युदद स्पतिवार दद्धिण का, रवि और शुक्रवार पश्चिम का और मम्नड डुघ इचतर का दिकुयूल हैं। अर्थाद्‌ निर्दिष्ट दिनों में निर्दिष्ट दिशा की यात्रा निषिद्ध है । नह दिक्क दे० ( वि० ) दु खी, ब्ययित्‌, कष्टयुक्त, वल्नेशी। दिक्कत ( स्त्री० ) परेशान, कठिनाई, तगी। दिकुदार दे० ( वि० ) रोगपीड्ित, ब्यधित, रोगी, बीमार, दु,सी दीन, कश्म्राप्त, क्च्ेशयुक्त | दिखना ( क्रि० ) दिल्लाई पढ़ना! 'द्खित्ताना द्खिलाना दे५ ( क्रि०) ससमाना, बुस्तना, दर- खाना, बताना, बतलाना, प्रकदित करना, प्रकाशित करना, प्रकाश करना, लखाना, रक्तित कराना; अल्यक्ष कराना, साक्षात्कार कराना | द्खिशय दे” (क्रिव) दिखा कर, जवाय कर। दिखलावा दे० ( घु० ) हुहा, घृमघाम, बाहरी साज- बाज | दिखाई देः ( सतरी०) लछखाई, खुझाई | -देवा दे* ( क्वि० ) मालूस दोना, मालूस पढ़ना [ दिखाऊ दे* (बि० | दिखाबटी, सुन्दर, सजीरा, सुद्दावना, चाइरी सुन्दरता, सुश्री । दिखाना देन (क्रि० ) बतढछाना, सुर्ताना, प्रत्यक्ष ऋवाना, दरसाना | दिखाव या दिखिाघद दे० ( छु० ) बाहरी चदकमटक, टीमटाम्, टीपटाप । दि्खिावदी ( गृ* ) दिदयौझा, बनावदी । दिखिाचा ( छ० ) आवर, तड़क सड़क | दिखिया ( घ० ) दिखाने बाला, दैखने वाला | दिखौआ ( छु० ) बनावटी । बिगू तदू० ( स्त्ी० ) दिख्ग, दिकू, ओर देश, पच्च । “अन्ध ( पु०) दिशा का अन्त, विग्मएडल, चक्रवाक्,. दिशाश्रों की परिधि ।- अ्रन्तर, अच्तरातत 8० ) शून्य, आकाश, ब्योम, नभ | -+अस्बर ( गु० ) विवस्त्र, वस्वरद्धित, नप्न, भंगा ( ( पु० ) शिव, लेन्यासी |--गज ( ध्र० ) दिशाश्रों के इस्ती, श्राठ दिग्गज हैं उनके नाम ये हैं --ऐरा- | बत, पुण्डरीक, वासन, ऊुप्ुुद, श्रञ्नन, पुष्पदुन्त सावंभौम, सुप्रतीक् --दुर्शन त्तत्‌* ( घु० ) बहु- दर्शन, सबभावाक्रोकल, इज्वितमान्र से दिखाना। दाह (३० ) देशदाह, अ्रश्लि का उत्पात] --थ (वि० ) चिषाक्त, विप से घुकया हुआ - बाण >-पात्त (पु० ) दिशाओं के रक्षक इन्द्र चरुण, यम, कुबेर आदि।--शबालाः ( वि+ ) मप्त, विवस्ख, जड़प ।--विजय ( छु० ) विद्या अथवा युद्ध के द्वारा देशविजय --विजयी ( बि० ) देश- ज्ञबी, विश्वजेता, सर्वेत्न जयशील ॥- विदिक्‌ ( स्ली० ) सकल दिशाओं में, चारों ओर ।--स्रम €( 8०8 ५ ) द्ति ( घु० ) दिशाओं का अन्यथा ज्ञान, दूसरी दिशा को दूसरी दिशा समझना | - भ्रमण ( घु० ) स्तन अमयण, दिकपयंदन [--मराडल ( छु० ) चक्रचाल, दिगनत ।--मुख (४०) दिशामिह्ु्त ।व्यापी तव्‌० ( वि० ) सर्वेच्यापी (--धान, चार तद्‌० (8०) पदरू |--शूल तत्‌० ( छु० ) दिशाशूल | दिर्गी दे० (स्री० ) दिघी, तालाब, वापी, पेश । दिधी दे० ( ज्ी० ) दोधघिंका, लालाब, पोखरा, वापी, चड़ाय हि . दिडल्नाग तत्‌० ( ए० ) एक बौद्ध दार्शविक्त पण्डित का साम, ये बौद्धमत के अचार्य भी थे। से काझ्ली में रहते थे | इचका कालिदास के समकालीन होना पण्द्रित छोग बचात्ते हैं, अतः कालिदास करा ६०० ई० समय इनका भी समय माना जाता है। दिउचन ( ख्री० ) कार्तिक शुक्ल १३ शी, देवी स्थास की एुकादुशी । दिठियार ( ग्र॒ु० ) नेन्न बाला, अखि चाल्मा, प्त्यक्ष। दि्ठोना दे० ( छ० ) घ्चों का तिक्षक जे। दृष्टि दोप हठाने के किये किया जाता है। दुधसुँद्दे बाद्यकों के साथे पर छूगाया हुआ काजल का बिन्‍्दा क्षे। इस लिये लगाया ज्ञाता है कि उन्हें दूसरे की नजर न लगे । दिरड दे० ( १० ) इत्यविशेष । व्ल्ाना तदु० ( क्रि० ) इढ़ करना, ठहराना । दितियार ( घु० ) रविवार । दिति वत० ( स्वी० ) प्रजापति दत्त व्वी कन्या, कश्यप की स्त्री और दैत्यों की माता का साम | देवताओं की लड़ाई में दैत्यों के नाश होने पर दिति ने पुक् दिन अपने पति से इन्द्र को परास्त करने वाले पक पुन्न की आर्थना की, कश्यप दिति की प्रार्थना पूर्ण करके बोले,तुमझछे हज्जार वर्ष तक गर्भ घारण करना होगा आर प्रसव द्वोने दक बहुत्त ही शु॒द्धवाएवक रहना देगा, दिति भी बढ़ी सावधनी छे पति के बताये नियम का पालन करने रूमी | इस समा- चार को पाकर इन्द्र व्यथित हुए, वह समेोकु देखने लगे । एक दिन विचा पैर घोये दिति से गई, उसी अवसर पर इन्द्र ने चञ्र से गर्भ के ४६ जप्ड कर दिये । उसी गर्भ से उत्पन्न पुओओं का नाम मस्य है। दा० पर०--रे रे दितिन्न (. ४१० दिविज्ञ ( स्प्रो० ) दँत्य, दिति से उत्पन्न । दिदार (५०) देखा देखी, दर्शन | दिद्वत्ञा ढत्‌० ( ख्री० ) दशनेच्चा, देखने कि इच्चा, दस़ने की स्वाहिश । दिद्वृल्लु ( गु० ) देखने कौ कामता रखने चाला। दिविज्ञा तत० (स्त्री) दुदनच्चा, दुढन करने की इच्छा, जलाने की इच्छा । दिपिपु तत० ( स्री० ) द्विहदा, दे। बार व्याददी ली ] -पवि ( ४९ ) दिरूढ़ापति, दे। बार ब्याह खी का पति, विधंवपति | दिन तत्‌० (पु०) सूर्यज्योति से निय्रमित काल, बासर, दिवस, घस्र, अद ।--कर ( ६० ) दिव- पति, दिनमणि, सूर्य रवि [--फाटना (वा> ) समय तिताना, गुपर करना, दुश्ख या आालस्प मे दिन विताना ।-क्रेशर (पु ) तम, अस्थकार : --का दिन ( वा० ) समस्त दिन, समभूचा दिन । “ख़ुनना (वा० ) अच्छे दिन आना, सुख का समय उश्नति द्वोना, वृद्धि ढेना, बढ़ती होना +>गेंशाना ( दा० ) आछस में पढकः बैठे गहल्ा बथा समय खाना |--चढना ( बा० ) अ्रधिक समय हिताता, तिलम्द होना, खिय्ें के राहोधर्म होने में विल्लम्ब दाता ।-चढ़ाना (बा> ) विल्त्ब काना, भत्ति काछ् करके किसी काम के प्रारम्भ करना, धालस से कार्य समय वित्ता देना --चर्या (स्लरी० ) दिन सर का काम ऋज्योति, ( ६० ) अआातप, धूप, घाम | “छेलना ( व" ) दिन घटना, दिन चला जाना दित परटता) भच्छा या घुसा दिन आना, समय का परिवे्तेंद ढ्वना /--दानों ( वि) धतिद्कि दु'ता, प्रददिन दानकर्ता |--दिन ( धु० ) प्रति दिन।--हु पित ( 5 ) चक्रबारु पद़ी, चच्चा ( वि० ) दिनहीन, दरिद, निल्ल निधंत -माय ( ३* ) दिनकर, दिज्रांधपति, छुपे [-पड़ना ( था ) सन्ध्या दाना, दिन औीठना, दु स्व पड़ना, दु प थाना ।-फिरना (बा ) भाग्य खुझना, युरे दिनों का चल्का जाता और अच्चे दिनों का झानता +-वरदिन (दा० ) श्रति दिन, दिन पर दिन ।यज ( पु० ) पशुम, पष्ट, सप्तम, चष्टम ह। दिनकर एवादश और द्वादस राशि |+-मरना ( वा० ) दु'ख और कष्ट में समप उिताना ।- मनि या मणि ( पु० ) दिवाका, साजु, छूर्व।-भान्र ( ० ) दिवस, काल, सूर्योदय से सूर्योध्त तक का समय सूर्णेदय औए सूर्यास्त पे नियमित काल |--मुश्ता (चा०) दिन छिपना, छूर्बात्रा दाना, सम्ध्या द्वाला । --मुख (पु) प्रात कार, सवेश,मिनसार, बिद्ान | +सूर्द्धों ( पु० ) उदयाचल, पूर्व परत । दिनकर तत्‌» ( घु० ) सैस्‍्टन के पक पण्डित और क॒त्रि इन्‍्हेंने कालिदास के बघुदेंश की टीका यमायी थी | १श८५ हे में रघुत्श की टीहा उन्‍होंने बनायी ऐसा कुछ लोगों का कहना हैं । ये गैद्ध- घर्माउछम्दी थे, रुम्भव है इन्हींडी टोका के छट्टय करझे महिनाप्र ने “दुब्यास्या विपमूच्चिता ” कट्दा हो । यह दिन कर चेद्भाष्यर्तां लायथ और सर्वेतद्शलंग्रहकर्जों मात्रव से प्राचीन जेंचते हैं। इनका समय चोददवीं सद्दी का पिधला भाग दी मादा ज्ञा सकता है । इन्हें मिश्र की उपाधि थी, इनका पूरा नाम दिनिक मिश्र था।( २) यहद्द बम्पई प्रदेश के रत्नगिरि जिंढा के देवता प्राम में १८१६ ६० में उसन्न हुए थे | इनका नाम दिनकर राव था । इनझे पिता सद्माराष्ट्र वाह्मण थे अर इसका चाम राषद शाहूथा। दिनझूर राउ चार पीढ़ियों से गवालियर में रइते थे।। पर्दा इनई पूरे पुरुष जेचे ऊँचे पर्दों पर थे | द्वितिकर राव सस्‍्क्ृत और फार्सी के विद्वाव्‌ थे। पहले पल इन द्विमावनवीप का काम दि गया) इगझी योग्यता और प्रमुभक्ति के काण इनका पद बढ़ता द्वी यवा। अन्त मे यद स्वाक्षियर राउप के दीवान भनावे गये | इस समय र/ज्य की अवस्था धहुस बिगड़ी हुई थी | ख़ज़ाने में रपये नहीं थे | उन्होंने पाँध इाजर छे स्थान में दे दाजार च्रपता मासिझ बेतन॑ कर लिया था ।,राज्य के कामों पर इन्होंने उपयुक्त मजु“बों के स्पका उत्तम प्रवन्ध किया | सितराही विद्वोड क॑ समय इन्द्रीन अक्रोेजो साकार की बड़ो सट्टायता की थी, घरा समय झे यड़े ल्ाट ने इनडश्ी सद्ायता के बडे में इ हैं काशी के लिब में पक बड़ी ज़मीहारी दी । सब )८५३ हें» में इन्होंने दिनाई पवाल्ियर का मन्‍्त्रीरद त्याग दिया और कुछ दियें तक घौरपुर में राज के सुपरि्टेडेंट का कास करते रहे. तद॒वस्तर चड़े छाद की व्यवस्थग्पक सभा के सभ्य बनाये गये | सन्‌ $झ६४ ई० में इन्हें के० सी एूस० श्राई की पदवी गवर्नमेंट मे दी। पुनः ये राजा बनाये गये, का डफ्रिन से इनकी राजा की उप्राधि चंशगत्त कर दी | बृद्ध अवस्था में उन्होंने सभी कार्मो के छोड़कर भगददू- सन्न में मन छगाया। सन्‌ १८६५ ई० में इस एक भारतीय प्रभुमक्त की जीवन लीछा समाप्त हुई। दिनाई दे (सी?) दाद, द्ु, सेंहुवा । [दिव का साग | पिजांश तत्‌० ( घु० ) पूर्शन्द, मध्यान्द, सायान्‍्हादि दिनादि तव्‌० ( घु० ) [ दित + झादि ] प्रभात, प्रात काछ, सब्रेरा [ दिनचय । व्वाम्त तव्‌० [ दिन + अन्त ] द्विसावस्तात; सम्ध्या, दिनमार दे* | छु० ) देवप्राक देश के घासी | पद्िनारा दें० ( वि० ) पुरावा, बासी, रखा हुआ | 'द्विनाल्ोक तव्‌० ( प० ) [दिन +आल्तेक | सूर्य का प्रधाश, सूथकिरण, धूप | दिनो दे? ( वि० ) पुराना, बहुत दिनों का। दिनेर, दिनेश तत्‌० ( ६० ) [ दिन + ईश] दिनपतति, दिनरर, सूर्य, भानु । दिनैला दे० ( लि० ) दिनी, पुराना. बहुत दियों का । दिनोंची तद॒० ( वि० ) दिन का अन्‍्धा, जिसे दिन में नसूके। दिपति ( स्त्री० ) दीछि, झलक, आमा | दिपना (क्रि०) चसकना । [दी जाने वाली परीक्षा । दिए (छु०) निर्शेषता और छवन की सत्वता के लिये दिमाक या दिमारा ( ० ) मस्विष्क, भेजा, घमंड। द्वार ( छ० ) प्रवछ, मानसिक्त शक्ति! दियट दै० (स््री०) दीपक रखने क्री ऊँची ब्रैठकी,दीवट । दियिरा ( पु० ) पुक प्रकार का पकवान । दिया दे ( खो० ) दीपक, दीप, चिर्शा [बत्ती ( स्ली० ) दिय्रा जछाने का काम -सलाई (छी० ) खनाम प्रसिद्ध दीप वाहने की एक बघ्तु, राग काड़ी । दिल्ल ( पु० ) ऋलेजा, मन, चित्त, इच्छा, सलाइल। --गीर ( श॒ु० ) उदास, खिन्न ।- चत्मा ( गु० ) € धर? ) अल विननलननन+-+-+ लत नलननन+न विपनन न ननन+ माप द्वा बहादुर, डद़ार, दावा, दानी ।-चस्प ( गु ) मनोरक्षक, चित्ताऊपंछ [--जमई ( सकी ) सन्तोष, विश्वास |--जला | गु० ) दर्घ हृदय, शोकछाकुछ --द॒स्यिायव (छु० ) उदार, दश्नी दाता >पसंद (गु० ) मनोदर, बूडेदार वस्न विशेष, आमविशेष, | -चद्दार ( पु० ) रंग विशेष ऊख्त्रा ( पु० ) प्यारा । दितिवाना ३० ( क्रि० ) दिलाना, दान कराना, देवा चातु ही प्रेरणार्थक क्रिया । दितवालो दे० ( बि० ) दिल्ली का वासी, दिल्ली का घना | ( स्त्री० ) उदार ख्रो, सादस बाली स्त्री दि्लवेया दे० (वि०) दिलप्ने वाला, दाम करानेबाला, ्रेरणा करके दान करानेवाला | दिल्लाना दे० ( क्रि० ) दिकवादा, दान कराना | दिलासा ( छु० ) ढढ्स । द्विल्वी ( गु० ) हार्दिक, अत्यन्त घनिष्ठ । दिलीप तत्‌० ( घु० ) सूर्यवंशी गाजा, यद्द रघु गज के पिता थे [उन्होंने ६६ अ्प्वमेध यज्ञ किये थे, कालिदुस्स शा रघुवंश इन्हीं के चरिन्न से प्रारम्भ किय्रा गया है । दिलेर ( गु० ) साइसी, बीए, शूर नी (छ्ली० ) साहस, उत्साह | [ दंसोाड़ा, ससखरा | दिल्वगी ( झी० ) हँसी मज़ाक । -वाज्ञ (गु०) द्विल्‍ली दे० ( पु० ) एक मसिद्ध नगर का नाम, भारत व्डी राजघानी | [दिव्रा, दिन | दिव तव्‌5 ( पु० ) , स्वर्ग, प्रस्तरित्ष, आद्वाश, चन, दिवरानी ( खी० ) पति के छोटे भाई की श्री । दिवस तत्‌० ( पु० ) दिन, दिया, चलस्च, लह:, बालर । >-झुछ्ज ( पु० ) प्रभात, आतःस्काल दिवसात्यय दत्‌5 ( घु० ) दिन की सम्ताप्ति, साथ, सार्यक्राज, सन्ध्या । [ सुस्पति | दिवस्पति तव्‌ ( 9० ) [विक्सू + पति] इन्द्र, देवराज, दिचा तव्‌* (४०) दिन, दिवस, वासर-- कर (झु०) सूर्य, दिनकर, दिनमणि | संम्कृत के पुर कवि का साम | राझ्शेणर ने अपने पूर्च के कवियों में इनका भी नास लिया हैं] ये कल्नोंज् के अधोम्वर धप- चद्धन के सभासदें में से थे | क्लीदर्फ का समय ६०० है० के छगमग निश्चित हुआ है, अतपुथ दिधाला ( ४१२ ) द्व्यि बनके समापण्डित दिवाकर छा भी वद्दी समय मानना चाहिये। यद्यपि ये नीच जाति के थे, तथापि इस कारण इनकी विधा का प्रनादर नहीं किया जाता था । ह्प॑वद्धंत की सभा में वाण, मयूर आादि छ्ले समान इसकी अतिष्ठा थी। इनके विषय में एक सैस्‍्कृत का श्लोक है ++ अट्ढे प्रमावो बारदेब्या यन्म्रात्भद्वाकर , थ्री हर्पस्यामवश्सभ्यः समे। बायमयूरये! शी इनका पूरा माम सातड़दिवादर था| ( ३ ) भारद्वाज ग्रोत्नोप्पश्ष एक भ्सिद्ध अयेशतिषी ब्राह्मण । इसके पिता का सलाम नृसिंह था । शिव दैवज्ञ इनके चचा और विद्यादाता गुरु थे | प* सुधाकर द्विवेदीनी इनका जस्मकाछ शाझे १६४२८ या १६०६ ई० ग्रतछाते हैं। इनके बनाये कई एक प्रन्ध दैँ। इनमें जातकपद्ति नाम सन्‌ १३११६ ई» में विमिंत हुआ था। ग्रेदावरी नदी के तीर पर गोक्ष भामछ प्राम में इनका निवास स्थान था (--्ध ( वि० ) दिन का श्रन्धा, जिसे दिन में नहीं सूकता द्षे, दिनोंथ। ( पु० ) घलूक, इकलू |--भीत ( घु० ) पेचक, बल्लुआ, उद्लू, चोर, वस्कर ।--मणि ( ३० ) बूवें, दिनकर। “मध्य ( पु) मध्याम्इ, दिन का मध्यभाग द्वितीय प्रदर | द्वान (प०) मन्त्री, बजीर, । ( गु० ) पागछ,खफी । दिघाला दे” (पु ) ऋण चुकाने री अशक्ति, न्यास किये हुए धन के न देना । विवालो तदू० ( स्री६ ) दीपावछ्णी, कात्तिक मास की थमावस्या का स्पेहाार, जिसे दिन छक्मी पूजन तथा दीपदान किया जाता है | दिशिय तय ( वि० ) स्वर्भीय, दिग्य, चल्तौकिक | दिपिरध तत्‌* ( पु० ) राजा विशेष, मदाराजा अझ् का पृश्न चार दष्चिवाहन का पौध, दिविर्य ऋा पुत्र चर्मरप भौर पौद्र चित्ररध था। दिविपंद्‌ तत० (पु ) देवता, अमर, देव | द्विश तव॒* ( ५० ) इन्द्र, देवराज। वद्वोदास तथ० ( ५० ) धष्नम्व के पुत्र । ये मेनका के यप से उधश्च हुए थे | इनकी बद्दिन का नाम अद्विल््या था । (२) काशिराज मनुवशीय रिपुक्षय के पृत्र, इन्होंने | त्तपस्था द्वारा ब्रह्ला को प्रसस्ध किया था और वर पाया या। ब्रह्मा के वर से नागराज ही कन्या अद्नमे्टिनी से इनका विवाद हुआ था चर स्वर्ग से कुसुम और रत्न इनके मिले थे । हसी कारण इमका दिवोदास नाम्त पढ़ा था। हन्होंति बहुत दिन तक काशी का राज्य किया था | (३ ) इनके प्रतइन नाम का एक पुत्र था| इनहे पिता का नाम सुदेव था। भायुवशीय सुद्देन्न पुत्र काश प्रषम राजा, इनऊे पुत्र काशिरान, या काश्य इनके नाम पर ही उस राज्य का काशी नाम पड़ा । इसी वश में हय नामझ पुकराजा इत्पन्न हुए। यदुवंशीय हैहय के पुत्रों ते इन्हें मार ढा डा | उसके बाद सुदेव काशी के राजा हुए, बढ भी हैद्दम वशिये। के द्वारा मारे गये | तदनस्ता उनके पुत्र दिवोदास काशी के राजा हुए और इन्दोंने काशी के खूब यत्न पूर्वक सुरह्षतित किया। उस समय काशी गन्ना के उत्त तीर भार गोमती के दक्षिण तीर तक विस्तृत थी | मन्॒श्नेयय छे पुत्र ने काशी पर चढ़ाई की और उसने युद्ध में दिवोदास को इरा दिपा । तदुनस्तर भदक्रेण्य छे पुत्र दुदुंध के दिव्रोदास के पुत्र प्रनईन ने इतया + [अमर । द्वोकस तद्‌० ( पु० ) स्वगे निवासी, द्वैवता, देव, दिव्य तत्‌* ( वि० ) स्वच्छ, स्वर्गीय, धुन्दरर, मनोश, ऐस्वरिछ्र, ईभ्वर सम्बन्धी | (यु० ) शपथ । -+कारा (दि०) केपप्रादी, शवपकर्ता ।-कुणड (घु०) कामरूपी छामझ नाम पर्वत पूर्वभागस्थ पुष्धरणी विशेष ।-नानन्‍्ध (१० ) छव#, लौंग । “गायन ( घु०) स्वर्गीय गाय रू, यन्धर्व ।>-चत्तु ( 4० ) ज्ञानचश्षु॒ उपचझु (-दादद (प्र) अयायित, उपस्थित, बिना भगि भाप्ष +--द्वृष्टि (वि० ) अ्रव्बौकिछ ज्ञान सम्पन्न, सर्वे ---धर्मोा ( वि" ) धाप्मिक, धर्मात्मा, मनोज, मनोहर, रस्‍्प ।--रल्न (५०) विन्तामणि /--रथ (३० ) स्योमयान, देवठा का विधान ।-रस तदु » (जु०) पाथ, पारद, रस ।-लता (स््री०) दूवाँ | “पसन, वस्त (पु०) सुन्दर बच्चा, मनोंदर बच्च, स्वर्गीय कपड़े ।-पाफ्य (पु ) दैववाणी + दिव्याजना + ज्ञान (ध०) उज्वल ज्ञान, अलौकिक ज्ञान, अद्ज्ञान ।-रुथान ( छु० ) सुन्दर ग्र३, स्वर्गीय ग्रुद्द, उत्तम वासस्थान । ५2४ दिव्याडुना तत्‌० ( स्री० ) सुन्दरी, चराह्षना, मनोहरा स्री, उत्तमा खुन्दरी, स्वर्गीय सी : दिव्यादिव्य तत्‌* (छु०) [ दिव्य + घद्व्य] अलौकिक मनुष्य, देख सुल्य मनुष्य, नायक चिशेष । दिव्योदक्न नत्‌० (०) [विव्य + डद॒क] भाकाश जल, तुपार, हिम । दिश्‌ तव॒० ( स्ी० ) दिक्‌, परत, आदि दस दिशाएँ । दिशा तत्‌० ( स््री० ) दिश | दिशा, दिक।--शूल (४० ) विकशूल । दिशि तद्‌० ( ख्री०) दिशा !--धाथ (३०) दिकूपाल, दिशाओं के स्वान्ती ।-प, पाल (६० ) दिल्वपतल्, दिशनाथ, कोकपाछ, (७० ) दिशाओं के राज्ञा, दिरिपाल । दिश्य तच्‌० ( वि०) दिगूभइ वस्तु, दिगूजात, दिशाओं .,.. में इप्पन्न ऐानेवाली वस्तु, दिशा सम्बन्धी । दिए तव्‌० (पु०) भाग्य, दैव, नियत। (वि) [दिश,+ का ] उपदिछट, उपदेश पाया हुआ ।“-वन्धक पुक प्रकार के रहन या गिरघी रखने का ढंग इसमें सहांजन के सिर्स़ रुपये! का ब्याज मिलता हैं । झुक ( बि० ) साग्याधीत, भाग्यफ का भोग करने बाला । [ अव्यय | दिष्दुया तत्‌० ( अ० ) हपे, अतिशय आनन्द सूचक दिस ( ५० ) दिशा ! द्लिना ( क्रि० ) दिखना । दिसा ( स्री० ) दिसा। दिखैया (गु०) देखने या दिल्लामे वाला। [विदेश,परदेश । दिशावर, दिसावर तदू (पु०) अपर देश, अन्य देश, विशावरी था दिसावरी तदू० ( बि० ) अपर देशीय, अन्य देशी, दूसरे देश का, दूसरे देश का साल * (० ) पुक प्रकार का पान | दिहरा दे" ( ४० ) देवारूय, देवस्थान, सन्दिर । दिदत्ती तदू० ( ख्री० ) ढार, देदली, डेवढ़ी दोनों किवाड़ों के नीचे की लकड़ी । दिहात ( स्वी० ) देद्यात, गाँव ।--ी ( गु० ) मैंवैया, गाँव में रहनेवाला | ( छश३ ) दीप दीक्षक व्त्‌० (:छु० ) दीचादाता, मन्द्रोपदेशकर्ता, गुरु, उपदेशक, मन्ण्दाता, धर्मोपदेशक | दीज्धा तत्‌० ( छ्ी० ) भजन, पूजन, ब्रत, सेप्रद, गुरु सुख से अपने इृष्टदेव का मन्त्र अहण,-उपदेश [ --कर्चा ( छु० ) गुरु, उपदेशक, दीक्षाकारक ] दीक्षित तत्‌० ( वि० ) [दीव,+ कर] बपदिष्ट, ग्रद्दीत- सनन्‍्त्र, भजन करने में प्रदुत, क्ान्‍्यकुड्न चाह्मणों की एक शल्ल, उपाधि |. पट्ठना, दी5 पड़ना । दीखना दे० ( क्रि० ) दिखाई देना, खूझकना। दीख दीठ तद्‌* ( स्ती० ) इृष्टि, भ्रासि, नेन्न, नयत, चछु, दर्शन, लाक +--वंद्‌ ( ख्वी० ) ज्ञादू', नवरबंदी । द्ोंठा तदू ० ( गु० ) द्रष्टा, दर्शक; देखने चाछा | द्वीठि तदू० ( ख्वी० ) दृष्टि, दर्शन, नेन्न, नयन । दीदा ( स्री० ) इष्टि, नजर, नेत्र । दीदार (घु०) दर्शन, सुलाकात, भेंट । [बड़ी बहिन | । ( स्त्री० ) वड़ी बहिन, बड़ी ननद, पति की दीघिति तव्‌* ( खी० ) किरण, राशी, तेज, स्याय के पृक्ठ अस्थ का नाम, पत्थर सिश्र कृत एक न्यायग्रन्थ । दीन तद्‌० ( वि० ) दरिद्र, निर्धन, निरण, छुःखीः म्छान, भीत ।-चेतन (जि०) विपण्ण, अ्रवसन्न,, बह्झिचिस, प्याकुल मानस चेता (गुण ) निरहद्भार, अ्भिमान शून्य, सीधा सादा (-त्ता, या ताईं ( ख्त्री० ) दुरिद्वता, दुःख, अझचीनता। -दयात्धु ( वि० ) दीनों पर दया करने बाला, दीनपालक, दुखियों रा दुशज़ दूर करते बालछा। --ताथ ( 8० ) दीनपालक, दीनरज्षक |--बन्धु ( छु० ) दीव पर कृपा करने घाले सगचात्त। --त्सल (वि०) छारुणात्मा, कृपलत्ु, दूयालु । दीनानाथ तव्‌० ( छु० ) [दीना + नाथ] दीन के रचेछ, दीन के स्वामी, भरावान्‌ * द्वीनार तत्‌० ( घु० ) स्वर्णाल्छ्वार, मुद्रा; निष्क परि- माण, दे। कर्ष परिमित सुक्णं, व्यवहार की सुगसता के छिये भान करने की वस्तु, वत्तीस रक्ती भर सोना, सेकने के पुराने सिक्के का नाम | दीप बद० ( छु०) प्रदीप, दिया, झक्ाफ, जलती हुई चत्ती की अ्श्चिश्चिख्ा ;--क तव्‌० ( गु० ) [ दीप +णक | प्रकाशक, थोत्तक, शोभाकर, शोभा- दीपन ( 8१७ ) गैर्ध दे हाय ाातत-त+्_न्‍+-+_+तत--्जतत-_ जज त+तत-+त+त........... कार5। ( पु० ) दीप दिया काब्याह् छूपर विशेष, जा अपमान और उपमेय डानों का धुक द्वी घ्॒मे बर्णंत किया जाय, वह दीपछ श्रल््टु'र है। इसे दो भेद हैं दीपक श्रै।र आवृत्त दीपक । यथा -- दोदा वसये भ्रचन्य॑न के घरमु जहँ दानत हैं पर । दोपक ताझे कद्त हैं भूषन खुऋवि विवेक्ठ ॥ बंदादरण-- कामिनी इन्त पों, जामिनी उन्‍्दू सो, दामिनी पावशन्त सेव घटा से । कीरति दान सा, सूरत्ति शत सा, प्रीत्ति घड़ी समैंमान सद्दासें ॥ मुपन भूपत सो तदी, नबिनी नव पूपन देव प्रमाप्ते | जाहिर चारिदू ओर जदान, ढसे द्विंदवार खुपान सिवालें । +-+शिवराज सूपण । ->ऊज्जल (बु० ) दिया की कन्नक्ी |--क्रिट्ट ( पु० ) दीपक की कजली, काजछ |- तल (३०) दीर बच, दीएं छे द्वाशा - निमित बृद्धाकार पसस्‍्तु विशेष जो दिवाली तथा अन्य उश्सवों में बनाया जाता है [-द्वान ( पु८ ) दिया जुराना, दीपेष्मर काना |-ध्यज्ञ (५०) काजल, काजड माता, मानिका ( दस्वी० ) दिवाली का हयोदार । -चुत्ष (घु० ) राइ फानूस, व्छौरी माह |--गिस्रा ( स्ली७ ) दीपक की ज्यासा । दोपन तब० (१०) [दीर+ भनट] (वि०) अप्नित्रदंक, दाच%, दीपिझारक, प्रशशशक | दुपनी तत्‌« (श्वाौ५ ) यवानी, श्रजवाइन, अजमेदा । दीपनीया तत्‌० ( खो० ) भैषध दर्ग विशेष, अज्ञ- बाइन, भजमेदा । [ द्वीछ्षियुक। दीपान्वित सत्‌* ( वि० ) शोम्ान्किठ, दीक्षिविशिष्ठ, दीपिका छत ( स्ी० ) स्वेठिय का प्रस्थ विशेष, रागिनी विशेष, दीउे, दीए | दीपित तत्‌« ( वि ) [दीए + इत] दीपक अ्ज्वखित शोमिन, शोमान्वित, प्राप्त, प्रच्यश, प्रशाझित | दीघ तत* ( वि३ ) [ दीप+क्त] ज्वलित, प्रदाशित, निश्चिव, चीदुयीदूत, दुग्ध, परिदृद्ध, बढ़ा हुभा। ज-निहा (स्त्री० ) उल्कामुसी, झगाली। नल्तोचन ( घु० ) विद्यल, मार्जा।, बिशली । द्ीप्ाज्ञ तब? (पु०) [ दीक्त+ अच] मार, विड़ाल, मयूर, बिछा | दीघ्राप्नि तव॒० (इृ० ) [दीघत+-अप्नि ] धण्छय मुनि । (दि०) तीक्षय जठरानक युक्त, प्रज्वलित श्रप्नि दीघ्राड़ू तत० (१५ ) [ द्ीप्र*भड् ] मयूर, मोर कल्यपी, शिप्ी | दीप्ति तब्‌+ ( स्त्री० ) [ दीगू+क्ति ] शोमा, प्रमा, चुति, तेज, डजिपाला, रोशनी, चमक ढाट, लौ। सुन्दरता, बाय के चेग की सीम्रता, सि्निये। के स्व॒माप सिंद गुण ।--मन्य ( वि०) सप्रकाशता, दक्षता । “+मान्‌ शोमाका, उन्नढ, दीपियुक्त। दीपीपत् तद० (१०) [दीपघ+ उन्‍छ] सूरंधात्तमणि । दोष्यमान्‌ तब्‌० (वि०) प्रशमान्‌, प्रत्यक्ष, प्रशाशयुक्त। दीमक दे* ( १०) वर्मीष, ए८ प्रहार की श्वेत चींदी, कीर व्रिशेष, मिट्टी का धूद़ । दीयद दे० ( ए० ) चिराय दीपक रफ़ने की काद की बनी वस्तु विशेष ! [दिन सम्बन्धी व | दोयमान्‌ वत्‌+ ( वि० ) जे दिया जाता है, वतेमान दी्घ तद० ( वि० ) आपत, ढहम्दा चौड़ा, दचुड, उध, बडा, पश्म, पष्ठ, सप्तम, भ्र्ठम राशि, तिमात्रिक् वर्ण, था, ई, 3' श्राढ़ि ।-कीय (विन ) आयहठ दे, छम्दा शरीरवाढा |--फाल ( ६० ) भधिद समय, घनेक चरण, चितकाक्ष, वहुकाल) +-+फ्रेश (० ) रुम्बे केश, छम्दी दादी -प्रोष ( 9० ) उट्ढ, उंद। ( बि० ) दीधंकण्ठ, बस्दी गरदैन बाला +-जड्ा (५० ) साससे प्रदी, ऊँट, बगढा, बकपची |--जहा (4० ) सांप, सर्प। (स्री० ) राजा विधचन की छन्‍्या | जीवित (यु ) चिराष्यु, बहुत दिनों तह ज्ीनेवाला ।--ज्ीवो ( गु० ) वहु काल जीवी, विशजीवी । (पु० ) अ्रश्वस्पामा, बल्षि, व्याप्त इनुमान्‌, विभीपण ।--तमा ( 9० ) एक महपि का सामे, उदश्य मड़्पिं के पत्र, से अन्मास्थ थे॥-नतझ ( पु० ) दारप्व, ताड़का पेड़, छथा यूक् ।+-दगइ ( पु० ) एण्ड बृद्द, रेद| का इुष | +दर्शी ( वि० ) दूरदर्शों, पारदर्शी, दूस्‍म्देशी। दीर्घाकार (६ छ१५ ) हुशाला इसे पिन :०-+++_ पर 2-35 न कस -ड्वाष्ट ( वि० ) दूरदर्शों, बढुछ्ठ, अवीण ! ६०) परण्डिव.गुश्र पक्षी ।-नाद (छु० ) शझ्ु ।--सिद्वा ( स्री० ) सल्यु, मरण, काछूघर्स ।--विभ्यास ( पु० ) सानसिक कष्ट बतलाने वाढ्ा, अवल . श्वास ।--पन्नक ( 3० ) लद॒सुन, झारू जहखुन, पुनरनवा +-- पत्ना ( ख््री०) छुक्त विशेष, चिरपेटटा “पुष्पक ( छु० ) मदार, आक अकवन [-पुछ्ठ ( पु० ) सांप; विपधर ।+--सूल (पु०) शालवर्णी, जवासा --सूलक (8० ) श्रोषधि विशेष । चिघारा [--रद्‌ ( पु० ) छुबर, शूकर, वराह। +-स्सव (8० ) सपे, झुजक्न, ररग, श्रहि। ( वि० ) बड़ी जीभवाल।, --रामा ( पु) ऋछ, भक्लुक, भात्ु /-- चंश (छु० ) नढ, तृथ विशेष, खस ।--बक्रु (१०) हाथी, इस्ति ।--दर्ण (४०) दीघ खर ।--सक्तूधि (पु० ) शब्ट, गाड़ी, रथ | +सन्न (४० ) यज्ञ विशेष, तीर्थ विशेष: >सम्धावी (वि० ) दूरदर्शी, सृक्ष्सति । -सन्ध्यत्व ( छु० ) निप्य संस्कार ख्िया । +>खूत्री (वि०) शियिलछत, आल, भ्रालसी, चिर- क्रिया, दिलस्थ से काम करने वाला ) दीर्घाकार तत्‌० (वि०) दीघे आकृति युक्त,चृददाकार । दीर्खाषध्च। तत्‌० ( घु० ) वीघवस्मे, लम्बा मार्ग । दीर्घायु तच्‌० ( बि० ) चिरंजीबी, दीर्घभीवी, बहुत दिनों तक जीसे वाला परमायुयुक्त ।( घु० ) शाक्म्ज्ी वृत्त, सेमछः का पेड़, काक, मार्कण्डेय मुनि, सम्त चिरंजीची | दीधिका तव्‌> (स्रा०) जल्लाशय विशेष, तीन से। - धनुष के परिताण का तत्ञाब,वापी,वावड़ी,दिग्यी । दीर्ण तव्‌5 (गु०) [डि+-क्त] विदारित,मन्न, कदा,दूटा । द्वीवद दे० ( खी० ) दीप रखन का आधार, पीतल, छूकड़। या मिद्दी की बनी एक मगकार की चस्तु ज़िप पर दिया रखा जाता है दीवजी दे? ( स्ली० ) छे।टा दिया | दीवान दे० ( 9० ) राज का सुस्य सचिच] दीवा दे० ( छी० ) दीया, दीपक) दीवाली दे० ( र्री० ) चमड़े की पद्ी, दीपमालिका, स्योदार विशेष ज्ञो कात्तिक की अ्रसावस्या के होता है । दीसना तदू६ (क्रि० ) दीख पड़ना, प्रत्यक्ष द्वोना सूकना | दीसा उदु० ( क्रि० ) देखा * दीह तदू( वि० ) दीर्, बड़ा, लंबा, वृदत | यथाइ-- दोहा । दीह दीह दिग्गजन के केशव मने। कुमार । दीन्हें राजा दृशरथद्िं दिगपालन उपहार ॥ +-रामचन्द्विका ! छु तत्‌० ( श्र० )यह जिन शब्दों के आदि में श्राता है वे शब्द निन्‍्दार्थ बोधक हो जाते हैं, यथा-- दुजन, दुःशील आदि । कहीं कहीं कठिचता बोधक अर्थ को मी यह बोधन करता है [-हुर्गम, डुराराध्य, दुरारोह, दुःसाधन थादि | दुगल्ल तत्‌ ० ( पु० ) पीढ़ा, झेंश, क४ट, ज्यथा, मन का एक घर्म विशेष, शोक, सन्‍्ताप, मन का ज्ञोभ । कर तदु० ( वि० ) दुग्खदायो, छुश कर | >-मय (वि० ) सब्यथ, पीढ़ा युक्त, दुःख । मोत्त ( 9० ) परित्राण, रछा --सागर (घ) शोकार्णव, संसार, अधिक शोक | िक | डु:खड़ा रे० ( ० | आपत्ति, श्रापदा, हुगंति, ब्यधा, दुःखदाई दे० ( चि० ) छुग्खदाता, छोशकारी । ढुःखदाता तव॒० (वि० ) दुश्ख देनेबाला, छेश दायक) ब्यिया देता । छुण्खना दे" (क्रि० ) पीढ़ा होना, हुःख पहुँचना, दुःखाना दे+ (क्रि० ) पीढ़ा देना, कष्ट देना, दुःख पहुंचाना । दुःखानत तद्‌० ( ६० ) दुःख का अन्त, दुःख का अब सान, नाठक विशेष जे। हुःखद घटना से सामाप्त किया गया दा | दुर्वह्वत तत्‌० ( वि० ) पीड़ित, दुःखी, दुखिया । दुखिया दे० ( वि० ) दरिद्र, कब्नाल, हुगखी । डु लियारा दे” ( दि० ) हु्णजत, पी।डूत | दुखी दत्‌० ( वि० ) छेशभाक्‌, हुःखान्दित, दुःखयुक्त हुखिया [ दुःशला ठच्‌० (स्त्री० ) अ्रन्धराज छतराष्ट्र की कन्या दुर्योधन की छोटी बह्धिन, यद सिन्धुदेश के राजा जयद्बय को व्याह्दी थीं इसके पुत्र भा नाम सुस्ध था । मद्ठाभारत के युद में अशुन के हाथ से € छरई ) डुचिच जयद्य मारा गया था | इस समय उसका | दु,साहस तद्‌७ ( पु०) अतिशय साहस, अधिक मान- पुन सुरथ बचा था; अतएुद दु शज्ला ही सिन्पुदेश सिक्च दृढता, उत्कट साइस, निमंयत्ता [ का शासन ऋरती थी। पाण्डव अश्वमेघ यज्ञ के | दुःसाहमसी र्त्‌० ( वि+ ) श्रसम साइसी, श्ल्यन्त समय बज्ञ का घाटा लेइर घूपने घूमते सिन्धु- | डश्सादी, ्रपरिणामदर्शा, भ्सावधान, प्रमत्त । देश गये, उनके भ्राने का समाचार पाते ही सुरय | दुस्पर्णा तत्‌» ( ख्रीर ) कपिडच्चु, कचाछ, जवाध्ता । के प्राण फ्वेर उद्गये)यढ़ सुनकर अथुैन से डुग्स्वप्त तत्‌० ( पु ) कुस्वप्न, अशुम सूचक स्वप्त । सुरष के ज्ववाज्षिग पुत्र को सिन्पुदेश के राज्या | छुरुपमाव (पु० ) बदमिजञाव बुरे स्वभाव बाला, सन पर चैठा दिया । बरदुचछन परिंद्दो। दुश्शामन तत्‌न (वि० ) भ्रदाध्य, अचश, सनमानी दुःआ्मावा ( पु० ) वद सूखण्द जो दो नदियों के बीच करने वाला, जिसका) शासन करना कष्प्रद | ठुआर या दुआरा तदु० (१०) द्वार, फाटक, द(दाजा, या दुस्पाघ्य दे | ( घु० ) उतराष्ट्र का पुत्र दुरयोँ- | ढेंव़ी । घन का घोटा भाई दुर्वोधन सब समय इसी | दुइ ( गु* ) दो । की भम्मति से काम्न का था । यही कुरुदेश्न के | दुइज (स्त्री० ) द्वितीया तिधि। युद्ध का मूठ कारण था ड़ में प्राण्डवों के द्वार | ठुईं तदू» ( ख्रो० ) द्वैत, सेद बुद्धि । ज्ञाने पर दुशामन ने डी केश पकद कर द्रौपदी | दुऊंड़द्दा ( गु० ) दो कौडी का, नीच, भधम, तुच्छ। दो सभा में क्ाऋर उस्ते नंगी करने की चेष्टा की | टुक्द्रा देन (६० ) पैसे का चौथा भाग, दमडी, थी। किन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्ण की सद्ययता से दौपदी छदाम | की मानरत्ा हुईं थी, इधर दु सासन द्रौपदी | डुकड़ी दे” ( खी० ) सुद्ठस, दाढ़ी, कब्ियाल्ी | का बच्चध खींचने छगा और उधर वक्त बदने लगा। | दुकान दे० (स््री० ) दाद, बजार बर्दां सौदा रखा इुशाखन चच्च स्वींचते खींचते दु,शान काँप गया भैर इसने हरदा के दाद दिया। इस अपमान के शुकाने के लिये भीमपेन मे प्रतिज्ञा की पी कि हत्र तक दुल्शासन का चहम्थट फाह कर रक्त न पीझँगा और उस रक्त से द्रीपदी का केश न रगूँगा ठव तक द्रौपदी के बाह्न खुद्दे रहेंगे। मद्ामारत डे युद्ध में मीम ने भपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी ॥ और देचा जाता है [-दार ( पु% ) दुकान का मालिक |--द्ारी (स्ट्री०) हाट बाजार का काप्त । दुकाल तदु० ( पु० ) दुष्शाढ, दुर्मिंद, काल, मेंदगी, अद्चदानि । दुकूल तत्‌० ( प० ) कपड्ठा, वच्च, रेशमी कपदा, चौम, वस्, पद्वख्, उत्तरीय बस्ध, उपरना, डुपष्टा, ओढ़ने का वध्च नदी के दोनों किनारे, पिता चार माता रे दोनों कुठ डुकेल ( गु० ) भिसके सामने और भी कोई हो । दुकइ ( पु ) बाजा विशेष जो तबले झा द्वेता है | दुका ( गु० ) नो अछेशा न हो | ताश का ण्क ण्सा विशेष ! दु्खंडा ( गु« ) दुतत्खा, दे। खण्ड का मकान | डुप ( इ० ) दुख । डुखद ( घु ) हु खादी ॥ दुसदुद्‌ ( घु० ) दु"व धर हस्यात | | डुसना (क्रि० ) पी दोना ( गु० ) देखने वाछ्ा । सिद्ध | दुःारा (गु० ) पोढ़ित, दुल्िया । दुलारी ( गु० ) स्पधित, दुखी । दु शोज़ तत्‌» ( वि०) दुषट स्वासाव, दुश्वरित्र, कुशी ज्ष, दुराचारी ) दु शव ( ५० ) कान्प का श्रति कट देप। दु सम तथ॒« ( वि० ) ्यसमझस, व्न्याय भवरोग्य, अश्यक्षिक, अकायेहाल | [समय 4 दुलमय तव* ( पु) असमय, विपवकाल, दु सत्र कः दु सद्द तत० ( वि) अ्रमक्ष, जो सद्दा न जाय, डह्कट, अति कठिन, भ्रतिशय दुःखदायक $ दसाध्य दव« (० ) दुष्प से निष्षाइन करने येग्ग्य, अश्साष्य, पहुंद परिश्रम मे सिद्ध होने देखय, कठिन, दुष्कर बड़ी कठिनाई से . देने देगग्प। न्‍ दुखिया ६ ४१७ ) डर डुखिया या दुछियारा ( गुर ) हुमखी । दुगई दे० ( खो० ) चिपारी, कैची, जिसके सहारे छुप्पर खड़ा किया जाता है । दुगुन, दुगना तदु० ( गु० ) द्वियुण, दोहरा, दूना । दुग॒ुणा तत्* ( इ० ) दियुण, दूना। दुग्ध तत॒० ( पु० ) दूध, छोर, पय, स्तन्य --प्रद (वि०) प्षीरप्रद,दुधार,वहुदुस्ध । [देनेवाली गगय। दुःख्रवती तत्‌* (स्त्री० ) छीरस्तनी, छीरिणी, दूध दुश्विका तत० ( ख्री०) दूधिया, एक प्रकार का पौधा । दुग्धिनी तच्‌० ( ख्थो० ) कड़वी छुंची । दुस्थी तत्‌० ( स्री० ) हुधिया पौधा, सेहुंड़, सेहुण्ड । ( पु० ) दुग्धमय, पायस, स्वीर, तस्पई? दुचित्त, दुच्ित्ता त्द्‌ ( वि० ) द्विजित्त, दुव्वीधाग्रस्त, व्याकुछ, बदह्विझ, सशहू, सन्देदान्वित, ुत्घेल | चुबित्ताई तू (म्त्रीः ) चिस्पा, दुचिधा, सन्देश, व्याकुल, उद्चिझ्नता, हेचित्य दुत दे? (भ्र०) निपधाधेक तबा अपसावाथेक अच्यप। दूर दो, चछा जा, निशले। आदि के ग्रर्थ में इबका प्रत्रेग किया जाता है +-कार (५०) किड़की, घुड़की, ताइना) धमकी । - कारी (म्त्री०) दुतकार, डॉट साँप, ताढना, घुड़हो ।+दवक (बा०) घुड़की, धमकी, ढांट, सासिना, ताडूनम, शिक्षा देना, सिखाना, शासन करना | [अधीन करना, डॉटना | छुतताना, दुताना बे ( करि० ) दुप्श्ना, वश करना, छुति तब्‌० (स्ट्रीथ) घुति, शेभा, चमक, प्रकाश प्रभा। दुतिवन्त तदु० (बि०) घुतिमान्‌, भदृ शीला, चमकदार, शे।झ्नावशाव । यधा।-- हि दुतियम्त का विपद्या अति कीम्डों। घरणी कह इन्दुबधू गहि दीन्डों॥ +-भामचन्द्रिका । हुदृही, छुछ्धि दे* | स्त्री० ) एुक सैघे का नाप्त जो दुवा के काम में आता है । [दे भेद । दुघा तदु" (अ० ) द्विधा, दो प्रक्मर; दे रीति; हुधार दे० ( स्प्री० ) बहुदुग्घदा, बहुत दूध देने वाली, जेः गाय बहुत दूध ढेतो है | डुजैन दे। (दि०) बडुत दूध देनेवाली । दुनी दे० (स्त्री० ) रामायण में यह शब््‌ दुनिया के धाथ्े में प्रयुक्त देता है । दुल्द्‌ तद्‌* ( छे ) इन्दयुद्ध, मछयुद्र, परस्पर युद्ध, _ कलद, विवाद | दुन्दुमि तव्‌० (पु०) नगपा, डैध, घौंधा, सहिपरूपी दानव, बानरशज वालि ते इसे मारकर ऋष्पसूक पर्वत पर फें दीया था। यह देखकर मतझ्न मुनि ने उसके शाप दिया, तभी से वालि ऋष्यमूऋ पर्वत पर नदों ज्ञा सकता | मतन्न सुनि का भह शाप सुओऔब के लिये अमृत के समाच हुआ था, वालि के डर से भाग कर सुश्रीब ने यहीं शरण जी थी । दुपट्टा दे० ( पु० ) थे ढ़न का चदरा, स्वनाम प्रसिद्ध बस्त्र विशेष /--तान के सेना ( का० ) निश्वन्त टद्वोकर रहना, आालस में पड़ा रहना, काने येग्य काम ने छरना, भसावधान रहना, ध्यान देसे येगग्य विषय पर उद्ासीत द्वोना (--पट्वित्ताना ( बा० ) सह्लेत करझे किय्री को छु दाना, या कुछ कहना, युद्ध के सप्रय सन्धि के लिये इशारा ऋरना | अवदाश साँतने का सहोेत। हुपद्‌ तदू ० ( पु० ) द्विंपद, दे। पैर चाहा, मजुप्य । दुपहर (पु०) मध्यान्द्द । दुधदृर्या दे० ( ख्यो० ) मध्य'हु, अयवा मध्यरात्रि, पुष्पविशेष, ग्रातिशवाज़ी चिशप। . [सन्दिग्ध | दुफपली ( ग़ु* ) देानों फलब्दों में उत्पन्न द्वाने चाह्षा दुबकना ( क्रि० ) छिपना, लुझाना । दुबराना (क्रिः ) दुबला होता, क्षीणदेना। दुबला तदु० ( वि ) दुबंछ, ज्ोण, नित्रंछ, बल रह्वित, पतला । डुबलाई दे* (स्त्रौ० ) दुर्बहूता, दुब॒लापतत, नित्रेनता। दुविद्‌ ( द्विविर ) तदु» ( पु० ) पुर बानर का नाम जे। सुग्रीव की सेंगा का पुक् सेनापत्ति था दुत्रिधा दे० ( स्त्री० ) सन्‍्देद, शह्डूत, जम, अभिश्रय ज्ञान, दुभाव। दुविधि तदू ० (स्त्री०) दे। प्रचार, दे। भांति दो री ते। डुभाव तव्‌० ( घु०) दुविधा । [भाषा का बेता। छुभाषिया दे० ( घु० ) दे। भाषा जानने घाछा, दे डुपुख तद्‌" ( पु० ) रास विशेष, दे। मुखबाल्ा [ डुर्‌ तइ० ( अ०) निदेष, दुःख, अबचेपण, निन्‍दा, अशुभ, दुदिव, दुडद्ध श्रादि ६ * सु ” श्रन्यय के विर्रीत अर्थ यद्द बतत्मवा ई --पम्रतिकम छा० पा*--२ डर ( छ१८ ) डा बयतजपंगाानाक्कााकमयादा था बा काला अंक तत्व पललमइसान. >>. मी अमल की अल लिशकि नल कक कशिक ( दि० ) दुम्टर, कठिन, जिपका अतिक्रम दुभ्स किया जाय |--अत्यय ( वि० ) अगम्य, दुदत्तर, दुर्गम, सट्कूट, दुम्त, जिपडे पार जाना कठिन दे। । “शरट्वष्ट (पु० ) दुर्भाग्य, छुरे दिन |--अधिगम ( वि० ) दुष्प्राप्य, जियडी श्राप्ति दुससे दो। “अन्त (वि०) दुष्ट, उपद्ववी, अवाध्य +--प्रव- स्था (स्त्री० ) दुर्देशा, आपद की दशा, विपव्‌ का समय |-ध्याग्रह ( पु ) निर्वन्ध, प्रमिनिकेश, निन्दित इठ, किसी वात पर बनरपइइे॥--श्माचार (धु५ ) कुत्यवद्वार, कदाचार, विरुद्वाचरण, कुनीति |--आचारी ( बि० ) श्रन्यायी, दु शील, हूम्पद [आत्मा (बि० ) पापात्मा, निदृय, दुष्ट, इपद्रवी, कर, पापी |--आधर्ष ( वि० ) प्रगक्म, अहमूारी, दुर्गंम, मयक्ूर । ( १०) पीली सरसा। -प्ाप ( वि० ) दुष्प्राप्य, दुलेभ, दु ख से पाने येग्य [-आारोह (वि० ) दुःछ से भारोादण करने येग्य, ऊँचा पेड, जिस पर दुख से चढ़ा ज्ञाय |--आलाप ( घु० ) कट्ठदाकक्‍्य, थुरी वात, गली (--आलोऊ (१५ ) दुनिरीक्षण, दुर्देश, अति कष्ट से देखने येग्य ।--ध्याशय ( वि ) फूर, दुए सानन ।--ग्राशा ( स्प्री० ) बुरी श्राशा, महीं चूर्ण द्वे' योग्य आशा ।--हआ्यासई ( वि ) दुष्णाप्य, दुक्ष॑म । दुर्ख दे ( क्रि० ) छिपता है, लुकता है । दुरना दे ( क्रि० ) छिपना, लुकना, मागना पलाना, पक्तायन करना ) (भिद् भाद रखना! दुराना दे० ( #्ि० ) छिपाना, गुप्त रखना, लुझाना, दुशालाप सु» ( पु० ) गाली, दुवेचन | दुशव दे ( धु० ) लुरूाव, छिपाव, छुल्ट, कपट ! दुरित तत्‌० (पु०) पाप झलुप, पराच, देप, अधने | दुरि्ठ तदू० (व) भतिमन्द,भतिशयनिन्दित,मदापापी, पापिष्ठ, दुष्ट). [१७ दाव, दुष्य, इटी, दिपी दुरी दे* ( स्त्री*) खेल में दा पहना, शुप्‌ के खेल का दुशक तत्‌० ( पु० ) शाप, गाली, दुर्बचन । दुशक्ति तत्‌७ ( स्प्री* ) दुयार कथन, यार यार कहना एक बात छो दे प्रधार से हे थार कहना । अजु- खित रीति से झहना, जैसे गदार दोलते हैं, सोजन ओजन, दूध ऊघ भादि । न ८ पक सम डुसा दे* ( बि० ) दोझुखी, दे।नों ओर पर ही सा, जिस चस्तु का देनों बाजू एक समान हे। ] दुरुत्तर तब्‌॒० ( वि० ) दुरतिकम, दुरूध्य, दु'स से तरने योग्य, निरत्तर, अरपरिद्वार्य्य | टुरेफ तद्‌० ( ३९ ) दिरेफ, अमर, भौंरा । दुरोदर वद्‌० ( पु० )जुन्ना, जुच्रा का सेल । दुर्भ तर्‌० ( घु० ) गढ़, वोट, किठा ।-नध्यत्त (प०) [ दुर्ग + अध्यक्ष ] दुरगरछक, गढ़ का रखवारा, किछादार, किल्ले का खामी। [काल | दुर्गंत त३० ( दि० ) विपत्र, दुर्वस्थों, दुखी, दरितर, दुर्गति तत« ( ख्रो० ) विपत्ति, दुख, कुगति, घुरी अवच्था,पलेश,दु रवस्था दुदे शा दरिद्धता,कंगा ली +-- नाशिनी ( स्त्री० ) दु शद्रिणी, मगवती दुर्गा । कुबास, कुप्रइक । दुर्गृन्ध तदु० (श्ली० ) । दुष्ट गन्ध बुरी दास, दुर्गन्धि तत्‌० ( ख्री० ) | दुर्गन्‍्धा तत॒० ( छ्ी० ) वराण्दु, प्याज । दुर्गम तब ( बि० ) क्टगम्ब, दु बसे जाने येग्य, औबट, बीदट,वीगन, अजय, न प्रात होने ये।ग्य ! ता ( खो ) गम्मीतता, कढिनता, ओऔःघटपन । दुर्गा तन्‌5 ( खी* ) द्विमावय की कन्या, भगवती, शक्ति विशेष, श्राद्या शक्ति, दुगे नामक अछुर े विनाश करने से इनका दुर्गा भाम पढ़ा हैं । देव ताझओे के स्व से निछ्यक्ष कर मदिषासुर स्व का राजा बन बैठा । इससे दुखी छकर देवता प्रद्मा के निडट गये, अद्वा देवताधों को सांप ज्ेकर मद्ादेव के पास गये. देवताब्ों की दु छ कट्टानी खुन कर महादेव ने क्रोध किया और इनके मुस से एक ज्योति प्रशुट हुई, इसी प्रकार सभी देवों मे शरीर से पुर पक ज्योति प्रकट हुई और रस उयेति समुदाय ने पुकु खो का रूप धारण किया। देवों ने अपने भपने भ्रक्न रात्त उव रमणी को दिये, डसी ख्त्रो ने मदिपासुर छा नाश किया था| झाद्या- शक्ति देवी मद्दिपामुर छे सामने जब छदन को उपस्यित हुई यों, प्र उपपे मदिषाघुर ने कद्ठा था--देंवी आप सुझझे मारेंगी, इधका मुप्रे कुछ मी कष्ट नहों है, परन्तु बपओ्रे साथ साथ मेरी भी सँपार में पूजा दे इसझी ध्यवस्था आपको करनी. चाहिये । देवी ने ४ तपास्तु *' कहा | डुर्गामी +-नवधी ( ख्थी० ) तिथि विशेष, पे विशेष, कार शुक्तपक्त की तवसी, नवरात्र की नज्सी + डुर्गामी तदू" (वि०) कुमार्गी, कुमागगामी, दुराचारी। डुर्गावती दे० (स्री० ) चित्तौर के मद्दारान सगा की कन्या, चेलिन के राजा सिलोढ़ी को यद्द ब्याही गई थी । गुजरात के सू बेदार बदादुरशाह ने १४३१है० में सिलेढ़ी के पकड़ कर सुसलमान बना दिया । सिल्षाढ़ी के छोटे भाई लक्ष्मण ने कुछ दिचों तक बड़ी वीरता से छड़ कर गढ़ की रक्षा की थी, परन्तु झनगिनती झ्म्तलमान छेना हे गढ़ वचामा कठिन समम कर उसने मुसलमानों को गए दे देना स्थिर ऋर छिथा | राजमहिपी दुर्गावती ने सुसर्मानों के दाथ पड़ने से मर जाना ही अच्छा समझ कर ७०० सौ राजपूत ख्तिय्ों के साथ असिकुग्ड में शरीर भस्म कर दिया । (२ ) क्‍न्‍्देलू राजपूत सद्वेबा के राजा की कन्‍्वा | महोबा इमीरपुर जिला का पक मुख्य जनपद है। दुर्गावती के रूप तथः गुण की प्रशंसा सुनकर गौर जाति के राजपूत राजा दलपतूसाद ने इनके साथ विवाह करने का पैगाम्त पठाया, परन्तु मद्वेबा के शजा ने पप्ते स्वीकार नहीं किया | दल॒पत्साद् सेना लेकर चढ़ श्राये और,महद्देव्ा के राजा को पराज् कर उन्होंने दुर्गावती के साथ अपना बिवाद्द किया । परन्दु दलपदूसादह बहुत दित तक दुर्गावती के साथ नहीं रद सके | विवाद दे।मे के ४ बे के बाद ही दुर्गाचत्ती विधवा हे। गयी। उस समय बनकर ३ वर्ष का पु पुत्र था। उसी अपने पुत्र की रचक द्वेकर यह गठू मण्डल राज्य का शासन करने लगी ! इनके शासन फ्राल में राजा और प्रजा दे।नों सुखी हुए। दुर्गावती का यद सुल्ध भी विधि से नहीं देखा गया, इनझे राज्य के सुखी दोने का खम्ताचार दिरली के बादशाह अकबर ने सुना । अ्धैलेलुर अकबर की शआ्ाज्ञा छे सध्यमारत से इनके सेनापति आसफुर्ज़ां ने १८५०० सेना क्लेकर गढ़मण्डछ की राजधानी सिंदगढ़ पर चढ़ाई की । प्रथम दिन के युद्ध में चिजयलद्ृमी सदारानी की ओर रही, परन्तु दूसरे दिन के युद्ध में हाथी पर चढ़ी हुई रानी आहत हुई। उनके शरीर में दे! । € ४१६ ) दुर्बल बाण कगे। उनकी यद्द अ्रवस्या देखकर घछेना भागने क्मी। युद्ध में जय की आशा न देखकर महारानी ने महावत हें अ्रेकुश लेकर 3सी के हारा युद्धभूमि में प्राणत्याण दिये । दुम्रंद्द ( गु० ) जे। जल्दी पकड़ में न आ सझे। (घु०) अपामार्ग, चिचड़ी, श्रेंक्षास्मारा। दुर्घठढ तव्‌० ( बि० ) कष्टसाध्य, दुःवाध्य, अति छठिच, जिप्की सिद्ध अति क्षष्ट से हा, न जीतने येग्य । डुर्घ॑दना तव्‌> ( स््री० ) दुष्ट घटना, दुःख की घटना, विपद्वात डुजेंन तत्‌० ( थि० ) कर, हुए, खल, कुत्सित धाचार बाला, श्रधम, नीच, फोटा मनुष्य, लुत्चा +-ता ( खरी० ) करता, दुश्ता, अधमता, शत्रुता । दुर्जनताई तदू* (खी० ) दुजन का कम, करता, बुष्टता, छुराई । दुर्जय तब्‌० ( वि०) दुख से जीतने येग्य, दुर्दम, कष्ट से दमन करने येग्य, अपराजयी। ( प ) अ्वदशज्ु। डुर्जेय ( गु० ) जिवका जीतना बहुत कठिन दे । दुर्से३ ( गु* ) दर्वोच, कठियाई से जानने योग । दुर्दम तव्‌* ( बि० ) दुर्दश्य, दु्जबी, दुदमनीय, बुग्स छें दमन करने ये।ग्य प्रचक्क, पराक्रमी, व | दुर्देशा तब॒० ( खो० ) दुर्गंति, विपत्ति, द्वीन श्रवस्था । डुर्दान्त त्तत्‌० (बि०) दुरत्त, श्रशान्त, मबक्क, भयह्वर, भयानक । [मेबाहत दिच । दुर्दिन तत्‌+ (३० ) कंदिन, पानी वादल्ट का दिन, दुरदेंव तत्‌० ( घु० ) दुर्भाग्य, कुमास्य, श्रभाग । दुद्धंष ( प० ) विलेज्ण, दुष्ट दुर्नाम तव्‌० ( पु० ) श्रकीति, अ्रयश, अपयश, कुत्ला, निनन्‍दा, अप्तृशंखा, बदनासी । दुर्नामा तत्‌० ( छु० ) श्र रोग, बवाघीर । दुर्नाधी तव० ( घु० ) अपयशी; बदनाम । दुनिवार तत्‌*० (बि० ) जे बहुत कष्ट से निवारण किया जाय |. असचरित्र, कुचरित्र, कुष्वमाव | दुर्नीति तच० ( खो० ) अन्याय, कुनी ते, कृव्यवद्धार, दुर्धश्रैत्न तदू » ( वि० ) दुचित्ता, उद्धिझ । डुर्बवल तत्‌० (वि० ) दुबछा, बत्ठ रहित, निबंछ अस': मर्थ, चलूद्दीन, कमज़ोर, बेशइस ।--तोा ( स्री०) बलद्वीनता, 'अलामप्य, सिवंछ॒ता । डुर्ईगा € ४२० ) दुर्भंगा तत्‌5 ( स्री० ) पति स्नेह रदिया, माग्यद्ीना ख्री, अधरिय भार्या । दुर्भाग्य तत्‌» ( पु» ) दृः्दृ्ट, ग्याग्य, मन्दमाग्य | दुर्माव तन्‌* ( पु०) दुष्टमाव, दुष्ट, श्रमिप्राय निन्दित स्वन्नाव ॥ दुर्भित्त तत्‌* ( पु० ) अकाज कुसमय, महँगी। दुर्मति तब« (द्ो०) कुठदि,मन्दवृद्धि थ्रश्न,मूर्सता । दुर्मद तत्‌० ( वि० ) मस्त, भदडूरी, घमण्डी, तमेो- ग़ुधुक्त, सतवाक्षा, एक राहय का नाम । दुर्मेता तत्‌» ( वि० ) उद्िप्रचित्त, अन्यमनस्क, चिन्तित, भावित, उदास, विमपर, मान |] टु्ुंख तन्‌* ( पु० ) बानर विशेष, घोटक मदिपासुर का सेनापति विशेष | ( यु ) दुर्घावी, कठोर वचन बोलने बाला, कु्दौर । दु्मेस तदू+ ( ६० ) ढसनी, मुगग, मुग्दर। डुमूंडप तत्‌० ( वि9 ) महँगए, बसूज्प, बदुतमूल्य का | दुर्म था लत्‌० ( बि० ) में शादी, दुईृद्धि, अज्ञानी ! दुयेंग ठत्‌5 (१६ ) चुरा समम, मेवाब्छव दिन अनेरू शुभ सूचऊ बाधक योगों का मेर, ऊुपेग, दु समय, कुसफ़त | डु्पेनि तन ( वि+ ) नीववबशोदूभद, नीच बरश में उत्पक्न, भन्यत्र, पतित जाति, अभ्पृूरय जाति । डुयेधिन तद* ( पु+ ) [ दुर+ चुघ्‌+ भनद्‌ ] छतराष् का ज्ये्ठ पुत्र, महामारत के युद्ध में येदी छौरव दल के नेता थे |यह भीम के समदयम्क थे, भीम के वज्वीये चादि देखछक ये जरा करते थे । चाहप्रधाक्ष में खेल में दु्ेधिन ने भीम को विप देशकर समुद्र में फेवा दिया था, बासुझी के प्रकक्ष से सीम के प्राणों की रचा हुई थी। राजा उतराष्ट्र ने अपने उपेष्ठ भतरी ने युधिष्ठिः के युदरात् बनाना चढ़ा था, पान्‍्तु दुर्वेधन के विशेध करने से चइ नहीं हो सह्ा। दुर्घधन छी सम्मति से छतराष्ट्र ने पण्डबों के इस्तिनापुर से निक्नाछ कर वारणयावत नामझ नगर में भेज दिया | वाणावत में पाण्ड्ों के जरा देने हमे श्च्छा थे दु्णेचन ने लाछ्ागरद चनवाया था, परन्तु इतझछो इच्छा सफ़ड ने हुई । व्दा से भाग कर पाण्डव पाध्ा> राज्य में चच्चे गये। इस राज्य के राजा हुपद ये, दुपद डुयोघन के साथ कौरवों की धुगनी शदुता थी, हुबद की कन्या द्रौपदी छा पराण्डवों के साथ विवाह हेगे वर घढ़ शत्रुता और भी यढ़ गई। दौपदी के स्वयम्बर में अनक दे टे बढ़े राजा निमन्त्रित हुए ये । और भी गये थे | एक पुक्त करझे कोरदो ने लट्ृप बेध करने का प्रपत्न किया, परन्तु विफर हुए । पायइव भी ब्राह्मण चेप में ब्दां उनस्थित थे अन्त हें छम्म- वेषध री अर्जुव न कह्ष्य मे३ झिया और द्रौपदी उन्हीं को मिल्ली। छनराष्ट्र पाण्डवों का घुझा कर इर्न्द आ्राधा राज्य दे दिया और इन्द्रश्न॒न्थ में उनडी राज घानी बना दी। वर्ड पाण्डवें ने रानसूथ यज्ञ किया, हनझा यज्ञ बड्दी घूमंधाम से समात्त हा । दुष्ट दुर्येधिन से यह नहीं दफा गया। डसने शकुनि स मिन्ञ इऋर घर्तामा युधिष्ठि। को जुप्मा खेटन के लिय बुच्राया। शकुनि के छठ से युधिष्ठिर राज्य ड्वार गये, धुन, द्रौरदी दवि पर रस्सी गई उसे भी हार गन | दुर्घधद ने भरी समा में द्वौपदो के! अपमानित किया | द्वौपदी का भ्रपप्तान देखब्र भीम ने दु शासन वा दच्स्पढ ैण दुगेधिन का वर तोढ़ते की प्रतिश्ा की, ची( मीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी | दुर्ये विन ने पाण्डरें डे १३ धर्प के लिये वन में भेज दिया। पुर सम्य पाण्डवों का अपनी प्रभुग दिखाने के लिये दुर्शघन से घे,प- यात्रा की, परन्तु वहाँ चित्रसेन नाम गन्धर्य के द्वारा वे बन्दी हुए। इसझ्ा सप्राचार सुनझर युधिष्ठिर ने भीम और अर्तत को शनढी रा के लिये भेजा । इन छेागों ने दुर्योधन को कैद से छुशया । दुर्येधन इससे बहुत लज्जित ड्रुश्रा। प/्न्‍्तु इसने पाण्डवों के इस उपकार का ददढ़ा अपडार के द्वारा चुझाना निश्चित किया। पाण्डवों के बनवास की अवधि समाप्त हुई | उन्दाने थीकृष्ण के दुर्योधन के पास शभ्राघा राज्य लौटा देन का प्रस्यव करने के लिये मेजा | पान्‍्तु अमिमानी दुष्ट दुर्योधन ने बिना युद्ध के पर दिनझे छे वगघर भी भूमि देना न चाही तच्रत युद हुयया प्रसमे कीखओं का सर्वेनाग हुग्रा | पु्ध एक करझे ढारब मारे गये | *र दिन में दुर्योंगन के भाडुति देडर यद्द युद्॒यक्त सम्राप्त किया गया । डुर्लक्षण ढुल्ले तर तव्‌५ ( घु० ) अ्रशुप चिन्ह, अशक्तुन, छुरे वि लच्ुण, श्रकक्ष एु, कुसकछ्ण | इुलभ तथ्‌र ( बि० ) दुष्प्राप्य, थ्रति प्रशह्त, प्रिय, अतेख्का, अपूुर्वें, अल्भ्य, कष्ट याध्य । - डुलेभि तद॒० ( ६० ) मल्दवासना, दुर्लाडसा, अनुचित अभिन्नाप, अप्राप्य वास्तु की अमिक्षापा डुल्लेभ्य तब्‌« (घु०) भ्रप्राप्य, कष्ट से ग्राप्त होने योग्य । दुर्बचन तत्‌० (पु०) दुर्बाग्य, कुत्लित बचत, कुवचन, जिन्द्ित वतन, कुत्राच्य, गाली, दुश्वचन । डु्बर्त तच्‌० (ए५०) कुपथ, असन्‍्माये, कुष्सित आचार | हुवबंह तप" ( चि* ) वहन कादे के अयोरप, भारी वे।कलेश । [निन्दित बात । हुर्वाक्षप तब» (घु०) छुवाच्य, दुर्वचन, गाली, डुर्बाद या दुर्ादि तव० (०) निम्दित चचन, श्रकीतिं, अयश, अपयक्ष, दुर्नाँ मर, वदनासी | डुर्वार तत्‌० (वि०) अपतिहार्य, आनिवायय, जे। निवारण नहीं क्रिया जा सके, अधवा जे। दुःख से रिवान रितद्दा । [छाप, दुए इच्छा, कुब्रासना । दुर्ाघना तत्‌० (श्ली० ) घुरी बासना, असत्‌ अभि- हुर्ाला तव० ( ४० ) भत्रि मुनि के पुत्र, अनसूथा के शर्भ से इनका जन्म इुश्नाथा)ये मद्ारेव के श्श से अ्रनसूया के गर्भ में जन्मे थे । दु्बांसा बढ़े क्रोधी थे | वे सुनि की कन्या कन्दली के साथ इनका घिवाद हुआ था| इनके शाप से देवराज़ इम्द राज्यअ्रष्ट दो यये थे । इन्हीं के शाप से पति परिव्यक्ता शकुन्तव्म का अ्न्‍्क कष्ट भेगने फट्टे थे | एक समय गरम खीर खाते खाते हन्द्रोंने श्रीकृष्ण के कह्ठा था कि इसे सुप्त श्रपने सब शरीर में छगा ले । श्रीकृष्ण ने वैसा ही किया, परन्तु ब्राह्यण का अनादर न दो । इस कारण उन्होंचे पायस के अपने पैरों में नहीं व्गाया | वह देख दुर्घाता ने कहा छुमने पैह में पायस नहीं क्गाया, झत्एव पैर के अतिरिक्त ठुम्द्दारा और सब शअह् अब्ृध्य द्वोगा | इसी कारण रन्‍्यु के समय श्रीकृष्ण के पैर डी में ब्णघ का चाण लगा था। दुर्बासा “के शाप से श्रीकृष्ण झे पुत्र को मसल उत्पन्न हुआ था, मिससे यटुबंस का सारा हुआ | यह छुम्ती की सेवा से अत्यन्त प्रसन्न थे और भ्रश्चन्न द्वोझर ( ४२१ ) छुवार इन्होंने ऋुत्ती के' एक मन्त्र बताया था जिपरे अभाव छे कर्ण और पाण्डचों की उत्पत्ति हुई। इनकी क्रोत्र कडानी अदभुत है और इनडी प्रकृति चिलक्षय घी । [ छित, उमड़, गैंशार ! डुचिनोत् तू ५ ( वि० ) अविनीत, हुए, अशिष्ट, अश्वि- डुर्विपाक तव* ( ० ) छु् फछ) श्रशुभ परिणाम; दुेंढ, दुर्भाग्य | दुविपद्द तब ( ब्रि। ) असक्ष, कठिन, कठोर । दुच्चं त्त तत्‌० (पु) दु्भन, दुरास्मा, डपद्ववी, कुमार्गी, दुष्ट, बदमाश, गुंडा ! ड॒बृंद्धि तद्‌० ( खी० ) मन्दबुद्धि, कुमति, शरशान । दुबंद्धी तत्‌० ( दि० ) अश्योध, मूह, हुए, अनाचारी । डु्वेष्यि तत्‌० (५५ ) कुमति, श्रवोष, मूढ़, दुःख से समझाने येग्य । [ धोड़े की एक प्रकार की चाक्ष । दुलकी दे० ( स्री०) ऋूकर की चाल, भ्रभ्वगति विशेष, दुलड़ा दे० (पृ०) दो लड़ की माला । ( ग्ु*) दोजरा, हुगुना । [दो छड्ढों का देता है! दुलड़ी दे+ ( ख्री० ) ब्लियों के पर गदने का वाम जो दुलचो दे* (ख्री० ) रशुमओं छ विछले दो पैरों की मार ।--छाॉदना (वा०) कात सारना, पास लहीं आने देना, कढ़ी बातें सुनाकर हशाना। मारना ( वा० ) पिछले दनों पैसे से भ्रारता, किली के अपसानिस करता । डुलदन दे० ( ख्रो० ) दुल्हैशा, नव परिणीता बचू, नई व्याद्दी अहू, बच्ची. बनरी, दुरुद्विन | [वितरा, सौशा । छुलदा दे० ( ५१% ) चर, विवादार्थ प्रस्तुव पुरुष, बता; छुत्तदित दे? ( स्वी० ) चुलदन, नई घहु, बचू; 'त्नी । ढुलाई दे० ( स्वी० ) थोढ़ने का चश्ष विशेष, रुईदार श्रोढ़ना जो जाड़े के दिनों में ओढ़ने के काम में आता है, फू, छींट और नैनखुख की दोहर । डुलाना ( क्रि० ) फुहाना, हटाना | डुल्हार दे० ( पु० ) प्यार, स्वेह, त्टाइ, प्रेस, भीति ! दुत्तारा दें० ( वि० ) प्यारा, स्नेहपात्र, प्रिय, ज्ञाड़ला ) दुल्लारी दे ( स्वी३ ) प्यारी, प्रिया, खाढ़िलो, छाए की, प्यार की । दुलारे दे० (५०) दुच्ार किये हुए. मुँह लगे, बाड़िते। छुप्रन ( छु० ) खल, दुर्जन, पाम्रु, राषस । छुवार तद्‌* ( पु० ) द्वार, दुआर, कपाठ, किवाड़ | डुविद ( ४स२ ) दुद्दना दुपिद हदु० ( पु० ) द्विविद, पु बानर का नाम, यद | दुष्प्राष्य तत्‌० ( वि० ) हुलंम, अ्रप्राप्य, अ्रगम्य जछ्का के युद्ध में रामवन्द्रजी की घेना में था । दुबे है+ ( पु० ) ब्राह्मणों छी पुक अ्रल्ल, पम्चौड़ ग्राह्मणों की अ्रछ्ठ, दुबेदी । डुवो ( गु० ) दोनों । दुशमन दे० ( पु० ) शत्रु, बैरी, विपक्षी, अरि, रिए्‌। दुशात्ा देन ( पु० ) शाल का जोडा, मद्दा कम्बत्न, ऊनी बहुमूल्य वम्त्र विशेष ज्ञो झोढ़ने ऐे काम में थ्राता हैं, जिसडे चारों तरफ फूछ पत्ती कढ़ी द्वोती हें । [ कृष्यवद्दार । दुश्वरित्र तत॒० ( घु० ) मन्द प्रकृति, कुरीति, कुचज्ञन, दुश्वरिष्रा तव० (स््री०) कुछुश, ब्ण्मिचारिणी, टिनाल । दुग्घरित्रता तत्‌० ( स्त्री० ) कुचाल, कब्यवद्गार, बद- भाशी, गरुडापन । दुश्चिकित्स्थ ( वि० ) अस्ताघ्य रोगी, जिप्तझ्ली कठिनाई से चिकित्सा की जा सके, चिकित्सा के लिये अस्ाध्य । दुष्कर तत्‌० ( वि० ) कश्साध्य, कशकर, दुछसे करने योग्य, असाध्य, दुस्‍्साघ्य | दुष्कर्म तद० (पु० ) छुछमे, नीच क्रिया, अघम ब्यवद्वार, बर॒फेनी, यदमाशी | दुष्कर्मी त्त० (६०) दुष्क्ृवर्ारी, कुक्रियान्वित, पावी, अश्टाचारी , दुरास्मा, वद॒फ़रेन्न, बदमाश | दुष्ड्रलीन तद्‌० ( बि० ) दुष्कुटोदमव, कुबंशजात, अधम कुछ में शपपत्र | दुष्ह्नत तन्‌० ( धुल ) पाप, कुक्रिया, अपराध, दोष । दुप्कती _तत« (वि«) पापी, पापाचारी, दुष्धुमी, दुरात्मा, बदमाश, गुंडा | दुए तब ( गु5 ) बुरा, मीच, इपत्वी, अघम, पापिष्ठ, नि्ेंरण, विरद्वान्त कण, कुमन, बदमाश, गुडा । >घारो( वि* ) भ्रधामिंक, खल, दुर्नन “वा (ख्रोौ० ) दौराण््म, खलता, दुजनता, बद॒माशी, गुडापन । दुएा तब (ख्त्री०) अष्टा, पुश्रली, ध्यमिचारियी, अमती, छिनार, दुराचारियी । दुष्टात्मा तद॒+ ( पु० ) दुषए, नीच, उपद्गची, डद॒माश, गु डा, अन्त करण का खेटा ।. [ साध्य प्रवेश । दुष्प्रेश चद्‌* ( पु ) दुर्गेम प्रयेश, अति परिश्रम दुष्यन्त तत्‌० ( पु० ) चन्द्रवंशीय एक राजा, इनकी दुष्पन्त भी कइते हैं | पुक समय अद्देर खेहने दुष्यन्त बन में गये थे।जाते जाते वह कण्व मुनि के झाश्रम में पहुँचे। अरन परिजनों के बाहर ही छोड़कर राजा अ्राश्रम्त में गये | वर्डा उन्देन त।पस-वेषधारिणी पुर अविवाद्दिता युवती देखी, बलका नाम शऊकुन्तत्वा था | राजा ने उसी के सुंदद से इसकी उत्पत्ति तथा नाम श्रादि सुनये। दुष्यन्ठ ने शकुन्तला से गान्धवें विवाइ किया और किसी कार्यद्श अपनी राजधानी को ही/ट गये । राजघानी में शारुर शकुत्तड़ा को घुनज्वाने डी राजा ने प्रतिज्ञा की थी, परन्तु वर्दां जाकर ये सूल्ठ गये | शकुन्तठा के पुद पुत्र हुवा । ठस बाद्षक की तीन वर्ष की अश्रवस्था दाने पर मदहृपिं कण्य ने ज्ञातऊर्म थादि संस्कार करके शह्लुन्तद्वा को राजा के पास भेजा । राजा ने शकुन्तठा के विवाह की बातें सूलकर उसका प्रत्याख्यान किया | तेअम्बिनी शकुल्तढ्ा ने भी बडी बड़ी घातें राजा के सुनाई“, इसी समय देवबाणी हुई “' राजा तुम अपनी पत्नी और पुत्र के ग्रहण करो ” । ( मदासारत आदि पर्व )( कालिदास ने अपने अमिज्ञान शबुन्तठा नामक साकट में इसब्था के कुछ उलट दिया है । दुसद्द तत्‌० ( वि०) असद्या, कठिनता से सदने येग्य । दुसाध दे० ( पु० ) दोसाद, नीच जाति, श्रस्ययम, अस्पृश्य ज्ञाति, धट्टत जाति। दुखूतो दे० ( स्री० ) पुक प्रकार का मोदा कपदानो बिद्धाने के काम में आता है,दो खूत का बिना बच्च । दुस्वर तत्‌० ( वि० ) दुष्पा, भतत्योय, दुष्तरणीय, कड़िनता से पार जाने येग्य | [ योग्य । दुस्त्यज्ञ तत्‌* ( वि० ) भ्रपरिदत्यीय, दु ख स॑ त्यागने दुस्थ तत्‌० ( वि० ) दुरवस्थारिबित, दुखी, दरिद्र, छोशयुक्त, असुम्ध [--ता (स्री०) दारिय, दैन्य, दौ भाग्य, छो श, दुगंती | डुद्दग्था ( पु ) दो सृठ बाला । * दुद्दना 4* ( क्रि3 ) दोदना, गारना, सौ के स्तनों से दूध निद्चांलना । डुदराना ( ४४३ ) छुदराना दे० ( क्रि० ) वूचा करना, दो बार करता या | कराना, द्विरक्ति, दो परत करना ] डुद्ाई दे० ( खी० ) गुदार, इकार, दुःख से उच्चारने के लिये छुकार, शरण, शपथ, कलम --तिहाई फरना (चा०) वार वार पुकारना, व्याकुछ द्वाकर रक्षक को पुकारना, संकट सें बचाने के छुलाना | दुद्दाना दे? ( क्रि० ) दुहबाना, दूध निकलूवासा | डुद्दार दे० ( छु० ) दूध दुहनेवाल्ा । डुह्ि दे० ( क्रि० ) दुहकर। डुहिता तथ्‌० ( स्री० ) कन्या, कुमारी, एन्नी. लड़कों, बेटी --पति ( छु० ) ज्ञामता, जसाई, दासाद | दद्देध्ता दे० ( वि० ) कठिन, भारी, बोकैल । डुहँ दे० ( आ० ) दो, दोनों, इसय। दुरँचा या ढुह्य तत्‌० ( वि० ) देह के बपये।गी । छुह्मम्रान त्त्‌० (पु०) जिसमें हुद्टा जाय,देदनी विशिष्ट । दुष्पा देव ( घु० ) दे का शट्टू,, ताश का बह पत्ता जिन पर दो छूँदें. हों। कलाई में पहनने का चाँदी का गहना ( दे० ) आशीस | दूज्ञ देन (स्री* द्विवीयाः तिथि, पत्त का दूसरा दिन | दूज़ा दे० ( वि० ) द्वितीय, दूसरा, अन्य । दूधर दे० ( पु० ) द्वित्रीयवर, दूसरा देश विवाद हुए हों । दुत्त तच्‌० ( पु० ) वार्तांदार, चर, संचाददात्ता, सन्देशी, निरुष्टारथ, मित्तार्थ और सन्देशहवारक--दूत के ये तीन भेद होते हैं | कार्य की सिद्धि श्रसिद्धि भादि का भार जिस दूत पर हो बह निसष्ठार्थ दूत कहा जाता है | जितने के लिये स्वार्भी का आदेश हो बतना ही काम करने वाला दूत मितार्थ का जाता हैँ ओर ज्ञो केवछ सम्बाद कहने वात्टा दूत है। उसे सम्देशहारक कहते हैं |--ता ( स्त्री० ) दूत का छास,दूतकर्स । [चार पहुँचाने वाली, कुट्तिनी । धुतिका त्त्‌5 (स्री०) दूती, नायिका की सखी, समा- दूती तबू ० ( स््री० ) दूत के क्षाम में नियुक्त की हुई र्री, समाचारदारिणी, कुट्टिनी, कुटनी । यधा३-- दोदा । “मिपुन दूवता भें सदा, ; घाहि दूती बखान। उचम, मध्यम, ध्यधम यों,तीन भाँति पलों जान ॥ के येग्य, दे।हसे बर, जिसझे । | | दूर ( उत्तम दूत्ी ) सोहे जो झड़ बोलिक, सछुर वचन अमिरास । ताहि कहतत कबिराज़ हैं, उत्तम दूत्ती नाम ( मध्यप्त दूची ) कछू बचन द्वित के कहै, बे।लै अदित कछूक | मध्यम दुती छहत हैं, ताले सुकवि अचूक | ? . ( श्रघम्त दूती ) अधम दूतिका जानिये वचन कद्दत सत्तराय । अन्धन के सथि देखिके अरनत सत्र ऋविराय ॥ “-+रेसराज। दुत्य ( पु० ) दूतकर्स दूध तत» ( घु० ) दुग्ध, स्लीश, पय, गोरस |-पुतत (घु० ) घन जन |--मुंह्दा (शु० ) बच्चा जे माता का दूध पीता दहे। |--युख्त॒ ( गु० ) दुध ग्रह । दूधाधारो तद॒० ( थि: ) दूध पी के जीनेबाला, केघल दूध के आहार पर रहने बाला, दुग्धाद्वारी, केवल दूध का अद्धार करते वाढूग, पयद्वारी । दूधाभाती दे* ( स्री० ) दूध और भाव, विवाह की पक्ठ रीति, विवाह के चौथे दिन का वर और वचू का परघ्पर का सोजन | दूधिया दे ( पु० ) एक प्रकार का पौधा जिधका रस दूछ के समान द्वोता है, भाँग जो दूच में दानी गयी द्वो, दूध मिली हुईैं।.. दिया पौधा । दुछी दे० ( वि० ) दूध का, वु्ेछा | ( ४० ) साछी, दूब ( गु० ) दूना । दूना दे६ ( वि० ) देहरा, दुगुना, द्विगुण । दुव तदू० ( घु० ) दूबा, तृण विशेष, स्वनाम प्रसिद्ध छुण, यह ठूुणय गणेशजी पर चढ़ाने के काम में आता है और इसे घोड़े बड़े चाव से खाते हैं । दूबर या दूबरा तदू० ( वि० ) बुर्बल, निर्यछ, बल रहित, पतील । [ दूब की दरियाली | दुविया दे० ( स्री5 ) सदर विशेष, दूध के समान रहा, दूबे ( ४० ) द्विवेदी, दुबे, ब्राह्मणों की श्रदह विशेष । दूर तत्‌० ( थि० ) अनिकट, असब्चिकद, अन्तर, बीच, च्यवधान, परे, न्‍्यारा |--भामी (बि०) दूर गमन कारी, दूर जानेदाला । (५०) तीर, घायु, पवत्त जम (३०) यघा, रासम! “-तर (ए०) सधिक दुरोकरण दूर श्रम्त दूर |--दश # (पु०) दूरधीत, देखने का पु यन्त्र जिम्तरी सहायता से बहुत दूर की वस्तु देखी जवी हैं। (वे-) दूर देखने चाला, अग्रतेची ।-दर्शिता (स्त्री ) विवेह, विये क़िता, दूरदेशी । -दर्शी (वि० ) विवेकी, ज्ञानी, शीघ्र, दूर दशी +-द्वए (स्त्री०) दूर दर्शन, विवेक। +थौन ( पु० ) दूरधी हण, दूर दसने का यन्त्र । “+-भागना (दा० ) घुणा करना, अ्रपम्ान करना, सम्बन्ध तेदना ।-चोत्तण ( पृ० ) दूरदीन, दूर दर्शद युस्त्र /-सून ( घु* ) जवासा ।--स्थ (प०) दूरस्थित, दूरवर्नी, दूरदेश का | दुरीव रण तव० ( पु० ) दूर कर देना, दृढा देना, अन्तर का देना, मगा देवा । [इियया हुआ । धूरीकृव ठतू० (वि०) भगाया हु भा, निश्वस्टा गया, दूर दूर्दा दत्‌+ (स्त्री ) हुण विशेष, दूप घास --एमी ( स्त्री० ) [ दूर्वा + भष्टमी ] भादों शुकृृग्ण की अष्टमी । दुलद दे० ( पु० ) देखे दु रहा । दूपक तदु० ( वि० ) [ दुप + धक्‌ ] निन्द5, निन्‍दा करमे धाजा, कल छ्वित करने वाढ्य दूपयिता। दुषण तत्‌७ ( पृ० ) निनन्‍्दा, देप, चूटि, दे।प प्रकाशन, भस्सेनू, फुऋक्षय, राचस विशेष | लझूध्वर रावण के पक सेनापति का नाम, इसे दूसरे माई का नाम खर था। रावण का गाज्य गेदावरी तीरस्थ दुण्डकारण्य तक विस्तृत था | उस्झी रद्धा के लिये खर और दूपण नामझ दा सेनापति १४ इजार सेना के साथ वर्डा रहते थे। रावण की यदहिन सूपंनखा भी उसी चन में रहती थी। सीता और एएृमण के साथ जिस समय रामचग्द् इस बन में रहते थे उस्त समत्र सूर्पनखा ने अपना ब्याद रामच-द से करने की इच्छा प्रचट की थी | इससे फुद्ध दाकर खक्ट्मथ ने रसकी नाक छऔार कान काट डाल | सूपनख्ता की ऐसी दुशा देखकर छः और दूषणय न रामचन्द्र पर चढ़ाई की | एच हजार सेना का मालिक दूपण था सर और दूपण दोनों ही राम के हाथ मारे गये | कचल अकम्पन नामक शुक राइस इस समाचार छो राष्य के दास्पहु- चाने के दिये बचा हुझा था । € ४र४ ) ........लल....._नेै्ेनीीीोो रनों ं़ञफ फनी ट्ट्षट दूषित तव्‌० ( बि० ) दोष प्राप्त, भमिशप्त, निन्‍दत, दोषयुक्त, भ्रष्ट, कल छ्वित, भषघादित, बदनाम । दूषोका तत्‌० ( स्त्री०) छीवड, कीचट, कीचड़, आँखों का मल । [नीय, कुरिपत, ण््धित । दृष्य तत्‌० ( वि०) दूपणीय, दूषण करने ये।ग्य, निन्‍द- दूसर, दुसरा दे० ( वि० ) श्िवीय, दूजा और अन्य) दूहिया दे ( 5० ) दो मुंद्ा चुरदा। ट्वग तदु० ( पु० ) दृझ, भाँख, चचु, नेत्र, नयन। “जज तद्‌० ( पु० ) पशु, नत्रपढ, दृगपट । द्वगशोत ( पु ) गणित विधि विशेष जे ग्रड्“ों को बेघ कर किया माता है | दूगोचर ( गु० ) भाप से दिसाई देने वाला | टुढ़ तत> (वि० ) पेढ़ा, अ्रचन्न, कढार, श्रति- शय, प्रगाढ़, बचवानू, कठित [--तम ( वि० ) अस्यन्त क्ठिव, अतिशव कढोर | “तर ( वि० ) अधिक कठिन [--ता ( स्त्रो* ) काठि य, कि ना, स्थितता ।--त्व (7० ) के ठित्य, कदोरता । -धन्वा (घु० ) समर्थ घरतुर्धारी, सचतम घनन्‍्वी | --प्रतिज्ञ ( बि० ) स्पिर प्रतिष्ठ, सत्य प्रतिश, सरयसन्ध [-म्रत ( गु० ) धर्म कर्म में एकामम- चित्त, धर्मपरायण । -पुष्ठि (३०) खक़, कृगाण, सचरवार | [ विशेष, मजबूत श्रक्कों चाल । दृढ़ाज्ञ तत्‌* (१०) द्वीरक, दीरा | (वि० ) कढित भह् इृढ़ाना दे" ( क्रि० ) पेढ़ा करता, बद्बानू करना, सरल बनाना मजबूत करना | दा इृढ़ाति' तत्‌« ( स्व्री० ) घहुप का अप्रमाग, कोटी। इृप्त तत्‌+ ( वि० ) [एप + कम] प्विंत, भ्रई कृत, प्रमि- मानी, अदद्भारी, घमंडी, गर्वीडा, शेप्लीवाज दृश्य तत॒० ( वि० ) देखन योग्य, देखने की बस्ठु, रमणीय, मनोहर | ( पु० ) तमाशा । टदृश्यमान तव० ( धु० ) देखने येग्य, दुर्शनीय, देखने के लिये उपयेगी | टपद्वती तस्‌० ( सद्री० ) ०क नदी दा नाम पद गदी आरवर्त देश की पूर्वो सीमा पर यदतती है | दरए तद० (वि० ) ईछित, भाले।ऊित, हेश्वगे चर, प्रकट देखा गया, देसा टृथा +-ऊूठ ( १९ ) ऋूटप्रश्न, पदेलिका, पहेली धुकोवक्क “वाद ( घु० ) प्रस्यडवाद ! ट्वष्टान्त दुष्टाग्व-तत्‌० ( छ० ) [दृष्ट + अन्त] उदाहरण, बपमा, नजीर, मिखाक्ष, निदुर्शव, समानता करण, तुज्ञना करण । दुष्ट तत्‌० (स्त्री० ) आात्तेकन, निरीक्षण, दुर्शन, चछ, आँख, नेम्न, लयन नज़र, निगाह, बुद्धि, विवेक, विचार [--गाचर ( एु० ) नवनगेचर, साज्ञाव्‌, प्रत्यच्च |-पात ( घु० ) दर्शन, ताक, कटाच्ा, चितवन ।--शीएश ( घु० ) शिव, सदादेव | देझाड़ा बे? (१०) दीक्रक का बचा हुश्रा घर, चल्मीक। देई दे" ( क्रि० ) देंवे, देता है, दे करके | देखना दे० ( ० ) पेखना, क्खना, ताकता; निहा- रना ।--भालना (वा०) ध्यान से देखना, विचार पूर्वक देखना, ताकना, निहारना, लखना । देखवैंया दे” ( घि० ) दर्शक, देखने वाला [ देखा दे० ( बि० ) दर्शन किया, अवलेकन किया, साक्तात्क्वार किया |--देंखी ( स्त्री०) दृछ्टाचुसरण, देख के अ्जुसरण करना ।--छुंना (वा०) साज्ञाव्‌ सन्दुर्शन, विचार पूर्वक निश्चय किया हुष्ला, जाना हुआ । देज्ा दे० ( छ० ) दायजा; दद्ेल, यौतुक, कन्यादेय दब्य, ( क्रि० ) सौंप जा, अपैण कर जा। देढ़ दे” ( वि० ) सादँक, आधा अधिक पक, एक और आधा, डेढ़ । देदीप्यप्रान वत्‌० (8०) जास्वल्यप्रान, अत्तिशय दीघि विशिष्ट, चमकीला, चमकदार, प्रकाश शीछ । देन दे० (०) ऋण, बघार। देय |-दार (5०) अधघ- मर्यों, कजुलेर, ऋण लेने वाला ।--केव ( छ० ) ब्यवह्ार, व्यापार, खनिज, देना लेना । - देना दे० (क्रि०) दे देना, दे डाजना, सोपना, व्यागना, अर्पित करना । ( छु० ) ऋण, देय, देन, इघार, करे ।--पाता ( वा७ ) दैन लेन, दिया धन पाना । देनी दे० ( स्त्री" ) देने चाल्ी, सौंपने वाली । देमारना दे? ( क्रि० ) पटकना, पटक देना, पद्ाड़ डालना । [ नीया देय तव्‌* ( वि> ) दान येग्य, देने योग्य, परिशोध- देर दे* ( स्त्री० ) विज्मम्ब, अवेर, ठील । | देरी दे० ( स्त्री० ) विलम्ब, गौण, देर । | ६ ४२४ ) ..................0.0ह.."ैज-ज-+>तलनतहू_तनल्‍ततल्‍_२>ईंँ६३६ॉॉह६ह६३ञ३ञ६ञ६ञ६ल६६६६/ देव देव तद० ( पु० ) [ दिव्‌ + अचू ] अमर, सुर, देवता, नाटकक्ति में राजा।--कली (स्त्री०) पुक रागिनी का नाम |--कारडार ( पु* ) चनसुर; एक पौधे रा घास |--ऊाष्ठ (पु० ) देवदारु काष्ट, चन्दन । --छुखड ( घरु० ) बिता अनाया हुआ कुण्ड, स्वये बना हुय्या जलकुण्ड, देव खात |--कुसुम (प०) लवश्नछता, लवह् ।-खात ( घु० ) अक्नत्रिम जलाशय ।-गायक (६० ) गन्धरं, देव केनि विशेष [--गिरि (पु० ) हिमालय पर्वत | (खी०) राणिती विशेष ।--शुरू (9०) बुदस्पति, छुरा« चाये ।--ग्रृह (छु० ) देवालय, देव मन्दिर, ठाकुर- वाढ़ी, चन्द्रमा और सूर्य का ज्योतिर्मण्डक् | --चिकित्सक ( छु० ) भ्रश्विनी कुमार |->ठाने (छु० ) देवेत्यान, ब्रत विशेष, कार्तिक शुक्ला पुका- दुशी | इस दिन भगवान्‌ विष्फु निद्धा त्याग करते हैं ।--तरु ( ए० ) सन्दार बुक्ष, पारिजात, कह्प- शद्ध |- ता ( ४० ) श्रमर, देव, खुर ।--ताथिप ( 8० ) देवराज, वेवस्वामी, इन्द्र +-तीर्थ (३०) अंग्रुल्ि का अम्रभाग) उसी से देव तपंण किया जाता है --तुल्‍्य (वि०) देवता के समान, अमर लदश ।--त्व ( छ० ) देवताओं के धर्म, देवपद देवता का झआविर्भाव (--त्र (०) देवस्व, देवता, के अर्पित धन आदि।- दत्त (०) छद्ध का छोटा भाई, अर्जुत के शहद का नाम, शरीर घारण करने वाले पथ] प्राणों के अन्तर्गत पुक प्राण विशेष। (वि०) देवप्रसाद, देवता का दिया हुश्ला ।-दार (३०) इच्ष विशेष, पारिभक्कक, इंचकाए ।--दाली ( ख्री० ) अप्छरा, स्वग वेश्या, देवता को सेंड की हुई ख्री, जाति विशेष की ख्री ।-+दूत ( छ० ) देवता का सेजा हुआ दूत, पवन, बाय देव ( छु० ) मदादेव, मह्मा (“केश (छु० ) देव शत्रु; देव निन्‍दकः नास्तिक, पाखण्डी, अछुर, दानव, दैयय ।--धान्य (घु० ) देवता का घान्य ।+-धघुनि (ली ०) देवनदी, गझ़क भागीरधी (धूप ( इ० ) मुग्गुछ, धूप विशेष ॥--नागरी (ए०) देव समान विद्वानों की लिपि, दिन्दी भाषा की बर्यमाला | --निन्‍्दक ( छु० ) दध्वर निन्‍्दाकारी, चाध्तिक पाखण्डी ।--निछ (घु०) ईश्वरचादी, इ्वरभक्त । शाण पा७--ई४ देव ( ४२६ ) “पति ( ए० ) इन्द्र, देवराज, सुरप्ति पथ (एु० ) देवमागे, चायादार, श्राकाशमार्मे, परिवाइ- पथ |-पूजक (० ) देवोपासक, देवाचेक, देदा राघनकर्चा ।--पूजा ( छी० ) देदता का पूजन, देवता की श्राराधना।-प्रतिमा ( खी० ) देव- ण्लिमूरि, सगवान्‌ की मूर्ति ।--वक्चू (स्वी० ) देव ल्री, महारानी, यधा--- “पदवदयधू भबहिं दृरि दयाये। । क्यों सडदीं तजि ताहि न आये।॥ --रामचमख्खिका | --प्रह्मा (इ० ) देवरऋपि, नारद मुनि ।--आहीण (पु० ) देव पूणित ब्राह्मण, देव तुल्य ब्राह्मण । भवन ( एु% ) अश्वत्य घृ, पीएल का बैड, छा मणि (१०) कैस्तुम मणि, येखडे के भक्न दिशेष की भैवरी --मांता ( ख्री० ) धदिति, कश्यप की स्थ्री |--मातृ्‌ऋ (3०) इृष्टि के जल से पालित देश -गास ( पु० ) गर्म का भ्रात्रवाँ महीना, देवों का महीना, मनुष्य के परिसाण से सीन वर्ष का सप्रव |--हुनि ( छु० ) चारद । “यज्ञ ( ६५ ) हम, हवत, मन्मोच्ारण पूर्वक अप्नि में धुनाहुति प्रदात ।>-येनि ( पु० ) बप- देवता, भूत प्रेत पिशाच थादि, गन्‍्धर्ष रथ (घु०) देवपान, देवताश्नों का विमान, पुष्पक रथ | राज (प० ) इन्द्र, सुरपति। रान ( पु० ) गाज्ञा परीक्षित ।-लोक ( छु* ) देवों छा बास- स्थान, भ्वग (“-वांणो ( खी० ) रुस्कृत सापा | +्ुत्त ( ३० ) कश्पटक, कर्म ।-चर्णिनो (क्ली० ) भारद्वात मुनि की कन्पा आर विश्लवा की पक्षी, इनके गर्भ से विश्ववा ने वैश्रवणश नामक ण०्क घुच्च शपक् किया था, वैधदण का दूसरा नाम छुत्रेर था| ये देवा के घनाष्यत्ष हैं, पहल्के छक्का पुरी इनकी राजघानी थी। पन्‍न्‍्तु अपने सौनेल्े आई रायण को इन्होंने छट्टा दे दी, चर स्वय ह्िमात्रप के उत्ता भ्लकापुदी के! भपदी राजे घानी बनाया --द्रोणि (स््री०) सरपरिषा, देवों की सपक्षा |--सर (पु० ) मानसरेखर । “-सिना ( छी० ) साविन्नी के शर्म से उत्पन्ठ अज्ञापति की कन्या हतझा दूसशा न्यम पष्टी था, डेशसेनाएति कासिक्य से इनका विवाह हुआ था, देवयानी इनझी दूसरी बहिन का नाम नाजए-प यारा झूउ कछूहे झइल आ नाम देखसेश है। है - रुत्री ( सछी० ] देवाइता, देवपतों ।-स्थान (8५) देबप्णय, देवगु्‌द, देग्मम्दिर (“7 सूप (६०) देदघन, देवपूजा के लिये स्थापित केश ।--हिंसक ( पु ) अ्रसुर, देत्य, दानव, सुरारि | देचक तद० ( घु०) भोजवशीय राजा विशेष, भोग वंशीय राजा आाहुक डे पुत्र | इनके भाई का ताम। उम्रतेन और कन्या का नाम देवही था, देवक ओकृष्ण के नाना थे, (गु९) देवता का; देव का। देवकी तत्‌* (स्त्री० ) दवक राजकन्या, श्रीकृष्ण की माता ।-नन्दूव ( १० ) भ्रोहृष्ण ) देवन ठव्‌० ( पु० ) [दिवू+ श्रनट्‌ ] क्रीडा, ध्यवद्दात। ज्षिगीपा, लीलोघान, धूति, स्तुति, धुत, जुभा, देवता का बरद्बचन । “देवन दोर्दी दुम्दमी ३ /! देवयानी तत्‌० ( स्प्रौ० ) दैत्यगुरु शुक्राचार्य की क्या और राजा ययाति की स्ट्री | दैध्यराज छषपर्वा की कन्या शर्मि्ठ के साथ इसका बडा प्रेत था। एक दिन दोनों सवान काते गयीं। शूछ से शर्मिष्या ने देवयानी के कपडे प्रदनालिये, इफसे इन दोनों मैं विवाद हुआ | शमिष्ठा ने देवपानी के पिता को अपन पिता का स्मुतिपाठक ( सुशामदी ) ऋहा और देवयानी के हुए में फेंइकर ध्वय घर उली गई | भाग्यवश उसी वर में राजा थपाति भद्दे खेलने आये थे, उन्होंने कु से स्थ्री की चिललाइट छुनकर उसे निकलबाणा | इऐँ घे निकल कर देवपानी अपने घर नहीं गयी, इसते एुक दासी से अपना बृत्तान्त अपने पिता के निकट कहले- बाया | पिता छुकाबाय सथ दातें सुनकर बृषपर्यो के निकट गये चोर उसके गाज्य से भपने जान की इच्छा, कारण के साथ प्रध्ट की। इसमे दृपपर्थों बहुत घवढ़ाया और वह देवगानी श्र समीप आऊइर इसझ प्रसन्न काना चाहा देंचः यानी में कद्ा क्रि यदि हजार दासियों के साए तुस्द्ारी कन्या श्मि्ठा मेरी दाप्ी घने हो मैं तुम्द्वारे बार में ज्वा सकती हूँ । ूपपर्वा ने पद स्वीकार क्रिया शरमिंठा ने अपने पिठा की आज्ञा छा सादर और सदर्ष हथीदार किया और देवर (्‌ ; छर७ ) न देश बह दज्ार दासियें के साथ देवयासी की सेवा । देदावा ( गु०) उन्मत्त, विक्षिप्त, पामल | करने लगी | एक समय देवयानी, शर्सि्ठा और इनकी दासियाँ किसी चन में जिउर रही थीं, उसी समय राजा ययाति भी संयेगग से इस वन में उपस्थित हुए। प्रथम दु्शेव ही से राजा ययाति ओर देवयानी का प्रेम हो गयाथा। दैवयाली ने उनके पति बनाना चाहा, शुक्राचार्य ने भी इस प्रस्ताव को स्वीशार किया। देवयानी का व्याद दे गया। उनके साथ शर्मिश्ठा भी देषयानी की ससुराऊ गई । देघर दे" ( छु० ) पति का छोटा साई | देवरानी है? ( स्त्री० ) देवर की स्त्री, देवताओं की रानी, देवराज की स्त्री। यथा:--- # देवराजा लिये देवरानी मनो, चुन्न संयुक्त सुलेक में सेहिये। | ? -+रामचन्द्धिका । देववत्त वव्‌० (५०) मद॒पिं विशेष, असित झुनि के पुत्र और ब्यासदेव के शिप्य | एशड ससप रमस्भा नामक स्वर्स की श्रप्परा इत पर आ्रासक्ष हुई, परन्तु इन्होंने उलका अत्यास्याव किया। इससे चित | का रम्मा ने शाप दिया कि तुम्हारी यह छुन्दरता व्यर्थ हैं, तुम इसके बोग्य नहीं हे, तुम कुरूप है। जाश्नो | सम्सा के शाप से देवछ अष्ठावक्र ह्वो गये थे । देवत तत्‌० ( घु० ) देव पूजे।पजीवी, धुजारी त्राह्मण, मारद झुचि, धमेएाख्य वक्ता झुनि विशेष । ( दे”) मन्दिर, ठाक्रद्वारा, देवस्थान, यधाः-- ४ तुलसी घेचल्ल देव के छागे छाख करोर । काग-अमासे हगि भग्ये। मदिमा भई न थार ॥?” देवहूति वद्‌" ( स्व्रो०) स्वायम्भुव सु की कन्या तथा कर्दस अजापति की भायां, इन्हीं के शर्म से सांख्यवुर्शव प्रणेता मद॒पिं कपिछ का जन्म हुआ था । कपिछ के अतिरिक्त इतके नौ और कन्याएँ मी थी। [ देने चालय। देवा तदू० ( छु० ) देव, देवता अमर, सुर, दिवाल, देवाडुना तव्‌० (स्त्री०) च्चेवस्न्नी, देखभायाँ, अप्सरा । देवान दे० ( पु५ ) कर्ससचित्र, राजा के शासन में येध्य देनेवाला मनन्‍्त्री, राजा का अ्रधान सचिव] देवानाप्रिय ( छ० ) सूखे, बकरा | देवारि तव* ( 9० ) दैत्य, निशाचर, दानव | देवाल दे० ( पु० ) चारदीवरी, प्राचीर, चारों ओर कही भीत, देनेवाल्ा, दानी, दानशीज | देवात्य तव्‌5 ( घ० ) देवस्थान, देवल, देवगृदद । देवाला दे+ ( पु० ) विचाला उ्यापार बिगड़ना, क्षे्र देन का सारा पड़ना, दिवाला | देवातलिया दे? ( जि०) जिसका दिवाला निक्छ गया, सतसर्चस्व, विधस, दरिद्र । देवाली दे० ( स्‍्त्री० ) दिवाली का स्योद्दार । देवालेई दे० ( ख्थी० ) देनलेन, सराफी, मदरजनी ! देंवि तय» ( ख्ी० ) ढेख्यो देदी । देवी ठत्‌० ( ख्री० ) दुर्गा, भवानी, नांव्योक्ति में क्ृता- मिपेका रानी, साह्षान्य देवपल्ी, ध्राहणी, भ्रादित्य- भक्ता, श्यामा चासक एक पत्ति विशेष । देवेन्द्र बद्‌० ( ३० ) देवाधिए, देवगज, इस्त्र देवोत्थान उत्‌" (9० ) कार्त्तिक सुदी पुष्यादुशी जिस दिन भगवान्‌ विष्णु निद्रा का त्याग करते हैं । देघोद्यात तवु० (8० ) देवता का उपवन, सुम्दर चादिका, विहार स्थान, नन्दन कानन | देवोन्माद ( 5० ) चद पायलूपन जिसमें रोगी पविश्न रहता सुगन्धित पुष्प मालाएंँ पहनता है! भ्रखि बन्द नहीं करता और संस्क्ृततत बोलता है । यह, देवता के क्लाप से द्वोता ऐ | देवेपासन तत्‌० ( छरी० ) देवाराधना, देवपुजा । देश वत्‌» ( पु० ) एथित्री का खण्ड, मण्डल, चक्र- लोक, स्थान, मदेश, सुएक |--कार ( प० ) एक राय विशेष /-दशामिज्ञ (०) देश की अवस्था जानने चाढा, देश वृत्तान्त-वेत्ता “निकाल ( छु०) दण्ड विशेष, किसी अपराध के कारण अपना देश छोड़कर बादर द्वो जाने की रामाशा। --भक्त (३०) देश की सेच। करने वाला, देश का कष्टों से छुड़ाने बाला भाषा ( स्ली० ) देश की .भाषा, राष्ट्रभापा, देश की बोली -मंय (बुर ) देश में ज्याप्त, देंश में सर्चन्न विस्तृत | --रूप (०) उचित, बेधग्य, देशाजुलार।--स्थ (वि० ) देश में स्थित, देश में बतंमान, देश देशाचार ( ४२८ ) द्देन्य _ ठग हुआ | ( धु* ) मद्दाराष्ट्र ब्राह्मण का एक भेद । दिश की रीति माति। देंशाचार तत्‌० ( घु० ) देश का ध्ाचार, ध्यवहार, द्ेशाटन तत० ( पु० ) देश परिभ्रमण, देश की यात्रा। देशांधिप तत्‌० ( पु० ) राहाधिराज, अधिराज, देशा- घिपति, राज्याधिक्ररी | दिशाधिप । देशाधीश तत० (ध० ) देश का स्वामी, राजा, देशान्त तत्‌० ( पु०) देश छी सीमा, देश का सिवाना। देशान्तर तत्‌« ( घु० ) विदेश, सुमेरु और छक्का छा मध्यवर्तों भूमिल्नण्ड, मध्याह् रेखा के पूर्व या पश्चिम किप्ती स्थान की दूरी, भारत के ज्योतिषी लट्टा से और यूरप के ज्योतिषी प्रीवविच नामक नगर से देशान्वर का गणित करते हैं देशावर दे * ( ४० ) दूसग देश, धन्यदेश, परदेश । देशिक तव« (पु०) गुरु, श्राचाये, अ्रद्मश्ाान के उपदेशक गुर। ६ देशी वत्‌० ( ख्री० ) रागिनी विशेष, दीपर, राग की माया । ( वि० ) देश का, देश सम्बन्धी, देश में सह्पश्न | देशाप्नति तद्‌० (श्ली* ) देश की उच्चति, देश की तरक्डी, देश की थदती, देश की बृद्धि, देश में सुशात्र होना, देशवासियें की सुवसम्दद्धिपूर्णवा । देद त२० ( स््रीन ) शरीर, तन, काय, गात्र, बदन, जिस्म ।--ज्ञ ( बि० ) देद्देरपण्ठ, देदजात, शरीर से उप्पन्न, बदन से पैदा |-त्याग (पु०) मरणा, खत्यु, प्राणद्याग, मरना |--ठुराना ( वा« ) गुप्त भ्मों का दकता ।--पात (पु०) शरीरपतन, झृत्यु, मौत, मरन ।--भूत्‌ ( ० ) जीव, प्राण, भारमा | «यात्रा ( स्री* ) शरीर घारण, ,सेशन, निर्वाह, मरया, दशत्याग ।--द्दीन (पु०) देदरद्वित अशरीर | देहरा दे० (पु० ) देववर, घौदरा, देदाजय, देइरादून साम्क नगर । देहली दे* (स्वी०) चै।सट, डेवद़ी, ब्योढ़ी, द्वार के मीचे की लकडी, दिल्ली नाम का नगर । देदात्मचांदी तव॒० (पु०) चार्वांड, नास्तिक विशेष, जे देद को भारमा कहते हैं। इन छे सिद्धान्त से देहा- दिरिक्त दूसरा पदार्थ नहीं है, चारमा परमात्मा आगदि इनझे सिद्धान्त में नहीं माने जाते। जिस प्रकार अश्व का सडढाने से इसमें मादकशक्ति उत्पन्न दो जाती है, उसी प्रकार पश्चमूतों के एकीकरण से डनरमें एक झकार की चेतना उत्पन्न दे जाती है भौर जब पशुमूतरे का विश्लेषण होता है तव घेतनता मी याश्रवनाश के साथ ही साथ नष्ट द्वोती है | इनके मत में कमे घम्मे भरादि कुछ पदार्थ ही नहीं है और परलेक़ मानने की भी काई आवश्यकता नहीं बढ़ती । परन्तु पग्मुमूर्ों के पकीहरण चर विश्लेषण में हेतु क्या है इस प्रश्न का उत्त भमी तक देद्दात्मवादियो के देते नहीं बना | देही तत्‌ » ( वि० ) शर्तरयुक्त, शरीर, ज्ञीव, शप्मा। ( क्रि० ) देता है । द्वैज्ला दे० (पु०) दायज्ञा, कन्या के देयद्ब्य, यैतुक । द्वैतेय तव्‌० (पु० ) दैल, भसुर, दानव, दिति के पृच्र । दैत्य तद्‌* ( छु० ) असर, दिति पुत्र ।--शुरू (४० ) शुकराचार्म, सांगंव ।--निसूदून ( ४० ) विष्ण, नारायण ।--युराघा (ए०) शुकाचाये ।-माता ( ख्रौ० ) दिति, कश्यप की स्री पूज्य ( ४० ) दैल्यों के पूजनीय, दैलय पुरोद्चित, शकाचार्य -- सेना ( स्मी० ) प्रजापति की कन्या चार देंव सेवा की मगिनी, यद केशी नामक दानव की ख्नरी थी, केशी ने इसे वलपूर्वक दरण करके इससे व्याद किया था । [ दैद्यप॒रोद्ित । दवैत्याचार्य तव्‌० (१०) [ दैत्य+-भाचाय॑ ] श॒क्राबार्य, दृत्यारि तव्‌० (प० ) [ दैष्य+चरि ) विष्य, नारायण । दैनंदिन तव्‌० (पु०) प्राह्माद्धिक, प्रति वासर सम्बन्धी, जो प्रति दिन हा [-प्रतय (ए०) धक्षा का देनिड प्रलय विशेष, भति दिन का अबछ्य, प्रति दिन पदार्थों में पृक प्रकार की विकृति । दैनिक तत> (०) प्रात्याद्धिक, दिनमव, दिन का, प्रति दिन द्वोनवल्ला [--पत्र ( पु० ) प्रति दिन प्रकाशित द्वोने वादा सम्राघार पत्र |-पैतन (4०) प्रति दिन का चेतन, प्र्येक दिन की मजूरी | दैनिक्ी दद॒ु० ( खो० ) बुक दिन हा वेतन, एक दिल की मंजूरी । [ काठय, कंगालपन | दैन्य दद* (दु०) दीवता, दरिद्रगा, झरण्यता; कातरता, द्वर्घय दैर्ध्य तद्‌० (घु०) दीर्घता, लंचाई । द्वैद्या दे” ( स्री० ) माँ, साता, देव, आख़ये या आते होनने पर यह शब्द सुंह ले निकलता है | हैव तत्‌० ( पु० ) भाग्य, अद्दझ, विधाता, आरब्ध, ज्ञलाद, अँंगुलि का अभ्माग, अष्टविध विवाहा- स्तर्गंत विवाह विशेष ॥--छ्व (छ०) गणक, क्झा- चाय, ज्योतिषी |--डुर्विपाक ( छु० ) दूरचट, दुर्भाग्य, दैव दुघेटना ।--वाणी (स््री०) आकाश- बाणी, अमाजुपी वचन, संस्कृत घाक्य --युग (पु०) देवताश्रों क्र युग, देवताओं के परिमाण के अनुसार वारह इज़ार वर्ष परिमित काछ और मजुर्यों की पणना के अनुलार चार युग (-न्येग (घु०) दैवात्‌, हठावू, अरकस्माव. अ्रचानक |-- वाद ( वि०) भालसी, भाग्याघीन, अकर्मयय, सुस्त, काहिल [सम्बन्धी । द्रैवत तव० (० ) देव समूह | (जि० ) देव दैवल्लक तत्‌० ( ० ) सात, भूतभक्त, भूत सेवक [| दृवागत दतू० ( 9० ) भाग्य से प्राप्त सुख या दुःख, अकस्माव्‌, इठाव्‌ । दैधात्‌ तब्‌* (आर० ) दृठाद, अकस्मात्‌, दैवाघीन । दैवाधीच तद्‌० (पु०) वैवायत्त, इश्वराधीय, हठात्‌ुकार । देवासुरागी तव्‌० (पु०) ईश्वर का प्रेमी, ईश्वर भक्त, भगवद्भक्त, भाग्य से प्रेम करने बाल, भाग्या- जुप्तार काम करने बाला । दैवायुरोधी तर* (जि० ) दैववशीभूत, दैवायत, सा्याचुचर्ती, भारय पर निर्भर रहने बगका | देधायत तद्‌० ( ४० ) देवाधीन, साग्यानुसार, अक- स्माव्‌, दृठात्‌, इेश्वराधीन | देविक्र त्चू० ( वि० ) देव सम्पन्धी। भाग्य से उत्पन्ष ब्याधि, पीड़ा विशेष, भूत्ादि उपद्रव जनित पीड़ा | यथा+-- * द्वैद्विक दैविक मैतिक तापा । न्‍ रामराज काहू नहि' व्यापा | ! --रामायण | प्रारबध का, चिघिदश । देवों तव॒+ ( स्वी० ) हठाव्‌ घढना, आपदू, सम्पत्ति विशेष, मानसिक सम्पत्ति, छोर हृद् तथा परल्ेक के कार्यों में सद्ायक हो, जिसका उपदेश गीता में भगवान्‌ ने किया है। हि ( ४२६ ) दो ज्ञो से होना दैब्य तव॒० (पु० ) साग्य, अच्ट, दैव, पूर्वकर्म, आरदघ | छैशिक् लत» ( बि० ) देश सम्बन्धी, नेयायियों के सत से एक सम्बन्ध, समान देश जात चस्छुओं में यह सम्बन्ध साना ज्ञाता है। देशचिष्ट विशेषयाला । दैद्विक तत्‌० ( वि० ) देह सम्बन्धी, कायरिक, शारीरिक, जिस्मानी | द्देएं दे ० ( क्रि० ) दानाथेक, देना घातु की भविष्य छात्तिक क्रिया, दूँगा। यधा:-- ४ निज भुज बल मैं बैर चढ़ावा। द्ेंहा| उतर जो। रिपरु चढ़ि झावा ॥ “+रामाययणं | दो दे० (वि०) द्वि, दो की संण्या (क्रि०) छावो, दे दोा। दोउ या दोऊ दे० ( वि० ) दे।नों, उप, घुग्म । दोधझाव ( छ० ) दे नदियों छे बीच का देश । दोक दे० ( धु० ) बचछेड़ा, दे दांत का बल्लेड़ा दोकना दे० ( क्रि० ) गर्जेना, गर्भन करना, घुरघुराना, घूरना, दृद्माढ़मा । दोकला ( १० ) दो कलों वाला ताला | देकिहा ( प० ) दो छूबर गला ऊंट । देख (पु०) दोप, दुयुण | देखना ( क्रि० ) कलद ज्गाना | देप्ली ( गु० ) ऐवी, अपराधी, शत्रु । देगला दे० ( चि०) वर्ण सक्टूर, दूसरे चर्ण से उत्पन्न । देगाड़ा दे० ( घ०) दोचली वंदूक, पद बंदूक जिसमें दो नत्ती हों, बद बंदूक जिप्में एक साथ दे गोक्केयाँ या कारतूस भरे जाँय। द्वोगाना दे० ( वि०) दोदारा, हिगुणा, दिगुणित, दोलड़ा | दोगुना ( शु० ) हुग॒ना | देचर दे० ( वि० ) छुद्ररा, दूसरा । हि च्ेजख ( झु० ) वरक, पौधा विशेष ! देजजा ( ० ) वह पुरुष जिसके दो पिचाह हुए हों । द्वेजिया ( स्ली० ) मर्भवती ख्री। दोजीया तदू० (स्ली०) ह्विजीवा, गर्भिणी, अम्तः सप्वा, |. श्रन्तरापत्वा, वह स्त्री जो गर्भवती हो, दुपस्था । । दे। जी से होना दे० ( चा० ) गर्भ रहना, गर्भवती |... द्वोना, अन्तभ्सस्वा होना | दोफ़ा (. 8३० देमा दे* (६० ) दूजावर, दे। विवाइछत्तों, दूसरे विवाह का वर, पृक विवाह के पश्चात्‌ दूसश विद्या करने बांडा । दे। ततलना ( ग० ) दे मजिला । [बाजा । देतारा ( पु० ) ए5 तरद का दुशाला, पुर प्रकार का देदना दे० ( क्रि० ) झुठाना, मुझरना, वात कहकर पदच्मटना | दाधक तत्‌» ( ० ) घन्द विशेष । देधूयमान तत्‌० ( वि० ) पुनः घुन कम्पन विशिष्ट, बरावर कॉपने वाला हमेशा द्िलने वाला । देन ( घु० ) दुआावा, दो पद्दाडों के बीच का स्थान, दो बल्तुओों का मेल, काठ का खोखला पात्र विशेष जो पेतों की सिंचाई के काम आता है । देना देन ( प० ) दौना, पत्तों का बना हुआझ्ला कटोरा- लुमा पात्र, पुक प्रकार का पत्रपात्र, पुष्प विशेष, दोनामस्श्रा । देनाली दे* (स्ली० )) दो नक्ती की बंदूक । दोनों देन ( वि* ) दोऊ, इसप, दो । देपहर ( छु० ) मध्यान्द । द्वोपीदा ( गु० ) दोर्खा | देवर दे* ( गु० ) दुद्दरा, दो तह, दो वार । देावे दे० ( १० ) दुबे, बाहों की पर पहुवी | देमापिया ( वि* ) दुसपिया। दोामुद्दा तद्‌5 ( पु०) दिम्ुष्, दो सुंद्ध का सांप करवा, गडुवा, द्विनिद्वा देय दे" ( वि० ) दो, दो की संझदा, २ | दारक तत्‌* (पु०) सितारा का तार, श्रनन्त चतुर्दशी के दिन का सूब्रूप श्रसाई, जिपे कहते हैं। देदंणड़ तव्‌० ( पु० ) वाहुरूपी दण्ड, सुनरइण्ड । देक्ष तद० (पु») दोलेत्सव, थ्रीकृष्प का कूठन, डदिडोरा। देल्लन तन (पु०) [ दुलू+ चनदू ] कूछन, दिलन | दोला तवद॒० (पु) हिडोढा, मूर ना, पालना [ दवोलिका तव० ( ध्षो० ) दिंडोरा, कूठन, जिस पर मूखते ईै | देप ठद॒« (३०) [ दुषु+ भच्‌ ] दूषण, श्रूटि, कटक, अम; पाप, भपराध, घर, खुल, पेड, दु्गुण, ) देहवतो कसूर, निन्‍दा श्रनिष्ट, बात पित्त इाप7दद्माज्ञ इक कदछ, लि अनिष्ट, बात पित्त चर ढक।-- कफ +- कर (पु०) दूधणावद, अनिष्टकर, निन्‍्दाकर |-- खग्डन ( पृ० ) अपराध साजेन, कलझू मान, देषधापतयत |--गायक (पु० ) निन्दक |-- ग्राहक ( 5० ) देष गहणकर््तां, अपवाद कारक, निन्दुऋ, खल, दिद्वास्वेपी ।--क्ष ( १० ) पण्डित, चिकिस्सक, दे।पवेत्ता ।--त्रय ( पु० ) बात, पिव कफ नाश ( पु० ) पापमे।चन, भपवाददरण | --भाक्‌ ( पु० ) अपराधी, निन्‍्दाई, निम्दा के येग्य । दोपक तत्‌० ( घु० ) निन्‍्दक, अपराधी, दोपी, पापी । दोपना दे० ( क्रि० ) दे।प देना, दोष लगाना, श्रपाध कगाना । दोषा तत्‌० ( ख्री० ) राजि, निशा, रात | ( श्र० ), प्रदेष, निशामुख, सन्ध्या |--तन (वि०) निया जात, रात्रिभय, रात में इस्पन्न | दोपादोप तत्‌० (प०) मलाई घुराई, गत्तम मिक्षष्ट दोपारोपण तत० (५०) दोप छ्षगाना, श्रपराप छगाना, जुमे छगाना। देपावद् तत्‌० ( बि० ) [ दोष + भावद ] दोणेधछ, जिससे दोष री उत्पत्ति हो । [िक्त, भशद । दापी तत्‌० ( ति०) कछझ्टी, 'पपरारी। पापी, दोष दोपैकट्ठक तद॒० ( वि०) दापमातदर्ण, जे। गुणों को छोड कर केवल ढोप द्वी दोष देखा करता है, ऐव देखने बाला, धिद्राववैपो । दोसरा दे* ( पु० ) दूसरा, द्िंतीय, सकी, साथी, सद्दचर | देसाद दे० (पु०) घाचुख, नीच जाति विशेष, दुष्ताघ, अस्पृरय जाति, अद्धत जाति, अ्रन्त्यन याति | दोस्त दे० ( घु० ) मित्र, बस, सुढ॒दू पी (ख्ौ* ) मंत्री, स्नेद । दोदेगा ( ख्री० ) रखनी, घद खरी जिसका पति खठ डे गया दे। चौ।र जिसे अन्य पुरुष ने रस लिया हो |: दोदड़िका दे० ( खो ) भाषा का पृक छन्‍्द विरोप दोदत्यड़ दे? ( छी० ) दोनों द्वार्थों का चयेंद। ताली | दोदता तद्‌* ( घु० ) दौदित्र, येटी का बेटा, दोदिता, चाइता, घेवदा | [घोदती, भेदती। दोदती रुदू० ( स््री०) दौद्धिन्री, बेटी की चटी, दोदिठी दोहद्‌ दोहद छच्‌० ( छ० ) इच्छा, स्पुदा, गये, गर्भिणी का अमिल्मष, गर्सिणी की लालसा, साथ । लक्षण ( पु० ) गर्स के लक्षण, गर्भचिन्द । दोहद्वती तव्‌* ( ज्ी० ) अज्नपानादि पदाषों में अभिल्‍ल्वलाप रखने चास्ती गर्भवती स्त्री । [ छुद्दा । दोहन तब० ( पु० ) दुगघ निध्धारण, दूध निकालना, दोहनी तत्‌० ( ७० ) दोहनपा/त्र, दूध दुदने का पात्। दोहर दे" ( जी० ) दोहरावज्न, जे ओढ़ने के काम में आता है, गले फ, खाप । [शाबृत्त द्वोना । दोहरना ( क्रि० ) दोहरा करना, दोहरा द्ोना, दूसरी दोहरा दे" ( पु० ) दविय्युण, दविगुणित, हुयुना, पच- विशेष, पद्देली का छन्‍्द्‌ दोहराब दे? ( ० ) दोहराया हुआ, दोहराने का काम, तह करता । दोहतला ( गरु० ) दो बार की ब्यायी हुई गौ । दोहली ( स््री० ) आक, सद्वार । दोहा दे" ( प० ) दो चरण का श्लोक, प्र्विशेष, यह ४८ सात्राओं का होता हैं| प्रथम तृतीय चरण में तेरह तेरद्द मात्राएँ श्रार द्वितीय चतुर्थ चरणों में ग्यारह ग्यारह मात्राएं होली हैं । दोहाई दे० ( ख्री० ) दुद्ाई, पुछार, गुहार, विचार के खिये प्रार्थना करना, शपध, सौगन्द । ड़ दोद्दान तद्‌० ( प० ) ठिद्वायत, दो वर्ष का बच्चा । दोड़िता तदृ० ( ५१० ) दौद्दित्, बेटी का बेटा । दोंगड़। दे० ( पु० ) मारी वर्षा । दोड़ दे* (स्त्री? ) घावा, सर्पट, अति बेग से गमन, शीघ्ष गमन, प्रक्निल्त का दृछ जो ग्रुढों या जुआरियें के गिरोह का गिरफ्तार करने को जाता है --धूप ( स्वी+ ) यत्र, परिश्षत्, बच्योग, चेष्ठा |--छूप करना (वा०) बहुत इच्योग करना, बड़ा परिक्षम करना । [ चलना [ दौड़ना दे० ( क्रि० ) घावना, सर्पट छगाना, चेग से दोड़ः बे" (६०) छुड़चढ़ा, घुड़ुसवार; बटमार +-दोड़ ( क्रि० ) श्रविश्रान्त, अथक +--दौड़ी ( स्री* ) दौड़ घूप, शीघ्र गसन । दौड़ाक थे ( ए० ) दौड़ने चारूप, घावक, दौड़ाहा । दौड़ौना दे० | क्ि०) वेग से चलाना, शीघ्र चच्चना। पोड़ाहा दे० (६०) दौइने चाहा, सन्देखिया, हरकारा। ( ४हे१ ) लक दौत्य तत्‌० ( पु० )2 दूंत का धर्म, दूत का कर्म, वातविहता, चार्ताबराहक | दौना दे० (पु०) पत्ते से चना कटोराजुभा पान्न, दोचा । दौर ( छ० ) अमण, फेरा । [ दौरी छे बढ़ा । दौरा दे० ( छु० ) टेक, बड़ी टोकरी, टोझना, दोरात्म्य तव० ( घु० ) हुरात्मा का काये, परपीड़न, इत्पात, दुएता, अनिष्ट, छुजेनता, दुष्टता, पाजीएन, नीचता। दौराव ( पु» ) चक्कर, फेरा; मॉका | दोरी दे० ( खी० ) चंगेरी, देकरी, छोटा दौरा | दौहिभ तव्‌5 ( पु० ) दुहिता, पुत्र, दोहता, छन्या तनय, बेदी का बेटा । [ बेटी की बेटी । दौदिन्नी तत्‌* ( खी० ) कन्या की कन्या, दुहिता पुन्नी, द्युति तच्‌० ( स्नी० ) अद्ाश, सुन्दरता, दीप्ति, शोभा, किरण, तेज, असा पिड़, अकब्रथ ! दुर्माण तत्‌5 ( पु० ) सूर्य, रबि, भानु, अकौश्रा का झुमत्सेन तत्‌० ( घु० ) शाल्वदेश छे राजा, इनके पृश्र का नाम सल्यवान्‌ और पुन्नवधू का वाम सावित्री था । राजा धुमत्सेन किसी विशेष कारण से प्रन्धे हे। गये थे | कतिपप अधम कर्मचारियों ने मित्र कर राजा झुसत्सेल को राजच्युत कर दिया | तब महारानी शेब्या श्रौर पुत्र सत्मवान्‌ के लेकर राजा घप्तन्‍्पेन जन में गये, एक समय मद्बदेश के शाज्ञा उसी बस में गये और उन्होंते श्रपनी कन्या का विधाद सत्यवान्‌ छे करना ठीक किया । मत्र- देश की राजकुमारी का ब्याह सत्मवान्‌ से हो। गया | सलवान्‌ अक्गयु थे, थोड़े ही दिनों में उनकी आयु पूर्ण हो गई। साविन्नी ने अपने पतिव्रत के प्रभाव से यमराज को सोद्दित करझे इनसे कितने द्वी घर पाये । उन्हीं बरों के प्रभाव से राजा घ्‌ सत्सेन ते सेन्न और राज्य पुनः पाये और स्त सत्यवान्‌ सी घुनः जीवित हो गये । राजा थूभस्सेन योग्य पुत्र सलचान्‌ को राज्य का भार देकर और उचित समय पर वानप्रस्थ चत झअहण कर पुनः बन सें चले गये। ' चलोक ( घु० ) स्वर्ग लोक । असद ठत्‌० ( वि० ) स्वर्गवासी, स्वर्ग में रहने वाला, 5 (३० ) देवता, देव, सुर। चुत ल्‍ दूत तत्‌० ( पु० ) झुआ, स्वनाम प्रसिद क्रीडा विशेष । --कार ( पु० ) जुआड़ी, जआ सेलनेवाला | --क्रोड़ा ( स्री० ) घ॒ुए का सेल ।-पूर्णिमा ( स्रो० ) आश्विन को पूर्णिमा । दी ( तत्‌० पु० ) स्वर्ग, अन्तरित्त, सुरलोक, आकाश । दोत त्तद्‌० ( पु० ) दीप, प्रकाश, चमक, क्रिण | चोतदक तव्‌० (पु० ) प्रकाशक, प्रकाशशोल, दीसिमान्‌। चोतन सत्‌० ( घु० ) प्रकाशन, प्रकाशकरण, दर्शन, ! अदीप। । झोतित तत्‌० ( थि० ) प्रकाशित, प्रऊदित, च्यक्तीकृत.। झोयनी दे० ( ख्री० ) देवरानी, पति के छोटे भाई । की खी। दौस ( पु० ) दिन, दिवस । [का मान । द्र॒म्म तत्‌० ( पु० ) मान विशेष, सोलह, ३१६ एय द्रव तव्‌० (पु०) स्नेह अब्य, चिकनी पस्तु, पनीली वस्तु, श्सीली वस्तु, रस, पलायन, ग्रतिवेग ।--भाव , ( घु० ) तरलमाव, गलना, पिधलना । ऐ द्रवण ( ४० ) दौड़, गमन, गति, बहाव । । द्वबिड तत्‌» ( छु० ) देश विशेष, दक्षिण देश का एक प्रान्त, वहाँ के रहने वाले प्राह्मण द्वाविढ़ कटे जाते दईैं। * [स्पया, पैसा । द्वविण तत्‌» ( घु० ) घन, हब्य, कान, सेलना, द्रचित तत्‌० ( वि० ) बहता हुआ, पिधला हुआ, कृपा- युक्त, नम्र । एपिघलाना, गलाना | हडयोकरण तत्‌० ( पु० ) फठिन द्वब्य को सरल करना, ! द्रबोभूत दव० ( घु० ) गलित, मिश्रिद, टिघला हुआ, पिघला हुआ । [युक्त ह्ो। द्रघो, ठवहु दे० ( क्रि० ) दया करो, कृपा करो, दुया- द्रव्य तत्‌+ ( पु० ) वित्त, घन, नैयायिरों के मत से शथिबी, अप, तेज, वायु आकाश, काल, दिरू, आमा और मन ये नौ द्वव्य ई ।--जन्मभाव (यु०) वस्तु चौर वस्तु जन्य पदार्थ का सम्बन्ध विशेष। द्रन्य सतत» ( घि० ) दश्शेनीय, दर्शन योग्य, मनोहर, रमणोय, देखने योग्य । [टिखिवेया । द्र्टा तत० ( घु० ) देखने वाला, दर्शक, दर्शनकारी, द्रात्ञा तव॒० ( ख्री० ) दाख, अंगूर, सुनक्ता, झिशमिश । ““सस ( धु० ) सदिरा, मद्य ।--लता ( स्त्रौ० ) अंगूर की झता, अगुर की टहनी | ( ४३ ) छुपद ठाधिमा तत» ( खत्री० ) दीर्घता, लवाई, दीर्घव, देंध्ये [ भेद, सेद्गा पिघलाने वाला। द्रावक तद्‌» ( छ० ) दवकारक, यलाने वाला, अख्तर छरावण ठव्‌० ( पु० ) ह्वकरण, गलाना, निर्मेलीकरण, पिघलान, बहाना, साफ करना। द्वाविड़ तद० ( घु० ) देश विशेष, विन्घ्य पर्वत की दक्षिय दिशा का देश, द्वविढ देशवासी, धराह्मण विशेष, कचूर । [एलायची, हविड़ देश की भाषा। द्राविड़ी तत* ( ख्री० ) द्वविद देशोषत बस्त, छोरी द्रुत तत्‌० ( गु० ) पिघला हुआ सुवर्ण आदि, शीघ्र, तुरन्त, त्वरित । ( पु० ) नृत्य विषयक शीघ्र गमन । “मामी (घु०) शीघ्रगामी, हुठगमनकत्ती, जल्‍दी चलने वाला ।--पद्‌ ( घु० ) छम्द विशेष। हुपद तव० ( थु० ) चन्दवशी एपत्‌ नामक राजा का पुत्र, राजा एपत्‌ के साथ भरद्वाज ऋषि की मितवा थी। '्पत्‌ के घुत्र दुपद और भरद्वाज् के पुत्र द्रोण दोनो समान बय के थे, 'थतएवं इसमें भी मिम्रता होगई । राजा पपत्‌ के मरने पर हुपद राजा बनाये गए । भरद्वाज के मरने के बाद द्रोण तपस्या करने लगे | हुपद राजा होकर अपने बवास्यमित्र के भूल गये थे । पक समय पोण पूर्व मैत्री स्मरण + करके राजा के पास गये, परन्तु राजा ने दरिद्र घाद्मण पुत्र से मैत्री करनी न चाही । झुछ दिनों के बाद छोण कौरव और पाण्डवों के अद्धशिछ्ठक वियत हुये । बोण हुपद के अपमान के। भूले नहीं थे। भीम अजुुन आदि जब अख शिक्ता में निषुण दो गये तब शोण ने हुपद पर चढ़ाई करके उसे चाँध वर अपने सपीप लाने के लिये अर्जुन को अआरज्ञा दी। अ्जुंन ने पाद्याल राज्य पर चढ़ाई री और थामात्यों के साथ राजा हुपद को बॉधकर ये ले श्राये। द्वोण ने अपने पर्य भ्रपमान थी वात का स्मण दिलाकर दभुपद से मैत्री वी, परन्तु इस दवाद की मेत्री को सेत्री गहीं कह सक्‍ते। हुपद को इससे चढ़ा दुख हुआ। इसका यदका ' छेने के लिये हुपद एक पुत्र प्राप्ति की कामना से यज्ञ करने लगे गह्भातीरवासी याज़ और उपयाज नामऊ दो स्नातक ब्ाद्यों को हुपद ने अपना पुरोहित बताया और उन्हीं के द्वारा यज्ञ सस्पत्र द्ुपदी ( ४३३ ) द्रोणी किया । इसी यज्ञ से डोणहन्ता घष्ययम्म की उत्पत्ति हुई थी। उसी यज्ञवेदी से एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसे दौपदी अथवा कृष्णवर्ण होने के कारण कृष्णा कहते हैं । महाभारत के युद्ध सें ओोण ने हुपद को सारा धा, परन्तु हुपद पुत्र शष्टचू मत के द्वारा दोणाचार्य सारे यये । हुुपद का एक नपुंसक सन्‍्तान शिखण्डी था, जिसके द्वारा भीष्म मारे गये । द्वरपदी ततदू० ( खत्री० ) राजा दुपद की पुत्री, द्रौपदी, पाण्डवों की ख्री, ( देखो द्रौपदी ) ट्रुम तचु० (पु० ) [छु+म ] वृक्ष, पारिजात, पेड़, रूख, तंख्वर ।-ज्याधि (स्त्री०) लाक्षा, लाख, जाही ।--श्लेछ्ठ ( छ०) तालवुक्ष, ताड़ का पेढ़ ! ( वि० ) उत्तम वृक्त, श्रेष्ठ पेड़ ।--लय (छ०) जंगल ।--अम ( छ०) गिरमिट (पु०) चुक्षचाली। हुमालिक ढव्‌० (० ) राचस विशेष, एक राक्स का नाम । छुमारि तत० (एु०) [ हुस-+श्रिं ] बृच्चों का शत्रु, हाथी, गज, करी । ( थि० ) कुठार, कुछ्हाड़ी, अन्धड़, अचण्ड वायु । द्माश्रय तत्‌० ( ०) [ हुम # आश्रय ] शरठ, कृक- लास, गिरगिट । (खिं० ) वृक्ष पर रहने वाले प्राखिमात्र । डुमिला ( स्री० ) छन्द विशेष जिसके प्रत्येक चरण में ३२ सात्राएँ होनी चाहिये । हमेश्वर तत्‌० ( पु०) [हुम + ईश्वर] तालवुत्त, अख- त्थचुक्ष, पीपल का पेड, चन्द्रमा, निशाकर | द्रद्दिण तव॒० ( घु० 9 विधाता, बिधि, ब्रह्मा, अजापति । [ भाग । | द्ेक्ाए तद्‌० (8० ) लक्न के तीसरे भाग का एक द्रौश तत्‌० (घु०) परिसाण विशेष, चार आढ़क का परिमाण, आइक चठुशय | ३९ सेर प्रचलित परि- साण । दोणाचार्य, कौरव पाणडवों के धरुविद्या के युरु, (देखो द्रोणाचाये ) कृष्ण काक, चूश्चिक, विच्छू, चार सौ घलुप परिसाण का जलाशया श्वेतवर्ण छोठा फूल ।--काक (पु० ) बनैला कौवा, चन्‍्यवायस, दाइ काक |--पुष्पी (ख्री०) पौंधा विशेष, गोशीपक चुच्च यह औषध के अललन नल +++२--+-++-२०००२-८० न मरनसरनए->रर-स्५ 224 था कास से आती है ।--पम्ुख (०) चार सौ गायों में से सुन्दर याँव । द्रोणाचल ( छ० ) ड्ोण नामक पहाड़ । छ्रोणायाय तत्‌० (घु० ) [ द्वोण + आचाये ] भरद्वाज ऋषि के पुत्र । भरद्वाज का आश्वस राजा तद पर था एक दिन गड्गास्तान के समय भरहाज ने दिवख्रा घृताची नाम की अप्सरा को देखा । उसके देखने से कामविबश महदि का रेतःपात हुआ । घृताची ने उसको द्ोण नामक यक्क के पात्र सें रख दिया, कुछ दिनों के बाद उस यज्ञपात्र से एक लड़का डत्पन्न हुआ। महर्षि ने डसका नास भी द्वीए ही रखा । भरद्ााज ने असिवेश्य नासफ ऋषि को आम्भेयात्र की शिक्षा दी थी। द्ोण से भी धजुविया और आग्नेयाक्ष की शिक्षा उन्हीं अश्निवेश्य से पायी । द्वोण का मित्र छुपद नामक राजा था। ( देखो ठुपद्‌ ) परस्तु किसी विशेष कारण से इनको सित्रता नष्ट हो गयी । पिता की आज्ञा से शरहान की कन्यर कृपी से द्वोणचार्य ने अपना च्याह किया ! उसी विवाह से ओण के एक पुत्र हुआ था जिसका नाम अरवत्थामा था । अद्च विद्या सीखने के लिये द्रोण महेन्द्र पर्चद पर परशुराम के निकट गये और वहीं उन्होंने अख् विद्या सीखी ॥ पाण्डथ और कौरयों को पढ़ाने के लिये भीष्मपितामह ने इन्हें नियुक्त किया । अर्जुन इनका प्रिय शिप्य था | अर्जुन ने जब गुरुदक्तिणा देने की इच्छा प्रक/ की सब दोणाचार्य ने कहा था--“अज्लुन जब कभी हस तुससे युद्ध करें डस समय तुम भी मेरे साथ खूब युद्ध करना । उस समय किसी प्रकार का सक्लोच मत करना ।” इसी कारण महाभारत छे युद्ध में अर्जुन ने गुरु के साथ चोर संग्राम किय्रा | नहीं तो द्ोए का सब से अधिक प्रिय शिप्य अर्जुन कभी गुरु के साथ युद्ध करने का साहस नहीं करता | उसी युद्ध में अश्वत्थामा के मरने का संवाद सुनकर होण मूछित हुए । इसी अवसर पर इश्टथ स्त ने सलवार से उनका सिर काट छाला। द्वोणी तत्‌० ( ख्री०) [ह#ोण+ई ] देश विशेष, नदी विशेष, ढोंगी, छोदी नोका, पर्वत विशेष, दो चुक्तों को सन्धि । श० पा०-+#र ट द्रोद ( छरे४ ) 5 पिन पिन ग्नननससनलन नम न न सनम नि लत मनन होह तव० ( पु० ) [हुई +भल्‌] वैर, द्वप, लाग, | द्वाचत्वारिणत्‌ दिचत्वारिशत्‌ तत्‌० ( बि० ) दो विरोध, जिधासा, अनिष्ट चिन्तन, अपनार, आअधिऊ चालौस, ४२, बयालीस । क्षति, हानि पहुँचाने की इच्चा ।--कारी (० ) | द्वात्रिशत्‌, द्विज्िंगत्‌ तत्‌० ( वि० ) ढो अधिक तीस, द्वादशाह ठोदिया तद० ( वि० ) द्रोही, दे पी, बैरी, विरोधी । द्रोही वत्‌० ( घु० ) [ हुह --इन्‌ ] होह करने चाला, ' होगायन तत० (पु०) [दोए--शायन] द्वोणाचार्य का [ हुए. #क+फिच्‌ ) दोरी, बेटी, विरोधी । ' “-चिन्तन (ए० ) दूसरों का श्रनिष्ट करने की । चिन्ता, कसी वी बुराई सोचना । त ग्निष्ठफारी, सल, पिशुन, स्वभात्र से चैरी, , विरोधी, हे पी । ॥ पुत्र, धश्वत्थामा, यह सप्त चिरजीवियों में से हैं। ' हपदी तत्‌० ( खी०) परा्यालराज छुपद वी यज्ञ बेदी से उत्पन्न क्या। इसका वर्ण काला था इस फारण इसका दूसरा नाम कृष्णा था। स्वय- चर स्थान में लघ्यभेद करके अजुन ने इसे पाया था। परन्तु पाँचों भाइयो वा इससे ब्याह हुआ। यह अपने पतियों के साथ वन वन घूमती फिरती थी। झज्नाववास के समग्र विराट के घर इसने सैरिन्धी ( दासी ) का काम किया था । दु शासन ओर दुर्योधन ने भरी सभा में इसझा अपमान किया था । इसीझा बदला भीम ने हुस्छेर के युद्ध | में लिया था। भद्दामारत युद्ध समाप्त होने पर कुछ दिनो तक यह मुस शान्ति से राज्यभोग फरती थी । पुन जब इसऊे पति भद्दाप्रस्थान के लिये उच्त हुए तय दौपदी भी अपने पतियों के साथ चली, दिमपर्वंत पर चढ़ने के समय सत्र से पहले यही गिर गयी थी। द्वन्द्र तव० ( ४० ) युग्म, जोड़ी, युगल, मिथुन, रहस्य, खी पुरुष की जोड़ी, वियाद, क्लड, रोग विशेष, पदषिध समास के अन्तर्गत एक समास का नाम । इन्द्र समास सुस्त दुख, राग दे प, शीत आठप आदि ।--कारी ( वि० ) क्लहकारक, मगदालू , जिवाठी ।-चर (पु० ) खकतयाक पछ्ी, चऊुवा। +-ज ( ए० ) [ इन्द्+जन्‌+ढ्‌ ] दो दोषो से उत्पन्न रोग, फलइजत्य, फराद से उत्पन्न +-युद्ध € पु० ) मन्त युद्ध, हाथापाई । ३३२, बतीस ।--अत्तरी ( पु » अन्य, पुस्तक! --लत्तण ( पु० ) बत्तीस लक्षण, जो मद्दापुरपो मे होते है, वे ये हैं--सुझुत, स्वरूप, शील, सत्य, पराक्म, शचिता, अम्यास, वरजिद्या, सुमात, परमज्ञान, शाखज्ञान, परखोत्याग, पूर्णता, लोकेश, दास विभाग, पुष्टविद्या, प्रिमरविद, सत्संग, भजाम गुणपूर्ण, साठ्मक्ति, पिठृभक्ति, गुरुमक्ति, जिते, ज्वियत्व, दाठृव्य, धर्म, देवपूज़न, श्रत्पनिह्ा, स्वव्पादवार, स्वच्छृता, पुष्टता, जैये इति । | द्वादूश तव्‌» ( यु०) [द्वदश + ढदू ) को भ्रधिऊ दरा, ३२ बारह, वारहयीं सस्या ।--उपवन ( पु० ) साझ्ेतिक बारह उपबन यथा --शान्तजुकुणड, राधाउुण्ड, गोवर्द्धन, परमन्दर, वरसाना, सकेद, ननन्‍्दघार, चोरधाट, वलरामस्थल, नन्‍्दगोंव, गोउल, चन्दरवन कर (० ) इृदस्पति, कार्सिकेय ।--पत्र (७०) योति विशेष ।“भाल्ठ (ए०) बारह सूर्य ।--भाठुकला (स््री०) सूर्य की बारह कलाएँ उनके नाम ये हैं। तपिनी, तापिनी, भूठ्रा, मरिची, ज्वलिनों, रुचि, रचिनिम्ता, भोगदा, विधोधिनी, धारिणी, क्षमा, शोषिणी । लोचन ( घु०) कार्तिस्ेय, इमार, देव सेना- पति ।-नत्त तद» ( धु०) [ दादश + श्रक्ष ] काजियेय, ग्रद, पढानन ।+-धन (5०) वारद चन जो ब्रज में है । मउयन, तालवन, वृन्दायत, कुमुदवन, कासवन, फोटबन, चन्दनवन, लोइबन, मसदावन, खदिरिवन, वेलयन, भाण्डीर वन । द्ादर्शांश तत० (पु०) [ ढादश +अश ] इहस्पति, सुराचार्व, देख्युद।..[ अब्नरों का मत्र विशेष । द्वादशात्तर तत्‌% (पु०) बासुदेय भगवान्‌ का १३ द्वादशाइगुल ठद० (१०) [हादश + अगुल] दितसि परिमाण, एक बीना, थाघा ड्वाथ, पुक र्लिस्त | द्वादशात्मा तव० (पु० ) [ द्वादश + आत्मा] सूर्य, माजु, द्िवारर, श्रपयन का पेड । | द्वादशाद ( पु० ) सतक या ३२ थें दिन का कृत्य, १२ दवय ( गु०) थो। |... दिवस में समाप्त होने बाजा यज्ञ पिशोप | _ द्वादशी छादशी तत्‌० ( ख्री० 9 [ द्वादश + डट्‌ +ई ] तिथि विशेष, पक्ष की बारहवीं तिथि, चन्द्रमा की बार- हमवों कला का समय | छतपपर तत्‌० ( पु० ) युग विशेष, तीसरा चुग, इसका मान ८६४००० वर्ष का होता है। इसमें श्रीकृष्ण और बौद्ध दो अवतार हुए थे । सन्देह, अनिश्चय। छापश्षाशत्‌ तव्‌० ( वि० ) संख्या विशेष, दो अधिक हु पचास, ४२, बावन ! द्वार सतत० (पु७) निकलने का मार्ग,घर में से निकलने का पथ,दरवाजा |--कणठ्क (9०) किवाड,कपाट,अर- गल ।--पशिडत ( छु०) किसी राज्य का मुख्य परिंडत ।--पाल (पु०)द्रारसक्षक,दरवान ।-- पालक (घु०) द्वाररक्ञक, द्वारवान, पहरुआ, प्रहरी /--यन्ज (पु०) द्वार बन्द करने का यन्त्र, ताला, कुफुल। द्वारका तत्‌० ( स्री० ) स्वनाम असिद्ध पुरी, श्रीकृष्ण की नगरी, जो काठियावाड में समरुद्ध के तट पर और समुद्र के भीतर है। छास्केश तत्‌० (5०) श्रीकृष्ण, द्वारका के अधिपति। द्वारा तत० ( पु० ) कारण से, हेत से, सहाग्रत से, जुरिया, निमित्त । द्वाराचती तत्‌० ( स््री० ) द्वारबती, द्वारका, जिलको श्रीकृष्ण ने बस्राया था, जो सुबर्णंमत्री द्वारका के नाम से प्रसिद्ध है । द्वारिका तत्‌» ( ख्री० ) द्वारका, द्वाराबती, चार धाम के अन्तर्गत सीर्थ विशेष ।-श्रीश (पु०.) [ क्षारिका + अ्रधीश ] क्रीकृष्णजी । छ्वारी तत्‌० ( एु० ) [द्वार + इन्‌ ] द्वारपाल, छ्वाररज्ञक, दरवान, पौरिया [बासठ । द्वापष्टि, छ्लिपप्टि तत्‌० ( वि०) दो अधिक साठ, ६२, द्रासप्तति, द्विससतति तव॒० ( जि० ) संख्या विशेष, | दो अ्रधिक सत्तर,७२,वहत्तर । [ दरवान, पौरिया । । द्वास्थ तत० (६० ) द्वाररक्षक, क्वारपाल, दूएी, हि संव० (अ० ) बारहय, दो बार ।--श्रतिध्रर ( इ० ) [ह्विःभुति + ४ + अच्‌ ] किसी बात को दो बार सुनने ही से जो स्मरण रखता हो । ह्विस्यु तत० (ए०) समास विशेष, यह ससास तत्पुरुप समास के अन्तर्गत है ।. [संख्या द्वारा शुणित । ( उरेेे ) ह्विगुण लव॒० ( वि० ) छुगना, दोहरा, दुबारा, दो | द्वितीया ह्ि्युशित तत्‌० ( बि० ) ह्विगुणीकृत, हुय्ुना किया छुआ, दो से जरब दिया हुआ | ह्विचत्वारिंशत्‌ तत्‌० (वि०) संख्या विशेष, दो अधिक चालीस, ४२, वयालीस | ह्विज॒ तत« (यु० ) [हछ्वि+जन्‌ ] दो बार उत्पन्न बाक्षणादि त्रिवर्ण, आह्यण , क्षत्रिय और वैश्य, इन चर्णा' की दूसरी उत्पत्ति जन्म और संस्कार से होती है अतल्ुब ये द्विज कहे जाते हैं | अणढज, परी, दाँत, दन्‍्त ।--पतिं (पु०) चल्ध्रमा, शणाक, चन्द्रमा घाहयणों के स्वामी हैं। श्रुत्ति में. लिखा है # स्रोमोञ्स्मार्क राज्य ” अर्थात्‌ सोम हम लोगों का राजा थानी शासक है ।--प्रंपा ( ख्री० ) आलबाल, बुक्त मूल में जल देने के लिये बनाया हुआ थाला । --प्रिया (ख्री०) सोमलता, सोम नाम की बह्ली । ( वि०) ज्रिबर्ण की प्रिय वस्तु (--बन्धु (पु० ) आह्षण के समान, अव्राह्मण, कुत्सित ब्राह्मण । वर्ये ( पु० ) श्रेष्डद आह्मण, उत्तम आाद्याण । --जुब (पु०) जातिमात्र का ब्राह्मण, नीचवाह्मण। --राज (पुृ०) चन्धसा, शशधर, शशाहु । द्विजन्मा तत्‌० (पु०) [द्वि+जन+सन्‌ ] विप्र, ब्राह्मण, दन्‍्स, पक्की, ज्षत्रिय, वैश्य | (बि०) दो बार उत्पन्न होने वाला। [ श्रण्डज, पक्षी । ह्विज्ञाति तत्‌० (पु० ) बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ह्विजावीय तत्‌० (गु०) ब्रिवर्ण सम्बन्धी । द्विजालय तत्‌० (पु०) [ ट्विज+ आलय ] वृक्ष कोदर, आाह्मण गृह, पक्तियों का स्थान, घोंसला, खोंता । द्विजिह तद० (१०) [ ह्वि+जिह ) सर्प, पिशन, खल, इधर की वात डघर कहने वाला, चुग़ल- खोर, छुगली खाने बाला । ह्विजोच्म तत्‌० ( घ० ) [ द्विज + उत्तम ] माझणों में श्रेष्ठ, श्रे्पप्ञी, गरुड़ । [एक रेखा विशेष । द्विज्या तत० ( स्री० ) [ द्वि+ज्या ] गोलाध्याय फी क्वितय तत्‌० ( बि० ) [ द्वि+ तब | शुग्म, दो । द्वितीय तव्‌० € वि० ) [द्वि+ तीया| दो को पूरण करने बाली संख्या, दूसरा, दूजा, दस । छ्वितीया तत्‌० ( ख्री० ) [ हवितीय +- आ ] गेहिनी, सार्या, तिथ विशेष, चन्द्रमा की दूसरी तथा सत्तरह्वीं कला की क्रिया का समय | द्वितीयान्त ( ४३६ ) डे द्वैठ द्वितीयान्त तत्‌० ( ति० ) जिसके अन्त में द्वितीया ; छ्विरूपी ठत» ( पु० ) [ह्िरिप + इन्‌ ] द्विमूठि, दूसरा विभक्ति का प्रययय हो । [वाली सख्या । रूप धारण करने वाला । द्विन्रा दद० (स्ली० ) दो या तीन की प्रण करने | द्विरिघ्र तत० ( घु० ) अमर, अऋद्क, अलि, मैँवरा ट्विल्य तत० ( धु० ) [द्वि+त्व ] हो सरया, वारदय । द्विभोजन तत० (पु०) दोवार भोजन । दिसिरा वचन । करण, एक को दो बार करना, दोहराना । | द्विवचन तत॒० ( घु० ) दो सल्या की बाचक विभक्ति, द्विवैचया तत्‌० ( ख्री० ) विशासा नक्षत्र, इसके दो द्विविद्‌ तत्‌० ( घु० ) वानर विशेष, देवताओं के शम््र देवता हैं। नरकासुर से इसकी मैत्री थी। यह घढा उपठयी डिधा तत० ( अ्र० ) दो प्रकार, हथर्थ, सन्देह, थ्नि- ... था| इसलिये बलदेव जी ने इसरो माराथा। स्चित, दिविध, दो मॉति |--कठ्प (पु०) सदेह दिविध तत्‌० ( श्र० ) दो प्रकार, दो भाँति, द्विधा। का विषय, थ्निश्चित तिपय्र, शक वाली वाद । ढिस्वमाध तत» (घु० ) ज्योतिष में प्रसिद लग्न विशेष । डिप तव० (पु०) [द्वि+पा+ड्‌ ] द्विरद, हाथी, गज। द्विहायनी तत० (खरी० ) [ द्वि+ह्वायन+ई ] हि- द्विपश्चाशत्‌, द्वापश्चाशत्‌ तत्‌० (वि०) सण्या विशेष, बर्षीया, दो वर्ष की श्रवस्था वाली बालिका । दो अधिऊ पचास, ९२, बायन। ' द्वोप ठत० ( पु० ) व्याप्रचर्म, व्याप्त, जल मध्यस्थ हिपथ तन» ( पु० ) दो मार्ग, दो ओर या मार्ग । पथिवी का सण्ड, जिसके चारों श्रोर जल भरा हुआ द्विपद्‌ तत० ( वि० ) दे पैर वाला, द्विपाद विशिष्ठ।.. हो । हिन्दू शाखाजुसार सात द्वीप हैं, ये सातों द्वीप (पु० ) मलुष्य, देवता, पत्ची, राचस ।-राशि | सात समुद्रो से बेष्टित हैं। उन द्वीपों के नाम ( ३० ) मिथुन, छुला, कुम्म, कन्या और धनु या | येहैं। प््वेभाग। $ जस्तुद्वीप, ? कुशद्वीप, ३ प्नचतद्वीप, ४ शात्मली- द्विपदी ( स््री० ) दे! पद का छन्द, दो पद वाला गाना। | द्वीप, £ क्राशद्वीप, ६ शाक्द्वीप और ७ पुष्फरद्वीप । दविपाद ( थु० ) दो पैरों वाला (पु० ) मजुष्य, पक्षी | द्वीपबती तत० ( खी० ) नदी, भूमि। अआादि दो पैरों चाले जीय | द्वीपवान्‌ तत» (घु० ) समुद्र, सागर। द्विपास्य ( पु० ) गणेश। द्वीपणतन्र तत० ( घु० ) छतावर, सतावर, औपध द्विपुस्न तत० ( पु० ) एक प्रकार का साँप, दुमुद्दा विशेष, शतायरि । साँप, द्विनिद्दा, राजसर्प, घुगुल । [वारण, गज । | द्वीपसम्भवा तत० ( खी० ) पिशडी सजर। द्विरद दव० (३० ) [ द्वि+ रद ] हाथी, दन्ती, करी, | द्वीपस्थ तत० ( घु० ) [ द्वीप+स्था+ ढ़] दीप में दविरदान्तक तव्‌० ( पु० ) सिंह, केशरी। [विपधर । |. रहने चाला, द्वीपवासी। द्विस्सन तत्‌» ( घु० ) [द्वि+रखना ] से, श्रढ्दि, | द्वोपिका तत्‌० ( खी० ) सतावर, शतायरि। द्वियगमन तद्‌० ( ुु० ) [ द्विर+ आगमन ] इनग- ६ द्वीपी तत्‌० ( ४० ) ध्यात्ष, चित्रक, चीता, वाघ। गमने, यहू फा पनि के घर दूसरी बार झआाना, गौना। | द्वीप्य सन्‌ ( ब्ि० ) [ द्वीप+ य ] द्वीप में डत्पन्न होने ह्व्ग्कि तत्‌० ( गु० ) [ दिर्‌+ उक्त ] धारदय कथित, वाला, व्यासजी का नाम । ललाग, डोह । दी यार पदा हुआ। द्वेप तव्‌» ( पु० ) हिंसा, शत्रुता, विरोध, डैरष्या, बैर, बिरुक्ति तव० (खत्री० ) [ द्विर॑+ रक्ति ] पुन घुन | द्वेपी दव० (बि० ) [ ट्विप्‌ + इन ] शर्त, बैरी, रिप, क्यन, एक यात को दो थार कइना, काय का विरोधी, अ्रमित्र।... हु पक दोष, यह शब्दगतदोष कड्ा जाता ई, एक | ट्वेष्ठा तत» (वि० ) [द्विप + ढुन ] विद्वेष+, हे परी । प्र में एक ही श्र्थ का बाचे शब्द यदि दो बार | द्वेप्य सव» ( वि० ) [द्विप+-य ] दोष का विपय, दोष आउजाय सो दिरिक्तिदोष होता हैं । करने योग्य व द्विरढ़ा तव॒० (ख्तरी० ) दो बार व्यादी श्ली ।--पति | द्वे सटू० ( दि० ) दो सस्यावाचक । - (० ) पिघया स्री का पति। द्वैत तद्‌० (चु०) दो, को अर का, सेद, सन्देह --शा +5 ्ु के ( ४३७ ) च्रचका ह या न श्वसन नर प्िनदन्तत्न++२+5८++-++ न्ञा कतवादी , भिन्न रे हियों 2 के आज कला हे क्र्स्थ तत० ( घु० ) दो रथारोहियों का पररुपर युद्ध । हे तवाद, मित्र ईश्वर का ज्ञान [ । कै प तद० ( घु०) द्वोष, हिंसा, बैर, विरोध । 7ादी (8०) [ #त+ बद+खिन्‌ ] जीव और द्नडशुल्ल तत्‌० ( वि०) [ द्वि+ ऑँयुल ] अँगुलि दय- ईश्वर का भेद जानने वाला, इंश्वर से जीव की | परिमित, वो अँयुलियों के बराबर की वस्तु । एथक्‌ सत्ता सानने वाला सिद्धान्त, साध्व आदि। * ० ( वि० प्रंजलि द्वै्व तत्त० ( आ० ) सन्देह, संशय, द्विप्रकार, ज्यक- शयजनि त० ( हि*)॥ हिंक हक 483: देह, संशय, , ज्यक्ः परिसाण, अक्षलिदय, दो अञ्ललियों से नापी हुई हे ग्योक्ति, दो खण्ड । | वस्तु । [अक्तर, सम्त्रविशेष, दो अक्षर का सनन्‍्त्र । द्वंघोकरण तत० ( घु० ) छेदन, खण्ड करना, ढुकड़े द्वद्नज्ञर तच० (घु० ) [टद्वि+अन्तर ] वर्णद्यय, दो ... करना, भेदन । ._ | दब्यणुक तत० (पु०) [दि+अणक ] परसाणदय, द्वेशाव तत्‌० ( पु० ) विश्लेप, अलगाव, पार्थक्य, दो परमाणु । ५... "रस्पर का विरोध, आपस का भगढ़ा,। द्वच्रर्थ तत्‌० (गु० ) [द्वि+अर्थ ] अर्थद्यक्त, दो द्वैपायन तह ( पु० ) ब्यासदेव की उपाधि | प्रकार के अर्थों का घाचक, ये वाक्य या शब्द जिनके हैमाठुर तत्‌० (घु०) गणेश, जरालन्ध राजा । (वि०) वो ,अर्थ हों, व्यज्ञोक्ति। दो माताश्ों से उत्पन्न, भगीरथ । द्व्यात्मक तत्‌० (प०) [द्वि+ आत्मक] मिथुन, कन्या, द्वैमाठुक ततत० ( छु० ) [ द्विमाद+कन्‌ | नदी ताल, घज्ञ, मीनराशि, द्िविध, दो अकार । और मेघ के जलद्वारा जिस देश सें अन्न उत्पन्न होता. द्ाहिक तत्‌० (बि०) दो दिन के अन्तर रतपत्ञ हो, वहाँ के घासी, दो माताओं के पुत्र, भागीरथ । होने वाला, दिनद्ववजन्म । च अ यह स्यक्षम का उन्नीस्चाँ अछर हैं, इसे दन्यवर्ण धकधकाला दे० (क्रि०) धड़कमा, थरथराना, काँपना, कहते हैं; क्योंकि इसका उच्चारणस्थान दन्त है । कम्पित होना ! घर तत्‌० (पु०) धन, ब्रह्मा, छुवेर, धर्म । अरकधकी दे० ( सत्री० ) कंपकपी, थरथराहद, कप, ' भंघला दे० ( छ० ) देगा, धोखा, छुल, कपट, चकमा, बेपथु, थरथरी, घबराहट, हृड़बड़ी, फेफड़ा, फुप्फुस । प्रतारणा । .धकेलना दे० ( क्रि० ) धक्का देना, उकेलना, ठेलना, अंधलाना दे० ( क्रि० ) धोखा देना, चकमा देता, धक्का देकर हटाना। छुलना, प्रतारित करना । अकेल देना दे० ( क्रि० ) धक्का देना, आधात से पीछे अंसना दे० ( क्रि० ) घुसना, पैठना, प्रविष्ट होना, हवाला, रोक देना, ठेल देना । गड़मा, वेकस पड़ना, फँलना । धक्का दे” ( छ० ) थआ्राघात, अ्रभिधात, रेला, भरोंका, भ्रंधक दे” (वि० ) उद्यमी, परिश्रमी, फामकाजी, ठेलाव ।--देना ( क्रि० ) आघात देना, रेलना, धंधावाला, व्यवसायी, व्यापारी । मोंका देना। [दवोची । धंधा दे० ( छु० ) कास, उद्यम, व्यवसाय, व्यापार। | धरकमधका दे० ( पु० ) रेलपेंल, ठेलाठेली, दबोचा- भंधार दे” (वि० ) उदास, वेकाम रहने वाला, | धक्काध्रकी दे० (स्री०) धक्रमथक्का, रेलापेल, ठेलादेली | निकम्मा, एकाल्ती, निराला, निठल्ला। | धक्कामुक्की ( खी० )मारपीद, हाथापाई, मुठभेढ़ । घंधारी दे० ( ज्ली० ) उदासी, शिथिलता, किसी काम | धगड़ा दें* ( घु० ) घिंगरा, उपपत्ति, जार, घिट, में चित्त न देना । ॥ भड़आ। लिट बदलना, छुटपटाना । भकधक दे० ( घु० ) द्योतमाच, प्रकाशमान, उज्ज्वल, | अ्रगोलना दे० ( क्रि० ) लोटना, लोद पोट करना, कर- दीप्तिशील, घद्क, कम्प, केपकपी, थरथर । | श्चका ( ४० 9 आधात, झटका । धज ( ४ढ़ेद ) धननन्‍्तर धज्ञ दे* (पु०) दीलडौल, दाटवाद, साजवाज, श्राकार, आकृति, व्यवहार, चालचलन, दशा, अउ्स्था, रूप, डौल, चाल, श्रासत । किता का एक सेद । | भ्रज्ञभड्र तद० ( घु० ) ध्वज्षमद्ग, रोगविशेष, नपुस- भ्रजा तदु० (खी५9 ) ध्वज्ञा, पाक, कपड़े को कही । घजीजा दे० ( शि० ) रूपयान, सुख्ष,सुस्दर, सुद्ील सुल्तरूप, सनीला । अ्रम्जियाँ उडाना दे० ( वा० ) अपमानित, करना, अप्रतिश करना, दुर्नाम करना, अश्रशा करना । धम्जियाँ करना दे० ( वा० ) दुस्डे कड़े कर देना। भज्जी दे" ( ख्री० ) चीर, उतरने, दुकडा, कागज़ या कपड़े फा कतेरत । |; भड़ दे० ( पु० ) देह, काय, शरीर, गले से नीचे का शरीर । यथा |--- “सिर घड़ से अलग हो गया, वीरों की तलगारे । अपनी चरुचझाहट से शत्रुओ को चोंधियाती हुई धड़ से सिर अलग करने लगी ॥? ध्रड़क्का दे० ( घु० ) गम्भीर ध्वनि, दनक, दर, मय। भ्रड़क दे० ( श्री० ) फहक, भय, दर, भय से उत्पन्न स्याकुक्षता, हृदय का चोम, धुकपुकी, कम्प, सहम। घड़कना दे० ( क्रि० ) मय करना, डरमा, कॉपना, भय से ब्यादुल होना, थरथराना, धुफ्घुकाना, धद्घद्राना, फ़कना । [ददल | धड़का दे (श० ) भय, सन्देद, दुदिया, दुचित्ता, भ्रढ़काना दे० (फ्रि० ) मर दिखाना, डरयाता, ब्याडुल् करता, क्पाना,चिन्तित करना, सन्दिग्ध करना, दुदिया में डालना । धड़धड़ाना दे० (क्रिए ) सइफडाना, छुटपटाता, पक्चियों का पर फाइना या फटफटाना । धरड़वा थै० (पु० ) पक्ति विशेष, मैना, सारिका। धड़ो देन ( पु ) गया, समूह, डाइुओं का समूह, पक, तोल, जोस, सब, ओर । घरड़ाका दे ( ३० ) धमक, शब्द, भारो शब्द, कदक। | धड़ी दे० ( स्री० ) पाँच सेर को तौल, रेखा | | धत दे ( स्ली० ) द्वायी हॉस्ने का शब्द, हाथियों के - चलाने के लिप्रे, सह्ढेदायक शब्द, तिरस्मराथे खबरें, दुतकार । [ वर्णेसइर, जारज | धपरोंगर दे० (वि० ) छुजात, नीच, अघम, दोगजा, ] घतूरा तदु० ( घु० ) घत्तर, एक बुक्ठ और उससे पुष्प का नाम, यह विपैला होता हैं, कहते हैं यह महादेव को बच्च प्रिय है। धतूरिया दे” (वि० ) कपदी, चली, बहुरूपिया। भ्रधकाना दे० (क्रि०) प्रखल्ित होना, भभऊ उग्ना, जल उद्धना, एकवार ही जल उस्ना ! | घधच्छर तदू० ( घु० ) घस्पात्तर, कविता फो पर दोप । कविता के आहि सघ्य या अन्त में अशम- फलठागी अक्षरों का झाना दग्धाज्षर था धध्च्चर कहा जाता है। शआ्ादि में ह, ग, गे, मध्य मे र, ज, सृ और अन्त में क, ८, श, अथुभ हैं । धन तठ० ( पु० ) बारह राशियों में से एक, अये, माल, हवच्य, सम्पत्ति, दौलत, वित्त, विभये, स्थावर और जहम सम्पत्ति, गणित में जोढ का चिन्ह, + (०) धन्य, भाग्यवान |--केलि ( ० ) ढेर, धनाधिष |--खर ( ए० ) धान का सेढ़ ० गविंत ( पु० ) धनगर्बी, धन से भ्रहद्कारी, घन उन्मत्त +--वैश्टा ( खरी० ) अ्र्थचिन्ता, धन पाने की इच्छा । घनक दे० ( स्री० ) कारचोबी, सोना या घाँटी के वार से बनी वस्तु, जुड्ाव, गोटे या सामान । धघनकटी दे० ( खी० ) पु प्रकार या कहडां, धाने काइने का समय | घनअ्ेय तव्‌० ( पु० ) अगुन, श्रम, वायु विशेष, शरीरस्थििन बायु, चुत्त विशेष, चित्र बुद्ठ, नाग भेद, जलाशयाधिपति। पुक सस्हृत कवि का नाम । यह घारानगरी के राजा मोजराज के पिदृम्य >मुभराज के समा पणिदत थे। इनया बनाया इंधा सस्झत में एक ग्रस्य है जिसका नाम “दशहप्का है। इस ग्रन्य में केबल माठक के लक्षणों ही पा बर्णुन है। इनके पिता का नाम विष्णु था। महा राज मुज्ञ का समय १० थीं संदी या अस्तभाग माना जा सकता हैं, तदनुसार उनके समापरिद्त घन मैय का भी वही समय मानना होगा । घनत्तर दे० ( पु० ) धनी, घरघात, धनिक, श्रतापी, पुऊ पौधा पिशेष जिसका पत्ता सद॒दा होता है। धनतेस्स ( द्वी० ) कार्तिक इृच्ण ग्रयोदशी । घनन्तर तद्‌० ( घु० ) घस्वतरि, देववैच, चिकिसर, घनद्‌ ( 8३६ ) घनुवी ससुद्र से निकाले हुए चौदह रलों सें का एक रत्न । धनद्‌ तव० (पघु०) [ घव + दा +- ड्‌ ] घनपति कुबेर, घनाधिष, ख़जानची । ( वि० ) दाता, दानशील, बदान्य ।--नज्ुज्ञ (छु० ) (धनद + अजुज] रावण, दशानन | अनपति दत्‌० (छु०) कुबेर, धनाधिप, घन का देवता, कुबेर का दूसरा नास, शरीरस्थित वायु विशेष, कहते हैं यह वायु ब्रह्मा के मुख से निकला और नहीं की आज्ञा से भूर्ति धारण करके घनपति नाम से परिचित हुआ । संदनन्तर उसी मूत्ति से ब्रह्मा की आज्ञा पाकर देवताओं के धन फी रक्षा करने लगा । “>बासन छुराण । धघरनपिशासिका छत्‌० ( सत्री० ) धचाशा, धनतृष्णा, घन आप्त करने की व्यर्थ ठृष्णा | [कता, घववान्‌ । धनबाहुल्य तत्‌० ( छु० ) अर्थांधिक्य, घन की अधि- धनमद्‌ तत्‌० ( छु० ) विभवगर्व घन होने के कारण अहझृर, थनी होने की उसक, धनवान होने का घमण्ड । [का लोभी | श्रनद्धुब्ध तव॒० ( छ० ) धनलिप्सु, अर्थलोभी, धन श्रनवततों तव० (खरी० ) [ धन + चत्‌-+-ई ] धनिष्ठा नक्षत्र, धनान्विता स्त्री, धनवान सत्री । अनवन्त सदू० (छु० ) धनवान्‌, धनी, मालदार, ० अनिक, लक्मीपात्र, धनाव्य | किंगाल, निर्धन। धनहीन तत्त० ( वि० ) धनरहित, धनशून्य, दरिद्, धरनागम तस्‌० (छु०) [ धन + आगस ] घन की आय, धन का आना, द्रव्य का सिलना। धनागार तत्‌० (छु०) [ घन + आयगार ] धन रखने का स्थान, ख़जाना, भाण्डार । घनाछ्य तत्‌० ( छु० ) [ घन + आय ] घन विशिष्ट, अर्थशाली,, धनी, ऐश्यशाली, घन सम्पन्न, अमीर, मालवर, भालदार ! ध्रनान्‍्ध तद्‌० ( छु० ) [ घन + अन्ध ] अहक्करी, घन गर्वित, धन के घसंड में अल्था । घनाधार तत० ( छु० ) [धन + आधार ] धन रखने का स्थान, धनागार, भाण्डार, चैंक, कोष, वाक्स, संदूक आदि । धनाधिकृत तत० ( घु० ) [ घत + अधिकृत ] कोषा-_ ध्यक्त, खुजाडी । [ घिपति, धनेश्वर, धनाधिकारी । धनाधिप तत्‌० (घु०) [धन +अधिप ] कुबेर, धना- अनाध्यक्ष तत्‌० ( पु० ) [ धन+अध्यत्त ] कुबेर, धघनरक्षक, खजाबी, भण्डारी, रोकड़िया । घनाउज्जन तद्‌० ( छु० ) [ धघव + अर्ज्जन ] धनलाभ, घन का उपाज्जन । [ कृपण । अ्रनार्थी दत्‌० (घु०) [ धन + अर्थी | ल्ञोभी, लालची अनाशा तत्‌० ( सत्री० ) [ घन + आशा ] घन पाने की आशा, धनतृष्णा, घन की चाह, धनाभिलाप । घनाश्ती _तद० (स्त्री० ) ३ धनेश्वरी, रागिणी विशेष, आनासरोी तद० (खत्री० ) 6 एक छन्द का नाम । चनिक दत्‌०.( घु० ) [घन + इक ] महाजन, धनी, धघनविशिष्ट, स्वामी, अझ्ु, बांहरा ।. [मसाला । धनिया तद॑० (स्त्री० ) धन्याक, स्पनाम भसिद्ध धघनिष्ठा तत्‌० ( सत्री० ) त्तेईसर्वा नक़तन्र। $ अनी तत्‌० ( छु० ) धनिक, धनाव्य, धनवान्‌ , लच्मी सम्पन्न, प्र, स्वासी, पति, महाजन, अधिकारी । घर) घलप तद॒० ( घु० ) घनुष, नवसराशि, चाप, कामुक, चार हाथ का परिमाण । घनुपद तदू० ( घु०) चिरौंजी। धन्ुुकधारी तदू० (४० ) धन्रधारी, बाण चलाने वाला, तीरअन्दाज़, कमठैत । घजुकी दे० ( ख्री० ) घनुवी, घजुपी, छोटा धलुप । चद्र्धर तेत० ( छ० ) घजुर्धारी, धालुष्क, चाप घारण करने बाला । ह अज्ञुप तत्‌० ( छु० ) धज, कार्मुक, चाप। धरद्धुपो तत्‌० ( स्री० ) रई घुनने का यल्त्र धनुष्ड्रार तत० ( घु० ) ज्याशब्द, घलुप के रोदे का शब्द, धज॒प से ब्राण फेंकने के समय रोदे का शब्द धजुर्विद्या तत्‌० ( ख्री० ) घलुप के विषय की शिक्षा देनेवाली विद्या, बाण चलाने की विद्या | धुर्वेद्‌ तव॒० (पु० ) [ धन्ुप--चेद ] घलुविद्या गोघक शास्त्र, धुुप का चलाना, खींचना, चढ़ाना आदि की शिक्षा जिस शास्त्र में दी जाती है। इस शाखख के अकाशक भहिप विस्वामित्रजी हैं । यह अयर्व- चेद का चन्ढ है। चघुच्ी तद्‌० (ख्री०) छोटी कमान, छोटा घनुप | चुद ध्रनुद्दी ३« (ब्री०) थोटा धनुप, खेलने की घनुवी । घनेश, धनेश्यर तत्‌० (१०) घताधिपति, कुबेर । धघनेछ्ठा उदु० (१०) घनेर, कुषेर, घनाधिप, गुदका - चिप, यक्राज । [ सर्मेच्धनी । धन्नासेद तदू० ( पु० ) घनश्रेष्ठ, बहुत घनी, झा, धक्षोदा दे० ( पु ) घन के नीचे छगाई ज्ञाने वाली रकडी, धुनी | धन्य तत्‌« ( १०) [घन +- थ] दृचर्र्मा, साथु, भाग्य- वानू, पुण्यवान्‌, सुकृती, श्रेष्ठ, भ्रमन्नता पूर्वक आश्चर्य बेधक शब्द |--मानना (वा०) धन्यवाद करना, उपक्रार भानना, उपकृत द्वोना बाद ( धु० ) साधुवाद, प्रशंभावाद, स्तुति, छ्तव, आशीष (“-धादी (वि>) ४पकृत, कृनज्ञ, स्तुतिकर्तों, गुणागयक, मत, यन्‍्दी | धन्या तद॒० ( ख्तरी० ) [ धन्य +आ ] कृता्षां स्रो, * भाग्यवती स्त्री, श्रेष्टा खली, धनिया, भराध्षलकी, पक नदी का नाम | घन्याक तद्‌ ( पु० ) [ घस्पा +# क ] धनिया । घरप तव॒5 ( पु० ) धन्परतू, घनुप। धर्वहू त्तद० (३० ) [घनु+भक्न | पन्शन पूछ विशेष | धर्वदुर्ग बद॒३ ( पु० ) निश्बंठ देश, जछशुन्प स्थान, मददे., मारदाई | घन्वन्तरि छव्‌० (३९ ) देब्चैच, दिवोदास, समुद्र मस्पत करने से यह इशपच्ध हुए थे | सुछठमकोघ महपिं दुर्वाता छे शाप से इन्द शक्ष्मीअष्ट हा गये थे, इसी करण अद्भा ने समुद्र सपन करने के जिये देवताओं का आज्ञा दी | लक्ष्मी चंद्रमा आदि दे साथ देवदैध धम्वन्तरि मी निकल्ने थे। धन्वन्तरि समुद्र से निकछ कर अपने सामने विष्णु हे देखध्र कहने टसे, प्रमो ! मैं आपका पुत्र हूँ सपए हएाकर झुखकी मी यश का भाग प्रदान करें, और मेरे रहने के किये स्थान बता दें । विष्णु ने उत्तर दिया, वास | यज्ञ रा भाष दैवताओों में बट झुका है, अब तुमझे यज्ञ का माय देना मेरी राक्ति के दाहर की दात है, दूसरे जन्म में हमग्दारी चट्टी असिद्धि होगी । गर्मावश्या ही में अधिमादि योश की सिद्वियाँ तुमझे। प्राप्त हे जादेंगी चर ( ४४० ) घमाघम इसी शरीर के द्वारा तुम देवस्द प्राप्त कर सगे बा ले।छोपडार के किये आयुर्वेद को श्राठ भार्गो में विमक्त करोगे । यही दूसरे जन्म में काशीरज दिवेदस हुए थे। इनके बताये अन्य का मास चन्तन्तरि संद्विता है। थे अ्धानत शसपत्तन्त्र के चिकित्सक थे। (२) मद्दायाज़ विक्रम की समा के नवरक्नों में से पक रत्न, मे खीध्टीय छुठवों सद्दी के हैं।घद- कपेर,हपणक आदि इन्हीं के समकालीन पे | इनझे शनापे किप्ली भी ग्रन्थ का झ्राज तह पता नहीं चला है, दा नवात्ों के रहो हों में कतिपय रलोक, इन नाम पे प्रसिद दें । ये श्लोक भी इनकी अ्रदृछुत कवित्व शक्ति के पारिचायक हैं । धन्ववास तध्‌( पु० ) नवासा धन्बा वत्‌० ( ९० ) सददश, बिज्जेंक देश |-फार ६ गु० ) घजुप के आाकारवाक्ा | च्पों तु" ( पु०) पुधारी, पाजुष्क) घप दे० ( घु० ) चपेट, धप्पढ़, तमादा | घपथधप देन ( गु० ) रवेतदर्ण, खज्बऊछ, खप्छ । धपाड़ या धप्पड़ दे० ( धु० ) दौड, सर॒पट, घावन। चप्पा दे० (१०) धोखा, घढ, चपेट, करू, ध्पवाद । धब्या दे० (१० ) दाग, बुरा जिन्द ! घम ( स्री० ) धमक । घमक ( ख्री० ) मददा यह शब्द, भ्राधात से इसपन्न शब्द, पैरों की ध्राइट | + धप्तका दे* ( घु० ) वेफ़ैल पस्तु के गितने का राय; घम्तक । धमकाना दे? (क्रिब) शॉटना, मिडकना, ड0ना, भय, दिखाना, घुदकना । घमरूाहद दे० [ ख्री” ) घुड़ढी, मिद्रकी । घम्रघूसड़ दे० ( वि० ) मादा, स्थूड, तंदिक्ष, बहुत मो, निदुंदि | घप्तनी तद» ( खी-) [घम्तत + हू] ताही,रिवा, नस । घमाका दे० ( पु०) किसी भारी बस्तु के सदा गिरने का शल्र ! श्रमायोकड़ी देन [द्धी०) रोबा,॒ुलूगपाढ़ा,फैलाइलड | घमाधम्र दे० ( पु) रुगातार पैर या किसी अत्य दस्तु के प्रीटन का शल चेमार ( उ४१ )* घर्म धमार, घमाल दें- (पघु+) चाल विशेष,द्धेत्ली से गाया जाने बाला गीत विशेष, चौताल | घमोकता दे? ( छ० ) एक प्रकार की खंजरी । घम्मिदल तत्‌० ( घु+ ) संयतकेश, बनायी हुई चोटी । घर दे० (स््री०) घरती, भूमि । छु०) घड़, देह, काय, सिरद्दीन शरीर, सिर धे नीचे छा भाग (क्रि०) पकड़ । घरकर दे० ( स्री० ) धड़क, भय, डर, ब्याकुछता ) घरक्ा दे- ( पु० ) घड़का, गम्भीर ध्वनि, भयदायकू ध्वनि, छृद्य का कस्पन | धरकी ३० ( क्रि० ) घढ़की, धरूघकाई । घरण, धरन चत्‌० (घु७ ) [ ६+अनद्‌ ] परिमाण विशेष, २७ रक्ती, एक एक का दसर्वा द्विस्सा। कड़ी, स्वर, नाभी ।--उखा इना ( वा० ) नामी रटछना, पेट की नाड़ी का बिगढ़ जाना [ घरणी तत्‌» ( खी० ) [ छ + श्रनट +ई ] एथिवी, मेदिनी, नाढ़ी, म्रूल विशेष, शाल्मकति चूक । >-तल्न ( घु२) अ्रत्रवीतल, शधिवीत्तल, बसुमती, घश्चुघा। पाताल । - धर ( घु० ) शेषनाग, अनन्त बिष्छु, पर्वत, पदाड़, राजा ।|-पति (घु०) मूपत्ति, महिपाल; राजा +-पाल्ष ( छ० ) राज्ञा, सहीपति ।--छुता ( खरी० ) सीता, जानकी | घरत दे० ( क्रि० ) घरते ही, रखते ही | धरती दे ( स्त्रौ० ) प्रथ्वी, पूथिवी, सूमि । घरना दे० ( क्रि० ) अठढण करना, पकइना, रखना, अधीन करना |-दैना ( चा० ) पुक प्रकार का हठ, जब कोई ब्रली महुष्य हुर्वज्ञ मनुष्य के किसी कारण से दुश्व देता है, इल समय दुरबेल्ठ मजुप्य प्राण देने के लिये श्रथवा दुःख से त्राय पाने के किये बली मनुष्य के घर पर बैठ जाता दै और खात्ता पीना बिलकुच्र छोड़ देता है, इसे ही धरना देना कहते हैं । घरनैत दे* ( घु० ) घरना देने वाला, हढी; दुराप्रद्दी | घरपना तद॒० (क्रिः ) घर्षण, मध्सन, डॉय्ना, दुबाना, क्रोध करना । घरहर दे० (स््री३) सहाय, अवलस्द, आश्रय, यधाइ-- “यद्ठि संसार असार सेंद राम नाम श्रुतिसार रवि सुरेपुर धरदर करे नरहरि नाम बदार हे --भहाद चरित्र । घरन्ता ( यु० ) पकदने चाज्ा । घर तत्‌० (स्त्री० ) [ ४+अचछू+आ ] एथिवी, झूमि, गर्भाशय, से, नाड़ी, मदादान विशेष | +तल्ल (४०) यूनक, मर्व्यलाक, एथिवीतद्ध । - धर ( छु० ) विष्खु, हु पर्वत ।--मर (५०) [ घरा + ्रम्र ] विप्र, ब्राह्मण, भूदेव। धघराना दे० ( क्रि० ) ऋणी द्वाना, अधीन छ्लेतना, घारगा, रखाना । घारित्नी तत्‌० ( स्त्री० ) पृथ्वी, घरणी, भूमि । धरोद्दर दे० ( पु० ) न्यास, थाती, मिरो रखा हुआ द्रब्य, बन्‍्धक, रा के दिये रखा घन, अ्रमानत | घरोौवा दे- (9० ) परुत्तविवाह । घत्तंब्य दत्‌० ( ग॒ु० ) [ छ+ तब्य ] घारणीय, आह, स्थातब्य, प्रहण करने योग्य । घच्चों चत्‌० (पु०) धारण करनेवाला, ऋणी, कर्जवन्द । शर्म तत्‌० ( पृ०) [ €+मन्‌ ] छमकर्म, पुण्य, झेय, सुकृत, न्याय, आचार, उपम्रा, यज्ञ, अ्रहिंस्रा, उप- लिषन, उत्तम भाचार, स्वभाव, रीति, जाति- ब्यवहार, पंघ, सतत, कर्तव्य, व्यवस्था |--कर्म ( ४० ) शुभ भाग्य बनाने बाली क्रिया, धर्मकाये! “+काय ( ३० ) छुद्ध ।--कृत्य ( ४० ) धर्मकर्म, शास्त्रविदित कर्म ;--कोष (छु० ) धर्मेसंचय । >-चारिणी ( स्ली० ) सहर्र्मिणी, जाया, भार्या, चनिता, प्री, ख्री, लवा विशेष ।--चिन्ता' (स्री०) घुण्यभावना, सत्कमे की चिन्ता ।--जीवन (छु०) धर्ममय जीवन, घर्मानुयायी ध्राह्मण ।--क्ष (5०) धर्म क्ञानयुक्त, धर्सिष्ट, धासिक ज्ञान (घु० ) . परलोक सम्बन्धी शुभाशुभ छान, कर्सन्य ज्ञाम, घर्मयोध +--तत्व (छ० 9 धर्म की अथार्थता धर्मरहस्य +--द्रोंही ( बि० ) धर्मघाती, पापिष्ठ, पापी, वेदनिन्दक, शाखनिन्दक |--घुरूघर (वि०) घार्मिक नेता, धर्म के कार्य्यो' में आगे रहने चाला, धर्मात्सा, धर्माचार्य ।--ध्वज्ञ--ध्वजी (वि०) धर्म की घजा वाला, दारिसिक, पाखण्डी, कपटी, किसी स्वार्थ के कारण घर्म करने वाला, दिखाबे का धर्मात्मा --निम्ठ ( छु० ) घर्मिष्ठ, घुण्यवान्‌ , धर्मस्थापफक ।--पतल्ी ( स्ली० ) अपने गोत्र की विवाहिता झो, शास्रदिथि के अनुसार शा० पा०--*६ धर्म ( ४४२ ) घर्मव्याघ िभिाततन्‍तनततत_तमतंेतम+3+#त#8तरव-............, विवाद्दिता पत्नी, धर्म की ख्री, दे की कन्‍्या। “पुत्र (पु ) युधिष्ठिर, नर नरायण, वह पुत्र । जिपछे वचन देशर पुत्र मान लिया गया हे । ' +घुद्धि( खो० ) घमं भैर बअधम छा विचार । “प्राता (९०) सहपःठाध्यायी, साथ पड़न वा रा, सदृपादी ।--भीरझ (गुट) निसझो धर्म छा भय दे + -सूक्ति (चु०) धर्म का स्वरूप, घर्मास्मा, धर्मा चतार ।-याज्ञक (ए० ) एरोहित, पुराण बाचन चांला, पज्ञ कराने वाढा ।--राज़् (प० ) धर्म से राज्य चलाने बाला, स्यापी राजा, यमराज, युधिह्ठि का दूमरा नाम ।-शाता (स्रो* ) उपासनागृह, पूछा कराने का घा, दानगसूड, दान करने के लिये दनाया हुश्रा घर, भ्रतिथिशाक्रा, धर्मा्थ सृढ, विचारस्थान ।--शा सत्र (१०) मझु आदि अहफियो। के बनाये शाख्तर, व्यवस्था शाघ्र, स्छूतिशाश्र, [मलु, श्रक्रि, विष्णु, दारीव, याक्षवनत्वय, इशना, भ्रट्टिरा, यह, आपत्तम्य, संतरे, काय यन, दृदस्पति, पराशर, स्यास, श्र, लिसित, देह, गौतम, शात्ातप, वशिष्ट इन सद्धपियों छे ययावे प्रल्‍्व घर्मशाख्र कह जाते हैं । ]--शोल (वि०) चार्मिछ, पुण्यशीज्, पुण्यात्मा |--समा (स्वी०) न्‍्यायातूय । “+सद्दिता (०) स्घुनिशासतर, घर्मशाप्तन ।-सूत्र (ए०) अमिन प्रणीत पुक प्न्प विशेष | धर्मे तत्‌« (पु० ) देच विशेष, बहा वे दक्षिण चक्र से इनकी उत्पत्ति हुई है, यराहपुराण में लिया है कि खष्टि उध्चत्न करमे समप बक्षा वे। चही चिन्ता ड्डुई थी। कसी समय उनके दढिण अद्भ से पक मनुष्य इंसप्न हुआ निम्द्धा नाम घर था। बह घुरप कानों में श्वेत कुणड>, कण्ड में ज्चेत माला आर भड्ठों में चन्दन छुगाये हुए था | बढ़ाए ने कद्टा-- एम चुुष्पाद शृश्म के समान हो, अतपुत्र तुम ही स्पष्ट होकर इस रुष्धि का पाजन करे। । इसी ऋरण सल्ययुग में घ॒म्म चतु-पाद, श्रेता में व्िशाद, द्वापर में दिपद अर कदछि में केव पक बाद द्ेघ्र प्रजा की रचा करता है।वुण, दब्ब, क्रिया घर जाति येही धर्म के चार पाद हैं, देद में घ॒ममं का ब्रिश॒क् नाम मी पाया झाता ह। इसके दे। सिर और सात हाथ ईं | पएझादयी ठिथि में धर्म का बास है इसी कारण प्‌ छादी तिथि के उपयास काने बालों का वातक दूर होश है। धर्मद्रास रत्‌० ( पु० ) यढ पक संस्कृत के कवि थे) इनका बनाया विदग्धमुसखभण्डन नाम ग्रन्थ वाया जाता है | टोगे का घनुमान है कि ये वौद्धघर्म के पत्चयाती थे | इनके स्थान और समय के विषय में किसी मे मी कुदु हीक पता नहीं है, तथापि कतिपय दिद्वानों का अनुमान है कि ये रवि मगध देश के बासी थे; क्योंकि मगध देश में ौद्धयम का विद्येष प्रचार था ओह इनका सप्रय खुट्ीय ८ वीं सदी के पूर्व ही घाना चादिये। क्योंकि इनके बाद का प्मय शह्ूराचाये का है जो बोद्धद्वेपी थे। करतिपय विद्वानों की स्म्मति है कि धमेदास भोजन राज से बहुत अजचीन हैं, क्योंकि इनडी जेख* रौली पुरानी नदों मालूम द्ेतवी । | घर्मस्येज्ञ तत> (५. ' मिथ्रित्धा के जतकवशी पुक राजा का नाम | दण्डनीति, वेद प्ौर उपनिपत्‌ में इनछा भ्रगाव पाश्डित था, एक समप सुटमा नाम की एक संन्‍्यासिनी मेगधम की चर्जा करतो हुई और अर्मप्वज्ञ की पिद्वत्ठा की प्रशंछा करती हुई मिथिटा में उप स्थत हुई । धरमंध्वज भ मेक शाख सम्बन्धी ज्ञान क्री फीछा लेने के ह्टेतु उसन धपना रूप छे।ड कर एच सुन्द/ स्त्री का रूए धारण किया ओऔर वह सिवा मॉँयने के ब्याज से राजा के निकदर उपत्यित हुईं। बढुत देर तक राजा! उप सैन्पासिती से उमर सम्बन्धी बाते करते रहे | अर 7 में उस्र स्प्री का मेहरा सम्बन्धी ज्ञान देखकर उन्हें धाश्ये हुफ्रा। घर्मययाघ तद॒० ( पु० ) मियिह्तदासी एश् ब्याघ का नाम, यहें पूर्वजन्‍्म में श्रोत्रिय थ्हयण था | पृष्ठ समय किसी गजा के साथ वद वन में अद्देर खेट ने गया था, वर्दा उस श्रोश्रिय प्राह्मए ने ग्टगहम्घारी फिसी वपम्दी के बाण मारा | उसी के शाप से इसे शूदयेनि में जन्म लेना पढा | धर्मम्याघ भ्रपनी जाति के अनुरूप मात विक्रय चादि का दाम करता था, पान्‍्तु उसका घर्मज्ञान बहुत चढ़ा बढ़ा था। यहुत दूर दूर के विद्वान्‌ ग्राक्षण इससे घर्मज्ञान सीधने झाते थे | धर्व्मामा ( छ४४३े ) चातु : घर्मात्मा तत्‌» ( पु० ) [धर्म + आप्मा ) साधु, पुण्य- शील, धामिक, धर्मनिष्ठ । धर्माश्िक्तरण ततु> (9० ) [ धर्म +-अ्रधिष्रण ] राजा का विचार स्थान, न्यायाबय, विचारासार, चर्माच्य । धर्माध्िकारी तत० ( पु ) [ धर्म + अधिकारिय ] विचारकर्ता , विचार रू, धर्गाव्यक्ष, प्ामिर, ब्यव- स्थादाता, महाराष्ट्र ब्राह्मणों की उपाधि चिशे । धर्माध्यक्ष तत्‌ ( पु० ) [धर्म + अध्यक्ष] बिचारकर्चा, स्यायमूत्ति, विचारक, न्‍्यायाथिप | घर्माउुसार तव० ( पु० ) [ धर्म + अछुसार ) धर्म के अजुसत, धर्स की रीति से। घर्मारण्प तव्‌० ( एु० ) [ धर्म + श्रण्य ] पुण्यस्थान ,.. विशेष, तपेबन, सहर्पियों के थ्राश्रम, पवित्र बन | घर्मावतार (१०) [घमे + ्वतार] धर्म करा अवतार, चर्म का सर्वषइ्टव, बड़ा घार्सिउ । धघर्मासन वत्त्‌० ( घु० ) [ धर्म + श्राखत ] विचार का आसन, न्यायकर्ता के बैठने का श्रासन ! धर्मिए्ठ तत्‌० ( घ० ) [ घर्म +इष्ट ] साधु, पुण्बशील, पुण्यवानर्‌, धर्माष्मा, धार्मिक । धर्मी त्त्‌० ( चि० ) एण्यवान्‌ धर्मास्मा, साधु | धर्मोपदेशक तत्‌० ( पु० ) [ धर्म + उपदेशक ] गुरु, अआचाये, धर्म के बिपप्र का उपदेश देने बाला। धर्म्य तव्‌० ( वि० ) [ धर्म +-य ] न्‍्यावय, उचित । घर तव्‌० ( पु० ) पति, स्वासी, भरता, स्वनाम प्रसिद्द दक्ष विशेष । घवल्ल ठव्‌* (१०) श्वेतबर्ण, शक्क, धौला, इच्ठ विशेष, खफेद ] ( वि० ) सुन्दर, श्वेतगुणयुक्त |-पत्त शक्ल पढ़, हँस । ध्चला ( ख्री० ) सफ़ेद से ( शु० ) सफेर । -गिरि ( पु ) द्विसाक्षय की एक चोरी । घचलाख्य दे० (४० ) पिधाज | [ भरते दं । धवा दे० ( पु ) जाति विशेष, ऋद्दार जाति, जो पशनी घ्रप तत्‌र ( 9० ) [धिप्‌ + अकू ] प्रग्मता, प्रगल्स्य, अमर्प, साइस, घुश्वा । [सर्वित, घीर 3 घर्षक तत० (गु०) [चित + अक] सादखी, अहक्कारी, चर्पण तब (पु: ) [ घूर कअनट्‌ | साइसकरण, परामवकरण, दुष्ट्ता का ब्यवद्ार, रति । घिंत ठत० ( ६०) [ घूप _+णिच्‌+क्त ] परिसूत, पराजय प्राप्त, हारा हुआ | [पिठना | घसझना दे ( क्रि० ) घना, घल जाना, ग्रिर्ना, घसन दे ( ख्रो०) पेन भूमि, दछदक्ष ,भूमि, घसने येग्य स्थान | + चना दे० ( क्रिए ) घुपना, गड़ता, पैठना | चन्तात, घस्ताव दे० (५० ) दटदऊ, पह्किल भूमि! धप्ताना दे० [ क्रिए ) घुष्णना; पैठ(ना, सडाना ] घांगर दे? ( पु+ ) पुक हिन्दू जाति विशेष, जो धायः कियानी श्रार कुत्तीगीरी काती है । घाधनता दे० ( क्रिः ) भक्रेसदा, अ्रफुाना, श्रनुचित रीति से खाना, किसी अपराधी को पकड़ कर चलान कर देना | घाँधल दे० ( क्वी० ) निष्ण्येज्नन ऋमडा, नडख्टी; किया कारण की लड़ाई । ( खो० ) अध।घु-धी । ( गु: ) रूपड्ालू, व्टड़ाका, कन्नदकारी । घाँवलावाजी दे+ ( खी०) अ्रधाधुन्धी, भ्रत्याचार । धाँयर्थाँय दे० ( खो० ) शब्द विशेष, तेप ध्ादि के तरपर छुटने की ध्वनि, धड़ाका । धाँसना दे० ( क्रि० ) '्लॉसना, खोंखना, टुसता । घॉँसी दे० ( खी० ) रोग विशेष, खांसी. खोखी, काश की दीमारी । घाइ या घाई तद्‌ ० (ख्वी> ) धात्री, उपत्ताता, दृ्य पिलाने वाली माता, दाई। ( क्रि० ) दौड़ कर, भाग हर, रपट कर | घाक दे० ( सखत्री० ) डर, भ्रय, प्रभाव, श्तदू,, सेब, रुझ्ाव, प्रताप । [दिगढा | घाकर दे० ( ४०) चर्णघछूर जाति चिशेष, नीच जाति, घाखा दे? ( पएु० ) पदाश बजक्त । धागा दे* ( छ० ) तामा, सूत, डोर । घाता तत्‌० (पु० ) [ घा+ठन्‌ | ब्रह्मा, विधांता; घनाने चाल, विष्सखु, सूर्य, ऋण भ्ुनि हे घुत्र | ( शुर ) पटक, सचक, घारक | धातु तत्‌* ( छुउ ) शरीर घारक बधघ्तु, कफ, बात, दित, रस, रक्त, मांस, मेंद, अश्थि, सज्जा, शक्क सहाभूत | यथाः--थित्री, जल, सेन) चघायु, आकाश । [ तदूयुण--यान्‍्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द | गेरु, सनसिल आदि, शबदुये।नि, मकृति, धातुत्तय व्याकरण के धातु, [ रू, पर, पढ़ आदि। ] अष्घातु--[ सोना, रूपा, ता, ताँवा, सीसा, शैगा, छोदा शऔर पारा। ]-मात्षिक ( १ ) सोनामाँखी [--वादी (पु० ) घातु परीत्तक। +-चैदी (ए०) धातु विधावेचा, घातुद्म्य परीक्षक [--साधघिन्‌ ( वि० ) धातु द्वार प्रस्तुत, जिसके यनाने में घातु का प्रमेग किया गया हो।। ओपधि विशेष । घातुत्तय (३०) भ्रमेद्दादि रोग जिसमें घातु नष्ट दवा । चात्विवर तत ( वि०) [ धातु + इतर ] बिना धातु का, धातुरद्वित । घाज्ञी तत्‌० ( श्ली० ) [ घा+त्च+ई ] घाई, शप- | माता, दाई, पएथिदी, आमछूड्ी बूत्त |-पर्ष | ( पु० ) नट, तालीशपन्र, आमछी पत्र पुत्र । (४० ) उपमाता का पुत्र, न, नतेक |--फल | ( पु० ) भामल की, आँविला । | धान व्‌» (पु०) घान्य, सतुप तण्डुल, धकला सद्दित | तण्डुल, बिना कूटा दावद्ध, भनछिद्वा चाँवल्ा । धाना दे* ( क्रि० ) दौड़ना, काम करना, टइछ करना, परिश्रम करना । [ सत्तू, सतुबा। धानायूणं तब" ( घु० ) झुंजे जब और चन का चूय, थानी देन (स्री० ) धान विशेष, धान के समान एक प्रकार का रंग, रद विशेष, दरे और पीले रक्र के मरिज्ञने से जो रह्टू देता ऐ। धाजुक तदु० ( पु० ) धघाजुष्छ, घनुघेर, तीरम्दाज, एक नीच जाति । घान्य तत्‌० ( पु० ) अन्न, बिना झूटा चावरु, चार विछ का परिमाण, घनिषा |- फोएफ (थु० ) पान रखने का ग्रे, गोला |--चमस ( पु० ) विपिरक, चिड्डा (--घेचु ( ४० ) दान करने के किये अरश्न की बनी पधेनु |--बीज् ( बीज का ग्यान, बोते के जिये घान !--राज़ (पु० ) शस्य | विशेष, य, जो।-राधि (३०) घानकी | राशि । + धाप दे* ( पु० ) एक फुट का माप, पृ साँस में , जितनी दूर तर दौड़ा ज्ञा पड़े, ऊपर चढ़ने की दैद्ियाँ, शिन पर पैर रखा जाता है | [ लबूच्य । घामाई दे* ( प० ) कोडा, दूधमाई, श्रपनी चाय का ] ( ४४४ ) घारिणी घाम तत्‌० (पु०) घामन्‌, घा,स्पान, गेद, देश, चाश्रय, अवढम्व, प्रभा, दीप्ति, राशि, प्रमाव, पुम्यघ्ेत्र दि |।--निधि ( 5० ) सूर्य, रवि, दिवाकर। धराम्ा दे ( पु० ) वेश्रनिर्मित पान्र विशेष, थेंत का बना टोस्रा, चगेरा।.._ घाम्रिन दे० ( पु० ) सप॑ छी पुर जाति, हम जाति के सपे दौहने में बडे तंज द्वोत्ते हैं । घाय दे० [द्री०) दूध पिलाने वाली, घात्री, उपमाता, घाई ।- मारना दे० (वा<) पुकार के रोला, रच न मिलने के कारण रोना, हाय द्वाय करे रोना । घार तव्‌० (३६०) [४+णिच+ भच] देना, ऋण, जलधघारा, तीर, तट, किनारा, अस्त के श्रागे का भाग, प्रखरता, तीक्षणता । घारक तव॒० (गु०) [ए+णर] घारणऊचां | ( दे ) ऋणी, धधमण, घरता, कज5मन्द | घारण तत्‌० (६०) [ ४+णिक्‌+ श्रनट्‌ ] धारने की श्रवस्था, ग्रदण, भ्रवष्म्दन, रण, रखना, परिधान करना, ऋण लेना । धारणा तत्‌० ( स्री० ) [ घारण + भा ] शुद्धि, विषय अदणय फरने वादढी बुद्धि, धवित मांगे पर स्थिति, मन की ग्थितता, विश्वास, उत्साह, स्मरण, चेत | घारना दे० ( क्रि३ ) रखना, माना, स्मरण करना, चेत करना, (गु०) कर्ज, ऋण, ग्रधमय ! घारप दे- ( इ० ) ढठादस, घैये, घीरता। घारा तब" (स्त्री० ) रीति, ध्यवदार, भ्राचरण, प्रकार, प्रयाली, प्रकरण, प्रवाह, बढ्ाव, घोता, ताज्ञीराठ द्विन्‌इ की देफा, ( क्रि३ ) धारण किया, बठा लिया ॥-वादिक ( वि० ) परम्परागत, क्रमागत, अविब्छिन्न प्रचल्षित, दिना विच्देद का, जधातार आया हुआ “यन्त्र ( ए० ) जन की कल, फुद्ाारा, बल फेंकने का यरत्)--यो ही (५०) घाग के सप्तान बइने वाहा ।-सार (४० ) [ घाशा + चासार ] सारी घर्षों, मूसटाघार वर्षों - सम्पात (पु०) भ्धिह दृष्टि । घाराधर (प०) बादब,तल्वार । [ डाकुचों की सेना । घारि दे० ( खो० ) घादा डालने वाटों का सूद, घारिय्यी ( श्वी० ) एयिदी, प्तेमःर का यू, देवतार्ी की १४ द्विर्याँ जिवझे नाम है--१) शी (२) घारित चनस्पत्ति, (३) यार्गी (४) धूछोशां (५) रुचि- राक्ृति, (६) सिनीवाछा (७) कुट्द, (८) राका (8) श्रभुमत्ि (१०) श्रायाति (११) भ्रज्ञा, (१२) सेटा (१३) वेक्र (१४) इन्द्रासी ।.. हिना । घारित तत्त० ( वि० ) उन, चारण किया हुआ, पकढ़ा धघारी दे० ( सत्री० ) रेखा, लकीर, एक पौधे का नाम । (चि०) रखने बाला, ऋणी !--दार (वि०) कपडा विशेष जिसमें लकीरें हों । धातेराप्ट्र तत्‌* (8० ) छतराष्ट्र राजा के पुत्र दुर्मेंघन आदि, काला पेर और चॉंचवाक्ता हंस, कलहँस, एक अकार का सपे | धघामिक तत्‌० ( बि० ) पुण्यास्मा, धर्मेशीर, घर्मनिष्ठ चर्मांचरण करने बाला +-ता (ज्ली० ) धार्मि- काच, घमंशीलात्ता, घर्मेभाव । - थार्य तत्त्‌० ( गु०) घारणीय, घरिण करने येग्य गद्य । धात्र दे ( ० ) दौड़, दच विशेष । घाचक तव्‌० ( थि० ) घावनकर्ता, दौड़नैवाला, हुत- गासी, हरकारा, दूत । (पघु०) संस्कृत के एक कवि का नाम । ये कषि बहुत ही प्राचीन और प्रसिद्ध हैं। ये कवि रामिल सोमिल के समकालीन हैं । इनके विषय में विश्क्षण विलक्षणा दन्‍्तकथाएँ प्रचलित हैं | कोई फहता है श्रीह के नाम से इन्होंने नादिका बनायी थी, और बहुत घन भी पाया था। परनच इश्च दस्तकथा में प्रमाण कुछ भी नहीं है | हाँ काब्यप्रछकाश की “श्रीदर्पादिवा- बकादीनामिव धनम” यह पंक्ति अस्ताण में कही जा सकती है | परन्तु यद्॒ पाठ ठीक नहीं है क्योंकि इस पाठ हो पुष्ट करने बाला प्रमाण कहीं हुढ़ने पर भी नहीं मिलता है| भ्रतपुच “श्रीहर्पा देवांणशादीन|मिव घनम्र्‌ ? कराव्यप्रकाश का यही ठीक पाठ मानता चाहिये | इस बात को सिद्ध करने के लिये प्रमाण भी बहुत हैं। श्रभिवन्‍द्‌न कधि मे कहा है “ श्रीदर्पो विततार गद्यवये चाणाय बाणी फलम्‌ ?? इति, इसी प्रकार और भी प्रमाय्य बद्ध्चत किये जा सकते हैं। अतएव इनकी श्रीदर्व से सम्बन्धयुक्त - न करझे कालिदास से आरचीन और भाल या रामिन्ट सौमिल के समकालीन मानना ही युक्तियुक्त प्तीत होता है । ५ 588५ ) घीम घाचन तव॒० ( पु० ) [घाव + अनट ] चेग पूर्वक्ष गन, दौड़ना, सत्रि, फिगव । ( दें ) दूत, हरकारा, दौड़नेवाला | रिगेड़ना, अर्चना । घात्ना बे" (क्रिः) दौड़ना, दृथर डर घृधना, घावनी दे- ( ख्री९ ) दूती, परिचारिका । घावमान तव्‌० ( वि० ) दौड़ता हुआ, भागत्ता हुआ, 'तगासी, शीघगामी, तेज़ दौड़ने चाल । घावा दे (जञु० ) दीढ, चढ़ाई, श्राक्ममण, छापा । “मारता (वा०) चढ़ाई करना, आक्रमण करना, छापा मारता । घाह दे० ( स्री० ) चीख, दुःख का शब्द, फूक | घिक्‌ तत्‌० ( श्र० ) निलदार् खूचछर अब्यय) फटकार, छी छी, इणा, लानत) ध्रिक्लार तत* ( पु० ) फटकार, तिरम्कार । घिककारना दे० (क्रि० ) निन्दा करना, फठकारना, तिरस्छार करना | अपमानित । धिक्कारी दे (वि० ) शापित, निन्दित, गहिंत, घिगू तब० देखो थिकू !. [खन्नियों का एक भ्रल्ल । घिगरा, थ्िंगड़ा दे० (० ) उपपति, जार, रूणुग्रा, धिगाना दे० ( पु० ) हि, शुछार, उपद्व | शिया दे? ( स्लरी० ) बेटो, घुन्नी, कन्या, तनया । घिस्ये। दे ० ( क्रिए ) धमकावा, डॉटा, फटकारा पघ्रिराना दे० ( क्रि० ) धमकाना, ताइ़ना देना, हानि पहुँचाने की घमझी देना । घिपण तत्‌* ( 9० ) बूदस्पति, शैवगुरु, देवश्चार्य । घिपणा तत्‌* ( स्ी० ) चुद्धि, ज्ञान, मति, थी । थी तव्‌० ( ख्रो० )मति, बद्चि, ज्ञान । धींग, घोंगड़ा दे? ( पु० ) उपपत्ति, जार, क्षयुया | घींगाधाँगी दे० ( स्प्री० ) इड़ा हूड्ठी । धोगाधोगी दे (स्त्रीौ० ) उच्छुड्ड 5 न्यवहार, 'अनुचित रीति, अतस्प्र काये, मनमानी कारघाई, हड़ाकुड़ी | अींगामुश्ती ( स्न्नी० ) घींगारधीगी । भघ्रीति तव्‌» ( घ्त्री० ) पीपासा, तृष्णा, प्रत्तीति, विश्वास, यथा! -- ० जोहिं द्वार वैदाय सखि, तू कित जरू द्वित जाय । चघीति लाल तेग करी, दधि घुराय मत खाय ॥ 7! +ऊँवि दाक्य । घीम दं० (० ) घुस, शिविल, आ्राटली, धीर । द चोमत्‌ ६ ४४६ ) घुघ ____ 4७4 उइृ$॒उइ ३ृ॒क्‍इल्‍्ज्खंःजक्‍ल्‍स्‍िाज्टडउज--प+ह/+जपएप श्रोमत्‌ तत्‌० ( वि ) बुद्धिमान, बुद्धियुक्ता | घोरे दे* (अ० ) शने , मन्द, धीरता से, स्थिरता से | धोमर दे ( छु* ) एक जाति विशेष, कह्दार जाति, | चौरेघोरे दे० ( भर० ) केमलतता! से, मन्‍द मन्द, शने मच्चीमार, उचते, जाल जीदी । शमे-) धीमा दे" ( वि० ) सुस्त, शिधिर, आालसी, ओआमल घोरोदात्त तत्‌० ( घु०) [घीर + शदात्त) नायझविरोप, चीर $ [ शियिल्तता, आलघ्य । अति साइस तथा दया से युरू जिप हे ब्यवद्वार दी घीमाई दे" (स्ट्री० ) धीमापन, सुस्ती, ढिराई, ' धीरोद्धत तद्‌* ( पु० ) [ घोर + उद्धत ] न्ययकमे३ घीमानूलव७ ( गु० ) चुद्धितव्‌, चतुः, निउुण, दूत, नाटक का नायक, जो साइसी द्वो, वी( दे, भण्नी छुशछ, ज्ञानवानू | प्रशेवा कप करने वाढ्ा दे। | घीमापन दे० ( पु ) देखे धीमाई। घोचर श्रौम्रर तत्‌» (प० ) मत्थ्यज्जीवी जाति विरोप घोमे घोमे दे० ( श्र० ) शने शने,, घीरे घीरे, होले केत्रत्ते, जालगोबी, मच्छीमार | दाले, सन्‍्द मन्द । घीशक्ति तव्‌० ( खरो० ) इद्धिसामध्यं, ज्ञानशक्ति, धघीय दे (स्थ्री० ) चद्धि, मति, कन्या, पुप्री तनया। बुद्धि की त॑ दण ता । घीर तवु« ( वि० ) पैपोस्विन, पण्डित, बल्वाव, ' घीसचिय तत्व ( इ० ) मन्त्री, श्रमातय, बद्धिजीतरी अच्छुल, सुम्धिर, शास्त, स्थिर्मति, विन्ीत, ,... राजडीय कार्यों में सम्मति देने बारा सन्‍्त्री । शिष्ट [-ता ( स्त्री० ) घीस्‍स्वमाव, शिक्षता, ' 'धुआँ तदू० (६०) घूम, अमिउताका, श्रप्निचिस्द, प्राज्ञतां, चैर्य ।+त्य ( छु० ) शान्त स्दमाव। वाध्पविश्षेप चिताधूम, नाश। य्रेधा-- -प्रशास्त ( पु० ) नाट्मेक्ति में सर्वेगुण्ध युक्त ४ घुओँ देखि खर दूपण छेरा । नायक |--लजित ( पु० )श्वति साइसी नायऋ, जाई सुपतखा राज्य प्रेरा ॥ इस शब्द का धयोग प्राय नाटह में ही किया. “केश ( प० ) अ्गिन बे।ट, रटीमर “दाने ज्ञाता है |--स्कन्ध ( पु» ) मदिप, बीए, येदा, (5) घ॒र्झा निकदने का राखा। सा (कि० घर) घुपभ, साड, विज्ञार | घुआ "निकलना, धुर्पा छगने से फिस्ती वस्तु का घीरज्ञ तत्‌* ( पु० ) थैये, घीरता, म्थित्ता, बहुत बिगड़ ज्ञाना | -यंघ (थु० 2 धर्ए की तरद विश्लों से पी नहीं घवड़ाना ) ॥ भटहेन चाल | ॥॒ घीरा तत्‌० ( स्री० ) शिष्ट,, विनीत, मायिश्ा विशेष, | धुंगार देन ( पु० ) धींऊ, बघार, घोछन। मानिनी, प्रगक्ष्मा, मध्या नायिका, संध्या और । घुँगारना दे (क्रि०) वबारना, छुकिना, सड॒झा दैना। दा नायिद्ाशों का घीरा एक सेद है यथा -- | घुध दे० (६० ) चाघराई, कुदरा, अंधेरा, अप्रकारा | / बचठनि की रचनानिं सौं, वियद्धि जनाउत कोाप | । घुधरस्‍्ार देण (9०) अंधेरा, अन्धकार, तमः मध्या घोरा कद्दत ईं, तादि सुमति रस चोप ॥ 2? । अप्रकाश, धुमेलापते । [अप्रद्भाश, घुमैला। “+रसराज | | घुँघज़ा दे (दि० ) श्रेघटा, समठ, श्रख्छ, ( पु० ) घीर, घैयबाद । घुचघलाई दे० (शख्री० ) चन्धेश, घुत्धराई । घीरशघोरा तत्‌० ( ख्री०) [ घीरा+ अघीरा ] मानिनी । ध्ुघ तव॒० ( ३० ) रास विशेष, यह प्रसिद्र मर मच्या नगए्षमा नायिका बधा-- |. राइस का पुत्र था। यद राषस उतड्ू मुनि झे है नाइडओों “पति उद्दाप हल नाइकों, ढर दिलवगावे वाम | ॥ आध्रम हे पास रेतीले सपमूमि में रदा ऋाता ह्रौद़ श्रधोरा घीरतिय, वरनत कवि मतिराम] / था | जनसैद्वार काने के लिये इस राक्षम ने उडुद ऋऊंपसरात दिनों तक मझेत्र में चित साकर सप्या की) घीरिया द९ ( छी० ) कन्या, दुद्दिता, बेटी ॥ '... जीरे चोरे यह पृ घर तह श्वास बन्द कर लेता घीरी देन ( ख्री* ) कर्मीनिका, तारा, भालखों में की एक यर्ष के दाद जब पुर दिन पढ़ भ्वास खेठा पुतद्ली, मेश्रों छी छाली पूतरी। घा, सय घन पर्ेत सव कप लाते थे | यई देखह घुचेला देवता भी भयभीत हो ज्ञाते थे | बृहदम्य के पुत्र ७. कवेयाश्व ने इसे मारा था । [चूचे,ठग, उत्पाती घु घेला दे" ( वि* ) छुली, कपटी, दठी, दुशम्रही, घुक ( पु० ) सल्ाई जिश्पर छल्यावक्तू बटा जाय । चुकड़ पुकड़ दे? ( पु० ) घड़र, हत्कम्र, कौपकूपी, घरधरी, धरधराहट, घबड्आाहट, छुद्दाव, हिलाव 3 घुफड़ी दे? ( स्वी० ) थैली, सेदग, रुपये रखने की चेली, वसनी | घुऋूचुक्री दे” ( स्री० ) पुक प्रक्वार का गइना जे गे में पहना जाता है, ज्याकुलसा, सात, घबड़ाहट | घुकती ( खी० ) घूनी, घोंकती । घुत्ती ( स्ली० ) पत्ताका, ध्यज्ञा | घुज्िनी (स्त्री० ) सेना, फोन | घुतकार ( ४० ) दुवकार, फटकार त्तिरस्कार | चुघ्रक्ी ( स्त्री० ) घुधकआर | घुचा दे० (०) धृत्तता, छज, कपट, घोषा ।-देना ( वा० ) धोखा देना, छुठना, कपट ऋरना । धुन दे* ( स्त्री० ) छौ, अभिलाप, सनोरथ, चसछा । छुनकना दे" ( क्रि० ) तुमना, घुनता, रुई घुनना | घुनवी दे० ( स्त्री० ) छोटा घडु, धज्ुप, घडुही । चुनि | (स्त्री० ) ध्वनि शब्द नाद आवाज ( क्रिब ) घुनी / धूल कर, पीट कर, सिरमार कर । चुन्याँ दे० (पु०) जाति विशेष, बेदना, तूमने वाला | घुनिदाव दे* (५० ) हड़फूटन, हड्डी की पीड़ा, शरीर का पीड़ा । छुदोनाथ ९ ए० ) लग॒द्ध, सामर। घुनेहा दे" ( पु० ) रुई तूमने वाल्या, छुनियाँ । घुज्ञा दे० ( क्रि० ) छुनना, सिर पोटना, सिर घुनना । घुन्धुमार तव॒० (पु०) झवलयाध्व राजा, वृददश्व का पुत्र, बीरबहूडीे शुदधूम, गे।लमराज, कुदर/म, कोछाहछ ॥ चुउला दें* ( प० ) कहँगा, चाँवरा, स्त्रियों के पहनने का सिल्मा हुआ एक वस्र जिसे वे कमर पर कस कर पद्नती हैं। [ चढीं, छुमेला । च्ुपला दे० (छ० ) श्रप्रकाश, अंधेरा, वहुत खच्छ घुमलाई दे० ( स्प्री० ) अँघियारा, अस्वच्छता। घुमैला दे० ( बि० ) छू के रंग का; अस्वच्छ । घुर तब" ( $० ) भार, बचोम्का, झुवा, गाड़ी या इक खींचने के समय जो वैलेए के कन्ये पर रकखे जाते (६ ४४७ ) घुलाई हैं। श्रादि, आरम्त, चबन्त, किनारा, छोर मुख्य, सीमा, हद, श्रन्लत, मूज्त, जड़, धु, प्ुच, ( विः) ठीक (यवा * बुर सबेरे” )- से घुरतक ( वा० ) इस सिरे से इस सिरे नक, आदि से श्रन्‍्त तक (--धुस दे? ( बि* ) सीधे, वराकर | ( यधा--वे ध्रुराधुर चले गये ) |--कद (घु० ) कर या ठग्ान जे। आसःसी ज्पेष्ठ पाल में पेशणी देता है । घुस्पद दे० ( पु० ) पृछ प्रकार के राग का नाप्त | घुरसा दे: ( 9० ) धुष्सा, ले।ई, ऊर्ण बस विशेष, पुक्क प्रकार का ऊनी कपड़ा जो जाड़े के दिनों में ओढ़ने के काम में आता है । घुरसाँम्त दे० (स्त्री० ) ठीक सन्ध्या समय, गोधूली का समय, गोघूरिया काल | घुरन्त्र तत्‌० ( बि० ) [घर + घु+ खा] छुरीण, मस्त, चूथ॑र, अक्खड़, प्रज्लयड, भारवाहह, गाड़ी हज ' झादि खींचने बाला, बढ़े कामों का प्रचन्ध करने बाला, प्रधान, नेता, धुस्धिया, श्रगुश्ना । घुरवा दे० ( छ० ) मेघ, वादछ, यधाः-- “घुंघुआरे घुरधा चहुँपासा । सम्नुमि परे नहिं श्रवनि अक्ाप्ता॥ ? घुरब्य दे० ( छु० ) मेघ, बादल । घुरा तव॒० (स्त्री० ) भार, वोझा, जित्ता, मय की घुरी, जिसके सहारे पहिया धूमत्ता हैं । घुस्याना दे० ( क्रि० ) सटियाना, साटी छगाना, घूछ लगाना, घृन्न उड़ाना | घुसे दे" ( स्वी० ) लकड्ठी था लोहे का छण्डा जिस पर गाड़ी के पहिये घूमा करते हैं । घुपेण् तव्‌० (भु० ) [ घु(क ईन | मार सदन काने चाढा,प्रधान,श्रेष्ठ धुरन्चर,साहसी मुखिया ,शयु या | घुय तत्‌० ( ब्ि० ) धुल्घर, धुरीण, श्रेक्क उठाने घाल्टा, भारदाही । ( पु०) ऋषपभ नामक ओोपषधि, ब्रुपभ, चैड, प्रधान, श्रेष्ठ, सुखिया, अगुमा । चघुलवा दे* ( फ्रि० ) साफू द्वोना, चि्मज्ञ दे।वा, स्वच्छ हे।ना, घोया जाना, पत्रित्र दोना |. [ घुछाना । चुलवाना दे* ( क्रिः ) साफ़ कराना, स्वच्छ कराना, घुलाई दे० ( खी०) कपड़े घोने का काप्त, वस्त्र घोचा, वस्घ साफू ऋरना, कपड़े साफ करने ही मजूरी | घुलाना ( ४८ ) घूज घुलाना दे ( क्रिस ) गम? कराना, साफू कराना, कपड़े साफ झराना | घुलेंड़ी ३० ( स्व्री०) दोदार विशेष, होली का दूसरा दिन, जिस दिन लोग धूल उडाते हैं । चुस्म ( घु० ) ढीढ, टीला। घुस्सा दे* ( पु० ) छुपा लोइ। चूथ्ाँ दे। ( पु० ) घूम घ॒र्त्रा। [ बेशुमार । घूआँधार दे० ( पु०) बहुत घुश्नां । (वि०) बेमम्हाल, घुवारा दे० ( १५ ) धुर्या नि5हूने का सार्ग, मेखखा, जिससे धुर्श्ना निकाला जाता है । घुघरा दे। ( ० ( घुंघुठा, चस्वच्छ । छूत तत+ ( गुर ) [पू+ क्त] कमिपित, केपाया हुथ्ा, ( दे० ) पूत्ते, छब्ची, छुलिया, कपटी [पाप ( गु० ) पापथुक्त। घूति दे* (घ्रो-) धूतेवा, दगई, छुछ, कपट, यधथां-- ४ तुबसी रघुवर सेवशद्दि, सर न कजियुग घूति” । घूघू ( पृ० ) भाग जरने का शब्द | घूना दे० (पु० ) राज, पुक प्रकार का सुगस्ध दब्य, यह पक दृ् का गोद द्वोता है, अलकताा, तार फ्रोज्ञ का सत । +े घूनो दे० ( ख्री० ) वह अ्रप्निकुण्ड जिसमें साधु लेग भ्राय रखते हैं और अपने मक्तों के! इसी घूनी से भस्म निकाल ढ्षर दिया करते हैं | भूनवाघा दूर करने के किये कतियय ओोपधिये का घूम । +दैना ( वा० ) जला देना, समाधि देना, स्टूत साधु का श्रन्तिम सेस्छार करना ।--रमाना (था ) साधु होना, घर देह के निऊर जाना, योगी का चेद घरना |-स्तगाना ( बा* ) स्थिर होना, डद ज्ञाना हढ करना |--ल्लेना ( ब० ) आग तापना, पश्चाप्ति लेना | घूप दे ( खी०) रौद, भ्रातप, तपत, छूथ॑ का प्रदाण, घाम, तपिश | ( यु» ) सुधन्ध काष्ट विशेष, जे देवपूना में जजाया जाता है, गुग्युड् ।--काल (३० ) गर्मी छा समय, प्रीष्मआाछ --पड़ी ( स्री० ) यंत्र विशेष भिप्ते द्वारा घूष की छाया से समय जाना जाता है ।--दछाद्द ( खी० ) पु प्रकार! का वम्ब विशेष |-दूग्न या दानो (६ झ्वी० ) घूप देन का छोटा पावन विशेष |-- सराना ( क्रि० ) मगवान्‌ के सामने रसे।ई अपंण करवा | छूपना दे० ( क्रि० ) धूप देना, धूप जाना | घूपित द० ( वि० ) घूप दिया हुथ्रा, धूप से घासित किया गया, धूप से सुगन्धित किया हुश्रा। घूम तव्‌० ( घु- ) भीगी लकड़ी क संयोग से भ्रप्ति छ्े निशले परमाणु, घुथा, अभिचिन्द। -केतन ( बु० ) अप्लनि, अनल, केतुप्रद --फेतु या केतन (० ) अप्लि इपपात का चिन्द्र विशेष, इस्पात का प्राकृतिक चिन्द, शिखायुक्त, घूम ेे धाकार का तारा, प्रइमेद |--ध्वज्ञ ( १० ) श्रप्ति, भनल, बन्द ।--पान ( पु० ) हुक्का पीना, सिररेट बीड़ी आदि छा पीना [--भ्रभा ( स्त्री० ) पूमास्थश्ार नामक पुक् नरक विशेष यन्त्र ( पृ० ) इजशिन, जो बाब्प के सहारे चल्वा दै। ।--यादिनों (वी) रेल्गांडी । ( दे० ) रौरा, इलचछ, भेलाइक | -धाम ( स्त्री5 ) उत्सव की मीड | घूमावती तव॒+ ( स्त्री० ) दश मद्दाविदयाधों के अस्त गंत पुक महाविद्या | तम्त्रशास्त्रों में इनकी उधर इस प्रचार लिखी है। पुक समय पार्वती ने भू.व से व्याकुछ द्वोकर, मद्वादव से साने की वध्तु मांगी, परन्तु मद्ादेव नहीं द॑ धक्के | इसी कार्य पार्वती ने मद्ादेव ही को खा डाठा। परन्तु इससे पार्येती के शरी( से घूम निऊछऋने कगा | तभी से पार्वती का नाम घृमावनी प्रसिद्ध हु था ।पुन महादेव ने अपना शरीर कक्िपित करके कद्ठा / देवि | जब तुमने मुझसे खा लिया है तब तुम विधवा दे गई, अतपुृव अब से तुमझे चिघवा वेश से रदनां चाहिये, इयी बेश में लोग सुम्दारी पुल करेंगे और अब छ॑ सुम्दारा नाम घूमाउती हुथां पुरध्ाणसिद्धि के लिये कृष्य वठ॒दूंगी के धूमावती का जप किया जाता है। [छे रकम का श्रुमैक्षा 2 घूमरा, घूमल, घूमला दे+ ( वि० ) मदमैद्ा, घ॒ए घूमा दे* (दि ) घूमैरा,घूमला,मठम ढा,धुएँ का सा रह । घूमिल ( गु० 3 घुघबा, धुएं छे रंग का । घूमी दे* ( वि* ) ऊचमी, इरपाती, डपद गे । घूख तद्‌० (पु०) कृष्ण रक्त मिध्चितवर्य, कृष्ण बेहित वर्ण, दें बनी | --केतु ठ३० (घ०) देखे घूमकेठ धूज्नल्ताचन्‌ ( छह ) चुद न्‍ “केश (9०) रास विशेष, जे शुम्म का सेना नायक घा; क्रपेत्त, कबूतर ।--पान (४०) तमाखू आदि पीना |+--पान यन्त्र ( ए० ) हुक्का | घृख॒लोचन तत्‌० ( ५० ) एुक राक्षस का नाम, दान- बेन्द्र शम्भ का सेनापति, श॒स्म ने इसी के ६० हज़ार घेना के साध, भुवनमे।हिनी महामाया का पकड़ने के सिये भेजा था । महासाया के हुद्डुतर से ६० हज़ार सेना के साथ घूम्नलेचन सस्म हे! गया । छूम्नाक्ष तत्‌० ( घु० ) एक राक्षस का नाम । चूर दे* ( स्त्री० ) घूछ, रज, रेत । श्वूरा दे” ( प० ) चूरों, सक्ूफ । झूरि दे (स्त्री० ) धूलि, रज्न, रेत, गदं । चूरी दे० ( ज्ली० ) छुरी, घूज्लि । घूर्जदि तत्‌० ( घु० ) मदेश्वर, महादेव, शिव] छूत्ते तत॒" ( घु० ) बल्लुक्त, प्रवारक, शठ, खछ [--ता ( स्त्री० ) शठता, खछता, प्रबच्चनना बदमाशी, मुंडई, पाजीपन | [( स्त्रो० ) नष्ट, ध्वस्त । घूल्, धूलि दे० ( स्त्री: ) रज, रेण, धूरि ।---धाती श्ूसना देन ( क्रि० ) निन्दित करना, अपसान करना, फकोसना ) पीछा रह, सटियारा रक्न । शूखर या छूसरा तत्‌० (छु०) ईपत्‌ पाण्डुवर्ण, हक्कका घूसरित ( शु०) धूक्ष से सना हुआ, घूछ रूप हुआ | चूद्ा दे+ ( पु०) धोखा, ९४ प्रकार के खेल का सध्य- स्थान, चश्चापुरुष जिसे खेज्न में याढ़ते हैं । घूक ( श्रन्‍्य० ) घिकू। धुत ठद॒० ( गु० ) [घुकक्त] घारण विशिष्ट, घारण किया हुआ। अपराधी, पकड़ा हुआ, ग्रृढ्वीत, घारित । -कार्मुक्रेषु (वि" ) घुर्वाणघारी, गरोद्धा, घीर !--पठ ( वि० ) गह्दीत चस्त्र, वस्त्रा- छत, कपड़ा पहना हुआ ।--स्मन््‌ ( वि० ) [घृत + भ्राक्नन्‌] जितेन्द्रिय, इन्द्रियों को अपने बश में रखने दाक्षा, सुस्थिर, घद्धाचारी, योगी । घुतराप्र ठव्‌० ( घु० ) शान्वशुनन्‍्दन, विचित्रवीय का चेन्नज पुत्र, इनकी माता काशिराज की उद्री अम्विका थी, काशिराज की दूसरी कन्या अस्बा- किका भी विचित्रचीय ही से ब्याहदी गई थी । अम्बाक्षिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए थे। घूठराष्ट्र का विवाह गास्थारसाज खुबद की कन्या गान्घारी से हुआ घा। गान्धारी के गर्स से चुतसष्ट के एक सौ पुत्र हुए थे और एक कन्या। दुर्येशद्वन आदि इन्हीं के पुत्र थे कन्या का चास दुःशल्या था। यह सिन्घुराज जयद्थ 'दी ब्याही गई थी। महामारत के युद्ध में इनके सभी पुत्र मारे गये । गान्घारी के साथ घुतराष्ट्र बन में चले गये । ६ महीने वहाँ रहने पाग्रे थे कि इतने में उस चन में आग कगी, अन्घराज घुतराष्ट्र दौड़ नद्दीं सकते थे,अतपुव वहीं जक्ष गये । (२) नाग विशेष यद्ट क्ठु का पुत्र था, इसके साथ पाण्डवों का विरोध था । पअ्रप्वमेघ का घोड़ा लेकर अजुन मणिपुर गये । चर्दा अत पन्न वन्लुवा- इन ने घोड़ा पकड़ लिया | पित्ता पुत्र में लड़ाई हुईं, अर्जुन मारे मये ) वश्जुवाहन की माता चित्राह्दा और अर्जुन की पत्नी उलूपी वर्दहाँ आकर विछाप करने हूगीं | उलूपी की सम्मति और माता की आज्ञा से वश्लुवाइन श्जीवन मणि लेने के लिये पाताल गय्रे । वहाँ घृतराष्ट्र नामक नाग के कहने से वासुकी ने मणि देता अस्वीकार किया 'अतपुव वश्जलुवाहन और वासुही में छड़ाई हुईं । लड़ाई में बासुकी द्वार गया और उसने सजीवन मणि बद्नु- बाहन को दे दिया । यह देखकर घृतराष्ट्र ने अपने दो पुत्रों के अर्जुन के पास भेजा । अपने पिता की आज्ञा के अनुसार इन्होंने श्रजुंन का सिर काद कर पुछ बन में फेंक दिया। इधर श्रजुन का शरीर मस्तक शून्य देखकर वर्हा हाद्वाकार मच गया। अस्त में श्रीकृष्ण घुतराष्ट्र के दोनों पुत्रों कहो मार कर अर्जुन का मस्तक ले झाये | बह मह्तक अजजुन के शरीर से ओड़ दिया गया और सजीवन मणि के स्पर्श से अर्जुन पुन जी उठे घूति तब॒० (स्त्री० ) [घु+ कि] घैयें, धीरन, ढादूख मन की स्थिरता घारणा,सुख,येग विशेष । [गस्मीर । घूविमान्‌ दत्‌० (३०) स्थिरचित्त, घैर्यांवठम्बी, घीर, घुष्ट तद॒० (३५० ) [४ _+क्त ] प्रगल्त, साइसी, सरसाददी,, मनिलेज, चतुर्थिध नायक के अन्तर्गंत « पुक नायक विशेष 4 बधाए---. - ७ करे दोष निरसक जो, डरे न तिय के सान॑ । क्वाज घरे मन्‌ में नहीं, नायक ध्ुप्ठ निदान ॥7 . +रसराज | खा पर०--३१७ 5 यम आग न मम कल न न नल घूघए +-ता (श्ली० ) ढिढाईं, प्रगहमता, निलंक्जवा, धूर्तता, मचछाइट, साइस |--कैतु (०) शिश्व- पाह का पुत्र जे पायडवें की ओर से लड़ा था। ध्रपएु दद० (वि ) [ शपु+क्यु ] एष, प्रग्म, निलेज्ज [ धृष्रयुज्ञ तु (पु०) पाशाकराज ज़ुपद का पुत्र और घृषत का पौन्, मद्दामातत के युद्ध में इसने पुश्र शोहझातुर द्वोयाचायं का सिए काटा था और युद्ध के अन्तिम दिन रात की द्ोणाचायय के पुश्र झश्यधामा ने ठिप कर पाण्डवो के शिविर में घुस कर भपने पितृघत्ती शष्युन्न को मार दाला या । चेंगामुष्टि दे* ( स्वी०) मुछामुक्डी, धुस्साथुस्सी, घुत्तैधु(्सा घेनु तद्‌० (स्त्री०) सवत्सा गै।, नवप्रसूता मै, दुधार ग्राय, एयिवी ।--मत्तिका (स्त्री०) डक, डांस । घेनुक तद्‌० (पु०) असुर विशेष, यद्ष गर्देस के आकार का था । नरमांस छोलुप इस राहत का बद्रास ने मारा था | पु समय भ्रीकृष्ठ और वढराम री! चराते चरावे ताछ बन में चल्ले गये भार वर्दा साल तोइने लगे । इसी यन में घेनुक रद्दा फरता था | ताल गिरने का शब्द सुनकर धेनुरू इनकी ओर दैड्ठा | यढ्वराम ने उप्के देने। पैर पड़ कर ताल के पेड़ से उसे दे मारा, जिससे उसकी ख्युइुई। घेतुमती तब» (स्प्री०) एक नदी का नाम, गोमती । घेय (एु०) धारण करने येग्य । घेर (१०) भनाये ज्ञाति विशेष । घेला या घेलया दे (१०) चघेला, आधा पैछा, पुक प्रकार का सिदज्ा। जिसका दाम प्राघा पैसा /. होता है। घेन्नी दे« (स्त्री०) भठभी, अ्धेल्ती, भाधा रुपया | चैये तद* (६० ) घीरता, स्पिरता, भचाशुष्य, क्‍ सद्दिप्युता ।--कलित ( पुर ) घेयंशाली, भीर | -च्युत (वि० ) भधस्पिर, चउथ्चुठ, अधीर, असदहिष्श ।--शाली ( वि० ) स्थिरता विशिष्ठ, घीर, शान्त । चैदत उद्‌* ( ६० ) गाने का पुक स्वर विशेष ! घो दृ« (क्रिब्) हो डाल, साफ़ करा ( ४४० ) » घेवता ५ चोश्या दे- (घु०) फल की मेंद, उपदार, घपायन । घोइता दद्‌ ० (०) द्वौद्विन्न, दोदिता, बेटी का बेटा | घोई दे" (स्त्री०) बिना छिलके की सूग की दाल, जे सिन्ाई गयी हे और जिसमें पानी न हे । [मेल घोंधा देन (8० ) टीढा, मट्ठी का देर, मद्दी का धघोंवाला दे० (५०) घूमार, धुर्श्ा निकटने की राह। घोक दे० (३०) देवता या गुरु को प्रणाम करना, दण्डवत करना । घोकड़ दे* ( वि० ) बह्शाली, महावल्ी, पराक्रमी घोष्व या घाखा दे" (३०) छढ, कपट, अम, भुबावा, छबना, प्रतारणा, प्रवश्चना, अचानक, ध्रचानचच | --खाना ( बा० ) धन्य ज्ञाना, वधशित छ्ेता, ठगा ज्ञाना |-देंना ( वा० ) ठगना, धद्ना, बहकाना, भुटावा देना । चोता दे० (१०) पूत्ते, छत्ती, कपदी । घोती दे० (स्ल्री०) कटिवस्त, पदनने का वस्त्र, धौत चस्त्र, कमर में पहिनने का वस्त्र । शिना। घोना दे० ( क्रि० ) पखारना, प्रधाजन करना, साफू घोप दे० (स्त्री०) पक प्रकार की तलवार | घोष देण (पु०) कपडे साफ करने का काम, घोने का काम, घुल्ले कपडे की खेप । आविन दे० (स्त्री०) थेोषी की रद्री, रजकी | घोयी दे० (३०) रजरू, कपडे घेलने व्यज्ी जाति ।-० घास (स्त्री०) बढो दूब।--पदाड़ (३०) हशवी रा एक पेच । थोयी तत्‌० (पु० ) सैस्कृत के पुक प्रसिद कवि, # बवनदूत ?? नाम पक प्रन्थ, इन्हेंनि सैस्‍्कत मापा में बनाया है जो मेयडूत के समान हैं | थे कवि पददेश के निवासी थे । ये कवि जयदेव कवि के समकालीन थे। जयदेव का समय सृष्टीय १ १ वीं सदी का पूर्व भाग निर्णत दे। चुरा है । बसी के अनुसार घे।यी कवि का भी समय मानता चाहिये। जयडेव मे इन्हें “४ कविदृमापति ? कहा है | घोर था घोरे (०) समीप, निकट, घार, किनात । घोारण (३०) सवारी, दाढ, सरपट | घेरिणों तद॒० (ख्त्री० ) परम्परागत बात, कमागत रीति, घुर से चत्नी आयी दात । घेाषती (द्धीन) घोती । घेसा घोसा (ब०) भेली, गुइ की पिण्डी । पे! ३० (यु०) शुब विशेष, घव चूच । धो देन ( ७५ ) थीन, आरघ सन, बीस सेर। एक सन फा आधा, ( श्रष्य ) या, अथवा । धोंक दे" ( खी० ) रोग बीशेप, काशभ्वास । औंकता दे० (क्रि० ) फुँकना, भाथी चढाना, चौंडनी से इवा देना । घौंकनी दे+ ( त्वी० ) सखा, भाधी, चमड़े का एक यन्त्र जिससे लुद्दार आग प्रज्वलित करने को 8वा सिकारते हैं । आऑंका दे० ( स्थी० ) घौंकनी, सख्रा ! धघौंज्ञ देन (ख्री०) विवेचना, विचार, परिशीलूत ॥ घोंस दे० ( छु+ ) घमक्षी, घुद्धावा, चढ़ाई, भाक्रपण, अभकी, दे।ड़ । धौंसा दे? ( छु० ) नगारा, दुन्दुसि, घड़ा नगारा ७-- पदी (सत्री०) स्ुहावा, मासा। घौंसिया दे० (पु०) प्रधात, अगुआ, नेता, दुल का अधान, दै।ड के दुछ का प्रधाव। [परिष्कृत । च्वात तत्‌» ( जि० ) प्रदाक्षित, घेथा हुआ, श्वेत, धौंताल दे० ( छु० ) धनवान, सूर्मा, दुजंन । घोंताली दे० ( स्त्री० ) चन, बल, सूर्मापन । चैक तत्‌० (पु०) देश घिशेष । ज्ै।स्य व्‌» (पु०) पाण्डवों के पुरोहित का नाम; इनकी ज्येष्ठ भ्ाता का नाम देवल था। चित्ररथ की सम्मति से पायडवों ने घोम्प के 'अपना पुरोहित बनाया था। नारद ने प्रप्क्तता पूर्वक इनको सूर्य- देव करा स्तोन्न दिया था| उसी स्होच्र की शिक्षा आर्य ने झुधिष्ठिर को दी थी। उसी स्तेत्र के प्रभाव से युधिष्टिर के अक्षय बटले।ई मिल्ली थी जैर दे० (पु०) फपे।त विश्षेष, कबूतर की एक जाति, जड़ी कबूतर ) चैरा दे० ( घि० ) घचल, श्वेत, शुक्र, झज्ञ । चल दे० (स्त्री०) धप्पड़/चपत-चप्पा, थाप |--अड़ना (वा०) पीटना,सुक्का मारना ।--मारना (वा०) --ल्लगाना (वा०) थप्पड़ सारना, घौल बढ़ना । ++लगना (व) हानि उठातत, घटी सहना, इसाश होना, सनेरध सह होना, निराश होना । +-धप्पा ( वा० ) सारपीट, सार छूट, चोद चपेट | € ४५१ 3) च्यानसिह चैल्ला दे० ( बि० ) घौरा, घदल. श्वेत, शुक्र, शुअ । -+गिरि ( ए० ) घवरामिरि, हिमारूय पवेल | “अकंड़ ( घु० ) मारप्रीठ, उपद्रव |--थप्पड़ [पु०) मारपीट, दंगा | जैली ( खो० ) इच्त विशेष |. [ चपत जमाना | औल्लाना दे० ( क्रि० ) घौकियाना, थप्पढ़ मारनी, घ्यात तव्‌० (वि०) [ ध्यै 4- क्ू ] विचारित, जिस्तित, सोचा हुआ, ध्यान किया हुश्ा। ध्यातत्य तत्‌ू5 (गु० ) [ ध्यै+-तव्प ] ध्यान के येग्य, ध्यान देने योग्य, श्रत्यन्त उपयोगी, अति- शय भ्रिय [विचारक,। ध्याता तव॒ू० ( छु० ) [ष्वै+तुण ] ध्यानकर्तता, ध्यान तत्‌० ( घु० ) [ ध्यै + थनद्‌ ] सोच, विचार, चिन्ता, उत्कण्ठा पूर्वक स्मरण, भ्रमु पन्घान, शर्म, बल्तु का पुनः स्मरण, छो ।--यैग सेंत्‌० ( पु० ) समाधियेशय । ध्यानप्तिह दे० ( छ०) पश्चाव केसरी रणजीतसिंद्द का प्रधान सन्‍्त्री, इस पर रणजीतसिंद बढ़ा मशेप्ता रखते थे | घ्यानपिंद्द के चड़े भाई का नाम गुछावसिंद था और इनके छोटे भाई का नाम सुचितसिंद घा। हनन सीमों भाहयों पर महाराज घड़ो भीति रखते थे | इनका राजा की उपाधि मिली थी । इसके बाद राजा फी श्ज्षा से राजक्रीय पत्रों में / राजा कछान बहादुर लिखे जाते थे। मदारान रगजीतसिंद्र ने अपने अन्तिम्त समय में अपने पुत्र खड़गसिंदह का राज्य का उत्तराधिकारी और उनका अभिस्तावक्र ध्यौग सिंद्र के नियत किया। परन्तु खड़गसिंद रणजीवसिंद के उत्तााघिछारी होने के येग्य नहीं या। दुष्शें के परामर्श से वद ध्यानपिंद पर अविश्वास करने लगा, अन्त में ध्यानसिंद और घनके पुत्र का महझ में आना भी उसने सेहत दिया । इस समाचार का फकुफल खप्प्लिंद के! बहुत दी शीम मिला | पढ़ चन्‍्दी होकर जेल सेज्न दिये गये । उनके पुत्र नवनिद्दाऊसिंद के। पश्लाव की गद्दी मिद्ली | खड़ग सिद्ध की रत्यु जेलखाने में हुईं, उसी दिव नव निद्वाकसिह भी तेरण द्वार के गिरजाने से दुधका मर गये । इनके वाद खड़गसिंद की स्त्री ने राज्य ध्याना का कारवार प्रदेण किया, राजसिंदासन पर बैठ कर रानी चाँदकुमारी ने ध्यानसिद से बदला -चुाने का प्रण किया । ध्यानसिंद भी इसे पदच्युत करने की चेष्टा काने लगे। श्रन्त में वह अपनी चेष्टा में सफल हुप, रानी चदिकुमारी गद्दी से उतार दी गयीं और रणजीतसि्ट की उपपत्नी के गे से उत्पन्न शेरसिंद राजगद्दी पर चैठाये गये। शेरसिंदद ने रानी चाँदकुमारी से व्याह करना चाइई।, परन्तु उसने इसे भ्रस्दीकार किया, तदनन्तर इसमें छडाई हुईं परन्तु श्रन्त में सन्धि हुईं और € नौ जाख रुपये वार्षिक रानी का देना निमश्नित हुआ | ध्यान सिद्द और शेरसिद दोनों ने मिलकर रानी को मरवा डाडा । सिन्धवाटा सरदार पञ्षाव में बडे प्रतिष्ठित हैं, वे राजकुर के थे। उन्होंने इन सब यातों को देश्ल ध्यानसिद्द और शेरसिंद का काम तमाम कर देना ही उचित समझा । इसी विचार से प्ररित द्वाकर वे पुक दिन कुछ सेना लेकर चढ़ आये | दोने दल में लड़ाई हुई, भ्रन्त में शेरसिंद और ध्यानसिंद दोनों मारे गगे। इसी राई में शेरसिद्ट का १२ वर्ष का क्षद्धका भी मारा गया। ध्याना दे० ( क्रि० ) ध्यान करना, ध्यान कयाना | ध्यानों तद्‌० ( वि० ) ध्यानकर््तों, ध्यान करने वाक्ा, ध्यान छगाने वाढा, जपी, येगी | ध्यानीय तदु० ( वि० ) ध्यान येग्य, ध्यान करने के योग्य, स्मरणीय | [ घ्याता | ध्यायक तत्‌» ( पु० ) विन्तक, विचारक, ध्यानकर्त्तां, ध्याघना देन ( क्रि० ) ध्यान करना, ध्यान छगाना, भजन करना | [( १० ) विष्छ, नारायण | ध्येय तत्‌० ( वि ) घ्यानाईं, ध्यान याग्य, स्मरणीय, छुपद ( घ० ) एक राप विशेष | घुव तत्‌० ( वि०) निश्चित, स्थित, दृढ़, श्रचकछ्॑, अटल, ! नित्य, ( पु० ) विष्णु, पुकताराः जो दद्विय उत्तर केन्द्र में प्रायः स्थिर है, प्रुद का तारा, उत्तर केन्द्र | मण्वाद का पक्त । यद राजा उत्तानपाद का पुत्र था। एक समय अपनी विमाता से अप- | ( ४४२ ) घ्वान्त मानित होकर बाढक भुव रोता ट्रभा अपनी माता सुनीति के पास गया । माता ने रोने का कारण पूँछा, ध्रुव मे कद्टा--/ मैं पिता की मोद में बैठा था, सुरुचि ने मुझे मिदटक कर शतार दिया और कद्दा राज्यासन पर बैठने फे लिये तुमे मेरे गरम से उसपग द्वोना चाहिये था। शुव की माता इससे दु खिल्र ते हुई, परन्तु हृदय का भाव छिपा कर उसने कट्दा, यदि तुम सचमुच राज्यासम पर चैठना चाहते दे। ते। तपत्या करके मगवान्‌ को प्रसक्ष करे, वह तुमे राज्यासन पर चेठा देंगे। बालक भरुव तपश्या करने के लिये घर से निकक्ष पहढे ॥ मार्ग में नागदज्ी ने रून्हें उपरेश दिया। प्रुव की तपस्या से भगवान्‌ ने प्रसन्न द्वोकर उन्हें घर दिया । वर पाकर ध्रुव घर कौट श्रामे। पिता ने उनको राज्य दे दिया। राज्य पाकर ध्रुव न शिश्वुमार पुत्री भूमि से विवाह किया । ध्रुव का सौतेत्ला भाई एक यह के हाथ से मारा गया । भ्रुव यहों से छ्नें कमरे, परन्तु पितामद् मनु के भनु- शेघ से उन्होंने युद्ध वन्द कर दिया । ध्रुव ने यहुत दिनों घक् राज्य किया, भस्त में उन्हें भुष छेक प्राप्त दुआ ।--तारा ( पु० ) भेर के ऊपर रहने वाला |--लोक ( पु० ) ले विशेष भई्दाँ घरुव का वास है । घुवा देन ( ५० ) पछ पौधे का नाम, घु का । ध्यंस तव्‌* ( ५० ) नाश, तय, हानि, उति | घ्वंसी तत्‌० ( घु० ) नाशक, परमाणु | घ्यज्ञा तत्‌० ( स््री० ) पताका, रप्टी, केतु । च्वज्ञिनी ( ख्री० ) सेना विशेष, सीमादर्तों बृषादि की बिन्द्दानी 4 घ्वज्ञी तत्‌० ( धु० ) पताकाघारी । ध्वनि तद्‌० ( पु० ) शब्द, नाद, निनाद, स्वर +त ( गु* ) शबित, घादित । ध्वस्त ( गु० ) नष्ट, भ्रष्ट, ध्युत, गलिद | ध्वान्त तत्‌* (१०) भन्घचछर, तम्र, थैंघेरा, ब्रेंघिवारा | --शन्षु (५०) सूबे, चन्द्रमा, झग्नि, सफेद रंग। ह (्‌ मे व्यक्षन देखे का यदद बीसर्वा अक्तर है, इसका उच्चारण स्थान दुन्त द्वोने से इसे दन्त्यवर्ण कहते हैं । न त्तेत० ( क्र० ) निषेधा्थे अब्यप, नहीं, अभाव मत) जनि, जिन, घजसाषा में यह बहुदबन का चिन्द्र समस्का जाता है थथा--““वेगि करहु किस आखिन झोदा ? -रामायण | 'इन अशखियाँ दुखियान का सुख सिरजोई नाय “आदि! ( वि० ) दिगम्बर, वस्ल॒हीन | ( पु० ) दख | नासी गुसाइये| की एक मण्ढल्ी जे जलूस में नढ़ घढ़के निकलते हैं । नड्गी दे” ( स्री० ) नंगी सखी, विवस्था स्त्री । नऊुद्ा दे* ( वि० ) रक्न, सम्ना, विवख, घस्त्र रहित, चस्त्रह्वीन, छुघा, बदमाश, गुंडर । नहुघड़ छ दे" ( वि० ) दिगम्बर, बिककुछ नज्प | नडुग दे० ( वि० ) बचारा, बिया कपड़े का, नक्नटा । “-झल्ला-छुतड़ा (चि०) विलकुद नहा, नहघढ़क़, वस्तद्वीय |--स्रारी या स्केली ( ख्री० ) बामा लसलाशी, शरीर की तलाशी । नह्छे सिर दे" ( बा० ) खुले सिर, इधारे सिर । सइहर ( प० ) नेददर, पिता का घर, मयका | नड ( गु० )नव, संख्या विशेष, नचीन नूतन। नडपष्या ( छु० ) नाऊ, चापित । नउते ( गु० ) नत, छुकाहु शा । सक दे? ( खो० ) नाक, नासिक, नासा ।--चढ़ा [चि०) क्रोची, चिड़चिढ़ा, उम्र, तीक्षण +--घिसना ( वा० ) चिरौरी करना, खिनती करना, दुण्डबत _करना +-+ठा ( थवि०) नककठा, निर्लज्ल, ठस, जिछकी नाक कट गयी दो ।--ड्रा ( पु० ) नाक का पूक रोग विशेष |-तलेोड़ा ( वि ) हंसेड़, परिद्दासशीछ, रलिक, धूत्ते ।-सीोर (स्थ्री० ) नाक की शिरा। >सीर फ़ूठना या वद्दना (वा) नाक से रुधिर भिकज़ना, एक प्रकार का रोय | नक तल्‌० ( पु० ) रात, रात्रि, रजनी, चिशा। [रह । नकक तत्‌० (यु०) लघुवस्त्र, सबिन; घूम्रवर्ण, घूमेला नकरा ( थु० ) नकुकठा, अप्रतिष्टित, वेशर्स | नक घिसती;( स््वी० ) अधिक खुशासद करवा | न ना डश३ ) नकुल त्त नक लिकरनो (स्त्री०) एक पौधा विशेष जिसको सघने से बहुत छींके आती हैं । चकूद्‌ ( ० ) रोकड़, नगद, रुपये पैसे आदि ।“|ी ( स्त्री० देखे नकुद । हिला, पारजाना ] नकना ( क्रि० ) त्तकियाता, नाक दुम आना, ब्याकृक्त नकबव ( स्त्री० ) सेंघ चोरी के लिये सकान फोड़ना | नकवेसर (स्प्री० ) छोटी नथ, तथुनी । सकत (स्त्री०) अनुऋरण, प्रति लिपि, एक लिखी बात को ज्यों छात्यों दूसरी जगह लिखना ।--ी (सु०) बनावटी, कुद्धिस। नकुरा ( घु० ) नाक, रूबी माक | नकार तत्‌० (५०) [ न+क्ृ+ श्रण ] नहीं, नहीं मानना, अस्वीकार, प्रतिपेष, लियेध करना। “नर अचर । नकारना दे* (क्रि०) नहीं सानना, श्रस्वीकार करना, झुठावा, सुकरना, स्व्रीकार करके पुनः नहीं स्वीकार करना | नकारा (५०) सकक्‍कारा, तयाड़ा । [कपड़े का द्ोता है नकाब ( स््री* ) मुँह का परदा जो जालीदार मद्दीव नह है! ) (इच्)नोक बणि।..* नऊुल तव्‌० ( घु० ) न्यौछा, नेवद्ा, पाँचर्वा प/ण्डव, पाण्डु का चेत्रज पुत्र, पाणड की स्त्री माद्दी के गर्भ से और अश्विनीकुमारों के औरस से इनका अम्स हुम्रा धा। यद अज्ञात चनवास के समय मत्स्य ( जयपुर ) राज के यहाँ अपना तन्त्रीपाज् नाम रख कर गौ चराते थे | युधिप्विर के राजसूप नामक यह के समय ये दुशाणं ( छत्तीसगढ़ ) सारूव देश तथा समुद्र तीरवर्सी आभीर देश के जीत कर पञ्ञाध में उपस्थित हुए । इसके बाद पंज्ञाय, 'अमर पर्वत, द्वारपाल आदि देशों को इन्हीं ने जीता. तदुनन्तर इन्दोंने द्वारका में चासुदेव के पास दूत भेजा था । यादवों के युधिष्ठिर की अधीनता स्वी- कार करने पर मारत के उत्तर पश्चिम प्रदेशों में रहने वाले स्जेच्छ पर्व भ्रादि असम्य जातियें को जीत कर ये इन्व्मस्थ छौट आये। चेद्राल की नकेल कन्या करेशुमती से इनका व्याद हुआ था। करेणु- मती के गर्म से मकुछ को निरमिय्र नाम पुक पुत्र बारच्च हुआ था | नकेल्ञ दे* (स्त्री०) काठ की बनी पृक प्रकार की सलाई जो ऊँट की नाह में छयाते हैं, उट छी ढाडी । नका दे० ( घु० ) तास का इक्का, खेल के तास में का श्क्का | मक्की दें ( स्प्री० ) नासिक से इचारण करना, साजु- नासिह उच्चारण करना, निश्चय, स्थिर, दृढ़ | मूठ (ए० ) स॒ए छा पुर खेल । [बदनाम । नकू रे* ( बि० ) भद्दीतिंमान, अ्रपयशी, दुर्नामी, दुष्ट, नक्तन्न तत्‌० ( घु० ) जिसहझा नारा न हो। तारागण, २७ नहतर, भश्वनी, साणी श्रादि ७--नाथ +-पति प-राज्ञ ( पु० ) चस्दमा ।-; चक्र (१०) ताशमग्डछ, तारावक |-पुरुष ( पु० ) नच्नतन्न मध्यवर्नी पुरुष विशेष, नत्त्न का अधिष्ठटाता देदता ।+-विद्या ( स्त्री० ) ज्योतिष विद्या। --खूच रू (१०) निन्दित ज्ये।तिपी, मू्स ब्ये।निवि: नर सूचऊ का लद् ण घइतसैदिता में दस प्रद्धार क्षिखा हुआ हैं । यधा-- * विश्युयति न जानन्ति प्रहाणा नैदसाधनम, परवास्येन वतंम्ते ते वै नत्ततसूचक ?”! अविदिश्यैद य शास्त्र दैवज्ञव्व प्रपधते, सपक्तिदूषक पापों क्षेयो नत्ततरयूचकः ” | मत्तन्नो दे ( विन ) साग्यवान, प्रताप, भारयशाद्दी । मत्तत्रेश तत्‌* ( पु० ) नचतग्र ईश, चन्द्रमा नक्क तत्‌० ( पु० ) मगर, कुम्मीर, नाका, एक अश्वार का पडजन्तु ।--राज्ञ ( धु० ) शॉगर, आई | नज़श (गु०) चछ्टित, चिद्रित । [दिलाया डडभ्ा। नफ्शा ( पु+ ) मानचित्र, रेखा झादि के सद्दारे नस तत्‌६ ( घु०) नह, नाखून, द्वाप और पैर ही चहुल्षियों के भप्रमाग स्थित कठिन चर्म विशेष | थटा हुमा मद्दीत रेशम, दर्तंथ उड़ाने का डोरा | “रेखा (क्षो*) नख का बिन्द,दके!ट ।--सिस्स +से सिस्ध तक ( था० ) समस्त, सिर से पैर तक, सम्पूर्ण शरीर । नखत हतद्‌० ( पु ) नछत्र, तारा, सित्ररे नखर तदु० ( घु० ) नह, नद्ध, कड़े नख । ( ४४७ ) नगी नखरा दे० ( पु० ) चोचबा, द्वाव माव -तिहा (पु०) नखरेबाजी, चोचलेवाजो । [मयूर, वृसिंद । नखायुध ठव्‌० ( बि० ) बाघ, कुश्कुट, मुर्गा, मोर, नणियाना दे* ( कि० ) नक्न से बद्चेटदा खधोरना, नखाघात करना, खमाटना । नखी तद्‌० ( वि० ) नख विशिष्ट, नखघारी, नश्न- चाढा, नसेछ, थे जन्‍्तु जो नप्त से झ्ाक्रमण करते हैं नग तत॒» ( पु० ) पढाद, पर्वत, शृ्ष, जड़ पदार्थ मात्र, सात की संस्या | ( दे० ) नगीना, अथंगुट़ी भादि राहनों पर जइने फे पत्था [-चर (१०) गिरधारी, श्ोईष्ण 7--पति ( घ०) पर्वत स्वामी, पढाड़ों का मालिक, द्विमालय पर्वत । नगचाई दे (स्रो०) समीर, मिध्ट, निश्टागमन, अवाई | [हुँ चना । नगचाना दे० ( क्रिड ) पाप श्राना।- समीप, जाता, नगवाद दे० (द्वी ०) सामीष्य, निश्वटता, नगहाई। नगज़ा ( ख्री० ) पार्वती । [ के संवेग से बनता है । नगयण ( १० ) इन्दोशास्र ऋा पुर गय जो तीन भपरों नगएय ( गु० ) तुष्छ, हऐय । [एच जड़ी । नगदौना तद्‌ू « ( घु० ) नागदमम, अऔपध विशेष, नगन तदु ० ( वि० ) नश, नह्त, वच्चद्दीव, दिगरवा, अनादइत [--( स्री० ) छोटी वच्ची जो नंगी घूमती फिरती है | विस्पर । नगमिन्नक तद्‌० ( पु० ) पापाणामेद, पक प्रकार का नगर तद ( पु ) धुर, प्राम, बढ़ा प्राम “कोड ( ५० ) कोट कागरढ़ग, नगर के बादर की भीत जारी या नायिका ( खी० ) गणिका, देश्या, बाराक्‍्ना/नगर की साधारण श्री |--चर्ती (वि१) नगर के मध्य में स्थित, नगरवासी, नगर में रहने दाले |-वासो (०) नागरिक, नगर के बासी ।--दा ( गु० ) नागरिक, शहदरुभ्ा | नगराई ( सी० ) नागरिझता, चतुगई, धूत॑ता। नगरी तर्‌० (स्वी०) बस्ती, ग्राम, गाँव, छोटा गगर। नगरोपान्त चत्‌« ( घु० ) नया झा परिवर, नपर का निकास | नगाड़ा या नगारा ( दु० ) नयथारा, नकारा, नहांरा। नगरी ( स्री० ) नग, नयीना, पार्वती, नाय स््॑री नगीय नगीच दे० (.पु० ) समीप, निकटे, पास | नगीना ( 9० ) क्षीरा पत्रा आदि । नगेन्द्र ( घु० ) पर्वेदरान, दिमालय । नशझ तत० ( थि० ) नप्ता, चस्नद्वीन | नचवाता दे? ( कि० ) नाच कराना, नचाना, जृत्य कराना । [ नाच करने बाला । सच्चैया दे० ( ६० ) नचाने चाछा, नतंक, वृतद्यकर्ता, नचहिं दे* ( क्रिं० ) नाचता है, चुत्य करता है । नचाता दे० ( क्रि० ) चचचाना, साच कंगना, मृत्य कराना । नयावत ढे० (क्रि० ) नचाता है, मुद्य कराता है, नाच फराता है | यथा+-- सत्रहि' भचावत राम श॒ुसाई' । लर नाचहि' सरकट की नाई ॥-रासायण । सचिकेता ( छु० ) चःजश्नवा ऋटपि के पुत्त का नाम । सहन ( पु० ) भकछतन्न, तारा +ोी (गुर) भव्ापी, भाग्यवान्‌ । नट त्त्‌० ( पु० ) नर्तक्ों की पुक जाति, भर्तक, नच- - दैया, भाड़, कैतुछ्ीी, मायावी ।--तागर ( छु० ) नरशिरोमणि, श्रीक्ृष्णचस्द्, ठोवदा, जादूगा। --भूषण (३१०) दस्ताक् |--त्र (ए०) मदादेव। नद्खठ दे० ( बि० ) धूतं, कपदी, धली, पाखण्डी, उत्पाती, उपद्वी । नटखटी दे० ( ख्वी० ) घूक्तेतरा, कपट, छल | नदत दे० ( क्रि० ) ना करता है, नाहों करता है, झश्वी हार करता है । मना दे” (क्रि० ) न मानना, दोदवा, नकारना, सुकरना, नादीं करना, सशता, सटट होना, बिस- डुना, ख़राब होना । [छा खेक, छुल प्पन्ञ मद्पमाया तव्‌० ( स्नी० ) छुलविद्या, इन्द्रजाल। नट नया दे ( १० ) सेनदा, साथावी, स्वगी, डीउबन्द है नखय्साल दे० ( ५९ ) हृदाकटा । शिया; हठ गया । . भद्या दे० ( करिए ) चाचा, भागा, झुछर गया, फिर सदिन दे? ( स्ली० ) बट की ऊ्री, नदों, जादू करने बाली ही, टोनढी ३ [की स्त्री, वेश्या, गणिका । नटी वव्‌० ( स्त्री० ) नद की स्त्री, नाटकों सें सूत्रघार नहुग्ा, नंदुबा ( पु० ) चढ, नदवा, न की एक जाति विशेष । ( घ५५ ) े नदना ( क्रि+ ) नष्ट होना, बियड़ना । नड़ दे ( ६० ) जाति विशेष, जो चूही आदि बनाते हैं, घुड़िहार । [निहुरा । नत तथू्‌० (वि०) [ नमू+क्त ] न्न, विनयी, विनीत, सतइत ( धु० ) नतैत, गोन्री, कुडुम्दी |. [धिइवा | नतकुर ( घु० ) बेदी का बेटा, नवासा, दीहिन्न, नतरु दे० ( अ० ) नहीं ते, ऐसा नहीं हुआ तब, अन्यथा । सिर्दरी, बा, नारी | नठाड्ी तत्‌० (स्त्री०) नत्‌ +अद्ज + है ] घुवती, नति दत्‌» (स्त्रो०) [ नम + क्तित्‌ | नमस्कार, प्रसाण, अभिवादन । है नतिनी दे० ( स्त्री० ) नातिन, बेश की बेदी, पैश्नी। नतीज्ञा ( ३० ) परिणाम, फक्ष सतु ( शु० ) नहीं हे।, अन्यथा, ऐेसा नहीं ते। । - नतेत दे० ( वि० ) मातेदार, सगा, सम्प्रन्धी । ज्थ दे० ( पु५ ) नाक में पदनने का गहना; .घड़ी नत्थ या नथुनी | [पदलने के लिये चाक छिंदासा | नथना दे० (स्त्री० ) नाक का छेद | (क्रिः) नथ नथती दे० ( स्प्नी० ) दध, नाक में पहनमे का स्त्रियों का पुक आभूषण पुक प्रकार फा प्रस्तर। जिछसे चैढ नाथा जाता है। नथी दे० (स्त्री० ) छिद्दी, फैंसी, नाथी गई। नथुआ दे० ( घु० ) बाधने वाला, छिंदुशा । चथुई दे+ ( स्त्री ) छिडुदे। नथुता दे? ( छ० ) नाक का अम्रभ्नाग | नद्‌ तत्‌० ( पु० ) बढ़ी नदी, जिपकी घारा उत्तर या पश्चिम की श्रोर ज्ञाती हे, यथा-+शोण, ब्रह्मएुत्न, सिन्‍्ध आदि | (शब्द, जातृशब्द । मदित तद्‌० ( घि० ) शब्द किय्य हुआ, शब्दित, झत- नदिया ( स्री० ) छोटी नदी ।( पु० ) चन्‍दी बेज्, पूर्व बंगाल) का स्व॒नाम प्रसिद्ध एक नगर जहा के सैयायिक प्रसिद्ध हैं । नदो पत्‌० (ख्री०) पर्वतों से निकला हुआ बह स्रोत जो समुद्र में जाकर म्रिक्ते, गड्रा, सरयू, बुना आदि । -+कान्ता ( र्री० ) काकजता नासक घूटी। - +-यर्भ (०) नदी के उमयतट के वीच का स्थान | +-ज्ञ ( पु० ) भीष्मपितामद, भर्जजन छत, निमक विशेष (गु०) नदी सेडसपन्न :--माठुके ( वि० ) * माला गयी नदेश नदी के जल से उत्पन्न खेती बारी -मुख ( १० ) नदी का बहाव । नदेश तत्‌० ( 4० ) समुद्र, सागर, महेद्घि । नदोला दे- ( ५० ) बडी नाँद, जिपमें बेछ आदि खो प़िलाया जाता है, जो मह्ठी का वना ड्ोतता है। ननका दे० ( पु» ) छोटा बच्चा, छडढका, डाडछा, दुच्बारा | नत्द तद« (स्त्री०) पति की बहिन, ननही | सनदिया, ननदो दे० (स्त्री०) ननद॒,पति की सगिनी। | ननिद्दाल दे* (०) नादा का घर, माठा के पिता का | । नतु तत्त० ( झ० ) निरचय, अवधारण, भरजुज्ञा, सम्म- सन्‍्द्‌ तत्‌* (9० ) श्रीकृष्ण का पाछने बाह्य पिता, है घर, नाना का गवि। विद्वान, अनुमति, अनुनय, भमन्त्रण, आप, विरोधोक्ति, उप्प्रेषा । | यमुना के दूसरे ली? पर पहले एक योकुछ नामक गाँव था, वहाँ गोप बसते थे । नन्‍्द उन्हीं योथों के अधिपति ये | उप समय कस मथुरा छा राजा था | नन्‍्द भथुरा के राज्ञा के काद सामन्त थे! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ग्रोकुल्न ही में पत्ते ये। वहीं उन्होंने कंस के द्वारा मेने हुए रादसों का बच किया था। यहीं से कंस के घजुयंक्ष में निमन्किठ दोकर श्रीकृष्ण मधुरा गये और चढ़ कस के सार ( 8४६ ) बन नन्वृकुमारं के गे से बत्पन्न हुए ये । इनके पिता का नाम नन्दी था। परन्तु बौद प्रन्थकार कहते हैं कि नन्द वेश्या के गर्म और नाई के द्ीरस से उत्पन्न हुए थे । जे। हे ये साग्यशाजी थे इसमें सन्‍्देद नहीं | पाटलिपुत्र का राजा चपुन्रक मर गया था। राजमन्भी यहदी विचारते थे कि किसका अभिपेक्ष किया जाय, किन्तु जब्र वे कुछ भी निश्रय न कर सझे तथ उस समय को भ्था के भमुधार वे नगर के बाहर राजदसि, झश्व, छय, कम्म और चामर आदि राजसाम्रप्री लेकर उपस्थित थे | इसी समय नन्द्‌ पहाँ_ तपस्थित हुए | राजइस्ति से इन्हीं पर घड़े के जब से अभिषेक किया और सूद से इतको अपनी पीठ पर रख लिया, चारों श्रो! मप्नह्घ्वनि होने ढगी । इनके घंरा में क्रमराः सात नम्द राजा हुए थे | कक्एक नामक पुक मद्दापण्डित नन्‍द के सन्‍्त्री थे श्रन्त में मर्ये मन्‍्द्‌ राजगही पर सैठे,जिन्‍्हें मद्दानन्द भी कहते हैं। इनके सम्त्री कर्रक के पुश्न शकरटाल थे | इन्द्दीं के समापण्डित विष्यात वररुचि थे। भ्रसिद्ध रामनीति कुशछ चाणक्य ने पहप्ती नन्‍्द वंश को राज्यश्रष्ट करडे उन्द्रगुप्त को राजासन दिया था। जिस घटना छा भ्रपलम्बन कर» विशापदत्त ने मुवाराइस नामक नाटक बनाया है।“-रानो (स्थ्री०) बशोदा,श्रीकृष्ण की पालने बाली माता | कर अपने माता पिता के यहाँ रहने छगे। इन वे | मन्दकुमार तव॒७ (३० ) पे रुश्यप ग्रोन्नन दब छे इन्दाबन नहीं लौटे झृष्ण के चले जाने के बाद ही से बन्द का औवन एक प्रकार का बोझ हो गया था | इंस श्रीर डिस्वक को मारने के किये पक पार श्ोशेध्य वृन्दावन गये थे और वहीं नन्‍्द भोर यशोदा से मेंट भी हुई थी, मम्द और यशोंदा को समसय कर श्रीकृष्ण पुन* मथुरा छौट भाये इसके ब्राद पक बार भार मी भीहच्ण से इनकी सेंट टुई थी बढ सेंट प्रभास चोत्र में ड््ई थी थो अन्तिम मेंट थी। नन्‍्द पहले जन्म में म्रोण नामक बसु थे (२) मगध का राजा, इस नाम के नौ राजा * धाटलियुत्र के सिंहासन पर चआारूढ़ हुए थे। इनकी आपत्ति के विषय में अनेक अकार की चातें मिटती हैं ।इराणो में खिला है दि ये ए्‌द् ग्द्गा बशघर थे | बंयारू के महाराज झादि शूर ने कश्चोज् से पाच आाद्मण विद्वान बढाये थे | दच उन्हों में से पक ये।नन्दकुमार # पूर्वुरुप सुशिंदावाद जिले के भरूलछ गाँव में रहते थे। भद्दाराज मन्दकुमार के पिता का नाम प्रद्चनाक धा। नन्‍्दुइमार के पूर्वेपृद्षपष प्रीतमुण्शी भामक गरवि में रइते थे, इसी कारण इनझछा वंश पीतमुण्डी याह्यण माम से विश्यात था | बंगाठ के नवाब प्रक्ीवर्दी्सा के सम्रय में नन्‍्दकुसार ने भसीनी के पद पर रद्द कर बहुत घन काम्राया था। पहस्तु बर्दों के दीवान से कुछ खटपट दो जाने के कारण इन्हें अपना काम द्ोइवा पढ़ा, अल्ीवर्दी के मरने के श्रनन्द्र सिराजुरैठा बंगाल के नवाय ड्र्रा नन्‍्दृइुमार नौकरी के छिपे सिराज के यहाँ आते न्तच्द्न जाने कमे । सिराज्ञ ने सन्‍्दुकुपार को दीवानी काम्त दिया। अँगरेज्ञों के साघ अमवनाव हेने के कारण सिरान के पदच्युत होने के अनन्तर नन्द कुमार छार्ड झ्वाइव के सुँशी नियुक्त हुए | छाइच के विज्ञायत चले जाने पर, चेरेलट साहब बहाल के गवनेर हुए । ये पद्दिले ते नन्‍्दकुमार को बड़ी प्रीति से देखते थे परन्तु पीछे किसी कारण से इस दोनें में परस्पर विरोध दहे। गया । बैरेलट के बाद कार्टियार वद्नात्न के गचनेर हुए, ये मी अपना सथम पूरा करके चले गये। भारत के प्रथम गवर्नर- जनरल बारित हेसूटिंगुज्ञ के जमाने में नन्‍्दकुमार को एक मुकदमे में उल समय के जज सर इला- ज्ञाइस्पे ने प्राणान्त दण्ड छी आज्ञा दी | नन्‍्दकुमार मरने के खतय ४२ लाख रुपये और सूमि सम्पत्ति छोड़ गये थे। एक बार इन्होंने एक छक् ब्राह्मणों के इच्छामाजन कराया था | नन्दुन तच्‌० (०) [तन्‍्वू + यु] पत्र, बेटा, आनन्द- दाय, सुखदायर, प्रखादक, प्रसन्न करने चारा, सम्तान, विष्णु, नारायण, पर्चत विशेष, इन्द्र का डपयल । (वि०) दर्पशनक, आह्ादजनक ।--ज ( धु० ) हरिचन्दन | नम्दूतन्‍्दूम तद्‌० (०) श्रीकृष्ण । नन्दा-तत्‌० (स्त्री०) [नन्‍दू--श्रा] तियि विशेष, देफनें पर्तों की प्रतिपत्‌, पष्ठी और एकादशी तिथि, सम्पत्ति | भगवती का दूसरा सास । बार पुराण सें लिखा है! कि ब्रह्मा ने देवी से कद्टा था कि देवि ) आपने दैवों के बहुत बड़े कार्य किये हैं, परन्तु श्रापका एक और भी देवताओं का काये करना खाहियरे | आपके महिपासुर का विनाश करना द्वोेगा । बह्मा के थद कहने के अन्तर देव- ताओं ने भगवती की हिमालय में स्थापना की और वे इसले बहुत प्रसन्न हुए, इसी कारण अग्वती का नाप्त नल्दा पड़ा । दूसरी छुखकों में किख्ता हुआ है कि भगवती देवल्ेक नल्दनकानन और पविन्न हिमालय में रद कर बहुत आवन्दित हुईं थी | इसी कारण उसका नाम नन्‍्द्रा पढ़ा है । अन्दात्मज्ञ तव* (१०) [ नन्‍दू + भाक्तज ] श्रीकृष्ण, श्रीबलरास ( छ४७छ ) चस 5 नन्दि चत० ( पु० ) शिव का द्वारपारू, धूत कीड़ा, जुआ का खेल । नन्दिम्राम तद॒० (एु०) ग्राम विशेष, जहाँ आोरामचन्द्र के वनवास के समय भरती तपस्या करते डर राज्य व्यवस्था करते थे । नन्दिवाष तव॒० (०) अद्धेन के रथ का नाम, शासन्दु देने वा्ा नन्दियों का शब्द, भारें की स्तुति) मफ़ल घोषणा । नन्दिनी तव्‌० ( स््री० ) [ नन्‍्दू + इन्‌ +ई ] कन्या, घुन्नी, उम्रा, सह्मा, वशिष्ठ की धेजु। कामघेनु की कन्या, नन्दिनी, महर्षि वशिष्ठ ने इसी घेचु का पाऊन किया था। सेघा से प्रसस्त करके इसी नन्दिनी के प्रसाद से श्रवेध्यापति राजा दिलीप ने रघु मामक पुत्र पाया था। साली,पत्नी की बढ्िन | नन्‍दीी तत्‌० ( पु० ) [ नन्‍्द + इच्‌ ] शिव का अचुचा, महादेव ने इसके द्वाररक्षक का काम दिया था। वुृज्तचिशेष, चटदृक्ठ, शाल्तझायत मुनि, यह शिव के शेश थे । [सगिनी का पत्ति। नन्देई, नन्देसी दे० (छु०) मनद का पत्रि, पति की सब्दोला दे? (पु० ) नंद, -मह्ठी का बढ़ा ओंदा भाढ़ा । शिश्व, बालक । “चन्द्र दे० ( वि० ) छोटा, चारा, लघु, छोटा लड़का, नपुंसक तद्‌० (एु०) छोष, हिंजढ़ा, एुंसत्वह्दीन, पुरु- परवद्वीव ।--ता (ड्री०) वामदी ।--लिड्ढ (३०) तीखरा लिक्क | नप्ता तत्‌० (3०) कन्या का पुत्र, देद्दित्र । नफर दे० (पु०) वौकर, चाकर, सेवक, भ्ृत्य नफरत ( ख्री० ) घणा । नफरी ( खी० ) एक दिन की मजूरी | नफा (०) छाम। नफोरी दे० (सत्री०) वाद्य विशेष, तुरही, सवाई । नपेड़ना ( क्रि० ) सुछमाना, निपटाना। नवेड़ा (०) समाप्ति, सुझस्ताव, निर्यय | [ नाढियाँ । नउज़ञ ( स््ी० ) चाढ़ी, पहुँचे के ऊपर की रफ्तवादिनी, नव्ये (पु०) सेल्या विशेष, ४० । तरस तत्‌ ( पु०.) झाकाश, गगव, असमान, आवण फा महीना ।--श्चर (१०) - झाकाक में चकने चाले पढ़ी ।--स्थल (9०) शाकाश | शा« पर०७-रेंछ ममग ( ४४८ ) नयवत ममग तख० (पु७) पी, परिद, नभचर, देवता, | मप्तित तदु« (॥०) कृत नमस्कार, विनश्र, कृतविनय, नपत, प्रंद, पल्तेर, चिट्टिया |--नांथ ( घु ) गरद, चद्धमा। ममगामो तत० ( पु% ) मभग, पद्ची, नदत्र। समभगेश तत्‌० (पु० नमयनाष, गरद, चन्द्रमा । नमभचर तदू० (प«) पलेह, पत्ती विधासागर, भेघ, चायु, पैन [€ वि० ) भाकाश में धूमने बाला, आकाशचारी, खेबर ) जमचर या नमचर तत० ( पु० ) आकाश में वहुने बाढे, आशाशचारी, पची, ताश, भददेवता, विद्या अर, सिद्ध, गन्धरवे १ ध्षमसुप सर ( पुष्) साद्पद, भादें का महीना, जादमाछ । मसूस्वान्‌ ठत* (प०) [ नसस +चत्‌ ] वायु, अनिल, प्रवत, हवा | [गसन, उद्दना, बट पत । नमभेगति तत० ( स्री० ) [ तमस_+ गति ] आडाश नमेधूम तत* (पु०) [ नमध +घरम ] वारिद, मेब, घन । नम (गु०) हर, भींगा, भाद। नम तत्‌5 ( भ० ) नमस्कार, प्रणाम, अभिवादन। +-से आपडी नमस्कार काठा हूँ । नमक (पू-) दौंत, ल्यण ॥--झदा करना (क्रिब) शपका के ददले रपफकार करना ।--फूटना (क्रि") चेईभानी का परिणाम मोगवा “हराम (ग) उपकारक के प्रत्ति अपकार करने बाढा [--हलाल (गु०) बपझार का बदुढा देने चाज्वा | अम्रकीन दे० ( दि० ) नेाग की दस्तु, पकाद्व मिप्तर्ते नमक पडा हो, टवयाक्त | ममत, नमति हद्‌० (क्रि०) नमस्कार करता है, प्रणाम का है, ग्रमिधादन काठा है, सम्र होता हैं; शबता है, मुझ्ता है । सेप्तन तत« (३०) [ नम + भगर्‌ ] भधेगवमद, मद्च- होना, प्रदाम करना, जिनीत होना, नत झ्ेना । नमरक्तार सतत» (घु० ) [ नमस_+कार ] प्रणाम, सम्मान प्रदरोन करना | नमाज देन (१५) मुसदमानें की ईशासुति, मुसक्मानें की ईप्वर धमन्दता री रीति ६ ममामद एव» ( किन ) इम केग प्रयाम करते हैं | भ्रद्धीमूत । नपुचि तत्‌० ( पु७ ) कामरेंव, मदन, कन्देरे, पेश, विशेष, प्रसिद्र दानव, मदासुर शुम्म का त्तीसरा साई, शम्भ से घेटा विशाम आर विशुम्म से चोटा नमुचि था । (३ ) दिश्यात दानवराज, इपके साथ इस्ह की प्रिश्नता यी ॥ तथापि इन्द्र ने नप्लुच्चि ओ मार डाढा, नमुचि के मारने से इख के बक्षदया का देव ठगा था । इस दौप के दूर करने के लिये इस्द्ध ने धरुणा नामक नदी में समान किया था। अरुण नददी सखतो नदी की प्रधान शाखा है । प्र समय दानवराज नमुचि इन्द के सप से से की कि!शों में छिपा हुआ था, यह वेखकर इस ने इससे मित्रता की, और योलै, भिश्न | मैं सद कहता हूँ दिन में पा शत में भीगे या शुष्क वध द्वारा मैं जुम्दारा विनाश झरने की चेष्टा मी करूंगा । एक दिन मीहार से दिशाएँ झाष्क्त्र थी | डपो समय जलफेत द्वारा इख्द ने समुचि का सिर देदव किया | इस समय यढ द्िम्न सुण्ड दोढा अरे प्रापी ! तुमने मित्रवयध किया, यह कह कर दानवराज के सिर ने इस के दौह़ाया, डर कर इन्द्र अद्वा की शरण गये, म्र्ञा के उप" देश से इस्त्र॒प्ररुणा नदी में स्‍्तान तथा यज्ञ करके पापमुक्त हुए । अनन्‍तर थद् दानवराने का सिर भी अरुण तीपे में स्नान कर भरद्ययधाम को गया | नप्न सथू० (वि* ) [ नम्+२] कृतप्रणाम, विनयी+ बिनीत, मिलनप्तार ।--ता (ख््रो* ) विवय, विनीतश्व, मृदुत, विभीतमाव | नय तव० (१०) नीति, रीक्ति, मांति, न्याय, धर्म, दूत विशेष । ( बि० ) म्यास्य, अ्राचिय, नेता। दे० ( पु० ) नौ की संख्या, निषेध, झसस्‍्वीकार +-कांटी ( पु ) नछ्वैधा, नाचने वादा । नयत तव॒« ( पु० ) छोइन, नेत्र, भाँस, व ) >>गेचर (४० ) दश्टिनोचर नेषपप, भाँखों का सामना |-विशारद ( प० ) नीतिकृए७, नीठिशास्न पण्डित । नयना नयना तदु० ( स्त्री० ) अ्राल्लें| का तारा, इसली, तारका, कन्तीनिका । चगनो (ञ्वी० ) श्र की पुतली, दस शब्द का व्यव- द्वार प्रायः उपमादय वाचक शब्दों के साथ हुआ करता है । [ आधुनिक, नव, टठका ! नया दे० ( वि० ) नवीत, नूतन, अमिवव, ताजा, चर तत० ( पु० ) मानव, सनुप्य, सालुप, परुष, साय- बल में विष्णु का चौथा अवतार नर का बतलाया गया है।यद धर्म की पत्नो मुक्ति के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं. । नर और नारायण ये दे सूर्ति था, परन्तु दोनों की आकृत्ति सप्ताव थी । सदा, भारत में लिखा है कि नर नरायण बत्रिकाश्रम मैं कहोर त्पापा करते थे। नारदजी वहां गये उन्हें बड़ा आख्रर्य हुआ कि जिनकी उपासना संपार कर रहा है, देवता पधादि भी जिनका सर्वदा ध्यान छरते हैं, वे किसकी उपासना करते है।। भारद ने पूँछग, भगवन्‌ ! आप लोग किसकी उपासना कर रे हैं । सगवन्‌ बोले--जे| सूक्ष्म, अ्रविज्लेय, कार्यविह्दीन, अचल, नित्य, तथा ब्रियुणातीच हैं, जिनसे सत्व आदि यु उत्पन्न द्वोत्ते हैं, जे। वास्तव में अब्यक्त दाने पर भी च्यक्तसूप से अवस्थान करके प्रकृति नाम से परिचित हैं, वे परशाध्मा दी हम व्योगों के भी कारण हैं, हम ज्ञोग उन्हीं की उपासना करते हैं। वर सारायण की कठिन तपस्या देख देवता डर गये, इनकी तपस्था में चिघ्त करने के अर्थ इन्द्रादि देवें। ने अष्छरायें सेहीं, परन्तु यहाँ अष्सराशं के किये कुछ न हुआ | उर्वशी की सषटि करके नारायण ने अप्सरा और देवों के सनोरथ पर पानी फेर दिया । यही नर नारायण द्वापर के घन्‍त में श्रुन और श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए थे । “देव ( छु० ) राजा, हुपतिः ब्राह्मण, विप्र । नारायण ( ० ) देए ऋपिये। का वाम, सग- बान्‌ का चौधा अवतार, श्रोकृष्प, अज्चुन ।--पति ( पु? ) राजा, चरति, नरेख्र ।-“पुर ६ ड% ) म्यज्रोर, चुलोक, भूलेक १-मेंच ( छु० ) ण्क्ष विशेष, जिश्न यज्ञ में सनुप्य का वध करके बलि दी जाती है (किय्री सप्तव में चस्मेद शद से ( छह ) प्तरखिंगा श्ाह्यणों का म्सेज़न कराना समझा जाता था, परम्तु अब यह अर्थ गौण हो गया है ।--क्ताक (०) नरघुर मस्यंघाम, मत्यंछोक ।-घाहन (३०) कुबेर, यक्षरात्, उदयन का पुत्र, गन्धर्य, चकपरतोी। -+सिंद ( $० ) इसेंड, भगवान्‌ का अवतार | लस्क तव॒७ ( घु० ) देवरात्रिअमेद, दैत्य विशेष, भूमि का पुत्र, कष्टअतकस्थान, पापसोगस्थान, नित्य । पुराणों के नस्‍्कों में नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं| तामिस्र, श्रन्घतामिसक्ष, रौरब, मद्दारीस्च, कुम्मीपाक, कालसूत्र, असिःत्रवन, शुकरमुख, अन्धकुर, कृमिमोजन, सन्देश, तप्तमूमि, पद्- कण्टड, शाशमली, चैतरणी, पूपेद, प्रायरोघ, विश- सन, लालाभछ्ष, सारमेयादन, अवबीचिरयापान, क्तारकद म, रघ्तोगण, भोजन, शूलछप्रोत, दुन्त धूक, अविनिशेघन, परयवितन, सूचीमुल्ष भादि ।+-- न्तक (६० ) क्रोकृष्ण का नाम ।--कुएड ( छु० ) कष्दायक कुण्ड, पाप का फझ मोगने का कुण्ड, ब्ह्मवैतरत पुराण में लिज्ा है कि नरक कुण्ड म६ दैं ।--गामों (०) पापी +--वंतुरृंसों (च्वी० ) कार्तिक कृष्ण पक्ष १४ शी। चरकद दे० ( छु० ) ठणविशेष, सरकंडा। नरकाछुर तत्‌० ( ६० ) पुक राक्षस का नाम, चंद श्रीकृष्ण का मित्र था। नरकेसरी तत्‌० ( पु० ) नासिंद, भगवान्‌ छा चौथा अवतार । ( वि० ) नरश्रे्ठ, प्रधान मनुष्य | मरकान्तक तव्‌० ( घु० ) [ नरक + अन्तक | विष्णु, श्रीकृष्ण ॥ नरकामय तव्‌* (पु० ) [ नरक-+॑-घामय ] म्रेंत, पिशाच, नरक का रोग, कुशशेम | सनरकी तव्‌० ( पु० ) तरकपेयग, दुखी, पापी ॥ सरक्ु तत्‌० ( पु० ) नारक्ी, चारत्न, खतरा, नरक्ी+ कप्तल्ा नींबू । नरदूदा दे० ( घु०) नाबी, पनादा, कीचड़ की दौरी ! नस्म दे० (वि०) झदु, कोमल, अकठिन, भ्रा््,शीवक्क । मरमद्‌ दे० ( वि० ) सुखद, सुख देने बात्टा, दिश्े्ल, मसखूरा । [ रदु बनाना | नरमाना दे० ( क्रि० ) नरम करना, कामल करना; नर्यसेंगा दे? ( एु० ) पुर मह्ार का बाज्ञा, दुरही । मरसिंगिया मरसिंगिया दे० ( पु० ) नरतिंया बजाने चाछा । नरसों दे० ( धु० ) बीता हुआ था झ्ाने वाला चौथा दिन) मरदड़ दे० ( घु० ) पिण्डली की हड्डी, पिण्डारी | भरदरि तव्‌« ( १० जसिंह, नरसिंद, दिप्छु का तए (-दास ( ४० ) चुठसीदास के शुद्ध का भाप, कवि विशेष । नराघम तव« (पु० ) [ नरक श्रघम ] भ्रषम, नीच, पापी, दुराचारी, भसस्कर्मी | नयप्रिप हत्‌० ( धु५ ) [नर + अधिप] राजा, नरपति, चेपति ,भूपति, धूपाठछ | मत्या देन ( १० ) खपरा, छोटी भाक्ी, मिद्दी का बना हुआ एक भशध्ार का खड़ा जिससे मकान छाये जाते हैं। भरी तत्‌» ( स्लोौ० ) नर जातीया सझ्री, उसमे विशेष, चाम, चमढ़ा। छौद यम्त्र विशेष, जिसमें कपडे घुनने के लिये सूत रखते हैं। भरुक्ष दे० ( वि० ) पुछिश, घुरुष । [ घाँदी । भरेठ दे" ( पु५ ) साँछी, नछी, नतिका, नटई, गढ्ा, नरेदी दे० (द्री०) प्रीवा, गछा, नडई, गन, डेंडुआा । “दवाना ( दा५ ) बढा घोंटना, मारना, जान से मार डालना] मरे तव० ( धु०) [ नर+ इन्द्र ] नरेम्बर, बहु- देशाघिपति, राजा, नरपत्ति, विपवैध, विष चिकित्सक | नरेश उत्‌० ( पु० ) [ नर+ ईशा ] राजा, चपति] नरेश्चर तव्‌* ( दि० ) [ नर + दैशवर ] देशाधिपत्ति, राजा, नरेन्द्र, नरपति । नरोत्तम ठद्‌० ( वि० ) [ नर +उत्तम ) भरेष्ठ मनुष्प, इत्तम भर्ुच्य, समाजपति, किसी दल का अगुआ ) (६० ) विष्णु, श्रीकृष्ण | नरक तद० ( ६० ) [नृत+ थक] जुद्यछारी, साचने बाढा, नगद, धारण । [[नरी, देश्या, वाराफ़नाव नततेकी तव्‌० (द्री० ) [ नेक + ई] इल्यछारियी, नर्चंत तद० (पु०) [ छृव+ चनदू ] नृत्य, नाच, अह- सक्की :--िंप ( पु ) छिछ्की, भयूर, सेर | मर्देंक दह ( पु०) [व्द + भू] दोडने वार्य, श्च, करने चाढा ! ( ४६० ) नलकूवर नदूवा या नहा दे० ( घु० ) पनाला, नाली ! नमे तत्‌० ( पु ) [ज+मन्‌] रौतुछ, ली चा, कीड़ा । नंद तत० ( घु० ) [ नम +दा + ड्‌ ] फेल्लि सचिव, फ्रीड्मा विशेष के सदायक, आनन्द छारी, सुरदापक। नमंदा हव्‌« ( स्लरी० ) जदी विशेष, यह नही दृद्िण में है । रेवा, मेफलकन्यका । नर्मदेश्वर ( छु० ) शिव, महादेव । नमंसचित्र तत० (पू० ) [ नम + सचिव ] राजा के साथी, क्रीड्धामित्र, मुसाहेद । नम्ती ( स्ली० ) नरमी, कोम्तता । नज़् तत्‌० ( पु० ) तृण विशेष, फॉडी, बाँस, नेजा, सीध्ता धातु की बनी नल्ती, पादप, नाली, प्रणान्री, पताली, खश्, पितृदेव, दैद्य विशेष] मैपघरान | स्वर्ववर विधि से इन्दनि विदुर्मराज् भीम की कम्पा दृमपन्‍्ती से विदाह किप्रा था। दुमयन्ती के रूप और गुण की प्रशंसा घुनकर नत्व उप्त पर भ्रासक्त हुए थे। पक दिन राजा नज्ञ ने उच्चान में पूमते घूमते पक इंघ पकद्ा था । €ंस मनुष्य की वेशी में राजा से कइने छगा, आप हमझे छे।ड़ दें, हम शापक्षा थहुत उपकार करेंगे | राजा मीम की कन्या दुमभन्ती के सामते आप गुण वर्णन करेंगे, मिससे वह आपके साथ अपना विवाह छर केगी | लक से इंस को छोड दिया। दमपरती के संम्रीप जाकर दस ने नत्व के गुणों का बर्णेव किया, दुमयस्ती नत् पर भमुरक्त हो गई। कन्या को दिवाद गरेग्य देख मीम ने स्वयंदर सभा जोढ़ी, उसमें देवताभ्ों को छोड़कर दमयस्ती ने नक्ष को ही चरण किया। शुक बन्द्र का नाम यह शिदप्रह्कार था । नलकृवर तद्‌० ( पु० ) यदराज झुवेर का पभ्न] हसके भाई का नाम मणिप्रीव था। पुद्ठ समय दोनों भाई मदोस्मच होाझुर कैठास के सन गजानीर के तपोबन में स्तियों के साथ क्रीद्ा करते थे | यह देख सारदजी के यढ़ा क्रोध चाया। उन्होंने शाप दिया । सारद के शाप से नश्चकुवा चीर सणिग्रीद दोनों भाई यमब्बासुंद बृष् दवा गये थे] वक्ाल के प्रसिद रवि शुयाकर भारतचन्द राय ने एक स्थान या छिला है कि नारद के शाप से नछकुवर का जन्म, बजदेश में भवानन्द मजूमदार के सूप में हुआ भा। चलद्‌ तद० ( झु० ) पुष्परस, मकरन्द, उशीर, चीरण- सूख, खस । नलपरण्िक दे* ( छु० ) कक्षिहारी । चत्मा तत्‌० ( स्वी० ) बदरस्थ नाड़ी विशेष, नरा। नताना दे० ( क्रि०्) निताना, खेत की धास आदि निकाक्षना । [शिरा, सुगर्घित दृब्य विशेष । नज्लिका तदु० ( ख्री० ) [निलिक + आरा] नाड़ी, चली, सलिन त्तव॒० ( स््री० ) पद्म, कमल, पानी, जरू। प्रक्त विशेष, सारस पच्ची नलिनी तव्‌० ( स्ली० ) [ नक्तित+ ई ] पद्मयुक्त देश, पग्मसमूह, पशलता, कसलिनी, कुमुदिनी, कोई फमछाकर [--सद (8० ) रूणालू, कमल की डंद्वी नलिया दे० (घु०) बद्देलिया,ज्याध, निपाद,चिड़ीसार । नत्ती तस्‌ ( स्नी० ) [ नर + ई ] नरेदी,प्रीवा, गर्दन, गल्ना, घी, लोहे का एक यन्त्र, जिसमें सूत रख कर कपड़े विलते हैं । नद्लुघा दे० (४० ) बाँस का दोंगा, जिसमें पत्र श्रादि रखते हैं, था साध लोग पानी पीते हैं। नघ तत« (वि०) नया, नवीन, नूतन, अभिनव, संख्या विशेष, एक कम दूस, ४, नी ।--मारिक्रा (स्वी०) नई दुलदिव ।--कुमारों ( ख्री० ) « झुमारिय्या उसके ज्ञान है। कुमारिझा; २ श्रिमूक्ति, हे ऋष्याणी, ४ रोहिणी, ४ काली, ६ मंडिका, ७ शाम्मवी,म दुर्ग और & सुमद्रा ।“-जणड (३०) छथिदी के नौ साग, भ्राचीन भूगोल वेत्ताश्ं ने पृष्बी के नौ भागों में बट था।वे ये हैं;--मारत, इक्ावते, कि पुरुष, भव्व; केतुमाकू, दविरण्य, सस्थ, इरि, छुए ।--प्रह (०) सूर्य आदि नौ प्रद ।-- * छुगों (खी० ) दुर्गा की नौ मूर्ति, शेलपुत्री श्रादि ।--द्वार ( छु०) शरीर के नौ साय, यधा-- #नचद्वारे का पीजरा यामें पंछी पौच? | ज-+कवीर | --दीप ( छ० ) नदिया; पूर्वी बंगाल का नगर विशेष ।--घाभक्ति (ख्री०) नौ प्रकार की भक्ति, अक्ति के झुष्य दो भेद हैं, अर्धाव्‌ “ब्रा?! और “अपरा” । “पर” भक्ति अलोकिक्त होने पे इसमें कोई सेद घहीं, किन्दु अप्य सक्ति नी ( छह! ) नवल्ल पअकार की है थथा--१ श्रवण २ कीचेंक, ३, स्मरण, ४ पाद सेबन £ श्रपेण ६ चंदन, दास्थ, मे सख्य और & आत्म लमपंण ।--निधि (४५) कुबेर का खजाना |--वश्चू ( ख्ी० ) नई बहू, हुलहिन, झुवती |--वॉला ( ख्ी० ) नवयोवना, युवती ।-न्यौचना (ख्री० ) झुबती खत्री ।-- रत ( ए० ) युक्ता आदि नव प्रकार के मणि | यथा--द्वीरा, पन्ना, माणिछ, नीहूस; रूहसनिया, इएखराज,; गजमुक्ता, मोती, मोगा । विक्रमादित्य राजा की गमसभा छे नौ पण्डित,यधथा--धम्वस्तरि, क्षपथ्षक, अ्रसरसिंह, शड्कु, वेतालटभट्ट, घदकपर, कालिदास, वराहमिद्दि और वररुचि | ध्राभूषण विशेष, जिसमें नौग्तन जड़े हों [--राज ( ६० ) आश्विन मास की शुक्ल भ्रतिपदा से लेकर तवमी * पर्यन्‍्त और चैत्र शुक्क प्रतिपदा से छेकर नवमी पर्यल्त नो दिन तक किया जाने चाला शत | --रखे (०) चच प्रकार के रप्त, यथा “-ख्गार, बीर, करुण, अदूसुत, हास्य भयानक, बीभत्प, रौह्ट और शान्त ।--भक्ति ( स्त्री० ) नव प्रकार की भक्ति, लवधा भक्ति “शिक्षक, चुतन अध्यापक, भया पढ़ाने वाज्षा ।-सड़म ( ४० ) प्रथम समागस, स्त्री १रूप का प्रथम मिलन । नथती तदू० ( स्प्री० ) नवनीत, माखन, नैनू, नौनी । घबमीत तद० ( ४०) माखन, मक्खन, नैनू नवम तव्‌० ( वि० ) नवाँ, चद संख्या की पूर्ण करश्ते बाली संख्या । कं नवमालिका ( स्त्री० ) पुष्प विशेष, वर्णेद्रत विशेष । नवर्माश तद्‌० ( पु० ) नर्वा साग, नर्षा हिस्सा, नव भाग में का एक भाग, है। नवमी तछ्‌« ( स्त्री ) [ सवस + है ] नौमी तिथि। तिधि विशेष) चन्द्रमा की नवीं कछा का क्रिया काल । [ किया ज्ञाता है | नवयज्ञ ( इ० ) वद यज्ञ जो नवीन अन्न के निमित्त नवयुवक ( ए० ) तरुण, युवा, नौ जवान । नवल दे० ( वि० ) नया, नवा, नत्रीन,सुन्दर, मनेश, मनेाहर, ( घु० ) पक पौधे का चाम ।--किशोर (छु०) श्रीकृष्ण चन्द्र ।--वक्षू (स्क्री०) मुरधावाविका का एक भेद, सुन्दरी स्त्री । नवा नवा दे० ( वि० ) नवीय, भूनन, नया | नवींग तव्‌० ( पु० ) नवम, नर्वा द्विस्सा नवाड़ा दे० ( घृ० ) नाव विशेष, नाव, डॉगी | नपाना दे० ( क्रि० ) झुछना, निहुराना, नम्र करना, नवा देना,विनीत करना। [सम्बस्पर का प्रयम अच्च । नवाप्न तत्‌० ( पु») [ नव-श्रक्ष ] नवीन अ्रत्न, नवारना दे० (क्रि०्) रमना, भटकता, घूमना, फिरमा, किसी मवीन धस्तु का भोग करना | नवारी दे० ( स्त्री० ) पुष्प विशेष,उसझा बुद्ध, नवारी का फूल | [ बेटी का बेटा ) नवासा दे० ( पु० ) दाद्वित्र, दोद्विता, पृत्री का पुत्र, मवासो दे० ( म्व्री० ) बेटी की बेटो,दोदिती | (दि०) संख्या विशेष, झ॥ | नथी दे० ( स्त्री० ) गरादन, सौसा, पगा। ( घु० ) मुसझमानों के सविष्यद्का । [तवण इत्पद । नथीन त२० ( वि० ) नव्य, नूतन, तारझाल्षिक उतपन्च, नवोढ़ा ठत्‌* ( खो० ) [नव + ऊद्रा] नूतन विवादिता ख्री, नवयौवना, मुग्धा नायिका विशेष। यथा-- “मुग्धा जो भष जात जुत रति न चद्त पतियज्ञ | तादि नय्रेढ्ा कइत हैं, जो प्रवीन रखरक ॥7 >-+रसराज । नद्वे दे० (वि० ) न्रति, ३०, नवद॒द्वाई, १० कम १००॥। नव्प तत्‌« ( दि० ) नूतन, नवीन, झ्राधुनिछ | नश्वए तद* ( वि* ) नाशगान्, विवासी,विनसनशी छ, मिष्या | नष्ट तव्‌« (पु) [ नश्‌ + क्र] नाशप्राप्, घ्वस्ठ, पछा- वित, झूत, अपचित, अष्ट, दुष्ट, शठ । ( वि० ) अदुर्शन विशिष्ट, तिरोदित, नाशाश्रय ।--चित्त ( वि० ) मूढ़, दतवुद्धि,भक्षान, अवियेड्ी /--चेए ( गु० ) [ नश+चेष्टा ] घपन्‍्दद्दीन,निश्तब्घ, 'चेष्टा हीन ।-चेएता ( स्त्री० ) प्रहयय शेक शभ्रादि के ट्वारा शरौर की चेष्टा घूज्यता, संज्ञाद्दीनता, कुकर्म चिकुपु प्व, पाप करन की इच्छा |--। € स्थ्री० ) आ्रष्टता, दुष्टठा, शढ़ता ।--चुद्धि ( गु० ) निउंदधि, अविषेडी प्र ( गु७ ) बिगढय हुभा, ढूटा कूटा, बेकार ।--संस्द्धति ( वि० ) विस्मरणशील, स्मरण शक्तिविद्दी न] ( ४६२ ) नद्दारवा नए्ट तब्‌० (स्थत्री० ) अष्टा, दुशा, ब्यमिचारिणी, कुन्टा । नस दे० ( स्त्री० ) नाड़ी, रम, सिरा । नखाना दे० ( छ्लि० ) नाथ काना, विधाइना, अष्ट करना, तितर ब्रितर करना | [ का अ्रप्रमाग। नसी दे० ( स्त्री० ) इछ छा फाक, चौ, तोड़ा, फाले नछसीव दे० ( पु० ) माग्य, अद्ट, कपाठ । मसीद दे० (धु०) अ्माग्य, दुर्भाग्य, भ्रशुम,भपरशकुन । नसीहत ( स्व्री० ) सीख, उपदेश, लानत मलछामत । नसूर दे ( पु० ) पुराना धाव, नस का घाव । नसेनी दे० ( स्प्री० ) निमेनी, सीढ़ी । नस्ता दे० ( स्त्री० ) नाक का छेद, नथना । [नाप्त। नस्य दे० ( घु० ) ताम्रकूटचू्, हुलास, सानुवासिछ, नहेंछु ( पु० ) विवाद की प्‌८ रीति जिध्तमें वर की इनज्ाम्त बनायो जाती है, नशत्र छाटे जाते हैं । नह दे० ( पु० ) नछ्त, मखर, नाखून । नदहेक दे० ( वि० ) दुर्वेछ, चीण दल, पतला, सूध्द। नहद्टा दे” (9० ) नश्नचत, नखाघात, पश्ेट,खलेट | नहनी दे* ( स्त्री० ) नख काटने का अस्त्र रिशेष, नहद्ी । नहन्ना दे० ( स्प्नी० ) नहनी, नइरनी । नहरनी दे० ( स्त्री ) नहनी, नसकटनी, नख काटने का भस्त्र । नदहरुष्या दे० ( पु० ) एक रोग का नाम, यह भाय' पैर में होता है और चैचधों के राप में दु साध्य है। नदलाना दे० (क्रिब्) स्नान कराना, नद्वाना, नहवाना | नह॒वाना दे० ( क्रि० ) नहढाना, स्नान कराना । नद्दान दे० ( घु० ) स्वान, अवगाइन, शौच | नद्दाना दे० ( फ्रि० ) स्नान करना, शरीर शुद्ध करना; अवशादन करना । नहानो दे० (स्री० ) श्लिपों का रजोदर्शन के समय फा स्नान, खतक स्नान । उिपवास। नदहारदपुद दे० ( झ० ) बिता मोजन, बिना खाये, नहारवा ै दे० ( घु० ) रोग विशेष, मार निकलना नद्ारू ) इस रोग में शरीर के किसी स्थान से नहारुआ | खूब के समान कीड़े निकलते हैं । यह रोग राजपुवाने के प्रान्ठों में विशेष दोता है । नहारी नहारी ( खत्री० ) कलेवा, प्रातःकाल का जल पान ! नह्दाता ( क्रि० ) स्नान करता| [का घर। चहियर दे० (प० ) पीहर, मैका, खी का अपने पिता नहों दे० ( घु० ) नख, नाखून । नहीं दे० ( ० ) निषेध, सना, मत, न, नकारना । नहुघ ततू० ( घु० ) चन्द्रवशीय आयु नामक राजा के घुन्न | इन्होंने तपस्या और यज्ञ आदि के अलुछ्ठान ह्वारा इस्द्र का पद्‌ पाया था। महर्षि अयस्थके | शाप से इन्द्रपद से अष्ट होकर प्रृथ्यी पर दस | हजार वर्ष तक साँप होकर इन्हें रहना पड़ा था। | नहुप के बहुत प्रार्थना करने पर अगरत्य मे अजुगह करके कहा था कि तुम्हारे वंश में युधिष्टि मासक राजा होंगे उन्हीं की प्लत्नता से छुम्हारी गति | होगी । घतवाल के समय भीस एक दिन अद्वेर को गये थे, चहीं भीस को नहुपरूपी अजगर ने पकड़ लिया । भीस के आने में विलम्व देखकर उनको छूने के लिये युधिष्टिर भी निकले। वहों की अचस्था देखकर युधिप्ठिर ने सर्प का परिचय | पूँछा और साथ ही भीम की रच्या का उपाय भी। | सर्प अपना परिचय देकर उसी ससय शापसुक्त | हुआ और दिल्य शरीर धारण करके यथास्थान चला गया | नटृूसत ( घु० ) सनहूसी [ अब्यय । ना दे० ( आ० ) नहीं, अभाव; निपेथ, निपेधार्थक नाइक ( छ० ) झुखिया, अगुआ। साइन दे० ( ज्नी० ) नापित की ली, नाई की स्त्री । साईं दे० (अ० ) सदश, समान, चुल्य, अकार । नाई दे० ( छु० नापित, नाऊ, क्षौरकार, स्वनास ख्याठ जाति विशेष । साउठ दे० ( छ० ) नाभि, डड्ढी । नाऊ दे० ( घु० नाई, नापित । माँदिया दे० ( छ० ) सहयदेव का वाहन, बैल, बुपभ्ष, जो महादेव का वाहन है | नसाँव, नाऊँ दे० ( पु० ) चास, संज्ञा, अभिधान, कीति यश, प्रतिष्ठा । नाँह दे” ( आ० ) निपेधार्थक अव्यय । नाक सत्‌० ( छु० ) [न+अक] स्वर्ग, जहाँ दुःख न हो, स्वर्गज्षोक । दें० (स्त्री०) नासिका, नासा |--पति | ! | । छई३ ) नाग ( इ० ) इन्द्र, देवराज, सुरेन्द्र +--नठी ( ख््री० ) अप्सरा, देवाह़ता, स्वर्गवेश्या ;--कदाना (वा) अपमानित होना, आनादर कराना ।--कदी होना ( चा० ) स्वर्य अपनी अतिष्ठा शैंधाना, अपना साच खोत्ता, भ्रयशस्वी होना, बदनाम होना ।--का बाल .( वा० ) अध्यन्तभिय, ईप्सित, मु ह।लगा ॥ चढ़ाना (वा०) अप्रसन्न होना, विरक्त होना, क्र होना ।--रखना ( वा० ) प्रतिष्ठा रखना, सान रक्षित रखना ।---सकोड्ला (बा०) नाक चढ़ाना, अप्रसन्न होना,अप्रसन्नदा जनाने की एक मुद्राविशेष । नाकछड़ा दे० (घु० ) रोग विशेष, माक का एक रोग १ नाका दे० ( पु०) मार्ग का अन्त, एक मा का अम्त और दूसरे का आरस्म, चैकी, निकास, सुई का [ढ, मगर, घस्यार, हॉँगर । नाकिन दे ( ख्री० ) वह स्री जो नाक से घोले | नाग तत्‌० (घु० ) सर्व, साँप, अहि, पत्रग, हाथी, इन्ती, सूच्म, वायु भेद (--डरण (.४० ) धातु विशेष, सीसा ।--कन्या (स््री०) नागों की कल्या, पातालवासी देवताओं की कन्या ।--केशर (पु०) छुप्प विशेष, एक प्रकार के फूलों का चुत्च । +“मर्ख (पु०) सिन्दूर |--चास्पेय (छु०) नाग केशर वृत्त /--ज (० ) सिन्दूर, रद्ट -दुल्त ( छ० ) गजदन्त, हाथी का दाँत, घर की दिवालों में गढ़े ढण्ड, खूँटी ।--दुन्तक ( ए० > घर की भीत में लगे ढण्डे, खूँ टी, आला, ताख (--दुच्ती ( स्तरी० ) श्रीहस्तिती, विशल्‍्या, इन्दबारुणी। “-बसनी (सत्री०) छोटा पोघा विशेष ।--पंश्चमी (ख्री०) आावण शुक्ल की पशञ्ममी जिस दिन नाग की पूजा होती है ।--पाश ( छु० ) अख विशेष, सर्पसुँह, एक फंदा जिससे झुद्ध के समय शाम्नु को बाँध लेते ये । फॉँस, फंदा, फाँसी (-फाँस ( छु० ) पारा, फॉँसी, फंदा ।--बेल (पु ) पान, तास्वूल +--भाषा ( खत्री० ) प्राकृतभाषा, बह भाषा जो पातालवासी वोलते हैं ।--माता € स्री० ) करयप ऋषि की सखी, कह, !--रिपु ( छु० ) नकुल, न्योता, मोर, मयूर, गर्‌इ, हाथो का वैरी, सिंद +--लोक ( ४० ) पाताल, भागों का चासस्थाल । नागदौन ( ४६४ ) नाट न पक मत 2 220 न्‍ किन जम ज कक जज मिशन 23742 कमल अजय नागदौन दे० ( घु० ) पौधा विशेष, समस्या, सुगर्य- असीम शाखहमता हुई । विद्वात्‌ इनका समय युक्त पौधा । ३७ वीं सदी स्थिर करते हैं । नागन, नागनी दे० ( खी०) सर्पिणी, सॉपिन, माग | न्ञागोद दे० ( पु० ) छाती पर रसने का कवच, उर- की मादा । ।.. ख्ाण, घाती का मिलम । नागर तद्‌० (घु० ) नगरवासी, चतुर, दक्त, निषुण, | नागौर दे० ( पु० ) मारवाड के एक नगर वा नाम, कुशल, ब्राह्मण विशेष, इस जाति के आद्यण गुज- यहाँ के नागौरी बैल प्रसिद्ध हैं। [ फलाँग जाता । रात में विशेषता से पाये जाते है । ' नाथना दे० ( क्रि० ) लॉघना, डाफना, दाक जाना, मागरद्वू तव० ( छु० ) नारडी, कला नींबू | नाच दे० ( पु० ) हृत्य, भाव्य, नाचना ।--नचाना नागरमुरुता तत्‌» (स्री०) मोया विशेष, जढ विशेष । , ( बा० ) सताना, पोढ़ित करना, दिऊ करना, तंग नागरमोथा तद्‌७ (पु० ) सुगन्वितृण विशेष का सूल, | करना, विवश करना । नागरसुस्ता । » नाचना दें० (क्रि०) शल्य फरना नाव करना, माह नागरि. तद० (खत्री० |. ० ( क्रि० ) नाचता है, हृत्य करता है, अल हे, एज) (चारो पाए भीजी। हे नागरी तत्‌० ( स्री० ) लिपि विशेष, एक प्रसार के | नायिकेता रुत० ( पु० ) प्रसिद्ध तपस्वी उद्दालक के अर, सस्कृत, अछर, शिक्षितों की लिपि, सम्बो | पुत्र, एक समय महंर्पि उड्ालक पूजन सामग्री ८ की लिपि । [ है, लाइल । | नदी के तीर पर छोडकर चले श्राये। घर श्रारर नागल तद्‌» ( ए० ) दल, जिससे खेव जोता जाता | उन्होंने अपने पुत्र नाचिकेता को उन सामग्रियों नागा दे० ( पु० ) भप्न, दसनामी शुसाइयों ली एक यो लेने के लिये भेजा, परन्तु उन्हें थे वहाँन शास्ग, चैरागियों की एक शाखा । मिलो, अ्रतएुव नाचिकरेता रीते हाथ चले शाये, नागाद्वा तद॒० ( स्ली० ) मागदौन, मस्झा । उनको देस पिता अल्वन्त कुद हुए और उन्होंने नागारि तन» (पु०) नाग +अरिं] गरड, नागशसु, कहा तुम यमराज का दुर्शन करो । पिता के ऐसा वैनतेन, मयूर, मोर, न्योता । फद्ते द्वी नाचिकेता गिर कर मर गये । उद्दाज्रक सागाजुनत तत्‌« ( पु० ) सहखबाहु, कार्चबीर्य, इसी की दशा अदभुत हो गई, बद भी भूच्धित हो गये। महाप्रतापी राजा को परशुराम ने मारा था। शव वहीं पड़ा रहा, दूसरे दिन देसा गया उस नागिन शदू० ( खी० ) नाग को ख्री, सर्पिणी शब में कुछ चेशट होने लगी। उद्दालक ने अपने सागिनी सापिन। पुत्र को यद कह बर प्रणाम किय्रा कि हमने नागोजीमट्ट तत» (पु०) एक सस्कृत वैयाउरण का अपने प्रभाव से देवलोक का दर्शन किया है। नाम, ये काशीनिवासी महाराष्ट्र बह्मण थे। इनके हुग्दारा शरीर मनुष्य का शरीर नहीं है। पुन पता का 'नाम शिवभद्ट और माता का नाम सती नाचिक्रेता ने अपनी यात्रा का हाल वर्णन क्या । था। ये शक्षेरेरपुर €( सिगरौर) के राजा रामसिद कठोपनिषद्‌ में नाचिझेता का वृत्तान्त दूसरे प्रकार के आश्रित थे। इन्दोने बहुत अन्य रखे ह। से कहा गया है | वहाँ उनको राजपुत्र लिखा हैं । परिमापेन्दुशेसर, लघुशब्देन्दुशेखर, बृहन्मझूपा, | नाजें दे० (पु०) अनाज, श्रप्त, घान्य, नखरा, खघुमझूपा आदि स्यासरुण के अन्य प्रायरिचत्तेन्दु- घमणड, समान । शेखर, तीयेन्दुशपर, आदि शेसरान्त घर्मशास्त के | ना ( पु० ) नख़रा, हावभाव । बारद ग्रन्थ तया बहुत से ग्रन्थों को टीजा इनकी | नाजायज्ञ ( भरु० ) अनुचित, अनियमित ॥ घताई है। कहते दे. सोलइ घ्ष तक ये झुठ | नाजिम ( पु० ) अवन्ध््तों, प्रधान म्यन्‍्धकर्तता । नहीं पढ़ते थे, पीछे झिसी के उपदेश से इन्होंने | नाठ दे० ( पु० ) वासा, वासस्थान, बहने की भूमि, बागीशरी के सन्‍्त्र का जप किया, जिससे इनकी कर्णोंट देश विशेष, दुत्प, माच । नाठक ( ४६ ) नाधना नाटक तत्‌० ( पु० ) गद्यपद्यमय काव्य विशेष, रह्न- शाला में खेलने के उपयुक्त काव्य, दृश्यकान्य का पक सेद्‌ । ( गु० ) नर्तक, नचवैया, नाचने वाला। “शाला ( सत्री० ) नाटक ग्रह, घर जहाँ नाटक खेला जाता है । [ मसख़रा । नाठकी ( शु० ) नाव्क वाला, स्वॉंग करने वाला, नाठ्कीय ( गरु० ) नाठक सम्बन्धी, नाटक की कथा । नाठन दे० ( पु० ) नतैन, नाच, नाच करना नाटा दे० ( वि० ) हस्व, खर्व, हस्वाकृत्ति, ढिंगना, बोचा, छोटे कद का । नादिका तत्‌० ( ख्री० ) नाड़ी, द्श्यकाब्य विशेष, स्वॉग, उपरूपक का एक सेद । नांटी दे* ( स्री० ) छोटी, टिंगनी, छोटे कद की, इस्वाकृति की स्त्री ! नाटेथ तत्‌० ( पु० ) नटी का पुत्र, वेश्यापुत्र। नाख्य तत्‌० (पु० ) हृत्म, गीत और चाहा, नट समूह, नाव्य आरम्भ करने के नक्षत्र, यथा-- श्रद्यराधा, धनिष्ठा, पुष्प, हस्त, “चित्रा, स्वाती, ज्येष्ठा, शत्भिषा, और रेबती ।--शाला (ख्री० 2 नाव्य मन्व्रि, नाच धर, अटारी के द्वार के समीए का घर । [ विपयक चाक्‍्य | नाथ्योक्ति तत्‌० ( ख्री० ) [ नाव्य+ उक्ति ] नाव्क नाठ दे० (पु०) अभाव, नाखति, शल्य, रहित, चजित । नाठा ( पु० ) अकेला, अनाथ, असहाय । नाठी दे० ( क्रि० ) नष्ट की, नष्ट हुई, भागी, र्लगई, हट गईं, झुकर गई, पलट गईं, गई। नाड़ दे० ( ख्री० ) भवा, घाँदी, नरेटी, गला, मर्दन । भाड़ा (१० ) इज्ञारबन्द | [ बढ़ी । नाडिका तत््‌७ ( सख्री० ) एक घड़ी, साठ पल, धटिका, नाडिमरडल तत्‌० ( थु० ) स्वर्गीय रेखा विशेष, निर्देश । नाडी तत्‌० (स्री० ) धमनी, शिरा, उद्रस्थशिरा, हाथ की झुर्य नस, नली ।--तिक्त ( पु०) औपच विशेष, चिरायता --धर्म ( यु० ) खुनार, स्वर्ण- कार मण्डल ( घु० ) नाडियों का समूह, नाड़ी समुदाय ।--क्ञान ( पु० ) रोग परीक्षा, निदान झान 7-जरण ( पु० ) नसों का घाव, नासूर । | | । | ॥| ब कल नल ++न+++++ अमल मम -न सा आन न नल +++> मे -5 २०7० 40 ० सात दे० ( पु० ) सम्बन्धी, विरादरी, नातेदार, द्वितू ! नातर या नातरु तदू० ( आअ० ) नहीं तो, नान्यथा, चान्यत्तर । नाता दे० ( पु० ) सम्बन्ध, नात । नाताकत ( गु० ) चलहीन, दुर्बल । नातिन दे० ( ख्री० ) पौत्री, पुत्र की बेटी । नाती दे० ( पु० ) पौच्न, पुत्र का पुत्र, पुत्र का बेटा पोचा | बधा।-- ४ उत्तम कुल पुलरत्य के नाती । शिव विरंचि पूजेहु बहुभाँती ॥' --रामाथ्रण । नाते ( क्रि० वि० ) मिस्र से, सम्बन्ध से, लिए, निमित्त +--दार € पु० ) सस्वन्धी । नाथ तत्‌० (पु० ) स्वामी, प्रभु, नियन्ता, कर्ता, प्रति- पालक, नाक की रस्सी, जो दुष्ट बैल्ल आदि को पहनाते हैं ॥ एक सम्प्रदाय विशेष, गोरखनाथ का चलाया कतफठा सम्प्रदाग्र का दूसरा नाम नाथ सम्पदाय है । इनके अलुआआयियों के भाम के अन्त में नाथ लगा दिया जाता है। यथा --भोरख- नाथ, गम्भीरनाथ, आुछिन्द्रनाथ आ्रादि । भाथवान्‌ तत्‌० ( पु०) पराधीन, प्रश्न॒ विशिष्ट, मालिक के साथ, सस्वासिक । नाथना दे० ( क्रिग.) वशीभूत करना, नाक छेंदकर नथ पहलाना, नथ पहनाने के लिए नाक छेदना ( नाँद दे० ( स्री०) नदोला, मिद॒टी का बना बढ़ा श्रोझ बरतन जिसमें गाय बैल सानी खाते हैं । लादू सत्‌० ( पु० ) [नंद + धण्‌] ध्वनि, शब्द, गर्जन, अर्धैचन्द्राकार बर्ण, जिसका उच्चारण अजुस्वार के समान होता है, वद्यस्वरूप विशेष। नादन तत० ( पु० ) [ नद+ णिच्‌ + अनद्‌ | शब्द करना, शरजना, ध्वनि करना, सलाद करता । नादना दे० ( क्रि० ) आरम्भ करना । मादबिन्दु तत० (पु०) बिन्दु सहित, शअ्र्द्धचद, ओगियों के ध्यान करने का तत्व । [लने का मार्ग । नादाहा दे० ( पु० ) पनाज्ला, नाली, खाई, जल निक- नादित तत० ( वि०) छशित, घ्वनित, संजात शब्द। नाथना दें* (क्रि० ) युक्त करना, जोतना, बैल को हल या गाड़ी खींचने के लिये जुए में लगाना । शब पा०--२& (४६ |] नाधा नाथा दे? ( पु० ) पानी निकालने का सा्गे, पादया चमड़े की बनी रस्सी जिससे बैल झुए में जोते जाते दें । नानक दे० ( पु० ) सिक्‍सखों के सुर) १४६६ ईं० में ! इराबदी नदी के तीरस्थ पज्ञाव के तलबन्दी | नामक गाँव में नानक का जन्म हुआ था। नानक के पिता का नाम कालू था। सात वर्ष । की अयस्था में कालू ने अपने पुत्र को विद्यालय में । पढ़ने के लिये भेजा। नौ वर्ष वी अवस्था में अपने पुत्र को यज्ञोपवीद देने के लिए कालू प्रबन्ध ' नानवाई ( पु० ) रोटी बना कर बेचने बाला । [नाना। . बरने लगे । यह देस मानक ने अपनी असम्मति ' प्रकाशित काके क्द्दा इस लौकिक यज्ञोपत्रीत से क्या लाभ, परमात्मा का नाम उपवीत है। कालू सामान्य स्थिति के ग्रहस्थ थे । उन्होंने एक दिन कुछ पैसे नानक को बाज़ार से सामान ले आने के लिए दिये। परम्तु नानफ गरीयों को पैसे | बाँ- कर घर लौट आये । उनके पिता- ताइना देने लगे। उस समय नानक ने कहा जि मनुष्यों के साथ बेचने ख़रीदने में जो लाभ होता है, उससे अधिक लाभ ईश्वर के ख्राथ बचने ख़रीदने में होता हैं।उस समय नानक की अवस्था १४ वर्ष की थी । एक दिन सानक सोते थे, उनके पैर किसी देयमन्दिर की ओर थे। इससे लोगों को आरचर्य हुआ किसी के पूँ छने पर मानक ने कहा जिधर मैं पैर फैलाऊँ उधर ही तो इईरघर के सन्दिर है। इस भ्रकार भार्वी सिय गुर का हृदय घर्ममाय से पूर्ण था। नानक एकरेश्वरयादी थे। इन्दोंने यढे परिश्रम से अपने पन्‍्थ यो प्रचलित क्या था। इनके यनाये ग्रस्थ का नाम “ अन्यसाइब ” है। इस पन्‍्य के . साध उदासी बच्दे जाते दैं। नावक के ट्विन्दू और , मुसलमान दोनों शिष्य थे। लोग कटद्दते हैँ कि | हिन्दू और मुसलमान इन दोनों जातियों में प्रेम | स्थापित करना ही नानक का उद्देश्य था। ४० | चर्ष घी अयस्था में ये शिष्यों के गुरु हुए। कहते हईं उनके झूत शरीर को झुसत्मान चेले क्चर देना , चाहने थे और हिन्दू जलाना। इसलिये दोनों में ) खूब झतद़ा हुआ, अन्त में देखा गया कि नानक ! > दे) का शरीर वहॉ नहीं था, इस कारण कफन के दो डुकडे करके चेलों ने अपना अपना मनोरथ पूर्ण किया ।--पन्‍्थ दें? ( पु० ) सिस सम्प्रदाय, गुरु नानक प्रचारित सत, एकेखरवाद ।--पन्‍्थी दे० (पु०) गुर नानक के मत के अनुयायी, सिख । “शाही ढे० ( पु० ) नानऊपन्‍्थी, अथांत्‌सिस । नानकार € पु० ) कर रहित भूमि, माफी ज़मीन । नानखताई ( स्री० ) टिजिया पी तरद एक प्रकार वी सोधी और ख़स्ता सिठाई । नान्‍्दरिया नानसरा ( पु० ) ननिया ससुर, पठतिया ख्री का नाना तत» ( श्र० ) श्रनेझार्थक्, उभयार्थ, उिविध। दे० ( घु० ) मातामह, माता के पिता ।--कार ( घु० ) [नाना + श्रासर ] अनेऊ रूप के, विविध भाँति के, श्रनेक झ्रायार के, बहुत चाल के। --कारण ( पु० ) भाँति भाँति के कारण, अनेक प्रकार के हेतु +--ज्ञातीय ( घु० ) अनेक प्रमर, अनेऊ तरह ।+-त्मा ( घु० ) [ नाना+ श्रात्मा ) आत्ममेद, थक एयर आत्मा --घ्यनि ( ४० 2 अनेक प्रसार के शब्द, विविध ध्वनि ।-प्रकार ( पु० बहुत भाँति, अनेक रीति।--भाँति (वि०) भॉति मॉति, तरह तरह, रग रग ।--मत (5०) मिन्न भिन्न मत, बहुविधि सिद्धान्त ।--रुप (5०) अनेऊ प्रकार --्थ (घु० ) [ नाना+ श्र्थ ] अनेक अर्थ, बहुत श्र्थ ।--विधि ( ग्ु० ) अनेक अकार, अनेक उपाय ।--शास्त्रज्ञ ( पु० ) विविध विद्या विशारठ, पदशाखी । नानी दे० (स्त्री० ) मानामद्दी, माता पी साता। नानुकर ( पु० ) सन्देद, अरस्पीकार, भादी । नानद दे० ( घु० मट॒टी का बढ़ा पात्र सानिया दे० ( शु० ) शिवयाहन, बुषम । नान्दीमुस् तत्‌० ( पु० ) श्राद विशेष, जो पुत्र जन्म विवाद आदि उत्सव शृत्यों में क्या जाता ई अम्युदयिक शाद्ध । थथा-- # तर नान्दीमुख श्राद करि जावकमे सब फीन “+रामायय । नान्‍्द ( गु० ) नन्‍्दा, छोटा । नान्द्ररिया ( घु० ) छोटा यज्या, यालक । तान्हा (: ४ई७ ) सारक चान्हा ( ग॒ु० ) नन्‍दा, छोटा । नाप दे० ( घु० ) साप, परिमाण, तौल, बजन, जोख। नापना दे० ( क्रि० ) सापना, परिसाण करना, तौलना नामाड्लित तत्‌० ( पु० ) [ बाम+ अच्लित |] नाम- चिन्हत, माम सुद्धित, खुदा हुआ नाप्त ।( ब्ि० ) प्रसिद्ध, विख्यात, अधिष्टित, यशस्वी । जोखना । [ नावि हे सर नाभमावली दे० (स्री०) [वास + अ्रवली] विष्णुसदर्- 40040 ) नाई, » बाल बनाने नाम, देवनामाह्वित उच्रीय रामनासी, नाप्रश्रेणी, + गोंऊ । | | (०3 7 दे न! की सूची, वासों की तालिका । भाश् ततण (६ छु० ) ट॑ का मध्य स्थान, नासि, | भामित (गु«) नवाया हुआ, नन्न बना हुआ । « वासि लव» ( छी० )# नाफू एक राजा का नास | नाम्री दे ( जि० ) विद्यात, प्रसिद्धि, यशस्वी, कीर्ति- चअक्र का मध्य, तोंदी, भाभ।--जन्पा (०) धह्मा, मान्‌ ।--होना ( वा० ) प्रसिद्धि पाना, विस्यातत प्रभापति, विध्वाता |-चर्ष ( घु० ) भारतवप, | होना । हिन्दुस्ताव । ! घामुमकिन (गु०) अ्रसम्भव, जेः हे मे सके नाम तत्‌० (पु०) नाव, सेझा, अभिधान, यश, ख्याति, ; बायक तत्‌० (३०) [ नी+ श्रकू ] प्रदर्शक, नेता, भ्रेष्ठ, प्रसिद ।--क (५०) तामवाला | इसका प्रयोण नाम अग्रयामी, प्रधान, हार के मध्य का सणि, साला चाल्ले शब्दों के अन्त मैं होता है ।--ऋरण या का सुमेर, सेनापति, अ्रध्यक्ष, प्रेसामिछापी पुरुष, कम (पु०) सेल्कारविशेष, नाम रखना,जन्म के दसवें अथड्रारसाघक् पुरुष | यथा दे।हा--- दिन यह संस्कार किया जाता है ।--करना (वा०) * तरुन सुधर सुन्दर सकछ, कास कलानि प्रवीन, प्रसिद्ध करता, यश फैन्नाना, विख्यात होना ।--- चायक सो मत्तिराम कहि, कवित गीत रसलीस ” कीर्तन (पु०) ने! प्रकार की भक्ति का एक भेव -- “+-रसराज | इयेना (बा?) कक्षक्वित होना, वदनाम होना, | भायन दे० (स्री०) नाइत, नापित की स्त्री । दुर्नाप दाना ।--देवा ( घा५ ) नाम रखना ।-- | नायव दे० (ध०) सहायक, प्रतिनिधि | देव ( घु५ ) एक भगवत सक्त का नाम जिसकी नायिका तह" (स्त्री०) प्रेमासक्ता झुधती, सामान्य बिस्दुत कथा सक्तमाल में है |--धरना (बा०) बनिता, सखी, भ्रगवत्ती की पुक शक्ति विशेष, नाम रखना, नाम ठहराना, दोषी ठहराना, अप, ज्क़पर रस का आलम्बन । यथा वेइा-+ राधी ब्रतछाना +-धराई (स्री०) पदनामी, बेह- # इक्मत जाहि विलाकि के, चित्त बिच रसमाव, उज़्वी, अप्रतिष्ठा ;--्ेय (पु० ) संज्ञा, चास [-- तादि बखानत नायिका, जो अब्ीम कविराय। / - निकालना (वा०) नाभी होना, यशघ्वी होना, ->रसराज । प्रसिद्ध द्वाना, नेक्नाम द्वोता +लिशान (छ०) खकीया, परकीया और सामाम्यामेद्‌ से नाग्रिका साम पता, नाम घास, पता ठिझाना ।--क्तेकर माँग तीन प्रकार की हैं | यथा।-- खाता) (व०) दूसरे की अतिष्ठा से आय प्रतिष्ठित बनाना, किसी प्रतिष्ठित से अपना सम्धन्ध बताकर घन कम्ताना |-ल्लेना (वा०) स्थुति करना, मन्त्र का ४ स्थकीय व्याष्टी नायिका, परकीया परवाम, से सामान्या नाविका, जाके घन से काम ?। पुनः आठ श्रबस्था के भेद से इनमें से प्रस्पेक के जप कश्ना, स्मरण करता, स्मरण छरते रहसा ।-- आठ भेद होते हैं । जेष (8०) झूठ, नर, जिसका केचछ नाम रह | नायिकी तद्‌० ( स्त्री० ) नायक की स्त्री, तीय, त्रियरा, गया दे १+हिता ( घा० ) घश होना, क्रीति कुट्नी, दूसी, वेश्या, नर्तकी, नाचने बाली | बढ़ना, धतिष्ठा बढ़ाना, प्रसिद्ध होना ।--शेप | नार तत्‌० (एु०) नर समूह, बहुत मसुष्य। (दे० खी०) सख्‌० (था० ) नष्ट, झत्यु प्रात, झत, सरा स्त्री, लुगाई ॥ हुथा । नारक तत्‌० ( वि* ) नरक सम्बन्धी, नरक में रहने सामा (ग्र०) नामक, नाप्तधारी | चाले जीव । है नारकी ( ४ई८ ) नारो नस न अल, लीइसइइ-ीसचख।:ीस -ततत त ा मारकी तत्‌* (वि०) नरकत्थ, नरक॑बासी, नरकमोगी, और शुँया डोरा, बडे जोर से रोने का शब्द, पापी, दुराचारी, दुराचार । *वर्चा का जल बहने का मागे। बॉर, | त्‌ः ह विशिण, तीर। मारडूफ तत्‌र ( धु० ) फक्त ढच विशेष, कमछा नोंर, | नाराच तव5 (१०) लीा।शमय षाणं, ; शंतरा एक प्रकार का खटमिद्दा फठ । । नाराज़ देन (६०) श्रसन्तुष्ट, अप्रसन्त । तारड्री (छ्वी०) फलछ विशेष । मारायण तन्‌« (३०) विष्णु, (नर देखे) संस्कृत का _ नारद तत० [ पु० ) देवपिं, मुनि विरोष, नारद के विषय में श्रीमद्भागवत में हस प्रकार लिएा है | मारद वैदेज्ञ ध्राह्मणें ही पुक दासी के पुत्र थे। वाएयबाढ में ये उन ब्राह्मणों की सेता 'रते थे। ब्राह्मण भी इनप्रे बहुत प्रेम करते थे। एक दिन नारद ने धाह्मणो का इर्श्विष्ठान्न खा लिया, , इसथे उनका चित्त शुद्ध हे गया भार वे हरिगुण गान काने छंगे, इस समय उनकी अ्रवस्था पाँच , वर्ष की थी। इसे कुछ ही दिने डे बाद सांप । के कादने से इनकी माता का वियेश दुथा। अब मारद स्वाधीन दे। गपे | प्राश्रम घाट छर उच्ता ! दिशा की थार ये 3प्रसिथ्रत हुए । घूमते घूमते यह | एक जड्नलल में पहुँचे। दे भूस प्यास से सताये हुए | थे ही से एक ताहाव में सवान जलपान काके थे एक ज्योतिषी, इन्होते मुहच्तेमात्ृणड नाम ज्योतिष का एक अन्य संस्कृत में लिया है भार मारतँण्ड बलमा नामक उसकी टीका भी आए ही में कियी है। पणिडत सुवाकर हिय्ैदी के मतसे इन ग्रस्थो का निर्माणकाल सन्‌ ४७३ ११७२ हें? है" नाशायण ने भी अपने झ्न्‍्य में यही अपना समय किछा है। मुहूर्त माउण्ड के अस्त में इस्हे।ने अपना कछुय परिष्य दिया है, जो यह है। इनके पिता का साम अनम्त था। देवगिरि से कुछ दूर पर टापर नामछ गाँव में ये रहते थे । इनकी समय १६ वीं शताडदी मानना ही बचित है ।-सैज् (प०) औपध विशेष, पका हुआ तैर विशेष |--वेलि (स्थ्री०) रत पतितों के श्द्धात के लिये धायश्रत विशेष इसी के तो! पर पृ बढ़ हे वेद फी दाया में बेड | मारायणशी तत ( रत्री* ) कक्ष्मी, नारायण की शी, गये और भगवान्‌ का स्मरण करने छगे | सगदानू ने हृदय में डइनछो दर्शन दिये, परन्तु नारद भगवान्‌, दुर्गा, गदर, मुदूगल मुतति की पत्नी, शतावरी, छुतावर, नागपण सम्वन्धिमी ज्योति विशेष | का दर्शन यहुत समय तक्र नहीं कर सश्ठे | इससे | मारि दे० (स्व्रो० ) नारी, श्रवेल्मा, नाही, पढ़ यम नारद को बढ़ा कष्ट हुआ | भगवान्‌ ने नारद के आकाशवाणी द्वारा खम्झाया। नारद, हस जन्‍म | में तुम इमारा सतद दर्शन नहीं कर सझते, हमने मुर्दारी अनुरागरृद्धि के लिये ही तुमे दर्शन दिया है। हुम साधु पैदा करे, उच्ी थे तुम इमारे- जिसमें कपडे घुनने के समप सूत रधा जाता है। बॉस का डुकड़ा, मिसमें मद्ा धादि भर का बढ़ी या चैस्े का दिया जाता है । नारिफेर, नारिकित्त ततु० (5०) स्वताम धसिद फव विशेष, मारियलछ, श्रीफड + पास था सकते हे । इसके श्रमन्तर नारद इस | नारियल दे« (पु) नारीकेल फछ । शरीर के घोद पराधामर पहुँचे । पुन युगशष्टि के | नारी लत ( स्प्री० ) नाड़ी, धुरुष धर्मयुक्ता स्त्री, स्त्री समय नारर, मरीचि, छूगु थ्रादि बहा के मानस पष्त हुए । मश्नवैद पुराण ने नारद का ब्क्षा का पुद्र बताया है ।-+ी (पु०) पुक बकार का यान, विश्वामित्र के एक पुत्र का बाम टीय (शु०) नारद सम्बन्धी (पु) अदारद पुराणों में मै एक । नारबियार दे* (१०) मिली, सेड़ी । नाग दे० (१०) नाडा, लाल धागा, मैज्जी, कप्ादनद, प्राज्ममा को कमर में झअढका कर रखने वाल, बटा येपित, अवब्ा, मदिद्या, जलवा, कुँद्वम्विती ४ दुपण (१०) छिये! है सद्रपान कुछ भादिं छे देय, यथा पान ( नशा श्राद़ि का ), दुर्ग संसगे; पति से विरद, घूमना, ( ती्याया ब्राढ़ि ), पर गृद में निद्रा और दास ये छ मारियों के दूषण हैं (>-घर्म (पु० ) झ्लियो का घर्मे, पति सेवा, बुच्च पाउन आदि। पतिशता घममें, मासिक दाता, सजोदरान । _ नाझ सार दे० ( ० ) ( देखे नहारूआ ) । नाल तव्‌ ० ( पु० ) कमल आदि की डंटी, हरिताल, नारू। ( दे० ) फांका, नक्न, चली, नल के आकार की बनी हुई वस्तु, घोड़ा बैल आदि हे खुर में जड़ी जाने वाली वस्तु, जे लोहे की बनी हुई होगी है | [जिसे मनुष्य ढोते हैं । नाक्षकी दे० ( ज्वी० ) शिविका, पाक्नछी, याल विशेष; नाला दे० (9०) जल निकलने का मार्गे, मारी, पनालछा | नाज्ञायक दे० (वि५०) अ्रयेग्य, दुष्ट, पाजी, भोंदू । नाल्िक तत्‌० (पघु०) आग्नेयास्तर, बंदूक, भुसुण्डी | नालिसिंदुक दे (पु०) संमालू। नाली दे० (स्त्री०) छ्लौटा नाछा, घुहारी, मुहरी । नाव तद्‌० (स््री०) नौ, नौका, तरनी, डॉगी, बेपट । नाचना दे० (फ्रि०) नमन, मवना,कुछना;प्रणत देता । नावरि दे० (स्त्री०) निवारा, जलक्रीड़ा, नाव पर जलछ* क्रीड़ा, नाव कुछाना, नाव फेरना । नाविक तत्‌० ( पु० ) कर्याधार, मस्ती, नाव खेने बाला, फ्रंघट, कैक्त । माश तव्‌० ( पु० ) [ नश्‌+घज्‌ ] जय, ध्वंस, छय, जति, हासि, अपक्षय, अदरर्शन |--वान (गु०) विनश्वर, नभ्वर, विनाशी । नाशक सतत» ( छु० ) नाशकर्त्ता, ध्वंसक्र, चयकारी, ज्ञतिकर, द्ानिकर्त्ता, उज्नाड़ू, चयक्रारक । नाशन तव्‌० ( ए० ) [ नशू्‌ + णिच्‌ +- अनट _] ६ सन करण, दइनन, मारण । नाशपांति या नाशपाती दे० ( छ० ) फू विशेष, बर्सात में उत्पन्न होने खाद्य फल । नाधित तव० ( पु ) [ नश्‌+ णिच्‌ + क्त ] ध्वंसित, इत; उच्छेदित । नाशितव्य तक ( गु० ) [निश+णिच +तप्य ] नाश करने योग्य, नष्ट करने के ड्ययुक्त ! समाशी तत्‌० (वि०) नाशक, नाशकर्ततां, उच्चाहू, उड़ाऊ। सास दे" ( स्त्री० ) नसय, सुघती, हुलास, तमाहझु का चूर्ण ।--दानों (स्थ्री०) वास रखने की डिग्रिया। भासना दे० ( क्रि० ) भायना, पलात्ता, पीठ देवा । नासत्य तत्‌* ( ६० ) अश्विनीकुमार, देववे्य । नासममक दे० ( गु० ) बद्धिहीन, अवोध, अज्ञान) मूढ़, सूख [-- ( स्त्री० ) सूखेता, अज्ञानता। ( ४६६ ) ॥ 4 नाहीं साखा तव्‌« ( स्त्री०) [वास +आ | नासिका: नाक, - द्वार पर की छकड़ी, रौस विशेष, नाकढ़ा, नासिका- द्वार पर मिकला हुआ सास -पाक ( छु० ) साक का एक रोग विशेय [--पुद ( घु० ) नाक; ना का चढ़ अमढ़ा जे छेदों के किनारे परदे का काम देता है ।--भेदन ( घु० ) नकछिंकनी घास -बाम्ावर्स ( घु० ) वास सासिका में पहनमे के गहने, नथ, बेखर आदि । - मस्त ( पु० ) नाक की मै ।-येनि ( पु० ) नपुंसक विशेष। नासिक ( पु० ) बंबई के पास का ती्ध विशेष, जर्दा गोदावरी के तट पर पञ्चुवटी है । नासिका तत्‌० ( पु० ) घाणेखिय, साक, नासा ।[ +-मत्त ( पु० ) नाक का भैलछ । नासीर तव्‌० ( पु० ) अ्रप्रस+, अमगामी, छेनापति के आये चलने दाली सेता | ( स्त्रो० ) नस | नाखूर दे० ( पु० ) नसूर, नस का घाव, पुराना घाव | नाए्ति बत्‌० ( क्रि०) नहीं है, भ्विद्यमानता, श्रभ्नाघ । नास्तिक तत० ( प०) [नास्ति न- इक] अ्नीश्वरवादी, ईश्चर नास्तित्ववादी, इुश्वर की सता न मानने वाला, जो देद का प्रमाण नहीं मानते हैं, वेद निन्‍्वक, पाखण्डी, चार्वाक, लौकायत्तिक |-ता ( छ्ी० ) नास्तिक्य, कर्मझल ध्यवि कुछ नहीं, इृपत प्रकार का ज्ञाक, मिथ्या दृष्टि ।--चाद्‌ ( ए० ) परछोक म॑ मानने वाढा सिद्धान्त ( नास्तित्व तद॒० ( पु० ) अभाव, श्रसम्मव, शून्वतता । माख्य तत्‌० ( त्रि० ) नाक का।( पु० ) नासिका में इप्पन्न होने वाला, बैठ की नाक में रूगाई जाने बाज्ली रस्सी | नाह दे? ( घु० ) स्वामी, साक्षिक, माथ, पति | नाहूक दे० ( घु० ) व्यर्थ, दिया प्रयेजन, श्रयधार्थ, अनुचित बाहर दे (घु० ) व्यान्न, बाघ, शेर, शादूंल | नाहरू दे” ( ० ) शेर, बाघ, चाम का डुकड़ा, मोंट खींचने रा रस्सा नाहल दे" ( छु० ) म्हेच्छचें। की एक जाति विशेष | ताहिं दे” (अ*) नहों, निषेध, अस्टीकारर्थक श्रब्यय] नाहीं दे० ( क्र० ) नहीं, न, मत, निषेध बोधक अच्यय नादुपि नाहुषि तब ( पु ) [ नहुष+ इस्त्‌ ] राजा नहुप का पुत्र, राजा ययाति। निः तत्‌» ( श्र० ) उपसगं विशेष, निपेधार्भेक, निश्व- यार्थक, निवेश, सुशाधेक, अतिशयार्थक, संशय, आछेप, कौशल, उपरम, सामीष्य, श्राध्रय, दान मोक्ष, अन्पर्भाव, बन्‍्धन, विन्यास | यह उपसग जिन शर्त्दों के पदले अता है उनके अर्थ को विपरीत कर देता है| यप्रा -निरुयोगी, बद्योय- शून्य ।---ऋण्टक ( वि०) सुखी, श्रानन्दी, चाधा रहित, निःशब्रु |-पाय ( बि० ) गरदोष, पाप रद्धित निरफाघ ॥-श्ढु ( बि* ) निडर, भ्रमय, मयशूत्य, साइसी [--प्रभ (वि*) प्रभाद्दीन, तेज- ही।, दीप्ति रद्दित +--शख्द्‌ ( वि* ) नी/व, श्यू- हीन, मौनी, वाक्य रद्दित, अवाकू '--शजाक (वि०) निजेन, एकास्त, रहस्य ग्रेपन, गुप्तस्थान । +-शैेषर ( वि० ) समाप्त, सम्पूर्ण, शेष रदित। -श्रेणी ( ख्री* ) सीढ़ी, नप्तेनी, भ्रधिरोद्दिणी, काष्टमय सेषान | काठ की सीढ़ी ।--श्रेयः (६०) कुशल, शुम, अनुमव, भक्ति, मो, मुक्ति, विद्या ।--श्वासित ( वि० ) दीर्धघनिश्वासी -घ श्वास ( पु ) प्राणवायु, प्रश्यास ।>-सड्ढ (वि० ) सह्ञ रहित, सकृच्युत, वाप्तनारहित। “संशय (वि०) निःसन्देद, निश्चय, संशय रद्वित । या सम्देद (चि०) घसंशय, निश्च, मुव ।-सम्पर्क (४५ ) भसम्बद्द, उदासीन [--सरण ( पु० ) विदा, उपाय, मिकलना, निकडने का मार्ग, रत्यु, निर्दाण, पद्विगंमर, निर्मेमन, चरण, सरहना, मरता, चूना |- सहाय ( वि० ) सद्दायदीन, असहाय, एकाकी, अक्ेछा, निराछम्ब, दु'खी, अनाप ।--सार ( दि ) असार, सारदीन, तेज पद्वित, छूंचा, रिक्र, राजी।--सारण ( पु० ) चद्ष्किरण,निरगंतकरण, विद्य्वना |--ूत (वि०) चरित, रूशा हुआ, यिरा हुग्या, निरुछा डुचा, मिगेन ।--स्नेष्ट (पु० ) प्रेमशून्य, घूखा, निई'य । -स्पुद्द ( वि* ) स्पृद्दाद्दीन, इच्छा रहित, अखि- च्जुऊ ।--स्त्र ( वि० ) दरिद, नि्धघेत । निश्र ( चम्य५ ) पास, समीप -नना ( क्रिल्‍ ) समीप जना, पास पहुँचना। ( ४७० ) निकाल निकद त्त॒" ( वि० ) समीप, पास, अदूर, चासच्र, सब्निकट, नगीव, उपकण्ठ, हपास्त सन्निद्वित। | ञ“वर्त्ती ( वु* ) विछूटम्थ, समीपस्थ (-र्प ( पु० ) पास रहने बाला [ निऊन्द तद्‌० (वि०) निःस्कन्घ, स्कन्धरद्धित, एसढ़ा निकन्दन तत्‌० ( पु० ) निमुंछन, उखाइना, उन्माइन | निकपट तदू्‌» ( वि० ) निष्कपट, शुद्ध ममका। निकरमा दे० ( वि" ) निदछा, बिना काम का, निगुंयी, भालसी, शियिल। निकर तत्‌० ( ५० ) [नि+ऊकृ+ चल ] समूह, राशि, सार, न्याय, देवघन, निधि, निश्चय, कररह्वित । निकरना दे (क्रि०) नि$ल ना, निगंत देना, बढिगेत होना, निकालना । निकरम्व॒ तद्‌० (धु० ) समूह, यूथ, दल, गिरोहदत। निकल दे० ( स्ली० ) निकास, निगगह ।--चलनां (वा ) बाहर हा ज्ञाना, मांग जाना, पछा जाना, अधिक द्वोना, बढ़ के बोलना ।--पड़ना ( क्रि० ) बाहर आना, तैयार ट्वोना, चापे से थाहर होना । निकलना दे ( क्रि०) निकसना, नि सूत देना, झांगे ज्ञाना भागना, साम उठना । निकसना दे० ( क्रि० ) निकलना । निऊषा तत्‌० ( ख्री० ) रातप्त माता । ( भ०) निकट, समीप, भन्तिम | निकाई दे० (ख्री० ) निशाने की मजरी, निराई | निकाना दें (क्रि०) थोगे हुए खेत से घास निश्यलना, निराना, सेहनी करवा | हि निकराम तदु० ( वि० ) निष्काम, जिसहे किसी यात की इच्ड्ा शेष न हो, इच्चापदित,निस्पृद्, कामना रहित । पु निशाय तद्‌ू* (घु० ) [नि+चि+घन्र्‌ ] नियल, निवास, रृए्षय, समूह, समृद्दों की पुकता, मूड, देर, राशि, परमात्मा । निक्वार तब» (पु० ) [नि+5 +घल्‌ ] धपकाए विक्कार, निन्‍दा, अनादर । मिकराएना दे (क्रि०) निकाल्टना, यादर करना, घुसते +* न देना, निपेघ करना, अस्वीकार छरना | निकाज़ दे० ( घु०) निसार निश्स, बाहर आना; बचने की युक्ति, बपाप, जोड़ तोड़ ।-डालनां निकालना (वा० ) बाहर कर देना, स्थावान्वरित करना, पृथक करना |-दैना ( वा० ) शबारना, बाद्धर करना, अछगाना (--ल्वाना ( वा० ) दचा लेना, हूंढ़॒ निकालना फेल ( बा० ) श्खाढ़ देना, छुटि छेना, काढ़ लेगा । निकालना ये० ( वा० ) उखाड़ुना, उतारना, प्रकट निकास दे० (प०) निकराछ, निछाकने का मार्ग, द्वार; कंरगर, गाँव का परिसर | निकासना दे० ( क्रि० ) निकालना, बाहर कर देना । विकोसी दे० ( स्ती० ) कर, गावि से निकलने का कर निकलने का आज्लापन्न, परवान ! [ चढहिष्कृत। मिकालू दे" ( बि० ) निकाढा हुआ, निष्कासित, निकास्ता दे (छ०) धूनी, टेक, स्तम्भ, खम्बा,थाम | निकुच दे० ( प० 2 बढइछ । पनिकुछ तत्‌० ( 9० ) बता गुब्मयुक्त स्थान, सिबिदृ- स्थान, लताच्छादित स्थान, क्रीड़ा स्थान, कुंज | --बिहारी ( ६० ) श्रीकृष्ण । बिकुदी तव्‌० ( ख्री० ) बडी इब्लायची । निकुम्म तत्‌» ( ४० ) दैल्य विशेष, यह देल्य श्रीकृष्ण के द्वाथों से मारा गया था (२) झुम्मकर्ण का पुत्र, | यह रावण का मस्त्री था। छक्का के युद्ध सें यद सारा गया था। इसके भाई का नाम कुम्म या। मिक्ुम्मिस्ा तत० ( स्री* ) राजसें का देवघर सेघ- चादे का यक्ञस्थान, छझा की पक देवी का नाम । निकृृति तद्‌० ( स्वी० ) अधर्म, छुरी कृति, बुरा काम, पा१, असाछुता निरूए तद० ( श॒ु० ) [नि+ कृपू + क्त ] ख़राब, रा, ओर, मन्‍्द, खोद, अधम, सीच, निन्दित, अवब- ज्ञात, तुच्द ।--ता ( स्थी० ) मन्‍्दता, कंदराई, 7 अ्रघमता, नीचता, निचाई । लिकेतन रव्‌० ( छु० ) गृह, आलय, आतगार । निक्ती दे” ( खी०) लोहतला, लोहे के तौलने की छोटी सराजू , काटा । [दिखाना, अपमान करना । निकोसना दे० ( क्रि० ) खीसना, खिखियाना, दाँत निष्काण तव० ( पु०) बीणाशव्द, सितार आदि का | शब्द, जो तार से ध्वनि होती है । निछ्चिप्त तत्‌० (बि० ) [नि+फज्षिप+क्त] लक्त, [ अर्पित, न्‍्यस्त, स्थापिंत, वन्‍्धक रखा हुआ । ( ४७१ ) [ करना, काढ़ूचा | * निगड़ित ' नि्ञेंप तव॒० (पु०) [नि+क्ति +अलू ] ज्षेपण, फेंकना, त्याग, समर्पित चस्तु, रखा हुआ घन, डपनिधि न्यास, समर्यण, स्थापन, थाती, गिरों । नित्तेपक त्तत० [सि+तक्िप्‌ू +अक्‌ ] स्थापनकर्ता, समर्थक, न्यास रखने बाला, थाती धरने बाला, पिरों रखने बाला, त्यागकर्तां । नित्तेपण वव्‌० (एु०) [ बि+ झ्षिप्‌ + अनदट्‌ ] स्थापन, समपँण, त्याग करण । निखय्‌टू दे० (वि०) आलसी, निकम्मा, निढर, निर्देय, कठोर, उडाऊ, लुशऊ | निखराड दे० ( वि० ) मध्य, बीच, बीच का भाग, माँक, समारी, दीचोवीच । * । निख्क्‍रनन तत्‌० (पु०) [ नि+खन्रु+ अनदू ) खोदना, ! खसना, कोढ़ना, योदना ) | निखरना दे० ( क्रि० ) रवेव होना, साफ़ होना, चस- कना, उजला होना, नंगा होना, स्थिर होना, विराना, छिक्लका उतारता | कै निखराना दे० ( क्रि० ) थिराना, उजला होना । निखरी दें० (स्ी० ) जो ख़री म हो । पहई रसोई जिसे चौके के वाहिर खा सके | पूरी आदि | | लिख तद्‌० ( पु० ) संख्या विशेष, दशखर्व संख्या, दृश हज़ार कोटि, १००००००००००००१( खि०) बासन, ठुमका । निखवख ( गु० ) सम्पूर्ण, समस्त । ५ निखतत ततच० (३०) [ नि+खब्+क्त ] गर्त, परिखा, गढ़ा, खाई, खत्ता । निखार ( घु० ) श॒ुरूता, निर्मेलता । [ कपड़े धोना । निस्ारना दे० ( क्रि० ) उजाला करना, साफु करना, निखिल तत्‌० (वि०) समग्र, समस्त, सपझ्ठुदाय, सकल, अखिल, सब, सर्व । नि्खेध ( घु० ) निषेघ, रोक, रुकावट । निखोट दें० (बि०) सीधा, सरल, शद्ध, खोद से रहित, अबगुण शल्य । निखोड्ना दें० ( क्रि० ) छीलना, उचड़ना, छिलका निकालना । [ पैकढी, काठ । | निगड़ तत्‌० ( यु० ) लौहनिभित खछला, बेदी, लिगड़ित तत्‌० ( बि० ) [निगढ्‌ + इत ] बँघा हुआ, चद्ध, बेढ़ी पहनावा हुआ। निगद ( धंड२ ) निर्कोल -......-+.........न3+ निगद दत्‌» (पु०) [नि +गद्‌+अल ] कथन, भाषण निम्रणंदु तत्‌० ( पु० ) अभिधान, नामकोश। बहना, औपधी विशेष । _निगद्ति तत्‌० (पु० ) [ नि+गद्‌+क्त ) कथित, भाषित, उदलेख किया हुआ उक्त, वर्णित, बढ़ा हुआ । निगत दे० ( वि० ) नगा, लक्षठ्, नप्न, दियम्बर । निधरधटा दे० (१०) दुलखाना, इष्टता करना, दियई करना | निन्न तत्‌० ( बवि०) अघीन, वशीभूत, शिष्ट, आ्रायत्त। निचय तत्‌० ( पु०) [ नि+चि+ अल्‌ ] सध, गण, समह, दल, यूथ । निगन्दना दे० (ज्रि० ) तागना, टॉगना खीना, | निचला ( गु० ) नीचे बाला, निरचय, अचघल | पिरोना । निमनन्‍्दाई दें० ( ख्री० ) सीने का काम, सीना । निगम तत्‌» (पु०) [ नि+गम्‌--अचू] शाख विशेष, बेद बी शाखए, नगर , ग्राण आदि, याणिष्य, पुरी, , चेद, बाजार की राह, निश्चय मार्ग ।-्ञ (पु०) 'निगमशाखवैत्ता, निगमशाखज्ञाता, निगमविद्‌। --नदो(स्घी ०) भागीरथी, गद्भधानदी ।--निवासी (घु०) बेदो में निवास करने वाला, विप्ण, बह्मा । निगलना दे० ( ० ) घूँटना, लीलना, गल्ले में उदार जाना, सा जाना, गट कर जाना । निचित तद॒० (वि० ) निरिचन्ठ, चिन्ताशूम्य, बेफिक, अशोची, अचिन्ता । निचिताई दे० ( स्ली० ) श्रनवधानता, असायधानी, प्रमाद । निदित होना दें० ( वा० ) निबटना, अवकाश पाना, अपना काम पूरा करना । निचाई दे० (खत्री० ) नीचता, अधमता, तुच्दता, कुटिलता, ओडापन, हुद्धवा, नीचपन हलकापन, छोटदाई । निचोड़ दे० ( पु०) सार, निष्कपेक, निष्पत्ति, श्राश्नय । निगाली दे० (स्वी०) हुका पीने की नली, सुंद न) | निदोडना दे० ( क्रि० ) दबाना, गारना, चूस लेना, निगुण तद० ( वि) निर्गुण, गुणथज्य, गुण रहित । | निच्ोड या निचोर ( वि०) छुटेरा, लोभी, घाउधप। निमूढ़ दच० ( वि० ) [ नि+गुद + क्त ]दुर्शेय, अप्र- ( पु० ) रस, सार, तत्व, निदान, अन्त । कार्य, गुप्त, लुरा हुश्रा, भ्रति गुप्त, अति छिपा | निद्धावर दे० (स्रो० ) उत्तारा, इपेदान किसी प्रिय हुथआा, अति कटिन, अ्रप्रकद, दुर्ग । [ चाणडाल । निगोडा दे” (४० ) अ्रक्मी, दुराचारी, दुष्फर्मी, निमार दे० ( वि० ) शोस, छद, पोढ़, निरेट । निम्नद्द तत्‌० ( पघु० ) [ नि+ग्रदू + अल ] साइना, प्रहार, यन्त्रण, क्लेश, वन्‍्धन, सीमा, चिकिसा, इन्द्रियादि दमन, शासन, चिड़, घिन, कुपय । निम्नदरण ठत० (पु०) [ नि+ मद + अनद्‌ ] पराजन, आक्मणय, विरोध, कलह, युद्ध, मानसण्डन, इढ, वन्धन, घुड़की, रोप, कोप, झऋोथ। के सिर के चारों शोर रपया या पैसा घुमाऊर नाई बारी को देना, नोछ्ावर करना, वारता । । निहिद्र ठव्‌० ( क्रि० ) बिदरदीन, रन्प्यून्य, स्वोढ् सम्पूर्ण । निज्ञ तत्‌० ( वि० ) [ नि + जन + ढ स्वीय, स्वकीय, आत्मीय ।--तन्त्र ( बि० ) स्वाधीन, स्ववन्त्रवा | “-मतावलम्धी (बि० ) श्राम्म मतावल्॑म्दी, अपनी इच्छा के अजुसार काम करने घाला-स्व ( ४० ) स्व्ीय घन, अपने अधिकार का धन । लिग्रारईए तव्‌5 (ए०) [दि +अदू+ दिन] फलेशदापक | निजधाल दे० ( घु० ) तिविवाद, वषदशत्य, निप्रइकर्त्ता, दण्डदायरू । [ कम द्वोते ही निघदत दे० ( क्ि० ) निधव्ते दी, न्‍्यून होते ही, निधना दे० (क्रि०) घटना, कम दोन, न्‍्यून दोना। निघराना दे० ( क्रि० ) घटयना, कम कराना । निघरदा दे० ( क्ि० ) घटी, घट गई, कमती हुई । नियणद तदू० ( पु० ) पिधण्ट, घोश अमिधान, नाम- सम्रद्द। निरापद, निश्चिन्त। निक्निर्क दे० ( खी० ) पवितता, शुद्धता, योग्यवा। निभाना दे+ ( क्रि० ) निरखना, मॉस्‍्ना, ठदरना, खुमाना, निर्वापित फरनां, अप्नि या घुमाता। निम्कारना दे० ( क्रि० ) खसोदना, मटकना, माइना, चुद्वारी काढना, म्थरना, साक्र करना। वि््काल दे० (वि०) रोक रदित, कसा हुआ, सुदौल। निठिलाज्ष मिदिलाज्ञ तत० (छु०) [निटिल +अच्ष] शिव, सहा- देव, शस्मु । निठद्त्ता दे० (पु०) निकम्मा, आलसी, लुच्चा, ठल्ुवा। निुर तदू० ( वि० ) निष्छुर, कठोर, कठिन हृदय, निर्दंथ, स्नेहशूल्य, विन श्रीति, संग दिख, कड़ा दिल बाला ।--ता (स्त्री०) निर्दयता,कवठिनता, कढ़ाई । निदुराई दे० ( ख्री० ) कठोरता, कठिनता, हृदय की क्रूरता । [ एृष्ट, डीद। निडर दे० ( वि०) निर्भय, निःशक्ू, भयशूल्य, अशक्, निढाला बे० ) ( वि० ) ज्ञानशन्य, जड़, स्थावर, ननडाल दे० / अचल । नित दे? (अ्र० ) नित्य, अतिदिन, सदा, सबेदा । “-डठ (आ० ) अति दिन उठकर, नियमित, सदा, 'मिरन्तर ।--लव (चिं०) नित्य नया,प्रति दिल नया, नित्य नित्य दूसरा ।--भ्रति (अ०) निल्य,प्रतिदिन, सतत,सदा,सबेदा । [ कूल्ा,प्चेत का प्रान्त भाग । नितम्त्र (०) कि के पीछे का भाग, चुतदढ़, पुद्धा, नितस्त्रिनी तव॒० (स्ौ० ) [ नित्म्व + इनू +ई ] प्रशस्त नितम्भर विशिष्ठा ख्री, श्रवढा; नारी, ओआऔमान्न, चौड़ी कटि वाली स्त्री । नितराम ८ भ्रब्य० ) सदा, सर्वदा । नितास्त तल" ( छ० 9 अतिशय, अच्यस्त, अधिक ( वि० ) एकान्ल, अवश्य, अतिशय विशिष्ट । मित्य तत्‌० ( बि० ) कालत्रयन्यापी, तीनों काछ में रहने धाज्ा, शाभ्वत, मुव, सनातन, जिस कभी नाश न दे | ( पु० ) समुद्र, स्थिर, निश्चित, जन्म मृत्यु रहित, सनातन, प्रतिदिन, सतत, अश्रान्त, अनिश, अजसे ।--ऊर्म ( घु०) प्रतिदिन का क व्य कर्म, प्रतिदिन अनुछेय कमे, आवश्यक क्रिया, प्रत्याह्चिक ब्यापार ।--कछत्य (घु० ) निल्य- कर्म |-+क्रिया ( स्त्री० ) प्रतिदिन का कत्तब्य कर्म, प्रद्याक्किक व्याणर (--गति ( घु० ) बादु, अमिछ, पवन [--ता € स्त्री० ) चिरकालीनस्व, सनातनता । “दान ( ६० ) प्रतिदिव का कत्तेव्य दान -नैमित्तिक ( पू० ) नित्य और नेमित्तिक कर्मी, सन्ध्योपासन और ग्रहण स्वानादि। +>मरति ( कऋष्य० ) प्रतिदिन, सदानियम से। “अलय ( घ* ) चतुर्चिंध प्रलयान्तर्गत प्रढय शा० परॉ०--६० ( ४७३ ) निद्र्शना विशेष, जीव का अत्तिविन का नाश --मुछ (जि०) क्रियावान्‌, फ्मेनिष्ठ, चित्मुक्त, जीवनमुक्त । --यौवन ( वि० ) स्थिर यौवस, सदा थुवा रहने वाढ्य । - योवत्रा ( स्त्री० ) स्थिर यौचना, चिर- यौवचा, द्वौपदी, कुन्ती, भ्रादि |--श३ ( छु० ) प्रत्यद, अचवरत, सदा, सर्वदा |--खसमर ( ४० ) निर्विकार, अ्रप्रशस्त उचर । [ वस्तु का विचार। नित्यानित्यविवेक तत्‌० ( घु० ) नित्य और अनित्य नित्यानन्द्‌ तद्‌॒० ( छ० ) सदानन्द जिश्तका आनन्द खवेदा वतंध्ाव रहे । बल्माल के ग्रोस्वासी चंश के आदि पुरुष, ये पदले संनन्‍्यासी द्वा गये थे, परन्तु पीछे किसी कारण से गृहस्थ हे गये। थे चैतन्य मद्गाप्रभ्भु के साथी थे ।- 'निथस्म दे० ( पु० ) स्तम्भ, खम्सा | निथरा दे० ( घु० ) खच्छ हुआ जल, मिद्दी के बैठ जाने से निर्मत्र हुआ जल, निर्मेज्ष जल । निधारमा दे० ( क्रि० ) निख्वारना, साफू करना, स्वच्छ करना, ढारना । निदई (गु०) दयाहीव, निर्दयी । निद्ग्धिका तब» ( स्री० ) श्वेत, छोटी चटाई। निद्रना दे* ( क्रि० ) निन्‍्दा करना, अपमान करता | निदरहि दे० ( क्रि० ) निन्‍्दुः फरते हैं, नहीं मानते, प्रतिष्ठ नहीं करते। [निन्‍्दा करके । निद्रि दे० ( भ० ) निरादर करके, श्पमान करके, निदर्शन तव्‌० ( ९ ) [ नि+ दशू +-अनटू्‌ | इष्ान्त, डदाहरण [--पत्र (छु० ) दश्टान्तपत्र ।--पुद्रा ( स्त्री० ) अतिष्ठास॒द्रा, मानसूचक मुज्रा | निद्शना तद्‌० (खी०) [निदर्शन + भा] काच्यालछूर विशेष, इसका लक्षण इस प्रकार है | यधा।-- सदश वाक्य जुग अरथ को, करिये एक श्ररोप । भूपन ताहि निद्शना, कद्ठत छुद्धि दे ओप ॥ € उदादरण ) देहा । ओऔरनि फेो जे जनम है, से जाऊका एक रोज । औरनि के जो राज सेल, खिचसरजाकी मौज 0 साहिन सों रन माडि के, कीनें सुकवि निद्वाछ | सिव सरजाझे झ्पाल है, औरनि को जेंजाल ॥ --सिवराज भूषण) निदाघ ( ४8 ) निप + नीम ननननफरनगनगनगएफभ0गानगभरगभगत03लत[4न-लन्‍ीी द न्‍नननीी-न्‍न्‍त#नतन-न:-->>2न्‍नो>न#नस ससस अनइक्‍ सओअ-फ ड 5 < सकक्‍असस ७556७ ओकई:ईन्‍न्‍क्‍क्‍न्‍ निदयाघ तर ( ६० ) ग्रीष्म शाल, उघ्ण, घमे |--ऋर (पु०) सूये, दिवा घर ।--हझाल (पु०) ग्रोप्मछाल- ऋतु, ज्येष्ठ श्रौर भ्रापाद का मदीना, अन्त्य, अम्स्य- करया, नत्तीजा । निदान ततव्‌० ( पु० ) सूल कारण, चिन्ह, वे, आदि कारण, कारण, रोग निर्णय, रोग का मुलानुन सनन्‍्धान, बेशक के एक ग्रन्थ का नाम ( अ० ) अन्त में, पीछे, निष्कर्ष, सा्मश । निदास्ण ( ५० ) भयानक, कठिन, ऋगोर । निदिध्यासन तत्‌० (१०) [नि+च्य+ सन्‌ + पनद ] घुन पुन स्मरण, परमार्थ चिस्ता विशेष | निरेश तत्‌* (9० ) [नि+दिश्‌+ भ्रल्‌ ] झ्राज्ञा+ आदेश, अनुमति, निवेश, कथन, रूथा, भनुशा- सन यथा -- /क्ीन्द्रेसि मेर निदेश निमेद्द । देउ दवाय नागनर पेट । ? --प्रहादचरित । निद्धि ( दी० ) निधि, सनागा, घनायार। मिद्र ( पु० ) अ्रस्त्रविशेष । निद्भा तत्‌० ( स्लरी० ) अवष्या विशेष, मरुष्य छोपुक अबस्पा, मेध्या नामक नाड़ो से मन का संयेग, सुधुप्ति की भवस्था, शयव, सेना । [वाढा, मुचैया | निद्राल्वु तव+ ( बि० ) निद्राशीछ, निद्रायुक्त, सोने निद्वित ठ4० (बि०) प्राप्तनिद्रा, निद्वागद, सोया हुआ्ा। निधट्टक या निधरक दे* ( वि० ) निर्मंत, निडर, भराइू, साइसी, वचोगी, घत्सादी | ( अ० ) अचानक, सदसा, पुकाएक, भरकम्मात्‌ | निधन तदू* (वि० ) घनदीन ( ६० ) रझत्यु, मरण, नाश, ध्यप, र॒स्यु, मौठ ।--ता (स््री० ) कृंगाली, दरिद्वता, नि्घंवतता । निधान ठत० ( वि० ) घर, ठोद, पूढ्ाना, खान। निधि ठद्‌" (स््री० ) [ नि+ध्य+ कू] इचेर का भाण्डार, सम्पत्ति, रस्त विशेष, आधार, समुद, भाण्द, केप, सैस्या, बहुत घन ।--ज्ञात (पु० ) समुद से उत्पक्ठ शक्ल आदि --नाथ (चु०) कुबेर, घनाथिप ।+-पाल या प्रमु ( पु० ) छुरेस, अधीश, स्वामी, राजा ।-झुता (द्वो०) ठद्मी । विधेय ( गु० ) रखने येग्य, स्थापनीय, स्थापन करने येस्प । निनद ( ए० ) शब्द, घनि। निनाद्‌ तत्‌% ( पु० ) [ नि+नद + घन ] शब्द, रब; आइट, गरज्जन, धनि । [ ध्वनित, शब्दित निनादित त्त्‌० (गु०.) [| नि+नद्‌ +खिच्‌+क ] निनाया दे० ( पु० ) सदमह। मस्कुण, उद्वित, कृमि विशेष, खथकितवा | नितायी दे० ( छ० ) शेग विशेष, सुप्त का पक रोग । निनार ( गु० ) समस्त, बिलकुल, सम्पूर्ण । निनारा ( गु० ) एथछ न्यारा, दूर इटा हुआ। निनाँवा दे* ( १० ) छारू रोग । निनीषा तत्‌० ( खी० ) [नि + सन्‌ + भ्रा] प्रदणेच्छा, लेने की इच्छा, प्रदय करने का चभिलाप | निनीपु तद्‌० (पु+ ) प्रब्णेच्छु, म्रदय करने रा अमिज्ञापी | निनेता तन» (धु*) नायक, प्रधान, सुएय, श्रेष्ठ, नेता । निनौना ( क्रि० ) कुछाना, नीचे करना । मिन्दुक तमब्‌० ( वि ) दूसरे का दोष हूड़ने बाढा, परदेषानुसन्धानकरत्ता, निन्‍दा सरने बाला । निन्‍्दकाई दे० ( खी० ) निन्दकता, निन्‍दा करने का स्वमाव । निन्दना दे? ( क्रि० ) कल छू छगाना, दोष लगाता। निन्दनीय तत्‌* ( वि० ) निन्दा का पात्र, निन्‍्दा के येग्य, गहाय, निन्‍दा । निन्‍्दा तव्‌० ( ख््री० ) कुस्सा, गर्दा, अपवाद) दुर्नाम, अयश, मिथ्या कब्नहू, बुराई स्तुति (स्वी० ) ध्यान स्तुति,स्पावाद,मिध्यास्तुति, श्रन्यपा स्ते|्न । निन्दास दे० ( खी० ) उंधास, ऋयछ्ी, निदालुता । निन्‍्द्रासा दे० ( १० ) अँघास, नखालु निन्दित तद्‌० ( दि० ) बपेछित, अवज्षात, छगुप्सित, गहिंत, इुष्सित, भधम, दूपित, कछद्धित । निन्‍्ध तव्‌० ( वि० ) बिन्दनीय, देय, सुच्च कर्म ( पु० ) कुत्सित के, निन्दित काम । निश्नानवे दे० ( वि० ) नी अधिरू सब्बे, ४६, पृ कम सी ।-के फेर में पड़ता (वा*) घन जोड़ने में छगना, कृपणता, चरुझछर में पहना, कि करतेम्य विमृड् इेए्ना | निप तदु* (खीन ) बच विरोप ।-जों ( प्रो” ) अब्च की उत्पत्ति, छाम, बृद्धि । निपद ( ४७४ ) निमृत निपद दे० ( वि० ) भ्रत्ति, बिरकुज, पूरा पूरा, बहुता- यत से, बहुत, अधिक, अत्यन्त, अतिशय | निपदना दे- ( कि० ) पूरा होता, ख़त द्वोना, समाप्त होना, सम्पूर्ण हेना | [ करना । निपदाना दे ( क्रि० ) ठहराना, पूरा करना, समाप्त निपदारा दे० (पु० ) निबटेश, फैसला, निरंप । निपदारू दे* (५०) निब्टाने वाल्त, निवेर, निरयिक। : निपशेरा ( ए० ) देखे निप्टारा । निपतल छत्त्‌० (प०) [नि + पत्‌ + अनट ] अधः्पतव, मरण, नए होना, सारा जाना, नीचे गिरना । मनिपतित तत्‌० ( पु० ) पतित, च्युठ, अ2, स्खलित, गिरा हु शा! निपात तत्‌० ( पु० ) झत्यु, पतन, गिरना, साण, नाश, निधन, अधःपतन, व्याकरण में च भादि और प्र आदि अव्यय के नियत कद्दते हैं । निपातक तत्‌० ( पु» ) खा तक, उजाड़ने वाछा, गिराने बाला, ढाइने चाला | [मारना । निपानना दे० (क्रि० ) गिरावा, ढाइना, नाश करता, निपातित तव्‌० ( बि० ) [नि+पत्‌+णिच्‌+क् ] अधःकिप्त, नीचे गिराया हुझ्ा । निपान तव्‌० ( 9० ) #ुप या वाछाव के पास पशुओं के जल पीने के लिये बनाया हुश्ना जलकुण्ड आद्वाब, कठरा, दौदी । निपीड़न सव॒० ( छु० ) [निः+ पीड्‌ + अनरट ] मर्दंन, ब्यथा, पोड़ा देना, दुःख देना, सललना | निपोडित तत्‌० ( बिं० ) मर्दित, व्यथित, दुशखित। निपुण दत्‌० ( विं० ) कार्यक्षम, अभिज्ञ, पढ़, चोग्य अश्ीण, चढर, कुशल, दक्त !--ता (श्ली०) कार्य- ज्षप्रपा, योग्यता, अर्रीणता, चातुरी । [वक्ता । निपुणाई दे० ( स्री० ) डद्धिनचा, चतुराई, कुशलाई, मिपुन्नो ( गु० ) पुन्रहीच, निवेश । मिपुनाई ( स्ली० ) चतुरता, निश्ुणाई । निपूत्र था ) (बि० ) पुत्रद्दीन, निश्सन्‍्तान, अपुचत्री ! मिपूता दे० निषाइना दें० दाँत दिखाना, निकोसना, ) निल्लउज्ञता की एक मुद्दा । मिफज्न तव० ( वि०) विफल, परिणाम शल्य, निष्प्र- चोजव, व्यर्थ , निष्झल, निरर्थक, फल रद्दित। निफोर ( शु० ) स्पष्ट, साफ साफ । निवकोरी ( स्री० ) नीस का फल | चिवद्या ( क्रि० ) छुट्टी पाना, पूरा होना, मल्तत्याग करने को भी कहीं कहीं निवयना कहते हैं। निबदी दे० ( बि० ) चुटी हुई, खुर्च, चंद --रख्म ( घु० ) छूटी हुईं रक्तम, बड़ा चंट मनुष्य ,बड़ा चालाक आदमी, दुनियासाज़ आदमी, दुनियादार आदमी । [फैसला, खाता । लिवटेय दे? ( घु०) सफाई, निर्णय, छुटकारा, निवद्ध ( यु० ) गुंथा हुआ, यँधा हुआ । नियम तव० ( घु० ) अन्य, सन्दर्भ, अन्‍्यों की वृत्ति, स्थिर जीविका, वन्धेज, वन्धान, रोग विशेष | विज्नस्थन तव्‌० (पु०) ठहराव, पण, समय, शर्त, हेत, कारण, निसित्त, बीणा आदि का ऊर्ध्वभाग । नितरन्धित तव्‌० (छ०) बद्ध, संग्रहीत । निवल तद्‌० ( बि० ) निर्वल, छुवला, दुर्बल, वलहीन, , सामर्थ्यहीन । [करना, दिन काटना । निवाह तद० ( पु० ) निर्वाह, परा करना, समाप्त नियवाहना दे० (क्रि०) पूरा करना, सिद्ध, करना, थोग्यता, पूर्वक समाप्त करना, रक्षा करना | निबाहू दे० ( वि० ) टिकाऊ, निपटरू, स्थायी, चिर- स्थायी, बहुत दिनों तक उहरने वाला । [ देने से । निवहे दे० ( क्रि० ) स्राथ किये, संग दिये, साथ तिबुआ दे० ( ७० ) नीबू , निम्बू; लीखू। निवेड़ना दे० ( क्रि9) निपठाना, पूरा करना, चुकाना, साफ करना। निवेड़ा दे” ( छु० ) निपदरा, निवटेरा, सफाई! नित्रेड़ि दे० ( वि० ) निवाहू, निपटारू | निवेरू दे० (वि०) निबटाने वाला, निर्णय करने वाला । निवास दे० ( स्ली० ) “ निमकोड़ी ” देखो ।« लि तत्‌० ( वि० ) उुल्य, सदश, समान । ( पु० ) मकाश । ह निसना दे ( क्रि० ) पार लगना, पार पढ़ना, समाप्त होना, बच आना । [ रक्षा करना । लनिभादा दे० ( क्रि० ) निवाहना, चलाना, पार करना, निभाव € एु० निर्वाह, विद्याह ! निसृत्त तच० ( वि० ) नम्न, विनीत, निर्जन, विरल, गुप्त, प्च्छन्न, निश्चल, अस्वमित, एकान्त, रदस्प ॥ निम मिम तत्‌० (घु० ) शलासा, शक, सूची, फतरनी। ( दे० ) थोदा, न्‍्यून, कम । निमक दे० (पु) लवण, नान, लोन, नून ।--हसम ( वि० ) अविश्वम्त, विश्वासधातक । निमको दे० ( खी० ) अचार विशेष, नीबू का अचार, नोन का मींर। निमकोड़ी दे० ( खो० ) नीमवृक्त का फल, नियौरी निमन दे० (दि०) सुन्दर, दर्शनीय, मनोहर, मनोरम, | रमणीय, पोड़ा, दृढ़, सरत, ठोस । । निमनाई दे० ( स््री०) पोढ़ाई, सुन्दरताई, अच्छापन। | निमनाना दे० ( क्रि० ) पोढा बनाना, सुन्दर करना, अच्छा बनाना, सुधारना, सम्दालना । । निमन्त्रणा ठत्‌० (पु० ) आमन्त्रण, आाह्ान, आवाइन, नेवता, बुलाइट ।--पत्र (पु० ) उत्पव में सम्मि- लित होने के लिये बुलावे का पप्र॥ . [श्राहत । निमन्त्रित तत्‌० ( वि० ) नेवता गया, छुलाया गया, निमन्नयिता तत्‌० ( वि० ) आद्वानकत्तो, आमन्त्रण- कर्तों, आमन्त्रण भेजने वाला, यजमान या उत्सव- कत्तों जो आमन्त्रण भेज कर बुलाता है, न्योता देकर चुलाने वाला । निमम्न ( गु० ) निमण्जित, डूगा हुआ । निमज्जन (पु०) अवगाह, स्नान, डुयफी लगा कर क्या डुआ स्नान । न्‍ निमम्जित ( गु० ) दूया हुआ, निमग्न । निमटना ( क्रि० ) देखो “ निययना ” ॥ निमय दव्‌० (घु० ) [नि+मि+ अल्‌ ] विनिमय, परिवत्तेन, एक पदार्थ देझर दूसरा पदाथे हेना, यदतला | निमात्ता ( गु० ) सावधान, जो मत्त न हो। निमान (पु०) नीची जगह, डलुवा जगह ।-नन (गु०) गइरी ज़गद, नीची जगह । निमि तत्‌» ( घु० ) सीता के पिदा कुशघ्वज जनक के पूर्वचुरुण, इनके पुत्र का नाम मियिया और इनके नाम के अनुसार उस राज्य को सी मिथिला कहते हैं। मियि के पुत्र का माम जनक था। जवफ के अनन्तर इनके वशघर केवल “* जनक ” इस उपनाम से परिचित होते थे । सीताजी के पिता या नाम जनक नहीं था झिन्‍्तु उपनाम था। | ( ४७३ ) निम्बादित्य निमित्त दत्‌० ( घु० ) कारण, हेतु, निदान ( श्र० ) अयोजन, वास्ते, लिये ।---कारण (पु०) प्रयोजन, हेतु, निमित्त, न्याय के मद से उत्पादक निविध कारणों के अन्तर्गठ कारण रिशेष ।--राज (०) विदेद, राजा जनक, मिथिला के एक राज विशेष । | निमिप ( घु० ) पलक, नेत्रों का बद होना, काल विशेष ।--त्तेत्र (पु०) दीर्थ विशेष, नैमिपारण्य । +-ति ( गु० ) मिचा हुआ, बद निमीलन दतद्‌० (घु०) [ नि+मीलन-शनद्‌ ] सुद्वित करना, ऑँस मूँ दना, आँस सीचना । नि्मीलित वत्‌० ( वि० ) मुद्वित, मँदा हुआ, बन्द हुआ पलऊों से नेत्र को वन्‍द करना । निरमेष तद्‌० ( घु० ] [ नि+निप्‌+ अल ] नेत्रों के पलक का स्पन्दुन काल, पलक, अति सूक्ष्म वाल, विपल, क्षण, लव । [भाजी। निमोना (घु० ) हरे चनों या मटरों की रसदार निम्न ठद्‌० (वि०) अ्रध , नीचे, नीचे फी ओर, नीचा- * स्थान, गहरा, गंभीर, गढ़ा, गत्ते ।--भा ( ख्री० ) नदी, खोठस्विनी ता ( ख्री० ) गम्मीर्प, गहराई, नीचापन, श्रघेगतत्व । कि पेड निम्व तत० ( घु०) स्वनाम प्रसिद्ध युद्ध विशेष, नीम निम्बक तत्‌० ( पु० ) नीम का पेड़, नीउ । निम्बरक ठत्‌० ( घु० ) नीम या वृक्त । निम्बादित्य तत्‌० (पु०) पुक वैष्णव सम्पदाय के प्रव- तेऊ आचाय॑े। इन्दोंने दतादत सिद्धान्त का प्रचार किया है। इनफा मिम्बादित्य नाम पढ़ने पा कारण सुनने में यद आता है कि ये किसी जैन साउ से शाख्याथे करते थे। शाखा फरते ही करते संघ्या हो गई। अब सन्न्‍्या होने के मारण यैत साउ तो मओोजन कर ही नहीं सझता है, इसी असुविधा को मिथने के लिये इन्दोंने एक भीम के पेढ पर सूर्य को रोड दिया और दस साउ से भोजन करने के लिये फट्टा । सूर्य देव तब तक उस पेढ़ पर थे जब तक उस साथ ने सोजन नहीं कर लिया। यही कारण है कि इनझा नाम निम्बादिय या निस्‍्पार्क पढा। इनके बनाये पन्‍्य का नाम घर्माम्धि- योघ है। इनका समय १० वीं सदी माता जाता है निस्तू निमवू दे० ( घु०) वृक्ष विशेष, नीजू , कायजी नींबू चुक्त, कागजी नीयबू । नियत सतत» (वि०) [ वि-चम्‌ +- क्तो नियस विशिष्ठ, अटकाआ, लगातार, छेक, नित्य, सवेदा, निर्णोत, निर्दिष्ट, स्थिरोकृत, बद्ध, दुमित, शासित, निश्चित, वियुक्त, झहराया हुआ ।--मानस (बवि०) म्रशान्त चित्त, जित्तेन्द्रिय नियतात्मा तत्‌० ( बि० ) [ नियत--आस्समा] आत्स- चशीभूत, बशी, थी, यत्ती, जितेन्द्रिय, वशेन्द्रिय नियताहार तत० (जि०) [ निय्रत + आहार ] परिसित भोजन, मितभुक्‌ , सिताशन, अल्पाहार । नियति तत्‌० (स्त्री ० ) [ नि+चम्‌+क्ति ] नियम, द्ैव, विधि, भाग्य, अरष्ट, विधासा । नियलेन्द्रिय तदु० ( गु० ) [ नियत्त + इन्द्रिय ] जिते- स्किय, इन्द्रियदमनशील, संयत शरीर, प्रशान्त चित्त । नियन्ता तत्‌० (पु० ) [नि+यम्‌+ छत ] शास्ता, शासनकर्चा, प्र, नियासक, सारथि, मियम करने बाला, शासन करने वाला, रथवान्‌ । सियन्नित चत० (बि०) संयमित्र, नियमित, निमृहीत, यन्त्रित, जकड़ा हुआ, चँंधा हुआ, निवारण किया हुआ, रोका गया। नियम तव० (०) [नि+ यम्‌+ अल ] निश्चय, अव- धारण, निर्णय, निरूपण, प्रकाम, धारा, दमन, निषेध, योगी, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईंश्वरप्रणिधान इसको निय्स कहते हैं । अतिज्ञा, अज्ञीकार, स्वीकार, उपवासादि पत, कत्तेन्य कर्म, नेम, अतिवन्ध, अदकाव, येग का एक अंग। नियमन तत्‌० ( पु० ) [ ति+ यम + अनद्‌ ] नियम, चन्धन, उुसन, वारए, रुकावट, निवारण, रोक, अठकाव, छेद । नियमशाली वव्‌० (गु०) [ नियम + शाली | नियम- युत, रीत्यनुयाथी, निग्रसित कार्यकर्ता, नियम पूर्वक काये करने वाला । नियमसेवा तत० (स्री०) नियमपालन, कार्तिक माल सें नियम पूर्वक भगवान्‌ का आराधन ! नियमित चल» (ग्रृ०) [ नि+यव्‌ + क्त ] कृतसियम, नियमबद्धू, निश्चित, विधिवद्ध (. ४७७ ) नियोजित नियर दे० ( झ्० ) समीप, निकट, पाल, नजदीक । नियराई दे० ( स्ली० ) समीपता, निकद्ता | नियराता दे ० ( क्रि० ) पास आचा, नगचाना, निकट आना, समीप पहुँचना । ५ नियरे दे० ( अ्र* ) समीप, समीप में, निकट में | नियामक तत्‌० ( पछु० ) नियमकर्ता, नियन्ता, निश्चा- यक, पात्वाहक, कर्णधार, लाविक | सियाय तदू० ( छु० ) न्याय, घर्म, सचाई, वचित व्यवहार । दियार दे ( छ० ) कही, चर, लेहना, बहू आदि को उनके कविता के घर से छुलाने के लिये दिय कहता भेजना | » [ चाहु का खाद नियारा दे० ( वि० ) एथकू अछग, न्‍्यारा, असेबद्ध नियारिया दे० ( धु० ) घनार, सुवरशंकार ! नियुक्त तत० (यु० ) [ बि+युल्‌+क्त ] निवास विशिष्ट, निपेजित, जिसका नियाग किया जाय, जिस पर किसी कार्य का भार दिया जाय, श्राज्ञा आाप्त, अवधारित, क्ात ।--( स्री० ) काम का सौंपना, नियुक्त किया जाना । नियुत तत्‌० ( वि०) [ नि+ शुर्न-क्त ] संज्या विशेष, दस छाख, १०,०००,० | नियुद्ध वव० (४० ) [ नि+ बुध + क्त ] बाहयुद्ध, मलछयुद्ध, पदलवानों की कुश्ती । लिये।ग तद्‌* ( पु०) [ नि+युज्‌ + घण्‌ ] श्रधघारण, आज्ञा, हुक्म, नियोजन, अजुंमति, शासन, प्रेषया, भारापैण, सनेनिवेश, प्रद्धसि, निश्चय, अधिकार प्रेरण, आज्ञा, पति के भाई था अन्य किसी से सन्तानोत्पत्ति करा लेचा ।- कर्ता (प०) नियेगग करने चाछा, सार अरप॑णकर्ता ।--धर्म (पु०) पति की सत्यु दाने पर पति के छोदे भाई से पुत्र उत्पन्न कराना | यह प्रथा कलियुग में वर्जित है । नियेगी तद्‌० (वि० ) नियोग विशिष्ठ, नियुक्त, अज्ञाआप्त, किसी व्यापार में लगा हुआ। नियोजन चद्‌० ( 95) [ नि+सुज्‌ + भनट्‌ | नियुक्त करण, प्रेरण, आवेशन, आशा देकर किसी कार्य में क्वगाना, स्थापन | नियोजित तत्‌० (वि०) नियुक्त, संयेजित, स्थापित, आदि, किसी कार्य में नियुक्त किया हुआ । निर्‌ (्‌ छक्प ) निराकुल ...-नठ&न्‍- कीत-सस 5 अडअबअबअबअस बड अअडअडअबअअबज्कनकज_स्य्ंत्ति निए्‌ तर्‌५ ( डपसग ) नहीं, विवा, निश्चय, बाह्य, बाहर, उचित [-केयल ( ग़॒ु० ) श॒द्ध, केवल, खान्निस | निरड्टूर तदु० (वि० ) नियकार, आइह््यर रद्दित, आहार शूस्य,प्राकृतिक झाकार; मनुष्पें! के पझ्राझार से रदित, (घु०) परमेश्वर, परमारमा, विष्णु भगवान्‌ । निरह्टूग तत० ( गुन् ) [ निरू+ अ्रकुश ] अनिवाये, स्व॒तत्त्र, स्वेच्छाचारी, निरमनिरादर पूरे6 कार्य कर्तों, इठीला, जिट्दी । निरत्तदेश (१०) भूमध्य रेखा के समीर की भूमि जदाँ रात और दिन पक परिमाण के देते हैं । निरत्तन (१०) निशैध्वएं, दर्शन । निरत्तर ( गु० ) अनपढ़, मू्ण, धर ध्वान रद्दित | निरसना दे० (क्रि०्) देखना, ताकना, निरीक्ोण करना | [निःशद । निरशन तत्‌० ( वि० ) निष्चलड्ू, निर्मल, तेजे।मय, निरत तन» (वि०) [नि+'मकक्त] श्रतिशय अनु'क्त, आसक्त, लथा हुफ्रा, तथ्पर किसी काये में निशतर छगा हुयया निरति तद्‌* ( ख्ी० ) अप्रीति, श्रप्नेम, अ्ध्नेह |-- शप ( गु७ ) सर्गत्तत, इश्क्ृष्ट, सत्र से अ्रच्छा | विरधार तइ+ (३०) निद्धार, निभ्रय, निर्येय । निरसुनासिह्न (गु०) वे अछ( जिन उच्चारण नासिझा दी सड्मायता से नहीं देता । [प्रपार। निरन्‍त तत्‌* (वि०) थन्त रद्दित, श्रन्त यूय, अन्त, निरन्तर लतर* ( दि० ) लगातार, नितएढ निविड, घन, 'अनवध्यश, सर्वेदा, भ्रविच्छेद, अनवस्त, असीम, भपरिधान, भभेद, सथश, समान, सघन, सदा हुआ | निरन्‍्तराभ्पास ततद्‌० ( पु5 ) [ निःन्‍तर + भ्रम्याप ] स्वाध्याय, वेदाध्ययन, पठढिव शास्त्रों का अम्पास । निरस्तराज़ सत्‌० (वि०) [ निए_+ अन्वराऊ ] अवि- इदेइ, निःयह्ाश, अवष्याश शून्य कु विरक्ष खतु० (वि*) [ नि +अश्न ] अद्नामाव, अनाद्षार, थू य, जिबा भ्रद्य का । निरपत्य तद ( दि० ) [निर_+अपत्य] निःसनन्‍्तान, पुत्र कग्याविद्ीन, सन्‍्तानदीय | निर्पराध तत्‌» ( गुर ) [ निर + अपराघ ] अपराध शूज्य, दोष रद्वित, निष्पाप, निर्शप | [अनुद्देग । निरपाय तत्‌० (पु०) [निर_+अपायों रक्ता, निवन्न, निरपेत तत्‌० (५० ) [ निर--अपेत्त ] स्थाधीन, अनपेतत,रदासीन, छापरवादह ।-- ति गु०) अना* चश्यछ, अनयादा ) निरमेदी (यु5) मेददरद्तित, मिसे किसी प्रकार का मोद न दे। ! निर्य तत्‌० (4०) नरक, दु पर सोगस्थान । [गेवर्याद। निग्वध्ि तत्‌ ० (बि०) अवधि रद्दित, बेहद, निरसीम, निरगंल तव्‌० (यु०) निर्‌+ अर्गेल] भ्रवाघ, शग्नति बन्घक, बेरेकटोक निरथंक तत्‌* (वि० ) [ निर्‌+ अर्थक ] अनर्धछ, अप्रयेजन, व्यर्थ, विफर, बुया, निष्फक्ष,थ्रद्वीन । निरपन्छिन्ष (वि०) छगातार, कमरा | क्रम वद | लिरपद्य (गु०) देषपशून्य, शद्, स्वच्छ । निरवदि (गु>) सीमा रद्दित । निरययउ (गु०) निशझार । निरवाना ( छ्ि० ) निएई करवाना । मी निरवारना (क्रि०) टाजना, इठाना, निवारण करना। निरशन (प०) ब्पवास, कटाका। निरस तद्‌० (०) नीएस, रसह्दीन, रधाभाव, दष्ध । निरसन नव» (बु०) [ नि श्र + श्नद ] प्रत्या- प्यान निधझऋरण, खण्डन, निच्येत, विसजंत । निरस्त तत्‌० (वि०) [निर्‌ + भ्रस, + क्त] प्रधाप्यात, निराकृत, निई रित, दृदाया टुश्ना, दराया गया, ह्यागा हुश्रा, दाद ट्वुप्रा त्यक्त | निरस्त तत्‌० (वि०) [ निर्‌+अश्न ] भरष्त रद्दित, इयिवार का, साली हाथ | [एकाडी । निया दे० (अ०) केवठ, मात्र, असद्ााय, अन्‍य रहित, निराई (स्वी०) निराने का काप्त । निराकरण (पु०) फैसरा, निवटारा, सन्देद को दूर करना, शबदू मिटाना ] निरयक्ार तत्‌+ ( बि० ) [ निर्‌+ आकार ] घाशर रदित, अशरीर, शून्य, खूरा। ६ घु० ) भाहझार, परमेश्वर, विष्णु, ब्मा, शिव | निराफात्तो तत्‌» ( जि ) निछाद, सन्तुष्ट, शान्ठ । विराऊुल,(यु०) निशहट, निश्चिन्त, स्पाइुब महीं। 'निराकृत ६ ४७६ ) निरूप अंक कचनन-9+न>_++_-> सन नन>+++++-म 39०२० तक सल००० मम कस ज ० +> सम ब तक >बपब ३८:०६ ५७५ २२००७ ७८-22. 2८207: 5:02 निराक्षत (पृ०) दृदाया हुआ, अ्रपम/नित, अस्वीकृत । निराचार तव० (वि०) [ निर्‌+ आचार ] अनाचार, आचारअष्ट, आचार 3हित | [निर्माववा, निर्मय | निरातछु तत्‌5 ( बि० ) [ निर्‌+ थातझ्कू ] निःशहू, निराद्र तत्‌० ( वि० ) [ निर्‌ + आदर ] आदरहीन, अपमान, अप्रतिष्ठा | निराधार तत्5 ( बि० ) [ निर्‌ +श्राघार ] श्रधार शूल्य, अनाशय, श्राश्षव्र रहित, शून्यस्थित | विरावन्द्‌ तत० ( वि० ) [ निर्‌ + आवन्द | आमन्‍द रहित, गरनन्द शूल्प, दुःखी । [लिर्िन्न । निरापद तल ( पु० ) | निर+आपद ] श्रनापद, निरामय तत्‌० ( वि० ) [ निए्‌+अआमय | रेगरहित, त्तीरोग, खस्थ | निरामिप तत्‌० ( बि+ ) [ निर्‌ + आमिप ] आमिप शून्य, सास रहित ( एु० ) ब्रत विशेष । निरायुत्र तत्‌० ( बि० ) [ निर्‌+ आयुत्र ] आयुध रहित, निरणख, अख्तर द्वीन, खाली हाथ ) निरात्नम्व तत्‌० (वि०) [निर्‌ + आलम्ब] अवडुम्धन रहित, अनाभ्रप, बिना श्राक्षय का । निरासय तत्‌+ (बि०) [निर्‌ +भ्राल्य] आाल्य रहित, विचा मकान, एकान्त, चिर्जत, अनियतवास, निराला) पुकान्त | [ रहित, कर्मिष्ठ, ब्योगी । निरात्तस्य तव्‌० ( वि०) [ निर_+आल्स्य ] आलस्य विराला दे० ( वि० ) एकान्त, निर्मेल स्थान, जन शून्य स्थान | [ छना । निरायता दे० ( बि० ) निराना, खेत से घास्र निकता- पनिराश तत्‌० ( वि० ) आशाहीन, बेमरेप्त, हताश | विराश्रय तत्‌० (वि० ) [ निर_क आश्रय ] झाक्षय शल्य, नि।श, निरालस्व । निराल तव्‌० ( पु० ) [ नि + असू + घण ] निराफ- रण, दूरीररण, सफ्डन, निच्चंप, त्याग [ विराहार तद॒ु० (वि० ) [ निर +जआाहार ] अमेजन, अनशन, भेज्ञवामाव, भूखा । निरिन्द्रिय तत्‌- ( वि० ) [ सि/ + इन्द्रिय ] इच्द्रिय शून्य, इन्द्रिय रद्दित, अध, पहु प्रश्धति । निरी ( स्री० ) केवल, निरा; निषट । निरीक्षक ( घु० ) देखने चाय, दुर्शक, देख भाल करने वाला | निरीक्षण तद्‌० (०) [ मनिर_+ईच +-भ्रग _] अब- ले।कन, देखन, दुर्शन, ईचण | निरीक्तरेश तत्‌* (३०) निरछदेश, देश विशेष, पढमा शूल्य स्थान, पूर्व दिशा में भद्भाभ्वचप में यप्षकोट नामक स्थान | दछ्चिण भारत में लड्डग, पश्चिम दिशा में केतठुमानलवर्ष में रोमक्रवामकू स्थान, अत्तरकुरुषप में सिद्ध परी । निरोध्वर तत्‌० ( थु० ) [ निर_+ ईश्वर ] ईश्वराभाव- चादी, नास्टि |--दुर्शन ( ७० ) ईभ्वर सत्ता न साननेवाले शाख्र, सलख्य जैव आदि |-चादृ (पु०) परमेम्वर की सता न मानने चाला सिद्धान्त, नास्टिक सिद्धान्त ।--वादी (ग़ु०) चास्तिक । निरोह तत्‌० ( छु) [ तित_+ईहा ] ईदा शल्य, निश्चेष्ठ, निःपृद्द, स्थिए, घी७ शिष्ट, चासना रहित, निरभिद्टाप । इस शब्द्‌ का प्रयेण मिरप्राघ के अथे में करना अत्यन्त भूल है । निरुक्त तत» ( छु० ) बेदाड्ञ शास्त्र विशेष, इसमें चैदिक शब्दों के कई प्रकार के अर्थ, लिखे गये हैं । याध्क झुनि विरचित एक अन्य का नाम (--ी ( स्री० ) शद्धों की व्याख्या, व्याकरण के नियमानुझुल शब्द व्याख्या । निरुत्तर तव्‌० ( बि० ) [ निर्‌+वत्तर ] उत्तर हीच, अ्रवाक्‌ उत्तर देने में असमर्थ | निरुत्साह तद॒० (वि०) [निर्‌+-बल्साह ] उत्साहद्दीन, निश्चेष्ट, जो काई फाम उत्साहपूर्वक व करे | निरुत्छुक तत्‌* ( वि०) [ निर्‌ + उत्घुक | भरक्रण्डित, निरुद्देग, उत्सुकता रहित । निरुचोग तत्‌० ( वि० ) [ निर्‌ + उधोग ] उच्यमहीन, अद्यप्नासाव विशिष्ठ, निश्चेष्ठ, निकम्मा, निकाम । निरुपद्गव तत्‌» ( वि० ) [ निर्‌ + उपहुव ] उत्पात रहित, दौराष्म्पहीन, शान्त, अच्झूल । रे निरुपम तद्‌० ( बि० ) [ निर +- उपम] श्रतुछ, बपन्ता शून्य, अनुपम, अपर । विस्पाधि तत्‌० ( वि० ) [ निर्‌ + उपाधि ] बपाधि- ट्वीन,अन्याज, अकपट, निर्मल, शुद्ध । निरुपाय दव्‌* ( दि० ) [निर्‌+ उपायु उपाय रहित, निराक्षय । [ कार, अस्वरूप, अरूप । निरूप तद्‌० ( दि० ) अवयवदह्दीन, कादप्निक, निरा> निरुपणें विरूपण ठत (६० ) [ नि+ रूपू + अनद ] निर्णय करना, वितके करना, स्थिर करना, अवधारण | निरूपित तत« ( वि० ) [ नि+-रूप्‌ +क्त] झतनिल- पण, निर्णय किया डा, विस्तारपृ्वेंक कथित, निर्णीत । [ ठाकदा, अवलोछन करना । निरेखना दे० (क्रि०्) निरीहण करना, देखना, निरेट दे० ( बि० ) निग्गा, पोढ़ा, झोस | निरोग तदु० ( वि० ) रोग रद्दित, सुस्य, आारोग्य, भा, चंगा ।--ी ( गु० ) रोग मुक्त, रोयरद्वित । निरोध उत्‌" (घु०) [नि+रुघ+ अल ] बेध्न, अवरोध, घेरा, फॉस ।--क ( गु० ) रोकने याक्षा रुकावट डालने वाला, घेरा डाढने वाढा (--न ( 9० ) रोछ, थाम, रकाबट। [निकला हुआ्य। निर्गत तत्‌* ( वि० ) [ निद्‌ + यम + क्त ] नि खत, निर्गत्य तत० ( वि० ) निहुछ कर । निर्गन्‍्ध तत्‌० (*वि० ) गन्धशन्य, गन्धदवीव । निर्गेम तत्‌" (धु० ) [ निर्‌ + गमू+ अब ] वादिर ज्ञागा, निकछना, नि सरण । [ करनः, पछायत । निर्गेमन तव्‌० ( घु? ) बादिर ज्ञाना, निकक्षना, प्रस्थान निर्गुण या बिगुंन वव्‌* ( घु० ) ब्रिगुणातीत, सत्य रज और तम इन तीन गुर्यों से भतीत, परमेख्वर, विधा झादि सदुयुणों से घूस्य, गुणद्दीन, निकम्मा, सूखे। [ विशेष, पूक औपघ का नाम, संमालू निमु शडी तद्‌० ( खी० ) नीछशेकाल्िकापुष्प, पुष्प निघयट तदु० ( घ० ) ओेश, शब्दां निरूवक पुस्तक, कि सूची, द्रव्पगुयागुग् दु्शंक प्रन्ध | छाल ( गु० ) छछद्वीव, कपट दीन । विज्ञन तत्‌*» ( वि० ) पुकान्त, जनशूल्य, जनहीन, या निमृत । ४ [अरा रहित । निजञेर त३* (पु) अमर, देववा, देव । (वि०) अजर, निञ्जल तव्‌» ( वि० ) जवशूस्य रेश आदि, मर्सूमि। कस बस (स्री० ) जेड की शुद्धा एकादणी । त॑ तद्‌० ( वि० ) प्राप्त पराजय, परास्‍्त, परा- जित, वशीसूत । निर्जोंव तब्‌० ( वि* ) जीवास्मा रहित, प्राथग्र्य, जह़, भचेत, मरा हुभा, ग्टूत, दु्दंछ, थान्त । निर्मारु तद०(पु०) पर्वेत से गिरने बाढ्य जरू प्रवाद,पद्वाढ़ का स्प॒ना,झरना,खोत,साता चश्मा,सूर्य का घोड़ा । € ४४० ) निर्मय निर्भरिणी तत० ( स्रो० ) नदी, ख्रोतस्विनी । निर्णय तव॒० ( पु» ) निश्चय, सफाई, स्वच्छता, फरि- याव, अवधारण, स्थिरीकरण, विचार, तर्क, चर्चा, विरोध परिद्वार, सिद्धास्ख ।--कर्त्ता (६० ) निश्रयकर्त्ता, निर्ययकारक, भ्रवधारक | निर्णयापमा ( खी० ) भलद्भार विशेष निप्र्में उपमेय और उपमान ढे गुणों का विवेचन किया जाता हैं । निर्णीत तत्‌० (वि ) झृतनिश्चय, स्थिरीकृत, निष्प्ठ, सिद्ध, निश्चय किया इुथा | निर्णेता तद्‌ ( ४० )निश्वयकारर, अ्वधारणकर्त्तों । निददृ॑ई दे० ( स्री० ) कठोर अन्त.करण बाढा, निदय, दयाद्दीन, दुयायून्प । निर्दूय तत॒० (वि० ) निधुर, कठिन, दयाशूत्य । ता ( ख्री० ) निछुरता, दया घूल्यता | निर्द्यता (खी* ) ऋूरठा, कढोरता। [ कथित । निर्दिष्ट उद्‌० ( वि० ) निरूपित, स्थिरीक्त, निश्चित, निर्देश तद्‌* (१० ) [ निर्‌ + दिश्‌+ धर | भाशा, आदेश, प्रस्ताव, कथन, निरूपण, नि्ंय। निर्देष तव्‌" ( वि० ) दोष रद्दित, भपराध य्रत्य, निष्कलड्ूः, निष्पाप । निर्धन तद० ((वि० ) धनशुर्प, धनहीत, दरिद्र, कंग्राल्न, रंक --ता ( स््री० ) कंगाली, गरीबी । निर्धम तद्‌० (वि*) घर्मरद्वित, घर्मश्ूत्य, अधासिंक निर्धार तत्‌० ( पु० ) निश्चय, निर्येय, बाति गुय और क्रिया के इत्कर्प अपवा अपकर्ष के द्वारा खजातीप से श्यकू करना | [ करना। निर्धारण तत्‌» ( पु० ) निश्चय, निर्णेय फाना, स्पिए निर्षत् तद्‌ू* (वि० ) निष्पन्न, अनाथ, दीन, भसद्वाय। निफेल ( गु० ) दिष्फक । निर्वज्ञ तव्‌० (गु० ) पलद्टीन, अवछ, भशक्त, दुबंल | निर्वाचन (० ) चुनाव, निर्णय | निर्वासन तब्‌० ( पु० ) दूरीक्रण, नगर भादि से बादर करना, देश निश्चाला देना । निवुंद्धि खत» ( वि० ) असमझ, अशान, छाती) अबोध, मूर्ख + निर्वुक दे० ( वि० ) अवूझ, नाप्तमर, मूर्ख । निसेय तत्‌० ( वि० ) मय रहित, निढर, सादसीः घृष दीढ । निर्मम ( ४8च१ ) 'निर्वासक निर्मप्त तत्‌० ( त्रि० ) निर्मोही, निलेसि, समताहीन, झजुराग शुत्य, निष्णठ, समता रद्धित । निमर्मेर्याद्‌ ठचु० ( वि० ) [निदू + सर्वाद] अचादरकारी, मान्यताहीन, भर्यादाशूल्य, क्रपसानकारी ! निर्मल तत्‌० ( वि० ) भछ रहित, स्वच्छ, परिष्कृत, शुद्ध, उच्चछा ।--तो ( त्ती० ) शुद्धता, परिष्कार । मिर्सत्वी दे० ( ख्री० ) फठ विशेष, कृतक फक् ! निर्मलोपल तत॒० ( घु० ) [निर्मे + उपल ] स्फटिठ | निर्माण तत्‌० ( 5० ) [ निर्‌ + मा + श्रनट्‌] बनावट गठन, रचना, अन्थन, सेशिकरण निर्माता तव॒" ( प० ) [ निर्‌ + मा + ढुन्‌ ] निर्माण कारक, निर्माणअर्सा, रचकर, रचयिता, रचने चाह्मा, बनाने चाला | निर्माद्य तद्‌० ( पु०) [निर + माल्य] देवेच्छिए कब्य, चिदे देच पुष्प आदि, देचप्रलाद,देवदत्त वध्तु,प्रसाद, नैवेद्य | (चि०) बासा घुधय आदि, पर्युपित द्ृच्य। निर्शित तत० (चिल) [ निर्‌+मा +क्ष | गठिय, रचित, कृत, बताया हुश्ना निर्माण कित्रा हुश्रा, रचा हुआ, गढ़ा हुआ, रचना किया हुआ | निर्मिति तत* (स्री० ) [निर्‌ +-मा+क्ति ] निर्माण, गठन, रचन, करण) निर्मल तथ्‌० ( वि० ) [ निर्‌+सूल ] सूल रहित, डखड़ा हुआ, जड़ से खेदा हु, बिना जड़ का, बिना खूल का । ( छु० ) ध्दंस, नाश, उच्छेद । निर्मो्क तरृ० (० ) [ निर्‌ + झुच्‌ + घन्‌ ] कंचली, सपत्वक, सांप का छोड़। हुप्ना कण्चुक, गरमी के दिनों में विष प्ले श्रधिक सम्तप्त होकर साँप अपने ऊपर का चमड़ा छेष्ड देते हैं यद् डतका स्वाभाव है; केचुल, केखुली । निर्मो्द तत्‌० ( थि० ) [ निर्‌ +सुददू+घक््‌ ] निर्देन, कदोर, कठिन हृदय का ।--ी ( थु० ) पेमश्रूल्य, क्याशूल्य, अंचुराग रहित | निर्यातत तत्त्‌० ( वि०) [निर्‌ + यत्‌ + खिच्‌ + धनदू ] प्रतिहिंसा, चैश्शोषन, अपकार का बदुछा, शत्रुता घुडाना, दास, स्थास, रखी हुई वस्तु को लौटना, ऋण का परिशोध, सारण, हस्या । जिर्यास तव्‌* ( पृ० ) [ निर+यास ] कपाय; क्ाव; घुर्खों का रख, गोंद, काढ़ा,मीमांता, स्थिर; निश्चय ! निर्युक्ति हव० ( ख्री० ) [ निर्‌ + युजु-+क्ति ] युक्ति रददित, अनुप्चुक्त, अनुचित | नियुंक्तिक तव« (चि०) [निर्‌ +युक्तिश्ु बुच्ि रद्दित, अयीक्तिक, मतगढ़ग्त, अनुचित, अलुफ्युक्त । निर्योगत्तेम त्तू० ( थि० ) निश्चिन्त, चिन्ता शून्य, चिन्ता रहित । [अ्नपत्रप, नझठा, वेहया, बेशमें । निलेजज्न तव॒० ( दवि० ) [ निर्‌+लज्या |. रज्जाहौय पबिलिप्त तव्‌० ( वि० ) [निर्‌ + लिप्‌ + क्त | लेपरहित निर्लेप, अनाशक्त, बेलाग, बेलीस । बित्तेंव तद॒० ( बि० ) [निर्‌ + लिप्‌ + श्रल्तू ] लेपशूल्य सन्ने रहित, पापशूस्य, स्वतन्त्र निर्लेश ठव० ( वि० ) छेश रहित, स्वेबा अभाव।.. - नि्लेभि तव॒० (वि० ) लोभरहित, छोभहीन, अछोभी । निर्दाचऊ तत० ( बि० ) [निर्‌ +वाचक ] घुननेबाला, निर्देशकर्तां, निर्देशक्वारी । निर्वाचच तत्‌० (३०) [निर्‌ +बच्‌ + खिच्‌ + अनद ] चुनाव, किसी सम्मूद से अपने मतेमत को निकाह लेना, समुदाय ले किप्ती एक को घुदना । निर्चाण तत्‌० ( घु० ) [ निर्‌ + वा + क्त ] अस्तगमन, चिद्वृत्ति, गजमज्जन, हाथी का स्वान, सपम्मम, अपबर्ग, मोक्ष, विश्वान्ति, विश्राम, निश्चक, शूम्य, विद्या का उपदेश, नासि देश सें जप करने गेग्य प्रणव और माद्ृक्षा संशुदित सूल्मनन्‍्त्र। मस्तक (9०) परित्राण, रक्ता, भेह ।--छुख (घु०) मे का शआरानन्द, ब्रह्मनन्द, सुक्ति, मेज, चैकुण्ड । लिर्बेश तव्‌० ( वि+ ) बंशद्दीन, निश्सम्तान, अपुत्रक निर्चात दद्‌* (वि०) [निर्‌+वात] वायु रद्दित स्थान, वह स्थान जा चायु न जा सके। निर्वाघ तव्‌* (वि०) [ निर्‌+वा्घा ] धाधा रहित, अकण्टक, सुगम, सरक्ष । निर्वोपण तद्‌० (३०) [ चिर्‌-+दप्‌ + शिचू + शनट्‌ ] स्याग, दान, भ्राणनाश, बच्च, छुकाना, समाप्त होना, निःशेष देना | निर्वास तद॒० (8०) [चीर्‌ + तरस + घन | वहिप्करण, बूरीररण, बाहर कर देनी, निफाल देना । सिर्घासक्न उव० ( पु० ) निडातने चाढय, निकाछ देने बचाता, चराहर करने घाला | झा० पा०-०-११ निर्वाप्ित निर्धामित क्ततु७ (वि० ) [ निए + बस + खिच+ क ] दूरीकृत, निकाह गया ! निर्वारिथ तब ( गु* ) [सिर + दस +ध्यण ] बिवां सन ये।य, निश्चलने येग्य, अपराधी | विर्याद्द तद्‌* ( पु७ ) [ निर्‌+ बह +घन््‌ ] निष्यति, समाप्तिजी घिछा, कार्यथाघन । निर्रिक्पक्र तत5 (३० ) ज्ञान विशेष, सामान्य ज्ञान, भेद, भ्रमथ्‌ य/--सम्राथि (पु ) ज्ातृज्ञान थरादि भेद के नाश होते के कारण अ्रद्वितीय वम्तु के आकार से भ्राकारित द्वोकर पुर रूप से थ्वस्थात, परमाश्मा, साछ्ठातूकार लनिविकार तत्त्‌* ( वि० ) दिकार शुरु, विकार बद्वित, दर, घ॒णा रद्वित, एक रत, एक मात | निर्विन्न तर [ वि० ) अबवाध, जिममें किसी प्रहार बाघा न दो, भक्त श, प्रभु, विध्त हित, घढ- चन शूल्प निविधिक तत्‌० ( वि० ) तिर्बो 4, विचार रहित । निर्विवाद तन्‌० ( वि०) विद शू्य, आवत्तिद्ीन । निर्विशठु ततू० (वि० ) निर्मप, साइसी, गिडर । निरषी ज्ञ तू" ( बि० ) बीज गदित, पूरा, हूंझा। >-समाधि (सत्री० ) समाधि विशेष । निर्षीए तत्‌० (बि० ) वीर धन्य, वी'दीद । निध्त्ति तत्‌० ( ख्तरी० ) सिद्धि, निश्वति, बृच्ि रदित । निर्येद बदन (६०) भपनी अ्रवशा, स्वावमानन, आष्मावहलव । लिर्धेर वव्‌० (वि) शप्रु रहित, अज्ञात शत्रा [डदार । निरर्षात़् १० ( वि० ) कपद धूल्व, निः७पट, सरक् निर्द्य थि तव्‌* ( वि ) भ्याधि हीद, अरोग, निरोश । निईंरण दद्‌६ (वि०) [ निर+ह+ भनट ] शद वहिष्णय, सुर्दा निश्चठना, रपी निकालना | निद्ेंतुरू तत्‌* ( वि० ) पयोजन शल्य, प्रहेदुक, भका- रण, निभ्काण | निल्त ( पु ) विमीषण के पदस मंत्री का नाम । निजज या निलउन तदु० ( वि० ) निदजज, शज्ा- हीरव, बेदवा, थेशामे।! निल्लय तद्‌5 ( घु० ) गृड, निवास, आइय | निल्ाम दे। ( ० ) सबधे भ्रचिद्र दाम छूपाने वाले हे हाथ किठ्ी पस्तु के ब्रेवने की रीति | ( छइंदर ) निचारत निल्लोन त्त्‌* ( वि० ) सूत्र छिपा हुश्ना, प्रच्छत, गुप्त घूढ़, विरोद्दित ( [निवारण कच्तो। चिधर (गु० )निर्णेत करने वा), पचाते वादा, निधरा ठदू० ( स्रोौ५ ) कुमारी, भद्रिवाद्विता | नित्र्तन छत» (पु ) लौराना, रोइना, वापव श्रावा। तिवद्‌ ( पु ) समर, कुंड, एच । निवाज्ना ( क्रि० ) दया करना; रक्षा ऋरया । निदात ( १० ) बात द्वीन प्रदेश, पद स्थान जहां पवन न था ज्ञा सके । निवातफवच तत० (३० ) दैत्य विशेष, सह देय बह्ढाद का पुत्र चोर देत्यपति हिएणंआरिप्ु का दौन था | इसहे वशन दानव निवातकवच के नाम से पसिद हैं | मद्रामारत में इती संदपा त्तीव कोटि दिल्ली हुई है।वह दानवों का दुल देदों का प्रदत्त शत है । पराण्डवों के बजवाल ह समय अजजुंद इन्डू पे भखविद्या सीक्षन ह लिये स्त्र्ग गये / इखादि देवों से भैरर भखवेद्या में निषुय यद तथा पस्धावों से उरहेंनि भरग्नविद्या सीदी| अख्विद्या की शिक्षा समप्त द्वेनि पर भडन से गुरुददिया देने के लिये इन्द्र ने कहा । जव अजुद ने गुरदिया देता स्वीकार की, तप इत्र न निवातकबच राषपें का बध दी गुरदषिणा में माया | सातक्वी परिचादित दि्य रप पर उडझर अज्ञुेद निवातझवच राखसे के वासत्यन पर पहुँचे । इनके साथ अर्जुन हा घोर युद्द हुए । उस युद्ध में निवातझवब का समूछ विनाश हुप्रा। इन दुगनवों का वातत्यान रसातड में था। निधान दे* ( दि० ) नीचान, गदराई, विखेता, सहला, निचाई, श्रघ प दोदर काना । निवाना दे ( क्रि० ) कुछाटा, निहुगना, मेहइना/ निवार दे० ( १० ) रोक, कोर, पही, जिपसे परेंग बिने जाते है। [| मना करने वाला। निवारक सद्‌० ( पु ) दूर करते बाला, रेश्त वाला, निवारण तद्‌० ( ५० ) रोक, रुछाबट, भटझांव, बाधा दूर करना, निवारना, हटाना, प्रशामित वहला, उपशम्तित करना । निवास्त दे* ( क्रि०्) बचावत, बचाता है, रचा करता है, रोकता है ) निवारना ( लिवारना दे» (क्रि० ) रोकना, बचाना, बजेना, हटाना, दूर करता | निचारा तद्‌० ( पु० ) जलक्रीड़ा, नाव फेरना | लिचारि दे" ( क्रि० ) बचा कर, रोक कर, बरज कर, मने कर, हटके कर । निनारो ( स्री० ) फूल विशेष, जो चैन्न में फ़ूछता है। निधारित तव्‌" ( लि० ) बचाया हुआ, रोका हुआ्ला, रक्षित्त किया हुश्रा, हटका हुआ | निवाला ( पु० ) कौर, आस | निवास तत्‌० (घु० ) [नि+वस्‌+घल ] वासस्थान, देरा, मकान, जगह, घर, ग्ुह, निलय निवासी तत्‌* ( वि० ) रहने वाला, बसने बाला; बासकर्ता । निश्विह़् था नित्िर त्त्‌० ( वि० ) सघन, घना, बहुत सदा हुआ, एक से पक मिला हुथा | [ हुश्ला। निविष्ट ( गु० ) लगा हुआ, तत्पर, लीन, किपटा निचीत (१० ) गरजे से लद॒का हुआ, यज्ञोपवीत, चादर । ! मिश्ुक दे* (क्रि० ) निपट कर, अवकाश पाकर । निद्ृत्त (गु० ) छूथा हुआ, विरक्त। [विश्राम] निवत्ति तत॒० (खसत्री० ) अवकाश, बअन्धन मुक्ति, मिवेद्क ( घु० ) प्रार्थों, निवेदन करने चाला । मिवेदन तत्‌० (प० ) प्राधथेक, विनती, श्भिन्ाप प्रछाश, सनोरध कथन ॥-पतन्न (१०) प्रार्थनापन्न । निवेदित तद्‌> ( बि* ) श्ररित्त, स्रपर्पित, दिया हुआ, (निवेदन किया हुमा, दान किया हुश्ना । निधेरना ( कि ) समाप्त करना, किसी ऋपड़े का निर्णय कर उसे समाप्त करता । निवेरा ( गु० ) चुना हुआ, छोटा हु प्रा निरमदित । निवेश ( पु० ) पड़प्व, शिविर, राध्ते में ठहरने की जगह | निशडुः तद्‌» (बि०) शक्का रद्दित, शक्ल छल्य, निर्भेय, निडर, निःसन्देद, निःसंशय । निशवर (प०) राक्षस । (ग्र॒०) रात में चक्नने चाले । निशमन ( छु? ) देखना, खुनना । निशा तत्‌० ( ख्री० ) रात्रि, रजनी, शवेरी, यासिनी: रात, हरिद्वा, हकदी |--कर (३०५) चन्द्रमम्, विज. इन्दु ।--गरझ ( छु० ) | निशा + आागम | रात्रि । डेणरे ) का श्रागम, सन्ध्या, सन्ध्याकाल, सॉक चर ( छु० ) राक्सस, चार, श्वगाल, उलूर, इल्‍्लू, सपे, चक्रवाक्र, चकवा पक्षी ।--चघरी (स्त्री० ) राक्षसी, वेश्या, छुकटा |--चोरी ( गरु० ) रात में चज्ने वाल्ला ।-ठन ( घु० ) [ निशा + थरटन ] इलूऋ, इल्लू ।>स्त (घु० ) [निशा+ अन्त ] राजि का अन्तकाछ, प्रभात, प्रातःकाल, ब्राह्ममुहूत्ते। पति ( ० ) चन्द्र, विछु, शशघर, कर्पोर, कपूर |--बसान ( पु ) | निशा + श्रवसान ] रात्रि शेष, प्रभातकाज्त, उषा । निशात ततव॒«» ( वि० ) शाणित, तीक्ष्णीक्षष. शान दिया हुआ, पैनाया हुच्ा। निशान दे० ( छु० ) बड़ ध्वना, जो राज्ञाओ्रों का राज- चिह्न है ।--ा ( पु० ) छक्षय नी (ख्त्री० ) चिन्ह, स्मरण करने का साथन । निशि तब» ( स्त्री०) निशा, रात्रि, रात |--चर (पु०) निशाचर, चब्दमा ।-नाथ (४० ) चन्द्रमा, चांद +--मुख (9० ) प्रदाष, सम्ध्यकारू | --भात्ु ( छु० ) चन्द्रमा [ निशित त्व्‌० ( चि० ) तीखा, तीक्ष्ण, पैना, पैनी | मनिशीय तव्‌० (० ) अद्धंरात्रि, आधीराध, रात्रि मध्य | निशीधिनी तत्‌? ( खत्री० ) रात, रात्रि, रजनी । निशुम्म तव्‌5 ( पु० ) विख्यात दानव, यह कश्यप के अौरस और उसकी पत्नी दनु के यम से इश्पन्न हुआ था। इस प्ले ज्येछ भाई का नाम शुम्म और छेादे का नाम नपमुत्रि था। नमुच्ि क्ला इन्द्र ने मारा था। छेटे माई की रह॒स्यु घे शुम्म और निश्ुम्भ ये दोनों अद्यस्त क्रोघित हुए और इन दोनों महा- चीरों ने इस्क् पर चढ़ाई की देवताओं को स्वर्ग से निऊाल कर ये स्वयं स्व के अ्रधीश्वर बन बेंढे । घुक सम्प मदिपासुर के मन्त्री रक्ततीज नामक असिद्ध दानव से इनकी सेंट हुई | इन देतनों ने रक्तवीज से सुना कि दिन्ध्य पवेत पर कात्यायनी देवी के हाथ महिपासुर सारा गया और उसके सेनापति चएड और मुण्ड भय से जल में छिपे हुए हैं। इन्होंने कास्यायनी देवी का नाश करने के लिये संकरप किया और चण्ड झुण्ड से भी साज्षात्‌ निशुम्भ निशेष ( छमछ ) निष्काम जिया । अब इन लोगों ने सुधीर नामक दूत को | निशशछिठ दव० ( वि० ) दिह्र रहित, दोप रदित। देदी के निकट भेजा । दूत देवी के निकट जाकर ! निश्रेयस ( एु० ) मुक्ति, सोच । कहने छगा--ध्थिवी में झुम्भ और निश्चम्म से वढ़ | निश्वास तव० (पु०) [ नि + स्पस्‌ + घनर्‌ ] प्राणदायु, कर दूसरा घीर नहीं है ग्यौर ठुम भी इस ससार में श्वास, साँस ।--सहिता ( ख्रो० ) शिव प्रणीत सर्वेत्तिम सुन्दरी हो श्रवएव तुम्झे डचित है कि शात्् विशेष । इन दोनों में जिससे चाहो ठुम श्रपना वियाद कर | निशणेप ( गु० ) समाप्त, जिससा कुछ भी न बचा हो। को । देवी ने कद्धा--तुस जो कदते हो वह बहुत निपड्ठ तद्‌० (पु०) चूण, बाण रसने को चैली, माया, ठोक है परन्तु मैंने एक प्रतिज्ञा की है कि जो युद्ध तृणीर, तरक्स । में मुझझे हरा देगा उसो से मैं अपना ब्याह निपणण तत० (वि०) चुस्य,विपणण,उपविष्ट,बैठा हुआ । कह गी । शुम्भ के पास जाकर दूत ने ये बातें कहाँ। ' निषध ततू० ( घु० ) पर्वत विशेष, देशविशेष, निपघ धृश्नलोचन नामक देल्मय को उन लोगों ने देवी को देश का राजा, निपाद, स्वर । [ धीवर विशेष | पकड़ लावे के लिए भेजा। धृम्रलोचन वो देवी ने ' निषाद्‌ तत्‌० (उ०) स्वर विशेष, पहला स्वर, चायडाल, सार डाला । तब चणद और मुणड को शुम्म ने देवी ' निषिद्ध तत्‌० (पि० ) निषेध या विपय, पज्जित, के पास भेजा। चयड सुण्ड की भी वही दशा हुई। निवारित, रोका, प्रतिपेघित, मना किया हुआ । 'चगड झुण्द के मारे जाने पर तीस कोटि अक्षौदियी निषिद्धाचरण दत० (वि०) अकमेक्रण, श्र गिस्द सेना के साथ रक्तदीज भेजा गया। देवी के साथ. आचरण । रक्वीज बड़ी बीरता से लड़ा, परन्तु अन्त में वह भी मारा गया। अप अगया शम्म और निशुम्स युदृकेत्र में उपस्थित हुए भौर मन भर लड़ पर, इन्दोंने भी बीरों के समान गति पाई ।--मर्दिनों ( स्ी० ) दुर्गांदेवी, कात्यायनी देरी । निशेष ( प० ) निशास्र, चन्द्रमा | । आज्ञा सूचक पत्र । [ सेऊने वाला । निश्चय तत» (०) स्थिर, भ्चश्चल, असशय, निर्णय, | निषेधक ठव्‌० ( घु० ) निषेधकर्ता निव्रारणकर्तों, सिद्धान्त, श्रगयारण, विर्वास, प्रतिज्ञ, स्पष्ट, | त्प्क तत्‌० (पु० ) एक सौ आाद रत्ती भर सोता, अवश्य ।--पत्मक (गु०) यथाये, निस्सन्देहात्मऊ | | सुर्ण, हेम, एक प्रकार पा गले का गहना, धुक- “शान (४० ) दृहप्रत्य, श्रद्धा । घुरी, शाख्रोय परिमाण विशेष, श्रशरफी, दीनार। निश्चर (० ) ११ थे मम्पन्दर के सप्तषियों से से । निष्कयठक तव॒० ( बि० ) अकण्टक, क्ण्थ्क शूत्य, एक ऋषि का नाम। निरदोग । निश्चल तत्‌» ( वि० ) अचल, स्थिर (३० ) परत, | जिप्कपद तत० ( बि० ) फपद शुज्य, अवपर, सीधा, घुए,, सथावर । के '.. सरल, कपद रहित । पटक ० ) श्रचला, स्थिर ( खी० 3 | किकर वन ('बे०) कर रहित, राजरय रहित, पृष्धि। पक निष्कर्ष तत्‌० ( घु० ) निरचय, निष्पति, ग्थिरीहृत, निश्चित बद० ( बि० 2 निर्णीक, स्थिरीह, निरचय | च्यवस्था, तात्पय॑, सत्य, प्रस्यक्ष, सिद्धान्त । किया हुआ ।--कर्मा (वि०) म्थिररूमां, दृढ़कसों 4 | निष्कजड्डू ठत्‌» ( वि० ) निर्दोष, अपराधदीन, शंद, निशिकिग्त रव० ( वि० ) विन्दाहीन, सुम्बिर, ठद्वैध |. दीतशील। अन्य, चिन्ता रहित, पेफिक | हि निष्काम तत्त० ( रि० 9 कामना रहित, इच्छा शल्व, निःचेष्ट तद* (ज०) चेश रहित, अजुचोग, निरपाय, | फल की अनिच्चा सद्तित काम, दिस कास का फल अचेत, भूच्चा प्रात, बेहोश । भगवान्‌ को अपित किया जाम । | निपूदेन ( पु० ) नाशकक्‍तों, मारने बाला । | निषेक तव॒० (पु०) सस्कार विशेष, गर्भाधान सस्कारा निपेचन ( पु० ) खेत आदि का सींचना। निषेध शत्‌० (8० ) प्रतिपेध, निवृत्ति, निवारण, * बारण, सना घरना।--प्न ( प० ) निषेध की निष्कारण निष्कारण तत० ( दि० ) कारणहीन, हेतुशूल्य, निष्प- चयोजन, अह्देतुक । निष्कमण तत्‌० ( घु० ) संस्कार विशेष, निःसरण, बाहिर निकलना। निष्कान्त वत्‌ (वि० ) निर्मल, अस्थित, निःखत, बाहिर निकला हुआ । लनिश्किय तत्‌ (छु० ) बह, मिरक्षच। (वि० ) किग्रा शून्य, अकर्मा, जड़ [ वन्नस्थ ! नि ठच्‌० ( वि० ) स्थिव, स्थिर, तत्पर, अ्मिनिविष्ट, निष्ठा तत्‌० ( ख्ली० ) निष्पत्ति, नाश, अन्त, निर्वहण, यात्रा, भक्ति, धर्मैचिश्वास, घर्मतत्परता, विश्वास, स्थिरता ++-वान्‌ (गु०) श्रद्धा सक्ति रखने वाला । निष्छुर तत्‌० ( वि० ) पढष, कठोर; निर्देय, कठिन, क्र, दुराचार |--ता ( खस्री० ) क्रूरता, कठोरता, ईनिर्देयीपन | नि्यात तत्‌० (बवि०) प्रवीण, विज्ञ, पणिडत, अभिज्ञ, पारझत, पारदर्शी । [ निश्चय । निष्पत्ति तत्‌० ( स्री० ) समाप्ति, शेष, अवधारण, निष्पन्द्‌ तत्‌० ( वि० ) बिना धढ़क का, स्पन्द रह्दित, अचलन, निष्कम्प, स्थिर, दृढ़ । छिठ, सिद्ध । निष्पन्न तत्‌० (वि० ) समाप्त, शेप, सम्पन्न, साज्म, निष्परिश्रह तच० (छ०) ओोगी, तपस्वी, बैरायी, संस्यासी। निष्पादन तत० ( छु० ) सम्पादन, साधन, निष्पत्ति करण, शेष करना, सिद्धान्त करना, समाधान करना, प्रतिज्ञा प्रण करना, निप्पत्ति, नियुक्ति । निष्पाप तत्‌० ( घु० ) निरपराध, निर्दोष, पापहीन । निष्प्रतिम् तत्‌० ( वि० ) अज्ञ, जड़, सूख, निर्वाध, हत्तजुद्धि [ पद, विप्न रहित । निष्पत्यूद्द वव्‌० ( वि० 2 निविल्ल, वाधाहीन, मिरा- निष्पस तत्‌० ( बि० ) दीछ्तिरदित, अभाद्दीन, अस्वच्छ हतमनोरथ । [ अद्देठक, अकारण । निष्प्रयोजन तत्‌» ( बि० ) अयोजन रहित, निरथक, निष्फल्ल तत्‌० (चि०) विफल, निरर्थक, व्यर्थ,पल रहित । निसड़ तद० (वि०) निःशकक्‍्य, अशक्त, घुरुषार्थधीन। , निसड्भुद तद्‌० (वि० ) विःसह्वट, सक्धब्मुक्त, सहृंद | रहित, अनायास । निसनन्‍्थाई दे० ( खी० ) सन्धि रहित, निशिछिद, डॉस, पोढ़ा ( छठ ) निरझञप | निसरना दे० ( क्रि० ) निकलना, विकसना, बाहर | होना, निकरना ६ | निसर्ग तत७ ( घु० ) प्रकृति, स्वमाद, रूप, स्वर्ग, सृष्टि, त्याग, परिवत्तेन, स्वाभाविक, प्राकृतिक +--ज्ञ ( वि० ) सहजात, स्वभावज, नैसर्गिक । ! द्विसवासर ( क्रि० वि० ) रातदिनि । निरसांस दे० ( वि० ) आह मरना, दिलाप करना । | निसाँसी दे० ( गु० ) दुःखी, व्यस्त, डद्धिझ । | निसान दे० ( छु० ) नगारा, हुन्दुमी, सूर्य । निसार दे० ( छु० ) तिकास, निकाल । । निसास तदू० (9० ) निःख्वास, साँस, प्राणवायु । विसित त्तद्‌ ( वि० ) पैनी, तीचण, घारदार, निश्चित । निसदिन (क्रि० वि०) रातदिव, सदा, सदैव, हमेशा । निसिनिसि ( स्वी० ) हर रात, रात रात, आधीरात | निसतोटठी ( ग॒ु० ) तत्वहीन, थोथी, सारहीन । निर्ृट्ट तच» ( वि० ) मध्यस्थ, न्यस्त, अर्पित, छोड़ा हुआ, त्यक्त। बिरणार्थ तत्‌० ( पु० ) दूत विशेष, घन क्रा आय ज्यय और पालन आदि के चिपय सें नियुक्त किया हुआ दूत । बिसेनी या बिसैनी तद्‌० ( ख्री० ) काठ या बॉस की बनी डंडीदार सीढ़ी, नसैनी । 'निस्तोत दे० ( छु० ) एक औषधि का मास । निस्तव्ध ( गु० ) निर्चेष्ट, क्रियादीव ।--न्ता ( ख्री० ) निरचेष्टता, निष्कियता, हर्ष एवं शोक के बेग सें मन की एक निष्क्रिय अचस्था । बिस्तरण तव० ( घु० ) पार होना, तर, उद्धार करना, मुक्ति पाना, छुटकारा होना, उपाय | निस्तल तत्‌० ( वि० ) तल रहित, ग्रोलाकार, गोल, ) चरुल । निस्तार तत॒० (३०) [निस्‌ +द 4 घजू| रक्षा, उद्धार, त्राण, सुक्ति, मो, छुटकारा, बचाव । | मिस्तासना दे० ( क्रि० ) चचाना, डवारना, उद्धार करना, छुट्कारा देना, आण करना, रक्षा करना । निस्तारा दे० ( छ० ) छुटकारा, बचाव, मोक्, सुक्ति । , निस्‍्तेज तद्‌» ( बि० ) तेजद्दीन, प्रताप रहिल, भोधा। । निस्वोक दे० € छु० ) निवदेरा, निर्णय, फैसला । ह निद्ञप तब» ( वि० ) निर्लज्न, अशिए, लज्या रहित । निलह्िण ( 8८ ) निवाशय निश्चिश तत्‌० ( वि० ) असि, खड़, तलवार । निस्पन्द्‌ तत० (वि० ) स्पन्दन शन्‍्य, कम्प शून्य, लिये रखा हुआ | निश्वेष्ट अटल, स्थिर । [निरमिलाप | | निहुरना दे० ( क्रि० ) छुझना, दवनां, नवना, नमन निस्पृह तत्‌० ( बि० ) स्प॒द्दा शल्य, वासा रहित, | होना, प्रणत होना । निरव तव्‌» ( वि०) निधन, वरिद्र, डु सी, भ्र्धहीन। | निहुय दे० (पु०) नव, छुमा, नप्न । निम्न करना । निरचन वत्‌० ( घु० ) शब्द, ध्वनि, निनाद । निहुराना वे० (क्रि०) सुफावा, नयाना, प्रणव करना, निस्वॉस (9० ) नि श्वास । निहोर दे० (थि० ) कृपा, उपकार, विनती, विनय | निस्सड्राच ( गु० ) सझेच रहित, वेतकक्‍ललुफ। | निहोरा दे० ( घु० ) चिरौरी, विनती, अ्रनुनय, विनय, निस्सन्तान ( गु० ) निवेश, सन्तति होन । उपसार, प्रार्थना, एह्सान, उल्लाइना, उरहना, अपित, न्‍्यस, रखा हुआ, रचापूर्वंक रफ़ने के | || न्‍ | | निस्सन्देंद ( गु० ) सन्देरहित, सचमुच । मम्नठा । निससरण ( पु० ) निर्लना, बहाव, निकास। ! निड्रय लत» ( पु० ) [ नि+नहु+ श्ल्‌ ] अ्रपलाप, निस्सार ( ग़॒० ) नच्छ, सारहीन, पोला। अपन्दय, गोपन, लुकाना, छिपना, भ्रविधास, निसुसारित ( गु० ) निकाला हुआ । ५»... ने मानना । निस्‍्वार्थ ( गु० ) निष्सम, अमिलापा शूल्य । निड्ाद्‌ ठत्‌० ( पु० ) शब्द, ध्यति, नाद, निनाद । निदहू दे+ (वि०) नद्गा, नग्न, चिस्ता रहित, उकद । | नौदू ततू० (स््ी० ) निद्रा, मपकी, हैंधाई, आलस। * नजाइला ( ग॒ु० ) बर्दिता में मल रहनेवाला, / -_.उच्चाठ होना ( वा० ) नौंद न आता, नींद उच्चुझ्ल ढरिठ् । [बघ क्या हुआ । हृटना ।--भर सीना ( वा० ) सूत्र सोना, गइरी निद्वत तव्‌० ( वि० ) आहत, निपातित, मारा गया, निद्रा से सोना निदत्या दे० ( वि० ) अ्रश्रहीन, भ्रखरद्वित, ख़ाली होत, बिया हाथ को। सदी था | ( स्लरौ०) मंद, निदा। निदाई दे० ( ख्रो०) लोदे की बनी एक प्रकार की | नौंदना दे० ( क्रिल ) सोना, शयत करना । वस्तु जिस पर ठपे हुए खोने चाँदी श्रादि को | नीदू दे० ( ० ) सुवैया, निवा, शयाल । गढते हैं । अयोधन, निद्ाली । मौंब दे ( पु० ) बच विशेष, मिस्त बुक्त निदानी दे० (स्वी०) ख्ी वा रज, ऋनु, कपडे होना। नींबू देन (पु०) निडुआ, जँमिसे नोर, फज्ञ विग्रेते । निद्दायत दे० ( श्र० ) अल्न्त, अधिर, अदिशय, | स्तेक नोका ] दे० (वि० ) भला, अ्रच्छा, उत्तम, अपरिमित । या नीऊे सुन्दर, खूबसूरत । निद्वार _तदू० ( ए० ) कदर, छुड्टिरा भ्रन्धकार, | तोच तत० ( वि० ) श्रधो, निम्न, श्रपह्ष्ट, श्रधम, शिशिर, दम, यथा-- इतर, जधन्य ।--गण ( वि०) नीचगामी, पामर, “ ज्िमि निद्र में दिनकर दूरा ।! (रामायण ) |. अ्धम था ( ख्री० ) नदी, हादिती, निर्न- निदारना दे० (फक्रि०) देखना, बिल्लोकन करना, दर्शन गरामिनी +--ग्रामी (वि० ) नीचे की शोर से करना, अयलोकन करना, निरीच्ेण करना, ध्यान चलने वाला, निम्नगामी, निर्जन +--ता (खरी०) पूर्वफ देपना । अधघमता, अ्पहएता, जघन्यता । निद्ारा दे० (कि० ) देग्ग, निरीचण क्या, अवलो- | मीचट ( गु० ) पकान्‍्त, निर्जन, दृढ़, पडा । कन जिया। नीचा दे० (वि०) नीच, अधम, छोटा । ( घु०) तका, द्वाल दे? ( व० ) प्रपक्ष, सुप्री, आनन्दित, इपित, तल ॥--ऊँचा ( बा> ) ऊपडस्गवड़ । स॒प्त, अभिलापएर्ण होने से तप, मनोरयथ सिद्धि । | नोचाई दे० ( ख्री० ) नीचता, भीचपन, छुटदाई । निद्ाली दे" ( ख्री० ) निद्वाई, अयोधन । मीचाशय तत्‌* ( बि० ) [नीच + आशय ] इताशय, निश्ित दतू० ( पु० ) [ नि+घा+क्त ] स्थापित, इद्धान्त वरण, लघुद॒दय । नौचू यु चीचू दे+ ( घु० ) अधलल, चुक्षविशेष, एक बुत्त का चाम ; ि चीचे दे० ( अ० ) तले । नोज्ञन ( सु० ) निर्जन, एकान्त, बीरान । सोज़ू ( स्री०) पानी भरने की डोर । नीकर ( पु० ) मरना, खोत | नीढ दे० ( बि० ) कुहारा, तुक्ारे सम्बन्ध का ।--रे ('स्ी० ) अहचि, अनिच्छा यो (गु० ) अगम्रि्र, अनचाहा । सीड़ तत्‌० ( घु० ) पक्ति का वासस्थान, विहंगावास, कुलाय, घासस्थान, घोंसला, खोता ।[ हुआ । नोत तत्‌० (बि० ) [ नी+क्त ] आप्त, गहीत, लिया नीति तव्‌० ( ख्री० ) [ नी+क्ति ] न्‍्याव्य व्यवहार, उचित च्यवहार, चलन शास्त्र विशेष, न | कथा (ज्ी० ) अन्य विशेष, हितोपदेश, झुब्दडपाण्यान ---ज्ञ॑_(वि० ) नीतिशालबेत्ता, भीतिशाख :“विशारद, राजमन्त्री ।-विद्या ( स्त्री० ) नीतिशास्न, हितोपदेश देने वाला शास्त्र सार ( पु० ) नीतिशासत्र विशेष । नीद दे० (खी० पीवी है ही) |. सिया। सींधवा ( गु० ) गरीब, निर्धेन । जीप सत्त० ( ५०) कदम्ब्र वुत्त, कदम का पेढ़ । सीबी तत्‌० (सतरो० ) व्यापार करने बालों का सूलधन, खस्तियों का करियस । सीबू दे० ( घु० ) निम्दू , पुक अकार का खह्टा फल जिसका रस विशेष करके काम में लाया जाता है । चोप दे? ( घु० ) नींव । [सनोरम । नोमन दे० ( वि० ) अच्छा, भला, उत्तम, सुन्दर, नीमर ( श॒० ) निर्वल, दुवला, वलहीन । सीमा ( ७० ) जासा, विवाह में दूल्हा के पहिनने का चस्त्र विशेष --रुत्तीच (स्त्री०) आधे वाद का छुर्ता। मीमाचत दे० ( घु० ) एक अन्थ, जिले नीसाचन्द सरस्वती ने चलाया है । नोर तत्‌» ( घु० ) पानी, जल, रस, सलिल, पय। --ज्ञ ( छु० ) पद्म, कमल, ऊदविलाब । ( वि०) जल से उत्पन्न वस्तुमात्र, निर्धुली देश, अस्जस्का जी, कुमारिका, कन्या । ( छप७ ) नीलक नीरस्थ दे० ( वि० ) निरर्थक, निष्फल, चुथा, च्यूर्थ। नीरद्‌ उुत० ( छु० ) [ चीर+दा+ड्‌] जल्द, मेघ, सोथा सीरधि ततत्‌० ( पु० ) सागर, समुद्र, पयोनिधि, तोच- ५४ निधि । नीरनिधि तत्‌० (पु० ) खायर, समुद्र, जलधि | नोस्प्थ तद्‌० ( बिं०) [ नीर + मयद्‌ | जलसथ, जल- बेश्ति, जल में ढूबा हुआ। नौरस तत्‌० ( वि० ) [ नौस्‌ + रस”| रसहीन, श॒ष्क, ब्रेस्वाद, स्वाद रहित । [ उत्तारना । , नीराज़न तत्‌० (घु० ) निसर्भन, आरती, आरती | नीरुज़ तत्‌० ( वि० ) स्वस्थ, रोग का अभाव | | नीरोगी तत्‌० (वि० ) रोग शून्य, पीड़ा रहित, सुस्थ । नील त्त्‌० ( घु० ) श्याम रंग, आकाश के रंगवाला, नील रंगयुक्त चृक्त, त्तालीशपत्र, व्रिप, गरल, १०८ नृत्य के भेदों के अन्तर्गत एक प्रकार का नृत्य । पर्चत विरोप, मणि वेशेष, नदी विशेष, यह नदी मिसर देश में बहदी हैं। निधि विशेष, कुघेर के एक ख़ज़ाने का नाम । घानर विशेष, यह रामचन्द्रजी की सेवा में था और इसने सेतु बनाने सें रामचन्द्र की बड़ी सहायता की थी । (३ ) साहिष्मती घुरी के एक राजा । इनकी एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या के रूप पर मोहित होकर अग्नि ने उससे अपना व्याह किया | अग्नि ने राजा नील के यह वर दिया था कि जे! कोई इस नथरी पर चढ़ाई करेगा, वह भस्म हे जायगा। युविप्टिर . के राजसूत्र यक् के समय सहदेव ने इस नगर पर चढ़ाई की थी, उस समय सहदेव ने देखा कि उनकी सेना आय से घिरी हुई है, तव सहदेव ने अग्नि की स्तुति और उपासना की, अग्नि ने असक्ष होकर नीलराज की पूजा लेकर सहदेखव से लौट जाने के लिए कहा | अग्नि की आक्ला से नीलराज ने सहदेव की पूजा की । सहदेव भी कर लेकर चहाँ से दक्षिण की ओर चल्ते गय्रे गाय ( स्ली० ) एक बनेला पछ ।--गिरि (घु०) एक पर्बत का नाम जो दक्तिण भारत में है । नौलक वत्‌० ( ७० ) नील रह का मृग विशेष, धीज शशित का ममाण विशेष] नीलकरणठ नोलकणंठ तत्‌० (घ॒ु० ) नीले कण्खवाला, शिय, महादेय, शग्ठु, मोर, मयूर, शिसी, सस्ट्त ज्योति शास्तरवेत्ता, इनकी बनाई “'ताजिक नीलकण्ठी” नास॑ की पुस्तक का ज्योतिषी समाज में विशेष आदर है । इनके पिता का नाम अनन्त और पितामह का नाम चिन्तामणि था। मुहूतंचिन्तामण्णि नामक अन्य के कता रामदैवक्ञ इन्हीं के छोटे भाई थे। नील- कर के पुत्र भी प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। इन्होंने भो मुहृूर्तचिस्तामणि की टीफा पीयूष धारा बनाई है । इन्होंने अपने अन्य के आरम्म में अपने पिता का कुछ चृत्तान्व लिखा दे जिससे मालूम होठा है कि कीलफकण5 मीजएतक, उैपएणिर, उपेरिर कौर चैयायरणी थे और ये अफ्वर के समासद भी ये। ये विदर्भ देश के रहने वाले थे। इनकी खत्रीका नाम पत्मा था। ये अकबर बादशाह के समकालीन थे, इसलिये इनका समय खुष्टीय १६ वीं सदी का पिदुला भाग ही मानना चाहिये। [नीलपकुज | नीलकमल तत्‌० (पु०) मीलवर्ण का पत्मन, कृष्प कमल, नीजगवय सद्‌० ( पु० ) चीक गौ, रोर, गौ के सप्तान पक जम्नद्वी अन्तु । नीलगवब दे० ( पु० ) भीछ गौ, रोक, नीजगाय | नोलग्रीध तत्‌० (ध०) महादेव, शिव, नीडकण्ठ, विष प्राम फरने के कारण भद्ादेव का कुण्ड नीला पढ़ गया है, इसीघे इन्हें नीछछण्ठ कदते हें । नीलवड़ी दे० ( स्त्री० ) नील का दुकद्ा, मीडरड । नीज़्ञम देण ( पु ) नीछकानत मणि, रत्न विरोप । खीलम। [विशेष | मीजमणि तत्‌० ( पु० ) नीलम, नीलकान्तमणि, रथ नोजमाधव ठत्‌* ( ५० ) विष्छु, नारायण, जगन्नाथ, जगदीश | नीललोदित तद्‌ « (६०)'शिव, मद्दादेव, शम्भु, नील कण्ठ, नीच और रक्त मिध्रित वर्ण, बैंयनी बह, मेधदूत । [पानी रक्न । नोलवर्ण हद» (वि) श्याम रमझ्र, आराशी रंग, चास> नीला दे० (यु०) नीज़े रह्र वाटा,नील रड्न में रड्ा हु। | नीजाई दे ( म्द्वी५ ) श्यामता, नीएता, नीडापन | नोलायोया द० ( पु ) निलाक्षन, तृतिया, उपघाहु विशेष । ( ४ंध८घ ) चुकसान नीलाम दे० (पु०) विक्की, विक्राव, बेचना । यह शब्द पुनंगाली, “लेलाम” शब्द का अपरंश हैं। किसी बस्नु जे मोल लेने वाले -चादे वे कितन ही हों दस वस्तुझा--सूक्य वेबते जाते हैं, शसमें से जो सबसे अधिक मूल्य देना स्वीकार करताईं और उपके याद दूसरा नहीं बोलता, ते। वह वस्तु सबसे अधिर मूल्य देने वाले क हाथ बेची जाती है। नीलाम्बर वत्‌० (प०) बलदव, शनैश्चर । नीलातते तत्‌० (प०) पौधा विशेष, कटीछा पक बूढ जिपमें पीले फूल लथते हैं,प्रियवासा, प्रियावॉसा । नीलोत्पल तत० ( पु० ) नीछकमछ, मीके पत्तों का ऋमऊ, नीऊ पह्टज, नीजेन्द्रीव१ + नीलोपल तत्० ( घु० ) नीचम, नीलमणि । नीकलोफर ( पु० ) नीषकमल ? नीच ( स््री० ) जढ, आधारा। नीवा दे* ( पु० ) सुनाइट, मन्दाई, मन्दता | नीचार तन्‌० ( पु० ) तिली का दत्त, पुक प्रकार का अब जो ताडावों में दोता है [इशारबस्द । नोदी तन्‌० ( र्ी० ) बनिपे! का सूछघन, पूँ ली, नाग नोबूत्‌ तत्‌० (पु०) देश, जनपद, जनस्थान । नीशार तत्‌० ( धु*) शीव निवारण काने बाला आच्ड्ादन, शामियाना, कनात, तम्बू, पटमण्डप, वसनग्ुद्द । नीसानी ( घु० ) छन्दविशेष ! नीसारना दे० ( क्रि०) निकाढना, निकासना । नीहार तत्‌ ( पु») घनीमूत शिरिर, बरफ, द्विम। तुपार, ओस, कुददर, कुद्दासा। नोद्यारिका (खत्री० ) कुदरा, झदासा, पदायों री + प्रधमावस्था । एक दार्शनिक् सिद्धान्त जिसके अनुसार यद माना जाता है कि जगत के यायव्‌ पदार्थ ठोस द्ोन छ पूर्व वाध्प रूप के थे। इसे नींहारिशागाद ऋदते हैं। छुरूुता ( पुर ) विरु, अ्रजुस्वार का चिन्द्र चीन ( 9० ) दोषदर्शी, समालोच5 ।---चीनी (मस्री०) दोष निकालना, समाठोचना | + झुकत्ती (छ्री ) चुंदिया, बूंढी, मिठाई विशेष । चि चुकस ( ६० ) घोड़ों का सफेद रक्त | + मुकसान ( पु ) घादय, थोेटा,द्वानि | छुक्रीला ६ छद8ई ) नेपथ्य अनिनतीनननियनननननिननीननीयीय- नमन नानी नमन न नमन ५ ननन++नत3.५>++-+33+ चकीला ६ गु० ) चोकदार, सुन्दर ! समवाद लू सड॒ प्रयट हुए थे, इस कारण इसके छुककड (५० ) छेर, छोना, नोक । चूसिंदजयस्वी भी कहते हैं । [का चूसिंद्दाववार । सक्स ( ए० ) दोष, खराबी, त्रुटि। झुदरि तत्‌5 ( पु+ ) नाधिंद अवतार, सगवाद्‌ विष्णु घुलड्टा! दे+ ( पु०) लख का खस्ोट, नख का बकोद | | तेई, गेऊ (स्त्री०) नेद, गढ़, निए । कि छुचना (क्रि० ) बखाडइुना, खुर्दना । नेउतल्ता (4०) नेवह्, नकुठ, जन्तु विशेष । छुचशाना ( फ्रिज ) इखइचाता । सेऊन हे० ( घु० ) सकक्‍्खस, चतनीय | चुति ( ररी० ) स्तुति, स्तोत्र, खुशामर । नेक, नेकु दे० (वि०) कुड येड़ा, झल्य, अत्यक्षम, तक, झुतद्काहराम (गु०) वर्ण सझ्कूर । अच्छा, भल्तत, उत्तम, मने!हर, सनेरम, रमणीय। छुनाई (म्री०) लुवाई, सुन्दरता, वावण्य, खशपन | +लाम दे ( बि० ) नामी, कीतिमन्‌, यशस्वी । छुतियाँ दे। (पु०) जाति विशेष, नोत्या | नेक्ता तच्‌० ( पु० ) फेप 5. पाठक; पे।पणकर्ता । नूतन,नूल तत्‌ ( वि० ) दया, लवीत, अ्रमिनव । न्ेग दें? ( पु ) दिव्ाइ में दान जे तंघा रहता है । नूचा दे? (५०) तमाकू विशेष । [झछी सूत्रेन्द्रिय । बेन, दस्तूर ।--खा २ ( छु० ) नातेदार आदि को चूल वे० (पु०) क्लोन, नोत, नमक | जी (र्वी०) इच्यों विकाह अादि उस्स में में देखा । सूथुर तंत० ( छु० ) विद्या, सूप ए ओेशेप, यह भुपण | नेगो दे० (वि० ) नेग पाने के श्रघिकारी, मेग में पैर की ऑपुलियों में पहना जे सा है, पायनेत, पैजनी हिस्सा चटाये चाल्वा, परजा, मेंगवा, अधिकारी । छुंघुरू) चेज्क तत्‌० (१०) थे।बी, रजकझू, परिष्कारक, शुद्ध छूर ( प० ) शोभा, प्रकाश, ज्योति, सौन्दर्य की आमा। करने बात, कपड़। घे।ने बाला । सुगपात ( पु० ) मदुष्द की खोवड़ी । भेज्नन तत्‌० ( ५ ) परिष्शरण, शोधन। लू ठप" ( छु० ) शक राजा का लाम, ये धहुत दानी नेढा दै* (१०) पोंटए, चाक का मल, रेंट । [विलय । थे, दाम में ब्यतिक्रप होने से इन्हें शरट की येनि | नेठमी दे ( वि० ) स्थिर, स्थायी, पुर स्वान पर रहने प्राप्त हुई । पुनः श्रीकृष्ण ने इनका इद्धार किया। नेवक दे० ( पु० ) नइकुड, नरकट | गुप्ता । नृत्य तत३ ( घु० ) स्व, सा साचना |--कारो | नेता तत० ( छु० ) नींव का इच, प्रधान, सुख्य, शे्ठ, (बि०) भाचते बाला, नचैया, नट, नतेडी +--की | नेति तत्‌० (अ«) व इत्ति, अन्त रहित, शअनस्‍न्‍्त, इतना (खी०) नाचनेवाली । नटों, बेहद. नहीं, ऐेला नहीं । नुद्देव या नृरेवता तव० (पु०) राजा; हर ! नेतो दे० ( ख्री० ) मधानी की रस्सी, मथानी घुमाने नूप तब ( ४० ) राजा, सूराल, सूरति, नरपति, राजा । की रस्सी । एुक प्रद्मार झा मोटा ढोरा, जिपके बाती (9० ) हाजवंशवाशक, परशुराम, हठयेगी ना में डाक कर खाफ़ करते हैं, केस माय । है ही क्रिया विशेष सुप्रति तत० ( ५० ) चरपति, राज) चुपाल । : चेन्न तत० (१० ) चछ, अक्षि, वयन, मल्षि।- सुपाल तत्‌० ( ३० ) राजा, सूपति, नरपति, पति | , कनीनिका ( ख्री? ) ्थालों की घुतली, दृष्टि। नुचराह तल" ( घु० ) श्र, चीर, योद्धा, बरधद्द रूप- प “+-च्छद ( ३५ ) नेन्रदिधाअक् अमैपुट, नेन्न बन्द घारी भगवान्‌ विष्णु का अबतार चिरोप | हे करने च-ठी पपनी, एचक। सू्शेल त्द० ( वि०) घातक; कर, दुष्ट, च्याघ, हत्यारा, ; ेत्रतोत दे? (५०) वन्धबा, वन्‍्दी, दयिद्धत, श्रपराधी । प्रद्दोद्दी ! । नेनास्थु तव्‌० ( पु* ) अश्ु चक्षु छा जल; अहुचा । नुजलिद रद" ( छ० ) प्रधान सलुष्प साश्रेष्ट, सगवाच्‌ | नेलुआ ( पु० ) एक शार ला नाम । का एक अवतार विशेष, जिनध्य रूप मनुष्य और ; नेपथ्पर तत्‌० ( १५ ) बेश, खल्बुतर, भूपण: रह्र्मूमि सिंह के समान घा, चरसेंह अवतार >चतुर्दगी ( का मीतरी स'व आर्डा नाठक थे पात्र समत्र हैं, (री) चैताखसास की शुद्धा वहुद॑शी, इसी दिय जुनाव खाना, न्वश्वार घर । शा० पु*+--६२ नेपात्त € ४६० ) नेाश्ा नेपाल तत्‌» (पु) देश विशेष ।-ये (वि०) | नैकठ्य तत्‌» ( वि+ ) निश्टमाव खामीष्य, समीपता, तेषाल का रहने चाजा | नेपुर तदु० (४०) नूपर, पादसूपण, विडिया, परायजेब | नेम तदू० ( ६० ) नियस, संयम, घ्मे में दढ, मत, प्रतिज्ञा, वचन, सहूदप +-धर्म (पु७ ) शद्ध ' ब्यवेद्दार। ह॒ तेमि तत्‌० ( स्ली० ) चक्के का घेरा, चक्रारिघि रथ के । पढ़िये का बह भाग जो भूमि में लगा रदता है । चक्र का प्रान्त मौस, कप के समीप बना हुआ चौरस चौत्ता, कुएँ के पास रस्सी रफत ऊे लिये रखी हुई तिशाज़ी छकठी |>चक्र (पु०)। पदिया, पाण्डवशीय राजा विशेष । [दाजछ | नेमी तदू> ( दि० ) निवसी, नियम करन वाले, नियम | तेशानां ( क्रि० श्र० ) पास पहुँचनता, नजरीक जाना | | नेखया दे० ( पु ) प्रयाल्त, नेली, डाटी । नेरे, नेरी दे? (अ०) निकट, समीर, रियरा, पाप्त । नेय देन ( ख्री० ) भीत की जड, मीव, सूछ । नेवतना दे० ( क्रि० ) निमस्प्रण देना, बुटाने हे लिये पष्र लेना ३ नेधता दे० ( पु० ) शुद्याइट, निमन्त्रण, न्योता | मेघना दे० (क्रि०्) सवना, नप्न छ्वेवा, निह्वस्ना, नमना। [धाव, कहीं इसे नेवल् भी कहते हैं । नेवर दे० ( स्ली० ) घोड़े के पैरों में रगड़ से इस नेवल, नेधजा दे ( ६० ) नकुर, न्योटा, यह सांपों का स्वाभाविक शयु है । [जाता है। नेधार ( पु० ) निवार, सूती पट्टी जिमपे पन्‍नड्न बुना नेवाजी दे० ( क्रि० ) शरण में क्षी, कृपा की । (गु०) कपा करने बाएा। दुयाल, ( स्प्रो० ) कृपा, दया र नेवाजू दे० ( पु० ) कृपानु दणलु, मेहरबान । भेद्द तदु० (३५) स्नेह, धीति,प्रेम, चिकनाहट, विक्रणा । नेहरामा इ० ( पु ) नहरुग्रा रेग । शिमचिस्तक । नही तदु० (वि० ) सनेइ, प्रिय, प्रेमी, मित्र, सुहृद, जैखत तत+ ( घु० ) राचस विशेष, निर्यति नाम रास के वंशज ) यद दिण और पश्चिम के केने का ध्रधाम्वर हैं । नैऋँ्य तत्‌० ( ० ) ददिण चौर पत्चिम्र के बीच की दिशा, हम दिशा के भ्रधिप्ति नि्नि हैं इस | कारण इसके नखत्य कहते हैं | 4 । | हे निऊटता, निश्ूट्त्व ॥ [दाय5, पथ] नैंग्रम तत० (पु० ) 9पएनिपव, वणिक्‌, सागर, तय, नैचा (पु०) हुक्‍्के की नली | [हविलुवा सत्ता | नेची (स्रोौ०) नीचा मार्ग, पुरवट के चैज्ञों के चलने का नैन्न तन्‌० (वि०) श्रात्मीय, चरम सम्बन्धी | [द्वोना। नैज्ञाना दे० ( क्रि० ) कुछना, निहुरना, नदना मम्न नैतिक (गु०) नीति धम्बन्धी,भाचार व्यवद्वर सस्बन्धी। नैन, नेना तद्‌० (पु०) नयन, शअ्राखि, पंगड़ा, ग़शवन छाद, पशु बधने की रस्सी | (स््री०) नेप्रवाली ! नैनू दे (पु०) नानी, नवनीत | निय्र रदा । सैपाल तदू ५ ( पु० ) त(ग, देश विशेष, नीति रचा, नैपाली तदू« ( पु+) मनसिल नामझ धातु, नैपात चासी + [डिशाजता । नेपुय्य तद्‌+ ( थु० ) निषुणता, चतुरता, दृतवता, नैप्रित्तिक तव॒० ( वि ) निमित्त सम्बन्धी, किसी हेतु से आवा, खोड़्ार श्रादि का इत्पढ, किसी कारण विशेष से किया जाने चाबा काम चैमिप ठत० (पु०) नी विशेष, पुक त्ीप छा नाम जो हरिद्वार के पास है । नैप्तिपारणय तत्‌० ( १० ) चद् वन जहाँ सूतज्ी पैरा णिक्र रहते थे त्तया ओर भी अनेक महर्षि रहा करते थे । नैया दे० ( घु० ) नी, नौका, नाव, सरणी | नैयाग्रिक तत्‌» ( छु० ) न्यायशाख विशारद, तर्कशास् विशारद, न्याय पढ़ने या पढ़ाने वाया । नेराश्य तद० (पु५) निराशा,म्राशा का ब्रभाव,ड्रताश | सैमंद्य तन्‌० ( धु० ) निर्मेशता, धद्धवा, खच्छता, मकामाव | प्रसाद, चढ़ा ! नेबेद्य तब० ( पृ० ) अर्पण, हत्पर्ग, देवता का भोग, नैसगिक तच्‌० (घु०) ध्वाभाविरछ, प्राकृतिक, स्वमाव- सिद्ध, गघत उत्पन्न , नैष्टिक बद्‌७ (पु०) यावश्जीवन गुरु के गृद में मरक्ष चर्य ध्रत पाठन वाला, घामि&, विश्वासी ! नहर द« (१० ) पीदर, मयक्वा, स्री # पिता का घर - नाशझा ( धु० ) रस्सी का दुकदा जिससे दूध दुुते समय्र किसी किसी गाय के पीछे के पैर बच दिये जाते हैं + सेाइ ( छह ) न्यायी : सेाइ दे० ( क्रि० ) दूध हुइले समय गौ के पिछुले पैर | नौसी दे* ( ख्वी० ) लेनू, मवखन। जिससे वाँचते हैं । [की रख्सी । साई दे० ( क्ली० ) छुध दुहते समय माय के पैर वधिते भेकचेंक दे० ( खी० ) सह्ठेत से दातें करना, छाग- डाड। ज्ेकफेक दे० ( स्री० ) खैंवजैंची, खेंचातानी, उपरा चढ़ी, 'अववनाव, लटपट, पारस्परिक द्वेष ! भेज दे० (9०) चुडकी, बकोट, खेद । [खसेटना । नेचना दे० (क्रि० ) छुदभी सारा, वकोटना, सेशडिस दे ( एु० ( विज्ञापन, सूचनापतन्न । सेन दे० ( छु० ) निमक, चून, नोन वा ( घु० ) पक प्रकार का आम का श्रचार | नाना ढे० ( क्रिक ) गाय मैंत आ्रादि का दूध हुहने के लिये पैर धाँधना ( घु० ) फल विशेष, सीताफला, युसनी दीवाब की गली हुई मिट्टी ।--पानी ( पु० ) लवण॒युक्त उइक्ष, खारी पानी, लव॒णाम्ब, समुद्र का नल |. काप्त करती है, चुनिर्याँ । भेबिया दे० ( ५० ) ज्ञात्ति विशेष, जो नून बनाने का नोथ दे० (३०) एक प्रकार की रस्सी जिससे माय का देर बाचिते हैं । भेहर ( गु० ) अवौखा, भ्रक्तस्थ । नौ तत* ( 9० ) चाथ, नौका ! मौकर दे? ( घु० ) चाइर, सेवक, भल्य, महीना लेकर सेवा करमे वाढा ।-+नी ( ख्ली० ) टहलनी । नौकरी दे० ( ख्री० ) चाकरी, सेवा, नौकर का काम | नौका व्‌ ( जी" ) नाव, जौ, तरणी । नौखणड तदू" ( 97 ) ( नचखंणाड देखे। )। नौगरा दे० (स्ती०) आशूदण विशेष, पहुँची, कंगन । नौची दे० ( ख्ी० ) छोटी अवस्था की वेश्या, वेश्या की शिष्या, जे। उसके बाद उस्चक्के पदु की अधि- कारिणी द्वोती है । नोछावर दे? ( छु० ) निछ्ावर, उतारा) नौजवान ( सु ) तरुण, नवशुवक | सौद़ना दे० (क्रि०। निहुरता, नन्न होता, प्रणत द्वेना | जौतस ( गु० ) चूतन, नया।.[बादर घूवेऊ चुरुप्ता | नौतला दे ( क्रि० ) निमम्त्रण देवा. नेइता डेवा; मौता दें० ( 9० ) विमल्‍त्ण, नेकता । नौना दे? (क्रि ०) नवना, निहुरना, सौढ़वा, नोचा मिट्टी । तौचत दे० ( स्ली० ) सप्तव, अवसर, चाथयंत्र अर्थाव्‌, नगाड़ा नप्नोर और ऋकि जाना ( घु० ) वाद्यणृह । नोमासा तद्॒० ( पु० ) गर्भ झे चवें मास का उत्सव, संस्कार विशेष, पुरव॒न । नोमि ठत० (क्रि०) मैं प्रणास करता हूँ | [नर्वों तिथि । नोमी बद्‌० ( स्वी० ) नवमी, तिथि विशेष, पक्ष की नौरंग ( 9० ) पछी विशेष, औरेंगज़ेव का अपभ्रेशन । नौरतन तद्‌० € पु० ) नवरत् | नोरोज ( छु० ) नग्रे साल का प्रथम दिवस, भारतवर्ष में अभ्रकप्रशाह ने इस नाम का पर मेला जारी किया था। नौल दे० ( वि० ) नव, सुन्दर । सोलखा ( यु० ) नौ उस का, सूल्यवान । नौला ( 9० ) न्पोहा, चकुछ । सौशा ( पु० ) दूरदा, वर । नौसिखिया ( गु० ) नवशिक्षित, अल्पज्ष । नोशिल सद्‌० ( पर ) नवशिक्षित छात्र, विद्यार्थी । नौसादर द्वे० (गु० ) एक अकार का खार। न्यक्कार तत्‌० ( घु० ) तिरस्कार, कुत्सा, निन्‍्दा, गर्ड, अवज्ञा, घुणा ! न्यम्रोध्व॒ तत्‌० ( ७० ) वठद्ुछ, बरगद ] च्यतुंद्‌ वद॒* ( ० ) दूस अरब, संख्या विशेष ) स्थरुत तल ( गु> ) [ न्‍्यल्‌+क्त ] समर्पित, दत्त सज्लित, स्थापित, रक्षित |--शस्त्र ( ग्ु० ).जिसने शस्त्र छोड़ दिया दे) परास्त, हरा हुआ। स्थाउ ( पु० ) न्याय) न्थाय वत्‌० ( पु०) नीति, युक्ति, यथावे, उचित, तर्कशाख्र,विवार,वितर्क, दिये चना (--ंघीश त्तव्‌० ( पु० ) न्यायकर्त़ो, न्‍्पायबादी ।--ंलय ६ छु० ) [ स्थाय + आक्षय ] धर्मांधिकरण, विचारणद | -- कर्चा (०) विचारक, न्यायाधीश, तर्केशाखवेचा, गौतम मुनि ।--तः (० वि० ) धर्म से, न्याय खे शास्त्र ( पृ० ) तकशाख | स्पायक तत्‌० (छु०) दिचाएक, स्यायद्रारी, न्‍्पायकर्ता | स्यायी तत्‌० (०) मन्‍्यस्य, स्यायकत्ता, उचित करने बाला १ च्याय्य स्पाय्य तत्‌» ( वि० ) उचित यवा्थ, प्रशस्‍्त । न्यारा दे? (वि० ) श्रग, प्रप्क, मित्र, अति रिक्ति न्यास तव* ( घु० ) रखने योग्य घव आदि अपंण, त्याग, तान्द्रिक क्रिया विशेष, धरोहर । स्थांय तदू० ( घु० ) न्‍्याय, उचित, यथाये विचार । प प्‌ ब्यक्षम वर्ण का इक्प्ठीसवाँ अदर है । इसका बचारण थोष्ठ थे द्वेता है, इप कारण इसे ओष्ड्य घदते हैं । प्‌ तत्‌” (० ) पवन, वस्यु, पर्ण, पत्र, पात | पर्यास द० ( पृ० ) चछेर, राजपूरों की एक जाति विशेष, परमार च्त्रिय, थरप्मिवेशीय छत्रिय । परबाँरा दे? ( छु३ ) कद्ानी, कथा, इसिदास । दवीरिया दे० ( पु० ) भाद, ऊडानी कहने वाली पुक जाति जे। नावती और गाती है ! पऊंद दे० ( खी० ) प्रदय, घरव, गोछ । पड़ना ३० (छ्वि० ) प्रदूण करना, रोहता, वरना, गदता, श्रशुद्वि बना । [पद झदाना । पक्रडाना है? ( करिए ) घरवा देना, पछड़वा द्वेता, पकना दे ( क्रि३ ) सींकना, रेंघवा, परद्र द्वोना । पकला दे० ( वि० ) घाव कछ्षत, फोटा, फुसी। पकवाई दे० ( खो० ) पडाते छा कार सिद्ध ऋस्‍ने का काम पछाते की मजूरी । [धी में बनी हुई सामग्री । परकंयान दें? (प०) पकवान, पाया हुआ अ्रन्न, मिठाई, पकसाना दे* ( क्रि० ) सॉझाता, बनवाना, रेघाना । पक्का दे? ( वि* ) परत, पहा हुय्ा, सिद्र । पह्ाया ( वा० ) पक बना हुच्चा, तैरार, सिद्द, पकाइझर रखा हू गा, तैयार किया हुच्ना ।--ई दे* ( खो) पकाने का दाम, पकाने ली मजूरी, सिद्ध तैयारी, पकाव ।--ता दे* ( क्रि३ ) पहूवाना, पका करना, राघना, खुधगा, सींझाना | पक्राव दे० ( १० ) एढ़ता, सिसिरता, चुद्धतशापव ! पकाड़ा दे० ( पु० ) पक्रौड़ो | स्तोौ० ) पाक विरोष, बरा, फुलौड़ी, वजच्य । (. ४६२ ) पत्त स्यूच तव॒« ( गु ) असम्पूण, किल्लितू, थाउ!, कम, अक्द --ता (ख्री ) छुटाई,/ नीचता, नी आप) न्येतना ( क्रि० ) निमत्रण देना, नये ता देवा ! स्येततहरी ( गु० ) निमंत्रित | न्येता दै* ( घु० ) चिमन्त्रण, थ्राह्याव, नौता । स्याला दे० ( पु ) नकल, सायरितु । हि रहाना ( क्रि० ) स्नान झरना । पक्का दे० ( दि० ) रींचा हुआ, पद्याया हुआ, निष्रण, चतुर, दक, सावधान, दृढ़, पोढ़ा, प्रौड़, सिद्ध" दनाया हुआ | वककी दे" ( स्री० ) पोढ़ी, निपरी ।-रफोई दे ( स्त्री० ) बड़ रपेई जा सलरी, न दो, तिबरी । पक्ति तत्‌« (स्व्री० ) [ पच+क्ति ] पार, पक्राना, पहना, पाक काना, सिद्धि, पकाई । पक्क तब्‌० (वि) [ पच्‌+क्त ] परिणत, तैषर हुणा, सिद हु प्रा, सुएढ़, निवुर्ण, दिताश के लिये उन्पुतत, निध्ट विताश | [पी में 'नी हुई छाते ही पत्तु। पक्षान्न तद॒० (गु०) [पिक्+ अत्त] मिठाई चादि, सेव पक्काशय तव्‌० ($० ) [ पक+ आशय ] तामि का झधोमाग, पक्वाश्वस्यान, अद्त पद्ा का रप'न, अन्नद्येप । पत्त तत्‌० ( 9० ) पस्ाइ दिन रात, पाख, भाषा मदीना, थरेशा चार इगेशा पास, पक्षियों का अवयव विद्येप, पा, पह्, पल, डबनता, डैगा। सहायक, पर, सखा, मण्दज, देश, समूद, पार; पॉज0 राजहुअर, पढ़ी, वरय, देद का अवयक देदाफ़ ।+द्वार ( पु० ) पास्वर्वेद्धाश, सिद्॒ही का द्वार ।--घर ( ३० ) उन्द, शताघर, संस्कृत के पुर प्रसिद पणिडत का नाम ( देखो ज्यदेय ) ( वि० ) पच्च घारण करने वाले, सक्षय४, सादा" यदाता ।--पात ( पु० ) परफुद री, धनुवित सद्दायता दान, बुछ घोर छुकाव ।--पाती (६०) परद्रातऊत्तों, अनुचित वाइयब्रदावा। भवन्‍्याय ह पुछ पश्च की सदावता करने चाला, वरफुवार। पत्तऋ पत्षक धु० ) मित्र, सुददू, सहायक, खिड़की पत्षाश्रात तद्‌० ( घु० ) स्ववाम अ्रद्तिद्ध सेण विशेष, किपी किसी न छा अवश दो जाना, छकवा का आर जाना। पत्नान्द तत० ( ३५ ) [ पक्ष + अन्त ] पूर्णिमा,बमा- बसपा, पश्चुदशी एवं । सिनन्‍्हर | पत्चाग्तर तत० ( ६० ) मिन्नपक्ष, दूसरा पक्ष, दिप- पत्तिरात् तर० ( ० ) गरड, मयूर, एक प्रकार का छेड़ा ! पत्तिशावक सत्‌० ( पु० ) पढ़ी के बच्चे पत्तो तद० ( ०) पक्षचारी,परवाले जीव, पद विशिष्ट, चिड़िया, प्लेल, त्राण, ती।, विशिख, सद्ायस्र । पत्तीव क्षत० ( दि० ) पक्ष का, दल ऋ्ा, समूह का, और का, द्विमायती, तस्फूदार । पहुम चव० ( पु० ) अस्वि छाम, बरवनी.अ्रॉँल के चाछू, किज्षद्क, देशर, सूत्र श्रादि का अत्यक्प भाग, पक | [ पन्द्वद दिन, पाख | पक्ष तद० ( घु० ) पक्ष, पखबारा, आधा मह्टीता, पश्नड्ी तदू" ( स्री० ) दृध्प की पत्ती । पखरोटा दं० ( ब० ) तबक, सोने या रूपे का पत्र, जो पान के बीड़े या मिठाई पर छाया जाता है। पंखचाग ८० ( ५० ) पक्ष, सासा्द; प्रखद दिन । पखा दे० ( घ० ) पहु, पबि, पर | यधा-- 4 बर्थ मोर घारे जदा शीश लोहे ।-- ( क्ातदीएक ) ! पण्वाउत् दे० [ देखो पव्रावजञ्ञ |। पख्चान तद॒० ( पु० ) पाफाण, पत्थर, उपछ, यथा-- ०उ्यो पनिद्दारी जंवरी, खँँचत क्टव प्लान । चुटसी रसना राम कह्ु, प्राप कितिक अनुमान हट पखारना दे ( क्रि० ) प्रच्धाल्य करना, घोना, खंधा- छा; साफू करना, छुद्ध करता । पखारे दृ० ( क्रि० ) घाये, प्रश्*छन किये, छझ॒द्ध किये । पद्धाल दे० ( छी० ) एस, मसक, बड़ी मसक, चर्स निम्नित जरूपान्र, थह्व एक प्रदार का चास का बडा चै।फीब थैा दोता है जिसे ऊछ छाते हैं । साग्याड़ आदि देशों में जहाँ जल की महँगी है चर्हा ऐसे थैले विशेष पाये जाते हैं । पस्बावज सेल ( पृ० ) स्दक, पुक कार का बाजा ६ ( ४६३ ) पड व पख्ावजी दे० ( प० ) पस्ावन्न बजाण्वाला परवैरू दे० ( ० , पही, जिडिया, पच्छी । परलेस-दे० ( ३० ) बाय, चिन्द्र सत्र, शक्ल, छाप ! परकार दे० ( छु० ) डेकर, लात की होकर | पखे(रन दे (पु) ठोकरे, यद पश्चोर शब्द का बहु: बचन है। [मरना. छात्र हे भारना | पखरना दे० ( क्रि० ) ठोकर मारना, छात का भक्का पखोड़ा या पस्ोरा दे* (० ) प्रार्वे की हड्डी, कम्धे की हड्डी | पग वे० (३०) पढ़, पाँच, पैड, लरण, जोड़ +-डगडी, या देणडी ( खी० ) छोटा, झा, बिता बनाया हुआ मार्ग, पदचिन्ह, लीक, गुप्तमार्म --धारना .. ( क्रि० ) पारता, श्रावा “पर दाख्त चज्राना ( क्रि० ) नाचना और पैर से ताल बजाते जाना । पगड़ो दे* ( स्त्रीौ० ) पाग, प्रिया, सिर्वन्धा, सिर बचने का वस्त्र चिशेष, धब्णीप, चीरा । परगना दे" (क्रि०) निमल्ञित होना, दूबअना, हुब जाना, रस में डूबना, मम द्वोना, लीम होना । पग्ला दे* ( पु० ) पागल, उस्त्त, मूर्स लिडी | हा दे+ ( पु० ) बढ़ो २रती, मिससे पैक मेंस भादि बध्ि जाते हैं । परगदिया, पगह्ी दे० ( स्त्री० ) छोटा पयहा । पगा ० ( बि० ) रत में डुगाआ हुआ, चीनी के रख में हुदाया गया । गिरा,गीली मिट्टी | पग्मार दे* ( बु० ) मीत बनाने के लिये गीजची मिट्ठी, पगारनि दे० ( स्त्री० ) मुठेए, छत्त की चारों औोर जो कुछ ऊँचा बना हे।वा है| यथा!--- “अति उच्च भ्रगारनि बनी पगौरति ज्ञनु चिन्तामणिवार । +-रामचन्तिका । पंगिया दे० ( स्थ्री० ) पगट्री, पास, चीरा | परु दें ( हु० ) पांव, पैर, पद, चझ । परशुराना दे* ( कि० ) रोमन्ध करना, चबाये डुष्‌ के! 3ने: चदावा, जुगालो करना | पड तब (३० ) कर्दृस, दि: ऊदो, पक, कीचड़ । +ज ($० ) काल, पन्न, सरोहह, ०्डरीक । “निधि (३० ) लबुद, खागर रह ( ६० ) ऊूमज, पश्च, सरोसद, सरसिल । पड्डिल पड्डिल दत॒० ( वि० ) कद॑मसप, पहुयुक्त । पडुद्धद तदु० ( पु० ) पद्म, कमझे, साहस नामर पक्षि विशेष | पड़ार ( पु० ) पेतु, सेवाव, सिदर, बाँच, सीढ़ी । पड्लिल ( जु० ) कम वाली जगई। ( बु० ) नौछा, नाव हे पंक्ति तत्‌० ( €त्री० ) सजातीय सैस्थान विशेष, एक समाज के सलुष्षों ही बैठक, पावि, पंत, पक्रत, घारी, लकी।, धेणी कतार, पद्य का छुन्द विशेष, दस की खँष्या, एथितवी, गौरव, प्रतिष्ठा, पाक, जन समूह, सभा --चरए ( पु० ) कुरपढ़ी, कुछक | | +पूपक ( पु० ) प्रताडय, श्राद्ध सोजी ब्राह्मण श्राद्ध में मोजन करने बाछा श्राह्मण, पतित ब्राह्यय ।--परावत्र (पु० ) वंक्ति को पवित्र करने वाला, भोतिय ब्राद्मण । पंख दे० ( पु० ) पाखि, पक, डयना, डेना । पंखड। दे० ( स्त्री० ) पैंबडी, कली, फूल की पत्ती | पंखा दे० ( घु० ) बिजना, प्यज्ञत, येना, पद्धा | पस्तिया दे० (,वि० ) कगडालू, बसेड़िया, दुराचारी, छुक्रमी ( स्त्री० ) छोटा पा | पंखी दे० ( स्त्री० ) छेः्टा पंपा, चिढ़िया, पच्छी | पंगत दे* ( स्त्री० ) पांति, घारी, श्रेणि, रुतार । पंगला दे० ( वि० ) छगड़ा,पंगुल । कि कृत्रिम चून | पगा दे० ( थि० ) पतला पानीसा, पनिद्ा, ए€ प्रकार पगास दे० ( पु० ) मछली का एक सेद्‌। पंगु तत्‌० ( वि० ) पाद विइछ चने में असमर्थ, जज, खेड़ा, पाद हवीव | ( ५० ) शनिप्रह | पग्मुल तव्‌० (पु०) स्वेताग्ब, शुद्धवर्ण रा घोड़ा, रबेत कांच के समान घोड़ा ( थि० ) पंगु । पचक दे० ( स्त्री० ) पटझन, शुष्कृता, सुवाई उतार | पचकना दे० ( क्वि० ) पटकना, सूसना, शुष्क ड्ोना, पलना, सूव कर सिकुई जग्ना। [विभाग हों । पचसना दे० ( वि० ) पाँच खण्ड वाह्ना, जिसमें पाँच पचघारा दे० ( वि० ) पाँच घर धाछे मशान। पचतोलिया दे० (पु०) वस्त्र विशेष ओोढ़नी की सारी | पचना दे० (क्रि०) सड़ना, यछना, यत्न करना, उद्योग करना, परिश्रम करना, भ्धिक परिश्रम से थक ज्ञाना, हज॒म दोना ( ४६४ ) पच्ची पचपचाना दे० ( क्रि० ) अत्यन्त सइना, पसीजना। पचपन द० (वि० ) संख्या विशेष, पचास ओऔर पाँच, ९४। [मह्यन, पचखण्डा। पचमहला 4० ( वि० ) पचल्षना, पाँच सहछ का पचमान तत्‌० ( पु० ) पकाने वाला, पकाता हुआ । पचमित्र दे० ( वि० ) मिल्षित, मिश्रित । पच्रमेल दे* (वि०) पचमि ८, पाँच वह्तुचों की मिला- बट, मिश्रित, घावमेल [ में पाँच छर हो । पचलड़ी दे० ( खी० ) पांच लऊरका द्वार, जिप्त द्वार पंचलोना दे० ( पु० ) औषध विशेष, एक श्रोपधि का नाम जिसमें पाँचा नमक पडे हे। | पवा डालना दे० ( क्रिए ) पचाना, खा जाना जीर्य कह देना। हृडप ज्ञाना, दबा लेना | पचानवे दे* ( वि० ) संख्या विशेष, नब्ये पाँच १९। पचाना दे० (क्रि० ) पकाना, जी करना, इनमे करना, सडाना | पचाच दे० (पु०) जीणे, पाव,पचवा, पक्व दे जाता । पचास दे5 ( वि० ) संख्या विशेष, पांव ददाई, १९ । “+क दे० लगभग पचास के । पचासी दे* ( वि० ) संएपा विशेष, श्रश्प्ी पाँच, ६५, पाँच अधिक भस्सी । पचि तदू० ( क्रि० ) पथ कर, दजम दे हे, शु'क हेड, घुस कर, जी तोड़ कर ।.[ परचि भ्रधिक बीस । पचोस दे* ( वि० ) संख्या विशेष, बीस पाँच, २४, पचीदा दे+ (स्त्री० ) एक प्रकार का खेल का माम, प्रद्द बेल सात कौड़ियें से खेला जाता है । पद्युक्रा दे* ( पु० ) पिचझ्ारी, दमझला | पचोतर दे* ] ( पु ) पशुतर, पाँच अधिक सी, पचोतरा दे* | रच रुपये सैरुढा ! पचोनी दे* ( छी० ) पाकाशय, द्रामाराव, बन्च पचने का स्थान, थोक, सोम, परा | पदच्चर दे" ( ० ) चीज, खूँ टी, सेख, बद्या खूँटा। मारना (वा०) खिफाना, सताना, दुःख देता, थाढ़ देना, द्वोते हुए किसी काम में विध्न डाहना, किसी छे काम को भ्रटा देना | पद्यी दे* ( दि० ) लगा डूबा, संरप्त, संयुक्त, भरासक्त, सठा हुआ |-द्वौवा (वा० ) दा दस्तुओं को सटाना, किसी चीज़ से दो बस्लुर्धों को जाई पच्छूम देना, बहुत प्रेम ऋरता, अतिशय प्रेस होसा। -ाफारी (स्वी० ) जड़ाई, खुदाई, गडनों पर नय | आदि जोड़ने का काप्त, ज्ड़ाऊ यढ़ने उवाना, स्फू करना, दाह मारना, खुधारना, जुढ़ाई करना | । पच्छुम, पच्चिम तद॒० (थघु० ) पश्चिम, बढ़ दिशा | सिसमें सूर्य अ्रस्त देते हैं । ४ पच्छी तत्‌० ( पु० ) पक्की, चिड़िया, पस्लेल। न्‍ पकाड दे० (ख्री० ) पटकन, धड़कन, गिराना ! | खाना ( छा० ) सिर के व गिरना. वेजाय | गिरना, चिंत गिरना | [द्ेना। | पक्छाड़ना बे* (क्रि9) गिराना, पठकना, चूमि में गिरा | पछुताना दै० (क्रि० ) पश्चात्ताप काना, पुनावा करना, पीछे थे किसी वात पर दुःख करना, शोक करना, खेद करना, अनुताप, वश न रहने के कारण अप्रिय किसी कारय के हे। लाने से जो दुःख होता है वह पश्चात्ताप छददा जाता ह्लै। । पछुतावा दे० ( ६०) पश्चातताप, शोर, खेद, अचुताप | | पछुनी दे" ( ची० ) एक अख का नाम; जिससे फोड़े आदि चीरे जाते हैं, छुरा, महरनी । पक्पात तब ( पु० ) परक्षपात, सिफ़ारिण, किसी और का स्राथ । पछुवा दे० ( खी० ) पश्चित्रवात, पच्छिम की हवा, जो पवन पच्छिप की और छे श्राती है ! [दिशा के देश | पहाँह दे० ( 9०) पश्चिस विशा, पश्चिमद्रैश पश्चिम पछ्ियाच दे० ( ख्वी० ) पश्चिम हवा, पछवा बयार | पक्कोड़ना ) ( क्रि० ) फटकना, सूंप से ढक कर पछोरना | साफ करना । पञञावा हें5 (9० ) भद्ठा अर्दा हूंटें आदि पकायी जाती हैं । पन्निव दे? ( खी० 2 घूघरू. पाँव का महना, सूदुर | पज्ञोड़ा देश ( वि० ) निकत्मा, दुष्ट, दुश्वरित्र, अघर, नीच पश्च तत्‌० ( वि० ) संख्या विशेष, पचि, £ ( छु० ) चौघरी। समान का अगुगझया, पल्नृत्वत में बैठकर विचार करने वाका, मंध्यस्थ, ब्रिचारकर्त्ता । --कपात्त ( छु० ) बच्च विशेष ।--कपाय (४०) > ओऔपध विशेष ।-+क्ोश [छु०) अच्रमय, शणसय, सनामय, विज्ञानसय और आनन्दुमय ये पांच (६ धध्छ ) प्ञ्च कोश '--गब्य ( पु० ) सौदे पच पदाये दही), दूध, गोमत्र, गोमय, गेघुत, ।--चामसर ( घु० ) इुन्द विशेष, यह चुन्द सोलह अ्रदरों का होता है, इसमें एक अक्षर लघु और एक अच्तर गुरु होता है ।+-च्यूड़ा ( ली ) अप्सरा विशेष, स्वर्गीय चेश्या विशेष [--ज्ञन ( इ० ) दैल्य विशेष, असुर विशेष, ”ह अखुर पातात में रहता था, भगवात्र्‌ श्री कृष्ण से इसे सारा था, इसकी इड्ढी से शो शह्भ बना है उसे पाज्ञजन्य ऋढते हैं, वह भगवान्‌ कृष्ण का प्रिय शहः है [--ज्येन्ार ( थु० ) पाँच अकार छा भोजन, भोज्य, भक्ष्य, क्षेह्म, 'चोष्य, पेय, पंचों की ज्योनार --तत्व ( ६० ) पश्चभूत, आकाश, घायु. जज, अ्रञ्नि, एधिवी ॥--तत्त (8० ) पर प्रकार के तन्‍्त्र, सारण, मोहन, वशी- करण, उच्चाठन और वीहेपण, इस साम की एक पुश्तक |--तन्मान्न ( घु० ) इथित्री आदि सूक्ष्म पद्मुदूत, रूप, रस, गनध, शब्द, स्पर्श ।--ता यात्व ( छ्वी०) रुव्यु, मरण, निधन, काक्ष धर्म, पश्नत्व | >-थवु ( छु० ) कायल, काकिका |--दृश (वि० ) पन्‍्दरहवाँ सेज्या, पन्द्रह मे। पूर्ण करने घानी संख्या :--दशानर्थ ( पु० ) पन्दरह प्रकार के श्रतर्थ, यथा--चारी, हिंसा, मिथ्या, दम्भ, काम, क्रोध, विस्मरण बैर, अप्रबीति, सेद, खेद, चिस्ता, सोम, गये, स्पर्दा |--धथा ( अर ) पाँच प्रकार, पश्चुत्निध ।--नख्त ( छ० ) महुप्य, ध्यनर। हस्ती, कूर्स, व्याप्त, शशक, शछकी, गे।धी, गेंडा, कूर्ते। --नद ( ४० ) देश विशेष, पंचाव देश, चद् देश जहा पंच नदी हैं | सतलज, व्यास, रावी, चनाव, मओेटस +--पाणडय ( छ० ) पाण्छु राजा के पांच पुत्र यथा - झुचिष्टि,, मीस। अझुन, नकुछ और सहदेव ।--पात्न ( पु० ) पूजा का पात्र विशेष, पाँच पात्रों से किया जाने बाला, पांण श्राद्ध विशेष --प्राण ( छु० ) शरिरस्थ, प्राणादि पंच बायु, यथा -- प्राण, शपान, च्याव,उद्यव, समान | --भद्र॒ (०) घोड़ा जिसके £ शुम रक्षण हों । सूत ( ए० ) पशचुतस्व; उथिवी, जल, तेज; चाय आर आकाश ।-खूतात्मा ( इु० ) बेही, भाणी, शरीरी -मक्तार (पु०) वाममार्गियों की पन्बर इवराप्ता, मद, मत, मस््यय, सदा, सेथुन | >महायज्ञ ( पु ) गुद्थां हे पाँच अचार के निय, कर्म, यथा -यहायज्ञ पित्यज्ञ, देज्यक्ष, सुष्ष, और भूउत्रज्ञ अर्थाए पाठ, तप॑ण, वन, चहतिथिवेवा श्र पूता |-सुस ( पृ० ) श्रीमदार |। देव -मुठा (स््री- ) लेवपूत में नियय की जात बाज्षी एव मुदाएँ, यवा--आ्वाइनी स्था- चनी, सजिधानी, वम्गोपनी धर सम्मुसीर्रणी। रहों ( त्ि० ) विचित वर्ण, अनेर प्रछार के ( धध्द ) पच्द्ठी पश्चयमी तव० (ख्री० ) चन्द्रमा की पाचरी बला को क्रिया का काज्न, विधि विशेष, पॉचर्ी ठियि, पे की पाँचवीं ठिधि। पश्चाड्र तत्‌» ( पु० ) पद, पश्िसा, गरद्द, नचय, ठियि आवि देयने का पत्रा, जंप्री । पश्चाझगुल ठव्‌० ( वि०) पाँच प्ैंगुलि परिमाय युक्त । पश्चाइयुजों तद० ( सत्री० ) पॉच अ्ंगुलियाँ, पॉयों अँगुली, यथा--अँगुए, तर्जनी, मंब्यमा प्रवामिश और कनिष्ठ रगीं स रंगा ।--रक्ष ( पु० ) सुत्र्ण क्षादि पाँच | पद्माध्यायो तव॒७ (स्री०) श्रीमहागरत के रासमगइल प्ररकत ऊ रख, यपा--पुर्त्ण, रोष्य, गुक्ता, स्फरिक, सबा शत ( पुर ) मन्‍्य बिशेष, श्रीवेश्शवशाध्न का ग्रस्य ।--वक ( धु० ) शिव, मद्ादेव --बढो ( स्ी० ) वाँच प्रकार के जूतों का मसूद पुक स्थान झा नाम, जो गोदावरी नद्ी के तीर वर है, बनथास झे समय ऊुए बर्षों तक शोशमबब्दजी यहीं दे थे ।--शर ( ४० ) कापदुव, मदत, मन्‍्मथ ।--घाख (पछु० ) द्वाप कर, इस्त ।--शिस्त ( ६० ) सिंढ, छेसरी, ऋषि विशेष, ये उिप्यात दर्शनिर आसुरि के शिष्य थे | प्रामुरी अ्सिद संण्य दर्शन के सडयिता महपिं कपिकदेव के शिष्य थे | क्शरित्न ने ही सास्य दर्शन छा प्रदार दिया हैं।बआघुरी की ख्री का नाम कपिज्ञा था। प्चरोत्र ने पुश्मा३ से गुरुयक्षो कपिरा के स्तम्यतान किये थे, इसी कारण इनझो बहुत लोग कपिजापुश्न भी कद्दते हैं ।-छूना ( छो० ) प्रणियो ऊे चध के पांव स्थान, यथा- -चुउद्वा, चकझी, ऊपर, बढ़नी और धड्ा रछने का स्थान | पश्चिक्ध तत्‌० ( १० ) ४निष्टा से लेग्र रेवती सह पाँव नदन्‍्थ, पांच सपा, पश्मम सम्बन्धीय | पञ्चेफ्ो दे* ( स्री० ) पानी के ज्ञोरप चने वाली चतझी, अज्प थे, एक प्रकार का यन्त्र जो प्रानी के धक्के से चरता है, इससे आया ग्रावि पीखा ज्ञाता है। पश्चम तप्‌० ( दि० ) परोद छी संणया का पूरझ करने बाली संएवरा, खाणा भादि से रखपन्न सर विशेष । के पाँच अध्यायों का समुदाय, रासप्रयाध्याती। पश्चानव ठव॒० ( पु० ) सिंह, बेसरी, शेर, मद्ादेय, शिव, शहर । पश्चात तब» ( पु० ) शर्का, दुस्य, छत, दधि और मउ, इन पाँचों बस्ठुमों के मेल से बनी हुईं बह्तु, गद चस्ठ भगवान के स्वान के लिए बनाई जाती है।--योग ( 9० ) औपधि विशेष, गुरुच, गोचर, सूखी झुण्डिया और शतावरा, इनझे योग से वनो औषधि! पष्म्याम्नाय तव्‌» (ए०) शिव के पॉच मुपत से निकला हुआ पाँच प्रकार का शीवशाख, तस्त्रशास्त | पश्चायतर दे” ( स्रो०) जातीय सभा, जो जिसी विशद को शान्त्रि परते के लिये द्वोवी है, ग्िचार करने की समा। पशद्चाल वद्‌-. ( घु० ) देश विशेष, पञ्भाउ देश । पशञ्चाल्षिका ठदु6 ( खो० ) यक्ष थरादि वी बनाई हुईं घुतरी, कठपुतल्ी, गुड़िया, गीत विशेष, औषदो, परान्माल देश की राजउत्या । पञञाबस्था ठव्‌» ( द्धी० ) मनुष्यों को पाँच प्रग्सथाई, यथा--वाल्य, कुमार, पौगण्ड, युवा और द्दा पश्येकरण्ण ठत+ (पु०) पद्मूत के भागों का मित्रान, सृष्टि प्ररूरण का एक सिद्धान्त । पज्चेच्धिय ठव० (५० ) पाँव इन्दियाँ, पाँच ने निद्रय या कमेन्द्रिय । प्धी दे० ( बु० ) साथी, सक्ली, मिग्रमण्डल। पज्छाला दे० ( पु० ) गड्ढी पी पद पज्छी दे० ( घु० ) पदी, पखेरु, चिढ़िया। पञजर पञ्चर तत० ( घु० ) शरीर की हड्डियों का समूह, पॉजर, पसली, ठठरी, पिंजदा, पह्ियों के रहने के स्थान, पिजरा । पश्चिका तव्‌० ( स्री० ) पुस्तक विशेष, जिससे सिथि चार आदि जाने जाते हैं, पचाहृ, विधथिपन्न [ पज्ञीरी दे० ( स्ली० ) एक मकार का देवता का प्रसाद, कसार, घी में आटा भूल कर और शरकरा मिला कर ज्ञो पदार्थ बनता है। दत्त» ( घु० ) दस्च, चलन, कपड़ा, कपड़े का बना हुआ चिन्न, पदों, यवनिका शब्द विशेष जो आघात से उत्पन्न होता है, गिरने या मारने का शब्द, कियाड, देवसन्दिर का किवाड़, तिर्यक्‌, ख्रीघा | -कार ( पु० ) तन्तुवाय, बस निर्माण- कर्ता ।--हुठी ( सत्री० ) कपड़े का घर, तस्वू, कुनात (--मज्ञरो (स्री०) एक रागिनी का नाम । --मण्डप (७०) बखगृद, सस्दु ।-वेश्य ( छ० ) कपड़े का घर, डेरा, शामियाना । पटक तत्‌० ( छु० ) डेरा, कुनात, पटाव, छावनी, शिविर, सेना के रहने का स्थान ! पठ्कन दे० ( स्री० ) पद्चाढ, पटफी, चोट |--खाना ( घा० ) पढ़ाइ खाना, गिरना । पठकलना दे० (क्रि०) पद्चाडना, गिराना, नीचे ग्रिराना | पदका वे० ( घु० ) कमरवन्द, कसर बाँधने का बख। --ज्ञाना ( क्रि०) पछाड़ा जाना, गिराया जाना,। पठ्फाना दे० (क्रि० 9) गिराया जाना, पड़ाड़ा जाना । पठश्यर ( पु० 9 चिथढ़ा, घुराना कपड़ा । पटड्गा दे० ( छ० 2 सिली, तख्ता, पय्री, पीढ़ा । पठतर दे० ( घु० ) उपसा, चरावरी, समता, उदा- हरण, मिसाल । चव्न दे० ( छु० ) पादन, छावन, कोण आदि की पटरी से पादना; छत पाठसा, छत बचाना। पठना दे० ( क्ि० ) पाटना, पाटन करना, छावना, भर पाना, वसूल हो जाना, हुँडी आदि के रुपये मिल जाना, सींचना, पानो सींचना, भरना, छाया जाना | ( घु० ) नगर विशेष, पासलीपुत्र, यह नगर किसी समय विद्ार की राजधानी था। * घठनि ( ज्ी० ) कपढ़ें, वस्त्र । पढे (६ छह ) पीना पटठनी दे० ( स्री० ) नैया, साँमी, कर्णधार, केवट। पट्पठ दे० (पु०) शब्द विशेष, अ्रच्यक्त शब्द जो अन्न आदि के भूजने से या मारने से होता है । पट्यर दे० ( बि० ) बंजर, ऊसर | पछरा दे० ( यु० ) पटड़ा, तख़तर । एट्रानो तद्‌० ( खत्री० ) बढ़ी रानी, सहिवी, महारानी, राजा को वह ख्री जिसका राजा के साथ अभिषेक हुआ हो, पट्टरानी ! परी दें» ( ख्री० ) छोटा पटरा, तख़्ता । पटल ठत्‌० ( पघु० 9 परदा, ढपना, किचाड़, परवर । पठली (ख््री० ) श्रेणी, पंक्ति, पाँत, ऋूले पर बैठने की काठ की पटरी । [ रेशम था छोरे में पिरोते हैं । एठवा दे० ( पु० ) जाति विशेष, जो आभूपषणों फो पट्वाना दे० ( क्रि० ) रुपये भरवाना, रुपये वसूल कर लेना, सिंचवाना, किसी गढ़े को भरवाना । प्वारी दे० ( घु० ) याँव का हिसाव रखने बाला, भूमि का लेखा रखने चाला | पद सतत» ( पु० ) भेरी, हुन्दुमि, नगारा। पता दे० ( पु० ) पाठ, कान्‍्टासन, जिस पर बैठ कर भोजन या देव पूजन थआादि किग्रा जाता है। पीढ़ा, गद॒का । [ पदक शब्द । पद्यक (पु०) फिसी छोटी चीज़ के गिरने का पञ्मका दे० |; (यु०) छुड़ाका, शब्द विशेष, एक मकार पदखा की आतिशवाज़ी, श्रग्निक्रीड़ा । पाना दे० ( क्रि० ) सींचना, पानी देना, चौका देना, लीपना, गोबर से या मिट्टी से लीपना, पोतना। कड़ी और पदरी से चुत को घन्द कराना । हुँडी के झुपये भरना, विवाद मिंटाना, विस्तृत होना, फैल ज्ञाना, किसी गते को मिटटी से भटवाना । पदापद दे० ( पु० ) मारने का शब्द, अ्रव्यक्त शब्द विशेष! पद्यव दे० ( पु० ) सिचाई, छचाई, द्वार के ऊपर का काठ, छुद की कड़ी पर तद़ता आदि रख कर मिदूदी का भराव देना। पएढिया दे० ( स्त्री० ) पटरी, पट्टा, सिल्ी, सिर की बचाई चोटी, स्लेट, पट्टी । (पु० ) एक गहना जो गले में पहना जाता है, पटिया, हस्सी । पदोना दे० ( पु० ) एक प्रकार के पक्षी का नाम । श० प[ू०--$३ + पत्ेमा ( धृध्द ) पड़ापड़ पदीमा दे० ( पु०) छापने का पटरा, जिस तख्ते पर कपडे रस कर छीपी लोग छापते हैं । पीर तत्‌० (पु०) चलनी, चालनी, क्यारी, खेत, बारिद, मेघ, वेशुसार, घशरोचन, वातरोग विशेष, चन्दन, खदिरि, सैर, उदर, जठर, पेट, फन्दर्प । « पदोलना दे० (क्रि०) निचोडना, चूसना, सार निकाल लेना, मारना, पीदना, फुसलाना । पदु ठत० ( बि० ) दक्त, निएुण, मीरोग, चतुर, कुशल, होशियार, चालाऊ, सुन्दर, तीचण, स्फुट, निष्ठुर दयाद्दीन, धूर्त शढ। (पु० ) पोल, परोरा, परवर, फरेला।--ता ( ख्री० ) >त्व (घु० ) चतुराई, ददता, कुशलता, निपुणता । पदुचा दे० € पु० ) पट्वा, रेशम का काम बरने वाला, रेशम से माला थादि गँवने का काम फरने वाला, पटदरा जो बाजू चैरखी पिरोते हैं । पद्ुका दे० ( पु० ) पठका, कमरबन्द, फटिबधन, कमर बाँधने फा कपढ़ा । पद्टत दे० ( पु० ) पुरुषत्व, पुरुषार्थ, पढ़ता, चतुरता। पदवा दे० (पु०) पाट, सन विशेष, जिसकी रस्सी तथा कपड़े कम्बल आदि बनते हैं । पदेर दे० (५०) पक पौधे का नाम, सोंदी । पदेरा दे० ( पु० ) एक तरद्द का बूडा पटेल दे० (पु०) लख्याजी या काम, प्रभुस्पय, अधि- कार, जाति विशेष, कुरमी जाति का सरपन्च, गाँव का भुखिया, अगुवा, गुश्नरात महाराष्ट्र आदि प्रा्तों के कायस्थों की एक पदवी । परटेला दे० ( पु० ) एक प्रकार की नाव, बजरा। पदेली दे० ( स्री० ) छोटा पटेला, घोटी नाव । परत दे० ( पु० ) लटैद, ढेंगैल, लठ चलाने फी क्रिया में कुशल, पटेवाज । परेजा ( १० ) देखो पदेला । पठोतन दे० ( पु०) पटन, पाटन, तक्ते से घर पाटना । पठोर दे० (प० ) रेशमी बस्च, रेशमी डोण, पद़वा, घाट के बने कपड़े। परदोल रव० ( पु० ) परवर, परोरा, परवल । पदोलिका ( र्रो० ) सफेद फूल की तुरई। पटोहिया दे० ( घु० ) उल्लू, पेचा, उलूक पर्योौनी दे० ( घु० ) पटेक्ली नाव, पैया । पद्ट ठत० ( घु० ) पाठी, रेशमी सन के कपडे, कौशेय बस्च, पड़ी |--महिपी (सत्री०) प्रधान महारानी, पटटरानी ।--शिष्य तत्‌० (पु०) प्रघान चेला। पद्दन तत्‌० (पु०) नगर, पत्तन, बड़ा ग्राम, शहर | पद्टो दे० ( छु० ) घोडे की पेटी, कुत्ते के गले में बाँधने क्या चमडा, कानों के पास रखे हुए याल, चक- नामा, क्सी प्रकार या श्रधिफार पत्र । पट्टी दे० ( स्त्री० ) पाटी फोड़ा बॉधने का कपड़ा कसी चस्तु का भाग, लिसने की पटिया, तग़्ती । पट्ट दे० ( घु० ) एफ प्रकार का गरम कपड़ा जो उन का द्वोता है, जिसे पदूदू भी कहते दैं। पट्टा दे० ( घु० ) नवयुवा, पहलवान, कुश्ती लड़ने घाला, पाठा, जवान हाथी, भस, सिरा। पठन ठव्‌० ( ४० ) पाठ, पढ़ना, अध्ययन पठनीय ९ ग़ु० ) पढ़ने येग्य । पठाना दे० ( क्रि० भेजना, रवाना, करना, पठवाना। पटानी ( क्रि० ) रवाना करना, भेजना, पठयाना। पठावनी ( सत्री० ) पठाने की उजुरत | पढित ( ग्रु० 9 पढ़ा हुआ। [ छोटी बररी । पढिया दे० € स्त्री० ) युवती, तरुणी, जवान स्त्री, पठौना दे० ( क्रि० ) पठाना, भेजना, पठवाना। पढौनी दे० ( स्त्री० ) पढाने को सजूरी, भेजने का दाम, मिजवाने की उजरत, सौगात जो लड़की के घर वालों की ओर से वर के घर बालों के यहाँ भेजी जाती है । पड़ जाना दे० ( (क्रि० ) पटया जाता, पद्धाड़ खा जाना, गिरमा । पड़ना दे० ( क्रि० ) गिरना, पटकना, घना, घट जाना, ठहर जाना, डेरा करना ! पड़वा तद्‌» ( ख्री० ) भ्रतिपदा, परवा, परेवा | पड़पड़ाना दे० ( क्रि०) बडबड़ाना, बिना प्रयोजन पी बातें करना, पीटना, सूद्र पीटना, जलना । पड़रहना दे० ( घा० ) से रहना, फाम घोढ़ देगा, इताश होना, निराश हो जाना । पड़रा दे० ( पु० ) मैस का बच्चा, पढ़दा । पड़ा दे० ( पु० ) पढ़रा, मैस का बचा । पड़ापड़ चे० (अ०) चार यार मार से खूब मार के, चघमाधम पोदफर | पड़ापाना पड़ापाना दे० (क्रि०) अनायास पाना, सहज से पाना, बिना परिश्रस पा लेना, गिरा पाना। पड़ाव दे० ( पृ० ) शिविर, सत्तिवेश, सेना के ठहरने का स्थान, छावनी, डेरा कंपू , सार्ग का वास- स्थान । पड़िया दे० ( खी० ) मेंस की बची, पाड़ी । पड़ोस दे० (पु०) ्रतिबास, सम्ीपवास, सक्िकय्वास । पड़ोसी दे० (पु०) प्तिबासी, समीफपवासी पांख पास रहने वाले आपस के पदोस्ी हैं।. [ अभ्यास । परद़न दे० ( स्त्री० ) पढ़ते की चाल, अध्ययन की रीति, पढ़ना दे० ( क्रि० ) पाठ पढ़ना, अध्ययन करना, अभ्यास करना, वाँचना, सीखना, रवना, धोखना। पढ़स्त दे० (स्त्री० अध्ययन, पाठ, सन्ध्या, सबक । पढ़ा दें० (जि० ) परिढत, पढ़ा हुआ ।-ग्रुन्ा (वि०) लिखा ( वि० ) पढ़ा हुआ, प्रवीण, अमिज्ञ । पढ़ाना दे” ( क्रि० ) सिखानों, सिखलाना, शिक्षा देवा, विद्या अध्ययन कराना, पाठ पढ़ाना, सन्य्या देना पढ़िन दे० ( स्री० ) एक प्रकार की मछली । पणु तत्‌ू० ( छु० ) अविज्ञा, वचन, होड़, शर्ते, वीस | सणडे कौड़ी का परिमाण, व्यवद्वार, लेन देन का ब्यापार, भूल्य, वेतन ।--म तत्‌० ( छु०) बेचना, विक्रय करना, दूकान चलाना । परण॒व ( छु० ) छोटा नगाढ़ा पशित तत्‌० ( वि० ) बेचा गया, बेचा हुआ, विकीत शर्ते किया हुआ, स्ठ॒त, स्तुति किया हुआ। पणड ( स्त्री० ) मति, बुद्धि । [ (स्त्री०) सति, छुछि « पण्डा दे० ( ४० ) पुजारी, देवपुज़क, तीथ पुरोहित । पणिडत त्व्‌० ( घु० ) विद्वान , पढ़ा हुआ श्रध्यापक, पढ़ाने चाला--मन्य ( छु० ) परिद्ताभिमानी, विद्याभिमानी, सूखे । पगिडिता ( स्त्री० ) पढ़ी लिखी औरत, शिक्धिता स्त्री, बिदुपी सन्नी ।--ई दें» € स्त्री ) पणिहत का काम, कर्सकाणड आदि कराने का कुल | पसिडताइन दे ( स्त्री० ) पसिठत की स्त्री ! पंणइक दे० ( घु० ) पत्ती विशेष, घुष्बू पणड॒ची दें० ( स्त्री० ) जल का पत्ती विशेष ) पराय ( घु० ) बेचने येस्त्र वस्तु, व्यवहार की घस्तु, ६ छह्ह पतला +++7ममननलनतापत+++ननन सन सप३++++++++++->न-नननन-++ ८ प बेचने के लिये बाजार में रखी हुई घस्त। +वीथी ( स्त्री० ) हाट, बाजार, दूकान | +-शाल्ना ( स्त्री०) दूकान, हार, बाजार --स््री ( स्त्री० ) चेश्या, वाराड्रना, पतुरिया । पत दे० ( स्त्री० ) सुख्याति, बड्ाई, प्रतिष्ठा, कीर्ति, चश (--ज ८ यु० ) परिंद, पक्ती 7 पत्र तत० ( घु० ) सूर्य, पक्षी, फतिड्जा, रिट्टी, गुड, कनकौआ, उड़ने बाला क्रीढ़ा, एक प्रकार की लकड़ी जिससे रह्ढः निकाला जाता है । पतझ् दे० ( घु० ) फतिद्ना, चिनगारी, चिनगी, स्फुलिड, भ्रग्नि के छोटे छोटे कण । पतञ्ञतलि ) ललू० ( घु०) व्याकरण महामाप्यकर्चा या पत्तञ्लली ऋषि इन्हींने पाणिनि के सूत्रों पर भाष्य- बनाया है। येगद्॒शय फार पतञ्षलि और ज्याकरण महाभाष्यकार पतअ्ञलि दोनों एकही व्यक्ति थे। कात्या- थन ने पाणिनि के सूत्रों का खण्डन किया और पाणिनि के पत्षपाती पतञ्नत्रि ने काव्यायन के बातिकों का अपने भाष्य में खयडन किया। इन्होंने एक वैथक का भी अन्‍्थ बनाया है। भारत के पूर्वभागस्थ गोचर्द अदेश के ये वासी थे, इनकी माता का नाम गोणिका था। घुरातल्ववेत्ता परिढतों ने महाभाष्य के शब्दों और वाक््यों के आधार पर पतअलि का समय निर्णेय कर दिया है “ भौर्यैदिरिप्पयि मिररचा: प्रकत्पिता ”” इस वाक्य के डुकड़े से यह अवश्य मानना होगा कि चन्द्रयुप्त के पीछे पततअलि हुए हैं । अतएव उन विद्वानों ने इंशवी सन्‌ के 4४० वर्ष पूर्व एतक्षलि का समय माना है । इसी अकार और अमाणों के आधार पर यूलानी पलिनिए्डर और पादलीयुत्र (पटना ) के राजा पुष्प- मित्र के समकालीन वे पतअ्कक्षि का मानते हैं । पतस्कड़ दे० (घु०) एक ऋतु का नाम, जिस ऋतु मेँ वृक्षों के पत्ते कड जाते हैं, वसन्‍्त । घतन सत्‌० ( छु० ) [ पद्‌ + अनदू ] पछाड़, पटकन, पढ़न, गिरन, स्खलन | पत्र तत्‌० (घु०) पछ, पंख, पर, पाँख ।--+ (घु०) यक्छी, चिड़िया [ पात्र । परतदुअ्नह ठदृ० ( घु० ) पीकदान, पीकदानी, प्डीदन पतला दे० (वि०) सूक्ष्म, मीना, कृश, दुर्वक्ष, महीन | पतलाई * (. ४०० ) पर पतलाई दे० ( खत्री० ) दुर्बलता, दुबलापन । पतलो ( घु० ) सरकडे की पताई। पतवार दे० ( सत्री) कन्‍दर, नाव के पीछे का डॉड जिससे नाव दद्विने बाये घुमायी जाती है । पता दे० ( पु० ) चिन्द, खोज, सनन्‍्धान, ठिकाना ! पताका ठत्‌० (खत्री० ) ध्वजा, रूढा, निशान, फ़रहरा। पताकी तत्‌०_ ( पु० ) पताकाघारी, ध्यजाधारी, ध्यमैल, ध्वगा वाला ।--नी ( स्त्री० ) सेना । पति तत्‌० ( पु० ) स्वामी, प्रभु, भर्त्ता, रचक, घव। +देव--देवता ( स्त्री० ) पति को देवता के समान समझने वाली स्त्री, देववुद्धि से पति ही की सेवा करने वाली, पतिप्रता | यथा -- “ पतिदेधन की गुरु बेटी । तेरों यम झूत कद्दावत चेटी॥ ” --रामचन्द्रिका । --छुक (गु०) पति मे श्रजुराग रखने वाली स्त्री। >>यअवा ( स्त्री०) कुलबती, पतिदेवता स्त्री, पति की सेया करने वाली स्त्री । पतित तव्‌० ( बि०) भ्रष्ट, दोषी, कलड्डी, जाति च्युत, समाजच्युत, अ्रधर्मी। (पु०) अन्त्यज्न, अद्धत जाति, अस्थृश्य जाति ।--पावन (गु० ) पतितों को पवित्र करने वाला, परमात्मा, परमेश्वर । पतिमा वद्‌० (स्त्री० ) अतिमा, भूर्ति, किसी वस्तु की बनी हुई मूर्ति ! [का पत्र। पिया दे० (स्त्री०) चिट्टी, पत्र, प्रतीति पत्र, विश्वास पतियाना दे० (क्रि०) भरोसा करना, विश्वास परना, प्रतोति करना । पतियारा दे० ( पु० ) भरोसा, विश्वास, प्रतीति। पतियरा तद्‌० (स्त्री०) पतिवरण करने के येग्य स्त्री, विवाह येग्य अयस्था वाली । [चिराई । पतरी दे० ( स्त्री० ) चटाई विशेष, एुक प्रकार की पतील दे० (वि०) पतला, मीना, मिह्दी ।-- (पु०) यहुता, यटुला । | पतुली (९ स्त्री० ) पहुँचे में पहनने का एक अकार का आभूषण पतुद्दी ( स्त्री० ) छोटे दाने। वाली मदर की छीमी। पताह दे० ( स्त्री० ) बेटा की स्त्री, परत्रवधू , बहू । पतोवा दे० ( पु० ) पत्ती, पत्ता, प्ठव, पात पतन ततच० ( घु० ) नगर, ग्राम, पुर, शहर । पत्तर दे० ( छु० ) पत्र, पत्ता, चिट्ठी, सोने चाँदीया तोबे का पत्र, जिसमें दान आदि की बातें लिखी जाती हैं। पत्तल दे० ( स्त्री०) पतवार, पवरी, पत्ता। पत्ता दे० (पु०) पात, पत्र, पत्ती, कानों में पहनने का स्त्रियों का एक आभूषण ।--होना (वा ) भाय जाना, निकल जाना, चपत होना । पत्ति तत्‌० (छु०) पैदल 'चलने वाली सेना, एक प्रकार की सेना का नाम! एक रथ, एक हाथी, तीन घोढे और पाँच 'पैदल जिस सेना में हों उसका नाम पत्ति है। पत्ती दे० ( स्त्री० ) पादी, पत्र, पंखड़ी, माँग, बूटी । पत्थर दे० ( घु० ) पान, सिला, पाथर, उपल!) --छाती पर रखना (वा०) सन्तोष करना, सह- लेना, वश न चलने से घुप रह जाना, बहुत बड़ी आपत्ति को धीरज पूर्वक सहना ।--पसीजना (वा० ) कोमश्न चित होना, सदय होना, दयावान्‌ द्ोना, दु खी पर दवा ऋरना “पानी द्वोझ्ाना (वा० ) कठोर चित्त का भी कोमल दो जाना, कूर चित्त में मी दया उत्पत होना।--सा फेंक मारना (वा० ) बिना समझे बूके छूटना, वात विना जाने ही उत्तर देना, कठोर चातें कहना, कड़ी बात कहना |--से सिर फीइना ( वा" ) कठिन काम करने छे लिये उद्यव द्वोना, सूर्ख के सिखाना, नासमझ कै समकाना ।++दोना (वा०) मारी द्वोना, ठिठक ज्ञाना, अश्चच् होना निर्देश डोना |--कल्ञा (स््नी० ) पुरानी चादर की बंदूक। पत्नी ठद० (स्री०) सायां, सी, दारा, मेःरू, ऊदग्िनी | पतली दे० ( स्त्री०) बढ़वी, बढुईं, बटलोई, देगची । | पत्यारों दे" ( बु ) पतियारा । पठुकी दे० (स्त्री० ) मिदटी की इंढ़िया, छोटी | पत्र तद्॒‌« ( पु० ) पाती, चिट्ठी, पत्ता, पर्य॑, पह्ा क्डाही। पतुरिया दे० (स्प्री०) चेरया, नतंको, चाराइ्ना । दाता ( ४० ) चिट्ठी देने वाह, दिद्ठी बटन वाक्षा, विद्वीरसा +--दारक ( ० ) अनु, आँसू, पन्ना ( ४ण्१ ) पदासन 8 मल आल की भीम का 3 लीन बलम ला अल चना ली नमक अजब तक की अर मी अर अनिल ज कक हक अ कलिक क अर बल कल कक बालक, वायु -परश्ु ( छ्वी० ) छोमे के पत्र ! फाटवे बाली केची 4--पाश्या ( स्त्री० ) खेले का यीका, यद्वना विशेष, जे! मस्तक पर लगाया जाता है, खौर ।--स्ञजज्ञक ( ५० ) पत्न लिखना, चित्र | बनाना, रंग चढ़ाता, बरक |[--रथ ( छ०) पच्ची लिड़िया |--रेखा ( स्ली० ) तिलक की रेखा, चन्वृन लगाना । [ छठ, बरक | पन्नों दे० ( छ० ) तिथिपन्न, पद्चान्न, पस्लिका, पन्ञा, पन्नाडु तब ( घु० ) एृष्ठ सैख्या; पत्रों पर के अछू । पत्रालय तत्‌० ( घु० ) डाकझृब्वाना, पेस्ट आफित । पन्निक्ला तत्‌० ( खी० ) चिट्ठी, पत्नी, पाती । पत्री ( ख्ी० ) देखो पत्रिका) पथ तत्‌० (पु०) मार्ग, राह, र/स्‍्ता, चांद, पैंडा, डगर । पथर दे? ( घु० ) पत्थर, पखात --कत्वा ( छु० ) पुरानी चाछ की बंदूक |--चढा ( छु० ) शाक विशेष, कृपण !--फ्रीड़ ( 9० ) छठफोडला, पक्षि विशेष । पथराना दे० (क्रि० ) पत्थर के समान दो जाना, कहा होना, ब्रण झादि का कढ़ा द्वाता, पत्थर से सक्कषना, पत्थर मारता । पथरी दे० ( स्री० ) आशिष्र, कंकरी, एक प्रकार का शेग, बूटी विशेष पढ़ियों के भ्रीतर का अज्ज, पयरीदी, झुड़ी, पत्थर का पात्र | पथरीत्ला या पथरीजली हे” ( बि० ) कह्ूरेली, जहा बहुत कछ्ूूर हों, प्रस्तरमय भूमि । [ का घरतन। पथरौटी दे० ( खी० ) पत्थर की छूँढी, एथरी, पत्थर पथिकू तव्‌०( 9० ) बोद्दी, यात्री, 'अध्वय, राहगीर, रादी, सुम्माफिर, रास्ता चलने चाढा | पथिवाहक ( १० ) कद्दार, मंजूर । परथ्य तत्‌* ( छु० ) रोसी का आदार, रोगी का द्वित- कारी आहार, दाल्य का जूस आदि । पथ्या तव्‌० ( स्थवी* ) हड़, दर, हरीतकी, रोगियों फे अजुकूछ भध्य पदार्थ, इलके गुणकारी भोजन) पद तब॒० ( छु० ) पांच, पैर, चरण, पैर का चिन्ह, पदाड्ू, स्थान, प्रतिष्ठा, साव, आदर, अधिकार, सदिमा, शब्द ख्वरूप, विभक्ति के साथ का शब्द ) --ऋहम ( पृ० ) डग, पग ।-ग ( गुर ) पैदल पियादा, पैदल चकले वाज्मा +--घर € 9०) पद- कासी, सनुष्य (--च्युत (गुर ) अधिकारअष्ट, पदुच्रष्ट | --ज् (पु*)प्पाव की अँगुलियाँ ।--त्याग (ए०) अधिकारव्याय, स्थानत्याय, +--आाणए(ह० ) पद की रछ्धा करने वाला, जूता, पगरखी, पनही । पदुना दे- (5०) पदककड़, पादने चाला, श्रघिक पादने बाला, डरपोंकन, डरपेंक, भीरु | पदनी दे० ( खी० ) छुराचारिणी, व्यभिचारिणी | पदपदी दे० (स्वी०) छृष्य विशेष, एक प्रकार का नाथ । परद्पन्न त्तत्‌० ( घु० ) पुहकरसूरछ, पुष्करमूल, कमल का पन्न, कमलपता, अधिकारपश्न, पद्‌ छी नियुक्ति का अधिद्धारपत्र । पदपीठ तब" ( पु ) खड़ाऊँ, जूता । पद्म तदू्‌० ( पघु० ) पञ्च, कमल, सरोरुहद। पदची तत्‌० (स्त्री० ) पद्धति, उपाधि, अल्ल,सम्माय सूचक पद, स्वरूप थो तक शब्द, पन्‍या, पथ, सा्ग॥ पददुत्त तत्‌० ( पु० ) युक्त शब्द, च्युत्पन्ष शब्द, दो शब्दों के मिलाने से घना हुआ शब्द, छन्द भेव, जिन शब्दों में शरदरों का नियम रहता है वे पदु बृत्त या भ्तरकृत्त कहे जाते हैं । पद्रुथ तत्‌० ( वि० ) पदारूढ़, पद पर वर्तमान | पदाडू तव्‌० ( धु० )पइ चिन्ट, पैर का दाग | पनु- खसरण करना ( व/० ) पीछे पीछे चलना, श्रयु- यायी घनना, अजुकरण करना | पद्ाघात तब॒० ( इ० ) लात का अआधाव, पैर छे मारना | [ सेना, पैदल सेना । पदाति त्तत० ( घु० ) पदाति5, पैदल चलने बाकी पदावा दे० ( क्रि० ) तड्ः करना, दुःख देना, घमकाना, डरवाना, हैरान करना, छुकाना । वदास्भोज् तत्‌० ( पु०) उरण कमल, कमल के समान चरण, कमल तुल्य पद । [ कम्तत्न चुक्य चरण | पद्ारविन्द तत्‌० ( घु० ) [ पद + प्ररत्रिन्द ] पदपका, पदूर्थ तत्‌० ( पु० ), वस्तु, सामग्री, सामान, तत्व, पद का श्रथ, शलों का भतिपाद्य, चेशेपिक न्याय के मत से लाल चस्तुग्रों की पदार्थ संज्ञा है --द्रच्य, गुण, कर्म, सार्मान्य विशेष, समवाय श्रार अभाव, तैयायिक्रों के मच से सोलह पदार्थ ६ पदासम तत्‌० ( थि० ) पादवीठ, पीढ़ा, औैठने खा पीढ़ा, काष्टासन विशेष | पदोड़ा पदोड़ा दे० ( ६० ) पदना, पांदने बाला, पदृश्कड, प्रदूदू । [ पाटी, क्रम । पद्धति तत्‌» ( ख्री० ) पदवी, मार्ग, पैडा, डगर, परि* पद्म तदु० ( पु० डपछ, पहट्ूज, कप्रल, संक्ष्या विशेष, सौ नील १००७७००५७०५०७०००००, ब्यूड विज्ञेप, राशिसथ, श्रीराम, नाग विशेष पद्मोत्त के पुत्र, बलदेव, रतिबन्ध विशेष ॥ +- काछ ( इ०) श्रेषधि विद्येष, पश्चइद | +गर (पु० ) ब्रह्मा, भ्ापति, विधाता, विधि !--जम्मा ( प० ) ग्रद्मा, प्रजापति, पद्म से उ्पथ् ।--तस्तु (पू० ) झणाल, पद्म की डडी।-भाम ( पु० ) विष्णु, नाशायण नेत्र (पु०) पद्मपत्र के समान पत्र विशिष्ठ, कम्रल पुष्प के पत्र के समान जिसकी आँख हो ।-पत्र ( पु० ) पुष्छामूल, कमलदब | पत्र -पलाश--छोच न (प०) श्रीकृष्ण, विष्णु, पद्मपत्र के समान विस्तृत छोचन ।--येनि ( १०) प्रह्मा, प्रजापति, द्विरण्यगर्भ |--राग ( ६० ) रक्त- चर्ण॑ प्रणि विशेष |--रेखा ( स्त्री० ) हम्तरेश्ा विशेष +--लाझलून ( पु० ) सूर्य, कुद्रेर, राजा, प्रश्नपति |>लजोचत ( वि० ) प्र समान चछ विशिष्ट +--चेँथ (पु०) पृक प्रदार का खिंत्र काम्य बलझ्ार विशेष +--स्व्रुपा ( स्त्री०) बधमी, हुगां, गज, कमढा, राजटफ्ष्मी ! प्मगुप्त हत्‌० (धु० ) संस्कन के एक विख्यात महाकृचि, ये घाध के राजा और मोजदेव के चवा राजा मुझ के सम्ापद थे। मोजरेव के पिवा के वर्णन में हम्दें।ने एक काब्य रचा हैं, जिसका नाम नवसाइसाइुःचरित है । रचनाएशेली तथा मधु- रिप्ता में मे कालिदास की वश दरी करते हैं। इनशा नवसाइसाहु, कुपारदाध का जानसी दर ण, श्रभ्वघोष | का घुद्धिचरित, कालिदास का रघुश ये तीन | समान श्रेणों के काप्य हैं। इनका दूधरा भाम |] परिमाश्ष था। दुशदों शनान्दी दी इनका समय है । पश्मयण तत्‌० ( पु ) मइराज यदु के पुत्र, ये नाग कम्पा ऊेगम' से वस्पन्न हुए थे । इनझी झाताका नाम सुचुकुन्दा था । । प्रश्मा तर० ( स्त्रो8 ) छदमी, रूमझा, खवढ़, पद्मा- चारियी, पद्ममी, मनसादेदी, बुद्धुप राजा की ( ४०२ ) पत्मितो कन्या । पक नदी का नाम --कर (पु० ) शक्षा- शय विशेष, दीधिंका, चापी, तड़ाय, कमल युक्त पृष्धरेणी (-चती ( स्त्री० ) मतसादेवी, नदी विशेष, पद्मानदी, प्मदारिणी नामक एक शृ गीतगेविन्द्रत्ता जयदेव कवि दी ख्री का गाम। या (स्‍्व्रो९) [पच्म + श्रालया_] लट्षुमी, कमबा मिस कमन्न ही ग्ृद हे ॥-सन (१० 2 [ प्र कआसन |] येगासन विशेष, झद्म, धनाप्रति। नयद्!े ( स्त्री० ) [पत्म--भाद्वा ]] पत्मच रिणी, शृद विद्येप |--क्त ( वि० ) [ पद्म + झदि ] पद्म तुब्य नेत्र, विष्णु भगवान्‌ । पस्मिती तब्‌० ( स्त्री० ) पद्मयुक्त देश, पद्म समूद, पद्म लता, कमलिनी, नलिनी, सुउक्षणा स्त्री, उत्तमा स्त्री, वरवर्णिनी, स्त्रियों फे चार भेरों में से एक भेद । पुर मद्दाशनी का नाम | मदाराणा सीमरसिंह थी प्रधान महिपी | ११७३ ई० में लक्ष्मणसित मेवाद के रावपिद्वापन पर बैठे परन्तु इसके अप्रा- सतपस्क द्वोने के कारण उसके पिलृव्य भीमसिद राज्य ब्यावस्था करते थे । पद्चिनी बढ़ी सुन्दरी पत्र थी, उसझा सौम्दयं ही उसके ल्रिपि काछ है| गया, इसकी सुन्दरख्य की आग में मेवाड़ 'छी राग्घानी जलभुन गईं। फिलनी घंश के सन्नाटु ने पद्मावती के रूप गुण की प्रशसा सुनी । पश्मिती के मिलने की आशा से छल फ्पटरच कर दिद्दी के सप्राद ने मीमसिद्द के क्रैद कर लिया । खिलजी श्रलाउदीव ने सोचा था कि इस उपाय से पत्मिनी हमारे हाथ लग ज्ञायगी, परन्तु उनका सोच विचार पानी में प्र गया । प्मिनी ने अपनी चतुरता से उनके कान काट लिये। पश्मिती ने सम्राट के यदों कद़बाया कि मैं भाप के यहाँ आने को अस्तुत हैं, परन्तु उसके पदेखे आप अपनी सेना यों से दस लें, इमारे साथ हमझे विदा करने के लिये बहुर सी ख्ियाँ श्रादेंगी । किसी प्रकार उठरी ग्रविष्ठ में याघा न हो, और उन बड़े घर फी स्लियों के साथ आदर का बताव दो, इसका प्रबन्ध आपको करवा होगा और अन्तिम विदाई खेने के लिये एक बार इमारे पति से मेंट करा देवी होगी। फामरध अल्याठडीन ने सब बातें माव सों। वियत दिन पच ( ४०३ ) पनियाला हज्ारों चीर राजपूत पट्ट। ओहारी पालकी में चढ़ कर अल्लाउद्दीन के छेरे में जमा होने लगे, भीमसिंह के लिये प्मिनो से थोढ़ी देर के लिये भेंट करने की भी व्यवस्था हुई थी। अपनी पालकी में भीमसिंद के बैठा कर पद्मेनी लोटी, पद्चिनी की सदेलियाँ जा रही हैं यह समझ कर किसी थे रोका ठोका नहीं | अभी तक पश्मिनी नहीं आई इससे खिल- जी आलाउद्ीन बहुत घबढ़ाया, शीघ्र ही उसने पालकियों के ओ्रोहार उठबाये, भोहार उठाने पर जो डसने देखा उससे उसका क्रोध और निराशा अधिक बढ़ गईं। पालकी से उतर कर राजपूत बीरों ने शीम्रही सम्राद्‌ की सेना पर धावा किया । सम्राद्‌ की सेना वहाँ ही लड़ाई में जूक गई। इधर भीमसिंह एक घोड़े पर सवार होकर चित्तौर के क़िले में पहुँचे । परन्तु इतना करने पर भी पश्मिनी अपने स्वामी की रक्षा न का सकी। अला- उद्दीन थे घढ़े समारोह से चित्तौर पर चढ़ाई की, राजपएुत धीर भी जी खोल कर क़िले की रक्षा करने ल्गे। पश्मिनी का चाचा गोरा और उसका भवीजा बादल ये दोनों बड़ी वीरता से अनेक शत्रुओं को भार अन्त में उसी युद्ध में काम भागे । स्वर्य॑ भीमसिंद युछधक्षेत्र में उपस्थित हुए, इधर राजपूत चीराइनाओं ने चिता में प्रवेश किया । ओमसिंह युद्ध में मारे गये, चित्तीर की भूमि बीर- शूल्प हो गईं; परन्तु अलाउडीन को पद्निनी नहीं मिली, अलाउडीन ने देखा था कि चिता से धूम निकल रहा है। यह स्थान एक तीर्थ समर्ता ज्ञाता है । पद्य तत० ( पु० ) छुन्द, कवि की कृति, काव्य, श्लोक कविता, शाब्य, शठता (---स्चना (स्री०) श्लोक बनाना, कविता करता, पद्यम्रथन । पधारना दे" ( क्रि० ) अनता जाना, विदा होना, घूज्यों के आने के था जाने के समय इस शब्द का प्रयोग किस? जाता हैं। पन तद॒० (9०) पण, होड़, व्हरात्र, शर्ते, प्रण, अतिक्ञा अबस्था, वचन, भाव, चाचक, भावार्थ छोततक । थथा--लड़कपव, भोलापन आदि --कंपडा (बु० ) भीया झएड्ा जो बथ आदि के बॉवदे के लिये होता है ।--गोटी ( छ्वी० ) बवी बसन्‍्त, चेचक का एक मेदु --घठ ( छ० ) जलाबधार, पानी भरने का घाट +--ध ( घु० ) अलब्ना,रोदा, चिल्ली, धनुष का ग्रुण :--चक्की (स्री० ) एक प्रकार की चक्की जो पानी के घेग से चलती है। पता (क्रि०) सोश होता, बढ़चा, परिवृद्ध होना, ताजा होना सरस््ज्ञ होना ++पनाहंठ ( स्री० ) सनसनाहट, ज़ोर से हवा के चलने का शब्द ।--अबरद्ढड। ( छु० ) पान रखने का डब्बा। “सात ( घु० ) पानी सें भिगाया हुआ भात । “+चाड़ी (सत्री०) पान की वाड़ी, पान का बगीचा, जहाँ पात बोचा जाता है ।--घार ( पु० ) पौधा विशेष, राजापूतों की एक शाख ।+-घारा (छु०) पत्तल, पतरी ।--शल्ला (ख्री०) प्याऊ, पैशाल ।-- सा (वि०) फीका, अलोना, खाने की किसी बस्तु में अधिक पानी पढ़ जाने के फारण पानी का सा स्वाद होना ।--ख ('घु० ) कटहर का वृक्ष, कदहर का फल, सुपीव की सेना के एक बानर यूथपति का नास +--सारी (४०) पसारी, (गु०) शांधी ओपध आदि फिराना बेचने वाला बनिया |“ साल (छ०) प्वाऊ, पनशाला, पानी पिलाने का स्थान, प्रपा -सोई (खत्री०) छोटी भाव, छोगी --द्वा (घ०) पता, चिन्ह, सुराग, चोरी गई वस्तु का पता घताने के लिये कुछ ठहराव फरना, वच्य का औड़ान, कपड़े की चौढ़ाई ।--हाना (क्रि० ) गौ मेंस आदि का दूध छुहने के लिये उनका सन सुहराना ।--हारा ( छु० ) पनभरा, पानी भरने घाला, नौकर (--हारिंत ( ख्ी० ) पावी भरने वाली, सजूरित --हारी ( स्ी० ) पानी भरते बाली स्ली, पनहारित । एनव दे० (पु०) पणव, ढोल, नगारा, डंका । पनद्दी दे” (स्री०) जूता, पंगरखी, उपानह | पनारी (स्वी०) नाली, मोरी । [सिे, नाली, मोरी । पनाली ठद्‌० ( ख्री० ) प्रणाली, जल निकलने का घनिया दे० (घु०) पानी, जल | (वि०) पानी का सर्प। एनियाना दे० (क्रि०) सींचना,पानी देना,पाती भरना । घनियाला दे० (छघु०) पवियार, पुक प्रकार के फल का काम । पनी ( #०्छ ) परकीया पनी दे० (वि०) भ्रण करने बाला, दढ़ प्रतिज्ञा ! पनीर दे० ( ३० ) छेना से बना हुआ खाद्य, साथ विशेष, साने की एक वस्तु का नाम, अम्ल सयोग से दूध को फ़ाइ दालने से जो साध बनता है । पन्नीद्मा दे० (3०) पानी के सयोग से बनी हुई वस्तु, जलजन्तु, जल में उत्पत् होने वाला जीव । पनेरी दे० (घु०) पानवाला, तमोली । पमैरिन दे० (ख्री०) पावयाली, तमोलिन । पतन्‍्य दे० (पु०) धर्ममार्ग, मत, मार्ग पदवी | पन्‍्था दे० ( छ० ) मार्ग, बाद, पडा, पन्‍्य, मार्ग, रास्ता, राद। पन्‍्थी दे० ( छ०) किसी धर्मपथ के अनुयायी, पन्‍थाई। यथा --दादूपन्‍्थी, कबीरपन्‍थी, पथिक, यात्री, बश्ेह्दी, अ्रष्वग, मार्ग चलने वाला ।. चिलम्पी । पन्‍्याई दे० ( वि० ) पन्‍्धी, पन्‍्थ का अजुयायी, सत।- पन्नग तत्‌० (५०) [पदू+ न + गम + ढ़] सर्प, उरग, अद्ठि, श्रोपप विशेष ।--पति ( घु० ) शेष, सर्प- राज, घनन्‍्त। [नेबला पश्षगारि तत्‌० ( वि० ) सर्पशत्रु, गरइ, मोर, रृघ, पश्नगाशन तत्‌० (पु०) [ पतन्नग + अशन ] पन्नगारो, गर्‌इ पद्ी। पन्नगों तत्‌० (स्रो०) सर्पिणी, मनसादेवी । पन्ना दे० ( पु०) रत्न विशेष, इरे रद का मणि, हरिन्मणि, एष्ट, पेज । पन्नी दे" (स्री०) सुबर्ण आदि का पतला पत्र, तबक । पपडा दे० (पु०) इकढ़ा, चू्े, दिलका। पपड़ियाँ दे० (ख्रो०) छोला पपदा । पपड़ियाकव्या दे० (पु०) स्वेतकत्था, सफ़ेद यैर। पपड़ी दे० (ख्रो०) छिलका, परत, स्वक, उ्द या सूँर के श्राट्रे के चने पापढ़ । पपड़ीला दें० (दि०) पड़तीला, भधिक दिलके वाला । पपनी दे० (स्री०) बरतनी, बरवतनी, पच्म, यरोनी। पपरा दे० ( छु० ) पढ़ा, घिलका, स्वकछु, झछ चादि का स्वकू। पपरी दे० (सो०) छोटी पपढ़ी, पतला दिलका । पीना दे० (पु०) फपैया, अरण्य ख़रबूज़ा । पपीहा दे० (पु०) पक्षी विशेष, चातक, हस पत्ती का स्वभाव है कि नदी आदि का पानी कभी नहीं पीता, किन्तु स्वॉती में बरसने वाले मेषों का हो पानी पीता है। पपैया दे” (प० ) खिलौना विशेष, एक प्रकार पा चूछ, पपीता, अरण्य खरबुजा, पत्ती विशेष! पपीदा दे० (घु०) पलक, शॉप का पलक, अध्िपुद। पम्पा (ख्री०) किप्किन्धा के समीप एुफ सरोवर वा साम पय तत्‌० (५०) पानी, नीर, जल, दूध, क्षीर, छीर । --मुस्त (०) केवल दूध पीने वाला, दुध्मद्ा। पयद्ग तत्‌० (५०) बादल, थन, स्तन | पयस्विनी तत्‌० ( स्री० ) दुग्धवती घेज, दुधार गाय, अभ्रधिक दूध देने बाली गौ, नदी, स्लोतस्विनी। पयान दत्‌० ( धु० ) श्रयाण, यात्रा, अस्थान, जाने फा उद्योग, बिंदाई, गमन, चाला विदा। पयाल दे० (०) घुथार, नेरथां, खढ़, सूखी घास | पयोद (प०) मेघ, बादल । पयोधर तव्‌» ( पु० ) स्तन, चूची गिससे दूध निक- लगा हो, मेघ, वारिद, बादल । पयोधि तत्‌० (०) समुद्र सागर, भूमगढल के घारों श्रोर फैले हुए सात सागर ॥ परयोनिधि तव्‌० (घु०) समुद्र, सागर, श्रम्युनिधि । पयोवत वद्‌० (पु०) दूध था जल के श्राद्वार पर मत करना, ब्त विशेष । पयायाशि तत्‌« ( छ० ) समुद्र, पयोधि, पयोनिधि ) पर तद्‌० ( वि० ) अन्य, इतर, मित्र, दूर, भनात्मीय, शत्रु, प्रधान, वत्कृष्ट, श्रेष्ठ, श्रधिक,पंश्मात्‌ ( श्र ) उपरात्त, तत्पर, इद्यत | [ ज्ञाना। परकना दे० (क्रि० ) सघना, श्रम्यासी होना, मिल परकाज्ञ तदू० (पु०) परकाये, श्रस्यद्रीय कार्य, दूसरे का कास | [ का काम करने बाला । परकानी तदू ० (वि० ) पतोपकारी, परार्षों, दूसरे परकता द० ( क्रि० ) खधावदा, अम्यास डाटना, मित्राना, पहराना । [ का, मिद्र विषय] परकोय तव्‌० ( बि० ) अन्यदीय, श्रन्‍्य सम्बन्धी,दूसरे परकीया ठतू० ( स्त्री० ) परयुरुष गामिनी श्दरी, दूसरे की स्थी, मायिका विशेष | यधा -- “प्रेम करे वरपुरुष से! परकीया सौ जान ।” ज॑रसाजं "कक कस न परख ( इण्४ ) परपैठ परख दे० ( खी० ) परीक्षा, जाँच, खोज, भ्रनुसन्‍्धात । | परता दे5 ( पु० ) अरदेस्व, चरखी, परेता, सूख पाते परखना दे० ( क्रि० ) जाँचना, परीक्षा करना, सच्ाई, की छल, छचे और नफा मिला कर भाव, (इस खुदाई का अनुसन्धान, कसौटी कप्तना | चस्तु का “परता” यहां नहीं पढ़ता । ) परखाई दे ० ( स्ली० ) जांच का काम, परीक्षा करना, | परती दे० (स्त्री०) वंजर, प्रनूरवर भूमि, असर भूमि, परखने का कास, परखने छी मजदूरी । जिप भूमि में अ्र्ष 'त्रादि उत्पन्न न दो, रेतीली परखाना या परखयाना दे० ( क्रि० ) जँचबाना ! झूमि । [ भरोसा, यक्रीत । परीक्षा कराना, असली नकली पहचनवारा । परतीत तत््‌० (स्व्री० ) प्रतीति, निम्वय, विश्वास, परख्ी ( स्वी० ) एक छोटी लोहे की सूझाघुमा चीकु | परत्र तत्‌* ( दि० ) प्न्यत्र, परकालछ, परले।क, स्व | जिससे बंद बोरे का थन्नादि निकालकर नमूने के | परत्व तत्‌*० ( घु० ) फरता, पर का भाव, पार्थक्ष्य तौर पर, देश्य जाय है। ओेइचा। चत्परता । परसखेया दे० ( छ* ) जच्चैया, परीक्षक | परदादा दे० (9०) प्रपितासद, बाबा का बाप । परघरी दे० ( ख्ती० ) सोना ढालने का साचा । परदादी दे० ( स्त्री० ) प्रपिवामही, घाया की माता, परघनी दे० ( स्त्री० ) लेना चांदी ठालने की परघी | घुड़ढा दादी | पर्चा दे" [9० ) परीक्षा, जाँच, अजुसन्धान, | परदार, परद्ारा ततु्‌० ( स्थी० ) परभार्या, श्रन्‍्य की परिचय । [छल सामान । स्त्री, दूसरे की स्त्री, दूसरे की लुगाई, दूसरे पी ' परच्युद् बे* ( पु० ) आराट, दाल, मसाला आदि ऊुट- औरत ।--सिगिमन ततू० (४० ) ज्यसिचार | परच्यूदिया दे० ( ४० ) परचून वेचनेबाला अभिया, | परदुःख तल्‌% (४०) अन्य की पीड़ा, दूसरे का क्लेश | भेदी । परदेश त्तत० ( छु० ) विदेश, अन्य देश, मित्त देश । पस्थूनी दे” ( खी० ) परचून के बेचने का व्यापार, परदेशी तद्‌० (वि०) विदेशी, बैदेशिक, बूसरे देश का, मोदीखझ्ाने का व्यापार । धर दूसरे देश का बासी । [व्म दासति करने वाछा । परलीो दे० ( घु० ) परस्, हुँच, परीक्षा [ परक्वेश तच० ( घु० ) परदिंसक, परानिठकारी, दूसरे परद्ती दे० (स्नो०) चाँद का शेप भाग, छुद्िप्रान्त। | परद्रोह् तत्‌० ( ३० ) परानिष्ट, दूसरे का प्रशुभ, पर परक्षुना (क्रि३) दुढ्दा दुछहिन की आरती उतारना । पीढड़न | परक्ाई दे० (स्त्री०) शरीर या किसी बह्छु की साया, | परघन तल» (ए०) भन्यधन,भन्यव्रन्य,दूसरे का घत । प्रतिबिस्त, प्रसिक्षाया । परन तत० ( पु० ) प्रण, प्रतिज्षा, नियम | परहिद्र तच्‌० ( ० ) परदोप, दूसरे की ब्रुढि, दूसरे | परताना दे० ( क्रि० ) विवाह कराना, व्याद दैना | का दोए | [कारण जसीन हे स्वासी के दिया जाव। ( ३९ ) प्रमात्तामह; नाना के पिता | परज कर ( १० ) बह कर जो जमीन में बसने के | परनानी दे (खी०) प्रमातामही, प्रमातामद् की पत्नी । * परज्षयद 4० (प०) कर:श॒रुक, माड़ा, कियाया, राजा की | परन्तप तद्‌* ( छु० ) बिजयी, शाय्रु नाशक, बीर । भूमि अपने काम में लाने के कारण जो राजा का कर | परन्तु तव« ( भ्र० ) किन्तु, अधिकन्तु, अपर, किंवा | दिया जाता हैं । [पाला पोसा, दूसरी ज्ञाति का । | परपराना दे* ( क्रि० ) चरपराता, कडुवी वस्तु के परज्ञात तव्‌ ० (जि०) दूसरे के द्वारा उप्पन्न, दूसरे का मर्मस्थान में लगने से वेदना विशेष | परत दे ० (स्त्री०) तद, छड़, घाक, छिलका, पपड़ा । | परपराहद दे ( खी० ) चरपराहट, काल ! परत्तम ( वि० ) बड़े से बढ़ा, सबसे बढ़ा । परपुष्ट ( $० ) कैकिल, (वि०) अन्य द्वारा पेषित । परतन्त्र तत॒० ( थि० ) पराधीत, अ्न्याघीन, अन्यवश, | परपूर ढ़े० ( बि० ) घ्ण, भह्पूर, परिष्ण । परवश, दूसरे के कब्जे में | परपेठ दे० ( घु० ) अश्षत्ञी हुँडी की तीसरी भति था परतल दे० ( 8० ) ढेशा डण्डा | [छटकाई जाती है | |. चझृआ, पहली हुंडी, उसकी दूसरी असि का मास * परतल्ा दे* (३०) उत्नवार की पट्टी,डाय, निल्ममें तलवार पैठ और तीसरी प्रति का वाम परपैठ । खा« प०-- ४ परव परपय तत्‌» ( पु० ) पे, उत्सव, ल्योदार । परवा तत्‌» ( ख्री* ) प्रतिपदा, एकम ॥ [ परवश | परवस तद्‌० (गु० ) पराधीन, श्रस्यवश, परतन्त्र, परव्रह्म तत्‌० ( पु० ) परमात्मा,परम पुरुष,पुरुषोत्तम | परभुक्त ( ख्री० ) दूसरे की भोगी हुई । परमत तब॒० (पु०) काकिछ, कायल । (वि० ) शत्र को सद्दायता पहुँचाने वाढ्य, शत्रु का साथ देने घाला, भ्रन्यपालित | परम तत्‌० ( थि० ) उस्कृष्ट प्रधान, श्रेष्ठ भ्प्रयामी, अप्रधर +--गति ( रुत्री०) मुक्ति, मोच्, उत्कृष्ट गति, उत्तम गति।-पद ( पु ) श्रेष्ठ स्थान, उत्तम पद, भुक्ति पद, देवता का घाम । “पुरुष (पु०) परमात्मा, विष्णु ।--त्रह्म ( पु० ) परमेश्वर, पामास्मा, नारायण | धाम (पु०) चैकुण्ड, परमपद, मुक्तिदद [--मरिनत्न (पु०) इस्कृूष्ट मित्र, अतिशय मित्र |--लाभ ( पु ) अतिशय ढाम, अलद्यग्त जाम, सति उत्कृष्ट टास [-ईँस ( ४० ) पेगी, संनन्‍्यासी, अवधूत, संन्पासिमे। की पक अव॒स्पा विशेष | परमत तत्‌5 (१० ) दूघरे छा मत, दूसरे का सिद्धान्त, अम्य सम्मति, दूसरे की सत्माद | परमल्त दे० ( प० ) चर्वेण, मूँजा विशेष । परमाशु तब ( पु० ) अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु जिससे छोटा दूसरा न हो, कणमापश्र, काछ विशेष | परमात्मा तत॒० ( पु० ) [ परम + भारमा ] परव्रह्मा, पुरुषोत्तम, परस देवता | [दप। परमानन्द्‌ तत« ( पु० ) श्रत्यन्त ध्रानन्‍्द, अतिशय परमान्न तव* ( ए० ) [ परम + भ्रच्ष ] पायस, दुग्ध, खीर, पक्वान्न । [भायु, उमर,चडी अवस्था | परमायु तद्‌० ( १०) [ परम + भायु ] जीवित काल, परमार्थ ठव्‌० ( पु+ ) [ परम + अर्थ ] उ्त्ट्ूए वस्तु, यथार्थ, ठखविषय, सर्वोत्तम काम, कीत्ति, घर्म- कार्य, ययार्थ ज्ञान, पवित्र ज्ञान । परमेश्वर तव* (३५०) [परम + इंस्वर ] पस्यह्ा, शिव, विष्णु, परमात्मा,सवेश्वय सम्पद्ठ, ईश्वर, सगवान्‌ । परमेश्व री तच्‌० (सी ०) बक्ष्मी.दुर्गा,पावती,सरस्वती ॥ परमेष्ठी तद्‌० ( घु० ) बढ्मा, पितामइ, जिन विशेष, शाह ग्राम विशेष, गुरु विशेष । ( £#०६ ) परथ्वं परम्पर तत्‌« ( पु ) प्रपौत्रादि, क्रमायत, उत्तरों क्तर, स्ूग विशेष | परस्परा तत्तू० ( स्वी० ) थ्रन्वय, वंश, कुछ, सम्तान, परिपाटी, अनुक्रम, क्रमश, आानजुपूर्वी [>गत वि०) [ परम्परा + झआगत ] क्रमागत,चंशालुक्रम से काया हुश्रा, पीढ़ी दर पीढ़ी से आया हुआ | परला ३२० ( वि ) दूसरी और का, उधर का, इसे ओर का । परलेक तत्‌० ( पु० ) भ्न्यलो$, दूसरा छोक[क्‍स्वर्गा दिद्ोक, ल्ेश्ान्तर, उत्तर काल, जन्मान्तर । -गमन ( पृ० ) खृत्यु, मरण, निधन, परढोक गमन, छोकास्तर गन । परवल या परवर दे० ( धु० ) पछव२, स्वनामस्यात फल, जिसकी तरकारी होती है, परवर | [परवान । परवणश तत्‌० ( वि० ) पराधीन, भ्रन्यवश, अन्यघीश, परवा, पड़वा तदू० (ख्त्री०) प्रतिपदा, चस्द्रमा की प्रथम कला) शुद्ध एव कृष्णपपद् की अधथमतियि | परचान्‌ तत्‌० ( वि० ) पेरतन्त्र, पराघीन, परवश । परश तत्‌* (प०) रत्न विशेष, पारसमयि । परशु तत« (पु० ) अख््र विशेष, परथ्वध्, इुठार, कुकदाडी ।--धर (पु*) गणेश, कुटारधारी | परशुराम ठत्‌ (प०) मदर्थि जमदपक्‍़्नि के पुत्र, इनकी माता का नास रेशुका था | इनझे पितामइ महपि ऋचिक ब्राह्मण थे, परन्तु इनकी पितामददी सत्य वती छत्रिया थीं। परशुराम का नाम केवेस् ॥म दी या, परन्तु गन्धमादन पर्वत पर इन्होंने तपस्या के द्वारा महादेव के सन्‍्तु.्ट किया और उनसे वेनेमय परश पाया इसी कारण इनच्य नाम परशराम हु । परशुताम ने श्रपनी माता रेशुका का सिर काट डाढछा था और इक्कीघ बाह घत्रियों का समूकछत नाश करने की चेष्टा करने पर भी परशुगम एथिवी का नित्रिय नहीं बना सझे थे । महर्यि पशाशर ने सैदास पुत्र सर्वेह्र्माकी रा की थी, और भी अनेक राजकुसारो की ज्ञर्दा तहाँ रघा हुई थी, मद्॒र्पिं कश्यप, ने इन समस्त चश्रिय राजकुमारों थे खे अका राश्या मिपेक्र कराया | [एक दिन के भनन्तर । । पर/व तद्‌० ( झ« ) परसों, श्राने वाठ्धा तीसरा दिन, पय्स (६ #०७ ) परायण परस दे० (३०) स्पर्श, छूत । [करने ही से । | पराड्रमुख, पर्राघुख वत्‌० ( ४० ) चिट्ठु्, बदिमुख, परखत दे० ( क्रि० ) छूते ही, स्पर्श करते ही, स्पर्श लौटा हुआ, घ्दासीन, मुंहफिरा | परसना दे० ( क्रि० ) स्पर्श करना, छू । पराज्ञय तत्‌० ( घु० ) पराभव, तिरस्कार, हार | परसिया दे० (पु०) दँसिया, हेँखुवा, दाँती, दराती । | पराज़िका ( स्त्री ) परम नाम की एक रागिनी | परखूत दे० (छ०) रोग विशेष, परखुव का रोम, लड़का | पराजित त्त्‌० (वि०) कृत पशानय, परामूत, विजित, देने के बाद जो खत्रियों के रोग देता है । निर्जित, हारा हुआ । परसखूती दे० ( स्री० ) लड़के वाली, जितके तुरन्त | पराजिता तत्‌5 ( स्ली० ) लता विशेष, विष्युक्ान्ता [ लड़के हुए दो, परधूत रोग वाली स्त्री । पराजिता तद्‌० (गु०) पराजयकर्तता,विजयी,जीतनेवाला । परसैया दे० (छ०) परोसने बार, परोसैया । पराठा दे० ( पु० ) उ्दा, घी फी सहायता से सेक्ी परसे दे० (अ०) आगे या पीछे का तीसरा दिन, पुछ हुई मोटी परतद्ार पूरी, स्वरनाम असिद्ध पक्‍्वात्न [ दिन के अनस्तर का पहला या पीछे का दिन । परात दे० ( घु० ) थाल; बड़ी थाली | परस्ये दे ( घु०) रहना, वास फरना, ठहरवा, | परातिक्ता तत्‌» (स्री०) ओपधि विशेष,छाल छुनर्न॑वा । स्थित होना । पराती दे० (स्त्री० ) परात, थाली | (पु०) प्रातःकाक्ष पररुपर तत्‌० (अ्र०) ्रन्पेन्‍्य, इतरेतर, आपस में साने मेग्य सजन, प्रसाती । [परसात्मा, घिष्श । परस्मीपद्‌ तत्‌० (पु०) व्याकरण में क्रिया का पुक | परात्पर (वि०) सर्वश्रेष्ठ जिसके परे कोई न हो (६०) प्रकार का चिन्ह । परात्मा ( ३० ) परमात्मा । परा तत्‌० (श्र०) विमेक्ष, सुक्ति, प्राधान्य, प्रति- | परादुन ( छ० ) फारस देश का घोड़ा । लोम्य, बैपरित्य, भ्टशाथे, आभिसुस्य, विक्रम, | पराधोन तव्‌* ( वि० ) अ्रस्वतन्त्र, परवश, परतन्त्र । गति ( उपसर्ग ) भज्न। श्रहक्कार, अनावुरः प्रद्मा- --ता ( स्त्री० ) परतंत्नता । शक्ति, तिरस्कार, शब्द का स्वरूप विशेष [ चामि- | परान, (पु०) माण। [होना । रूप सूलाघार से वतपन्न प्रथम उक्ति, नाद स्वरूप | पराना दे० ( क्रि० ) भागना, भाग जाना, बढ खड़ा वर्ण, शब्द का भादि स्वरूप ( वि० ) अस्थुत्क४, | परान्ी तदु० ( छु० ) पाणी, जीवघारी, चेतन | खबसे पर, सबसे बढ़ा, सर्वोपरि, सबके ऊपर । पराक्न तत्‌० [ पर+ अक्ष ] अन्य का अज्न, दूसरे का पर देन ( स्री० ) दूसरे की, सैर की, अन्य की । श्रज्ञ, दूसरे का दिया हुश्ना भन्न । पराक तत्‌० ( छु० ) म्रत्त विशेष, प्रायश्रित विशेष, | प्रापर (छ०) फालखा | /. खज्न, चुत रोग विशेष, जस्तु भेद परामव तत्‌० (पु०) पराजय, हराना, परिसंव, तिर- पराकाठ्ाा (खी) श्रत्त, चरम सीसा, खीमान्त, स्कार, उत्खनन, विताश, उखाड़ना । चरमसीमा, भह्मा की आधी आयु | १ | पराभित्त (३०) वान ग्रस्थ विशेष, ने ग्रृहस्थों के घरों पराक्रम तत्‌० ( घ० ) शक्ति, वीय॑, विक्रम, प्रताप, से थोड़ी मित्ता ले वन में निर्वाह करते हैं। [हारा । निर्वोर्थ, प्रताप रहित, ढुवेल । परामशें घत॒० (ए०) उपदेश, मंत्र, विधार, सम्मतति, पराक्रमी तत्त्‌० ( बि? 9) चीय॑बानू, विक्रसी, प्रतापा- | सकाह --स ( घु० ) खींचना, स्मरण, चिन्तन, स्वित, प्रतापी, बलवान, सादसी, झूर, वीर, मेद्धा । | विचारना, सशवरा करना । [छम्ता करना । पराग तत्‌० ( पु० ) इप्परेण, जुष्पघूली, स्नानीयद्वन्य, | परामर्ष तद्‌० ( घु० ) निद्नुति, तितिक्ता, क्षमा, सहला, गिरि विशेष, उपराग, चन्दन; खच्छत्द पसन, , परामाद दे० (पु०) फुसलाबा, फुलावा, माता | स्वेच्छापू्वेंक यमन । पराम्ष्ट (चि०) पकड़ कर खींचा हुआ, पीड़ित, विचार परागति (स्त्री) गायत्री |... डुच्ा, निर्णीत । [निपुण, तत्पर, असीछट । परागना ( क्रि० ) अजुरक्त दाना । परायण तत्‌० (घु०) आसद्भवचन, अत्यासक्त, आश्रय) उद्योग, निषक्ररण ।--शुन्‍्य (गरु० ) शक्तिहीन, । पराभूत तत० (च्ि० ) पराजित, परासुत, निर्मित, ५ परायत्त परायत्त (वि०) पराघीन | चिर का । पराया दे० (वि०) अ्रन्यदीक, अन्य सम्बन्धी, दूसरे का, परायु (१०) ऋह्मा । परार (वि०) पराया, दूसरे का। परारध (पु०) पराडे। [वाला तीघरा दर्ष। परारि तब॒० (वि०) पूर्वतर बर्ष, गया हुआ या थाने परार (पु०) करेला । कु [मिक्च। पराये तव्‌० ( पु० ) अन्यार्थ, दूसरे के निमित्त, स्वार्थ पराद्धे तद० ( वि० ) छुक्ष कोदी, अन्तिम संस्या, | संख्या का शेष, बद्मया की थाघी भायु । | पराद्धि (३०) विष्ण॒ | [सर्वोत्तम । पराद्धयं तत्‌० (वि० ) प्रधात, श्रेष्ठ, सर्वेस्कृष्ट, पराल दे० (एु०) पढाल, घास, तृथ। परालब्ध (६०) भारध्ध, साग्य, नसीत्र । । परावत (घु०) फाठसा । ललिगे का भागना । | परावन ( घ० ) भगव्‌इ, पलायन, पुक्र साथ यहुत से | परावर (वि०) सर्व श्रेष्ठ, दूर पास का, निकट दूर का इधर उधरा ा। | पराध्त ( पु० ) छौटवा, प्छटाव, श्रदद्व यदल, ल्लेम ४ दँव --म (धु०) प्रद्यावर्तन, पीछे फिरना, जैनियें के मताजुसार गग्थे का देहराना, उद्धरणी '-- ध्यपद्वार (पु०) किसी सु%दमे की फ़िर से जाँच । परावर्तित ( बि० ) पीछे फेरा हुआ, पल्वटाया ड्ट्चा। परावछु (६० ) (+ ) अ्रमुरो के पुरोद्धित का नाम, (२ ) रग्यमुनि के पक पुत्र का नाम | (३) पक गन्धर्वे का नाप ( ४ ) विश्वामित्र के थुक पुत्र का नाप | पराषद ( पु० ) सप्त प्रदार के वायुय्रों में से पु । परावा ( वि० ) पराया, विराना। परावृत्त (वि०) फेरा हुआ, बदला हुआ [--* (यु) पणटाव, मुकदमे का पुन विचार | परावेदी ( स्वी० ) मटकटेया, रूटई । पराशर तत्‌« ( पु० ) मइ्दिं दशिष्ठ का पौशन्न और शक्ति का पुत्र; इनकी माता का साम अधच्श्यन्ती था । इनक विषय में शद्ामारत में सिखा ड्दैडि पक समय अयोध्या के राज़ा कर्मापणद अहेर । खेल कर भा रहा था चार इघर से वरिष्ठ के | डयेछ्ठ पुत्र शक्ति ज्ञा रहे थे, राजा ने इन्हें मागे | ( #०्घ ) परासत छेडने के किये कद्दा परन्तु इन्दोंने बस पर कुछ ध्यान न दिया! इस कारण कल्मरापगद ने शक्ति के कोडा लगाया।शक्ति ने राउस हो जाने का राजा को शाप दिया, तुरन्त राक्षस बनहझर राजा ने शक्ति फ़ो खा डाठा और छुन घीरे धीरे वशिष्ठ के अन्यान्य पुत्रों के सी मार छाढा | इसमें विश्व मित्र की मी सम्मति थी। वशिष्ठ पुश्नशोक से कातर होचछर प्राण देने के! उद्यत हुए। थे पवेत से छूंद्दे, भ्रप्ति में कूदे । परन्तु दिप्ती प्रकार इनके प्राण नहीं निश्ले, अन्त में हताश हो$ऋर थे अपने आश्रम के झीौदे झाते थे। उसी समय पीछे से वेदप्वनि छुनायी पड़ी। वशिष्ठ ने पूछा” कौन हैं ? उत्तर मिला भापकी ज्येष्ट पत्र अध्श्यन्ती, अददृश्यस्ती ने कद्दा--“मेरे गर्भ में झापका पौत्र वर्तमान है, बारह दर्प से यह थेदा- घ्ययन कर रहा हैं ।” यह सुनकर वशिष्ट पसन्र ड्रुपु, उल्दोंने देगा कि हमारा बंश चलाने बाढा वर्तमान है, उसी समय पुक राएस खाने के लिये अद्श्यन्ती की झोर छपका। वशिष्ट ने मन्त्रवष्त से उसझा राहसत्व दूर किया | यद राहस राजा कक्मापपाद था। वशिष्ठ ने भ्रवेष्या जाकर उसे राज्यशासन करने का झ्रादेश दिया। पराशर बड़े डोन पर अपने पिता की रुत्यु का संत्राद सुनकर एक यज्ञ करने का उच्चत हुए। रापसकुल का नाश करना ही उस यज्ञ का उद्देश्य था। परत घुलटरूय घुछद झादि ऋषियों ने उन्हें समझाया कि तुख्दारे पिता की सत्यु राजसों से नहीं हुई, किन्तु अपनी झृत्यु का प्रघान कारण सुर्दारे विठा ही हैं। पद सुनकर पराशर ने यज्ञ काना छोड़ दिया | महत्यगन्घा नामक घीवर ढनन्‍्या से पराप्तर छे पुक पुर उत्पव इुशा था जिसका नाम द्वौपायन था ! पराशर ने पुझ संद्विता बनाई थी, जिसका नाम “पराशरसंद्विता” या पराशरस्खति है । पराश्चय दव्‌* ( वि० ) पराधीन, परवश [-- (सतरी०) बदिए, परगाडा, ।--न्ति ( दि० ) परतस्त्र परास ( छु० ) किसी विशिष्ट स्थान थे उतना इन्तर जितने पर दिशिष्ट स्थान से फैकी हुई कोई धस्तु गिरे ।-- ( स्री०) पुक रागिनी का ताम | पराछु पशछु ( वि० ) प्राणद्वीन, पशु (बि० )आपक्षेण, बाय... | पस्खिना (कि अं त्ूव[ | ॥ परारुत तत्‌० ( वि० ) पराजित, परामृत, हारा | पराह दवु० ( पु० ) भागासाग, सगाढ़, देशत्याप । पराहिं दे ( क्रि० ) भागते हैं, भाग नाते हैं, चलते जाते हैं, दौड़ जाते हैं । हि एराह ठत्‌० (० ) दिन का दूसरा साग, अपराह्न । परि चत््‌« (उपसर्ग) सर्वतोसाव, व्जन,व्याधि,शेप,इस प्रकार, आख्यान, भाग, चीष्सा, आलिद्वन, रूक्षण, देपाख्यान, देषकथन, चिरखत, पूजा, व्यापकता, विस्मृति, भूषण, उपरम, शोक, सन्‍्तोषभाषण । परिक € ख्री० ) खोदी चाँदी । परिकर तव्‌० ( घु० ) कटिवन्धन, फमरवन्द, पर्यक्ष, खद्वा, खाट, परिवार, समारम्भ, बन्द, समूह, सहकारी, विवेक । परिकरमा ( स््री० ) परिक्रमा । परिकर्म ठत्‌० (घु० ) छुछुम आदि के द्वारा प्ढ संस्कार, स्तान उबटन लगाना आदि। शरीर संस्कार सात्र ।-- ( पु० ) सेवक, दहलुआ । परिकल्पन ( छ० ) प्रपंचना, दग़ाबाज्ञी घोखाघढ़ी। परिकद्पला तत्‌० ( त्ली० ) उपाय, चिन्ता, चेष्टा, | उद्योग, कर्म, क्रिया। परिकीणे ( वि० ) च्याप्त, विस्तृत, समर्पित । परिकीर्तन तत््‌० (पु०) प्रस्ताव, स्ठुति, बदाई, प्रतिष्ठा करण, सब अकार से भर्शसा करना । एरिक्ूठ ( छ० ) शहर के फाटक की खाईं। परिक्रम ( छु० ) दहलना, फेरी देना परिक्रमा ।+-ण ( गु० ) वहलना, धूमना ।--न तच्‌० ( ख्री० ) क्रीढ़ार्थ पैदल चलना, पद विहार, देवपरिक्रमा, प्रदक्षिय । परिक्तत ( वि० ) नष्ट, अछ । परिक्तव ( ० ) छींक। परित्ता ( ख्री० ) कीचड़, परीक्षा, जाँच परित्षित ( छ० ) एक राजा, परीक्षित परित्तिप्त ( वि० ) खाई आदि से घिरा हुआ । परिक्षोद्रा ( वि० ) निर्धन, कंगाल । परिखना ( क्रि० ) पहचानना, जाँचना । परिख्ा तत्‌० ( स्री० ) राजधानी के चारों ओर की खाई, खाल, चाला । ( ४०६ 3) पेरिच्छद परिखाना (क्रि०) जाँचना,।परखना । परिशणन तव० (३०) सापना, गिनना, गणन करना, संख्या करना । [ खंज्याकृत । परिगणित तत्‌० (वि०) ठीक डीक गणना किया हुआ, परिटत तच्‌० (वि० ) आस, लब्ध, विद्त, ज्ञात, विस्म्त, चेशित, गत, चेष्टित । परिगह ( घु० ) कुदस्बी, आश्रित जन । , परिगुण्ठित ( वि० ) उफा हुआ, छिपाया हुआ | , परियुद्दीद ( वि० ) स्वीकृत, शामिल । परिगृह्या ( स्त्री० ) धर्मपत्नी, विवाहिता स्त्री। परिञ्रिद तत्त० ( घु० ) प्रतिग्रह, स्वीकार, सेया छे पीछे का भाग, पत्नी, भायां, परिजन, भृत्य, सेवक, परि- चार, आदाव, अहरण, स्वीकार, शाप, शपथ, राहु के द्वारा सूर्य का आस, सूर्य अहण शा (छु० ) पूर्णरूप से भहण करना, कपड़े पहनना । [ गदा, झुदगर, शल । परिघ तत्‌० ( ७० ) लोहा जड़ी लाढी, लौहमय यष्टि, परिधेप सद॒० (०) शब्द विशेष, मेधयर्जन मेघध्वनि। परिचय वत्‌० ( घु० ) विशेष रूप से ज्ञान, जानपह- चान, मेल, सित्रता । पसरिचिर तव्‌० ( ७० ) युद्ध के समय शज्नु के प्रहार से रथ की रहा करने वाला, सेना की ध्यचस्था करने बाला, दरडनायक, सहायक । [ उपासना । परिचर्या या परिचरजा तद्‌० (स्त्री०) सेवा, शभ्रूपा, परिचायक ठत्‌० ( वि० ) ज्ञापफ, बोधक, जिसके द्वारा परिचय भाप्त हो, जान पदिचान करनेवाला, सध्यस्थ । [ सुश्रूणाकारी, ुलाम ! परिचारक तच्‌० ( पु० ) भृत्य, सेवक, नौकर, चाकर, । परिचारिका ठव्‌० ( ख्त्री० ) दासी, लौंडी, सेविका । | परिचारे (क्रि०) प्रचारे, ललकारे, ुसाये । परिचालन (पु०) चलाना, चलने में लगाना, हिलाना हरकत देना । परिचित तच» (जि०) पत्चिय विशिए, ज्ञात, हुआ, जाना, परिचय, जानकारी ! परि्चिय (वि०) परिचय योग्य । परिच्छुद तत्‌० ( घु० ) देश, बसन, भूपण आदि, परिधान, आच्छादन, पोशाक, परिवार, हस्ति अत आदि का बस । नहा परिच्छिन्न ( ४९० ), परिनिष्ठित परिच्छिन्न तत० (वि० ) परिच्येद विविष्ठ, अवधि | परिताप तद्‌० (3०) [परि+दप+ घन] मनस्वाप, प्राप्त, सीसायद्ध, परिमित । परिच्छेद तत्‌० (पु०) अन्य विच्छेद, अन्‍य के अध्याय, सीमा, अवधि, विभाग, प्रकरण, व्यवधान पे । परिवाही (स्री०) परदाई' । परिजक (पु०) पर्यक। परिजन (पु०) पर्यटन । परिजन तत्‌० (घु० ) परिवार, कुटम्ब, पुत्रलत्र आदि पालनीय वर्ग, स्यजन, सम्बन्धी, नातेद्ार, रिश्तेदार, अनुचर, अलुगामी । परिक्षान तत्‌० ( पु० ) निश्चय्र बोध, सव श्रझार से जाना हुआ, विशेष रूप से ज्ञात । परिणत तत्‌० (पु०) [ परि + नम्‌-+-क्त ] परिणाम प्राप्त, पक, पका छुआ, टेढ़ा चलने वाला हाथी, नम्न, नया हुआ । परिणति वत० (खी०) [ परि + नम्‌-+क्ति] परिणाम, निष्पक्ति, समता से शेप होना, निम्नमाव परिणय तत्‌० (घु०) विय्वाह, दारपरिग्रह, ब्याह । परिणाम, (परीणाम) तव्‌० (पु०) [परि+नम्‌+ घन विकार, प्रदृति का दूसरे रूप में बदल जाना, अयस्थान्तर प्राप्ति, मावान्तर लाभ, उत्तर काल, शेष ।--दुर्शी (वि० ) दूरदर्शो, विज्ञ, अभिक्त, परकालदर्शी, दूरदेशी ।--चाद (छु० ) सास्य दर्शन का सिद्धान्त विशेष, जिस में ज़यत्‌ की उप्पत्ति नाश आदि नित्यपरिणाम के रूप में माने गये हैं। परिणायक त्त० ( घु० ) पत्ति, वर, धव, पॉाँसा पेलने वाला ।--रत्न ( पु० ) बौद्ध चक्र बर्वियों के ससधन पोषों से से एक। परिणाद्द तत्‌ू० (घु० ) परिसर, विम्तार, उिस्तृत, विशालता, चौटाई, आकार, आइति, दीर्घश्वास । परिणीता तव (सत्री० ) [ परि+नी+क्त+आ ] विदाद्विता, उदा, पाणिगृद्दीता। परिणेता (पु०) पति, स्वामी, की | परिशेया (वि०) च्यादने योग्य । परित दत्‌० (अर०) सर्वेत , चतुदिशा से ध्याप्त, चारों तरफ से, चारों ओर से । पस्तिच्छ (ए०) प्रचद। सनन्‍्ताप, कलेश, दु स, शोक, भय । परितुष्ठ तव० (गु० ) [ परि+तुपु+क्त ] सन्‍्तुषट आह्वादित, आनन्दित, हृष्ट । परितुष्टि तब॒० (स्त्री०) सन्तोष, ह॒छति, भआराहाद, हप। परितृत्त तत॒० (गु०) [ परि + तप +क्त ] सम्यक्‌ तृप्त, अतिशय तृप्त, श्रधिक तृप्त, ।--* ( ख्री०) हृप्ति, अधाना । परितोप तत्‌० (४० ) हर, तृप्ति, सन्‍्तोष आहाद, ख़ातिरजमा, प्रसन्तता ।--क (पएु०) सनन्‍्तुष्ट करने बाला, प्रसन्न करने वाला ।--ण (पु०) परितुष्ट, सन्‍्तोष । न परित्यक्त तत्‌० (वि० ) परित्याज्य, छोडने योग्य, परिदृत, व्यक्त, सब प्रकार से छोड़ा हुआ।न (घु०) परित्याग करने वाला, ह्यागने वाला। परित्याग तत्‌० (पु०) सत्र भकार से ब्याग, विसर्जन, वर्ज्जन । परित्याज्य (वि०) परित्याम योग्य । परिन्नोण तत्‌० (पु०) रक्षा, बचाव, उद्धार, निष्हति। परिन्नात तत्‌० (वि०) रहछ्षित, पालित, पाला हुआ । तत० (वि०) निस्तारक, परिताणकर्त्ता, रचक। परिदान तत्‌० (छु० ) परिवते विनिमय, बदला, लेनेदेने । परिदेवक तत्‌० (वि०) विलापकर्तता, दु स देने वाला, दु सदायी, जुआरी, जुआ सेलने वाला । परिदेवन॑ वत्‌० (पु०) अरहुशोचन, भ्रजुताप, परचात्ताप, पिलाप, पद्ताया, चूततीडा, शुए्‌ पा सेल । परिघन ] तठव॒० ( घु० ) पहराय, पहनावा, पहिरने परिधान ४ का बस्तर, परिधेयवसन, यथा-- “जदा सुझुठ परिधन मुनिचीरा” । रामायय । परिधि ठत्‌० ( स्त्री०) परिवेष, बे्टन,, बेड, मणडला- कार रेसा, चन्द्र सूर्य मणइल, चन्द्सूर्य मण्डल के चारों श्रोर जो कभी कभी सरडल दीख पहुता है, घेरा, मण्डल | हे [ योग्य । परिधेय तत्‌० ( वि० ) पहनने के योग्य, धारय करने परिध्वंस ठत्‌० ( घु० ) अपचय, नाश, हानि, कृति, वर्णसद्टर जाति विशेष | [ तिष्टा ग्राप्ता परिनिष्ठित तत्‌» ( वि० ) परिशात, छाती, प्रविष्टि, परिपक्त ( हू ) » _परिश्रम परिपक्क ठत० (वि०) खुपक्र, पका छुआ, पड, निपुण, जपयुक्त, योग्य, दक्त, कुशल, चतुर, कार्यदत्ष, कार्यकुशल । [ छुटेरा, ठग । परिपलथी तत्‌० ( छु० ) शज्नु, बैरी, विपक्ष, चोर, परिषाक चत्‌० ( छु० ) जीता, पक्रता, परिणाम, नैपुण्य, निषुणता, फल, निष्कर्प, उत्तर काल । परिपाठी तत्‌० ( स्त्री० ) रीति, प्रथा, चाल, अनुक्रम, पराक्रम, उत्तम, अक् विद्या।.. [ रक्षा करना। परिपालन तत्‌० ( घु० ) अतिपालन, पोषण, रक्तण, परिपालक तत्‌० ( पु० ) प्रतिपालक, रक्षाकत्तां, रक्षक, घोपकारी । परिपालित तव्‌० (बि०) रहछ्चित, प्रतिपालिच, आश्रित । परिपिएक्र तत्‌० (प०) सीखक, सीसा, धाठ विशेष । परिपूत त्त्‌० ( बि० ) पविन्न, शद्ध, विना छिलके का धान । परिपूरुन वत्‌० (वि०) समस्त, सकल, समपूर्ण । परिपूरित तव्‌० (बि०) भरा हुआ, भरापूरा । परिपूर्ण तत्‌० (गु० ) परिप्रन, समस्त, सकल, सम्पूर्ण, पूरित, भरा हुआ, एंए, अखुर, यथेष्ट । परिश्राज़क (9०) संन्यासी । परिभव तव्‌« (पु०) पराजय, पराभव, परास्त, अवज्ञा, अनादर, देयडुद्धि ।---पद्‌ (जु०) छुप्कृति, हुर्यश । परिभ्ाव तत्‌० (ए०) अवशा,अनादर,पराभव,पराजय | परिभाषण (छु०) निनन्‍्दापूर्वंक कथन | परिभाषा तत्‌० ( ख्री ) परिष्कृतभाषा, मज्ञप्ति, अन्‍्थ संक्षेप करने के लिये साक्केतिक नियम । परिभ्रूत (वि०) हराया हुआ। परिश्रमण तव्‌० ( छ० 2 पर्ययन, अनवरत अमण, सतत घूमना, सर्वदा घूसते रहता । परिध्रष्ट (बि०) नष्ट, पतित । परिमण्डल तत्‌० ( वि० ) वचुल, गोजाकार, चक्र, गोल ।-- चक्र (छु०) अहपथ, भरहचक्र। -परिमल ठव० ( एु० ) सलने से या रगड़ने से उत्पन्न सुगन्च, सहक, सुगन्ध, सौरस । [ जोख । परिमाण या परिमान तत्‌० (ए०) माफ, वज़न, तोल, परिमार्जित तव्‌० (विं०) परिशोधित, शुद्ध, साक् । परिमित तत्‌० (घि० ) प्रसाणित्र, नयातुरा, चापा हुआ, सापा हुआ, नियमित [->व्ययो ( इु० ) मितष्ययी, समर वूक कर ख़र्च करने चारा, ख़चे ., में किफाचत करने चाहा, किफृयतशापर । परिमिति तत्‌० ( ख्री० ) परिमाण, किनारा, अवधि | परिरस्थ तत्‌० (पु०) आ्रालिड्जन,भेंटना,श्लेष,लिपटाना [ परिवर्जन तत्‌ ( घु० ) त्याय, परिद्वार । परिवत तत्‌० ( ४० ) बदला, लेन देन, क्रय विक्रय, हेरीफेस । [ करना। परिवत्तंन तच्‌० ( छु० ) पछटाव, पल्वटना, प्राफेरी परिद्त ( बि० ) पीछे का, बाद का । ( ७० ) प्रति- निधि, बदला । परिधा ( स्त्री० ) भ्तिपदा, प्रत्येछ पक्ष की प्रथम तिथि । परिवाद्‌ त्द्‌० ( पु० ) गाल्ली, इलहना, निन्‍दा, छवेप । परिवाद्क तत्‌० ( पु ) निन्‍द्‌र, निन्‍दा करने वाला, द्वोपी। परिवार या परिवारू तत्‌० ( घु० ) परिजन, घराना, कुटुम्बी, कुटस् के सलुष्य, एन्नादि, कुनवा, भाईवंद । परिवारण तत्‌० ( छु० ) मॉँगना, रोकता, रुकावढ डालना, बाधा डालना । परिवाह तत्‌० ( 9०) नल्‍ू की उछाल, बहाव, सेघपथ, सेधसार्ग | परिब्रूत तव्‌० ( पु० ) रक्षित, आच्छादित, घिरा हुआ, परिवेष्टित, ्षपेटा हुमा, ढका हुआ | परिवेषण तत्‌० ( छु० ) परोस्नना, भोजन परसना । परिवेष्ठन तत्‌» (घु० ) चतर्दिकू से श्राच्छादन। मण्डलाकार बेधन, आच्छादुन । परिव्राजक तत्‌० ( पु०) संन्यासी, मुनि, चतुधांश्रमी । परिब्नाडू तत्‌० ( छु० ) सैन्यासी, यस्ती; योगी । परिशिए्ट तत्‌० ( छु० ) अवशेष विशिष्ट, अवशिष्टार्थ प्रकाशक, अन्य भाग, बाकी, अवशिष्ट । परिशुद्ध तच॒० ( वि० ) परिशोधित, परिष्कृत, साफ खुधरा, पवित्र, शुद्ध, उज्ज्ल । अडिता । परिशुष्क तच्‌० ( वि० ) अतिशय शुष्क, बहुत सूखा परिशेष तव्‌० (६०) अन्त, सीमा, विच्चेद, समाप्ति) परिशोध ठव० ( छु० ) परिशोघन, सर्वतेभाष से शद्ध आऋणापनयन, ऋण छुछाना, प्रतिकार, भतिदाल । परिश्रम तव्‌० ( छु० ) आ्रायास, श्रम, ब्योग, चेष्टा, क्लेश, धकावट | पॉरिश्रमी «» ( #ह२ ) पर परिश्रमी तत्‌० ( १०) इद्योगी, श्रम, चेष्ठान्वित | | परीक्ता तव्‌» ( ख्री० ) प्रत्यप रीति से गुण का विदे- परिश्रान्त तत्‌० ( वि० ) श्रन्नयुक्त, सर प्रकार से परि- चन, जाँच, परस, सोज | श्रमयुद्, अ्वसश्न, छ्ान्त ) परीत्तित तत्‌० ( गरु०) मिसझा गुण विवेचित हुआ है; परिषद ठत्‌० ( स्री० ) समा, संस, समिति, बहुत अभिमन्यु के पुत्र । ये मह्यराज विराट की कन्या द्ोगों के पुछमित देने का स्थान | [प्पष्ट। दत्तरा के गर्म थे उत्पन्न हुए थे । पक समय कई परिष्कार तद्‌० ( पु० ) निर्मेष्ठ, स्वच्छ, शुद्ध, सुब्यक्त, नामक स्थान में वास के समय राजा परीक्षित ने परिष्द्धन तत्‌ू० ( रि० ) सूपित, अलड्डुत, सूपणयुक्त, सुना कि इससे राज्य में कलि घुस धापा है, दे निर्मेश्, शुद्ध खच्छ, वेष्टिप, प्राप्त संस्कार । फलि के! दमन करने के लिपे सरस्दती नदी के तीर परिष्यज्ञ तव्‌० ( १ ) भालिद्वन, रमण | पर पहुँचे | वर्दा डन्द्रोंनि देखा कि रामाचित बस परिसर दे० ( पु० ) विश्व, निकाल, कमर । पदन कर पुक शूद्ध पुक गौ अर पु देंठ के दण्दे परिसंख्या तत्‌० (स्री०) गणना, सीमा, काब्याल्झ्ूरार से पीट रहा है। घस चैब के केवल पुक ही पैर विशेष, यथा -- # अनत बानि बडु वस्तु जद, घरनत एकदि दौर | तादि कददत परिसख्य हैं, भूपनकवि दिकूदौर ॥ ? गुण आदि का किसी वस्तु विशेष में जदाँ नियम । किया जाता है वहा ही परिसंण्यालदूपर द्वाता है| यधा--“झति मतवारे जददाँ द्विरदै निद्दारियतु, सुणान मही चबठाई परहीति है। भूषण मनत जद पर लगें बाननि से, केक पच्छिनिदि माँद विद्युरन रीति है, गुनिगन चोर जरा पुक चिवद्दी बे । छोड, दे जह एक सरजाकी गुन प्रीती है, कपु कद में पैर दृद यदु्ी में सिघराज अरद्ती के राजा में ये। राजनीति है । ” -+शिवराजमूपण । परिद्रर दे० ( हि० ) छोड कर, त्याग कर। परिदरना दे० (क्रि?) घेाइना, त्याग करना, द्यागवा। < परिद्वार तबन (पु०) अवज्ञा, भनादर, अपमान, मे।चन, स्थाग, पुश्ठ जाति विशेष, राजपूतों की पु शाखा । परिद्दांस तव्‌० (१०) उपद्मास, ठट्ठा, कौतुरू, कुवूद्त । परिद्यास्य तव्‌० ( 8० ) इसने के पेग्य, दवाश्य के इप- युर्, एसी का पात्र | परिद्दित तत्‌० ( वि० ) परिधान किया हुआ, आाच्छा- दित, पेछ्ित । परी दे* (स्रो०) माँढे से तेल निश्चवने की एक प्रचार दी कब्॒धी, भ्रप्सरा, देवाज्षना, स्वये की देश्या । परीच्छित तद्‌० (वि०) भन्प ईप्सित दूसरे का इष्ट | परीक्षक तत्‌* ( वि० ) परीढ़ा कस्ने बाला, जाँच करने दाता, प्रक्नों ले उच्तरपत्र देखने बाला । था । राजा परीदित ने समा ये ही धर्म हैं शौर चद शुद्ध कलि है | ऋत्ि का मारने के लिये राजा ने तब्वार घठायी | इस समय कलिराजञ बेप उतार कर राजा के पैरों पर गिर पड्ढा भर इसने शरण प्रदण किया | शरणागत समर कर राजा ने इसे चोड़ दिया और सुधा, सच, हिंसा और सखी ये चार स्थान उसझे रहने के लिये उन्दोंने दवाये। एक प्रमय राजा भ्रद्देः खेलने गये थे। समय भ्रधिक हर ज्ञाने के कारण राजा छपातुर दे गये थे । वे एक आश्रम में पुक मद्र्पि छे पास गये। सुनि मौनी थे, इसी कारण इन्दोंने राजा के प्रश्नों के इत्तर नदीं दिये। इससे क्ुद्ध देकर पुक मरा सपि राजा ने उध सुनि के गल्ले में लगा दिया। इस मुनि के शक्की नामक एक पुत्र था, उन्‍्दोंति डिसी से यद्द घश्ना सुनी धार शाप दिया कि गिपने मेरे पिता के गले में सांप छगाया है, उप्तके साबवें दिन तचक सप छाटेगा | मुनि ने लत अपने पुत्र से थे बात सुनी ठे! दे बडे दुखी हुए और राज्य के शाए दी बात छद्वा भेत्री जिधसे ये सायघान दे। जाँच । देखते देखते साववी दिन भी चागया, तह राजा का काटने छे लिप्रे जा रद्दा था उसे पुर ब्राह्मण मिला जे। शजा छी चिकि'सा करने ज्ञाठा था | तत्चक ने उसकी परीदा की, जिपसे दसडी विद्वचा से मीत देकर तड़झ ने बहुत रुपये देकर रत ग्राह्मण के! छीटा दिया । दीऊ समय तक से राजा छह काटा और राज! का ज्षीवन समाप्त डरुप्ा। पद दे (०) पेर, परे, म्रनिष, बाँघ भादि की गयदि | पंरुषे प्रुष तत्‌० (० ) निण्दुर बचत, कठोर चाक्ष्य, कुवचचन, गाली । ( जि? ) कठोर, कड़ा, चिढेय, अनेक रंग का, कहुंत्वर्ण, रुच्ठ. तीक्ष्ण, निष्ठरोक्ति | +-वा (६ ध्वी० ) छठिवता, बिप्ठुरता, चीचता, अोछापन [--भाषी ( वि० 9) दठोरभाषी, गाली बकने बाला । एसपाद्वर तत्‌० (पु० ) टेढ़े अछर, व्यज्ञ चचन, ताचाजमी, कृवचन, कट्टक्ति, निष्ठुर बचन | पएरुषेक्ति तत्‌० ( स्वी० ) [परुष न- उक्ति] रठोस्वाक्य, नीरस दचन, गालीगलौज | परे दे० ( झ० ) अनन्तर, पश्चात्‌; शेप में, अन्त में, दूर, वधर, पल्लछी शोर, उस पार ! परेखा छे० ( प० ) पश्चाचाप, अजुताप, पछतावा | परेत दत्‌० ( वि० ) खत, मरे हुए सलुष्पें को श्राद्ध च होने तक परेत कहते हैं, पिशाच, प्रेत । ( छु० ) येरचि किशेष, भूत, भेत, पिशाद |--राद्‌ ( ० ) प्रेतराज, यमराज, धमेराज | परेतना दे? ( क्रि० ) अटेरना, सूत जपेटना, चरखी में सूतं छूपेटना, सूत की फटी वनाचा । परेंता दे० ( छ० ) अरटेरच, चर्खा, रद्देटा । परेचा तद्‌* ( छु० ) पाराबत, कपेात, क्षबतर; म्रतिपद तिथि, पन्च की पहल्वी त्तिथि। परेश तद० ( छु० ) पिर + ईश] परसेध्वर, परमात्मा । परेशान बैं० ( घि० ) घंत्रढ़ाया हुआ, ब्याक्रल | परेद् दे० ( 8० ) कड़ी, जूरू, ससा । परीक्ञ दघ्‌० ( वि० ) भूत काल, जे सामने न दो, जे देखा व गया, हो अज्ञात दो । परेपक्षार तत्‌० (घु० ) [ पर+ उपकार | पराया द्वित, अन्यहित, दूसरे की भलाई । परीपक्वारी तद्‌० ( वि० ) दूसरे का हितकारी, पर- हितकर्त्ता, अन्य शुभ चिल्तक, दूसरे की मकाई चाहने और फरने चाछा । [सम्मति। * परेपदेश उव्‌० ( छु०) दूसरे के द्विंत की बात कहना, परोस दें ( घु० ) समीप, निकट, पड़ोस | घरोखना दे० ( क्रि० ) परसला, भोजन की खामग्री पहल था थाली में रखना। परोसा दे० ( छ० ) भोजन के लिय्रे सज्जित सामग्री, सजाया हुआ थाल । ( हर ) प्‌र्ण परोस्ी दे० (यु०) अपने घर के पास के घर में रदने घाला। परोसैद्ा दे० ( घु०) परोलने वाला, परिवेषक, भोजन देने वात्मा, परसुया । परोदन दे० (७० ) सवारी, रथ, बहली, ग्रादी परीहा दे० ( छु० ) चरस, मेट, घुरवट, पुर, चमड़े का बना थैला, जिससे ऊल विकालते हैं । पर्कठी त० ( स्री० ) बुक्त विशेष, पाकड़ का वृद्ध यह चुक्ष बनस्पतियों में है। उस बुद्ध को वनस्पति कहते हैं जिसमें बिना फूल उगे दी फल फज्लें। एस दे० ( खी० ) परख, जॉच, परीक्षा, अचुभव, विन्हान । ( कराना । एरचॉवा दे० ( क्रि० ) भेंट करवाना, मिल्लाना, परिचय एचूनिया दे० ( ४० ) शादे बाला, आदा दाल आदि वेचने वाला, सोदी । [ परचून वेचने का छाम । पर्चनी दे० ( ल्ी० ) आटे का ज्यापार, सोदीखाना, पत्ुंदी दें० ( स्त्री०) परछुती, छाँद्र का आन्त भाग, छोटा छुप्पर । पह्का दे० (पु०) ब्छुबा, सकुब्रा, सूझा, जल्ला हुआ घान। पह्ाई दे० € स्त्री० ) अतिबिस्व, छाया, परढाँई । पर्ज दें० (स्त्री०) ढोलक के बजाने का हथकड़ा, डोलक का एक बोल) पर्सक ( ७०) पत्र, पलंग । एर्डनी ( रुत्री० ) दारूहददी । पएर्जन्च तत्‌० ( छु० ) इन्द्र, शब्दकारी भेष, मेघ का शब्द, वारिद, बादल ।-- ( झुब्री०) दारहरुदी । पर्ण तव्‌० ( छु० ) पन्न, दल, पत्ता, पत्ती, पता, पान, पलक ।--कार (छ०) बरई, तस्वोली +--कपुर ( छु० ) पावकपूर ।--छुठी (छ्त्री० ) पत्तों से बनी झोपड़ी, पर्ण नि्मित्र छुटी, ठूण आदि की चनी झोपड़ी ।--छुझ ( पु०) बत विशेष, जिससे ३ दिन डाक, गूलर, कप्ततल और बेल के पत्तों का छाथ लिया जाता है |--झल्‍छू (छु०) प्स विशेष जिसमें प्रथम दिन ढाक के, दूसरे दिन गूलर के, तीसरे दिन कमल के और चौथे दिन बेल के पत्तों का क्वाथ पीकर पाँचन दित कुश का जल पिया करते हैं ।--खरण्ड (छु०) वनस्पति जिसमें फूल न लगते हों ।--जोरक (पु०) गन्धद्रज्य विशेप नर ( छ० ) ढाक के पत्तों का बना छुतला जो फिसी शा० पों०--६४ पर्णक दर मरे हुए व्यक्ति का दाद करमे करने को उसझो इ्डियों के न मिलने पर बना कर जलाया जाता है । | नजोजन (छु६) बह न्यक्ति जो केवल पत्ते | खाकर रहे, बकरी मणि (स्प्री० ) पता, | अश्ल विशेष (-माचल (पु०) कमरस का चुत । *“मसग (६० ) पृछों पर रहने वाले बानर आदि , जीव जन्त ।य (8०) अपुर'का नामजो | इन्द्र द्रात सारा गया ।--राह (घु० ) पसन्‍्त ऋतु ।--लता ( स्तो० ) पान की बेल ।-बल्क ( पु० ) ऋषि चिशेष ।--वझली (ख्ी०) पलाशे नाप्त को लवा ।--शवर (४० ) देश विशेष । “शाला ( खी० ) मुतियों का पत्र रचित गूद, पत्र गृह ।+--शोलाम्न (७० ). भाद्वाश्व वर्ष के एक पहाद का नाम ।--सि (छु०) फल, पादी में बना हुआ घर, साथर । [ नाम । परणंक (9० ) पार्खिझ्मोत्र के अ्रव्तक ऋषि पा पणास (१०) तलसी। पर्शिक (०) पत्ते बेचने वाह 0. [की चरणी। पर्णिका ( श्री० ) सानऋतद, शालपर्णो, अग्नि सयने पर्िनी (स्रौ०) सपवन।._[ (६०) सुगख चाला। पर्णों तद० (३० ) श्ृद्य, शुम, तर, रूस, पेद +--र पते (०) वह, परत । ददंदी (छो०) घोदी पर्दा दे५ ( पु० ) यवनिका, पढ़ा पदुदा दे (० ) बाबा का भाप, प्रपितामह, बूढ- हि पितामह, पिता का दादा। [ विशेष, पापद़। पद दव॑» ( वि० ) बृच्चरिगेष, पित्तपापड़ा, ओपधि चर्षठी तव७ (स्रो०) झुलतानी मद्दी, एक सुगन्थित ५ जवां का भाग, पड़ी, पपरी, छुजुंरी पतली रोटी । परयड्ं, पवेक सब (8० ) खाद, सटवा, पलरा, पलग, भेज, शब्पा |-वन्धन ( पु० ) आसन । मिशेष, योगासन का भेद, यह आसन यस्ध से हु पीढ जानु और जधा वो बाँधने से बता है। पयदन तव० (३०) वारबार यमन, घूमना, भ्रमण । परयंद्॒योग दव्‌० (६० ) सिज्ञासा, अन्न, किसी अज्ञात दिपय को जानने के लिये शरन । पर्यन्त ढत्‌० ( चु० ) शेप सीमा, अन्दसीमा, तक) | दस (३० ) सीमान्त, देश, फिसो देश के ( *र४ ) पर्ब॑तारि अ्रन्त का देश |--मू ( खोौ० ) भदी नगर परे आदि के समीप छी म्रमि, परिसर भूमि | पयंबसान तव्‌० ( प० ) चरम, अन्त, समाप्ति, शेष, परिमाण $ पर्याप्त तव्‌० (०) [ परि +आपू + क्त ] ये, काशी, आदवस्यकृता के अनुसार, ज़रूरत के मुतारिक्, उतना जिनने से काम चल जाय । पर्याय तद्‌० ( घु० ) पाला, कम, भ्रामुपूर्दी, परिवर्तन, प्रसार, असर, निर्माण, द्वव्यघर्म सम्यन्थ विशेष सम्पर्क विशेष, डोल, भ्रोसरा, बारी ।--घावक (पु०) एकार्थ बायक, एकार्थ बोधक।“-शंयने (४०) स्रिपाहियों का पर्याय से सोना, पहरे बातो बा पारी से सोना । पर्यालोचना तव० (स्रो० ) ध्यान से देखना, विशेष रूप से अवलोकन, विचार पूर्वक देपना। दयुत्तुक तद० ( वि० ) [ परि +अस्सुझ ] शोफार्त, उद्विग्न चित, च्याउल् । पर्युषित तब्‌० ( वि७ ) [परिं + वश + क्त] पहिले दिग की बनाई वस्तु, वासी | [ सिरे वा, पहा। पतली दे० ( बि० ) उस पार का, उस पिरे का, एरले पर्गन ततु० ( छु० ) दोष्ति, प्रख्ताय, लक्षयास्तर, अमा- वस्या भर अ्तिपद्‌ की सन्पि, विषम सक्रान्दि आदि, ग्न्थविच्चेद, अन्ध या भाग विशेष, अध्याय, छणिक काल, स्पत्पराल, उत्तव, दयोहार । पचेणी ठद्‌० ( स्री० ) द्ोद्दार, उत्पर। पर्सत तदू० ( ३० ) झेल, गिरि, नग, पहाह, देंगे विशेष ये देव मारद के घड़े मित्र और उनके सहयोगी थे ।--ज् ( पु० ) पर्व जाते, प्चेत से डरपत ।--नन्दिनी ( श्ली० ) पावंती। “-राज ( घु० ) हिमालय पर्दत । परबंदारि सत्‌ु० (एु०) इन्द, शक्क, सुरपति, वश्रपायि। सुनते हैं. हि पढले, इन पर्वतों के पर थे, इसी से थे भी अन्यान्य पह्तियों करे समान उद्ा परते मे फमी कमी ये उड़फर नगरों पर बैठ छाथा फरवे थे, इनके बैठने से तगरों फी कया दशा होती थी चह कहने वी आवरयस्वा नहीं है, यह पर इन्द्र फो सभा में पहुँची, इन्द्र ने इसहा प्रकार पर्वेतिया करने के लिये पव॑तों के पक्ष काट डाले तमी से इन्द्र को पर्दतारि कहते हैं । [ पहाड़ी । पर्वतिया दे” ( छु० ) लौकी, लौआ, कद्दू । (चि०) पर्बंतीय तत्‌० ( बिं० ) पर्दतजञात, पर्व्रत से उत्पन्न परबेतवासी, पर्वत सम्बन्धी | | पर्चाल दे० ( घु० ) अश्चनहारी, काजल वाली । पल तत० ( पु० ) आामिप, कर्ष चतुष्टय, चार सोला, साठ विपलकाल, अत्यल्प काल, थोढ़ा समय, घड़ी का साथ्वाँ औँश, निमेष, तुग, घास, खर (-- कर्ण ( छु० ) धूपचड़ी के शक्कु को उस सम्रय ! की परछाई की लम्बाई जब सेप संक्रान्ति के मध्यान काल में सूर्य वियुवत्त रे्ा पर होता है। +-द्रिया (वि० ) अत्यन्त दर, वड़ए दानी | | “-भर में ( दा० ) उसी क्षण, तुरन्त, शीघ्र, | बहुत शीघ्र +--मसारते ( ११०) पल भर में, शीक्ष, अल्वन्त शीघ्र ! [ सिरा, नोक । पलई (स्त्री० ) बृक्त की कोमल ढाल्ली या टहनी, पलक दे० ( छु० ) निसेष, पल, पपनी |--पोठा ( छ० ) आँख का रोग विशेष जिसमें वरनियाँ। आऋद जाती हैं और नेत्र वशावर ऋपका करते हैं । पत्चका (3० 9 पलंग, पर्यक्ष । । पलक्यआ ( छ० 9 पालक का शाक । पलंग बे० ( घु० ) पर्वेक्ष, खाद, खटिया, शय्य्रा। >+ड़ी दे० ( ख्री० ) छोथ पलंग, खोला । पलदन दे० ( खत्री० ) सेचा, येदद्वा, सिपाहियों का इस, एक पलटन में हजार सिपाही रहते हैं । पलडना दे० (क्रि०) बदलना, फेर वद्ल करना, लौटना, मुकरना, सुड़ना । पल्लठा बे० ( छ० ) परिचर्तन, परिवते, बदला, अदला बदला, प्रत्तिकार,मतिफल, किये छा फल ।--खाना' ( बा० ) फिरना, उलतटना (--जझ्लेना (वा०) लौटा लेना, चदुला लेना, बैर शोघ करना, बेर [ खुकाना । पलद्ाना दे० ( क्रि० ) चदलाना, फिराना, लौदाचा । पत्मद्धाच दे" ( एु० ) फिराब, लौदाव । पललड़ा ढें० ( घु० ) पश्चा, तराजू का पन्ञा। पलया दे० ( छ० ) ज्ञोट पोड मारना ( चा० 9 लोटना पोदना । | | । (६ अर ) पी पलथी दे० ( स्त्री० ) आसन विशेष, स्वस्तिक आसन, . बाएँ पैर की दहिने जंघे पर और दहिने पैर को बाएँ जघे से सिल्या कर बैठना, मजुष्पों की एक अकार की बैठक । [ पाना, पनएना । पलना दे० ( क्रि० ) अति पालित होना, बढ़ना, बुद्धि पएलल दत्‌० ( घु० ) मांस, आमिप, खली जो पशुओं को खिलाते हैं । पलत्रल दे० ( घु० ) परवक्त, परोरा। [ रक्षा करना । पलचाना दे० (क्रि० ) पोसवाना, पालन कराना, एलवार दें> ( छु० ) नाव विशेष, बड़ी नाव । पलचारी दे० ( घु० ) नव का चलाने वाला, केघट, सल्लाह, माँक्ती, खेबट । पला दे० (७० ) बढ उसचा, कर्डा, डव्यू , परी, लेख थी आदि निकालने की कलडी विशेष । पतलायणड तत्‌» ( घु० ) प्याज) पलान वे० ( घु० ) घोढ़े की जीम । पलतना दे० ( क्रि० ) भागना, भय से एक स्थान छोड कर दूसरे स्थान को जाता, छात्रा, छा जाना, । पलानी दे० € स्त्री० ) चजनी, छोब, ठुए निर्मित । | पल्लाब्ा दे० ( क्रि० ) जीन बाँधना, घोड़े पर जीन कसना । | पलाचक ( छ० ) भगोड़ा | पलायन सत्‌० ( छु० ) भय के कारण दूसरे स्थान में ज्ञाना, अस्थान, भागना, रूपोश होना । पलायमान तव्‌5 (9०) भयोढ़ा, भग्यू , भगनोथत | पफ्लायित तत्‌० ( बि० ) भागा छुआ । पलाल दे० ( ४० ) पयाल, घुवाल । पलाव दें० ( छ० ) पल्ानी, चावनी ! पत्लाश तत्‌० ( घु० ) छूक्ष विशेष, किशुक चुक्त, टेसू का पेड़, डाक फा बुत, हरा रंग, मगध देश, राजस, पत्र, पत्ता, पच्ची |-पापड़ा (घ॒०) एलाश का दीज | ह पघलाम दे० ( ४० ) पालने का फाम, रक्षा करना | पल्चित तव० (वि०) किसी कारण्य से केशों का पक जाना, याल्यों का सफेद हो जाना, साप) कर्दंम, जूद्ध, शिथिल | पली दे० ( लो० ) परी, पुक अकार का चम्मच, घी, तेब आदि निकाजने की कट्ठी । पल्नीव 5 दे० ( पु० ) भूत, प्रेत, पिशाच, ये।नि विशेष, सूत येनि | ( वि० ) मैला इुचैज्ञा ! पत्नीता दे० (पु० ) दोष की रंश्क में भाग छुल्पने दी बच्ची, कपड़े की मोदी दत्ती | पह्ुवा दे० ( 4० ) पाबित, पला हुब्ला, पोसा हुचा, पाला पोसा। पत्लेथन दे० ( पु० ) सूखा भाटा, मिपक्े सहारे रोटी बेली जाती है ।-- निकाजना ( बा० ) पीदना, पीट छर बेदम कर देना । पलेव दे० ( ए० ) परेद्, कढ़ी, जूस । पलोडत दे० (छ्लि० ) चरण सेवा करता है, घीरे धीरे पाँव दुवाहा है । पिदलौंडा । पलेाठ। दे० ( वि० ) प्रथम पुत्र, प्रथम वस्पस्त पुत्र पल्ल तत्‌० ( पु० ) धान रखने का स्थान, गोक्षा, बाजार [| पदलव तद्‌* ( ६० ) नये पत्तों सद्दित शाखा क्वा झप्र- भाग, पत्र, शाक्षा, अंकुर, नवीन पत्तो का गुच्छा, किशय, विटप |--क (प०) मछली विशेष ]-- ग्राहि पाणिडत्थ (घा० ) जिप्त विद्या का फट न देखा जाय, विष्फत दिद्या, व्यर्थ श्रनाप शद्दाप बकना | पल्लवास्म ( पु ) कामदेव । पल्लवित तत्‌० (वि) पछवयुक्त, सपछव, पिग्तृत, वहुद्नीक्न, नवीन पत्रयुक्त, किणलान्वित | पदलवी (० ) परेड ) ( वि० ) पढ्णवयुच्त पदेज़ा दे० ( पु० ) अन्तर, व्यवधान, दूरी, सहायता, कपदे का छोर, भाँवर तीन सन का बोरझा, ( बि० ) दूसरा, दस झोर का, ( पका गाँव ) । ऋआादार ( १० ) मजूर, दोक ढोने वाला | प्ठी प्‌ ( छी० ) चोदा ग्राव, गेंबई, ज्ञाजम, शत- रैंजी । ( वि+ ) उस थोर की, उस पदल्ञीपार | पदलू दे" (घु० 3) वच्च का एट, कपड़े का दोरा “दार ( ु० ) जरी के काम वाज्या कपड़ा, जरी दर कपड़ा | विस (१०) कहछु था । पद्वल्न तत्‌३ ( चु* )चपप घलाशय, बापी, सदाग [-- परढ्दिगढा दे" ( घुर ) पनहदा, पानी भरे घटटे रखने सा स्थान | पंव (घन ) गोबर, वायु, मोस्तान, दरसाना [ ( #१६ ) पविन्ना पचई ( स्टी० ) पछ्ी विशेष । पचन ततद्‌* ( ३० ) वायु हवा; बतास, बायु कोण का स्वामी, देवता विशेष ॥-- कुमार (पु०) इचुमाव) भीस |--तनय ( यु ) हछुमान, भीम |-- चक्र ( पु० ) दवंइर, चक्तत्रात, चहार खाती हुई जोर की दवा [--ससा (पु०) श्रप्मि, आग |-- रेखा ( ख्री० ) यदुवशी इग्रसेव की स्ली का नाम, कस इन्हीं का बेटा था।--खुत (5०) पवन दा पुत्र, इनुमान, भीम | पचनायन तत्‌० ( घु० ) झंगेस़ा, खिडकी। पचनाल् (छु०) पुनेरा दाम का घान्य | [का नाम । पवनावर्त्ती ठत्‌« ( स्ती० ) मद्र्षिं कश्यए की एक छी पचनाश या पत्रनाशी या पचनाशन चत्‌० (पु०) वायु भचक, यायु का आदर करने बाला, सपे सपि। पवनी (स्त्री० ) गाँव में रहने वाली वह माऊ बारी आदि प्रगा जिसे गयि के इच्च जाति वादों पे नियमित रुप हे कुछ मिलता है [ एवमान (घु० ) पदत, ग्राहपत्मामरि "दमा का एुकू नाम । पयर्म ( पु० ) ब्णेमाछा का पाँचवां दंगे । पवाई दे० ( ध्थ्री० ) घोड़े के पैर की सॉकर, पैकड़ी, पकढ़ा, एक जूता, पुर पैछा । पवाज्ञ दे ( ० ) गेंकह॒पा, प्रामीय, गेंबार, नीच, चधघम | पचाना ( क्वि० ) फिल्लाना । चविल्न कर | पत्रारि दे ( क्रि० ) ठार फर, फेर कर, बठछाढू कर, पवाँर दें० ( ० ) जाति विशेष, घत्रियो की एक जाति, उत्रिय जाति की एक शाखा, परमार । पर्वारना दे० ( क्लि० ) फेंम्रगा, डाठना, पढ़ाना | पवि ठव्‌« (चु०) बच्च, इन्द्र का अस्प पिशेष, छुलिश | +पात (घु० ) बच्च पड़ना, विज्न्ली गिरना | पव्रिच्न तद० ( दि० ) शुद्, रूच्छ, पाप रद्दित, साफ, विमल्‍, निर्मेल, पाक, दोष रद्ित, निद्देशेष, निष्क छछू ।--ता (स्त्री ) शुद्धता, स्वच्छता, निध्क- लट्ट॒ग, निददेषिता, जिममेक्नत्ता, विमटता ! पविष्ना तद॒० (स्धी०) कुश के घने छफ्ले विरोष धो हायों की अंगुज्ञियो में धाद काण्ादि में घारण किये जाते हैं, विशेष च्ाइ्मार की दनी सोते की पवित्नी अँगूठी, एक अकार की रेशम की भाला जो पचित्रा शुकादुशी के सगवान को समर्पित की जाती है । पविन्नी तद्‌" ( ख्ली० ) कुश सुद्धिका, पेती, यद कुशा की बनाई जाती है, केवल सुबर्ण अथवा अध्चातु से भी यद्द बनती है । पूजा, तर्पण आदि सें हसस्हे धारण करने छी विधि है । पशम दे० ( छु० ) ऊण, लोम; ऊव । पशप्री दे० ( वि* ) ऊन छी बनी, मुछायम ऊन के बने पश्मीना, छुशाले शादि | पशुप्तीना (घु०) पशुम का बना कपड़ा। पश्चु तत्‌० (पु० ) जन्द विशेष, सोंग पूछ वादा, आखशी, चतुष्याद, प्राशिवात्र, साचर्को के लिसाव में का पुश्ठ सात ।>ता (ख्रीः ) प्शुभाव, मूर्बता [--तुझुद ( लि० ) पछ्ठ सदश, निर्षेष्ि, अबूऊ, मु, मूढ़ ।+-- पति (४०) शिव, मदादेव, ब्रिकोचन +--पाल्न ( छ० ) पशुपारूनकर्सा, पशु- रत्तक् /--साज्ञ ( छ० ) सिंह, झगेन्द, शेर । पश्चात्‌ तत्‌० (य०) पीछे, पश्चिम दिक, असन्‍्तर, बाद ( पश्चञात्ताप तब॒० (घु०) कर्मान्तर सनन्‍्ताप, पश्चात्‌ शोक, गदुशोचन, पछुतावा । पश्चाहर्सी बत्‌० (वि० ) अजुर्ती, पश्चाद्‌वामी, पश्चाच्‌ अवस्थित, पीछे चलने बाला, स्वप्ततस्थित । पश्चार्थ बव्‌० ( वि० ) शेप, अपरादे, शरीर का झपर भाग | प्निम तव्‌० ( छु० ) परिचप्त दिशा, पर्चाद । प्श्यतादर त4० ( छ० ) चौर, चोर, जो देखते देलते चुरा जे, उठाईगीर, सुनतार । पश्यामि तल" ( क्रि० ) मैं देखता हूँ । पश्थायार तव्‌० ( घु० ) आचार विशेष, वाम्ममार्गियों की क्रिया घिशेष | पिच । पथवाय वै* (घ०) पुछ पक्ष, पास भर, पन्द्रद दिन, पषात (9०) पत्थर, पापाण | पसरना दे० ( क्रि० ) फैला, विस्तृत होना, अधिक दूर बक ज्याप्त दोना; खेद जाना, पड़े जाना । पसराव दे० (० ) फैक्षाव । पसकी दे? ( खी० ) पॉजिर की 5ड्डी, पहुर | पसा दे० ( ग॒० ) सही भर, दे! सुट्ठी भर । पसाई दे? ( ख्वी३ ) चावल विशेष | ( #१७ ) पहरे से डालना पसाना दे० (क्रि०) रँंघे हुए ावढों का मांड़ निश्चलवा | पसतार तच्‌० (०) प्रसार, फैलाब,बिस्तृत्ति,प्यापकता | पखारवा दे ( क्रि० ) फेडाना, सूखने झे लिये धूप में फैलाना, विछाना | पखारा दे० ( छ० ) विस्तार, फेलाव | पसारी दे० ( ए० ) पनूसारी, याँघी । पसीजना दे” (क्रि० ) पानी छुटना, मश्स होना, पसीने का मिकलना, दयाछु होना, दयाद्ँ होना ! पसीना दे० ( 9० ) प्रस्वेद, स्वेद, पश्तेव । पसीच दे० ( छु० ) पसीना, मस्‍्वेद, स्वेद । पद्ुज़ दे० ( स्री० ) सींवन, सुपंव, । पर्स जना दे? ( क्रि० ) तुपैना, सीया, डोरा डालना । पसेव दे० ( एु० ) किसी किसी छकद़ी का जलाने पर उसके किसी अनजले भाग से बदवदार पीछा पाती स्रा जो निकलने लगता है उसे पल्लेव कहते हैं, पसीना । पदताना दे" ( क्रि० ) पदछुताना, पछूताथा करता, पश्चाचाप करचा,अचुताप करना,अद्युशोचय करना । पह दे० (स््री० ) तड़का, भोर, सबेरा, सिनसार | --पफदया ( क्रि० ) भात्त;काल होता, सब्रेरा होना, सूर्योदय होना । [झलाकात, चिल्दार । पहचान दे० ( स्थी० ) परिचय, किन्दारी, जानकारी, पहचानना दे० ( #० ) ज्ञाबमा, चीन्हना | पहचना दे० ( क्रि० ) पदिरवा, परिधान फरया , कपड़ा पदनन7, वच्चध घारय करना । पहनचाच (8० ) पोशाक, पहिराव ] पहनाया दे० ( पु० ) पह्दिदाद, कपड़े पहिगमे क्षा ४ंग, बढ़ाका / पहनावा उढ़ादा ?। पद्दर तदु० [98० ) फाल विशेष, प्रहर, समय का परिमाण, दिस का चतुर्थांश, पएुक भर भरायः चीन चण्दे का होता है । पद दे० ( छ० ) चौक्की, सता । [घारण कराना । पहराना दे” ( क्रि० ) पहलाना, पद्चिराता, कपड़े पहरा देना दे ० ( बा० ) चौकी देना, रक्वात्ती फरणा । पहिराता ( क्रि० ) पहरावा । पहरे में डालना दे* (चा« ) रचा में रखना, हवालात में देना, पहुरुए के। सौंपना | पदरे में पड़ना ( श्शष ) पाँचाल ड न्‍फफस न कॉॉड:::ीओीओीी चीन ने सी न न नतननीन२नण-णनीी--त-333-ननननम--यिथन--3..€लल्‍_.<333---»०-«ज«»-न»ण-+- पहरे में पड़ना दे० (वा ) हवालात में रखना, किसी आरराध के विचाराये दवाज्ात में रखा जाना। पदरावना, पदराउन दे० ( ६०) बख्रविशेष नो प्रत्येऊ बराती के। विदा के समय कन्या फे पित्ता की ओर से पद्माया ज्ञादा था दिया जाता है । पदशउनों दे० ( खौ० ) चक्त, बसन, काड़े का जोड़, ज्ञो विवाद भादि डस्सव के समपर दिया जाता है | पदरिया पहसुझा दे० (पु०) पढदरा देने बाद्धा, चौही करने वाला, चौकीदार । पह्दरु दे० ( पु ) प्रदरी, पदरा देने दाल, पहरुआा | पदक्ष दे" ( ख्री० ) प्रात, माय एक ओर का, रेत की भुज्ञा | [ इनी हुई दरी रुई । पहला दे० (गुण) प्रथम, पाद्य, प्रारम्म छा।( पु० ) पद्दाड़ दे* ( पृ० ) पर्वत, शैन्न, गिरि। -सी राते ( या० ) बड़ी रात, दीधे रजनी, कष्ट की शात्रि, फ्लेश की रात । श्छ्टी की सूची । पहाड़ दै० (६५) जोढ़दी, गुणन, सह एन शु्े जुदप्ये पहाड्लिया दे० ( वि ) पर्वेतवासी, पहाड़ का रहने चाढा, पर्वती |--(ख्रीौ०) छोटा पहाड़, पदाड़ी । पहाड़ी दे* ( खौ०) छे।टा, पद्दाढ, टीला, टेढरी, पहाड़ पह रहने बाला ) पद्ियान दे० ( छी+ ) जान पद्विचान चिम्दार | पद्दिनना दे० (क्रिः ) पहनना, चारण करना । पद्दिया ३० (९०) चकर/थ वक गादी का चक्छा पद्दिया । पदिरिना दे० ( क्रि० ) पहनना, घारण काना । पदिरावन दे० ( एु० ) दच्च, घसन, पहयावत [ पदिला दे* ( थि० ) प्राथमिक, प्रारम्प्रिक, पदले का, आगे का, भअगटा। पहिले दे* € भ० ) धागे, अधम, घादि । पदिलोंडा दे* (पु० ) प्रथम पुत्र, ज्येष्ठ पुद्र । पहुंच दे* ( प्रोौ५ ) आगमन, शक्ति, स्ाप्रप्ये, पैधार, < “गण, पैड, प्रत्ि सूचक पत्र, रपीद पहुंचना दे ( कि ) प्राप्त द्वोना, पहुँच जाना, चढा 2 माना, बढ जाना; पूगना पास आना ॥ पहुँचा दे+ ( पु) मधिवन्ध कलाई | पहु चाना दे० (करि.) प्राप्त कहना, भि जाता, पूगाना | पहुंचो दे० (स्वी०) रूटाई में धारण करने का जवाना आमूषण विशेष | पहुड़ना दे० ( क्रि० ) हेटना, सेना, शयन करना, पौढ़ाना पहुड़ाना दे? ( क्रि० ) लेटाना, सु लाना, शयन करना, पौड़ाना । .[ आरिष्य, अतिथि स्कार, दुवद पहुनई था पहुनाई दे* ( ख्ी० ) मेदमानी, भादर, पदुप तदु ० (9०) पुष्प, कुछुम, फूछ ! [एक रह । दहेना देन ( छु० ) बतात की विदाई के दिन की पदेली दे० (स्रो०) प्रदेबिका, गृह प्रश्न, यह काप्य का एक गुद है | इसमें एक सामान्य प्र्थ प्रकाशित किया नाता है, परन्तु असली अ्रधे छिपा रहता है, इस ग्रघ्ार जदाँ पृ वाक्य से दे। भरे प्रकाशित किये जाते ईं उसे पद्ठेखिधा या पेशी ऋद्दते हैं । [भरे घड़े रखे जायें। पम्डेड़। दे० ( पृ० ) चढ़ स्थान जहाँ पीन के वानी के पन्‍्देड़ो दे० (दी० ) बद छोथ स्थाद जहां पानी से मरे घट्टे रखे जायें । पा दे? ( पु० ) पाँव, पैर, पद, चेरण ! पाँई ( ु० ) पैर, पॉव ।--ता ( पु० ) पॉयता, पठेंग का वह भाग जिस ओर पैर रहे | पाँक़ दे० ( घु० ) छीचढ़, पडू, कदम, दलदे व । पाँव, पाँखड़ा ( घु९ ) एंसा, पर । पाँखड़ी ( खी० ) पश्चरी। पाँघरी ( स्री० ) पन्चढा | [गिरती है पाँसी ( ख्ी५ ) पहंगे, पशदार कीड़ी मे। दीपक पर पाँग ( छु० ) घह नई जमीन जे। किसी नदी का बढ घद जाने पर निरुडे, कछुर, सादर; गक्नवरार | पाँगक्ष ( घु० ) ऊँद | [ जाता है । पौँमा दे० ( घु० ) दुष्ठप्रद्ार का घूत, भो बनाया पाँच हे ( वि* ) पद्म, पंत्या विशेष, र -साव (चा० ) सूमट, इब्छन, व्याकुछता, इद्धिप्ता, ब्ड्वेग! «.. किये बजित हैं । पाँचक ( पु०) धनिश्ठ आदि पाँच नहत जिसमें अनेर पाँचजन्य ( घ० ) श्रीह्षण का शब्ब । पॉचमोौतिक ( घु० पॉच तस्पो से भता हुआ शरीर। पाँचर ( खो० ) लफ्ड्टी के छोटे डुक्डे पाँचाजिका ( स्ती० ) कपड़े की दनी य्रड़िया । पंचाल (४० ) चढ़ईं, नाई, जुलाई, घोदी घर चमार इन पाँचों का समुदाय, भारत के पश्चिमोत्तर पांचवां का प्रान्स घिशेष ।-- ( ख्री० ) शुड़िया, क्‍ रचना-प्रणाली विशेष, ह्ौपदी, स्वर साधन की रीति विशेष । पाडवचों दे (गु०) पद्चम,र्पाचि के पूर्ण रूसनेच'ल्ली संख्या | पॉजर दे० (पृ०) पसली, पाश्वे.पक्षर,्णजर की हड्डी । पाक ( वि० ) नदी के जलन का कम होकर लोयों के आने जाने का सार्य हो जाता । पौडच ( घु० ) महाभारत के नायक चुघिप्ठिर, भीस, अजुन, नकुल, सहदेव। सफेद हाथी, सफेद्‌ रंग । पाँडे दें० ( पु० ) पाठक, अध्यापक, घराह्मए, ब्राह्मणों की पुर उपाधि, पढ़ाने घाल्ा | पाँत ( स्त्री० ) श्रेणी, कृतार, अचली ) पाँती, पलों दे० (स्त्री०) भ्रेण्ी, कतार, पंक्ति, अवलि, मिथाई का परोख! जे। लड्ही के विवाह में शरा- तियें के घरों में प्रत्येक ब्यक्ति के द्िसाय घे खाटा जाता है | पाँतर दे० ( पु० ) उनाड़, निज्जत स्थान, घीरान । पपिश दे० ( धु० ) पविड़ा, पायंद्राज । पाँयती दे० (घु० ) पैदाबा, पैर की ओर, पैर छी ओर खा विछ्ौता | [ओर बना हुश्षा छोटा बाय । पीयाग (घु० ) सजप्रसाद के झास पास या चारों पाँच दे" ( पु० ) पैर, चरण, पद, गोड़ |--उठाबा (वा० ) शीघ्र शीघ्र चलना, वेग से चढना। “+-उतरना ( बा० ) पवि का हूंट जाना, पाँव का फूछता ।+--काँपना (बा०) डस्वा, किसी काम के |: करते सप्त सालूम देना ।--झिसी का उसाड़ना ( वा० ) किसी स्थाव पर ठह्रने चहीं देना, किसी के! अममे नहीं देवा ।+क्रिसी के गक्ते में डालना ( बा० ) ठ्क के द्वारा उसी की बातों से बसे दोपी ठब्राना +-चल जाना (चा० ) उगसगावा, अश्यिर होवा +--झम्ाना ( वा० ) इढ़ होना, इढतापूर्वक ठइराना ।--जमोन पर से ठ5दृरसा (वा० ) घस्यन्त प्रसन्न दया, अतिशय इसे से फूछ जाना, अमिमान करना, अहछ्ूूपर काना ।---छाखना (चा०) किसी काम को प्रारम्भ करना, किसी काम के करने के लिये उ््यत होमा |--डिग्रत्ा ( वा० ) फिसछना, रूपगना, किसी काम से मिसाश द्ोना।--तल्ते मलना ६ #९६ ) पाँशुका ( बा० ) पीड़ा देना, दुःख देवा, पीड़ित करना | +तलेाइला ( वा० ) किसी छे काम में बाघा डालना, किसी का हानि पहुँचाना आहूस में बडे रहना, अधिक चलना “-ओ्रो थे। पीना ( वा० ) अधिक आदर करना, अ्रत्यन्त भक्ति करना, अचुनय विनय करना, चिरीरी करमना। “+-विकालना (वा०) सर्यादा छेड़ना, कुछ रीति को डक जाना |-पकड़ता ( व० ) शरण में आना, चिरीौरी करमा, विनती करना --पर पाँव रखना ( चा० ) भनुकरण करना दूसरे के चाल १९ चलना, शीघ्रता कराना । -र्पाँच (बा५) पैदल +--पीठना ( बा० ) श्रधीर होना, घबडा जाना, ब्यथे का परिश्रम करना, नविष्कक्त उद्योग करता |-पूजरा (वा० ) भक्ति करता, अलग रहना, छयक रहना।--फूंक फूक रखना ( बा० ) सावधान होना, सावधानी पे चलना विच्एपूर्वक किसी काम का फरना ।--फैलाकर से।ना ( बा० ) निश्चिन्‍्त रहना, बिना चित्ता के रहना, निडर रहना, निर्भव रद्दना !- फैलाना ( बा० ) अ्पत्ता अधिछार बढ़ाना, पैठ फरावा, पसार करना +->मंर जाना ( वा० ) पक जाना, श्ानत होना (-रशंडूना ( बा० ) निष्दतत कास करना, निरर्थक उद्योय करता, शोक करना, दुःख प्रकाश करना (--छ्तमना ( चा० ) प्रणाम करना, समरकार करता ।-से पाँव घाँधना ( वा० ) सर्चदा किसी के पीछे ऊगा रहना, रक्षा करना; एक सण के लिये भी नहीं छे।्ना [-से पाँव सिड़ाना (वा० ) बराबरी करना, चुल्यता करना | सेना (व ०) पवि छल्प ऐोना, पवि में सिन- सिली इठाना ।-दुबे आना (चा० ) धीरे धीरे आना, शने: शनैः आना | पाँवड़ा दे० ( धु० ) टाट या नारियल कि जा छी बनी चढ़ाई का टुकड़ा जे। पैर पेछुने के लिये ख्योढ़ी पर बिछ्लाया जाता है, पपिश। पाशव उत्त० (पु०) पा मिमझ। पाँशु, पाँछु तत्त० ( पु० ) धूलि, रेश, रेशुका, स्त्री का मासिझ घर्म | पाॉशिका त्त० (स्त्री०) धूल्नि, रज, रेश, रजखला स्त्री । पाँधुल नननननननननननननन तन बनना जिन नानी ननननी जन निनीनीनी ननीनन ननीनननीनिनिनीन-ऊकसभी द तदऊी सीन तदी-ती- ड२3न्‍क्‍क्‍:: ( ४२० ) पाटमदिपी पाँशुक्ष तव्‌० (वि० ) धूलि युक्त, घूलि घुसरित, घूलि | पासर ऐे० ( घु०) घोड़ा और हाथी वी कूल, जो जोहे विशिष्ठ / ( ५० ) शिव, महादेव, खाकी वादा है पांशुल्ा तत्‌० (स्त्री) भ्रष्ट चरित्रा स्त्री कुछुढा,चेश्या | पास दे" ( ३० ) खाद, सार, घूर | पॉसना दे० ( क्वि० ) खाद देना, खाद सडाना | प्राॉछु दे० ( पु० ) पसली, पर की हड्डी, घृलि । पाई दे। ( खो ) पैरा, पैसे छा तीसरा भाग, एक प्रकार की पतली छुदी मित्र पर बाना एपेरा जात्ता है। पाड ( घु० ) परव, पैर। प(क वन (एु०) [ पच्‌ + घा्‌ ] रसोई, डलुक, पेचक, भप्नमीति, पुक दुल्य कक नाम ।--कतो ( बि० ) पाचर, सूपपार, रन्धनकारी, रसोई बनाने घाला, रसोइया ।--त्ञार (५०) जवाखार +--सृद्द (घु०) रन्वनालय, रसाईघर ।--पत्र (३० ) स्थाली, हॉढी [--पठी ( ख्री० ) स्थाली, चूल्दा, आवा; भद्दी, पैजाबा ।+--यज (9० ) चुपोन्‍्सगे, गृह प्रतिष्ठा थ्रादि के लिये हवन ।--शात्वा (खी० ) शन्‍्धचगृह, पाकस्थान, रसोई घर ।--शासन (ए०) इन्द्र, देवराज।--स्थाली ( ख्री० ) दवॉडी, बढुई; पाऊ पान विशेष । पाकड़ था पाकर दे० (६०) दृष्ठ दिशेष, पर्ंटी दृ्ध । पाकना दे० ( क्रि० ) उचलना, सींभना | पाकरी दे० ( स्री० ) पाकडिया वृत्त । पाकर्सेंड्सी दे” ( स्ली० ) गहवा, सदसी, गरस बट- लोइ पक कर उठाने का थ्रौज़ार। पएका ऐे० (घु० ) फोड़ा, घण । पाकी ( वि०) पक्की, रैयार, परिपक । पाकृक दे० ( पु० ) पादऊ, पावकर्ता । पाकपा दे० ( ए० ) समीखार । पांत्तिक तत० ( वि० ) सद्दायक, सद्ायदाता, यज्ञ सें डत्पत होने घाला, पतन्‍्द हवें दिन प्र्सश होने चाला, पखपारे फा । पाख दे० ( ए० ) पक्ष, पखयारा, पन्द्रह दिन, भीति, दीदार ! पाखयढ तव्‌७ (4०) दम्म, कपद, भू्चठा, छूल, नास्ति- कला, लोक में पूता पाने के लिये ढोंग की रचना। पाससयड्टी तर० (वि०) पूरे, छली, कपठी, भास्विका के तारों की बदती है पाखा ढे० ( पु० ) उसारा, एक ओर थी दोवाल । पाश दे० ( स्त्री० ) पगड़ी, पिया पागना दे० ( क्रि० ) रस सें पाना, रस चढ़ागा। पागल दे० ( 5० ) उन्मत्त, विह्तिप्तत सिडी । पागा दे० ( छ० ) घोडों का सझूह । पागुर दे० ( स्त्री० ) चयाई, उगाल, गाल, रोमन्ध, चब्राए हुए को पुन चबाना। पाग़ुराना ढे० ( क्रि० ) हुगाली फरणा, जगलावा अयाना, रोमन्थ करना | पावक दत्‌० € पु० ) सूपकार, रन्धनर्त्ता, पाऊर्ता, रसोइयादार ।--ठा (सत्री०) रसोई बनाना, रीघने का काम, रसोई, अनाने का गुण । एाचिका तव्‌० ( स्री०) रसोई बनाने वाली खरी । भाचोर दत्‌० € पु० ) दीवार, भीव, घारदीयारी । पाक दे* ( पु०) दीका, एक तीएण शर्त से शरीर या दुष्ट रधिर निकलवानां, पम्त खुतवाना । पाछना दे० (त्रि० ) थीया लगाना, गरोदी सोदना । पाले ३० ( अर० ) अनन्तर, पीधे । पाती दे० (दि० ) अधम, दुए, टुराचारी, दुर्वितीत॥ पास्वज्ञन्य तत५ ( ४०) नारायण के शक्ल का नाम्र जो पश्चजन नामक राइस की अस्थि से बना था । दाश्वभोतिक नत्‌० ( छ० ) पश्चमूत द्वारा निर्मित, पश्चमूतमय, पत्चभूतों का विकार पाञ्चाल्न बव्‌ू० (पु०) देश विशेष, पत्चाग्ठ देश, पशाव, ह्ुुपद राजा का देश । पस्चाली त्त्‌5 ( स्त्री०) पायाल देशोरृवा राजकन्या, प्राएडबपढी, याश्सेनी, हौपदी । पाठ दें० ( घु० ) पहुचा, एक प्रकार या सन, चौंढाई, नदी का पाद। पादद्धमि तद७ ( पु ) रेशम का कौड़ा पाइ्यर ( पु० ) चोर, रास्कर । प्राढन दे? ( घु० ) ड्ाता, छूत पद्याना, छोँद छाना। पादना ढे8 ( क्रि० ) छुवाना, छत तनवानां, पर्ण करना, भरना, भर देगा। पादमदिषों नदु७ ( स्त्री०) पदूद सदिपी, सधान रानी। सद्वारानी, पढ़टरानी पांडम्वबर पाट्श्वर उब॒॑० ( घु० ) रेशमी वस्त्र, रेशली कपड़े, पद्ठास्वर । जिधान रानी । पादरानो वद्‌« (स्त्री०) पस्थराज्ञी, पदरानी, महारानी, पाटल उत्‌० ( ५ु० ) पाटल्ली छुष्प, गुलाब का फूल, सामान्य ला रंग, एुलाबो रज्ञ। (गु०) श्वेत और लाल रक्ष का मिश्रण । पाटला तत० ( स्त्री०) दुर्गा, पार्वती, भगवती, पुष्प चुज्ञ घिशेग, लाल लो । प्रांडलिपुन्न दतु० ( छु० ) पदना मगर, विहार गदेस का ग्रधान चगर, भसिद्ध महाराज अशोक की राज- घानी बहीं थी ! प्ाथ्य उ़व० ( पु०) पहुता, बिज्वत्ता, चैपुणय, आरोस्य, पादा दे (छ० ) पटरा, पट्टा, घोची का तख्ता जिस पर दे कपड़े घोछे हैं, पीढा, पीठ, पाठ । पाडिका ( स्री० ) पौधा विशेष, छाल, छिलका, एक दिन की मजूरी [ लेते का एक यहला । पाडिया दे० (घु०) पटिया, ढुस्सी, गले में पहलने का पाठी दे० ( छ्ली० ) खाद की पदिया, पथरी जिस पर | कदके लिखते हैं, बालकों के किखने की पदूठी । चदाई, सीवलूपादी ! पाछीर तत्‌० ( घु० ) चन्दन, सलय, हुस । प्राठ तत्‌०, ( घु० ) अध्ययन, पढन, विद्याभ्यास | “कमर (9०) ऋम से अध्ययन, पढ़ने की रीति, अध्यमन का क्रम ।-शाला ( स्थी० ) अध्ययन गृह, विद्यालय | पाठद्य लव॒० ( थु० ) उपाध्याय, 'भध्यापक्त, पढ़ाने खाल गुरु | [ कराना, विद्या पढ़ाना । प्राउम तत्‌० (9०) पढ़ान्ा, अध्ययन कराता, अभ्यास पाठा दे० ( छु० ) जबान, ढे्ट एृष्ट, मत, घोड़ा; पहलवान | पाठित ( बि० ) पढ़ाया हुआ । पाठी दे० ( छु० ) छुवा बकरी, छागी । पादीम ततत्‌० (छु०) मच्स्य विशेष, मछली का भेद । पाठ्य तत्‌० ( वि०) पाठोपयुक्त, पढने के योग्य । पा दे० ( छ० ) मल, सवान, जो थचरई लोग मकान बनाने के खित्रे बाँधते हैं । पाड़ना दे० ( क्रि० ) ग्रिराना, पछाड़ना, पटकेता । पाड़ा दे? ( पु० ) भैंस का बच्चा, सोहका । < € हश१ ) खिल्यता । पाणिनि पाढ़ा दें० ( घु० ) छग चि९सेप ) पाढ़ी दे० ( खर० ) नदी पार होना । $ फाण दें० (स्थवी०) पोचा, पत्ता, कपड़े की साड़ी, तॉबुल। ॥ पएशि तत्‌० (छु०) हाथ, हस्त, कर ;--ऋहणश ( घु०) च्याह, विवाह, परिणय ।--तक्त ( छु० ) कासल, हस्ततल। गाशिश दत० (छु०) द्वाथ के द्वारा बजाया जाने बाला | शवक् आद वाद, पाणिवाय, हाथ से दजाने जाने वाला बाजा, ढोलक आदि | पाणिनि ठवच्‌० (छु० ) झुनि विशेष, इन्होंने संस्कृत का ज्याकश्ण बनाया था, इनके पिता का नासत देवल और साता का वाम दाक्षी था। माता के मासानुसार इनको भी दाछी पुन्न था दाज्षेम कहते हैं। गान्‍्धार देश के अन्तर्गत रल्तातुर नामक स्थान में इनका जम्स हुआ था इस फारण ये शालातुरीय भो कहे जाते हैं । शब्दशास्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिये पाणिली शिव की आराधना करने लगे, सहेश्वर असच्च हुए, ओर उनकी इष्टसद्धि के लिये उन्होंने वर विये। महेखर के प्रसाद से पाणिनि थे एक व्याकरण बनाता जिसका नास अ्रष्टाध्यायो था पाणिनिदर्शन है। यह श्राठ अध्यायों में विभक्त है । इस कारण इसे अश्ाध्यायी कहते हैं। सोमदेव शचिंत॒ कथासरित्सागर के अलुलार वररुच और ऋात्यागन के ये समकालीन थे। परन्तु यह यात आमाशणिक नहीं मानी जा सकती । क्योंकि यारक- रचित निरुक्त पढ़ने वाले इस बाल को कभी नहीं साच सकते । क्योंकि निरुक्तफार ने अनेक स्थानों में |. सादर पाणिनि का नाम लिया है। चास्क झुमि बहु ही प्राचीन हैं, और पाणिनि उससे भी प्राचीन हैं। ब्याकरण के अतिरिक्त एक काव्य भी पाणिनि का वलाया छुआ है, जिसका सास जाम्बबत्तीजय *.. है। कत्तिपय विद्वान घ्याकरणकर्ता और फाप्यकर्ता को मित्त भिन्न पाणिनि मानते हैं, परन्तु जेसेन्द्र के इस श्लोक से वे अपनी आन्धि समझा सकते हैं । « नमः पाणिवये तस्मे थस्य स्प्रमसादताः । आदोौ व्याकरण काव्यमनुजास्ववतीअयस ॥ ”? डखर पारणिनि को नमस्कार,जिसने रुद्ध ग्खाद से पहले ज्याकरण और सदनन्‍्तर जापघवत्तीजय काव्य बनाया । | ३ रे ड़ खझ० पा०--६६ पाणिनौय पाशिनोय तत्‌० ( पु० ) पणिनि सुनि निर्मित अन्ध । पाणिपाद दन्‌» ( पु० ) हाथ पैर, कर चरण, हाथ और पाँच । पाणिपीड़न ठत« ( छु० ) पाणिप्रहण, विवाह । पाणडर ठत्‌० ( घु० ) झुन्द पुष्प, गैरिक धातु विशेष, ( गु० ) श्वेत धर्ण युक्त । पाणंडव तत्‌० ( 9० ) पाण्डनन्दन, पारडुपुत्र, पाणड राजा के पुत्र, पश्चपाएडव | पादिडित्य तू» ( पु० ) परिदृत का घर्म और फर्म, नैपुण्य, दक्तता, विद्या, परिद्ताई, पिद्वत्य, विद्वत्ता। पाणडु त्द्‌० ( पु० ) शुद्ध और पीत मिश्रित बरण्, रक्त पोत मिश्रित धर्ण । कुरुवशीय पक राजा झा नाम | विचित्रवीय का छेम्रज पुत्र, महर्षि कृष्ण द्वैपायन ब्यास के औरस और विचिश्रवीयं फी विधवा पत्नी अम्वालिका के गर्भ से ब्पपन्न । पाण्दु की दे। ला थीं। कुस्ती श्र माद्री | भोजरुन्या कुन्ती ने पग्ड के स्वपम्वर में वरण दिया चा। इसके प्रमम्तर भीष्मपितामद ने मत्र देश के राजा की धुष्ती माद्दी को पाण्डु से ब्याद दिया। सीष्मविता- मह दी धघृतराष्र, पाण्ड धार बिदुर के शतक थे, सुधिह्ठिर, भीम और अज्ुन इन्ती के धर्म से इस्पन्न हुए थे। माद्दो के गे से नकुछ और सददेव इत्पन्न हुए थे।पाणई के छेग्रन् पुत्र पाण्डव फह्दे जाते हैं | पारह ने शान्तमु की मष्ट कीति का उद्धार किया था, श्नक राजाओं के जीत कर उरदोंने भघि घन एडवित किया था। और इसी घन से पाँच यज्ञ किये थे यश करने के धनन्तर पाण्दु अपनी पत्षियों के साथ बदन में राय्रे | वहाँ उन्होंने काममेदित एड संग का बच किया, उसने शाप दिया कि तुम स्त्री सकू करते ही मर जादे।गे | मरने छे भय से पाण्ड ने स्त्री सह करना ही छेतड दिया। दु्वास्ता ने कुम्ती को जिस मन्त्र का इप्टरेश दिया था, इसी हे छुन्‍्ती ने देदों का आह्वान करझे तीन पुत्र उत्पश्न॒ किये । पाण्डु छे अनुरोध से कुस्ती ने इस मन्त्र का उपदेश मात्री के। भी किया, मारी नेभी अपने दे पुत्र उस्पद्न किये । एक दिन पाणष्डु से कामातें होइर माद्वी छा सह किया, जिससे ( #श्र ) पातित्य उनकी झत्यु डुई, पाण्डु का रत शरीर इस्तिना पुर काया गया था और उश्चछ्य भ्म्विम सरकार दिदुर ने किया। है पाणड्र तव्‌* ( पु० ) शुद्ध पीय मिश्रित वे । प ण्ड्रा तव्‌+ ( स्त्रो० ) मछूतात्त, हुता विशेष, शक प्रोत वर्ण वाली स्त्री, सापपर्णों छता) प*णडटेय तचु० ( ६० ) ब्राह्मणों की पक जात्ति विशेष, अध्यापक, पाठ, पढे] पात तत« (प० ) [पत्‌+घन्र ] पतन, गिरना पड़ना | ( दे ) पुस्तक के पन्‍्ने, ब्रृद्ध भ्रादि थे पत्ते कर्णसूपण, एक प्रकार का गइना | पासक ठतव्‌% ( पु० ) पाप, भर, किल्विंप, दलुष, अशुम, अपराध, दे।प | पातक्री तत्‌5 ( पु० ) एपी, दोपी, अपराधी । पातधापरा ( वि० ) अत्यन्त दरपोंक । पातश्च्॒ल तत्‌० (१० ) शास्त्र विशेष, योग शाप, पत- झलि निर्मित येग दर्शन । पातर दे5 ( स्त्री० ) देश्या, पतुरिया, गणिका, (१०) पता, दुर्येल, निव॑ंल । पातराज्ञ ( पु० ) सपे विशेष | पाठशाद् ( पु० ) बादशाइ ।--ी ( खी०) घादशादी पाता तव्‌० (वि० ) रदिता, रफ्ठ, रक्ण करों, दे ( पु० )प) पत्ता, पत्ती । पांताया (४० ) सोजा, सुखतका। पाताल ततू० ( पु०) ढम्म से चौथा स्थान, स्ववाम पसिद ग्रदा, रखातऊं, नागले।इ, श्रधोमुवन, नरझ, विवर, वहुवानछ, ए४ बन्ध्र विशेष जिमपे ओषधि बनाने हैं । पाताल के सात सेए हैं, यधा-- झतढ, विवन, सुनकर) तलछातक्, मद्रातन्न, निवै्त, रसातक ।--फ तु ( घ॒०) पाताकवासी दैत्य विशेष! “+खग्ड ( प० ) परताललेक “-गयड़ें या मरुद्दी (१०) विरिदटा, छिरेट +-हुसी (स्री० ) लता विशेष ।+--निलय ( ९० ) ईसा सं ।--नृपति (३० ) सीसा ।--मंत्र (५९ ) मंत्र विशेष जिसके द्वारा कड़ी औपधियां पिपरलाई ज्ञाती हैं। पातित्य दद॒र ( वि० ) पातक, पाए, दुराचार। दुष्कृत। - जाति अष्ट होने का कारण पाविधत्य ( 5१२३ ) पाधा व मय पथ लक 2 कल 7 कल 7 3323 7 एातिबत्य तव॒० ( ६० ) पतित्रवा का चर्म, साध्वी छोटा पर्वत [-- (जी०) जूता, खड़ाऊँ ।--फटक धर्म, सतीत्व घ्स | (४० ) बिछुआ |--क्च्छू ( पु० ) धत विशेष, पाती दे० ( ख्री० ) चिट्ठी, पत्नी, पत्र । प्रायश्चित विशेष [--खसड़ ( छु० ) उन, जंगछू | पाच्न तत्‌» ( पु० ) जिसके द्वारा जल आदि पिया | +-पद्धति (स्ती० ) रास्ता, पगडंडी | - ग्रहण जाय, आधार, सानन, भाण्ड, राजमन्त्री, सचिव, | ( 9० ) पादस्पर्श पर्वक् प्रथाम, अमभिवाद्व |-- दे। तीर का अन्तर, पे, पत्र, पत्ता; नाटक खेलने |. चारी ( पु ) प्यादा; पदाति। ( जि० ) पैदल चाछा, सूट, थनुश्वणकारी, वर सिप्तका कन्या | चबये दाला, पैरे से चलने बाला |--ज्ञ ( छु० ) दी जाय । विद्या आदि शुग्पें से युक्त, येग्य, अबवर चर्ण, शूद्र जाति :--घाण ( छु० ) जूता, दानीय व्यक्ति, पारछौ किक कल्याण के लिये मिघकेा | खड़ाऊँ, पदरछ्षछ, पैर के मोजे (--द्वारी ( ख्री०) दाव दिया जाय --क ( १० ) हांड़ी, थाली यादसुकेाट, विच'ई, शीत से पैर का फना | +प सिज्ञपात्न |-न्तरऊ ( पु० ) वाद्य विशेष ।--्ता ( ४० ) छूछ, दुम, तरु, रुछ, पेढ़ ?-पक्म ( स्रौ० ) येक्‍ख्यता, अधिकार [स्व ( छु० ( इु५ ) पद्म सदश चाणा, चरण क्षमल - वात्नत्त । पीठ ( छु० ) पद स्थापवा्ध आ्रासन, पादासन, पात्रिय ( वि० ) बह ज्यक्ति जिसके संग बैठकर एक पैर रखते का पीढ़ा ।-अक्तालन ( पु० ) पैर थाक्षी में भोजन किया जा सके, सद्भेजी । घोवा, पाँच घोना ।--प्रझर ( छु० ) पादाधात, पान्नी ( वि० ) जिप्तके पास बरतन हों, जिधड्े पास सात मारता |--पत्राहन (थु० ) पैर दबाना, सुबेग्य छोग द्वो ( ्ली० ) छे।दे चरतन | प्रगचम्पी करना । पाथ तव्‌० ( पु० ) जछू, पानी, चीर, तेष [नाथ | पादक ( वि० ) चलने चाढा, चतथीश, छोटा पैर । (४० ) समुद्र ।-प्ति ( छ० ) वरुण ।-- | पादुकंटडक ( ४० ) नूपुर, जिछिया। ध सासिनी ( स्त्री० ) नागबलजी रूता पदाकोलिका ( 9० ) नूपुर । पाथवा दे० ( क्रि० ) थेपना, कपड़े बनाना, उपरी | याद्र्गडिर ( धु० ) पीलपाँच रोग, श्लीपद रोग | बन्यला, सेपवर परथना | [( शिवा, एथरा। | पादश्नग्थि ( खो० ) पढ़ो श्रैर घुझ्े के मध्य का भाग, पाधर दे० ( छु० ) पत्था, प्रस्तर; पाखाव, प्पाय, गुल्फ | पाधा ( 9० ) जछ, अस्त, आकाश | पाद्यत्वर ( $० ) बकरा, वालूका दीशा, भोला । धाधि (०) खप्ठद्, भ्रष्ट, घाव की पपड़ी, पिठ तपेश पोषल् का पेड़ | ( बि० ) निमदक, खुगलखोर । के किये जल घिशेष, कीछाक | पादचारी ( छु३ ) पैद्न चलनेवाल्म । पादना दे? ( क्रिः ) पाद साहा, अधेवायु त्याग प्यय्ना । पाद नाल दे० ( 8० ) काला निमक | पा या पादा्ध्य तत्‌० ( छु० ) भ्रत्तियि के पैर थेप्ने पाथेय तद्‌० ( १० ) पथ में च्यब करने की सामग्री, पथिकें के ख़्च॑ करने का द्ब्य, रास्ते का खर्च, रास्ते में खाने का भोजन; राही ख़र्च । पायेन्न तवू० ( पु० ) कमछ, पद, पुणडरीक | पाथेद्‌ तद्‌० (५०) सेध, घन, चारिद, बादल, ससुद्र । का जछ | पायेधि क्तव० (छ०) [फापसू +- घा + कि] जलराशि, | पादार्पण तद० ( ३० ) भवेश करना, पैर देता। पमुद्द, सागर, जलधि, तेयनिधि । | पादुझा वद० ( खी० ) खड़ाऊँ, जूता, पनद्दी, पग; पाधे।निधि तद्‌० (छु० ) [पाथस्‌ +नि+घा + क्ति] | रखी, पे।लिया, म्िलीपर । समुद, साथर, पाथेथि ] । पादोदुक रत ( पु० ) पा देन, देवता था गुरु पाद्‌ ठद॒० ( छ5 ) [ पदू+ धन | चरण, बेर, पाँव, के पैर कप घाया जञ्ञ, चरणामस्ृत, पाथ, पव धोने ऋष्वेदीय सन्‍्त्रों का उत्तवांश, श्कोच्न का चतर्धीश, के लिये जल | चतुर्थ भाग, चोधा भाग, घढ़े पर्वत के समीप का + पाघा दे* ( घु० ) वफाध्याय, पुरोदिता पान पान तन्‌० ( धु० ) पीना, द्वव द्ब्य जल आदि को पी जाता, ( दे० ) तताम्बूड, पचा, रामायण सें पान का 'अधे, हस्त, कर, हाथ हैं।-पान्न ( पु० ) मदिय पीने का पियाठा, जछपाद्न, पानी पीने का पात्र, पदडब्या --शौणड ( पु० ) अझ्तिशय | मन्नपायी, मत्वाला | । पाना दे० ( क्रि० ) प्राप्त दवा, मिलना, पएुकझगश्रित करना, छाम दोवा | (पु०) पन्ना, एृष्ट किसी दस्तु का द्विप्ताव जिख़ा हुश्वा कागज [--[सत्री०) सिचि बंश में शत्पक्ष पुक राजपूत स्त्री । यद चित्तौर के मद्राराणा संप्रामलिद क यहाँ सझे बाह्य पुत्र उदपसिंद की घाप थी, इसन अपने पुत्र ऊे प्राण खे कर दश्य सेंद्र के आाणो की रद्ा की थी | पाना का स्पार्गद्याय और प्मुपक्ति संहार के इति- इस्स में धोने के अचतों से लिखा यया है| इसकी । अवध्युश्य॒ज्ञ ीतिं ससार में अटल रहेगी | पानात्यय तब्‌३ ( पु० ) [ पान+ च्द्यप ] मदात्यय रोग, शधिक्त शा द्वोने का रोग, जो प्राय मत बालों हे हुआ करता है | [मच पोने में श्रनुरक्त पानासक्त तत्‌+ ( दि० ) [पान + आासक्त] मच प्रिय, पानाद्वार तत्‌+ (१०) [ पाठ + आाद्वार ] पाना पीता, अच्च जलू | पानी दे० ( १० ) अछ, तोय, मीर, सामध्ये, शक्ति, डावण्य, चम्तस, शासा, वतावट की सुन्दरता। जाकरना ( बा० ) नाट करना, सगाव कर देना, छजमिंद करना, एजवाना, सहज बरना, सुगम करना का घुनथुला (बा० ) अम्धिरता, नश्वरता, चणएमहुरता, शघुल्य देना ( दा०) तपण काना, पिततें का जल देना +--न भौगना ( दा9 ) ऐसा मारना, जिपछे शुरन्त मर क्याय । “पटना ( घा० ) मेघ धरसाना, थृष्टि द्वाना, रजत होश, शयमाना [पीवी क्लासना ( घा० ) सर्चेदा चुरा मनाना, अत्यन्त शुभ चाइना -पीना (चा०) लहध्या खाना, जरपान करना ।- मरना ( बा० ) श्रधीन डामा, ग्रधीरता स्वीकार करना, फ़िट पढ़ना, लुच्छ द्वाना।-में जाग लगाना ( वा० ) चसम्मव काम करना १ मिटे झगड़े ढे। फिर बमाइना।--पतल्ा फरमा ( #२४ ) पायज्ञामा (वा० ) पीडा पहुँचाना, दुख देना, दुख करना । ववाज्ञा फल विशेष | पानी फत देन ( घु+ ) सिधादा, पानी में उत्पन्न होने पान्य तत््‌+ ( वि० ) पयिक, राही, याप्री, दटोदी । पाप दत्‌» ( पुर ) अघमे, कलुप, अघ, अपराध । -सगण्डन ( पु ) पाप नाशह, संत्र विशेष, शत विशेष जां पाप दूर करने के किये किये जाते हैं | “अद्द (० ) भर्द चन्द्र, मज़ल, राहु, शनि, बुध, रवि, थनिष्टक्रारक्त प्रद्, अशुम प्रद/चेता (घु०) पापात्मा, पापी |--जनक (पुर) पापेत्पा* दइ -नापित (घु० ) धृतंगापित ।-झुपी ( वि० ) पाप की मूत्त, पापात्मा, अधर्म ।--रोग * झु० ) कुष्ट रोग, चेचरछ ! पापड़ दे० ( पु+ ) झूँग या टदं की बहुत पतली पफ पछार का रोदी ।-वयेलना (वा०) पापड़ बचना, बहुत परिश्रम करना, वहुव मिद्नद का काम करना, उत्पात छ्ड्टा करना |-खार देर ( पु ) केले री राख, फेले के वृद्ध को जद्ा कर ए5 प्रकार का बनाया हुश्ना छार । [पापी । चापात्मा दर्द» ( दि० ) पारिष्ट, थधर्थी, अपरघी, पापित ३० ( सख्ती ) पापीयसी, पाए करने बात्ली थी, ( पु ) अनेक पापी, पाविनी सी, श्रधर्मचारिणी, प्रधा+- 5 मैं पापिन ऐसी जली, कयक्षा हुई न रा ॥7 पापी तद० (वि० ) प्रापात्या, पराषिष्ट, अपराधी, दु्कर्भा, दुराचारं कट पामर तत्‌« ( वि० ) अ्रधम नी, पापिष्ट, दुष्ट । पामरी नव ( झी० ) श्रधमा स्त्री, रेशमी वध | पामा ठत्‌ु० (ख्तरो*) रोग विशेष खुजल्ी,खाज का्दू। पामारि तद॒० ( घु० ) यम्ध5, खु 'जी न'शूछू । पायर दे० ( पु० ) रियादा, पैदल, पदाति, सेवक, दूत, चर, मछ, पहलवान । यथा--'इलुमान से प्रायक्ष हें जिनकेरे ।! +-धरसीदास ! पायद् दे+ ( घु० ) मचान, सद्द, प्रवि पायज्ञामा ६७ ( घुऊ ) दक्षाचडादुन विशेष युक्त ध्रधार का कपटा जो पैर में पइना जाता है। स्वनाम प्रसिद्ध चद्च । पायती पायी दे० ( स्री० ) पैर की ओर की छ्ाट, पैताना, पदुतल, खाद का चह भाग जिघर पैर रहता है। पायल दे ५ ( स्ली० ) पैर का मुषण, पायज्ेब | (गु-) खुचाल, सुन्दर गति, बाँध की सीढ़ी । पायस तव* ( पु० ) दुग्ध आदि के द्वप्रा वचाणा अन्न, परमाच्च, ससमई, चाउछ, दूध और चीनी मिश्षित पक्वाद्ष, खीर | [बच्चर के बने खम्से । पाया दे० ( पघ५ ) खाद का एुक पैर, सच्चा, ईंटा या पाषिझ दे० (३०) दूत, पियादा; पदातिका, दरकारा । पायी तर ( पु० ) वानहर्ता, पीमे बाछा, पान करने बाछा | पार तद्‌» ( छु० ) तीर, दूसशा दद, बदी लांघ कर जिप स्थान पर जाया जाय | सल्ाधहि, शेष: पुण्णृता, प्राभ्त, तहुन, तरण, 5द्धर्ण, सेचव। ++क तद्‌० ( बि+ ) समर्थ, कर्म समाप्तिष्सा, परण, पूत्तिश्वारक, पक, औतिक्लारक, व्याथाम- कारी ।--करना दे० ( वा० ) पार जाना, पार उत्तना, बिना, किसी काम्त को पूरा करना, निमादना, पूर्ण झरना) बाला, परजैया पारस्स दे० ( पु० ) परखने वाल्ठा, परीक्षक, जचिये पारक्षी दे० ( पृ० ) पारख, परणैया | पारग तथ्‌+ ( ब्रि० ) [ पार + यम + ड ] समथे, पार- यामी, निउुण, कर्मद्रत, नदी लमुद्र भादि के पार डतरने बाला । पारण तव० (३०) चत्त के वू परे दित का भेज्जव, उप बा के दूसरे दिन का विदित सेजन । पारतन्य तव्‌० (छु० ) परतन्त्रता, अ्रम्षाघीनता, पारवश्य । परारत्रिक तत० ( वि ) परल्षेक खम्पस्थी,पारकौ किक, परले।क करा विषय । [ लिन्ञा । पारशित्र तदु* ( प० ) पार्थिव, मिद्ठी का अच्ा शित्र पारद्‌ ठत्‌० (बु० ) घातु विशेष, पारा, रख धातु स्लेच्छु जाति विशेष । [ लिष्यात, अभिज्ञ । पारदर्णी तत्‌* (.वि७ ) पारगामी, निषुण, दत्त, पारद्रिरत तर० (छु० ) कापुक, परस्तीतत, दूखरी सखी पर आसक्त | [सोजन ) पारल तदु ० ( 9० ) पात्ण, इपवास के दूसरे दिन का पारना दे० (प०) पररया करता,पूर्ण करवना,पूरा करना। पराचीनता, ( ४२४ ) पारितिथ्या पारमार्थिक तत्‌० ( वि० ) परसार्थ सम्बन्धी, पत्काल विषयक, पारलौकिक, मेक्षप्रापक, सुख्य, प्रधान | पारस्पर्व ततु० ( शु७ ) परम्परागत, कुएक्रम,भ्रजुक्रम, परस्परा से आया, कुल रीति, कृत्य परस्परा | पारत्त दे? ( ३० ) पीचा विशेर पारलौकिक ठतद्‌० ( वि० ) परलेक सम्बन्धी, परलेक के उपयेगी, परल्लेक का विषय । पारवश नत््‌० ( घु० ) शा के गर्भ और ब्राह्मण के औरण से उत्पन्न सन्‍्वान, नियाद जाति, पर स्त्री तनय, शक्ल, लेहाख । पारस ३० ( एु० ) स्पशेमणि, एक प्रकार के पत्थर का. नप्म जिपके स्पर्श से ले।हा भी छाना हे। जाता है । देश विशेष, ईरान, कास्े पेश ।-चाथ ( पु० ) पाश्वेदाथ, जिन विशेष, लेईपर्वा जित ।--पीसक्ष ( पु" ) चूक्ष विशेष | पारसात्त दे० ( ए० ) गत या श्ागामी वर्ष । पारखी तब्‌० ( खो० ) सापा विशेष, पारस देश की भाषा, इरान की भापा। पारसवरस्सी, पुक्क जाति विशेष । . [बचाते हैं, पार का, दूसरी ओो( को | पारहि दे० ( क्रि० ) पार करते है, पूरा बलते हैं। पारसी क तत्‌० ( छु० ) प्रारध्य देशीय, पारस देश के वासी या चग्तु | [ ( छ्रि० ) पर किया | पारा दे? (प०) धातु चिशेत्र, पारद, रस घासु, पार। प्रारायण तवब्‌० (५० ) पुराण पाठ विशेष, मिव्रम> घू३क सप्ताह भर पठन या पाठन | पारायशणिक ठव्‌ «० (०) परारायय|«र्चा, पाठक, छात्र ! पाराचत तत्‌> ( ६० ) कपोत, गुद कप्रोत, कबूतर; आपनूस की व्यकड़ी | [छा लड़ । पारावार तत्‌> (9० ) समृत्र, सागर, दोनों श्रोत पाराशर तत्‌ : (पु ) पराशर का पुत्र,वेदश्याख | (गु-) पराशर सम्बन्धी, परसाशर-मदत, मिश्षु सेहिता | पारागय तत्‌० ( छु० ) पाराशर पुत्र, ब्यावरेव [ पारिज्नात तत्‌० (8० ) पारिमद्र बुत, देवतस.सुरद्रुम, देजनाओं का बुत, पुष्य चिशें४, उरचन्दन चुक्ष | पारिणाह्य तव्‌ः ( छ० ) सम्बन्ध, वस्धन, यू तपररण झुदस्थो के लिप्रे उपयुक्त सामग्री पारिवथ्या तव्‌० ( खी+ ) सधदा ख्तिथों के धारण करने की उपयुक्त चत्तु, दिकुछ्ी, बेदी । पारितोषिक पारितोषिक तत्‌? ( वि० ) तुप्टिननहझ दान, प्रसच्चता- सूचक दान, पुरस्‍्कार। पाएिद्वि या पायीन्द्र (वि०) लिद,सगेन्द,शेर, पश्चोनन ! पारिपन्यिरू ठद्‌० (पु०) तस्कर; चोर, लुटेरा, डाप्हू! पारिपात्र तत्‌२ ( (० ) पर्वत विशेष, पुक्ठ पवंस का नाम, विन्यावल के पश्चिमी माग का नाप जो सादा देश की सीमा पर दै । पारिपाएवं ( ३० ) चजुचा, अरदली । परिपाश्यरु तत्‌ू० (पु० ) नद विशेष, जो सूच्रचार की सहायता करता है, पासदन्‌, भरदकी | पारिभद्ग ठव० (६० ) देवदास वृक्ष, निम्व चुच्च, साख का पेड़ पारिभाध्य तद्‌० ( घु० ) जमानत, अतिमू । पारिभाषि- तत्‌» (पु० ) साड्ेतिक विशेष, विपयों के विशेष, अर्थपे।घक शब्द विशेष । पारिमायडद्प तत्‌* ( घु०) घति सूक्ष्म परिमाणु, बढ़ परिमाणु जिससे छोटा दूसरा न दो । पारियात्र ( पु० ) देखो “पारिपात्र” | पारिरत्तक ( पु० ) तपस्‍्वी, साथ | पारिण ( पु० ) परात, पीपछ । पारिणील ( प* ) पर प्रह्मार छा पुरा पारिपद््‌ तत्‌» (घु०) धमासद,समास्व समय । (बि०) परिषत्‌ सम्बन्धी, समा सम्बन्धी । पारी देन ( खो० ) पारी, पाढा, श्रवसर, क्रम,पर्याय । पारोश तत*« ( बि० ) पारममनकर्ता, पारयामी । पारुष्य ठत्‌५ (पु० ) परनिर्दा, परव्रोइ, परनिष्ट; अप्रिय भाषण, चार प्रझार के वशचिक पापों के अन्तगंत पाप विशेष | कठ्ोरता, परुषरव, दुर्वाकय, कठोर बचने 4 पाघेठ (पघु०) राख, भस्म । पिण्डव 4 पा ठद॒* (पु) एया का पुत्र, अझुन, सीसरा पाथक्य तत (६०) एपकवा,इयक दो रा, मिच्वता,पसेद 4 पाये (६०) पुक रद का नाम | [(वि०) एथ्ु सम्बन्धी | पार्थंवी (३५ ) सारीपन, बढ़ाई, स्यूछता, सेटाई। पाथिव द० (पु०) राजा, नुपति, मद्दीपाल । ( वि पृथिदी सम्बन्धी, प्थिव्री का विकार, एयियी से उत्पन्न, झण्मय +--ी ( श्वी० ) एथियी से उत्पक्न, सीता, उमा, पार्वेती + ६ *रई ) पालन पापर (पु०) यम । पादंण ठव० ( छु० ) पितृपत् में किया जाने घाला श्राद्ध विशेष । पर्य पर किया जाती वाढ़ा श्राद्ध, अमावस्या आदि क दिन कत्तव्य धाद्ध, पर्व दृत्य | पावेत ५वि०) पर्वत सम्बन्ध | (६०) पकापथन, ईंगुर, शिक्षा जतु, सिलाजीत, सीसाधातु, पृक्ठ अख। +पील्ु (वि०) भफरोाट | पाचती तद्‌० (ख्त्री० ) सौराष्ट्र छत्तिफा, झुछतानी मिद्दी, धात्नी फन्न, थपसक्ककी, आविटा, एक प्रश्ार का पत्थर, दुर्गा, मगवती, मद्गादेव की स्री, अपने पिता दक्ष के यज्ञ में बिता नि्मन्त्रण के सती हप- स्थित हुए, परन्तु बर्दा पिता के द्वारा की गई पति की निन्‍्दा ये सह नहीं सकी प्रतएवं पहीं, यज्ष- कुण्ड में कूद कर इन्दीने अपने भाण दे दिये । तद- ननन्‍्तर पर्यवतराज द्विमालूय थे घर, मेनका के गर्भ ले ये उत्पन्न हुई | ये परवेतताज की फन्‍्या थीं। इस कारण इनका पायेती नाम हुशला | शिव से विवाह करने के लिये इन्होने कठिन तपस्या की थी (य (पु०) पद्दाढ़ी (--लोचन (पु०) ताल के साढ भेदें में से पुछ। पाश्वे तद्‌० (धु०) कन्धा के नीचे का भाग, पॉजर, पास, निझुट, समीर ।--नाथ (पु० ) जैसे के तेईसर्वा तीर्घद्टर ।--धर्ती ( वि० ) पारवेस्थ, सईद चर, पास रहने वाह्ता ।--भाग ( घु० ) हाथ के समीव का साय, पसली (--शूल (३०) घूलरोग छिशेप, पार का शूल ६ पालन तर» ( पु० ) पालक, रचक, श्राणकर्तां, घताम स्यात बस्ठु, जो नावों पर थाँगी जाती है, मिसझे सद्दारे नाव चलती है तंबू, छेट्या तबू, वरसातती घासपात में रप कर फल पकाने की विधि । पालक तन्‌« (4०) रचक, पेपर, शासन-कर्तो, अस्व- रछर । (दे5) भाजी, शाक शिशेष, पाक का साग ता (स््री०) दयालुता, रक्चच्ता, रचा । पान्षको दे० (खी०) शिविश्य, ढेली । पालक्य तब्‌० (१०) पालक का साथ । पालन तव॒० ( ए० ) [ पाठ + अनट ] मरण पाषथ, प्रतिपाद़न, रकण, भद्जीकार करण, प्रणा निर्वाद | पालना पात्तत। तत्त० ( क्रिः ) पाक्त करना, रक्ा करनण, पसतना, निबाहना, हिण्डेला ऋूछन!। पातद्षमीय तव० (वि० ) पालने येस्य, रहा करने येगग्य, पालन करने के उपयुक्त | पाह्नची दे० (क्रि०) पाछल करिएगा। * पाला दे० (१०) रघ्चित, पेसा हुआ. नीहार, हिम- तुपार, परी, बारी, पर्याव, क्रम निरूपण, खाक निखुपण | [प्रयाप्त ऋरना । पालागच दे० ( ६०) शमिवादन, प्रयास, परवि छूना, पालाश तद्‌० (बि०) पत्मश दृच्त विशिष्ठ, पलाश चूत सम्बन्धी, हरे रहा का, छुइुता बच, दाक । पाल्नि तदु० ( स्री०.) भाषा विशेष । औौद्धों के समय ही हिन्दुस्तानी भापा | यह साषा संस्कृत से मिरी और मायधी आदि प्राकृत भाष/ओं ले चढ़ी हुई चीच की भाषा हैं, बै!द्ध धर्मे के अन्य इसी भाषा में लिखे गये हैं । प्राविक दे ० ( गु० ) पोषक, रचक, पाक । प्राज्षित तचू० (वि० ) रज्ितत, स्थापित, पेपित, रक्षा किया हुआ | पाली तदू्‌० (क्षो० ) पद्क्त, श्रेणि, क्षैन, प्रशंसा, कल्पित भेजन, अ्रलड्ूवर विशेष, कान की बाली मूँछ घाली स्त्री, प्रान्च भाग. लेत्, उध्सज्न. सोदी, देश, प्रश्य परिमाण । पाले दें० ( श्र० ) अचीच, वश में, पश्धिकार में अघी- घता में पड़ना ( वा० ) अधीन द्वोना, बस द्वोना (>>यथा % ब्राज़ करऊँ खल काल हवाले । परेड कंठित रावण के पाल्े# जजामायण पाव दे? (छ०) चतुवींश, चौथाई भाग, चौथ, एक सेर का औयाई, चार छुर्दाक । पायक्त तत्‌ू० (पघु० ) अमभ्ि, अचल, आग, चह्ि। ( वि० ) पतचिच्न, पविन्न छरने वाट, परिष्कारक, पब्रिश्रकारी । पावड़ा बे ० ( 8% ) पविझ य पावन तत्‌० ( घु० ) पविन्न, पविश्रकारक, स्वच्छ, छुद्ध करने वाला, जज, श्रस्ति, गोबर, कुशा, गन्ञा, सत्सन्, सूर्य दर्शन आदि पावन करने वाले हैं। ( #श२७ ) की सकफसडसकस कफ डइंंीयसियणफखय-_ न ली व नत+ती तन जीत ननतनतिरननमनकक>मन">+ क्कि | पावना दे+ ( बु० ) पाना, प्राप्त द्वाता, सिलया, आ्राप्य+ पाने येशरय, आदाय घन, बाकी । पावजा दे० ( ० ) चौथा भाग, चत॒र्बीश, चार आना, रुपगे का चौथा साय, चवल्री । पाचल्नी दे० ( स्ती० ) रुपये का चौथाई भ्राय, चबनच्ची । पावस दें5 (पु०) चर्ष ऋतु, आबुद्‌ काल, वर्षा छाल, बरसात | पाश तव्‌ ० ( बु० ) रज्जू , रस्ली, थुन, फॉसी, फन्‍्दा, अखछ विशेष । [ खेशना । पाशज्ञ तच्‌* (घु« ) पासा, पास्रा खेलना, जूओआ पाशा दे० (5०) झअक्ष,जू शा, चौपड़,कर्ण सूपणा विशेष | पाशिव दव्‌० ( पु ) पाशयुक्त, चद्ध, बन्धा हुश्ला । पाशी ठव्‌० ( पु० ) पाशघर, रज्जू विशिष्ट, चहुण । पाशुपत च्द्‌० (१०) पशपत्ति सन्‍्त्र के डइपासक, शैच शैब सम्प्रदायी | पाशपताख्य तव॒5 (ए०) शूल विशेष | अज्लेच का अख, यही अद्च श्र ने तपस्या द्वारा महादेव से पाया था । पाश्चात्य तत्० ( दि० ) पश्चाज्यात, पश्चात्‌ बरपस्न, पीछे पैद/ हुआ, परिचम देशी, पश्चिम के घासी, पश्चिम देश्शोदूभव, येररुव देश वासी । पापाण तत्‌० (3०) शिल्वा, पत्थर, पाथर ।--दा रण, था द्वरक (३०) क्री, छेनी, पत्थर काठने का अश्त । पास दे* ( अ० ) रूसीप, निकट । पासा दे » (ए०) ध्वचाम मसिद्ध छीड़ोपयेणी वस्तु,पाशा । पासी दे० ( 9० ) जाति विशेष, व्याध । पाहन दे० ( घु० ) पापाण, पस्थर, पाथर /-कृमि € घु० ) एक प्रकार का कीड़ा, पत्थर फा क्रीड़ा,यह पत्थर ही में अपने रहने का धर बनाता है। पाहरु दे० ( घु० ) पदरुसआ, चौकीदार, रखक, प्रदरी, चौकी देने वाट्ा। . [र्गाव से सम्पन्ध रखना | पाद्दी दे” ( छी० ) दूसरे गवि में खेती करवा, दूसरे पाइुन दे० ( 5० ) पाहुना; अतिथि, मेदसाव | पाहुर दे० (६५ ) बैना, उपदार, बयना । पहँ दे ० ( ३० ) च्यक्ति, जन, सर्वसाघारण । | पिझारा डे० ( गु० ) प्रिय, प्यारा, स्नेदी । | विक दे० (पु०) पति, खासी, मियतम, भर्तों, प्यारा । | पिक्र ठदु० (4०) परम्त, क्ेफकिक, चाहल --घयनी (ख्री०) मिट्टमापियों सखी, केक्लके समान वे!लने पिकदान ( धर८ ) विज्ञर वाक्ली दो |--बैनो ( झी२ ) प्रिर बयनी, मछुर | पिच्छेन ( घु० ) दवातर चपश करने की क्रिया ! आपिणी मच्यु मादिणी । पिच्डणद्‌ ( घु० ) पैरो का एक रोग विशेष पिकदान या प्रोकदान दे० ( पु+ ) निष्टीवन पाग्र, ( वि० ) पिच्छुपाद रोग युक्त घोड़ा। थूकमे का पात्र, वगाचदान । [दना, पानी दे।ना । पिच्छपाण ( ३० ) बाज पढ़ी, श्येन । पिघलना देन ( क्रि० ) ट्घरना, द्वघ देना, पवला | पिच्छनार ( ०) मोर को पूँच। विघलाना दे० (क्रि३) टघडा, गढाना, हुव करता, | पिच्छल (घु० ) अफासबेल, मोचरस, शीशम, । पतरा करना । |. वाहुकि के वश का सर्प विशेष। (वि० ) पिधराय दे+ (दु०) दघज्नाव गलाव | [ये । चिकना, फिसलाइदी, जिस पर से पैर फिसले। िड्र क्व० ( एु० ) णिज्वंट वण विरिष्ट, कपिल, पीत | पिच्छलब्छदा (स्री०) बेर, बदरी वृक्ष, उपोद पिड्डूत ठसू« (पु०) नीछ पीक्ष मिश्रित वर्ण, कपिश की शाकर ! [पढ़ना, रप्टन । रह | कडार, छपिरा, पिशह़ , पीतज्त, इस्ताब | | पिन्छजन दे० ( पु० ) पिडुलनां, सप्तमता, गिरना, नीज़ पीत बण विशिष्ट, बी पीव, निधि विशेष, | पदक ( स्रो० ) सुपारी, शीशम, गारड्ी का धृकठ, कृषि, बना, श्रम्मि मुनि विशेष, नकुठ, स्थादा, आऊहाशल्ता, भिमंती फा पेड, चॉवल का मोड़ । विप विशेष, पृछ सम्वस्सर का नाम, पिड्ढ्ञावार्य पिदुतगा (४०) श्रगेन, आश्रित्र, अ्रजु्ती, कृत इन्दोपन्ध विशेष | अनुगामी, चेला, सेरक, व्दलुआ । पिट्टूला हद्‌$ ( ख््री० ) विद्देह देश में रहने वाह्षी एक पिडुलसू या पिछलम्यू ( छु० ) “देखो पिछुलगा।” बेश्या का नाम, करणिंदा, नाडी विरोप, जो दुहिती पिछुजना दे० ( क्रि० ) फ़िसलना, गिरना, पटला, पैर ना से निकक्षती है, पदि विशेष | रप्तः सवृ इरि रफपटो से गिर जाना । की पत्नी का नाम, घामत नाम के दढ़िण दिगाज | जिद्ललयाई दे ( स्लौ० ) डाकिन, भूतिन, जुरैस । की हथिनी का नाम। पिछुना दे० (वि०) पीछे का, अनस्तर पा, परचान्य । पिडगूर दे० (३०) हिंडोढा, रूचना, पालना | पिछुचाड़ा दे० ( पु० ) पश्चाहाग, पीछे का भाग, विच ऊता दे (क्रि०) दबना, सिदुड॒गा, सिमिथ्ना । मऊान का पिदला दविस्सा। पिचराना दे० (क्रि० ) दयाना, सिद्ेडना । विद्धाड़ो दे० ( जी० ) पुक प्रछार की रस्सी, जिससे पिचकारी दे० (४० ) पचूछा, दमझणा रहे पानी घोड़ो का पिडुला पैर बाँथा जाता है। ( अ० ) आदि दूर फेंकने के लिये यन्त्र विशेष । पीछे, पश्चात, ए४ भाग । [ चाव। पिचएड नदु5 (३०) पशु छा अट्ट, पेट, उदर, जठर । | पिद्छान दे० ( वि० ) परिचय, पहचान, जान पढि- पिचगिडल तत्‌» (वि०) तुन्दिल,ताद घाक्षा । [हिआ। | पिछाने दे० (व्ि०) परिचित, जागे हुए, पहुँचाने गए । पिचविया दे* ( गु5 ) पिक्षपिरा, सड़ा हुआ, गला पिछ्दूय दे० ( अ० ) पीछे, पश्चात, प्रीद्धे फा भाग । विद्यु हद० (ए०) कार्पाप, कपास, बृढ् विशेष, कु € पु० ) मराव का पिंझवाा । विशेष, एक% असुर दा नाम, सैरव, शह्य विश्वेष, | पिछ्लेज दे० ( गु० ) पिछिवाडा, घर बा पिछला भाव कप परिमाण । पिछोरा दे० ( घु० ) दोहर, दुपत्टा, चहर, उत्तरीय, पिचुआ दे « (१०) पिचछारी, पचशा । उपर ओढ़ने का बच्ध । पिलुपन्द तव$ (पु०) निम्पर बृक्त, मीम का पेड़ | | पिछोरी दे० ( खी० ) छोहर, दुपटश, पतली चादर । विद्यर दे० (प०) आंख दी जकन | पिस्न त्‌७ ( चु० ) रूई छुनने फी घलुदी । पिच्छे तइ० ( ६० ) मयूरपुच्छ, मेरपद्च, शिसण्ड, | पिज्जर धव० (पु०) अब विशेष, पीठ रक्त दर्ण, रक्त डाइगुछ, पूँथ । पीत मिश्रित चर्ण, पिंजरा, जिसमें पफ्ेर रखे जाते पिच्छक ( छु० ) पूंछ, मोचरस । | हैं। पक्षियों के रसने का घर । मागकेशर पुष्प, पिच्छृविका ( खो० ) शीशम, शिशपा । शरीर षा झस्थि समूह । पिज्जरी ( शरेह ) पितियाँ ७ॉी+++तककल--तननन न नननियनणयनतयनणननननानकपक 9५33५ >नननन--कक नी नननीननननन।3।खप नस सती तन ननन-नीनन-ननन-ननननननन-न नमन नमनन“+++०७»क++ «० ०+प-क+नन-क५५... पिज्जरा, पिजरा, पिंजड़ा दे० (एु०) परी रखने का पिरडरा दे० (घु० ) छुटेरा, व्य, ढकैत, एक जाति घर. जो रूकड़ी या जोहे के तारों से ववता है । पिल्लल तच्‌० ( घु० ) छुश पत्र, इरिताल, अतिशय च्याकुल होना, तीतर पक्षी, भूपझ विशेष, अक्षद, बाजूबन्द, विजायठ । पिड्जिका तव्‌० ( स््री० ) उई का गन्ना | पिड्जियारा दे० ( घु० ) पिजारा, हुई छुनने वाला, पीजने बाला । पिछजूल तत्‌० (छु०) बाती, दीप की बत्ती, सशाल। प्ब्जूप तव्‌० (छु०) कर्णमल, कान का मल्त, खूंठ, ठ5॥ पिठ तत० ( 5० ) पेटी, पिशरा, सन्दूक, पियरी, मरकुल, नरकट । [ पिचारी । पिछक तत्‌० (8०) चेन्नादि रचित पात्र जिशेष, पियरा, पिलका ( स्जी०) पिशरी । [पीटने की लकड़ी, डंडा पिछला दे० (क्रि०) भार खाना । (एु०) झुगद्र, झुँगरा, पिदारा दे० ( घु० ) कपड़े आदि रखने झा कड़ी या बेत का बचा हुआ दब्बा। दिद्सरी दे० ( ख्री० ) धो पिशरा । पिट्टक ( ए० ) पाँव का मेल ) पिदस ( ल्ली० ) शोक में छाती पीटने की क्रिया | पिद्दू ( बि० ) सार खाने का अभ्यासी | [विशेष । पिठर ( ४० ) मोथा, सथानी, बाली, धर विशेष, अग्नि पिद्ो दे० ( ख्री० ) उर्दे की भींगी हुई फिसी दाल । पिड़क ( ४० ) फुसी, स्फोटक | पिड़का ( ख्री० ) देखो “पिड़क ।7 पिणडड क्त्‌ू० ( घु० ) आटे की वनी गोल वस्तु विशेष, देह का एक देश, गृह का एक देश, शरीर, देह, पितरों के उद्देश से दिया हुआ दान, गोल, मणडल्त, वर्छुलाकार, गन्धद्रत्थ विशेष, जपा छुप्प, आजीवन, जीविका, अन्न का ग्रोला जो पितरों के उद्देश्य से दिया जाता है ।--छुटाना ( बा० 2) बचाना, भार उतारना, अपना दायित्व हटाना, पीछा छुड़ना, उद्धार पाना |--फलाः ( स्त्री० ) छुस्ती विशेष, कहतस्वी, वितलौकी | पिणंडली दे० ( ख्ी० ) फिल्ची, पिख्दरी, रोग विशेष, भर्सों का अकड़ना । ् पिण्डा वद्‌० ( छु० ) पितरों के उद्देश करके दिया हुआ अन्न, दुकदाग, मेनफल, कस्तूरी विशेष ) विशेष, जिसका लूटा खसोटना कास है, डाकुओं का दल । क्षपण॒क, दौद्ध, संन्यासी, गोप, सहिपी, रक्षक, चरवाहा, छुस विशेष । [| जड़। पिराडालू दे० (स्री०) फल विशेष, ओपधि विशेष की एिगिडिव तव्‌० ( बि० ) राशीकृत, पुकत्रित, इकट्ठा किया हुआ, मिलित, जड़ित, घुणित । पिण्डी सतत ( ज्ञी० ) पिण्डी, तगर, लौंथा, लाऊ, खर्जूर विशेष, ज्ञान निरूपण करने दा उपन्याल, बेदी, पिलिस्ढी, लटाई, शिव का लि, देचत्ा की चूर्ति +--झुख्ता ( स््री० ) चागस्मोधा । पिण्डुक या पिणड्क ततू* (छ०) पक्षी विशेष, छुग्पू, फदतर की जाति का एक पखेरू । फ्स्डोल दे० ( छु० ) खड़िया मिट्टी, छूई । पिणएयाक तत्‌० (घु०) पीना, खली, तिल आदि से तेल निकाल लेने पर जो उसका भाग बचता है । एतिर दे० ( पु० ) पित, पिवपेतामह, पूर्वधुरुप, परवेज, घुरखा, पिता, दादा, परदादा आदि --पार्त (ए०) यसराज । | का मुर्चो, जन । पितराई दे० ( स्री० ) पितर सम्बन्धी, कुटटमच, पीतल दिवरिदा ( बि० ) पीतल का । प्ठिरी तच० (धु०) साता पिंसा, मा वाप, यह शब्द संस्छत हैं, पितृ शब्द के भ्रश्नणना ह्विवचन का यह रूप है! पितरोल्ला दे” (छु० ) पिछ पात्र विशेष, जिसमें पिल सामग्री रखी जाती है । पितलाना दे० ( क्रि० ) पीतल के बर्तन में रखने के कारण दही आदि का बिगड़ जाना, पीतल का झुर्चा खग जाना । हु पिता या पिछु तत्‌० ( छु० ) बाप, जनक, जन्मदात्ता, सात ।--मह तल» ( छु० 9) पित्ता के पित्ता, बाबा, आजा, पित जनक, आहत, प्रजापति, छुनि विशेष । --मभद्दी तव० (स्ती०) पिवामह पत्नी, पितृजचनी, दादी, आजी । पितिया दे० (8०) पितृध्य, चचा,काका, पिता का भाई | +चोी (स्ली०) चद्ी, चाची -सझर ( छु० 2 चचिया ससुर ।--सास (सी० ) उचिया सास । पूजन करने का पात्र, रों की पूजा करने की श० पर्‌०--६७ पितु >> के वनी अर कल जम कक३५८ हर ( ४३० ) पिप्पली पित ( घु० ) पिया । पितू हत्‌० ( घु० ) जनक, पिठा ।--ऋकव ( घु० ) पिलृधन ।--क ( वि० ) पितृ सम्बन्धी, पिता का पैतृक +--क्रण (9७०) पितरों का ऋण, पुत्नोत्पादन से यह ऋण छूटता है ।--कर्मक&प (घु०) पिठ्फसे श्राद्ादि, पिता की औध्वंदेद्दिक क्रिया, पिवृश्राद्ध्‌। “+ऊानन ( घु० ) श्मशान, प्रेठभूमि, शवदाह- स्थान +--हत्य ( घु० ) पितृश्राद, पितृक्रिया। +-शुद् ( छु० ) पिता का घर, प्रेवभूमि, श्मशाव । --प्रातक ( पु० ) पितृहन्ता, पिदा को मारने बाला ।--तर्षण (घु० ) पिठरो के उद्देश्य से पिया सपा ऊल, पित्तों का उूछि साथन +-तिथि (स््री०) पर्व, अमावस्या, पिता या मरथ दिन ।--तीर्य ( घु० ) तीथे विशेष, गया तीर्थ, तर्जनी और अँगुए का मध्यस्थान ।--दान ( पु० ) पिनरों के उद्देश्य से अन्न वस्र थ्रादि का दान । --पक्त ( घु० ) ब्वार सास का दृष्णपक्ष । (वि०) पिता के दल के |--पति ( पु० ) यम, यमराज, काल, दण्डघर ।--पैतामह (घु० ) पूर्व, पूथे पुरुष ।--प्रसू ( खरी० ) सन्ध्या, साथ- झ्ाल, पिवामद्दी ।--श्राठा ( ख्री० ) पिलृज, चाचा, काका ।--यक्ष (पु० ) तर्पण, श्राद्ध । “लोक ( घु०7) लोक पिशेष, पितरों था स्थान। घन (७०) ल्मशान, प्रा।भूमि, शवदाद स्थान । ->य ( ए० ) चचा, काश, पिद्म्राता ।--भ्रादई ( पु० ) फिृक्रिया, पिदृरत्य, ।--प्वसा (स्री०) पिया की भगिनी, बुच्ा ।--सन्निम (७० ) पित- तुक्य, पिवृसम । पिच बव्‌० ( पु० ) शरीरम्ध घाउ विशेष, विक्तवातु । “प्री (स्री०) पित्त नाशिनी लता विशेष, गुइ्ची, गुडच ।--ज्यर ( पु० ) पित्त जनित ज्यर, पित्त के फारण शरीर दाह ।--रक्त ( छ० ) रोग विशेष- पित्त रक्त पीड़ा, पित्त रक्त जनित पीड़ा । पिचल दे० ( पु० ) धानु विशेष, पीतल । पिता तन» ( 5० ) शरीर का मीतरी माय, पित्तायारे, छोध ।--निकेप्लना ( घा० ) दण्ड देना, साइन करना, सज्ञा देना ।--मारना ( वा० ) ओघ कम करना, सहना, उमा करना । पिचनी ठद्‌० (स्री० ) शालपर्णी नामक बूटी विषेष। पित्तपापड़ा दे० ( पु० ) एक औषधि का नाम । पिदड़ी दे० ( स्त्री० ) फुदकी पक्षी । पिधान ठत्‌० ( पु० ) ढकना, अच्छादन, आवरण | दिन दे» ( पु० ) शब्द, घ्वनि विशेष । पिनकी दे० ( पु० ) पीनक वाला, अफ्तीमची । पिनपिनाना दे० (क्रि०) टकोरना, टनकना, शब्द होना, शब्द करना, क्रोध करना, झुद होना। [ कराना। पिनहाना दे० ( क्रि० ) पहनाना, पहराना, परिधान पिनाक तत्‌० ( पु० ) शिवधनु । पिनाकी तत्‌० ( पु० ) महादेव, शिव, महेंश। (दिक्कप दे० ( पु० ) खली, पीला ६ पिन्नो ( स्त्री० ) चावल का लड्डू । विपड़ा दे० ( प० ) मझेड़ा, कीट विशेष । पिपा दे० ( पु० ) स्वनाम प्रसिद्ध पात्र, फाष्ट निर्मित गोलाकार पात विगेप, मद्यपान्न, मद्रिपाय, पीपा। पिपासा ठत्‌० (स्त्री०) प्यास, छुपा, तृष्णा, जल पीने की इच्छा ।--ठुर ( बि० ) [ पिपासा + झातुर ] अधिरु प्यासा,बहुत प्यासा हुआ । [युक्त, प्यध्षा । पिपासित दतु० ( वि० ) तृपित, तृपान्वित, पिपासा पिपाछु ( जि० ) प्यासा, उहइट इच्छा रखने वाढा, छालची यथा --२छवपिपासु ॥ पिपीतको ( छवी० ) चैशाज शुक्ल १२ शी । पिपील तल» ( ह्ली० ) चींटी, पिपीक्षिक्रा । येधा -- ४ जिमी पिपील चढ् सागर धाद्दा 7? “रामायण । पिपीनक तत्‌» ( घु० ) चीऊेंटा । पिपीलिका सतत» (व्वी०) दींटी, चिडटी, चिरैटी (-- भत्तक या भत्ती ( घु० ) दष्टिय झक्रिदा छा एक जन्‍्तु जिसका आद्दार चिटियां है। मातृक- द्ाप ( पु० ) बालके का एक रोग विशेष! पिप्पठा ( खी० ) मिठाई प्रिशेष । पिप्पल दे० ( पु० ) पीपछ बक्ष, अध्वष्य /--क (व”) सूनमुख -याद्भ (9० ) एक पौधा विशेष, से।मचीनी । विप्पजी चद्‌० ( स्लवी३ ) ओपधि विशेष, पीपर खयड ( ५०) आयुर्वेद के भनुसार औषधि विशेष --मूल ( ४० ) पिपामूठ । पिय शइृ१ ) पिस्ता पिय तद्‌७ ( ५० ) प्रिय, मियतस, पति | पिलपिला दे ( शु० ) पिचरपिदा, दुर्वल, क्िथ्रित्न, पपियर दे० ( छु० ) पीछा, दइढदी का रंग | ढीला । पिया ( छु० ) दिय। पिलपिलाना दे० ( क्लि० ) नरसाना, ठोला होना, ॥। पिण्ना दडे० ( क्रि० ) पिलछाना, पाव कराना | शिथिल् होना, छुचंल होचा । [ शिथिलुवा । पियार दे० € घु० ) प्यार, प्रेम, चेह, दुलार [ पिलफ्लिाहद हे+ (स्त्री०) छोमलता, दुबंलछता, पियारा है ( बि० ) प्यारा, प्रिय, जमी, मनेाहर, पिला देन ( क्रि० ) पिश्यवा, पान कराना [ मगेगरल, डुलारा | पिलछुवा दे० ( ए० ) छीट, क्रीड़ा, कृशि। पिकलू । पियारी दे० ( छी० ) प्रिया, प्रिवत्मा, दुलारी | पिल्हा दे० ( पु ) छुचे का दचा, छोस कुत्ता; पियाल्त तव्‌० ( पु० ) इृछ विशेष, चिरोजी का पेड़. | पिछलू दे* ( ए० ) कीड़ा, कीद, पिछुबा । सेवा दिशेप | पिशज्क ततत० ( छ० ) पिडल बर्स | (वि०) पिज्ञलवर्ण वियाल्ना ढे० ( छ० ) कयेरा, प्याल्य विशिष्ट, मदियारा रड्ट | | पियास दे० ( ख्री० ) प्यास, त्पा, विपासा पिशाच्र तद्‌* ( घु० ) देवयेनि विशेष, प्रेत, डपदेवता, पियासतरा दे० (वि०) पिपालित, प्यास्रा, छृषित, तृपा- दिश्वर्सी समदुष्य, अताचारी --पश्रस्त (8८ ) ग्बित्त 4 [ स्थान का साप्त * डन्सद, चातुल, अंडर्चड बकने वाला नम पियासी ३५ ( ल्‍्वी० ) रत्त्य विशेष, घाह्मयों के पुक ( दि० ) पिः वियूख या पियूप ( पु० ) अछत । पीली सरघें ॥ पिरक्ी डे ० ( स्वी० ) फुड़िया, फुंसी | पिशाचक (५०) चूठ, पिशाउ ।--ये (६०) झुवेर । पिरथी ( स्त्री ) इष्ची | पिशायी ९ स्त्री० ) पिशाचद्यी, जदामांखी ! पिरन ( ० ) चपाये पाक्षओ्रों छा लैंगड़ाएत । पिशित ठव्‌5 ( 9० ) सास, पत्र, झासिप । पिराई ( स्त्री० ) पीज्ञापन पिशिदाशन्र तव॒० ( पु» ) [रिशित-+-अशव ] राज़स, पिसक ( पु० ) पछबार विशेष, गूंछा।.. दिखा निराचर, मांसमद्धी [ विराना दे० ( क्रि० ) दुःख द्विका, ब्यथा होना, पीड़ा पिशुन सच्‌० ( दि० ) छिर कर देप छताने बाला, पिरीते दे० ( बि० ) प्रिय, प्यास, प्रियनम, ओेसवात्र दो मशुष्यों में विरोध कराने बाला, कर, चुगछ- बधा;--“जय रुनन्दन प्राण पिरीते। खोर, निन्‍्दक |--वचल ( पु० ) दुर्डाक्य, विप्ठुर तुम त्रिन नाथ बहुत दिन दीते ॥ ? च/क्‍्य, साली । +-रामायण | | विश्युना ( स्थी० ) चुबलूखोरी [ वि ( चि० ) चूरों क्रिया हुआ । विष्टक् तव॒० ( बु० ) पूरी, छुआ, सिठाई, पक्ततान | पिष्य्पेषण (३०) पिसे के पीसना,कढ़ी वात को फिर कहना । [रीसने की सजूरी । पिसाई दे० ( स्त्री० ) श्राठा श्रादि पीलते पा काम, पिछाव दे० ( ६० ) शाठा; चून । पिंखाना दें० ( क्रि० ) चूर्ण कराता, घुकवाना । पिछू दे” ( ४० ) कृमि विशेष । को सष्ठ करने वाल्धा । ६ घु० ) पिरोजा दे* ( छ% ) जंगाली रंग को पुक सामान्य मणि । विरोना दे० ६ क्रि० ) ग्ंचना, गाँधिना, युइवा। पिलई दै० ( स्त्री० ) रोग विशेष, चर्वट, पिछही, तापतिद्दी | पपिलक ( छु० ) पीले रंग की पक चिड़िया | पिलचना दे० ( क्रि० ) लिपदना, चिम्टना | पिछड़ी दे० ( स्त्री० ) गोली, पिण्डी । है एिलकता (क्रिए ) गिराना, खड़काना, डकेत्नना । पिल्‍्योची ( स्प्री० ) पीखते का काम | पिलखन (६ घु+ ) पाकर का इृछ । पिसुता ( छु०) इंच विशेष, जे शाप, दुमिश्क, इराक पिल्लना दे" ( क्लि० ) धावा करना, घावा मारना, और खुरालान से लेकर अफगानिस्तान तक डेछसा, घक्का देचा, इकेलना। होता है ) पिद्विव विदित तत्‌० (बि०) गुप्त, भाष्छादित, छिराया डूचा, ढक्ा हुथ्या, चाबूत | £ पान कर, पी कर | पी दे० ( ४० ) प्रिय, प्रियतम, पति, स्वामी, ( क्रि० ) पौऊ दे (स्त्री० ) खब्घार, थूक [-दान (०) दानी ( स्त्री० ) कक्ार दान, वरतन विशेष जिसमें रईस लोग थूड कर अपने सामने रखते हैं, शगाहदान | पोच दे (स्त्री०) मांद्री, राशी । [कचरना । पोचना दे* ( क्ि० ) पीटना, छात मारना, कुचछना, पोच्ू दे* ( पु० ) फछ विशेष । पोद्दा दे० (पु ) पश्माव, झनम्तर, पिछुटा साग। “-फेरना ( बा० ) खदेरना, भयाना, दौच्ाना। +फेरना ( वा० ) छौटा देता परिवर्तन झरना, जिससे लिया दो उप्ती को दे देगा, ध्यागना, फ्रेरना। पीछे दे+ ( ऋ« ) पश्चाद्‌, चनस्तर, परे |--डाजना ( वा० ) भूल जाना, भुछा देना, घर रखना, दरा देना, दूर कर देना ।--पड़ना (बा०्) दिझू करना, सठावा, किसी काम छे लिये सतत कहना। “जगना ( चा० ) पीछे पहला, दृष्टि रखना, सर्चदा हु प देना, सततदु ख देने की चेश्टा फरना। पीजन (०) भेड़ों के बाल धुनने की धुनही । पोजर वा पीज्रा ( पु ) ऐिजड़ा। पीजञानां दे (%ि० ) पी लेना, चूसना, कोघ रोचता । पीद्रना दे" ( क्रि० 2 मारना, कुटना । पीठ तदू ० (स्थ्री०) घृष्ट, विद्वादी, पीछे, चरासन, पीढ़ा। - पीछे डालना (वा०) घचाना, रहा करना, नाथ करना ।-ठोंऊना (वा० ) हिम्मत बॉधना, साइस देना, धमय देता, प्रशंघा फरना, दिमायत करना ॥-देगा ( बा० ) साया, भाग जाना, सुच्तचा, इताश होऊर किसी काम से हाथ इटा केस, दरगा, टबमा [--पर दाथ फेस्ना (बा>) प्रधद्गता प्रसाध करना, व्साह इढ़ाना, सहायता देगा, धीश्व! देना, डॉडिस वंचाना।-फेरना ( बा ) सम्मुद्त होना, प्रस्तुत ड्ोनग्, डच्चत टोन, दिसी काप्न दो करने छूगता --सगना (वार ) प्रदर्षा जाना, पद्षाड़ खाना, छुशवी में हार चाना, घेड की पीठ पर घाव होदा । -क (एु०) चीढ़ा ॥ | शेर ) ६72 न नमन सन मना न+++%+3:+२०- ०-०3 2८८ पोती पोठा दे० ( घु० ) मौजन विशेष । पोढिका ( स्त्री० ) फ्रीढ़ा, अरा, अध्याय | पीठियाठोंक दे० ( बि० ) सदे सटे, मिड़ा हुआ, सदा हुआ। एक दूसरे में जुडा हुआ। पीठी दे ( स्त्री० ) पीसी बरगद की दाल । पीठौठा दे० ( छु० ) प्नों का इ, पीठ | पीड़ ऐन ( स्त्री० ) दुख, चेदुन, व्यथा, पौढा, दें, बेदवा | [ दापक । पोड़क तध्‌० ( वि० ) दु खदायी, दुःखदायक, क्फ्ेरा पीडना दे* ( क्रि० ) दुख देना, पीड़ा देना, क्वैश देना । पीड़ा तव्‌5 (द्वी७ ) न्‍्यथा, हु ल्ल, वेशना, वापा | “-कर ( वि० ) प्रीड5, क्जेशघर, दु ख़ावी । पीड़ित व९० ( बिं० ) हुःप्लिव, चुकी, प्रीडा युक्त । पीडरो ( स्ली० ) पिडली | पीह्यमात तु" ( वि० ) पीह युक्त, पीड़ा विशिष्ट | पीढ़त देन ( पु० ) पीढ़ों पर, पीढ़ों के, प्रोदेड पररे। पीढा दे० (पु०) पटरा सेड़ा, सचिया, पटा, काप्ठाप्षन ! (ख्री० ) वंश परग्परा, घुष्पाठुकम -सन्ध € पु० ) मफ्कावार, भूमिका । परीत तव» ( पु० ) वर्ण विशेष, पुक प्रकार का रँग, इलदिया रह (गु०) पीतदर्ण युक्त, पीयर, पीहा। जाके ( पु० ) केशर, इस्हाब, भग॥ सोनाम्राखी, तुन, इढ्दी, पीवच्ध, पीछाचदन, शहव, याजर, सफेदमीए, प्रोक्षान्नेध, चितायता, सता पाठा ।-- फरद्‌ ( ए० ) गाजर --कदली (१०) चप्क, कदल्ी धेनकरेछा ।--करची रक (9० ) पीछाकनेत पीतम दे* ( धु० ) प्रियतम्त, प्रिव, पीय, स्वामी | पोतरस तव्‌० ( (० ) इरिद्रा, दछदी | पीतल दे (३०) मिश्रित घातु विशेष ) [पीहछ का । पीतल दे० ( वि० ) पीतक्क निर्मित, पीतठ का बना, पोठामदर तब» ( पु० ) [ पीत+ प्रम्वर ] श्रीकृष्ण, वि] ( दि० ) पोदवर्ण बष्युक्त, पीले रय की रेशमी घेनी पहने हुए, या पीजी रंग के फपदे प्रदन हुए | पीती (३० ) घोड़ा ( स्रो० ) प्रीति । पीछु ( घु० ) खूथं, अज्लि; यूथपति (देर ( छु ) गूढर, देवदार | पौध ( ६० ) पानी, घी, श्रत्ति, सूचे, काल । पीथि ( ३० ) घोड़र। [ इआ। पीन तत्‌० ( वि० ) पीवर, स्थूक, सांसल, मोटा, भरा पोन्क दे ( ख्ली० ) अफीम के नशे को कॉक, भ्रफीस के नशे से इंघाई आना | पीचना दै० ( क्रि० ) तूमना । पोनस दे० ( छ० ) नासिछा का एक रोग दविपशे, पएालकी ।--घारा (वि०) जिसकी नाक में पीनस का रोग हे । पीनसा ( खी० ) ककड़ी । पीमसी ( दि० ) पीमस से पीड़िता । पीना दे० ( क्रि० ) पात करना, जल पीना, सिकुड़ना। सक्लुचित द्वेना। पीनी ( स्प्री० ) पास्त, तीसी, तिलकी खली | पीय ( स्त्री० ) मधाव, फोड़े या धाव से सफेद छखदार जो भवाद्‌ निकलता है उसे पीप कहते हैं । पीषर दे ० ( ७० ) देखे! पीपछ | पीपरि ( छ० ) छोटा पाकड़ । पीपल दे० ( 9० ) अरश्यत्य का बच, पिष्पछ का पेड़ । पीपला दे० ( ३० ) तक्षबार फी नेक | पीपलाघूल दे* ( छ० ) ओपधि विशेष । पीपा बे० ( ० ) क्षाष्ठ या जहा वििंत गेलाकार पाश्न बियोष, सच्पाक्ष, सद्य रखने का पात्न पीव दे० ( छीी० ) मल विशेष, पृ, फेड़े का मछ । पीवियाना दे" ( क्रि० ) पकता, पीज चहचा, गछ- गढाना | पीय ( छ० ) जय । पीयर ( वि० ) पीला । पीया ( घु० ) पिय । [हिंसक अतिहुल । पीझु ( इ० ) क्ाछा खूब! थूक, कौआ, इहलू (वि० ) पीघूल्न ( छु० ) अमखत-रचि ( 9० ) चन्द्रमा ! __चर्ष ( पु० ) उन्द्रमा, कपूर, उन्द विशेष । पीयूष द्त्‌० ( पु० ) भख्दत, सुधा, अमी, दूध । पीर दे ( ली० ) हुगख, चेदना। पीड़ा, ब्यथा । - पीर दे० ( खी० ) पीढ़ा; पीर) पौराई दे* ( स्जी* ) ढोल बजाने बाढा [ ( #हे३ ) >--+----- इद्जल पोरी (स्त्री० ) छढ़ापा, धुरुवाई, चाछाकी, ठेका, हुइुभत, अ्रमाजुसिक शक्ति, अम्स्‍्क्षार, कारामात । पीर ( छु० ) पुक् भ्रकार का मुर्गा । पीछ् ( ० ) हाथी, शतरंज के खेल का पक मोइरा जिसे "फीछ” या ऊँट सी कहते हैं । पीला दे० (बि०) पीतवर्ण, पीवदर्श का, पीले रंय का । पील्लाई दे० ( स्त्री" ) रीवल्व, पीछा रंग, प्रीचापन । प्ीलाम दे० ( घ॒ु० ) रेशमी वस्त्र विशेष । पीजी दे० ( स्त्वी० ) मेदर, सुबर्ण सुद्दा, लेने की मेहर (क्रि० ) पी झुफे, पी किया | पीछु तद० ( ए० ) बृत्त घिरोष, जिसके पसे हाथी खाते हैं, एुक राग का नास । रिया विशेष! पीलू ( ३० ) इच विशेष, फलों में पड़ने वाज्े कीड़े पीचकड़ दे० (9० ) मधप, उन्मत्त, पिचेका । पीच या पीचर तच्‌० ( वि० ) स्थूछ, पीन, सेदा, चरची चाछा, चलिए, राकतवर | [करना । पीसना दे० ( क्रि०) पिलाथ करना, छूकवा, चूर्ण पौहर दे० ( ए० ) नैहर, सैका, स्त्री के पिता का घर, माइका | पीछु दे० ( ४० ) पिल्सू, कृमि विशेष । पुँ तव॒० ( पु ) पुरुष, पुमान्‌, नर, पुरुष वाचक शब्द । पुंलिड्ड तत्‌* ( ६० ) पएुशप चिन्द, एटपत्व ! पुंशक्ति तत्‌ू* (खी९) पुरुपाथ, पुरुषस्व + पुरुष का >सामथ्य । [कछुछाटा । पुंख्खली तच्‌० ( खवी० पठुरिया, ध्यभिचारिणी, वेश्या, पुंसवन तब० (४० ) शर्भ संस्कार विशेष, स्त्रियों के ऋरने का एक ब्त । -| पुंरुच तत* ( छु० ) घुरुणाथे, पुरुषत्य | पुआाल बे"( ६० ) छदाल, पयाक, पलाल | पुकार दे० (स्ी०) हक, परदारा, डॉक, दुःख निवेदन | पुकारना दे० (क्रि०) ग्रुद्दारना, हरक सारना, डॉकिना, आद्धाव करना । पुकसी ( सी ) फ्रालिमा, कालिजख चुखराज्ञ दे० ( ० ) मर विशेष; पृक् रत का धाम, घद्चराग सरणि, गोमेद | हे युडू' दव्‌० ( छु० ) राशि, श्रेणि, समूह, पछ; डठेरे। रत्न ( इ०) पुद्ठीफश, सुपाढ़ी। पुद्डुल (ए०) मा्मा । पुड्च पुड़व तद्‌* ( जि० ) श्रेष्ठ बढ़ा, साननीय, उत्तम, यदद शच्द जिसके भ्रन्त में आता है, उच्चीकी श्रेठवा बत- छाता है। यधा--ताजपुद्धव, घाह्मएपुजव आदि [-- केतु ( ४० ) शिव | (छिय। पुद्ठनिया दे० ( छी० ) नाक में पहनने की फुली या पुड्ीफत (पु० ) सुपाढी पुचरार दे० ( पु० ) सान्थन वाक्य, ढादुस देना, वश छरना, बियडे हुए बैज्ञ आदि के सात्वन याक्य से चश में करता । मिं चूना पोता जाता है । पुचारा दे० ( प० ) चूहा पोतन की कूँची निधसे भीत पुच्छ तत्‌० ( पु०) लाइगूल, पूछ, दुम, जन्तु विशेष, पश्चादू भाग चिशेष | पुष्छुल तत्‌० (वि. ) पूँछ बाला, पुच्छु विशिष्ट, प्रच्छ युक्त (--तारा ( स््री० ) धृम्ररेतु, अशुभ, सूचछ >तरा। [करी । पुछुषेया दे" (१०) एप्छ5्, पूछने वाला, अनुसन्धान पुज्ञना दे० ( क्रि० ) पूरा द्वोना, पूर्ण होना, न्‍्यून न रददना, पूजित होना, पतिष्ठा पाना, पूर्ण कराता | पुजञाना 4० (क्रि०) पूजा क्रामा, पूजा पाना, सराना । पुञ्ञापा दे० (१०) पूचा के उपकरण, पूजा की सामप्री ! पुज्ञारी दे० (वि०) पूजा करने बाव्ठा, पूजकू, अरचेक । पुजु्ञ त३५ (छु० ) ढेर, राशि, समूढ, जड पदायें क्य समद ।-।7 (पु ) परुच्छा, समूह, गद्ढ! -- दल ( घु० ) सुसना का शाह्मा --। ( अच्य« ) बहुत सा | पुन्ि ( पु ) समूद, पूँजी । पुद बर्‌* (४ ) युगन्न, थुस्त, चाव्यादन, पत्रादि रचित पुष्पाधार, मध्य, अम्यस्तर चूथं, पेपण, अभ्वखुर, घोड़े का पैर, झोषधि पकाने का पात्र पिरोष, दोना, डिब्बी, शगुल्ली किसी बचाई में जछ व रस डाल के इसे घोंटवा और सुल्ाना, मिल्यव, मिलना, पन्च, कमछ | पुठक तद० (पु०) देना, पत्र निर्मित पात्र, पच्च, कमछ | पुदकिनी तत्‌० ( खी० ) पप्मिनी, पद्माज्ञवा, प्मयुक्त देश, पद्म समूद | धाधन्त प्रणव से युक्त मन्त्र । पुदित तत॒० ( वि० ) युक्त, आप्छादित, चाहत | घुदी दव० ( स्वी० ) भाच्दादन विशेष, कौपीद पय्ादि | रचित पात्र, दोना | ( #रे8छ ) पुण्याह पुद्दा द० (पु०) पथ थ्रादि का पद्चादूभाग, कटि के ऊपर का भाग । पुंड़ा दे” ( छ० ) वष्ठी इंडिया, गद्ठा, पुटन्दा। युड़िया दे” ( खी० ) कागज की छोटी गई जिसमें दवा थादि वाधी ज्गती है । पुड़ी दे* ( स्वी० ) सार, ढोठ का चमढा, चसे । पुयड दे० ( पु० ) तिछक, चंदन, टीछआा । पुणडरोक तव॒० ( पु* ) शुद्ध पद्म, रवेत फमक्ष, क्राक्त मात्र, शवेतच्छत्न, औषध विशेष, प्रप्नमिहेण का दिग्गज, केपकार विशेष । पुयडरीकाक्त तत्‌ ० (पु०) [पुण्दरीक + थ्ठ] धीकृप्ण, कमक्ष के समान जिसकी शस़ हों। पुण॒डू तव॒० ( घु० ) इचु विशेष, पौडा, ऊछ, दैत्य विशेष, उद्विरात का छोश्न पुत्र | अ्न्‍्ध मंदपि दोघेतमा के श्ौरस पे बलिगज थी मदावानी सुददेष्णा फे गर्भ से पांच पुत्र उस्पन्न हुए थे, उतमें पुण्ड्र पक हैं। इसके नाम पर इनका अ्धिक्वत्य राज्य भी परिचित द्वोगा है । पुणड॒क दे० (पु०) माधवीछता, तिलक, ईप, पौंडा | पुएय या पुन्य तत्‌० ( पु) शुभ भदृ8, धर्म, सुकृत, शोभन कर्म, उत्तम इमें, पावन, पवित्र ।--कर्म ( पु० ) प्रवित्र में, धर्म अर्म ।--छंत ( 3० ) पुग्प$र्तता, धामिक्र, सुकृती +-गन्ध (३०९ ) चम्पा ।--ज्ञव ( पु+) समन, राषस, यढ। न+जनेश्वर (प०) कवेर, यहराभ ।+पत्तन (घु० ) पृछ्ठ लगर का नाम, पूना भूमि (फ्री० ) घायाँवर्त देश, द्िमालय भौर विन्प्याचल «के मध्य का स्थान, पुम्यस्यछ, तीर्थस्थान ।- धान ( वि० ) पुण्ययुक्त, सुकृतीर धार्मिक --शील (5 ) पुण्थशाज्षी, धार्मिक, पवित्र |--शलोक (पु ) विष्णु, युधिष्ठिर, नल राजा । पुएयाई या पुन्याई दे० (स््री० ) घमें, सुकृत कर्म, घार्मिकता । पुएयात्मा उत्‌* ( धु० ) [पुण्य क झारमा] पुण्यस्‍्वमाव पुण्यचारी, घर्ंशीछ, धर्मचारी, घामिक | पुयवाद्द उव्‌० ( घु* ) घुण्यननक दिवस, पविश्न दिन, सरझारी सारगुजूरी वसूठ करने का पदल्ला दिन । “वाचन ( पु० ) देव कर्मों में स्वस्तिवाचन के चुतलो परदले सदर के लिये घुण्याइ शब्दु छा तीन वार ड्च्चारण । पुउक्ला दे० (यु) झूति, काष्ठ दुश भादि विमिंत सूति | पुतली दे० ( खी० ) श्राँज् का तारा, काष्ठादि निर्मित छोटी प्रतिर | धुवाई दे० ( छ्री० ) पोतने का छाम्त या सजूरी पुचलिका सत्॒‌० ( झो० ) छुठची, युद्धिया । पुतिका तत्‌० ( छ्वी० ) पुवछी, छा8 विमित सूति, पुतलिका, कीट विशेष, क्षुद्मक्षिका | पुत्र चत्‌ ( घु० ) खुद, अपत्य, सन्‍तान, बेदा, पुल्नामझ नरक्ष हो रछ्या करने वाठा ।--जीवी ( छु* ) बच बिशेष, पुत्र जीव दत्त पुत्रार्थी तव॒० (यु० ) [छुत्र+अर्थो] सन्‍्वान काछी, पुत्रेच्छु, पुत्र शाप्ति की अभिल्ाापा रखने वाह | पुत्रिका ठत्‌० ( ख्री० ) क्या, दुद्दिता, तनयथा, पुत्र के सलमान रखी हुई कहपा, छुचलिछा, घुदली | “पत्र ( छु० ) दौहिन्न, दोहिता, छुन्नी का छुन्र, भौण पुत्र, दर लिया हुआ कन्यपपुत्र । पुत्रिणी बद्‌ (सवे०) घुत्रवत्नी, ससन्‍्ताचा, लड़ हे चाली | पुत्री तच॒० (ख्री०) दुड्िता।कन्या तनया । पुजेफि तद० (एु०) सन्तानाधे यज्ञ, सत्तान प्राप्ति का बपायभूत यज्ञ ! पुदीना दे० (8०) झुगन्ध शाऋ विशेष, स्ववाम स्यातत वनस्पति जिसकी चंटनी बना कर खायी जाती है। पुद्दूनल चच्‌० ( ६० ) चात्म, देद, शरीर, जैनियों के सत से चैतन्य विशिष्ट पदार्थ विश्येप- (वि७ ) सुन्द्राकार रूपादि चिणिष्ट ब्र्य । पुनः ठत्‌ (श्र०) द्वितीयवार, घुनवार, बारास्वर सेद अवधारण, क्षिकार, फिर, घुनि, बहुरि [--पुमः ( श्य० ) बार छार; फिर फिर, मुह महः, असकृत्‌ ३>पनरा छुनछुन या छुनपुना सदी विशेष जो गया छे पास है ।- संस्कार ( ३०) द्वितीया- थार इपनयनादि संस्कार । घुनरापि तत्‌० ( अ० ) द्विवीयवार; पुणर्दार | पुनरागमन तत्‌० (5) द्विदीयवार आशसल, ल्ौटना, | ल्लौट आना, फिर आना । पुनराज्ुत्ति तत० ( स्त्ी० ) फिर 'असइुक्ति, छुनः पछ ( पुनराद दे० ( 8० ) दूसरे चार, इव्वार, इुचश्च | ( अइ४ ) हे पुरजन पुनरुत्ति दव्‌० ( स्त्री० ) घुनः कचन, फह्ठी याव के फिर ऋहना, काब्य का एक दोष | चुन त्यान तव्‌* ( घु5 ) पुना डठवा, द्वित्तीय वार डठाचा | पुरर्जन्म तथ० ( ६० ) द्वितीय बार उत्यत्ति, दूसरा जन्‍्स, एस;ड दूभव | पुनर्देव ( बि० ) जो फ़िर थे नया हो गया हो । पुतनेया तच्‌+ (ज्ी०) शाक, गदृदपृछ्ा ! पुनर्संव तव॒5 ( छु०) नख, नह | ( वि० ) एुनजन्स, पुनः उरपन्न, पुनः विदाह | पुनभू तत्‌5 ( खी०) द्विस्ड़ा, दो बार ब्याडी सी युनवंखु हव्‌० (१०) सातवां नक्षत्र, रान्धर, सुनिमेद । पुनधिवाद तदु? ( छु० ) प्रधत ऋनु के समय का संस्कार विशेष, गर्साधान रूंस्जार+ द्वितीय बारे चविवाड़, दूसरा विवाह | [ श्रपतिष्ठा फरना। | पुनवाना दे० ( क्रि०) अनादर झग्ता, भपनान करना, पुन्श्ध तत्‌० ( झ० ) पुनदांर, घुनरपि, द्वितीय चार, फिर भी, और भी । पुति दे० (श्र०) किए,एुनः, बहुरि, द्वितीय चार (--पुनि' (श्ा०) बार घार, घुनः पुनः, वास्स्वार | यधार--- | धुनि पुनि लाबा दरस दिखावा । ”” - तुलसीदास । पुनीत तद्ध ० ( बि० ) पविन्न, शुद्ध, निर्मक्ष, स्वच्छ, पावन, पाक । [ मान करना ! एुल्ला दे* ( क्रि० ) गाली देवा, अनादर कस्ता, प्रप- एुन्नाग तव्‌० (पु०) $५३, चच चिशेप, पादल प्ुत। घुन्नार (४०) चछचछ फा पेड़ | दुमान्‌ दव० ( यु० ) इस्प। छुर तत्‌० ( छु० ) नगर, पुरा, गवि, मरा इृदादियुक्त स्थान; बढ़ ग्राम जिसमें बाज़ार आदि हैं | एक राचस का नास --त्राण ६९ ) शहरपनाह, परकोद ।--द्वार ( छु० ) परकोटा का फादर | +पाज्त ( पु० ) कीचबाल | | पुरइव 3० (ल्ी० ) काई, कमुदिनी, कुमे।दिनी, चलिनी, कमेइनि, नीबोफर | | घुरउथ दे० ( क्वि० ) पूर्ण करेंगे, पूरा करेंसे | पुरखा ( पु० ) पे पुरुष, पूरे । चुरजन पव्‌ु० (छु० ) पुरवाली, छुर के मजुष्ण ! पुस्क्षय ( ४३६ ) चुसाना पुरञ्षय तब्‌० ( पु०) पुर सूर्दर्ंशीय राजा, वहुत पुराने समय में देवासुर युद्ध में देवता दैत्यों से द्वार कर भगवान्‌ के शरणापत्ष हुए, और उनकी आज्ञा से महाराज पुरक्षय के निकट उन ढोपों ने प्रार्थना की, उन्होंने इन्द्र को छूपरूय घारण काने का श्रादेश दिया, यद्यपि इन्द्र इसे स्वीडार ऋप्ना नहीं बाइते थे परन्तु धन्त्र में देवताओं के अजु- रोघ से इन्द्र को स्वीकार करना पदा, धृपरू-धारी इन्द्र पर चढ़ कर मदाराज पुरक्षय मे युद्ध में दैत्ये! को हरा दिया। तभी से राजा पुग्ञव ककुसस्थ कह्दे जाने जगे और उनके वंश की काहुरस्थ नाम से प्रसिद्धि हुई | इन्हीं छे वश में मगवान्‌ रामचन्द्र क रूप में प्रकट हुए थे । पुरक्षर तत्‌० ( पु० ) वय, वाहुमू स्कम्घ कन्घा | घुरद तत्‌» ( घु० ) मुदर्ण, काशुत, स्वर्ण, हेस, सेना । पुरण ( घु० ) समुद्र । पुरत ( चब्य० ) आगे । पुरनिया दे० ( शु० ) प्राचीन, बूढ़ा, शुद्ध, एक नगर का भाम, जो भाचीन बह़देश में और सम्मति विदए से है पुरन्दर ठत्‌० ( पु० 9 इन्द्र, महेन्द्र, देवगण, इन्द्र का नामास्तर | इन्द्र शुब्ों के नगर रा नाश करते हैं इस कारण इनका नाम पुरन्द्र पड है । पुरव्जा (्‌ वि० ) चूडे का, पहले का, पूर्व जन्म का । पुट्वहु द० (क्रि०) पूरा करो,पूर्ण करे,,मरदो,पुज्रा दो | पुरवा [ ए० ) उरवा, छखुछआ, करहे ? पुरवास्ती खद्‌० ( घु० ) [ परम +वस्‌ +णत््‌ ] पौर- ज़न। नगर में रहने वाद्य ।. [या रइन बाल | पुरविया या पुरविद्या ( वि० ) पूर्वदेश में पैदा हुच्चा, पुरवी दे० ( सख्ली० ) रागिनी विशेष । पुरददइपा या पुरदैया ( स्ली० ) घूरव ढी।.. [मेट । पुरवद् ( ० ) चमड़े का बहुत यदृ/ ढोढ, चरसा, पुस्धा (पु ) चोद गाँव, खेदा । पुरवाई ( छी० ) पूरे की वायु । धुस्वैया ( स्ली० ) पूर्व की हवा । ठव्‌» (४० ) [ पर्स + चर+-अनटू ] मन्‍्द आदि को चेतन करना, नियमपूर्यक मन्त्रजर, अनुश्ानकरण, विधि सद्दित मगदत्‌ पूजा [ पुरसा ( पु ) ऊचाई या गहराई का पक माप । माप, पच हाथ का घुक माप) पुररुकार तत्‌० ( घु०) [ पर्स + हू +घन्‌ ] पारितो- पिछ, धाद्रपूर्व दान, साधुषाद, धत्तम कर्म का बदला, धन्यवाद, पूजा । पुरस्क्तत तव्‌" (वि०) [पुरुस+ कू + क्त| पारितेषिक् पाण हुआ, पूजित) घन्यवाद पाया हुआ, इनाम पाया हुआ । [काल,प्रयम,पदले,झआगे,पूर्व,पूर्व में । पुरस्तात्‌ तव्‌० ( श्र ) पूरवेदिकू, प्रथम काल, अतीत पुरा तद्‌० ( द्० ) प्राचीन, पुरावा, घुराने समय में, चिस्न्‍्तन, अतीत, भूत, चिरातीत, निहठ, सप्ति- द्वित | (दे०) गाँव, घुरवा, दम्ती (--छत (गु०) प्रारम्घ कर्म, पूर्वक, कृत पहले जन्म में किया हुथ्आा, भाग्य, अदृष्ट । पुराण तन्‌० (घु०) ब्यासादि मुनि प्रणीत्त प्रस्थ विशेष, अष्टादश पुराण, पुरातन, इतिद्दास, पुराण उस विद्या का कहते है जिप्तयें प्राचीन इतिदास के म्िप धर्म के तत्व निरूपण किये गये दो। पुराणों में पंच प्रकार के विषय लिखे बाते है । यथा।-- सम, प्रतिससे, दश, मन्दन्तर और बंशानुचरित मे ही पाँच विपय पुराणों के वणनीय हैं ! सगं-- आदि खष्टि का सत्पत्तिक्रम, प्रतिप्तगं--प्रकय के अनन्तर का सष्टि कम, धंश--देवता दानव और राताओ्रों छी वंशावली, मम्वस्तर--महु्ों का राज्यकाज् और राज्यब्यदस्था, पंशानुचरित-- मलुओं ही वंशावद्धी +--ग (० ) सका, पुराणवद !-पुरुष (पु० ) विष्छु, नारायण, अगवान | -चेज्ता ( ु० ) पुराणक, पुराणादि शाघज्ञाता, पौधयिक । दिद्या। पुरातत्व ( चु० ) प्रत्नशामश्र, प्राचीन समय सम्बन्धी पुरातन तत॒० (चि०) प्राचीन, पूवेकलीन, घहुकालीन, चिसन्‍्तन, पुराना, अगख्ले समय का, पढ़ले का | -+-ऊथा (स्रो*) इतिद्वास, भ्राचीन शृत्तात्त | चुरातल ( घु० ) तब्बातछू | घुरान ( वि० ) धुराना | घुराना दे (०) प्राचीन, पुरातन, पहले का, पहले समय का । ( क्रि० ) पूरा करना, सरना, पं करदा, सर देना | पुरारि ( #३७ ) पुरा पुर क पुससतछ हू.) काझ कि। आप 777 र्77_-_- ये पुशरी तत्‌० (पु०) मद्ादेव, शिव, शम्भु, त्रिधुर दाह के अनन्तर शिव छा राम ब्रिपुसरि या छुरारी पड़ा है। दिरण्परात्ञ के तीन पुत्रों के बगगों की ब्रिदुर या घुर संज्षा है | इसडे जछाने के कारण मद्ादेव का नाम पुरारि है, त्रिपुरासुर के मारने से शित्र का नाम ज़िपुरारी पट्टा है | पुरा तव॒० ( चु० ) नगर, गाँव, घुर, पुस्वा, नगरी, ॥ जगदीशपु सी, जगन्ाध छेन्न |--धत्ती ( ख्ी०) एक नदी [बसु ( छु० ) भीष्म |-दूत्त ( पु० ) पुरानादाल, इतिहास [--साद ( पु० ) इन्द्र [ पुरि ( ख्री० ) घुरी, शरीर, रुदी ( छु० ) राजा दुस भामीसंन्यासियों में से एक। पुरिखा ( ए० ) देला, पुग्खा । पुरीषत्‌ तब्‌* ( छु। ) अम्त्र, राव, नाड़ी, इस नाड़ी विशेष फा नाम जिस्म निद्धा के समय सन स्थिर रहता है ।-सेह ( पु० ) घतूरा ! पुरोपम ( ० ) साप, उरदु । पुरीषा तत्‌० ( यु ) बिब्य, मल । पुर व्व्‌५ (पु०) देवकोक, राजा विशेष, ययाति रप्जा का कनिष्ठ पुत्र और नहुप का पौन्न, ययासि की देवयानी और शरसिष्ठा दो ख्िययाँ थीं। देवयानी शुक्काचाय की कन्या थी और शर्मिंठा दैलद्यराज चृपपर्वा की | शर्मिष्ठट के गरभे से सीम पुत्र उत्पन्न हुए थे जिनमें पुरु सबमें कनिष्ठ थे। शुक्राचार्य के शात से ययात्ति मराप्रस्‍्त द्वेः बये थे, उन्होंने अपना घाड़ेक्य अपने पुत्रों में से किसी को देना चाहा परन्तु किसी ने पिवा की घुढ़ाई लेनी स्व्रीक्षार नहीं ही! अन्त में उन्होंने पुर का अ्रपनी डुढ़ाई देनी चाह्ढी, धुरु ने पिता की आज्ञा के 'आदुर के साथ प्रहयण किया । थयात्ति ने पुरु को ही अपने राज्य का अधिकारी बनाथा | (२) हस्तिनापुर के चन्द्रवंशी राजा प्रसिद्ध विज्यी अलकजेंडर (अलफेनन्‍्द्) के भारत प्राक्मण के ससय इन्होंने वितस्ता नदी के पास उसे रोका था, यथवि उस बुद्ध सें घुछू द्वार गये थे और अलकजेंडर जीत गया था, तथावि उसने पुछ की यीरता से सम्तुष्ट होकर इनका राज्य इन्हें जोौटा दिया था । पुन्कुत्स ठच० ( ए० ) सान्धाता के पत्र, ये राजा झशिविन्दु की कन्या इनम्दमती के गर्भ से उत्सन्त हुए थे । इनके.बड़े साईं का नाम सुचछुन्द था । महिं के छाप से परुक॒त्स की स्री नदी हो गई थी । महर्षि सौभरि हे साथ इनकी पांच बहिलें ब्याही गईं थी । नर्मदा भदी के बचर तीर के देश इनके राज्य में थे । नर्मदा के गर्भ हे पुरुकुत्स को पुक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसका नाप त्रदस्यु था | सजा पुरुइत्ल ने नर्मदा की प्रार्थना ले पाताछ के श्रनेक गन्‍्धवों का विनाल किया था। पुरुष ( घु० ) पुरुष पुरुस्वा दे० ( 8० ) पूवेपुरुप, पिता विसामह आदि । पुरुखे दे० (घु०) छुरुखा का बहुदचन, एेपुरुए, विता पित/मह, बापदादे आादि। पुरुजितू ( 8५ ) कुन्ति भोत् का पुत्र, और अज्ेन का मामा, विष्णु [| घुरुदस्म ( ४० ) विष्णु । छुछबा ( ऐे० ) पू्त दिशा। पुदमा जा ( छु० ) सेढ़, सेढ़ा । पुरुराज्ञ तत्‌० ( घु० ) छुध का पुत्र और चन्द्रमा का पौच्न छृदस्पति की पद्ी लारा को चन्द्रमा दर लो आये थे, तारा ही हे चन्द्रमा को एक पुत्र हुश्ा था जिप्तका नाम तुध था । राजपुन्नी इज्ा के साथ छुध का विवाह हुआ था । हा के गर्भ से छुध के पन्न पुरुघा हुए थे | बवेशी इन्द्र फे शाप से म्यंत्रोक में पुरुवा की स्त्री के रूप में उत्पन्न हुई । अपनी प्रतिक्ला पूरी न करने के कारण उर्वशी ने पुरुधवा के छोड़ दिया। उर्वशी के विरह से भ्रघीर होऋर पुरुरवा चारो चरफु घूमते फिरे, अन्त में एक दिन कुछवेत्र नामक स्थान में घुरुवा चे उर्चशी को देख णया। राजा ने उर्वशी को अपने घर चलने के लिये कहा । उर्वशी बोली, # में आपसे गर्भवती हुई है । धर्ष के अनन्तर कई सनन्‍्तात उत्पन्न होने वाले हैं।में आपके उच्चों को आपको सौंपने आऊँगी, उसी समय आपके घर पुक रात रहूँगी, उर्वशी के सात पुन्न हुए । उनको लेकर उर्वशी राजा को सौंपने आई और उसी समग्र बह पुकत रात रही भी थी । अयाग शा० प्रा०--६८ पुरूष ( *डै८ ) पुलस्य नगरी पुरुवा की राजधानी थी, यह नगरी गया के किनारे स्थापित फी गई थी । इस कारण उसका मामर प्रतिष्टान था। पुरुखा को गन्धर्कों से एक अप्नि पूर्ण स्थाव मिला था। उसी अ्रप्मि से पुरूवा ने अनेक यज्ञ किये और यजयल से ये गन्धर्वल्लेक में गये । पुरुष तव्‌० ( घु० ) पुमान्‌, नर, जीव, जीवात्सा । --कार (ग़ु०) पुरुष का कर्म, चेष्ठा, पौरष, शौर्य । कुज्जर (पु०) पुरुपश्नेष्ट यह शब्द भी पुद्धच के समान है । जिन सज्ञा वाचक शब्दों के अन्द में यह शब्द आता है उनकी श्रे्टा बोधन करता है। यथा--नरकुझ्र, सचिवरुत्र,। ज्ञलुत्म ( पु० ) पुस्णों की चली आई हुई परम्परा +--त्य (पु०) पुरपभाव, पु सत्व, साहस | +्वह्दीन (वि०) पुँसस्य रहित, नपु सके, हिजदा, सोजा ।--सिंद (छ० ) पुस्पर्सिह, पुरुपष्रेष्ठ उत्तम पुरप । पुरुषादक ( घु० ) नरमी राइस । पुरुषाधम तत्‌० (पु० ) [पुरुष +- अधम ] निहृष्ट मजुष्य, नीच, पामर मनुष्य । पुरुषार्थ तव्‌० ( ४० ) पुरुष का प्रयोजन, पुरुष वा उद्देश्य--धर्म अर्थ काम और भोक्त इनकी पुर चाथे सज्ञा है ।-- ( बा० ) उद्योगी, परि्रमी, सामर््यवान्‌ । पुस्षीत्तम वद्‌० ( पु० ) नारायण, विप्णु, भगवान, श्रीकृष्ण । धद्ठभाचाये जी के मत से गोलेस्विहारी नित्य अ्रनिर्यंचनीय ध्रीक्ृष्ण । पुस्छत तत्‌० ( घु० ) घुरन्दर, देवराज, इन्द्र । पुरुण्धा ( पु० ) इलाका पुत्र, पक चल्थवशी राजा जिसकी राचधानी अतिष्ठानपुर (प्रयाग के समीप ) ऋसी में थी । पुरेन दे० ( स्ली० ) कमलपत्र, कमल चेल । पुरोचन तत्‌० ( घु० ) दुर्याधन का मित्र और सेवक दुर्योधन वी आज्ञा से इसने वारणावत नगर में पापों पा विनाण उरने की इच्छा से लाहागृद घनाया था । विदुर के सद्ढेत से पाण्डवों को पुरोचन फी दुश्ता मालूम हो गई। भीमसेन ने घुरोचन के घर में और उनके रहने के लिये जो लाक्षायह बना था उसमें आग लगा कर स्वयं निकल गये | पुरोचन परिवार के साथ वही जल गया । पुरोडाश या पुरोडास तत० ( घु० ) बज्ञोय हथि विशेष, जब के थराटे की बनी टुईं एक प्रकार वी रोटी, हवन का अवशेष, यज्ञभाग का हवि। चुरोधा तत्‌० ( बु० ) रोहित, ऋत्विछु, याजक, यज्ञ कराने बाला । [वाला । पुरोवर्त्ती चव० (वि०) अ्रम्ममर, अप्रगामी, आगे चलने पुरोहित तत्‌० ( पु० ) ऋत्विछू, पुरोधा, याजक, धर्म कराने वाला ब्राह्मण, उपाध्याय ।--ई ( ख््री०) पुरोहित का फाम । दुरोहितानी दे० ( खी० ) पुरोहित वी ख्री । पुर्खा दे० ( पु० ) बृद्द, पेज, पूर्व पुरुष । पुर्चंक दे० ( घु० ) छल, कपट, साहस, बढ़ावा, उत्साह । पुर्वा दे” ( ख्री० ) पूर्त की हवा । पुर्वाई दे० ( स्री० ) छुर्वो, पूर्व की हवा । नि दे० ( क्रि० ) भरवाना, पूर्ण करना । पुर्वेया दे० ( ख्री० ) पुरवाई, पूर्त की हवा। पुर्सा दे० (पु०) घुरुष वी ऊँचाई का परिमाण, पुरप के बरारर, चार हाथ का नाप पुल दे० ( घु० ) सेतु, वाँध, बन्ध । पुलक तत्‌० ( घु० ) रोमाश्च, रोमोदभेद, शरीर के अन्तर और बाहर हर्पजन्य विर, प्रम्तर विशेष, भणि का ठोष विशेष, गन्धे विशेष, हरताल। >जावलि (ख्त्री० ) आनन्द से प्रफुन्न रोम । पुलकित वत्‌० (बि० ) हर्षित आ्राह्नादित, रोमाथ- युक्त, प्रसव । [ऋषि, बह्या के मानस पुत्र पुलपुला दे० (बि०) गला हुआ, सढ़ा हुआ, पिलपला। पुलपुलाना दे० (क्रि०) भयभीत ट्वोना, डरनां, कपना, डीला पढ़ना, शिधिल होना । पुलपुलाहद दे० ( खी० ) भय, डर ।.. [ऋषि। पुलस्ति तत्‌० ( घु० ) सप्तकपियों के अन्तर्गत एक पुलस्वय दत्‌० (घु० ) झुनि विशेष, सप्तपियों के अन्वर्गत ऋषि विशेष । पुल्लग्ति ऋषि, ये पद्या के मानस पुत्र थे, इनरी गयना श्रजञापतियों में है । इनके पुत्र का नाप्न विश्रवा था। प्ल्लह पुलह तत्‌० (घु०) छुलस्व के समान ये भी त्रह्मा के मानस घुच्र और सप्तकषियों के अन्तर्गत हैं । इनकी स्त्री का नाम गति था, गति के गर्भ से कमे श्रेष्ठ, घरीयान्‌ और सहिप्णु नामक तीन पुत्र घुलह के हुए थे । कोई पुलह की खी का ताम उमा बताते हैं और उनके गर्भ से कईम, अम्बरीष और सहिप्णु सासक तीन उुत्रों का होता मानते हैं । पुलहाना दे० ( क्रि० ) मवाना, खुश करना, प्रसन्न करना । [ अल्पवा ! पुलाक तत्‌० ( छ० ) तुच्छ धान्य, शस्पहीन घान्य, पुलाव दे० ( पु०) भाँसोदन, साँस के साथ बना हुआ भात, मुसलमानों सें इसका अधिक अचार है । पुलिन दत० (घ०) तद, तीर, किनारा, जल से निकला हुआ भाय, द्वीप! पुलिन्द वब० (9०) स्लेच्छ जाति विशेष, भील, शचर | पुलिन्दा दे० ( घु०) गठरी, कागजों का मुद्दा, पोदरी । पुलोम ( ० ) एक देव्य जिसकी बेटी का नाम शची था । पुलोमजा वच्‌० ( ख्री० ) इन्द्राणी, शची, इन्द्र की स्री का नाम, पुलोस नामक दानव की कन्या, जे। इन्द्र को ब्याही गयी थी पुलोमही ( ख्री० ) अफीम । पुलोमा वत० ( ख्री० ) महर्षि आण की पत्नी और ४ ज्यवन की माता, दैत्यराज चेश्वानर की ये कन्या थीं । [ की डॉठी । पुवार या पुवाल दे० ( छ० ) पयाल, पल्ाल, धान पुष्कर सद॒० ( घ०) दस्ति शुणठाम, वाद्यमारड, सुख, आकाश, अज, पद्म, कमल, कष्ट रोंग की ओपधि, काणड, शर, बाण, द्वीप.विशेष, युद्ध, अखिकोप, तलवार की स्थान, रोग विशेष, नाग विशेष, खारस परी, वरुण पुत्र, पर्वत विशेष, सीर्थ विशेष, जे। अजमेर के पास है । एक राजा का चाम । निपघ देश के राजा तक्ष का छोठा भाई। इसने ऋलि की सहायता से जूए में राजा नल को हरा कर उन्हें राज्यच्युत कर दिया था और स्वयं सियध देश का राजा चच गया था। जब कलि ने चत्न को छोड़ दिया तथ नल घुना अपने राज्य के अधिकारी हुए थे । ६ हैइई ) पुष्पदच्त पुष्करिणी तद्‌० (स््री० ) सौ घलु के परिमाण का चौकोंचा जलाघार, जलाशय, तालाब । युष्कत्त दव० (०) आस चतुष्टयाव्सक मिन्षा । (घ्रि०) अधिक ढेर, श्रे्ठ, उत्तम । पुष्ट तत० (वि०) तैयार, भरा हुआ, वलवान, वलिए, मज्ञदृत, प्रतिपल्षित, सॉसल, स्थूल, हृथछुप्ट, मोद्य ताज़ा । पुएई तल्‌० ( खी०) ओपधि विशेष, पुष्कर ओपधि । पुष्टि चच्‌० € खी० ) सुदाई, पोषण, पालन, पोडश सादुकान्वर्गत देवता विशेष (--कर ( ६० ) बल बर्द्धंक, पुष्टईं ।--का ( ख्त्री० ) जल की सीप, झुतही, सीपी --द ( सत्री० ) अश्वगस्घा चूक्च, चुष्टिदान्री, स्थोल्यकारिणी ।- मार्ग (०) वल्लभ- सम्प्रदाय । पुष्प तद॒० (४०) कुसुम, प्रसून, फूल, गुल, ख्री का रज, विकाश, कुबेर का रथ, चल रोग विशेष, फुली रोग ।--करण्डक (8० ) उज्जयबरिनी नगरी का एक बाग़ जो शिव का बाग़ कहा जाता है! --चाप ( ३०) कासदेव, सदत --र्ख (घु०) पुष्प का सु, मकरन्द (“रेस (छु० ) पराण, घूलि । पृष्पक्क तत्‌० ( घु० ) एक विमान का ज्ञाम जिस पर परिकर सहित श्री रामजी लंका से अयोध्या शये थे । पुष्पदन्त॒ तत्‌७ ( घु० ) शिव का अनुचर विशेष, यह झझुचर एक ससय शिव और पावबंती की चातें सुनता था, इससे पार्चतती बहुत्त क्रुंद् हुई । उनके शाप से मर्व्यलेक सें कौशास्ती नगरी में एुक आ्रह्यण के यहाँ पुष्पदन्त उत्पन्न हुए थे | इस बआआहाण का नास सेसद्त था। से।सदत्त ने अपने चुच्च का सास कात्यायत चररुचे रखा था। (२) एक अधान गन्धे, ये पाती की सहचरी अया के स्वामी थै। इन पर किसी कारण शिव जी कुड हुए थे, जिससे इनकी आकाश में चलने की शक्ति नष्ट हो गई, पुनः ग्रार्थीना करने पर शिवजी प्रसन्न हुए और सन्धर्द मुप्पदन्त की गई शक्ति फिर मिल गई । पुष्पदन्व के बनाये ख्लिय स्लेन्न का नाम महिस्त स्तोच है ! पुष्पाललि (६ 2४० ) पूदीना (३) थ्रष्ट दिग्गजों में का एक दिग्गज । उतर ओर पश्चिम दिशा के अधिपति थायु इस हाथी पर चढ़ कर उन दिशाओं की रक्षा फरता है। पुष्णस्न्ञि तव5 ( खौ०) पुष्पपूण अञलि । पुण्पित तद॒० (वि०) विकसित, अरफुछ ।--7 (खी०) रशम्वक्षा खी | पुष्पेपु (६०) कामदेव । पुष्पेययान ( प्‌» ) फुछवारी, बाग । पुष्प त६५ ( पु० ) एक नक्षत्र छा नाम; श्रादर्वा नज्षत्र | पुस्तक रत्‌« (म्न्नी०) प्रत्य, पोदी, ( यद रद्द द्िन्दी साहिद्य में “पोयी” थ्पव! “४ किताब ” क( अर्थ वांची होने के कारण स्प्रील्िक्ष समा जाता है | ““- (सत्री०) प्रोषी,पुछक (कार (वि०) पोषी के रूप का |-लय (पु०) व घर जिसमें पुम्तड़ों का सैप्रद हो । िठ, फूछ । पुदप या पुदुषि तदू० ( ए० ) पुष्य, कुसुम, पसून, पुदमि तद्‌* ( खी० 3 पथियी, पृथ्यी, धरती, घरा | पूझा दे० ( पु० )पक्राद्न पिशेष, मीठी चूड़ी ।॥ पुंगी है० ( स्श्री० ) बाँधुरी, मुरजी | पद दे० ( स्त्री० ) इच्छ, छाहुत | | पू दर्तालू ( स्त्री० ) दर्गाज़ व पता हे? ( फ्रिए ) पडता, ऋाइना, साफ छाजा; पक्ष करमा, जिन्नसा कश्ता | पूँवार दे (वि०) वही पूँडवाज़ा, शब्बूदा पूँदवाला | पूंजी दे” (स्वी०) मूछ घन, सम्पत्ति [ पूग तद॒० (०) बन्द, समृद्ध राशि। पूयना दे (फ्रि०) पहुंचना, पाप्त जाना, प्राप्त होना ॥ पूर्गीफक्ष तय० (३० ) सुपारी, कच्ैली, छात्निया | पूछ ९० (स्री०) धादर, सम्मान, अन्द्ेषण, प्रश्न | पूद्दना दे० (छवि. ) लिश्ासा करना। अजुसम्धान झरना, रोड व्गाना, अडन करता 4 पूठी दे* (स्त्री० ) मधलिये! की पद पूजरऊ १६० ( ४० ) झुनारी, देवलक, भर्चंछ, मदिरों में वेतन लैस पूष्ा काने धाला | पुज्ञन तव* ( पु० ) पूजा, अर्धन, चाराधन । धूमना दे० ( &० ) धचेत करना, ग्राराधन करना, प्यान काना | पूजनीय तत्‌० [ वि० ) पूजनाई, पूजन के येग्य पूजन करते के उष्युक्त, श्रेष्ट बढा, आद/ के लायक । घूचा तत॒० (स्परी०) चर्चा, भाराधना, बादर, सम्मान | पुज्य तव्‌० ( थिं० ) पूजनीय, पूजने योग्य ।-भान ( वि ) पूज्य, एहनीय ] पूठ दे० ( ६० ) पुद्ठा, पछठ के चूतड़ की इड्डी | पूठा दे० ( हु० ) पट्टा, घाता, जिल्द । घृड़ा दे” ( एु० ) पत़ीडो, बरा । पूड़ी ३० (स्त्री० ) पूरी, गेहूँ के आटे की बनी बस्तु नो घी में सेंड कर तैपार की जाती है। पूणी दे० ( स्त्री० ) रहे की पहल | [एविय्र । पूत त्तदु*( घु० ) पुत्र, सन्तान, येरा, प्रपत्य | ततू* पूतबा दच्‌ ( म्त्री० ) दामरी विशेष, इसी दानवी शो कस ने कृष्ण ओ मारने के लिये गोकुछ भेजा था| यह माया से सुस्दर सूत्ति बना कर नन्‍्दे के घर गई और कृष्ण के गोदी में लेकर विषक्षिप्त स्तन ढतझे! पिछाने छगी, श्रोकृप्ण स्तनपान करने ढगे, पाम्तु भोकृष्ण के स्तनपान करने से दागवी के स्तनों में मयद्भूर पोडा होने छूगी । उसने अपना अयद्ूर रूप प्रकट किया और श्रीकृष्ण से अपना स्तन छुडाने लगी, परन्तु छुटा नहों, धेंदना बढ़ने लगी, दाववी भी धोर ग़जेगा काती हुई सद्ठा के ब्विये सर गई | भ्रोकृप्ण शसझी देह पर बढ़ झर खेलने >गे | [बाबा । पूतनारि तद० ( हु० ) श्रीकृष्ण, पूतवा का थध कोने प्रृतनादुदून तव्‌« (घु० ) श्रीकृष्य । पुत्री दे० (स्त्री० ) पुतब्ी, मूर्ति आँव की तरह) पूठलो तदू० (स्त्री० ) युद्धिया, पुत्तव्रिका, कपड़े का बचा सिलौता ) पूतात्मा तद्‌* (पु०) [ पूत्र + भाषमा ] पचिग्र स्वभाव, शुद्ध देद, निष्पाप शरीर, कक्षक्ू रहित। पूति तत* (स्थ्री० ) [ प+क्ति] पवित्नता, शद्ि। स्वच्छता ।--क्णक (प० ) कर्ण गेग विशेष, झान का पाकना ]- गन्ध ( पु ) दुर्गंघ । पूती छृत चद्‌० (वि० ) पत्रित्रिन, पचित्री कृत, शोधित, शझुद्द किया दुआ, सप्चित, रदित | | घूदीना दे ( धु० ) सुगन्धि साथ विशेष । पूचयलाई ६ शुछ१ ) पूर्चा पूनसलाई दे० ( स्टी० ) शह्लाक्ा विशेष, जिससे पूनी | पूर्या तत्‌० ( स्त्री० ) पश्चमी, दशमी, पूर्णिमा और बनाई जाती है । पूनियाँ दे० ( ख्री० ) पूर्णिमा, पूर्णमासी, सास का अन्तिम दिन, जि दिच महीना समाप्त होता है। पूनी दे० ( स्त्री० ) रुई का गछा। पूना दे* ( स्त्री० ) पूनिया, पूर्णिमा, पूर्णमासी पूप तत्‌० ( 5० ) पूआ, पिष्टक, पक्यान्न विशेष | पूय तत््‌० ( घु० ) त्रण से निकला हुआ गंदा सफ़ेद विग्रह्ठा हुआ खून, हु्मेन्ध रक्त, पीच । पूर तत॒० ( पु० ) जढछ समूह, जल प्रवाह. जल् धारा, खाद्य विशेष, गुमि्या में मरी जाने वाली वस्तु । पूरक तत्‌० (बि० ) पूरणकर्त्ता, समापक, समाप्ति करने बाला, प्राणायाम विशेष। वाई नाक से श्वास खींचने का नाम पूरक्ष है । गुणन करने का श्रद्मा, फन्न विशेष, चीज़ पूरक, बिज्ोगा नीयू | पूरण वच्‌० ( पु० ) [पूए + अनद्‌ ] पिण्ड विशेष, पूर्ण करना, भरना, पूरर करना, भर देना। पूरणीय वत्‌० ( बि० ) पूर्ण करने के उपयुक्त, पूरा करन के येग्य । पूरना दे० ( क्र० ) बिनना, घुनना, बनाना। पूरण तदू* (१० ) पूे दिशा । सिम्पूर्ण । पूरा दे० ( स्त्री० ) परण, पूर्ण, सर पूरा, सब, समस्त, पूराई दे० ( स्त्रो० ) बोक्काई, भराई. पूर्णंता । पूरिया दे० ( स्त्री० ) रागिनी विशेष । पूरा दे० (गु०) पुर्ण, सरा, सम्पन्न शेष, सरा, भरपूर। पूरी, पूड़ी दे० (स्त्री०) लुचई,सोहारी,पकूवान विशेष | पूर्ण चत्‌० ( गु० ) भरा, पूरा, सम्पन्न, शोष |--कुम्स ( पु० ) जल पूरित धठ, महल घट, पूर्ण कलल । ++ज्या ( स्त्री० ) सीधारोदः, सीधी रेखा ।--ता (स्त्री) पूत्ति, पूरण, भरण ।--पात्र (प०) चस्छु पूर्ण पान्न, दवन के समय चावल आदि हे भर ज्र दान किया जाते बाल्ता पान्न । पान्न विशेष्ठ, जिसमें २४६ मुट्ठी चावछ भरा जाता है मत (४०) काह विशेष, पदले का समय, बीता समय ॥ जों समय स्वय॑ देखा गया हो, परन्तु उसे बीते बहुत दिन हो गये दो चह पूर्यमूत कड्ा जाता है । माया मारी सस्त्री०) पूर्णिमश, शुक्त पतच्च की पर्द्ददर्वी तिथि, पते, पन्द्स । अमावस्या इनकी पूर्ण संज्ञा है पूर्णावतार तव्‌ 5 ( छु० ) भगवाव का अवतार व्शिष, सयवान्‌ की पोडस कलाओों का प्रकाश, ओकृष्ण भगवान्‌ | पूर्णाह्डुति तच्‌० (स्त्री० ) [पूर्ण + झाहुति] हवन पूर्ण करने की आ्राहुति, झ्न्तिम आहुति । पूर्णिमा तद्‌* ( ख्ी० ) शुक्ल पक की पन्‍्द्ढवीं तिथि, जिस दिन चन्द्रमा डी कला पूर्ण होती है । पूर्त तब० ( छ० ) खातादि के, परोपक्राधर्थ ताहाग्र कुआ आदि खुरवाना ॥ पूर्ति तब॒० (स्त्री० ) पूरण, भाण, पाछन, पूर्णृता, समाप्ति । रे पूर्व तत्‌० ( छु० ) पूरब दिशा, प्राची दिशा। ( बि०) पडले का, श्रादि का, आय, प्राधमिक्न ।-नाहुत ( स्री० ) चदी विशेष ३-ज (४०) ज्येष्ठ आवदा, अग्रजन, पुरखा [--दिलर ( छ० ) गत दिवस, गया कल का दिन ।--देश (छु०) प्राची दिशा के देश, मध्य देश ।-पक्ष (० ) श॒क्त पछ, शास्त का अन्न, प्सद्धान्व का विरुद्ध पक्ष “--पुरुष ( घु० ) पित्ता पितामह श्रादि ।--यातत ( एु०) प्रथम प्रहर पहला पदर [--वत्‌ ( श्र० ) पद्ले के समान। +-बर्ती ( गरु० ) झागे वाढा। अप्रसर +-चासु (०) पूर्व का पवन, पुरचैया ।--लिखित (वि०) पहले का लिखा हुआ ।--राग (9०) नायक और नायिझ्ा झी अ्रवस्था विशेष । दुर्शन श्रवण क्षन्य परस्पर अनुरार । # जो प्रथमहिं देखे सुने, बाह़ें प्रेम समान। बिन मिछाप जो विकछता, से है पूरव राग भ ” “+रसराज | पूर्वा तद॒० ( रत्री० ) पवे दिक्‌, प्राची दिक, प्रधम। (वि०) पूर्व, अयम ब्यत, पूर्व पुरुष । (दे० ) गाव, घुरवा, दोला |--5मिप्ठुख्व (३० ) पूर्व सुस्त, पूरव के सामने | -5भ्यास (पु० ) पदले का श्म्यास, आगे की घान +--इवश्चि (लि० ) पूर्व कालावधि, चिरछाछ पर्यन्त |--इचस्थां ( सझ्री० ) पहले की अवध्था, श्वयम श्रवस्था १--5 शढ़ा ( लो ०) स चा- इस नदत्रों के अन्तर्गत दीसर्वा नन्न्न छू पूर्षी ( पु० ) दिन के भाग का पइछा साग, दिन का पहला याम । पूर्गी दे ( स्री० ) रागिनी विशेष। [ कद्दा हुश्वा । पूर्वेक्त तत्‌० (वि*) [पूरे + उक्त] प्रथम रथित, पदले पूवा दे० ( पु० ) घाप्त की अटिया, घास की गड्डी पूध दे० ( १० ) पौष मास पूस, घलुर्मांस। पूपण ठव्‌० ( घु० ) सूये, रचि, मानु +-- ( स्री० ) कार्तिझिय की श्रजुचरी, पक मातृझा का नाम| पूपा तव॒5 ( सी ) सूजन, चन्द्रकला विशेष, शरीरस्थ दायु विशेष, जे। दछ्धिण कान से निः्लता है। ( छु० ) धूये, रवि, ससुर । -र्मज्ञ (पु०) मेघ, बादल । पूस ( ए० ) पौपमास । पृक्त ( घचु० ) अनाज, अत | पुन्छुक तव्‌० (पु०) प्रश्नकर्ता, जिज्ञासु पूछने बाबा) पुन्छा तव्‌* ( स्री० ) जिज्ञापा, प्रश्न, पूर्वक! पूतना ठत० (स्त्री० ) सैन्य, सेवा, छटक, विशेष संश्यायुक्त सेना । प्ूथकू धद्‌० ( ऋर० ) मिश्न, अन्य, विच्द्रेद, न्‍्यारा, अबछ्ग, भिक्ठ, जुदा |-करण (पु०) भछग करना, मिश्र करना, विभक्त करना -त्तेंत्र (०) पुक पुरुष से अनेक वर्ण छी स्वप्रिये! मे उस पुत्र । पृथगामता तत्‌« ( स्त्री६ ) विवेक, बैराग्य | घूधगूज़न तत्‌० ( पु० ) साधारण मनुष्य, मू्े, नीच, पाएी, प्राकृत । [विविध वहुरूप । पृथगाविध तव॒० ( भ्र० ) ज्ञाना अ्र्मर, अनक विध, प्थवी तदु« ( स्त्री० ) मेदिनी, भूमि, घग्ती, घय | पृथा तत्‌5 ( स्त्री० ) इुन्ती, पाण्डवों दी माता। पृथिवी तव्‌० ( स्प्रो» ) मूमि, घरिणी +--पति (ए०) आपति, राजा, यम, वराद, ऋषम नामक ओपधि | जापाज (पु० ) राजा, भूपत्ति, भूमीस्वर । -“पालक ( घु० ) राषा, मूपती, दण्डघर । परृ्धी ( स्प्री० ) परृष्वी | प्ृथु तब» ( वि० ) मइत, निपुृण, विशाद |--राज़ ( पु ) सू्ंवशी पचिर्या गाज, आदि राजा। ये देशु राजा के पुत्र थे । इन्हंनि अपने दाहुबल से शथिवी झे समस्त राजाशों को ज्ञीव लिया था। इन्दोंने इुपिदी को वरावर समतछ कर दिया था, ( श४३२ ) श्य्द्र इस कारण इनका नाम एथु पढ़ा था। इन हे गज- सूथ यज्ञ में झआाकस मदर्षियों ने इनका दाज्यामिपेक किया था | इनऊे शासनहाब म्ें बिना ओते ही मूमि से अ्रद्च इत्वन्न होता था। मद्राराज प्रथु ने अनेक यज्ञ किये थे, श्रार समस्त प्राणिये। को अभि- लपित ज्ृष्य प्रदान करझे सन्‍्तुष्ट किया था । इन्होंने अश्वमेघ यज्ञ करने के समय प्थिवी की समस्त बस्तुश्रों की सोते की प्रतिमा बनवा कर व्राक्षयों के दिया था। इन्होंने ६६ इजार सुबर्ख-छश्न और मथितत्न मुपित सुवर्धमत्र एथिदी हनवा कर घाहययों को दान दी थी | इनडी उत्पस्ति इस प्रकार है। अतिवंशी शक्ल नामर प्रगापति ने धर्मराज की कन्या सुनिया के गर्म से वेश मामझ्न पुक पुत्र इत्पद्न किया था । चेण मद्दादुराचारी श्रोर कुमार्गी राजा था | उसझी समझ से सप्ता? में इसझे अति- रिक्त और कोई पूजा के येग्य न था, भ्र “पृथ रसने याग यज्ञ ग्रादि करना यन्‍्द करा दिया | पेए अद्याचार से प्रजा दु खित द्वागयी, ठव मरीचि आदि ऋषिये। ने वेश के चितादनी दी, परन्तु उसने इन थातें पर कुछ भी ध्यान नहों दिया, तब मदर्षियों का क्रोध और बढ़ गया, उन्‍्दोंन वेश का निप्रद्द करना ठान क्षिया| सव सापियों ने मिलकर शाप देकर चेछ के मार डाछ्या श्रार सब्र मद्टर्ष मिल कर वेश है हर के सथने एगे, मथने से ९5 काछा मनुष्य इत्पछ हुश्ना । जो निपाद जाति का आदि पुरुष है । पुन ऋषियों ने घेशु का दृष्दिना हाथ मथना प्रारम्म किया, इससे एथु की ध्टपत्ति हुई । पृथुक तद्‌० ( ६० ) [ एथु+छ ] चिड्डा | ( पृ० ) घातक, शिशु, कुमार । पृथुमा तद॒० ( घु० ) [श्थ + रोमन ] मछुक्ी, मास्य, मीन | ( वि० ) बृदएलोमयुक्त, रोधादार | प्रथुन्न ठत्‌० ( वि ) मद्दव, बढ़ा, अति विस्तृत। प्ृथुशिवा तव्‌० (६० ) कप विशेष, श्यौना बच । पृधूदक तद्‌ « ( पु० ) [.इ+ रदक] सीर्य विशेष । पृथूदर तल» (घु०) [ एछु+प्दर ] मेष) मेंढ | (वि० ) बुइद दर युक्त, बडा बे वाढ्या ६ चृथ्ची (६ शछ३ई ) पेढ पृथ्वी तत्‌० ( ख्री० ) रूमि, ज़मीन, उथिवी, घस्णी, | पेसलत देप ( वि० )अधित सेजा हुआ | स्त्री ।--पति ( $ ) राजा, नरपति |--पाल | पेखिय दे ( क्रि३ ) देखिये, अदन्बोक्तीय । ( छ० ) राजा, भूपति | पेच दे० ( छु० ) छसाव; मरोर, कील विशेष, काटा] पृथ्वीका तत्‌० ( खी० ) बड़ी इलाइ $ छेगडी इला- | पेरक तच्‌« (छु ) ब्लूक, छुग्पू खुसट। इची, कृष्ण जीरक, कर्छोजी ! येच्ा दे? ( पु० ) उल्लू. किचकिशखुआ । पृथ्वोराज तव्‌० ( छु० ) भारत का अ्रन्तिम हिन्दू | पेट द्े० ( चु- ) उदर, जठर |--आचा ( दा० ) पेट राजा | सन्‌ ११६४३ ६० में महस्मद सरोरी पुथ्वी राजा को जीत कर भर कैद कर यृज्ञनी ले गया। घर ले जाकर उसने पृथ्वीराज की आखे फोड़ डा । श्रन्त में चन्द्‌ कचि के कौशल से महाराज घृथ्वीराज ने महस्मद गोरी का बच किया और स्ब॒र्य उन्दोंने आत्महत्या कर ह* । (देखे अयचन्द्र) पृषत्‌ तब" ( छु* ) बिन्दु, कण, रुवेत विन्दु युक्त रूय, राजा विशेष । पूपरक ठत्‌० (पु० ) बाण, शर ! पृषदश्य तब॒ू० ( छ० ) [ एपत्‌ 4- अभ्व ] वाछु, पवन, बत्तास, राजा विशेष। पूषोद्र तव० ( शु* ) [ ४ + डदर] अल्पोदर, छोटे पेट चाला | ( पु० ) सपे। प्रूछ्ठ 88० (पु० ) शरीर के पीछे का भाग, पीठ, पुरतक्क का एक पन्ना, खफूहा “-अन्यि ( इ० ) झृब्ज, क्ुबढ़ |--ता ( अ्र० ) पत्चाद, शष्ट देश, पीठ की श्र [-पोपक्क ( प० ) पीठ ठोंकने वाला, सहायक, मददगार ।-घंश (9० ) छशस्थि, पीठ की इड्डी, सेरवण्ड (--जण ( छु० ) घृष्ठ देश में रफोटक विशेष, पीठ का फोड़ा, पिरक्ी । पृष्ठास्थि तत० (स्त्री०) [छछ+अस्थि] पीठ की हड्डी | घेह दे* ( स्वी० ) पिदारी, मब्जूपा, पेटी | ऐँग दे" ( खी० ) #ऋुला का हिल्लना, पक विशेष | पेंठ दे* ( ज्वी० ) हाठ, घज्धार, सण्डी । पेंदू। दे० (घ०) तक्का, पेंदी, नीचे का लाग, अधघोत्ाग। पेंदी ( खी० ) पेंदा, गुदा. माजर | पेई ( स्तवी० ) पेटी, पिटारी । चेखना दे ( क्रि० ) प्रेज्ण, देखना, निरखना, दुर्शन करना | स्वाँग बनाना, खेल करना, क्रीड़ा करना | चेखनिया दे० (पु० ) स्वॉग रचने चा७व, वहुरूपिया, देखने वाढ्वा, दर्शक । पेखवैया दे० ( ४० ) देखने वाला, देखवैया, प्रेचक । चल्न॒ना, दुस्त थाना, अधिक साड़े फिल्‍ना, दस्त की बीमारी ।--के दुख देना (वा० ) भूस्में मरना, पेट भर अज्न न खाना ।--का पानी न हिलना (बा०) किसी वात के छिपाना, प्रकाश करन का समय थाने पर भी प्रकाशित नहीं करना, दिक्ना, डुलवा वहां, स्थिर रहना |--की श्ागर ( घा० ) क्षुआ, भूख की पीड़ा, सत्ता, का दुःख ॥-को आय चुस्काना ( वा० ) खाना, भोजन करना । “की बातें ( दा० ) शुप्त बातें, छिपी बातें । +-गड़वड्डाना ( चा० ) पेट में दर्द दाना, पेट की पीड़ा ।--गिरना (बा०) गर्भपात द्वोना, गर्भ का गिर जाना, गसे नष्ट होना, |--झलना ( बा० ) भूखा रहना, क्षुघित होना |--दिखाना ( वा० ) अपनी अवस्था जमाना, द्रिद्वता प्रकाशित करना । पालना ( व३० ) किसी प्रकार निर्वाह करना, स्वार्थ साधना, दुख से दिन वितावा [--पीठ पक होना ( वा० ) दुर्वछ द्वाना, मिर्ध्ष झ्लेत्ता | +-पोछुना (चा० ) सत्र घे द्वोटा छड़का, भ्रन्तिम गर्भ की सन्तान ।--पोल्‌ ( वा० ) पेटाशूं, पेह खाऊ, पेढ पाक्नने घाला |--फ़ूलना (वा०) बहुत हँसना, हँसते हँसते पेट में घल पढ़ जाना । -वह्ाना ( वा० ) होम करना, दूसरे का घन पचाना +--वाँधना ( वा० ) कम खाना ।--भर (वा० ) जी भर, इच्छा भर (--भरना ( बा० ) अधघाना, तृप्त होना, सुख करना, तूस करना, सुख देना ।-मारना ( वा० ) आर्मघात करना, स्वर सार कर सर जाया, आत्महत्या करना “में पैठना ( बा० ) अन्तरञ्ाः बनना, श्रत्यन्त मित्र बनना, भेद लेना, भीतर की बातें जानना --मैं - लेना ( बा ) सना, केलना |--रद्दना (वा०) - शर्स रदना, गर्भवत्ती होना |--छ्वग ज्ञाना (बा०) झूखे सरता, भूखें रहना, पेट भर अन्न न सिलना। चैदा --छाग रहना (वा०) क्ुधत देना, भूखे रहना | “से होना ( वा० ) गर्सिणी इाना, पेट रदना, गर्म रहना ।-हेड़वड़ाना (वा०) पेट की बीमारी होना । पेढा दे" ( पु० ) थोकरा, पिटारी, पिठारा, पेठा | परेद्वरा देन ( ६५ ) पिदाध, टोकरी । पेढ्र्थी, पेदाथू, दे” ( वि० ) खाऊ, पेट । पैटिया दे० ( पु" ) प्रति दिन्‌ का मोजन, सीधा, पुर सनन्‍्ध्य साने के येग्य सीधा | पेदी दे० ( खत्री०) कमरवन्द, कमरकस, पेट का बन्धन, पिटारी, सन्दूकू, छोटा पिठारा | पेट्ट दे० ( वि० ) पेटार्थी, उद्र पोषु । पेल्ैखा दे० ( पु० ) रोग विशेष, अतिसार, शव गिरना, दिकदिद्वना, ब्याकुल्ता, उद्देय, इद्धिम्ता। पेडा दे० ( पु* ) कोदिढ़ा, ऋृष्माण्ड । पेड़ दे० ( घु० ) बृद्द, रूख, तर, दुम, दरण्त । पेड़ दे० ( घु० ) मिठाई विशेष, एक मिठाई का नाम । पेड़ो दे० (स्त्री०) दोग पेड़, सुपारी, मोल आदि की करी हुई ढॉटी, पान की एक जाति ॥ पेड दे० ( घु० ) नामी के नोचे का भाग । पैम तवू० ( घु० ) प्रेम, स्नेह, भीति । पेप्ती तदू० ( वि० ) प्रेमी, प्रीविषात्र, प्रिय । पेय तत्‌० ( बि० ) पान योग्य, पान करने के उपयुक्त । पेछ दे० ( घु० ) पक्षि विशोष, विलायतो मुर्गा । पेलना दे० ( क्रि० ) ेलना, हसना, टाँसना, घुसेइना, तेल निकालना, ल्यागना । पेल्नदद्वि दे० (क्रि०) रामायण में इस शब्द का प्रयोग, दाग बरेंग, शल देगें, छोड़ देगें, हट देंगे, मिश देंगें, ने मानने, तिरम्फार करेंगे--अर्थ में हुआ हैं । चेचड़ी दे० ( स्री० ) पीला रह, पिशट् । « पेच्रसों दे० (स्त्री०) पीयूष, अमृत, सुधा, खाद्य विशेष, हो फटे दूध से बनता है, द्वाल की व्यायी गौ वा पहला दूध, पेश्स । पेशी ठत्‌० ( स्प्रो० ) अ्रड, मासपेशी, सुपपदम्लिशा, नदी दिशेष, पिशाची विशेष, राहसी उशेष, अखि- कोप, स्पान । ( ४४४ ) पैठालना पेपक तत्‌० ( ५० ) मईनकारी, पीसने वाला । पेषण ठत्‌० ( घु० ) [ पिप्‌ + अनद्‌ ] मदन, पीसना, चूँणें करना, वॉटना । पेपणी तत्‌० ( स्प्री० ) पेपण यन्त्र, शिलपट, सिल। चेषशीय तत्‌० ( वि० ) पेषण योग्य, पीसने योग्य । पेपन दे० ( प० ) निरीक्षण, प्रेचण, तमाशा । पे दे ( थर० ) पर, ऊपर, परनन्‍्ठ, निश्चय, श्रवश्य, ( छु० ) ऐव, दोष, दूध पानी । पैकड़ा दे० ( पु० ) बेडी, सॉफ्र, रिकाय । ऐैकड़ी दे० ( ख्री० ) वेडी, पेर की जगीर, पैर धाँधने की सॉकल । पैफ्ार दे० ( पु० ) फेरीवाला, ब्योपारी । पैकी दे० ( स्ली० ) हुकफे का भाड़ा दिवैया, एप खेल । पैज़ाना ( छु० ) मल, विप्ठा, मल द्यागने का स्थान । पेगंचर (५० ) दूत, नवी, ईश्वर या दूत । पैगाम ( पृ० ) सन्देशा । पैगू दे० ( छ० ) बरह्मदेश का प्रान्त विशेष पैचना दे० ( फक्रि० ) पद्दोदना, फटकना, बनाना। पैचा दे० ( घु० ) उधार, बदला, पलटा । पेज दे० ( पु० ) भ्रण, प्रतिज्ञा, होड़ । पैजनी दे० € स्त्री० ) भूषण विशेष, पैर का गहना, एक आभूषण जिसे लड़के पहनते हैं, भौर जो फवृतरों के पैरों में डाली जाती हैं, साँक । € स्त्री० ) फाल, ठेग, चलने के समय दोनों पर के बीच की भूमि । [ भोजन । देंड्ा दे० (पु० ) मार्ग, यार, रैल, गसने से खाने पा देताना दे० (क्रि० ) पैर की ओर, पदतल, पायतल। बेंतालीस दे० ( वि० ) सगवा उिशेष, चालीस भर पाँच, ३५, पोंच अधिक चालीस | पती दे० ( स्त्री० ) पवित्री, छुश के छुरले । पतीस दे० (बि०) सप्पा विशेष, तीस और पांच, ३९। पसद दे० (पि०) संस्या उिशेष, साठ और पाँय, ६! ढ दे० ( स्त्ली० ) हुण्डी का खोना, पहुँच, हुंस्डी प्रतिलिपि, हुण्डी के खोने पर जो खिसी जाती है । पहुँच, अवेश [ उतना । पैठना दे+ ( क्रि० ) प्रेश करना, घुसना, मीतर चैठार दे+ ( ० ) देसो पेठार । [ करादा। पैठालना दे० ( फ्रि० ) प्रवेश कराना, घुसाना, पसार पेड पेड़ - पैड दे० ( छु० ) पदाक्ष, पढ़चिस्ह, पैरों का चिन्ह । पैड़ा दे० ( पु० ) ऊँची खड़ाऊँ, जो वस्साव हे दिनों में काम में लाई जाती हैं । पैड़ी दे” ( ख्ली० ) सोडो, सोपान, निपेनी। पैलरा दे० (छु० ) चन्नने को रीति, गति विशेष, कुरती या लकड़ी खेलने के समय की चाल । पैतला। दे० ( वि० ) उथला, दिला, उत्तान । पैद्वक तव्‌० ( थि० ) पितृधन, पिता का धन, चपौती, सारूसी । पैदल दे० ( पु० ) पैरों से चलने बाला, पत्मति, सिपाही । जैद्धा ( पु० ) उत्पन्न, प्रकट । पैस दे० ( पु० ) छोटी नहर, नाली, चेतों सें पानी से जाने के लिए छोटी भहर । पता दे० (बि०) तीचण, तेज | (प०) अहुश, आँकुश | पैशासा दें० ( क्रि० ) भीचस कराता, तेज कराना, घार दिलबाना । पैनाला दे० ( ए० ) पनारा, मोरी । पैप्वा दें० ( छु० ) पहिया, चक्क, निस्सार, घान्य । पेश्ान तदू० ( छु० ) म्स्यात, प्रस्थिति, विदा, यात्रा । पैर दे० ( थु० ) पाँव, पद, चरण । पैरना दे० ( क्रि० ) नैरना, तरने की रीति । पैरवी ( स्ली० ) बिचती, खुशासद; प्रयत्न, उद्योग । पैराई दे० ( स्री० ) सैरना, सेरने की रीति । प्रशाक दे ० ( खी० ) पैरने बाला, अच्छी तरह पैरना जानने घाला । [ड॒बाव जल जहाँ हो । पैराच दे० ( पु० ) पैरने के योग्य जल, अधिक जल, परी दे० ( स्त्री० ) पाँव का एक प्रकार का गहुवा । पैला दे० ( जु० ) काह का पात्र विशेष, जिससे अन्न आदि पाता जाता है, सापपात्र । पैवनद ( पु० ) जोड़, पेचदा ! पैशाच ठव्‌० ( घु० ) आठ अक्रार के विवाह के अन्त- गत एक त्रिचाह । ( बि० ) पिशांच सम्बन्धी पिज्ञाच का + पेशून्य तत॒० (०) पिछनता, खलना, परनिन्टा, अन्य फा आऑद्वित चिन्तन | पैसा दे० ( पु० ) तांबे का सिक्का, ढेडुसा, घन, अन्य, गेकड, सम्पदा ।--उड़ाना ( वा० ) बहुत खर्च, (६ ४४४ ) शा शी अटल रन ज नबी नस 338 “2-9: -5/ नदी कनकात महक ५: नल व ॥| | ॥| ॒ प्‌ | पेत करना, अधिक व्यय करना, चुराना, ठयना। खाना ( वा० ) विश्वासघात करके खा लेना । ऊझडेबोता ( वा० ) धन गेंवाना, घन वरवाव करना, डी उठाना ।--ड्ूबना ( चा० ) धन का मारों जाना, घन का नाश होना, घाटा होना । पैलार दे० ( घु० ) पैठर, अचेश ! [ करवा । पैप्ते लगाया दे (वा० ) श्वन लगाना, घन खर्च पैल्लेवाला दे० ( जि० ) धनवान, घनी । पैसों से दरयार सॉथना दें० ( वा० ) धुँस देकर सनमाना कास करता, धुंस देना । पैड्टे ढे० ( क्रि०) पावेगा, मराप्त करेगा । छिटा लड़का ! पोझा दें० (घु०) सॉप का बच्चा, दूध पीने बाला बच्चा, पेशञाना दे० ( क्रि० ) घमाता, त्तवाना, शोटों चेल करके देना । हि पोइस दे० ( झ० ) अक्षग हो, दूर, यह शब्द नीच जातियों को सावधान करने के ज्िये--जिससे वे छुएँ वहीं बोला जाता हैं। अथवा थे हो बोलते जाते हैं जिसे लोग हट जाँय | पोंकना दे० ( क्रि० ) क्षण कण में पतले दस्त होना। पोंका दे" (घु०) कीट, कृमि । पोंगा ढें० (०) मूर्ख, ठीला। (गु०) छछा, शल्य । पोंगी ढ़े० (स्त्री०) नली, छू छी, खोखली, मुर्खा ख्री । पोंकछन दे० ( छु० ) फाइन, साफू करण । पोंछूना दे० ( क्रि० ) काइना, साफ करना, स्वच्छ ऋरना; पोंछ कर साफ करना । पोंद( दें० ( छु० ) नासिका मल, नेट, छिनक । पेस्तर दे० ( छ० ) तालाब, सरोवर, तडाय । पच दे० (एु० ) छरे, नष्ट, नीच, मंद, अ्घम, अज्ञानी, अशुचि, दुर्भखत । पोदट्ला दे० ( छु० ) बड्डी गढरी, गद्ठर, गछ्ग । पोख्ली दे० (स््री०) गठरी, शक्कर विशेष ) पोद्य दे० € छु०) सेंदा,प्लक, पत्रों का सॉस, पचौनी, ओम, लड़का । (डिप्साही पढ़ा दें" ( बि० ) पुष्ट, बलवाने, पौंद, खाहसी, पोढ़ाई दे ( खी० ) कड़ाई, छुछता, चलवत्ता, साहस । पोत तच० ( पु० ) शिक्ष, शावक, वत्स, बचा, तरणी, नौका, समुद्र यान, जद्दाज़, दस वर्ष का हाथी। दै० मालयुजारी, देल, किश्त ! शण० घरा०४--६६ *5 नि नियत औ तन +.क्‍._लक्‍2लत2€लुलुलुलठ ऋ_,॒ पोतक प्रोतक तत्‌० ( पु०) बालक, बया, जनमतुआ बच्चा। पोतडा दे० ( घु० ) बच्चे का जिद्यौना । पोतडी दे० ( स्री० ) सेरी, मिल्ठी, हल । पोतना दे० (क्रि०) लीपना, मिट्टी या चुने से दीयाल पोतना । (पु०) पोठने का वख् या कूँची, मिससे पोतने हैं, पोता । [पुतना, अण्डफोश । पता दे० (पु०) पौज, पुत्र का पुत्र, पुत्र का लडका, पोती दे० ( खी० ) पुत्र की कन्या, पौती, बेटे की _ क्‍ल्या। पोथा दे० ( पु० ) बडी पोथी, गन्‍्थ । पोथी दे० ( खरी० ) ग्रन्थ, पस्तक । पोदना ३० ( पु० ) पक्षी उिशेष । पोना दे० ( क्रि० ) गूयेता, या «ना, ग्रहना, पिरोना । पंपनी दे० ( ख्री० ) बाद्य विशेष, एक बाजे या नाम । प्पला दे० ( बिं० ) दुन्‍्त रहित, बिना दोतो का । पोमचा दे० ( पु० ) रगीय बस्प्र, एफ प्रकार या रगा * हुआ कपढा । पोय दे० ( स्त्री० ) लता विशेष, जो यरसात में उत्पन्न होती है, शाऊ विशेष )-- ( र्तो० ) लत्ता तिशेप, जिसकी भाजी बनाय्री जाती है। पोर दे० ( पु० ) गाँढ, प्रन्थि, बोस की गोद, दो मोटो के बीच का भाग । पोरा दे० ( पृ० ) प्रोर । पोरी दे० ( स्त्री० ) चोटी मॉँट । पोला दे० ( बि० ) हूँ दा, शल्य, रीता, रिक्त, खाली, ! नरम, फोमल । पॉली दे० ( खो ) श्रनारी, अनाडी, मूर्स, अज्ञानी पोशाक ( ख्री० ) पहिनने के कपडे, परिच्चद पेशीदा ( वि० ) गुप्त, द्विपा डुआ । पैषप ( पुृ० ) पालन, परयरिश । पोषक रुव॒० (पु०) [ पुप्‌+ रू] पाल, पालनफ्नो .._भरेणकरी, सहायता देने वाला । पोपश तत्‌० (पु०) [ पुप््‌ + अनर | मतिपालन, रहण, प्ोषशीय ठत्‌० ( वि० ) पोग्क, पोसने योग्य, पोषण करने के उपयुक्त । घोपधित्न तत« (पु०) कोकिल भर्त्ता, पति, स्वामी ॥ ( #8ई ) पौड़ूक पोटा तत्‌० (५० ) पोषण, पालयिता, पालन करने चाला। ० पेषय तत्‌० ( वि० ) पाल्य, पोपणीय, पालन करने योग्य ।--पुआ (पु०) दत्तक पुत्र, पालन पोषण के द्वारा बनाया हुआ पुत्र ।--बर्ग ( पु० ) श्रवश्य पालनीय, इद्ध पिता माता आ्रादि, परिजन बगे। चेसना दे० ( क्रि० ) पालन पोषण करना, रा, करना । पास्ता दें० ( पु० ) अफीम घा दृत्त, दाने का पेड | परोष्ट दे० ( पु० ) धान हाल, भोर, सड़या, विद्वान, सरेरा । पाहना दे० ( क्रि० ) रोटी बनाना । [ परने घाला। चाहारों तदू० ( बि० ) पयहारी, केवल दूध का श्राद्दर पेहियहि छे० ( क्रि०) पिरोडये, सूँधिये, पोहना चाहिये । पो दे० (स्री०) जज खत, चौपड़ के पासे का एफ्त्रा । पॉगणट तत० ( पु० ) अवस्था विशेष, पॉँच वर्ष से सोनह घर्ष की श्रसस्था तक. पौंचा ( पु० ) साढ़े पॉय का पहारा । घोड़ा दे० ( पु० ) ईचु पिशेष, कस, पौद्य । पाना ठे० ( क्रि० ) सोना, शयन करना, लेदना । पोौढारा दे० ( क्रि० ) सुलाण, शयन कराए । पोणडरीक दे० (ग्रि०) पगटरीक सम्यन्यी, कमल पा । पोणडू तत० ( पु० ) ढेश विशेष, चन्देल देश, मीमसेन के शद्भ॒ का नाम, ईघचु तिशेष, पोदा, ऊल । पौंडूर तत्‌० (पु० ) ज्ञाति विशेष, इईंड विशेष, पुण्ड देश का पुक राजा पौरडक यासुदेव नाम से इनकी असिद्धि है। जगसन्पर के ये बढ़े मित्र ये। इनेके पिया को नाम बसुदेव था। बसुदेव की दो खरियाँ थीं सुतनु और नाचादी, सुतजु छ गर्भ से पीड़र और नाचाही के गर्भ से फपिल उत्प ए्‌ थे, कपिन रासारत्यागी होकर योगी हो गये अपना नाम वासुदेव रख कर पटक राज्य करते थे। बासुदेव श्रीकृष्ण द्वारिता हीसे इसडी डिठाई सुना करते थे। श्रीहन्ण का चासुदेव कदा जाना पौण्डक से सहा नहीं जाता थी । पौण्दक कहा करता था में शद्ध चक्र ग्रदाधारी हूँ, मेरे चैसी छमता फिस में है, इसी प्रयार बद अपनी पौसलिक डद॒ण्दता प्रकाशित किया करता था। वह और भी कहता था कि वासुदेव इस सास को ब्वाल के छोकरे ने ले कि्रा है। श्रीकृष्ण को सुधारने के लिये उससे द्वारिका पर आक्रमण किय्रा था। अनेक यादव उसकी सेना के द्वारा मारे गये। अन्त में श्रोकृष्ण और पौण्डक के साथ युद्ध हुआ, अब पौणडक को असली चासुदेव का पता लग गया, इसी थुद्ध में वह मारा गया । पौत्तलिक तदू० ( पु० ) खूतिपूज़क | पौध चत्‌० ( पु० ) पोता, पुत्र का पुत्र । पोज्ी तत्तू० ( स््री० ) पोती, पुत्र की कन्या | पौधा दे? (पु० ) बृछ का अंहुर, छोटा घूक्च। पोच दे० ( स््री० ) तीन चौथाई, चार भांग का तीव हिस्सा । पौना दे० ( छ० ) भरना, लोहे का एक वर्तन जिससे सेव तथा पक्तौंडी आदि छात्ती जाती हैं। हाथ से रोटी बनाना । पौने दे० ( गु० ) पुक चौथाई कम । [फाटक । पौर बत्‌० ( गु० ) नगर सम्बन्धी, द्वार, किवाड, पौरक ( छु० ) घर के बाहर का बाग । पौस्च तत० (छु०) पुरु बंशभव राजा विशेष, दुष्बन्त ! पौरस्य तत्‌० ( वि० ) प्रथम, आद्य, पूर्व क, पूद्तीय, पूर्व दिशा सम्बन्धी । [मतावल्तस्वी । पौराणिक तत० ( घु० ) पुराण शाख्वेत्ता, छुराण ' पौरिया दे० ( 8० ) द्वारपाल, द्वारपालक, डेंबढ़ीदार, दुस्‍्बान ! पौरी दे० ( स्थो० ) पौर, डेबढ़ी, द्वार । पौरूष तच्‌० ( पु० ) पुरुपत्व, पुरुष का फर्म, पुरुष की शक्ति, पुरुपार्थ, बल, दविम्मत, साहस, साकृत। पौरुणेय दत्‌० ( बि० ) घुरुप निर्मित, घुदर का बनाया हुआ । पौरुष्य ( छु० ) साहस, पुरुषत्व पौरुहंत ( छ० ) इन्द्र का अख, वच्ध । पौरू ( ख्री० ) एक प्रकार फी मिट्टी या जुसीन। ' चोरेय ( घु० 9 नगर के समीप का स्थान, देश, आस आदि । पौरागव ( 9० ) पाकशालाध्यक्ष, दावर्चा खाने का परोदित्य तद्‌० ( ४० ) छुरोहित का कर्म ! श ( ४8७ ) [ द्वारोगा । | प्र पोर्णमास ( घु० ) एक योग था इश्टिका जो पूर्णमासी ़. को किया जाता है। [वन की अधिष्त्री देवी ! * पो्शमासी तत० ( स्त्री० ) इर्िमा, पूर्णसासी, बुन्दा- पोर्बाठिक तच्‌० ( थि० ) पूर्वाह् की किया, पूर्वाह्न है सम्बन्धी । [ विभीषण । पॉलसय तद्‌० ( छु० ) कुत्रेर, रावण, कुम्सकर्ण, पोलिया दे० ( स्त्री० ) पौरिया, छीरी खड़ाऊँ। पॉली दे० ( स्री० ) पौरी, खड़ाऊँ। है पॉलीमी तत्‌० ( झ्री० ) पुज्नोमजा, पुलोम चासक दानव की कन्या, इन्द्राणी, शच्वी ! पांच दे० ( ० ) चौथा भार, पाद भर । पॉप सत्‌० ( घु० ) पूस, चैत्रादि द्वादश महीने के अन्तर्गत ठुशम सास, घलुर्माल | पौष्टिक तत० ( ४० ) पुष्टि वर्दक, छह, पुष्टिकर पोपक | ऐसी दवाई जिससे शरीर पुष्य हो पॉसर या पॉसलां दें० ( घु० ) पौ, प्याऊ, प्रपा, ५. प|ती पिलाने का स्थान, पौशाला । पाँद दे० ( छु० ) जलशाला, जलसत्र । प्याऊ ( १० ) देखो “ पौंसला ” । प्याना दे ( कि० ) पिलाना, पान कराना ! । यार दे० ( पु० ) प्रेम, प्रीति, स्नेह । । वार दें० ( बि० ) प्रेमी, प्रिय, स्नेही, प्रियतम । “जानता ( वा० ) आदर करता, सम्मान करना, श्रेष्ठ जानना । । प्यारी दें० ( री० ) पिया, पियारी, त्रियतमा । प्याला दे० ( पु० ) करोश । ध्याचना दे० ( क्रि० ) प्याना, पिलाना, पान कराना । | प्याऊ दें० ( खी० ) पपा, पानी शाला, जहाँ घर्मार्ध |... पानी पिलायो जाय । प्यास डें० ( खी० ) कृश, पिफासा, हृप्ण ।+--शुसााना (चा०) पानी पीना, प्याल दूर फरने के लिये कैसा हू पानी पी लेना, मनोरथ पूर्ण करता [--मारना दें? ( बा० ) अधिक प्यास लगाता, पिपासित होंना +-लगना ( वा० ) पिपासा लगना, तृपा सालूम होना । | च्याखा तत० (वरि०) पिपासित, तृण्णावन्त, तृप्णान्वित । * थ्र सत्‌० ( उपसर्ग ) आरम्स, उत्कर्प, सर्वत्तोभाव, आधान्य, आद्य, स्याति, उत्पत्ति, व्यवहार । प्रकद ( #छष ) प्रकोप प्रकद् तत्‌० ( गु० ) [त्रै+ कट + अल] स्पष्ट, प्रकटित, . प्रकाशी ( पु० ) चमकता हुआ । प्रफाशित, व्यक्त।.. प्रकदन तत्‌० ( घु० ) [ प्र + कट + अनद्‌ ] प्रसशन, ब्यक्तीररण, प्रकाश करना, च्यक्त करना । प्रकित तत्‌० ( बि० ) प्रशशित, व्यक्त, रपट । प्रकम्प तत्‌० ( पु० ) कॉपन, केंपरेंपाइट, थरथरी । प्रकम्पन तत्‌० (पु० ) वायु, नरक विशेष । प्रकर तद० ( पु० ) फैले हुए कुमुम आदि, समूह, दल, गिरोह । प्रकरण ततू० (पु) [प्र+कृ+अनट ] प्रस्ताव, अमिनय करने की रीति, रूपऊ भेद, ग्रन्थ सन्धि, प्रन्थ विच्देद, “निरूपणीय एक विषय की समाप्ति पुसार्धवाचक सूतो का समूह, प्रसद्भ, काण्ड, अध्याय । ह प्रकरी तत्‌० ( खी० ) नाव्याद्ष, चत्वर भूमि, नाटक खेचते की बेदी । [ उस्फरें, श्लेष्ठता, प्रशम्त । प्रकर्प तत० ( पु० ) [भ्र+कृप्‌ू + श्रल्‌ ] उत्तमता, प्रकाण॒ड तत्‌*० ( वि० ) इृहत्‌, अ्रतिशय, विशाल | ( १० ) वृत्त समन्‍्ध, बुत्त का वह म्थान जहाँसे शाखा निकलती हैं । प्रकाप्त तव० ( गु० ) [प्र+काम्‌+घत्‌ ] यथेप्सित, यपेष्ट, इच्छू/ पू्रेझ, इच्दापूत्ति, सनमाना, मत मर, सूउ। [भाँति, तरह, कम, मुक्ति प्रकार तत्‌० (पु० ) [ ,+श+घत्र्‌ ] ढ़, रीति प्रकारात्वर सत॒० (वि० ) [ प्रजार + अ्रनन्तर ] अन्य विध, अन्य प्रमार, दूसरी रीति प्रकाधा तत० ( पु० ) [ प्र+कास + अल ] व्यक्त, विराश, उदय, दीप्ति, प्रफ्ट, स्पष्ट, प्रसिद्ध, स्थानि, उज्नेला, ज्येि, रोशनी, धूप, तेज, चमऊ, फैनाप, दीसिसान । प्रकाशक तत्‌« (पु०) प्रशाशकरत्ता, दीक्षिकारक, प्रमाण करने बाला, उजाला करने चाज्ा | प्रऊाश्य तत्‌० (बि० ) प्रकाशनीय, प्रखदनीय, प्रमश करने येग्य, अ्झ्ाश करने के उपयुक्त । प्रकास ( पु० ) प्रकाश का अपनम्रश । | प्रकीण सत्‌० (वि०) [प्ि+हृ +क्त] विक्षिप्त, विस्तृत, ,. झअनेरूअझार से मिश्रिय । ( वि० ) प्रन्यविच्चेद, ॥ अध्याय, काए्ड, चामर ।--क्र (5० ) चर, | अध्यात्र प्रवरण,विस्तार, फुटफर, जिसमे भित्र मित् प्रमार की वस्तुशों को मिलावट हो।- की ( स्त्री०) दुर्गा । [ बर्णुन, फ्थन । | प्रकात्तन तत्‌० ( पु०) [ प्र + कृतू + न ] प्रस्तायन, | प्रकीति ते सत्‌० (वि०) कपित, भाषित, उक्त, च्याहत, । ॥ वर्णित, निरूपित । [ युक्त, कुद । प्रकुपित तत्‌० ( बि० ) कोधान्विय, क्रोधित, क्रोध- | अकृत उतर ( वि० ) उत्तमता से किया हुआ, यथार्थ, सन्‍्य, वास्तविक । । प्रह्तार्थ तत्‌ ( थि० ) [ प्रहरयर्न श्र ] उचित श्र्थ, उचित व्यवहार, यथार्थ, उपयुक्त । प्रकृति यत्‌« (ख्री०) [ श्र+कू + क्ति ] स्तभाक, धर्म, गुण, भागा, ईश्वर की शक्ति । चरिग्न, योनि, उत्पत्ति स्थान, उद्भव चेत्र, चिन्द, जन्म केत, अह्ष, स्वामो, अमाल, सुदनू , काप, राष्ट्र, राज्य, दुर्ग, किला, पुरवासी, समूह, शक्ति, परमाष्मा, पद्ममूत, इक्कीस अचर के पाद वाला छन्द विशेष, माता, धातु, प्रत्यय के पहले का भाग, सरग, रज और सम इन त्रियुणों की सास्यावस्था, प्रधान, माया, शक्ति, चैतन्य, भगवान्‌ वी भाया साम की शक्ति ।--मिद्ध (वि०) स्वभाव जात, स्वभाव +... सिद्ध, स्माविक। ु प्रकृष्ठ तत्‌० ( गु० ) [ प्र+कृप्‌ +क्त ] उत्तम, श्रेष्ठ, |... प्रशात, सुस्य, उत्हेष्ठ, प्रधान, भला ।--ता (स्त्री०) । श्रेष्टठा, उत्तमता । प्रकाशन तव« (१० ) ५६ प्र+ काश + अनद ] प्रचार | प्रकोट ( घु० ) परिखा, परिकेय, धुस्स, शदरपनाह। करण, व्यक्तररण, फैलाना, ब्यक्त करना, प्रसिद्ध | धक्रोप ( पु० ) अत्यन्त अधिर कोप । बपलता, झिसी करना, प्रसाश करना । रोग की प्रसखता । प्रकाशित तत॒७ ( दि० ) [ प्र+>काश्‌+क्त ] प्रकाश, | भधकराप्ट सत्‌० ( घु० ) काठे के नीचे या घर, द्वाय का दिशिष्ट, अगि हत, प्रश्टिय, उदित, च्यक्तीमूठ, ; .. पहुँचा, कलाई से केहुनी सऊ्, फल्ाई और केडुनी प्रसिद्ध, उदिद । ।.. के योच का भाग । बन प्रकोष्णा ( श४६ ) प्रचेतसी प्रक्ेष्णा ( स्त्री० ) एक अप्सरा का नाम । प्रक्रम तत्‌० ( यु० ) क्रम, अचसर, उद्योस, आरस्भ, अनुष्ठान । प्रकमणश ( छु० ) भल्ली भाँति घूमना, पार करना, प्रक्रान्त तत्‌ू५ (ग॒ु० ) [ प्र+क्रम + क्त ] आरवघ, शर्ट किया हुआ, आरम्भ किया हुआ, अनुष्ठित । प्रक्रिया तत्‌० ( स्री०) राजाओं का चामर ज्यजन और चुच्र धारणादि व्यापार, देवचेश, देवकर्म, रीति, अकार, विधि । | प्रक्रिन्ष तत्‌० (वि०) दृप्त, सन्वुष्ट, पलीना से लद॒फद । धह्केद ( छ० ) नमी, तरी ! प्रत्तय ( छ० ) क्षण, नाश, वरबादी । प्रज्ञाल ( पु० ) प्रायश्चित । [ छ॒ुद्ध करना । प्रत्ञालन तत्‌० ( पु० ) पखारना, धोना, साफू करना, प्रक्षिप्त ( पु० ) फेंका हुआ, पीछे ले मिलाया हुआ । प्रज्ञेंप तत्‌० ( पु० ) फेंका, त्यागना, त्याग करना, छोड़ना । अखर तत्‌० ( पु०) तीखा, तीदण, निशित | (बि०) घोड़े की जीन, चारजामा --ता ( स्त्री०) तेजी, उम्मता । प्रखवरंशु सत्त० ( वि०) तीच्ण किरण, तीघ किरण । प्रद्याल त्त्‌ू० ( वि० ) प्रसिद्ध, विख्यात, यशस्बरी, कीतिमान ) प्रख्याति तत्‌० ( स्त्री० ) प्रसिद्धि, खुयश, नामवरी । प्रगट तृदू० ( बि० ) स्पष्ट, खुला हुआ, ग्रकट, अ्यक्त, प्खिद्, अलयक्ष, जाहिर, बिद्ति अगदसा दे” (क्रि० ) व्यक्त होना, प्रसिद्ध होना, जाहिर होता, विदित होना। प्रभादस तत्‌० ( वि० ) स्रत्युत्पन्नसति, प्रत्तिभान्विस, द्वास्थिक, व्यापक, शट्ट, ढीठ, दस्म युक्त, उपस्थित “बुद्धि धाला, शासख विजयी ता (९ स्थ्री० ) प्रासव्भ्य, दास्मिकता, ठिठाई ?-न (स्त्री०) औढ़ा --बच्चना (स््री०)नाय्रिका विशेष,बात चीत करते ही करते अपना दुःख, क्रोध और उलहना प्रकट करे। प्रमाढ़ त्त्‌० ( बि० ) इद, कठोर, अधिक, अतिशय, चहुल, हच्छू, कट । अगुण तत० (वि०) सरल, ऋ्ल, उदार ! (छु०) डत्तम स्वभाव । भर [ आरस्म करना, आगे बढ़ना । ' प्रमृहीत ( बि० ) भल्ती भाँति अहण किया हुआ, |. जिसका उच्चारण सन्धि के नियमों पर ध्यान रखे विना किया गया हो । | प्रगृह्य ( वि० ) अहण करने चेफ्य, सन्धि के नियमों '. का ध्यान रखे बिना उच्चारण करने योग्य । प्रश्नह तत्‌० ( पु० ) त॒ला सूत्र, छुलारज्जू , तराजू की डोरी, पशु बॉँघने की डोरी, लगास, पगदा, बन्‍्दी, स्तुद्तिपाउक । प्रश्राह तव्‌० ( पु० ) बॉधने की डोरी, रस्सी । प्रघय्च् ( घु० ) सिद्धान्त । प्रघटी दे० ( स्प्री०) कुल्हिया, सेना आदि धातुओं के गलाने का पात्र, धरिया, प्रगट हुई । [दालान । प्रघाण तद्‌० ( पु० ) दृएर के बाहर का बरामदाया प्रधसू ( छ० ) रावण के एक सेनानाथक राक्षस का नाम । दैत्य, राक्षली ( वि०) भक्तक, खानेवाला । प्रश्रणुडड चत्‌ू० ( बि० ) अस्युग्न, तीर, तीचण, श्रसहा, भयानक (--सूर्ति (स्त्री० ) प्रताप युक्त शरीर, भयानक आ्राकार ।-ता ( स्त्री० )->त्व (5०) तेजी, तीखापन, प्रवलता, उग्रता, भयइ्रता (न ( स्त्री० ) सफेद फूल घाली सफेद दूव , हुर्गा, चरुडी, दुर्गा की एक सखी । [ फैल्लाब, विस्तृत । प्रचलन तत्‌० (पु०) भचार, प्रसार, प्रसिद्ध, ज्यापकता, प्रचत्वित तत्‌० (वि० ) असिद्ध, ध्यापक, सर्वत्र गृहीत, सर्वत्र ब्यवह्मत, जिसका ज्यव्रहार सब स्थानों से होता हो । [पचलन, विस्तार, व्यापक । प्रचार तत० ( घु०) [ पश्र+चर + धन्‌ | प्रकाश व्यक्त, प्रचारक तत्‌० ( जि० ) प्रकाशक, व्यक्तकारक, प्रसिद्- कर्ता, फैलाने वाला ।..[ स्पष्टकरणा, चराना । प्रधायण तत० ( छु० ) व्यक्त, करण, प्रकाश करण प्रचारना दे० (क्रि०) प्रसिद्ध करना, फैलाना, चलाना । प्रचारित तत्‌० ( वि० ) फैलाया हुआ, चलाया हुआ, अखिसछ् किया छुआ, चलन में आया « हुआ । प्रचुर तत्‌० ( वि० ) अधिक, बहुत यथे्ठ ।+--ता (स्त्री० ) बाहुल्‍व, आधिक्य, अधिकता, अ्धिकाई । -+तवं (छु०) यथेष्ठता, आधिक्य ।+--पुरूष (छु०) चर, तस्कर | प्रचेतसी तव्‌० ( स्त्री० ) प्रचेता सुनि की कल्या । । प्रचेता प्रचेता तव॒० ( घु० ) वरुण, मुनि विशेष प्रह्नथचित्त, प्रशस्त चित्त, प्राचीद बहराज का पुत्र, प्रजापति विशेष, ब्रह्मा का पुत्र, लोक पितामह, घक्मा ने अपने शरीर से बेद बेदाद्व वित्‌ पुत्रों की संधि की, उनके नाम ये हैं ---अ्रत्रि, पुलस्य, पुलह, मरीचि, खुगु, अड्जि रा, ऋतु, चशि्ट, दोढु, कपिल, आसुरी, कवि, मझु, शद्भ, पश्चशिस और भ्चेता । प्रचेल ( छु० ) पीला चन्दन ।--क ( पु० ) घोरा । - प्रचोदक ( वि० ) प्रेरणा करने वाला, उत्तेजित करने | चाला। प्रदोद्न ( पु० ) प्रेरणा, उत्तेमना, आजा, नियम । प्रचादित मत्‌० ( वि० ) प्रेरित, नोजित, गमनानु- मति प्राप्त, जाने की अनुमति प्राप्त, सम्यकू कयित । ' प्रच्युत तत॒५ (वि० ) पतित, चरित, गिशा हुग्रा, स्ख॒लित, पदश्रष्ट, पद॒च्युत्‌ । प्रच्छुक ( ५० ) पूछने वाला, प्रश्न कर्त्ता । प्रच्छद तत॒० (पु०) [प्र+ चद्‌ + अल ] श्राच्छादन, उत्तरीयं वस्त्र, चदर ।->पठ (पु०) उत्तरोय चस्च, पिद्दौरी । प्रद्छुल्त दत्‌ू० ( वि० ) आच्चक्त, आच्दादित, गुप्त प्रच्छुदिका तव्‌७ ( स्त्री०) कै, उलटी, उद्गार, वमन, बमि रोस विशेष । [ चादर । प्रन्छादून तत० ( पु० ) घुरका, पिदौरी, ओद़नी, प्रज्ञय चत्‌« ( पु० ) प्रदृष्वेग, अतिशय चेण ६ प्रज्रगा तत्‌० ( पु० ) ज्वलन, जलन, यरन भज्ञरित तन ( वि० ) ज्वलित, जलाया हुआ, भस्म । प्रश॑ब्प सत्‌० ( ६० ) वाक्य विशेष, फद्दाना, क्रिस्सा । | “जन ( छु० ) बाठदीत । प्रज्ञा तत्‌० (स्त्री०) सन्‍्ठान, सन्‍्तति, वशयता मनुष्य, अधिशारस्थित, रैयत (--काम ( घु० ) पुतप्रापि | की इच्चा रखने बाला ।--कार (घु० ) पअजा डेरपत करने बाला प्रजापति, बढ्य १ प्रज्ञागर तत० ( घु० ) अतिशयजागरण, अत्यन्त चिन्ता +--६ ( स्प्री७ ) एक अप्सरा का नाम | प्रजाधिक्ारी राज्य रुत्‌५ ( पुर प्रह्ा सच्त्तक राज्य शासन, जदा का राज्य प्रजा ही व्पदेस्या के भनु- सार चलता हो | प्रजापति दव० (पु० ) अक्षा, दचच, फश्यप आदि मसदपि, संदीपाल, राजा, जामाता, दिवाऊुर, (. ५४० ) प्रणपन चन्हि, त्वष्टा, दस प्रजापति, पिठा, स्वनामस्यात कीट विशेष | प्रजारी दे० (क्ि०) जला कर, भरम करके, दग्ध करके। यथा--बर्जाई टोल देहि सब तारी । नगर फेरि पुनि पूंछ ' प्रज्ञारी ॥ क “-रामायण | चज्ञावती तत्‌» ( स्त्री०) आावृजाया, ज्येष्ट आठपत्ती, घुत्रवती स्त्री ( [ झादार । । प्रन्नासन 4० (घु०) प्रभा का मोनन, प्रचाशन, साधाएण प्न्नित ( पु० ) विजय करने घाला । प्रज्ञादित तत्‌* (व०) प्रज्ञा का उपछार, प्रभा का शुभ । प्रजेश या प्रजेश्वर दद॒० ( पु ) सरा, मदीपाल, सूपान | प्रज्ञेग ( पु० ) प्रयोग प्रर्क्रव्का ( स्त्री) इन्द विशेष, मिपक्े प्रत्येक चरण में १६ मात्ाएं होनी हैं । २ प्रज्ञ तत्‌० ( वि० ) विज्ञ, अभिन्न, पण्डिन, प्रवीण | +>ता ( स्त्री० ) विद्वत्ता, पाण्टिय | ! ब्रद्धाप्ति त्‌० ( छी० ) निवेदन, विज्ञापन, सईत। प्र्षा उत० ( स्रौ० ) बुद्धि, मति; थी ।- चत्त (प० ) घुनराष्ट्र । (वि० ) बुद्धिमान्‌, ज्ञानी जवान दृष्टि के द्वारा देखन घा रा, भनन्‍्ध! ।--परारमिता ( स्री*) दौद्ध मन्यानुसार गुणों छी पा झाश ।--मथ (५०) विद्वानू, परिठत [ ज्वसन्त । ; प्रज्यजित तत्‌० ( वि० ) अश्रतिशय ज्वन्नन विशिष्ठ; प्रढ्ेन तव ० ( १० ) परी की गति विशेष, प्रघम उड्डयन, तियंग्यमन । , प्रण्ठ ठद्‌० ( पु० ) पक, प्रतिज्ञा, कौझ, ऋरार, पुराण, | पुरातन, बहुकाब्ीन |--ख (घु०) नये का अग्रप्ताण | प्रणशत तत्‌० ( वि० ) [प्+नम्र + क्त] प्रथति विशिष्ट ,.. कूत प्रणप्म, चाण। में निशा डुअ', नम्र, विनत ! --पात्त ( वि० ) शणागवरद्छ, दीनगाछक | प्रणति तत्‌» ( छी०) ([प+ नम + कि] प्रणाम, प्रस्ि- ४... पात, नम्नता | | प्रणाय उत्‌» ६ पु० ) [ प्रकनी+श्रल ] प्रेय, धीति, ।. अनुराग, भनुकक्ति, विश्वास, निर्शय ] प्रणयन्न तद% ( .«) [ प्रकनीक धनट ] रचन; +. प्रस्तुतकरण, निर्माण, संध्दार करण, रचठ, प्रथन | प्रशविनों ( ५१ ) घप्रतारणा अखयिनो तब» ( ख्ी० ) प्रेमास्पद्ा, दनिता, प्रिया, | अतापसिद तव्‌० ( छ० ) मेवाढ़ के प्रसिद्ध खदेशसंचकऋ साया, अड्लसा, स्त्री । प्रणयी उत्त० ( वि० ) प्रेमी, अचुरागी, अनुरक्त । प्रणव तव्‌० ( पु० ) ओंकार, मन्त्रसेचु । प्रशधना ( क्रि० ) प्रणाम करना। ट प्रणावों ढे० ( क्रि० ) प्रणास करता हूँ ,नन्न द्वोता हूँ । प्रणौध्त तच्‌० (पु) [प्र-# रश्न +घज |] घ्रणति, प्रखि* पात, अ्रत्यल्त भक्ति और क्षद्धा के सद्वित समस्कार ! प्रणामी त्तदू० ( वि० ) नमस्कारी, देवताओं के श्रणाम के लिये दी जाने घाली दृक्तिणा । प्रणायक्ञ ( पु० ) नेता; सेवा, चायक् | भणालत ( पु+ ) पनाजा, सोरी, नाली | ! प्रणाली तत्‌« ( ख्री० ) धारा, रीति, प्रकार, जल , निकलने का सार्ग, परम्परा, पताढछा, नर्दवा। प्रणाश तल" ( धु० ) ध्व॑प्त, नाश, उत्पात।--न् (४०) नाश करते का भाव या क्रिया [--ी (पु ) नाश , करने बाला । [ प्रयक्ष, प्रवेशन + | * प्रशिध्चान तत्‌० ( छ० ) सनेयरोेग, अवगति, ध्यान, प्रशिक्ति छव० ( पु० ) चर, दूत, प्राथवा, अवधान । | प्रशिपात्त तत्‌" ( घु० ) प्रणति, प्रयाम, नमस्कार | भ्रणिद्दित दत्‌० ( वि० ) रद्धित, स्थापित, सनोयेग कृत, समाहित | [ बाद । प्रणी तत्‌० ( बि० ) शटछ शरण वाला; ध्ढ़ प्रतिज्ला प्रणीत तव॒० ( घि० ) संस्कृत श्रप्ति, यज्ञ मन्त्र द्वारा प्रब्बखित अ्रम्ति, बचाया हुआ, रचा हुआ; तैयार किया छुप्ला ( स्त्री० ) यज्ञय जल विशेष, यशज्ञय पत्र विशेष प्रगेता ( प० ) सविता; कत्तो । प्रशेय ( वि०) कौकिक सेह्कार युक्त, अधीन, वशचर्ची प्ररे।/दिति तत॒० ( वि० ) प्रेरित । प्रतन्चु ( घि० ) क्षीण, दुबढा, सूक्ष्म, मिद्दीन, बारीक, बहुत छोठा ! प्रतपन ( पु ) तसकरना, उत्ताए, गर्मी । प्रतंत तव॒ ५ ( वि० ) वत्तछ, प्रसावदान्‌ । प्रतान घन्‌० (घु०) विस्तार, चौड़ा, वायु रोग विशेष । प्रताप त्तद्‌० ( छु० ) अस्ाव, तेज़, प्रखरता, थूरता, फेध्वये, मद्दिमा, शौसा, इकबाल ।-+ी या बान, | प्रतापी, इकप्ालसंद | संन्यासी महाराणा, चित्तोर के अधिपति, महाराणा उद्यसिंद के पुन्न | इन्होंने धर्मरक्ता के लिये जे। कष्ट सह्दे हैं इससे इनका नाम इतिहास में प्रसिद्ध है | राजस्थान के समस्त राजा मुगरलसम्राद के अधीन दो गये | ख्वार्थ के वश दोकर घर्म की अचद्देजा कर समस्त राज्ञाओं ने अपनी खाधीनता बेच दी थी, परन्चु मंदाराणा ने नेक कष्ट सद्द कर, अ्रपनी स्वाधीनता की रा की थी। एक समय अस्बर के राजकुमार मानसिंह ( अकबर पुत्र सलीम का साक्ता ) दिल्ली जाने के समय प्रताप की राजघानी कसलसीर गये | प्रताप ने उनके स्वागत के लिये बड़ी तेयारिया कीं, भोजन के समय प्रताप का पुत्र अमरसिंद्र घर्दा खड़ा था। सानसिंह असाप के न आने रा कारण यार बार अमरसिंह से पूछने जगे | अन्त में प्रताप वहाँ उपस्थित हुए और बोले कि / ज्ञो राजपूत कझुलाबओार अपनी बहित वेदियां मुसक्तानों को ब्याहता है और तुर्को के साथ नित्य सोज्न करता है, उसके साथ सूर्य- बंशी राजा भोजन नहीं कर सकता ।” इस बात से मानसिंद का क्रोध बढ़ गया। सान दिल्ली पहुँच कर अनेक छुल्बछ फैडा कर अताप को कट एहुँ- चाने लगा | अन्त में उसने ध्कबर से छह कर प्रताप पर चढ़ाई करा दी । परन्तु इस चढ़ाई से प्रदाप डरने वाले नहीं थे । मुट्ठी भर राजपूतों को लेकर मद्ाराणा ने मुसस्मानी सेना का सामना किया, इसी प्रकार थे याव्रज्जीबरन लड़ते रहे, परस्तु स्वाघीनता उन्होंने नद्दीं बेची। इन्हीं को धर्मरचा के कारण भारत ने *' हिन्दुओं के सूर्य ? फ्री उपाधि दी थी | राज तक इनके बंशम भी इसी गौरवाम्पद उपाधि से मूपित किये जाते हैं। धर्सरज्ञा के कारय ये अमर हैं । : प्रतापी तत्‌० (वि० ) प्रतापवान्‌, तेजस्वी, तेन्नधारी, ऐश्वर्यवनू , म्रभावशाली [ ध्रवारक तत्‌५ ( वि+ ) चब्चछ, ठग; घूत्ते, खल, शठ । प्रतारण चत्त० (घु०) चछ्चुछा, ठगई, घूत्तता, शठता । प्रतारणा तव्‌० (श्ली० ) प्रवशुना मिध्या छलना, डगह, घू्तता | प्रतारित प्रन्‍।रित तत्‌ः ( वि ) प्रवध्चि', छछा हुआ्ला, थोखा | खाया हुश्या, मिथ्या कथित, ठगा हुप्ा ! प्रतिया ( खी०) रोदा, घजुत्र की डोरी, चिल्ला, ज्या | प्रति ठत्‌० ( वपसर्ये ) प्रतिनिधि, मुष्य सदश, क्षण, चिन्ह पृद्ठ पुछ, सच, समस्य, भाग, अर, प्रति- दान, स्तेक, अद्य, निश्चय, प्रशरिति, विरोध, सम्राधि, प्रमिमरुधता, ब्रामिप्नुल्य, राताव, पा, सामने चैपा ही ज्यों का हो । प्रतिक्वार, प्रतीकार तत्‌० (पु०) बदुल्वा,पलटा, उपाय। प्रतिकारक (घु० ) प्रतिक्तर करने वाढा, बदला चुकाने वाला । प्रतिझिवच ( ४० ) छश्मारी का जोड़ीदार । प्रतिकृप ( ए० ) परिखा, जाई। प्रतिकूल तत० ( वि* ) विपछ्ठ, विदद्ध, डलटा, प्रति यन्धक |--ता या स्व (खत्री०) विपक्षता,प्रतिपक्ठता, विशेध ।-- ( स्प्रो० ) सौत, सगलो | प्रतिकृति ( स्त्री० ) तसबीर, मूति छाया, बदसा, प्रतीकार, रना । [फछ, बदला । पतिक्रियाः तव्‌० (स्री० ) प्रतिकार, प्रतिविधान, प्रति- प्रतित्तण तत्‌» ( पु० ) चण रण, पटपर; प्रतिपद । प्रतिप्रद तत्‌* ( पु० ) दान, ध्राह्यय के विधिवद्दान, ग्र:विशेष । प्रतिग्रददश तव्‌" ( पु० ) आदान, ग्रदण, स्वीधझार, दान लेना, बदला लेगा, एक वस्तु छे बदले'में दूपरी व्तु लेना | ग्रतिप्रद्दीत ( ५० ) दान लेने चाछा, प्रतिग्रदीता [ प्रतिघात तत्‌» ( पु० ) मारण, आधात, मार के चदद्े की मार (नी शत्रु, चैरी, विद्वोद्दी । प्रतित्रिकीए त३० (वि०) श्रतिकार करने का इच्छुक) यदुट़ा चुछाने हो इ्छा रखने वाला | प्रतिचित्तन त्तत० ( पु० ) चित्वित का पुन चिन्तन, यार बार ध्यान | प्रतिच्द्ा ( स्री० ) प्रतीद्षा, बाद, इन्तनार । प्रतिष्द्ाया तद॒० ( द्री० ) प्रतिबिम्द, प्रतिकृति, परथई । + प्रतिक्लांद्द दे० (पु० ) प्रतिशिग्ब, छाया, पाँद्दी | प्रनिन्ना तत्‌० ( स्त्री० ) च्लीचार, शापप, परण, पण, बादा । >पत्र (प०) भ्रप्नीकारक्तिपि,स्वीकार पत्र । ( ध्/र ) प्रतिपादित प्रतिकज्षात तत्‌० ( पु० ) वादा किया हुआ प्रतिज्ञा किया हुआ, अड्जीकृतत, स्वीकृत | प्रतिज्ञान तत्‌० ( घु० ) अग्नोकार, प्रतिज्ञा, सवीडार, पण दिफना, पुनः पुन, दर्शन । प्रतिद्शन तत० ( घु० ) दर्शनास्तर दुर्शन, फ़ि फिर प्रतिदान तव्‌० ( पु० ) दान के बदले का दान, विनि मय, बद॒ल्य, रखे हुए द्वब्य के छोटाना, धरोहर को लौट देना, ध्मानत छौटाना। [नियय, सर्वेदा। धतिदिन तत्‌० ( पु० ) प्रत्यद, श्रदरद, दिन दिन, भ्रतिदेश ठत० ( वि० ) पुनर्दांतिष्य, कौटाने येग्य, फे( देने येग्य प्रतिद्वन्द् (प०) बराबर वाज्ों का भ्रापप्त का झगड़ा । +डी ( ६० ) शत्रु, बशवरी का विरोधी | प्रतिद्वद्वता ( ख्ली० ) बरावर बालों की छडाई । प्रतिध्यनि तत्‌5 (स्रौ०) प्रतिशुद, शब्द का शब्द, मई। प्रतिनिधि तत्‌० ( पु० ) बदली, एवज, प्रधान का स्पानापष्ठ, प्रतिमू ।-त्व (पु० ) प्रतिनिधि होने का भाव, क्रिया या काम | प्रतिनिर्यातन ( पु० ) श्रपकार जो श्रपदार का वदक्ा देने को किया जाय । [ फेरना । प्रतिनिवर्त्न तद्‌० -( घु० ) प्रह्यावर्तन, छौदाना प्रतिपत्त तब» (४० ) बैदी, अरि, शत्रु, रि.।-ी ( पु० ) विरध्ी, शत्रु, बैती के पद झा, शत्रु का साथी । अतिपद्‌ तत॒७ ( सख्ती० ) तिथि विशेष, चन्द्रमा की पदली ककया का क्रियाकाल, शुद्ध ओर कृष्ण पथ की पदच्ती तिथि, प(चा, पढ़वा, प्रतिपदा | प्रतिपत्ति ठव्‌० ( स्त्री० ) सुख्याति, सम्मान, सम्प्रम, गौरव, प्रपरमता, पदधाप्ति, प्रतोध, निष्पक्ति, दान, प्रतिष्ठा, यश । प्रतिपच्च तत्‌० (वि०) जाना हुआ, निश्चित, अमाय- सिद्ध, अवगत, अ्रक्नीकृत, प्रतिष्ठित, माननीय, मान्य | [ ज्ञापक, सस्थापक, प्रताशक। प्रतिपादक तत्‌» ( घु० ) प्रतिपत्तिजनक, वोधऊ प्रतिपादन ठव्‌० ( घु० ) सम्पादन, बोधत, जझ्ञापन, कथन, दान, पतिपत्ति प्रतिपादित ( वि० ) जे भली भाँति सममा दिया गया दो, निर्धारित, निरूफित ( प्रतिपाय हू अब ) प्रतिचासी प्रतिपाद्य तत्‌० ( वि०) बोधनीय, शापनीय, कथनीय, | प्रति्तूर दे० ( पु० ) भ्रिविम्ब, परद्ांही, छाथा। थर्णव के योग्य, बच्ान के लायक | प्रतिपाज्ञ ( घु० ) रक्षक, पोषक । [ कर्ता! प्रतिपाल्चक तत्‌० ( घु० ) पालनकर्त्ता, रक्षक, पोपण- प्रत्तिपालन सत्‌० ( पु० ) पालन, रक्षए, पोषण प्रतिपालना दे० ( क्रि० ) पोसवा, पालना, रखना, रछ्षा करना । प्रतिपालित ( वि० ) रक्षित, पालन किया हुआ। पतिपाल्य तत्‌० (वि०) प्रतिपालनीय, रक्षणीय, योप- नीय, पीपणीय, पोष्य, पालन करने योग्य । प्रतिघुरुप तत्‌० ( छु० ) अतिनिधि, अत्येक सनुष्य प्रतिग्नसच तत्‌० ( घ० ) निपेध की हुई वस्तु का छुनः विधान, एक यार रोक कर पुमः आज्ञा देना । प्रतिफल तत्‌० ( छु० ) तल्यफल, समुचित फल, कर्म के अज्ुसार फल, जैसा कर्स बैसा फल । कृत्प्रति- कार । [ भाप्त । _प्रतिफलित हस्‌० ( घि० ) प्रतिविस्त्रित, प्रतिच्छाया प्रतिबन्ध तत्‌० ( छ० ) कार्य अतिवन्धक, प्रतिष्ठम्भ, विश्ल, बाघा, रुफाघट । प्रतिबन्धक तत्‌० ( 9० ) प्रतिरोधक, बाधक, निवा- रक, व्याधांतकारक, निवारणकर्त्ता, रोकने बाला] --ला ( ख्री० ) रोक, रुकावट, अडचन, विश्न, बाधा । प्रतिध्रिंव ( छु० परदाई, छात्रा, सूत्ति, चित्र, शीशा । 7 कर ( छु०) अजुगामी । [वरावर का येद्धा प्रतिभद्ध तत्‌० ( पु० ) अत्येक बीर, समान वीर, प्रतिसा सब» ( ख्री० ) घुछि, कान, प्रत्युत्पन्मतिस्व, दीघछि, अशलभता ।+शाली ( वि० ) प्रतिभा बाला । ा प्रतिभाग तव्‌० ( घु० ) अत्येक अंश, राज्य के हिस्से । प्रतिभू तव्‌० ( छु४ ) जामिनदार, मनौतिया । प्रतिम तत्‌० ( वि०) छुल्म, सदश, समान । प्रतिमा तच्‌० (-त्री० ) अतिमूति, खूत्ति के खसान, भतिकृति, प्रतिच्छायरा, प्रतिरुप, चित्र, छवि | प्रतिमान चत्‌० ( छु० ) प्रतिविस्थ, अ्तिच्छाया, हाथ के सस्तक का एक भाभ । मिर्ग प्रविमा्ग तत्‌० (झु० ) प्रतिषथ, सार्य सार्ग, अस्येक प्रतिमास तव्‌० ( घु८ ) मास सास, अस्येक मास | अवतिसर्ति तत० ( खो०) आकार, छवि, अठिसा, प्रति- कृति, मूत्ति के समात सूत्ति। प्रतियल' तद्‌० ( छ० ) लिप्सा, वान्छा, वन्‍दी, निमदद करने का अयत्त, ग्रुणान्दर का महण, संस्कार, संशेधन, अहण, प्रतिझृह ) प्रतियोग ठत्‌० ( छु० ) बिरोध, विवाद, अतिपत्षता । “>यी ता ( स्री० ) विपक्ष॒वा, शत्रुता, विरोध, विवाद, ग्रतिस्पद्धां, चढा उत्तरी ॥ पअ्तियोगो रुत० ( वि० ) बिरोधी, प्रतिपक्ष, पिरुछ पक्ष । (पु०) विरोधी, शत्रु, सहयेगी का विपरीत । “ता (स्त्री० विपक्ष, शत्रता, विरोध, विदाद, प्रतिस्पर्दा, चढ़ा उतरी । प्रतिस्थ ( ० ) वरायर का लड़ते घाला। प्रतिरात्र रत्‌० ( छु० ) प्रतिरात्रि, प्रत्येक रात । प्रतिरूप तत््‌० ( घु० ) अठिसा, प्रत्िसूति, आकृति । ( वि० ) ससान, सचश, तुल्य, वराबर | प्रतिरोध ठत्‌० ( पु० ) तिरस्कार, स्तिपछ, निषेध, रोक, रुकावट । डिग, डॉकू, अपहारक ॥ प्रतिरोधक या प्रतिरोधी रच० ( घु०) चोर, तस्कर, प्रतिलिपि तत्‌० अज्शुसुपलिपि, समान लेख, नकल | प्रतित्लोम तत्‌० (बि०) घाँयाँ, उलदा, बिपरीस, वाम, बिले!म ।--ज (छु०) प्तिलेम जात, उत्तम वर्ण की खतरी में अधस वर्ण के पुरुष से उत्पन्न सम्तान । --विचाह ( पु०) विवाह विशेष जिसमें बर नीच चर्ण का और वधू उच्च वर्ण की हो । प्रतिवचन तत्‌० (9० ) उत्तर, प्रत्युत्तर। प्रतिवर्ष छत्‌० ( छु० ) भत्पेक वर्ष, साल साल । प्रतिव्राक्‍्द्य तत्‌० ( 9५० ) भ्रतिदंचन, उत्तर प्रत्युत्तर | प्रतियाद तत» (पघु०) खण्डन, विरोध, आपत्ति, प्रति- पत्ती का वचन । प्रतिवादी तद्‌० ( वि० ) प्रतिपक्षी, विपक्षी, मत्यर्थी । प्रतिचाध्रक ठत्‌० ( छु० ) निवारक, म्रतिबन्धक, बाधा कारक । है [ स्थिति । प्रतिवास तत्‌० ( घु० ) पड़ोस, निकट बास, समोप प्रतिबाखर तत्‌० (घु० ) प्रतिदिन, प्रत्यह, दिन दिन ॥ प्रतिचासी तव्‌० (३8० ) श्ासन्न मृही, निकट्स्थ, अतिवेशी, पस पास रहने बालग, पढ़ोली शक्ष पूएछ---०७० प्रतिविधान ( #४४७ ) प्रत्यन्त प्रतिविधान तद्‌० (पु०) श्रवीसार, प्रतिक्िया, चानिरण, उपाय । [अिजुरूप। प्रतिविम्य तत्‌० (पु०) अतिच्छाया, प्रतिमा, प्रतिसूत्ति, प्रतिविम्यित तत्‌» ( वि० ) प्रतिच्चाया प्राप्त । प्रतिवेश तत्‌० ( पु० ) मझान के सामने का मकान, गृह के समीपस्थ गृह, पढोस । [ पडोसी । प्रतिरेश या प्रतिवासी (बि०) समीप रहने वाला, प्रतिश#द्‌ तत्‌० ( पु० ) प्रतिष्यनि, शब्द का शब्द प्रतिश्याय तत० ( घु० ) रोगविशेष, पीनस रोग, [लिरिचित कथन । ' जुकाम, सरदी । प्रतिश्रव ठत्‌* ( पु० ) श्रद्गीकार, स्प्रीमार, भतिज्ञा, प्रतिश्रुत तत्‌* ( बि०) भ्रद्गीछृत, स्वीकृठ, प्रतिन्नात । --ी (वि०) स्वीकृति, प्रतिध्यनि, अनुमति । प्रतिपिद्ध तत्‌० ( वि० ) निपिद, निपेधित, निषेध किया हुआ । प्रतिपेध तत० ( पु० ) निषेध, हटक, रोक । प्रतिष्क ( ए० ) दूत । धतिछ ( बि० ) प्रसिद्ध, अख्यात । प्रतिष्ठा तत्‌७ (स्री० ) फीक्ति, आदर, मैरब, सम्मान, स्थापना, चार अ्र्टर का छुन्द विशेष, सस्तार विशेष, उद्यापन |--कारक ( वि० ) सम्मान- कारक, गैरवकारक ।--सूचक ( पु० ) सम्मान प्रकाशक, आदर प्रसशित करने चाला । प्रतिष्ठान तत्‌० (घु० ) नगर विशेष, राजा पुरुरवा की राजधानी । हरिवश में लिखा है हि यह नगर गद्जा से उत्तर की भर है, परन्तु कालिदास कहते हैं कि गद्गा और यमुना के सद्म पर यह नगर ई; आम कल यह नगर भूसो नाम से प्रसिद्ध है । “घुर ( पु० ) राजा पुरूवा की राजघानी जे। अपराय के समीप गंगा के उस पार झृसी से है। प्रतिध्ठित तत० ( वि० प्रतिष्टायुक्त, गैरवान्वित, स्थापित । प्रतिसीरा (स्प्री०) परदा, यवनिसा ॥ अतिरुपद्धां तव्‌॒० (ख्री० ) ईर्पा, मन्‍्परता, गुप्तररेप, स्पर्दा, डाइ, जलन ।-+ ( वि० ) उदण्ड । प्रतिदत दव॒० ( पि० ) रद, निराश, निराहत, श्ति- _ बद्, रोका, अष्ट । प्रतिद्दार तव्‌० ( घु० ) द्वार, ड्योड़ी, डेवदी । | प्रनिह्वारो तव॒० (पु०) दवारपाल, पौरिया, ट्योद्ीवान । । ग्तिद्दिसा तव० ( ख्री० ) हिंसा का श्रतिशोध, अप कार का बदला । | प्रतीक तत्‌० ( ६० ) एक देश, अद्ग, अवयउ, व्याप्या |... में किसी स्लोक या वाक्य का उद्छत एक झश या |... चरणा | प्रतीकार दव्‌5 ( पु०) अपकारी के श्रति अपनार, बैर ... शोधन, शग्रुता निर्यातन, अतिफल, अतिणोध, चिकित्सा, निवारण का उपाय, बदला, उपशम, डपाय । बाला, प्रत्याशी । | प्रतीत्षक तव॒० ( पु० ) बाद देसने वाला, राह जोइने | प्रवीत्ता तत्‌० ( ख्री० ) इन्तजारी, वाद देसना, किसी के आने के लिये दहरना। | प्रतीकाणश चत० ( पु० ) मुल्य, समान, सदश, तुलना, ... उपसा। | प्रनीयी तद॒० ( ख्री० ) परिचम दिशा, सूर्य के श्र होने की दिशा ।--श ( पु० ) पश्चिम दिशा के स्वामी, वरुण | [ दिशा में स्थित । प्रभीचीन तत्‌० (वि०) परिचम दिशा में उत्पन्न, पश्चिम प्रतीच्य ( वि० ) परश्चिमी। ..[ स्यांत, प्रसिद्ध । प्रनीत तत्‌० ( वि० ) झात, भ्रचगत, हए, सादर, प्रतोति तत्‌० ( ख्री०) ज्ञान, बोध, स्याति, प्रसिद्धि, कीर्ति, भादर, हरे । प्रतीप तत्‌० ( पु० ) महाराज शन्तनु वा पिता। (बि०) प्रतिकूल, विपरीत, विरोधी। [अ्रवगत । प्रतीयम्ान तत्‌० ( वि० ) ज्षेय, बोधगम्य, अ्रनुभूत, प्रतीद्दार ( पु० ) सन्पि का मेल का एक भेद । प्रतोद ( पु० ) पैना, चाबुक, सामगान विशेष | प्रल्ल नद्‌० ( वि० ) पुरातन, पुराण ---रत्व ( १०) पुरातत॒र, वह विद्या जिसमें प्राचीन समय पी बातों की खिविचना हो । [ प्रकट, प्रसिद्ध । प्रयज्ञ सत्‌० (वि०) सावात्‌, सम्मुख, सामने, प्रशश, प्रयम्न ततू० ( वि० ) नूतन, नवीन, अभिनव, शुद्ध, बाधित । प्रव्य्न तब» (पु०) अवयय विशेष, कण नासिफा आदि । भयन्त नव» ( पु० ) स्लेच्छ देश । (वि०) सब्रिशृष्ट, प्रात भाग --पर्वत ( पृ० ) पर्ेद के समीप |. -का चुद पर्रंत। डे $ प्रत्यभिज्ञान (६ ह#ह४ ) प्रदेरत आम आलम का कील मल जम अर: ह0:कीपग की किन न 56:27 कर किन प्रत्यभिज्ञान दव्‌० ( पु०) पश्चाव्‌ ज्ञान, पीछे जानना, स्मरण, अजुसान, कारण विशेष से स्मरण होना । प्रत्यभियेग तव्‌* ( पु ) अत्यपराध, अपराधी द्ोकर घुन+ अपराध करना, अभियुक्त दोकर अभिमेष्ा करना | प्रत्यभित्ताष तत्‌० ( घ्रृ० ) पुनरमिलाप । पत्पसिवाद्‌ या प्रत्यभिवाद्म ( घु० ) वह आशीर्वाद जो किप्ती एप झो प्रणाम करने पर सिल्ते । प्रर्यथ चत्‌० ( पु० ) विश्वास, निश्चय, ज्ञान, अधीन, शपथ, देतु. दिद्र, आवार, भ्रकृति पे उच्तः आने घाली विभक्ति। [पच, मुद्दालेह । प्रत्यर्थी तद॒० ( पु० ) शत्रु, प्रतिवादी, श्र्थी का प्रति प्रत्यपण तत्‌०( बि० ) पुनर्दान, ल्ौटाना, फेर देना, अति दान | [विप्, ध्याधात । प्रत्ययाय तव॒० ( यु० ) पाप, दुरचछ, दोष, श्रनिष्ट, प्रत्यद्द तत्‌० (श्र० ) प्रतिदिन, दिन दित्ति, प्रतिदासर | प्रत्याख्परान ततु० (पु०) निरारण, निरसन, खण्डन, श्रस्वीकार, निनद॒क | प्रत्यागमन ( घु० ) छौट आना । प्रत्यादेश वच्‌० ( घु० ) निराकरणा, खण्डन, भक्त के ग्रत्ति देवता का आवेश,उपदेश,दैवयाणी, परामर्श | प्रत्यावर्तत ( ६० ) लौट भराना, वाविस झाना । प्रत्याशा तत्‌ * ( खी३ ) श्रासरा, आकाडक्ा, वाल्छा, अमिक्षापा, विश्वास, मरोसा, प्रतीक्षा, बाद देखना । - रहित ( वि* ) प्राशा रहित, बाष्डा शूल्य [ भमिलापी । प्रत्याशी त्तू० ( वि० ) भरोसा बाला, धाकाडदी, प्रत्यासन्न तत्‌० ( वि० ) मिकटवर्त्तो, समीपस्यित । प्रद्याह्वार तत्‌० ([पु०) अपने अपने दिपयें से इन्द्रियों को हटाना | प्रद्युत तत्त+ ( भ्र० ) चैपरीत्य, वरत्च; वरन्‌ | प्रत्युत्तर ( पु० ) जवाब का जवात | प्रत्युत्पन्न तच," ( वि० ) उत्पत्ति विशिष्ट, प्रस्तुत, अति- भान्वित |--प्ति ( बि० ) उपस्थित बुद्धि, सक्षम बुद्धि युक्त, सुक्ष्मदर्शी, प्रतिभान्वित । प्रस्युपक्कार तत्‌० ( पु० ) उपकार छे 'अन्श्वर इपकार, प्रद्युपकारी तत० ( वि० ) उपकार के बदले उपकार करने वाका। अत्युप या अत्यूष ( एु०) प्रभाव, प्रातःकाल, सूर्य, बसु विशेष । प्रत्यूद्द तत्‌० ( छु० ) विद्न, बाधा, आपदू, भ्रटकाव । प्रत्येक्त तत्‌० (अ० ) एे एक, पति प्रति, भिन्न मित्र, हरपएुछऊ, सम्रस्त, सहछ | प्रथम तद्‌* ( वि० ) श्रेष्ठ, पहला, पेश्चर, मुख्य, आये, आदि में, शुरू में |--भगति ( खो०) उत्तम गति दान | -ज् ( पु ) नेठा, बढ़ा -पुद्ष ( $० ) डचमपुरुष |--लाहुल (पु०) प्रपराधियों का प्रथम दण्ड, प्रथम वार का धयपराध | प्रधम्रतः तत्‌० (श्र*) पहले पहल का, प्रथम, पे । प्रथमा तत््‌० ( स्नी० ) पहली विभक्ति, श्रेष्ठा, बढ़ी, प्रधात । [ श्रेष्ठ भ्रज्ग, मस्तक | प्रथमावयव तत्‌* ( पु०) प्रधमोष्पन्न अड्न, झाद भडन, प्रथमी ( ख्ी० ) एथिवी । प्रथा तत्‌ ( स्री० ) चलन, धारा, रीति, व्यषद्ार, ख्याति, प्रकार | (( स्वी० )ल्‍्याति, प्स्तिद्धि! प्रथति चत्‌० ( बि० ) ख्यात, प्रतिष्ठित, असिद्ध ।--ं प्रथी ( ख्री० ) एथिवी । प्रथु ( छ5 ) विष्णु, पशु । प्रद्‌ तब॒० ( वि० ) दानऊर्ता, दानी, दाता, देनेवात्टा । प्रदृक्षिण या प्रदक्तिणा तत० (४० ) देवे।ेश्य से दुच्धियावते अ्रमण, चतुर्दिक असण, चारो ओर अमण, मण्डलाकार घूमना । सिमपित। प्रदत्त तव्‌० ( वि० ) आदर पूर्वक दान दिया हुआ, प्रदू्‌र तत्‌० ( घु० ) स्षियों का रोग विशेष, स्त्रियों का धातु छीण रेप्ग | यह चार प्रकार 'का होता है | प्रदर्शक तव॒० ( धु० ) दुर्शक, प्रकाशक, दिखानेहारा | प्रदर्शश तव ० ( पु० ) ईछषण, दुर्शन, दिखाना (-- स्थान ( पु० ) जुमायशगाह । प्रदर्शनी तत्‌० ( खी० ) जुमाइश, वह स्थान जर्दां दिखाने की भाँति भांति की चीज़ें रखी जाँय और बनमें जो सर्वोत्तत समझी जाय उस पर पुरस्कार दिया जाय | पंदुल ( ध० ) बाण, तीर | प्रदान तत्त्‌» ( पु०) दान, श्रप॑ण, प्रकृष्द दुःन, व्याय । प्रदीप ठद्‌ू० ( छु० ) दीपक, दीक, दीप | प्रदयोेध्त तच्‌० ( $० ) उज्ज्वलित्त, प्रकाशित । € हशह ) मवन्ध कल सक कफ न 75 _/++++।॥े प्रदेश तर॒० (५५०) एुछ दश, स्थान, देश का एक भाग; प्रगरत, कज्नेंदी और थडवुष्ट का परिमाण। प्रदेशनी या प्रदेशिनी तत्‌र ( स्ली० ) तर्जदी भामझ अंगुली । प्रदोष दत्त" ( पघु+ ) सायड्टाछ, सूर्यात्त के पश्चात्‌ दो मुहूर्त काल । गात्रि के पढले चार दण्ड, गेवूलि बेला, सन्ध्या, दिन की समाप्ति, रात्रि का 'आरम्प, दिन थार रातई बीच की सन्धि +--ऊाल (७० ) सावद्ूूगल, सन्ध्या का समय | प्रधज्न तत्‌० ( पृ+ ) बन्दर्प, कामदेव, श्रीकृष्ण की 7 पुत्र। ये रुक्मिणी के गर्भ से उपरन्न हुए थे। शिव डे क्रोधसपी श्रम में मध्म हे।_र कामदेव प्रधन्त के सूप में श्रीकृष्ण के यहाँ उत्पन्न हुप्‌। जन्म से सातवें दिन श्रीकृष्य का शत्रु शम्बर सूतिकाणुद से प्रधुक्न बे उठा ले गया। धरीक्ृषप्ण ये सब जान गये, तथापि उन्दे।ने इसझे लिये कुंड प्रयक्ष नहीं किया । दैत्यपति शम्बर की मद्ठारानी का सापावती धाम था । मायावती के पुथ्र नहीं था। शस्दर ने प्रयुग्व को पाछन करने के लिये सायावत्ती के द्ाथ पाँव था। यही मायावती स्वर्य रति थी। प्रधुग्न के। देखते ही मायावती के अपने पूर्व जन्म की पाते स्माण है। आयी । मायावती से पति का पुत्रयत पाशत करना अनुचित सप्रक धात्री के उनके पालन का सार सौंपा । जब पथुस्न युवा हुए, तब मायावती ने उनझे। अ्रपना पति बनाजा चादा, यंद् देख प्रयुग्न ने कद्दा कि तुम पुत्र भाव छोड़ कर यद भाप क्यों स्वी छार करना चाइती हे।। मधयावती मे कहा, “ साथ [ भाप सेरे पुत्र नहीं दें और ये शा्बर ही झापका पिता है। झापझे पिता ध्रीकृषण हैं, शम्बर आप के यदाँ चुरा कर लाया है। में आपके रुप पर मे।दित हूँ, झात शम्बर का क€ मेरा सनेारष पूर्ण छीजिये। यह सुद कर प्रयुम्त ने शस्बर के साथ युद रिया और चैणर आंध्र से शग्दासुर का मार वह द्वारद्या चले गये | प्रधोत ( प० ) किरण, रश्मि, भा, चमक, पुक यक्ठ कानाम। प्रदोतन ( पुर ) सू्े, चम्रक, दीसे। प्रधन ( पु ) अधि धनी, लड़ाई, युद्ध । प्रधान ( परधान ) तव॒०» (वि० ) श्रेष्ठ, मुख्य (० ) प्रशस्त, माया, प्रकृति, परमाप्मा, अद्नि; सेनापति, भन्त्री, सचिव थादि |--ता ( स्प्री* ) श्रे्ठठा, सुख्यता, प्रधानस्त्र |--नंगर (९ ) राजधानी, प्रसिद्ध नगर, बड़ा नयर, जिला | प्रधि ( पु० ) पढ़िये का घुरा । प्रथी दत्‌5 ( वि० ) प्रकृष्ट बुद्धि युक्त, उत्तम वरद्ध विशिष्ट । ( स्री० ) प्रकृष्ट बुद्धि) प्रध्व॑ंस तत्‌० ( धु० ) नाश, विनष्टि, क्षय, अपक्षय। नयी या--ऊ ( पु० ) नाश करने बाजा | प्रन (६० ) प्रण । प्रनाम तद्‌० ( ३० ) प्रधास, ममसझार, अभिवादन। प्रनाशी तद्‌" ( वि* ) विनशनशीछ, प्रनित, श्रचिर- स्थायी । प्रपश्च तततृ० ( १० ) विपर्याप्, अ०, घेएा, विश्तार, प्रवारण, जगत, संवार “नी ( वि० ) धली, कपटी, ढोंगी, बखेड़िया । प्रपश्चित तद॒* (पु०) विश्तृत, अ्रमयुक्त, प्रवारित । प्रपन्न तत्‌० (वि० ) शरणायत, प्राश्रपाझाइडी, आधित । प्रपा तत्‌० ( स्त्री० ) पागीशाछा, पौषाला प्याज। प्रषात ठद््‌* ( ३०) पर्वर्तों का पर्व, कियात। कोना, जैसे “ जअजप्रपात 7 । प्रपिवामद्द तत्‌० (घु* ) गक्मा, पितामद के पिता | प्रवितामद्दी तत्‌" ( स्ज्ी० ) प्रपितामह ही पत्नी, विता* मह की मावा। प्रषुता दे० ( पु० ) छता विशेष, प्यार नामह पौधा। प्रपौच्न तख्‌ु० ( घु७ ) पौश्न का पुच्च, पोते का बेदा । प्रयौत्री तत्‌० (स्तो० ) ऐीज की करवा, पेटते की लड़डी। प्रकुशन तत० ( वि ) विकाश युक्त, इ!फुश्श्न, बिक सित, सिरा --ता (स्त्री०) पे, भाद्वाद, वहा, विश्यास |--यदन (पु०) धरसद्र बदन, असन्न मु । प्रफुदलिव तत्‌+ (वि०) प्रस्फुटिद, विकशित) चिझाशयुक्त । अवन्ध तव॒* ( पु» ) सन्दर्भ, प्र थ, काप्यादि प्ररयन, परस्पर अन्वित याक्य समूद, क्रम से की गयी वाक्य रचना ।--कद्पना ( स्प्री०) प्रहर्ध रचना, काब्य रचता । _ प्रबन्‍्धक प्रवन्धक ठत्‌० (पु० ) प्रबन्घर्क्त्ता, प्रबन्ध रचयित्ा ] प्रचर तद्‌* (गु०) अति श्रेष्ठ ये/त्र विषयक्ध € तथा३ अचर) प्रवुज्त दत्‌" ( बि० | बलवान, बली, स्राइसी, डीढ, सहजोर, मज़ुदस -ता ((स्त्री० ) बक्तात्कार, पारवश्य, परदश्षता । प्रवाल चव० ( बु० ) विदुम, सूँगा। अचुद्ध चत्त० ( चि० ) जागृत, जायता हुआ, सचेत, साक्धान,सावहित । [निद्रा त्याग,नींद से जागना | प्रधोध तत्‌० ( घु० ) छा, सावचेती, सावधानी, प्रयोध्चन तत्‌० ( पु० ) जागरण, जग्राना, चिताना, चित्तादनी देना, सावधान करना | प्रभज्ञेन तत० ( पु० ) अनिल्ल, धायु, पचन ।--जाया (पु०) इजुमान ।--छुत ( छ० ) हलुमाव, भीस । प्रश्द्र तत्‌० ( छु० ) चूच्ठ विशेष, नीस का पेड़ । प्रभच तत्‌० ( छु० ) उत्पत्ति, जन्म, जन्म हेतु, जन्म कारण, जहाँ से जन्म होना है, स्थान । प्रथा तत््‌० ( स्री० ) दीघि, आलोक, प्रकाश, तेज, कुबेर की पुरी, गोपी विशेष ---कर (छु०) रबि, दिनकर, अग्नि, चन्द्र, समुद्र, अर्क बुक्त, अकवन का पेड़ ।--कीठ ( छु ) खद्योत, छुगनें । प्रभात चत्त्‌० ( घु० ) आतःकाल, अत्यूप, सबेरा । प्रसाती तद्‌० ( स्त्री० ) एक राग्रिनी जो सबेरे गायी * जाती है । [माहास्म्य, गौरव, शान्ति । प्रभाव तत० ( पु० ) कोष और दण्ड का तेज, शक्ति प्रभावी तत्‌० ( ख्री० ) पाताल गड्डा, अयोदशाकर छुन्द, वश्जनाथ दैल्य की कन्या, जिसको श्रीकृष्ण ने “ हस्ण किया था। [गणाथिप विशेष ।. प्रसास तत्‌० ( पु० ) तीर्थ विशेष, सोमतीर्थ, जैन- प्रसिन्ञ तत्‌ू० (ए०) मत्तदरती, मतवाला हाथी । प्रश्चु तत्‌० ( पु० )-द्वामी, मालिक, पालक, समर्थ, मायक, नेता (--वा या त्व ( खी० ) प्रधारता, आधिपत्य, कर्दव्व ;--भक्त (9०) स्कामी का अनुरागी, कुबकर | प्रभूत (चि०) जो भल्ती भाँति हुआ हो, निकला हुआ, अद्चुर 7 € स्त्री० ) उत्पत्ति शक्ति, अधिकता, अचुरता। - प्रभूत तत्‌० ( वि०) पचुर, अधिक, घनिशय। प्रभुति कतू० ( अ० ) मणवोधक, इत्यादि, घग्तेरह । | ( शशछ »> पम्ुद्द प्रभेद्‌ तत० (घु०) भिन्नता, विशेष,पैलक्षणथ,एथस्ता धमथ तत्‌० (घु०) शिव गण । प्रमधाश्रिप तत्‌० ( घु०) शिव, महादेव, शब्सु । ममद वत्त5 € पु० ) हर्ष +--कानस ( पु० ) रम्थवन, राजाओं के अन्तःपुर के योग्य उपबत ---घन ( यु० ) राजा के अन्तःपुरोचित बच, राजाओं के सहल के भीतर का नजूरवाग । प्रमंदा तत्‌० ( स्त्री० ) उत्तमा सत्री, रमणीया नारी, खुलक्षणा सखी । रिहित ज्ञान, अचुभव। प्रमा ततू० ( पु० ) यथार्थ ज्ञान, प्रसिति, प्रमाण, तरस प्रमाण ठत्‌ (पु०) सर्ग्ांदा, शास्त्र, निदर्शन, दष्टान्त, डदाहरझ, साक्षी, लेख, प्रभुति, भ्रतिपत्ति, सान- चीय, सद्यवादी, नित्य --पत्र ( पु० ) निदर्शन पत्र, दृष्टान्च लिपि | प्रभाशिक तदू० ( वि० ) आसाणिक, जिसे ठीक समझ कर अहण कर सके, सातवर । प्रमाणित ( वि० ) प्रसाणदारा सिद्ध, निश्चित । * प्रमातामद् तत्त० ( पु० ) मातामह के पिता, परताना, नाना के पिता । प्रमावामददी रत्‌० ( छ्ी०) प्रमावामद्ध फी री; माता- मह,की जननी, परनानी, मामा की साता । प्रमाथ तत्‌» ( पु० ) प्रसश्न, चस द्वारा इरण, बिलो- डन, निकालनर । प्रमाथी तत० ( पु० ) पीडनकर्ता, मारणकर्ता, असथम- शीछ, देह और इच्द्रिय को दुःख पहुँचाने चाला। प्रमाद्‌ तत्‌० ( वि० ) अनवधानसा, असावधानी, अम, भूल । प्रमादिक ( बि० ) गूलती करने वाला /--न ( ख्री० 2 वह कम्या जिसे किसी ने दूपित कर दिया हो । प्रमादी ठत्‌० ( बि० ) असाद विशिष्ट, अनवधानत्ता- झुक्त, असचक, आन्त स्वभाव । [सिद्ध । प्रम्तित दत० ( द्वि० ) ज्ञत, विदित, अवगद, अ्रमाण प्रमिति तत्‌« ( ख्री० ) धमा, यथार्थ जान, सत्यवोध, अथार्थ बोध | प्रमीला तल० ठन्‍्द्गा, उन्‍्त्री । प्रमुख तल» ( वि० ) अधान, श्रेष्ठ, मथस, सान्‍्य, सान सीय, अयुआ प्रणुद्ठित वच० ( दिं० ) हृष्ट, आह्वादित, श्रानन्दित ड़ पअमय ( #&श्८प ) ८ प्रवषण प्रमेय दत्‌ू० ( वि० ) उपपाद्य, प्रतिपादन करने के योग्य, प्रमाण साध्य, प्रमाय से सिद्ध किया जाने बाला । [वहुमूत्रता । प्रमद्द तत्‌० ( पु० ) रोग विशेष, मेह रोग, मूत दोष, प्रमोचन तत्‌+ (प०) मोहण,त्याग, उतरण, मुक्तररण, उदरण प्रमोद वत्‌० ( पु० ) दषे, श्राद्गाद, उच्चास।-क ( पु० ) भमोद करने वाला, एऊ प्रसार का जडहन। - “न ( पु० ) विश का नाम । ( ४० ) इर्ष- कारक, प्रचुर |-+ग्ति ( ख्ली० ) उत्पत्ति, शक्ति, अधिकता, प्रचुरता प्रयत तत० ( पु०) पवित्र, पूत, छुद्ध, नियामित, तपर। आदर । प्रयज्ञ तत्‌ू० ( पु० ) प्रद्ृष्ट यल्‍न, अ्रष्यवसाय, चेष्थ, प्रयाग तत्‌० ( पु० ) तीर्थ विशेष, तीर्थराज, प्रसिद्ध सीर्थ, जहाँ गर्ा यमुना और गुप्त सरस्वती का सक्षम हैं। यहाँ बह्या जी ने अश्वमे व यज्ञ क्यि थे । “घाल ( पु० ) ब्राह्मण विशेष, जो सक्षम के शट पर दान लेते हैं । प्रयाग तत्‌० ( पु० ) गमन, प्रस्थान, निर्याण, यात्रा । प्रयास तत्‌० ( पु० ) प्रयव, श्रम, केश, श्रायास, चैण्टा, परिश्षम, थावद । प्रयुक्त तत्‌० ( बि० ) प्रऊुपे युक्त, भ्ृए्ड समाधि युक्त, प्रहष्ट सदोग युक्त, सयम विशिन्‍्ट । प्रयोग वत्‌ ( पु० ) पयुक्ति, अनुष्ठान, व्यवहार, निद- श्ैन, उदाइरण | कारी, अ्रवर्दस, प्रेरक । भयोज्ञक तत्‌ ( पु० ) प्रयोगऊर्त्ता, नियोजक, नियोग- प्रयोजन तत्‌७ ( पु० ) काये, हेतु, निमित्त, श्रभिश्राय, उद्देश्य, मतलव । प्रयोउय सत्‌० ( वि० ) जिसका प्रयोग क्‍या जा सके | ( घु० ) भृय, चेला, सूल घन । प्रराचना चतू० ( ख्री० ) प्रयतेना, प्रवत॑नाथथ, रोचक क्या, फुसलाहट । प्रहरो तत्‌० ( घु० ) अकुर, बीजोदमेद । प्रलवित रन्‌० (वि० ) कबित, उक्त, मिस्या उच्चा- रिठ, अढयड़ या हुआ, उटपर्शंग कहा हुआ । प्रतम्ध तद्‌० ( धु० ) ईैय विशेष, दनु का चुत, एक समय श्रोहृष्ण, यलराम और गोप दाजऊ सेल रहे थे, वहाँ यह गोप का वेष धर कर शाग्रा था। श्री कृष्ण प्लम्यासुर को अभिसन्यि समर कर गोप बालकों से मत्तयुद्ध करने लगे इस युद्ध में यदी होड़ रखा गया थधाकि जो हार जायगा, वद जीतने वाले को अपने कन्घे पर बैठा कर घुमावेगा, प्रतम्बासुर वलराम के साथ युद्ध में हर कर उनको अपने कन्ये पर बैठाऊर ले चला। कुच्द दूर के जारर्‌ प्लम्बासुर वल्राम का वध वरनांदी चाहता था कि बलराम इतने भारी हो गपे जिससे प्रलम्बासुर उनयो ढो नहीं समा। अन्त में प्रतम्य अपनी भूर्ति धारण कर उनकी पश्रोर लपऊा, परन्ठु बहुत शीघ्र दी बाहुयुद्ध में बलराम ने उसे मार ढाला । * प्रलय तत्‌० ( ० ) फह्पान्त, लय, युगान्त, करप वा नाश, सक्षय, नाश, रुखु ।-कर्त्ता (६०) लयजारक, विनाशक, महादेव । प्रलाप दत्‌० ( पु० ) अन्थुक वचन, उन्मत्तो के समान असद्भत वचन, वफ़्वाद, भ्रथैरद्धित वाठचीत । प्रलेप तत्‌० ( घु० ) प्रहृष्ट क्षेपन, भौषधि श्रादि पा लेपन, लेप । प्रलोभ तत्‌० ( घु० ) बढ़ा लोभ, विशेष लाजच, पूँस, सष्हा, लालसा, वाष्धा, अ्रमिलापा । प्रलोभन तत्‌० ( पु० ) लोभ, लुभाय, लालच। ५ प्रवचन ( घु० ) व्यास्या, अर्थ सोलकर यताना । प्रवद्चना तन्‌० ( स्रो० ) भतरण, ठगई । प्रवण दव्‌० ( बि० ) नत्न, विनत, झुरा हुआ, गया हुआ, नीची सूमि । > प्रचर तत्‌० ( घु० ) सन्तान, वश, श्रेढ, प्रधान, गोत ! प्रबर्स तत्‌० ( घु० ) आरम्म, लग्या, नियुक्त, दत्पर। प्रव्तंक तद्‌० ( घु० ) प्रेरक, प्रयोजक, डस्साइदाता, सदायर, उठाने वाला । प्रबत्तन तत० (पु०) प्रेरण, भ्रवृत्ति, आाज्ञापन प्रेपण ! प्रवत्तित तत्‌० ( छु० ) आज्ञापित, प्रेरित, छगायां हुआ । प्रयर्घण नत्‌० ( घु० ) एक पर्वद का नाम, यह परत दक्षिण दिशा सें किस्क्स्थापुरी के पास हैं। बन- वास के समय वर्षो ऋण में राम और सच्मण इसी पर्वव पर रे ये । भचाद्‌ ( ४६ ) पसारित प्रबाद तत्‌ ( पु० ) अखार, चर्चा, निन्‍्दाबाद, किंच- दन्ती, उड़ती ख़बर । अचास्त तत्त० ( घु० ) विदेश, अन्यदेश, परदेश, भिन्न देश, देंशान्दर, देशास्तरवास । प्रधासन चत्त्‌० ( घु० ) देशान्तर भेजना । प्रवासी ततू० ( वि० ) विदेशी, अन्य देश वासी, देशा- स्तर में रहने वाला । प्रवाह तत्‌० ( घु० ) नी की घारा, लोत, यहाव | प्रधाहक चत्‌० ( पु० 9 गाड़ीयान, गाड़ी हाँकने चाल [होना, पेट चलना । प्रवाहिका तस्‌० ( स्ी० ) अतीसार रोग, दस्त सारी प्रचिद्ध तत्ू० ( वि० ) निबिष्ट, घुसा हुआ ? प्रवोण तत्‌० (वि०) निपुण, कुशल, दर, चतुर, बुद्धि- सानू, सभ्राना, चालाक ।--ता (स्त्री०) निषुणत्ता, चतुराई । ” अब्चत्त तत्‌०» ( बि० ) उच्चत, तत्पर, लगा हुआ | प्रद्ृत्ति तव॒० ( ख्ली० ) कार्य में लगने की इच्छा, यलन, उपाय, इच्छा अभिरुचि। प्रबेश तव्‌० ( घु०) पैड, पहुँच, वैदार, वैठाव, रसाई। प्रवेशक तव॒० ( घु० ) प्रवेश फर्ता, अवेशकारी पैठने चाला, घुसने चाला । [यिशस्वी, भल्ला । प्रशंसनीय तत्‌० (वि०) तारीफ़ के योग्य, प्रशंसापात्र, प्रशंघा तत्‌० ( खी०) हाथा, तारीफ़ | प्रशम त्त० (५०) शमता, उपुशम, शान्ति, विराम, निवारण । [[विरति, निवारण ६ प्रशमने तत्‌० (छ०) मारण, चछ, शमता, प्रशान्ति, प्रशुरुत तत्‌० (बि०) सुन्दर, स्त्रच्छ, विस्तृत, परिसर युक्त, मशंसनीय, अति श्रेष्ठ, अति उत्तम । प्रशस्ति तत्‌० (स्त्री०) उत्तमता, गुण स्तुति, अमि- चन्दन, वे विशेषण जो पत्र के आरम्म में जिसके ज्ञापन से पत्र लिखा जाबर, उसके लिये, किखे जाते हैं । प्रशास्त तत्‌० (वि०) अत्यन्त ज्षमताशाली, अतिधीर । प्रक्ष वत्‌० (घु०) जिज्ञासा, पूछना । प्रश्न तच्‌० (घु०) प्रणय, स्नेह, रपद्धां, असल्‍्सता । प्रश्माख तव० ( ० ) पेश्ब, झुत्न ! प्रश्मित तत्‌० ( वि०) प्रखयी, विनीत, स्नेहान्वित, पुक हाथ में आने योग्य हृब्य । ग्रत्छथ तव (वि०) शिथिल्‍्ू, असक्त | [दीघे निश्वास । प्रश्चास तद्‌० ( पु० ) नासिका से वायु का निकालना, * प्रष्टा ततू० (वि०) प्श्नकर्ता, अच्छक, जिक्ासु घछ तद्‌० ( बि० ) अग्रगामी, श्रेष्ठ, प्रधान, झुख्य, अग्रआ 7 प्रष्ठा तद० (घु० ) पीठ, अयुआ, मुख्य, श्रेष्ठ । प्रसक्त तत्‌० (वि०) प्रस्ञ विशिष्ट, अतिशय, अ्रघुरक्त, अमुरागी, आप्त, उपस्थित । गखड्र तव्‌० (पु०) सद्गति विशेष, पर्साक्ति, श्रस्ताव, मैथुन, सम्बन्ध, उह्ेश, उपलक्ष, अवसर । प्रश्न तत्‌० (घु०) सन्हुए. दयान्वित, निर्मल, स्वच्छ, प्रकुल्ल ।--चित्त (ए०)सन्तुष्ट चित्त, दयालु, अहु आहक --त्ता (स्त्री०) सस्तोष,प्रसाद, प्रफुल्लता, निर्मेलता, स्पच्छुता ।--सुख (घि०) जिसके चेहरे से प्रसन्‍नता श्रकद हो हँसता हुआ चेहरा । धसाद सत्‌० (पु०) दया, कृपा, प्रसन्नता पूर्व £ दी हुई वस्तु, असन्नदा, अजुम्रह, काव्य का गुण विशेष, स्वास्थ्य, सुस्थता, देच निवेदित वच्य, नैवेच,गुठ की जूठन, कृपा । प्रसव तत्‌० (छु० ) गर्भ मेचन, म.नना, फल, कुसुम, फूल (--यग्रद (छ०) सूतिका झूह, सौरी। प्रसर ठत्‌० ( घु० ) प्रकृष्ट रूप के सब्बार, विस्तार, प्रण्य, बेग, समूह । [फिसाब । प्रसरण तत्‌० (छ०) सेना आदि का चारों तरफ़ प्रसल (पु०) हैनन्तऋतु । प्रसादन सत्‌० (8०) प्रसक्षता करण , सेवन, मनाना, असभ्ष करना । प्रखादी दत्‌० (बि०) प्रसन्नता युक्त, कृपा बिशिष्ठ, देव निवेद्धित अन्न । प्रसाधन वत्‌० (पु०) निष्पादन, सम्पादन, वेश रचना। प्रसाधनी तत० (स्त्री०) कक्षतिका, केंगही । घसाधिका तत्‌० (स्त्री०) चेश कारीणी, चेश रचना करने बाली, ःय्हार फरने वाली । प्रसार तत्‌» (पु) प्रसरण, विस्तार, फेलाव, प्रकरण | प्रसाय्ण तत्‌० (यु०) खिस्तार करण,पसारना, विद्याना, पञ्विध कर्म के अन्दर्गत एक अक्ार का कर्म । प्रसारिव ठव० ( वि० ) दिस्तारित, विस्तृत, फैलाया हुआ ॥ भसारी प्रसारो ( वि० ) फेजने चाला । प्रसिद्र ( यो० ) पीय, सराद । प्रसिति ( खो० ) रस्सी, रश्मि, ज्याला, लपद। प्रसिह् तव० (वि० ) स्यात, अस्यात, उजागर, विख्यात, नामलम्घ, प्रतिष्ठित, प्रचलित भूषित। प्रसिद्धि ठत्‌० (स्री०) स्थात्ति, प्रचार, भूपा, अलड्भार | ' प्रसीद तत० ( क्रि० ) प्रसत हो, कृपा करो । प्रछुत ( वि० ) सूउ सोया हुआ ॥- ( खत्री० ) गढ़ निठा, नोंद । प्रसु तत्‌० ( ख्लो० ) मात्रा, जतनी, अस्या । प्रखुव तत० ( दि० ) उत्पत्त, जात । (४ हर ) च्रदत | प्रस्वाविक ठदु० (वि०) समयाघुसार, यथासमय । । प्रस्शादित दने० (गु०) कथित, इण्लिफिस, कृत, विचा- रिति, कर्तव्य रूप से निर्दधारित । प्रस्तुद्त तत्‌« (बि०) अररण आराप्त, अरफरणिक, प्रास- ड्विव, निष्पण, प्रऊुपे, स्तुति युक्त, उपस्थित, अतिपन, उद्चयत । प्रस्थ तत्‌० (त्रि०) प्रकष्ट स्थिति विशिष्ट। ( घु०) परिमान विशेष, ताल, एक सेर, पर्वत या एक देश, पर्वत की समतल भूमि। ! प्रस्थान ठत्‌० (पु०) गमन, यात्रा, प्रयाण, निर्माय । । ब्रस्थापन तत्‌० (पु०) प्ररण, प्रेपण, पाना, भेजना ) प्रसूत (वि०) उत्पत, पैदा, उद्यादक । [उसब्न ऊिप्े हैं। ' प्रस्यावित तत्‌» (वरि०) प्रेविद, प्रेरित, अ्रति सुन्दर प्रसूग तत० (स्प्री०) जचा, प्रभवफारिणी, जिससे बच्चे रूप से स्थापित । प्रखूति तत्‌० ( स्त्री० ) प्सत, उद्भव, उप्पत्ति, जन्म, | प्रस्तुपा (खी०) पोते को खली, पतोहू । जन्‍्माना, दत्त की पत्नी और सती की माता का नाम, दत यज्ञ या पिनाश करक्रे जय सदादेव ने दक्ष को सार ठाला था, तय उन्ही वी प्रार्थना से महादेव ने दक्त को पुन जीजिस क्या था । प्रस्क्ुद (वि०) खिज। हुआ, विकसित । प्रस्कुट्ित तू» (वि०) प्रफुस्लित,प्रकाशित, विकसित । प्रश्नवण तत्‌० (५०) उत्तम रूप से चहना, परत का निमेर, एक परत का मास | प्रखतिका (खो०) प्रसूता,वह रुती जिसके बच्चा हुआ हो। | भ्रस्चाथ (ए०) करण, ररना, पेशाव । प्रचुन तत्‌० ( घु० ) पुष्प, हल, कुपुम । प्रखृत ( बि० ) फैला हुआ, बढ़ा हुआ, भेजा हुआ, प्रच्नय तत्‌० (पु०) सूत, सूत, पेशाव । प्रस्पेद ठत्‌० (पु०) थ्रतिशय घम्म, श्रधिक पसीना । विनीत, तरपर, लगा हुआ, प्रचलित, लपद १ | भ्रदर तत्‌० ( पु० ) दिन के ग्राठ साग का एक भाग; --० (पु०) व्यभिचार से उत्पन्न पुत्र । प्रसेफ (५०) सेचन, निचोड़ । प्रसेद (घ०) पसीना । प्रसेर (पु०) बीनरी नूरी, बैलए ( प्रस्करृन (पु०) फलाग,कपट,शिय,विरेचन,अतीसार । भरस्करत (बि०) पवित, गिरा हुआ। प्रस्तनन ( पु०) स्वलन, पतन, पत्ते का विद्धायना । प्रस्वर तत्‌० (घु०) पापाणं, पयर, पाथर, शिला, चार घडी । चचौरीदार। प्रदरी ततू० (पु०) यामिर, पहरुआ, पहरेदार, प्रहपे तच* ( घु० ) अतिशय ध्राइज्षाद, भ्रत्यन्त हप | पहुिएए रत ( *वीी० ५ ऋषेपदछफ5६ छन्द दिऐेए प्रहसन तत« (पु०) परिद्वास, शपदास, झाफेप, रूपऊझ विशेष, नाटक का पृद् भेद प्रहस्त तत्‌० (बु०) जिप्नृव,भद् पुछ्धि वाला द्ाप,चापद, चाबंड, तयडा, रावण का पुर सेतापति का नाम | डपल, पस्लयादि रचित शय्या ।-- मत्र (पु०) | प्रहार तत्‌० ( पु० ) ब्राघात, मारण । पापाणमय, पयरीला । प्रस्वरण (५०) डिद्ागा, जिड्धीना प्रस्वार (प० ) फैलाव, विस्तार, परत, समतल । प्रस्वाध तत्‌७ (पु०) अवसर, प्रसक्, स्तुत्ति, प्रकरण, युत्तान्य कथा, क्यानुए्टान ] प्रस्वावना तव्‌० (खी०) आरम्भ, वाक्यानुडन,भूमिया, अवतरणिरा, मुण्य वक्तव्य के पदतले का बच्छल्य । प्रहारों दवु० ( बि० ) मारणध्चाँ, मारने वाला | प्रद्चित ठद्‌० ( वि० ) दिस्त, निरम्त, प्रेषित, प्रित । प्रहोण ( वि० ) वरियक्त, दोडा हुआ्या। प्रद्ुत ( ० ) वनिरवेश्यदेव, सून, झप्त | भद्दत ( वि+ ) चकाया हुआ, फ्रच्ा डुथा, फैटाया हु, घटाया हुघा, मारा हुआा। ( यु० ) प्रहार, चार, एक ध्यपि कर नास | प्रह् प्रहए तत्‌० ( वि० ) सन्तुष्ड, ३ल्‍ त्रसित, आनन्दित | “मना € बि० ) सन्दुएट चित्त प्रहेत्लिका तत्‌० (स्त्री०) दुविज्वेय प्रश्न, कुटाथ भाषित, हुरूद् चाक्‍्य, पद्देली, छुकौवल । प्रह्माद्‌ ततू० ( छु० ) द्वैद्यपति दिरिण्यकशिशु का पुच्र । ये परम विष्णु भक्त थे; वाल्यावस्था ही से इनकी विष्णुभक्ति प्रकाशित हो गयी थी। दैज्यराण ने अपने पुरोद्दित पण्ड और अ्रमरक को भरह्ााद के पढ़ाने के लिये नियुक्त किया था । प्रह्माद की विष्णुभक्ति देख कर बेचारे ब्राह्मण रोज्ी जाने के भय से कॉपने लगे | अपना बचाव करने के लिये बन लोगों ने दिरण्यकशिपु से कह दिया कि राज- पुत्र नास्तिक है| गया । द्विय्यकशिएु ये प्रह्मद को बहुत समझाया, परन्तु कुछ फल नहीं हुआ | हिसण्यक्रशिपु ने अल्लाद के कुपुत्न समझ कर उसे मार डाकने के किये अ्तेक प्रयल किये, परन्तु प्रह्मोद नहीं मरे | पुक दिन प्रह्तद श्रपने पिता के सासने | भगवान्‌ का गुण कीर्तव करने कगे | अह्वाद ने कदा | परमेश्वर ज्यापछ है, उनकी प्रभा चारो और फेली हुंई है । दिरिण्यकशिपु ले कंदा ते इस खम्मे में तेरा ईश्वर क्यों नहीं है ! प्रह्माद ने सम्पे की ओर देख कर भतबान्‌ का भरणास किया; परन्तु दविरण्य- कशिपु जस्मे में भगवान्‌ के नहीं देख सका था, अतपूव उसने खम्भे पर पदाधात किया। बस, चह खग्भा घीच से फूड गया, वहीं से हुसिंहरूप- खारी भगवान्‌ प्रकट हुए और उन्होंने दैत्यकुल का लाश कर दिया । देव पितर ऋषि आदि सभी वहाँ उपस्थित हुए और उच छोगों ने भगवान्‌ की स्घुति की, परन्तु इंसिंह का क्रोध शान्त नहीं हुआ | अल्त में अहवाद उनकी स्तुति करते छग्रा, भगवान्‌ ने कहा; प्रह्दाद मैं सुस पर चहुत मसन्न हैं। तुम घर सांणिं, प्रक्ृद ने कह कि मह्तज, आप झुसे चर का कारूच न दिखावें, हम कामासक्त हैं, झतपुव इमके वर न चाहिये, यदि आप चर देना चाहते ही हो के वही पर दीजिये कि मेरे हृदय में कभी चासना उत्पन्न न दे।। भगवान्‌ दे बह्ी चर दिया। छतः संगवान्र्‌ के कहने से प्रह्मद न्ने दूसरा वर यह सा कि मेरे पिता का अपराध (४6१ ) प्राचोन क्षमा है।। भगवान्‌ ने “ एवमस्ठु ”' कह द्वर पितृ- शोक-कातर प्रह्माद को झाध्वासित किया ।.. प्रह्न ( वि० ) नन्न, विनीत, आसक्त | महलीका ( स्त्री० ) पहेली । म्राकू लत्‌० ( अ० ) पूवे, आगे, पहले, प्रधम, आशय, आदि, प्रारस्भ --तन ( ३० ) पुराना, प्राचीन, पहलक्षा [--कात्त (०) प्रर्वक्मछ, प्राचीन समय । प्राकास्य तत्‌० ( $० ) शिव के श्र्वविध ऐेश्वर्यो के अन्तर्गत ऐश्वर्य विशेष, यथेष्टता, प्रशुरता स्वेच्छा- नुसार। प्राकार तत्‌* (प०) ईंढों की बनी दीवार, चार दीवार, कोट की भीत, नयर के चारों भोर की दीवार । प्राकृत तब॒० ( वि० ) प्रकृत्त सम्प्रन्धी, चीच, श्रधप्त, अस्त्यज, भाषा विशेष, वास्तविक, वस्तुतः, खाभा- बिक्ष ।-ज्वर ( पु ) वर्षा, शरत्‌ और बसंत ” ऋतु में क्रम से बात, पित्त और कफ ले उत्पन्न ज्वर (--प्रक्षय (-छ० ) प्रछय विशेष, प्रकृति का नाश, महाप्रतयय ।--भाषा (ख्री०) भापा विशेष, संस्कृत का पुक भेद ।--शन्नु (५० ) एक देश पर झपना अपना श्रषिक्षार चाहने वाक्षे राजा, खाभा- विक शत्रु । [मामूली, भौतिक, छौकिक, नीच। प्राकृतिक ( वि० ) श्रकृति सम्पन्धी, स्वाभाविक, आखर्य तच्‌० ( ४० ) प्रखरत्व, तीक्ष्णता | प्रागभाव तत्‌” ( पु० ) संसर्यामाव विशेष, विनाश भावत्व, सम्भावना, किसी वस्तु के उत्पन्न होने के पहले का असाव। प्रासदम्य तत्‌० ( छु० ) प्रगहमता, अद्दक्वार, अखि* मात, दर्प, रा, धम्तण्ड, च्यापकता, भौद्धत्य, स्त्रियां का स्वाभाविक भाव | प्राघूणिक जब ( छु० ) पाहुन, अतिथि, अस्यागत) प्राची तव्‌० ( ख्ो० ) पूवव दिशा, सूर्योदय दिल्‍्कू, पूवे दिक, बह दिशा जिसमें सूये उदय होता है। प्राचीच तत्‌० ( पु० ) पूर्व देश का उत्पन्न, पू्वे दिशा का उत्पन्न, पूर्वकाल का उत्पन्न, घुरातत, पर्चका- लीन, बुद्ध +--गाधा (सत्री०) प्राचीन कथा, पुरा- सन इतिहास (--ता ( स्त्री० ) पूर्वकालीनता, प्राचीचस्व, पुरातनस्व, बुद्धावस्था +-“वर्दि (४० ) राजा विशेष । शा प[१०--७१ प्राचीर ( ४6१ ) प्रारम्भ प्राचीर तद्‌० ( पु० ) बादर का काट, प्राकार, चार- दिवारी । [बहुल्य, वहुतायद । भाचुयें तत* (पु० ) प्रधुरता, अधिकदा, बराहुल्य प्राचेतस्‌ ( पु० ) प्राचीन बहिं के पुत्र, प्रचेतागण, चाढ्मीकि मुनि, विष्णु,.द्छ, वरुण के पुत्र का नाम, ध्रचेता के वंशन | प्राच्य तत्‌० ( पु० ) शराबती नदी के पूवे दक्षिणदेश । ( वि० ) पूर्वेदेशीय, पूर्वेदेश-उत्पद्ध | प्राज्ाक ( पु० ) रप चछान बाला, सारथी। प्राज्ञापत्य सत्‌० ( घु० ) द्वादश दिन का चत, रोहिणी नत्ृत्र, प्रयाग, विवाद विशेष । [ दत्त, निषुण । प्राज्ञ तत्‌5 ( वि* ) पर्द्ित, चुद्धिमाय्‌, अमभिज्ञ, विज्ञ, प्राउ्य तत्‌* ( वि० ) प्रचु॥, ययेष्ट, बहु, अधिक । प्राज्चत तत्‌० ( वि० ) सरल, झज, सीधा। प्राअल्लि ठत० ( स्री० ) संयुक्त करद्वय, अअक्िपुट । प्रान्त ( पु० ) शत, शेष, सीधा, श्रेर, दिशा, देश का _ भाग, भदेश।--भूमि ( खी० ) किसी वस्तु का अन्तिम भाग) किनारा छोर |. [ न्याय कर्त्ता। प्राइवियाक तत्‌" ( घु० ) ब्यवद्दार द्वश, विचारक, प्राण तव्‌० ( पु० ) हदयस्य चायु, जीव, अनिल वायु, निः्वास, घह्मा, प्रशापति, स्व॒नाम स्यात वशिक द्ब्य ।-त्याग ( पु० ) जीवग विपजेन, जीवन त्याग, शत्यु, मरण ।--दुशड ( घु० ) वध दण्ड, प्राण घाराक दुण्ड ।-द्ाता (३०) जीवन दाता, झाण रचक ।--नाथ ( ३० ) स्वामी, नाथ, पति, अ्रभु ।--पण (१०) प्राणद्याग, प्राण त्याग पर्वत अतिज्ञा, अत्यन्त आायास |--प्रतिष्ठा ( स्त्री० ) अतिमा शझ्रादि में देववकरण, जीव संस्थान | +--प्रिय (वि०) प्रियतम, भाण सुक्य प्रिय ।--मय कोप (५०) कर्मेन्द्रिय सद्तित श्राण पथ्चक ।--सम (वि०) प्राण छुक्य, प्राय सदश [--सम्रा (स्त्री०) जाथा, भायाँ, पक्षी | [स्ख्यु। प्राणान्त तत्‌* ( पु० ) प्रायावसान, प्राण शेष, मरण, प्राथायाम तव्‌» ( घु० ) चेयाक्न विशेष, न्यास विशेष, रेचक, पूरक और कुम्मछ नामर प्राण्ये के दमन करने के बाय, स्पॉस को ब्रह्माणड में ले थाने की क्रिया । [ ज्ञीव, शरीरी, देही, जीवधारी । प्राणरी ठद॒० ( वि? ) आाण विशिष्ठ, मनुष्य, सचेतन प्राणेश या प्राणेश्वर तत्‌० (पु०) पति, स्वामी, भाणों का ईश्वर । प्रातः तत्‌० ( ६० ) प्रभात, विद्वान, सूययोद्य के सम्रय का तीव मुहूर्त काल ।--ऊर्म, रूत्य ( ३० ) प्रात काछू किया जाने वाढा कमे, सन्ध्यावन्दुता- दिकर्स, सबेरे छरने के काम |--काल (४० ) सूर्योदय के अनन्तर छु दण्ड का ।-क्रिया ( स्ली० ) प्रात काछ का कत्तब्य कम |--सन्ख्या ( ख्री० ) प्रात का की सम्ध्या, प्रात काल हो जिये ज्ञाने वाली नैदिक मन्त्रोपासना । प्रातराश तव्‌5 ( पु० ) प्र/6 काल्लीन भोबन, प्रातमों- जन, जलपान, जछठसवा । [ ढता, शप्रुता। प्रातिकुल्य तत्‌० (पु० ) चैपरीस्य, विरुद्वाचरण, वि९* प्रादुर्भाव तत्‌० ( पु० ) आवि्भाई, बद॒य, प्रकाश, मद्दिमा। [वितस्ति, बीठा, बालिश्त । प्रादेश तत्‌* ( पु० ) तब्भंगी सद्दित विस्तृत भ्रदगुष्ट, प्राधा तत्‌* (ख्री० ) प्रजापति मद्वपिं कश्यप की भागों, गन्ध्वे और अ्रप्घरा इन्हीं के गर्म से उध्पन्न हुए है। प्राधान्य तत्‌» ( इ० ) प्रघानता, प्रधघानतव, श्रेष्ठता, मुख्यता प्रान्तर तद्‌० ( पु० ) दूर, घान्य पथ, दुगस पय, दाया जल शआ्रादि रद्दित स्थान, उनाढ स्थान,वीरान, शम्ठ । प्रापक तत्‌० ( पु०) प्रापणकर्ता, पहुँ गाने वाढा । प्रापण तत० (१०) प्राप्ति, पावना,पहुँचाना, मिठया । प्राप्त तत्‌॒० ( वि० ) छब्ध, ग्रासादित, मिल्रित, प्रध्या- पित ।--कात्न ( पु० ) निडहिंट का, उपयुक्त समय । [ घनादि इद्धि । प्राप्ति तद्‌० ( खो७ ) पाना, छास, धधिगम, उपाजेन, प्राप्य दच० ( दि० ) प्राप्तन्य, प्रापणीय । प्राम्माणिक तत्‌० (वि) अति मान्य सिद्धान्त, ययार्थ, सत्य, अमाणयुक्त ] [ प्रमाण सिद्ध । प्रामाणय तत्‌० ( घु० ) ग्राहस्व, अद्रण करने योग्य, प्राय चद्‌० (श्र०) बाहुदुय, बहुधा, कभी कमी, डग* संग, करीब । [ करने वाह्ने कम । प्रायश्रित्त ठत० ( पु+) प्रापगाशन के, परापष्ठय प्रारच्ध तद्‌+ ( प० ) पूर्वानुष्टित कम, अच्ष्ट, प्रात कसे, पूर्व कमे, माग्य । [ अलुष्टान | प्रारम्भ ठत्‌० ( यू ) उत्तम रूप से आरम्म, उपक्रम, ० सधथंना प्राथेना तत्‌५ (ख्री०) याज्ञा, विचेदुन रीति से प्राथना लत (ली०) बाबा, निवेदन रोति से | प्रेमी बब कि.) आज अत जज ५ जे. (../ मॉगना, घिनय से मगिता । प्रार्थित तरू5 ( बि० ) याचित, निवेदित, विज्ञापित, बाण्छित, जाँचा, माया । प्रात्मव्ध तव्‌० (श्री) प्रारव्घ, छलाद, भाग्य, श्रदश | प्रादुतच्त तत्‌० ( घु० ) चूँघट, ओड़नी। धरावुद (ज्ली०) वर्षकाछ । [राजाओं के रहने का सवन । प्राखाद तत० ( पु० ) मन्दिर, सकझान, देवता और प्रिय त्तत्‌ू*» ( बि० ) हच्य, स्मेह-पात्र, अयतस, ओमी, प्रणयी ।--तम (पु०) अत्यन्त प्रिय, पति ।--वादी ( बि० ) भिष्टभाषी, प्रशंसक, स्तुतिकरत्तां । प्रिया तत्‌० (खत्री०) प्रेम्रास्पदा नारी, प्रियतमा, अशयिनी, प्यारी, प्रेयसी, वल्छमा । प्रीच्त तत्त० ( बि० ) तुष्ठ, सम्तुष्ट, प्रेम्त पान्न, प्रिय | प्रेति तत्‌ ० (खी०) ओम, स्नेह, प्यार, प्रथय |--कर ( वि० ) प्रेमजनक !--कारी या कारक (8० ) पसन्चता उत्पन्न करने चाद्या ।- पात्ञ ( घु० ) भेमी, प्रेसम्ाजच ।-भोज (०) वह मोम या ज्येनार जिसमें इृष्ट मित्र समिलित हो । प्रोत्यर्थे ( अन्य० ) असन्नता के लिये | मेडन तस० ( छु० ) हिंडोछा, डोछा । प्रेज्ञक (-छ० ) देखने चाल, दर्शक । प्रेज्ञण ( छ० ) अ्रखि, देखने की क्लिया । प्रेज्ञणीय ( थि० ) देखने ये।ग्य प्रेज्ञा (जी०) देखना, इष्टिनिगाद, शोभा, अज्ञा, बुद्धि । प्रेण ( पु० ) यति, चार । प्रेत तद० (9०) भूत, पिशाच, येत्रि विशेष, म्हृतक । “>कर्म ( प० ) अस्त्पेष्टि क्रिया, क्षा् ॥-नदी ... ( ख्त्री० ) चैतरणी नदी । प्रेतनी दे० ( खी० ) भूतनी, डॉच्नी, ठायन, ुड़ेल । | प्रेम तत्‌० ( घु० ) स्नेह, प्रियता, दाद, प्रणय, श्रीति | “भक्ति ( स््री० ) स्तेहयुक्त भगवस्सेवा, भगवान्‌ में एुकान्त प्रोति ३ [ भाजन, प्रेसी, प्रिय । प्रेमासपद्‌ तद॒" ( वि०) स्नेह भाजन, प्रणयी, प्रशय- प्रेक्ा ( छु० ) स्नेह, स्नेही, इन्दे, वा इच्त विशेष ।-- त्वाप (8० ) अ्ेमपूर्वक बातचीत +-लिद्लन ( पु० ) भेस एवेंक सस्ते लगाना। ३ प्रेम्िक ( पु० ) प्रेमी, प्रेस करने वाला । ( #ढ३ ) औढ़ा प्रेप्ती तत्‌० (वि०) प्रेमयुक्त, स्नेही, प्यारा, स्नेह भाजन ! प्रेयसी तत्त७ ( स्री० ) प्रियदमा नारी, दयिता, दान्ता बल्षभा, प्रिया, प्यारी, सनी । सिजले बाला । भैरक ततू० ( पु० ) प्रेरणकर्ता, ग्रेषक, पडाने वाला, घेरण तत्‌० ( घु० ) प्रेषण, पठाता, मेजना । पघेरणा तत्‌० (स्त्री०) विधि, आज्ञा, आदेश । घेरयिता ( पु० ) भेजने बाला, उभाइने वाला । प्रेरित ततू० (बि० ) प्रेषित, नियोजित, पठाया, भेजा हुआ, नियुक्त किया याया । प्रेषित ( बि० ) प्रेरित, भेजा हुआ, प्रेरणा किया हुआ । प्रेष्ठ चत्‌० ( वि० ) अतिशय प्रिय, अत्यन्त स्नेह पान्न, अत्यन्त वल्लस [दास, भुत्य, सेवक । | प्रे्य तत्‌० ( बि० ) भेरणीय, मेजने योग्य ! ( पु० ) म्ैव ( छु० ) कष, दुःख, मर्दन, उन्‍्माद, भेजना । ह प्रैध्य ( ए० ) दास, लेबक । [किह्दा हुआ । प्रेक्त तचु० ( वि० ) कथित, उत्तम अकार से कथरिव, प्रेक्षण ( पु० ) पाची छिड़कना, यज्ञ में वध क्रे पूर्व यक्तपरु पर जल छिंड़कना, वध संस्कार विशेष । प्रेत ( वि० ) सत्री भाँति मिला हुआ, छिपा हुआ । ( छु० ) कपड़ा । [ उद्योग । प्रोत्साह तत्‌० ( छु० ) अतिशय उत्साह, अत्यधिक प्रेयित तत्त० ( ब्रि० ) प्रवासयत, विदेशस्थ, परदेशी ) +-पतिका (स्री०) विदेशस्थ पति की स्री,नायिका, विशेष, यथा-- ज्ञाको पिय परदेश में, विरह विकल्न तिथ होय । प्रोषितपतिका नाथिका, ताहि कदृत सब कोय | रसराज [ प्रौडित तत्‌० ( घु० ) पुरोद्दित, पुरोधा । है घोछपद (घ०) पर्व भाद्पद और उत्तर साद्रपढ नत्षन्न, भाद्दमास ।--न (स्त्री०) पूर्वा भाद्षपद और उत्तरा भाहपद लक्षत्न। -ये (स््री०) भाद्ठसाल की पूर्यमासी,। पौढ़ तत्‌० ( बि० ) प्रदुद्ध, अगल्भ, निएुण, विचाहित, ओऔबनावस्था के वाद की अवस्था ता (ख्री०) प्रौ़त्व । भौढ़ा तव्‌० ( खी० ) तीस चर्ष से पचास बर्ष सके को खत्री, नायिका विशेष | यथाः-- - निज पत्ति सों रति केलि की, सकल कलानि प्रवीन । सालों प्रोढ कहत हैं, जे कविता रखलीत ॥ रसराज १ प्रौढ़ि (४ दं2 ) फंटाना प्रौढ़ि तच० ( स्प्री० $ सामच्य, उत्साद, अ्रगल्मठा, | सावन दत« € छु० ) जलमम्न इवा। डद्यम, उद्योग, अध्यदसाय ।--वाद (०) बमुवा | सीहा ठत० (द्धी०) रोग विशेष, प्िलही, वाप विद्नी। के सहित विवाद । प्छुत तबू० ( घु० ) स्वर विशेष, अतिशय दीर्घ स्वर। प्वव ठत० (पु०) मेष,बानर,चाण्डाल,प्लुवगति,उदलत, प्ल्ुवि ठत्‌० ( खी० ) कूदना, फॉँदना, उद्धलना। झूमि, जलकाऊ, पानी, फौडी, नौता, नाउ,तरणि। | पीस ( छु० 3) पदी, पित्त जो सुँह से गिरसा है प्वद्भूम तत० ( पु० ) बानर, कपि । झोप (पु० ) दाह, जलन । फ फ भह ब्यझन वा वाइमचाँ अछर है, इसका उच्चा- | फट्टो, फेंकी दे* ( छो+ ) फकनी । रण-स्थान भरोष्ठ है इस कारण इस वर्ण की फ़्ढा दे? ( पु० ) वीट, कीडा, पतके | ओपष्ब्य सज्ञा है । फ़जर ( ख्री० ) सरेरा, प्रात ताल । फँदना दे० (क्रि०) फंसना, अठक्ता, उलमकना, रफ़्ना । फल (9०) हपा, ्रनुप्रद। फेंडलाना दे० (क्रि०) भुलाना, ध्ुलावा देना,एसलाना।_ फजीलत ( ख्री० ) उच्छपता । फँदा दे० ( घ० ) फाँसी, फसदी, उलमन, अदकन । फजीहत या फजीहती ( री ) हुईंशा, हुर्गति । फेंसना दे० ( क्रि० ) उलमना, श्रटकना, वकना, फ़े. फज्नूल ( वि० ) च्यर्थ। में फैसना । फट दे० ( वि० ) प्रकाश प्राप्त, विफखित, पूला हुप्ा, फँसाव दे० ( घु० ) उल्माव, अठफाव । प्रफुन्चित । ( श्र० ) फटकार, तिरस्सार, भ्रनादर, फँसियारा दे ( घु० ) बरमार, ठग, जद्याद । मन्त्रास्त्र । फनी दे ( स्ो० ) फफी । + फठक तद्‌० (पु०) रफटिर्, प्रस्तर विशेष (क्रिण) पदौर। फ़कड़ी दे० ( खो० ) अनादर, अ्रपमान, तिरस्थार। | फ़टकन दे० ( ख्री० ) पद्दोरन, अ्रश्नकण । फक्रिया दे० (स्री०) फॉँक, खण्ड, इपडा, अ्रश भाग । | फटकना दे० (क्रि०) पद्दोरना, श्रत्न से कण निकालना। फर्कीड़िया दे" ( घु० ) वठकक़ड़, यक्वक्या, वक्‍्यादी, | फठकार दे० ( घु० ) तिरस्कार, शाप । गप्पो, वातूनी । (6 फ़थकरी या फंठकिरी टे० (ख्री० ) फिटकरी, फकोड़ियात दे० ( ख्री० ) थे सिर पैर पी बाद, अन- चार विशेष । थक बात, पिन प्रयोजन की कथा, उठपर्यॉंग बात । | फणकों ठे० (स््री० ) एक मार थी जाल तिमसे फर्क दव० ( धु० ) दुराचार, दुराचारी पक्नी पके जाते हैं, ध्याध का बढ़ा पिता । फक्कठ दे० ( दि० ) निहय, उच्दृद्धल, हुडक, यसेड़िया, | फठसा दे० ( ज्रि० ) टूढता, डुकट़े दोना, तड़कता, मझगड्रालु, लदार्‌ । [ जिवण्टा । दो सणद द्वोना । फका चे० ( धु० ) पद्चा, पतला, पानी सा, पूवेष, | फठफदाना दे० ( क्रि० ) फऋषफदाना, व्याइल शोता, फ़काक ( वि० ) ब्यूथे, वेफायदा । |. हाथ पैर घुनना, विवश होने के कारय उद्चबना फड्का कतू+ (द्धी०) छपेद की वात, असद्ध्यवहार, ॥ कदना, छदपदाना । धोजा, भलावा, मिध्या, न्याय सम्यन्धी व्यास्या । की दिए छा ट [झा दे० ( वि० ) सदित, फॉक्दार, दरवा हुआ । प्की दे० ( स्री० ) फेंडी, ठग की माया । फद्धाक दें ( आअ० ) शीघ्र, तुरठ, तुरन्त, उसी समय, फगुनद्वद दे० ( खतो० ) फागुन पी इवा । |. तत्वथ, ताशल | होली, होली 5; फसआ, फसुवा देन (३०) होलो, होली का । फठाका दें» (५० ) घद्का, यन्दूऊ थ्रादि का शब्द । झ्वद्डार] | फटाना दे० ( क्ि० ) अल्लग कराना, प्टथरू कराना, फड्ठा॥ फेंका दे० (पु०) करन, आस, फराव । $.. इक्‍्ें कराना, चिरवाना। फदापघ फठाच दे० (पु०) बिलगाष, मिद्ठता, भेद, अलगाव फडिक तदू० ( छु० ) पाषाण विशेष, स्फटिक, विज्ञौरी पत्थर । फह दे० ( खी० ) यूस स्थान, वा घर | « फड़क दे० ( स्ली० ) स्कुरण, रह रह कर फरकना । फड़कला दें* ( क्रि०,) स्कुरण होना, फुरफुराना, वाझु के कारण अज्ों का ईपत्‌ कम्पन, फरकना । फड़की दे० ( स्री० ) ओट, व्यवधान, अन्तर, आड़ । फड़फड़ाना दे० ( क्रि० ) फटफशाना, तहफना, छुट- पटावा । [ ढोठ, चकवादी । फड़फड़िया दे० ( वि० ) भड़भड़िया, जल्दीबाजू, श४, फड़ाना दे० ( क्रि० ) चिरवाना, घिराना, फड़वाना । फरड़िज्ा, फ़िंगा दे० ( स्री० ) समिन्ली, रींगुर, एक अकार का कीट । फड़िया दे० ( घु० ) पैकार, विसतँती, खुरीद कर बेचने चाला, व्यापारी, फड़वाजू, जुए के अ्रह्टे का मालिक । फरण तत्‌० (प०) सॉप का चौड़ा मस्तक, फणा, फण । “धर ( पु० ) नाग, सर्प, साँप ) फरण्िकक्तक तत्‌० ( एु० ) चोद पत्ता, तुलसीदल । फशणिपति तत्‌० (०) सर्पराज, शेष, अनन्त, चासुकी | फरणी तत्‌०» ( पु० ) सपे, साँप, चाग, पच्चर, फील | फर्णीद्ध, फशीश तलू० ( छ० ) सर्पराज, फणिपति, घासुकी, अ्रनन्‍्त । [वाला छोटा कीट । फंतिडुत, फतिगा दे० ( ० ) पत्क्न, पतंग, उड़ने फद्फदाना दे? (क्रि०) फदफद करना, उयलना,वलब- लाना, छोटे छोटे दाने पड़ना । [का मस्तक, हुनर । फन दे० (एु०) फण,नाग का मुंह, नाग जाति के सर्प फनगा दे० ( पु० ) अँखफोड़ा, टिट्ठी, कीट विशेष । नफनफनाना दे० ( क्रि० ) फुफकार ना, फुफकार छोड़ना, उत्तेजित होना । फनि या फरमी दे० देखो फन । फनिक दे० ( छु० ) सर्प, साँप, फन वाला । फदीश दे० ( घु० ) सर्पराज, नागेश, साँप । फफसा दे० ( बि० ) फूला हुआ, फीका, फोफसा । फफ़ुरूना, फफूँ दना ( क्रि० ) सढ़ना, छुसना फफून्दा, फू दा दे० (०) किसी बस्ठ को सील से रखने से उस पर जो बद्बुदार सफेदी लग जाती है, उसे फर्फूदा कहते हैं। (_ ४६४ ) फरलाग ४-----..0त0ह0हत फर्ुन्दी, फफ़ू दो दे० ( खो० ) लाइन, गुमसाहर । फफोला दे० ( ४० ) छात्ता, रुकोद, स्फोटक, पढका, फांसका। [छिस्ता, च्याधि, भानसी च्यथा । फफोले फूठना दे० ( वा० ) सानसिक दुःख, मन की फफोले दिल के फोड्ना दे० ( दा० ) सन की चाह पूरी करना, गुस्मार निकालना, इच्छा पूणे करना! कब दे० (स्वी०) शोसा, सने।हरता, रमणीयता, रम्पता । फवकना दे० (क्रि०) प्नपता, डाल निकलना, शाला फूटना, कर्छा फूटना। फ़बता दे" ( वि० ) घेग्य, समता, ठीक, सुहामा फबती कहना दे० ( वा० ) घदती हुई बातें कहना, चुटकटा छोड़ना, हँसी करता, चुहक करना, किसी की शोमा को हूसना [ फबन दे० ( स्त्री० ) शोभा, शशक्वार, सजावट, छाजन | फबना दे (क्रि०) लेहना,शोभना,शोभा देना या पाना । फबि ( स्लो० ) फचन, छवि, शोभा।.. [रमणीय ] फबील्ला दे” ( वि* ) सज्ीका, शोसायमान, रस्ण, फर दे० ( ३० ) फक्ष, भालछा की नाक, फल्क | फरकना दे० (क्रिन्‍्) फड़कता, कॉपना, स्फुरण“होना, फुरफुछतना, चरधराना | फरक ( ४० ) शत्गाव, भस्तर, पार्यक्य । [ कढ़क | फरक (स्थ्री०) फरकने की क्रिया या भाव, चश्ुरुता, फरक्रि दें० (क्रि०) फइुक कर, धर्रा कर, थरथरा कर! फरचा दे? (ए०) परिष्कार, निव्पत्ति, सेबों का फ़टना। फरचाना दे, ( क्रि० ) भाज्ञा देना, चुकाना । फरका दे० निर्मल, स्वच्छ, श॒ुद्ध। [ शोचना, मलछमा । फरदछाना दे० ( क्वि० ) स्वच्छ करना, निर्मेल करना, फरजंद ( ए० ) पृत्र, छड़का, बेटा ! फरली ( ० ) शतरंत्ञ का एक मेहरा) फरफन्द दे० ( ० ) छुछ, कपट, घोखा, दुएता । फरफन्दिया दे” ( वि* ) छली, कपटी, घे।सेवाज । फरमा ( घु० ) ढांचा, डौछ, कागज का पूरा छुपा हुआ तख्ता। [या चनाने के लिये दी जाती है | फरमाइश ( स्री० ) आहझ्या खास फर किसी चीज जाने फरमान ( घु० ) राजकीय झआाक्लापत्न फरमाना ( क्रि० ) आज्ञा देना, कहना । फरलॉँग (० ) भूमि की हवाई का एक माप, ८ फरलगि का पुक सीछ देता है । फरश का ( पु० ) बढ़ी दूरी, घरातल, समतसक्त मूमि। नयी ( खो० ) हुए। की नली । फरस दे० ( 5० ) ब्रिदौना फस्मा देह ( पु० ) परश, कुदार, इुण्दाडी । फरहरा दे* ( पु५ ) ध्वज, पताका, केतु । फरदरी दे० ( ख्ली० ) रूण्डी का कवश । (रु० ) अवसूणा । करा ( पु० ) ब्यज्षन विशेष । फराक ( ६० ) मैदान, भायत स्थान ( बि० ) लगा चौडा +--त (वि० ) विस्तृत, आायत, लंबा दौदा, समतछ । फराणी ( ख्री० ) चौड्वाई, विध्तार, फैज्ञाव, पम्पत्नता । फरागत ( श्री० ) छुटकारा, मुक्ति, छुट्दी ! फराठी दे (खो० ) खर्पांची। [उतरा हुझ्ा ) फरामाश ( वि० ) विप्त्त, भूछा टुग्रा, चित्त से फरार ( वि० ) भागा हुश्ा। फरालना ( किए ) पत्तारनए, फैलाना । फरास ( ३० ) फर्राधषा फरिया दे० (स्वी०) छोटा बह०ँगा, कन्यायों की घघधरिया। फरी दे० (स्री० ) ढाल, फलक%। [ बटोरी जाती है | फरुदा दे* (१०) फावडा, अश्च विशेष, जिससे मिट्टी । फर्राठा 4० ( घु० ) बॉस का दुकडा, शब्द विशेष [ फर्सना दे० ( ख्ली० ) दिला, उड़ता, फदराना । फल तत्‌० ( पु ) शब्य, राम, फलक, चमे, ढाल, इश्सिद्धि, अभिप्राय, कमे जन्‍्य शुभया अशम फहछ,; भनिष्ट इध्ठ।--अने # (०) फटद, सफठ | --+६ ( वि० ) फशदाता, फछदायक ।दाता ( पु० ) फर देव बाछा, फन्नपई |-सूल (प्०) फर और मूल । फलऊक तव्‌* ( पु० ) चर्म, दए्छ, धश्विखगढ, साय- केसा, काट, पदक, पटरा, तरवा ।--ना ( क्रि०) छुलऋना, उम्रगना, फरकना | फल्षका ( पु० ) फफेला, छान्‍्य, सका । फलना दे० (क्रि०) सफल द्ोना, फट बुगना, फरना । फलबुमोवज दे० (जु० ) एक मह्ार का खेल । फजवान्‌ रद» ( वि० ) सफन्न, सार्ध5, कर्युक्त। फल्ना दे? (० ) युरू भद्ा, सारे स्वर, बाणयादि का अम्रमाग, अद्यों छी घार ! ( #६6 ) फाँकी फलाडु दे० (१९) प्लुत गति, लक, छहुन, फढास। फल्ञाना दे- ( पु० ) असुक । फू्लाफल दव्‌० ( पु० ) लामाक्ाम, दितादित । फल्लास दे० ( घु० ) ढेग, फाड़ । [मोजव। फुन्ताद्दार तत्‌« ( पु० ) फल भोजन, श्रद्नातिरिक्त फल्नित तत्‌० ( वि* ) फछ विशिष्ट, सफठ, ज्योतिष विशेष | [[ वारपर्याये, मिद्वास्त । फलितार्थ तब" ( ६० ) [फल्ित + भ्रधे] सिद्ध धर्षे, फलियाँ दे० ( ख्री० ) घीमी, फली | फल्नी तत्‌० ( गु० ) फल युक्त, फटवानू, सफह, फल विशिष्ठ, धीमी, फलियाँ । फलूवा दे" ( घु० ) गठीआा, माछर । फल्लोद्य तत्‌* ( पु० ) [फ्+ डदय ] श्याम, प्राप्ति मनेरध सिद्धि, भ्रानन्‍्द $ फलीत्तमा तब॒" ( ख्तरी० ) वाह देच, सुना । _फदका दे० ( छु० ) फफीछा, घाला । फह्णु दत्‌» ( गु० ) श्रलयार, निरपेंक, तच्छ । (६० ) गया की पृक् नदी का साम। इसी नदी के तीर पर गया शदर चसा है। फब्बारा दे० ( घु० ) फुदारा। फसकड़ दे० ( घु० ) पैर फैडा कर बैठना । फसकना दे० ( क्रि० ) फटना, फ़दना, दुरकाना। मे! कना, ढीला दोना, शिथिल्ठ होना । कसझाना दे? ( क्रि० ) फाइना, देंरकाना। करना, शिथिल्ल करना । फसड़ी दे* ( स्री० ) फीसी, फन्‍्दा । फसना दे० ( क्रि* ) बफना; रुकना, घठ कना | कसफसा दे० ( बि० ) निर्देक्ठ, पिलपिज्ा । फसदी (स्री० ) फंदा, फासी ) फसाना दे० ( क्रि० ) दब्माना, बसाना, सीन करना, वश में करना । फहरना या फदराना दे० ( क्रि० ) उड़ाना, फाना । फॉँक दे० (क्रि०) फड आदि का दुकड़ा, श्रश, विभाग, हिस्सा, भाग । फॉँकना दे० (क्रि०) फह्का सारता, खाना, घढ़ाता । फॉँफी दे० (स््री० ) पूर्वर्ष न्‍याय की घ्यासया, शास्प्रीय प्रश्नों का विचार, फक्करिका, दवा की मारा, चूथ देना | (क्ि० ) घोहझा देता । ढीहा फाड़ ६ अं ) किरित फाँड ( ए० ) धुल, अचरा। फाँद दे० ( प० ) फँदा, फॉसी, पक्ष, फसड़ी । फाँद्ना दे* ( क्रि० ) छुदना, इछछना, लाघिता । फाँदूप दे० ( छ० ) फँदा, फॉली, फसड़ी । फाँदी दे? (स्री० ) भार, ग्नों का बोका “५, फॉँपना दे० ( क्रि० ) फूजना, सूजना, सूजन होना। फाँपा दे ( वि० ) फूला, सूजा । फॉँफड़ या फाँफर दे० (० ) अवकाश, अन्तर, छेद- फाँस दे० ( १० ) सूक्ष्म कटा । [जाल में बसाना | फाँसना दे” (पु० ) बाधता, बलमाना, पकड़ना, फाँसा दे० ९ घु० ) फादि, फन्‍्दा, फेसड़ी । फॉँली दे० ( स्त्री० ) दरड विशेष, प्राण दृण्ड, एक अकार की रस्सी जिधमें गला ऊला कर भ्रादमी मार डाले जाते हैं [--देना ( क्रि० ) गल्ले में फाँसी डाक कर सार डालना ।-+पड़ना (वा० ) सारा जामा, पण दण्ड से दणिद्धत देता «- लगाता ( बा० ) गला घोंढ कर मग्ना, फंसी छथवा कर मरना, आत्महत्या करना । फाग दे ( प० ) होली का खेल, होली में रंग श्रादि डाछसा (--सलेजना ( वा० ) होली का ध्योहार समाना, रंग डालना, गुलाक था अबीर सलना । फाग्रुत या फाल्मुत दे० (ए०) फाल्युत मास, दारहर्वा मद्दीना । फाठ ( प० ) दिश्सा, भाग, चौड़ाई | फाठ्क दे* ( 9० ) घुण्य द्वार, बढ़ा दरवाज़ा, चाहर का दरवाज़ा, सदर द्रघाज़ा । [लुकसान फादमा दे? (क्रि० ) फछूटना, विगढ़ना, फाठी दे* ( क्रि० ) फठ गई। फाड़ ( 9० ) छुराख, द्राज, दर्रा। फांड्खाऊ बे० (वि-) काटने वाल, कटा, कटखना | फाइखाना दे० ( क्रि० 2 चिधाड़ना, काठना, काट खाना, क्रोध करता | फाड़ना दे० ( क्वि०) चीरना, फोड़ना, तेडूचा । > फाड़ा, फांस दे? ( वि० ) चीरा हुश्ला। फछा, दरछा। फायी दे ( कि० ) मली लगी, शोमायमान हुई, खज्ी, खुली, सुन्दर हसी । फायदा ( ए० ) लाभ । क्ारता ( क्रि० ) फाइला, चीरदा | द्वृदना, [ झुँद, दि्र। | ते बन + तन नर तन त न ननन+-++-२-पपर मा रन जन २ +-++5०+-+२०-7-+ ०-77 5. फारस ( 8० ) भारत वर्ष से पश्चिस, दराव का देश ! -ी (६ स्री० ) इंसनी आषा | फारा ( छु० ) कुत्ता, डुकढ़ा । फाल वच्‌० (एु०) एश प्रकार की क्लाहे की कील भो दल के आगे छगाई जाती है,जिससे जुमीन खोदी जाती है | शिव, वल्राम, सूती वस्र विशेष, नवविध शपथ के अन्तर्गत अ्रप्ठम शपथ; सुपारी का दक्ष फालसा दे० ( घु० ) फरू विशेष | [पाये । फादगुन तत्‌० (६०) वर्ष का बारहवाँ साल; अर त, फाच दे ( घु० ) घेल्वा, रुक, घस्तु खरीदने के बाद ओ विन वाम की पच्छु ली जाती है । | फावड़ा दे० ( छु० ) कुदार, कुद्टारी, फरसा । फावड़ी दे० ( स्ली५ ) छे।टा कदर, कद्ठाली फसिला ( पु० ) दूरी, अन्तर ! फाहा दे० (पु०) रुद का छेप्टा मेलाउने खुफन्त द्वष्य अतर आदि में हवा रहता है | मल्इस की पट्टी | फिकारना दे० (क्रि०) सिर नह्गा करना, सिरगधारमा | फिकिर दे० (स्त्री०) चिन्ता, घपाय, कल्पना । फिक्र ( स्त्री० ) चिन्ता, फिकिर । | अपमान) फिट दे० (9० ) फिटकार, . दुर्कार, तिरस्शार, फिटकरी दे० ( ख्री०) च्वार विशेष | [शाप; सराप । फिल्क्षार दे ( ६० ) घित्कार, तिरसस्‍्कार, गाली, फकिल्कारना दे० ( क्रि० ) घिक्कारना, तिरस्कार करना, शाप देना, सरापना ) फिल्यना दे० ( क्रि०) फंटवावा, समवाना, छुन्नवाना | फिट्ट दे” ( वि० ) छज्ित, शर्ताया हुआ, उत्तरा हुआ | यधा-- उसका चेदरा ' फिद्दू * पड़ गया। फिर दे० ( ऋ० ) और, (घन, अमन्तर, पुनि, बहुरि, पीडे, बाद, पश्चात्‌ । फिरका (9०) ऋच्चा, जमात, कौम | फिर्को दे० (स्त्री०) एुछ खेलने की चस्तु, फिरिहिरी । फिर ज्ञाना दे० ( क्वि० ) लौटना, छोटजाना, पछ- टना, सुड जाता, पराह्षसुख दोना | फिरत दे० (वि०) फिर हुआ, छौठाया हुआ, ज्रोदाया गया, फेरा हुआ । ( ख्री० ) वापसी, चह कर या चुड्ी का महसूढ जो किसी सहसूकी साछ के नमर से लाये जाने पर ली जाती थार वच्च माल कप दूसरी जगह भेजने पर वापिस्त दी जाती है । किर्ता फिरता दे० ( क्रि० ) रमता, चलवा, घूमता । फिरना दे० ( क्रि० ) घृमना, भ्रमण, करना, पर्यटन करना, रमना, छौटना, पछटना, सुइना | फिराता दे० (क्रिज) घुमावा, छौटाना पत्वटाना, मोडना । फिसप दे० ( पु० ) घुधाव, फेएददुज, पछटाव | फिरे दें” (क्रि० ) छोटे, घूमे, उछटे, वापन श्राये, क्ौद भाया | फिकीं दे* ( स्लरी०) सि्धी, फिहिरी। फिनीं दे० ( श्लो० ) खेहने की पृक्ठ वध्तु । फिकलो दे? (स्वोौ०) पिंडली, घुटटा । [पीछा करना । फिसफिसाना द० (क्लि० ) डरना, भीत होना, श्राया फिसलम दे (द्री३) विधुक्षन, रपटन |. [रपटना | फिपलना दे० ( क्रि० ) खसइना, गिरना, खिसकना, फिसकद्दा दे? (वि० ) विशवछदा, पिच्छिल, नहाँ डी सूमि बहुत बिहनी हे। । फिसला ( घु० ) बिदुलन, रपटन | पिटस । फ़िसलाइट दे० (स्प्री० ) चिह॒नाहट, विद्युलाइट, फिदरिस्त ( स्त्री० ) लावा, सूची, बही। फॉंचना दे० (क्रि०) धोना, घोती घेतना, कपडे घोना। फ़रीका दे* ( वि० ) मीरस, खाद रद्दित, ऊसठ, सीछा, जो न मीठा दे। न निमझीय । फीता ( घु० ) कपड़े वी पट्टी | फु कार दे० (पु०) फुफकार, कद सर्प आदि का रा । फुकना दे? (क्रि०) ज़टना। (पु ) श्राग फूकने की निगाबी । मूयाधार) थैल्ली । फुकनी दे* (प्ल्रोौ०) भाग फूकने के किये वॉस की या घातु विशेष की चौथी | फुगी, फुनगो ( स्त्री० ) कली, कुनगी । [केढा । फुद देन (जि* ) अलग, मित्र, आयुग्स, पृकाझी, फुडकर या फुदरुल्ल दे० ( वि+ ) मिन्र मिद्र, अछय भडढग, एपक्‌ प्रथर्ू, कई प्रच्यर की बहतुश्रों का समूद जैसे ४फुटकर सूर्ची॥ [पचाओी । फुदकी दे (स्त्री०) छिटकी, अयुग्म, अ्रसद्वाय, चेक, फुट्टेल दे* ( विन ) फुट, आयुग्म, थह्केछा | फुड़िया दें* ( स्त्री० ) छुसी, छोटा घाव | फुम्कार दे* ( घु० ) दुतहऋार, तिरस्छार । फुड ना दे" ( कि० ) कुदुना, उचुछना | ( £ई८ ) फुलाना फुदगो दे० ( स्प्री० ) पति विशेष । फ्तति। फुनगी दे० ( स्त्री० ) कन्नी, कॉपल, मझरी, फ्रोमह फुनग द० ( छरी० ) पेड़ का शिसता, पेद की सदसे ऊँची चोटी । फु सी दे० (स्त्री०) अत्दोरी, गर्मी के दिनों में पसीना मरने से ज्ञो दोटी छोटी फुनसी निल्‍्रछती है। फुदना दे* (पु० ) रब्दा, झालर, गुच्छा, खबदू। फुफ्फा दै० (ु०) छुआ के पति, फुप्फी के स्वामी, फुफा ॥ फुफ्फी दे० ( स्त्री० ) पिता की बद्दिन, फूआ, बूपा | फुफकार दै० (६० ) फुस्दार, हू हूँ का शब्द, फ़्कार | | फुफेरा दे० ( दि० ) फुद्ा के सम्बन्धी | फुर दे० ( धु० ) सत्य, यथार्थ, ठीक, परीक्षित, सच्चा, प्रमाणित । फुरफुराना दे० ( क्रि० ) शरीर के शेंगटों फे सहृता खडे द्वोने से शरीर का पुक यार कप उठता, कपना, दिलना | फुरफुरी दे० (द्लो० ) घरथरी, कर्ग, कम्पन | फुरदारी दे" ( खो०्) कपकपी, द्विन । फुरि ० ( क्रि० ) सूम ध्यान झ ) दे हि ः ) सूकरूर, सूसी, उपजी, कुर्त दे० ( वि० ) ऊुर्वीढ़ा, बेगवानू | फुर्ती देच् ( स्ली० ) शीघ्रता, चटपटी । [बाक्ा । फुर्नीला दे* ( वि० ) चटपटा, बेगवान, शीघ्र करने फुलका दे* ( बि० ) फूछा हुश्ा, इलछका (प० ) फफोला, पतली रोटी | डिदाना । फुलकारना दे ( क्रि) फुफ्कारता, फुडाना, फत फूलकारी दे० ( पु० ) पुक प्रकार का कपड़ा, निममें सुई हे काम बने रहते हैं, मैनू कपड़ा | फुलकी दे० ( स्ली० ) इब्की रोटी, पठल्ली रोटी । फुलमड़ी दे* ( स्थी० ) पुकप्रडार की चातशवाजी | फुल्वाई दे० (स्रौ० ) फुछवाड़ी, पुष्पवाटिका, फूंजों का बगीचा । [िष्पदादिका । फुलवाड़ी या फुलवारी दे* (ख्री० ) इष्पोचान, फुजहथा दे० ( पु ) ढादी की मार । फुलाना ३० (कि ०) झुज्ञाना,मेरा करना, फुल्टा बैना। फुल्लासश फुल्ताखरा दे० ( घु०) लक्जो चप्पों | फुलेल दे० ( ४० ) सुमन्धित त्तेछ । फुलोरी दे० ( खी० ) बेसव या मुँष की पकोड़ी फुल्ल (वि०) खिला हुआ (--। ( वि ) फूछा हुआ । फुडली दे० ( ज्ली* ) आँख का एक रोग, नाक का पक अआसूषण, पुँगनिया । फुसफुछाना दे? ( क्रि०) छिप कर बातें करना, फाना कानी करता, सुप्त जातें करता । फुसफुसाइट ( ख्री० ) फुसफुल करने का भाव, शिय | फुसलाऊ ( बि० ) बदकाने वादा | [घोखा देना । फुसलातना दै० (क्रि३ ) शुरावा देवा, रलिना, फुंसलाबा ( ४० ) र्तसा, चकसा, घुठावा। फुपाहिन्दा दे० ( दि० ) घिनौना; ० (रुपद, दुर्गस्धी । फुरक्षा दे० ( दि ) हुवेल, शक्तिद्दीव, ढीला ( छु० ) छाक्षा, फरोछा | फुहारा दे० ( घु० ) फप्वारा, जल की कल्न विशेष । फू ( स्त्री० ) फुफन्तार, सर्प ब्लादि का साल लेवा | फूक दे० ( स्त्री० ) श्वास, सांस दम, प्राण “-दैवा ( बा० ) आय लगाना, स्तर से काड़ना । न्फूक कर पाँच धरना (वा० ) सावधानी से काम करना, सोच विचार कर चलना | फू कना दे० ( किए ) आग खुबगाना, बयाना। फू कारना दे ( क्रि० ) फनफताना, फुछ्छारना, क्रोष का विश्वास | फू दी दे० ( प्त्री० ) सीसी, चोटी बूंद । फूँकना दे० ( क्रि० ) सह से दमा निकालना, आग सुल्याता । फूथा (स्त्री5 ) इ॒श्ना, पिता की बहिन | फू दे० ( ख्री० ) फल बिशेष, ककढ़ी, पकी हुई ककड़ी, विरोध, परखर द्वेप: असमेक, असम्भति, & भल्लमाव, जिकगाद ।-+ पंडचा ( चा० ) विरोध होना; हैप पढ़ता, विशेष अतपक्ष ढोना“-फूद कर रोता (दा० ) खूब गोचा, अड़े कष्ट से रोना । “-रहना (था० ) द्वेप बढ़ना, लग होना । | --होवा ( चा० ) शनवनाव, बिलताय । फूठच दे० ( स्त्री० ) अनबदाव, विसेच, द्वेंए पूद्नना दे० ( छ्वि० ) फदना, हृदना; न होना; डुकड़े इकड़े दोचा । ( #६8 ) फ््ड फूयला दे० ( बि० ) दृद्य एप, फूदा, नष्ट भ्रष्ट, सप्न फूद्य दे० ( ए० ) म्न, खण्डित, हटा। फूदी दे० [ क्रि० ) हुदी हुई, भप्त । ( स्प्री० ) सस्ती कौड़ी |-सहें पर कम्जल न सहँ (वा०) समय पर सामान्य कष्ट न सह कर पीछे अधिक ॥ दाष्ट उठाना, छोटे छ४ से बचने हे लिये बड़े कष्ट 4. में फेंसता। [ पत्ति फ़ूफ़ा दे” (० ) कुशा हे पति, पिता के भविनी- फूल दे० (घु० ) पुष्प, छुमृत्त ( क्रि० ) फूटा, खिछा, खुज्ञ पया ।--कोबी (स्वी०) एक प्रकार छा साथ । फूलना दे” (क्रि०) खिक्नना, सूजना, हुलसना, आन- म्दित होता | फूल्लाच दे* ( छु० ) सूजन, शोध, फुलाहट | फूली दे? ( स्त्री: ) भाँख का रोग । “फूछना क्रिया का भूच्‌ काल” (ह्म्री० ) फूली हुई। फूल दे" (० ) दृश, घास; सूखी घास ।-में विन- गारी डालना ( चा० ) कड़ा उठावा, ऋूगह़ा टंटा करना फूलड़ा ढे० (३०) गूदड़, छताड़ा, 'धज्जी, पुराने वस्त्र । फूसी दे ( स्त्नी० ) बोकर, भू्ी । फूदड़ वा फूहर है० (डि०) अशिक्षित, अनसीक्षा, मुख ।--पतन्र ( पु० ) भद्दापन [ फूहड़ा था फूहरा देः (थि०) कुश्सित यादी, झुबक्ला। फूदा दे" (घु० ) रई का फाहा जिसे दूध सें सिगो कर बच्चों को पिलाते हैं फूद्दार, फूहारी दे० ( स्त्री०) भॉॉंसी'छोदी छोदी बूँद। फक दे० ( स्त्री० ) प्रक्षेप, निरेप, द्याग । फेंकना दे० ( क्रि० ) प्रच्ेणण करना, ल्ायवा, बूर करता, निकाल देना, झक्तग कर देना, घोड़े को सरपट दौद़ाना । जड़ पदाथी ही के द्याग के अर्थ में इसका अयोग होठा है । फुँक देना ( वा० ) दूर गिरा देना, नित्तेप करना । दुंकाव दे० (घु०) फेंक, त्ञागय ( वि० ) ल्ायमे योग्य, फेंकने योग्य । केंक्रेत दे० ( छ० ) फेकने वाला । प्ँढ दे० ( खो० ) कमरवन्द, करिवन्‍्धन, पढहुकाा -वाँध्ना ( था० ) उच्चत होना, सैयार होना, पस्तुत होना, झानता, कसर ऑँधना, छुणदली। झ० पा०--०२ फ्ेंटना ( ४७० ) बेंगरी प्रेंटला दे० ( क्रि० ) मित्ाना, बेसन थादि को अच्छी | फैलना दें० ( ० ) पसरदा, विधरना, बखरना, तरह सानना। फैंदा दे” ( पु० ) मुरेठा, साफ़ा । फेंठी दे० (त्री०) आाँग, लच्छा,ग्रढीया । [असामर्थ्य । फेकड़ी दे० ( ख्रो० ) चलने की अ्शक्ति, ्रागमन का फ्रेश तद्‌० ( घु० ) फेन, राग, याद, मल | फैन तत्‌० (पु०) राग, समुद्र कफ, जलमल ।-दार फेनथुक्त +--बांदी ( ए० ) जल, रस, समुठ, दूध । फ्ैनानर दे० ( क्रि० ) मतग आना, फ्रेन उठना, श्रान्त होना, थकित होता । [ मिदाई। फेती दे० ( ख्री० ) प्रस्याव विशेष, एक अकार को फेडुस दे० ( पु० ) थमत, सुधा, पीयूष, नव मसूतत, गौ और मैंस का दूध । [साँस ली जाती है,लगजू। फेंफड़ा (घु०) दादी के ऊपर का भाग जिसे द्वारा फेफडी ( खी० ) शल्य, चलनशक्ति । फेर दे० (थ०) पुन , घुनि, चहुरि, यारवार। ( घु० 9 घुमाव, बॉकापन, वक्॒वा, चक्र, पलटाब, बदली, बुरे दिन, अभय, कठिनता ।--साना ( दा० ) चक्कर साना, भदरुना, वष्ट उठाना, दु से सहना। +-डैना ( वा० ) लौथ देना, पल देना, पीछा दे देना, प्रत्यप॑य करना ।--फार ( वा० ) श्रदद्य यदल, छल कपट, घोग्या, इंधर उधर | फेरना दे० ( ज्रि० ) लौदाना, घुमाना, हटाना । फेस दे० ( पु० ) घुमाय, प्रदद्दिण, भाँवर, सप्तपदी | फ्रेरफेरी दे" ( खी० ) अलगोे पलटी, परस्पर अर्पण । फेरी दे० ( खी० ) प्रद्ठिणा, मिद्या माँगना, भित्ता के लिये चक्र लगाना ।--वाला ( घु० ) पिसोती, पैकार, गली गली घूम कर येचने बाला दूकानदार । फेस तत्‌० ( पु० ) सियार, श्यगाल, गीदड । फेर दे० ( पु० ) फेर, चक्र, चक, घुमाव । फैंटा ( पु० ) देखो “ कटा ” । चारों ओर फैल जाना । फैलाना दे० ( क्रि० ) बिद्धाना, पसारना, विम्तार युक्त करना, चौडाना, प्रचार करना, अऊाश करना फैजाब दे० ( ४० ) पसराव, प्रचार, विद्वाव । फॉक दे० (गु०) सोसला, पोला, भीतर से शआज़्य, योथा । ( खी० ) बाण का पुक भाग जिधर पेच लगाया जाता है ।--ी ( ख्री० ) नत्नी, छ्डी १ फोफी दे० ( ख्री० ) नली, छूटी, नलिका, एक प्रगार का वाजा। ( वि० ) पाली, सोखली। फोद्वार दे० ( खी० ) पुहार, फ़ही, सीसी फोऊ दे० ( घु० ) सीढी, निस्सार घत्तु । फोकट दे० ( एु० ) छँदा, कज्ाल, दरिद्र । ( गु० ) सेंत का, बिना दाम का, बिना परिश्रम का । | फोकड़ दे० ( पु० ) घूरा, कड़ा । फोकर ( पु० ) दरिद्र, दीन, कयाल । फोइना दे० ( क्रि० ) सोढ़ना, समन करना, न्ट करना, फाइना, चौरना, डुकठ़े हुस्डे करना । फोड़ा दे” ( ७० ) शरण, स्फोटक, पिरसी । ( क्वि० ) तोडा, तोड़ दिया, डस्डे कर दिया । फोर दे० ( क्रि० ) फोड दिया, तोड़ डाला! फोला दे० ( घु० ) फफ़ोला, डाला, फुस्पा । धिला। फोस्का दे० ( पु० ) फफोला, फोला, फुलया, मलका, फौज दे० ( ख्रो० ) सेना, सैन्य, सैनिक, योदा। +दारी ( ख्री० ) ऋूगड़ा दं, मारपीद नी ( बि० ) सैनिक । फाव ढे० ( स्री० ) रुत्यु, मरण, निधन | फौरन दे० ( अर० ) तुरन्त, शीघ्र । फोलाद ( घु० ) पका लोहा ।-- ( वि० ) पौलाद का वना इआ। च व यद व्यभन वा तेईसवों बर्ण है, यह ओष्व्य वर्ण है, | म्ंकाई दे० क्योंति इसका उच्चारण स्थान ओषछ्ठ है थे तद्‌» ( पु० 9 वन्ण, समुद्र, सागर, जल | येंक ( प० ) झुकाव, मुजावद । (स्त्री०) वक्ता, टेढापन, तिरद्ापन। चेंग ( पु० ) गॉगे की भस्म का रस विशेष, दयाल | बेंगरी दे० (ख्री०) ख्ियो का एक आभूषण जो पहुँचे पर पद्दिना जाता है । बंगला बेंगला ( छु० ) अँगरेजी दंय का सकान । बंगाल ( छ० ) भारतवर्ष का पूर्वी आन्त विशेष । वंगालिन ( स्री० ) बंगाल देश बासिनी स्री । बंगाली ( स्वी० ) बंगाल का वाशिन्दा। चंगी ( स्री० ) भौरा, लद॒दू । चंजर ( वि० ) उजाढ़, ऊसर, पीरान । चंज्ञास ( छ० ) रोज्ञगारी, वह व्योपारी जो वैल आदि पर साल खाद कर घूमा करता है । बंजारी ( स्त्री० ) बंजारे की जी | बैकोदी दे० ( खी० ) ओपदि विशेष, गर्भ नाशक ओएधि । चँदबाना दे० ( क्रि० ) विभाग कराना, यँटाना, हिस्सा लगाना | | करत । वँव्बैया वे" ( छु० ) बॉँदने काला, विभाजक, विभाग- बैंटाना दे० (क्रि०) भाग कराना, हिस्सा कराना, भाग लगाना । यंडी दे० ( स्ली० ) छोटा अज्ा, अधनैहाँ ! बंडेरी ( स्त्री० ) घर के छुत्त, का सर्वोच्च भाग । चंड्रौह्या दे० ( पु० ) बबए्डर, चक्रवात, अन्घड़ । बंद ( पु० ) बंधन । बैंदूगी ( खी० ) सलाम, पूजा, गुलासी । बैंदूनवार ( छु० ) उत्सव के अवसर पर द्वार पर बाँधी जाने वाली पत्तों की साला । घंदर ( घु० ) बानर ।--ी ( सुत्नी० ) बंदर की सादा । बंदी (8० ) भाद, चारण, क्ैदी।--शूद ( 8० ) जेलखाना ।--अन ( घु० ) चारण, भाद | बंदूक ( स्त्रो० ) स्वचाम मसिद्ध आस्नेबास्त्र विशेष बंदूहा ( 8० ) वृफ़ान, अंबड़ | बंदीड़ ( स्त्री० ) वॉदी, गौकरानी । बंदोबरुत ( 9० ) प्रबन्ध, व्यवस्था । बंदोल ( 8० ) दासीझच । बंध ( झु० ) गिरो, गाँड, वल्थन ।---क ( ३० ) रेहन, आती, मिरवी, घरोहर 7--ना ( क्रि० ) गाँठ पड़ना, बंद होचा, क्रेद होना --वादा ( क्रि० ) गाँठ दिलवाना ।--ई ( रुूत्नी० ) बाँधने की मजदूरी सैधानी ( स्त्री० ) झुली, मजदूर । दंचुआ ( 8० ) चंदी, कद । ( अ#छर ) 2 कल दल ल जो पल पड बन अल अल रमय 222 मशर लक चकसा चंधुर ( वि० ) दालू, चढ़ाब, उतराव। ( पु० ) हंस पक्षी । चंघेज् (४० ) वंधान, नियत । चंसी ( स्त्री० ) वॉँस का बना झुँह से बजाने का चाजा । चम्बर दे० ( छु० ) लता, खतिका, बेल । बक तत्‌० ( पु० ) पक्ति विशेष, बगला +-ध्यान' लगाना (वा[०) पाखयणड करना, दुस्म करना, मत- जब साधने के लिये धामिक वनना दिखौशा घर्म अखुर विशेष, श्रीकृष्ण के हाथ से यह भारा गया है। श्रीकृष्ण गोप बालकों के साथ गाय चराने के लिये वन गये थे, वहाँ प्यासी गायों को जल पिलाने के लिय्रे वे एक तालाब पर गये। उसी समय वकरूपघारी असुर श्रीकृष्ण को निगल गया। श्रचन्तर श्रीकृष्ण के तेज से ध्यथित होकर उससे श्रीकृष्ण को डगल दिया उपरान्त श्रीकृष्ण ने उसकी आंच पकढ़ कर उसे मार ढाला । बक दे० ( स्त्री० ) चयवाद, चकबक, निर्थक वात, बड़वड्भाहट, शुस्यपाड़ा, व्यर्थ की चालें ॥ बगला, एक पक्की का भाम ।--स्कक् ( बा० ) बकबक, बकबाद ।>-कह् करना (वा० ) रूगढ़ा इंश करना, चकवाद करना, सुधा बकना।- -वक करना ( वा० ) बोल बाज करता, मन माने बकना ।--बक लगाना (व६० ) गुल्न-गपाढा करना, चिन्नाता, शोर मचाना | बकची दे० ( स्त्री० ) ओपधि विशेष । खकना दे० ( क्रि० ) बकदादु करता । बकबकिया दे० ( जि० ) बावमी, गप्पी, खकथादी । बकवाद दे० ( पु० ) बकक्क, धकवक | बकवबादी दे० ( ए० ) वकवकिया, गष्पी, गणोड़िया, जूथावादी । बकबास दे० ( ४० ) वकदाद, बाचाढाता, सुखसपन ३ चकवाहा दे० ( ७० ) बइबढ़िया, वक्की, चाचाल, यक- बादी, चकबाद करने घाला । चदरा दे० ( एु० ) अजब, छाग, छृ्मल । चघकरी दे० ( स्त्री० > देरी, छागी, अजा । बकल्षा दें० ( पु० ) दिलका, छाल, स्वक, त्वचा । बच्छस्या दे० ( वि० ) समेद, सिल्मव, वन्‍्वेजी । वकसूया / #७छ२ ) बबेल बकसूचा, चकऊछुआ दे० ( पु० ) चपरास का काँच । ' घावा, दौड़ ।-दुद दोड़ना ( वा» ) सरपरट बकसेला ३० ( वि० ) बरुसा, फ्सैला, कपाय । दौडना, बिना रोक दोहना । [एक सेद। बकाछुर ठत्‌० ( घु० ) दक नाम असुर (देसो बक) । बगड़ देन ( ु० ) पुक प्रकार का चाँवल, चाव् क्का बकिया दे० (स्त्री०) छूरी, चाकू, चस्त्‌ । ( वि० )बऊ- बगड़ा दे» ( पु० ) दुःम, छल, कपट, घेषठा । बादी, घककी । बगड़िया दे० ( वि० ) छ॒ल्की, छुलिया, ढपटी, पू्च। बकी तत्‌० ( स्त्री० ) पश्चिणी विशेष, वऊ की स्त्री, , बगदना दे० (क्रि०) भूछना,कही शाकर दौटना,फिना । पतला नामक राकसी । | घगदाना दे० ( कि० ) मुलाना, विवगाढ़ना,,डॉवाडोल बक्ेलू दे० ( पु० ) मूँल, बॉस फा वफला । करना, गये हुए का छौटाना, फिराना, भुद्धाना। ब्रकोटना दे० ( झ्लि० ) नोचना, खलोटना, नप्राधातव | वगपाती दे० ( स्त्री० ) कष्, काँख । परना, नसक्षत करना । बगमेल दे* ( क्रि० ) इफट्ठे होकर चत्चना, बगु्ों की खकम दे० ( घु० ) रँगने का काष्ठ विशेष। [्वचा । |. नाई पति बचि कर चलना | चकल तद्‌० ( पु० ) वताल, वजला, छिलका, खकू, , बगरे दे० (क्रि०) फैले, बिखरे, छ्वितरा गये, छीट गये | चक्की दे” ( वि० ) गप्पी यफ्वादी, बाचात्न। ! बगल (१० ) कछ, कास, किन्परा। चकदुन्‍्त उत्‌० ( धु० ) 'पपुर विशेष, शिश्षुपाल के भाई ' बगला दे० ( पु* ) बकर, मकपएछी।--भगत (४० ) का नाम ( वि० ) रटेढे दाँतों घाला । '.... कपटी, पाखण्डी, धृत्त [--मारे पखना द्ाथ घख्त् ( ६० ) दुनिया, सार, ध्ृथ्वी । |... (वा० ) व्यर्थ का परिश्रम करता, गरीय को मारना बखरी दे०( स्प्री० ) मकर, गृह, घर, कुटी, मॉपड़ी । निष्फल है । [ इदगा । बखान तदू० (५०) बदाई,वर्सन, स्तुति,स्तोत्र, प्रशला । | घगलाना ( क्रि० ) एक तरफ करना, दांपे या पॉँये +-करलना (घा०) स्तृत्ति करना, यहाई करना ।. | बगली ( ख्री० ) धैली, जेय | बखानना दे० ( ज्ि० ) ढदता है, बयान करता है। | बगइंस दे० (पु०) इंश विशेष । [फेंक देगा,पसारगा। प्रशसा बरना, स्तुति फरना, वर्णन करना । वणारना ढे० ( क्रि० ) घिटछाना, फैज्ञाना, विसेए्ता, चलखार ठे० ( पु० ) दॉका, खत्ता। [छत्ती । | बगावत ( ख्री० ) बढछवा, अराजकता | [वगीचा। यप़नारो दे- ( सो० ) रूख रखने का भण्डार, राश्य, वजिया दे? ( ० ) ए० प्रचार की सिछाई | यखियार्य ( क्रि० ) बलिया को सिठाई करना। बफी ( खी* ) पयलछ । बखेड़ा दब ( पु० ) रूगड़ा, मठ, टँटा, लड़ाई । ““छुझाना (वा० ) कूगश मिदाना ।--मचाना ( या० ) रूयड़ा करना, टेंटा करना | वर्सेड़िया देन (पु ) रूणडालू । [फैटाना, दींटना । वगिया दे० ( पु० ) फुछवाढ़ी, घुष्पवादिका, छोटा वगीया दे० ( घु० ) उ््यान, बढ़ी फुश्वाढी, बढ़ी पुष्यवाटिका । बगुर दे० (० ) फँदा, जाछ, पाश, फॉसी। घगुला दे० ( ६० ) दक पछ़ी, वगढ्ाा | घग्ूला दे० ( धु० ) यचण्डर, धक्रवास, भन्घदु | बगेर ( अश्य० ) बिना । # जी) घग्धी ( स्त्री ) चंद्र थोड़ा याडी | [बढ़ वसेरना दें ( क्रि० ) जिद्ी्य करना, विदिप्त करना, | वघनहा दे० (बु० ) सुगन्ध द्वव्य विरोप, पुक बंद की 50284 (४० ) भशझुन, अपशकुन, अशुभ सूचक | वघना दे० ( पु० ) बाघ का नम, राघ का दतिया न्द्द यघार दढे० ( पु० ) छींकना, चौंक का मसाला | वघारना ३० (क्रि०) छौंकना, छोंक छ गाना । [मफ्खी। वधी दे० (स्मी० ) डॉप, मधुमक्लखी, पदों की बखिशश ( बृ० ) इनाम, दान, उपदार ; बेल दे* ( ४० ) राजपूतें की पृछ जाति ।--छयड बग तदु* (पुन) वर, बाड़ा +--चाल (प्रो०) वयन्ने ( घु० ) प्रदेश विशेष, उर्हा बयेद्र दी रहते हैं। शी ब्री चाल, कइाएन्द छूट ( ऋऔीन ) परएट सीता बाय पदश:॥ बल्तोरना दे5 (क्रि") टोझना, पूछन्य, दिक दिखाना। स दे- ( पु० ) कन्या, सकस्य ! घेल्ा बधेज़ा दे* ( छु+ ) विद, बाब का कऋश्निय । चड्ु दें० ( छ+ ) धातु विशेष, रस चिह्ेष, रग्टि की बच्चा; व्धेल बड़ुरी, बदली, देन ( स्वी० ) गलक्लार विशेष, हाघ ! में पहनने का गददना, खिसे स्त्रिया पडनती हैं । घडुला दे" ( ३० ) खपरेझ घर, वारसदरी, दवादार नये ढड़' का सक्तान, झगरेज़ों के इढने का घर । घडुलेन, या चड्सैस तत० (ए० ) अगस्त का छू । घक्कु या बड़ा तच्‌० (पु०) बॉस की जढ़ छा पार । (गु०) नासमझक, अनभिज्ष, सूखे, नि्वु द्धि, वेदकुफ यथा+-- राम मजुज कसरे शठ बह़य ) घन्दी काम नदी छुनि गड्ा है “-धम्रायण | बड़ाल वे० ( छु० ) देश विशेष, जो भया जी से पूर्व है, मैड्देश । [ ज्ञाति की स्त्री । वड़ाल्विल दे० ( स्त्री० ) बल्माल्ठ देश फी री, बंगाली बडूजी दे" ( घु० ) बद़ाक देश फा बाली, बड़वासी । बड़ा, दै० ( स्त्री० ) भौरा; चाह, किर्कों, खेल की एक वस्तु । बच दे" (एु०) वचन, वाक्य, ये।ल्ली । (स्त्री०) ओेपधि विशेष, एक चूद्द की जड़ । बचकाना दे० ( वि० ) छोटा, बच्चों के लिये, बच्चों के उपयुक्त ( पु० ) सवैया, भगत्तिया | चचकानी दे० ( स्री०) नौची, लॉंडी | (वि०) छेटी धचत दे० (स्त्री० ) शेष, अविशिष्ट, 'नवशेप, गाकी | चचती दे० ( स्वी० ) शेष, श्रवशिष्ट । बचन सत्‌० (७० ) बात, वाक्य, कयन, कौर करार, प्रण, होड़ |--स्यूक ( बि० ) अविभ्वासी | -+छोड़ना ( वा० ) नक्कारना, वचन से सुड़ना, आए प्रतिज्ञा ओोना ।--तोड़वा ( चा* ) कही हुई बात से झुड़ना, बचन छोड़ता +--द ( वि० ) मंगेतर, सगाई किया हुआ ।--देना ( घा०) प्रण करना, प्रतिज्ञा करना (निभाना (वा*« ) प्रत्तिक्ञ पालन करना, कंही बात को पूरा करना, अपनी बात पर पक्का रहना ।--चेंद ऋरना (वा०) चछस ढोता, अतिज्ञा कराना “-हन्‍्ध होना ( वा० ) घच्चत देवा, प्रतिज्ञा करवा; अपनी बातों मे बैंछ जाना ।-+प्रालना (वार ) आज्ञा पालना, €( #छ३ ) “न एररलचा++++ तू +- 399 +>- परम न+ मन र-२9- न [मस्स, देश चिशेष | * बजरजूु आज्ञा मानना, झही हुई बात सादता --सैसा (दा०) अतिज्ञा करना, चचनवद्ध करना ।-हारना' ( बा०) कही बात को पूरी न करना, अपनी दानि की वात को स्वीछार कर सोचा, बिन जाने बूस्टे किली बात के लिये प्रतिक्षा उरना। बचचा दे० ( क्रि० ) रक्त पाना, शेष रहना, अवशिष्ट रहचा, बचा रहा | विक्पन ? | बचपन दे? (पु० ) वाद्य, रूड़काई, लड़कपन, बचाना दे* ( छ्लि* ) रद्धा करवा, शद्घार करना, | छिपाना, शेर रखना, शेष बचा रखना । बात दे० ( घु० ) रत, उद्धार, रखवाली, पत्त, सटद्ठायता । बच्चा दे” ( ४० ) लड़का, छाथा लड़का । [दाम | बच्छुनाग दे० ( छ० ) औषध विशेष, एक विपक्का | बच्छुल तद्‌० ( ६० ) बत्सलछ, भेसी, कृपालु, दयालु | बच्छा दे? ( घु० ) गाय का बच्चा, वच्छुड्ा । वच्काछुर तद्‌ू० ( घु०) पत्सासुर, एक असुर का चाम्त जिसे कंध ने कृष्णचन्द्र को सारने के लिये शेजञा था, शर भ्रीक्ृषप्य द्वारा सार छाला घया था | बहछुड़ा, वछट्ट दे* ( ए० ) वष्स, गौ सता बच्चा, गी वा चेटा बच्चा | वछछ ( ४० ) देखो बछुड़ा । वछ्धूल दे० ( बु० ) देखे बच्छव । वकछिया दे० (पु० ) सौ की घादी । बलेरा, वछेड़ी दे० ( श० ) घोड़े का बच्चा । बज़का दे* ( 9० ) पक्ौड़ी, बरा, फुलीरी । बेजना देः ( क्रि० ) शब्द होना, वाजे से शब्द निक- ज्ना, सख्वर शब्द मिकलना । (9०) भागढ़ा, दंटा । वज्ञनिया दे० (३०) धबाजे पाले, बाजा बने घाले । वजनी दे० ( स्वी० ) बाजा पजाने डी चीजू, जिससे सस्वर शब्द निकले । बज्चन्त्री दे० ( छु० ) क्षाज्मा बलाने बाला, चृत्य करने चाले का साथी, सप्ताद्ी [ गलना । बजवकह्ाना दे? ( क्लि० ) इवठना, इफनता। लड़ना, दऊरवद्द्व दे० ( घु० ) फल विशेष, फहते हैं इस फछ के प्रद्माए घें बच्चों पर बुरी दृष्टि नहीं लगती । वजरद्, पज़रंग दे? ( ३०) मदारी। इजुसाव जी का घुछ दास बजरड्भी बजरड्री, वज्षरंगी दे० ( छु० ) एक प्रकार का तिछक मदाबीरी तिलुक। बज्ञरा दे० (पु ) पक भकार की नाव, जो छाई रहती हैं, इसकी चाकू वनारस में अधिक हैं। बजाक दे* ( ४० ) सपे विशेष | [ ब्यवसायी । चजाज़ दे० ( पु० ) कपदटा पेचने घाल्वा, कपडे का यज्ञाना दे० ( क्रि० ) बाबा बज्ञाता, बाजे से स्वर के साथ शब्द निकाढना । [ निभाया | घज्ञा लाना दे० ( वा० ) पूरा करना, पालन करना, चज्ञाय ( क्रि० वि० ) बदले में, एवज में । समनना दे+ ( क्ि० ) फप्तना, वछखना, छूमना, बँघना, धैंध जाना । घमस्कना ( क्रि० ) श्रटकना, लगना, उक्षकना। बभाना दे० ( क्रि० ) फसाना, फन्‍्दे में डाहना, पक- डुना, अ्रधीन करना । बंद तद॒० ( घु० ) घच विशेष, चरगद का बृक्त । बढई ढे० (स्ली० ) थटेर पी, जरी बादुठा का छाम बनाने ढी विद्या | वट्खरा दे० ( घु० ) बाँट, दौदने की दस्तु । यदता दे० ( पु० ) वल देना, ऐंटना, रस्सी बनादा। वस्मार देन ( पु० ) ठग, डॉड, डकैत, घूर्स | बठमारी दे० ( स्री० ) ठगई, धूचेता, ड्टती । घटरी दे० ( स्वी० ) छोटी रुटोरी, पियाली | बस्लेाई दे+ (स्री० ) छोटा सदुभा । बदक्षादी दे० ( ख्ी० ) छोटा बदुच्रा, मात या दाल छुसने का पाज्न । [ बटमार । घटपार देन ( घु० ) सार्ग का कर लेने धाक्षा, उय पदवारा दे० ( पु० ) भाग, श्रेश, डिष्सा, दॉट | वठाई (दै+ ) वाँदने का काम, रस्सी बटना, रस्सी मनाना, रस्सी बनाने छी सजूदी १ वढाऊ दे० ( ४० ) पयिष्ठ, यात्री, बश्नेह्ी ! बदिया दे+ ( स्ली० ) बटसरा, बोट,नौलने दी च्स्तुा बदुओआ दे ( घु० ) पुक भकार की कपड़े की कई सानों की डोरी से झुडते मुँदने वाली चैकी, बडी बटलाई, दा सात पकाने का पात्र विशेष वदुक तद० ( ६० ) मैत्व विशेष, अक्षाचारी, विद्या- ध्ययनाथे बक्षचारी, शौंढा [ बेर दे० ( सी ) पड़ी विशेष । ( #७छ४ ) यढेला चोर दे० ( घु० ) जमाव, समूदद, भीड़, ठट्ठा | बदोरना दे* ( क्वि० ) एकत्रित करना, इकट्ठा काना, समेटना | बठोद्दी दे० ( पु+ ) पथिर, पान्य, यात्री, बटाऊ। बद्दा दे? ( घु० ) फिरता, नेट, गिश्नी झादि बदढाने का सूक्ष्य, डिब्दा डिब्रिया, दुपण, मसादा पीसने का परयर विशेष, छोढ़ा। बड़ दे० (पघु० ) पट, धरगढ़, श्वक्ष विशेष चढ़ ( पु० ) बक बक, ऋकमक । वड़प्पन दे? (धु०) बड़ाई, श्रेष्ठता, प्रधानता, बढ़ापन) वड़वड्‌ देन (पु०) भकपक, व्यय का प्रछाप निष्प्रयोजन बातें | वड़बड़ाना दे० ( क्रि० ) वकप्रक करता, भद्बाप करना। वडवर्डिया दे० ( पु० ) वकभादी, बक्की, गप्पी । वड्वानल दे० ( पु० ) समुद्र के भीतर की श्राग । बड्दल दे० ( पु० ) फल विशेष, पुक फठ का नाम, श्रीवेष्णव सम्प्रदाय फे अन्तर्गत पक शाजा। बड़देला (पु० ) जंगली सुथर | बड़ा दे (वि०) मद्दात्‌, प्रधान, विश्वाल, मुफ्य, बृदद | थाई दे (ध्ी०) मदरव, उद्यवा, प्रशंसा, विशालता। बड़ापा दे ( पु० ) मदरघ, पढ़ाई, उच्चता। वडो, बरी दे० ( श्ली० ) साने की एक घत्तु, जो गरद्‌ या सूँस की बनाई जाती है। यहँखा दे० ( घु० ) ऊख, इख, ह्झु । बड़े म्रियाँ दे० ( छु० ) बृद्ध, बड़ा, निर्वेद्धि बृद। बढ़इन दे० (स्प्री७) सुतारिव ।. [यात्ली पुक जाति। बढ़ई दे० (घ० ) सुनार, लक्तद़ी के काम दनाते बढ़ती दे० ( स्त्री5 ) अधिझता, बृद्धि, लाभ, प्राप्ति वढन दे० ( स्त्री ) बढ़ती, उदि |. [ बहुत द्वीना। बढ़ना दे० ( क्रि० ) अधिक होना, अधिछठा होना; बढ़नी दे० (स्री० ) माडू, बारी | चढ़ाना दे० (कि०) अधिऋाता, चूद्धि करना, हुद्ा करना। चढ़ा लाना दे० ( बा० ) राग्मुस़ करना, भागे छाना। पभरयच झरना ॥ यढ़ाघ दें० ( पु० ) बढ़ती, चढ़ाव, धमहाव। बढ़ावा दे० ( घु० ) इक्ाना, उत्साइ । बढ़िया दे* ( वि० ) इचम, रगणीय, मर्देगा, दुर्मूग ! यदिला दे० ( घु० ) वन्य सूझर, बन का सूचर | हे बढ़ोतर ( #णह ) चद्ा बढ़ातर दे० (पु०) ब्याज, सूद, रुपमे का सादा; लाभ। | वत्तोरू दे० (वि०) तीस और दो, ३२, दो अधिक तीस | +-ी ( छ० ) ब्याज, नफा, लाभ, सूद । चढ़च्त दे० ( खी० ) वृद्धि, बढ़ती, उपज, लाभ ६ घणिक तत्‌० ( घु० ) जाति विशेष, बनिया, च्यापारी, महाजन, सौदागर --फ्थ ( 8० ) द्वाठ, वाज्ञार। बणशिज्ञ बे० (प०) बाणिज्य,ल्षेनदेन,च्यापार;सौदागरी | बशिया दे० ( छु० ) वरिक, कमियां, चैश्य ज्ञाति। चत दे० ( पु० ) कीट विशेष, बात, कोल, छरार। +-अऋहय ( छु० ) गप्पी, बक्को, बकवादी, बततूनी । --चढ़ाघ (घु०) रूमगढ़ा,बातों बातों में बिरसता । --बिता ( छु० ) वातूती, बात बनाने वाला । बतक दे० (घु० ) पत्ती विशेष, हंस पक्छी का एृक्त भेद्‌ विशेष । बतकहाव दे० ( पु० ) कद्दा सुनी । वतक्कहदी दे* (स्वी०) बातचीत, वोलचाछ, कथोपरूधन | वत्तक्कड़ दे० ( गु० ) बकवादी, बड़वड़िया | बतराना दे" ( क्रि० ) बलियाना, बातचीत करता, सम्भाषण करना, संक्षाप फरना ! वतल्लाना दे० ( क्रि० ) समझना, बुझाना, दिखाना, सिखाया, सक्लेत करना । घता दे० ( ६०) खपाच, बॉस की रराठी या खर्पाची। बताई दे० (क्रि०) बतला कर, सम्ररा कर । [वुस्ताना [ घताना दे० ( क्रि० ) बतलाना, सिखाना, समम्धना, बताख दे? ( घु० ) बात, पवन, चायु | बलाखा दे० (9०) सिठाई विशेष । [फल, बातचीत | बतिया दे० ( त्री० ) छोग् कामछ फछ, अधकन्चा बतियाई दे० ( म्ि० ) बतला कर, समझा कर | बतियामा दे० ( क्लि० ) बात करता, बतराना, सम्मान बयय करना, सेलाप करता | बतूनी दे० ( वि० ) वक्‍की, चाचाल | बतेली दे० (स््री०)मांड़िती, सॉड़पना, मादों का कास । घतौरी बे० ( स्त्री ) फोड़ा जो वालों के हूटने पे होला है, बलतोड़ । बत्ती दे” ( स्री० ) बाती, पलीठा, दीपक, दीया, चस की छुड़, छाख की डंडी, मोमबत्ती घाव में भरने की बत्ती, एक प्रश्रार की योग क्रिया |--चढ़ाना ( बा० )घाच में बत्ती डालना ॥--जलाना ( वा० ) दीपक जल्लाना, दिया वारचा । बत्तीसा दे० ( छु० ) पक ओपचि का योग जिसमें ३२ ओपधियाँ डाली जाती हैं भर जो घोड़े आदि जानवरों के दी जाती हैं । वचोसी दे० ( ख्री० ) दन्तपंक्ति, दन्‍त समूह, दरों की कुतार । ( ति०) बचीस वस्तुओं का समुदाय। +-दिखाना (वा० ) दाँत दिखाना, हँसना, चिरौरी करना | चत्सा दे० ( छु« ) चावल्द का भेद, बछिया । चथुञा दे० ( छु० ) शाक विशेष । ब॒द्‌ दे० ( ख्ी० ) रोग विशेष, रान के जोड़ों में घड़ी शगंठि का निकलना, बाघी, बाघी उठना | बदइ दे० (स्त्री०) बैर, बेर का फल, बेर का बूच् । वंदना दे० ( क्रि० ) नियत करना, निश्चित करना, साधना, ददि लगाना | [अ्रपशीतिं, बेहज्ज्ती । वर्द्सास ( पु० ) श्रफ्क्ीति, ऋपमानिता--ी (स्त्री ) बदमाश दे० ( वि० ) छुब्ा, गरंंडा, कुछमी | बद्माशी दे० ( स्त्री० ) लुच्चाई, दुएता । बद्र तव्‌० ( छु० ) फल विशेष, बेर या शेष, लोढ़ा, हजार रुपये की थैली, विनौछा, कपास फा भीज। बद्रि या बद्री तत० (घु० ) फल विशेष, बेर का फल और छूक्त । बद्‌रिकाधम' ततद्‌० € छु० ) तीर्थ विशेष, उच्तरीय तीर्थ, जहाँ बर नारायण तपस्या करते थे । बदल दे० ( पु० ) प्रतीकार, निवारण, बाबुल । घद्लना दे” ( क्रि० ) पलटना, परिवर्सन करना, डलूटा करना, अन्यथा करण, एक वस्तु देक्षर दूसरी वस्तु लेना । बदला दे० ( छ० ) परिदत्तन, पछदा । चदूलाई दे० ( स्त्री० ) प्लटाई, तुड़वाई, झुनवाई। वद्लाना दे० ( क्लि० 9 पछटा करसा, बदुर देना, घरानी घस्तु के देकर नई पस्तु लेना बदली दे० ( स्त्री० ) मेघ, वादलू, स्थान परिवष्तैन, स्थान का परिवत्तेन, एक स्थान को छोड़ कर बूसरे स्थान पर जाना । ( वि० ) बादल बाला दिन जैसे श्राज बदली का दिन है । चढ़ा दे” ( थि० ) सविध्य, सवित्प्य, साग्य, अदृष्ट, द्वोनहार, साथी | बदावदी वदावदी दे० (० ) ईष्यां, स्पद्दों, दिसे, देखा देंगदी, दोटाहोड़ी । * बंद त4० ( ह्र० ) कृष्ण पण, किसी बात के लिये बाज्ञी रखना। ( क्वि* ) छू कर, बयान छरके, शर्से लगाकर, प्रतिज्ञा करफे | इंदी दे० (स०) कृष्ण पत्त । (स्ी०) बुराई, कमीनापन । बदोलत (वि०) छारण से, भाग्य से, सबय । घदल दे" ( पु० ) मेथ, घडली, बादल, घटा । (०) बदले में। बद्ध' तत्‌० ( वि० ) दंघा, चैंधा हुआ । बद्धी दे० ( ख्री० ) भूषण विशेष, कण्ठमूपण । बंध तत्‌० ( पु० ) इगन, भारण, इस्या, हिंसा । बधना दे० ( क्रि० ) मारना, सार डाछना, हमना, दस्था करना। ( पु० ) टोटीदार लेटा, गहुचा, सुसकमानों का जन्पात्र, मिद्दी का लेटा | दघस्यान तत्‌० ( पु० ) बध्य स्थान, प्राणियों के सारे जाने का स्थान, चद स्थान जर्दाँ अपराधियों के फाँसी दी जाती है । बधाई दे० ( ख्तरी० ) इर्पोसव, भानस्दोत्पव, मन्नछा- चार, पुप्रोर्तय आदि साकह़ल्षिक प्रमय में जो पान्धद क्षोग सानते हैं । [मम्नलोत्सव । घधावा दे० ( घु० ) माद्क्षिक उपद्वार, मह्न्वाचार, घथिक तत्‌« (ए२) इष्पारा, ज्छाद, ध्याघ, वद्देलिया पिया दे" ( छु० ) पुरुषत्व द्वीन किया हुआ चैल, भास्ता ।--करना (वा० ) अ्रण्ड निकालना, आाएता काना, निष्कर्मा थना देना, नपुंसक बनाना। वधिर तत्‌« ( पु० ) मदरा, रुणेन्द्रिय रहित । [पब्ची। बघ्चू तव्‌० (द्ी०) चहु, पत्तोह्ू,छडके की सी, सार्यों, ख्री, वशूदी तद्‌ ( खो« ) युवती स्त्री, पुत्रयभू, छोटी यह । दष्य शत्‌० ( वि० ) बचाहे, बच के येग्य -मूमि ( स्वी० ) बघस्थान | वन ( पु० ) जंगल | वनज तत० ( पु० ) भछ से उत्पन्न चस्तु सात्र, कमण, छोई,जोंक भादि! वन से उत्पच्च,फड़,फूल आदि । वनमज्र दे० (६०) पत्ती मूमि, झसर सूमि, सण्डदर । दनज्ञारा दे (9०) व्यापारी निया, सौदागः, ब्यापारी की पुर जाति, पहले समय में ये खेग बेचन की चीज़ों छो दैठ पर छाद कर इस | ( ४७ ) बनाना आन्त पे दर प्रान्त तक्त ले जाते थे, और भपनी चीज़ें वर्ड बेच कर वहाँ घे दूसरी चीजें ले भाते थे। इनझी उस समय “साथवाह” था “दौदा- गर! संज्ञा थी। बनज्रो दे० (स्री० ) वनजारे की ख्री, वनमारे की बस्तु । वनठनके ८े ० ( वा० ) सजघज कर, शड्ार फर | वनत दे० ( स्वी० ) एक प्रकार का गरोटा, नो गरोटे पे ही बनाया जाता है, बनना, तैयार ऐऐना, सिद्ध ड्ोवा, अस्तुत्त द्वोना । बनतराई दे० ( स्ली० ) पौधा विशेष।.[ हैगा। घनना दे० ( क्रि० ) सैयार द्वोना, स्वॉय समता, प्रेम वननिधि तव्‌७ ( घु० ) समुद्र, जछराशि । बनपडना ८० ( बा० ) सुधघरना, निभनां, नियहना | बनमालुप तदू० ( घु० ) पक प्रकार का पश्च, मिसकी बहुत सी वातें मनुष्यों से मिछती हैं । वनमाला तदु० ( स्ली० ) बनमाठा, घद्द माता मिप्े भगवान्‌ घारण करते हैं, गले से पैर तर लटकने वाली माश्वा, तुझसी, कुंद, मन्दार, पारिजात और कमल इन पुष्पों की भाठा, फूछ और पी से बनी साढठा । ; वनमाली तदु० ( ए० ) भीकृष्ण । वनरपकड़ दे० ( ६० ) निन्दित हृठ, दुरा्रह । घनरा दे० ( पु० ) दूलद, घर । बनरी दे० (स्रौ० ) दुल्लदिव, विवाद्दिता याप्यादी जाने वाद्धी कन्या । बनवाई दे० (स्त्री०) दनाने का दाम, बनाने की सगूरी | वनयैया दे (पु०) बनाने वाला, रचयिता, निर्माता | वनसी, वंसी दे (स्वी०) मछली पकड़ने का साधन, काटा 4 बना दे ० ( ३० ) छुल्लद्वा, बनरा, बर | बनात दे* ( यु० ) पृक अकार का ऊनी छूपदा, सो जाड़े के काम का देता है । घनाना दे० ( क्रि० ) रचना, पस्तुव करना, सैपार काना, ठीक करना, दीवार आदि का बनाना, सजाना, सुधारना, जोटना, स्वारना, मिल्लाना | पहना, ए'फ्च करना, सलिरमना, पूरा करता। पूर्ण ररना, जीर्थोद्वार करना । चचायुत्र ( #७9 ) बबेखिया >ेअनननमल-+०+++-म 333 कननीन न कनननम न घन नननन- न ८-+८मनकान-ं-+ नमन मनन नमन न न “न बनना ++ ७५33 +++-ननन-म न +नननननिनतनामिनान न नन---- नमन पननन-++-न-++>> नम चनायुज्ञ सतत्‌० ( ७० ) घोड़ा, अध्य, अरबी घोड़ा । घनाव दे० ( घु०) बनावट, सिंगपार, सजावट, मिल्ाप, मित्रता ) [ जाकार, सद्जठत-) घनावद दे० ( स््री० ) रचना, निर्माण, डीलडीछ, चनावटी दे" (स्प्री० ) काक्पनिक, बवायी हुई, कल्पना प्रसूत, मिथ्या । [ प्रदान बनिज्ञ दे० (5०) वाणिब्य, व्यापार, लेनदेन, आदान चमिया दे० ( छ० ) घणिक्‌, व्यापारी, सौझंगर | वनियायन दे० ( स्त्री०) वणिक्‌ स्त्री, बनिये की स्त्री | धनी दे० ( स्री० ) दुल॒हित, नई बहू । चनेटी दे? ( स्वरी० ) एक प्रकार की छाठी, जिसके दोनों ओर गोल जटहू लगे रहते हैं, अथवा कोई कोई समशाक्त छग्रा देते हैं और उस लकड़ी को घुमाते हैं । यनेनी दे* ( स्त्री० ) बनिये की स्त्री चनैला दे० ( चि० ) जन्नली, वनवासी । [र्द्भ। चनोटिया दे० ( स्त्री० ) कपासी रह, कपास फे सतान बन्‍्दनवार दे” (8० ) दारण । चन्द्र दे० ( छु० ) घानर, कपि, मर्कट, जहाज़ों के ठहरने का स्थान +-+की सी प्राँख बदलना ( वा० ) शीघ्र क्रोध ऋरता, बहुत भक्दी रिसाना, झुलाहिजा तेड़ना ।--की तरह नचाना ( ०) आपने अ्रधीन को तंग करना “-क्ष्या जाने झव्रक का स्वाद (वा० ) निय्रुंणी शुण की परीक्षा नहीं कर सकता, #ेग्य योग्य के गुणों का आदर करया नहीं जानता ।--ख्त (घु०) झसाध्य घाव, कठिन फोड़ा ।.._ थॉींठ, बन्दर की स्त्री । घन्द्री दे० ( खी० ) खन्त दिशेप, एक भकार की बस्दी तदू० (8० ) यशोगायक। स्वुतिकततो, भाट चारण, कैदी, वन्धुआ | भूपण विशेष,जिप्ले स््रिर्या मस्तक पर लगाती हैं ।--श॒ह ( ६० ) जेलखाना, फकारागार |-जन (8० ) भाट, चारण, गुर बज़ाव करने बाले । [ घेरी । बन्दोही दे० ( स्थ्वी० ) दासी, परिचारिका, सेविऊा, बन्दोल दे० ( 8० ) अस्यपुत्न, दास का कड़का | वस्ध तस्‌० ( छु०) बॉधना, गठि; ग्रन्धि ।--में पड़ना ( बा ) फम्दे में फससा, आफृत में पढ़ना, कैद दाना, जेल में पड़ना । बन्धक तत्‌० ( घु० ) थाती, घरोहर, विरेप, न्यास, गिरों ।- दृत्वा (8० ) ऋणदरता, रेहनदार । “-घारी ६ इ० ) प्रिरे! रखने वाला, स्थासधारीप “-पतन्न ( छु० ) रेहनमासा । वन्धन तत्‌« (५० ) वाँघिना, गांठ, कैद, गिरद छगाना, कैद करना | [ जोड़ा जाया । बन्धना दे? ( क्रि० ) वन्ध होवा, झटकवा, वन्‍्धाना, बन्धाई दे० ( स्त्नी०) बॉघने का कास, बाँघना, बाँधने की भजूरी। वन्धान दे० ( स्थी- ) बन्धेज, नियत भ्राजीविका, निश्चित कृत्ति, नियत बृक्ति, किसी बात का निरचय चन्‍्धानी दे० ( 9० ) पत्थर ठोने बाढा, नशा फा नित्य सेवक, अफीमची । बन्छु तदू० ( छु० ) मित्र, सुहृद, प्रेमी, सम्वन्धी । बस्घुशआ दे० (बि० ) बस्थित, बँधा हुआ, कैदी, बन्दी । [ जिद । बच्चुर तद॒० ( वि० ) बढ़ाघ, उतराव। (8० ) हंस, चम्धुल्न हव० ( ४० ) असती सत्र, चेश्या पुत्र, भहुणा ब्िनाछ का बेटा । उन्धेज्ञ दे० ( ए० ) बन्घान, नियमित । चन्ध्या तत्‌७ ( स्प्री० ) बा स्प्री, भ्रपृश्रवती स्री | बल्चा दे० ( क्रि० ) बनना, तैयार होना, सुधरना | ( घु० ) वर, दूल्हा । वन्नी दें० ( स्री० ) बनी; दुरृहिल, घरनी | बन्द्रा दे” ( घु०) ठोया, हुटका, यम्त्न मन्त्र ( ख्री० ) जादूगरनी, दोनष्टी ! बर्षश देन (.घु० ) बाद का अश, बीती, पैठूक घन | घपुरा दे० (वि०) रह, श्रनाथ, अलहाय, दीद,कंग्रारू । वपीती दे० ( स्त्री० ) बर्षश, कप फा द्ब्ब ! चफारा दे० ( ३० ) बाष्प, वाफ, भाफ, गरम क्षत्ञ सा किसी ब्येषधि की वाफ ले रागपीड़ितं शरीर के अंग को छेकता ।-ल्लेना ( दा० ) घाफ शरीर में छगने देना, दाष्पस्नान | [ छटका । घद्ुआ दे० ( 9० ) छड़का, पुन्न, पिय घुष्र, दुलारा बद्ुवा ( पु० ) छाइुछ़ा छट्दा। लिछ्ध का नाम । बदूर, वययूजल ( ए० ) बुर, चृए विशेष, एक कहीले चचेसिया दे* ( छु० ) मलापी, प्रताप बकने बाला, गप्पी, गपेड़िया, बबासीर रोग वाला । शा० पा०--७ण३ बबेसी बबेसी देन (स्त्री०) रोग विशेष, अर्श रोग, बवासीर । बच्ची दे० (स्त्री०) चूमा, मीठी; चुस्शा, चुस्बन, मच्छी । घम्र दे० (स्त्री०) सोता, स्रोत, चार द्वाथ का माप। घमकना दे० (क्रि० ) चिज्ञाना, उमरनां, ऊपर इठना, सूजना, फूलना | बम्चा, यंवा देन (०) सेता, स्रोत, पानी, का नलू। घया दे० ( पु० ) पद्दी विशेष, एक पी का नाम, यह पद्ी सीख बहुत जर्दी मान खेता है, तौल, तौढाई दा देशा करने वाला । बयाज्ञा दे० ( प्रि० ) बादी, बातुछ, घात विशिष्ट । बयान दे० ( पु० ) कपन, कहने, चरण॑न | बयाना दे« ( पु० ) खरीद फूरोश्त पक्की करने को सूरीदी हुई वस्तु के मूल्य में से कुछ मूह्य पेशगी था अगाऊ देना, साई | घयार दे० ( पु० ) वायु, पवन, धतास । वयाल्नीस दे० ( वि० ) संख्या विशेष, चाल्लीस और दो, ४७२, दो धधिक चालीस । [ अस्सी झर | बयासी दे। (वि०) अस्पी गौर दो, दो अधिरू वरडा, वरणडा दे० ( पु ) वरामदा, दालान | बर तदु० ( पु० ) वरदान, आशिप, श्राशीवांद, दृष्ट प्राद्धि, मनेारथसिद्धि, पति, स्थामी, दूलद । बरई ( ० ) तमे।जी, पान चेचने बास्टा । [ बरसना । धरखना दे* ( %« ) दृष्टि होना, बर्षा होना, पानी परगद्‌ दे० ( पु० ) बट, बढ़ का पेड । धरगा दे० ( पु० ) कदी, तडक, घरन, दाम्बी सीधी बकडी ज्ो कदी चादि बनाने के काम में आती दे परजना दे* ( क्रि० ) बर्जंद करना, मिपेघ करना, धारण करना, मना कश्ना । चरदा तदू० ( स्द्री० ) इसी, राजहंसी, घर । धरत तब्‌० ( पु० ) बत, वास, वपदास, चमड़े की रससी। * वस्तन, बर्तन 4५ ( घु० ) बासन, पात्र, सायड | वरतना दे० ( क्रि० ) काम में छाना, हपयोग में छातना, ब्यवदार करना । दरतनी दे० ( स्त्ौ० ) अक्छौटी, पर्णमाला। [बिना । घरताना दे० ( किए ) भाग खबमाना, दिमाग करना, बरद्‌ सत० ( पु० ) वर देने घाछा, वर दाता | घरदान तत्‌* (बु०) भाराव॑ाद, पसाद,वपद्ठार,इनाम | ( #छ८ ) बरसोड़ो बरदी (स्त्री० ) छदा हुआ बैठ, पोशाक जो एक विशेष प्रकार छी हो | चरदेत दे० ( घु० ) भाग, द्सोंधी, आशीर्वादक, भाशीर्वाद देने वाला । वरध दे० ( ६० ) बैल, दृषम । बरघा (घु० ) देखो बरघ। [गर्म घारण करना। बरघना दे? ( क्रिब ) बढ़ाता, पालन करना, गौ का बरघाना दे० ( क्रि० ) गौ को गर्म घारण कराता । घरन तदू० (घु०) बर्ण, रंग, श्रष्षर, सिखावद। ( भ्र० ) बल्कि, प्रत्युत । बरना दे० ( क्रि० ) यरण करना, स्वीकार करता, बराना, अपने अभिमत हे स्व्रीक्षार काना, ब्याह करना, पति को घरण करना । घरनी दे० ( स्त्री० ) पत्तकों के अप्रभमाग पर जमे हुए बालू । ( व्रि० ) बरण किया हुथ्रा। वरवनी दे० ( स्प्री० ) बरनी। बरबस दे० ( ४० ) प्रबक्षता, जबरदम्ठो । वरव दे० ( ६० ) पद्ी विशेष! [छा सपे । बरवस हे० ( पु ) रोग विशेष, पिलद्दी, पृ भार वरबाद ( वि० ) नष्ट, पत्यानाश। चरवादो दे० ( स्त्री० ) नाश, विनाश | घरमसिया दें० (वि०) वहुरूपिया, स्वाँय रचने वाला | बरमा ( घु० ) बढ़हे का पुक औौजार जिससे लकड़ी में चेद करते हें ।--ना ( क्रि० ) बरमे से घेद करना | [ बहाना । वरराना ३० ( क्रि३ ) प्रद्धाप बकना, स्वप्त में यह चरवद ( ७० ) निछी, पिछदी, हीदा । घरता दे० ( पु० ) पृक इन्द छा नाम, काटा जिसे मछली मारी जाती है, रागिनी विशेष, कहते है इस रागिनी की मधुरता पर सर्प और दिल मोद्वित दो जाने हैं । घरस तद्‌ ० (पु०) बच, सम्बत्‌, संवरसर, पृके नशीढी चस्तु जो अफीम से बनायी माती है ॥-गाँठ (पु) जन्म दिन के वपलछ का इर्पव,साल गिरदी वरसना दे० ( क्रि० ) पानी पढना, दृष्टि दोना। वरसवान दे० ( वि० ) वापिंक, सांवस्सरिक, वर्षी | चरसोड़ी देन ( स्री- ) वार्षिक कर, भाड़, दापिक बृद्ि ) ह् घरहा बरहा दे० (9० ) गोचर भूमि, पशुओं के चरने की भूमि, पुरवठ का रह्सा, खेत सें प/व्ी से जाने की नाली | ब्रा दे? ( छु० ) बड़ा, उर्द की पिठी ही पूद्ठी । बराई दे० ( क्रि० ) छाटी, चुनी, छॉट्कर, छुतकर । बरात दे" ( ज्वी० ) बिशाह की यात्रा, बरयात्रा, चर के साथियों रा गमन | [ के छोग । दराती दे० ( धु० ) घरात सें जाने चाक्े. घर की झोर बराना देन ( घु० ) एथक्‌ रहना, अलग रदना, पर- हेज़ करना, बचा जाना | बराबर ( वि० ) समान, साथ साथ, लगावार नी ( सत्री० ) समानता, सुकाबिला । चरामदा दे० ( ५० ) बरण्डा, दाल | बरारा दे० ( ७० ) रस्सी, चम्तोदी । वशाव बे० ( छु० ) सैयप्र, रोक, परद्वेज़, बचाव | बराह तदू" (छः ) खूकर, सू प्र, विष्णु का तीसरा अचता। । बरियाई दे० (स्री०) पलासक्रार, जोराजरी, जबरदस्ती | बरियार दे० (० ) बलवान, प्रवर्तन, बलशाली, प्रभाधवान्‌, समर्थ | चरियारा दे० (चि० ) बलवान, बढ़ कर, बटे हुए । बरी दे० ( स््री० ) कली, चुने की कली, बड़ी। चरण दे० ( ४० ) घहण, जछू के अधिपति देवता; पश्चिम दिशा के अभिपति दिकृपाछ । घरुणालय तद्‌” ( 9० ) [ बरुण + आलूय ] समुद्र स्रागर, वरुण के रहने का स्थान । चरुणी दे० ( ख्वी० ) पपनी, अखि पर के बार । चरेज्ञ दे? ( छः ) पनचाड़ी, पाव का खेत | बेरेठन दे० ( स्री० ) थे।बित, रजकी । [ जाति | चरेठा दै० (पु० ) घोबी, रक्षक, कपड़ा धोने वाली पक बरेरा दे० ( स्थी०) बिरनी, हाड़ा, एक पकार का पंल- दार क्वीठ ! बरे दे* (8० ) तमेल्ली, पान बाला । बरैन दे० ( ी० ) तमे।लिन, पनेरिय |. [ डेडछ ] बराठा दे० ( छु० ) घोबी, डेवढ़ी, ज्दार आदि का बरौठा दे० ( पु ) रजझ, घोदी, डेवढ़ी । बह्ची, वरकछ्ली दें० ( इ० ) श्र विशेष, साला) वछुत दे" ( छ० ) बछें बाला, वर्दाघारी; भादैत । ( #छह 39 बलमि बे बरत दे ( पु८ ) दाम, झश्याख, साथन | बचत, वरतन दे० ( घु० ) चरतत, बासन, पात्र । बर्तवा, वरतना बे० ( क्वि० ) काम में छाता, उपयेग करचा, ब्यवहार करना । बर्ताव, वरताव दे० ( ए० ) श्राचरण, व्यवहार । चर्द्धा दे० ( पु० ) बैठ । बर्षा दे० ( छु० ) अरत्र विशेष, बढ़ई का अस्त विशेष, जिससे लक्षट्टियों में छेद क्रिग्ग जाता हें । क्षन्रिय जाति सूचक, यथा--विज्यसिंड वर्मा । वर्माना दे० ( क्रि० ) छेदवा, बेघना, बांदा । वर्राना दे० ( क्रि० ) छोहे में वफुना। बर्साहृट दे० ( स्त्री० ) प्रत्ञाप, चक्रवाद, वड़बढ़ । बर्बे दे० ( पु० ) भाषा के एक छन्द का नाम | चर्ष तव्‌० ( छु० ) संचत्सर, बारह महीता | वर्षासद तदू* ( छ० ) बरस मर का भोजन, बर्ष भर पर भोजन करने बाला । [ श्राद्ध । चर्षों दे० (स्त्री०) चर्ष दिन के बाद का कृत्य, वाषिंक वर्सात दे० ( स्त्री० ) वर्षाकाल, वर्षा का खप्य [ बह तद्‌० मेररप्छ्, मयूर पुर्क्त, सेरर का पांख । ब्दों तव्‌० ( प० ) मयूर, से।र, केश्नी, शिख़ण्डी । बत् तव्‌० ( 9० ) सामथ्यं, शक्ति, ताकत, बढ, ऐंठन | बल्लकना दे० ( क्रि० ) डसरचा, उबकना, खोछना, अपनी बढ़ाई शाप करना |. [बिलाप फरता | घलझा दे० ( कि० ) पिसकना, ठुनकता, रोना, वलताड़ दे" ( पु ) इछ विशेष । [ बाढतोढ़ । बलतोड़ दे० ( घु० ) बार के हूटने से बरपन्न फोड़ा, बल्द दे? ( ४० ) बरघ, दृपस, चैल। बल्लदाऊ दे० ( छु० ) बलराप, श्रीकृष्ण के बड़े भाई । घलदी दे० (5०) छद्दा हवा पैल | [दिया । बल्लता दे० ( क्रि० ) जलूना, चघकवना। दहना, दुग्ध वल-पकरा दे० ( ६० ) श्राकारण मारा जाने बाला, बलिदान के लिये निर्दिष्ट चक्करा । वलवत्ाना दे ( क्रि० ) व्वलना, कामातुर ट्लोना, ऊँट की वेली । चलवीर दे० ( पु ) चलदेव, श्रीकृष्ण, श्रीरमचन्द्र । बल्नमद्र तत्त्‌> ( घु० ) ब्लदेव, बढराम | बलम, वत्वमा दे० (8० ) अछस, खासी, फियत्तम । चलमि ( इ० ) देखे वढस [ घलराम बलराम नव (१०) बहुदेव हे क्पेष्ट पुत्र , ये उनकी दी रेइणी जे गर्भ से उत्पन्न हुए थे | देवकी के सातवें मर्म के समय कंस ने रछक नियुक्त किये थे, परन्तु माया ने इस गे को खींच का रोदणी के गभभ में स्थापित बर दिया । रचकों के थे ये बातें मालूम शी हुईं, भव इन लोगे। ने कम से कह्दा कि गर्म नह है! गया। पृक ग्रमें श्राष्पंण करके दूसरी ज्ञाद रखा गया इस कारण रोहियी के घुत्ध का साम सद्टूषण पढठा। चक्षराम ने गदायुद्ध में मगथ को राजा जरासन्ध छे इरा दिया था, परन्तु मारा नहीँ था | दु्वेधित की करवा लद्१णा के स्वयस्पर के समय कौरवों न श्रीकृष्ण पुत्र साम्व को परदे बर कद कर क्या था | यद सुन कर बद्चराम यह पहुँचे, परन्तु दुयेचिल ऊिसी प्रकार साम्व का छोड़ना नदहों चाइता था । यह देख कर बलराम ने दौरवपुरी के गह्ठ में फेंड देने के क्षिये इस नगरी के दीवार में इछ लगाया, इस्तिनापुर घूमने कगा; यह देख फर दुर्योचन साम्य और कध्ंमणा ऊे सद्वित बबकी सेवा में उपस्थित हुआ, साम्ब के! समपैण क! उसने गदायुद्ध सीखने फी उनसे प्राधना की | महायीर बलराम ने, भाण्डीर वन में एक सुक्झे छे आघात से प्रल्म्बाघुर के। मार गिराया था | उन्होंने रादेम रूरी घेनुरूसुर के सी पर्वेत पर फेक कर मार डाहा था] चल्वग्त दे* ( गु० ) बलवान, सम, सशक्त | वलयान्‌ (गु०) देखो परवन्‍्त । [चोर पतद्दी छ्कद़ी । बल्षदी १० ( स्त्री०) टी, भार, दे, क्ग्गा, लम्बी वत्लद्वीव तत्‌» ( वि० ) निरदेछ, बल घूत्य, दुबंठ । वक्षाई दे० ( वि० ) बल्लैर्धा, आशीर्वाद, चयीस, बाइरी, दूर के, ददासीन ।--लेना (घा०) दु ख से सद्दा- यता पहुचाना, श्रन्‍्य के दुख इटाने छी इच्छा + वल्लातगार ठद० ( ६० ) चरम, दहृठाद, जबरदस्ती | बलि तत्‌० ( पु० ) नैवेच, देवता रा भोग, अश, ( #८० ) चलिए था, दस यज्ञ की समाप्ति के समय मगवान्‌ वामन रूप घर काके चर्दा उपम्यित हुए।थामन रूपी विष्णु ने बलि की झनेक प्रकार से प्रशंप्ता काहे उससे तीन पैर सूमि मांगी | देद्यगुर शुकाचार्य मे भगवान्‌ को एदचान लिया था, प्रतपुव बक्निके। उन्होंने दान देने से रोका, परन्तु ग्रत्ि ने इनडी बाते पर कुछ भी ध्य'न नहीं दिया । बद्नि ने प्रतिश अंष्ट दोना उचेत नहीं समर्मा | बक्षि मे वामन की यथाविधि पूजा की, और तीन पैर गूमि हसझे सहूस्प कर दी | चप्र चामन ने झपना रूप इतना पिशाब बनाया कि लोगों के शाख्रय की सीमा न रही । उन्होंने दो पदों ही में स्वर्ग और मत्यंठोढ भाप डाला, तीसरे पेर $ लिये स्थाव नहीं बचा | इसझे। सायावी समर कर यक्ति के अलुच्ों ने हमे अ्रस्प्र शस्त्र ले कर मारना चाद्ा, परस्तु वे शीघ्र ही विष्णु के धजुचरों द्।रा हटा दिये गये | बक्ति ने मी अपने श्रजुचरों के युद करने से रोका। भगस्त! विष्यु ने चीसरा पैर ?ख़ने के लिये बलि से स्थान मांगा । धलि अपना सिर ही पैर रफ़ने के लिये स्थान यताया | वामन का तीप्तरा पैर जय बलि के सिर पर रखा यया, तर दानबपति भगवात्र्‌ की स्तुति करने लगा । उसी समय विएए के श्रवस्प मऊ और बक्ति के पिताम्रद महाद व्दां दपस्थित हुए। नमी भायेना से भगवान्‌ ने यलि का बनन्‍्धन कड़वा दिया। भगनान्‌ से प्रह्माद से कद्दाडि + यत्ति ने बहुत त्याग करके अपनी सथ्ठादा पान किया ऐ, अतएव मैं इनछो देवता नो के भी दुर्लभ पद दूँटा। सावर्णि मम्वस्तर में ये इसे होंगे। जब तक घद मन्‍्वन्तर नहीं आरादा, तब तक सुतल में जाऊर इन्हें रहना पड़ेगा, में सदा फौमोटी गदा छेरर बहाँ उपस्थित रहूँगा, भौर इनकी रघा करूँगा । ”! भगयान्‌ विष्छ को भाशा से बलि मुठ नामऊ पाताल में रहने खगे। पूजा, राजा विशेष, दानवरति, से विशेदन के पुत्र | वक्षिदान तद्‌० (पु०) देग्मोग, देवठा के लिये किसी आर ग्रहाद के पौत्रथे | यक्षि के सौ पुच्र थे, जीव की हिंसा । प्राण सब से बढ़ा था। पराक्रमी दानवपति यक्षि | वैलिस्टर ( घु० ) चैरिहटर । छे! दमन करने के छिये भगदाप्‌ ने बामन अवतार प्रदण किया था। वि न पृरु धब्तमेर पश्च किया चलिठ छव॒ू० ( बि० ) बलरशाली, बलवान सम । ८ चलित ६ हैदर ) चहरिया चलित ठवत॒० ( वि० ) सिकुड़न पड़ा हुआ, शिकन- | बसस्त तद० € घु० ) वसन्ध, एक तु का सास, जो दार, बल पढ़ा हुआ, सिमण । चलियुट् तत्‌० ( घु० ) काक, कौआ, काग चलिरखाः तत्‌० ( सत्री० ) उपधातु विशेष, गन्धक | चलिसड तत्‌० ( पु० ) अकुश, चाइुक, कोड़ा, बानरों का समूह । ह चलिहारो दे० ( खी० ) निद्धावर, वधाई ।--जाना ( वा० ) निदछ्लाचर होना, वल जाना, बलवल जाना । कली तत्‌० (वि०) बलवान, समर्थ, पराक्रमी, पराक्रम शाली ।--बहो (०) खाद, इृष्भ --मुख (ए०) बानर, कपि, सर्कर, वन्दर । चलीयान्‌ तब्‌० ( वि० ) वली, वलशाली, बलवान, पराक्रमी, अत्यन्त पराक्रमी, अधिक चलवान्‌ । चहल दें० ( छु० ) ताकत, बल, ( क्रि० ) सुलय उठ, बर जा, भभक जा । बल्लुझा या बछुव/ दे० (बि०) रेतीला, बा्ुुकामच ! बलूरना दे० ( क्ि० ) नोचना, खसेोदना, खखेारना, खुरचना । बल्लूल्ा दे० ( छु० ) छुलडुला, छुलका, छदब॒दा। बलेंडी दे० ( ख्ी० ) मर्कचा, मगरा, खजरा । दो छष्पर के चीच का उठा हुआ भाग । | बलैयाँ दे० ( खी० ) वलाई । चक्षम दे० (घु० ) भाला, सेल, बयां, नेजा, अस्त्र विशेष । [ बाँस । बल्ली दे० ( स्त्री० ) चन्ना, नाव खेने का बड़ा, लम्बा खचणडर दे० ( 8० ) अन्चड, बयूला | बवाई दे० ( स्त्री० ) बिचाँई, पेर तल्ते का घाव, विपा- दिका, शीत से पैर का फ़टना । बवासीर दे* ( छ० ) रोग विशेष, अशे रोग । | चस दे० (७०) काद, अधिकार, बल । (झअ०) अघीन, बहुत, पर्याप्त, अलम्‌ ।---करना ( वा० ) अधीच करना, चर्श में करना, चुप करना, व्हरता । बेसन तदू० ( छ० 2 कस, कपड़ा बसना दे० ( क्रि० ) रहवा, भरना, ठददरना, बोस | करना । दे० ( घु० ) बसरा, बढ़ी खाता । वसनी पे० ( स्त्री० ) रुपये रखने की पतल्वो बैली जो फमर मे चाँध ली जाती है, यैली । मधान ऋतछ समझी जाती है । फाल्युन और चैत ये दोनों सहीचे वसन्‍्त ऋतु से हैं, कोई कोई चेत और वैशाल को ही वसन्‍्त ऋतु मानते हैं। “-फूलना ( बा० ) सरसें का फूल ।--के घर की भी ख़बर है या बसतन्त की कुछ भी ख़बर है. (वा०) कुछ जश्ात मी है, झुछ जानते भी हो । चसस्‍्ती वद्‌० (8०) पीछा रक्ञ । (ब्रि०) पीले रण का। चसरातना दे० ( क्वि०) पूरा करना, समाप्त करना ! बसाना दे० ( क्रि० ) दिकाना, नये गाँने भराना, बस्ती बसाना ! चखूला दे० ( घु० ) बढ़ई का एक शस्त्र विशेष, जिससे लकड़ी काटी और छीली जादी है । [-का अस्त्र ! चसूली दे० ( स्त्री० ) थबइयों का अस्त्र, ईंट डॉय्ने बर्सेंधा दे० (वि०) सढ़ा, उचसा, दुर्गन्धयुक्त | [स्थान । घसेरा दे० (पु०) खोंता, घेंसला, पक्षियों के शहने का वसेवास दे० ( छु० ) स्थित, स्थान, घास | घरुती दे० ६ स्त्री० ) झाम, गाँव, बढ़ावा, पुरवा, एश। बरुतठु तद॒० (स्त्री० ) पदार्थ, वन्य, चीज़ जिंस । चस्ना दे० (पु०) स्थिति,घसम, बसना, बेठन, लपैटना। घहकना दे० ( क्रि० ) निराश होना, धोखा खाना, भठकना, भूलना,लच्ष्यच्युत होना,उद्देश्य अष्ट होचा। बहकाना दे० ( क्रि० ) झुलाबा, . निराश करना, घोखा देना बहड्जी दे० ( स्त्री० ) बोर छोने के लिये तराजूजुमा एक चस्तु, इसमें दोनों ओर सिकहर लटकाये जाते हैं । बहाना दे० ( क्रि० ) बहना, विगदना, खराब होना । बहत्तर दे० (गु०) सत्तर और दो, दो अधिक लत्तर, ७९।॥ घह्दन दे० ( सत्री० ) भगिनी, वहिन ।. [फा चलना । घहना दे० ( क्रि० ) चलता, पातती का चलता, हवा | बहलेऊ दे० ( छु० ) बहनोई, भगिनीपति, बहिन का पति । बहनेत्ती दे० (ज्लौ०) बहिन । चहनोई दे० (पु०) चहनोऊ, यहिन का पति,भगिनीपति । चदर दे० (ख्री०) नावों की भीड़, नौका समूह । घहनय दे० (वि०) वधिर, व सुनने वाला । वहरिया दे० ( झु० ) श्णद बर्दत, अपब्रिन्त वासन, € वि० ) बाइर का, अपू्, अतिथि, प्यहुस । बदरी घदरों दे० ( ख्ी० ) पच्ी विशेष, थाज पछ्ी बदल दे० (स्री०) गाडी, वैलगाढ़ी, रथ, एक पकार की | बैलगाड़ी जो पुराने समय्र में बनती थी । बहलता दे० (क्रि०) प्रसत देना, भूलना, खेलना, बहक्ना । यहलाना दे० (क्रि०) खिलाना, प्रसन्न कना, मनो- रन करना, सन बहलाव करना, सुलाना, फिराता । बहलिया दे० ( चु० ) ग्राड़ीवान, गाड़ी हाँकने वाला । वहलो ( स्री९ ) छोत्म बदल, चढ़ने की गाड़ी, रथ, यैज्ञगाढ़ी। बहादुर (वि०) शूर, घोर ।--2 (ख्ो०) चीरता, यूरता । | बहादेना दे* ( कि० ) तोड़ना, उज़ाइना, बिगाढना, खूराब करना, फ्रेंक्ना । बहाना दे० ( क्रि० ) भसाना, चलाता, वहा देना। | थह्दा फिरना दे० ( धा० ) भटकते फिरना, बिना काम के दौइते फिरना ! [वा जाना। यहाव दे ( पु० ) बाढ़, चढ़ार, मंदी की चाल, सोते धहिन दे० ( स्री० ) भगिनी, बहन, सहोदरा । यहिरा दे० ( वि० ) वधिर, वहरा। बढियना दे* (क्रि०) बाहर मिकालना, वाह करना । बहिदेश दत्‌० ( घु० ) याह स्थान, याइर की भूमि, बाहर फा देश । [विपरीत झाचरणफर्त्ता। चहिर्मुख दत्‌० ( पु० ) घर्म विधुस, उदासीन, अधघर्मी, घद्टिला दे० ( स्थ्री० ) बन्ध्या, वाँफक, बिना लड़के की स्री, शिसके कभी लड़का न हुआ हो । यही दे० ( स्त्री० ) खाता, खसरा, महाजनी के हिसात्र सिखने भी धुस्तक । [ सामग्री $ यदीर दे० (स्त्री० ) सैनिकों का सामान, सेना की बहु तद॒० ( श्र० ) बहुत, श्रधिक, बढ़ा विशाल। “-तिथ ( दि० ) बहुत दिन, बहुत समय, बहुत धार, अनेक समय ।--दर्शी ( वि० ) बहुत देसने वाला, दूरव॒र्सों, पिद्वानु, अमिश्ठ, परशिइत ।--धा ( श्र० ) बहुत अकार से, अनेझु प्रकार से, अनेक बार, अनेफ समय --बाडु (१०) रावण, सदच्न- बाहु, फात॑वीय ।--मूल्य ( वि० ) बहुत मूल्य का, बहुत दास झा, बढ़िया, महँँगा।--चचन |] ६ #5२ ) बाँक / ( पु० ) अधिक सरया बोधऊ प्रत्यय । ( गु० ) अनेझ बचन, अधिक वाक्य ।--विधि (गु ) अनेक श्रवार, अनेक भाँति ।--न्रीदि ( ९० ) सम्रास विशेष, एक समास का माम, जिससे घन्‍्य पदार्थ का बोध द्ोता है। इस समास में अन्य पदार्थ की प्रधानता रद्दती दे । यहुत दे० ( वि० ) अनेक, अधिक, ढेर, भूरि । बहुवात दे० ( स्त्री० ) थधिकता, आध्लय, श्रधिफाई, समाई। वहुतायत दे० ( स्त्री० ) अ्रधिफाई, सरसाई। बहुतेरा दे+ ( वि० ) श्रनेक, अ्रधिक, प्रावश । बहुनेन दे० ( पु० ) इन्छ, देवराज। बहुर या बहुरि ढे० (अ०) फ़िर, भौर, पुनि, पुनः। बहुरद्वी दे” (वि० ) चशल, चपत्न, श्रन्यय॒स्थित, चित्रित, रग विरग । बहुरना दे० (क्रि०) छौटना, वापिस झाना ! बहुराना दे० (क्रि०) लौटाना, फेर लाना, बचा क्षाता। बहुरि दे० ( श्र० ) और यार, पुन , फेर, पुनि। चहुरिया दे० ( स्त्री० ) बहू, चधू, हुलदिन । बहुरूपा दे० ( धु० ) गरिरगिठ, शरठ, कहते हैं स्वभाव ही से इसका रंग प्रति दिन बदला बरता है। बहुरूपिया दे० ( पु० ) स्वॉगी, माँढ़, धनेक रूप पर कर णो भीख मांगते हैं । बढुल ठद्‌० (वि०) भचुर, अधिक, बहुत । (५०) हृष्ण वर्ण, काला रंग, आवाश, गगन, श्रम्ति !--गन्धा ( स्त्री० ) इलायची । चह दे० ( स्री० ) वध, ख्रो, दुलद्दिन, पढ़ोह्ू,छुतवघू । चहेड़ा ( धु० ) फल विशेष । ब्रदेलिया दे० ( चु० ) बिक, व्याथ, चिटीमार । बहैत दे० ( एु० ) समता, दुष्ट, दुर्जन, फिरने बाला । यहोर ० ( अ्र० ) फिर, दुइरैया, ज्लौटाने वाला, चहासी शी ! २ इुधता [घूचर शब्द । चहानेदा दे० ( पु० ) आह्यण का उैँत्न, तिरसार- चंचना ( क्रि० ) धाँचना, समकता। बडा दें० ( दि० ) बेपूद्ध का, पूँछ रहित, इरूप, अकेला, रिना परिवार का, तरशारी विशेष । बाँक दे० (स्री०) बकता, तिरद्धापन, देद्ापन, मु काक, मंदी आदि का घुमाव, दोप, अपराध, शस्त्र बाँका ( शबरे 3) बाघनी विशेष, जिसका आकार कदार के समान होता है, , बाँखुरी दे० ( स्त्री० ) मुरली, चसरी । आपण विशेष, यह सूप वाहु मध्य सें पहना जाता | बाँह तदू० (स्त्री०) बाहु, खुजा, वाजू ।--ट्रुटना (बा०) है ।--पनर € पु० ) विद्लोरन, तिरछापत । निःसद्दाय होना, सहायक न होना, किसी वान्धव बाँका दे० (बि०) देढ़ा, त्िरद्ा, छ्चा, छेला, भकड़ैत । का वियोग होना ।--चढ़ाना ( वा० ) कढ़ाई बाँगा दे० ( छु० ) सबीज कपाल । करने के लिए उद्यत होना, झगड़ा करना ।--देना वाँचना दे० ( क्रि० ) पढ़ता, पाठ करना | (वा०) सहायता देना ।--फकड़ना (वा०) सद्दा- बाँछा तद्‌० (स्त्री०) चॉछा, चाह, सनोरथ, अभिलाप । यता करना, पक्ष फरना, आ्षय देना ।--बल बान्छित दद्‌० (क्रि०) ईप्सित, अभी, चाहा हुआ, ( दा० ) सद्ाय्रक, पक्षपाती, पक करने बाला। इच्छित, अभिलपित । --गहना ( बा० ) सहायता करना, रहा फरने बाँजर दे० ( पु० ) वक्षर, ऊसर, पटपर । की प्रतिक्ला करवा !--शहे की लाज (वा०) रखा बॉस्क दें० ( स्वी० ) वन्ध्या, अप्रसूता । करने की प्रतिक्ला करने पुनः उसे अनेक कष्ट उठा बाँढ दे० ( पु० ) भाग, शँश, हिस्सा, तौलने का बद- कर भी न छोद़ना । खरा, गाय भैंस का बह भोजन जो दूध दुहने के | थाई दे० ( स्त्री० ) वाद, अजीर्ण, अपच ।--पचना समय उन्हें दिया जाता है । सन्ध्या का चँधा ( वा० ) उत्सुछता का कम होता, निराश होना, छुआ भोजन । [बॉटना, हिस्सा लगाना ! हताश होना ।--में भड़कता ( था० ) घकना, चाँटना ढे० ( क्रि० ) सास करना, विभाग करना, बंड़वड़ाना । बाँड़ा दे० (वि०) इच्छ रहित पछ, बिना पूँछ का पथ्च, | घाईस दे० (वि०) बीस और दो, २२, संख्या विशेष । अकेला, असहाय, जिसके कोई न हो | बाईसी दे० ( छु० ) एक अकार की सेता का वास, चाँड़ी दे” ( खी० ) लक्कढ़, लट्ढा, लड्ढ । राजा की रक्षक सेना बाँद्र ( छ० ) बंदर, कपि। बाईद्वा दे० ( छु० ) बात रोगी, गठिया वाला । बाँदा दे० (ए०) असरवेल, आकाशवेला, आकाशलता, | धाउर दे० ( बि० ) वौरहा, वौड़म, पागल । छत्तों के उपर जो पुक प्रकार की लता डगती है, | बाऊ दे० ( छु० ) वायु, पवन । छुक नगर विशेष । खिरीदी हुईं दासी । | बाकल्वा दें ( ० ) एक तरकारी का नाम । बाँदी वे ( ख्ी० ) जौड़ी, दासी, सेविका; परिचारिका, | वाकस दें० ( छु० ) भद्डूसा, वासा बूत्, सन्दूक, पेटी, बाँध दे० ( छु० ) सेंड, बन्च, आड़ । पिठारी | बाँधना दे० ( क्रि० ) जकइना, रोकना, बनना । बाक्छी ( वि० ) बचा हुआ, श्रवशिष्ट। बाँशन्‌ दे" ( छु० ) रंगने की प्रक्रिया विशेष । बाखर दे० ( छु० ) श्रद्ननाई. चौक, अगिन । चाँबी ( ख्री० ) सॉप का बिल । बाय दे ० ( खी० ) लगाम, बागढोर ।--छूटना (बा०) बाँस दे० ( पु० ) वंश दर, पुक पेढ़ विशेष, भूमि | विक्श होना, बस में न रहना, घोड़े की बाय मापने की लकदी ।--पर उढ़ना (चा०) बदनाम | * छूटने से खयं वेकस दोना --से|ड़ना ( बाप) होना, कलक्विंत होना, हुर्नाम होना ।--फोड़ा शीतका का ढक जाना -डे।र ( खी० ) लस्पी ( एु० ) जाति विशेष । इस जाति के लोग बॉस लगास, बाग, लगाम की रम्सी या रास। की ठोकरी श्रादि बनाकर बेचते हैं. और उसी से | वादा दे० ( 9० ) जोड़ा, खिछ॒त, पारितोपिक दिया अपना निर्वाह करते दें नस । जाने वाया कपड़ा | [ विद्योद्दी ॥ चाँसली दे० ( खो० ) सुरली; बंशी, एक बाजे का | बागी दे* ( छु० ) घुड़चड़ा, असवार, अभ्ववार, शाम घाँसा या पाँसा दे० ( छ० ) चाक की हड्डी, जो नाक | ब्रामुर दे* ( छु० ) फंदा, डाल, पक्ष फांसी | के भीतर रहती है । | बाघ हदु० ( इ० ) च्यात्र, श्र, चाइर। माँस्ती तदू७ ( स्त्री० ) बंशी, बाँसुरी, झुरली । ! बाघनी रुदु० ( रूवी० ) ब्याप्नी, धाधिन | घाधम्बर ( ध्थ४ ) घात बाड़ा दे० ( पृ० ) दाता, वन न या इक के [| बाडडिया दे० ( ए० ) शान चढ़ाने वाह, घुरी या वब्बार आदि को तीखा करने वाढा । [दा घर। वाड़ी दे० ( छी० ) उपदन, बाग, बगीचा, बापू मे बाढ़ दे० (ख्री० ) तलवार ढी घार, अधिकता, श्रधि- काइ, बढ़ती, परिवृद्, नदी में अधिक जल को आना, पदाव, चढ़ाक, बंदूक आदि का ब्मश, शब्द । चाधरुदर सद० ( पु० ) व्याघास्दर, वाध का चर्म, याव की राल्य । बाधा दे० ( ए० ) ब्याप्न, चीता, शेर । [क्िककना । | बाघी तदू० ( खी० ) गेग विशेष, पाठा, पाया का दाछ दें० ( खी+ ) चुनाव, चडि, निर्दोचद | बादुना दे० ( हि० ) घुनना, छादवा, बिनना, बहुतों में से हूँढ़ कर उत्तम निकाछना । दादी दे ( खो० ) बधिया, गाय की बची! धाज्न दे* (्‌ घु० ) बाना; चाद्ययस्त्र । बाढ़ना दे० ( क्रि० ) बढ़ना, डपइना, ३फनना । धाजना दे० ( क्रि० ) वाजे से शब्द दोना, शद होना। | श्राण तत० ( धु० ) अख्तर विशेष, शर, बलिशाज का धाज़रों दे० ( एु०) श्रप्त विशेष, रूनाम प्रसिदे अद्च | | छ्येष्ट पुत्र, सूँज की वनी हुई रस्‍्सी, सैस्या दाज्ञा दे* (५० ) बाजन, वाद्य ५... विशेष, पाँच की सँप्पा | “गद्ठा ( मो) बाभीगर ( १ ) नाइगर, । | नदी विशेष, सैमेस्वर तामक परत से निकछी हुई वाज़ीगरमी ( स््री० ) जादूगरनी । ली, ऋहले हैं किसी करथ से रण ने सेमिखर बाजू दै* ( पृ० ) भूषय विरोष, शहद, सुलबन्द। +-बन्द्‌ ( घन ) वाजू. सूपण विशेष । बाट 4० ( ५० ) पन्‍्य, मार्ग, राह, रास्ता, दंगर। “-कॉटना (१४०) मार्ग ते करता, रास्ता चलना । [शिया । बादिका दे* ( स्लो") फुशवाही, पवन, बगीचा, धादी दे० (द्वी ०) घर, गृद, वासस्यान, पृष्ठ प्रकार की मोदी गे।ज्ञ रोटी, प्यताप्त सवाल रोटी, झेगाकड़ी | थाड़, घाढ़ दे० (प्री०) घार, सटवार आदि की सीक्षण- ता, पक्ति, पाँति, कतार, बेड, श्राड ।--दोड़ ना (था०) पुझ साथ 5 वखूक दृगता ।--माइना ( था० ) पक साथ इन्दूक़ दायगा ।--द्लिवाना ( बा० ) धार तेश करवाना, शान चढ़वाना, तीक्षण कराना ।--वौंधना (चा० ) छाटे आदि से कुछ स्थान की परिधि बनाना, बाडा बनाना रखना ( वा? ) चीखा काना, शान चढ़ाना (ही अब खत ज्ञाय तो रखपालो कौन करे (छो* ४०) रचक ही भद्ठक दा काम करे तो रक्षा की क्‍या आयशा, सिपसे द्वानि देना असम्मत्र है यदि श्खीधे द्वानि पहुँचे तो फिर भरोसा किस पर ड्विया जाय | घाइव सव5 ( पु ) साह्मथ, धोदों का समूह । घाइ्वानत तव» ( पु० ) [ बाहब + घनछ ] समुद्र का भ्रप्ति, समुद्र की झाय । पर्वत पर घाण मारा था, जिसस उस पर्वत कै दो छण्ड ही गये और इसके सन्धि स्पानपे एक नदी निकक्की जिसका नाम चाणगद्गा पढ़ | --भट्ट (9० ) संस्कृत के एक कवि और प्रन्य कार, प्रधक्ाब्य की रचना में ये सवे श्रेष्ठ है। हपेचरित और कादुस्खरी नामक दो गधकास्य इनके दनाये हैं और घण्डिकाशतक नामक (५॥ पद्मयन्शाब्य भी हैं। पार्येतीयरियिय नामक एक बोटी नाटिका भी इनके नाम से प्रसिद्ध है। पहन्‍्ठ इस विषय में विद्वानों थी सम्मति भिश्ष प्रक्ा दी है | ये कवि कान्यदुद्ज-देशाधिप्ति राह द््प वर्शन के समापग्डित थे । दर्पव्देग का समय छ्ग्री शतादी निश्चित हुआ है। द्रतएुव उतके समा पण्डिव का भी वही समय मानना बठ़ेगा। +-लिड्ड ( प्ृ० ) नमंदा नदी में दपन्न शिवकित विशेष। [ ब्यवसाय, व्यापार, लेग देन] वाणिज्य तत्‌० ( १०) चैश्य गृत्ति विशेष, कपविक्र) बाणी ठत्‌र ( स्थी०) बदन, यॉली, उफ्ति, भापय, सरस्वती। (बच्चा, बचा। बायडा, वौंडा दे* ( घु० ) निरायय, ति गद्दाम, छ्ड७ वात दे० ( स्वी० ) बोलचाड, कपा, धन, सम्माप। बोलने का विषय: प्रश्ष, मिक्षासा, कारण: विदा ( ६० ) सेग विशेष, गठिया, याई उठाना (दा०) चाज्ञा का रहहुन कहना, बात ने मानना, चाती ( रैघार ) पाता चर्चा हमर यल; ( वा० ) दोलना, घति- | बातें दे? ( स््री० ) चात का. बहुबचच --करवा दुे० थाता, वातचीते करना ।--काठना (वा०) कघद का खक्‍्ड करदा वात का वतकड़ या वतगडु बनाना या फरना (चा०) छोटी यात को यही बनाना, सामान्य वात पर हुलठ करदा ।--की बात में ( बा० ) अभी, तुस्‍तच, शीघ्र, क्टपट] “>गढ़ना ( धा० ) बात बनाना, फुसछाने की इच्छा से मिथ्या प्रशंसा करता [-उवाना ( वा० ) बोलते बोलते छुप हैा। रहना, घीरे घीरे बोलना, ठहर ठहर कर बातें करना -- | चलाना ( वा० ) किसी को चर्चा करना, बोलने | का प्रारम्भ करना +--चोत ( वा० ) परस्पर भाषण, भापस में दृक्ति प्रस्युक्ति। -रात्तना ( चा० ) भाज्ञा भक्ञ करना, प्रस्तुत वात का उत्तर न देना ।-पर वात याद आती है ( घा० ) बह थात कहने की मेरी इच्छा नहीं थी, परन्तु प्रसह श्रा.पढ़ने. से कहता हूँ जर्दा ऐसी प्भ्रिप्राय बत- लाना द्ोता है वहाँ यह बात कही जाती है। “-पी जाना ( वा० ) कट्दक्ति को भी सह लेना | --फेंकवा ( चा० ) उद्द करमा, किसी की वाव की श्रवद्देला करता |--फैस्ना ( बा० ) कहते कद्दते यात्त बदुछ देना, अकृस्माव्‌ न #इने ये।ग्य निकली हुईं बात फो छिपा लेना अथवा इसका झर्थ बबदुक देना |--घेढ़ाना ( छा० ) रूगड़ा टंटा करग, छोटी घात के लिये लड़ना, किसी बात को घढ़ा कर फहना |--वंबानों ( वा० ) स्वार्थ साधने के लिगे झूठी वारते कहना।--विगराड़ना (वा०) बने हुए कार्य के नष्ट कर देना ।--माचना ( बा० ) कहना सानना, आज्ञा सानना ।--रखवा ( चा० ) प्रतिश्षा पाछम करया, कही बात के पूरा करना !---रह॒ना (चा०) अतिष्ठा का रह जाना, मान रह जाना ।--छ्तगाना (बा०) हर की चात डथर करना, निन्‍्दा करना, सूगढ़ा लग़ाना। चाती दे? ६ ख्री० ) बत्ती दिया में जदाई लाने दाक्ी खाती, बत्ती, पत्जीता ! [ बाला, बड़्त्रड़िया । बातूनिया दे० ( चि० ) चाचाज, अधिक बातें करने | घातूनी दै० ६ वि० ) बातें बनाने दाल; सचित्र बोलन चाहा, गप्पी, धक्बादी, दाचाल १ ( बा० ) बतियाना, सम्मापण करना |--घवाना » दे? ( वा० ) झूड़ी बातें कहना, झपना अपराध छिपाने के लिये रूठ बोलना [--मारवा दे० ( दा० ) श्रपनी बीरता बताना, डॉगें दाकना | --छुनना दे० ( दा० ) ध्यात से बात सुनना, कंट्टक्ति सहना, अधिक्षेत वचत सहना ।--झुनाना दुं० ( बा० ) श्रथिष्रेप करना, निन्‍्दा करना, कढ़ी कड़ी बातें फहना ।--जातों में उड़ाया दे* (चा०) किसी की प्रायेचा पर ध्यान व देना, किसी के काम की वातों पर हँसी ऋरवा |--बाँतों में श्र लेवा दे० ( चा०) निरुत्तः करना, वक्ति प्रत्युक्त में छुप करा देना ।--दातों में ज्पेटना दे० (बा० ) बिना प्रयोजन किी का रोफ़ना, पहले धातें बना ब्रढ़ी बढ़ी भ्राशाएँ देकर पीछे धेतज्ला देना । बादल दे० ( पु० ) मेध, धदा, चइल । घादला दे० ( छु० ) क्प्पा, एक अकार 'की जरी का तार, जो सेना और रूपे क्वा धनता है | घादिनि दे० ( स्त्री० ) वोलनेवाली, रगदालू । चाहुर दे० ( छु० ) चमगीदद़। बाघ तत्‌० ( छु० ) रोक, रकावट, निवारण । ( दे० » सुल की ढोरी जिससे आयः खाद विनी जाती है । बाधक दत्‌० ( छु० ) प्रतिवन्‍धक विश्नकारक, रोकने बाला ! [दुःज्न, अखूति सम्घन्धी पीढ़ा । बाधा दत्‌० ( सत्री० ) पीढ़ा, दुःख, वल्लेश, मानसिक बाधित तव० (वि०,.) प्रस्तिवन्धित, रोका हुआ। -+करना (वा०) अहुगत करना, आसारी बनाना । घाध्य तत० ( वि० ) बाधनीय, रोकने योग्य, श्रतियद्ध करने के उपयुक्त, चशीभृत, बेवश ) चाल दें० (स्त्री० ) देव, अभ्यास । ( छु० )वाण, झर, खाद, सूज की वनी रस्सी । बानमगी दे० ( स्त्री० ) आदर्श, दृष्टान्क, ससूना । चानये दे० (वि) संज्या विशेष, नब्ये और दो, ६२ । वाना दे० ( 8० ) स्वभाव, प्रकृति, ज्यवदार, परिच्चद, वेष विन्यास, नेष धारण, भरनी, जिस सूत से कपडे की चौड़ाई मरी जाती है। प्रतिज्ञा, विस्तार, |. अख विशेष ( क्ि० ) खुलना, फटना, परसना, ॥ ड्िविधा दोना, दो साय होना । * श० पा०---५४ चानो ( #5६ ) बारादीवेर यानी दे० (स्त्री०) कपड़े बुनने का सूत, वाणी, बोली । | वाम्हनी दे० ( स्री० ) एक पौधे का नाम, जो दवा “-थोनी दे० (स््री०) विनावट, विनवाई, चुनावट । बानूवा दे" ( पु० ) जल पक्षी विशेष । कि नाम । यानूसा, यानूसी दे० ( घु० ) एक प्रकार के कपडे बानैत दे० ( वि ) निर्मांता, रचयिता, बनाने वाला, बाय धारण करने वाज्ञा, धमुर्धर । बान्धव तत्‌० (घु० ) भाई बन्ध, कुठुस्प, परिवार सम्बन्धी, नतैत, नातेदार । थाप दे० (पु०) पिता, जनक |--करना (वा०) बाप के समान थादर करना, अज्ञाजुवर्ती होना, वश दोना ।--रे बाप (वा० ) शारचर्य-मय-धयोतक | मारे का बैर ( वा० ) अतिशय विरोध, बढा भारी विरोध ।--न मारी पीदड़ी बेटा तीर- न्दाज़ ( लोौ० उ० ) भ्रमोग्य पिता के पुत्र का घमणदी होना। जिसका बाप झयोग्य हो और पड़ भी स्वयं भ्रयोग्य हो भौर वह अपना बखान करे तब यद लोकोक्ति कद्ी जाती है। घापड़ा, घापरा दे० ( वि० ) दीन, असद्ाय, दरिद्र, कंगाल । यह मारवाड़ी प्रयोग है / . [अ्रसद्वाय । बापरो दे० ( गु० ) वापदा, दीन, दुखिया, असमथे, घाफ सद्‌० ( ६० ) बाष्प, बफारा, गरम जल आदि का घुआ। चाँवनी दे० ( स्त्री० ) घॉवी, सर्प पा वित्त, साँपों के रहने का स्थान | थावन सट॒या विशिष्ठ । पावर दे० ( ३० ) मिठाई विशेष । याया दे* ( पु० ) वाप॥ दादा, बढ़ा, साध, सनन्‍्यासी, इस शब्द का प्रयोग बढ़े माननीय के अर्थ में किया जाता है ।--क्षी ( पु० ) योगी, संन्यासी, साउ भ्रादि। यातू दे” (६० ) बालक, पुत्र, ठाढर, जमींदार, थज्नाडो, किरानी, भ्राच कल यथद्द घुरुप मात्र के किये अयुक्त होता है । घाँवी दे० ( स्थी० ) बावनी, सप का बिल । ५ 2 का ) एक प्रकार को मछली का नाम | यु० ) भाषा, उलद, सुन्दर स्त्री । (पु०) मदहा- देव, कामदेव ! ५ (0 अह यामा रद ( स्त्री० ) रप्री, पतनी, साया । चाम्दहून तद्‌० ( घु० ) माझण के काम में आता है । अ्रश्षनदारी, कमिया, व्राद्मयी, कीट विशेष, छिपकली, विसतुददया । घाय दे० (क्रि० ) असार कर, फैज्ञाकर। ( पु० ) बायु, बाई, बात । घायन दे० ( घु० ) उपहार, बैना, डाली, किसी उत्सव विशेष के उपलक् में मित्रों के घर जो भेजा जाठा है। घायना दे० ( एु० ) ” यायन ” देखो । वायब तद्‌० ( पु० ) वायब्य कोण, वायु कोण, पश्चिम उत्तर का कोना । ( शु० ) अन्य, दूसरा, मित्र । बायब्य तव्‌० ( घु० ) वायु कोय । चाँया दे० ( वि० ) बामाक़ृ,.. वायीं ओर, उलय। “-पाँच पूजना ( दा० ) पस्लणिडयों के घोले में श्राना, दाम्मिकों पर विश्वास करना | बायो दे० ( क्रि० ) फ़ैलाया, पसारा, विस्तारित किया! बार दे० (स्त्री०) विलम्ब, समय, दिन, बेला, भवसर, देरी ।--लगाना ( घा० ) विलम्य परना, देरी कगाना । पण्यि। बार्ण तद्‌० ( पु० ) वारण, रकावट, भट्वाव, हायी, घारन तब्‌० € पु० ) वारण, रोक, रतावद । घारना दे० ( क्रि० ) बिलगावा, अलग अलग करना, निषेध करना, रोकना,रुफावट डालना । [पितुरिया। धारनारी ठत्‌० (स्त्री० ) वेश्या, गणिका, बाराड़ना, वारंबार तद्‌० ( भर० ) बार बार, प्रतिद्ण, हर घड़ी, भरति पल । बारद दे० ( वि० ) सण्या विशेष, दस भौर दो, दो अधिक दश, 4२ ।-स्तढ़ी (ख्री०) द्वादश सात्राशा का च्यक्षनों के साथ मिलान “चाँद ( ६० ) साश, सर्वनाश, चौपट !--चाँढ होना ( था ) उजड़ना, विगड़ना, सराब दोना, सद्यानाश होना | बारददरी दे० (स्री० ) यारद दरवाजा का मझान, इृदादार मकान, बड़ला । लिर्दी। घाराखरी डे० (स्री० ) अछरों का मिलाना, बारद घारासिंगा दे० ( पु० ) फन्‍्दसार, सग विशेष, यह जड़ली जन्तु है, दिरनों से बढ़ा होता है । घाराह ठद्‌० ( ६० ) वराह, सूकर, सूर वारादीवेर दे* ( घु० ) औषधि विशेष, नेत्रवाला | वारिश ( एपछ ) बालिका घारिश दे० ( रुत्री० ) वर्षा, मेह का बरसना । बारी दे० (सत्री०) जल, पानी,फुलवारी, वाढ़ी, चगीचा, ऋरोखा, कान और नाक में पहलने का यहता, विन च्याही कन्या, क्चारी कन्या, ( अ० ) ओसरी, पाता । ( पु० ) जाति विशेष, पतरी बनाने वाला, ससाल दिखाने चाला। ( क्रि० ) निछाचर करी, रोकी, सना की |--दार (पु०) नियत समय का नौकर । चालमखीर दे० ( छु० ) एक तरह की ककद़ी, खीरा विशेष । [छवि, रामायण के कर्त्ता बालमीकि ददू० ( घु० ) एक सुनि का भास, आदि बालरॉड़ तद्‌० ( स्वी० ) चालरणढा, बालविंधवा । बालत्लीला तत्‌० ( स्री० ) लद्कपन का खेल, बांछ चस्त्रि। [बालकों पर दयालु । बालवत्स तत्‌० ( छ० ) कदुदर, बालकों पर कृपा, बालझखुख तद्‌० ( प० ) बाह्य का सुख, बघाहुकपतव बारीक दे० ( वि० ) महीन, मीना । घारुणी तद० ( स्त्री० ) मदिरा, मच्य, चरण देवता की दिशा, पश्चित दिशा, शतभिषा नक्षत्र । घारूद्‌ दे० ( स्त्री० ) दारू, शोरा, गन्धक और कोयले से बत्ती हुई वस्तु, जो गरमो पाते ही भक से उठ जाती है । बारे दे० ( पु० ) वच्चे, लड़के, वालक | बाल तव्‌० ( छु०) लड़का, वाहक, बच्चा, केश, शिरो- झह । (यु०) ना समझ, अशान, मे ॥--क्रीड़ा ( स्त्री० ) बच्चों का खेल |--मोपाल (वा० ) वाल बच्चे, लड़के बाते |--प्रह ( छु० ) वालकों के कप्टदायक ग्रह, उपग्रह, एतना आदि ।-धाँघी कौड़ी मारता (घा० ) निशाना लगाता ।--वाल घच' गये ( धा० ) बिलकुल बच जाता, श्राक्मण से रहा पाना ।--चाल वैरी होना ( चा० ) सब से विरोध होना ।--बाल गज़मोती पिरोना ( घा० ) खूब अड्भार करना, खूब सजाना ।--बच्चे € बा० ) लड़के वाले, पुत्र पौन्न आदि ।--बाँका ले धोना ( वा० ) फिसी प्रकार की हानि न होना, कुछ भी न विगदना । घालक तव्‌० ( घु० ) लद॒का, छोकरा, ढोश ।--पन ( घु० ) बाल्य, लड़काई, वालपन | बाकका दे० ( पु० $ औोगी या संन्यासिषरों का चेछा । बालकूड़ दे० (स्दी०) औषधि विशेष, सुगत्थ वाला। बालवोड़ दे० (४०) चाल हटने से जो घाव होता है । यात्नना दे» (क्रि० ) सुलगाना, जलएना, दीपक आदि का जलाना । बालमोग दे० ( एु० ) प्रातःकाल का नैवेध, प्रातःकाल जो भगवात्र्‌ के! नैवेध लगाया जाता है । घालम दे० (छु०) प्रियतम, पति, प्यार । का खुख । बाला तव्‌" ( ख्री" ) छ्लोटी श्रवस्था की लड़की, पक उमर छी खी, कुण्डल,का्नें में पदनसे का गहना । +चाँद्‌ ( पु० ) छ्वितीया का चग्द्रमा, द्ैज का चन्दा ।--पन ( 9० ) धालकपन, छड़काई भोला ( चा० ) सीधा घादा, छल कपट रहित | चालि तत्‌० ( 9० ) बानरराज, इनकी राजधानी का जाम किष्किन्घा था। मेरु पर्वत पर योगध्यान मम्न अह्मा के नेन्नों से अकस्मात्‌ भासू टपक पढ़े, उसले पुक सुन्दर वामरी उत्पन्न हुई बसी थावरी के गर्भ से देवरास इन्त्र शरर सूर्य के पश्रौरस से सुप्रीव और चालि उत्पन्न हुए थे। प्रद्मा की शाशा से बाजि ने किप्किन्धा में अपना राज्य स्थापन किया । बालि की स्त्री फ़ा नाम तारा और सुग्रौष की स्त्री का नाम रूसा था। किसी साथादी देलय छा वध करने के लिये एक समय घालि पातारू गया था; डसके आमने में विलस्व देज सुआव ने एसकी रूत्यु निश्चित कर ज्वी और तद्घुसार उन्दोंगे यह सम्बाद प्रचारित किया। मन्त्रियों मे सुप्रीय के राजा बनाया, राज्यालव पर बैठ कर सुमीव बालि छकी ख्री तारा को रख कर राजसुख भोगने छगे। कुछ दिनों के पाद पाताल से वालि अपनी राजधानी में छौट आया; सुप्रीव के आचरणों से दुस्ित हेरकर बालि सुभीच को मारने के लिये चेश करने जगा । प्राण घचाने छे बिये सुप्रीव वर्डा ले भाग गया, घालि ने अ्रपनी सी और सुप्रीच की हथी क्या मी रख स्लिया, अन्य में बाकि रामचन्म्र कौ खड़ायता सर मारा बया। ++कुमार (४० ) अभ्दद ! घालिका ( स्‍्त्री० ) लदृकी, छोटी अवस्था की लड़की । वालिण वालिश तव्‌० (वि० ) सूखे, अश्, नास्रमरू/तकिया । याली दे (स्त्री०) ठडकी, कमपा, कुण्डछ । बान्लुरा तत्‌र ( स्त्री० ) रेत, बालू, कट्टर ।-म्रय ( ० ) रेतीला, किरक्षिरा । बालू दे० ( स्त्री० ) बालुका, रेत, रेती, रेश, सिक्ता | “चर ( पु० ) गाजे का पुक भेद ।--चरी ( स्प्री० ) रेशमी वस्त्र विशेष ।--शाद्दी ( स्त्री० ) एक मिठाई का नाम । बाह्य तत्‌० ( घु० ) छठकपन, लक्काई | बाद दे० ( पु० ) वायु, पवन, बयार [--गोला (३०) शेग विशेष, पेट की पीठा, शूल |वौधना ( वा" ) चितौरी करवा, फड़ बाँधगा | -यहना ( वा० ) हवा चना, कीसी प्रकार का विचार । 'ऐैक्ाना ।--क घेड़े पर सवार द्वोना ( दा» ) अभिमान करना) घमण्ड में आकर किसी के कुछ ले समझना ।-घतास ( इ० ) देवी आपद, भूत बाधा ।--शूल्र ( घु० ) बायगोला । यादग दे० ( पु० ) घोभाई । [ वाचाढ । चाषमक दे० ( वि* ) गप्पी, धकवादी, यद वढिया, घावड़ी दे० ( दरी० ) वादली, तड़ाग, छोटा तछाव | खाना दे० ( वि* ) ठिपना, वचता, सवे । चावला दे० ( वि ) विक्षिप्त, उन्‍्मत्त, पागछ, सिद्दी ॥ घायली दे* (स्त्री० ) बावदी, ठड़ाग, तालाव, झस्मच स्‍्ती | बात्य तत्‌० ( धु० ) नेश्न धत्र, भासू, चाप्प, भाफ । यास दे* ( पु० ) स्थान, वासरपान, रददन का स्थान, डेरा, वसेश । ( स्ली० ) महक, सुगन्ध, गन्ध । घासखन ऐ* ( पु» ) दरतन, भाँटा, पात्र | घासना दे० ( स्ली० ) इच्छा, भमित्यापा, मनोर्य | (छ्ि० ) सुगम्धित करना, वासना, महकाना, शास देना । यासा दे० ( प० ) स्पान, रहने का स्थान, डेरा । बास्त्री दे” ( वि० ) निवासी, रइवे वाला, निवास , एैरने याज्षा, दिनारा, कई दिनों का बना डुच्चा, पुंपित श्रप्त, साफ निफाला घन, दुर्गन्‍्घ युक्त | अचे न कुत्ता साय ( छो० ३० ) विरोध का क्षारय नहीं रइना, पेसी कोई बात ही नहीं «५५ जिससे झगड़ा हो ।--फूर्लों वास नहीं परदेसी ( #८घ ) विकाऊ बाल्मम श्वास नहीं (छो* ४० ) दूसरों डे अधीन बातों में ठाम की झाशा नदीं, समय पर किसी काम छो न कर, समप्तव बीतते पर ठसडी सिद्धि की झाशा निरर्षक है दाहक तत्‌० ( घु० ) [ बहू णक ] ढोने पाला, भार पहुँचाने वाढा, मजूर | त्रादि। याहन तर्‌* (घु* ) [ बहू + अनद ] यान, सवारी याहना दे० ( क्रि० ) श्रस्र चढाना, फइना, दोड़ता धागना, मेंस यो आदि का ये धारण करना! बाहर दे० ( अ« ) अम्यत्र, दूसरा स्थान, पेश, अन्य देश +--फ्रे खाय जोय, घर के गौत गावें ( छो० ३० ) जिसका नियमित भषिकार है उसे ते कुछ नहीं मकाई घोर सब छेले | हकदार के न मिलना और दूसरे को ब्वाभ द्वोना । बाहिज दे० ( गु० ) बाहरी, वाहर से, यादर वाह ! याहु तद्‌० ( पु० ) वाद, भुजा ।--ज ( पु०) वाहु पे उत्पन्न, वूसरा पण॑, चश्रिय +--युद्ध (६० ) मठ युद्ध, पदलवानों की लड़ाई, कुर्ती 7 बाहुल्य तथ्‌० ( घु० ) बहुलता, भ्राधित्ण, भ्पिकाई। # बाहुल्यता ? शब्द बिलकुल भशद्ध है, तो भी इसका प्रयेग किया जाता है। विजन (4० ) तरछारी, साग, मामी | विंदी ( प्री०.) घून्य, नुकता, दाग । विंधना ( क्रि० ) डंक मारना, डंसना | विधेट ( ख्ी० ) दीमक । विक्क तद्‌* ( घु० ) बृक, हुण्डार, मेढ़िया | विकद तद्‌० ( गु० ) भवहुर, भयानक, डरावना, कठिम, कठोर, अइ्यड, टेढ़ामेढा, ऊँचा नीचा॥ दू खदायी | [ होना । विकना दे० ( करि० ) बिक्री द्वोना, येचा ज्ञावा, समात विकरात्ल तदु* ( गु० ) डराबना, भयझूर। मयातक) विकेट, कठोर | हि दिऊल तदू० ( वि० ) व्याकुल, उठ्धिप्; बेचैन | विकसना दे० ( क्रि० ) खिड़ना, विरूसित दो, कुजनया, स्फुटित होना, प्रसन्द दोटा | विकसित तद* ( वि* ) खिला इुबच, फूछा इभा। प्रफुछ,इपिंत,प्रसद् । [वस्तु, थे। चीज बेची जाप | दिकाऊ दे* ( बि० ) विक्रेय वस्तु, देंची , जाने बाजी विकाना विकाना दे (क्रि०) दिक्र जाना, खप जाना, उठावा । विकाच ढे० ( स्रो० ) बिक्रो, खपत, उठाव ] विकास तद्‌० ( पु० ) चमक, प्रकाश, आनस्द, हर्ष, विक्ञास | विक्की दे० ( पु० ) सेल के साथी, किसी जेल के पक पक्ष वाले आपस्ष में विक्की कहे जाते हैं । बिक्री दे” ( स्ली० ) विक्रम, चिकाथ, जपत | दिखरना दे० ( क्वि० ) फ़ैडना, पसरना; झुछ होना, तितर बितर होगा, क्रोध करना | विगड़ना दे० ( क्रि० ) ख़राव होगा, नष्ट होना, श्रव- वनाव होता, क्रोध करवा, विरोधी होना | बिगड़ो दे० ( स्ती० ) लूट, रढ़ाई । विगसना दे० (क्रि० ) बिफसना, विकसित होना, खिलना, फूल्मा । फिगदह्मा दे० (छु० ) बीघा, चीस बिस्वा। बिगाड़ दे० ( बि० ) विरोधी, तोड़, भक्त, लड़ाई, संगड़ा, हानि, क्षति । [ पहुँचना । विगाड़ना दे० ( क्रि० ) विरोध करना, तेफड़ना, लति बिगाई दे० ( खी० ) झ्लावा, छुपाच, छिपाव । विध्स तदृ० ( पु० ) बिप्ठ, बकावट, दाधा, अ्रद्धचन । बिच दे" ( ऋ० ) बीच, अल्तर, ब्यवधान | विचकना दे० ( क्रि० ) भड़कना, सतर्क होता | विचकन्ना दे० ( वि०) भड़कने वाला, सतर्क सावधाच । विचकाना दे० ( क्रिः ) भइकाना, चिढ़ामा, सतर्क करना । विचलना दे० ( क्रि०) विचक्तित होना, फिसकना, विछुक्ना, खलकना, एलित होगा | विचली दे५ ( जी० ) बीचवाली, मध्यस्था। विंचवई दे० ( पु० ) मध्यस्थ, विचवात, दुलाक | विचचाई ( ख्री० ) दुलाली । विचार ततदू० ( पु० ) ध्याव, निशेय [--क्ष ( छु० ) न्‍्यायकर्ता |-लय ( घु* ) न्‍्याव का स्थान, कचेद्री । विचार्ता दे० ( क्लि० ) ध्यान करना, सोचना, निर्णय करता, समरूमा, घुकना; जाचिना | विचारित सदू० ( वि० ) सेचा छुत्ना, बिश्वण किया हुआ । [ का बिचारी तदू० ( वि० ) किचारक, विचारकत्तों, निर्णय (६ हुपओ ) विजाश' विचाली दे० (स्ली०) इआल, एक प्रकार की बढाईं जो पुभ्नाल या चौँघ की खपचियों से बनाई जाती है। विचोनिया दे ० ( छ० ) मध्यस्थ, लिसरैल, विचवाई । विद्यौनिया दे० ( ख्री० ) पापड़ के तिड्ौने डुकड़े । बिछाच दे? ( घु० ) चिलाव, पसराव | विच्छू दे० ( यु० ) जन्‍्तु विशेष, दृश्चिक, जिसका डछ्छू विषेत्षा होता है । विज्ुना दे० ( क्रि० ) फैलना, पसारना, विस्तृत होना । विद्धूराहट दे० ( ख्री० ) वियाग, प्रथकता, सिन्नता । विछूलता दे० ( क्रि० ) बिलगना, प्थक होना, अलग होता, पैर फिसललना, रपदना । बिछुलावा ( वि० ) फिसलाहा। विछलाहड दे० ( स्री० ) फिसलन, फिसलाबट | विक्वाना दे० ( क्रि० ) फैलाना, पलराना वि्ञाना । बिछाता दें० ( छु० ) बिछुआ, भूषण विशेष बिछाना बे० (क्रि० ) फैलाना, पलारना। विक्िया दे० (३० ) चूएर,सियों के पैर की अँगुलियों में पहनने का शाभूपण । बिछुड़ना दे० ( क्रि० ) विशेग होना, एयकू, एथक होना, अलग होना, अलग हो ) बिछुस्ना वे० ( क्रि० ) वियुक्त द्वोता, वियेय होना, अलग अलग होना ! वबिछुबा दे० (9०) अखविशेष, कथा विशेष, विद्धिया शुक भहले का नाम ओ पैरों से पहना जाता है । बिछोद् दे” ( छ० ) वियेग, झुदाई, भिश्नता, भेद्‌ । बिक्लोहना दे” ( क्रि० ) अलगाना, वियोग करना, भिन्न करता । विछ्तोचा दे० ( ३० ) बिस्तरा, विछावन । पिजना दे० ( पु० ) ब्यजन, पद्ा । बिजली दे० (ज्जी०) पिद्युत, वमिनी, लपलाए, यादों की टक्कर से उत्पन्न अप । विज्ञय तद्‌० जब० जीव, फतह । विजया तत० (स्री०) भजन, भज्ञ की पत्ती । विज्ञान दे० ( बि० ) अजान, सूर्ख, अछान। विज्ञायद्या विज्ञायड वे० (ए०) एक आमृषण का साम जो याँद में पहना जाता है, वाजूबन्द । घिजाए दे० ( पु० ) सौंढ, बुपभ, बैल । _बिज्ञारा वे० (इ० ) बीज वाला, चीज युक्त । बिज्ञाला विज्ञाला दे* ( वि० ) पीजयुक्त, बीज सहित । विज्लेग तद० ( घु० ) वियेगय बविद्युडन, वियेग ! विग्ज तर० (स्री० ) विद्युत्‌। बिउज्ू दे० ( घु० ) जन्तु विशेष । बिमकना दे० (क्रि०) चमकना, दरना, भय करना । पिम्ककाना दे (क्रि०) चमझाना, चौफाना, डराना । विध्जन तत्‌० (पु०) व्यक्षन, सरकारी, भाजी बिठ दे० ( घु० ) विष्ठा, मल, बीद ।--चर (5०) / शंकर, गाँव का सूझर । [दिग्क जाना! बिना दे० ( क्रि० ) विधुरना, थिटकना श्रत्नगना, विदप तत्‌० ( ५० ) वृद्ध की शाखा, नये पत्षव । विठाना दे० ( कि ० ) छिटकाना, विथराना, गिराना, डिसराना । विदौरा दे० ( चु० ) गुबरौदी, गोइठा, ऊपरी । बिठाना दे० (फ्रि०) वैदना, रहराना, रोकना । विड़कन दे० ( 9० ) पही विशेष, बटेर थादि पछी, “यथा--तिड्कन धनघूरे, मक्तिके बाज जीवे रामचखिका । विह्वरना दे० ( कि० ) भागना, भाग जाना, डरना, डर लाना। ब्रिड़ार तद्‌० (५० ) वनविद्धाव, विडाल़ । बिड़ारना दे* ( क्रि० ) भगाना, डरवाना । बिड्डारी दे (स्त्री०) भगाई, सगढ । थिद्ीज़ा तद्‌ू० ( ० ) इन्द, पार्शासन, देवराज । विढ़ाई दे? (क्रि०) कमाकर,पैदा करके (ख्रो०) कचौरी परितरण तद७ (पु) ल्याग, दान, चाटना । [डालना । बितरना दे० ( फ्रि० ) देना, दे देना, बिना मूल्य दे बिताना देन ( क्रि० ) गाना, काटना,न्यतीत करना । वित्तीत तद्‌» ( वि ) ब्यवीत, गत, बीता हुआ । वित्त तद्‌ु० ( चु० ) घन, द्वब्या विचा दे* (४५ ) वितस्ति बिलॉँद, वाल्रत, विल्मस्त वित्तिया दे० (वि) बवना, ठियना । विधकना दे* ( क्ि० ) आश्रयितते होना, श्रचम्मे में भाना, पद्ा रदना, ज्यों का तहाँ रह जाना, कआराग्रे नहीँ बढ़ना ६ ( ४१६० ) ब्रिनधाना विथुरना दे* ( क्रि०) विथरना, फैल जाना, इपर उधर होना विद्रना दे० ( क्रि० ) विदरना, फ़दना, चिरना। विदरी दे० ( स्त्री० ) विदर देशी, दल्ता । विदा दे० (ख्री०) जिदाई, रवानगी,मेजना, छुट्टी, माने की थराज्ञा ।--करना ( था० ) भेजना, जाने की अल्लमति देना । विदारण ठद्‌० ( क्रि० ) फादना, चीरना॥ विदारन दे ० ( क्रि०) विदारण करना,फाइला, घीरना। विद्वाहना दे० (क्रि० ) जोते हुए खेद में हंगा धकाना, हँगाना, खेत के ढोंके फीड कर बरापर करता। विद्वुपन दे० (पु०) पणिष्ठत गण, विद्वान कोग, तस्व के जानने वाले |--विदृषक तदू० (० ) भाँद, मसखरा, नकल करने वाला । विदोरना दे० ( क्रि० ) चिढ़ाना, विराना। विघ तद्‌० ( श्री० ) विधि, रीति, व्यवद्वार । ब्रिघना दे० (पु०) मअक्मा, भजापति, विधाता, (क्रि*) मिदना, छेंदना । विधवा तदू० ( खरी० ) रॉढ, चेवा, जिस खी का पति भर राया हो। विधाचट दे० ( स्री० ) सा, चेद, रन्प बिन दे० ( भर० ) बिना, रहित, छोड़ कर, भ्रतिरिक्त। “आये तरना (वा०) अ्रसमय हो जाना, बिना अवसर मरना, बेमौत मरना ।“-रोये लड़का दूध नहीं पाता ( था० ) विना पयक्त के कुवे भी नही मिलता,अ्रभीष्ट प्राप्ति के लिये थोडा मी प्रयत्ष करना आवश्यक है [--भय प्रीति नहीं (बा० ) बिना पराक्रम दिखाये प्रभाव नहीं जमता, प्रभाव विस्तार के लिये अपनी प्रमुता दिखानो चाहिये। >माँगे दे दूध बरावर माँगे दें सा पानी (ज्ञो० उ०) बिना माँगे मिलना उत्तम है। जो स्वय तुम्दारा काल्यण करना चाहता है, उसी पर भरोसा रखो, तुरदारे पहने से जो तुम्दारा कल्याण करेगा उससे अधिक लाम नहीं । बिनती दे० ( स्ी० ) विनय, चिसौरी, प्रार्थना । दिनना दे० (क्रि०) बदोरना, एकत्रित करना, खुनना । बिनवाना दे० (क्रि० ) बढोरदा, एुकल्रित कराता; 2५ कपड़े आदि का छुतना, चुनवाना। विधरना दे० (क्रि०) थिटकना, दिसरना,दिखर ज्ञाना दिया ठद्‌७ ( स्प्री० ) व्यथा, पीढा, दुख, आपत्ति, मानसी ध्थया। , , बिनवाई विनवथाई दे० (स्री०) विनने का काम,बिनने की मजूरी विनसना दे० (क्रि०) न४ होना, विगद्चा, खुराद होना । बिना यदू० (अ० ) रहित, अतिरिक्त, विचा । विनाई दे" (सत्री० ) बिताचट, बिनने का काम । लिनास तदू० ( पु० ) नाश, संहार, विष्ंस । बिन्लोना दे० ( क्रि० ) विसय करना, अर्चना, पूजा करना, ध्यान करना, पूजना, छॉँटला । बिनोला दे ० ( घु० ) कपास का बीज । विन्दी दे० ( स्री० ) बिन्दु, शल्य । विन्धना दे ( क्रि० ) डसना, डझ् सारता, छिन्दना। विस्मा दे० ( क्रि० ) जाली काढना, कपड़े में वेल बूढे निकालना । बिपत दे० ( खी० ) आपत्ति, छुश्ख, केश । बिपता दे» ( ख्री० ) दुःख, कष्ट, कोश, आपत्ति। शथा--- “पक बुलावे चौदह थआदें, निज निज विपता रोय सुनावें । भूखे मरें भरे नहीं पेट, क्या सख्रि सज़न नहिं ओेजुएट । ?” --मास्तेन्दु बिपरना दे० ( क्रि० ) आक्रमण करना, घावा करना, कढ़ाई करना । बिपादिका तल्‌० ( स्त्री० ) विचाई, बाई । विफरना दे० (क्रि०) चिदना, छछ होना, ढीट [ होना। बिफे दे० ( 9० ) इहस्पतिवार, गुरुवार। विमाता तद्‌० ( स्त्री० ) सौतेली माता । विम्वेगद तलू० ( स्त्री० ) दीमक, वाल्सीक । वबिया दे” ( घु० ) बीज, गुझली । बियार दे० ( स्त्री० ) रात्रि का भोजन, व्यालू । लियाह तदू० ( घु० 9 विवाह, व्याह । विय्कत चद्‌० ( ० ) विरक्त, योगी, आंप्तकाम, वासना शुल्य, इच्छा रहित । विस्चन दे० ( छु० ) वैर का आदा। बिरत वद्‌ (गु० ) प्रीति रहित, वेरागी, सुस॒ह, डदासीन, जिसे संसार से श्रीति न हो । विरद्‌ तदू० ( घु० ) यश; रुयाति, प्रसिद्धि, सुकीति । (६ अु&१ ) विलंगाहि विस्मता दे ० ( ( क्रि० ) विराम करना,विश्रास करता, ठहरबा, विलम्ध करना, विलम्ध लगाना। विरमाना दे० ( क्रि० ) दहराना, रोकता; विलमांचा । बिसल दे० (गु०) छितराया हुआ,छुदा, अलग अलग | विरला दे० ( ग॒ु० ) केई अनूठा, अपर, भतुल्ननीय, एकाघ, कोई एक | विरव दे० ( घु० ) देखो बिरवा । विरवा दे० ( घु० ) रूखढ़ा, पौधा, छोटा वृत्त । चिस्खता तद्‌० ( ख्री० ) ऋगढ़ा, टंटी, भचसुटाव । बिणस्सना तद्‌० (क्रि० ) रहना, टिकना, उहरना) विरह उद्‌० ( पु० ) वियोग, विद्योह, विहुदन । विरदनी तद्‌० ( स्री० ) विरहिणी, वियेषगिती, अपने पति से जिस स्त्री का वियेग हो गया है [ विरद्दा तद० (पु० ) वियेग, विछोह, अहीरों का गीत । विरहिया दे० ( बि० ) विरद्णी, बिरही । बिरही तद० ( घु० ) वियेगी । बिराजना दे० ( क्रि० ) शोमना, सुन्दर भालूम होना, सुख भोग करना, सुख पूर्वक रहना । विराना दे० (क्रि०) चिढ़ाना ।( गु०) अन्यदीय,अन्य सस्वन्धी,दूसरे का । [वाक्य समाप्ति सूचक चिन्ह । विराम तद० ( घु० ) विश्वास, वाक्य की समाप्ति, बिस्या दे० ( खी० ) अवसर, ससय, बारी, पाला बिरोग दे० ( छु० ) विरहद, वियाग । विरोगन दे० ( ज्ो० ) वियागिनी, घिरहिनी । विर्नी दे” ( स््री० ) वरें, बरनी, हड्डा । बिल दाद० ( ३० ) छिढ, चूहे आदि जन्तुयों के रहने का स्थान, माँद, बॉमी, संघ । बिलकना दे० (क्लि०) सिसकमा,रोना । [ सिसकना | विलखता दे० (क्रि०) देखवा,निरखना, उदास होना, विलग दे० (दिं० ) अलग, मित्र, छुद्ा, न्यारा, एथक, आन, अन्य, दूसरा +--मानना ( था० ) भेद मानना, झुदाई सानना, विरोध करना । विलगना दे० ( क्रि० ) भिन्न भिन्न होना, प्रथक्‌ एथक्‌ होना, फटना, छुटना । किरना । विलगाता दे० (क्रि०) अलगाना,थलहदा करना,एथक्‌ बिलमाव दे० ( घु० ) सिन्नता, भेद, विद्धरादद। बिलगादि दे० ( क्रि० ) अलग दोते हैं, धथकू एथक्‌ होते हैं। विलचना ( हह२ ) बीड़ा विलचना दे० ( क्रि० ) छॉटना, चुनना, बॉछना, ' विवॉई दे० (ख्रो० ) पैर फे वलवे में का घार। विकगाना । विलठना दे० ( क्रि० ) विगदना, मष्ट होना, स्वलित होना, धर्म भ्रष्ट होना । विलनो दे० (श्ली०) सूच्म कीट विशेष, जो आँखों के सामने घृमा करती है, श्रॉँख पर की फुड़िया । विलवन्द ( क्रि० ) निपदारा, निर्णय।.. [विशेष। बिजविल ( क्रि० ) बिल्ली के भगाने के लिये शब्द विलबिलाना दे० ( क्रि० ) बिलाप करना, कृक्‍ना, व्याकुल होना, तड़पना, तदफ़द़ाना । बिललाना दे० ( क्रि० ) विलाप करना, रोना! पिलद्लां दे० ( पु० ) भोंदू, सूखे, वेसमर, अ्रवारा । बिलसना दे० ( क्रि०) शोलित होना, आनन्दित दाना, सुख भोगना, सुस भोग करना । विल्लस्त दे० ( घु० ) बिलाँद, वित्ता, बितस्ति | विलद्दस दे० ( घु० ) पनवद्टों, पान रखने का टब्वा। बिलद्दरी दे० ( ख्री० ) छोटा पनवट्टा, पान रखने का चघोटा डब्बा । बिल्लाई दे० ( ख्री० ) विरली, मार्जार, कद्दूक्स, खोहा या पीतल की बनी एक वस्तु जिससे कद्दू के लच्छे काटते हैं। किवादी की चिटकनी, जिससे कियादी बन्द फरते हैं । पिलाना दे० (क्रि०) नष्ट होना,प्वेस होना, मिट जाना । विलाँद दे० ( श्री० ) विलस्त, बितस्ति, वित्ता रिल्ापना दे* ( क्रि० ) रोसा, विलखना, दुख करना । विलार दे० (ध०) मार्जार,विज्ञाब,विलाईं । [का नाम । विलावल दे० ( सत्री० ) रागनी विशेष, एक रागनी विलोना बिलोवना दे० ( क्रि० ) भयना, दही से मक्खन निकालना, दद्दी सथना। पिल्ला दे० ( पु० ) बिशल, विज्ञयाच । विलला 4० ( ख्री० ) विज्ञाई, बिल ॥--भी लड़ती है तो मुँह पर पंजा धर ल्लेती है ( ज्ञो ०) दूसरे से सामना करने के पहले अपनी रद्दा का उपाय कर लेना चाहिये । अपनी रहा वा प्रवन्ध फरऊे दूसरों से मिड्ना चाहिये ।--के भाग छींक ट्ुल '(स्ो० उ०) भाग्य से मनेरय पूर्ण है| गया । सयेय वश काम दे गया । बिपखोपरा दे० ( पु० ) गोड, गोधा। विसन तदू० (घु० ) ब्यसन, बुराई, दोष, बुरा अभ्यास, आदत, टेव । बिसनो तद्‌० ( पु० ) ब्यसनी, लुच्चा, जग्पट। विसविसाना वे० ( क्रि० ) सदना, बजरमामा । विसर दे० ( ए० ) भूल, चूक, विस्मरण । विसरना दे० ( फ्रि० ) भूलना, विस्मरण होना, मट कना, याद न रहना । [कराना। बिसराना दे० ( क्रि० ) भुलना, बढकाना, विस्मरण विसांत दें० ( ख्ली० ) पूजी, मूलघन । बिसॉती दे० (घु०) फेरी बाला, पैफार ! विसांध दे० ( छ० ) दुर्गन्ध, क्चास। .. [क्राता। विसाना दे० (क्रि० ) मोल लेना, खरीदना, छृय विसारना दे० ( क्रि० ) भुलाना, बिसारना। [वस्तु। विसाह दे० (सत्री० ) मेल ली हुईं पस्त, खरीदी बिसादहना दे० ( क्रि० ) मेक् सेना, सूरीदना। बिखुरना दे० ( कि० ) विज्ञाप करना, विलपना, धीरे धीरे रोना । विसतुद्या दे० ( स्नी० ) विस्तुईं, छिपकली । रिस्तुई दे० ( ख्री० ) दविपकली, पतली। . [परिंदें। विंग तदू० ( घु७ ) विहग, पत्ती, पस्लेरू, चिढ़िया, बिहन दे० ( छु० ) वीया जो खेत में बोने के लिये रखा जाता है। ब्िहनोर दे० ( स्री० ) बीज थोने की क्‍्यारी । चिद्दरना दे० (क्रि० ) विद्दार करना, आनन्द करना घूमना, टद्वरना । नियमित घन | बिहरी दे० (स््री० ) चन्दा, सहायता, सद्दायवार्य बिहरुना दे० ( क्रि० ) बीच से फटमा, दरक्ना, छाती फटना । विददसना दे० (क्रि० ) मुसकाना, हँसना । [विशेष । विद्ाग ( छ०) रात में शायी जामे वाली रागनी विद्वान दे० ( इु० ) प्रात"वाल, मोर, भिनसार । विदाना दे० ( क्रि० ) छोड़ना, त्यागना, निर्वाद करना काल काटना । [ (६०) भौषधि विरोष । बिद्दी दे० ( स्ली० ) सफरी फल, अमरूद ॥+दाना बीड़ा दे० ( स्त्ी० ) गेंडरी, ऐंडुरी, जो सूँ ज वी दतती है और जिस पर मरा हुआ पढ़ा रखा जाता है। बींघना बींशना दे० ( क्रि० ) बेदना, भेदना, सेदव करना, चेदना । [कर फिर जसाये जाते हैं । घींघड़ ( घु०) घान आदि अनाज के पौधे जो उखाड़ चोयर दे० ( पु० ) बिल, छिद्, चेद, माँद, साँप, आदि के रहने का स्थान । [दोदा है,भ्ूमि का नाप। बीघा दे० ( घु० ) विधह्य, बील दिस्वे का एक बीघा बीच दे० (अर० ) मध्य, साँर, साँद,, अन्तर, भोवर! ( छु० ) विद्वेप, विरोध ।-पड़ना (था० ) अन्तर पड़ना, विरोध होना (--विचाव करना (था ) विरोध शास्त करना, रूगढ़ा निपठाना, निर्णय करना, द्वेप दूर करा देना +--में पड़ना ( वा० ) भध्यस्थ होना, किसी वात के! नियदाने का भार लेना। बीचो बीच दे० ( वा० ) सध्य में, ठोक बीच से । बीछा दे० ( पु० ) विच्छ, इंश्विक । घीज़ तत्‌ ( छु० ) वीर्य, तुझ़्म, विया। घीजक दे० ( पु० ) वस्तुओं की सूची, चालान, वेची और रवाना की हुई वस्तुओं की संख्या और उनका सूल्य बताने चाली फेहरिस्त । [ विशेष । बोजना दे० ( छु० ) पंखा, ब्यजन, दालबुन्त, फीर चीजआर दे० (७० ) अधिक बीज वाला, बीजसय, बीजैला, जिसमें वीज ज्यादे हों । बीज दे० (स्ली० ) जन्ठु विशेष, नकुल, नेडला । बीस दे० ( क्रि० ) खोदना, रेलना, ठेलना, पेलना। घीड दै० ( ख्री० ) बिट,मल, जिट्ठा, पक्षियों की विछठा। बीटला दे० (क्रि० ) छुल्कना, उपराना, ढलना, विधरना । चीठा दे० ( छ० ) गेंडरी, बोंढा, जिसको सिर पर रख कर भरा हुआ घढ़ा पनिद्दारी से जाती है! बीड़ा दे० ( ४० ) बीविका, पान की बीढ़ी, लगा हुआ पान एक प्रकार का सूत जो तलवार की मुठ में बाँधा जाता है ।--उठाना ( वा० ) किसी कास के सिद्धू करने के लिये म्रतिज्ञा करना। पहले यह प्रथा थी कि जब किसी राजकुत में कोई बड़ा काम आ पड़ता था, तब राज्य के लोग घुलाये जाते ये और उनके चीच तलवार या और केई पस्तछु रख दी जाती थी । उनमें जो अपने को शक्तिमाच्‌ सम- ऋता था वह उस वस्तु के उठा लेसा था । इसका (६ #ह8३ ) बीसा अर्थ यह हे।ता था कि इसने काम पूरा करने की प्रतिज्ञा की ।--डालना (वा० ) किस्ली काम को पूरा करने के लिये लोगों से कहना । चीणा ठव5 € स्त्री० ) वीणा, वीन बाजा । बोदना दे० ( क्रि० ) व्यतीत देना, पूरा होना, समाप्त हाना, गुजरना । बीता दे० ( घु० ) बालिश्त | (क्रि० ) बींतने का मूतकाल, गया समय | चीन दे० ८ स्त्री० ) वीणा, बाय विशेष । बीनना दे० ( क्रि० ) घुतना, बनाना, निर्माण करता । बीबी दे० ( स्त्री० ) स्त्री, मेहरारू, मेहरिया, सेस, अँश्रेज या सुसलमान की सन्नी । बीमा दे० ( घु० ) जोखिम, हुण्डी, यह एक प्रकार की राजकीय व्यवस्था है। डॉक के द्वारा भेजी जाने बाली घस्तु के टूटने फूडने की जिम्मेदारी लेने के लिये जो डॉँक विभाग के कुछ नियमित द्रव्य देकर जो व्यवस्था करती पढ़ती है उसे वीमा कहते हैं । इसके अतिरिक्त वीमे का व्यापार भी होता है । ज्यवसायी जीवन चीमा इत्यादि फा न्यापार करते हैं। बढ़े चढ़े नगरों में मकान आदि फा भी बीसा कराया जाता है ! बीमा की अवधि में यदि मकान जल ज्ञाय तो वीमे बालों के मफान का दाम देना पड़ता है । [रोग, मजे, अस्वस्थ्यता । घौमार दे० (ए०) रोगी,मरीज,अस्वस्थ्य ।-- (स्त्री०) बीर दद० ( ए० ) उत्साही, घूर, अध्यवसायी, भाई, मैया, कान का गहना ।--बहूटी ( स्त्री० ) कीट विशेष, यह लाल रहः का देता है और बरसात में ही पेदा द्वोता है । घीरता ( स्त्री० ) बहादुरी, श्वरता । बीस दे० ( छु० ) भाई, भैया, वीढ़ा, पान की खिल्ली । घीरसासन तद्‌० ( ४० ) दीरों के बैठने का आसन, बीरों की बैठक ! चीरी दे० ( स्त्री० ) बीडा, वीरा, पान की खीली | बीस दे० ( पु० ) संख्या विशेष, २०, एक कोड़ी । घीसा दे० ( छु०) बीस नख वाला कुत्ता, कुत्ते दो प्रकार के होते हैं, अठरहा और बोला, चीसा कुत्ते बढ़े भयानक और विफले होते हैं। उनका काग हुआ आदसी भाग्य ही से दचता है । शा० पर्‌०--ण्ट बीसो ( शष७ ) चुद्ध बोसी दे? ( स्त्री० ) अ्रन्न मापने का नाप । बु द्‌ ( इु० ) काने का ्रायूएण विशेष । बुदा दे० ( घु० ) बिन्दी, विन्दु, शल्य, गोलाकार टीका, काँच की एक छोदी टिकुली । छु दिया दें० ( स्त्री ० ) एक प्रकार की मिठाई का नाम। यु देला दे* ( ए० ) इन्देलखरढ का राजपूत, वुन्देल- खण्ड का रहने वाला । [ परिमिद बुकठा, बुकट्टा दे० ( घु० ) मुट्टी मर, भर मुट्ठी, सृष्टि बुक्नी दे० ( स्त्री० ) चूर्ण, चूरा, सकूुफ । घुकलाना दे० ( क्रि० ) वजन, स्वयं बकते रहना, ससबनाना। [का लाल रह । घुक्का दे" ( बु० ) ब॒कटा, मुट्ठी भर, चुटकी, एक प्रकार धुकी दे" ( स्ली० ) कि पर का वष्च, वद कपड़ा जो > कथि पर रक्‍खा जादा है । घुजना दे० ( धु० ) स्वियों के पदनने का कपड़ा, मिसे अशुद्धि की दशा में छियाँ पहनती हैं, नद्वान का कादर । घुजदरा या बुभादस दे० (६5) पता विशेष, जिसमें पानी गर्म किश झाता है।.[ ऐलना। घुसा दे० ( क्रि० ) दीपक का गुछ होना, ठय्डा घुफाना दे० ( क्रि० ) छुतथा देना, गुक्ष करा देना, अत्यपेय करना, भाग ठण्डी करना, दिया धुकाना । दुझो रक्षा दै० ( स्री० ) पदेली, इश्कूट। घुड़ाना ये « ( कि) इशना, बलमप्त काना, बोहना। घुडदा देन (१० ) बृद्ध, बृढ़।। ( गु० ) प्राचीन, पुरा जी, शी ९ धुढ़भस दे? ( गु०) अपने के। युवा समभझने वात्षा बूढ़ा, जयाने की चाढ चबने वाद्य बूढ़ा (-- छगता (था० ) बुढ़ाई में ज़वानी का काम करनेा | यूढ़ा दे* ( वि० ) दृद्ध, बडा, डोकरा । बुढ़ाई ( सवी० ) घुढ़ापा । बुढ़ापा दे* ( ४५ ) बढ़ाई, इृद्धावस्था ।--विगडना ( था ) दद्धादस्था में कष्ट सइना, बुढ़ाई में हम छग्ना। धुढ़िया दे० ६ छीए ) इृदा थी, बूढ़ी बुणडा ऐे० ( ६० ) कण भूषण विरोप, कान पक डाइने का सलाम | चुत्त दे ( ५० ) जूधा खेलने की एक यस्तु, जिस पर वाँधा फेंका जाता है । बुताना दे० (क्रि०) घुमाना, घुक ज्ञाना, गुल देगा | बुता दे० (पु०) दगद्ाई, छल, कपट, भूत्तेता, घेखा। >>देवा (का०) ठाना, छुबका, पे देवा । बुद्चुद तद्‌* ( परु० ) बुल्शुज्ञा, पानी का चुष्ह्य, द्ूल्टा । [छट् बइते रहना । बुद्घुदाना दे० (क्रि०) घीरे घीरे बेलना, मनमाण बुद्ध वद्‌० (गु०) सर्वेक्ष, सुगत, विदिन, ज्ञात ! (प०) मगवान्‌ का श्वतार विशेष कपिव्यवातु के राता शुद्धोदन का पुत्र | इनका दूसग़ नाम था गौतम! बुद्ध ने जिस ७से का सैसार में भ्रवार किया बह भी इन्हीं के नाम से प्रसिद हैं। समस्त भूमण्ड्छ में दौद्ध धर्म ध्ा प्रचार है, यहाँ तर कि सैघार का तीसरा भाग गौद्ध घर्मावलम्पी है | तिब्बत चीन थीर जाप्राम में मी दौद घरमे शैशा हुआ दै । बौद्धमत में बारद इन्द्रियाँ मानी जाती हैं। पाँच कमें न्द्रिय और पाँच झारन्दिय तथा सने और बुद्धि नामझ दो उमयेन्द्रिय | शरीर द्वादश इस्विय का आयतन है इसी कारण यौद्धमत में शरीर की द्वादंशापतन संक्षा है। सेवा ही इस शरीर का प्रधान कर्म है, इनमे देवता सुगत हैं । इनके मत में प्रतयष्त चोर अमुमान दूं! ही प्रणाम हैं, खुतरों शब्द प्रमाण रूप वेद्‌ का इन यहाँ श्रादर नहीं है ज्ञगत्‌ चाशभंगुर हैं | योद्ध कदते हैं प्रतिषृ्य जगत रुए परियरुद हे पद है, 'अरुपुद ऋण्टइ रे स्ंपढू पदार्थ स्थायी नहीं है। परिवतेन होता ही इस अगठू दा खचण और स्वसूर है। सास्य शोर बैद की भजेक बातों में एश्वा हं। दोनों कदते है कि दुष्ख का कारण जन्म, जन्‍म का कारण कमे, कम का कारण प्रवृत्ति और प्रदृत्ति का छारण धक्षाव है । इससे यद स्पष्ट ईी सिद्ध दाता हैं कवि सास्य दुशन दी बौद्ध धर्म का मूछ हैं । दौद्धों के सन में चार भेद हैं, भाष्यमिकछ्, बागादार, सौद्रान्तिक ओर वैसापिक | माध्यमिक थौदों के मत में जगद घ्वम्नच्ट पदार्थ के समान मिथ्या है, समस्त शूल्य है । बेशगाचार्त दे मत में सभी धाहा चस्तु भ्सत्य है, इेवट विश्ञानस्प घारमा ही सत्य हैं । सीधा- चुद्धि ( श8५ ) बूढ़ा न्तिक बौद्ध वाह्मवस्तु, को सत्य और अनुमान | बुलका दे० ( झ० ) इलडुल्ा । सिद्ध मानते हैं, चैभाषिक दौद्धों के मत से समस [ बुल्लदाना ( क्रि० ) घुछा भेजना | पदार्थ प्रत्यक्ष सिद्ध है। बौद्धों छे मत से सत्र । चुलाक दे० ( छु* ) नाक में पहनने का एक गहता । पदार्थ रण द्थायी हैं। ऐली स्थिर चालना का चास साय तत्व है और यही सोच है ! बुद्धि तच्‌० (ब्ी० ) [ धुघ्‌ + कि ] सवीषा, धी; घीपणा, ज्ञान का कारण, विवेक शक्ति ।--मान्‌ ( वि० ) सनीषी, समझदार, विचेकी |--हीन : | बुद्दार्त दे० ( ख्री० ) साइन, झूड़ा कट । [करना | ( वि० ) मूज, नासमस, अज्ञान बुछ्यीद्धिय तत्‌० ( ए० ) धद्धि और इन्द्िय, इन्द्रिय सहित घुद्धि, छुद्धि नाम की इन्द्रिय | घुघ तत्‌० [ बुध+#क ] पण्डित, सौम्य, विद्व्त्‌, चचुर, अभिज्ञ, सतुर्थग्रह, चन्द्रमा का पुत्र, घुघा- बतार, सूर्यवंशी एक राजा का नाम ।-अ्ञन ( 8४० ) पण्डितजन, अभिज्ञ, बुद्धिसान्‌ |-धार ( छु० ) बुध का दिव, चौथा दिन । छुधान तद्‌० ( घु० ) गुरु, परिडत, अ्रध्यापक, ब्द्या की सभा। चुनना या वुता दे" (क्रि० ) विनना, जाली निकादाना, कपड़े में वेछ बडे निड्ाक्नना । बुशुक्षा तत॒० ( स्ली० ) भावन की इच्छा, भेजना मिलाप, खाने की रुचि । बुझ्लुक्षित तव्‌० ( वि० ) भूखा, क्षुधित, पेटू, पेटार्यू। बुरा दे० ( वि० ) रूराव, दुष्ट, नीच, अधम, निकम्सा: “कहना ( वा० ) निनदा करना, कल ब्वित करना, दुर्यश फैलाना ।--चीतना (वा०) अ्रछुभ चाहना, किसी की घुराई चाहना, बिगाड़ चाहचा ।--बैदा खोदा पैसा समय पर काम श्यातः है (बा०) किल्ली प्रकार की भी घुरी चस्तु क्यों न दे समय पर काम 'ब्राती है ।--मानना ( बा० ) झपसच होना, अपमात्र समझना, द्वेप साला ।--लमना ( था० ) कष्ट दाना, अचुचित सालूम होना | घुराई दे० ( ख्री० ) दुषता, नीचता, अधमता, खेटा- पत्र, झुरापन ।-पर कमर वाँधना ( ४०) अ्रश्ठुभ करने के इद्यत डोना, कष्ट पहुँचाने व्ही सेष्टा करना | लु्झ ( पु ) घरदरा, मीनार । घुलचुजा दे (४०) खदूब॒दा, पानी का दुदूब॒दू, इला | दुलाना दे० (क्रि०) घुकारवा,हाँक सारता,साहाय फरना | चुलाहड दे० (स््वी०) आह्वान, पुकार, ढाकना । चुल्ला दे? (३०) चुदुड॒दा, बुलब॒चा । बुदनी दे ० (स्ली०) पहली विक्की । बुहरी दे० ( जी० ) मूँने जे । चुद्दारना दे० ( क्वि० ) माइना, घुद्दारी क्षयाना, साफ घुद्दारी दे” ( खी० ) माड, चढ़नी, यढ़नि । बुआ दे० (स्त्री०) बद्धिन, भगिनी, पिता की बहिन, छुछ्ू, छूथ्रा । चुई दे० ( क्र० ) भव सूचक, डराने का शब्द | [टपका | बूद्‌ ( खी० ) बिन्दु, जलऋण, जजविन्दु, छींटा, बूँदा दे” ( ६० ) बड़ी बूँढ़ ।--वधाँदी ( बा* ) पानी बरसला, धीरे घीरे पानी पड़ना, सीसी गिरना | बुँद्वी दे” ( ज्वी० ) चृष्टि, वर्षा की दूँदढ, एक परदार फी मिठाई । [चूरन करना। बुकना दे० ( क्रि०) पीक्षवा, छुंदवा, चूर्ण करना, चूका दे* ( पु० ) चूर्ण, छुकची, सफूफा धूच्ो दे० ( वि० ) फनकटा, कर्णद्वीत, जिसके काम न दो, या कट गये दो । पू्त दे० (स्री०) समर, दुद्धि, ज्ञाच, पदिचान, आह | ( क्रि० ) समस्त कर, जान कर | [छिबता । बूकता दे० (क्रि०) समझना, हृदयक्ृबस करता, जानना, बूकाई दे० ( खी० ) शिक्षा, सीख, परिचय, ब्रक्तावद । बूढ दे० (पु०) अन्न विशेष, चणक, चना ) [काम चूा दे? (पु०) बेऊ,कपड़े में सूत का या तार का बना बूटी दे० (स्री ०) छषेटा बड़ा, जड्ढी, मूरि, औपध | चूड़ना दे" (क्रि०) हवना, सप्न दाना, जन में हृतना । चूडिया दे० (वि०) दूवने दाल्ल, जल में गिरी बचत को छूब कर निकारन वाल्मा,पनछुछ्त्रा, ग्रेताख़ोर चूड़ी दे० (स्वी० ) भाले की नेक, चढाँ की घार, शाले का फ़लछ । घूढ़ा ( पु० ) इड्ध, छंडूडा | ( वि० ) पुराना, प्राचीन, अधिक दिन का, अधिछ सम्रय का +-घाग ( बा० ) बहुत बढ़ा, छुटा, चात्ताक | घूढ़ी ( ५४६६ ) चैना बूढ़ी ( ख्री० ) बढ़िया । ) चेटवा दे (पु० ) टड़क्ा, पुश्र, बेटा । धूता दे० ( पु० ) शक्ति, सामस्‍्ये, चल । [ धद्दिन । | बेटा दे० (प०) पृष्ठ, लड़रा, घोड़ा, सन्तान, सम्तति। बूबू दे०।( स्री०१) बदिन, भगिनी, छोटी बद्विन, दुछारी , बेटिया, बैटी दे० ( खी० ) पुत्री, वनया, दुद्धिता, धूर दे० (सी०) भूसी, घिलका, बेराई, अन्न का कण । * ल्ड़ी । दिकन। +-के लडडू ( वा* ) एक प्रकार की मिठाई का. बेठन तद्‌ ० ( घु० ) बेन, ठपेटन, खोल, भ्राष्छादन, नाम ।-फे लड्डू ज्ञो खाय से भी ,पछुताय घेड़ दे” ( ६० ) घेरा, वादा, में । के मन खाय से भी पहुवाय ( छो० उन ) जिस वेड़ा दे (घ०) घरनई,घौधड़ा,घटला,वावों या जद्ाजों काम फे करने से फुदू विशेष फल्न न हो, चैसे काम का समूह ।--पार लगाना (वा०) हुए से डझदार जो देखने से भच्छे मालूम पढ़ें पर उनका फछ करना, दुःख दूर करना ।-पार द्वोना ( बा० ) कुछ नहीं। सय दुःखें से घुटना, मनोरथ सफल्न होना ) बूरा दे० (प०) साफ़ की हुई साँह, डक्ड़ी का चूरा, | घेड़िया दे० (स्त्री) जाति विशेष । झारा से ढकईह्दी चीरते समय भी बारीक चूरा | बेड़ी दे० ( स्त्री० ) बन्धन सूत्र, पैडड्ी, पात्र विशेष, निकलता है । , जो सींचने के काम में आता है। वे दे० ( ० ) भ्रदे, भरे, भीच सम्वोधन। | घेडौल ( वि० ) घदशक्क, कुरूप । बेंग ( प० ) भेक, मेंढक । । बैढ़ना दे० ( क्रि० ) धैरना, बाढा वाँधना । घेंढ दे० ( प० ) किसी थस्र का मूठ, हधकंढ़ा, दसा। | बेढव ( वि* ) मद्दा, कुरूप। चेंड़ना दे" ( क्रि० ) पकड़ कर बन्द करना | बेढ़ा दे ( घु० ) कठघरा, कटरा । चेंडा दे" ( बि० ) तिरदा, वाँका, बक्, टेढ़ा | ( गु०) | बैण, बेर तदू» ( प० ) दशी, पाँसुरी, सुरजी । अर्गल, किचाड घन्दु करने की छकड़ी। चेत तदू ० ( स्प्री० ) घेन्न, एक प्रकार की टक़ी जो बेंधना दे० (क्रि० ) विधना, चुसाना, गाढना । लचीली द्वोती है। पथा-- अधर्म, भविभ्वास | सूरख हृदय न चेत जो गुय मिल्ह्टि विरधि सम ।? बेकार ( वि० ) दिना काम, निरप्रयोजन; व्यथ | --रामापण । घेग ( पु० ) तेजी, शीघ्रता। चेद्खल्त ( वि० ) भधिकारच्युत, चहिप्कृत, निकाला बैगार दे* ( पु० ) दिगा मजूरी का काम, यू पूर्वक हुआ । [पका डुधा । किसी से काम सेना और मजूरी न देना था थोड़ी | चेदम (वि० ) बिना दस का, थड्मा हुआ, भश्न्त मजूरी देना पड़ना (वा०) जबरदस्ती बिना । घेदसिरा तद्‌० ( घु० ) एद्ध मुनि का नाम | मजूरी के काम कराने के क्षिपे पक्ढ़वा, जबरदस्ती | घेदिका था येदी तद॒० ( स्प्री* ) स्थग्डिल, कमेंधाण्ड किस्ती के काम करने हे लिये याध्य करना | | के विषय में यज्ञादि कर्म के लिये रेश निम्मिंत घेईमान ( वि० ) भूछा, अविध्वासी ।-नो ( स्त्री० ) ! «कूछे, फरे न वेत पद॒पि सुधा परसदिं' जबद, घेगारो दे० ( स्ली० ) बेगारी का काम, सेठमेंत का धुक छोटा सा चबृतरा | [ साछ । __ काम । चेघ तद्‌० ( घु० ) नदत्र युक्त योग पिशेष, घिदर, भेद, बेचना दे० (क्रि० ) विश्री करता, सोलर खेझर देना, | ब्रेघड़क दे० ( वि* ) निर्मय, मय थ्ल्प, निढर, दाम खेकर देना, भदला वदुछा करना, ददुलौधल निघदक । [ गढ्ठाना, खुमाना। करना | चेघना दे० ( क्रि* ) पैदना, गॉँसना, फोड़ना, भेदना, बैचारा ( वि० ) दुग्गिपा, बघुर, असद्वाय। घेत तदू* ( स्प्री० ) देश, बॉसुरी, शी । चेयू दे* ( प० ) घेचने वाद्य । चैता दे० (१०) पद्धा, पॉस का यना हुआ पद्धा ।-० बेज्ू देन ( ए० ) हन्तु विशेष, नकुछ, नेश्टा ॥ वंदिया दे० (स्प्री६ ) पूरक झुमाना भामूषण जो चेसी दे० ( पु० ) लक्ष्य, निशाना, ताक, चिन्द । मारे पर घारण किया जाता है। चैनी ( ४६७ ) चैतरनो बैनी तद्‌० ( स्त्री० ) बेणी, चोटी. जूड़ा, किवाड़ में लगाया जाने बाला एक काठ । [धीनता । बैवल ( वि० ) परवश, पराघीन ।--ी ( स्त्री०) परा- बेबाक ( वि० ) घुकता, परवशी । घेमात सद्‌० ( स्त्री० ) ब्रिमाता, सौतेली माल्या । बेर दे० ( छु० ) एक घुछ और उसके फल का नाम, बद्री बत्त, बदरी फल । ( स्त्री० ) बार, अवसर, विलम्ब, बेला ।--बेर ( अ० ) वार बार, अमेक बार, श्रनेक समय, वारम्बार +--अभयानक (छ०) भयानक शरत्रि, प्रढय की रात, झूत्यु की रात | घेरी दे० ( स्त्री० ) यैर के साड़, बदरी वन, यैरकंठी । घेल दे० ( छु० ) बृटा, खूत या तार से बनाया हुश्ा कपड़े पर का क्षाम, कटिदार एक वक्त और उसके फक्ष का नाम । (स्त्री०) [--दार (०) फाबड़ा चढाने वाला मज़दूर । [रोटी पोई जाती है। बैलन दे० (क्रि०) स्वनाम प्रसिद्द वस्तु विशेष, जिससे बेलना दे० ( क्रि० ) फैंडाना, बढ़ावा, रोदी पीटना। बेलनी दे० ( स्त्री० ) दहनी, शाखा, छूता | [काम ! बेल बूदा वे * (घु० ) चित्रद्धारी का काम, सुई का बेल्ला दें" ( छु० ) पुष्प विशेष, एक सुगन्धित घुष्ए और उसके पेड़ का नाम मोती का फूल, कठोरा, वाह्य विशेष, यह बाजा आकार में सारज्ी के समान होता है, बंगाली लोग भ्रधिक बजाते हैं! [सके । बैलि दे० ( स्त्री० ) लता, पौधा जो खर्य खड़ा न हे बेलू देन ( प० ) छुड़कन, जुढ़काव | चैज्लो दे० ( वि० ) उदासीन, मकान, निराश, हताश ॥ बैल्तौस दे० ( वि० ) कीसी का पक्तपात न करने बाला, स्प्वक्ता । [ सूखंता, श्रज्ञानता । बैवकूफ ( वि० ) अनारी, मूर्ख, अज्ञान ।--ी (स्त्री०) चेवरेवार दे० ( क्र० ) स्पष्ट रूप से, साफ़ साफ, खोल के, प्रकाश भाव से, कमशः, यधा क्रम । चेचहर दे० ( छु० ) ऋण, उद्धार, घार, कजू, लेनदेन । चेवहरिया दे० ( ४० ) ऋणदाता, के देने वाला, उत्तमण्ण, महाजन । [ भधा, परस्पर रीति रसम। चेचहार तदू० (पु० ) ब्यवहार, चाल चलन, रीति, बेबान दे० ( घ० ) विमान, भ्वतक की झरथी | बैसन दे* ( छ० ) चने का आटा | चेसनौरी दे० (स्त्री० ) वेसन की रोटी | चेसर दे० ( पु० ) ताक का एक गहना । बैसरा दे० ( घु० ) पक्षी विशेष, बाज, सिकरा। चेछुरा दे० ( वि० ) अमेल, बेताला, कुक्षान्य, भी आवाज वाला, स्वर से मिन्न गाने वाल्मा । चेस्वा तद्‌० (सत्रो०) वेश्या, पतुरिया, नर्तकी, गगिका नगर नारी, वाराज़ना । येह तद्‌० ( छ० ) वेघ, छिद्र, साल, छेद । बेहड़ दे० ( वि० ) जंगल, घन | चेहना दे० ( छु० ) छुनिया, धुनियाँ, रुई धुनने वाला । चेहोश ( वि० ) अचेतन, चेतना रहित, भूछित। चेहोशी ( ख्री० ) मां । घेंगन दें० (घ०) तरकारी विशेष,बैगन, भटा,ब्न्ताक । बैंगनी भा वैज्ञनी दे० ( छु० ) रंग विशेष, बैंगन के समान रंग । ( वि० ) दैंगमी (ग्ु०) बैंगनी रंग में रंगा हुआ । बैंदा दे० ( छ० ) बेंट, कुरहाड़ी फी मूँठ, हथकड़ा । ब्ेंदा दे० (पु०) बूँदा, टिकुली, टीका,गोलाकार टीका । चैंदी दे० ( स्री० ) बिन्दु, विकुली । वैकाल दे० ( छु० ) तीसरा पहर, अपराद । चैक्रुएुठ तत्‌० (घु०) नारायण का धाम,विष्णु का धाम । बैमन दे० ( घु० ) देंगन, भटा, ब्न्ताक । चैज्न्ती माल तद्‌० (स्री०) पद्चरद्मी साला, भगवान्‌ की माला, नीलम, मोती, साणिक, पुखराज और हीरा इन रत्ों से बनी माला, बैजन्ती सालां का लक्षण नीचे दोहे से स्पष्ट हैः--- “चॉँसी सीपी सूकरी करी दुरी मठ शाल, पट पट्‌ सुक्ता पोहिये से बैजन्ती साल 77 बैठक दे० ( ख्री० ) वैठका, बैठने का स्थान या रीति आसन, एक प्रकार की कसरत । बैठना दे० ( क्रि० ) आसन मारना, आसन मार के बैठना, उपविष्ट होना, उपचेशन करना, दीवार आदि का गिर जाना, बिना कास के होना । चैठा दे” ( छ० ) बैठा हुआ, चपटा, चिपटा। चैठाना दे० (क्रि०) वैदालना, बैठने के कहना, स्थापन करना, हूटी हड्डी के बैठाना,वैठने की आज्ञा देता । चैठार दें० (छ०) बैठक, स्थिति, पैठार, पैठाब, पहुँचा । चैठालना ( क्रि० ) बैठाना । [नदी, यमद्वार की चदी । चैतरनी या वैतरणी तव्‌० ( ख्री० ) नदी विशेष प्रेठ, बैतरा ( शष्टष ) बाधन बैतरा या वेतला दे० (घु० ) एक प्रकार की सोठ, | वैसासी दे० ( स्त्री० ) अस्त्र विशेष, देर, थूनी । सूखा भ्रदरस । वैसाँड दे० ( बि० ) आलतसी, असकती, आलकसी । बैद तद० (पु०) वैद्य, वैद्यगी फरने वाला, चिक्रिसक। | पीआ।ई दे० (ख्री० ) स्पेत बोने का काम, चीहवपस | वैद्क वद्‌० ( पु० ) वैधक, चिकिसा या शाख, यह | वोझाना दे० (क्ि०) छीटना, खेत बोना, सेत में थी घ्रा शख् जिसमें रोग परीक्षा और रोगों की चिकित्सा छिटकाना । की विधि लिखी है। [ ब्वनि। | खोझारा दे* ( पु० ) सेत बोने का समय, सुकाल | वैन दे ० ( स्त्री० ) बचन, थोली, क्यन, बात, शब्द, | वोशया दे * (स्त्री०) छोटी टोकरी देना दे० ( पु० ) शिरोभूपण विशेष, एक प्रकार का | वोट दे* ( पु० ) डांट, ढट्ठा, उद्छ । भूपण जो माये में पहना जाता है। भाजी, बायन, | घोक दे ( स्त्री" ) बकरे का शब्द, बकरे की चोली । उपहार, थाणी, बचन, बोली, कई वस्तु जो उत्सरों | घोकरा दे० ( घु० ) छाग, बढ़रा, गज । पर विरादरी में बॉटी जाय । बोकरो दे० ( स्री ) छेरी, छाँगी, यकरी, थ्रजा । बैपार ददू० ( पु० ) व्यापार, वाणित्य, व्ययसाय। | वोच दे० (०) जलमस्तु विशेष,गलद,कुस्मीर, सयर । देपासो दे० (प० ) मद्दाजब, बणिक, सौदागर, | वोचा दे? ( पु० ) पाछकी का भेद, पक प्रकार की ब्यवसायी, स्यापार करने वाला । पालकी | चैमान्न तद० ( घु० ) वैमास्य सौतेला भाई । वोम दे० ( पु० ) भार, क्ादी, बोमना ।--सिर पर बैया दे" ( छु० ) पक्षी विशेष। दै।या | ( दा* ) स्सी प्रकार का कटिन काम पैयान दे० ( पु० ) श्रसव, जन्म, उत्पत्ति। [ कराना । भा जाना । धैयाना दें० ( क्रि० ) जन्माना, उत्पन्न करना, प्रसव | बोमेना दे० ( क्रि० ) भरता, लादुता, उठवाता । वेयाला दे० ( ब्रि० ) वायु विशिष्ट, वायु बाला, बादी। | वीमल दे* ( वि० ) भारी, बननदार, वजनी ॥ ग (पु० ) मइसुली, महसुलतलय, यिना टिकट लगा | चोद (श्री०) छोटी नाव, ढोंगी, संस्या्रों में प्रतिनिधि डॉक में भेजा हुआ पत्र, जिसका महसूल पत्र पाने मेजने के किये सम्मति | वाले के देना पढे ॥ वोदो दे० (स्त्री०) मास के दोटे छोटे दुब्छे ।--बोटो देर तदू० ( घु० ) फल विशेष, यदरी फल चैर, होप फर्डकना (था० ) यहुत चालाक दोना। फरेव पिद्लेष, शत्रुता, विशेध ।--पड़ना ( वा० ) करना, फरफन्द करना । दप होना, विशेध करना ।--ल्लेना ( बा० ) बैर | गोठा दे० ( छु ) डठा, फड के ऊपर की उंटी । का बला घुझाना, प्रतिशोध करना। ) ( पु० ) बोंडना दे? ( क्रि० ) छुवाना, बढ़ाना, मत करना । श्र, दुश्मन । बोड़ी ( स्त्री० ) कक्षी, बिना खिदा फूछ । बैरस़ दे० ( घु० ) चैरागी का बेस । [ भूपण । | वोताम ( पु ) बटन, घुटी । बैरफ़ी दे० ( स्‍्थरी० ) स्त्रियों के वाद में पहनने का | पीतू दे* ( पु० ) बहरा, छाग, भन, छागठ | चैरागढ़ा ( पु० ) बैरागी, साधारण, वैष्णय साथ। | वोदली दे* ( स्त्री5 ) मोल्ी, गेगली | ; धैरागा दे* ( पु० ) बैशागी का वेस । बोदा दे० ( वि- ) नियेछ, अशक्त, निर्जीय, अध्मर्ये, चैल दे ( घु० ) बरघ, यरद, छृपभ | नासमक, सूरत धैस ता» ( स्त्री० ) दयस, चयत्पा, उमर । (४० ) | बोद्ध तदु* ( वि ) च्युपपक्ता, बुद्धिमान समझदार । सीसरा ब्णे, थनिया, राजपूत्ों बी एक जाति, | वोध ठद्‌* (५० ) छात्र, सम्रक, बुद्धि, विदेश, मति । चैसवारा प्रास्त के रहने वाले । वोधक तद० ६ घु०) चेघनकर्सों, चाबक, शिपरक, चैसन्द्र तद्‌० ( घु० ) वैश्ञानर, अप्लनि, आग । चताने घाला | बैसाख गद्‌० ( प० ) बैशाख मास, वर्ष का दूसरा | वोघन तद« ( ४० ) [ वधू + चनदू ]शात, बोध, महीना । ! विदेक, समझा बोचना ( #ह& ) मह्म वोधना दे० ( क्रि० ) समम्खाना, चत्तावा, बतलाना + फुसलाना, भुलाना | घोधनीय तत्त्‌० ( बि० ) वोधन करने योग्य, ग्रोषनाह घोधन के उपयुक्त | वोना दे० ( क्रि० ) खेव बोना, बीज डालना, खेत में बीज छींटना । [ का समय । घोबी दे० ( सत्री० ) बोआई, खेत बोने का काम, बोने बोची दे० ( छु० ) माल, सम्पत्ति, गठरी, याँठ । बोर दे० ( छु० ) पैजेब का घूँघर । बोरा दे० ( घु० ) गोन, छाठ का चैला, बड़ा थैला। ( क्रि० ) छुवोया, गर्क किया । .[ यैला, टाट | बोरिया दे” (जु० ) चढाई, पादी, घोरा, बढ़ा बोरों दे० ( पु० ) इख्बघलुप, एक अकार का चावल । बोल दे० ( घु० ) वाद्य शब्द, गीत का शब्द, वात । चोलचाल दे० ( स्ती० ) बातचीत, सम्भाषण, कथन, सम्बाद । [ बाला आणी, जीव । बोलता दे० ( घु० ) बोलने की शक्ति । (वि०) बोलने घोलना दे० (क्रि० ) वात करना, कहना, फथन करना, सम्भापण करवा । घोलवाला वे० ( छु० ) प्रताप, आशीर्वाद विशेष । बोली दे० ( खी० ) बाणी, भाषा, वात +>ठोली झखुनना ( वा० ) ताना सहना । [ तरणी । बचोहित चद्‌० ( छु० ) जहाज, नौका, नाव, जलयान, बौंड़ दे” ( छ० ) मंजरी, बाज । [ चकराना । घौंड्ना दे० ( क्रि० ) लिपय्ना, भवराना, वत्खाना, धौंडियाना दे० ( क्रि० ) बबण्डर के साथ घूमना, चक्कर खाना, घूमना । बोछुार दे० ( छु० ) जल सद्दित वायु का रोका । चौद्ध तब॒० (चु०) बुद्ध मतावलम्बी, बुद्ध मत के अनुयायी । बोचा दे० ( वि० ) वामन, ठिंगना, खर्व । बोर दे० (छ०) मश्नरी, फूल, मौर,वॉड, वाल) बोरहा दे० ( छु० ) उन्मत्त, सिद्ी, पागल, घावला। घोराना दे० ( क्रि० ) डन्मत्त होना, सिद्ाना, पायल होना ! बोरापन दे० ( ० ) पागलपच, उन्मतता । घौराह्या दे० ( छु० ) चावला, पागल, उन्मत्त घोरादापन ( पु० ) देखो “ वौरापद ” । चौजा दे० ( वि० ) पोपला, दुल्तद्दीन । घोहय दे० ( शु० ) पथरीला, कक्रीला । चौहाई दे० ( स्री० ) उपदेश, रोगिणी खो । व्यज्ञन दे० ( छु० ) पंखा । ब्याज ( छ० ) सूद, वियाज । व्यान दे० ( छु० ) विश्वाता, पश्चुओं का असव । ब्याना दे० ( क्रि० ) बियाना, उत्पन्न झरना, प्रसव करना | व्यालू ( पु० ) च्यारी, रात का भोजन । ब्याह दे? ( छु० ) चित्वाह, परिणय | व्याइता दे० ( ज्जी०) बिवादिता,परिणीता, ब्याददी हुईं। व्याहता दे० ( क्रि० ) विधाह रूरना, परिणय करना । व्याहा दे० ( ज्वि० ) ब्याहा हुआ, चिवादिता । जआ्योंगा दे० ( पु० ) पक अस्त विशेष, जिससे चप्तड़ा चीला जाता है । व्योंत दे* (घु०) गरढ़च, बोल, कपड़े की काट । व्योतना दे० ( क्रि० ) कपड़े कादना, कतरसवा । व्येपार तद० ( छ० ) ब्यापार, चाणिज्य, छोनदैन, व्यवसाय, सौंदागरी । च्येषपारी ठदू० ( छु० ) सौदागर, ज्यापारी | ब्योमासुर तद्‌ू ० ( ए० ) एक राध्स का नाम, यह कंस का मस्न्नी था | ब्ये।रा दे” ( छ० ) सप्ताचार, चुत्तान्त | व्योद्दार तदू « ( झु० ) ज्यवद्वार, व्योपार । ब्रज्ञ तत्‌* ( घु० ) गेकुच नामक गाव, गो (--बाला ( स्त्री० ) ब्रज की खी, गोपी, ग्रेपिका |-भसाषा ( स्ो० ) बज की यात्री ब्रह्म तच्‌० ( छ० ) वेद, तप, तपस्या, विराट द्विरण्थ- गर्भ, ईश्वर, जगल्ऊकर्ता |-- कुण्ड ( पु० ) मद्मा का चयाया सरोवर विशेष, तीर्थ पिशेष (--घाती ( छु० ) ब्राह्मण मारते चाहा, ब्रह्मदत्याकारी | +>चर्य (छु० ) धघाश्रम विशेष, प्रथम आश्रम वेदाध्ययद करने का खमथ, अत विशेष ।--चारी ( छु० ) प्रथमाश्रमी, यज्ञोपवीत के अ्रवन्तर नियम- पूर्वक ग्रुरुकल में चेद/भ्यास करने वारछा ।-शे ( गु० ) अज्मज्ञानी, आध्मतत्वज्ञ, वेद, चेदवित्‌। “ज्ञान ( छ० ) परमार्सा विषयक ज्ञान शु्य € पु० ) वेद वाधित कम्मे ।--तत्व (पु०) श्राव्म- छाँंट, फाट, भं €_ हैं?० ) तप्व, प्रह्मपमे, अद्मास्वह़प, अद्धाश्चान ।--तीर्थ (० ) पुष्छरमूल |--भोजन ( पु० ) ब्राक्मयों के खिलाना ।--पुरी (ख््रौ० ) सुमेरु पर्वत पर प्रद्या की पुरी ।--भूति ( स्ली० ) वेदाधिकार, ब्रक्ष ऐश्वर्य, ब्ह्मठेज, प्राद्यण का घमे --यक्ष ( पु० ) घेद पाठ (“योग ( घु० ) परमेश्वर प्राथेवा, भक्ति, उपासना ।--रन्थ्र ( छु० ) मस्तक का मध्यस्थान ।-सात्तस (छ० ) भूत विशेष, येनि विशेष रात्रि (स्त्री ०) भद्मा की रात, जिसमें १००० थुग द्वोते हैं. मनुष्यों के २३६०००००० वर्ष बीत जाते हैं, यद्द रात्रि, जिप्तें श्रीकृष्ण मे रास कीदा फी थी ।लीक ( ५० ) ऊच्वेले।झ विशेष, ध्रद्ग। का निवास स्थान ।--वादी ( ३० ) चेढ़ात्ती, मद्दाहानी |--अ्रव (६०) वेद (--सूत भक्ति ( ६५० ) यज्ञोपवीत, जनेऊ, वेदान्त सूत्र ।-दप्या (स्री० ) बाह्यय की हत्या । ब्रद्मर्षि तत्‌० ( घु० ) वेद मन्त्र क्रष्ट। झाद्यण, ऋषि । -देश ( छु० ) झायावते, कुरदेत्र । ब्रह्मा देन ( घु० ) देश विशेष, यह्माब का पूर्व का देश, विघाता, इश्वर॥ ब्रह्मायड तत्‌> ( पु० ) जगव, संखार । प्राह्म दे० ( पु०) धचस्मा, आश्ये, धाद्मों की समा । >-मुद्दर्त ( प० ) सूपेंदिय के पढले की 'चार घड्ठी। प्राह्मण तत्‌ ( पु ) पदल्वा वर्णे, विप्र । ब्राह्मणी ठत्‌० ( स्री० ) विश्रपत्नी, साक्षण कीसख्री। ब्राह्मयथ ठद्‌" ( पृ० ) ब्राह्मण का घर्म, प्राह्मर्यों की समा, सातर्त्रीं ग्रद । भर भब्यक्षर का दौदीतर्दा द्य, भोछ स्थान से उचारण होने के कारण इसे भ्रोप्द्य वर्ण कहते हैं । मे धत्‌० ( पु? ) भरिवेती झादि खत्ताइस २७ नपन्र, प्रद, राशि, अमर) आान्ति, श॒क्राचार्म | मंगड़ या मेंगडी ( विज ) साँप पीनेवाला । मँगरा ( पु ) पद्दी विशेष । मंगिन ( स्थरी० ) संग्री की स्री, मदतरानी मेँगी (पु० ) मेहर | भेंगेरा ( पु० ) माँग बेचने चाढा | मंगेरिन ( स्ली० ) भाग बेचने वादे की औरत) भेजना ( क्रिए ) जोड़ना, टुढुई डुकटे करना । मेंदा ( पु० ) बैगन । मद (६० ) मसपूरा, नौच, बेदया | भेड़ा ( पु० ) मदझ्ा, मिट्दो का दना । मअंठमास दे० ( पु० ) अग विशेष । भंढेला (घ० ) मससरा, माड मंडोचा (६० ) फछढ़ । ममुझा (५०) वह फडीर जो भूछ के कारण छूटे मारे। संभेरता (दि०) कादना, कारखाना, कु्ते का काटना, फाड़ खाना | मँवर दे० (३०) मी) भावतं, चसर (--शजी (फ्री) गढाची, डोरी, एक छोदे की कही विशेष । मँवरा तद॒० (पु०) अमर,एटपद । मंचेरी तद्‌० ( स्तो० ) अमरी, पितिरी । मेंसार (६०) मार । भई दे० ( क्रि० ) हुई, दोगई, ( घ० ) भाई, मैया । भवयसी दे० ( ख्री० ) भर्धेरा घर, गुफा, खोइ । भकुया,भकुखा दे? (वि०) निदुंदे, छण्ठ, मूखे, मो । भहुवी दे० (वि०) मूर्ख स्री,निवुंद प्री । [सह दोना । भकुयाना दे० ( क्रि० ) भद्ूचकाना, सुछाना, क्तम्प- भऊोसना द० ( क्रि० ) साना, दत्त दूत कर खाना । भक्त ठद्‌ « ( वि० ) [ मम्‌+क्त ] सेवक, तर भसुू गत, मात, ओदन ।--कार (पु) पाचक, रसेइ- यादार | घरसल-- ( 9० ) भक्तों पर दवा करने वाला, सेवऋ, सुखद । मक्ताई दे० ( श्ली० ) सक्ति करना, पर्मेरवराजुराग भक्ति तद॒* ( ख्रीन ) [ मनत्‌ कि ) परमाव्या में परम अनुराग, झाराधना, उपासवा, प्रीति, विश्वास, सेवा, अ्रद्धा, चनुरक्ति, श्रवण, कीर्तन, धचन, बन्दन, स्मरण्य, निवेदन, सफ्य, दास्य भौर सेवन ये सक्ति के नी मेद हैं ।--बर्त (३०) मऊ, पूजक, सेवक | भन्च (्‌ है०१ ) सगीस्य भक्त तव्‌.० ( ५० ) भद्प, मोजनीय पदार्थ, खाने योग्य वस्तु, झाहार, भोजन । भक्षक तत्‌० (० ) [ भक्ष+ यक्ू ] खाने वाला खादक | [ भोजन करने की चस्छु । भक्तण तन्‌० ( पु० )[ भक्त + अनट ] मोजन, आहार, भक्तणीय तद्‌० ( गु० ) [ अच्+ अचीय ] भोजनाई, भोजन योग्य, भोजन करने के उपयुक्त । भत्तित तत्‌* (ग्रु०)[ अछू+- इत ] खाया हुआ; खादित । [सोजनाहईँ, भोजव के उपयुक्त । भक्त्य ठत्‌० गु० ) [ भक्त +य] भक्षणीय, खानेयोग्य, । भग तत्‌० ( पु० ) खीचिन्द, योनि, इच्छा, चाट, ज्ञान, बैराग्य, क्रीतिं, साहासम्य, ऐश्वयं, यत्न, धर्म, सोक्त, यश, सौभाग्य, शोभा । भंगण तत्‌० (पु०) नक्षत्र समृह,नछत्र मण्डल,गण बिशेष, अक्षर छुस पद्म में तीम तीन अ्रज्तर के एक एक गण होते हैं, भगण सें आदि का अक्षर ग्रुरु होता है जैसे-शघब, माधव चायर थादि। । भगत तदू० (४० ) भक्त, भक्ति करने बाला, नर्तक, बत्यक, नचनिया |-खेलना (वा० ) स्वॉग रचना, रूप इतारता । (छीखी। भंगतन दे ० ( स्ती० ) वेश्या, पतुरिया; नर्तकी, भक्त भगताई दे० ( स्त्री० ) भगतपन, भक्त का कर्म, भक्ति। भगतिया दे० (9७० ) गवेया कथिक, ज्ञाति विशेष, क्र्थक | मगदृत्त तत्‌० ( 8० ) प्रागृज्योतिषपुर, वत्तेम्ान आसाम के राजा का नाम, यह नरकराज का ज्पेष् पुन्न या । सुधिषप्ठिर छे राजसूय यज्ञ के ससप इसने अजुन से ८ दिनों तक युद्ध किया घा। युद्ध में हार कर यह युधिप्ठिर के शधीन द्ो बया था। सद्दा- भारत के युद्ध में दुर्येधन की ओर से इसने बड़ा भयड्टःर युद्ध किया था। द्रोणाचार्य फे स्लेना पतिस्व में यह अज्ुन ले छड़ता रहा और उन्हीं के दा से मारा गया । इसने अजजुन के मारने के लिये वैष्ण- वास्त्र का अ्रयोग किया था, परन्तु श्रीकृष्ण न उस अस्त्र को अपनी छाती से रोक किया इससे उसका अस्त व्यर्थ गया । भगनदर सत्‌० ( ५० ) रोग विशेष, एक रोग का नाम गुदा के श्रास पास का नासूर ! भगल्ल दे० ( छु० ) छल, कपद, घोखा ! भगलिया दे० ( घ० ) छली, कपटी, ठय। भ्रगवत तद० ( घु० ) भगवान, परमेश्वर, नारायण १ भगदन्त तदू० ( पु० ) इैश्वर, परमेश्वर । भगवाँ दे ( पु ) गेरुन्ना कपड़ा, कापाय वस्त्र | भगवान्‌ तद्‌० ( छु०,) पद ऐेश्वर्य युक्त, वारायण। भगाना दे० ( क्वि० ) हटाना, हकाना, खेदुना खदेड़ना; दुरहुराना । भंगिनि या समियोीं तत्‌० (स्त्री० ) बद्दिन, वहन, दीढी, सहोदरा, भर्ती । भगीरथ तद» (पु० ) सूर्यवंशोय दिलीपराज के पुत्र और अंश्युमान के पौन्न । राजा दिलीप भगीरथ को राज्य देकर तपत्था करवे के लिये द्विमाक॒य चले गये, वहां बहुत दिनों तक तपस्या करने के परुचात्‌ उन्होंने शरीर त्याग किया । राज्य पाकर भगीरथ सेचने लगे कि किस प्रकार स्वर्ग से गद्ञा लायी जा सकती है । भगीरय अजा हितैपी धर्मात्मा राजा थे, तथापि उनके कोई पुत्र नहीं था। थे सम्सध्रियों के राज्य सौंप कर गड़ग के लाने के क्षिये निकले । हिमालय के ग्रेकाएं तीर्थ पर ऊध्वैबाहु हे! कर वे तपस्या करने गे | उनकी तपस्या से सन्तुए दे कर बर देने के लिये ब्रह्म जी आये, उनसे दो वर देने के लिये भगीरथ ने प्रार्थना की । (१) कपिल के शाप से भस्म हसारे साठ हजार अपितामह गज्ञा जल से पवित्र होकर स्वर्गवासी हैं। । (२) हमारा वंशल्लेप न हे। । बह्मा जी ने प्रथम बर के प्रार्थना के उत्तर में कह तुम्हारा सतोरथ पूर्ण द्वागा, परन्तु गद्ग के गिरने का वेग प्थिवी सहन नहीं कर सकती, अतयुव ॒तुस महादेव की आराधना करो, वे यदि गज्ञा के धारण करना स्वीकार करेंगे तब तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा । दूसरे वर के लिये उन्होंने कहा छुग्हारे बंश की रहा दागी, भ्गीरथ ने भहादेव की आराधना की, महादेव प्रसन्न हेकर गज्गञ का चेग धारण करने के लिये मस्तुत हुए । महादेव के अस्तक पर बड़े चेंग से गड़ग का श्रवाह् गिरने लगा, गड्जग ने चाहा कि अपने तीम्र वेग से महादेव को पाताल में लिये चल्ली जाऊँ। गद्गभर का यह अमि- प्राथ ससक्त कर महादेव ने गद्मा को अपनी जद श० पा०-२०६ भगेल ही में रोक रपा । एक वर्ष तक गद्गा चही घूमती रही । पुन. भगीरथ के स्तुति करने पर महादेव ने गद्गा के अपनी जद से वाहर नियाल दिया। गद्ढा की सात घारायें निकली, जिनमें तीन पर्व की ओर तीन परिचम की ओर गयीं । सातवां प्रवाह भगीरथ के साथ साथ चला, भगीरथ पेंदल धारा के साथ नहीं चल सकते थे, इस कारण उन्हें एक रथ मिला। सगीरध के साथ चलने वालो गद्धा की घारा का नाम भागीरथी हें । भगेल दे० ( स्त्री० ) पराजय, हार । (पु०) भगोद़ा, भागने वाला । संगेड हें? (वि०) भाणने आाल्य भग्रेल, भरैया! भग्गुल दे" (वि०) भगाह । ( पु० ) दूत, हरकारा । भग्यू दे० ( वि० ) भगेडा, इरपेक, बुज़ठिल भग्न दत्‌० ( वि० ) पराजित, ब्रुटित, चूणित, द्वटा हु या, नह्अ्रष्ट । [ खण्विव माय + भग्नांश तत>» (पघु० ) भाग, हृटा हुआझ्ा हिस्सा, भग्नाशा तत्‌० ( वि० ) निराशा, हताश, जिसकी भाशा भट्ट हुई दो, हतमनेारप। भट्ठू दव० ( ० ) भेद, सण्डन, टूटा, ताक बमि, छ्दर, पराजय, रोग विशेष, कौटिक्य, छुटिलता, भय, रचना, बेर बूढ़े काढ़गा। ( स््री० ) एक प्रद्चार की पत्ती, नशीज्षी पत्ती । भड्ूनं, या भगत दे० (स्री०) मेदतरानी, इटाक्षजोरिन, भट्ठी की खी । [ का नाम । भ्तता, भगना दें० ( ख्ी० ) एक अकार की मछली भ्ठा दे? ( पु ) भाँग, पश्चि विशेष | भद्भार दें ( घु० ) भप्तरा, भज्ञारा, जदी विशेष । भचऊ दे* ( वि० ) धन्नढ्ा, अ्चरिमत, विध्मित, आश्वयित ] भथकगा द७ ( छ्वि० ) भ्रचम्मित या विस्मित दाना, डिगश का चलना, छत खाऋर चटना | भेचके सत्‌ ( पु० ) नदग्न मण्दक्, राशि चऋऊ | भच्छन तदु० (ए०) भद्णथ, शादार, भोजन मेबनार | [ जेंउते ई, ब्ाइग करते हैं । भनछृट्टि है? ( क्रि० ) लाते ईं, भोजन ऋरठ ईं, भरजई दें? ( घ० ) भजद हो सेरे, स्मरण करे ध्यान को, नाम स्मरण करे । ( ६०२ ) सदिच्नि भजन तदु० ( घु० ) स्मरण, कीतन, ध्यान, निरन्तर स्टन, जप, सान ।.[ स्मरय करना, भागना। भज्ञना दे० ( क्रि० ) ध्यान करना, ध्याना, जपना भजनोऊ दें० (पु० ) अचक्, पूजक, मननकताँ, भजन काने वाला । [ करते हैं। भजहिं दे० (छ्रि० ) भजते हैं, सुमिरते हैं, स्मरण भजहु दे० ( क्वि० ) भजो, भजन करो, स्मरण करों, सुमिये । भजामद्दे तत्‌० (क्रि०) इस लोग भजते हैं। रिट्के । भज्ि दे० ( श्र० ) भजन करके, स्मरण करके, भजके, भजि ज्ञाना ढे० ( क्रि० ) मागना, चग्पत देना, हटना, लुकना, दिपना । भज्ञिय दे० (क्रि०) स्मरण कीजिये, सुमिरिये, भागिये, भागना चाहिये, हृट जाइये, हटना चाहिये । भज्जी दे” (क्रि० ) सुमिरन फरो, स्मरण बरो। ( ख्री० ) दौडी, भागी ! भज्ञे दे? ( क्रि० ) भजन करने से, स्मरण फरने से। भज्ञेक ततु० (वि०) भजञञनकर्तता, तोइनेवाला । भजन तत्‌० € घु० ) ताद़न, भाँगना, नष्ट करना, नाश फरना ।--हार (गु०) तैढ़ने घाला, हटने बाला, नाश फरने पाला। भज्जञाना दे० ( क्रि० ) भुनातां, बदलघाना, रपया तुड़ाना, गदना तुड्ाना। मस्त, शद्‌० ( वि० ) खगणिडत,चूर्णित, तेढ़ा हुआ । भदः तव्‌० (५०) [ भट् + अ्रच्‌ ] योद्धा, वीर, लड़ाका, बहादुर, शूर, मल्‍ल, पहलवान, वर्णसक्षर जाति विशेष । भठई दे० (सत्री०) गुणगान, धान, स्तुति, सिध्या प्रशसा, भोंदों का काम, भाँयो या व्यपहार । भटठकना दे० (क्रि०) बहकना, भूलना, श्रम में पडना, आस्त हैोना [में डालना, टराना! भय्काना दे ( क्रि० ) भुखाना, झ्लावा देना, अम भठकोला दे० (वि०) भययुक्त,ढरावना,मठवने घाता। भटठपड़ना दे० ( क्ि० ) अभागा द्वाना, गिर पदना। मब्भेरे दे० ( छु० ) घाद प्रतिघात, धकमघका, घक्का घुकी । मदिच्रि रत» (पु०) शूली पर पक्र माँसादि, दग्य मास, जलाया मास, कवाव, सलाइयों पर भूता माँस। भदियारा ्‌ भव्यिारा दे० ( पु० ) एक जाति विशेष, सुसलमानों का खाना पकाने घाली और सराय से सुसाफ्रों को उहराने वाली जाति, संस्कृत में इसे अष्टकार कहते हैं। भट्ग दे० ( ख्ी० ) सखी, अण्त्रिनी, प्रिया। चथा-- “देखि के भट्ट को में लद्द हैं रहा शिवनाथ ओढ़े पीत पद्ट सो अठा पै वाल झाड़ी हैं । भट्ट चत० (ए० ) जाति विशेष, भाद, सीमाँसादि शास्त्रदेत्ता, दक्षिणी ब्राह्मणों का एक आस्पढ | “-नाराग्रण (०) संस्कृत के एक सिद्ध कवि । इनका बताया वेणीसंहार नामक एक नाटक है । राजा आदिशुर के समय में मध्यदेश से जे। पाँच आरक्षण बड़ा गये थे, उसमें भटटनारायण भी हैं। छा० राजेख्दलाल मित्र महोदय आदि शूर का ही नामाल्‍्तर घीरसेन वतलाते हूँ । बीरसेन का समय $८ थीं सदी निश्चित हुआ है। भद्टनारायण | का थनाया प्रयागरल् नासक दूसरा अल्थ है। भव्दूनारायण के पिता का चास भव्य सहेश्वर था। --क्षोल॒द (एु०) कास्मीर विवासी संस्कृत कवि, काव्य प्रकाशकार मे अपने रसनिरूपण में इनका मत डद्छत किया हैं। राजाचक सप्पक ने भो अपने अलक्षारसर्वस्त में इनका मत उद्छत किया है । ऐसी दशा सें यह ते। कह ही नहीं जा सकता कि इनका कोई भी ग्रन्थ नहीं था। परन्छ डस अन्य का पत्ता नहीं हैं । काक््यप्रकाशकार सम्मठ अट से ये ग्राचीन हैं इसमें सन्देह नहीं। ते भी 49 वीं सदी के पढले के ये नहीं हे सकते । यह विद्वानों की. लस्मति है। इनके दीक समय प्छ निर्णय करवा विद्वानों ने असम्भव साना है । भद्दार तत््‌० ( छु० ) सूर्य, रवि। ( गु० ) पूल्यनीय, झान्य, पज़यपाद । भट्टारक तव्‌० (घु०) नावकोक्ति में राजा को कहते हैं । देव, सूर्य तपेवन वार ( छु० ) रविवार, अतवार ॥ [सम्बन्धी उपाधि । भट्टाववार्य तत्‌० (घु०) वड़ालियों का आरपद, विद्या भद्दकल्ठठ तत्‌० (घु०) काश्सीरी परिडत, इनके गुरु का नसा बसु गुप्त था, बसु गुप्त के रचित अल्थ का नाम हपन्दकारिका है। उसकी स्पन्द सर्वेस्च ६०३ 3 भड़क नाम की टीका भव्टूकल्लद ने बताई है। थे काश्मीर के राजा अर्वन्ति वर्मा के समकालीन थे। राज- तरजझ्णी के अनुसार इनका समय £ थीं सदी सालूस होता है। श्सिद्ध अलक्षारिक सुकुल इनके घुत्र थे। ये शैद थे। भट्टोन्‍्पल वत्‌० (पु० ) प्रसिद्ध ज्योतिर्देया, बराइमिहिर के अन्यों की इन्होंने टीका लिखी हैं। केवल घराह मिहिर कृत पद्मसिद्धाम्तिका टीका इनकी धलाई चहीँ मिलती, इसका जो कारण हो। प्राचीन ज्योतिषियों ने इन्हें भद्नेत्पल लिखा हैं । परन्तु ये अपने को केवल उत्पल्त ही लिखा करते श्रे | दृष्ठत जावक की दीका में इन्होंने अपना ससय मपद शाक्रे अर्थाव्‌ ६६६ ई० लिखा हैं । अद्दोद्धव तत्‌० (छु० ) कारमीरी पण्डित थे, थे काश्मीर के राज्य जयापीड़ के सभासद थे । महाराज जया- पीढ़ का राज्यकाल सं० ७७६ से खेकर र७२ ई० तक था । अतएव उनक्हे सभासद का भी झवीं सदी का आरम्स ही समय साना जा सकता है। अल्- झाससारसंभद्द नामक अन्य इन्होंने वाया है), जिसकी टीका अतीहारेन्द्रराज ने रुची। कृसार- सम्भव नामक एक काव्य भी इन्होंने रचा था, परन्तु उसका इल समय पता नहीं । कुद्ननी भत- कर्सा दासोदर गुप्त चामन आदि परिछत इनके “समय के हैं। व्याकरण अलक्वार में वे अस्यस्त निएुण पण्डित थे। काब्य प्रकाश के टीछाकारों ने इन्हें कहीं कहीं उद्धट, कहीं उन्नद भट्ट और किसी स्वाच में उद्भटाचार्य भी लिखा हे । अलक्षार सारसंग्रह और कुमारसम्भव काव्य इन दो पुस्तकों को छोड कर अन्य पुस्तकों का पता चहीं मिलता । भ्द्ठी दे० ( स्री० ) भाड़, पञावा, बडा चूरहां |-- अठाना दें० ( क्रि० ) तोपना, गाइना, छिपाना । भठियाया दे० ( क्रि० ) नदी की घार पर बहना, धार से बदसा, झुंआ आदि भठदा देवा । भटठियारा दें० (5०) जाति विशेष, सराय् का स्वासी। भटठियारिन दे० ( ख्ी० ) सठियारे की झी भठियाल दे ( वि०-) वहाव, घद्यव, प्रवाह । भड़ दे० (पु०) बड़ी नाव, डोंगा।. झिफक, चौक । सड़क दें० ( स्री० ) चमक, कप्तक, शोभा, घवराइट भड़कना भड़रना दे० (क्रि० ) चमकनां, चौस्ना, सिफरकता । भड़काना दे* (क्रिं० ) चमकाना, चौझवा, फिम्ह- काना, विजराना, घबरढ़ाचता । भइकी दे० ( खी० ) घुड्बी, उरपाव, सभकी । भडकोला दें० ( गु० ) चटवीला, सजीला । भड़फेल दे० ( गु० ) ज्लली, अ्रवपरचा । भट्टड़ू दे० ( गु० ) सरल, सीधा, अकपटी, निरद्धल । भड़भड़िया दे० (पु०) फइफड़िया, जलदवाज़ उतावला। भड़भूजा दे" (०) कॉदू, भूजा,भूजने वाला, मूर्जी भट्रिया दे" (प०) छली, गोनहा, जाति विशेष, जो द्ाथ देखने का काम फरते हैं । तीथी में यात्रियों को दर्शव कराने वाले व्राह्यण विशेष शनिचरा आाह्मण जो निषिद्धदान लेते हैं। भटसाई दे* (खत्री० ) भाड़, भट्टी, बढ़ा चूल्दा, भूज़े का चुहहां, सरभाइ । [करके खाने वाला । भड़िदा दे० (पु०) चशेर, चाटने बाला, चोर, चोरी, भड़िदाई दे” (स्री०) छुटनाई, कुटनापन। चोरी, दग़ा, धोखा, कपठ, छल, ठयदाई, भडियापन, यथा “ सी दशशीश खान की नाई' । इत उत चिते,चला भड्िहाई ! ” रामायण । भइ्ज्या, भड्या दे? ( पु० ) वेश्यापुत्न, वेश्या के साथ है रहने बला, कुटना ।. दिने घाला, फिरायेदार । भईठैंत दे० (०) माहे के मफान में रहने घाला, सादा भणन तत्‌० ( प० ) [ भगू-+अनद्‌ ] कथन, पठन, पदना | भणित तत्‌० (वि० ) कथित, उक्त, पढित, पढ़ा हुआ। भगड़ दे० ( पु० ) अष्ट, दुश्वरित्र, नीच चरित्र, भहई करने पाला । भयहन तत ( पु०) प्रवारण, छतन, छुलना, दानव भगण्डा दे० ( पु०) पात्र, मंतंन, बढ़े बड़े दर्तन, मसंठयी, सटया) भयडार तत्‌० ( पु० ) फोठा, घुघधार । [जेयनार । भगडारा दे० (एु० ) साधुपों का भोज, साधुओं की मणडारी दें» (पु० ) भसदार या भ्रष्यद, मण्दारे पी देख रेस परने बाला, रसोइया, रोवड़्िया । भगडेरिया दे० (पु० ) दतिया । भगडेला दे० (६० ) भाँड, भदुवा । ( ०४ ) भब्मड़ भतार दद्‌ ० ( घु० ) भर्ता, पति, स्वामी । भतीजा दे० (एु० ) आउुब्य, भाई का पुत्र । भवीजी दें० ( ख्री० ) भाई की पुत्री । भा दे (8०) भात, भक्त, भाता। भद्‌ दें० (स्री०) धप्पा, पड़ाका, कसी वस्तु के गिरने का शब्द, बच के फल गिरने या पैर का शब्द] भदभदाना दे० ( वि० ) भदभद शब्द करदा। सदभटाहट दे० ( खी० ) भदभद शब्द । मद्वाफ पे» (७० ) घदयक पढाक, भव्ाऊ शब्द के साथ गिरना,वैसा गिरना जिससे मयानक शब्द हो । भद्देश या भरेस दे० ( गु० ) भद्दा, झुरूप । भदेसल ( ४० ) बेशैल, छुदका । ब्रिडौल, भदेसल । अद्दा दे० (प्रि०) निर्मेध, भज्ञानो, धवोध, सूखे, माँदू, भद्र तव॒० (पु० ) मद्ल, कल्याण, मुस्त, मोया, करण विशेष, विष्टि फरण , शिव, संजन पढ़ी, इखिशा, जाति विशेष ,-द्ोना ( धा० ) मुंहन फराना, हिन्दुओं वी एक प्रथा, गव पोई मरता है तय सुंडन किया जाता है ।--काली ( खवी०) हुगां, महामाया, काली ।--श्री (स्वी० ) चन्दन, केसर, कुट्डुम, मश्नल, शोभा, थरी। मिनेज्, देश विशेष । सद्गक तद० (घु०) भद् छस्तक, देवदारु शूद् । (वि०) भद्गा वत्‌० ( ख्री० ) प्यात छता विशेष, रास्ना, नौल बुच्य, व्योम नदी, तिथि विशेष, द्विंठीया, पक्षमी, हादशी । भद्वाक्त छत० ( पु० ) क्षत्रिम राए । भद्विका तब ( स्त्री० ) दशा विशेष, फदयायी । भद्ठी दे० ( पृ० ) उकौतिया। सामुव्रिक शास्प्रवेत्ता । भनई दै* ( क्रि० ) कद्ता है, वर्णन करता है । भनकझ दे० ( (० ) शब्द, ध्वनि, धाहट | भनित दे ( क्रि० ) कहा हुआ, परत, रखित | भवकता दे० (कि०) उफ्लना, छुद्ध होना, जलन उठना, तदपना [ भवक्राना दे> (क्रि०) हु कराना, जलाना, लदपाना। भवक ( स्थरी० ) फुँदना, झुछना । भवहा दे० ( ० ) पात्र विशेष, मिससे अके निका- खते हैं, (०) बस, दढका, फफका । भवकी दे० ( स्त्री० ) भदड्डी, घमडी; धुडकी । भन्मड़ 4० ( पु० ) डर, रीछा, खटका, अम्यवस्था | भब्बल ( है ) भरनी काासस ऊ कफ ड कशकअफ9क ड 2 सफफइसफसफसफफफफ फक़फसफसससकसि-+--+3.33....3..झ्ददई$ह.....ह0.......ढ भव्यन्न दे० ( ए* ) मेरा, स्थूछ, तोदैल, चुन्दिक । भभक ( 9० ) सक्‍क । फिफाना, खलवकाना * सभकना दे? ( क्रि० ) शिरना, टफ्कता, उस्लना; भसभर दे० ( ए० ) खटका, डर, रौला, घबड़ाहट, इट्वेग, ब्याकुडता ।--ना ( क्रि० ) फूछना, सूजन्य | भसमराना दे० ( क्रि० ) सूजता, फूछलना, खदकना, खटका होना । [ ज्ञाक, विम्थुक | भभूका बे० ( पु० ) सुन्दर, मनोहर, खाफृ, स्वच्छ+ भभूत तदु० ( स्त्री० ) विभूति, भस्स, छार भमेरना ( क्रि० ) फाड़ खाचा । भय तव्‌० ( छु० ) डर; भीति, शझ्ला, चास (--खाना ( धा० ) डरबा, ब्राल करना |--कारक (गु० ) शराने चाला, भय देने वाला, भयानक, सयझूुर । भयडुर तत्‌० ( घि० ) भयावक, डरौदा, भयकासक | भयचक दे० ( छ० ) भयातुर, भयमीत, डरा हुआ । भयभीत तव्‌० ( थि० ) डरा हुआ, घबढ़ाया हुश्ा, भयातुर । भयहाँ दे० ('स्त्री० ) छोटे भाई की स्त्री । भयातुर तव० ( बि० ) भवचक, उरपांक, सयभीत, भयविद्वकल । सयानक्कत तत्‌० ( बि० ) डरादना; मयहूर, भयग्रद ! भयापह तव्‌« (प०) भय नाशक, भय दूर करने वाला] भयापा दे० ( पु० ) यन्धुत्व, भाईपना, अपनायत्ता | भयावना दे० ( वि? ) डरावना, भयहुर स्यानक । भयावह ततदू० ( वि० ) भयदायक, सयानक, भयद्ूूर। भयाचहद्दि दे० ( क्रि० ) डराते हैं, शक्लित्त करते हैं, श्रास देते हैं । भयाहू ( क्ली० ) छोटे भाई की स्री। भर दे० ( बि० ) पूरा, पूर्ण, सुँदामुँद, एक जाति। ( क्रि० ) पूर्ण करो, पालन करो । भरऊ दे० ( क्रिग्) भरता हैँ, पूरा करता हूँ, पूर्ण करता हूँ, ऋण छुकाता हूँ, देता हूँ, दान करता हूँ | +भरका दे० (४०) इुस्ताया हुआ चूना, चूने फी कली । भरकाना दे० ( क्वि० ) बुकाया, चूना छुकाना, यमे करना | [ करना, रछ्ा, बचाद | भरख तब» ( पु» ) भरना, पूरना, पालना, पोषण भरणी तत्‌० ( स्री० ) ए५ नक्षत्र का बाम, दूसरा लकत्र | भरणीय तत्‌० (०) योग्य, पालन बेग्य, पालनाह । सरत सत० ( छु० ) कअयेषध्याधिपति दशरथ छ्व पुत्र, ये महाशणी कैंयी के गे से सम्मूद् थे।| जड़ भरत, राजा दुष्यन्त के शह्नन्तल्य के गर्भ से उत्पन्न पुच्न, इन्होंने ही इस देश का वास भारतवर्ष रखा है। नाव्वशाश्र प्रणेता ऋषि विशेष, इसके समय का टीफक पता श्रसी तक्त भी पुरातत्वान्येपियों को नहीं लया है, तथापि चे खाइस पूर्वक कहते हैं की थे ईसा के पूर्व ६ दीं सदी के पूर्व के नहीं हो। सकते । अस्तु जो कुछ छ। परन्तु ये धहुत ही पुराने हैं, कालिदास के सी एववर्ती हैं, भास के भादकों के 'छोकी से भी इनज्ञी प्राचीनता सिद्ध मोती है । [ छूपिया, बाजीगर । भरतपुज्रक तत्‌* ( घु० ) नड, विदूपक, भाड़, बहु भरताग्रज्ज तत्‌० ( घु० 3 औरामचन्द् । भरद्दाज तत्‌० ( ए० ) विख्यात प्राचीन ऋषि, इसथ्य की पत्नी समता के गर्भ और दृहदस्पति के औरस से ये उत्पन्न हुए थे, मस्तूगण ने इतका भरण किया था और ये दो के ह्वारा उत्पन्न हुए थे इस कारण इनका बाम सरद्वाज पढ़ा। इनका दूखरा साभ वित्थ है| एक समय शज्जास्तान के सम्रय घुतताची मासक अप्सरा के देखकर इनका रेतः- पात हुआ बह रेध एक ब्रोण में रखा गया, उससे पक्ष पुन्न उत्पन्न हुआ । यही पुत्र विख्यात द्वोणा- चाय थे। प्राणियों का दुःख दूर करने के लिये देघताओं के अशुरोध से इन्होंने सगे में जाकर एन्द्र से आयुवद का अध्ययन किया | इन्द्र से समर आयुर्वेद का अध्ययन करके ये मर्त्यंलाक छौट आये, और भरायुर्वेद की शिक्षा इन्होंने मह- पिंयों को दी। उनसे शिक्षा पाकर सह्षियों ने आयुर्वेद छा प्रचार किया | [ धारण | भरन दे० (पु०) पूरन, पूत्ति, तोपण, पालन, पोषण, भरना दे० ( क्रि० ) पूरा करना, ऋण चुकाना, बन्दूक में योज़ी भरना, सहना, पाना, दुःख पाया, दुश्ख सदना । भरनी दे+ ( ख्री०) भरनेबाली, पूर्य करने वाली, एक बचत्र का नास; जिल नज्त्र में तृष्टि द्ोते से सर्प सरते हैं। भरपाता भरपाना दे० (क्रि०) दाम पाना, दाम वूल होना। भरपूर दे० ( गु ) पूर्ण, थल्यन्त पूर्ण, अतिशप पूर्ण । मरमराना दे० ( क्वि० ) चीटता, घिडकना, सूजना, फूलना । मरमरी दे० ( स्री* ) सुजाव, फूज्नाव ! भरम तद्‌० (पु०) अ्रम, आान्ति, संशय, सन्देद, भेद, रदस्य, तत्व |--खुलना (वा०) भेद सुब्य जाना, रहस्य प्रकाश दाना |--खोल देना ( बा० ) सन्देद मिटाना, अ्म दूर करना ।--गवाँनां ( वा० ) प्रतिष्ठा खाना, यश में धब्बा लगाना, कीत्ति में ब्रद्ठा छगाना ।- निकल ज्ञाना (वा०) सन्देद्द दूर द्वीना, संशय मिट्ना, भेद छुटना । भरमाना दे० ( क्रि० ) दगना, बशुन करना, छूलना । भरमीला दे* ( वि० ) संशयी, सन्देदी, सरम चाजा । भरपाना दे+ ( क्रि० ) पूर्ण कराना, पूरा करवाना; पुरवाना | भरा दे* ( वि० ) पुरा, पूर्णो। भराई ( ख्री० ) भरने का काम, भरने की मजदूरी । भराना दे० ( क्रि* ) पूराना, पूर्ण कराना, भराना, भरवाना । मरा दे० ( ख्री० ) पत्ति, पर्णेठा, भर्ती! भरी दे० ( श्लरी० ) ताला, घारदमासा, सौल विशेष । भरत या भष्ठेत ( धु० ) किसाप्रेदार । भरोटा दे० ( धु० ) घोर, सार, मोट । भरोसा दे० ( पु० ) श्राशा, विश्वास, प्रतीति, प्रत्यय | भर्ग तव* (घु० ) शिव, मद्ादेव, शरद्मा, ज्योति, तेज, प्रकाश, दीघि | भर्ड्जन तद्‌० ( पु ) मूँलना, भूलना । भर्ता तन« (५० ) पति, स्वामी, भतार | (गु० ) पाछ्षने यात्रा, रछ्क, धतिपाठक ।( दे० ) पक भकार की तरकारी, भटा, भालू, थादि को सुन कर जो यमाया क्ाता है। 3 तिया दे० ( पु० ) जाति विशेष, ट्ठेरा, कसेरा । भर्ठों दे? ( स्त्री० ) समाप्ति, सरावट, पूछता, पू्ि। _--हरना ( क्रि० ) शामि् करना, सम्मिलित करना ) [ गहाँ, अपवाद | भत्संना तब्‌० ( स्घ्री० ) तिरस्कार, बिन्‍्द्रा, छुस्सा, मर्सक तद्‌० ( प० ) तिरस्थार करने वाला, निम्दक ] ( $०६ ) भवमूति भरेद्वरि तत्‌० ( घु० ) विक्रमादित्य राजा के भाई, इनके बनाये तीन शतक खद्ार, वैराग्य और नीति प्रसिद्ध हैं, कददते ई अपनी स्थ्री की दुश्रित्रता से हु.खी द्वाकर ये घर छोड़ कर वनवासी दे! गये ये | वाक्यप्रदीप नामक पुकत स्याररुण विज्ञान का अमृक्षय प्रन्य भतृंडरि फे नाम से प्सिद है । इसका निश्चय करना कठिन है कि वाक्यप्रदीपरर्ता ये दी भतृंदरि हैं या अन्य | इनका भी वही ६ थीं सदी ही समय मानवा इचित हैं। (२) इनका घनाया मट्टी नामक काब्य प्रसिद्व है। भद्दी काव्य संस्कृत साद्वित्य का एक रत है। इसके पाठ करने घाले इनके व्याकरण के असा- चारण ज्ञान से सुगरिचित हैं | इस अथ के भ्रत्येक लोक यहाँ तक कि पदों में भी प्रयोग कुशलता देसी ज्ञाती है | [ीव । भक्त दे० ( बि० ) भा, रम, श्रेष्ठ, मनोहर, रस" मलका दे० ( घु० ) भूषण विशेष, सेने की टिक्ल्ली | भजमनसाव या भलमनसाहत दे० ( वि० ) महा- घुरुषत्व, मनुष्यस्व, पुरुषएव । भजमनसी दे० ( स्तथ्री० ) सुशीलता । भजा (वि०) उत्तम, शीलवान, भ्रष्छा, श्रेष्ठ सद्‌गुणी । --कर भला दो, सौदा कर नफा दो ( छो०- 83० ) जैसा करोये चैंसा पाथोगे, कर्मानुसार ही फन्न द्वोता है।--आदमी (वा०) भष्छा भादमी, श्रेष्ठ पुरुष |--मानना ( चा० ) पत्तम सममना, अइसान सानना ।--चह्ढ (वि०) नीरेग, सेोदा स्वस्थ भज्ताई दे० ( स्त्री० ) भ्रष्छापन, कुधलप्रेम, ऋष्याण, महल ।--ल्तेना ( वा० ) अदसान लेगा, नेकी करना, भदसान करना (--रद्दना ( बा० ) सुबछ रहना, कीर्ति रहना । भत्तूक या भल्तूक दत० ( पु०) रीद, मालू ! भसल्ल तत० ( पु० ) भाषा, बरछी, वर्जा। [महादेव। भर (प० ) संसार, क्षयत्‌, जशग्म, प्राप्ति, शिव, भवदीय तत5 ( वि ) आपका । [ भ्यात । भवन ,तव॒» ( घु० 9) घस, गढ़, स्थान, बास, वास भघमूति तत्‌० ( पु० ) संस्कृत के श्रसिद नाटककार, इन्दोंने इचररामचरित, वीएचरित और माठवी - भवाद्श माधव नामक सीन नाटक बनाये थे ।भव बलि | भस्म तत० € खो ) रा नामक तीच ताथक बताये थे | नव सूति- स्रीष्टीप झ वीं सदी के प्रारम्भ में उत्पश्न हुए थे। पश्मपुर नामक गाँव हनका जन्सस्थान है | इसके पिला का नाम सी टकण्ठ था और पितामह का नत्स मूपाल भट्ट था | इनकी माता असुरूर्ण गोत्र सें उत्पन्न हुई थीं। इस कारण चह जतकर्णो नास से प्रसिद्ध हैं | शब्द प्रयोाध की कुशलता और साव की उच्चदा के विचार से भवसूतति का स्थान संस्कृत सादित्य में धहुत ऊँचा है| इन दीन अच्धों छे अतिरिक्त भवभूति का दूसरा भी कोई अग्थ श्रवश्य होगा क्योंकि संग्रह गन्यों में मदभूसति के चाम से जो गलेक देखे जाते हैं ये उसके प्रसिद्ध अन्धों सें महीं हैं | समा यशेतवर्स की सभा के ये पण्डित थे । इनकी रचचा करुणरस प्रधान है । भवाद्वृश तव्‌० ( बि? ) भारके तुत्य, आपके ससाय, आपके येग्य | [ काली । भवानी तत्‌० (स्त्री० ) पावेती, शिव की स्त्री, दुर्गा, भचार्णंव तत्‌० ( घु० ) [सब + भर्णथ] संसार-सागर, संसार रूपी समुक्ग, भीपण समुद्र । भचितत्यया तदू० ( स्तवी० ) होनद्वार, भावी, भाग्य, फपाल, यधाः-- » जैसी हो स्वितव्यदा चैली उपजै बुद्धि । होनदार हृदय बसे ब्रिसर जात सब सुद्धि 0 ? भसबिणएु तत्‌० ( छ० ) होने चालक, होनदार, सावी । भविष्य चत्‌० ( ४० ) दोनद्वार, होने वाढा, सवित- ब्यता । सविष्यस्‌ तत्‌० (घु०) आगामी कात्त विशेष, आगामी काल ।--बक्ता ( ३० ) भविष्यत्‌ काल की चात्तें जानने वाला, भविष्यवेत्ता, होनहार जानने वाला । भैया दे० ( छु० ) फा्थक, न्तक, नाचने वाला । भव्य तत्‌« ( बि० ) सत्य, भावी, उज्वल, सुन्दर । भसत दें० ( घु० ) भस्म, राख, विभूति, किसी वस्तु की असह्य गनध । भसकमा दे० ( क्रि० ) गिरना, पड़ना, फॉँकना । भसना दे० ( क्रि० ) तरना, तेरना, बहना, उत्तराना । भसलभसा दे० ( बि० ) पोला, थजथला । भसाला दे० (क्रि०) बढ़ाना, चलाना, विराना, बहाना। भर्षा सत्‌० ( क्लवी० ) चमड़े की घौंकती, भाधी । ( हैं०७ ) - भागे भस्म तत्० ( खी० ) राख, क्वार, भभूत ।-सात्‌ ( अ० ) अशेष भस्स, समस्त जला । | भस्म रच्‌० ( छु० ) गेग विशेष, जिस रोग में लोग खाते तो बहुत हैं, परन्तु दुर्बल्ल होते जाते हैं । भसहराना दे० ( क्रि० ) काँपना, ढगना, डगरमगाना, गिरना, पड़ना । श्ाँग दे० ( छु० ) बूटी, बिजया, भंग | भाँञ् दे” ( पु० ) ऐंड, बल, सोड़ । भाँक्षना दे? ( क्रि० ) ऐंठना, बल देना, सोदना । भॉला दे० ( घु० ) भगिनेय, वहिल का बेटा । भाँजी दे० ( स्री० ) बहिन की बेटी । भाँदा दे० ( घु० ) भठा, चैयन । भाँड़ दे० ( छु० ) बहुरुपिया, निलंज, एक तरद का तमाशा करने वाला, हंडा । भाँडिया दे० ( क्रि० ) वियाडना, थाली देना । भॉड़ा दे० ( छु० ) झत्तिका का घड़ा पात्र, सटका । भसाँडीर तत्त० ( पु० ) छुक्त विशेष, अझ्लीर का बूक्ष । भाँडती दे० ( ख्री० ) स्वाँग, यहुरूपीपना। भाँति दे० ( स्री० ) डौल, ढब, रीति, मकार । भाँति भाँति दे० (वा० ) तरह तरह का, नाना प्रकार का, कई सरह का । भाँपना दे० ( क्लि० ) ठाड़ना, देखना, जानना । भाँवर दे० (स्त्री०) घुभाव, भाँवरी, सात बार धूमना, परिक्रमा, दृल्हा और दुलछ्दित का बेदी की परि- ऋमा-करना । भाँवरी दे० ( स्त्री० ) देखो भाँवर । धिकाश । भा दे० ( क्रि० ) हुआ, भाया। (पघु०) उजारा, चमक, भाई तदू० ( छ० ) आता, सहोवर चारा ( घु० ) भाई का सम्बन्ध, भयापा ।--बन्द ( छु० ) भाई अन्छु, विरादरी । भाक तत्‌० ( छु० ) कृत्रिम, गैण, पिछलर्गू । भसाकसी (९ स्त्री० ) अन्धकृप, कैदियों के रहने का घर, हवालास, छोटा घर । [सिपण करना । भाखना दे० ( क्रि० ) बोलना, कहना, कथन करना, भाखा तदू० ( स्त्री० ) भाषा, बोली, वात । साथ तत० ( पु० ) अऔँश, हिस्सा, बाद, त्रिसाव (सद्‌०) भाग्य, प्रार्ध ।--खुलतना ( वा० ) भाग्यवात्‌ होना, प्रारव्ध का श्रच्छा होना, सुख मिक्षना | भागड़ ( ईद ) भानुमती +-ज्ञागना ( बा० ) घनो होना, अच्छा भाग होना ।--प्राहों ( छु० ) भागी, दिस्सादार ।-- भरोसा ( वा० ) धीरता, घीरज, थैसे, ढॉढ़स । भागडू दे० ( स्त्री०) पलायन, सागल, देशत्याग । भआगना दे० ( क्रि० ) पलाना, भाग जाना, दोडना, अबज्ञा करना । [ चला जाना । भाग चलना दे० ( वा* ) निकल चलना, भाग जाना, भागधेय तत्‌० ( घु० ) भाग्य, प्रारव्ध, शुभकर्म उत्तम कम । [ बचा कर भाय जाना भाग चलना । भाग निकलना दे० ( वा० ) छिप कर भागना, जान सागमान ठद्‌० ( वि० ) भाग्यमान्‌, ग्रारब्य । भागमानी तद० ( स्त्री - ) सौमाग्यवती । भागवत सत्‌० ( वि० ) भगवान्‌ का भक्त। ( घु० ) अप्टादश पुराणान्तगंत पुराण विशेष । भागहार तत्‌० ( ६० ) भागनियम, थैंश की रीति, भाजक। ( गु० ) भागद्दत्ता, अशहारो, माग का अधिकारों । [ भागद, दौडादौढ़ । मागाभाग दे० ( १० ) चलाचली, प्रस्यान की हत्तचल, भागिनेय तत्‌० (पु० ) भाँजा, भगिनीपुत्, वहित का बेटा, भयने ! भागी दे० ( बि० ) साम्हो, हिस्मेदार, बटैत, अशी । भागोरथी तद्‌० ( स्ती० ) [ भगीरथ + इज्‌ ] गड्ा, सुरधुनी, सुरनदी । भाग्य तव्‌० ( घु० ) आाक्तन शुभाशुभ कर्म, देव, माग- घेय, भवितव्यता, अच््, प्रारव्ध । भाग्ययस्त ठदू० (वि०) घरी, धनिक, शम, अ्रडश्दाला + भाग्ययान, ठत्‌० ( थि० ) भाग्ययन्त, भश्ष्वान, पुण्य- कम्मी [ दरिद्व, छु खी । साग्यद्ीन तत्‌० (वि०) अभागी, हतमाग्य, सन्‍्दमाग्य, भाजन तत्‌० ( छु० ) पाज़, योग्य, आदक, परिमाण । ( दे० ) यासन, वरतन | भाजना दे० (क्रि०) थूँ जना, सुनना, तछूना, सागना । भाजर दे० ( खी० ) भगोड़, मगैल । भाजी दे० ( खी० ) साग, तरझारी, बायना, वायन । भाग्य दे? (वि०) म्यगाई, भाजनीय, अश करने योग्य, अट्टद्ाय, शिसता अट्टीं से विभाग कया जाय । भाद दे" ( घु० ) चारण, स्तुति गायक, बन्‍्दी, एफ जाति विशेष, जिसका काम सत्य प्रशसा करना है । भाठन दे० ( खी० ) भाट फी स्री । भादा ( घु० ) समुद्र का उतराव। भादियाल ( घु० ) उत्तराय, गिराव। भाटिया दे० (पु०) इस नाम थी एक व्यापारी जाति। भाटियानी दे० ( खी० ) भाटिया जाति की स्री । भाठा दे० ( पु० ) समुद्र का उतरात्र । भाठियाल दे० ( छु० ) भाटियाल, उतरार, गिराय । भादठो दे० ( खी० ) घौकनी, भाती ।. जाता है। भाड़ दे० ( पु० ) बढ बढा चूह्दा जहाँ शत भूना भाड़ा दे० ( पु० ) किराया, शल्क, महसूल, घर शआ्रादि का कर। [भाड़े का घाम । भाहैत (वि० ) भाड़े पर रहने वाला ।-- ( खी० ) भाणड ठत्‌० ( पु० ) बर्तन, बासन। भागडार ( पु० ) भढार ! भात दे० ( घु० ) भक्त, ओदन । भाता दे० ( वि० ) मुद्दावना, सुन्दर, मनभावत । भाथा दे० ( छ० ) तृण, तरकस | भाथी दे० ( सी० ) चमडे की धौफनी । भादो तद्‌० ( घु० ) भावमास, भादवा, भाव पद । भादों दे० ( ४० ) वर्ष पा छुठवाँ सीना, मिस महीने में भाद्षपद नक्तत में चन्द्रमा पूर्ण हो ।--की भरन ( बा० ) अझधिऊ वृष्टि, कह, मढ़ी । भान वव० ( घु० ) ज्ञान, स्मरण, बोध, मुधि, चेत । भाना दे० ( क्रि० ) अच्छा लगना, मुद्दायना मालूम होना, सुद्दाना, मनभायन होना । आनमती दे० ( खी० ) नरिनी, जाति विशेष की यी, जो इन्द्रजाज़ विद्या में निषुण् द्वोती है । भान्नु तद्‌० ( पु० ) सूर्य, रवि, सूर्य की किरण ।न्‍्ज ( ६० ) अधिनोऊमारदय, शनैश्वर, यमराज, राजा कर्ण ।--ज्ञा ( स्री० ) यमुना, जसुना नदी । भागनुमती दव्‌० ( खो० ) कदते ईँ श्रसिद्ध कवि वालि- दास की ख््री का नाम साजुसती भा,ये भोजराज पी कन्या थी, ये ऐेन्द्रणालिक विद्या में निषुण थी। भओोजराज के वशज इस विदा में अति निषुण थे और वे इस विद्या से श्रपवा मनोरजञ्ञन म्या करवे थे, इसी कारण इन्द्रजाल विद्या या दूसरा नाम भोज- राजी हो गया है। माुमती के नाम के अनुसार इस विधा का नाम भानुमती का खेल पड़ गया है। कं साफ भाफ दे० ( घु० ) वाप्प, वफारा, धु्वों, घूस ! भाफना दे० (क्रि०) अटकल्न लगाना, ऋृतना, अचुमान से किसी के भीतरी दाल का पता लगाना । भाझी दे० ( स्री० ) भौजाई, वढ़े भाई की स्री । भाँमर दे० ( स्री० ) फेरा, सप्तपदी । विवाह के समय घरबवधु का सात बार सँड़वा के चारों ओर फिरना। भामिन बे० ( खी० ) क्रोधी, क्रोध करने वाला । सामिनी वत्‌० ( स्त्री० ) ख्री, लुगाई, तरुणी, कुपित स्त्री ।--विज्ञास ( घु० ) जगन्नाथ परिडतराज क्ुत्त कान्य का एक अन्य । भायप दे० ( पु० ) भाईपन, भाईचारा, अपनाइत । सार सत्‌० ( पु० ) गुरुव, बोका, काम सम्पादन करने का अधिकार, आठ हजार तोला परिमित वस्तु भारत तत्‌० ( छु० ) ग्रन्थ विशेष, महाभारत, भरत पुत्र, नट, अम्ि ।--वर्ष ( झ० ) जस्द द्वीप के नव घर्ष के अन्तर्गत वर्ष विश्वेष, हिन्दुस्तान । --चधर्षीय ( घु० ) भारतवर्षवासी, भारतवपं में रहने वाला । भारती तत॒० ( ख्वी० ) वाक्य, वचन, बोली, सरस्वती, पक्षी विशेष, भारुई पक्षी, काज्य की एक बृत्ति । भारतीय तत्‌० (*वि० ) मद्दाभारत घक्त, सद्ामारत कथित, महाभारत सम्पन्धी, भारसवर्षीय, भारत- चर्ष सम्बन्धीय, हिन्दुसथानी, दिन्दुस्थान का। भारद्वाज तच्‌० ( धु० ) त्रोणाचाय्य, मुनि विशेष, अगस्त मुचि, मज्जछ अहद । [वाला,भारवदनकर्ता | भारवाहक तत्‌० (वि० ) मेटिया, कद्ार, भार ढोने भारवि दत्‌" ( प० ) संस्कृत के प्रसिद्ध कबि, इनका घनाया हुआ किरातार्डनीय नामक काव्य पसिद है । ये फाजलिदास के समकालीन माने जाते हैं। इसके प्रमाण में पुक शिल्ला लेख दिया जाता है। जो ६३४ ई० में लिखा गया था। इस शिक्ा में खुदे हुए पथ से थद्द बात सिद्ध द्ोती है। चहुतें का अनुमान है कि ये चौथी सदी में उत्पन्न हुए थे ) भारा दे० ( ६० ) घोर, मोट, भार। भारी दे० ( वि० ) गुरु, सवा, बढ़ा, स॑ गा, मेहरा । भायारी दे० ( छु० ) मैयापा, बन्छुत्व, भाईचारा । सार्या तच्‌० ( स्थ्री० ) स्त्री, पौ्ली, जाया। ( ६०६ ) भाषित भार्योतिकम तत्‌० ( झु० ) स्त्रीयाय, स्त्रीनाश, पर- स्प्रीगसन । लोक । भात्र तव॒० (छु० ) लक्षाट, मस्तक। (दे ०) साले की भाजत्ञा दे” (घ० ) वर्दा, भरत्र विशेष, साँग। सालू दे० ( पु० ) रीछ, भछ्लुझ। भाजैत दे० ( छ० ) वा चक्ाने वाला । भाव तत्‌० ( छु० ) अभिभाय, चेष्टा, सत्ता, खर्भाव, जन्‍म, किया, लीजा, पदाथे, विशूृत्ति, धात्वर्थ, योनि, उपदेश, संघार, नचअढों की दादश चेष्टा झुयडली के १२ घर ( क्रि० ) भावे, अच्छे लगे, प्रिय छगे । भाप तदद० ( स्त्री०) होनहार, भवितष्यता भविष्य | भ्राचक तव्‌० ( छ० ) भाव, मन्रोविकार । ( थु० ) चिन्ताकारक, सेचने चाल्ा, सत्ताअ्रम । भापज्ञ दे० ( स्त्री० ) भोजाई, बड़े भाई की स्त्री, भझासी । [ रहस्यवेत्ता । भावज्ञ तच्‌* ( चि* ) भाषज्ञाता, मर्मेशाता, मर्मझ, भाषता दे० ( वि० ) प्रिय, चाहीता, 'अभिकषषित, ईप्ल्रित, दृष्ट, प्रिय, सनोदर, जो चाहा जाय | साचना तत्‌० ( क्रि० ) चिन्ता, ध्यान, पर्याजाचवा | भावचाचक दे" (३० ) संज्ञा शब्द विशेष, जो कि वच्तु का धर्म गुण बतलाता है। सावद्द दे० ( स्त्री० ) छोटे भाई की स्त्री । सावान्तर तत्‌० ( पु० ) प्रकारान्तर, '्सन्य अभिप्राय, मिन्न अमिप्राय, दूसरे प्रकार ! भावार्थ तत्‌० ( घु० ) अभिप्राय, तात्पय | भाविक तद्‌० (वि०) भावुक, चिन्ताशीवठ, अभिभायज्ञ । भावित तत्‌० ( वि० ) चिन्तित, विचारित, सोचा हुआ, विचार हुआ । भावी तव्‌ ( वि० ) भविष्यवृकाल, आगामी, उत्तर काल, होनदार, अवितच्य | भाडुक तत्‌० ( घु० ) मल, ऋत्याण, कुशल छेम | भावे दे० ( अऋ्र० ) ल्लेखे, विचार में, मन में । भाठय तत० ( वि० ) भवितव्य, भावनीय, चिन्तनीय, आयी, देनदार | [ बाग्देवता, वाण्यी । भाषा तव्‌० ( स्प्री० ) वाक्य, कथा, वचन, बोली, भसापित तव्‌० ( बि० ) कथित, उक्त| ( घु० ) चचन, पोली, भाषा । झा० प[ाृ०---७७ सापी भाषी तत्‌० (वि०) वादी। घक्ता, कघषक, कहने घाला | भआाष्य ठत्‌० (पु०) टीका, टिप्पणी, सून्नाथ, सूत्र दिव- रण अन्य, सूधार्थ का विश्वद्‌ रूप से वर्णन करने वाला अन्य, विस्तृत टीका [--कार (३० ) मद्दा भाष्यकर्ता मुन्रि विशेष, पततअलि | (वि०) भाष्य- फर्त्ता, भाष्य बनाने बाला । भासना दे० ( छिं० ) विदित होना, मालूम द्वोना, ज्ञात द्वोना, प्रकट द्वेना, प्रकाशित दोना | भासान्त घब० (३० ) यूथ, चन्द्र पत्ची विशेष, , नहतन्र | ( वि० ) मनोदर, सुद्दावना, रमणीय । भासुर तत्‌० (वि० ) दीपछिशीज्ष, दीप्तिमाव । भारुकर तत्‌० ( पु० ) सूय, अ्रप्ति, रवि । भास्कराचार्य तद्‌० ( वि० ) प्रसिद्ध ज्योति्षित्‌ और गछितज्ञ, इनके ऐिता का नाम महेश आाचाये या मह्देश देवश था । ये दृदिण देश के सक्ष वामक दर्वत के समीपवचर्ती विज्लिड़पिढ़ नामरू गाँव में १०३६ शाके १११७४ ई० में उसपन्न हुए थे। इन्दोंने ३६ वर्ष की अवस्था में भपने विख्यात सिद्धान्तशिरोम्णि नामक ग्रन्थ की रचना की | इस भप्रन्ध फे चार सण्द हैं, ३ क्ीकाववी या पादीगणित, २ थीजगणित, दे ग्रहगणिताष्याय ४ गे।लाष्याप | भ्स्तिम दोनों अन्य ज्योतिष के प्रत्ध है| इसके पुञ्र का नाम ऋक्ष्मीघर चर कन्या का नासखीछावती था| कद्दते ईैं कि इन्दोंने अपनी प्रिय कस्या के नाम से अपने प्रन्थ का पहला भाग यनाया था । “7 भमास्करानन्द्‌ स्वामी तर» ( १० ) प्रसिद संन्‍्यासी, इनका जन्म १८३३६ ६० के भाश्यिन शक सप्तमी फो कानपुर जिले के मैथेल्ालूपुर गाँव में हुआ था, ये बडे प्रसिद्ध हो गये हैँ | इन्देने १६०१ ई०« में अपनी खीढछा संवरण की | [ स्वच्छ, उम्ज्वठ | भास्पर तत्‌* ( वि० ) दीप्ति युक्त, सेजस्वी, प्रत्तापी, मित्ता तव॒० ( स्त्री ) मिद्ण, पाचन, चाह, चाइना, माँगना, याचता, याघ्वा, सेवा, नौकरी |--जौवी ( वि* ) बाचित दस्तु द्वारा जीने वाला, मि्क, अख्ारी (--अन ( पु० ) [ मिद्दा+घटन ] मिदार्थ गन, भिष्दा के किये जाना, भीख माँगने के जिये घूमना । ( ६१० ) मिलोंजा न मिच्चु तव० ( घु० ) चतु्धांश्रमी, संन्‍्यासी, परिवाजड, बौद्ध संन्यासी, याचक, भिखारी । मित्तुक तव्॒‌० (पु०) मिछोपजीबी, भीख से जीने बाला, याच, अर्थी, मीख माँगने चाला, मिसारी | मिखरी दे० ( वि" ) खाखक्ता, दूल्य, रिक्त ! मिखारी दे० ( घु०) याचह, मेंगता, भीख माँगने चाला, भिश्ठुक । [ सजल करना | सिगाना दे० ( क्रि० ) झआदँ करता, ओदा करना, सिगोना दे० € क्रि० ) देखे! मिगाना । [मिगाना । भज़िज्ञाना दे० (क्वि० ) आठ करमा, श्रोदा करना, मिठनी दे० ( स्त्री ) मिठना, सेंटी | मिठाई दे० ( स्त्री० ) वह द्रग्य जो भाई, पिता, चाचा, अपनी कम्या, बढ़िन, मतीजी घुआ आदि को मिलने के समय देते हैं मिड़ना दे० ( क्रि० ) मिलना, सदना, सद ज्ञाना, लड़ना, मुय्मेढ़ देना, सामना करना | मभिड़ाना दे ( क्रि०) छड़ाना, छडाई छगाना, समा कराना, रूगहय झया देना। मिंड़ ( स्ली० ) समत्तरोई, शाक विशेष । मिंड्डी दे ( स््री० ) तरकारी विशेष । मित्ति तव्‌* ( खी० ) दीवार, भीति, जड़, मूल | , मिनकना दे० (क्रि०) मिनमिन शन्द्‌ करना, मविखियें का बैठना, घिवाना । मिनभिनाना दे* ( क्रि० ) घिनाना, मिनकना | मिझुसार दे० ( पु० ) देसे मिंसार । मिन्न तत्‌र ( बि० ) [मिद्ठ +क्त] मेद विशिष्ठ, विदा- रित, शथकू, मिद्र, भग्य, भ्रतिरिक्त, छत रोग विशेष, झतीत !--शुणन (घु० ) अक्क विशेष, न्यून भर्कू फी यूद्धि करमा | मिन्नाना दे० ( क्रि०) सिर में चक्तर भ्राना, सिर घूमना, फिर ठनकना, नप्राज हो ज्ञाना | भिन्नार्थक घ़व्‌० ( वि० ) झन्य सातपये, अन्य अर्थ, दूसरा भाशय | [ भिनसार। मिसार दें ( पु० ) विद्वान, प्रात दाक्ष, सभ्रेरा, मिस्त दे० ( क्रि० ) हड़ते हैं, भिट्ठते हैं, छुटते हैं, युद्ध करते ईै । मिलावा दे» ( पु७ ) चापधि विशेष | मिलोंज्ञा ( स्ली० ) मिछादे का वीज | ; मिलाजी ( छशरे ) भीष्मक सित्तौजी दे” ( छी० ) सिल्वावे का दीज । ।मिल्ठ तत्‌० (9०) जाति विशेष, ज॑गली जाति, भील | मिषक्‌ तत्‌० ( पृ० ) वैद्य, चिकित्सक | मलिपारि तदू० ( छु० ) सिक्षकर, भिखसेंगा,मेंगता । भी तच्‌> (ख्री० ) भय, वास, डर, आशा । ( डे०) वाक्य समुच्चायक अव्यय । सीख दे० ( क्ली० ) भिछा। भीगना दे० (क्रि०) गीजा होना, ओदा होना, भीमना। भोंगा ( बि० ) ओदा, गीला । भीचना दे० ( क्रि० ) निचोड़ना, दबाना । भीज्षना दे? ( क्रि० ) सींजना, भींगना । भीज्ञा दे” ( बि० ) भींगा, गीला, ओदा । भीटा दे० ( 3० ) खंडदर, गीरी हुई भीत, पुराना घर, ऊँची जुसीन । [ कष्ट, आपदू। भीड़ दे० ( स््ी० ) समुदृत्य, सड्, जमावढ़ा, दुश्ख, भीड़ा दे" ( बि० ) सह्कगेणं, सकुचा, संकेत । * शीत दे० ( खो" ) दीवार, मित्ति। ( वि० ) डरा छुआ, सय प्राप्त । भीतर ढे० ( अर० ) अन्तर, बीच, सध्य, सें । भीतसियिा दे० ( झ० ) भीतर रहने बाढा, रसोई बनाने चाछा | भीति तवद्‌० ( स्ली० ) भय, त्रास, डर, शत । भीम तत्‌० ( वि० ) भैरव, भीषण, भयह्वूर, सधानक, अयजनक | ( 9० ) राजा युधिष्ठिर का छोटा भाई, द्वितीय पाण्डच । प/ण्ड छा चेत्रज पुन्र। कुन्ती के गर्भ से और पायु के शऔौरस से ये उत्पन्न हुए थे । भीम और हुर्यो्नन दोनों वशन्वर उम्र के थे । में दोनों पुक ही दिन उत्पन्न हुए थे। भीम बड़े बलवान थे । हुयेधित शआ्रादि काई इनकी बरावरी लहीं कर सकता। इस कारण दुर्योधन सदा इनसे डाइ रखता था श्र भ्ीस के मारने का उद्योग किया करता ध्य । एक दिव भीस को विष खिला कर हुफेधन ने जक्त में, फेंडवा दिया, भीम बदते बहते नायज्ञोक् पहुँचे और चर्दा इनही रहा: हुई | जागल्ोक से श्राकर सीछ ने दुर्येटधन झा पाप युधिष्ठिर से कहा | अन्य पायएरवों के खाघ सीस के भी बारणावत नगर के लाक्षामृह में जला देने की चेष्टा दुर्योचित ने की थी | दुर्योधन की चालाकी समझ कर भीम लाज्षांगरृह में आग लगने के पहले ही इन्ती और भाइयों के साथ पर्दा थें निकक् गये। छुपद राज्य सें जाने के पहले ही हिडिम्ध नामक रास को मार कर भीम मे उसकी बहिन हिडिस्या को व्याह्ा | ढिडिस्वा के गर्भ से भीम के पुक पुत्र हुआ था जिल्कका चाम घश्रेत्कच था | द्वोपदी की आदि झे पश्चात्‌ युधिष्रिर ने इन्द्रमस्थ नगर में आकर | राजसूय यज्ञ॒ करना प्रारम्भ किया | कृष्ण और अज्जुन के साध सगध राज्य सें जाकर भीम ने जरा+ सन्घ का सार डाला था। कपद जुए में युधिष्ठिर को इरा कर दुर्योधन ने द्वौपदी का अपसान किया था| सभा के बीच में ही भीम ने अतिशा की भी कि इसका बढ़का चुकाने के लिये मैं भाइयों के खाथ दुर्येधधन के सार ढालूँगा और दुः्शासन के हुदय का रुघिर पीऊँगा, तथा दुयेधिन का जद्धा तोड़ डालूँगा । कुरुचेन्न के युद्ध में भीस ने अपनी अतिज्ञा पूरी की थी। पाणठवों के महाप्रस्थान के समय दौपदी, सहदेव, नकुल और अर्जुन के पतन के अनन्वर भीमलेन ने भूमि में गिर कर आर त्याग किया था ! युधिष्ठिर ने डल समय कहा था ! फ़ि छुम् दूसरों को न देकर स्तर्य॑ खा जाते थे और अपने सामने दूसरे को वक्शात्ली नहीं समझते थे इसी कारण तुम्हें यहाँ गिरना पढ़ा है । भीमसेनो दे० -( स्ली० ) खुगन्ध व्ब्य विशेष, एक प्रकार का कपूर, एक णुकादुशी फा नाम | भीरू सत्‌० ( वि० ) भयशील, डरने वाला । भील तदू० ( छ० ) एुक पहाड़ी जाति का नाम । भीषण चत्‌० ( जि० ) भयद्वर, भयानक, भैरव, घोर, भयजनक, सयावह । ( घु० ) सेहुँढ इक, भदट- कऋरैया, धाज पक्की । सीपर तत० ( स्त्नी० ) त्ञास, भयकृरता, भय | भीष्म तव्‌० (गु०) भयावक, भयक्कर ) ( झु० ) गाक़ेय, शान्तदु राजा का घुन्न, ये गद्ला के गे से उसपत्त हुए थे । इन्होंने पिता की सुख लाकसा पूर्ण करने के लिये जीवन पर्यन्ठ बहाचर्य रहने भौर राज्य मं लेने की प्रति की थी । भीवष्मक तव्‌० (एु० ) चिदर्भ राज्य का शाजा, भ्ीकृष्ण की पट्सनी रुश्सणी इन्हीं की पूत्री थीं । भीष्मपथक ( ईश्र ) भूतल भीष्मपश्चक ठत्‌० ( घु० ) चद विशेष, कात्तिक शक्ल | भुलावा देना दे० ( वा० ) भुल्नाना, भुजवाना, फुस- शुकादशी से पूर्णिमा तरू का घत । भुआल तद्‌ू० ( घु० ) भूपाल, राजा, नरपति । झुक्त दत० ( वि० ) भदिद, खादित, सा चुका, भोगा गया “>-भोगी ( वि० ) पुन भोगऊत्तों, विशेष रूप से अनुमवीत । झ्लुगतना दे० ( कि० ) भोगना, सहना, कमी का फल भोगना, कष्ट उठाना, वष्ट सहना । भुगतान दे० ( घु० ) घुझान, पाई पाई चुका देना । भुगताना दे० ( क्रि० ) दण्ड देना, भोग करवाना, सद्दाना, संहवाना, पूरा कर देना, अधिक निकलते हुए रुपये चुफा देना । भ्ुग्गा दे० ( बि० ) सीधा, भोला, मोंदू। अुझ् तत॒० (वि०) कुटिल्त, वकर, कुबडा, देढ़ा, दिखा १ भुच्च दे० ( वि० ) अनगढ़, अनपढ़, सूखे, अजान, अनमभिज्ञ, अनारी, सूखे, महा । मुज तद० ( ७० ) झुजा, वाह भुजक्ू, भुजड्रम तव« (ए० ) सर्प, साँप, श्रद्दि । खुजबद दे० ( घु० ) याजूवन्द, अक्द, विजायद) भुजा दत० ( स्री० ) वॉद, भुज, बाडु ।, भुज्ञिया दे" ( वि० ) भूँजा हुआ, उसना हुआ, वेसन बा सेव, चावल को एक जाति। भुज्ञीं दे० ( ५० ) सद़मूँजा। भुद्दा दे* ( घु० ) याक्त, मई को फली, जनद्वार । भुण्डली, मुंडली दे० ( स्तव्री० ) कोट विशेष, एक फीट का नाम । भुतना दे० ( पु० ) मॉकस, छोटा भूत, प्रेठ, पिशाच । भुतहा दे० ( वि० ) पूहद, मूत के समाठ ६ भुनना दे० ( क्रि० ) मूँलना, सर्जन फरना, सेंकना। भुनवाना दे० (क्रि०) घूनने का काम अन्य से करवाना 3 भुनाई ( ख्ली० ) मूतने का फास या सजूदूरी ! भुनाना दे० ( क्रि० ) भैंजाना, तुद़वाना। [का चदैना । भुण्भुरा दे” ( गु० ) हरकरा, झुझुरा, पक भफार मुस्मुराता दे० ( क्रि० ) घींटना, घिंदझना, फैदाना । भुलकड़ (वि०) भूलने वाला । भुजसाना दे० ( छि० ) जलना, मुज़सता । मुजाना दे० ( ० ) झुलवाना, फुसलाना, धोता देना, छुछना करता, मतारण्य करना। ज्ञाना, बदकाना । भ्रुव तव०» ( घु० ) स्वर्ग, आकाश, अम्बर, एथिबी, मूमणठल ।--पाल तव्‌० ( ६० ) राजा, ए्थिदी का पालन, करने वाला भूपति । भुउक्क तद॒० ( पु० ) भुजक्न, सॉप, सपे। अआुबन तत्‌० € घु० ) जगव्‌, लोक, प्राणी, जीए । भुस दे० ( स्त्रो० ) तुप, छोकर, छिलका, अनाज के डठल का चुरा । [ जिसमें मूसा रखा जाता है । भुसेरा दे० ( स्त्री० ) भूसा रसने का स्थान, यह घर भू तत्‌० ( स्प्री० ) भूमि, धरती, एथ्वी । भूइडोल दे० ( घु० ) भूचाल, भूकम्प । भूइसी तद्‌० ( स्त्री० ) देखो “ भूरसी ”। भू जा दे० ( पु० ) भदमू जा, सुर्जी। भू कना दे० ( क्रि० ) भी भौं करना, कुत्ते का शब्द ) भूकम्प तत्‌० ( पु० ) मूचाल, भूडोल । भूस दे” ( खी० ) भोजन करने की इच्छा, खाने फा अमिलाप, छा, भ्रादारेच्छा, यम॒ुपा । भूखा दे० ( बि० ) घुमुच्तित, छपातुर । अगर तत्‌० (वि०) भूमि पा मध्य, सूमि का श्म्यन्तर। भूगोल तत्‌० ( घु० ) भुवन फोप, मद्दी मणदल, एथिवी यी आकृति के विवरण करने घाला शास्त्र । भूचक ठत्‌० (घु० ) विषुवत्‌ रेखा, मध्य रेस्ता, भूमण्ठल । सूचर तत्‌० ( घु० ) स्थलचर, मनुष्य थादि। भूचाल तदू० (० ) भूरुग्प, भूडोल, मुइददोज़, आूमिकस्प । सूद दे० ( खी० ) बालुकामय भूमि, रेतीजी भूमि । सूड़ल दे० ( घु० ) अ्रश्नऊ, अ्रवरख । भूडोल दद्‌० ( पु० ) भूचाल । भुण्डपैरा, भुंडपेया दे० ( धु० ) अराउुन, अपराकुन ! भूत ठत्‌० ( घु० ) फाल बिरोप, अतीत काज्न, योनि विशेष, पिशाच आदि। अधोमुख या उ्यंमुख * पिशाक्ष] रुद्ाजुचर, याज्षमह, हृष्णां चतुदेंशी। --काल € घु० ) अवीत काल | मूतनी तद० ( स्त्री० ) भूत की स्त्री, प्रेवनी ! मूवल तव्‌० (घु० ) शमिवी तक, धरती, भूमि, झूमएदल । है. भूतात्मा ( है१३ ) अंग निखिं??त।छफाहससक४२:२नानचननॉक्‍कड&बकककऑफक्‍इइकअइन-क्‍.__लइ.........._ंं्ैन्‍्0+ं33तवगगग........... भ्रूतात्मा तव॒० ( पु० ) जीवास्मा, देह, बह्या, परमेप्ठी, शिव, युरू, विष्णु । भूति तत्‌० ( ख्री० ) ऐवश्ये, घन, महादेव के अखिमा आदि आएउ प्रकार के ऐश्वय, शिव का भस्स, हाथी का आह्वार, सम्पत्ति, जाति, ऋर्छि नांमक औषधि, भस्म, राख । भूतेश तव॒० (छु०) शिव, महादेवा।.. रिणकारी । भूदार तत० ( घु० ) श्रकर, सूझर, वाराड, भूमि बिदा- भूदेव तत्‌० (० ) ब्राह्मण, छ्विज, विप्र, भूसुर । भूधर तत्‌० (घु०) पर्वस, गिरि, रैल, सूसि घारणकर्ता। भ्ूप तद० ( घु० ) नृपत्ति, राजा, भूपाल, महीपाल। भूपति ( छ० ) राजा, ऋषभ नाम की औपधि । भूपाल तत्‌० ( घु० ) राजा, नृपति, सहीपाल । भूसल दे० (स्ली०) गरम राख, सूर्च किरण से तयी घूल। प्लूभुर्त ( घु० ) गरम घर, उष्ण भूमि-। भूभूत ( पु० ) राजा, पर्वत ) भूमि दत॒० ( स्लो० ) भू, शथिवी, घरती --कम्प ( छ० ) भूकम्प, भूचाछ ।--झा ( स््री० ) सीता, ज्ञानकी ।--पाल (पु०) महीपति, सूपाऊक राजा । भूमिका तत्‌० ( स्ती० ) आभास, रचना, श्रस्तावना, उपक्रम, अन्य रूप धारण, छुझवेश, ग्रन्थों की पूर्वपीठिका, कथामुख, चित्त की अवस्था विशेष । भूमिया दे० ( पु० ) भूमि का देवता, उस सूमि का चाखी भूय दव्‌० ( आ० ) पुनम, फिर, चार बार । [पुनः । भूयाभूय तव० ( झ० ) घार बार, फिर फिर, घुनः भूर दे० (ज्ी०) दक्षिणा, सेंगलोस्सव ससय का द्वान ] भूरसी, भूइसी दे० ( स्ली० ) दक्षिणा विशेष, उत्सव शादि में जो मब्य बिना सपृस्प के ब्राह्मणों को दिया जाता है । अूरा दे? ( ए० ) वर्ण विशेष, पिड़ल वर्णे, कपिल, कपिश । ( वि० ) पिल्नज्न वर्ण का, कपिश । भ्ूरि तत्‌* ( अ्र० ) प्रचुर, यथेष्ट, अधिक, ढेर, चहु। +प्रैम्ा ( छु० ) चक्रवाक पद्ी, चकवा ।--साय ( पु ) सीदड़, स्थार |--लाभ (६ छु० ) घडुत प्राप्ति. शक्षिक लास । भूरिश्रवा तत्‌० (वि०) कीत्तिमाद्‌, ब्रतिशय यशस्वी। ( प० ) चन्द्॒वंशीय राजा सोमदुत्त का पुत्र, मदा- भारत बुद्ध में ये कौरवों की भोर से युद्ध करते थे । पहले अर्जुन ने इनके थाहु, काट डाले थे, बसी समय साथ्की तने तलवार से इनका सिर काठ डाज्ा था | भूरुद तत्‌० ( छु० ) बृक्त, पेड़, रूख, साछु । सूज् ( छ० ) मोज पत्ते का पेड़ । भ्ूर्जपत्र तव्‌० ( पु ) एक बुद्ध की छाल । भूल दे० ( द्ी० ) चूक, विस्प॒ृति, अज्ञान से अपराध, न्लुटि, गलती | भूलना दे० (क्रि०) विस्मरण होना, बिसरना, चुकता। भूलेक ( छ० ) रव्युलेक। [रास्ता सूछा हुआ | भूला विखरा दे० ( वा० ) मूज्ा भटका, सार्गअष्ट, भूला सदका दे० (बा० ) विपय, पतित, रास्ता भूठने से भटकता हुश्ना । भूलताक तत्‌० (घु०) मर्व्यलेक, रत्युलेक, मलुष्यलेक। भरूष दे० ( क्रि० ) भूषित करता है, सजाता है। भूपक तव्‌० ( थि० ) भूषण कारक, अछद्ठारफ, अलझूगर करने बाज्ना, श्टद्रार करते बाला । भूषण या भूषन् तत्‌० ( [० ) [ भूप+ अनद ] आसरण, अलड्भार, हिन्दी के एक भ्रसिद्ध कवि, चीर रस के एक असिद्ध कवि ॥ (वि०) भूषण घारी, अलंकारकारक । भूपित तव्‌० ( दि० ) श्रल॑कृत, शोमित, श्थ्ारितत । भूसा दे? ( ४० ) झुस, चुप। भूसी दे? ( ख्ी०-) चोकर, पछोरन | भूछर तत्‌० ( ६० ) भूदेच, भाद्यण । भ्रुकुटी तव्‌० ( ख्री० ) भों, भौंद, त्योरी । भूगु तत्‌० (३०) भागंब, श॒क्काचाय्यं, पवेत का करारा, प्रयात, सुनि विशेष, विश्यात मुनि, पहले के समय में मद्दादेव वारुणी मूर्ति घर कर पृक यज्ञ करते थे, इस यक्ष में देव कम्या और देवाज्व- नाएँ उपस्थित थीं। देवाड़नाओं को देखकर बच्चा का चीर्यपात हुआ, उसका अपनी किरणों से उठा कर सूर्य ने श्रप्ति में डाल दिया, धसले भृगु अड्जिरा और कवि ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए । इनका देख कर महादेव ने कट्दा कि मे हमारे यज्ञ में डस्पद्न हुए हैं, इस कारण ये इसारे पुत्र हैं। अप्रि से क॒द्दा कि जब पे मेरे द्वारा वपन्न हुए हं तब भट्ट ( ६१७ ) भैरव 552 दिया न जन नमन अल मजा प ६६ न्क दूसरे के पुत्र नहीं हो सकते | मरद्षा ने कद्दा कि , भेड़िया दे० ( घु० ) द्विस्र शन्तु विशेष, हंडार ॥-- इनकी व्पत्ति मेरे बीय॑ से हुई है, अत इनका / घसान ( वा० ) देखा देखी करना, क्रीसी कारण दिता मैं ही हूँ । इसी प्रकार तीनों आपस में |. न रहने पर मी केवल दूसरे ब्णते हैं इसलिये स्वयं विवाद करने लगे । तब देवताओं ने निशंय कर दिया । पुक पुक पुत्र तीनों देवतानं को दे दिये गये | भूयु मदादेव के, अम्रिरा अ्प्नि को और कवि बद्गा का मिन्ने भज् तव॒० ( पु० ) अमर, भ्रल्ति, पटपद, मेंवरा । भ्ड्डराज तत्‌० ( पु० ) पीचा विशेष, भंगरा । भुड्डी तव० ( स्री० ) छीट विशेष, गोरी, लखेतरी । ( ५० ) शिवगण विशेष । भूति तत्‌० ( म्री० ) वेतन, सजूरी, कमाई, मद्दीवा, मासिक या दैनिछ वेतव | -सुक्त ( १० ) वेतन आदी, पैतविक | बेला, नौरर, टइलुवा । भ्ृत्प तत० ( पु० ) परिचारक, सेब, दास, झिछ्ूर, भ्ुए तद्‌० ( गु०) भुजा हु प्रा, सुना हुश्ना, जछ संयेशत के बिना पाया [-नी- ( स््री० ) भूजना । भेझ तव* ( पु ) अन्तु विशेष, मण्हूक थेंग, भेदक, दादुर॥ [ रपदार ६ मंद देन ( खी० ) दर्शन, सेंट, पतादात्कार, सौगात, मैंठना ( क्लि० ) मेट करना, मेंद धोना, मिद्दना, सुला- कात करना | मेंडती देश (स्त्री) बड पदार्थ जो मेंट के समय दिया आता है। नत॒र | मेंठो, भेंट दे ( खी० ) बोठा, डंदा, फल आदि से ऊपर छी डंदी ( क्रि० ) मिद्धी, संयुक्त हुई । -- भेफ ( घु० ) मेंडक, दादुर | भेस ( पु ) सेत्र, बेप, परिष्छद, भाकार, डौल, स्वरूप बनाना (--वारी (पु०) सेप बनाने याछा। भंगा दे* ( वि ) टेढ़ा, तिरणा, माँछा, बहुत टेढ़ा । भेजना ( क्रि० ) पहुँचाना, पठाना । भेजा ( पु० ) सिर का गूदा । भेद ( सी० ) मेंट, दर्शन, दाजी, सौगात । भैदना ( क्रि० ) देखना, सेंट देता, मिझना | भेदी ( छोन ) डाल । में ( स्री० ) देखो भेटी। भेड़ दे? (६९ ) मेढ़ा, सेप भेड़ा है? ( ६० ) मेढ़ा, मेप ! «» भी करना भेडियाघसान कद्ा जाता है । मेडी दे० ( स्त्री० ) मेढ़ी, मेपी, गाड़र । भेद्‌ तत० (पु० ) भिश्वता, दूसरे के अधिदार से इटा कर अपने अधिकार में करना, शप्रुझों के दश करने येग्य चार उपायों के श्रन्तगेंत तीसरा उपाय, | विदारण, विवेचन, विवे5, छिंपी व्यत, धुप्त समा- चार, विच्छेद, प्रघदता। मेदक त्त्‌० ( बि० ) विदार5, मित्रता तोड़ने घाला, विरेचक झोपधि, फोड़ने वाला । मेदकरिया दे? (दि०) सेदी, खेली, पता कगाने बाक्षा, गुप्तचर, जाखूस । [ भर्मश । भेद दे* (पु०) मेदक, चर, भीतरी बात जानने वाला, भेंदू देन ५३०) मेदी,मेद रखने वाढा,मर्मे शानने बाल्ा। भेद्य तद० ( भु० ) मेदनीय, मेद के येग्य । भेना दै० ( स्री० ) मढ्िन, भगिनी ! मेर तद्‌* ( ख्री० ) मेहै, वाद विशेष । मेरो दव० ( ख्ी०) वाद्य यन्त्र विशेष, दुंदभी, सुनादी, डुगडुगिया, नरसिद्दा, तुरदी, परद, नगारा | मेला दे० (५० ) पौधा विशेष, मिटावा । भेजी दे० ( स्ली० ) गुड का ठड्दू। मेय दे० ( पु० ) स्वभाव, प्रकृति, मेई, मम, भीतरी बातें, भंग, सद्ाद, जुदा है, फूट । मेष ददु« ( पृ० ) देश, रूप, भाकार, भाकृति, पूर्व ५, पुरुषों का धाप्तस्थान | मेषज्ञ तत्‌« ( पु ) औषध, दया | मेंस दे० ( ख्री०) स्वनाम प्रसिद पश्ठ विशेष, सद्गिपी ) मेंसा दे ( ० ) मद्विप [ बड़ रोग । मैंसिया दाद या मैंसा दाद दे* ( इ० ) रे विशेष, मैचक दे० ( अब ) आश्रमित, अचम्भित | मैमी तद* ( खो ) माघ शुक्ला पुकादशी, राजा भीम - की पुत्री; दमयन्ती, न की रुच्री मैया देन (६० ) भाई, आता । 7 सैयापा दे (६६ ) भयारो, बन्घुर्द, माईचाग । मैरव ठद॒० ( ० ) शट्टर, महादेव, देव विरोप, भया- शहु रस, याद विशेष, राग दिशेष, पुक सेग, का भैरवी ( बह ) भोंसे नाम, शिवजी के गय का श्धिपति। (वि० ) | भेज्देव तद० ( छ० ) राजा विशेष, ये मालवा के मसयानक, भयछूर, भीपण, कराल | सैरवी घत्‌० ( खी० ) अवधूतिन, अबधूत आश्रम से गई स्त्रीरागिनी विशेष, भैरव राख की खी (चक्र (३०) वासावारियों का मथपरनाय्थ चक्र विशेष मैरों तदू० ( छ० ) भैरव । मैहुँ ६० ( स्त्री० ) अह्ुज वधू, छोटे माई छी स्त्री । जैकिड़ा दे० ( वि० ) बढ़ा, मेटटा, स्थूछ, विशाल्त मेकना दे० ( क्रि० ) हूलना, ठोंकना, खुभाना, मौं सौ करना । भांकल दे० ( पु० ) भोस्ता, भूतहा, दोनदा | आंघरा दे" (६०) तल्षघरा, तलकोठा, नीचे का घर । भोंड़ा दे० ( वि० ) छुदौल, कुत्खित रूप बाला | भोंधरा दे० ( घि० ) भोधरा, कुण्टित, कुरिसत, बिना घार का ! भोंदू दे० ( ३० ) सूर्ख, वेबकूफ, सीधा, भोज्ञा, अन- नान, अनमिज्ञ | ( बाजा । झंपू दे” ( पु ) मरसिंघा, सींगा, पुक प्रकार का भेई दे० (स्ी०) कद्दार, घीमर, पालकी ढोने वाज्षा । आकस दे० (ु० ) मन्त्र यन्त्र करमे बाला; शोका, ठोनद्ठा ) झेक्तव्य ( बि० ) भोजनीय, खाते योग्य । क्षैका तद्‌० ( बि० ) सेग करने वाक्य, मेोमी, खाऊ, अधिक खेया । मिलिक ज्लाक ( वि० ) खानेवाला, ( घु० ) विष्णु, भर्ता, जाग तत्‌० ( पु० ) खुख छुःख का अलज्जुभव, स्री आदि का उपभोग, साप का शरीर, पाकूत, भोजन, तिर- स्क्रार, अपमान, देवता का नैचेच, गंगा की उस घार का नाम जो पाताछ में है ।--राग ( छु० ) देवता का सेवन पूजन । ज्ेएाना दे० ( क्रि० ) सुख दुःग उठाना, करे छा फल्ष भोगना, छुख दुप्स़ सहरा । झेगा दे० ( छु० ) छुछ, कपट, घेला +--वंती तत्‌० ( सत्री० ) नाग नगरी ! भेगी तद्‌० ( वि० ) विद्यासी, ऐश्वर्यवरानू, व्यसनी, ढुराचारी, आानन्डी, छुखी, प्रारच्धी ॥ [ फछ। झाग्य तत्‌० ( बि० ) सोगने गरेग्य, सुख दुग्ख, कर्स भेज दे? ( छु० ) जेनार, आहार । अन्तर्गत ,घारा नगरी के राजा थे।ये ३१ वीं खोष्टीय शवाब्दी में वत्पन्न हुए थे | थे केचछ राजा दी नहीं थे, किन्तु संस्कृद साहित्य का शान इन का आसधघ था | खरस्वती कृण्ठाभरण, भोज चम्पू आदि इनके अन्यों का संस्कृतज्ों में बड़ा आदर है | सकति शाल के भी ये बड़े भारी पण्डित थे | इन्होंने मजु-संदिता कह्ली एक टीका बनाई थी। इन्दींके समय में भारत में संस्कृत विद्या का बढ़ा प्रचार था | संस्कृत के भ्रधिर्काश साहित्य अन्ध इन्द्दींके भ्राश्चित कवियों के बनाये हैं । भेज्जन तत्‌० ( छु० ) श्राहार, खाना ।--ख़ानी दे० ( खी० ) रसाईदार, जद सब अकार के सोज्य पदार्थ प्राप्त है *-ेय (बि०) भोजन के येग्य । सेज्ञपन्र दद्‌ ० ( ए० ) भूजपश्र, इच्च की छाल | जाज्य दे? ( बि० ) भेजजन येग्य, खाने के येग्य । झाड़ल दे ० ( वि० ) अञ्क, उपधातु विशेष । भाता दें० ( बि० ) सेयर, कुणिठत, मुराधार । जापा दें० ( छु० ) मन्त्र यन्त्र करने बाला, ओका । ओमभीरा ( घु० ) मणि विशेष, विदुम, अवाल्ल, मूंगा ज्ञार दे० ( सत्री० ) आतः्काल, सबेरा, विहान | जाला दे० ( वि० ) छलहीन, निष्फपट, सीधा, भोंदू। भों दे० ( ख्री० ) म्कटी, अ. । मौंकना दे० ( क्रि० ) हों हों करना, स्का; विया अयोजन वक बक करना, कुचे के बोलने का शब्द] सचाल दें० (पु०) भूढोल, भूकप, भूमिकम्प, अआूचाल | 5 [ चक्कर । और दे० ( छु० ) भंवर, आवते, घुमाव, पानी का भौंरा दे ( पु० ) अमर, अलि, पटपद, मंप । ऑंरियाना दे० ( क्रि० ) घूसता, फिरना, चक्कर काटनर, असर की गति से चलना। भौंसी दें० ( खी० ) आवते घोड़े का एक दोप और गुण । गले के नीचे की ओर जिस घोड़े के बाल फिरे रहते हैं वह घोड़ा अच्छा समक्ता जाता है। परन्ठु वहीं वालों का आव्े यदि किस्री दूसरे स्थान पर रहता है तो वद दोप समझा जाता है। यदि यह सनुप्य के मस्तक पर आये की ओर हो वो दो खीहन्ता भोग समस्त जावा है । भौंपना भौंपना दे० ( क्र० ) हैं। है। करना, भौकना । मी दे* ( पु०) मय, ढर, शह्टा, व्रास । भौंचक दे० ( श्र ) अकस्माद, सहइसा, अचानक । मीज्षाई दे ( स्ली० ) माभी, बढे भाई पी ख्री । औतिक ठत्‌० (वि० ) भूत सम्बन्धी, भूत का, अदभुत ॥। मना दे" ( क्रि० ) भ्रमण करना, फिरना, घूमना | भौनास दे० ( ० ) हाथी बांधने फा खूँटा । ममवार तत्‌० ( ६० ) मकलवार। प्रंश तत्‌० (पु०) ध्यप्त, नाथ । प्रम ठत५ ( 9० ) सन्देद, संशय ! अ्मण तत७ ( पु ) पयेटन, धूमना, भाँवर फिरना । अमर त३*» ( घु० ) मौरा, अति, मधुप। ९ ई३ 9) मक्खी अष्ट तत्‌» ( वि० ) पतित, थ्रधर्मी, गिरा अधपतित, स्थानच्युत --ता ( स्ो० ) पातित्व, दुष्टता। प्राता तद॒० (पु० ) भाई, सहोदर, वन्धु । भ्ातू ( पु० ) सवाभाई, सद्दोदर आता । आराल्त ( वि० ) भूला, भठफा । आ्रान्ति तत्‌७ ( ख्ी० ) भूल, अम, सशय, सन्देह। आझामक तव्‌» ( ४० ) रोग विशेष, मू्चा रोग, मिर्गी । ( गु० ) सम्देद उत्पन्न फरने वाला, धूमने बाला, घुमाने चाजा। म्रृतव्‌* ( स्त्री० ) मी, सदी । प्रूण तब० ( चु० ) गमे, प्रभेस्थ बालक ।-हृत्या ( खी० ) गर्भपात, गधे गिराना । घुभडू व्‌ ( पु० ) ध्योरी चढ़ाना, घुईी । स्स में स्यक्षन का पदीसवाँ वर्ण, इसका उच्चारण स्थात ओए होने से यह भोष्य्य वर्ण कहा जाता है। में व» (घु० ) महा, शिव, चन्द्रमा, विष्णु, यम समय, विष मँगतर ( जो०) वचनदत्ता, माँ? । मेंगता दे० ( पु० ) मिचुक, सिपारी क्‍्याल, दरिद | मुँगनी दे० ( स्लौ० ) उधार, सगाई । भेगरा दैे० ( पु० ) बण्देरी, दाद का सिर, खपड़ा । मेंगवाना (क्रि०) सेंगाना, पास काने के लिये कदना । मेंगूला (१०) माला यूयना मेंज़ीरा ( पु० ) पुछ प्रकार की साफ । , मेंडुआ (४० ) भ्रद्न विशेष | मेंढ़ना (क्रि० ) दकना, लगाना, छिप्ाता, होलफ आदि पर धाम सइना ! महके दे० ( घ० ) मावा के घर, नैहर, पीर । मध्यी वद० (छी०) दोस्ती, मिन्नता, मेत्री, मुइब्दत । मकड़ा दे० (१० ) घीट विशेष, छात्र वा फोड़ा । मकदइना दे० (कि०)टेदा चकना,भी घुगना,जी छिपाना। मकड़ी दे ( श्री० ) कौर विशेष, छोटा भकदा । मकर दत्‌० ( धु० ) जक्ष जन्तु विशेष, दशम राशि, कामदेव कौ प्येज्ञा पा चिन्द, कुपेर का घन विशेष, साघ का सद्दीना, फ्रेंच, सयलापत, मसंगरापत ! (३०) चल, कपट, घोसा--कैत ( पु०) पामदेव। --ध्यज्ञ ( पु० ) फामदेव, रस सिन्दूर विशेष, चन्द्रोदूधरस | हे मकरन्द ठत० ( पु० ) पराग, पुष्प रस, पुष्यासप, मकराक्त वत० (घु०) राचस विशेष, भद्द रावण के सेनापति खर रात्स या ध॒त्र था, यह स्वय भी रावण फा सेनापति था। इसके! रामचन्द्रजी ने सारा था। [ पहनने या गहना विशेष । मकराझुत ( ६० ) भर के समात झावार या कान में मकयना दे० (४० ) एक स्थाव या नाम, णह्ाँ रवेत पत्थर निकलता था ! यद स्थान मारवाड़ में है । भमकरिन ( प० ) सम॒द, सागर । मकरी दे ( स्वी० ) भगरी, मगर फी सादा, भीन, जाल लगाने वाली मकद़ी, एक रोग़, फरेयिन । भकरोना दे० ( क्रि० ) जिगाना, गीला करमा, भोदा करना, चाऊँ करता । मकुद् धत्‌ू० ( ३० ) भुकुठ, मौर, सिस्पेस, डितीट। मकुर ( पु० ) आरती, दर्पण, फचनार का पृष्प ! मकोाड़ा दे० (चुष ) चीथ, ची्ेटा, प्िपड़ा ! माय दे० (प०) एक घृध्त और उस का फल] मज्फन दे० ( ६० ) नैने, नरतीत, मापन । भक्सी दे० ( ख्री० ) म्दी, मशिका, माली । भख भख तत्‌5 ( घु० ) यज्ञ, ऋतु, याय | मखन दे० ( घु० ) माखन, मक्खन, नैनू ! भखना दे० ( ० ) दृाथी विशेष, छोटा हाथी | मखतिया दे० ( $० ) माक्षन बेचने वाला [-दूध दे? ( पु० ) मक्खन निकाला हुआ दूध ) मखाना दे० ( छु० ) फल विशेष, औषध विशेष । मंखी दे" ( क्ली० ) मकसी, सक्षिका | मंग तदू० ( पु० ) सार्ग, डगर, बाद, राह, पेंडा । मगध ८ छु० ) वंयुक्त भ्रान्व और वंगाढ की सीमाओं के बीच का देश, विहार का दक्षिणी प्रान्त मगघ कहलाता है। बंदी, भार । मगजेश्वर ( पु० ) सगध का राजा, जरासन्ध । मगत दे० ( बि० ) भानन्दित, हर्षित, प्रकुछ (ता (स्त्री० ) द॒पे, प्रसलता | [ विशेष | मगर तद्‌* ( १० ) सकर, मच्छ, ग्राह, जल घन्‍्तु मगरमच्छ ( चि० ) मस्त, खतस्त्र । मगरा दे० (जि० ) ढोठ, निलेज्म, दृष्ट, घमण्डी अहक्कारी । मगराएँ दे० ( छ्ली० ) ढिठाई, ४४तता, मचलछाहट | मगरापन दे० ( ७० ) सचलई, छछ्टता, घमण्ड | मर्गरेला दे० ( पु० ) बीज विशेष | मसगसिर तदू० ( घु० ) माय शी, अधह्षत महीना। मगददी ( बि० ) सगद का, वनारसि पार विशेष | मगहैया दे० ( छु० ) सगधघ देशवासी । मगरी (स्ली० ) सगर की सादा । मशुरो( स्त्री० ) सत्स्य विशेष । मग्न तत्‌० ( वि० ) छ्ूबा हुआ, जीन, तन्मय | मघसन दे० ( ४० ) महक, सुवास, सुगन्घ, उत्तम गन्ध । मघवा तत्‌० (५० ) इन्द्र, देवराज, सुरवति, देववाओं का 'अ्रधिपति ) मधा चत्‌० ( घु० ) भक्षत्र विशेष, दश्र्चा नछत । सश्नोनी ( स्व० ) शची, इन्द्राणी । मह्ठ दे० (६०) मालाजजप करने की साछा,सुमिरची । मड़ुत्त तत्‌० ( पु० ) अमिप्रेत, अर्थ को सिद्धि, कल्याण, शुभ, क्षेम, कुशल, झह विशेष, चतीयम्रह +--वार ( घु० ) औसवार, सहुल का दिन, तीसरे अह का दिन >सम्राचार ( घु० ) अ्रदछा संवाद, सुसम्धाद । €( ६१७ ) मसचछामचर मद्ूलाचरण तत्‌० ( पु० ) मज्ञल के लिये अजुष्ठान, महल कृत्य, भन्‍थ के आदि में इष्डदेघ की वस्दना। मड्डल्ताचार तत्‌० ( धु० ) सद्जत्न, उत्सव । मड़लाघुखी वदू० ( बि० ) गवैषा, गाने वाली, मड़ल मनाने वाली, रण्डी । मडूुली तद० ( वि० ) मज्नल करने वाला, मंज्जलकारी कल्याणदायक। जिसकी कुणडली में जन्म, चतुर्थ, सप्तम, अष्ठम और द्वादृश स्थान में सड़ल पढ़ा हे।, यह येग यदि घुरुप में पड़ा हो तो स्रीहप्ता योग कहा जाता है, और स्त्री में पड़ा है| तो पुरुपहन्ता। मड्गद्य ( घ० ) मसूर, जीरा, दही, सुदर्ण, सिन्दूर, पीपल, नारियल सफेद चन्दन, गारोचल, कैथ, बेल, ( ज्ली० ) शाक फिशेष । मड़ुसिर तद० ( छु० ) मार्यशी्ष, अगहन का सहदीना। मचक दे० (स्त्री० ) गाँठ की पीड़ा, घीरे धीरे दुर्दू ॥ मचकना दे० ( क्रि० ) न्यूथा हेना, घर्रामा, पीड़ा द्वौना । [ चलाना । सचकाना दें० ( क्रि० ) सठकामा, कपकाना, आँख सचलना दे० ( क्रि० ) रचता, उठता, होना, सम्पादग करना, किया जाना । [ सचमच शब्द | मचमसच दे० ( अ० ) चरघर, सरमर, ध्ननि'विशेष॑, मचमचाना दे० ( क्रि+) मचमच करता, हिलाना, कँपाना, जिससे मचमच शब्द है। । मचलना दे० ( क्रि० ) मदकना, धसंड करना, अभि- सान करना, अहक्कार करना, हठ करना, छुरामह करना । [इृठ । मचलपन दे० ( घ० ) मचलाहट, अमिमान, अहझ्नर, मचला दे० ( वि० ) हडी, हठीला, अहक्लरी, अभि- मानी, घसंडी । सचलाई ९ स्त्री० ) देखे! मेंगराई । [ बहाना करना । मचलाना दे० ( क्रि० ) ४5 करना, हुराभनह करना, मचलाहा दे० ( वि० ) हटीला, ढीठा. छप्ट, घमंडी। मचवा दे? ( छुर ) खाद का पाया, छोटा खबोला । मचाच ( छु० ) शिकार खेलने या खेत की रखवाली के लिये जो ऊँची बैठक बनाई जातो है उसे सचान कहते हैं । [ प्रारम्भ करना । मखाना दे” ( क्रि० ) करना, होने देना, उठाना, मचामच दे? ( श्र० ) कटपट, लदालद, घयापच ॥ का» पा9००नकन मचिया ( दैशेम ) मद्ठा मजिया दे० ( खो० ) पीढ़ा, छोदी साठ, मोदा। मचाड़ना दे० ( क्रि० ) निचाइना, ऐठना, यारना । मझार तद॒० ( पु० ) विलाव, विडाल, विश्ला । मच्जु, मछ्जुल तव० (वि० ) सुन्दर, मनोहर, मच्छ तद्‌० ( पु० ) मबली, मस्य, मीन । +. रमणीय, मनोज्न, अभीप्सित, इष्ट। मच्छुर दे० ( घु० ) मशक, मसा । | मज्जूपा तत्‌० (खी० ) पेशरी, पिदरी, सन्दृक़ची, मच्छेड दे० ( पु० ) मच्छर ! छोटा सन्‍्दूक़, सस्कृत व्यातरण के एक अन्ध या मन्द्नी दे” ( स्री० ) चुमा, चुम्बा, मीठो, मीठिया । नाम । [ इवभाद। मछन्र दे० ( पु० ) चूहा । ( वि० ) मूर्स, अनभिज्ष, | मठक दे० ( स्प्री० ) चेचला, भावली, नखरा, बड़ी रूँछ वाला । मद्कन, मठकना दे० ( क्रि० ) ऑँफ घुमाना, थौस मछूजी दें० ( स्री० ) मत्स्य, मच्च, सीन । +. चमकाना, झॉँक्‍ना, ताफना । (पु०) पुरवा, महछुग दे? ( प० ) घीवर कैवर्ष, मछुली पकडने मिट्टी का छोटा वरदन । बाला । [ विशेष । | मटका दे० ( घु० ) बढ़ी गगयरी । _[ कटाक्ष घरना । मजीठ दे" ( पु० ) रहविशेष, लाल रह, औषधि | मठकाना दे० ( क्रि० ) घास घुमाना, श्रॉस चमराना, मरनीत दे० ( वि० ) पुराना, सस्ता, निकम्सा । मठकी दे० ( खरी० ) मिट्टी का छोटा घढा, गगरी। मनज्नोरा दे० ( पु० ) वाद्य विशेष, राम । । मठकेठा दे० ( घु० ) मिटटी का बना घर । मजूर दे० ( पु० ) सेवक, परिचारक, भूल्य, कामराजी, | मदर दे० ( घु० ) एक श्रव का नाम ।[ मटर । दास, दैनिक वेतन पर फाम बरने घाला कारख़ाने | मठ्स दे० ( धु० ) एक प्रकार का रेशमी वद्ध, बड़ा में काम करने चाला ।--ी ( स्री० ) दैनिक चेतन, | मदरी दे० ( स्री० ) छोटा मदर, छीमी । मेदनताना १ मद्याना दे० ( क्रि० ) माटी लगाना, माटी चुपडना, मश्जक ( ६० ) स्नान करने चाला पुरुष । सहना, सुन्न द्वो जाना । ॥ मज्जन तत्‌० ( पु० ) स्नान, नहान, घो धो कर नद्दान। | सदियारा दे० ( एु० ) छवाऊ खेव, जे खेत जोता मउज़ा तत्‌« ( ६५ ) बैदक के सप्त घातु के अन्तगेत | ._ जावा है, जिसमें मद्दी दे।। धातु विशेष, चर, इ्डी के भीतर का यृदा ।--सार मट्याव दे० ( घु० ) उपेदा, उदासीनता, प्रदर्शन, ( पु० ) जायफल । आनायानी, सदन । सज्जित ( वि० ) नदाया हुथआा, दूगा हुआ । मद्दी दे० ( स्त्री० ) माटी, झत्तिसा, मिद॒दी, निर्जीद समता दे० ( वि० ) साध्यमिक, बीच का, मध्य का, शरीर ।--करना (वा० ) नाश फरना, विगादना, मध्यम, ममोला, न यद्मा न छोटा, मध्यम क़दका। भम्कारिया मफारी दे। ( पु० ) मष्प, माँक, बीच, अनार | ख़राय करना |--खाना (वा० ) मांस खाना, दुख पहुँचाना, पीदा देना ।--डालना ( वा० ) | सपना, साइना, रूगड्ठा मिद्ना, दोप छिपानां । मनी दे ( खी० ) मम्ोली, यदेली । |. द्वेंना--( बा० ) मुर्द गाइना, मु्दो दफन करना, ममेला दे० ( यु० ) वोचला, सप्य का, मध्यम] तोपना, द्विपाना, किसी का छिठ प्रशाशित नहीं ममेली दे० ( ख्री० ) एड प्रकार की छोरी गाडी, | दोने देता ।--पर लटुना ( वा० ) भूमि के लिये । । ! ममेली । ऋगढना, व्यर्थ लड़ना, द्वोटी सो बात के लिये मश् तव० ( पु० ) मचाना, उद्चासन । / झदना ।--में प्रिलना ( बा० ) बेकार द्वाना, मजा, मचा दे" (घु० ) साठ, चौकी, सिद्यासन । ख़राब द्वोना, नष्ट द्वाना, बरयाद द्वोना ।--दोना मन, मंज्ञन तव० ( घु० ) माजन, मांचन, दाँद घेने | ( दा० ) निर्दल होना, सत्यानाश द्वेता, बिना या द्रव्य, चूर्ण रिशेष । [ साफ़ करना । '._ काम या होना, येझर होना । मशना, मेंजना दे* ( क्रि० ) उजला दाना, फरदाना, | मदुका दे० ( पु० ) सब्शा, बडी गगरी मज्जरी दव० ( छ्ली० ) यौर, मुइक्त, फ्ली, कोंद्री ।.., मद्दा दे ( पु० ) घाँद, मठा, तक। -मेंठ मठ तत्‌5 (० ) छात्रावास, छात्रों के रहने का स्थान, संन्‍्यासी साधुओं का घर, पाठशाला, देवागार । मठर ( घ० ) ऋषि विशेष । [ पकवान ) मछड़ी दे० ( स्त्री० ) सठरी, एक प्रकार का निमकीन मठसी दे० ( स्त्री० ) £ मसदढ़ी ! | मठा दे० ( छु० ) भद्गा, मही, घेल, तक्त | ( वि० ) ढोला, शिथित्न, आलसी । मठार ( पु० ) घो का मैल । मठेोर दे० ( पु० ) मठका, भाँड, सठकना | मभड़वा दे० ( पु० ) यज्लस्तस्भ, वह लकड़ी का खंसा < जिसके पास विवाह का कृत्य पुरा किया जाता है। मड़ियाना दे" ( क्रि० ) चिपकाना, जमाना । मडुआ दे? ( छु० ) एक अक्ष का नाम । भड़ेडु दे० ( घु० ) ऐड, पेड का एक रोग | मड़ेड़ना दे० ( क्रि० ) ऐठला, चक्ष देना । लड़े।ड दे” ( पु० ) ऐंठन, सरोढ़ा, श्रूल्ल की बीसारी। मदन ढे० ( स्त्री० ) अवरण, अस्तर, ढालन, खेल । मक़चा दे० ( क्रि० 9) तोपना, आवरण करना, छिपा देना, कपड़ा चढ़ाना । मद्गा ढे० ( पु० ) कैठा, बढ़ी केठरी । मी दे० € स्त्री० ) कुटी, फॉपड़ी, मस्डप । मड्ठैया दे० ( स्त्री० ) छेद छप्पर, बहुत छोरी कोंपड़ी । मणि तत्‌० ( छु० ) पत्थर बिशेष, सुक्ता आदि रल, सग ।--कंशिका ( स्त्री० ) काशी के एक त्तीथे का नाम कार ( पु० ) मणियुक्त अलक्षार आदि बनाने बाला जैहरी, न्याय के चिन्तामणि नामक अन्थ का कर्त्ता ।--प्रोच ( ० ) घवाधिपति छुवेर के पुत्र का नाम। -पूर (७० ) पद्चक्र के अन्तर्गत नाभि चक्र स्थित तीसरा कक्र ---वन्ध (थु० ) कलाई, पहुँचा |--मणडप ( छु० ) रबमय सृह ।-म्र (बि० ) सणि हारा निर्मित, प्रभूत रत्न युक्त +--माल (खी० ) समणिमय हार, सणि की साला, दन्‍्तक्ञत विशेष, लच्मी, दीसि! +-हर ( छ० ) देखो सशिमाल। मणियान तत्‌» ( यु० ) कुबेर के एक कर्सचारी का । नाम, एक यार इसने अज्ञान से महपिं अगस्य के सिर पर थूक दिया । सद्ृ्षि ने भजुष्य द्वारा सारे । ( हश£ ) मण्ड्की जाने का इसको शाप दिया । गन्धमादन पर्वत पर जब यह रहता था उसी समय सुच्र्ण कमलें लेने भीमसेन वहाँ गये और उन्हीं के हाथ से वह मारा गया । । मणशियाँ या मनिया दे० ( ख्री० ) साला का दाना। मणियार दे० ( ० ) मनिहार, चूड़िहार, चूड़ी वाला, चूड़ी बनाने और ब्रेचने वाला । सरण्ड ठत० ( घु० ) भाँद, जूस । मण्डल तत्‌० (पु ) भूषण, अलक्कार, गहना, सजने की वस्तु । मण्डप रत्‌ू० (घु० ) जन विश्लामग्रहद, तृणादि निर्मित देवगृह, मद्वां, ब्याह के लिये बनाया हुण सृह। मण्डल तत्‌० ( घु० ) चन्द्र सूर्य के बाहर फी परिधि, परिवेश, गेल, चक्र, संघात, समह, सैनिकों की स्थिति विशेष, ब्याप्नख नामक गन्ध दृल्य, कुल, नगरों का प्रधान नगर, जनपद, जिला, सूवा । मण्डलाकार दत्‌* बि०) गेक्लाकार, बत्तुंलाफार । मण्डलाघोश तत्० (पु०) मण्ढल्षेश्वर, मण्डलाध्यक्ष । मण्डल्वाना, मंडलाना दे० ( क्रि० ) घूसना, फिरना, चक्कर काट कर घूमता ! मण्डलिया दे० ( पघु० ) कपोत विशेष । मणडत्ती तत॒० ( खी० ) समूह, सभा, जथा, यूथ । “+क ( घु० ) दस झाख की आय वाला । मण्डवा, मेंडवा दे० (पघु०) मणडप, कुझ, घेरा, बैठक, वृण, निर्मित देवगृह । मशडची, मंडवी दे० (खत्री० ) श्रज्ञ विशेष ( मण्डा, मंडा दे० ( घु० ) पेड़ा, दृध्ध की सिठाई । मणगिडत तल० (वि० ) भूषित, अलंकृत, वेष्ठित, जड़ित, शेामित, शच्नारित । मणिडियाना, मंडियाना दे० ( क्रि० ) लेई लगाना, कंसप करना, कलप चढ़ाना । मणडो, मंडी दे० ( झ्ो० ) हाट, बाजार, अन्न आदि बिकने का स्थान, गेला, गज्ञ । मराडूक तत्‌० ( घु० ) भेक, बेंग, मेढक, झुनि विशेष । मणडूकी (ख्ो० ) आाह्यी, प्रझशमा सखी, सेढ़क को भाढ़ा, मेडकी, निपुण स्त्री । 2 मत मत वत्‌5 ( घु० ) अ्रमिप्राय, सिद्धान्त, आशय, रीति, ढब, धर्म, धर्म या शास्ष का मन्‍्तब्य, पिचार, पन्‍्य, भर्मेपन्‍्च । -मनान्तर ( घु० ) अनेक मत । +-विरोधो ( छु० ) धर्मेविरोधी, अधर्मी ।--नव- लम्बी ( वि० ) मताश्रग्री, धर्मानुयात्री । मतवारे दे० (छ० ) मर्त, उन्‍्मत्त, दीवाना, पागल अहझारी, शरारी । मतड्ढ तत्‌० ( पु० ) हाथी, हस्ति, गज, करी, ऋष्यमूक पर्वत वासी, एक मुनि, वानर-राज बालि ने जब दुन्दुमि नामक असुर के सार कर फेंका तब उसके शरीर के रुधिर का छीटा मसद्ग मुनि के शरीर पर पढ़ा | इससे हुद्ध देकर मुनि ने वालि को शाप दिया कि ऋष्यमूक पंत पर आने से यालि की खत्यु देगी । तभी से बह ऋष्यमूक पर्वत पर नदी ज्ञाता था । इस्रीसे जब सुभीब फिप्रिन्धा से निकाले गये तब यालि के भय से इसी पर्वत पर रहना उन्दोंने उच्चम समा । मतमा दे० ( घु० ) ऊस का एक भेद। मतभेद ततू० ( घु० ) अमिप्राय विरुद्ध सिद्धान्त । मवमरतान्तर ( वि० ) श्रन्य मज़दइव । महराना दे० ( क्रि० ) मनानां, समझना, बुझाना, जनाना । - मतलाना दे* ( क्रि० ) जो घिनानां, जी मयना, जी मचलाना। मततवाला दे० ( पि० ) उन्मत्त, साता, मदमाता, अदृद्धार। मतपिरुद्ध ( वि० ) धर्म के विपरीत | मतहीन तत्‌० ( वि० ) मतिद्दीन, नियुद्धि, डुद्धिदीन। मता दे० ( वि० ) उपदेश, परामर्श, दिचार, सम्मति, सलाह 'न्वर (घु० ) _मिश्नमत, विसूद सम्मति ।--चलम्बी ( 8० ) मताश्रयी, मद पर चलने घाला । मति सत्‌« ( स्री० ) ब॒ढि, मेथा, मनीया, थी ।-- घोर ( वि० ) छ च॒द्धि ।--प्रम ( प० ) मूल, बुद्धि विषर्घय ।---पमन्द्र ( वि० ) क्मथ्क्‍ल, मन्‍्द चुदि ।-मान्‌ ( पु० ) चठुर, बुद्धिमान, विज्ञा हीन--4 वि० ) भासममक, मूसे । सतिष्ठ ( वि० ) दा वुद्धिमान, महानचतुर ( हरे ) 3 नी अल बज जी लक डर, 7 हर कल अत न लव नीक की. मल मम री जम शअ बम म दर पक 7 शत मी क असर मदारी मत्त ततू० ( ब्रि० ) उन्‍्मत्त, मगवाला, पागल । मत्य ( घु० ) मथली । [ की बढ़ती ने सहना । मत्सर तत्‌० ( घु० ) द्वेष, डाह, इप्यो, जलन, दूसरे मत्सरता तत्‌० € खी० ) दे प, दिसऊटिया । मत्स्य तत्‌० ( पु० ) जल जन्तु विशेष, साठ, मछली, सीन, पुराण दिशेष, सगयान का अथम अचत्तार, विराद्‌ देश ।--गन्धा (स्री० ) मच्चोदरी, व्यास की माता ।--णड ( पु० ) मछली वा अंडा । +-वित्ता ( स्री० ) उदनी , भौषधि विशेष । मंथन ठत्‌० ( पु० ) बिलावन, लेइन । मथना दे० ( क्रि० ) मदना, विलेना, घी निकालना-। मथनिया दे० (खी०) दि सबने की बनी हुई विशेष रूप की लक्ड़ी मथनी दे० ( स्री० ) महानी, मथनिया । मथा दे० ( ५० ) साथा मस्तक, कपाल्, सिर । मथानी दे० ( खो० ) दही महते की हँडिया । मथित ठन्‌० ( वि० ) मथा हुआ, विलेया हुश्रा । मथुरा तत्‌० ( स्ती० ) मगर पिशेष, सप्तपुरियों के अन्तर्गत पुरी विशेष, श्रीकृष्ण का जन्म स्थान, हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ । [के वासी। मधथुस्या तव्‌० ( गु० ) माथुर, बाते आह्यणं, मथुरा मथुरेण ( ६० ) श्रीकृष्णचन्द मथार दे० ( पु० ) चन्दा, बिहरी, चिद्ठा । मयौरा दे” (घु० ) सूरजमुखी दाता । मद तद॒० ( घु० ) गडे, मचता, मेह, सद्य, मादक बस्तु ।--माता ( वि० ) मतयाल्ा, उन्मत्त, अ्रह- झारी । मद्क ( घु० ) अफीम से वनी नशीली वस्तु | मदकठ ( ४० ) घीनो, खाँड़ । मदर ठत्‌० ( घु० ) कामदेस, वसम्त ऋतु, घत्रे का बृद्ध ।--गेपाल (छु० ) श्रीृटृष्ण ।--चतुर्दशी ( स्ली० ) चैतशुद्धा १० ।“पाठक (छु० ) केायल ।---बराण ( पु० ) बामदेय या बाण, पुक कूल का नाम -मेटन (घु०) ध्रीहष्ण । न-लजित ( ६० ) छुन्द विशेष । मदार दे० ( घु० ) अ्रके दब, अख्वन का पेह । मदारोी दे० ( पु० ) वबाजीगर, इख्द्रगाती, सॉंप वाला, नटयर । प म्रदालंसे ृ्‌ देश ) मंद्सा मदालस ( घु० ) आलसी । सव्कि दे० ( छु० ) अमिसानी, अहड्ारी, घमंडी । सद्रि तत्‌ ( स्तरी० ) सुरा, दारू, सद्य, आसव । मदीय ( वि० ) मेरा, हमारा । [ घमंडी । मदोन्पत ( वि० ) सदसाता, यर्चीला, अभिसानो, मद्झु ततू० ( घु० ) अन्न विशेष, सूस । मदूणुर दें० ( घु० ) भत्थ्य विशेष, एक प्रकार की मछली, मछली की एक जाति । मद्य दत्‌० ( छु० ) सुरा, सदिरा, मद, दारू शराब । ++प ( घु० ) मदछयपो, शरादी, मय पीने वाला । मठ्र (छु० ) सारवाड़, खुशी, हफ। मद्रक (बि० ) सारवाडी, सहसुता ( स्वी० ) भाद्दी । मधु तन्‌० ( छु० ) मद्य, मदिरा, पुप्परस, शहद, चैत्र, महीना (--कर ( घु० ) अमर, भौंस ।--करो (स्ली० ) सधूकरी, अतिथिमिक्षा --केप छ०) शहद का छाता [--#छुदा ( त्री० ) मार को शिखा, बूटी ।--प ( छु० ) सँवरा, अमर, अलि । पक ( 9० ) दधि युक्त मधु, दही और शहद । पोड्शेपचार पूजा का छृठवाँ उपचार |--मास (घु० ) चैन्न, चैत का महीना । मधछुप ठत्‌० (४० ) सशुपान करने वाला, भारा, फूलों का रस पीने वाला | मधुपण दे० ( छु० ) पक्काफल, रखयुक्त फल । मजुपुरी ( ख्ी० ) सधुरा नगरी । सुमल तत्‌० ( छु० ) मेमम । मधुपुप्प (४० ) सहुआ । मधुमास्ती ( स्ती० ) शहद की सक्‍्खी । मधछुमाद दे ( पु० ) रागिणी विशेष । मधुर दत्‌० ( छु० ) भीठा, खुमिप्ड (---ता ( ख्री० ) मिठास ।+सा ( छी० ) दाख, अँगूर । मधघुरी दे० ( स्थी० ) मीठी, रसीली । मधुकरी, मधूकरी ठत्‌० ( स्त्री० ) घाह्मचारियों की भिक्षा, घृति विशेष, मछुकर की दति । सुब्रत ( ० ) भौंरा, असर। * मध्य तत्‌ ( वि० ) अन्तराज्ष, बीच, माँक, सझ्तार । +>भाग (छु०) मध्यस्थान, वीचे बीच |-- दिवस (घु० ) मध्यान्द, दोपहर देश ( घु० ) भध्य का देश, बीच का देश लेक ( 5० ) मड॒ष्य लेक, सर्वेल्लेक, एथिवी ।--चर्ती ( स्त्री० ) चचवैया, विचवई --ख्थ (घु० 9) वीचवबाला, निर्णय कर्ता ।--स्थल्त ( घु० ) करि, ऋमर, वीच का ख्यान । मध्यम तत्‌० ( छु० ) स्वर विशेष, राग विशेष, उप- पत्ति विशेष, सध्य देश, ग्रहों की सामयथिक संज्ञा, सध्य सें उत्पन्न ।--पायडव ( छु० ) अजुँच, घन- आय, सच्यसाची । मध्यमा तत्‌० ( स्त्री० ) दृषरजस्का सारी, अँगुलि विशेष, नायिका विशेष यथा : -दोहा ।-- & प्रिय सों द्वित लें हित करें, अनहित कोने माल । ताहि मध्यमा कहत हैं, कवि मतिराम सुज्ञान ॥- --रसजान । मध्याह तत्‌० ( छु० ) दिन का सथ्य, दोपहर । मन तत्तू० ( छु० ) चित्त, हृदय | ( दे० ) परिसाण विशेष, चालीस सेर' की तौंल ।“-का दे० ( 8० ) जपमाला की थुरिया, मणियाँ, गले की हड्डी ।-कासना तद्‌० (९ स्त्री० ) अभिलाप, इच्छा, सनोरथ +--मारे ( छु० ) उदास, सुस्त, डिन्तायुक्त सनई दे० ( खी० ) सजुप्य, नर।.. [ वान्‌, ससभे । मसनगड़ा दे० ( वि० ) बली, पराक्रम, वल्नवाला, चल मनखरा दे० ( छु० ) मतफद चित्त फटा। सनथद्या दें० ( पु० ) कूप की जगत्‌, चौतरा। मचचला दें० ( दि० ) उत्साही, साहसी, रसिक । मनचोर (बि०) दिल चुराने वाला, दिल लुभानेघाला । मनत दे० ( ७० ) सनौती, स्वीकार, सानता । सनन तलू० ( पु० ) चिन्तल, स्मरण, ध्यान, जानी हुई वाद का स्मरण करना ! मननशक्ति ( स्त्री० ) विचारने की शक्ति । मनमाना ( वि० ) मनचीता, सतचाहा । मनसावन दे० ( वि० ) सुन्दर, सुहावना, मनोहर। मनमथ त्तद० ( पु० ) सन्‍्सथ, कासदेव, सदन | सनझुठाव दे० ( छु० ) अ्नवन, बिरसता । [ सनोज्ञ । मनमोहन ठत्‌० ( वि० ) मनभावन, समोहर, सुन्दर, सनमौज़ दे० ६ पु० ) उच्चूहुक्षता, ययेच्छाचारिता । मनस्झा दे० (स्त्री० ) इच्छा, अभिलाप, सदोरथ, मत करके, मन के हारा, राय, सम्मति ! है मनसिन् ( ईशर ) । के म्न्द मनसिज्ञ दव० [ पु० ) कामदेव, कन्दपे, अनड्भध । मनसेथू या मनसेख दे० (पु० ) साजुप, मलुप्य, मानव । [ को पोड़ा, छदय की पीड़ा । मनस्ताप तत्‌० ( घु० ) मन"फष्ट, मानसिक दुख, मन मनद्दरण तद० ( वि० ) चितचोर, मनोददर मनदारी तदू० ( बि० ) मनेद्दारी, सन को दरण करने बाला, चितचोर ' भनह दे० ( अ० ) मानो, उपमागेचऊ, उस्मेच्चालझर बोधऊ, सादरयाय्यंऊ, समानता बोधऊ | भनाग दें० (श्र०) योद़ा सा, भ्रदप, कुद्ध, मन करके । मनाना दे० ( क्रि० ) भ्रसादन फरना, प्रसत्ष करना, मनौदी करना । मनार्थ तदू० ( वि० ) विचाराय॑ । मति ( पु० ) सणि, रसन । मत्ित ( वि० ) अवगत, जाना हुआ, विदित । मतिया तदू० ( ६० ) मणि, युरिया, सनझ । मनियास दे (पु०) मणिपर, जौदरी, मणिवाला साँप । मनिद्दार दे० ( पु० ) चुडिदार, चूड़ी वाला । भनिहारिव, प्तनिहारी दे० (स्वी०) मनिद्वारे की ख्री। मनीक ( स्त्री० ) काजल, मूर्सता, ला । मनीषा ( स्तो० ) श्रक्ल, घुद्धि, प््ना। मनीपी ( १० ) शुद्धिमान, पणिइत । मु तत्‌» (अ्र०) सानो,जैसे, (पु७) बक्मा का चुत्र और मनुष्यों का आदिपुरुप प्रस्येफ कक्प में चौदह अनुष्यों का आविर्भाव दोता है, इनके माम ये हैं । स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाह्नप, चैउस्बठ, सावर्णि, दुष्सावर्सि, महा- सार्णि, धर्मसा्र्णि, रदसजर्णि, देवसावा्णें और इन्द्रसावर्णि। इस समय सप्तम मनु का अधिरार चलता है। 5म से १४ रुरू भनुओों के अधिरर पीदे थावेंगे । मत्स्य पुराण में मलुश्रों के नाम इनसे मित्र लिखे गये हैं मजुज्ञ दद* (६०) मनुष्य, मनु की सन्तति, आदमी । मनुष्य तत७ ( पु० ) नर मानव, मरये, सनुज | - ताया त्व (5० ) मनुष्य का धर्म, मनुष्यपत | मलुसाई ( स्ी५ ) भादमीएत, इसानियत महुदार दे। (सी०) सुन्दरी, मेहनी । ( पु ) आदर, साकार | मनूवा दे* ( घु+ ) मन, विछार, रु मनों मानों दे० ( अ० ) सास्शपार्थक, समानता | मनोत्ञ तत्‌० ( वि० ) सुन्दर, सनादर, स्मणीय, सन मावन । मनोनीत तत्‌० (वि०) चाद्दीता, ईप्धित, अ्भिष्ठपिता मनोमव मने।भूत ( पघु० ) कामदेव, मस्मप, श्रनम | मनेयेग तत्‌* ( घु० ) अवधान, ध्यान. [छाप । मनोरथ तत्‌० ( पु० ) इच्छा, कामना, बासना, अमि- मनोरम तत्‌* (बि० ) मेज, मनेाइर, सुधढ़, सुन्दर । मनोरमा तव्‌* ( श्वी० ) सरस्वती नदी की एक धारा, देइयपति कातंवीयं की मद्दाशनी । परशुराम के साथ कातंवीय का युद्ध आरम्भ दे के समय दी इन्होंन अपने पति का पराहज्य निरिचत काक्े येगावलम्बन से श्रपने शरण छोढ दिप | मनोालीाल्य तवद्‌० ( धु० ) मन की चथुटता, रटर, तरह, मानसिह्रमाव । मनाहत तत्‌० ( वि० ) व्यप्र, भम्पिर । मने।हर तद्‌० ( वि० ) सुन्दर, मनाछ, सुथढ, मन को इरने दावा | [ मानने थाला । मनौतिया दे० ( ३० ) प्रतिमू, आमिनदरार, मनौती मनौती दे० ( स्त्रौ० ) आमित, जिचवर्दे, किसी काम क्षे पूरा द्वेनि पर किसी देवता की विशेष आाराघना करने का मानसिक सद्ूक्प | मनस्य ( घु० ) मर्म, दिचारणीय, राय । [ उपदेश | मन्त्र तव्‌० (4०) मन्त्रण, युक्ति, परामर्श, गुप्त मस्त्रण वा मन्त्रणा तद्‌» ( स्त्री०) पक्ान्‍्त के कर्त॑म्य का अवघारण, युक्ति, पामश, सलाह, सम्मति। मन्त्रित ( दि० ) सन्‍्त्र द्वारा सैम्शारित परामर्श किया हुआ | मस्नी दद्‌० ( वि० ) सम्मतिदाता, परामर्शंदाता | मेन्यक ( पु७ ) सकम्बन, लवनीत $ मन्यन ठव॒० ( 4० ) विद्वाइन, मन सदना | मेन्यनी, मथती देन ( स्त्री ) मन्यानी, महानी | मन्यर ( एु ) स्याघ, ओछ्ठ ।-- [ स्जी० ) रेकपी की दासी का नाम ) सन्द तव० ( बि« ) भ्पकृष्ठ, अधघप्, सूर्स, स्वेच्छा चार, अतीदृण, भव्य, अत्यरु३, थोड़ा, शिपिछ ।-ता मन्द्र ( हर ) मस्वि ( स्त्री० ) मुर्खता, शिथित्रता, छुराई, अल्यता। | सयु ( छु० ) किन्नर, हिरन । [ अकाश । -“भाप्ती ( थि० ) शनैशमन कर्चा, धीरे धीरे | मयूख ठव्‌० (छ० ) राशी, किरण, तेज, दीछि, ज्योति, चलने वाढा ।--मन्द्‌ ( शक्र० ) धीरे घीरे | मयूर तत््‌० ( पृ० ) पत्ती विशेष, शिखी, केकी ।--क मन्दर तत्‌० (पु०) सन्धनपर्व॑त, मम्दरपवेत, प्ाारिज्ञात ( पु० ) वतिया, लग्जीरा । चुच्चदार विशेष ।--न (पु) बीना, नाटा, ठिगना। | मरक दै० ( पु० ) संक्रामक रोग, सहासारी | मन्दा, मंद] तत्‌० (स्त्री० ) सेक्रान्ति विशेष, सख्त, | सरकचा दे० ( झु० ) वरेंढी, खजरा । [ पन्ना । सस्ते दाम में वस्तु बेचते का समय, झढु, अल्प, | मरकत तत्‌० ( पु० ) मणि विशेष, हरे रह का सणि, चीरा, काम, सत्र । [ संक्रान्ति विशेष | मरकट्ठा दे० ( वि० ) मरवैया, मारनेवाला । मन्दाकिसी तत० (स्त्री० ) खर्गंगद्गा, खर्णनदी, | मरखता दे० ( वि० ) भारने वाला ( बैल, गाय ) | मन्दाक्रान्ता तच० ( बि० ) छन्द विशेष | मरखपना दे० ( क्रि० ) विनष्ट होना, कथा शेष होना, मस्दारित तत्‌० ( पु० ) कफ द्वारा जठरामि का विध्तेज । सर जाना, सर मिटना । [ हुर पेटने वाला । द्वौना, श्रणीणता ( मरखहा या मरखाहा दे० (वि० ) मारने वाला, मच्दादर ( दि० ) अल्पञआादर | मरगजी दे० (वि०) सुरराया हुआ, मूच्चित, यह शब्द मन्दायु ( बि० ) थोड़ी आयु । [ बद्ठ विशेष । सतसई में अयुक्त हुआ है । मन्दार तत्‌* ( पु० ) स्वर्गीय पाँच बूच्ों के अन्‍्तमंत | मरधद ( पु० ) श्मशान, सुर्दाधाद, सुर्दा जलने का मन्दिर तत्‌० ( पु० ) भवन, गृह, देवालय, देवगृद । स्थान, शवदाह स्थान । [ होना । मन्दिरा दे० ( छु० ) सजीरा, ऊॉस, काल । मरजाना दे० (क्रि०) सरचा, मरण होना, आण वियोय मन्दोदरी ( स्ती० ) छोटे पेड की, पतले पेट वाली । | मरजिया दे० ( धु० ) पनहूवा, नदी कप आदि में दब रायण की पटरानी | कर वस्तु निकालने वाला, मोती निकालने वाला, ग्येताखोर ! मरण तत्‌० ( पु० ) झत्यु, सरण, माण वियोय, सौत । --प्राय ( वि० ) अफमरा, झूठ प्राय, भरने के समीप ! [हिना । मरना दे० ( क्रि० ) प्राण छुटना, मर जाता, सृत्यु मरपच दे० ( वि० ) सड़ा, गला, गन्‍्दा । मरपचना दे० (क्रि०) शतिशय परिश्रम करना, सरना, बहुत दुःख सहना । मरथुखा, मस्मूखा दें (बि०) विन खाया, खाऊ, पे । मरम तदू० ( पु० ) मम, आशय, रहस्य, तत्व । मरमराना दें० (क्रि०) मरसर शब्द करना, चर'दराना, मन्दोष्ण ( पु० ) कुनकुना, थोड़ा गरस | मन्ध्ध ( ४० ) हाथी की चिंघाह । मक्षत दे० ( खी० ) मनौती, सचन, स्घीझरार । मन्वम्तर तद्‌० ( घु० ) पुक मज्ञु का राज्य काछ, पृकछ मु का समय | [ चौछता | मपना दे० ( क्वि० ) मापना, नापना, परिमाण करना, मम तत्‌० ( बि० ) मेरा, हमारा | मम्तता सत्‌» ( स्त्री० ) सेह, साया, स्मेड, प्रेम । ममिया-सखुर दे० ( घु० ) पति का मासा । ममिया-सास दे० ( स्त्री० ) पति की मामी | ममेरा दे ० (वि०) मामा के सम्पन्ध छा मामा सम्पन्धी | मेड दे” ( ७० ) मदौरा, पेव्न । [विशेष । भचमचाना । मय तत्‌% ( पु० ) दैल्य विशेष ---कत्त ( पु० ) पर्वत | मरवाना दे० (क्रि०) मरवा डालना, आज्ञा देकर हत्या मयह्ड दे* ( ६५० ) चन्द्रसा, चंद । |. करना; अद्भुस॒ति देकर हत्या कराना, किसी दूसरे के मयन दे० ( छु० ) कामदेव, मन्प्रध, सदन ! द्वार सारने का कार्य करवाना।. भारने वाला । मयना दे ( स्त्री० ) पक्ति विशेष, सारिछ्ता । मस्वेया दे० ( वि० ) मरनद्वार, मरणालन्न, मरणमाय, म्रया तत्‌० ( स्त्री० ) माया; सलता, सोद्द । | सराल तव> (पु०) पछी विशेष, हंस, राजहंस, सेघ । मयी दे? ( स्थरी० ) सरावन, हेंगा, एक प्रकार की मे।दी ननी (स्त्री०) हंसी, हंस की सादा । [काली मिर्च । लकदी, जिससे खेत बराबर किया जाता है। | मस्वि तव० (ख्री० ) कहु द्वत्य विशेष, भोल सरिच, मस्यिल मरो दे ( स्त्री० ) रृध्यु रोग, संक्रामक रोग, सरक, महदामारी | मरीचि तद्‌० ( +द्री० ) फिरण, राशी, छ प्रसरेशु का परिमाण । ( धु० ) ब्रक्षा के पुत्र, मुनि दिशेय, ये सप्तवियें! में पक हैं ।--माला ( स्प्री० ) सूर्य आदि का किरण समूह, दीसि समुदाय ।--माली ( ३० ) सूझे, चन्द्र । [मिं जलन प्रत्यय । मरीचिका तत्‌० (छववी० ) झगतृष्णा, धुर्य छी किरणों भर तत्‌० ( १० ) निर्मल देश, जल रहित देश विशेष, मारवाइ | | छुगन्धित होते हैं । मझ दे? ( पु० ) एक पौधे का नाम, जिस के पत्ते मरत्‌ उत्‌० ( पु० ) वायु, उनचास बायु ।“पर्क आकाश, भस्तारिद् ।>प्रथ ( पु० ) भाकाश, गगन, अभ्तरिष्त /-पुत्र ( पु० ) मीनसेन, इनुमान ।फन्न ( छु० ) धनोपठ+ ओढा ।-- संप (5० ) देवराज, इन्द्र, अप्ति, भनब । मस्मूमि तलु० ( स्त्री५ ) निर्मेठ देश, बूच छता तुणादि शूरय भूमि या देश, शुष्च देश । मरोड़ दे० (स्त्री० ) भशेड, ऐड, बल, पेट का दर्द । भरुस्पज ( पु ) मरू सूमि १ मरोड़ी दे? ( स्त्री० ) पेठन । मरोलि ( घु० ) मगर , नक्र। भरोद दे० ( छ० ) छोद, स्वेह, भेम, प्यार, दुल्पर ) मचा दे० ( पु० ) बलडी, खजरा | मेक तव्‌5 ( पु० ) वानर, कपि, कीश । प्रकेदो ठत्‌७ ( स्त्री० ) बातरी । [र्खुछ, सांद। मकर ( ५० ) भुम्राम नामके घूद्ठ विशेष । ( स्प्वी० प्रत्यं तत० (पु० ) माणघमों, मनुष्य, सनई, मानप, मनुज (लोक ( पु० ) मनुष्य छोक, सरते का खाक, सत्यु छे।ऊ, सूमण्डल ॥ मदंक तत० (छ० ) पर्वार नामछ पौधा | ( वि० ) प्रदेन करने दाछा, झरने चाटा, मीसने चालप ६ मर्दन तत्‌० (१०) यात्रमदन, धक्मचप्पी, मलन, रगइन । मई छत्‌« ( पु० ) वाद्य विशेष, पटेइ । मर्दित रद ( विज ) चूस्शत, मझा डा ) मर्देनिया दे* ( घु० ) नौछर, सेवक, शरीर में तेल लगाने की नौझरी करके वाला । द्शेछ ) मरियल्न दे० ( वि० ) दुर्वेछ, दुबछा, पठला, निर्बल ) | मर्म तत्‌* ( घु० ) मरम, रहस्य, भेद, मलिन असिश्राव, आशय जीवन स्थान |-छ्ष ( वि० ) ममंवेत्ता, रहस्यक्ञ, वाप्पयेज्ञाता ।-पेत्ता ( वि० ) भर्मज्, सात्पये जाता । [ पत्ते का रद । ममेर तत्‌० (9० ) शब्द विशेष, ध्वनि विशेष, सूखे मर्मरोक ( 9० ) दीन, दारित, दु-खिया, गरीब। मर्मी ( ६० ) भेदी, भेद जानने वाक्षा मर्यादा तत्‌» (ख्वी०) मान, पत, प्रतिष्ठा, सीधा, देश। मर्यादिक्त तव० ( पु० ) मानी, सम्मानी । मर्प ( ४५ ) कमा, शान्ति, चदांश्व | मर्पण तव्‌० ( घु० ) तितिद्दा, एमा, सदन, चान्ति ) मत्न तत्‌* ( घु०) मैक्ष, विष्ठा, पाप, किद्, याद, पित्त, कफ झादि।--मल ( घु० ) बस विशेष, ए% प्रकार का सूती बारीक कपदय ।--मास ( पु० ) भ्रधि मास, झधिक मास, लोद, पुरुषोत्तम मह्दीता। +>राशि (पु० ) हूडे का ढेर। मलकना दे० (क्रि०) मटकता, महतरे से चढ़ना, सदक कर चढछना [| मल्नड्ढी, मलंगी दे० ( पु० ) ज्ञाति विशेष, जे। नोन बनाने का कास करती है । मत्तत दे० (वि* ) सता, घिमा, सिक्षपट । मलन दे० ( घु० ) दलून, रगड़न, मदन । मलना दे० ( क्रि० ) मींजना, घसना, रंगना, सदन करना, रगढ कर साफ करना। मलधा देन ( ५९ ) मत, कूड, मैछ । मलर्मेंद दे० (घु०) इजाड़, सत्यानाश, नाश, विध्येस्त | मलय तत्‌« ( १० ) पदंद विशेष, दु्तिणाचछ, अम्दु- नाद्रि, देश विशेष, उपद्वीप विशेष |--अ € प० ) श्रोखण्ड, चन्दन ।--पयन (५०) सुंगन्ब पायु । मलया तू ( ख्ी० ) पदसाक, जिउता छतठा विशेष “+गिरि ( ६० ) पहाड़ जिस पर चन्दन छत्प्त होता है, मलयाउत्र । मज़बाई दे" ( स्लो० ) मज्न की मजूरी मत्ताई दे० ( खी० ) सादी, दूध का सार। मज़ांना दे० (क्वि*) मठवाना, मर्दन कराना, घियाना । मजार दे० ( स्वी० ) शगिनी विशेष ॥ मलिन वत्‌० ( वि० ) सैला, घुघछा, भरस्यष्छ, साफ़ नहीं, उदास, हृष्णवर्णे, तित्य मेमित्तिद क्रिया ६4 मलिनी ( ईशश ) महकीता स्थाग्री, पापग्रस्त +--ता ( स्त्री०) सालिन्य, विर- सता, श्रप्रफुछता |--झुंख ( वि० ) कर, खज, म्लान बदन । ( घु० ) झूठ प्रेत ॥] मलिनी तव्‌० (स्त्री०) रजस्वचा स्त्री, ऋतुमती नारी] सलिन्द ( घु० ) अमर, भौरा, श्लि । मलिम्लुच दे" (स्त्री० 9) सकमाख, अधिऊम्तास, अश्ि, तस्कर, चार, पवन, वायु, इवा । मल्तिया दे० ( स्त्री० ) कचि या छकड़ी छा बना छोटा पात्र घिशेष, जिसमें लगाने का तेल रखा जाता है। मल्तीन तदू ० ( वि० ) सलिन, अछुन्दर, अस्वच्छ। न्तता ( स्वी० ) बछुद्धता। मलूक ( पु० ) एक मौति का कीड़ा । मज्ेछ तदू० (पु०) स्केष्छ, सैली जाति दाले, असस्य, जड्ली, वर, संस्कृत के 'असिरिक्त भापा बोलने चाल्षा, अ्रसंसकृतश्, वह जाति जिससें चातुवेण च्यवस्था न दे । मतल्लेपल्न ( बि० ) दस बफ की उम्र से अधिक उम्र का घोड़ा । [( बि० ) मलनेवाला | मलैया दे० ( स्त्री० ) हाड़ी, मिट्टी की छोटी गगरी, मक्ल तब्‌० ( पु० ) बछवानू, बाहुयेद्धा, पहलवान, कुश्ती लड़ने चाहा (युद्ध ( ३० ) कुश्ती; पह- छरूवानों की त्टद्वाई । [इ७प विशेष | मइलक (पु०) दिया, दीपक, नारियछ का घना पात्र, मद्लरा तत्‌० (घु०) राग विशेष, दूसरा राग, छश रायों में का दूसरा राग । मह्तारी तत्‌० ( स्त्री० ) रागिनी विशेष | मक्कलिक तत० ( ४० ) हँख विशेष, शुक्त दंस ( दे० ) उपाधि विशेष, गाने घाल्लों ही एक जाति | भक्लिका तत्‌७ ( स्त्री० ) घुष्प विशेष, एक बेला का फू, पात्र विशेष, सत्तिछा पात्र, दोता मद्लूर तदू ० (प०) मालूर, बुक्ठ विशेष, बेछ, विलय | मंचास दे० ( 9० ) शरण, श्रासरा, मरोखा, आस | भमशक ठतत्‌० ( ए० ) मच्छड़, मच्छर, मसा, डॉल | मशहरी दे? (स्त्री०) ससेदररी, खदवा चरण, एक प्रकार का बना छुब्ा कपड़ा, जे मशों से बचने के लिये छागाया जाता है | मष्ठ दे? (अ० ) छुप, मौन, सीरव, मिःशब्दू, स्थिरता | “-म्रारना ( वा> ) छुप रहता, सौच रहसा । मपि (स्प्री० ) स्याही । [ (पु० ) सच्छड़, सखा | मसक दे० ( स्त्री० ) पुर, पुरवट, चमड़े का जरूपात्र । मसकना दे? ( क्रि० ) दुबाना, फ्टना, हटना, थोड़ा फट जाना, द्रकना, दरक जाना। मसकाना दे० (क्रि०) फइंवाना, दववाना, दरकदाना। मसखरी दे० ( स्त्री० ) दिल्लगी, हंसी, चुलचुछाइट ! मसविद्‌ दे० (स्त्री० ) मसा, मांस बुद्धि । मसहरी,मसेहरी दे० (सत्री०) मशहरी । [जलते रहना । मसमसाना दे० (क्रि० ) दात पीसचा, भीतर ही मसलना दे० ( क्रि० ) कुचछना, मींजना । मसता दे० ( छु० ) मखविदें, इछा । [का स्थान । मस्तान तदू० ( घु० ) श्मशान, मरघट, सुरदा जलाने मसानिया दे० ( पु० डोम, डुमार । (गु०) श्मशान- दासी, श्मशान पर रहने बाला । मललिदानी तत्‌० ( सत्री० ) मसिपान्न, दवात । मसी तव॒० ( स्त्री० ) स्पाही, सियाह्दी, काली । ससीना दे० ( खी० ) श्रल्सी, तीसी । ससीपाञन (छ० ) बुवात । मखूड़ा दे? ( प० ) द॒तिं के ऊपर का मास | मखूर दे० ( पु० ) अश्न विशेष, मसूरि | मखूरिया दे० ( स्री० ) सीतढा, चेचक, माता । मसे दे० ( ख्री० ) झूँछ, समभु। - [दि होना । मसे।सना दे० (फक्रि०) मरोड़ता, निचेदुना, धीरे धीरे मस्तक तद्‌० ( घु० ) साधा, सिर, कपाल | मस्तूल दे० ( घु० ) चाव का डंडा, जिस पर पाल ताना बाता है | यद शब्द पेर्सुमाली मापा के पसस्वे ? या “ मस्तरो ”' शब्द से निला है । मस्याधार तत्‌० ( घु० ) मसरीपात्र, दवात । मस्सा दे० ( छ० ) इछा, मस्ता, संस बद्धि, डॉस, मच्छर | [ दाम छा, ऊंचे मेष का । महँसा दे० ( पु० ) मह, बहुत सूल्य का, अधिक महँगी दे० ( ख्वी० ) काछ, दुर्भिक्ष, दुः्समय । महद्द ( एु० ) उत्तब, यक्ष, तेज, रोशसी, भेंस ! महक दे० (स्त्री०) सुगन्‍्ध, सुचास, यन्ध। [आना । मदकना दे० ( क्रि० ) दखागा, गच्ध आना, खुवास मदहकाना दे* ( क्ि० ) घुघाना, वासना, बास देना । महकीला दे० ( दि० ) सुगन्षित, सुवासित, झुगन्ध युक्त ] श० पा्‌ू०--७ ६ महत्‌ महतत्‌ तद्‌० (वि०) श्रेष्ठ/बढ़ा,मान्य,माननीय,पूज्य,धदेय। महतारो दे* ( स्त्री० ) माता, जननी, माँ | महतिया दे ( घु० ) चौधरी, देदातियों के लिये प्रतिष्ठा युक विशेषण,मद्दता। [जाति का प्रतिष्ठित | महतो दे० ( पु० ) जाति विशेष, काइरी, चौघरी, महत्व तत्‌» ( धु० ) बढ़ापन, श्रेष्ठता उच्चता, प्रतिष्ठा, मान, मर्यादा ] मदहत्तम ( वि० ) सव से बड़ा । भद्दच्तर ( वि० ) एक की अपेक्षा बडा | महना दे० (क्रि०) मथना, विद्ञोना, बिलोडन करना। महब्त, महँत तद॒० ( घु० ) मठाधीश, दैरागी चैप्णव साधुओों का प्रधान, गद्दीघर । [महन्त की रीति। प्रहन्ताई, मददँताई तत्‌* (खत्री० ) महन्त का काम मदत्ताना दे० (पु) मजूरी, मेहनत का, पारिश्रमिकर । महर दे० (पु०) प्रधान, मुख्य, नेता । [वाली जाति । मदरा दे० ( पु० ) कटह्ार, घीमर, भोई, काम करने महरी दे० (स्री० ) महरा छी स्त्री । महत्तेकि त्त्‌* ( पु० ) लोक विशेष, भूल्लेंक आदि सहल्योक के भरस्तगेव चौपा लोक । [श्रेष्ठ ऋषि । मद्दर्पि तब» ( पु० ) [ मदद + ऋषि] मन्त्रद्वष्टा *्इूपि, महा तद« ( बि* ) बडा, उत्तम, श्रेष्ठ बहुत, महान। “-उच्चत, मद्दोकज्नत ( प०) कदम्य दृच, कदम का पेड़ ।--कन्द (ध० ) लद्सुन |-कांय (प६० ) शिव का द्वारपात्, सन्दीरवर, हाथी ( वि० ) मोटा शरीर वाढा, भारी “--काल ( घु० ) विष्णु खरूप, अखण्ड समय, शिव दी सूर्ति विशेष, प्रधमवण विशेष ॥-कफांली ( स्ली० ) दुर्गा, मद्राह्मछ की पत्नी ॥-कुम्सी (६ छझ्लरी० ) कमेफठ ।--फोद़ (पु) अतिशय अख्यन्त कुष्ट रोगाकान्त |--खात्त ( पु० ) समुद्र की खाड़ो ।--घोर ( घु० ) नरक विरोष, काकड्टा- सिघी, अत्यन्त मयानक, यहुत डरने बाछां।-- जन ( धु०) साइटकार, सेठ |--अनी (ख्त्री० ) मसदाजन का काम, केठोवाली, लेन देन रा काम, ब्यव्टार (--झम्यू ( घु० ) ज्ञामुन, फट जिशेष । - तेम्म (६०) माद्ाक्तप, उपझारितां, उपयो- गिता, पसिद्धि, बढाई, अतिशय 'थन्धकार, अत्यन्त ( ६२६ ) महानी --तीर्थ (घु०) उत्तम तीये, पुण्य तीये, उत्तम दोत्र, चुण्यम्थान 4--तेज्ञा ( चि० ) प्रतापी, तेमस्‍्वी, नकछ्त॒त्री, मण्यवान्‌ ।--निद्ठा (स्ी०) मरण खत्यु, अधिक निद्रा, अचेत नौंद --निशा ( ख्री० ) आधीरात, निशीय ।--सुमाव (वि०) [ महा न श्रभुमव | मद्ाशय, प्रशस्त द्वदय, विशाल हृदय | >-पद्मक ( छु० ) सर्प॑ विशेष, निधि विशेष । >-पातक ( घु० ) पाप विशेष, म्रद्माइत्या सुरा- पान, गुर सख्ती गमन थादि से इस्पन्च पाप ।-- पातकी (प० ) महाप्रापी, श्रधर्मी, पतित। पुरुष ( १० ) श्रेष्ठ पुरुष, उत्तम पुरुष, सुज्ान। सउ्जन +--प्रमु (प०) परमारमा, परमेश्वर, चैतन्य देव) वद्धमाचायें ।--प्रज़य ( पु ) ब्रिक्ोष्ठ का नाश, विश्व का घ्यस, वूृयाण, प्रह्मा की श्रायु वी समाप्ति ।-प्रसाद्‌ ( १० ) भगवान्‌ क्ृगदीश का मिवेद्ित भात। वल्ती ( पु०) बलवान पराक्रमी. पशाकमशाली >भारत (४० ) इतिहास प्रत्थ |-माया (स्वोौ०) अनादि अविधा ।-मारी दे* ( ख्री० ) मरक, संक्रामझ रोग, प्लेय |--राज ( पु० ) शाजाधिराज, बड़ा राजा |--रानो (छी०) महाराज की क्षी |--लय (घु० ) परमेस्वा, भश्रम, अमावस्या, श्राद विशेष ।--घढ (१०) पूरए माघ की चर्षा [--धत ( पु० ) इृस्ठिपझ, दाथीवान, मद्दावत चर ( घु७ ) रंग विशेष, छाछ गा जिससे श्लियाँ पैर रड्ती है ->धिया (सत्री०) दस मदाकाणी। (३3) काछी,(२) तारा, (३) शोइपी, (४) मुक्तेग्वरी, (५) मैरवी, (६ ) छिछ मसा, (७ ) घूमावती (८) बगला मुसी, (६) (१०) कमव्शामका [-- घीर (१०) थर, सिद्ठ, धलुमान, क्ाकिल +- शय ( वि० ) [ महा आशय ] मद्ाजुमक, डछतचेता, दाता, मद्दापुर्प ।--सांदस ( पु० ) निधद्ऋ, निर्मेप ।-श्वेता ( स्त्टो* ) सपस्वती, कादुम्दरी का पुक पात्र, छता विरोष [ महात्मा तव्‌० ( बि०) मद्राशय, मदानुभाव, घामिंक मद्ान्‌ रत्‌+ ( घु० ) मइत्‌ तत्व, ( वि७ ) बढ़ा, श्रेष्ठ शलाधनीय, माननीय | अंधेरा ।-्तत्न ( पु० ) पश्चिम तल, पाताछ् | | मरद्दानी दे ( स्त्री० ) मधनी, सधानिया । महिका महिका ( स्त्री० ) कर्ज, रिन । महिदेव तत्‌० ( घु० ) ब्राह्मण, दिप्र, द्विज । मदिपाल ( छु० ) नृपति, राजा | महिमा तत्‌० ( स्प्री० ) श्छाघा, प्रशंसा, बड़ाई। महिला तत्‌० ( स्त्री० ) स्त्री, नारी, माठकद्नी । महिप तत्‌> ( 9० ) सेंया, पछ विशेष। मद्दिपा वत्त्‌० ( घु> ) सैसा, पशु विशेष, संदीप । महिपी दद्‌० ( स्त्री० ) मेंस, पदरानी, सहारानी, बड़ी रानी । [ स्वासी । महिषेल्ल तत्‌० ( घु० ) पसराज, मद्दिपासुर, भेपते का महिखुर तच्‌० ( पु० ) ब्राह्मण, भूखुर, चारवर्णों में प्रधम चर्ण । पद्दी ( ज्री० ) घरणी, धरती, घब्वी, दृद्दी, छाछि। “-त्तह्न (० ) एथ्वीतछ, भूतछ, भूमण्डक्ष | “-प ( घु० ) राजा नरेश, सूप ।--पति ( घु० ) मह्दीप, प्थिव्ी पति । - भुज्ञ (छ०) राजा नरेश | >+भ्दुत ( छु० ) राजा, पर्वत ।---रुह ( छ० ) बुछ्ध, तर, रूख (--श (४० ) राजा हइुपति। मह्दीना डे” ( छ० ) मासिक आय, मद्ठीवे दिन की मजूरी | [ फछ, मधुक ! महुष्या दे० ( छु० ) स्वनामख्यात छु्च और उसका महुण्त तद० ( 9० ) मझहूत्ते, दे। घड़ी, उत्तम समय | महेन्द्र तच्‌० ( पु० ) [ मद्दा + इन्द्र | प्रधाव राजा, इन्द्र, देवराज ।--नंगेरी ( स््री० ) अमसरावती । मदेरी दे” ( स्ली० ) महेर, खीर, पायस । मददेला दे० ( प० ) पछाया छोजिया, घोड़े का एक अकार का भोजन | [शिव । महेश दे* ( छ० ) [ मद्दा + बैश ] महेश्वर, महादेव, मदेश्वर ( छ० ) महादेव, शझर । -री (स््री०) ईम्वरी देवी, पार्वेती , सारवाड़ी चनिये की ज्ञाति दिशेष | महैष्चास्त ( छ० ) मद्ाधलुर्घारी । सहेला ( स्री० ) बड़ी इछायची । महदीक्ष तत्‌० ( ए०) [मद्दा + उच्च] बैल, साँढ़, बुपस | भहोखा दे० ( पू० ) पष्षी विशेष । मद्दोत्पत्न ( छु० ) कसलछ, पद्म । मंदोत्सच तव० ( घु० ) [मट्ठा +- डच्खव] बड़ा उस्सव, मद्दापर्च | मद्दोद्धि ( घ० ) खाबर, समुद्र । ( दर७ ) माँसाद॑ मद्दोद्य ( ए० ) सद्यानुभाव, महाराज, कान्यकुब्ज देव अहंकार महोछा दे० ( घु०) जददसन, तिझ । [अन्यर्थ झ्ोपधि । 'घ तत्‌» (पु०) श्रतीस | (वि०) उत्तम औपध, मह्यो दे० ( छु० ) बरछि, तक, मही, सह्ठा । सा दे० ( स्लरी० ) साता, भहतारी, जननी । माई दे० ( स्वी० ) माता, मा, जननी । माई दे० ( ख्री० ) मामा की स्री, इटावे फो तरफृ इसझा प्रयोग दावा है [ बीच | माँ देन ( स्वी० ) माता, महतारी | ( ० ) में, सच्य, माँग दे० (स्री०) झेश विन्यास, याचना ।--चिकनी_ ( स्री०) पक्षी विशेष “ना ( कि० ) याचना, याज्ञा करमा, चाइना !--नी दे? (स्री०) वाया देना, वउन केना, मैंगनी, सगाई ।--ल्लेना दें० (दा०) उधारलेेना, य्राच क्षरवा |--दे० (स्त्री०) मैंगनी, उचरर | माँचा दद्‌० ( ३० ) मच्च, पलझ्, खाट, खदवा । माँची दे० ८ स्त्री० ) खेला, खादी । माँझ दे० (पु०) पीव, बिगड़ा रक्त, सडा हुध्रा रुचिर माँजना दे० ( क्रि० ) उजठाना, ज़रा करना, स्राफ़ करना, स्वच्छ करना | मास दे० ( ऋ० ) मध्य, थीच, अन्तर । मामित दे० ( ख्थी० ) ठाट, सज्ञ धन्न, शोभा। माँस्ता दे? ( पु० ) पतक उढ़ाने का डोरा, दरसात का नया जत्ग | मॉस्क्री दे” ( छु० ) नौका चलाने वाला, कर्षघार, चाविक, मल्लाह, फैवडद । माँड़ दे० ( छु०) चावल का घवालन, फत्नक, मारवाड़ी राग विशेष । माँड़ना दे* (क्रि०) भ्रादा को जल डाज कर मसकना। माँड् दे? ( छु० ) पक प्रकार की रोटी । माँड़ी दे० (छी० ) कलप, लेई। साँढ़ा दे” ( छु० ) मण्डप, निर्मित, देवगृह । माँद्‌ दे० ( स्त्री० ) गुफा, जन्सुओं के रहने का स्थान! माँख तत० ( छ० ) मास, पलल, श्रामिप | माँसल तब्‌० ( वि० 9) स्थृूक्ष, सेटा माँसाद तव्‌० ( वि० ) ससिसछ्ी, मसिद्दारी, माँल खाने बाला | माँसद्वारी (६ दैरए ) माद्री माँसदारी तद" (३०) माँस खाने बाण, मासमएक। | मातंपुर्सो दे० ( स्थी० ) शिष्टई, कसी भातेदार था भांधि दे। ( भ० ) मध्य, में, बीच, अन्तर [ माकन्द तव॒० ( घु० ) भात्र, भ्राम, रसाल, सहकार | माख दे" ( एु* ) जरिद, बढ़ी जाति की मक्खी, र्ट, शेष, क्रोध । --। दे" ( स्तोौ० ) सकदी, सछ्िका । ( क्रिष ) कुद्ध भई्ट, रिसियायी | झसड़ा देन (वि० ) रूछे, तिदुद्धि, प्रकोेष, धजान । माखत दे* (१० ) नैनू, मकछन | मागध तव्‌० (थि० ) मण्ध देश में इस्पन्न | (६० ) हाथ छे थाजा बजाने घाखा, भाट चाण, गकछीस, जो राजाप्रों के आगे स्तुति पाठ करते चलते है। बर्णशछूर जाति विशेष। माघ तत्‌* ( ४० ) मास विशेष, वषे का दुसर्या महीना, संस्कृत का पुर कषि, हनका बनाया हुघा « मदाकाय्य गिशुपाक्ष वध है, कुछ छोग इसे माघ भी कहते हैं। भाछर दे० ( पु० ) मशक, सच्चड़, मसा, डॉल । माद्धी दे० ( स्त्री ) मक्णी, सा्ती, सक्तिका । मा-जाई दे" ( स्त्री० ) पक माता से उत्पत्ति, सहो- दरता, एक गर्भजात । माजू दे० (पु०) फल पिशेष, श्रौषध विशेष, माजूफल । मासधार रुद० ( धु० ) मध्यधार, यीच में, कठिन, कार्य का मध्य । मादी दे० ( स्त्री० ) मिट्टी, रत्तिसा । मारा दे० ( प० 9 घाँच, महदी । माह दे० ( वि० ) कौतुओी, व्ोल, हँसोदय । भाड्नो दे ( श्री० ) माँदी, कलप, लेई। माड़िया दे० ( वि० ) दुयला, दुर्घल, पतला । माद़ौ दे। ( पु) सणडप, मैंदवा । माणबकऊ ततू० ( धु० ) बालक, सालह वर्ष की अयम्था तक का प्राहमणकुमार, बढ़, उपनयन छिया हुआ प्राह्मण कुमार, यीस लड़ी का ड्वार। [ साणिक्य । माणिक तद्‌० ( घु० ) र्ष विशेष, खाल रड् का मणि, माणिका (पृ०) पक प्रकार का रक्त, मणि, जवाइर । मागिक्ष्य तव॒« (पु०) रक्त विशेष, माणिऊ, मणि रए। मात तद॒० ( छो७ ) मात्रा, स्वर वर्ण, स्वर का आउार विशेष जे! च्यन वर्षो के साथ मिलता है । हिंतू के यहाँ कसी की झूत्यु होने पर समवेदना भकशित करने जाना । [ विशेष । मातड़ नव॒० ( घु० ) हाथी, गज, हस्ति, करो, झुनि- मातड़ी तद्‌० ८ सत्री० ) नर्वी महाविधा, इनके चार हाथ और तीन नेत्र हैं । मस्तक अर्धचन्द्र से सुशे- फित है ) ये लाल वस्त्र पहनती हैं। तलवार, ठाल पाश और अरद्भुश इनके धारों हाथों के अस्त हैं! मातना दे० ( क्रि० ) मतवाला होना, पायल होना । मातलि तव॒० € घु० ) देवरान इन्द्र का सारथी। इन को कन्या युशकेशी सुसुर्र मासक नाग के व्यादी गयी थी । म्राता तत्‌० ( स्त्री०) जननी, मा ।--मह (पु० ) नाना, साता का बाए (->मही (स्त्री० ) नाी, माफीसा। मातु तत्‌० ( स्त्री० ) देखो माता । माठुल यत्‌० (पु०) भागा, मावा का भाई । [ उन्मत्त मात दे० हे मैया, है माता ( गु० ) सतवाले, बौगने, मात्र सत्‌० ( आऋ० ) अरुप, थोड़ा, फिस्ित, स्वरुप । मात्रा ठत० ( स्त्री० ) परिमाण, मेताद, रेखा, रवर । माखसये तत्‌० ( पु० ) डाढ, हँप्यां, जलन, दूसरों वी अभिदद्धि न सहना । माथ या माथा दे० ( घु० ) मम्तक, ललाट, सिर, अग्रभाग, पेशादी ।--ठवकना ( चा० ) निध्ट की आशझ्डा करना, भीत होना, एरना।--रगढ़ना (या० ) विनती फरना, चिरौरी करना, नम्नता- « पूर्वक प्रार्थना ॥ मायी लेना दे? (वा०) समान बनाना, बराबर बरना । माधुर तत्‌० ( पृ० ) बाद्मण विशेष, मथुरा के घासी श्राह्मण, चौथे, चलुरवेंदी । माये पर चढ़ाना दे” ( बा० ) मुँह लगाना, वीड़ करना, आदर करना, आअतिशय 'भादर फरना, आवश्यस्ता से अधिक मानना । झादुक वत्‌5 ( १०) उन्मादफारी मन्य, नशीली दस्तु। +-ता ( स्त्री० ) नशा, अमल । मादा दें (स्त्री ) जानवर्रो का लादा पूरा परने चाली, जानवरों की स्त्री, स्थानीया । माद्वी वन्‌» ( स्प्री० ) राजा पाणडु को रानी और यद्र- माधव ( ईर8 ) मयावी देश के राजा की कन्या | इसके गर्भ से अख्विनी- कुमार के औरल से नकुल और सहदेव उत्पन्न हुए थे । पाण्डु के मरने के अनन्तर ये भो पत्ति के साथ मर गई' । माधव तचत्‌० ( पु०) विष्णु का नामान्तर, सा लचमी के कहते हैं, उनके पति होने के कारण विष का नाम माधव है। वसन्‍्त ऋतु, बवैसाख का महीना, किराताजुंनीय महाकाब्य का विख्यात दीकाकार । भांधवाचाय दत्‌० ( पृ० ) बेदों के शाष्यकर्ता सायखा- चार्य के बढ़े भाई, खुष्टीय १४वीं सदी में दक्षिण की तुद्ञभद्गा नदी के तीरस्था पस्पा नगरी सें इनका जम्म हुआ था,। इनके पिता का नाम सायण ओर माता का नाम श्रीमती था। ये विजयनगर के राजा छुक्रराय के कुलयुरु और प्रधान भन्‍्त्री थे । इन्होंने भारतीतीथ के पास संन्यास अहण किया था । १३३३ छ० में ये ्नेरी सठ के अध्यक्ष बनाये गये | ६० घर्ष की अवस्था में इनकी खझत्यु हुईं । इन्होंने पराशर संहिता का एक भाष्य लिखा है, उसी में श्रपता परिचय भी दिया है । भमाधदी' तत० ( स्त्री० ) लता विशेष, बसन्‍्ती कता। माधुय्य तत्‌० ( पु० ) मधुरता, मीठापन, मिठास । साध्वी तल्‌० ( स्त्री० ) सदिरा विशेष, भहुबे का मद्य । मानत तत्त्‌ू० ( पु० ) अतिष्ठा, श्रदर, सम्मात, यश, .. क्ीत्ति। मानता दे० ( पु० ) पण्, प्रतिज्ञा, सनौती । मानना दे० (क्रि० ) पण रखना, आदर करना, सम्मान करना, प्रेम करना | माननीय दत्‌० ( वि० ) मान्य, श्रेष्ठ, पूज्य, श्ाध्य । मानव तत्‌० ( पु० ) मलुण्य, देचुज। मानस तत्‌० ( पु० ) सन, हृदय, एक सरोवर का नाम, सन, मन करके । न्‍; मान सम्मान दें० ( पु० ) आदर, प्रतिष्ठा । भानसिह दे० ( पु० ) अ्रम्वर के राजा भगवानदास का भततीजा, इनके पिता का नाम जगतूलिंह था। भगवानदास ने इनके अपना दत्तक पुत्र बनाया था। भगवामदास के मरने के बाद सानसिंह अख्वर के राजा हुए। भगवानदास की बहिन सम्राद्‌ अकबर से व्याही गई थी और सामलिंद ने अपनी बहिन का व्याह सलीम से किया था। सम्राद्‌ के साथ वैवाहिक सम्बन्ध होने के कारण इनके राज्य का उच्चपद मिला था, इन्होंने पठानों के हाथ से बल्नदेश के छीन कर सुझ्रल सम्राट के अधीन किया। क़ाछुल पर भी इन्होंने सुश॒ल् सम्राट की विजय पताका फहराईं थी, परन्तु रणस्थल्त सें महाराणा प्रताप से मिल कर इन्हें अपने स्थरूप का छान हो ग्रया था । मानहूँ, मानह दे" ( अ० ) मानों, समान, सध्श । ( क्ि० ) मानो, जानो, सममो | मानिक जाई दे० ( छु० ) पक्षी विशेष | मानिनी सत््‌० ( स्त्री० ) मानवती, अभिमानवत्ती स्त्री । मानी ततू० ( वि० ) अ्रभिमानी, अहड्लारी | साहझ्ुप तत्‌० ( घु० ) मजुष्य, मानव । साहुष्य तत्‌ू० ( छ० ) मलुप्यत्व, पौरुष । मानो दे० ( अ० ) इंच, चथा, डपमार्थक। ( क्रि० ) आदर करो, जानो, समभो बूकों। ( पु० ) चिल्ली, विलाब । मान्य तत्‌० ( छ० ) भानने योग्य, सत्कार थाग्य, अतिष्ठा के योग्य, आदर येग्य, एजनीय, पृज़्य, साननीय ता तत्‌० (ख्री० ) पूजा, प्रतिष्ठा, सत्कार, सम्मान, सान । माप दे० ( छु० ) परिमाण, माप । सायना दे० (क्रि० ) परिमाण करना, नापना, वौल्ना मा बाप दे० ( छघ० ) माता पिता । भामा दे० ( पु० ) मातुल, सा का भाई । मामी दे० (घु० ) मासा की स्री, मामा की पत्नी । --पीमा ( छु० ) पक्पात करना, पक्ष खौंचना । मास दे० ( घु० ) मासा, मातुल, सर्प विशेष । माया तव॒० ( सत्री० ) कृपा, मेह, दया, करुणा, अजु- कम्पा, प्रेस, स्मेह, छुल, कपठ, घेखा, सम्पत्ति, धन, येगमाया, इन्द्रजाल विद्या ---कृत ( छु० ) संसार, इन्द्रजाली | ( ज्रिं० ) साया से निर्मित, साथा हारा बनाया हुआ +-पत्ति ( झु० ) पर- मात्सा, विष्णु, भगवान । मायाची ठत्‌० ( वि० ) छुली, कपदी, राह्स विशेष । मायिक ही मायिक तठ० (४० ) ऐन्द्रवालिक, नट, नजुरबन्द । काऊे तम्ताशा करने बाला | स्टामी, इन्ड जाली । मायी तद॒० (पु० ) मारा करने वाला, माया का मार तत्‌5 ( पु० ) कामदेव, मन्मय, मदन । (स्रौ०) प्रदार, लड़ाई --कुठाई ( छ्ी० ) सारना, कूटना, घना ।-क्रेश ( घु० ) मारझ अढ, रूप से दूसरे और सातवें घर का स्वामी --खाना (वा० ) प्शना, पिथता ।+-गिराना ( वा० ) पद्ाइना, पदक देना |--पडना (वा०) मरखाना, पियना। -+परीट ( दृप्ी० ) मारामारी, लडाई भिढ़ाई। “->मारना ( बा० ) अ्रप्धात करना, झआात्मदला फरना जाना ( वा० ) लूट लाना ।-लेना ( बा० ) मारंगां, जोतना ।--इेंढौना (वा० ) जीत देना, मारना और हटाना, मार पर इृठा देना । [ धर्मपदधति । मारग तदू० ( पु० ) मार्ग, पएय, बाट, डगर, धर्ममत, मारना दे" ( क्लि० ) पीटना, बिगादनां, दथ करना । मारास्क्र तत5 ( पु० ) दिसरऊ, दिस । [होना । मारा पड़ना दें० ( था० ) मारा ज्ञाना, वदी हानि मारामारा किएना दे० ( दा०) विना काम इधर उधर फिरनो, डाॉवाइोल होना, फटी आखरा ने मिलना । मारो वत्‌» ( छी० ) रत्यु, मौत, सूयुद्रायकर रोग । भारी तत्‌० ( पु० ) राउल विशेष, ताइफ राषसी या बेटा । भारत रतू० ( धु०) हवा, बायु, वयारे, पदन । >छुत ( पु० ) इनुमान भौर भीमसेन ! मार्तात्मज्ञ दत्‌७ ( घु० ) पायुपुत्र, इनुमान । मार दे? ( ४० ) युद्ध वाद्य, लड़ाई का वाजा, एक अकार का गाना जो लड़ाई में गाया जाता है । मार दे० (भ्र० ) करण, निमित्त, से, यया--घूप के मरे न्याउल है, मारे भीढ़ फे सार्म नहीं खूमता है । मार्ग तव० ( दु० ) सदक, बाद, राष्ट, रास्ता, पय +-ण ( घु० ) यांण, शर, तोर । मार्गशीर्ष ठव० ( पु० ) अगइन, सगसिर, स्गशिर । मारने तव्‌० ( पु ) परिष्यर करण, सोघन । मार्शार तद० ( पु० ) बिद्ठी, दिज्ाव ॥( झो० ) माजारि। ई३० ) .....9ह..............जत--ज- तन ्+++5+++5++++++“ मादिप माल दे० ( ४० ) मज्न, पट्टा, पडलवान । मॉलती रब» ( खी० ) पुष्प विशेष मालपुआ दे+ ( छु० ) एक प्रकार वी मीठी पूरी । प्रात तव्‌० (ख्री०) पुष्पहार, रक्ष या सौने का हार। --कार ( पु० ) माली, यागवान, माला बवाने बाला (--दीपक ( 8० ) भर्योलद्वार विशेष । मालिन दे० ( सत्री० ) मालामर की खो । मालिन्य तव« ( वि० ) सलिनता, मैलापन | माली दे? ( पु० ) पुष्प व्ययसायी, मालाकार । माल्य तत्‌० ( छु० ) साजा, पुष्प की साक्षा । माचस वदू० ( ड० ) भमारस, अमावला । मावा दे। ( पु० ) अण्डे की पिलाई, खोद्ा, दूध फा जला हुथा अल्लन्त गादा सार । भाशुू5 ( ४० ) प्यारा प्रिय ( ख्ी० ) भाशू एप । माप तव्‌० (घु० ) अत विशेष, उरद |. माया, माशा दे० ( ३० ) माल विशेष, वज़न, श्राठ रत्ती की तौल | ्‌ माषपणो € स्री० ) बन उद्दे । माषवरी ( श्लो० ) उरद की बढ़ी । मापीण ( ३० ) खेत जिसमे उदे उत्पत हो । मास तद्‌० ( ० ) मदीआ, तीस दित ।--का कार ( छु० ) मदीने का भ्रन्तिम दिन ।._ 7 मासन ( छु० ) औपध विशेष । मासर ( ए० ) भक्त समुदेभर, माएद । मासान्द ठत० ( प० ) मास का पिछला दिन, मास को समाप्ति या दिल । 5० मासिक ( वि० ) मादवारी वेतन, सास सम्बन्धी | मासी ( स्त्री० ) साँ की यद्धिन, सौसो । माछुरी ( स्त्री० ) दा, श्र । मासूम ( बि० ) छोटा दच्चा, अ्त्प गाय ! मास्य ( वि० ) मास सम्बन्धीय, साइारो । माह € पु० ) सदीया, मास, साध । रे मादर (६० ) छल्ल विशेष । ५ ना 5 माहुर दे० ( पु० ) गरक्ष, ज़दर, विष, इल्ादल् । माद्दा स्व ( पु० ) महत्व, बाई, प्रभार, प्रदाप । मादहि ( श्र० ) मध्य, बीच में, साम्द मादियत (€ स्त्री० ) दशा, दालत । मादिप ( वि० ) मैंस सम्बन्धी । मादिष्य भाहिष्य ( छु० ) वर्णशझरजाति, वेश्या के गर्म में जतन्निय से पैदा हुई औल्ाद । माही ( पु० ) सत्स्थ, मछली ।--मीर (छु०) मछुवा । माहेन्द्र ( पु० ) शुभदण्ड, क्षण विशेष, इन्द्र का, गाय । [ वैश्य विशेष । माहेश्वरी (स्त्री० ) छुर्गादेवी, पार्चती, शिवरानी, मिड्भची, मिंगनी दे ( स्वी० ) बकरी आदि की खेंडी। मिचकारना दे० ( क्रि० ) निचोदता, गालना, खंगालना, अवॉँलना । [ करना पिचना दे० ( क्रि० ) बन्द करना, मूँदना, आँखें बन्द मिचराना दे० ( क्रि० ) धीरे धीरे खाना, अनिच्छा से खाना, अरुचि पूर्वक सेजन । मिचलाना दे० ( क्रि० ) आँख मूँदुना, मींचना, बन्द करना, धेसन हैने के पूर्व जो का छुरा हेना, उबका आना | मिल्ला दे० ( क्रि० ) बिगडना, बनी छुई बात का विगढ़ना, लिखे अक्षरों का बिगड़ना मिटाना दे० ( क्रि० ) बिगाड़ना, नष्ट करना । मिदीया दे० ( स्त्री० ) सद॒दी का वर्तन, घढ़म, गगरी। मिट्टी दे० ( स्त्री० ) मिट॒टो, सत्तिका, सादी । मिट्टी दे० ( स्त्री० ) चूमा, डम्बन ! मिठरी दे० ( स्त्री० ) सठरी, निसकीन पकवान विशेष । मिठाई दे० ( स्त्री० ) मिप्ठान्न, मिठास, सछुरता । मिठास दे० (स्त्री: ) मधुरता, मिप्ठता, मिठाई ! मिठिया दे० ( स्त्री० ) चूमा, मिट्टी । मित तव्‌० ( बि० ) परिमिता, नपा छुआ, तौला हुआ। “-+अ्रद ( गु० ) परिसितदाता, हिसाब से देचे घाल्ा ।--व्यग्री (गु०) परिमित्र व्ययी, अल्प व्यय करने वाला, आय के अचुसार व्यय करने बाला । मिसक्तरा तत्‌ (स्त्री० ) स्टदि के एक अन्‍न्थ का नास । असिद्ध याक्षवल्क्य स्टति की टीका | मिंति लद॒० ( स्त्री० ) सान, परिमाण, अन्त, मर्याद। मिती तद० ( स्त्री० ) तिथि, हिन्दुस्तानी तारीख । मित्र तत्‌० ( छु० ) वन्छु, सखा, सुहृद, मीत, शब्तु से अन्य, हिद, स्नेही, प्रेमी |--त्ा ( स्त्री० ) बन्चुता, सख्य, परस्पर श्रीति ।--द्रोही € ग्र॒० ) मित्र का द्ोढी, खल, दुप्ड, चैरी ।--लाभ ( घु० ) सुह- ध्याप्ति, बन्छुलाभ ।--चर्ग (६.०) सुहृद्गण। ( ईइ३ ) मिलाना मिन्राई सद्‌० ( स्त्री० ) मित्रता, बन्धुता ! सिथ तच्‌० ( आ० ) परस्पर, ध्मन्योन्य, आपस से । मिथिला ठत्‌० ( स्त्री० ) भगरी विशेष, जनकराज की घुरी |--पत्ति ( घु० ) मिथिला का राजा, जनक | मिंथिलेश तत्‌० (घु० ).[ मिथिला + ईश |] राजा जनक ।--हुमारी ( छु० ) जानकी, सीता। मिथुन ठत्‌० ( ४० ) जोढ़ा, युग्म, स्त्रीपुरुप का जोड़ा, इन्द्र, युगल, तीसरी राशि। मिथ्या तत्‌ु० (स्त्री० ) असत्य, झूठ, अयथार्थ। ++चार ( वि० ) [ मिथ्या--आचार | कपठचार, दाम्मिक |--द्वूण्टि ( स्त्री० ) कर्मफलापचादुक ज्ञान, नास्तिकता, असत्य, दृशन ।--बादी ( बि० ) असत्यवादी, कूछा | --भियोग ( छ० ) [ मिथ्या +अमियेग | असत्य दोपारोपण, मिथ्यावाद, झूठी लड़ाई । [ घिरोरी । प्रिनती दें० € स्त्री० ) विलती, प्रार्थना, निवेदन, मिमतियाना दे० ( कि० ) माँ माँ शब्द करना, बकरी का शब्द करता। सिमियाहठ दे० ( स्त्री० ) बकरी आदि का शब्द । मिर्गी, सिर्गी दे” ( स्त्री० ) मच्छा, रोग विशेष, अपस्सार। मिरजई, मिर्जर ( स्त्री० ) कमर तक का अँगरखा | मिरजा ( छ० ) मुगलों की पदवी | मिससी ( ३० ) रंडी का साज़िन्दा, रंडी का सँह॒वा। मिच्त दे? ( छु० ) सरिच, गोल्ल मरिच | मिर्चा दें० ( स्त्री० ) मिर्चाई, लाल मिर्च । मिर्दड़, मिरदृंग, मिर्देग तदू० ( प० ) झदझ्ा, वाद्य विशेष, हस्तवाद्य, एक प्रकार का ढोल, पखावज ! मिंदंहा दे” ( घु० ) आमवासी, अदंली ) मिलन दे० ( छ० ) सेल, मिलाप, साज्ञात्कार, संयेग, दर्शन, सेंट ।--सार ( वि० ) भेल्ली, मिल्ाप । पम्िलना दे० ( क्वि० ) ग्राप्त होना, सलाम, भेंटना, सिलना, मेल करना, जुड़ना, पाना, वरावर देना ।--झ्ुललना ( चा० ) सदा मिला रहना, शुद्ध भाव से मिलना, दिल खेल कर मिलता ! मिलया दे० ( खी० ) मिलाप, संयोग, मिलनेवाली । मिलाना ( क्रि० ) मेल कराना, सहेजना, छुड़ाना ! प्रेम पूर्वक रहना, ऐक्य भाव से रहना । मिलाप ( ईइ२ ) मीमांसा मिलाप दे? ( पु० ) मेल, प्रेम, मित्रता, मिताई । मिलापी दे" (वि० ) मिलनसारो, मेली, सज्नन, मित्र । मिलाघ दे० ( ए० ) मिलौनी, मेल, बनाव, मित्रता । मिलित तव्‌० (वि० ) शुकब्रिव, मिश्रिति, मिला छुआ । मिले छुले रहना दे० ( वा० ) मेल मिलाप से रहना, प्रेम पूर्वक रहना, ऐक्य भाव से रहना । मिश्र तत० ( ० ) बैच, माह्मणों को पदवी, प्रतिष्टित मनुष्य, पूउ्य, माननीय ।--( वि० ) सयुक्त, मिश्रित । (घु० ) देश दिशेष।--ऊैगी (स््ी० ) एक अ्रप्सरा, एक स्वर्ग वेश्या । म्रिश्रक ( पु० ) सेलक, मिलानेवाला, मिश्रण ( 9० ) मिलावट, सयेजजन । मिश्रित त्त्‌० ( वि० ) मिलित, मिला हुआ, घेल मेल ।--भाषा ( सी० ) मिली हुई मारा, सिचईी भाषा, थ्शुद्ध भापा, कई भाषा का मिश्रण । मिश्री दे० ( इ० ) स्वनाम असिदध मिठाई । मिप तत्‌० ( घु० ) कपद, बहाना । [ माय, मिएठ सत्‌० ( वि० ) मीठा, मधुर ता (खत्री० ) मिष्ठाप्ष तत० ( घु० ) मिठाई, परवान । [ कारण । मिस, मिसि, मिखु दे० ब्याज, बद्याना, हिला, सब मिसर ( पु० ) मिश्रदेश । मिखरी ( ख्री० ) देसो मिश्री । मिसना दे० ( क्रि० ) पीसना, चूर्ण करना, मलना | मिखल ( ४० ) काजात का मुद्दा । मिसाल ( ७० ) नज़ीर, उदादरण । मिस्सी दे० ( स्री० ) मुप्मझ्षम, ख्रियों पा खखार । मिस्त्री ( ५० ) कारीगर । मिददी दे० ( ख्री० ) मेददी, शुछ विशेष, इसके पत्तों से स्लियोँ हाथ पैर रहतो दें । मिददना दे० ( पघु० ) साना, बोली, झोली ।--म्रारना € धा० 9 ताता मारना, ठठोली करना । मिद्दरा दे० ( पु० ) खी के समान रहने वाला पुरुष, नारीरुपी पुस्प, मेहरा, दविमद़ा, जनाना । मिहिका तत्‌» नीहार, छुहदरा, द्विम । मिहिर तत० (स्त्री ०) रवि, दिवाकर, सूर्य । दे० ( स््ी० ) मेदरवानी, पा । मौड़नी, मौंगनी दे० ( स्री० ) देखे “ मिद्ठदी ” । मींगी दे? ( स्त्री० ) बीज, युदा, सार, मज्या, भेद । मींच दे० ( स्त्री० ) मौत, स्त्यु, मरण, निधन, कजा । यथा+-- ० चिन्तनीय द्वौ वस्तु हैं, सदा जगत के बीच | इध्वर के पद॒पन्न युग, और आपनी मोच ॥ ” मींचना दे० (क्रि०) सूंदना ढॉकना, मिचना, मरना | मींजना दे० (वि० ) मछना, मसठना, स्गइना, रगड़ कर रस निकालना | मींजान (घु० ) जोड़, तुज्ञाराशि, तराजू । मींजू दे० ( इ० ) मघूर, कछाई विशेष | मोठा दे० ( बि० ) मधुर, धीसा, विष विशेष । भादिया दें? (स्त्री० ) मीठी, चूमा, चुम्बा, मध्छी | मोठो दे* ( स्थ्री० ) मच्छी, सीढिया, चूमा । ( वि") मघुर ८“ मीठा ” शब्द का स्त्रीलिक । मीठ ( वि० ) सृता हुआ, मृत्रित | ; मोणा ( ५० ) जंगली श्रादुसियों की जाति विशेष । मीत तद्‌० ( पु० ) मिन्न, सुनन, सनेह्ी, भीता | मोतन दे० ( गु० ) सनामी, एक नाम बाबा, ध्खी, सनेद्दी, मीत का धट्ददचन, मित्रों | , मीता दे० ( गु० ) मित्र, सीत । # उघुवर, सचि मन के मीता । ”? मोल सा ( पु० ) मडुछी, झस्य (--केलन ( ७० ) कामदेव, मदन, मन्प्ष । मीना दे" ( ४० ) जक्नली ज्ञाति विशेष, इस जाति के लोग राजपुताने में रइते दं भर चोरी डर्कती करते ईं, मछली का मी कहते हैं। पथा-- « निन्‍दद्दि श्रार सरादहद्धि मीना, घिगू ज्ीचन रघुदीर विद्वीना ” |--रामायण | मीमासिऊ तद्‌* (१०) मीमांसक शास्य्रदेत्ता, सिद्वान्त- कारी, विष्पत्तिकारी, निर्ययकर्त्ता | मिदरारू दे ( स्प्री० ) मद्दिला, नार, तिरिया, तीय। | मीमांसा तव्‌० ( स्त्री० ) विचार, निश्पति, सिद्धान्त, मिहरी दे ( सी० ) मिदरिया, खरी, भार्या, पत्नी । पमिद्दामा दे* (क्ि० ) गोल होना, मौंगना, खीउना। निर्यंय, दर्शनशास्थ्र विशेष, इस दर्शन के ये दो मेद ई पूर्व सीसासा और वचतर सीमाँसा। पूरे मीमांसित € दईर३ ) छुह मीमांसा सें कर्महाण्ड की परस्पर दिरुद् बातों का निर्णय किया गया है । उत्तर मौमांसा सें उपनि- पदू के वाक्यों का दिचार किया गया है। उत्तर मीमांसा का दूसरा माम वेदान्तदर्शव है, पूर्व मीमांशा के आचार मैमिनि और उत्तर सीमांसा के आचार्य ब्यास हैं । [ सिद्धान्तित । मीभांधित ठतत्‌" (वि०) विचारित, चिर्णीत्त, मीर ( घु० ) सरदार, सैयद, समुद्र, सीसा । मीछ्त (एु०) ॥०६० गज का म्वाप विशेष, बन | मीजन ( पु० ) सह्लोच, दसमटमाना | भीसना दे० ( क्रि० ) सतना, मईन करता | छुँद दे” (पु०) सुख, बदन, आनन अंधेरा ( बा० ) ध्न्ध्या का समय या आतम्काछ, धन्‍्धेश, जब सुख न दीखे ।-- अपना सा के के रह ज्ञाना ( वा० ) निराश द्वोना, हताश दाना, कुछ कर न सकता [--ध्माना ( वा० ) रोग विशेष, सुंदर फूलना, सुँद में छाले पड़ना ।-डउत्तर जाना (बा० ) उदास दोना, हुखी दावा, कछ पाला ।--करना ( वा ) सामया करना, सिलाना, बराबरी करना, साथ देना, फोड़ा चीरवा, आक्र- मसण करना, धाया फरना, दृूंट पढ़ना, देखना, चढतना, जाना ।--का फूँदड़ (वा०) गाली बकने चाला, सनसाना बेलहने चाछा ।--क्रात्ता (बा०) कह हू, अपराध, दोष --काला करता ( वा० ) कल्द्ूूः दक्षगाना, अपराध लगाया, अपमान करना | --के कोौचे उड़ जाना ( वा० ) उदास होना, च्याकुक दे।ना,चिन्दित दाना ।--खोलना (चा०) गाली देना, सामना करना, जचाब देता, उत्तर करना ।--चढ़ाना ( चा० ) क्रोध करवा, मेढू करना, प्रेम कहना, सामने होल |--चलाना ( वा? ) काठता, खाना, इधर की बात उचर करना, कछुगली करदा |--चे।र ( वा० ) ज़ज्तालु, छज्ताशील, डरपेंक, अपराधी +--चेहररी ( बा० ) लाऊ, सय, छिपकर [--छिपाना (वा०) छिपना, जुकना, छज्या से छिपनों --ठठाना ( बा० ) झुँद पर मारना, लज्जित करना, निरुत्तर करना, झूठा साबित करता १० डालना ( बा: ) साँयनदा; याचना, याचन करना, किली विषय में भाग लेना [--ताकना ( चा० ) चकित होना, विस्मित द्वोौचा, भौचका जाना ।--तोड़ना ( बा० ) दवा देना, प्राजय कर देना, हरावा, दुःख देना | ++तो देखें ( चा० ) अयेग्यता बताना, अपनी शब्ति न जान कर घड़े काम के करने बालों को इल वाक्य से सावधान किया ज्ञाता हैं ।--धुथाना ( वा० ) सुँद बनाना ।--दिखिई ( ख्री० ) बच्चे या नई बहुझों के मुँह देखकर कुछ. देवा । “देख कर वात करना (का०) ख़ुशामद करवा, किसी को प्रसन्न करने के क्षिये उसके मन के योग्य च्ार्ते करना | देखना, सहायता माँगना, आज्ञा की प्रतीछा करना, आदुर करना [--देख रहना € बा० ) आश्चर्य दोचा, किसी के कारए ऋोध दबा लेना |--देखे फी प्रीति ( चा० ) घादरी प्रेम, दिखावी प्रेम ।--पर गर्म होना ( चा० ) सामने क्रोध करना ।--पर लाना (बा० ) कहना । पर हवाई उड़ना ( वा० ) सुँह की रत पड़ जाना, निध्पभ्त होना, फिट पढ़ना --पसारवा (चा० ) श्रधिक्त मगिमा ।-फेरनां ( बा? ) अप्रसक्ष दाना, रुक जाना ।--फैजाना ( वा० ) अधिक चाहना, ज्यादे समाँगना, अधिक लेभ दिखाना |--वन्द्‌ करना (घा०) बोलने न देना, निरुत्त करना बनाना ( वा० ) स्योरी घढ़ाना, अप्रसन्न धोना |--बाना (वा०) मुँह खोछना, सुँद फाइना, जम्दाई लेना +--विगड़ना ( धा०) श्प्रसन्न दाना, क्रोध करना, छुरा मानना, जिल्ला का स्पाद बिगढ़ता | विगाडुना ( धा० ) त्योरी चढ़ावा, क्रीघ करना, अपसानित करना, संग कर देना, दुख देना । - बोला ( बा० ) किया हुआ, बनाया हुश्रा, शब्द से बनाया हुआ । +-भरी ( वा० ) रिधवित्त, घूस, उत्कोंच ।--माँगा ( वा० ) अभीष्सित, चाहा हुआ, अपनी इच्छा के अलुसार |--मारना ( वा० ) चुप रहना, उदास होना, चिन्तित द्वेना ।--में पानी श्राना (वा०) अ्रधिक चाह, अतिशय छ्ोभ, क्ञाकच ।--मेाड्ना ( चा० ) फिर जाना, छोड़ देना, चज्ना जाना | “-ल्लगना ( वा०) छ्विल मित्र आता, अधिक प्रेस होना, अधिक मित्रता होना --लगाना ( बा०्) मा० पू०--४० ड़ मुप्नतवर ( है३8 ) मुजरा ढीठ करना, आदर करना, प्रेम करना, बहुत | मुक्ति तत्‌> ( खौ० )दु छ की अस्पन्त निवृत्ति, नित्य चाइना ।-ले के रह ज्ञाना (वा०) बजा ज्ञाना, लणग्नित दाना |--सुकड़ना (वा०) मुँह कारक घदलभा, मुँह इतरना '-से फूल भदना (वा० ) चाशीर्दाद देना । म्ुश्मनतचर ( वि० ) विभ्वक्त, विश्वासपाश्र । म्रञ्नचर ( वि० ) मदकदार, सुगन्धित, सुवाधित। मुझ (६० ) मरा हुआ, मुर्दा] मुकदम ( पु० ) प्रधान, पद्चिल, अगला | मुकदमा ( घु० ) अमियेण, मुन्रामिठा | [मानना | मुकरना दे० ( क्रि० ) नद्चारना, अस्वीकार करना, न मुकर्रर ( पु० ) फ़िर नौकर रखना | मुकाम ( पु० ) स्थान, जगद ! मुकावला ( ६५ ) विरुद्धता, मिलान | मुझ (३० ) मेष, रत्सर्ग । मुकुदतद० (३०) किरीद, मुकुट, चूडा, सिरपेंच, सेदरा । मुकुर तत्‌« (६० ) दऐेण, चादर्श, शीशा, आ्राइना चआरती। मुकुरी दे० ( स्री० ) पृक प्रकार का छन्द चैर अल- झ्वार । किप्ती यात को कद्ट कर घुनः उसको छिपाने झी इच्छा से उज्नटना | यथा-- + बानिव चित चघहेँ दिशि डोले, चातऊ ज्यों पुनि पिय पिय बोले । प्रछय द्ोय, झावे नदि गेह, क्यों सखि सम्जन ना धपि नेद हे ?” मुकुज़ चत्‌* ( पु० ) कक्ति, फलिका, दौर | मुइुज्ञित ठव० ( वि०) मुझछावा हुग्रा, भर स्कुटित, भघसिटा, थाढ! पिला । मुकेल देन ( घु० ) नक्ेह, उँट का नथना | मुक्का दें० ( पु० ) घुस्पा, मुश्टिष, घूसा । घुक् हद्‌० ( वि० ) छुटा, चुटा, थक्त, मुर्ति पा, मो प्रास, बधघन रहित, खुला टुघा, अन्म मरण रहित ।--दस्त (वि) चदान्प, दाता, दानशीछ । प्ुका हव्‌» ( स्ी* ) रत्न विश्येप, मोती, भौक्तिझ | +अक्षाप ( 4० ) मुक्तादार, मोती की साला । “-फक्ष ( ४० ) मुद्ा, मोती, मौत्धिक ।-- घजी (छी० ) सुक्काड्वार, मोती ढी मारा ।-न््रणि ( पु० ) मोती, मौक्तिक । सुख की प्राप्ति, कैवल्य, निर्यण, श्रेय, निश्रेयस, मुक्ति, सेक्ष, अपवग, परिराण, मे।चन, सक्ृति] + देता ( 9० ) मुक्ति देने वछा, सदुगुरु, शान, उद्घधारक, उद्धारकर्ता । मुख ठव्‌० ( पु०) बदन, सु द, सुषड़ा (बि०) प्रधान, मुख्य नेता ---दूपक (पु०) झुष्त विगादुनेवाला, मुख दुर्मन्ध करने बाढा, पियाज |--मयडल (० ) तिलक घूच । मुखड़ा दे० ( पु० ) सुख, घदन, सुँद । मुखर तत्‌* ( बि० ) श्रप्रियशदी, दुमुंझ। थकदादी, बडबह़िया [--ता (स्थ्री० ) अभियवादित्त । मुछशद्धि तद» ( खरी० ) वक्‍त्रशोधन, मु प्रधालन, दन्तघावन [ निद्वाप्र । मुखस्थ बद्‌० ( वि० ) मौसिक, मुखस्थित, छणदाप्र, मुसापेत्ता तत्‌० ( ख्री० ) अनुरोध, पचपात । सुजावलोकन तब" ( पु० ) सुखदरशन, सुख देधना। मुलामुखी दे* ( स्नी० ) सामना स्तामनी, सेंदामुँदी, मुझ परम्परा द्वारा । मुखालिफ ( ए० ) विण्द, बरी, शत्रु । मुजिया दे० ( पु० ) मुण्य, प्रधान, पदछा, अंगुवा, अप्रगष्य, श्रेय, सर्वोत्तम, नामी । मुख्य तब (५०) प्रधम कएप, यश थादि में शात्रोफत प्रधम्त कदा | ( वि ) श्रेष्ठ, भधान, मुखिया । मुगूदर दे* ( ए० ) मेगरी, मेशयया। सुगरी । मुगल (४० ) म॒त्तर॒मानों को एक लाति | मुग्धघ तत्‌० ( वि० ) मोद्ित, विश्मित ! (पु०) सुन्दर, मनोदर, मनोक्ठ, मूर्ख | मुग्घा २० ( ख्री० ) रुन्पा, कुमारी, नायिडा विशेष, छद्डीय नापिक्ा का पुक भेद । यधा-- ४ अभिनव यैदन आगमन, जाझे तम में दोष, ताकी मुग्धा कदत हैं, फवि कोविंद सब कोय | “-(प्तराज । मुचकऊ ( पु ) छाख, नया । मुचकन ( पु० ) पुष्यवूष पिशेष मु्या ० ( चु० ) माँस का दुफ्ड्ठा | मुजरा दे* ( पु ) प्रयाम, दण्डवत, सविनय भेंट, देश्या का छुतरहित बैठ कर माया । सझुज्रिम मुजरिस ( छु० ) अपराधी, कछूरवार । मुज्ज, छुज् तत्‌* ( घु० ) तय विशेष, राजा विशेष, भोजराज के चचा। झुराई ( स्ली० ) सोटापन, स्थूछता ! खुदपा दे० ( ए० ) सथई; स्थूछता ) सुट्ठी तद्‌० ( स्री० ) सुश्टिक, मूठ, वकोट बक्द्ा । झुठमेर या पुठभेड़ दे० ( घु० ) समीप की सेंट, अति निकट समिलाप, नज़दीक की मुलाकात, दाधापाई । छुटिया दे" ( इ० ) द्वाधभर, सुट्ठीभर, दस्ता, सूठ । मुड़ना दे० ( क्रि० ) रेढ़ा होना, वक्ष खाना, ऐुँठन पढ़सा । सुड़ियाना दे० ( क्रि० ) झुड़ना, फिरवा, घूमता । मुडडढ दे+ ( छ० ) अघान, मुखिया, बढ़ा सूखे । मुगड, मुंड' तच्‌० ( ३० ) झ ढ, कपाल, सिर, मस्तक मुणंडक तल्‌० ( घु० ) तापित, नाऊ, चौरकार । मुणडन ( घु० ) केशच्छेदव । मुण्डना, मुंडना दे० ( क्रि०) बाल बनाना, खड़ा । मुगडला, घुंडला दे० ( गु० ) म्‌ डा, सुण्टिति, सुण्डा हे छुआ । मुयहवाना, छुँडवाला दे० ( क्रि०्) स॒ण्डन काना, मुण्डित कराना,मुण्डल। बनाना । [अगरेजी जूता ! मुग्डा, छुंडा (8० ) पतन छा सिर, चन्दुला+ मुण्डासा, सुँडासा दे० (० ) झुरेठा, साफा, सुड़वरघा । मुण्डित तच्‌० (वि०) झुँडा इच्ा, घुदा हुआ, दीक्षित ॥ झुग्रिडिया, सुँढिया दे० ( ए०) सिर, फपाल, मस्तक । (शु० ) सड़े सिर का। मुयडी, छुंडी दे" ( ख्री० ) पुक जैपधि का नाम । मुंणड्ू तव० ( ५० ) संन्यासी, यत्ति; सुण्डित सिर । मुण्डेर, मुडेर दे ० ( 9५ ) परछती, मेढ़, कम ऊँची सा नबी दीवार । ४ मुस्डेर, मुँडेरी दे० (स्ती० ) छोटी भीत ।, मुतअलिऋ ( बि० ) सस्वन्धी, चातेदार । मुतवा दे ( पु० ) खब्सुतवा, जो सोते सोते खाद पर ही मृत्त दे | झुताख दे० ( ६० ) सतने की इच्छा।-न ( छु० ) खतने की आवश्यकता रखने चाल । सुद्द तब्‌० ( ए० ) शानन्द, हर्ष, आहाव । ( ईडैश हे छुर झुदर्रिस ( ३० ) पढ़ानेचाला ! झुद्दित तद० (बि०) इषिंत, आह्ादित, निदांल । झुद्रि ( छु० ) सेव, चादर, मेंढक । शुद्दी ( खी० ) छन्दाई, हे, प्रीति खुद॒ग चब्‌० ( छ० ) सूँग, कलाई विशेष मुदुगर तध्‌० ( ६० ) मोकगरी; छुयरा । सुद्दई दे० ( छु ) चैरी, वादी, मार्थी।.[ सोदर। मुद्रा तद्‌० ( ए० ) छापा, चला, श्रक्ल, सिक्रा, रुपया, घ्दआल्वद् ( छु० ) अ्रतिवादी । मुद्राड्लित तव॒० ( थि०) चन्त्रित, छाएा गया, भ्रद्धित । सुद्विका ( छी० ) छोने चाँदी की वनी हुई अग्रूही | सुद्धित तव॒० (दि० ) अ्रद्धित, छापा हुआ, सुर दिया हुच्मा । झुधा ( छ० ) कूठ, चिरथेक। घुनक्का दे? ( पु०) सेवा विशेष, एक भकार की दाय । मुचप्तुन दे० ( श्र० ) प्यार से छल्नाने के श्रथे में इसका अयेय होदा है । मुनाफा ( छ० ) फायदा, छामे । घुनाखिव ( छ० ) ठीक, उचित । सुनमुत्ाना दे० ( क्रि३ ) युवगुनाना, सुनमुन करवा, बिछी को घुलाना, घीरे घीरे कुछ चोलना । मुनि तत्‌० ( धु० ) येगी, तप्रस्वी, वेदक्ष महात्मा ।-- पद ( ए० ) सुनियें के बस्म, परकलछ, घूत्त की छात्र के चले |--राज़ ( पु० ) सुनिश्नेष्ठ, सुनियों के भ्रधान ।--बर ( 9० ) झुनिवर्य, सुनियों सें ख्रेष्ठ सुतिन्द ( पु० ) झ॒नीनन्‍्द, सुनिगण । मुनिया दे० ( ख्री० ) पच्ची विशेष, छाल चिढ़िया। सुन्तीश त्त्‌ू० ( पु० ) ऋषीश, झुनि प्रधान, मुदिराज। मुंदना दे० ( क्रि० ) बन्द करना, तापना, ढॉपिया। मुंदा दे० ( पु० ) कढ़ा, गारजपंथी खाधुन्रों के कान में डाली हुई गोल वस्तु विशेष । मं ( घु० ) विनामृल्य, बदाम | ममाख्यी दे० (स््री०) सधुप्रक्षिका, सौसाखी, मधुम्ताखी। मसानी दे० ( खी० ) मामी, माहुली; मात्ता की र्री मसुर्पा ( स्त्री० ) सात की इच्ड्धा सस्ुपर तत्‌० ( एु० ) ससवहार, मरणासन्न, रुतप्राय | मुर ( झ० ) दुत्प विशेष | जज लक कल मुर्ख मुरई दे। ( श्री० ) सूती, पुर भरकार की जद मुरकना दे० ( क्रि० ) ऐठना चछ पहना, हड्डी का [ पदनने का गदना मुस्को दे० (स््री० ) कान का भूषण विज्ञेप, कान में दृटना । मुस्चड़ दे० ( पु० ) वाजा विशेष। मस्यंड ( 9० ) मुँह से बजाने का एक बाजा | मरज ६ घु० ) रदद्, जाजा विशेष । मुस्खाना दे० (क्रिक ) खूखना, सूछ जाना; पदास होना, निध्यतत होना | ६ हैंड ) | मुखकुराई दे ( स्त्रोन मसलमान दे० सूचना मुलकुराता दे०(क्रि०) मुसछाना, हँसना; मन्दृश्मिते करना । मसल तदु० (पु०) मूपज्ञ, पश्ठ श्कार की मोटी लकड़ी +. ज़िपसे चायल्ष श्रादि अन्न छूटे जाते हैं। ( पु० ) एक जाति विशेष, मुहम्मद के मतावलम्बी | * मस॒ली तत्‌० ( पु० ) बठभद, वट्राम, क्रीकृष्णचन्ध के बढ़े भाई, मूपिछ), चूदी, चुद्दिया ।.* 3 मुर्यडा करना दे० (वा०) ज्ध४ना,बॉघना । चिप्रेदा । | मुसाना तद ( क्रि० ) चेरी करवाबा, लुटवाना । मुर्मरा दे० ( छ० ) चर्वण विशेष, पक प्रसार का | मस्ता तत्‌० ( स्त्रो० ) मूत्न विशेष, मोधा | घुख्त दे० (१० ) पर, पद विशेष, सेए, झ्यूर | | मे १० (३० ) दराव, झगादी । हव्‌० ( खत्री० ) एक नदी ऋा नाम । मदरो देन (स्प्री०,) कोप, बचदूक का मुँद। - , मुरली तब« ( स्वी० ) वंसी, बॉँछुरी ---घर ( घु० ) | मद्दांसा दे? ( पु० ) फोदा, फुंपी, सुँद “पर के फोड़े, बंशीयर श्रीकृष्ण चत्द्र । मुरसा दे+ ( पु० ) देखो, “ मुहासा ? | मुरहा दे० ( धु० ) नटख़ट, चुछी, पेठा मयूर, प्लोर ) मुराई 4० (स्री० ) ज्ञाति विशेष, कुजडा, कोइरी, शाक सरकारी झादि का व्यापार करो वाली जाति। मुराद ( सछी० ) चमिकाप, सिद्धत ] मुराधार दे० (वि० ) भॉपरा, मोधा, कुण्टित मरेठा देन ( पु० ) साफा, फेटा | मुर्क्षा दे० ( ६० ) मोर का बचा, छोटा मोर । मरेठी दे ( ख्ी* ) मुरइद्दी । हय ५ मुग (०) इवकुद, प्ठी विशेष मे (खो मु की खो । मुर्स ३० ( पु) पदाशा, छट्धन्दर, सैस की पुद्ध जाति | मुलतानी दे* (स्ली०) एढू प्रचार की रागिनी, ऋतिका विशेष मुजहद्दी देन ( स्थ्री० ) चोपधि विशेष, मुरैही । मुलाएँ दे* ( सती« ) अकाव, निरस, 'दर, भाव । मुज्ञाना ९० (फि०) ध्रोंध्ना, मूक्य या साव दइरारा । मुए दे (६० ) बाहु, सवा । मुष्क हत्‌« ( पु० ) भण्ड, अण्ददोग, कस्तूरी ३ मशणमप्ठी तइ० ( र्ती० ) मुद्षामुफ्डी, घुस्साधुस्सी 4 मुष्टि दरत्‌० ( स्ट्री० ) मृद्वी, सूटी, सूका । मुंसश्ाना दे ( छ्विए ) हंसवा, प्मित्र करना, ईपत हाष्य काना । जवानी सूचक चेहरे » फोड़े, मुद्दासा । | मुहुमुदुः लत ( अ० ) बारवार, पुन पुन", भय अनेक यार । भहदत्त दद० ( धु० ) सप्रय,विशेष, दो घट्टी सम्रष, दो दण्ड काछ, किसी काम करन का निर्द्धारित शत्तम समय, दिन रात का घीसवा भाग, ७८ मि्रद । मूजझा दे ( बि० ) मरा, स्टत, निर्शव | । मूँग दे (स्प्री० ) पक प्रकार का अन्न विशेष, पृ हरे रक् का अद्च जित्डी दाठः बनती है। ६: मूँगा दे" ( प० ) विदुम, प्रवाठ, समुद्र में दरपत्न होने दाली पुर प्रकार की सूज्पवान पस्तु | , मूँगिया 4०( वि० ) रक्न विद्ञेप) झूँगा का रंग मेगे के समा रंग। है! मुझ 4५ ( खो+ ) मो, मूल, गोंद । मेज देन ( स्री० ) दम, तृ्थ विशेष, एफ पंक्वार का सृण, जिसरी रस्सी बनाई जाती है।./ मूँड़ दे” ( पु० ) मस्तक, सिर, कपार +--फिक्रारमा ( बा० ) सिर नह्भा करना | डी > शक: मूँडना दे+ ( कि० ) ठगना, वाल मूँड़ना, दाह कत- रना, सिर घुदवाना, फुसबाना, घेएत देना । मुंडला दै* (वि ) सुदिया, मुण्डित, मूड़ा डुच्चा | मंद दे०( प० ) मोढ़ा, बैडने की चौकी॥ मुंदना दे* ( क्रि० ) इन्द काया, सोपना, डॉकना, द्विपागा, रोहया । (्‌ल ) मन्दुस्मित, मुसकझराहठं। मूद्री मूदरी दे० € स्त्री० ) सुद्रिका, छल्चा, अँगूठी । मूह दे० ( छ० ) सुख, बदन, सुखड़ा । महा दे० ( घु० ) सुख का रोग । सूक तबू० ( वि० ) गूँगा, जे वोल न सके, चाचा- शक्ति रहित, अनवोल, वाक्‌ शक्ति हीन । सूका दे? ( घ० ) घूँसा, म॒का, सुठी, फरोखा । सूकी दे० ( ख्री० ) सक्की, घूसा, धक्का । सूखा दे० ( छ० ) पर्ठ॑ती, दीवार, झूँ ढेर, मेंड । सूगरी दे० ( स््री० ) कपड़े पीटने का मेगरा, झूँगरी । झूचकासा दे० (क्रि०) मुँह चढ़ाना, ऐठन्त, बत्त देना । सूचना दे० ( पु० ) चिमटी, चिंसटा, लेहे का एक प्रकार का अख, जिससे बाल नोचते हैं [ मछ दे० (स्त्री० ) सूँछ, मोंच । सुकाकड़ा दे० ( पु० ) बढ़ी सु छ। सुछैत्त दे० ( वि० ) बड़ी झूछों वाला । सूठ थे० ( पु० ) बेंद, दस्ता । सूठा बे० (५० ) भरमूठ, बेंद, कड़ा । सूठी दे० (स्त्री० ) झुष्टि, सुक्ता, सूका, घूला। सूढ़ तत्‌० ( वि० ) मूर्ख, अ्रज्ञानी, अनपढ़, अनमिज्ञ “-ता ( स्त्री० ) सूर्खता, अक्ञानता । सूत तद्‌० ( घु० 2 गत्र, लघुशक्का, पेशाव । सतना दे० ( क्रि० ) लघुशक्का करना, पेशाब करना । सूत्र तत्‌॒० ( घु०) अखाव, सूत, पेद का निकला हुआ जल --कच्छू ( बु० ) भूत्र रोय, सत्र रोध रोग । अश्मरी रोग ।--धात ( 8० ) देखे “ मून्नकृच्छ ”? ( ईइ७ ) ख््गी --पूजके ( छ० ) देव पूनक, चठुवर्ण के मजुर्प्य । -भन्ते ( गु० ) आकारबन्त, शरीरधारी ! सूद्टेज़ तद० ( घु० ) बाल, केश ह सू्लन्य तत्‌० ( घु० ) रूद्धों स्थान से उच्चारित छ्ेनेवाले वर्ण, क्र, ट 5ड ढ़ ण,र प, ये वर्ण मूहुन्य हैं । मू्धां तत० ( छु० ) ससक, तालु से ऊपर का भागा सूल वत० ( छु० ) जड़, वंश, कुल, पूँ जी, पुस्तक का सूल भाग ।--कारिका ( ख्री० ) मूल अन्यार्थ प्रकाशक ग्रच, धन मूल की घृद्धि विशेष ।--धन (पु०) मूल्य हतब्य, असल पं जी ।--भूत ( घु० ) जड़ । -- सूलक ठत्॒० ( घु३ 2 सूली, स॒रई ! [ दास । सूलय तव्॒‌० ( 8० है मूल, मेल, भाव, निरख, दर, सूश ( पु० 2 चूहा च्प्णि मसूछ तत्‌० (पु० ) चूहा, मूल, सूपिका । सूपल तत्‌० ( पु० ) मूसल, चावल आदि अन्न कूथने का लकड़ी का कछ॒र्टना | . मसूपण तत०» ( पु? ) हरएं, चेरी करण, चोरी. करना। स्पा तत० (पु० ) सूख । , , [ खसेदना । खूसना दे० ( क्रि० ) हरना,.चेरी करना,८ लूटना/ सूसर ( पु० ) देखे / सूसल ४। « [ का.बह्ा.। मूखरा दे० ( पु० ) चूहा, मूल, गण, लेहे 'के खल सूसल (पु०) म्रूसरा, अनांज कूदने 'की लकड़ी विशेष | सूसत्मा बे? (पु० ) जब, मूल॥. | ॥# ० - सूसा दे० (पु०) चुदी, इन्दूर। --दोप ( छु० ) अमेह, मूत्नगत दोष ।--निरोध | म्टंग तत्‌० (पु०) हरिण, सया, ऊुरज् ।--लला (पु०) ( 8० ) झन्न प्रतिबन्धक रोग विशेष, सूत्रकुच्छ शेग | सना दे० ( क्रि० ) मरना, रत होना । सूनू दे” ( बि० ) लघु, छोटा, थेड़ा, अल्प, किखित्‌ । सूरत तद्‌० ( स्त्री० ) सूर्ति, छवि, श्राकृति, प्रतिभा । सस्ते तत्‌० ( वि० ) मूद, अज्ञान, अजान, अनभिशज्ञ । --वा ( स्त्री० ) अज्ञानता, सूढ़ता सूच्छना तत्‌० ( क्रि० ) गीत का अद्द विशेष । मूच्छी तत्‌० ( स्त्री० ) सस्मोहद, अचेतन अवस्था, बेहोशी ।--गठ (यु०) यूडभाप्त, वेहमेश, अचेत । सुन्छिंत तत्‌० ( वि० ) सूर्डा प्राप्त, अचेत, वेहोश ; सूत्ति एच (स्वी०) प्रतिमा, आकार, उबली, उसवीर | सुयचमे, अजित ।--जल्व ( पु०,) रंग 'दृपंणा का जल |--ठण्णा ( स्त्री० ) धूप में लल 'झ्ान, व्यर्थ दृष्णा, द्रथा लाभ ।--नयमी ('खी० ) बढ़ी भाँख' बाली, सुन्दरी स्त्री ।--नासि (स्त्री०) कस्वरी, सगसद ।--पति € पु० ) पशुओं का राजा; सिंह, सगेन्द्र ।-मद्‌ (घु०)।छस्त॒री राज़ ( पु० ) ' सुगपति, पथ्चुझओं का राजा ।-त्लाच्छुन ( छु० ) चन्द्रकलक् :--लोचनी ( स्न्नी० ) रुगनयनी, बड़ी आँखों वाली, झग के समान श्राँखों घाली । ऊशिरा ( पु० ) एक चक्तत्र का नाम । झुगया चत्‌० ( स्त्री० ) शिकार, आखेट, अद्देर ६ झ्गी छघ० ( स्थ्ी० ) हरिणी, रोग दिशेष, फ्िर्सी खर्ेन्द्र (्‌ .ा सगेस् तव० ( पु० ) [झूग+ इन्द्र ] सिदद, झुगराज ऋंगपति | [ करने येग्य । सृम्य तत्‌» ( वि० ) अन्वेषणीय, दर्शन, अनुसन्धान सजा तव० (स्त्री०) मार्जन,शुद्धकरन, मॉजना,फरदाना । झड़ छत» ( पु० ) शिव, भद्दादेव, शम्सु । सुणयाल तव्‌० ( पु० ) कमल नाल, कमल बी जञड । मझ्ूत तव० ( बि० ) मुभ्ा, मरा हुआ, सुर्दा । खुतक सद० ( पु० ) शव, साय, सुर्दों । झृत्तिका ठव्‌5 ( स्त्री० ) मद्दी, मिद्दी, माटी | सुत्यु दच० ( स्ती० ) मौठ, मरण, निधन । सत्युज्य तव॒० ( पु० ) शिव का एक नाम । सदडू, शूदग तद० (प०) वाद्य विशेष, मेरी। सूद तू» ( बि० ) नरम, केमल ।--ता ( ख्री० ) केमलता] सखूपा तव० ( झ० ) झूठा, सिस्या, असत्य । में (प्ब्य ) बीच! मेमनी दे० ( खी० ) मींगनी, लेंदी, खीद । मेंड ( स्री० ) बाँध, आड़, घेरा । पंडक दे० ( ध० ) दुझुर, भेरु, मयइक । पेंदा दे० ( पु० ) मेंढ, कुप का मूँ है, मेंड । प्रेंड्वियाना ( क्रि० ) घिरना, बढोरना, घेरना । मेंड़ा दे० ( पु० ) मेंडा, मेष, गाढर । मेह दे० ( पु० ) बृष्टि, वर्षा, घट, कद, झदी । महदी दे० (स््री० ) पौधा विशेष । मेस दे* ( पु० ) फीज, पटा, मेप । भेसला तन ( स्त्री० ) छद धंटिया, करधनी, सग- छाल से बना हुआ यज्ञोपवीत मैफली दे० (्‌ स्त्री ) दाद, पट्टी ) प्रेथ दव० ( घु० ) मेद, वादल, रागविशेष ।--उम्बर ( ५० ) रावण का छत्र विशेष--नाद (५०) मेघ या शब्द, मेघ के समान शब्द, रावण के पुत्र का भाम । देवराज इन्द्र के पराजित फाने के कारण डसका नाम इन्द्रमित पद्ा था। छड्ठा के युद्ध मे इसने राम सच्मण के दो वार इराया था, परन्तु अम्त में यह क्च्मण के द्वाथों मारा गया ।--पति (६७ ) इन्द्र, देवगाज ।--वरण ( घु० ) मेथ के रह के समान +--माला ( स्पी० ) मेष, सम, मेर्षों की सापा । कशैद ) झेप मेघाध्या तत्‌० ( पु* । मेघपथ, अन्तरित्ष, आवाश । सेघामम तत्‌० ( घु० ) चपाँवाल, वर्षा का समय । मेठना दे० (क्रि०) घे। डालना, नाशना, खराब करना। मेथी दे० ( स्प्री० ) एक साथ का नाम, एक प्रगर का मसाला जेः छोकने के काम सें घाता है। भेद्‌ दे० ( पु० ) मजा, बसा, चवों । मेद्नी ठत्‌० ( स्त्री० ) धरिणो, धरती, भूमि, श्रष्टर्य मे प्रसिद्ध औषधि विशेष, संस्टृत के एक काश अन्य का नाम + [ शीवल। भेडुर तव्‌» ( पु० ) श्रविशय स्निग्ध, अत्यन्त चिकन, मेघ वत» (६० ) घगतु, याग, यज्ञ, अध्चर । भेथा दत्‌० ( स्री० ) घुढ्धि विशेष, धारणावती चुढि, मदीपा ।--तिथि (छु०) ये मजुरुटति के विध्याव डीवाझ़र है, इनके पिता का नाम वीर शिव स्वामी सदूट था -बती ( स्त्री० ) बद्धिमती, मेधा विशिश, सद्दाज्योतिष्मती लता । मेधावी तद॒० (वि०) मेघायुक्त, स्मरण शक्ति विशिष्ठ, मतिमान्‌ । ( घु० ) पणिडत, भ्रमित । मेधि तव« ( पु० ) सतिद्वान में पशओं के बाँधने के किये ऊँचा गादा डुआं काटे भेष्य ( वि० ) पविप्न । मेमना दे ( छु० ) घफ़री का बचा । मेरा ( सर्ब० ) अपना । मेर तत्‌० € घु० ) पवेत विशेष, धुमेरपंत, जपमाला का सर्व प्रधान मनिया ।--दुगड' ( धु० ) पीठ के बीच की इंडडी । मेल तद्‌० (घु० ) सयेगग, मिलाप, भेंट । मभेलना दे० ( क्रि० ) डालना, छोदना, रखना । भेला दे० ( घु० ) भीड़, रौला, समूह, समुदाय, देव- दर्शन, पर्व र्थिष, या तमाशा देखने के लिये बहुत खोगों पा पुफत्रित दोना, भीड़ ( क्रि० ) मिजावा, ढाला, फेंका ।--ठेला (चा०) भीड़ माद। भैली दद्‌» ( वि० ) मित्र, मिलापी, परिचित, जागा डुया। ( स्त्री० ) रप दी, छोड़ दी, घर दी । मेच दे० ( पु० ) जाति विशेष । [मिय बेचने वाज्ञा भेवाती दे० (पु०) सेवात वासी, मेवात यय रहने बाला, भेयाड् ( घु० ) राजपूताने वा प्रान्त विशेष । भैप ठव० ( घु० ) मेपराशि, पहली राशि, मेद्ा । भेद भेह् तद्‌० ( घु० ) सेघ, घट, रोग विशेष, सूत्र रोग । मेद्दतर दे" ( धु० ) चूहा, भड्ी, अन्तज, अस्पृश्य, अछूत । भेद्दतरानी दे० ८ स्त्री० ) बज्ी की स्त्री, मज्जिन भेहना दे* ( घु० ) उठोली, खिल्ली, ताना। मेहमान ( छु० ) अतिथि । मेहरा दे० ( छु० ) चर्पुंसक, जनाना, हिजड़ा । मेहन्द्ा दे० ( वि० ) उ्ओेलिया, दँसेड़ । में ( खबे० ) आप। मैंका ( छु० ) मां का घर । मैका दे० ( छु ) नैहर, पीहर, खियों का पिठगृह । मैत्री तत्‌ू० ( खो० ) मित्रता, बन्छ॒ता, प्रेम, स्नेह । मैथिलो तद्‌० ( खो० ) जानकी, लीता, सिथिल्ला देश की स्त्री। [ सह्नस, मसझ्ध । सैशुन तव्‌० (छु० ) ख्वीसंसर्ग, खुरत, रतिक्रिया, मैनफ़ल्व तब० ( घु० ) औपध विशेष । सैचा दे० ( स्रो० ) एक पक्षी का चाम, सारिका, पार्वती की माता, मैंता पक्तो । [ का पुत्र । मैनाक ततु० ( छु० ) पर्वत विशेष, हिसालय पर्दत सैमा दे० ( खो० ) बिमाता, सौतेली माता । मैया दे० ( ख्री० ) सहतारी, माता; अ्रम्बा । भैल्न दे० ( स्री० ) सल, मर्चा । [ सलिन । सैला दे० ( बि० ) गंदला, गंदा, अशुद्ध, अपविच्न, मैदिका दे० ( छु० ) महिय, सेंस । मे ढे० ( सबे० ) सुझ। [ रखना । सेकना दे० ( क्रि० ) छेइना, मेलना, धरना, भेकक्ष तत्‌० ( छु० ) झक्ति, परमानन्द आधसि, कर्सेवन्धन का नाश, छुटकाव, छुटकारा । मेाखा दे० ( छ० ) ऋरोखा, जंगला, गवाक्त । सेगरा दे० ( छु० ) झुगरा, सुदगर, छुष्प विशेष । भेगरी दे० ( स्त्री० ) सुदगर, छोटा झुगरा । भेध तच्‌० ( घु० ) प्राचीर, दीवार, ( वि० ) निरर्थंक, दीन, द्॒था, व्यर्थ । भेच दे० ( घु० ) लचक ।--च तत्‌० ( छु० ) उद्धार, उद्धारण, अपहरण ।---ना दे० ( घु० ) चिमरा, सिवद्ा (--रख सत७ (० ) सोंद विशेष, लेमल बुच्च का गोंद ।--श्रावोी वत्‌० ( छु० ) सेसल्न का डा € दैहुड ) मेतमिया सेक््चा वत्‌० ( छ० ) कदल्ी दुक्त, केछ्े का साभ । भाची दे० (छु० ) चमार, चर्मकार, जूता बनाने चाली जाति । मांछ दे० ( स्त्री० ) सूद, छुँद पर का बाल । भेद दे० ( घु० ) गठरी, वोक, भार, चमड़े का डोल । भोठको दे? ( स्त्नी० ) कुदारी, मोटी सन्नी । मेटरी ( स्त्री० ) पोटरी, छोटी गाँठ । भेद दे० ( बि० ) स्थू, तुन्देल । सेतठयपा दे० ( छु० ) स्थूल़ता, मोटाई |. [ बाल्ला भेडिया दे ( छ० ) छुली, भारवाहक, मोदरी छोने मेतठ दे० ( छ० ) मोट, गठरी, बोर । भाड़ दे० ( घु० ) बाँक, फेर, घुमाव, चल, ऐंठ्त । भाड़ना दे० ( क्रि० ) फेरना, घुसाना । भेड़ा दे” (छ० ) सुड्ा हुआ, बैरागी, संन्यासी, साधु भाढ़ा ढे० ( छु० ) मूढ़, सरकंडे और जैवरी का बना चैठने का ऊँचा आसन, कंधा । मे।तिया दे० ( छ० ) झुप्प विशेष, बेला का फूल । +विन्दु (9० ) रोग विशेष, आँख का एक रोग। मेत्ती तद्‌ ( रत्री० ) मुक्ता, मौक्तिक, रत्न विशेष, स्वनाम असिद्ध समुद्रीय रत ।--की सी शव उतारना (वा० ) अप्रविष्ठा हैना, अपमान दाना, तिरस्कार होना, अनादर होना ।--कूछ कर भरनले (चा० ) अकाशसान हेना, भ्रकाशित होना। “>पिरोतले ( वा० ) माला गूँथना, मधुरता के साथ बोलना, या खिलना (--चुर ( छ० ) पुक अकार की सिठाई का नाम । भांथन, मोंथर दे० ( बि० ) कुस्ठित, भोता । मेथरा दे० ( छ० ) घोड़े का रोय विशेष, हद! रोग । मेथा दे० ( छ० ) एक पौधे को जड़, नागर सोंथा । भेद्‌ दव० ( छु० ) ह॒प, प्रसच्तता, आहाद । मेदक तत* ( घु० ) लडदू। ( वि० ) दर्पदाता, हर्षकारक । सोदी दे* ( छु० ) परचूनिया, बनिया । मेष दे० (छ० ) सीधा, भोला, निरक्षत्त, कपट रहित । भेजी दे० (स्त्री० ) बोंक, अस्त आदि का अमर भाग। सोम दे० ( छु० ) मशुमत्न, शहद का कीट | मेमिया दे० ( पु० ) औपधि विशेष | - "मार बड़े ( ३० ) सुरवचढ, वाद्य विशेष ।-ठल ( पु० ) चमर, एक प्रकार का चेँवर +-पट्टी ( स्थी* ) एुक प्रफार की नाव ।--मुफुद (घु० ) मोर पद् का बना सुझुद। मेररहुति दे* मेरी तरफ से, मेरे वाली, मेरी चेर, मेरी थी। | निकलने का सार्ग । मारी दे* ( स्त्री० ) पनाला, नारा, मझाम, का जल मेल दे० ( पु ) भाव, दाम, मूल्य, किसी वस्तु का दाम ।-हराना ( वा» ) दाम लगाना, झूल्य आँफना, निरख ठदरना, दाम ठदरानां |--लेल ६ बा० ) भाव, कीमत, ढर |--बढ़ाना ( चा० ) दाम काना, भाव चढ़ाना लेना ( वा० ) खरीदना, उिसाइना । मेक तत्‌» ( छु० ) दग, लुटेरा, धूत्ते, चार, तस्र। मेसना दे० ( क्रि० ) चुराना, ठगनां, लूठना । मे तत्‌० ( पु० ) मूर्च्चा, श्रश्ञानता, अविया, प्यार, माया, भ्रधिर प्रेम, तामसिर प्रेम --में आना ( बा० ) प्रिय के मिलने से भ्रचेत देगना । भाहन ततद्‌० ( गु० ) मेदने घाला, निमकरे देसने से » आपडो श्राप सोह उप हो, सेहना, वश करना। ! (६ घु० ) थीहृष्ण को नाम |“सेग (छ० ) भैजन विशेष, इलछ॒वा, सीरा ।--माल्ला (स्त्री०)) / आला विशेष, सोने और मूँगेके टानों से वनी माला।. [ करना। साहना दें० ( क्रि० ) घबरा करना, मन इरना, अधीन मेहनी पे" (ख्री०) भुज्ञाउन, सेद्न करने दाल्ली, वश ५», परने बाली, सुन्दरी, लुमाववी ।_ भेद्दाना दे० ( पु० ) मुद्ना, सगम स्थान, पेयो ! मेदद्वित दत० ( गु०,) सुच्दिंत, अचेत, स॒ग्ध, मोद .. पास! | पि (िर्या मेदिफो व१० ( स्प्री० ) सुन्दरी, युवी, रूपदनी, मै दे० ( छु० ) मउ, शहद । मेष ( घु० ) अयसर, टोक स्थान । म्ौकृम ( १० ) पद, चुड्माना, वरखास्त करना । मोक्तिक ठद० ( पु० ) सोती, भुत्ता। मौज ( स्त्री० ) जहर, चरग। ( ६४० ) नन्जिनाातत+त+त+__+_+__5दप््प““पफए्एपपूएघ्ूूःझ्ञदू मोर सद० ( ५9 ) भयूर, पक्ति विशेष, शिखी, केकी । | मौजी तद० (स्त्री? ) सुआदय निर्मित मेपला, सूंज घदीयान _को करघनी ।--बन्धन ( पु० ) झुज मेफला बन्वन, उपनयव, यज्ञोपपीत सस्कार । [ किरीट मोड़ दे० ( पृ ) झुउ॒ठ, मौर, सिदशा,, सिरपेंच, पैलत तव्‌० ( पु० ) शब्द प्रयोग शज्य॒वा, भाषण, अकथन, दुः्णीभाव, चुपचाप ।--द्रत (छु० ) ने बोलने या नियम, श्रमापण, घुपचाप रहना । मैत्रा दे० ( घु० ) लड्या, डलियां डगरा | मैनी तत्‌० छु० ) मौनबती, मौनयुक्त, नीरव, वृष्णी- स्मूत, सौन विशिष्ट । मौमाखी दे० ( ख्ी० ) मथुमणितरा पार दे० ( छु० ) मझरी, यौर, फ्ली, सुझुठ, क्रोद, बढ़ मुकुट विशेष जो विवाह के समय दूएदा दे सिर पर रखा जाता है । [ सिंद दाना । मैराना दे० ( नि० ) सिलना, स्फुटित होगा, विफ- मै।रूसी ( घु० ) पुस्तैती, चशाहुगत । मै।ख्य तत्‌० ( पु० ) मूर्सता, जचवा, अनभिज्ञता । मैधीं तद्‌० ( ख्ो० ) घजुप या गुण, रोदा, चिला। मैललना दे० ( क्रि० ) बच्चों में पुष्प लगना, सभरित होना । * मैलवी ( पु० ) इस्लाम घर्म पा छाता, मालिक । मैलसिरी दे० ( स्त्री० ) एफ छूक्त और उसरा पुष्प, चकुल, वकुल पुष्प। ४. मैलाना दे० ( प० ) मुसत्वमानो का घर्मंगुर। मैलि तव्‌० (स्त्री०) मस्तक, सिर माल, माया; चूड़ा, * * चेष्ठी, शिरीट, सुरुट, सपयद फेण्ए, बर्थ हुई चेएटी९ मैलिक तव्‌० ( बि० ) सूल सम्बन्धी, जड़ या, जद की बस्तु । ( घु० ) कुलीव भिन्न, अदुलीन । मैली दे० ( स्त्री० ) नारा, सुझुद, भम्तक । मैखा दे* ( घु० ) मौसी का पति, माँ की यहिन का पति, पिठा का सांटू ! मौसी दे० ( सी० ) माता की मगिती, मावय्सा | मैासेरा दे ( वि० ) मौसा के सम्बन्ध का । माहसिक तव्‌* ( घु० ) ज्योतिवेत्ा, टैवश, गणक। म्रदिमा सव» (स्त्री० ) सस्कृत में चुल्षिक् झूदुना, कामज्ञता, नम्नता, नग्माई । [ कमल । प्रदीयान सत॒० ( वि० ) अतिशय मदु, अत्यन्त प्रियमाण ( हैछ१ ) यत्र पम्रियमाण तत्‌०» ( वि० ) रतकरप, अवसत्न, झत | स्लानि. तद्‌० (द्वी०) काम्तिषय, विषाद, खेद, चुल्य, झतप्राय । शुष्कता, मलिनता ! स्लान तत्‌० ( पु० ) सक्तिव, शुष्क, विरख, विपादयुक्त, | स्लिप्ट तत्‌० (घु० ) अस्पष्ट वाक्य, भ्रव्यक्त वचन, खेदित ।--ता (स्त्री० ) स्त्ानभाव, खेद, विषाद, विपरणता, अवसन्नता |--मुख (वि०) उदास, मलिन झुख, विषादयुक्त --धदृन ( घछु० ) विपण्णमुझ्छ, उदासीन सुख । अस्फुट खर | इल्लेच्छु दत्‌० ( पु० ) भ्न्त्वज जाति, किरात, शबर, पापरत, चेदाचारदीच जाति ।-बैश ( 8० ) स्ल्रेच्छों के रहने का देश । न य अन्त्यस्थ यकार, हछ का छब्चीसर्वा चरण, इसका उच्चारण स्थान तालु है इस कारण इलको तालज्य कहते हैं। [कर्ता । य तब" ( घु० ) वायु, यज्ञ, कीत्ति, ये!ग, यान, गसन; यक ( प० ) यज्ञविशेष । थक्रीन ( वि० ) निश्चय, भरोसा । यक्ृत्तू तच्‌० ( पु० ) पेट के दाहिने ओर का मांस खण्ड, धद्ररोग, छ्वीढा, तापतिल्ली, पिछही रोग | यक्त तव्‌० ( छु० ) वैवये।नि विशेष, कुबेर के झलु- चर ।--शाज्ञ ( ६० ) कुत्रेर, यों के राजा | थत्तिणी ( सत्री० ) यह साया। हि यक्तमा तव॒० ( घु० ) शेग विशेष, छयी रोग) यजन्न ( छ० ) अमिदोत्री । यज्ञन तव्‌० ( पु० ) थाग करण, पूजन, यज्ञ] यजमान तत० (स्त्री०) यज्ञक्च्ता, यज्ञानुछान में दीछ्ित, अती । सजाक ( वि० ) दुता, उदार । यज्ञुः तद्‌० ( घु० ) चेद विश्ञेष, यज॒वेद । यज्ुवेंद्‌ तव्‌० (घु० ) खनाम प्रसिद्ध चेई । यज्लुर्वदी वव्‌० ( वि० ) यजुवेंदवेत्ता, यज॒वेंदाध्यापक, यजुर्वेदु के अनुसार कर्स करने वाला | यज्ञ तत्‌० ( घु० ) याग, अध्चर, सख; ऋतु, जाग दोस्त, इवन (--अंश ( घु० ) यज्ञ की दृवि, यज्ञ भाग -हछुयड (० ) यज्ञ करने के लिये चौकोना यना झुप्ना गत ।--देच तद्‌० (पु०) चक्ष के देवता, बिधण, नारायण 7--पश्चु (७० ) चह पश्ुु जिसके मांस से यक्ष किया जाब ।--पुरुष ( घु० ) विष्यु, पुरुषोत्तम, नारायदश (--वेदी य ( स्री० ) यज्ञ के किये साफ़ की हुई भूमि। “-भाजन ८ पु० ) चज्ञार्थ पात्र, यज्ञ के बतंन। “-शूप्रि (स्री०) यागस्थान, यज्ञस्थल, यज्ञण्मला । -खुन्न ( पु० ) यज्ञोएवीत्त, जनेऊ । दर यज्ञाड़ुः तव्‌॒० (एु०) गुत्नर का बृक्त, खादिर बृछ्ठ +-- ( स्री० ) लासवक्ली, गूलर ।_ यक्षास्त ( ३०) यज्ञ का प्रन्‍्त, यज्ञ के अ्रन्‍्त का स्नान । यक्षारि ( ० ) शिव, त्रिपुरारि | थज्षिक ( घु० ) पलाश बृत्त । यक्षीप ( पु० ) उदुम्मर चुछ्ठ, यज्ञ सम्बन्धी यक्षेश्वर ( घु० ) विष्णु । यक्षोपवीत तव॒" ( घु० ) यज्ञसूत्र, ब्रद्मसूत्र, ममेऊ, बरुओआ | [ मात, याकशिक । यज्वा तत््‌० ( धु० ) वेद विधि पूर्वक्ष यागकइत्तों, यज यतन तसदू० ( छु० ) यल, उपाय, चेष्टा, उद्योग । यत्‌ (श्र०) दे० जिवना, जहाँ तक, जो, जिसररा, जीता हुश्ना मुद्दा । [--चान्द्रायण (घ०) शत विशेष | यति त्त० ( घु० ) जितेम्द्रिय, संन्यासी, परिधाजक | यतन दे० ( घु० ) उपाय, उ्योग, तद्वीर, यंदोवस्त | यतः ( श्र० ) यध्माव, चूंकि | [पिरिश्रमी । यतनी तद्‌० (स्ली०) यत्र करने वाहा, उद्योगी, यतीम ( घु० ) श्रवाथ, साएु पिू द्वीव । यव्किडिचित्‌ तचु० ( ञर० ) थोड़ा बहुत, जो कुछ | यत्ल तत्‌० (एु०) यतन,उपाय,उद्योग,चेष्टा । [सन्धानी । यत्ली तव्‌० ( वि० ) यतन करने बाला, स्लोजी, चनु- यत्नवान्‌ ( वि० ) देखो यत्नी ! यंत्र तच्‌० ( श्र० ) जहाँ, जिस स्थान पर, जिस स्थान में ।--तमञ्र ( ऋ० ) जहाँ त्त्ाँ [ श« प[ू७०-घ १ ययां यथा तत्‌» ( भ्र० ) जैसा, ज्यों, जिसे प्रकार, मिस रीति |--कऋथजिचत ( अ० ) जिस किसी प्रकार से, बड़े कष्ट से, बदे परिश्रम से ।--हात् ( घु० ) यया सम्रय, उपयुक्त समय, उचित काल, समया* नुसार । “क्रम ( पु० ) कमानुरूप, आलुषूविक, ! क्रमश३ +--तथा ( श्र० ) जैसा सैसा, ज्यों लो । +योग्य ( एु० ) यधोदित, जैसा उचित |--र्थ (वि०) [या + श्रथे] ठीक, सत्य, उचित । (झ०) विधिवद, यधायेग्य, स्यवस्या के चनुसार; रीति के अनुसार ।--विध्रि ( वि० ) विधिपूर्वक, विधि के अनुसार ।--शक्ति ( वि० ) साम्र्थ्यानुसार, अपने वर्ू के अनुयक्त ।--शास््र ( वि? ) शास्था- शुसार, शाद्ानुकूल «--सम्मव ( वि» ) जैसा होने येग्य, जईाँ तक हो सके -स्राघ्य ( वि०) साध्यामुसार, यथाशक्ति। --स्थि ( वि० ) सत्य, यपाथे, निम्चित यथधायत्‌ ( भ० ) पम्प, समाप्त, सब |... [मनेरथ । ययेच्छा तद्‌० ( स्त्री० ) ययेच्छ, इरष्छाजुसार, जैसा ययेए्ट दव० ( वि० ) इच्छालुसार, यपेच्छ, इच्छालुरूप, पुर, अधिक । किपित । ययेकक्त तत* ( वि* ) पूर्वकंषित, पूर्वकक्त, पहले ययेित तू» (गु० ) यपा योग्य, जैसा उपयुक्त, इत्तम मत | यद्‌पि ( क्र० ) यदधपि। सद्पधि छ६० (अर) जब से, जिस काट से, जय तक | शद्‌ ( वि* ) जो ददा तव्‌० ( झ० ) जब, मिस काल में । यदि तद० ( अर* ) पचान्तर, सम्मावनाथे, यद्यपि । यदोय ( दि० ) जिसका । यदु ( धु० ) राजा विशेष [--कुल ( पु० ) यदुबश, यदुधंशों रात घराना विशेष |-ननाथ ( पु० ) श्रीकृष्प ।--चश ( पु» ) यदुराज का घदाना। “-चंशी ( पु ) यदु के छश के लोग । यद्वदद्ठा ( स्‍्त्रौ० ) जैसी इध्छा हो । यद्यपि तदु० (० ) जी मी |. [खित, अनियमित | यद्दा तद्दा ठद* ( भ« ) ऐसा पैसा, सकता चुरा, अनि- यन्त्र रत्‌० ( पु० ) कछ, देवताभों का अधिष्ठान, पात्र विशेष, निमस्द्रण, युक्ति पूरक शिरुर झादि ढर्म | € छैएरे ) बधायूं, करने के लिये पदार्थ विशेष, अ्रप्नि यन्चर, दारु यन्त्र चादि, कोष्ठक, ठुटका | यब्त्रण दत्‌० ( खरी० ) पीढ़ा, दु.छ, वल्लेश ।- दायक (६ गरु० ) क्लेशदायक, दु'खदायक् ।.. िभा। यन्त्रित तब» ( ग॒ु० ) नियम्रित, शेका हुआ, पंघा यनन्‍्त्री वद॒० ( पु० ) झोरा, यन्त्र विशिष्ठ । यम तत्‌० ( घु० ) यमराज, कार, भम्तक, सूर्यपृत्र । “सव॒सा ( स्वी० ) यमुना । यमक तत्‌० ( प० )शब्दाल्झ्टार विशेष, एस अतक्कार के शद/हरण में पक ही शब्द की दो दो तीन तीन बार आएूत्ति होती है बघा३-- # सिद्ध अरथ फिरि फिरि जहाँ बेई भचर पृन्द, आवत हैं सो यमक कह्ि परनत घुद्धि विलन्द ”। शिवराज मूपण ) यमदुत हत्‌० (पु५) पमराज का गण, यम का सनदेशा, झत्यु का लक्षण । यमज्ञ ( बि० ) जोडा, पुक साथ झन्‍्मे दो। यमधघार तद्‌० ( घु० ) कटार, भश्न विशेष | यमन तद्‌* ( पु ) यबन, मुसलमान, राग विशेष | यमनिका तव्‌» ( स्ती० ) कवात, परदा। यमनी ( वि० ) यमन देश का । यमज उत्त« ( पु० ) जोड़ा, युग्म, दर । यमलाजुन तद्‌० ( पु० ) बष्ठ विशेष, कहते है कुबेर के दोनों लड़के वेश्याभों के साथ गला में नमे स्नान करते ये। अमाग्यवश नारद वही आ पहुँचे उन्‍्दोंने इस अनीति को देग्प कर झुबेर के चेर्टों को शाप्र दिया कि तुम दोनों बूच हो जाधो, नारद के शाप से दे ते। दच दे गये। पुन सग- यान कृष्ण ने इनहडो नागदजी के शाप से डवारा । यमुना (स्री०) जमुना नदी +--म्राता (पु०) यमराज | यलाफेज तत्‌» ( वि५ ) दिधरा, पसरा, ऐैचा । यब तद॒० ( घु० ) अन्न विशेष, जौ ।--क्तार (० ) रूवय विशेष, शोरा। यचन ठत्‌« (६० ) यमन, मुसलमान | यवनिका ( स्वी० ) देखो “ यमनिछा ” ] यवशा ( स्वी० ) अजवाइन | यवस ( पु ) भय, घास । यवाय्‌ ( ० ) रोगी का साध विशेष |: यपीयस ( दए३ ) युधिप्ठिर यवीयस ( वि० 9 छोटा, थुवा । यश तत्‌० ( ३० ) रीति, ख्याति, प्रसिद्धि, नाम, नासवरी ।--झकर (थि० ) कीतिकारक | यशरूवी तत्‌० ( बि० ) क्षीतिंमान्‌, सुख्यात, क्वव्घ, अतिष्ठा। यशोदा तब» ( स्त्री० ) नस्दूपली, श्रीकृष्ण की माता । यष्टि, यप्िकरा तव॒० ( स्ली० ) लाठी, कड़ी, छड़ी थहद्‌ दे० ( सर्वे* ) निश्चयवाचक स्वनास्त । यहाँ दे० ( झ० ) इधर, इस ठौर, इस ख्यान पर! --फा यही ( घा० ) ठीक इसी स्थान | या ( सर्घे० ) यह । ( श्रन्य० ) बा, दे । थाग तत्‌० ( घु० ) यज्ञ, होम, दृवन, यज्ञ । याचक तत्‌"० (घु०) जाचकू, सिक्षुक, मँवता, भिखारी फृकीर । थोचना दे० ( क्रि० ) भीख सागना । याजक तत्‌० ( पु० ) याशिक, ऋत्विक, पुरोहित ! याज्ञन तत्‌० ( घु० ) याजक्त का कम, यज्ञ कराना | याक्षिक तत्‌* ( पु० ) यज्ञ करने वाढा । यातना तत्‌० ( झ्ी० ) साँसत, दण्ड, पीढ़ा, दुःख, तीम्र वेदना, अधिक कष्ट । यातायात नव्‌" ( छु० ) चावागसन, गरमनागसन । यातुधानु दद्‌ू० (० ) रास, निशाचर, दैत्य । यात्रा तत्‌० (स्त्री० ) हऋूच, प्रस्याव | यात्ञों त्त० ( छु० ) परदेशी, तीर्थ करैया, सुसाफिर । यायधार्थिक तत्‌० ( घि० ) चास्तविक, ठीक, सत्य । याधार्थ्य तत्‌* ( घु० ) सत्यता, सचाई, यधार्थता | याद्‌ ( ३० ) सुध, कएठ ।--घे ( पु० ) श्रीकृष्ण । यान तत्‌* ( छु० ) सवारी, वाहन | यानी ( अब्य० ) अरथाव्‌ । [ काल काटना । यापन तव्‌« ( $० ) निर्याद, काछूछेप, समय विताना, यादू दे० ( पु० ) दाँगन, दहू । याबूक तव्‌० ( घ० ) महाघर, लाछ रक्ष, लाख । थाम ( पु० ) पदर, भदर, संयस |-घोष (घु० ) झुर्ग ।--ता ( छु० ) जञासाता । याम्रि (क्ली० ) घर्मपत्ी । यामिनी तत्‌० ( स्त्री० ) रात, रात्रि, निशा, रजनी | यामना ( पु० ) सुरमा, श्रेजन यास्‍्य ( पु० ) चन्दन का पेड़, श्रगस्यमुनि [ यमावर ( पु० ) अश्वविशेष ज्ञो अध्वमेघ में काम श्रठा है । अयाचित भीख । यार ( पु० ) भिन्न, देस्त । यायाक ( ० ) लाछ्ष, थाज्ञी । याचज्ज्ञीवन तद्‌5 ( पु० ) यावदाथुः, जीवन पर्यन्त | यावत्‌ तत्‌० ( आ० ) जब तक, जब छूग, जवताई'। याचनी (स्प्री० ) यवरों की ।--भाषा (स्प्री० ) यथनों की साषा । याह्वी ( लवे ) इसे, इसके । यियुत्तु ( वि* ) वश करने की इच्छा रखने वाला । युक्त ठत्‌» ( वि० ) विशिष्ट, सद्तित, समेत (छु० ) डचितत, योग्य, यथार्थ । युक्ति तब्‌० ( स्त्री० ) मिलना, मेल, येग्यता, प्रवीणता, अतुराई, चतुरता, हथौटी, चिवेचथा। . थुग तव॒० ( पु ) दो, युग्म, जोड़ा, जग, सत्य श्रेता आदि चार युग, बुद्धि वासक औषध, चार द्वाथ, रथ, हल आदि का झअन्न बिशेष, जुधाढ़, जुर्भा। “-धर्म ( छ० ) काछ का घर, फालमाहास्य। “>पत्‌ (अ्र०) एकढ़ा, पुक कालीन, पृक्ष समय | युगल तत्‌० (घु० ) दो, जोढ़ा ।--मस्त्र (४० ) क्षक्मीनारायण फा मन्त्र) दे देवता का मनन । युगान्त तत्‌० (घु० ) प्रछय, सुंगशेष, युग का अवसान । युग्म तत्‌० ( पु० ) दो, जोद़ा, युग, दृस |-पत्र ( ० ) रक्तकाण्चन वृक्ष -पर्ण ( छ० ) क्ेवि- दारचुच्च, सप्तवर्ण बृद्द । युप्रान पु० ) गाड़ीवानू, सारथी । [ भेग्य । युज्यमान तत्‌० ( वि० ) युक्त देने के उफ्युक्त, मिलने युबजान दव्‌० ( पु० ) सूत्त, सारथि, वि, ध्याव के द्वारा सब बातों का जानने वाला येगी । युत्त तत्‌० (वि०) मिश्षित, भ्एधगूभूत, पक, विशिष्ठ, जड़्ित | ( घु० ) दृश्तचतुष्टयः, चार दाथ | खुद्ध तव० ( छु० ) लड़ाई, सेप्राम, ससर, विवाद ।--- निरदेश ( छु० ) युद्ध की जआज्ञा, युद्ध का सन्देख | +-सज्जा ( स्थी० ) युद्ध की तैयारी युधाजित्‌ ( छ० ) भरत के मामा फा लास | खुधारन ( छु० ) चनच्रिय जाति। झ़िण्डच ॥ युधिछ्टिर तव॒० ( घु० ) पाण्डपुण्, प्रात शक्ल, प्रधम *थुयु युयु ( 5० ) घोड़ा, अभ्व | [ नाम । युयुत्‌ (५० ) गेद्धा, सिगढी घछतराष्ट्र का दूसरा युवक तत्‌० (पु) ठदण, जवान, नवीन, युवा । [छी। युवती तव॒० (स्वी०) यौवनवती,तरु शी,युवावस्था वाली युवन (वि० ) युवा | लि उत्तराधिकारी | युवराज तर० ( पु० ) राजा का बड़ा खड़का, राज्य युग तव० (१०) जशन, तरुण ,यौवन प्रवस्था दाढा । युप्मद्‌ ( सर्वे5 ) तू, तुम । यू दे० ( श्र० ) ऐपा, इस प्रधार । यूंद्दी ( भम्यन ) इसी ताइ । यूक (पु० ) जू, मरकुण, खटमल। घूष तत्‌« ( पु० ) सवातीय समूद, बन्द ।--नाथ ( १० ) बनैडा द्वायियों के मध्य में श्रेष्ठ हाथी। “प्‌ ( पु ) सेनापति, दक्ष का प्रधान ।-अभ्रष्ट ( धु० ) समूद से निकद्ा हुश्रा इस्ति । यूथी ( द्ी० ) शद्दी । धूप व॒ब* ( पु० ) यज्ञल्लस्म, श्वम्मा घूप धव्‌० ( पु० ) जूस, पष्य विशेष । योग तत्‌० ( घु० ) प्राम्रादि चठुविंध बणाय, समति, युक्ति, चित्तृत्तिनितेष, विपयान्तर से सत की नियृत्ति, मे, संयोग |--ज ( चु+ ) भकौकिक सब्िश्पे । (वि० ) बेगप्म्बन्धी ॥-निद्रा ध्यान ।--पट्ट ( पु० ) ध्यान करते समय पद्विनने का कपशा --प्र४ (वि०) येएग थे गिरा हुआ ।-- “+मांया ( श्लो* ) मद्दाप्रापा, पार्वेती +--रुढ़ि (की०) शान दिशेए (-नझढ़ € ख्री० ) येयी । ( (४४ ) श्क ये गनी तव्‌० ( पु० ) भूतिनी, पिशाजिनी, दाकिनी । योगी तद्‌० ( पु ) येगलाधक, तपस्वी | यागेशउर तत्‌० ( प० ) सिद्ध, तपस्‍्वी, येएयी । योग्य;तच्‌० ( घु० ) उपयुक्त, डचित, यथार्थ ।+--ता (सत्री० ) निपुणता । येजञक (९०) मित्राने बाला, दुलाल । येजन ततद्‌० (पु*) चार कोस हा परिमाण >गरवा (खी० ) रुस्‍दूरि ! ओज़ना तत्‌० ( स्तरी० ) विग्यास, मिक्वाप, येग्य का योग्य के साथ विन्यास काना | योद्धा तु (६५ ) घर, वीर, छडने वाढा, सैनिक, सित्राड्ी येघन तत्‌० ( पु० ) युद, लड़ाई, संप्राम ग्राधा ( पु ) देखो योद्धा । येघापन दे० ( पु ) घीरता, थूएता । येनि तद्‌० ( स्री० ) खीविन्द, भग, दत्वत्ति स्पान । ये।पित्‌ तत्॒‌० ( क्ली० ) मारी, स्री, झेल, बाढा। थौं दे? ( भ० ) इस अरकार, ऐसा, इस रीति । यौतिक ठत* ( ० ) ज्योतिष, भद्ज विधा, गणित । यौतुर्च ठव० ( घु« ) दद्देश, दायजा । योघेय (पु० ) येदा।.* ः यौचन 'तव्‌० ( ० ) जवानी, तरणाई; यौवनावस्पा । “--छत्तण ( वि* ) छावण्य, सूयघूरती। यौचनाश्य (पु०) मान्धाता राजा का नाम । यौयराॉज्य ( बि० ) युवराजपद । योगधना (श्री०) उजियाद्ली' रात । प्‌ 5 र यह स्यक्षम का सताइसर्वा दर्ण है। इसका सारण स्थान सूद है। इससे यद अइर सूद्धेन्य कहा जाता है। श तद्‌० ( पु० ) भप्मि, कामाप्ति । ( वि० ) तीड़ण । शई दे० ( सत्री० ) मपनी, दिल्लानी | रस ( पु० ) घनी, राशा। रस तद्‌* ( स्री० ) रश्मि, किरण, दीसि । रंहट, रहूट दे० ( पु ) जल विदाालने का पत्ता रस ( दि० ) शीघता, हेज़ी । र रकवा ( एु० ) देन्रफल, विस्तार ! रकम ( १० ) तादाद, तदरीर। रकाद ( स्त्री० ) घोडे की राठी का पायदान । रत्ादी ( स्त्री० ) तरतरी । रकतत० (घु० ) रुचिर, छोड्ट,' शोयित, झुँकुम, केशर | ( वि० ) रक्त बर्णे, छार रंग “-क्रोाढ़ ( एु० ) रक्त कुष्ट दुष्ट रोग विशेष |--प्न (प०) द्ोध गृष [--चन्दन ( धु० ) राज चन्दन, देवी चन्दन +-चूर्ण ( पु० ) सिन्दूर ।- पा (स्त्री०) बे हैः रक्ताकार ( लॉक, जलौका [--पात (प०) इत्या, रुघिरपात, लेहू का गिरदा +-- पिच ( पु०) रक्तज्राव रोय | >-वीज्ञ ( पृ० ) एक राज्टस का नाम, यद्द राचस शुम्भ निशुस्म का सेनापति था। यह दुर्गा के हाथ से मारा गया | रक्ताक्वार ( पु० ) झूँगा, प्रवाल | शकात्ष ( ४० ) भेंसा, चक्ोर, कोकिज्ष, सारस कबूतर, छात्र नत्नवाला | रक्तार्क ( घु० ) मदार, अकौआ।) शक्तिकता ( स्त्री० ) घुघची । शक्तोत्पल ( पु० ) छाहूकमल, शातमल्ी छुच । रतक्तकू तत्‌० ( धु० ) रक्ा करने वाल्ठा, रालने बाल, पान्क्, उद्धारकर्ता, स्वामी, प्रभु ! शचाण तत्‌० ( ० ) रछा, पाछन, ऐोेपण । [ नीच | रक्तसतू तत० ( पु० ) राछस, निशाचर, सस्ू्में द्वपी. रत्ता तत्‌० ( ल्व्री० ) बचाव, बचाना, रखवाली फरना, राख, भस्म +-पेक्षक ( पु० ) रिक्र + अपेक्षक] द्वारपाल, डेवढ़ीदार, सिपाही, दरबान | शकतित तव्‌० ( गु० ) रखा हुश्रा, रछा किया हुआ | रख छोड़ना दे० ( क्लि० ) घरना, रखना, सोंपना, अपर करना । [ करना । रुख देता दे० (क्रि०) धरना, रखना, टिक्वाना, स्थापित रखना दे० ( क्रि० ) ह्यामना, सौंसना सौंतना। रखवाना दे० (क्रि०) घराना; सौंवाना,अ्रपिंत करना [ रखवबाला दे० ( पु० ) रदक, रहा करने वाला, गढ़- रिया, चरवाद्दा । रखवाली दे० ( स्त्री० ) रहा, रखाई, ख़बरदारी । शाखिया दे० ( पु० ) रछ्ता, बचाव, रखूवारी, रखाई | रखी दे० (स्त्री० ) रचा का कर | रखैया दे" ( छु० ) रचक, रखवाध, रदा ररनेवाला। शग दे० ( स्त्री० ) शिरा, नाड़ी, नस | रगड़ दे० ( स्त्री० ) सह्ृष्ण, चिछाव । शगड़ना दे० (क्लि० ) घोंदना, सछना, घिसना । शशणड़ा दे० ( पु० ) ऋगड़ा, विस्ताव, बल्वात्कार से लड़ाई ।--भाड़ा ( वा० ) लड़ाई, देवा, बखेड़ा, फसाद ( रगेद ( छरी० ) खेद । रोदना दे ० ( करिए ) खड़ेड़ना, भयाना, पीछा करना | हं४४ ) रडुबाई रहु, रैंक दे+ ( ३० ) कहपल, दरिद्र, छप्य। रघु तत्‌० ( घु० ) पक सूर्यचंशी राजा | राजा दिल्लीए का पुत्र | इन्हींके वश में श्रीरामचन्द् ने 'यवतार किया था ।+-नवदन (पु०) श्रीयामचन्द्र ।- नाथ ( ए० ) श्रीराम ।--पति (छु० ) श्रीराम रघु- नाथ राज़ ( षु० ) श्रीराम रीवा के एक राजा । वंश (४० ) रघुकठ, काव्य विशेष, क्ाकिदास का बनाया एक काव्य [चर ( पु० ) रघुश्रेप्ठ श्रीरामचन्दर, रघुनार । रज्छ, रग तव॒० ( पु० ) वर्ण, डौल, रीति, ढंग। उड़ ज्ञाना (चा०) रंथ वबदर जाना, रंग फीछा पड़ना [--उतर ज्ञाना ( वा० ) पीला होना, रंग कीछा पड़ता, सोच में होना, कुड़ना, छल्तपना। “झरना ( बा०) ख़ुशी करता, विलसना, समय को आनन्द में घिताना “-चढ़ेना ( वा० ) नशे में चूर दोना [--देंख ला (वा०) परिमाण देखना, विष्पत्ति देखना [+चाथ तव्‌० ( घु० ) भगवान्‌ विष्णु ही मूसि विशेष जो दु्धिण देश में है। यह ज्लावैष्यवों का प्रधाव पविशन्न स्थान है। +घरंग ( घु० ) अनेक रंग का, चित्र विचिन्न मति भाँति |--विगडुना (चा०) किसी की दशा विगढ़ना, रंग इधरता ।“-भेद्ध ( छु० ) शानन्द में बिगाड़ होना, श्रानन्द में खेद । “भूमि (स्त्री० ) सावदशाल्गा. नाटक खेलने का स्थात |--महल्त ( 8० ) आनन्द काने का महरू, चविलास करने का महल ।--सारना (वा० ) खेल जीतना +--रक्लिया (स्त्री०) आनन्द, हु, हुलाख, भोग विलास +--रख ( घ० ) झानन्द, हफे ।--रातना ( झु० ) अ्रत्ति घनिष्ट सित्रता। “+राचा € चा० ) रंगा हुप्रा, असक्न, आनन्द) “+रूप ( छु० ) झाकार प्रकार, रंग डंग, चमक दम (--लगना ( वा ) रंसवा, शपता अधि- कार जसाना, श्रभाव विस्तार करना खाजी दे० (स्थ्री० ) चिन्रक्ारी, रंग चढ़ाने का काम | * रज़जुना, रंगना दे० ( क्रि० ) रंग करना, रंग चढ़ाना । रड्ुवाई, रेंगवाई दे० ( स्थी० ) रंगने का काम, रंगने की सजूरी । -+ रफ़वैया रहुवैया, रंगपैया दे० ( घु० ) रंगनहारा, रखकार, रंग काने वादा | इट्ट्ाई, रंगाई दे* ( स्ली० ) रगने का पैसा, रंगवाई। रहना, रंगाना दे० ( छ्लि० ) रगवाना, रथ करना । रष्ट्रावढ, रंगाचठ दे० ( ख्रौ० ) रंथाई, रयाई देना । रह्ढी, रड्जीला, रंगी, रंगीजा दे ( गु« ) रखीडा, रसिर्द, मौनी, घटा, चमछीला | रचक तत्‌० ( पु० ) रचना करने बाढा, निर्माता) ( थ० ) थोडा, स्वक्प, सजावट, सनाने वाला, समभैया । शचना तत्‌० ( स्त्री० ) बनावट, सज्ञावट । रचयिता ( घु० ) मिमांठा, रचने बाला । रचाना दे० ( क्रि- ) बनाना, सजाना । रज़ तद० ( स्प्री० ) घृक्ति, पराग, रेत | रजस ( स्व्री० ) घूछ, पराग, रेठ। रज़क तत्‌० ( पु० ) घोगी, कपडे घोने बाका। रज़त तव्‌ (१०) चाँदी, रूपा, रौष्य ।-न्द्युति (१०) गौरवर्ण, श्वेत वर्ण । रज्ञन सत्‌« (१०) राग रत्पादन, रगना, रंग चढ़ाना | रज़नि, रजनी तत्‌० € स्प्री० ) रात्रि, रात, पामिनी। “कर (१० ) अस्द्रमा, चन्द्र ।-चर ( घु० ) रास, अमुर, निशाचर, भूत +--अकत्न ( पु० ) सुषपार, झोस, नीहार, कुद्ाार, कुद्देया +--मुख ( पु० ) पदोष, सन्प्याकाल | [ स्थान । रजधानी तद॒० ( श्प्ी० ) राजघानी, राजा के रदने का रजपयाड़ा दे० ( पु० ) राज्य, राजसमंद) राजपूताना | रभस्वत्ञा तत्‌« ( स्प्रो० ) ऋतुमती स्थी । रज्षाई दे० ( स्त्री० ) भ्राज्ञा, आयसु, रजा, टुक्म, चुट्टी, मोइटव | रजाई (बश्लो०) शीवकाल में ओद़ने का कपद्ा विशेष । रज़ामदी ( स्थरी० ) प्रसदता, खुशी, भनुमति । रज्ाय दे० (१६ ) झाज्ञा, अनुराधन | रज़ायछ दे* ( पु ) राजाशा, राजा का भादरेश | रजोगुण तव० ( धु० ) प्रकृति के त्रिविध गुर्यों में का एक गुण] रज्ञोवती ठद॒० ( स्त्री० ) रशसवच्ना, ऋतुमती । रज्छु ठव्‌० ( स्व्री० ) सूत, रस्सी, ढोरी, जेवरी । रख्क तत्‌० (१०) चित्रकार, रंघसाज, रए करनेदाटा ! इ४६ ) रतोंघा रख़न तत्‌० ६ पु० ) रंगपताजी, चित्रकारी | रन दे० ( घु० ) घोपता, रटना, पुक बात को कई घार कइना ॥ रटना दे० ( क्रि० ) घरावर बोलते रहना, कई घार थेजना, देहराना तिदराना । रण ततद* (० ) थुद्ध, बढ़ाई, संग्राम, समर। -गढ़ा (३०) गढ़, साई, मोर्चा वन्‍दी ।-भूमि ( छ्ली० ) समर समूम्ति, युद भूमि, रखफेत्र, रणखेत [--वास ( घु० ) मद्दछ, रानियों छे रहने का स्थान रणित ठद्‌० ( वि* ) शब्दित, दध्वा टुझ्ा। रणड (पु०) रेंढ, रंडी। [प्ी, भ्रसुद्दागिनी,विधवा स्त्री । रणष्टा तत्‌० ( स्री० ) रॉड, विधवा, यिता पति की रणडापा, रंडापा दे० ( पु० ) यैघम्प, विधवापन । रग्रिडया, रंडिया दे० ( स्थ्री० ) राण्ड, विधवा स्त्री | रण्डो, रंडी दे० (स्त्री० ) वेश्या, पतुरिया, दुरा- चारियी | इंडुशा दे० (५०) पद पुदप जिसदी पत्नी सर गयी हो । रत तत्‌० ( घु०) मैथुन, कामकेल्ि,स्प्ी ग्स# । (वि०) आसक्त, लवत्लीन --ज्ञगा (प०) रात्रि जागाण | ताकिन्‌ ( ३९ ) उस्ताद, कासुझ, भहुमा, पर- श्वीगामी |--ताली ८ स्प्री० ) कुटनी, पैथल्ली | रतन तद्‌० ( पु० ) रक्त, हीरा आादि रत । रतनार दे० (वि०) छाल वर्ण का छाल रंग का।' स्ततिया दे० ( ० ) एक प्रचार का चाँवल | रतवाद्दी दे० (स्त्री०) सुरेतिन, रसी हुई स्त्री | (अ०) रात ही रात, रातोरात | की ब्द्ट शताना दे० ( क्रि० ) कामातुर शेता | रतायनी ( स्व्री* ) वेश्या, रंडी । रवतातू दे० ( ४० ) पुक प्रका का सूठ | रति ( घ्त्री० ) रची, आठ चाँवड की चौछ । रती दे० ( स्त्री० ) प्रीति, प्रेम, क्रीदा, स्त्री सक्र, काम- देव सी क्री ।--पति ( घु० ) कामदेव, ऋन्दप, अनकह् | शरतीचमकना दे० ( या० ) बढ़ता, छना, फूछता, भाग्यवान्‌ देता | रतोवन्त दे* ( वि+ ) माग्पवान्‌, भारब्बी। +-« रतौंघा दे० (३०) पद पदुदप निप्ते रतैंघी रा रोग है। | रतौंघी रतोंधी दे० (स्त्री०) रोय विशेष, चद् रोग जिसके द्वोने घे रात में न देख पड़े रखी दे० ( स्प्री० ) तैक्ष विशेष, श्राठ चव का तौछ । रस्त तच्‌० ( ६० ) परि, बहुमूल्य पत्थर ।--कन्द्ल (छु० ) झूँगा, प्रवाछ, विधुम् गर्भ (०) समृद्र, सागर । ( स्त्री० ) एृथिवी, भूमि, धरती ! --जअख्ति ( वि० ) रक्तत्नचित, रलभूषित, जिसमें रत्न जड़े हों ।-जेत ( घु० ) एक प्रकार का पौधा, अरख की औपध |--मालता | ( स्त्री० ) रत्नों की वनी साला, मेत्री की माला सात ( प्र० ) देवालय, देवल्लोक, सुमेरु पर्चत | “+-सिंहासन ( पु० ) राजसिंदासन, रतों से जड़ा हुभा सिंहालन | ( स्त्री० ) मेदिनी, छथिवी । रज्ाकर तद० ( ५५ ) सद्देदधि, सागर, समुद्ध । रलासली तत्‌" (स्त्रौ०) रज्नों की माला, रत श्रेणि,एक नाटिका का भाम,जिल्ले राजा श्रीडपे ने बनाया था । रथ तत्‌० ( छु० ) याही, बहकछ ।-कार ( छु० ) रथ बनाने वाला, बढ़ाई, चर्णलक्कूर ज्ञाति विशेष, माहिष्य जाति के पुरुष से करण जाति की कन्या में उत्पक्ष सन्‍्तान के। रथकार कहते हैं ।--तर्भक ( पु० ) शिविका, पाछकी ।--गुत्ति ( स्त्री०) रघ का परदा, ओोहार |-पाद्‌ ( छ० 9 पहिया, चाका ।-वान ( छु० ) सारधी, रधबाह, रथ इकिने बारा | पवाहक (३8० ) सारथी, रथवान, बनता । [ चक्का । राथाड़ु तव॒० (घु० ) [ रघ+ भट्ूः ] पहिया, चक्र, रुथी तत्‌० ( छु० ) सवार, रथ पर चलमे चाज्ा, रथ का स्वासी | रथ्या तत्‌० ( स्ती० ) गली, मार्ग, राह, वाट, डर रद, रदून तद्‌० ( पु०) दाँत, दखन, दन्त निः्प्रशेजन । उच्छिष्ट, उगार, उगाल, छांट, के ।--एछुद (पु०) ओपष्ठ, अधर, शोठ । रद दे० ( ३० ) भीत की परत । रह्दी दे० ( स््री० ) निकक्‍सा, घुरावा कागज । रन तदु० ( घु० ) रण, युद्ध, सैग्राम, समर |--गरढ़ ( 9० ) छावनी, शिविर ---इन ( घु० ) मद्दावत, भयानक वन (--वांस (घु० ) रानियों के रहने का स्थान । ( ६४७ ) स्या रन्तिदेव दत्‌० ( पु० ) चन्द्ृवंशी राज विशेष | रन्धना दे० ( क्रि० ) पहना, छुराना, सीज जाना । रनन्‍्त्र तद॒० ( छ० ) चिंद्र, छेद, विल । रपठ, स्पठन दे ( खी० ) फिसलन, खिलकन | रफ्ठना दे० ( क्रिः ) फिसलना, गिरना, खिसकना । रपटा दे० ( पु० ) अभ्यास, बाव, स्वभाव ! रपठाना दे० ( क्रि० ) दौड़ना, गाना, कुदाना । रफूचक्कर ( क्रि० ) भाग जाना । रफ़ूगर ( 5० ) फटे कपढ़ों की सरम्मत करनेबाला । रड़ दे० ( स्री० ) श्रम, थकाई, भकावद, दौड़ घूप, एक वृद्ध का दूध। [ धकतना, श्र करना । रवबड्ना दे” ( क्लि० ) ब्यथ दौढ़ धूप करना, भठकचा, खड़ा ढे० ( वि० ) आन्त, घका |. औरत दूध । रबड़ी दे० (स्री० ) बसौंदी, मीठा डाकू कर खूब रबी ( 3० ) साचे, अपरेत्त में काटी नानेवाली श्रनाज की फसछ । रम ( ख्री० ) मदिरा विशेष | ्टित, चाकर । रमचेय दे ( पु० ) गुठाम, किक्वर, नौकर, सेवक, रुमठ ( ० ) द्वींग | रमण तत्‌ ( घु० ) [ रत्‌+ झनद्‌ ] चित्त विनाद, क्ीढ़ा, खेल, बिहार, साथियों के साथ क्वीड़ा | रमणी तव्‌० ( स्री० ) मनाहारिणी स्त्री, सुन्द्री त्री, खल्ना, महिला । रमणीक तद्‌० ( वि० ) मनभावच, सनेहर, सुन्दर । रमणीय तत्‌० ( वि* ) मनेहर, सुन्दर; सुघड़ | रमन दे० ( पु० ) खेल, क्रीढ़ा, घोतुऋ, विद्ार । रसना दे० ( क्रि० ) रमय करना, खेलना, झऋूदना । रमन्ना दे० ( घु०) जाने या भीतर घुसने की परचानगी का पन्न, गन । [अन्ञ विशेष, प्रश्न शाक्ष | रुमल तत्‌० ( 8० ) विदेशी फलित, ज्योतिष शास्त्र का रमा तव० (ख्री० ) लक्ष्मी, विष्णुपक्षी |--पति (३० ) विष्ण । रफाना दे० (३5४० ) खिलाना, फुसलाना, बराना | रक््सा तव्‌० ( स्री० ) स्वर्या्नता विशेष, एक अप्सरा का नाम, केछा, कदुली । रस्या व्‌ ( खती०) राज्ि, सुन्दरी ,मनेतदारिणी,पप्मिती । सय ठत्‌० ( छु० ) घेग, भवादद, धारा । स्थो ( क्रि० ) मिले, रंगे । ररना ररना (क्रि३ ) बेलना । रलना ( कि० ) मिजना, पिसना, मिसवा। साधा- शकार काना | रलाना दे० ( क्रि० ) मिसाना, मीचना। रबलक तद्‌० ( पृ० ) कम्मछ, पशमीने का कम्बज । रव तत्‌० ( पु० ) शस्द, घ्वनि, नाद, निनाद, आईट | [| रखन्ना दे ० ( ५० ) रतवास का सेवक, चुंगी की फीस | ! रवा दे० ( १० चेशटे दोटे कण, चूर, धुल, बालू । रवि ठत्‌० ( पु०) सूथे, मात्तण्ड, दिवाकर |--कर सूर्य की किरण ।--तनया (स्त्री०) यमुना मंदी ।--नम्दिनी ( स्ली० ) यमुना नदी ।--पुत्र ( धु० ) कर्ण, सुप्रीव यमराज, शनैश्वर ।-मणि ( पु० ) सूर्यकान्तमणि, झ्रातिशी शीशा।-- मण्डल ( ० ) सूर्यमए्दल, सूर्यलोक (--धार आददित्यवर, भ्रतव्यर, हृतवार ! रविक (घु० ) भीम का दृद । रविज्ञ ( ६० ) शनिश्चर ग्रदद, यस, चैवस्पतमजु । रश्मि तद्‌० ( झ्री० ) क्रिण, तेज, फान्ति, मयूफ, रात, घोड़े की घागडोर। रस तत» ( पु० ) विपय, यल, प्रेम, स्वाद, सवाद, अके, सार, निष्कर्ष भोजन के छु* रस, श्ार हास्य भादि मव रस, पारा, मेज, मिलाप, भस्म, आओपधियों का भस्म ।--रस ( ० ) धीरे घीरे । +-छ्ष ( ० ) रसिक, रसशाता, रस समझने वाला ।--ज्ञा (स्त्री ) जीम, रसना ।--राज़ .. (६० ) पारा घातु, सतिरामहत काब्यमन्य । रसद्‌ ( पु० ) सेना आ्रादि के भोजन की सामग्री रसन दत्‌० ( पु० ) स्वाद, चीखना | ( स्ली० ) खह- सन, फन्द विशेष १ रखसना तव० ( स्वी० ) रसझ्षा, जीम, मिद्धा । रसनेन्द्रिय ( पु० ) जिंदा, जीम, छवान ; रसमसा दे० ( वि० ) मोंजा, भींगा, आद, थोदा । रसमसाना देन ( द्वि० ) मींगना आदे होना पसीजना । [ पींचा जाता हैं । रसरा दे० ( ५० ) ढोरी, मोटी रस्सी मिससे पानी रसरो ये० ( स्ी० ) रस्पी रसवत दे* ( खो० ) रसौत, भ्रश्नन विशेष । रसवती ठत्‌* ( ख्री० ) रसीक्ी, रसयुक्ता, सुशीज्ा ( दम ) रहन रसा दत्‌० ( खी० ) पएथिदी, भूमि, धरती, घरणी | रसाझन ठत्‌० ( घु० ) काजल, सुर्मा रखातल तत्‌० (पु०) एयिददी दल, अ्रधोलोक विशेष, साठवाँ लोक, वलिराज का लोक । रसाना दे० (क्रि० ) जोड़ना, मिलाना, सयुक्त करना। रसायन तत्‌» ( घु० ) कीमिया, रस विरोप, प्राण बचाने थाले रस ।--फल ( ख्रो० ) इरीतकी इसरो ।--विद्या (स्प्री० ) रस सम्बन्धी विदा, जिसमें धाठुथों का मिक्ताना शयरू फरना आदि बाते लिखी हैं । रखाल तत्‌० ( ए० ) थ्राम, आम्र। रखसिक तत्‌० (घ० ) रसज्ञ, रसश्ञाता, स्सीला, रसिया, कम्पट, दुराचारी, गुंडा । रसिकाई तदु० (स्त्री० ) रसिऊता । रसिया दे० ( छु० ) रसिक रसज्ञ, लग्पट, भ्रसक्त। रखियाना दे० ( क्रि० ) गीला दोना, भौंगना । रखीद्‌ दे० ( स्त्री० ) पहुँच पत, सथादपत्र । रस ला दे० ( वि० ) रसयुक्त, रसपूर्णे, रस विशिष्ट रसे दे० ( अ० ) धीरे धीरे, हौले हौत्े, राने शने। रसोइया दे० ( पु» ) रियैया, पाचक, पकने घांज्ा । रखाई दे० ( स्त्री० ) पाक, भोजन । रखसोत दे० ( पु० ) भ्रज्ञन विशेष, रसवत । रस्सा दे० ( पु० ) ढोरी, छेपरी « रस्सा दे० ( स्त्री० ) छोरी, रसरो । रद दे० ( क्रि० ) रदजा, ददरजा, था, रहा, ( घु० » रास्ता, मार्ग । रहकल दे० ८ स्त्री० ) छोटी तोप, छुपक । रदकला दे० ( पु० ) छऊ़द़ा, गाड़ी, सामान ढोने पाली गाडी । रदचोला दे० (पु०) लक्घोपतों, चापलूसी, भीठी बत्तें। रहजाना दें० ( या० ) बाद जोइना, ठहराना, सस्तोष करना । जा [कक्षा रहय दे० ( स्प्री० ) गरारी, चर्खी, पानी नियालने फी रहटा दे० (स्त्री ) चर्ज़ो, गरारी। रहड़, दें० ( पु० ) सगढ़, छफ्दा। रहत दे० ( घु० ) टिकाव, द्राव, स्पिठि, घास । रदते दे० ( आ० ) होते, सामने, आँख के सामने । रहन दे० ( स्थ्री० ) चन्नन, रीति, स्यवद्ार, भाँति। रहना रहता दें* ( क्रिए ) टिकावा, ठहरावा, चसना रहमान ( एु० ) रहम करने वाला, दयालु । रहमार दे० (घु० ) बट्सार, चोह्य, चोर, तस्कर, डॉकू । रहता दे० ( छु० ) चना, दूट, चोला । रहा दे* ( १० ) चेला, लौंडा, दास, भुत्य, नौकर । रहयाई दे० ( खी० ) घर का भाढ़ा, घर में रहने का .. किराया [ रहने बाला । रहवेया दे० (छु० ) वासी, निवासी, झहरने वाल्ला, राहस तद्‌० ( घु० ) उठोलपन, हसौवा, हसेइापन, क्ृष्णलीला । | निद्त दोना, हर्षित होना । रहसना दे० ( क्रि० ) हुलसभा, प्रसन्ष होना, आवन- रहरुय तद० ( ७० ) थुप्त तत्व, युप्त वार्ता, मंत्र, भेद, सम, सलाह, राज, नियूढ़, गोपनीय, गुप्त । रहाइस दे० ( ख्री० ) स्थिति, वास, दिकाव । रद्दाव दे? ( छ० ) रदन, स्थिति, टिकाव । रहित तत्‌० ( जि० ) वर्जित, द्वीव, शल्त्र, विनर घोड़े का, खाली, दाक्त, एथक्‌, भिन्न । रहीम (अ० ) दयालु, रदम करने चाला। (पु० ) प्रतयीन कवि विशेष ( राई दे० ( ख्री० ) सर्प, स्ें, ( छु० ) राजा, प्रधान, स्वामी, यह राजा के अर्थ सें संज्ञा शब्दों के पीछे आता है | यधा--रघुराई, यदुराई । राईया दे० ( खी० ) फणिका, सर्पप, सर्लों, तोरी । रा दे० ( छु० ) राजा, भूपति, राव । [की उपाधि राउत ठव्‌० ( $० 2 राजप॒त्र, मान्‍्त्र, कर, अहीरों राए दे० ( छु० ) राजा, राणा, राजपुतन्न, राजपत। --रायन ( 9० ) राजराज, महाराज, राजों में प्रधान । राएता दें* ( पु० ) ब्यज्षन विशेष । राण्वाश दे० ( घु० ) भाला, वी । राँग, राँगा दे० ( ० 9 घाठ विशेष, सीसा । रॉस्तन दे० ( पु० ) श्रिय, मियतस, सज्न, एक मसिद्ध अणयी, राजपूताने में इसका स्वॉग रचते हैं । रँसरा दे० ( ए० ) खिलौने बाला । [ प्रेसी । रास्ता दे० ( वि० ) प्यारा: मिंय, म्रियतम, स्नेही, राडू दे० ( स्री० ) विघयो, अपतिका, बिना पति की ( द8६ ) राज - ख्री ।-- का साँड़ ( वा० ) विधवा पुत्र, वियढ़ा हुआ लड़का । [ अफला । राड़ा दे० (वि० ) बॉँक, बन्ध्या, बिचा फंल्ष का, संँदनी दे० (सत्री० ) शाक विशेष, एक शाक का नाम। राँद पड़ोस दे० ( घु० ) अदोस पड़ोस । राँघता दे० ( क्रि० ) रींघना, पकाना, सींजता, उचा- लगा, रसोई बनाना । सँपी दे” (ज्ली० ) खुर्पी, घास काठने का अखा, करणी, मेची का एक औज़ार । राँभना दे० ( क्रिक ) गाय का शब्द, गौका कराता ॥ शकसख ( ३० ) राहुस, दानव, दैस्य, प्रकाशसान पदार्थ का जीव विशेष । राका तत्‌० (खत्री० ) पूर्णिमा, पूर्णमाली, पनों। पति ( ए० ) चस्द्र, चन्द्रमा । राख दे० ( स्री० ) भस्म, भभूत । [पुर्पक झहरानां । राखना दे० ( क्रि० ) रखना, घरना, ठहराना, रक्षा राखी दे? ( ख्री० ) रह्षासूत्र, रेशम या रूत का बना हुआ एक डोरा विशेष जो सावन की पूर्खिसा के हाथ में बाँधी जाती है --पूनो दे' (स्त्री० ) आवण, पूर्णिमा । राय तत० ( ए० ) रह, लाल; कोट, अनुराग, मेम, स्नेह, गान का सुर, भैरव, भन्नार, मेघ, श्री, सारह, हिण्डोल, बसन्‍्त श्रौर दीपक थे छः राग हैं ।--छात्रा ( वा० ) आउन्द होता, आनन्द मानना ।-रंग (वा० ) शाना बज़ाना। शागना दे० (क्रि० ) गीत शानां, गाना मारस्भ करना | राग्रिनी या रागिणी तत्‌० ( ख्री० ) गान भेद, तान रागिनी छत्तीस हैं । भैरव आदि छः रायों में प्रत्येक रास की छर छः रागिणी होती हैं।.._ | कोधी | रामी तत० (३० ) गायक, गान निएुण, प्रिय, राघव तत्‌० ( घु० ) रघुनाथ, श्रीरामचन्द्र, रघुराज, $. रघुवंश केराजा।....[ खगना, लीन होना । राचना दे० (क्रि० ) प्रेम विवश द्ोना, मिलना, रक्त दे” (8० ) शिहिपियों के अख्, बढ़ई आदि कारी- | गरों के भौज़ार । राज वद्‌० ( घु० ) राज्य, सजा का अधिकार, कारी- ।.. गर, संगठराश, थवई --कन्या (स्व्री० )'राजा शाब प[ू+--मरे श्जे की बेटो, राजकुसारी, राजकुवारी ।--कर ( पु० ) राजस्व, राजकर, लगान, राजा के! दिया जाने घाला धन, पष्ठ औैश 7--फीय ( गु० ) राजा का. राजसम्पन्धी, सरकारी, वादशाही +-कौय महासमा (स्त्री० ) राजा या दरबार, शाही दर- यार [--कुठुम्च ( पु० ) राजघराना, राजवश, राजइल ।--कऊमार ( प० ) राजपुत्र, राजा का चह पुत्र जो राज्य का अधिकारी हो ।“-छत्य (पु०) राजरूजण, राजा फा काम ।--औैश (ए०) बाजा फा ख़ज़ारा, राजा का वह प़ज़ाना जो प्रजा के ज्ञाम के लिये जमा रब्ता है, जिसके रुपये प्रभा की भलाई के लिये लगाये जाते हैं । >-भादी ( स्त्री३ ) राज्ासन, राजा का आसन, सिद्दासन, रामगद्दी |--त्‌ (वि०) च॑दी सम्बन्धी, शोमित, निर्मित ।--त्व ( यु० ) राजा का अधि- कार, राजा का काम, प्रभुता ।--द्वार ( पु० ) राजा के मइर का द्वाव, थड्मा द्वार, एस्हार खगर का फाटक ।--दुरड ( घु० ) राजा की शक्ति विशेष, शासन सम्बन्धी खज्ञ, राजा का दिया हुमा दण्ड ।--देन्‍त ( पु० ) अगले दोनों दात । “>द्रोद्दी (४० ) राज्य का द्रोह करते वाढा, राजा का भ्रशुभचिन्त5 |--घर ( पु० ) चमाद, मन्प्री, सचिव ।--घानी (ह्यी०) राजनगर, राजा 7 का मुख्य नगा,गर्दा राजा रदते हों।--ना (फ्रि०) चमकता, शोमना ।-“-सीति ( स्त्री* ) राजा के शासन करने की रीति, प्रन्ध विरोष +--न्‍्य (१५) राभपुत्र, चतन्निय, अभि, चीर का पेडशराजा का पुत्र | “पक्षी ( स्प्री० ) राजा की रुद्री ।--पुत्र (६०) राजकुमार, राजपूत,चच्निय ।--पूत (धु०) कत्रिय | “भोग (पु०) बडा मोग,दोपदइर का बडा भोग, मध्यान्द्ध का छा मैवेध ।--मन्दिर (१०) राज- सदन, राजा का सहल (मार्ग (पु०) राजपष, सह्क ।--राज् (५०) झुषेए, चन्द्रमा, सम्चाट ।-- राणों (स्त्री) मद्दारानी, राजा की राभी ।--रोग ( पु ) हय रोग, यड़े रोग छो भर्छे नहीं दोते । शासन (० ) शजा का दण्ड ।-छूप ( पु० ) यक्ष विशेष, रामा के करने का यज्ञ । +-इईंस ( घ५ ) पद्दी पिशेष ६ ( ६४० ) राधा राजना दें* ( क्रि० ) चमझना, शोसना, शोमित होना, विराजना । राजस तव० ( १० ) रजोगुण, अदद्भार, गये । राजस्व तत्‌० ( ५० ( राजकर, रानघन, बाजा को देय घन, मालगुजारी राजा तत्‌« ( पृ०) भुपति, भूपति, भूमिपति, मूपाल । राज्ञाज्ञा तत्‌० (स्त्री० ) राजा की झ्ाज्ञा, राजा का आदेश | राजाधिराज ( ४० ) सम्राट, चक्रवर्ती । राज़ायर्त (१०) राबटी, लानावत। राजित ( पु० ) शोमित | राजी तव० ( स्त्री० ) पक्ति, पाति, श्रेणि, भ्रवलि । राजीव ( पु० ) कमल, पशञ्म । राजेश्वर तत॒० ( पु० ) [ राजा+ ईध्वर ] महाराज, राजाओं के मालिक, मदीपति | राज्ञी तत्‌० ( स्त्री० ) महारानी, मद्विपी, राजपक्षी । राज्य तव्‌» ( पु० ) राज, देश, राष्ट्र, राजा की अधि- कृत देश । राठ (पु०) देश विशेष, जो गगा ऊे पश्चिमी तट पर है। राठौर ( ० ) राजपूतों की ज्ञाति विशेष । राढ़ो दे० ( ६० ) श्राह्मण विशेष, राढ़ देशी ब्राद्ाण । राणा दे० (घु० ) राजपूत, दरत्रिय विशेष, राजा । राणी दे० (स्प्री० ) राज्ली, रानपत्षी, रानी । रात तदू० ( ख््री० ) रात्रि, रजनी, निशा, रैन । रातना दे० ( किए ) रंगना, लाल रंग में रंगना, छाछ होना । रावा तदु० (वि०) रक्त, ढाक़, बाल रग में र गा हुआा। रातिघ ( घु० ) घोदा हाथी का दाना, खुरार । राते ( वि० ) छाल, रहे । [ घब्चला । रातोंघिया तद्‌० ( वि० ) राग्रश्नन्घ, रात रा अन्धा, राच ( पु० ) शान, शिद्दा, इश्स । रात्रि तब ( खी० ) रात, निशा, रैन |--चर (3०) राक्सस, निशाचर, भूत, राशस । [कोकिछ आदि। राष्यन्ध (पु०) जिसे रात में न देख पढ़े, कौचा, लावा, राद देन ( घु० ) पीब, पीप, दिगड्ठा खुन। राधा तद० ( स््री० ) थीहृप्य की स्री, गोपी, बृष- समान की पुत्री ।--कान्त ( धु० ) श्रीकृष्ण । -उुयड ( पु ) ग्रेवद्ंग पर्वेत के दास का पृक राधिका कुण्ड जिसे श्रीकृष्ण ने खुदबाया था ।|--वदलस ( 8० ) श्रीकृष्ण ;--छुत ( ० ) करण । राधिका तत्‌० ( ख्री० ) सधा भाप्त की एक गोपी, नो श्रीकृष्ण चछमा बतल्वाई जाती है । रात ( घु० ) जाँच, जानू । रानी ( स्री० ) बेगम, राजपली । राव दे० ( स्री० ) गुड़ का रस, खीरा, दो प्रा । राबड़ी दे? ( ख्री० ) ज्वार बाजरे का मठा या दूध में पकाया हुआ शग्रादा राम तत्‌० ( घु० ) परशुराम, भगवान्‌ का अवतार । ये जमदभि ऋषि के पुत्र थे और इन्हेंने इक्‍्कीस बार क्षत्रियें का नाश किया था (२) रामचन्द्र, यद भी भगवान्‌ ही के अवतार थे । राजा दशरथ के यहाँ ये प्रकट हुए थे । (३) बलराम, श्रीकृष्ण के बड़े भाई ।--कह्दानी ( स्न्री० ) बड़ी कहानी, हुःख पूर्ण कपा +>राम ( भ्र० ) प्रणाम, सल्याप्त, घुणा वोधक (---करत्ती ( स्त्री० ) राणिणी विशेष: एक रागिणी का भाम |--गिरि ( 9० ) पर्वत विशेष, चित्रह्ुट पर्वत, यद् बुन्देखखण्ड में है। --जती ( स्प्री०) पढाड़ी हिन्दू वेश्या --तरोई ( स्त्री० ) एु6 तरझरी का नाम ७-दूत (ए०) रामचन्द्र का दूत, हचुमान ।+दोद्दाई € पु० ) राम की शपथ, रास की सौगनइ ।--नवम्री (स्त्री० ) चैन्रशक (--सभत्र (छु० ) श्रीरास। -+रख (पु० ) क्रवण, नून, निमकू ।--शर ( छु० ) मरकट, तृण विशेष । रामी तथ० (स्त्री०) नारी, सुन्द्री स्त्री । [श्रज॒यायी । रामानन्दी तदू० ( वि० ) वैरागी, लाधु, रामानन्द के रामासुज्ञ तव॒० ( पु० ) विशिए्दद्वेत सिद्धान्त के अच- रहे में ये सर्वाप्रगण्य थे। इन्होंने भारतवर्ष में जैनियें और सायावादियों का प्रभाव इटाने के लिपे प्राणपण से प्रयक्ष किया था और अरने अयल में ये सफछ भी हुए थे | स्खति-काल त्तरज्ञ में इसके प्रकद होने का समय शााब्द १०४४ श्र्थात्‌ १११७ ई० बताया गया है| परन्तु कोई कोई इनका जन्म १००२ ई० में मानते हैं। इन्होंने विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के अनेक ग्रन्थ भी लिखे हैं। रामायण तत्‌० ( घु० ) रामकथा, एक ग्रन्ध विशेष। ( हर ) रह रामावत दे ( इ० ) साधुविशेष, रामानन्दी साधु। राय दे० ( घु० ) जत्नियें की उपाधि । रायता दे० ( पु० ) राएता, प्यक्षन विशेष । रायमानिया दे० ( पु० ) चावक विशेष, एक प्रकार का चावल | (कलह | शर दे० ( पु० ) रूगढ़ा. विवाद, विरोध, चिद्देष, राल दे० ( घु० ) घूदा, एक प्रकार का गोंद, जे धूप में डाढ्य जांता है, झुँह से निकछसे वाल! चिपचिप थूक | शाव दे० ( पु० ) राय, राई, राजकुपार चत्रियों की डपाधि ।--चाव (पु०) राव रड्र, भोग विज्ञास । रावटी दे० ( स््री० ) छेौटा तंबु, छोटा कपड़केप्ट, लाजावत्त पत्थर । रावण तत्‌० ( छु० ) दशानन, लझ्थ का अधिपति। जरि ( 9० ) भीरामचन्ज । राचशि ( पु )मेघनाद, रावण का पुत्र | राचत दे० ( पु० ) घीर, वहादुर, सूरमा, सावस्त ! शावरा, रावरो ( सर्च० ) तुम्हारा शावी ( स्त्री० ) पंचाव की एक नदी विशेष । राशि वत० ( स्री० ) घान आदि का ढेर, मेष, छुष, आदि बारद् राशि, गणित का एक श्रक्क॒ विशेष । “चक्र ( 9० ) राशि चक्र, छप्म मण्डल, द/दृश भाव ।- [शासन प्राणाजी । राष्ट्र तत्‌* ( ० ) बसा हुआ देश, शासित देश, देश राख तत> ( पु० ) क्रीढ़ा, खेल, ज्याज, एक प्रकार का नृत्य, छोटे छोटे लड़के श्रौर छड़कियाँ पहले आपस में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नाचते ये। जैला आज कल श्रीकृष्ण लीज्ा होती है |--घारी ( 9० ) रास करने चाल | [ स्वाद । रासन तत्‌० (घु० ) रसना से उत्पन्न ज्ञास, जीम्र का शासभ तत्‌० ( छु० ) गददा, गदस । (स्त्री०) रासमी । राखी दे? ( घु० ) मध्यम । राहना दे० ( 5० ) उफ्की सें दात बनाना । राहु तत्‌० ( घु० ) आउवाँ प्रदद, दैत्य विशेष, फैदु का सिर, कहते हैं यद्दी चन्द्रमा और सूर्य को मसता है ।--प्ररुत ( पु० ) चन्द्रमहण, सूर्यग्रहण [-« आस ( छु० ) ग्रहण, चन्द्रमा और सूर्य का अदण । * ॥ रक्त प्क्ति तव्‌० ( वि० ) खोखनब्ना, शून्य, रीता । रिखा तत्‌० (ख्री० ) ऋक बेइ का सन्‍्त्र विशेष । रिसबैया दे० (पु०) रीकने वाला, प्रसन्न करने वाछा। रिफ्राना दे? ( क्रि० ) अप्तश्ञ करना, मदाना, खताना, दुग्ख देगा [ शुज्य करवा । सिताना दे ( क्रिब्) रिक्त करना, छूँचा करना, रितु तद्‌० ( श्ली० ) ऋतु, समय ।“राज्ञ ( एु० ) चसनन्‍्त । रिद्धि तब» ( ज्ो० ) ऋद्धि, सम्पत्ति, बढ़ती । रिपु तव॒० ( पु० ) शरु, बैरी, द्वेप, विशेष |-+ता ( स्री० ) शप्रुता, द्वेक, विरोध ।-हां ( पु) ' शबुनाशकारी । रिपुश्जय तद० ( घु०) भति बलवान, शबुजयी | रिस दे० ( स्ली* ) कोष, केप, खिलियाइट, भव्र- सदता । [ धपकना, चूना, गिरना | रिसना दे? ( क्रि० ) क्रोध करना, खिसियाना, झरना, सिसद्ा दे* ( स्तो० ) क्रोधी, कोपी। एसाना दे ( क्रि० ) क्रोघयुक्त दवैना, कोघ काता। रो दे० ( अ« ) भरी, सम्वेघन | रींगना दे० ( क्रि० ) चढना, किला, चिढ़ना, खिसि- » यात्रा, छाती के वह चठना | रॉधना दे० ( क्रि. ) पकाना, चुरादा । रीछ तद« ( पु० ) माल, ऋच, सरल रो ३० (स्री० ) पसंद, चाद, इष्छा, अमिराप । रोमना दे० (क्रि* ) चाइना, भाशिक दाना, प्रीति करना । रोठा (४० ) पुर प्रा का फछ । रीढ़ ९० ( श्री० ) पी के यीव की हड्टो | रीता द० ( वि० ) शल्य, खाली, छू दा, रिक्त] रीति उलू७ (स्ट्री5 ) उठ, चचन, प्रझाए, स्पद्ठार । रीरियाना दे* ( कि० ) घिधिवाना, चिदियाना | रोस दे* (स्री० ) प्रोष, केप |. [ उवियाइद। सक तद्‌ू० ( धु० ) रोग, ठदार, दाता, दीसि, प्रकाश, रुकना दे० (क्वि० ) भटठकना, बन्द द्वोना, प्रतिदत द्वौना, विरत होता । [ रूछावद । झकरैया दे ( पु० ) रोकने बाला, अविवन्धऊ, छेँक, दकाव दे० ( ६० ) चेंढड, बाधा, प्रतिवन्‍्धफ, रोक, अटकाव | € छर ) रूपयो : सक्राबट ( स्री० ) थ्रट्माव, घिराव, अड्चन । रुक्म तव० ( पु० ) सुरर्ण, स्वर्ण, दिरण्य, राजा * भीषह का बड़ा वेद, यह रविमणी का भाईया और श्रीकृष्ण का साला । रुक्मिणी तद्‌० ( खी० ) कुणढनपुर के राज मीप्मक की पुत्री, जिसे श्रीकृष्ण ने ब्याहा था। रूख दे० ( पु० ) सम्मुख, सामना, आमना सामना, सम्मति, अनुमति, मर्ज्ञी । [ श्रचिक्रण । रुखा तदू० ( वि० ) रत, रूखा, फट़ार, स्नेह रदित, रुखाई दे० ( स्री० ) कठोरता, कड़ाई, रुचता । रुखानी ( ख्री० ) बढ़ई का एक औज़ार । झप्म तद० ( वि० ) गेगी, टेढ़ा, वॉका, तिरदा । रुच तद्‌० ( ख्त्री० ) रुचि, हच्छा, अमिलाप, ममोरथ | रुूचक तद० (घु5) आभूषण उशिशेष, माला सज्ीखार [ दाना, साना । रचना दे० ( क्रि० ) अच्छा लगना, मनोहर मालूम रूचि तव्‌० (स्री० ) इच्छा, अ्रमिलापा |-कर (वि० ) ध्यारा, पाचक, रुचि उरपन्न फरने बाला ।--मान ( दि० ) प्रशशमान । रुचिर ( वि० ) सुन्दर, मीठा, मनोहर, सनभारन । रूच्य तत्‌० ( वि० ) सुन्दर, मनोदर, रुचिकर । झज्ञा ठत० ( घु० ) रोग, थ्रीमारी रुणड तव्‌० ( पु० ) घढ़, विना सिर का देद, फवन्ध। झदन तत्‌० ( घु० ) रोना, रोदन, रुलाई, अरशुपात करना, चाँसू बहाना, विज्ञाप । रुद्ध तत्‌० (वि० ) रुश्ा हुआ, छेफा, अटठका डुआा, बैंचा हुआ । [ जाते ६) रुद्ध वत्‌० ( घु० ) शिव, महादेव, रु पुकादश फ़े स्काकीड़ ततू० (० )[ सत+शाकीए़ ] श्मशान, रुद्र का विरोद स्थान | रन रुद्रात्ञ ततू» ( घु० ) इंच विशेष, जिसके दानों की मजा रौव और सन्यासी लोग पहनते हैं। रठ़ाणी तत्‌० (द्वी५) शिवा, भवानी, पार्दती, उम्रा। केढ्ठी (ख्रो० ) ११ विद्वप्त्र, 4$ शीशी गंगाजल, शिव पूजन | रूघिर दत्‌० ( घु० ) रक्त, शेणित, खून | रुपना दे* ( क्रि० ) डट्ना, अद़ना, यसना । स्पया दे० ( बु० ) मुद्रा, चाँदी का सिक्का रुपदरा (्‌ हेशईे ) रेघारी रुपहरा दे” (वि० ) रूपा का बता हुआ, रूपा सम्बन्धी । रुपया दे० ( घु० ) रुपया, मुद्रा, सिक्झा । रुपेदला दे० ( वि० ) “४ रूपहस ” देखो। रूद ( ६० ) देत्य, एक प्रकार का हिरत, सपे । रुज़ना दे० ( क्रि० ) लोहे से पीसना, चूर करना, चूर्ण करना, घूकना । [ चाना। रुल्ाना दे० ( क्रि० ) दुख देना, दुखाना, पीड़ा पहुँ- रूसना ( क्रि० ) रिसाना, रूट हाना, अप्रसत्न हेना, क्रोपना, क्रोध करना । रूए तत्‌० ( बि० ) रूठा छुआ, कुड, कुपित । रूई दे० ( स्त्री० ) रूँआ, कपास । रूईया दे० ( पु० ) रूई का व्यापारी, रूए का । रूँक दे? ( सत्री० ) चेलुवा, घलुआ, खरीदने वाले को ठदराई हुई दर या तौल के श्रतिरिक्त जो बत्त मिलती है । [ बाल, रोएं। झँगठा दे० ( छु० ) रोम, रोबाँ, लोम, शरीर पर के रुँघद दे० ( स्त्री० ) सैल, सल, मलिनता । रुँधना दे० ( क्रि० ) रोकता, रुकावट डालता, छेंकना, अगोरना । रुख दे० ( छु० ) वक्त, पेड़, तर, तसवर । रूखड़ दे० ( घ० ) थोगी विशेष । रूखड़ा दे० ( 5० ) छोटा पेड़, बिरवा, पौधा । रूखसा तद० (वि ) रुदर, कठिन, कठार, खूखा । रूखाई दे० ( स्त्री० ) कठोरता, कठिनता, रूखापन । रूखानी दे० ( रत्री० ) अस्त्र विशेष, छेवी, काँदी । रूखी दें० ( स्त्री० ) चिखुरी, गिलहरी । रूज दे० ( छु० ) फीट विशेष । रूस दे० ( वि० 9 रोग से पीड़ित, रूस । रूठना दे० ( क्रि० ) अप्रसन्न देना, रूखना, कगढ़ना, बिसड़ना । रूठली दे० ( वि० ) रूगड़ालु, अव्यवस्थित चित्त । रूढ़ तत्‌० ( घु० ) उत्पन्न, असिद्ध रूढ़ि तच्‌० ( स्त्री० ) उत्पत्ति, अखिरछ, शब्दाथे विशेष, प्रकृति प्रद्ययगत अन्य अर्थ होने पर भी, अन्यार्थ बाचक शब्द रूढ़ि कद्दे जाते हैं। रूप तव० (पु०) आफार, आकृत्ति, सुन्दरता ।--जख्त ( छु०') रॉगा ।--निधान ( छु० 9 अतिशय सुन्दर ।--रस (४०) रूपा का भस्म ।+--राशधि ( ३० ) सुन्दरता का समूह, अतिशय खुन्दर। --चबती ९ स्त्री० ) रूपवाली, सुरूपा, सुन्दरी। ।7. ऋऊवान (वि०) सुन्दर, सुरूपा, सुघढ़ ।--इला ( पु० ) रूपे का बना, रूपावाला। [रूप, सूरत । रूपक ( छ० ) अलझ्ार विशेष, दृश्यकाव्य, नाटक, रूपा तद० ( पु० ) रजत, चाँदी, श्वेत धातु विशेष । रूपठी दें० (स्त्री० ) बेल घुमाव, सिष, व्याज, बहाना । रूमाल दे० ( पु० ) अँगोछा, छोद अँगेदा । रूरो € स्त्री० ) सौन्दर्यवती, सुन्दरी । रूसना दें” (क्रि०) रूठना, कुपित द्वोना, छुछ होना, कुहाना, रोप करना । रूखी दे० ( स्त्री० ) सिर का मैल, चाँई । हे दे० ( अ० ) नीच सम्बोधन। रेंक दे० ( पु० ) गदहे की बोली । रैंकना दें० ( क्रि० ) गधा का बोलना । रेंगना दे” ( पु० ) चलना, साँप की चाल चलना । रेंद दे० (स्त्री० ) रहट, पानी निकालने की कल, . | चरखी । प [ इढ्ा दे० ( पृ० ) ऐोंटा, नेट, नासिका का सल । रेड, रेड़ी दे० ( स्त्री० ) एरणड का बृक्ष, रेड का पेढ । । झेंद्ा € स्त्री० ) छोटी ककढ़ी । [ ख़रबुना इंद्ो दे” ( स्त्री० ) एक पअकार का ख्लरबुजा, छोटा रेंहठ दे ( स्त्री० ) नाक द्वारा निकलने वाला कफ, बलगम, नेट, पोंदा । रेंहठा दे० ( पु० ) चरखा। रेख तद्‌० .( स्त्री० ) रेखा, लगीर, चिन्ह, विन्दु समूह, जिसकी मोटाई न हो, किन्तु केवल लंबाई हे। वह रेखा कह्दी जाती है। भाग्य, प्रारब्ध, छ्लोदी मोंछ जो तरुणात्रस्था के पूर्व निकलती है ।-- निकलना तत» (क्रि०) सोंछ की रेखा निकलना, मोंछ के घाज्नों का प्थस प्रकट होना । रेखा तत्‌० ( रुत्री० ) लकीर, चिन्ह, लल्वाट, कपाल, भाग्य, म्रारव्य |--छ्लित ( वि* ) चिन्दित, रेखा से जि पर चिन्ह किया यया हो ।--गशणित ( पु० ) एक प्रकार का गणित । रैघारी दे० ( खी० ) हलकी रेखा, चिन्ह । शेचक रेचक ( ६० ) शुलाव, दस्तावर दवा । रेथन ( पु० ) दस्त करवाना, लावदेना । रए तन्‌० ( ख्री० ) धूली, मारो की चुकनी, रज। ++कीा ( स्लरी० ) जमदम्रि ऋषि की पत्नी जो परशुराम की जनदी थी । रेत ( घु० ) बाल, घूल । देल तंत्‌० (पु० ) बी, शुक्र, धातु, शरीरस्थ से घातुचों के अन्तर्गत मुरथ धातु । बेलना दे” (कि० ) फाटना, अस्त के तेज करना, ऐसा काटना जिससे घोरे धीरे कटे, रेती से घिसना । 'रेतल दे० ( पु० ) ऊिरफिरा, रेतीला, कररेल । रैता दे० (६० ) बालू, रेश, रेत । दैताई दे० ( स्लो० ) रेतने की मज्री।.. [ करना। शेतियाना दे* ( फि० ) रेतना, चिकनाना, ठेख रैती दे० ( खो० ) बालू, रेता, किकिरा, सोदन, एक लोहे का पत्र जियसे लोहा ग्रादि रेता जाता है । रेनीला दे (गु० ) रेतयुक्त, रेवसहित, बलुआ, किर- किरा, केंकरल । [ वाला । रैतुआ दे* ( पु० ) रेतने वाला, रेतने बा फाम फरने रैच ( वि० ) निन्दित, भर, एपण, प्रहार । रेफ तत्‌७ ( पु० ) रकार, र अर, व्यक्षन का सत्ता- इसवाँ अपर, * » रैलना दे० ( क्रि० ) ठेलता, पक्का देना, ढकेलना ! रेलपेल दे* ( खतो० ) अधिकता, अधिकाई बहुदायत, पखुरता । [ की श्रेणी, ठकेल, घवका । रैला दे" ( पु० ) ठक्का, बाढ, नदी की उढि, पशुओं रेघदी देन ( यरी७ ) पु एरए कर सिड॒पई (--नहे फल, ४ में पड़ना ( बा० ) फहदे में फसता, फटिवतां में पढ़ना । रैयत (४० ) यलदेव जी के ससुर का नाम । रेबती तव॒5 (रत्री० ) बच्चत्र विशेष, सत्ताईसवाँ नपत, एक राशरन्पा, जो बढराम के ब्याही गई थी। “ाप्मण ( छु« ) वलहाम, बजलदेव ) रेबा तव्‌० ( खली ) नदी विशेष, ममेदा नदी ) रेखू ( पृ ) इंप, ईर्ष्या, क्रोध । रेड दे० (स्त्री०) सजी, मिट्टी की एक मकार की खार विशेष, जो कपड़े साफ़करने के छाम में बादी है। रेहट दे € ३० ) एक प्रकार की साड़ी, लड़, । ( ६४७ ) रागिया देहला दे० (० ) चना, चणक, घृट । रेह पेह दे० ( स्व्री० ) अधिरता, अधिताई, । है ( घु० ) घन, सोना, विभर, अर्थ हैन दे (ख्री० ) राधि, रात, निशा, रज़नी। (३० ) राइस । शेचत ठद॒७ (पु०) पर्देत विशेष, जो द्वारका के पास है जो आगरल गिरवार के साम से प्रसिद है । मद्दा- देव, चौदद मनुश्नों में का एक मल, रेवती का पिवा । राश्रां दे” ( पु० ) रोम, रोंगणा, छोम। [हाहाकार । रीमाई दे० ( खो० ) विसूरना, रोना, विछाप, रोदन, रोग्राना ढे० ( क्रि० ) रुच्नना, हु ख देना, पीहा पहुँ- बाना, कष्ट देता। रोघास दे? ( पु? ) रछाई, गोमांस, रेगे की इच्छा । गोए दे० ( ख्री० ) रोग्रा, रूगटा, लोभ | रॉगटी दे० ( द्वी० ) फगझा, उण्विया, पू्तेता | रॉद दे० ( स्त्रो५ ) बट, बशुता, प्रतारण, पहाजा, घ्याज, मिप। रॉटना दे० ( क्रि० ) मक्‍्ाता, नकारा, धर काना, बहाना करना, घोल घुपाव करना । [प्रपश्दी। रॉबिया दे* (धु* ) विश्वासघातरू, छुजी, इपदी, रॉपना दे० ( क्रि० ) लगाता, गाइनां, शृत्त श्रादि छगाना, पुक स्थान से उच्ताड़ कर दूपरी जगाद बोदा । रोवा ठद्‌« ( पु० ) रोम, रो था, रुँ गठा रोक दे* ( स्त्री* ) प्रटक, छेंझ, रशाव, अटछाद | उकऋड़ दे० ( स्त्री५ » जप, नझऋुदी, सैए पैछा रोकड़िया देन (घु३ ) छोटडारी, भण्दारी, खर्नाची, रुपया पैसा रखने वाह्षा | [ शतिवस्ध | रोहन दे० (स्त्री०) श्राड़, भ्रोट, वाघा, ब्याधात, रोकता दे* ( कि ) घेटना, 'यवरुद् करना, अटझ्ाना, घेरा डाबना; दत्द करता, थामना। [वाधाकर्तो पक देन ( ६ ) रोकने बाला, पार, प्रतिबन्धक, रोग वद० (घ० ) ध्याधि, परीडर, दु रू, शारीरिक अपुष्पवा [--प्रस्त ( वि ) रोगी, रे।, पीड़ित, व्याध्ित, रपाधिप्रस्त | शेगद्दा ( प० ) वैद्य, रोगनाशक | रेगिया ६० (३५ ) रोकी, रोगप्स्त / ' शैगी शेगी तत्‌० (पु०) रोगिया, रेयप्रस्त, पीड़ित, अलुस्थ। शत्नक तत्‌० ( पु० ) रचिकारर, पाचक, मनभावन। रेाचन (पु०) पसंद, हल्दी, भोरोचन, मनेाइर, रद्धिकर, केशर, दर्पण | शेचना तख्‌० (स्प्री० ) गोरोचन, हरदी, पीछारंग ! रोजिष्ण त्त्‌ू० ( वि० ) दीप्षिशील, प्रकाशमसात, रुचि- शील्ट, रुचने येप्ग्य रोज्ञ दे० ( छु० ) दिन, दिवस, विलाप, रोदुन । रोस दे * ( छु० ) नीछगाय, संग विशेष । रोठ दे* ( ० ) एक प्रकार ऊ्री सोदी रोटी, जो प्रायः | इनुमानजी के नैव्ेश के लिये बनाई जाती है। | || रोडा दे० ( घु० ) रोट, मे।टी रोटी । रोटी दे० ( स्वी०) स्वनात प्रसिद्ध भोज्य वस्तु, फुटका। | रोड़ा या रोड़ो दे” (छु० ) बढ़ा कहर, हँट पत्थर | आदि के हुकड़े, पञ्ञाब की एक प्रसिद्ध वणिकू जातसि। [ अश्रासू ढइना । रोदून ततू० (पघु०) रुदन, रुढाई रोना, घश्नुपात करना, रोध दव० ( छ० ) तट) तीर, किनारा, करारा, नदी | का तद, रोझ, उक्राबट, अदराव। रोधन तत्‌० ( घु० ) रोहाब, अटझाव, प्रतिधन्‍व । - शोद्या दे० ( क्रि० ) रोदय करना, अखि बढ़ाना, डब- डबाला । शोपक ( पु० ) शेपनेवाज्ञा, तक्षादि लगानेवाका । रोपण तत्‌5 ( छु० ) स्थापन, पेड़ गाना रोपलता दे० ( क्रि० ) इक भादि का ऊगाना, रोपय करवा । रोघा तत्‌० ( घु० ) शेपणकर्त्ता, रोपने धाज्षा; लगाने बाजा, पेड़ या घान शादि का रोपण करने वाछा ) रोम तत्‌० ( छु० ) लोग, बालन, फैश, रोआा ।--कप (छु० ) रोस छा छिद्र, रोशा के निकलने का स्थान ++>पाठ (9० ) रोप्त का बना चस्यः बुशाखा, कस्बछ ।--हर्पण ( वि० ) भयानक, भयक्कुर, फठिन कार्य ) शोमक उत्‌० ( ६० ) देश विशेष, रूस देश |( बि० ) रेम देश के चासी, ख्सी । शोमन्थ तव्‌० ( घु० ) पशुराना, पुरे करना, चबाई | ( देश ) । शोर दे० ( खी० रोदियेय रोमाश्व तब॒० ( घु० ) रोशों का खड़ा होना, सिदरसा, झरूय यथा हर से रोढों का उठजाना, घुलूक । रोमाझिदित तत० ( गु० ) हर्ष या मयसते शरीर के सेन्नों का खड़ा होना, पुलकित । रोमावलो ( स््री० ) रोम श्रेणि, रोएँ की पंक्ति जो नाभि के पास परे निकछ्ती हैं । ) हुश्लड़, घूमघाम, भीड़भाड़ । रोराकार दे ७० ( अ० ) अतिशय छुश से रोरो ( स््वी० ) देखो रोजी । [चिकनाना | शोलना दे० ( क्रि० ) बराबर करना, चिकता करना, शोला दे० ( ६० ) रिस, पुक छुन्द्‌ का नाम | रोलो दे० ( स्रो० ) कुंझुम, श्रीचूणं, आओ, एक प्रकार का रंग, साधु जिसका तिलूक छगाते हैं शोप दव॒८ ( घु० ) क्रोच, कोप) रीस,रिल, अप्रसलता | रोद्द ( एु० ) ऊपर बढ़ना, अडकुर, कली । रोहिणी ठत्‌० (स्त्री० ) नछन्न विशेष, चौथा नक्षत्र, अलराम की माता ।-पति (पु०) चन्द्रमा, चसुद्देव । रोहित, रोद्द त्द्‌० ( पु० ) पक भ्रकार की मछली | रोहिताश्व ( घु० ) राजा हरिश्चन्द्ष के इन्न का मास, झाय । रोही ( ४० ) बरगद की नीचे की शोर हऋृठकते बाली जबाए । रोह ( ध० ) मछली विशेष | रोताई ( स्त्री० ) छड़ाई, झुद्ध, सरदारी । रोंदना दे० ( क्रि० ) कुचछवा, पॉसना, चूर करना, चूर् करना । शोंधना दे० ( क्रि० ) रौदना, वनन्‍्द करना, कुचलना। सैद्र तत्‌+ ( वि० ) भग्रानक्र, सयकुर । (पु० ) रस विशेष । रोध ( इ० ) चांदी, धातु विशेष । शेर दे ( पु० ) शैला, कीतिं, प्रखेद्ध।. [नरक । शौरच तद्‌० ( घु० ) नरक विशेष, भ्रति कष्टबायक शेैल्दा दे” ( इ० ) धूमणाम, बस्वेडा, दोदछा । रौप्य ( छु० ) पुक सु का नाम रौंस दे० ( ध० ) वारजा, बरामदा । हुई चस्त का पुनः चनाना | । रौहिसेय ( घु० ) बलदेव, ओीकृप्ण के बढ़े आत। ल्ञ यद्द सपअन का अद्टाईसवाँ अचर है, दन्त से यद्द उचारित द्वेता है इसीसे इसे दम्त्य कहते हैँ । ज्ञ तव॒० ( घु० ) इन्द्र, मन्त्र, कीट, दीप, प्रकाश । लफकड़ दे० (१०) काए, काठ, बकडी, कुन्दा ।--हारा (4० ) छच्छी चीरने दाढा, छकडी बेचने वाला | बडे सोटे झुन्दे । लकड़ा दे० ( छु० ) ढक्कड़, बडा कुदा, छकड़ी के लकड़ी देन ( स्ली० ) काठ, इन्धन, कराष्ठ, जछावन, जाने की बकदी, छुट्टी, डंडा । ल्कवा दे० ( पु० ) रोग विशेष, पत्ताधात । लकीर दे+ ( स्त्री० ) रेखा, घारी, चिह्द पक्ति, पति) लकुठ या लकुटिया दे० ( पु ) छाठे, छड़ी । ज्ञकीर ( स्प्रीन ) रेखा, लीक हांडी । लककड़ ( ५० ) छट्ठ, लकड़ी । छत्त ठत्‌« ( पु० ) सैस्या विशेष, लाख, सौ हजार, ब्याज, बढ़ाना, केतव, कपट, अपदेश | लक्तक तत्‌० ( पु ) इरशंझ, दिखाने वाढा, बताने चारा । (रीति, भांति । खत्तण तय" ( ५० ) चिन्द, पहचान, स्वभाव, धकार, जत्तणा ठत्‌* (स्त्री०) शब्द की शक्ति विशेष, शब्दाये से सम्धन्ध रखने वाले, वस्वन्त का घोघक, चध्याहार । [ वरिचित्त | ज्त्तित तत॒० ( वि०) जाना हुआ, विदित, ज्ञात, लद्दमण तत्‌० ( पु० ) श्रीरामचन्द्र का छोटा भाई, मदहाशज दशरथ की छेटटी रानी सुमित्रा का घुत्र ( ४६ ) लगुंड़ ह्ल लक्ष्म तत्‌० ( ० ) चिन्ह, अक्ढ । लक्त्य ठच्‌० ( घु० ) निशाना, उद्देश्य | लख ( पु० ) प्रत्यक्ष, माया का प्रण । लखना दे० ( क्रि० ) पदचानना, चीन्द्रना, ताहना, ज्ञानना, देखना, मालठना | [ लक्षाधीय । लखपति तदु० ( पु० ) लघपति, घनी, घनवन्त, लखलख़ा दे० ( पु०) औैषध विशेष, मूष्छाँदूर करने की ग्रपषधि विशेष । लपलसखसाना दे० ( क्रि० ) इफिना | लखलूद दे* (वि० ) ४ड्ढाज, पश्रपन्ययी, नंग्रा, खर्चीढा । [ जाना। लपा दे* (घु० ) लखे, लद्ित, देखा, दृष्टि, ज्ञात, लखाऊ दे* ( पु० ) क्षतने ये।ग्य, जानने योग्य, सम* माने छायक । लखिया दें० ( पृ० » लसनहार, नाइनहार, लक्षऊ, जानने वाला, समझने चाल | लखेरा दे० ( घु० ) जाति विशेष, लादह का काम फरने _ बाली जाति, लद्देरा, लाख चढ़ैया। जखीरा दे० ( वि० ) लाइ से बना छुआ लाखी । लग दे० (ञ०) तऊ, पर्यन्त, अवधि, ला, साथ, सग। चलना ( बा० ) साथ साय चलना, पास ज्ञाना ।--भग ( अ्र० ) आस पास, निकट, प्राय करीब, अन्दाज़न । [( घु० ) पुक जीव घिरोष । लगड़ दे० (घु० ) पत्नी विशेष, बाज ।-वग्घा लगन ( छो० 9 जुन, भी्ि, प्रेम, लग्न 3 लकच्दमणा तत्‌० ( स्त्री० ) श्रीहृष्ण की पटानियें! में | लगना दे० ( क्रि० ) सेहना, शोभना, दृद आदि का की एक पटरानी, यह मद्देश के राजा की कन्या थी।(३ ) दुर्योधन की कन्पा, श्रीहृत्ण के पुत्र साम्व ने इसे इर कर ब्याद्या था, सारसी, सारस्त पद्दी की स्त्री | ल्द्धमी ठत्‌० ( स्त्रो० ) विष्ण॒प्रिया, इन्दिरा, कमद्ा, लेकमाठा, हरिव्ठभा । समुद्र से निडले हुए चीदद्द रक्षों के अ्रस्तर्गेत शशन विशेष, ऐरश्वर्य, घन, सम्पत्ति, सम्यदा। -कान्त, नाथ, पति ( धु० ) विष्णु, नारायण, रामनाय, रमापति, सागवान्‌, रमेश ।--यान ( पु) धनी, घनवाना जड़ जमाना | [एक, सिल सिलेवार, अपिच्चिद्ता । | लगातार दे० (अ०) बरापर,क्रमश पुझ के बाद (पु०) । लगान दे० ( घु० ) उतार, टिडाव, ठिराना, माल गुजारी, झिराया, भाड़ा, फर। । लगाना दे० ( क्रि० ) रोपना, योना, वपन फरनां, | मित्ञाना, सदाना । | लगाव दे० ( घु० ) मेल, मिलाप, सम्बन्ध । । लगि दे० ( क्रि० ) तऊ, लग, अवधि, पर्यन्द, सोमा। | जग़ुड़ तव्‌० ( पु० ) द्वाठो, साटा, डढा, यश्टि, छाटी ९ घड़ी । लमगहा लगुँदा दे० ( गु० ) मनाहर, सुन्दर, मतभावन । लगुआ, लग़ुवा दे” ( घु० ) यार, जार, लगा हुआ, हपपति, आशिक । ह्लग्गा दे० (छु० ) प्रेम, प्यार, नाव खेने के लिये बढ़ा बॉल ।--व खाना (या० ) अग्राध, सर्वश्रेष्ठ होना । | की छोटी बच्ची । लग्गो दे० ( स्री० » नाव चलाने का छोटा वास, वॉस लप्म तव० ( घु० ) सेप आदि राशियों के उदय होने के समय का मुहूर्त, समग्र | ( गु० ) जगा हुआ, सदा हुआ, मिला । ज्ञग्नक तव्‌० ( घु० ) प्रतिभू , जासिन । लधिमा तव्‌० ( स्री० ) ( संस्कृत में पुलिज्ग ) लघुता, चुदाई, छोटापन, लाघव, येग्रयों की आठ सिद्धियों में की एक सिद्धि । लप्रिए सतत्‌० ( वि० ) छोटा, नीच, लघु । लघु तत्‌० ( वि० ) छोटा, हलकां, हस्वबर्ण, शीघ्र, भीचा, एक मात्रिक स्वर ।-काय (छ०) चकरा, छाग । ( वि० ) छोदा शरीर बाला ।-- ता ( ख्री० ) चोटापन, छुटाई, नीचता, निचाई । -- दस्त ( घु० 9 छोद हाथ ।--शह्ूव (ख्री० ) मुन्न, प्रक्नाव, पेशाब । ल्च्ची तत्‌, ( स्री० ) छोटी, अति छोटी | [ भाग । लड्ढ, लंक दे० ( छ० ) कसर, कटि, शरीर का मध्य छड्ढुग तव॒० ( स्री० ) राकसाधिप राबण फी राजधानों लड्ा पहले कुबेर के अधिकार में थी, परन्तु रावण ने वलएरवक उससे छीन कर उसे अपनी राजधानी बनाई ।--पति ( छु० ) रावण, विभी- पण, लक़ा का राजा कक लड़, लंग चि० ) अपाहिज, पंगय । ४४. द्वे० ४ घु० ) बिना पैर के, पद रहित, अरण हीन, जोदे का बना हुआ भारी और ऑँकुछ घुमा एक प्रकार का कॉँटा जिससे नाव रोकी जाती है, एक अकार का पैर सें पहना जाने वाला | जनाना जैवर । | लंकिसी ( ञ्जी० ) राहसी विशेष । ॥ ल्लंगड़ा ( वि० ) एक पैर का व्याधि । | ल्ंगर ( पु० ) जहाज के रहराने का ख़ास शक्ल का । भारी लोहा । ( वि० ) ढीड, खंगड़ा । | ( दि#9 ) लजालु लड्भरी, लंगरी दे? ( स्ली० ) थाली, धरिया। लंमूछा दे० ( पु० ) खाने की पुक चस्तु । लंगूर दे० ( घु० ) वानर विशेष, बड़ी पूँछ वाला बन्दर, वीर, झखुआ बन्दर, इसकी पूँछ लम्बी और मुख काला होता है। लंगोद दे० ( पु० ) लंगोठा, फौपीन, पहलवानों की एक अकार का कठिवस्त्र, कछुनी, करंघनी।-- बन्द्‌ ( छ० ) अनव्याहता, ब्रह्मचारी, कच्छुबन्ध। लंगोटिया दे+ ( इ० ) समवयस्री, समवयस्क, बाज़ा- पन का साथी । लंगोटी ( स्त्री० ) कछनी । त्वंधन तत्‌० ( पु० ) [ लधि+ अनद ] लॉघना, पार उत्तारना, पार होना, डयपवास, उपास करना । लंत्रना दे० ( क्रि० ) उछुलना, ऋूदना, पार उतरना, फाँदना, लाँध जाना । लचक दे० ( व्त्री० ) नवन, लचीक्षा, कुफाव ! लचकना दे० ( क्रि० ) नवचा, कुकना, लचना | ल्चका दे० ( पु० ) धक्का, कोक, एक अकार की नाव, भत्त्य विशेष । [ हिलना । लचकाना दे० ( क्रि० ) मोंकता, झुकता, चवासा; लचना दें० (क्रि० ) टेढ़ा होना, नवना, सुकमा, विरछ्धा होना । लचलचालना दें० ( क्रिं० ) जचलच होना, नवना । ल्वचर दे० ( घु० ) अनाड़ी, अज्ञान, अयोध, मूढ़, मूर्ख | लचाना दे० ( क्रि० ) टेढ़ा करता, चवाना, झुकाना । व्वच्छुन तदू० (क्रि० ) लक्षण, स्वभाव, चिन्द, आकार, आकृति के विशेष चिन्ह । लच्छा दे० (० ) स्तवक, गुच्छा, रंगे खूत की आदी । लकून ( 5० ) लक्षण, चिन्ह । लकब्षमन ( छ० ) लच्मण | लकमी ( स्त्री० ) लच्मी । लजलजार दे० ( वि० ) चिपत्िपा, गोंददार, लसलसा। लजलतजाना दे० ( क्रि०) चिफ्चिपाना, लसलसाना, सना, नरसाना, नरम होना । लजथाता दे० ( क्रि० ) क्क्षित करना, सक्कोच्र करना, लजाना, शर्मिन्दरा करना । लजाछु या लज्जाह्ु॒ सद॒० (वि० ) लज्याबानू, खजएने वाला, शर्मिन्दा, हयादार । छा० प्रा०--झदे लजालू लज्ञालू ( वि० ) शर्मोला, ( ४० ) छुईमुई, जिसके लजयन्ती भा पदते हैं । लजियाना दे० ( क्रि० ) लजाना, लज्ता करना | खज्ञीला दे० ( वि० ) लाजवन्त, सझोची । लज्जा तत्‌» ( श्ली० ) शर्म, लाज, सक्लोच, शील। “रहित ( नि० ) निज, वेशर्म, बेहया “-- शील ( वि० ) लजालु, लजीला, शर्स्मीला । लब्जित तत्‌० ( वि० ) लज्वायुक्त, लजीला, शर्मिंन्दा। लद दें० ( स्त्री० ) लह्टरी, केश, सिर का बाल । यथा,-- & त्ञाहद्दी समय ल८थ एक छुटाक कपोलन पर, भानो राहु चन्द्रमा के चाबुक चलायो है ! ” लटक दे० (स्त्री० ) ढंग, रीति, भाँति, प्रकार, टगाव, मुसाय । - रहा है ( क्रि० ) कूल रहा है, ४ग रहा है। लठकन दे० ( ४० ) भ्राभूषण विशेष, झुमगा, पुक चुक्त का फू, जिससे कपडे रेंगे जाते हैं । लठकना दे० ( क्रि० ) कूलना, दैंगना, दिलना, पीड़े रहना । लटका दे० ( पु० ) गुन, जन्तर, मन्दर, डुटका, दोना, 'माढ़ फ्रक, यौतृदलेत्पादक चात, चुटउला । लठ्काना दे० ( क्रि० ) रलना, टाँगना। लब्काव दे० ( ए० ) देंगाव, मुझ, सुलार। ज़दपट दे० ( वि० ) मित्ता, सर, चिपदा । लगट्पदा ढे० ( वि० ) चश्बल, खिलाड, गटपट | लग्पदाना दे० ( क्रि० ) लदखड़ााना, विचलित होना, डिगना । छलटा दे० ( वि० ) दुर्बल, नियेल, असक्त, असमये | लाई दे० ( स्थ्री० ) परेती, चखी, जिसमें दोरा रख बर गुड्टी उड़ाई जाती है । लट्पदा दे० ( ० ) दुबला पतला, अस्यस्द निर्यल, अतिशय असम, श्रदला । [ छोटी जय । लट्टरिया दें* ( पु० ) ला, जा, चोटी, बच्चे को लट्टसी ( स्त्री० ) देसो ४ लद॒सिया ? लट्ौरा ( घु० ) पत्ती पिशेष । लटटू दे० ( पु० ) मीरा, अ्रमर, पुक प्रखार का सिलाना, 7 जिसे लड़के नचाने हैं |--द्ोना ( बा* ) मोहित दोना, आ्रासत्त होना, किसी के प्रेम में फेसना | ( ईशप ) लंड लठ दें० ( पु० ) बडी लाडी, बढ़ा सेटा, बढ़ा ढडा। खठालाटो दे० (स्त्री० ) लग्याज़ी, लाठी की लड़ाई । लटठियाना दे० (क्रि० ) लाठी मारना, लाठी से मारना, लादी से पीट देना । लद्दर दे* (वि० ) शियिल, ढीला, उडा, धीमा, आलस, आसस्ती, सुख । लड़ दे० ( स्त्री० ) लरी, पाँठि, पक्ति, मेती थादि की माला ।( क्रि० ) झगड़, सिद्ठ, गुथ । लड़कपन दें० ( पु० ) लड़वाई, चालपन । लडकवुद्धि दे० (स्त्री०) चिलविज्ञापन, चुलबुलाइट | लड़का दे० ( छ० ) बालक, डोरा, छोकरा, शिशु | --चाला ( घा० ) वच्चा बची, लड़का लड़गी | लड़काई दे० ( स्त्री० ) वालपन, शिशुता, लब़कपन | लड़की दे० ( स्थी० ) छोकरी वेटी, तनया, कम्या, कुमारी, दुद्धिता । लदसड़ाना दे० ( क्रि० ) इगमगाना, डिगना, स्थिर, नहीं ठदर सक्ना । लड़ना दे० ( क्रि० ) लाई फ्रना, सम्राम करना, युद्ध करना, बसेढ़ा करना | लड़बड्ट दे” ( वि० ) इलका, तुतल । लड़वडाना दे" (क्रि०) लद़खदाना, तोदलाना, अस्पष्ट उच्चारण फरना | लड़वावला दे० ( वि० ) मकरी, पागल | लड़ाई दे० ( स्प्री० ) युद्ध, सम्राम, सर |--करना ( वा० ) लड़ना, मगढ़नां; बखेदा करना ! लड़ाक, लड़ाका तद्‌० ( वि० ) झूगदालु, वियादी लड़ने वाला। [ लगाना, शुराना । लड्डाना दे० ( क्रि० ) लबना, लड़ाई कराना, झगद्ठा छड़ियाना देण ( क्रि० ) गूँयना, पिरोगा, लड़ यनाना, पाहना व लड़ी दे० ( स्त्री० ) पाँति, पक्ति। लडैता ( दि० ) प्यारा, दुलारा। लड्डू दे* ( ६५ ) मेदक, मिठाई, मेदीचूर भ्रादि । लड़ा, लढ़िया ऐे० ( घु० ) लड़का, भार डोने वाली याही, लाड़ी । [ मोँदू, घोदक्षा । लंठ दे० ( घु० ) निर्वेघ, अबोध, गैँवार, लड्टरा टे० ( बि० ) अनाय, असदाय, एकाकी, बहा । ज्लंत ( ईई ) लंब्ध लत दे० ( स्त्री० ) बरी आदत, चान, अभ्यास, चाल, बुरी बाच ।--ना ( क्रि० ) घेड़े का थोड़ी के साथ जोड़ा खाना । लतरी दें० ( स्त्री० ) घुरानो जूती । लता ठत्‌० ( स्त्री० ) बेल, वल्ली, बहरी, उस पौधे को कहते हैं जिसकी लंबाई तो वहुत्त हो परन्तु वह बिना आश्षय के खड़ी व रह सके ।--तरू ( छु० ) खजूर, नारंगी का पेढ़ --परूस ( छ० ) ख़रबुजा तरबुज |. [ घेड़े की लात । लताड़ दें ( स्त्री० ) फटकार, अपवाद, तिरस्कार, लताडूना दें" ( क्रि० ) फव्कारता, विरस्कार करना; लथेडना, लात मारना। लतिका सत्‌० ( स्त्री० ) कोमलता, बच्ची, चल्लरी! ल्वतिया दे० (ए०) घुरी चाल का, कुचाली, हुराचारी। लतियाना दे० ( क्रि० ) लात मारना। लत्ता दे० (पु०) फण पुराना कपड़ा, चीयड़ा, चिरकुट । ली दे० (स्त्री०) लक्ता, घास, लदूहू नचाने की ढोर। लथड़ना दे? (क्रि० ) जद फद हैना, कीचढ़ से भींगना । लथरपथर दे० ( पु० ) लवालव, मुँह तक, उ्साउस। लथेड़ना दें० ( क्रि० ) लथाइना, फटकारना | लदूना दें० ( क्रि० ) बोमैल होना, भार वोराता। लद्ाना दें० ( क्रि० ) बोरूना, भरना, भार रखना । लवाब दे० ( छ० ) सोद, बोर, भार । लदूदू दे० ( वि० ) ज्ादने ओग्य, लद॒ने चाला । ज्ञप दे० ( स्नी० ) रूप, शीघ्र, जल्दी, झुद्ठी भर हयेली, पसर, पसा ! - लपका दे० ( ख्री० ) चयक, भड़क, चमक, शोभा, प्रकाश, दीघछति । लपकना दे० ( कि० ) चसकना, खहकना, आमे बढ़ना [ बरी चाल । लपका दे० ( घु० ) भपक, आक्रमण, फुर्ती, शोधता, लयकाना दे० ( क्रि० ) हाथ बढ़ाना, लेने के लिये आगे बढ़ना, चाहसा, अभिलाप करना | लपकी दे० ( ज्जी० ) भत्स् विशेष । हपनी दे० ( ज्ी० ) एक जाति की मछली । ल्पस्ूप दे० ( बि० ) फुर्तोला, चब्नल, सतक, साव- धान, अस्यिर ! लपद दे० ( खी० ) लौ, चुगन्ध, मसक, चिपक, सठ । लपठला दे० ( क्रि० ) सदना, मिलना, लगना । लपटा दे० ( पु० ) घास विशेष, लगाव, सम्बन्ध । लपदी दे० ( स्ली० ) हलुवा, चिपकी, सदी । लपडचदाई दे० ( स्री० ) “ रूबढ्चठाई ” देखो । लपसीर दु० ( स्ती० ) पतला शीरा, पतला हलवा । लपाटियः दें» ( घु० ) झूछा, मिथ्या बादी, लबार । लपादी दे० ( ज्ो० ) मिथ्या, कृठसूठ । ह लपित दे० ( ख्ी० ) कहा हुआ, कथित, जो एक बार कहा जा चुका है । [ सूच्म । लप्शानक दे० ( वि० ) दुवला, पतला क्षीण, भीना, लपेद दे० ( ख्री० ) घेठन, ब्रेन, ढक्कव (--स्ृपेठ ( र्त्री० ) घोलघुमाव, टालमहूल, बहावा । लपेटन दे० ( घु० ) घेठन, लपेदन का कपड़ा । लपेद्ना दे० ( क्रि० ) वेब्न लगाना, बाँघना बेढ- नियाना । लपेव्चाँ दे० ( वि० ) ऐँदुघा, घुमाया हुआ । ल्षप्पा दें ( छु० ) पद्ठा, ग्रोटा, किमारी। लबड़खन्दा दे० ( घु० ) नग्खट, अखेल, उच्छुुल । लबड़चदाई दे० ( ल्वी० ) सूखी चूंची, गिरी हुई चूंची, शिथिल्लस्तन । [ उधर की बातें । कब सवड़ दें० (.घु० ) बकमक, भूठलाँच, इधर लबड़ा दे० (६० ) कूठछा, असत्यवादी, अनर्थक वादी । लवनी दे० ( स्त्री० ) ताड़ी खुआने का घड़ा या चूलहा । लवरधट्टा दे० ( पु० ) नकचढ़ा, छोटी बाव से क्रोध करने वाला लबभनत्र दे० ( छु० ) जल्दी, शीघ्रदा, खधर पथर । लबत्तवाः दे० ( वि० ) चिपसचिपा, लखदार । लबालेस दें० € स्त्री० ) चापलूसी, लज्चोपत्तो, -खुशामद । लवबार दें० ( घु० ) ऋूठा, गप्पी । लबालव दे० ( वि० ) मुँद्द ठक, ठसाव्ख । लंबी दे० ( स्त्री० ) चीनी फी चासनी ॥ लबादा दे० ( छ० ) रुईँ भरा जासा, चढ़ा श्रज्ञग, ज्ढ, मोटा स्रोंढा लाचेदा दे० ( झु० ) लाठी । लब्ध तव्‌० ( वि०) [ लभू + क्त | प्राप्त, जपार्जित । -- चंणु € छु० ) परिडत, पिचकेण, विहान्‌ । लग्धि ( ईई० ) लबाक प्र: फ़ जद -ज-ज+-++++--+-- न कपणाजग वब्यस रे जलपन तात के जल कल द्वाप लगता, हाथ में आना १ ओत्साइच वाक्य ।+--न्ा ( क्रि० 9) सामने के लिये लभेडा, ऊमेण २०८ चु८ लसोड़ा, इक एवं फल बुलावा, एुकारता । किरोए । 77035) 78 [ चेग्य । | छलगंडा दे० ( घु० ) बानर, कप, मर्द ! तब» (वि० ) [ लक्ष>थ ] शए्य, प्राप्ति के | ललचाना दें० ( क्रि० ) तरसाना, लुभाना, लद्याना । मकर ६० हा 2 जख्मकरे, शक, सभा, | लल्लनन तद७ (० ) इनूहल, कौतुऊ, सेल, कीड़ा, खरदा, यर्देम, ऊचर । |... अच्न्त हुलार मैं पुत्र के भी शुद्ध में ललन पहते जमछड छे० ( स्त्री० ) पथरक्‍ला, लंबा । ;हं। 2९2 45 सम्पद सत« ( ७० ) दुरावारी, दुष्क्रति, कद, भ्रसः , लल्लना तद्‌० € स्प्री५ ) महिला, नौते, रती, कामस्का स्पा ( अ्सक्त। ' खल्ला दे० ( ३५ ) बाबऊ, लड़का, छोरी, द्षैस्शा) क्षम्व (वि० ) सदा, उँच (प० ) नरक, क्ोतुप, |. (बिक) मित्र, दुलारा, पुझछोता, अविरप प्रिय । लम्घर, लबर, दे” ( स्त्री० ) लोमड़ी, दुकटी, बबैला | लल्लाद तच्‌० ( पु० ) सिए, फ्पाल, भाग्य, मस्तक, जन्‍्तु विशेष, संख्या, गिनती ! /... आरन्‍्प। लम्बा) लंधा दे५ ( गु०) ऊँचा, बडा, दोषे |---करना । सलाम तगू० ( वि० ) सुन्दा, मरोहर, श्रेष्ठ, उत्तर, ( वा० ) फ्रेकाना, बढ़ाना, पसारना । |. भूखा [ सुद्याववा, चन्चल | जम्पाई, लंबाई, लम्बान, तवाव दे (स्त्री० ) | ललित ततू० (वि० ) मुन्द, मगेझ, भतभावन, ऊँचाई, दीर्षता । | ललिता तत्‌० ( स्त्री० ) एक गोपी वा नाम, सुन्दरी) जस्प्राना, लाना दे० ( किक ) क्षंवा करना, बद़ान, ललियाना दे ( क्रि० ) कुसल्ाना, बहलाना, वश में दीर्घ करना, फैलाना, एसारना करना, परचातो, अपने में मिलाना | “ नरिित तद० (वि ) लट्फाया इश्ा, देंगा हुआ, | लली ढे० (स्त्री० ) वाजिा, प्रोसरी, लबधी |. लटका हुआ ) [ कोड़ा, किलोल। | ल्ठोपत्तो दे* ( ० ) चापतूती, सुशामद, भुलादा, सम्पिया, लदिया हे० ( सम» ) उच्च कूद, खेल, |. पुसलावा । जम्दी ( स्तरी० ) ऊँची, बड़ी । क्लब ठत्‌० ( चु५ ) चरण, निमेष, पत्त, भि्नगाणिद वा जम्बा साख भरता देन ( दा० ) सेगरा, पिकपना, पुफ भाग, रामइश्र का चढ़ा बेश | (प० ) विज्ञाप यरना । लेख, अर्प, मेड़ा, न्‍्यून, फस । लम्बोदर दव॒० ( ० ) गणेश, परथेनायक, विवायक, | क्षवक तत्‌० ( घु० ) बरवेत्रा, परने पाला । गतावत, वड़े पेट बाला हयदू तत० ( घु० ) घृद्ठ विशेष का पूल | जम्मा दे* ( एु० ) क्षमझाना, रहा, शशक, ससा। | ल्बश ततू० (३* ) चोन, सिप्तक। - समुद्र ( पु०) जग्न रद० ( ३० ) प्रतय, नाश; ध्यस, विनाश, कान, छत सप्ुद । न छार, लीन, मप्र, जपलीन 2 (4० 3) लवणाम्तु तच« (पु ) सारा पानी, प्राय सम्रत्र, गोद किया हुआ गालक । सत्य सदा दे ( इ० ) सब्ढा, चोटी, छोटी । लवेशझुर ( 0५ ) मधुरय जे पुत्र का चाम लक दे० ( स्ट्री० ) मर की आह, इ्दा, अमिलाप, | जब निम्मेप ( पु० ) चश्प सम, केड़ा सल्य । उछ्तेल, सदर, तर, उद्धुकता + जरमात्र (विन 2 मेरी देर, इस मात्र! जककतवा दे” ( कि 2 चाहवा, तत्सना, उत्युछ । लवकेश ( धु० ) वहा दी चंदा, दगस्सा। होना, उप्करिठत छेना ' लघन ₹्पू० ( पु ) टन, ढड़ाई मं ह20%4क दे६ ( क्ि० ) झोम देना, मोहित ऋत्छ, | जद हे (३० ) वही विशेष, बढेर पची । लिस्ट । उत्करिदग जिला, सड़ाना, ऋ़ाओा । " सथाक तव« ( 9+ ) है पत्र, बसी, मत झादरे का लेचार ल्बार ( चि० ) भूछा, श्रसत्यभाषी । लशबम्पशर्दं दे? ( त्र० ) बछटापुलटा, किसी प्रकार, किसी भांति! चशुन तत्‌० ( घु० ) लहसन, कन्द विशेष । ल्पन, लपण ( छ० ) लक्ष्मण |--पुर (पु० ) नगर विशेष, लखनऊ | लपित ( घु० ) चाहा हुआ, देखा हुथ्या । लख दे ( घु० ) चिपचिपाहट, गेंद, तरी, खार । लसखसकना दे० ( क्रि० ) चिफ्चिपा होना, लखन, गीला होना । [ छोहना, सजना । लखना दे० ( क्रि० ) शेमित द्ोना, शोभा पाना, लसलसा दे० ( बि० ) चिपतचिषा, छसदार, गेदिल्ा । क्षसा ( स्री० ) हण्दी, चिपटा हुआ । लखित तद्‌० ( वि० ) शे।मित, विराजित, छूछ्धित, प्रत्यक्ष, आँखों के सामने । लखियाना दे * ( क्रि० ) छसलस देना, चिफ्कना, चिपचिष होना ! लखोडा दे० ( पू० ) छसेर, एक बुच्त विशेष, और बस्का फक्ष, यह फल खसदार देता है । - छर्त ( छ० ) धका छुआ । लरुखों दे? ( स्त्री० ) भक्ष्य विशेष, दूच और पानी सिद्ा हुआ सोजन उद्कन, फन्‍्दा | लहूँगा दे? ( घु० ) घाँवरा, फरिया, स्थ्रियों ले पहिचसे का पुक्ु प्रकार का कपड़ा जिसे वे कमर में बाँध कर पहनती हैं। चाद्क दे० ( स्त्री ) चमक, ऋलक, उज्ञाला, प्रकाश । लदकना दे० ( क्रि०) चमकृना, बढ्ना, उजाजा हेना, प्रकाशित दाना, जछूना । लदकाना दे० ( क्रि० ) पहफाना, गहराह्यचा, आग जलाना, घालना | लह्ठकारता दे० ( क्रि० ) छुमकारत्ता, शब्द से आदर करना, दिझ्ावी आदर करना । लहकाचद दे० (स्त्री०) चमक, दीछि, अछाश, शेशभा [ ल्द्कीत्ा दे० ( बि० ) चमकीटा, जग्गा, पकाश- शीछ । लद्दकौर या जहकौदर छे० ( ए० ) विवाह की पुक रीति, बर के दद्ठी चीवी खिकाना + लद्दढू, दे” (5०) चोरी बैलगाड़ी ६ ६६१ ) आलम अमल ला अमर पर पलकलकब- लक अमर कल लीक के 382) पडता कम जी लजानक कलर रत अनजान की मम जम मम शक: हक ्नाघ खहना दे० ( क्रि० ) लगना, ठहरना, पाना, खाना, ( 9० ) कजू, ऋण, देना । ल्हबर दे० (०) भीड़, चाता, सुग्या । लहर तद्‌० (स्री०) रद्दरी, तरद्र, गद्गा या नवियों का हिजेरा, रह' रड़्ने की एक प्रक्रिया, विष चढ़ने झा पर्व, हिलारा । लहरस्था दे० ( क्रि० ) तरज् डठना, हिलकेरा मारना, जलन होना, जलने ट्गना, श्राय छगना । लहस्वद्र दे० (छो०) सैतभाग्य, सम्पत्ति, धन । लहराना दे० ( क्रि० ) भढ़ना, कहर मारता, तरह बठना | लहरिया दे० ( पु० ) बद्ध विशेष, डे।रिया, रप्ीली लद्दरदार घारियों का कपड़ा, एक विशेष रीति से रहा हुआ कपड़ा । लहरी दे० ( खी* ) मनमानी, धच्छुछ्ूल, चोदा, मनमाना छाम्र करने वाला लहलद्दा दे" (वि०) विकसित, प्रफुछ, फ्ा हुआ। तहलहाना दे+ (क्रि०) खिलना, फूछना, विफसना, विकसित देना । है लहल्लुद्न दे (१०) “ ल्ेखुड ?! देखे | खद्त्तोद दे० (बि२) जो बधार ले के न दे ] लहसन दे० ( ० ) शरीर के ऊपर जन्‍म से टत्पस्न चिन्द्र बिशेष, मद्दोसा | लहसुन दे० ( एु० ) छछुन, कन्द्‌ विशेष । लहखनिया दे ( पु० ) दीरे का एक भेद, एक प्रकार का दवीरा । लहाछिदद (स्री*) शीघ्रता, ज़रदी । लहास (स्वी०) नोका बाँघने की डोरी । लहासी दे (ख्री०) रस्सा, घुर्ग, लह/स | लहियत (क्रि०) पाता है । लहू दे० ( 8० ) रुष्टर, रक्त, घोहू, शेणित [-- --छ्लह्ठाव ( ए० ) खून में सराजोर ।--छ्ुद्दान (था० ) रुचिर पूर्ण, लाहू से भरा छुश्ला । लाई दे० ( ली० ) छावा का कडूहू, चबेवा, भूंजा श्न ! जिम । लाँक दे? ( घु० ) कि, कमर, लग, भूलसा, जासा, खॉश दे। ( घु० ) फर्ताम, झूद। उत्तल, कुर्लाण । लॉघना (६ ईह१ ) लालाबिक लाँचना दे* ( क्रि3 ) उतरना, पार दोना, पार छाना, | कूदना, फदिना । खात्ता वे३० (श्री०) ढटाख, मद्दाया, मंद्रावर का रथ, जाद [से कथित अये । लात्षणशिक्र तद्‌* ( वि० ) छदण युक्त, रचा उत्ति लास दे० ( पु ) संख्या विशेष, बढ, सौ इजार की संष्या, छाद, छाका, जन्‍्तु, ब्टाद्दी ज्ञाप्पी दे० ( ख्री६ ) लाईी का रंग | ज्ञाग दे० (६० ) द्वेष, विरोध, यैर, शत्रुता, विद्वेप | ज्ञागत दे० ( ख्री०) मे।ल, दाम, मूल्य । लागता दे० ( क्रि० ) मिदना, विशेघ करना, छप-। डाना, छगना। ह्विप, शत्रु, विरोधी । ' ल्ागी दे० ( स्वी० ) स्नेद, घोह, प्यार (पु०) जामू दे० ( वि० ) चछने वाला, पिठज्गू, थनुधायी, अनुगत | [छुददे, नीरोगता, सुख्यवा | ज्ञाघय तत्‌० ( पु० ) लघुता,श्रोधाई, छ्षुद्वता, नीचता, लाहूल तव्‌* (५५ ) इछ, जिपतले खेद जोता चार थोया जाता है ।--ी ( पु० ) बद्देवजी,जछूपीपर, नारियड ।-कोडि (छु०) इल के मुँद्द पर क्षया हुआ छोड़े का फाठ । लाइगूल ठद्‌* ( ५० ) पूचपद्चप्नों का श्रद्न विशेष जी ( पु० ) कचि का बीज, बानर । ज्ञायी ( स्त्री" ) इलापचा | ज्ञाज॑ तद्‌ू० (स्लरी०) रण्जा, सझ्कोच, शर्मे। --चन्त ( वि० ) लघीछा, कुल्वस्त | जाज्ञा तव्‌० ( पु० ) लावा, स्रीक्ष, खाई, घान का लाबा। जाज्ञावत्त तत्‌० ( पु» ) मण्यि विशेष, रावटी । जाझआछुत तर्‌६ ( १५ ) चिन्द, अपराध, कलइ, दाग, अब्दा । [ बराई। छाआडुना तव७ ( स्री० ) निम्दरा, तिरस्कार, अपप्रान, झाजिछुत तत्‌० ( दि०) तिरस्कत, निन्दित, भझप- माल्ित | [जो मल विशेष गिरता है लाऊा दे* ( पु ) लस, भेंप चादि के ब्याने के समय |] लाड नत्‌* (थु०) देश विशेष, खेमा, स्वाम) प्राचीन, पुराना, जीय॑े । ज्ञादी तत्‌« ( दी० ) राम्य की एक रीति छा नाम, छाद देश की सी । ( दे० ) फंफड़ी छ्ाठ दे* ( घु० ) मोटा सम्मा, मोटा और ठमग्वा खम्मा, केट्र का कादा । लाठी दे० ( स्वी० ) छकदी, सोटा। लाड़ दे" (३० ) छोड, प्यार, दुलार |--लड़ाना ( वा० ) प्रेम करना, दुल्लार करना, दुलार से खिज्ञाना | ' लाइला दे० ( वि० ) प्यारा, दुलारा, प्रिय | लाडुली दे० ( स्री० ) प्यारी, दुलारी, प्रिय लाइ दे ( पु० ) लडडू, मेदक | ल्वात दे ( स्त्री० ) पैर लातिन (स्त्री० ) मापा विशेष, लैटिन । ल्ाद्‌ दे० ( ख्ली० ) बोझ, भार, श्रम्तडी, हृदय | लादना दे० ( क्रि० ) भरना, बोझना, भार मरना | लादिया दे० ( प० ) छाद़ने बाज्ना | लादोी दे० ( स्थरी० ) गठरी, गदुदे पर का योक । लादू दे० (वि० ) छदुदू, बादने योग्य, छावुने के बअपयुक्त । लाना दे० ( क्रिए ) ले श्राना, पास ले थाना । ल्ापक ( घु० ) गीदढ, सिय्रार लाफ़ना दे* ( क्रि० ) कुंदना; फाॉदिगा। दौफ़ता । लाम दे ( ४० ) प्राप्ति, दफा पाना, मिलना, सूद । लार दे० (घु०) मणि विरोष, दुरारा, दुलरुप्रा, प्रिय प्यारा । ( दि० ) टाल रह का, रक्त बे । +बुभकड़ ( घु० ) बहुत बढ़ा मूखे, जो स्वर्य मू्स हो, परन्तु भ्रपत सो अधिक अद्धिमान्‌ समम्े। लाखच दे० ( पुष ) लाभ, तृत्णा, घाह, श्च्छा अमिलाप । लाजचो दे० ( घु० ) छोमी, स्वार्थ । * खाज्नड़ो दे* ( स्त्री० ) मानिक, घुद्दी । लालन दे० ( पु० ) पालन करना, प्रेम पूर्वक पाछना पेसना, पेषण ऋरना। लालना दे? ( द्वि० ) पाडना, प्यार से सिडाना । लालसा तब्‌+ ( स्त्री० ) इच्छा, मनेरध, अमिशछाप। लाला दे० ( पु ) कायस्य, ज्ञानि विरोध, पटवारी । लालाटिझ तइ० ( वि* ) छल्ाट देख वर शुमाशम कइने वाला, परमाग्योस्जीडी, माग्याघोन, प्रार- अ्धाधीन, आाम्य का भरोसा रसने दाजझ़ा |» लालित ब्वालित ( छु० ) हुलारा हुआ, पाछा हुआ, पेफफित | लालित्य तद्‌" ( पु० ) मनोइरत्ा, . रमणीगता; सुन्दरता । लाली (स्त्री० ) क्दकी, प्यारी, लक्ाई । ज्ञाव दे० ( घु० ) रस्सी, जहास । लावगण्य तत््‌० ( छु० ) सुन्दरता, शरीर की स्वाभाविक प्रभा जिपछें सुन्दरता उत्पन्न होत्ती है । ल्ञावज्ञाव दें० ( छु०) छ्ेभ, चाह, अमिल्‍्ताप, तृष्णा ) ज्लञापसाव दे० ( पु० ) लाभ, प्राप्ति, बढ़ती, बृद्धि ल्वावा दे० ( घु० ) खील, खो । लांबू दे० ( ख्री० ) ज्लोका, कदृंदू । ज्ञास ( पु० ) उत्य, शंख, मोद ।--क ( घु० ) मयुर, नत्तेक, नचेैया | जासा दे० (पु० ) चेप, गोंद, जे! चिड़ियाँ पकड़ने के काम में श्राता है, फेदा । [ छाख्र, काही | लाइ तदू० ( घ० ) जाम, प्राप्ति, छेमकुशछ, मज्कछ, लाहा तदू० ( छ० ) लाभ, प्राप्ति, छष्चि। लाही दे० ( स्री०) छाख, छाक्षा, तेरी, सपप, सर्तों, महीन कपड़ा । लहौर ( 9० ) पञ्ञाव की राजधानी । लिखत ( ४० ) तमस्खुक, टीप, चिट्ठीपत्री | [ चिट्ठी | लिखतड़, लिखतंग दे० ( ० ) लेख, वियमपत्र, लिखता दे० ( क्वि० ) श्रच्र बनाना, लिखाई करना । लिखनी तद्‌" ( स्वी० ) छलम, लिखने का साधन, लेखनी |--दधास ( पु० ) लेखक । लिखनन्‍त बे० ( पु० ) प्रारब्घ, भाग्य, कपानच्, छक्काट, लिखा हुषा । लिखा दे० ( पु० ) प्रारठ्घ, दोनदार, सवितव्य | लिखाई दे० ( श्री० ) लिखना, लिखने का काम | लिखावद दे० ( स्ली० ) लेख, श्रच्धरों की वनावट। लिखित तव्‌० (गु० ) लिखा हुश्रा । लिडूः तत्‌० ( पु० ) पुरुपेन्द्रिय, पुरुष विनर, चिन्ह, छत्तण, शरीर विशेष, छारण शरीर, शिवजी की पिण्छी । लिखु ( छु० ) एक प्रकार का फल । जलिभड़ी दें० ( खी० ) दल, पेकतड़ी । लिदाना दे० ( क्रि० ) घुलाना, पौढ़ाना, छुल। देवा । लिट्टी दे" ( स्वी० ) मोदी रोटी, बाटी । ( हैदरे ) चीन लिधड़ना दे० ( क्लि० ) छघाड़ना, अपमानित करना, विरस्कार करना । लिथाड़ना दे० ( क्रि० ) पच्चाढ़ना, लूघाढ़ना | लिपटना दे० (क्रि०) चिप्कना, सटना, सिटपिटाना । लिफ्ठाना दे० (क्रि०) सदाता, भिढ़ाना, युक्त करना | लिपटाव दे० ( छु० ) चिप्टाव, सटाव, मिल्राम । लिपड़ी ३० ( स्वी० ) पुरानी पयड़ी । लिपवाना दे० ( क्रि० ) घुतवाता, दिल्लाना, पेतना चल्वाना । जलिपाई दे० ( स्वी० ) लीपने का कास । जिपि तत्‌० (ख्त्री० ) लेप, क्ेख, हस्तातर, धस्तलेख | --ऋर ( छु० ) लेखक, लिखने वाला । लिप त्तत० ( बि० ) लिपा हुश्ना, लिप पेता । जिवलिवया दे० (वि०) लल्तछसा, विपचिपा, छबरूवा। लिव्चा दे” ( पु० ) चपतव, चमेठा, धौज्न धप्पा। ल्िम दे० ( ख्री० ) छलझुू, दोष, अपराध, ढासा, चिन्ह, लक्षण । लिये दे* ( '्र० ) घास्ते, निमित्त, तदथे, हेतु, हेल्वथ ॥ जिलाना दे० ( क्रि० ) चाहना, इच्छा करना, लल- चाना, लेभ करना, तृष्णा करना । लिलार ( घु० ) छलाट, कपाल, प्रारव्घ, नसीव | ._ लिचाना दे० ( क्वि० ) घुलवाना, श्राह्मान करना ! लिवोलाना दे* ( वा० ) साथ घुछा काना, साथ ले कर आना । लिद्दाफ दे० ( छु० ) रुई मरी हुई मोदी रजाई | लिहाड़ा दे? ( गु० ) उच्छ, नीच, अधस, कदाचार, दुराघारी, तुच्छ । लीक दे० ( स्त्री० ) रेखा, चिन्द्र, पयडण्डी । लीख तद० ( त्री० ) सिर के वालों की बोदी हूँ | लीचडू दे" ( वि० ) कृपण, कब्जूस, अधेषिशाच, घव- दास, छुस्त, ढीका । हे लोीची दें० ( ख्थी० ) फछ विशेष, एक ज्॒क्य और उसके फल का चाम | लीकी दे? ( ख्री० ) गाद, मछ, सल्छुठ । लोदरा दे० ( ए० ) पुराना जूता, दृदा जूता । लीद दे० ( स्री० ) घोड़े की विप्ठा । लीद तत्‌० ( दि० ) तनन्‍्मय, तत्पर, आरासक्त, डूबा हुआ, समझ । घुताना, चौका लीपना ल्ीपना ( फ्रि० ) पेतना, लेपना, थोपना । कीवबड़ दे ( पु ) छीचड, पाँक, पढ़ | [की शान्ति । लीम देन (घु०) सन्धि, मेल, मिद्लाप, शान्ति, विरोध लीमू दे० ( १० ) नींबू, निदुधा । लीर दे० ( छी० ) चिट, चिपदा, कदरन | लील तवू० ( धु० ) नील । (वि०) मीछा, मीछ रंग | जोक्ना दे* ( ऋ्रि०) निगढना, घेदना, मरछाघ करण, गले के भीतर करना | लीजदि ( ख्री० ) विनाश्रम, खेजही सेल्लमें, भगायास ( क्वि० ) निगछ ज्ञाय [ अनुसरण छीला तत्‌० ( ख्री० ) क्रीडा, यिद्दार, खेठ, कौतुऋ, छीजञावती तत्‌० (द्वो६ ) विरासवती श्री, विदधास युक्ता सखी । प्रसिद ज्योतिर्वेत्ता भास्काचाये री कन्या, कदते हैं. मास्कराचय का असिद्ध पायी गणित इन्दरीं के नाम पर रचा गया है। जगह जगह पर शस प्रन्थ में मास्‍्कराचायं ने लीलावती के नाम का उक्‍लेख किया है। जिससे मालूम द्वोता है कि इस ग्रन्थ की श्रोत्री उनझी कसा ब्लीढावती ही थी छुक दे+ ( ५५ ) आकाश से गिरने वाछा ताए, लू। ख़कना दे० ( क्रि०) दिपना, गुप्त दाना | ल्करद्वा देन (४० ) दुराचारी, दुष्ट, दुष्कृत, लुचा, छस्रट। ल्ुका ( वि० ) गुछ्ठ, दिपा हुआ, |--अन ( ५० ) अअन विशेष, जिस 'थाँतों में ठयाने से णगाने चाछा चध्यय दो जाता है। छुकाना दे* ( क्रि० ) छिपाना, दौकना, गुप्त करना | ख़ज़री ( छो० ) छोमडो, ढुँगर ! छुगाई दे० ( छी० ) नारी, स्री। लुच दे० ( यु० ) निरा, केवल, नंगा, उधादा | बच दे ( छो० ) पूरी, सोदारी, लुचपन, दुषटता। लुचपन दे० ( पु० ) दुष्टवा, दुश्वरिद्रताग, घद्माशी। लुचस दे० ( पु० ) मकझदय, कीट विशेष । लुशा देन ( प० ) कुरर्मी, अन्यायी, दुष्ट, दुराचारी छखुन्नल्लज्ञा ( वि* ) > दीक्षा, कममोर। छुज्जा दे+ ( वि० ) इस्तरट्टित, द्वाप से दीन, लूडा। लच्ना देब ( &ि० ) छुट जलता, भपहत डोना, छिन जादां, धन दरण होना । « ( ईह४ ) छुर्को ल्ुय्वैया द० (प०) लूटने घाला, ठग, बदसार, धू्। खुटाना दे० ( क्रि० ) गवाना, छोना, दढाना, दे | देना, बॉट देना । , छब्या देन ( खी० ) छोटा छोटा । , छठरेरा, लुगेलू दे० (१५) लूट करने वाला, शुट्वैपा । | ल्ुद्दस दे* ( पु० ) विधा, नाप, ध्वत, लूटपसोट । ल्॒ब्च ( घु० ) घोड़ा गधा थादि की थक्ावद दूर करने के लिये जमीन पर कोटपेट करना । ल्लुड्दका दे? ( पृ० ) कान का पुर प्रकार का गहना। लड़की 4० ( स्नी० ) छोटा लुड्झ्या। खुड़खना दे० ( क्रि० ) हुहना, दुलकना, दलकना। लुद॒पुड़ी देन ( खी० ) दुरन, लुढ़ुकन । छुड़कना ढे० ( क्रि० ) गिरना, गिर जाना, ढलकना । खुढ़ाना दे० ( क्रि०) बंगोरना, क्षेद्ना, गिरना, दुद से फूड आदि का अलग करना ! छुढ़िया दे* ( छु० ) चोदा लोढ़ा, छोड़ा, बद्धा, जिससे मसाछा आदि पीखा ज्यता है। ल॒ढ़ियाना दे० ( क्विब ) कपडे सीना, टॉक दिये हुए कपड़े के! मजबूत सीता ! लुगिटित ( छ० ) घुरायां हुमा, अपहत | [पूँठ का। लुणडा, लुँडा दे* ( वि०) घंडा, पुष्छड्टीन, विन छुतरा दे० ( वि० ) घढ्यटिया, घकवादी, 7प्पी, झूठा, अरश्वत्यवादी, निन्दुक, निन्‍दा करने वाला ॥ छन्ाई दे० ( वि० ) छावण्य, निम्रकीनपत | खनिया दे० € स्ती० ) लूनिया, पुक घास का नाभ, पुक जाति का नाम । ख़ुप्री दे० ( स्री० ) पूरु प्रकार का भोग, रुपसी | खपल॒प दे० (दि )पश थादि के साने का शब्द विशेष । ख़ुछ तत्‌० (वि० ) नष्ट, विष्वन्ठ, आँखों की ओोट, अदुर्शन, गुप्त । [ ददा, शै।पधि पिण्ड । लुबदी दे० ( छ्ो० ) लेप आदि छे जिये पीसी हुई छन्‍्ध ठव्‌* ( वि० ) [ छुमु + क्व ] छोमी, सदृष्ण, नृष्यायुक्त, स्वार्धी ) छुत्घक वत्‌० ( पु ) ब्याघ, यहेलिया, सिझारी | जमाना दे० (फि० ) ठक्षचाना, टोम देना, छोम दिखाना । [जा का नाम) छम्पक ( १० ) चारी करने बाटा, चेर, नाशका पुक्र | छुरहो दे+ (स्ी०) सुदकी,छान में पदनन का गइना। ( ईुई5 ) लेपन हुद्दरदा छुदयडा लुर्दडा ढे५ ( एु- ) छोंदे का इण्डा । खुदरा दे० ( पु० ) जहुरा, छोटा, कनिष्ड) खुद्दाड़ी, लुहांगी ५ (सख्त्री०) लोहे ले मढ़ी हुई छठी | खुहान दे० ( वि० ) लहू भरा, रक्तइूण, रक्तमय। छुदार दे० (पु ) जाति विशेष, छोड़ा का कास करने टाल्वी जाति, लेहाआर ै (स्त्री०) छुद्दारिन । लू दे: ( स्त्री० ) उष्णचायु, गत्म बदास। लूझआठ दे० ( पु० ) जली लकड़ी, अधनजी, झधंदरघ । लुक दे० ( स्त्री० ) दवा विशेष, गरम वायु, लू | ++ठ[ बि० ) 'प्रधज्क्मा, लुआाठ। लूकटी दें० (ल्री० ) लोसड़ी । लूकना दे० ( क्रि० ) लू लगना. लू से जलना, दग्ध होना, छिंपता । लूकबाही दे० (०) अगयादी, हे।ली के दिव का एक अक्सर का तृण निर्सित दण्छ, लिसमें आय वालते ह्। [ झ्लाम की लपठ | लूका दें० ( ज्जी० ) जलती लकड़ी, चिनगारी, लपट. लूख दे० ( ख्ी० ) आग, लूक, ज्वाला । लूठ दे० ( सी: ) चोरी, अपहरण, अपहार, उकैंठी, डॉका ।--खसलोद ( स्ली० ) लुहस, डॉका । लूठना दें० ( क्रि० ) अपदरण करना, ठ्ना, डॉका मारता । लूखक ( पु० ) लूठने वाला, ठग, कमरवंद । लूता तच० ( ख्री० ) मकड़ी, पुकत अ्कार का कीड़ा जो जाला बनाता हैं। संस्कृव में जिसे ऊर्णनास अर्थात्‌ रेशम का कीड़ा कहते ईद । लून दे० (घु ) नान, लबण, निसक, काटा गया। लूदिया बे० ( छ० ) जादि विशेष, जो नेव निकालने का पेशा कहते हैं | खारा, एक पौधे, का नाम, बेलदार । लूमी दे० ( स्त्री० ) साखन, सक्खन, चेन, चदतीत । लूला दे० ( च्रि० ) पंगा, दूठे परों बाला । लूह दे० ( स्त्री० ) लु, लूक। छूहर ( छु० ) जुकेठा, लूक, गिरा हुआ तारा । ले दे० ( अ० ) तक, तलक, अवधि, पर्यन्त । लेई दे० ( स्त्री० ) माँडो, माँड, एक प्रकार का सेजन। बिना घी चीनी का हलुआ जिससे कागज्ञ चिप- काया जादा है । लेंड़ो दे० ( स्त्री० ) मींगनी, बकरे आदि की बीटा --६ छु० ) एक तरह का डरपोक कुत्ता, बि० सास, असमर्थ [ हंढ़ा दे० ( पु० ) अन्ताःसार शल्ब फल, बैँधा फल, खेखका छल्त, सेड़ आवि का रुंड । लेख तत्‌ः ( यु० ) लिखित, लिखतंग, प्रबन्ध, रचना, लिखावट । लेखक ठत्‌० (पु० ) लिखने वाला, लिखने का काम, करने चाला, लिपिकर, ग्रन्यकर्त्ता । लेखकी ददू० ( स्त्री० ) लिखाई, लेखक का काम | लेखन दद्‌० ( घु० ) सीपि, लिखाई, लिखावट। ल्ेखनी ठदत्‌० ( स्त्री० ) लिखनी. लिखने का साधन, क़लम | लेख पत्र ( छ० ) ताढ़ का पत्ता । लेखा दे० ( घु० ) गिनती, गणित, हिसाब । लेख्य ततू० ( थि० ) चिट्ठी पत्री, लिखने येग्य, चित्र, तसवीर ! लेख्यउह ( 8० ) दफ़्तर, कचहरी,आफ़िस । लेज दे० ( ज्ी० ) रस्सी, छोरी । ले ज्ञावा दे० (क्रि० ) ले भागना, उठा ले जाया, दूसरे स्थान पर रखना । लेझुर दे० ( ज्री० ) रस्सी, डढोरी केज । लेझुरी दे० ( स्ली० ) देखो लेज । लेद दे० ( पु० ) गद, मकान आदि को पक्का बनाने के लिये चूता सुरख़ो आदि फा वना लेपत लगाना ( क्रि० ) लोटना । लेदता दे० ( क्रि० ) सोचा, शयन करना, आराम करना, विश्वास करना । लेठगना ( क्रि० ) चेरी करना । ल्लेमेदेल दे० ( छु० ) व्यवहार, च्यापार | लेना दे० ( क्रि० 9) अहण करना, अपने अधिकार में करना, पकड़ना । [ लगाने की दवा, सलहम | ल्लेप तत्‌० ( घु० ) पोतने की वस्तु, शरण आदि पर ले पड़चा दे० ( क्रिज 9 संग सोना, ले जाना, नाश करना, विगादवा। लेपना दे० ( क्रि० ) पोतना, लेप लयाना । त्लेपद ( पघु० ) लेपने की वस्तु, मरहम, उबवटन इत्यादि , झश० पा०७-४छ ले पालक ६ हुई ) धासायटएकप सा कमल उशाप पाक अचाापच पर पप आम इक पता 5 पल पकाफकतततकसपर 5 आकर कहा तक के पालक दे ( छु० ) ध्मपुत्र, पाला हुआ घुझ, | लेंस दे० ( गु० ) तैयार, प्रस्तुत, बना बनाया, सिद्ध, पोसा हुआ बेटा, पोष्यपुच्च । [पोसना। |. ( ३० ) वक्का । ले पालना दे० (क्रि० ) बेश के समान पालना, | लाई दे० ( स्त्री० ) धुस्पा, ऊन की यनी श्रोदने पी लोढ़ा ले मरना दे० ( बा० ) कलह शगाना, दोपी करना, अपने साथ न करना, स्वय ख़राप दोना दूसरों के भी ख़राब करगा । ले रफना दे ( क्रि० ) सथ्य करना, सभइ करना, बटोरना, पुऊंग्रित करना | ले रहना दे” (क्रि० ) सह रखना, साथी बनाना, अपने अधिकार में कर लेना । केस, क्षेरुआ दे० ( एु० ) वन्द्ा, बढ़ा ! क्षेला दे० ( घु० ) मेढ फा बच्चा, मेमना, छोटी मेड । लेलुट दे० ( वि० ) लहलुट, ले पर न देने घाला। ले लेना दे* (क्रि० ) छीनना, दीन ल्लेना, लूदना, खसोदना। झ्लेलिह ( पु० ) साँप, सपै, नाग । लेव दे० ( स्ली० ) मीत की पपदी, छाप । केवा दे० ( छ० ) आराइक, लेने वाला, मद॒टी और रास जो यदलेई की पेंदी में इस लिये लगाई जाती है जिससे यह जल्ले नहीं ।--देई ( स्त्री ) लेनदेन, स्यवहार, व्यापार । लेघार दे० (४० ) गीली मिट्टी, भीत पर छाप लगाने को मिट्टी, लेप, लेवा । लेषास दे० (घ० ) गच, लेट । लेपैया दे० ( घु० ) लेने घाला, लेवा, आदफ । छ्लेश तत्‌» ( छु०) श्रस्प, लघु, थोडा, स्वएप, अत्यक्प, क्षव, मात्रा । | चस्तु, गुंथे आटे के गोल गोल पिण्द, जिन्हें बेल बर पूढ़ी सैयार की जाती है। लो दें० ( अ० ) तक, पर्वत, श्रवधि ॥ लॉंकिया दे० ( स्प्री० ) कं, शाक विशेष । ल्लोंग ( स्त्री० ) एक तरह का गरम मसाला ढेला, घाँधा । लोंद दे ० ( घु० ) अधिक मास, पुरुपोत्तम महीना । लॉंदा दे० ( घु० ) फिर्डा, मिद्दी आदि का पिण्डा| लाक दत्‌० (० ) भोग, जन, मजुष्य, खुबन, द्वीप, मनुष्यो का वासस्थान ।--पाल ( पु० ) राजा, दिर्पाल । लेाकना दे० ( क्रि० ) ऊपर से गिरती हुई वस्तु को बीच दही में पकड़ लेना। पकदना, गोचना, डुलना । लोकनाथ ( छु० ) गणजा, विष्द, श्रम, शिव । लोकप (० ) लोकपाल, लोक या पालने वाका, राजा । [फमल्ा, रमा । लाकमाता (स्थ्री० ) लोगों की माता, ल्च्मी, काकरा दे० (पु० ) चीयरा, क्‍या कपड़ा । लेकलताचन ( पु० ) सूर्य, भास्कर, सूरज । काकापमद ( घु० ) बदनामी, लेकनिन्दा, अपकीर्ति लेसर दे० ( इ० ) दृथियार, जोड़े फा पाथ। प कर बंद करना । | जेखरी घु० ) ल्ामदी, हुँढार । लेछना दे० ( क्रि० ) लीपना, पोतना, सदटी से थोष | कोग तद्‌० ( घु० ) शौक, मनुष्य, जन । लेसालेस दे ( पु० ) लिपाई, चारो ओर लीपने वा | जेगाई दे* ( स्त्री० ) लुगाई, स्त्री, नारी, मेइरारू। फाम दवोना। लाचन बद्‌० ( धु० ) चाँ, नयन, भेत्र, चह । लेख ( ४०) भूसी मिलो हुई मिट्टी जो भीत | जोचना (स्व्री० ) सुन्दर नेग्रवालो, सुन्दरी। में सगाई जाती है। लीपपोत । खेद ( रप्री० ) बढदी, शीघ्रवा, उतादली । लेददना दे ( पु० ) चारा, घास, पाला। लेद्दी दे० (स्मी७) आदे का दता चिपकने का पाये [ भेजन । | लोइन दे० ( स्त्री० ) छपरन, नेत्र, नयन, चछ, शा, सेदन मंत्‌० ( घु० ) चाटना, अवद्ञेदन, पतली वस्तु का | » पदकन, सणइलिया ।--फवूतर (घु० ) क्योत विशेष, कलंदर की पुर जाति ।. [पिकना खाना । जोयना दे० ( क्रि० ) तइफना, छुटपटाना, पटरुना, खोच्पेद दे० ( यु०) तलफन, पटकन । फलेह्य नत्‌० (गु० ) लीपन करने योग्य, अवलेह, | लोग दें० (पु०) जल पाय विशेष । शिवा है, बट । अदक्लेइन करने की वस्तु, चाटने योग्य । छोड़ा दे* ( घु० ) बह पत्थर जिससे अमाज़ा पीसा लाड़ी ल्ोढ़ी दे० ( स्त्री० ) छाया लेढ़ा, लुढ़िया । लोथ दें» ( छु० ) मस्तक, मृतक शरीर, मुर्दा, शव । लोथरा दे० ( छु० ) माँल का पिएड, बोटी । लेथाः दे० ( घु० ) बोरा, यैला । ल्लाथी दे० , स्त्री० ) गठीली लाडी, लट्ढा । ल्ेादी दे० ( घु० ) पवों की जाति विशेष, इस जाति के लोग भी कुछ दिनों तक भारत के राजा रह जुके हैं । लोाधिया दे० ( पु० ) ज्ञाति विशेष, किसान, कुर्मी । त्तोधी दे” ( ७० ) “ लेधिया ” देखे । लेन दे० ( घु० ) नत्त, लुन, लवण, निमक । [विशेष । | त्लेनना दे० ( बि० ) ख़ारा, लवण युक्त । ( घु० ) फल | लेानार दे० ( छु० ) खारी भूमि, खार, ज्ञार भूमि । त्लेप' तत्‌० ( घु० ) अदश्य, अदृर्शन, नाश, विध्वंस, अग्रोचर, गुप्त । लेपब्ुद्रा ( स्त्री० ) अगस्त्य ऋषि की पत्नी । लापड़ी दे० ( स्त्री० ) लोंदा, क्षेप विशेष। ( ६4७ 2) : लाह दे० ( पु० ) रुघिर, शोणित, रक्त। केापी ( छु० ) लेप करने बाला, घाशकर्ता। लेबाना दे० ( घु० ) खुगन्धयुक्त ह्ब्य विशेष, जे घूप में जलाया जाता है ! [ सेमिया है । | ज्ञोविया दे० ( घु० ) एक तरकारी, जिसका नाम वन लोभ तत्‌० ( घु० ) तृष्ण, लालच, इच्छा, ईप्सा । ले।सना दें० (क्रि०) मोद्धित होना, चाहना, ललचना । लेोमभी तव्‌० ( वि० ) लालची, लेलुप, लछुव्घ । ल्लेाम तद० ( पघु० ) रोम, रोंआँ, रूँगटा | क्लामड़ो ( ख्री० ) लेखरिया, लुकरी, जन्तु विशेष । लेमश ( छु० ) पुक ऋषिका नाम, (वि० ) जिसके देद में बहुत वाल्न हों । । ले।यने तदू० ( पु० ) लोचन, चत्नन, नेज्न । । लोर वे० ( इ० ) आँसू, अश्लु, नयनजल । ॥ तेल तव्‌० ( पु० ) चब्चल, लालची । लोलक दत्‌० ( पघु० ) कान का एक गहना विशेष। ल्लोलुप तव» ( घु० ) अलन्द लोभी, लालची, छुच्घ। लोवा ( छ० ) लवापसी, लोमढी। ल्लोए तद्‌० ( घु० ) ढेला, मिद॒टी, रृत्तिका। « | लोह तद्‌ ( पु० ) धाठु विशेष, लौह घाठ।--चून (० ) लोदे का चूय, रेत ।--बड्ठा (छ०) लोहे ल्पारी का पात्र, लोहे का व्तत।--स्तार ( घु० ) लोहे का भस्म, कान्तिसार । लोह ( छु० ) लोहा, अय, आहन। लोहा तव० ( सत्री० ) घात विशेष, लोद, लौद | लोहान दे० ( छु० ) रुघिरफ्ण, लुहान, रक्तमय, लोहू से लद॒ फद । लोहार दे० (पु०) लोहकार, लोहे का कास करने घाला । ल्ोहकार ( ४० ) एक जाति विशेष, लुद्दार। लोहराड ( पु० ) लोहे का पात्र, कढाही। लोहानी ५ छु० ) पठानों की एक जाति। लेडाबजाना ( क्रि०ण ऋ० ) तलवार लेकर खब़ना। लोहित तत्‌० (बि० ) रक्त, लाल, कुसम्भा ! लोहिया दे० ( वि० ) लोहे फा, लोहसय। लोही दे० (स्त्री०) लोई, सने हुए आटे के डुकड़े, जिन्हें बढ़ाकर पूरी या रोदी धनाई जातो हैं। [ सीमा । लो दे० (अ० ) त्लों, तक, तलक, अवधि, पर्यन्त लोंग तद्‌० ( छ० ) ज्बढ़, लदंग, पुष्प विशेष, पुँग- निया, नाक में पहितने का आसूपण विशेष, फुछी। गैंडा दे० ( पु० ) छोकड़ा, छोरा, बालक, चाकर, नाचने वाला लड़का । [ रानी । लोंडिया दे० ( पु० ) छुऋड़िया, ज्ौंडी, दासी, चाक- लो ( सत्री० ) जलती हुई वती की ज्वाला। त्वौकना दे० ( क्रि० ) चसकना, बिझुली चमकना। लोका दे० ( पु० ) बिजलो, विद्युत, इन्द्रधनुप, बढ़ी लौकिया, शाक विशेष । लोकिक ठत्‌० ( वि० ) साँसारिक, इस लोक का, हस लोक में होने वाला । लौकी दे० ( स्त्री० ) पर्बती, छोटी लौका, कदूदू। ल्लौटना दे० ( क्रि० ) पलटना, फिरना, घूसना घूम जाना, लौट जाना। ल्ौदाना दे० ( क्रि० ) फिराना, घुमाना, पलटाना। लोन तद्‌ ( घु० ) निमक, नोन। लोना दे० ( क्रि० ) काटना, कटनी करना । [सास | लौन्द, लोद दे" ( पु० ) सलमास, श्रधिमास,अधिक लोह ठत्‌० ( पु० ) धातु विशेष, लोह, लोहा । स्यारी ( ज्री० ) भेड़िया, हुडार । ( ईईफ ) घडिश व प यह व्यज्न का उन्तीसर्स बर्ण है, इसरा उच्चारण | चचन व्त० (पु० ) डक्ति, कथन, वाहय।-ध्यक्ि स्थान दन्‍्च और थोष्ट है इस कारण इसे दन्त्योष्टय कहते हैं। [हद । घश दच्‌० ( पु० ) सन्वान, सन्तनि, कृत, परिवार, चशवाली ठत्‌० ( ख्तो० ) दश परमपरा, इल, पढ़ी, पुरुष, पुरत। प चशकार ( पु० ) धासफोड़ा, ढोम, भज्जी धंशज ( ए० ) बश का, बाँस से उत्पन्न । चंशलोचन (६०) वास से नियलने घाला एक पदार्थ । घशी तत्‌» ( ख््री० ) वाद्य विशेष, बाँस का बना हुथा बाजा, मुरली, गांसुरो। घशीधर ( घु० ) बंशी वालय, भीटषप्ण । धश्य ( वि० ) इलीन, श्रेष्ठ कुलोत्पन । यकू तत्‌० ( पु० ) पक्षी विशेष, बगुला, ऋद्यपक्षी । चकुल तत्‌० ( पु५ ) बृत्च विशेष, मौलसरी का पेड । बकदत्ति ( स्री० ) धूतंता, पासणड, छुस्ध । धक्ता तत० ( थु० ) धोलने बाला, यदनेवाला, व्याष्याता, ब्याप्यानदाता। [अभिप्राय श्रकाशन । चक्तृता बदू० ( पृ० ) कथन, ध्याय्यान उपदेश, घकर तत्‌० ( वि० ) ठेद़॥, ब्योंफ, विरदा, कुटिल। घकराक़ी वद्‌० ( ख्ली० ) देदी बात, ठाना सारता, अलड्भार विशेष, यथा -- , “जहाँ इलेप फे काउसो, अरथ लगावे भौर। घरकडकति ताहों कद्त भूघन कवि सिर सैर) उदाइरण-- फरि मुद्दीम आये फट्टि हजरत मन सर येन । सिपसरजासो गड़ज़रि ऐंड यथि के हैन -+शिराज भूषण) चक्रग्रोचा ( पु ) ऊंट) चक्त स्थल तेदु० (१०) छादी, टदय, उर स्थल, कल्नेजा। पत्नोज्ञ ददु० ( ५० ) उर्ेजष, खन, कुच, चूची, छाती। घड़ वदू० ( बि० ) धकत, विरदा, टेदा, बोझ, कुटिस वड्िल बत्‌० ( पि० ) देदा मेष । [विरेष, बद्ाल । चड्ढू तद० ( पु५ ) धानु उिशेष, रोंगा का भस्म, देश घड़सेन ( पु० ) अगस्त्य का पेड़ । घतच्र तव्‌० ( पु५ ) थोषधि विशेष, वाक्य, बचन। ( खी० ) बात की सफाई। बज्ञ तत्‌० ( पु० ) देवराज इन्द्र का असर विशेष, विजली, विद्युत, हीरफ, हीरा, भ्रीकृष्ए वा प्रशत्र और थनिरुद्ध का पौध ।--दन्त ( पु० ) सूफर, सूअर --दन्‍्ती ( खी० ) पौधा विशेष ।--नाभा ( पु० 2 सुमेर पर्वत पर रहने वाह्या पु असुर, ब्रह्मा के घर से यह सकल टेबताओं वा अवध्य था और बच्नपुर नामरू एक नगर भी इसे मिला ।.. था। तब से सुमेरु परत छोड़ कर ये उसी नगर | में रइने गा था। छुद्द दिनों बाद यह बर के |... अ्मिमान से समस्त लोक को पीड़ित घरने लगा ।. और स्वर्ग छोरने के लिये इसने इन्द्र का मी फह- ।.. ताया। इन्द्र बृहस्पढ़ि के श्रादेश के अलुसार चच्र नाभ को साथ लेकर कश्यप मुनि के पांस गये और वहाँ उन्होंने सभी बातें कद कर महाप्ल॒नि फश्यप वी सम्मति माँगी। कश्यप ने क्ढ्ठा, बत्स चद्चनाभ, मैं इस समय एुक यश करने के उद्योग में हू, इसकी समाप्ति होने पर जो उचिढ़ होगा बह मैं कहूँ गा, तब तक वत्रपुर में दी तुम रहो। चन्नक ( पु० ) द्वीरा । चनञ्नधर ( ३० ) इन्द । घम्जाघात व्‌» ( पु० ) बत्रपात, चंद्र से सारता। चश्चक वद्‌० ( पृ० ) ठण, ठगने वास, धूत्ें, प्रदारक, खयाल, सियाल ।--ता ८ स्त्री०) धूर्चता, ठगईं। चत्चना तव० (द्वी०) प्रठारण, धूर्चता, ठगई । [ रिना। चद्धित चत्‌० (प्रि०) प्रवारित, ठगा हुआ रद्ित शल्य, बढ तव्‌० ( पु० ) छृच डिशेष, बड़ का पेड़ बराद। घद्॒र तव« (पु०) झुर्ग मुर्गा,चोर,पढाढी,आसन;चराई । घढिरका, वदी बत्‌० ( स्परी० ) सोली बड़ी। चड्ु तद्‌० ( पु० ) विद्यार्यी, यालम, मह्यचारी दिधा- ध्ययन परने बाता, घाह्मण उसार। चुके तर० (9० ) वात, बहु सैर विशेष। चडवानठ ( ६० ) समुर री थग्न। उड्ड तद्‌ु० ६ छु० ) यरगद, बट घुछ । घडिश दवू5 ( घु० ) मदक्षी पकड़ने का कॉटा चयब्क घग॒ददा दत्तू० ( घु० ) बॉटने वाला, विभाया करने चाला, विभाजक, अलगाने वाला, पयककर्तों। चत्तू त्तत्‌० (अ०) समान, सहश्य, उपसता, तुल्थ. यधा-- ब्राह्मणवत, पश्डितवत्‌। बत्स तत्‌ ( छु० ) शिक्ष बच्चा. बछुइा ।--दर ( वि० ) अतिशय छोंद, अल्न्त छोदा दच्चा | चृत्सर तल० ( छु० ) वर्ष, साल, संवत्‌. वरह महीनों का काल। [ बापिक। चत्सरीय वह्‌० ( बि० ) घत्सर सम्बन्धी, चर्च का, बत्सल तत० ( बि० ) पुत्र, प्रेमी, स्नेही, छोही, दुयावात्‌। चंत्साझुर वतू० (छु० ) कंस का अचुचर, असुर लिशोप, यही श्रीकृष्ण को भारने के लिये कंस के द्वारा साइल भेजा गया धा। श्रीकृष्ण को मारने की इच्छा से यह गोकुल सें चत्लरूप धारण करके ब्रूमता था। यह ज्ञान जर श्रीक्षष्ण ने इसे मार खाल | चद्‌न तत्‌० ( पु० ) आस्य, झुख, मह। धद्रीनाथ (छु०) एक तो, चार घासों में एक धाम | चद्ान्य ठत्‌० ( पु० ) दाता, दाचशील। चध ( छु० ) हल्या, प्राशहिंसा । चश्लू उत्‌ ( ल्ी० ) स्यी, भार्यो, दारा, स्नुपा, पुत्र- चघू। घर सत्त्‌ू० ( स्त्री+ ) जल, चीर, अर्ण्य, जद्ञाल, फास्धारः विपिन, बूक्तों का समूह, जो चूत स्वर्य उत्पन्न हुए हों ।--चर ( पु० कह्नली, बनैंला, दन्‍्प, घन में रहने बाला।--कु ( छु० ) कमल, जलज, निरज (--पाशुत्ली ( प० ) व्याध, बदेंलिया। माला ( स्त्री० ) उल्लसी, कुन्दुमन्दार, परिजात और कमल इनसे वनी छूस्‍्त्री माला; पैर तक सटकने वाली माला।-रूपति € छु० ) इछुच्च विशेष, जिन छक्षों में बिना फूल के ही फल छर्ें, ये बनस्पति है। चनिदा ठत० ( स्त्री० ) साया, स्त्री, सियतला, स्यारी। चनप्रिया ( खी० ) कोचल | चलेज्ञा जें० ( बि० ) बन्य, चनवासी, चनचर, वनचारी | चन्दन तत्त० ( ु० ) मण्णम, अभिवादन --न्ररितत ( दि० ) प्रशंसा योग्च, नाननीय गुण! ६ हई£ ) घर चन्दृता तत्‌० ( ८० ) स्छुति. नमस्कार. अणाम, नियत समसस्‍्कार! [करने लायक, पूज्य | सन्दूनीय तत्‌० ( लि० ) चन्दन करने योग्य, प्रणा्त वन्द्रा चंदा दे० ( पु० ) ऋछाश छत, बच्चों पर ले निहझूल्ा हुआ बढ विशेष | चन्दित ठत्‌० (६ बि० ) प्रणमित नसरुकार किया हुआ, जिसको लोग मणाम करें, पूज्य । चन्दी तत्‌० ( छु० ) भाठ, दर्शोंची, स्वुतिरर्ना, स्तुति करने वाला, बँधा हुआ, कैद किया, कैदी । >+ज्ञन ( पु% ) भाट श्रादि स्तुतिकारी । वन्य दव्‌० ( वि० ) बनैला, जड्ज्ी, वचचर | चन्धु ( ए० ) हट्ठम्त्री, परिवार के ढोस । चदच तत्‌० ( छु० ) बोता, चीजारोगण, खझुण्डन, केश- कर्तेन, वाल सुझना। सदपनी तलू० ( स््री० ) नापितशाहा, चाइयों का श्रह्ढा | चदुः तद० ( घु* ) शरीर, दे४, काय । बपुरा ( बि० ) तुच्छ, नीच, ओछा । बष्त चच० (वि०) चपनकर्त्ता, बीज बोने बाहा, मुण्डन* कर्ता | चप्र तद्‌० ( ७० ) प्राचीर, दीबार, भीत, चारदीचारी। घ्चु चर ( घु० ) यादव विशेष, चदुइंश के साश होने पर श्रीकृष्ण की आज्ञा से ये यादुवों की स्त्रियों की रक्षा के किये ज्ञाते थे, परन्तु राप्ते ही मे दुस्युओं ने इन्हें मार डाला | चस्धवाहत तत्‌« ( पु० ) अर्जुन का पुत्र, थे संणिपुर 7 की राजवम्या विन्नाहुदा के गर्भ से इह्यक्ष हुए थे। नाना के सरने के शाद से मणिपुर के शज्ञा ड्ुए थे | घम्तनन तत्‌० ( घु० ) उबान्त, बान्ति; उल्टी, के | चम्रनी तद्‌० ( स्त्री० ) जलीका, जॉक | बयल तत० ( स्त्नी० ) अवस्था, बययु, आयुष्य, इसर | चयरथ तच्‌० ( वि* ) बाढिगू, चयाप्राप्त, श्नस्या वाला | | सित्र वयरुय त्तत्‌ू» ( घु० ) ससान अधस्था वाला, सखा चथस्या ततच्‌० ( छी० ) सखी, संली ! चर कत० ( ह० ) ऋशीप, आशीर्वाद, शुभचिन्तन, शुमानुध्यात, मवोरथसिद्धि | ( णु० ) श्रेष्ठ, इत्तम, अच्छा, प्रधान ।--द (छ०) चभीष्टदाता, इष्टदेव ] परण ( ६७० ) वण्क चरण तत्‌» ( छु० ) बे8न, क्पेटना, चुनना, यीनना, आद्वान करना, निमन्त्रण देना । वरणा ठव्‌० ( स्ली० ) एक नदी का नाम्त, ज्ञों काशी के उत्ती भाप से चहदी हुई गज में जा मरिक्ती है। वररा तत्‌« ( स्री* ) इंसी, हसिी |. [का दान | घरदान ( पु० ) वर दैना, श्राशीरवांद देना, विवाह धर रहना दे० ( व।० ) जयी दोना, जयवन्त होना चरपतिक ( पु० ) भ्रश्न७, अदरय | घेररुचि तय (घु० ) ब्याकरण का वात्तिककार, सोमदेव भट्ट कृत कधासरित्सापर प्रें लिखा टुझा है किये सोमदेव नामक धाह्मए के पुत्र ये। इन्दोंन पाणिनि छे सूत्रों पर वातिक बनाएं थे। कुछ लोगों का कहना है कि ये उज़्जयनी के राजा विफ्रमादिदय के नयरत्रों सें से पृ रत्न थे । प्राकृत प्रकाश नामक पूछ प्राकुंतसापा का व्याकरण इन्होंने बनाया था | घरत् दे० ( पु० ) विरनी, दीनी, इड्डा | सरबर्णिनी तत्‌० ( श्ली० ) उत्तमा ख्री, गुणवती भौर ख़श्वती स्थी । चरद दे० ( पु० ) पत्ता, पत्र । चरा वत्‌० ( स्त्री० ) बकुठ), औषधि विशेष | चराक सत्‌5 ( धु* ) बेचाता । घराटक तत्‌० ( पु» ) हरी, कपहिंका । धराणसी ( छ्वी० ) काशी, धरुणा भौर भरी के दीच में होने से इसका पद सलाम पढा है | दराद तद्‌० ( पु० ) भारत के पद प्रसिद्र ज्योत्तिपी। इनके पुश्र मिद्विः विक्रमादित्य की सभा के चराह मिद्दिर नाम प्ले भ्सिद्धि थे भौर थे नवरक्षों में से ये। भगवान्‌ का भवतार विशेष | धरिष्ट तद्‌* ( वि० ) श्रेष्ठ, उत्तम, प्रघान | दंद दे० ( भ्र० ) यदि, भपर, पद्चान्तर, भले ही | घदण त्तव्‌० ( पु० ) बृच्च विरोप, जलन का देवता, जछ का भधिपति देव। मे पश्चिम दिशा के दिल्ूप्रा् हैं। प्रदिति के प्रम॑ और करवप के औरस से इनकी उपचि हुई थी / श्रीमद्माधतरत्‌ में छिछ्ा है दि मय थरौर दातमीकि इनझपुन्र थे । इनझी चर्षियी नामक स्त्री के गरम से ये दोनों पुत्र उत्पन्न छुए थे | बहुत दिनों से इस देवता दी घूजा आयों में प्रचलित है । ऋग्वेद में इस देवता को पराक्रमशात्षी भौ। विभावाचारी के रूप में दर्यंन किया गया है| इनके अ्धान झस्त्र का नास पार हैं इसी कारण इनको पाशी भी कहते हैं ) चच्त्य तदु० ( ६० ) समृद, दल, गिरोह, यूथ । चरुत्यी तदू० ( स्थी० ) सेना, उमू, फौज | चद्य तदू०> ( पु० ) रथ थोहााने का कपड़ा, पमूह, कुण्ड, वर्थ ! घदूथनी तध्‌० (स्व्री० ) सेना, अनी, फौज । घरे दे* ( भ० ) इस पाग, इधर, समीप, समूढ़, लिये, बास्ते ( ढाद्दे घरे )। ( क्रि० ) काना क्रिपा का मूतकालिक रूप | पघरेची दे० ( स्त्री० ) गृष विशेष, अद्लीठ वृष । बरेची दे० (स्त्री०) भूषष्य विशेष, एक गदने का मास ! चरारू तद्‌० ( स्प्री० ) श्रेष्ठ भघा घाली | चरोद ( स्त्री० ) घट की जया, सोर ! धरोदक दे* ( पु ) भसगन्ध, थोषधि विशेष । चर्ग तत्‌« (१०) कहा, समाव जाति का समूह, समान का समृद,यण जाति श्र क्रिया हनसे समान चाद्ों का समूह । एक स्थान से इचयारण द्वोने वाले धचर, गणित विशेष, पक अह्ू को उसी में घात करने से जो गुयनफल्न द्वोता है ।-त्क्ेत्र ( पु०) जिम सेन्न की चारों भुजा प्रमान और चारों कोण की समान हों ।--सूज़ ( पु० ) वह अछु जिम्तशा वर्ग किया गया हो | यथा--४--का थर्य करते से १६ द्वोता है, १९ का वर्गमूट ४ होता है । चर्गीय तत्‌० ( वि० ) वां का, समूह का, श्रेणी का, दर्ज का । सज्जन ठव० (३०) नियेध, हयाग, परिदार । [लिपिद्य । चर्जित दव्‌* ( वि० ) रोका हुआ, छोड हुआ, प्जाँ, यर्य ठव्‌० ( पु ) रग, राग, श्राक्मण थादि चार वर्ण, अपर माढा |-माला ( स्त्री० ) ककइरा, भक्त माला !-सद्भर ( ३० ) दिमिद्न बाति के माता पिनाओं से उन्पद्, दोगडा | चर्थक ठद्‌० (वि०) प्रशंस, ह्तुतिकर्चा | (दु०) रा, चित्रों में मरा जाने घाटा इग चर्णन ( हैए१ ) चशिष्ठ |; चर्णातर तत्‌० ( ४० ) गुण, कथन, चखान | घ॒र्णंना उत्‌« ( स्त्री० ) वर्णन, स्तव, स्तुति | ( क्रि० ) चखान करना, स्तव करना, बखानना । वर्णाव्मंक तच्‌० ( चि० ) [ वर्ण + श्रास्मक ] श्रक्षर सम्बन्धी, अक्तराक्मक । वर्गाअ्रम दव्‌० (३०) [ वय + आश्रम ] भाह्मण आदि वर्ण और भ्रह्मचरय आदि आश्रम | वरणिक्रा तव» (स्त्री० ) रंग सरने की लेखनी | चर्णित तव॒० ( वि० ) प्रशंसित, स्व॒ति । चर तत्‌० ( पु० ) जीविका, बृक्ति, जीवचोपाय । चतंमाच तत्‌० ( पु० ) काल विशेष, जो सम्तय चीत रदा हो ! किसी काम को प्रारम्भ करके जब तक उसकी सप्ताप्ति न हो तव तक का कार वर्तमान कहा जाता है । [लिखा ज्ञादा है । चर्ता दे० ( स्त्री० ) काठ की कुलम, जिसले पटरे पर घर्ति तव्‌० ( स्त्री० ) बाती, दीपक में जलाने वाली बत्ती, आक्ों में सुरमा ऊुग्राने की सलाई, नयना- आन शलाकिका | [वबाती, वत्ति । चतिंका तत्‌० ( स्त्री० ) पत्ती विशेष, बढेर पही; धुँत्न तत्‌० ( वि० ) गोबाकार, गोल चस्छ, मण्डल | घर्ता तच्‌* ( घु० ) फ्थ, राह, रास्ता, मार्ग । चर्द्धन तव० ( ० ) इद्धि, बढ़ती, बढ़ना, उन्नति, इन्नव, अभ्युद्य । घद्धमान तत्‌० (वि०) श्रीमान्‌, साग्यमान्‌, उन्नतिशील । चद्धित तत्‌० ( वि० ) उन्नत, बढ़ा हुआ | घ॒र्म॑ बदू० ( छु० ) कवच, शरीर आण, छोटे का घख । जिसे योद्धा ज्ञोग युद्ध के समय धारण करते थे। क्षत्रियों का उपपद । चर्मा तत० ( ए० ) क्षत्रियों का उपपद, बढ़ई का पुक ओऔजार जिप्श्ले वह लकड़ी में छेद करता है । चर्य तव्‌० ( बि० ) श्रेष्ठ, उत्तम, प्रवर, घर, शिरोमणि, बह जिम संज्ञा शब्द के श्रन्त में श्राता है. उसकी श्रेष्ठता बतल्ाता है । घर्घेर चद० ( छु० ) अस्भ्य, जड्नली [ घ॒र्प तद्‌" ( ए० ) दृष्टि, वर्षा, साल, संचत्‌, बारह मद्दीनी का समय, ध्थिदी का खण्ड विशेष | घर्षेयांठ ( स्त्री० ) सालगिरह । घर्षण तत्‌० ( पु० ) बृष्टि बरसना, पानी पड़ना | चर्षो तत्‌० ( स्त्री० ) चर्षा काल, प्राबुट काल बृष्टि, पानी बरसना काल तदु* (छु० ) प्राइट बरसात । चर्चाशन त्तत्‌० ( छु० ) [ वर्ष + अशन ] एक चर्ष का भोजन, वर्ष भर की जीविक्ता ॥ चहीं तद्‌० (ु० ) मोर, मयूर ! चल तव० ( पु० ) सेना, चम्रू वलदेव ( ०) श्रीकृष्ण के बड़े भाई, बच्चराम । चलकल्ल तदू० ( पु० ) वल्‍्कलछ, छाल, स्वकू। वकला। घलभ तत्‌० ( घु० ) छक्ूूण, कढ़ा, हाथ में पहनने का कड़ा | बल्लभी तव्‌* ( स्री० ) वरामदा। [विशेष, वरियार । चत्ञा तत्‌० ( स््री० ) सेना, लक्ष्मी, धघरणी, 'मेपधि चल्लाका तव्‌० ( स्ली० ) बयुला, चक, वकपंक्ति, घकू समूद्द । बत्नाहक तत्‌* ( पु० ) मेघ, घटा, वादुक् । चल्नि तब्‌० ( ६० ) पूजोपद्वार, पूजा की सामप्री, पश॒ का नैवेध, पाताल का राजा | [छू । बद्कल्ल तत्‌० ( छ० ) छाल, छिलका, बकरा, छृत्ष चढदछु तत्‌० ( वि० ) मने।हर, सुन्दर । चढ्मीक तद्‌० ( घु० ) दीमक । चल्लक्नी तत्‌० ( स्री० ) वीणा, तस्वूश, वाद्य विशेष । चल्लभ वच्‌० ( पु० ) प्रिय, भियतम, स्वामी, प्र, प्रसिद्ध चछभ सम्प्रदाय के प्रवत्तेक श्राचार्य, ये दत्तिणी ब्राह्मण थे, इनके पिता का नाम महादेव भट्ट था | इनके प्र्यायी इनक्रो साक्षात्‌ विष्यु अगवान्‌ का अवतार मानते हैं । सम्मवत: ११३५ ६० में इनका जन्म हुआ था। [प्रिया सखी । चह्लमा तच्‌० ( ञ्ली० ) प्रिया, प्रियतमा, अत्यन्त चछ्च तव्‌* ( ६० ) भ्रढ्दीर, गोप, ग्वाला | चाल्ढी तत्‌० ( स्री० ) छता, बेल । दश चत्‌० ( वि० ) अधीन, अधिकृत, अधिकार युक्त, अधिकार, अभ्लुत्व । चशिए्ठ तत्‌० ( घु० ) मदपिं चिश्षेप, ये तह्मा के साचस घुओं में से थे, सप्त ऋषियों में से एक अन्यतम ये सी हैं । कंस प्रजापति की कन्या अ्रुन्‍्धति इनकी स्त्री हैं । इनके एक सौ पुत्रों के रास भावापत्न अयोध्या के राज़ा कश्मापपाद ने खा डाज्ा था । चशीकर्ण ( ईैंडरे ) चाच्य मसदपि बिम्यामित्र इतने स्वाभाविक श््ु थे। सूययवशियों के ये प्रोहित थे। चगीकझराण तव्‌० ( बु० ) श्रवीन छरने की प्रक्रिया, तन्त्र या मन्त्र वगेत मिससे वशीक्षरण दाता है। | वस्तु तत्‌० ६ खो०) ( संस्क्तत में चघछुन्च्रा तत्‌० (स्त्री० ) छथनी, सुधा । चस्वन्य तय० ( पु० ) वास येग्य ठदरन येग्य, बपने के उपयुक्त । डिम्प, सामग्री । नपुंसक ) पदार्थ, चशीमूत तत्‌० (वि०) दिजा,पध्चा दश में किपा हुआ ॥।क्‍ चस्तुतः ( भम्य७ ) टीकू ठीक, यगार्ष, सचघुच । घश्प तत्‌* ( वि० ) वशीमूत, अधीन, परचा ॥ चपद्‌ तव्‌* ( झअ० ) इससे देवताओं की दृवि दी जाती है । [ साव, ग्रास । बसति तनत्‌० ( सख्री* ) घास, वासस्थान, पुर, नगर, घधन द4व० ( १० ) बस, करडा चसनन्‍्त नत्‌० ( पु० ) ऋतुराज, फागु॥ और चैत मदीना, किसी के मत से चैत और चैशास्त वसन्‍्त ऋतु है | राग विशेष, शीतल, चेेचक, गोटी। दूत ( पु० ) छाकिज्ञा, आदर वृछ । घसदह ( ६० ) शिवजी का वादन, नादिया। घछ्ता तव० ( घु० ) मज्ला। चर्बी । चमस्तो ( पु ) पीला, पुर रंग विशेष चसोठ दे- ( घु० ) दूत, दरकारा ससीठो दे० ( स्तो० ) दूतता, दूत का काम । चंद्छु तत्‌० ( पु० ) गण देदता विशेष, बसु नामक झाठ देवता प्रसिद्ध हैँ |यधा--घर, ध्रुव, सोम, विदण्ड, अनक्ष, भनिल, प्रत्यूप और प्रभास । (२) चदि देश का राजा, इसका जग्म पुरुपश में दुश्ना था | इन्द्र छे अनुग्रइ से इ हैं. चेदि देश का राज्य मित्ा था। कु दिनों के याद अस्य शस्त्र छोड कर बसु तपन्‍््या करन छगे, इनडी सपस्या से इन्द्र का यटा भय हुआ, इन्द्र इन$डे समीत आये, प्रेम पूरक इन्द्र साप्ययासन बरने के दिये इनसे अनुरेच करने ढछगे। इन्दोंन इन्द्र की बाते मान थीं, और तदनुघार तपस्या छोर कर ये राज्यगासन करने लगे। इनझे साथ इद्ध की बी मित्रता हो गई थी, ये मस्यश्नेक से भी इस्द की मित्रता निमा सहते थे | इन्द्र ने ग्राकाशगामी भुझ विमान इन्हें दिया था, इसी विन्नाद पर चढ़ु- कर मे कभी कदी आकाश में घूमते थे। अनपुव इनका दूपरा नाप्त उपरिचर प्रसिद डुद्या था |-- देव (६०) भ्राइष्थचन्द्र ढक पिता ।-घा (द्ी०) धर्पी, इृध्वी ।--मी ( स्ट्री« ) बसुघा ! चम्त्र तइ० ( पु० ) चसन, अूपडा । बह दे० ( सर्त० ) अन्य घुदप विशेष | चहला दे० ( घु० ) धाषा, चढ़ाई, भ्राक्रमण । यर्दां दे* ( पृ० ) उस स्थान पर । बह तत्‌» ( पु० ) भाग, अप्नि, धनल । चा तत्‌* ( धु० ) विहत्य, पदान्तर, अथवा । चांशी तदव० ( ख्री० ) मुरली, बंशी । बाकू, चास्य ( पु०) मापा, वाणी, दधन --चातुरी (म्त्री०) बचनपहुता ।--देव (६०) दृथभीव, देवी ख्री, शारदा, सरस्वती ।--पति (१०) हयप्रीव, धृदस्पति, देवगुद ।--पुद्ध (पु०) सपानी मूणढ़ा । चाऊुची दे० ( म्त्री० ) झ्ोपध विशेष । चाक्यार्थ तव० ( पु ) [ वाक्य + भर्थ ] दाक्य का अर्थ, शब्द बाघ | चामूज्ञाल तत० ( घु० ) प्रप्ख, बाक्‌ समूद । चाग्द्त्त ततू० (पु) पचनदत्त, बचत से दिया, पु प्रकार का विवाद । घशुरा, चागुरी तत्‌० (५०) झगधंधन, पशु फँसाने का जाल, फन्‍्द्ा। यया +- मात चरण सिरनाय, चले तुरत शझ्टित हिये। वागुरि विफ्म तोराय, मनी भाग स्टथ सागवास | +>तसक्ाषण चाच चत्‌० ( थु० ) बचने, पाक वाक्य, मापा, येली अद्गरेजी ज्ञेरी घड़ी | वाचद्ू तत्‌० (यु० ) शद, अरथयेधक, श्ररेघन करने वान्‍्ठा, बाँचने धारा, पुराणवक्ता कथक | चाचनिक तत्‌० (दि०) चचन, कथित, वचन सम्बन्धी । चाचा ठतद्‌+ ( पु० ) बकू, वचन, बच । चायाल तद्‌० ( जि० ) वर्शी, पष्पो, कऋवादी, गपे- डया, झुफ़र । यायस्पति ( पु० ) बृहस्वति, देवगुद चाच्य तद्‌० € पु० ) यक्तम्य, येलने देग्य | ( घु० ) दोष्य भर, शब्दार्थ । चाछिड़ वाकिड दे० ( अर० ) वाइजी, धन्य, जिय वाक्य । वाज़ दे० ( पु० ) पच्ची विशेष | चाज्नपेय तव॒० ( छु० ) यज्ञ विशेष |--ी तद्‌० (घु० ) कान्यकुब्ज आह्यमणों की श्रेष्ठ पदवी। चाज्ञी तव॒० ( प० ) घोड़ा, अध्व । खावछा तत्‌० ( सत्री० ) आकांछा, मनोरथ, सदा । बाहिछित तत्‌० (वि०) आकांचित्त,इष्छित,अभिलपित | घाट दे० ( घु० ) मार्म, पथ, अध्वा, राह, डगर । चादिक्ला तत्‌० ( खी* ) फुलवाड़ी, बगीचा, आरास | चाड़ दे० ( घु० ) स्थान, बाढ़, सान | चाड़ी दे” ( छ्ली० ) भ्रगित, उपयन, उद्याल, बगरीचा | घाण तव्‌० ( घु० ) तीर, शर, पहु, काण्ड । बाणाखुर ( छ० ) दैल्य राज बलि का पुत्र। चाणिज्य ( पु० ) ब्यापार, सौदमरी । घाणी तव्‌5 ( स्री० ) बात, बोली, शब्द, चचन । सात तत्‌० (घु० ) बायु, पवव, हवा, रोग विशेष, गठिया ।--शूत्ल ( पु० ) शेर विशेष । घातय ( छ० ) सप॑, साप, द्विरत, खग । चातूल तत्‌" ( प० ) बात रोगी, उन्‍्मत्त, वायुग्रस्त । चात्सक्य तत्‌० ( छु० ) कया, अज्जुकम्पा, स्नेह | घादू' तत्‌० (१०) विवाद, चाक कत्तद, शाखाय, लम्मा- पण, आल्ाप । साद्रायण (पु०) चदरिफाश्रम पाली व्यास मुनि। वादासुधाव्‌ -तव० (घु० ) उत्तर पत्युस्र, रगढ़ा, कलदे | पु धादी तव* ( ० ) विरोधी, मुद्दे, प्रथम 'अभियेग करने बाला । [ बजन्त्री, बजाने वाला । चांद्य तत्‌॒० (3० ) वाज्ञा, वाद्य यन्त्र ---कऋर ( पु० ) चात्नप्ररुथ तत्‌० ( घु० ) तीसरा झाश्रम । चानर तव्‌० ( पु० ) ऋषि, बन्दर, सर्केट, बंदर । घानसमसुख ( छु० ) नारियल, बंदर का झुँह | चापी तत्‌० ( ख्री० ) तढ़ाय, बावली, सरोचर | घास तत्‌० ( 9० ) बायाँ | ( वि० ) विरोधी, शन्रु, अशुमचिन्तक, अद्धितकारी | घामन तत्‌० ( धु०) बौनः, रू, हस्व आकार वाला । चामा तव० ( छी० ) चारी, ख्री ।--चार (एु०) छोल सम्प्रदाय, शाक्तमत का पुक भेद, मद्यर्मास सेवन श्ादि जिनकी धर्म किया है ! ( हैछ३ ) बालखिंदय चायु तव्‌० ( घु० ) पवन, वयार, बतास, हया। जञयअस्त ( वि० ) उन्प्रत्त, वायु पुत्र हुमाव । बार दे० (घु०) ठोकर, आक्रमण, घाव, पाला, बारी । चघारक तत्‌० ( घु० ) निवारकर््ता, निषेदक, सक्- चैया, चाधक। [विद्न, ह॒स्ति, हाथी । चारण ततव्‌० ( छु० ) झटकाब, रुकाद, रुकावट, बाधा, घारन दे० (9० ) श्रपेण, भेट चढ़ाना, न्योद्धादर करना, बलि, अटकाद, सेक, रुकावट । बारना ( क्रि० अ० ) घेर लेना, अपैण करना, सेंट चढ़ाना या स्पौछावर करवा । यारा दे० ( पु० ) सह्ताई, बचाई, बचाव, निद्धावर | चाराज्ुना तव॒० ( ख्रोौ० ) दिव्याइना, स्वर्गीया स्री | घाराह ततव्‌० ( छु० ) शूकर; सूझर । चारि तद्‌० ( धु० ) जल, नीर, अपू, पानी, पम्बु । चर ( घु० ) जलगत्तु, जलचर ।-ज (पु०) कम्रछ, पद्म ।-द्‌ ( घु० ) सेघ, जलद, तेयदु, घटा, घन ।--थिं ( छु० ) सस्ते, सागर । बारी दे० ( श्री० ) घर, मकान, गद्द । चारीश ( पु० ) समुद्र, सागर, सिंधु । चारुणी तत्‌० ( स्थ्री० ) मदिरा, शराव, पश्चिम दिशा, पश्चिम, वरुण की ।. [जाप ( ४० ) बातचीत । चार्ता तत्‌० (स्त्री० ) बृत्तान्त, बात, ससाचार [-- बार्तिक तत्‌" ( घु० ) सूत्रों की टीका, सूत्र में कहे नहीं अथवा दो बार कट्दे बिपयों का विचार जिस अन्य में हो । चार्द्क्य तच्‌० ( छु० ) बद्धावस्था, बुढ़ापा; छढ़ौती । घार्षिक तव॒० (वि०) वर्ष में हे।निवाल्ा, साम्पस्सरिक । वालखिक्य ठच्‌० ( 9० ) अँगरुष्ट प्रमाण शरीर चाज्े खाठ हज़ार महर्पित्रों का समूह । इन्हीं की तपत्या से गरुड़ उत्पन्न हुए हैं | पुक समय सहर्पि कश्यप - ने पुत्र की इच्छा से यज्ञ प्रारम्भ किया था। उन्होंने इस यक्ष में छकड़ी ले आने के लिये इन्द्र और चालखिल्य के वियुक्त किया घा। समस्त बालखिल्‍्यें का समूद्द बढ़े कष्ट से एक खपटा ले आ रहा था, क्योंकि ये बहुत ही छोटे और दुर्वछ थे। रास्ते में जकपूर्ण पक गोव्पद में वे छूब रहे थे, बछाभिमस्तानी घुरन्दर यद्द देख कर उपदहास पू कि पसस दाक हम चत्वे गये |! इससे उनके शा पा०-ज>य चाब्मीकि बड़ा कष्ट हुआ आर इस इन्द्र से अधिफ बछशाली दूसरे इन्द्र की यज्ञ द्वारावे प्रार्थना करने छगे। सब इन्द्र की प्रार्थना करने पर महपि कश्यप ने कहा, देपो इनके ब्रह्मा ने इस्द्र बनाया है और « मुम दूसरे इन्द्र की धरार्थना करते हे। इससे बह्या के निपम का तिरस्‍्कार होगा और दम तुम्दारी मी आधेना निष्फत नहीं करना चादवे हैं, अतएव घुस्दारा प्राधिंत इस पतगेन्द्र दो, वालसिद्यें ने कश्यप के प्रस्ताव के स्वीकृत किया । चाह्मीकि तव० (पु० ) पिश्यात रामायण के कर्ता मुनि! ये अपेध्याधिपति रामचन्द्र के समय में थे + परन्तु रामचन्द्र से ये अवस्था में यहुत बड़े थे। अगद्योध्या के दिण और गहा बहती हैं, गग्ना के दर्विण की झोर का वास आनायें की बस्ती थी, थह प्रदेश ज्ज्नक्ष था। उसी अड्डल के बीच से तमसा नदी भ्रवाद्दित हुई है, इसी नदी के तीर पर महपि बाठसीकि का झाश्रम है। इसी आश्रम में इन्होंने अपने मुवन विश्यात् काध्य की रचना की है। ये ही भारत फे आदि कढ़ि हैं) कोई कहते दें कि भयेध्या से मथुरा लाने के मार्ग में वाढमीकि का आश्रम है, अतपूथ छव॒यासुर का वध करने के छिये जाते हुए शप्र॒प्त याल्मीकि के आ्राश्रम में ठदरे थे। इनके डाइट दाने की कथा आप रामायण में नहीं है | यावदृक त१० ( घु० ) वक्ता, विख्यात वक्ता, अत्यन्त योत्ने बस्ला । चाष्प ( स्प्री० ) भाप । घास तत्‌* (१०) स्पाव, रहने का स्थान, गन्ध, सदक | घासना ( स्त्रोर ) इच्छा, प्रत्याशा । घासनन्‍्ती दत्‌« ( स्त्री० ) ता विशेष, साघवी छतता | बासच € पु० ) देवताओं का राजा, इन्द्र । घासर ठव० (घु० ) दिन, दिवस, दिवा, बार, तिषि चासित ठद॒* ( वि* ) सुगन्धित । दासी तद्‌० ( वि० ) बल्ेेया, रहने वाछा, निवासी, याशिदा | (१०) ठयदा अ्रक्छ,माफ़ निकछा भोजन, कट का बना हुआ मोजन | घाप्ुक्ति ( ६० ) सर्भ के राजा का माप । ( ६७४ ) विक्रमादित्य घाछुदेव ( पु० ) बसुद्देव के घ॒च्र, श्रीकृष्ण । घास्तव तत्‌० ( पु० ) यथार्थ, निश्चय, ठीक, सप्य । घास्तूक ( पु० ) घथुई का साग | घास्प तदु० ( ध० ) काप्प, माफ़ चादिनी तत्‌० ( स्त्री० ) सेना, चमू। चाहा तघु० ( वि० ) बाहर, बाहरी, धाहर का । वि तत्‌» ( उप० ) वियेश, विशेष, निश्चय, ईपा, थोड़ा, शुद्ध, श्रवछम्बन, शान, पत्ति, चाढस्य, पाछठन। विकड्डत ( ५० ) कटाई । चिऊरद त्तत» ( वि० ) मयानक, भयद्टर, क्र | विक तत्‌० (वि०) विह्ठ, उद्दिप्न, ब्याकुछ, श्रवूरा, भसरपूर्ण । विकरात्न तत्‌० (दि० ) श्रतिशय भयानक, घोर भयक्ूर, डरावना, भयप्रदा, भयजनक् |... विक्द्प तत्‌० ( पु० ) सन्देद,[सेशय, अ्रोन्ति, अम, अनिरचय | !ः विक्राल ( वि० ) डरावना, जिसे देखने से डर छगे | विक्रल ( वि०) पब्रद्गाया हुआ, ब्याकुछ, विहड । विकार दद्‌० (9० ) विकृति, परिवर्तन, परिशृत्ति, डछगयफेर, यदक्षाव । विकसन ( छु० ) खिन्चता, फूछना, प्रकाशित द्ोना। --विकसित ( बि० ) फूछा डुंसा | विक्राल तव्‌० ( ६० ) गोधघूठी, सन्ध्या,.सायक्टाद । विकशन तव्‌० ( पु० ) प्रकाश, प्रफुछवा, खिलना | विकाश ठव्‌० ( प० ) अकाश, रदूमेद, व्यक्ति | सिद्धान्त (घु० ) पक प्रद्मर का दरोन सिद्धान्त । विकीरण ( प्र ) विखेरना, छितराना, पंछनता | घिरूत ठत्‌ ( वि० ) विह्प, अखच्छ, मछ्चीव | (६०) चणा | [परिवत्तेद, ददछात । विकृृति तर» ( स्री० ) विधार, अ्रम्यवामाव, विक्रम तव्‌० ( प० ) पराक्रम, यछ, शक्ति, सामध्यं, शुरता, चीरता, प्रभुता, बीय॑॥ विक्रमादित्य दद्‌० (घु० ) [ विक्रम + भादिय ] इजपिनी के विव्यात विद्याग्रेमी राजा । ये स्वयं -पण्डिद थे, और पण्डितों को बहुत धन देकर इनकी विधा का आदुर #रठे थे, इनके सम में विक्रम ( सर्वोत्तम नी पण्डित थे, जो नवरत्वे क्ह्दे जाते थे । डन पंण्डितों के नाम हैं कालिदास, वररुचि, अमरघलिंह, धन्वन्तरि, उपणयक, चेतालूसद, घट- कपेर, शंकु और वराहसिद्दिर | बहुतों के सत से छे० सन्‌ के ४६ घ' पहिले विक्रम का समय माना गया' है | इनकी विश्वसनीय जीवनी कोई सहीं मिल्ठत्ती । चिक्रमी तत्‌ू० ( वि० ) वकववान, बली, पराक्रमशात्वी, चीर, विक्रम के समये में उचका चलाया चत्खर की गणना, सम्वत्‌ । घिक्रय तव्‌० ( पु० ) बिक्री, बेचना, सार खपाना । चिक्रपी, विक्रेता वच्‌" ( पु० ) बेचने वाला, विक्रो करने बाला | विक्षिघ्त ( चि० ) पागल, जिसकी छुद्धि ठीक न हो । विच्तोप तव्‌० (पु० ) ब्याघात, बाघा, व्याकुछता, फेंकना, दूर करना, छोड़ना, त्यागना । विख्यात तव* ( थि० ) प्रसिद्ध, स्यातिप्राप्त, कीत्ति- मभान्‌, यशस्घी । विख्याति त्तत्‌० ( स्री० ) कोति, यश, प्रसिद्ध । विगत तत्‌० (वि०) गया हुआ, बीता हुश्ा; व्यतीत । +-श्रम ( वि० ) श्रम रद्दित, बिवा थक्राबट का । विगति तव्‌० (स्त्री०) विरेधध, बिगाड़, खुरागी । विग्हंण तव्‌० (9० ) तिरस्कार, निन्‍दुत, निन्‍्दा करना । [ शुण का | विगुण तव्‌० (वि० ) ग्रुणद्वीन, विपतगुण, प़िना विगोये दे* ( बि० ) छिपा हुआ, ग्रुप्त, लुका । विश्रह् तच० ( छु० ) विरोध, लड़ाई, युद्ध, संमाम, द्वेष, शरीर, देद, अज्ञ, प्रतिमा । विघटन दद्‌० ( छ० ) श्रकगाव, घुयक्कार, वियेषग, अपक्ग अ्रक्म होना, खिकता, फूछना | विघात तत्‌० ( छु० ) चित्त, अश्रद्चच, रुक्ावठ, बाधा, व्याघाद, ख्टक, नाश, ध्यंस, बिगाड़ ॥ विघातक त्तत्‌» ( छु० ) वाधक, नाशक, घावक । विप्न तव्‌ू० ( घु० ) बाघा, अटकाव, रुक़ाव। -राज ( ४५ ) श्री गणेश जी | विचत्तण तत्‌० ( पु० ) चदुर, निएुय, इद्धिधान्‌। विचरण उद्‌० ( छु०) अमण, घूमना । विचत्ञ तत्‌० ( पु० ) चशु, अस्थिए, अघीर | ६७४ ) विड़म्बित विचलना दे० (क्रि०) विचजित होना, श्रघीर द्वोना, असुकझरना | [ निर्णय; मानसिक प्रश्निप्राय | विचार तत्‌० ( ४० ) ध्यान, सोच, अच्ुुमान, तत्व- विचारणोय तद्‌० ( ० ) विचार करने येग्य, निरय चेस्य । विचारित तत्‌० ( थि० ) निर्णीत, व्यवस्थापित | विचित्र तत्‌० ( वि० ) अनेक रंग का, अदभुत | पिचित्रवीय ठत्‌० ( ४० ) महाराज शान्तज्ु का एुप्त, काशिराज की कन्या अम्बालिका और अम्बिश्ध इनके! व्यादी गई थीं। अ्रस्थालिका के गर्भ ले पाण्डु और अम्विकां के गसे से धुतराप्द्र उत्पन्न हुए थे । पिच्छेर तव्‌* ( ए० ) वियेतग, पार्धक्य, भेद, श्रन्तर | चिजन तव्‌० ( वि० ) निर्जन, जनरहिते, बनशून्य; पिज्ञय ततू० ( घु० ) जब, जीत । बिज्ञया तव्‌० ( स््ी० ) भाँग, बूढ़ी) तिथि विशेष, झुधार श॒क्ता ११ एकादशी, हुरगा। विज्धादशमी (खत्री० ) दशहरा, आश्विव शुक्ल दशमी का विशेष नाम है। इस दिन राम ने रावण के मार कर लझ्क जीती थी । [दूसरी जाति । विज्ञाति सद० ( स्री० ) भ्रन्य जाति, मिन्न जाति, पिज्ञ तत्‌० ( छ० ) परिडत, चतुर, प्रवीण, अभिज्, ज्ञाता, चद्धिमान्‌, विद्वान ।--ता (स्त्री०) परिड- ताईं, बुद्धिमावी, प्रवीणता, चतुरता । विज्ञप्ति तत्‌० ( ख्ली० ) विज्ञापन, इश्तिद्दार । विज्ञानी ( जि० ) ज्ञानवान, पणिडत, अति चततुर । विज्ञान तत्‌० ( छु० ) शिल्प और शाख्र सम्बन्धी ज्ञान | | विज्ञापन ठव० (घु०) जाहिरात, सूचना (--पत्र ( ४० ) खूचनापत्र, जाहिरात । विद तत्‌* ( ४० ) ज़ार, भछुआ। खिठप तव्‌० ( छु० ) छच्, पेड, रुख यथाः-- सुरुष कुयोग्री ज्यों उरगारी। मेह घिटप वहीं सकत उपारी ॥ रासायण विडुस्थना तव॒० (स्री०) छुःखदायक, दुःख, दिरस्कार, अपमान, अजुकरण | [स्कूब । विड्स्थित तत्‌० ( बि० ) अपसानित, निल्‍्दित, लिर- विड़ाल विड़ाल तत्‌० ( पु० ) बिल्ली, मार्जार, बिलार । पिवयडा तत«० (ख्री० ) मिध्यावाद, वास्प्पञ्ञ, शाख्धाय॑ में दूसरे का पक्त खण्डन कश्ने की रीति । वितरण तत्‌ (पु०) दान, ल्याग, बाँटना, पार होना । वितरक वद्‌० ( पु० ) अनुमान, चिचार, तके । वितल दत्‌० ( पु० ) पाताल, विशेष पितस्ति तत्‌० ( खो० ) विराँद, बित्ता, वीता ! वितान तन्‌० ( पु० ) चाँदनी, चेंढवा । छठृप्ता वितृष्ण दत्‌० ( वि० ) तृष्णाद्यीन, निस्ण्द, विराण, वित्त दत्‌० (पु० ) धन, ऐश्वर्य, विभव। [होना। विथम्ना हव्‌5 ( क्रि० ) अथूरा पढा रहना, वन्ध्या विद्ग्घ तत्‌० ( घु० ) चतुर, प्रदीण, अनुमती ! विदर्भ ( धु० ) महाभारत के समय के पुक देश वा नाम जहाँ प्रसिद्ध रानी दमयन्ती का जन्म हुआ था, बगाल का एक जिला । विदारण ठत्‌० ( घु० ) फाइन, चीरन, छेदन । दिदिक तत्‌* ( खी० ) विदिशा, उपद्शा ६ विद्त तब» (वि० ) ज्ञाव, जाना हुआ, बुरा हुआ । पिदिशा तत्‌७ ( स्री० ) नगरी विशेष, उपदिशा | विददीर्ण तव्‌ू७ ( बि० ) फाड़ा, चीरा, विदारा हुआ | पिदुर तन» (घु० ) कृष्ण द्वौपायन च्यास के औरस से और विचित्र वीर्य वी श्री अम्पिस्म थो परिचारिका फे गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ये अन्धराज धत- राष्ट्र के मन्त्री थे, परन्तु पाणडवों का अधिऊ पद करते थे। ये न्‍्यायपरायण और सल्यवादी ये। लिस खसय दु्येध्यद अएदि चारणावत सणर में पाणइवों के भेव कर जतुमुद में डन लोगों के मारने का विचार करते थे, उस समय बिदुर की ही हृषा से पाणढयों फी रचा हुई थी । पाण्डयों के विवाद के पश्चाद्‌ छतराष्ट्र वी आज्ञा से ये पाताल राज्य में गये थे और व्ाँ से पायडयों के लिया लाये थे । मदहामारत युद्ध के समाप्त होने पर जब सुधिष्टिर राजा हुए थे, तव ३४ वर्ष तक विदुर उनके साथ इलिनापुर में रद्दे थे। तदन्तर शतराष्ट्र के साथ वन गये ओर यहीं उन्होंने येगरल् से शरीर दोड़ दिया। कहते हैं ये पूर्वजन्म से यम थे। परन्तु अशिमायदन्य के शाप से शुद्ध येनि में उत्पन्न हुए थे। ( ६७६ ) विधायक चिदुला तव्‌» ( ख्री० ) सौवीरराज महिपी, ये बीर महिला और दीर्येवदी स्ली थीं। इनके पति की झत्यु के बाद सिन्घुराज ने इनके राज्य पर भ्ाक- मण किया । प्रयल्ल शत्रु के आक्रमण से इनया पुत्र सज्ञय पहले डर गया था, परन्तु घुन माता के उत्पाद वाक़्यों से उत्तेजित द्वाकर श्रवल शत्रु सिन्धु- राज का उसने सामना किग्रा और उन्हें हरा वर अपने पिता का राज्य लिया । [पाला झुसाहव । विदृषक तत्‌5 ( पु० ) मससरा, राजा के साथ रहने विद्ठुपी ( खो० ) परणिडता, शिक्िता स्री । विदेश तत्‌० ( धु० ) अन्य देश, भिन्न देश, अपने देश से दूसरा देश | विद्देशी ठद्‌० ( बि० ) परदेशी, प्रवासी। विदेदद तत्‌० ( घु० ) जनक, मिथिला घा राजा +-- जा ( स्ली० ) सोता जी। [ सन्निद्टिद, उपम्यित । विद्यमान तत्‌० (ग॒ु० ) वर्वमान, जीवित, स्थित, पिद्या त्तत० ( खी० ) शान, शाज्र ज्ञान, ग्याष॑ ज्ञान।--धर (१० ) देवयेनि विशेष गुणी, परिढत, कारीगर, पसिडत |-र्थी (० ) [विद्या+भर्यी ] द्वात्र, शिष्य, पढ़ने बाला, पदैया ।--लय ( घु० ) [ विद्या +श्राज्षय ] पाठशाला, पढ़ने का स्थान ।--धान ( थि० ) पण्डित, विद्वान्‌ । विद्यत्‌ ( द्यो० ) चपला, तद्वित, तिदुली । विद्रम ठव॒० ( पु० ) मूँगा, प्रवाल, रब विशेष । विद्राह सव्‌० ( छु० ) विशेदी, विद्व प, और ६ विद्रोही तत० ,(पु० ) बैरी, शत्रु, भ्रदित, भ्रह्िव- कारक । पिद्दवान्‌ तव्‌० ( 4० 9) विद्यावान्‌, परिदत, पढ़ा । विद्वेंप तत्‌० ( घु० ) बैर, परिरोध । पिघ तठद॒० ( खी० ) विधि, रीति, प्रफार, ढव, दाँचा। विधवा तत्‌० ( ख्री० ) रढा, राइ, पतिट्टीना खरी । विघातज्य तत्‌० ( थि० ) फरने येत्य, विधेय । विधाता सत्‌० ( पु० ) गद्या, सष्टिकर्ता, साग्य विधान व» (५० ) विधि, रोति, शाम्रोक्तरोति, उपाय विधायक ठव्‌७ ( वि० ) विधान करने घाज़ा, निर्णय ऋरनेवाला, सिद्धान्त करने वाद्धा, सिद्धान्त वाक्य । विधि विधि दव्‌० ( खत्री० ) ( संस्कृत में पुलिझ्धः ) व्यवस्था, विधान, उपाय, उद्योग, भाग्य |--दत्‌ ( अ० ) विधिपूर्वक, यथारीति | चिधिन्‍्तुन्द्‌ चच० ( पु० ) राहु, ऋदद विशेष । विज्लु दव्‌० ( पु० ) चन्द्रसा, चन्दे । चिघुर तव्‌० ( पु० ) विकल, स्त्रीहीन पुरुष । विध्रुवद्‌नी (खत्री० ) अति सुन्दरी, चन्डमुखी, चन्द्रमा को तरह सुन्द्र सुख बाली । [ गया। विध्वूत तव० ( जि० ) कम्पित, कैपाता हुआ, हिल्लाया विधेय तत० ( पु० ) होनहार, कर्तच्य । विष्व॑ंस दल्‌० ( १० ) नाश । विध्वरुत तत्तू० ( षि० ) नष्ट, विनष्ट । विनत तत्‌ू० € बिं० ) नन्न, प्रणव, झुका हुआ। विनता तत्‌० (स्त्री० ) गरुढ़ की माता, सह ऋश्यप की सन्नी । [ अछुनय, विनय । बिनति, विनती तद्‌० ( स्त्री० ) नम्नता, निवेदन, विनय :तत्‌» ( पु० ) बिबतो, शिष्टठा, शिष्टाचार, नमत्रता । चिट तत्‌० ( बि० ) बिगढ़ा, बिनाश प्राप्त । विनश्वर ततू० (बि०) भह्ुर, नाशी, नाश होनेवाला । बिना तव्‌० ( अ० ) छाइकर, रहित, अतिरिक्त, मिन्न विनाथक तव्‌० ( घु० ) गणेश, गजानन, नग्न करने बाला । विनियेशग ( छु०) स्थिर करना, बैठाना । बिनाश तत्‌० ( पु० ) ध्वंस, नाश, , संहार, मरण | पिचाशित शदू० ( वि० ) विष्वस्त, नष्ट, नट्ट किया हुआ, नाश किय्रा हुआ । [ विपाद । विचिपात' तव० (छु० ) पतन, विपद, अधःपात विनिमय तत्त० (घ०) ल्लेनदेन,अदुल बदल, परिवततेन | बिनीत तत्‌० ( बि० ) विनयी, नम्र, सुशीक । विनीतास्मा त्तत्‌० ( बि० ) नत्न, सुशील | विनेता त्तत० ( घु० ) शासक, शिक्षक, राजा | विनोद तव्‌० ( पु० ) कौतुक, खेल, हँसी, उद्धा । विन्दक तत्‌० ( गु० ) लाभयुत, सलाम ।[कशिका | विन्दु तच० (० ) बुँद, अजुस्थार, शल्य, कंणा, विस्ध्य तच्‌० ( छु० ) पर्वत विशेष ।--गिरि तल» ( छु० ) विन्ध्याचल पर्वंद +--पासिनी (स्त्री०) दुर्गादिची, अ्रष्ठसुजा (६ ईड७ ) पिसारा विन्ध्याचल तच्‌० ( घु० ) एक पर्बत का चाम, एक नगर का नाम, जहाँ विन्ध्यवासिनी देवी हैं ! विन्यस्त तत्‌० (वि०) स्थापित, थ्रथाक्रस शत, क्रम से रखा हुआ । विन्यास तत० ( पु० ) स्थापन, रचना; रखना । विपक्त तत्‌» ( छु० ) विरुद्ध, पक्त, चैरी का पक्त । विपत्चि तत्‌० ( खी० ) आपद, विर्द, दुम्ख, दुर्गति । विपथ ठत्‌ ( घु० ) छुसार्ग, छुरी तरह । विपद्‌ तद॒० ( घु० ) आपदा, दुर्दशा, दुःख । बिपरोत तत्‌० ( वि० ) डल्लटा, वास, विरोथी, शत्रु । विपयथ तत्‌० ( वि० ) विरोध, उलटा, इधर उधर, अस्तन्यस्त । विपयंस्त (छु०) ब्यतिक्रान्त, डलट पोर करने घाला ) घिपर्यास (पु० ) विपरीत, उलदा । सिपतत तत्‌5 (एु०) क्षण. एक पल का सॉव्वाँ भाग । विणश्चित्‌ तव्‌० ( घु० ) विद्वान, दोपज्ष, डुद्धिमान्‌ । बिपाद; तत्‌० (पु०) परिणास, फल,कर्म भोग, सिद्धि । विपिन तत्‌० ( छु० ) अरण्य, जजल, चन । विपाशा (थी०) पंजाब की व्यास सदी का दूसरा नाम । बिदुल तत्‌० ( बि० ) प्रचुर, अधिक, चहुत, गम्भीर, बड़ा विस्तृत । दिप्र तच० ( घु० ) ब्राह्मण, द्विज, श्रोत्रिय भाहाण, चेदज्ञ माहाण | [खाया हुआ। विप्रल्न-घ ततच्‌० ( वि० ) वश्िद, प्रवारित, घोखा विप्रलब्धा ( ख्री० ) नायिका विशेष | जो ख्त्री प्रिय से मिलने के लिये संकेत में जाकर यहाँ पति के न मिलने पर दुखी हो, डसी का नाम । विप्रत्लाप ( घु० ) अनधंकारी वाक्यों का कहना, विलप करना । विल्लव तव० (जु०) उपह्व, इलचल । [वधा, अ्रकारथ । विफल वत्‌० ( वि० ) निप्फल, फल रहित, निरथंक विभक्त तत्‌» ( वि० ) बढ हुआ, इबकू प्रथकू, अलग आअक्षग॥] विसक्ति दच्‌० ( खो० ) अंश, बॉ, डुकड़ा, प्रद्यय, कारकों के चिल्ह 3 [ सं॑चत्सर का मास , विसष उच० (घु० ) सम्पति, धन, ऐश्वये, एक विवाद तत्‌० ( घु० ) भाग, अंश, इुकड़ा, घाँद सीमा मद 7 विमाजक ६ ई७८ ) विराज न अमन मरा ड जम व कक न जल जिम कक हम पा, अं ८38 की शतक तक नजर टकिलज लक विभाजऊ तब्‌० (० ) अँगकर्ता, विभागऊत्तों, एथर्‌ | विस्य तद्‌० ( घु० ) मण्डल, प्रतिदिम्ब, छात्रा, सूत्ति, करने चाला । दाँठा हुआ। घसदीर, फल विशेष, झुन्दुरग का फल ॥ विभाजित तत्‌० ( वि० ) शंशित, बऔँश किया हुआ, | विम्बिसार तत्‌० ( छु० ) सगध के आ्राचोन राजा, ये विभावना ठत्‌० (खी० ) भर्थालझ्ार विशेष, यथा--- भये घाज बिन हेतहूँ वरने है जिहि दौर । तहँ--विभावना होती है मापत कवि सिरमेरर । उद्ाइरण-- साहि तने शिवराज की, सहज टेव यह ऐन । अनरीम वारिद हरे, अन्म्वीके अरिसैन । --शिवराजसूपण । पिमाचलु ( पु० ) सूे, मदार का पेढ़, अग्नि, चन्ठ ॥ विभीषण तत्‌० ( ब० ) भयानफ, भयड्भर, विरुराल, डरौना । ( पु० ) लझ्भापति रावण का चोदा भाई जिसे रावण फो मार कर रामचन्द्र ने लड्ढा की राजगहदी पर बैठाया था । [ डर यताना। विमीपिका तत्‌० ( ख्री० ) भयप्रदर्शन, भय दिसाना, विभु तन» ( पु० ) स्वामी, प्रभु, व्यापक । विभूति तत्‌» ( ख्री० ) ऐश्व्ये, धन, भस्म, रास । विमूषण तव्‌० ( पु० ) अलझ्र, गहना, शोमा । खिमेद्‌ तत्‌० ( घु० ) विच्चेद, मिक्षता, एथझता ।--क ( ५० ) विभाजऊ, विस्देदक । विम्रम दव० ( चु० ) स्त्रियों की स्वाभाविक चेश विशेष, घनरादट, प्रिय आगमन से घयरा जाना । पिप्तश, विप्रशन तनू० ( छ० ) विचार, अजुप्थान, परामर्श । [ साफू, सुयरा । विमल तत्‌० ( वि ) मल रद्दित, निर्मल, स्वच्छ, पिमाता तद्‌० ( ख्लो० ) दूसरी माता, सौतेलो मा । विम्तान तव० ( पु० ) रय, गाढ़ो, देवयान विशेष, जे। अआवाशपथ से चलता है। लेक विशेष । चिधुक्ति दत्‌ू५ (वि० ) छुदे हुभा, छुद्दा, वन्‍्धन रद्वित! धिमुक्त वत्‌ ( ख्रो० ) भोद, चुटकारा, उद्धार, सुक्ति| पिप्रुस़ तद० (वि०) विरोधी, पराद मुख,फिरा हुआ। पिमुग्ध ( वि० ) अज्ञान, सूद, झूसे ६ विमूद्व तत्‌० ( वि० ) अज्ञानी, अनभिज्ञा, अठिशय सूसे । [क्त करना, ह्यागना । विमान तव्‌० (३०) [ वि+झुच्‌ + श्रवद ] दोइना, बुद्धदेव के समकालीन थे शौर उन्हीं से इन्होंने बौद्धधर्म की दीक्चा अद्ृणय की थी। इनके पुत्र पा नाम अजातशतु था । विम्युक तद्‌० ( घु० ) लोल, ममूका । विश्वोग तत० (६० ) विच्छेद, विद्योह, बिल्ुढ़ना, विरह । वियोगी तव्‌० ( छु० ) विरही । वियोगिनी ( ख्री० ) विरदिणी स्त्री का भाम, प्रिय- विद्वीन खी । विरक्त तत्‌» ( पु० ) चैरागी, बासना शून्य, बीतराग, ससार विरामी । [रचा हुआ । विरचित तल्‌० ( वि० ) बनाया हुआ, निर्मित, रचित, विरचना ( क्रि० अ० ) बनाना, रचना, पैदा करना, उत्पक्ष करना । विरख्ि तत्‌० ( धु० ) ब्रह्मा, प्रजापति, विधाता । विरज्ञ तदू० ( बि० ) क्रोधरहित, थरदह्वारणल्य, निरमिसान । विरज्ञा ( ख्री* ) गो लेक की एक नदी या माम, एक पौधे का नाम, राबिका की एक ससी का नाम, दूव। [ जिसने प्रोढ़ दिया है । पिरत तत० ( वि० ) निद्धत्त, छोड हुआ, विरक्त; विरनि ठत्‌७ ( स्त्रो० ) चैराग्य, द्याग, निसएद्ता । विस्थ ( वि० ) विना रथ का, रयद्दोन, पैदल । विरद्‌ तत॒० ( धु० ) बखान, प्रशसा, गुणयान । विस्द्रैत देन ( घु० ) गुणगान करने बाला, माद, चरण, बन्दो, विरद्‌ बखानने वाला। [ बिरत्षा विरल तत्‌० (वि० ) अजुपम, अनूठा, अनेखा, विरस तत्‌० ( वि० ) रसद्दोन, नीरस, पिना स्वाद का ब्रेज़ञायफा। पिरद्द तत० ( घु० ) वियोग, विद्योद, विद्युन । विरहित ( वि० ) वियेागी, बिद्ुडा हुआ । विराण ततू« (३० ) पिरक्ति, चेराप्प, ससाए में आसक्ति का त्याग, ममता स्याग | दिद्ज्ञ रत्‌० ( घु० ) क्षत्रिय, आदि पुरुष, विष्ण का स्यूछ़ रूप ।--मान ( घु० ) शेमायमान/सेद्ता भिसज ( हुआ, विराजित ।--ता ( क्रि० ) शोसित होना, अच्छा सालूस-हैा।ना ) विरुज्ञ त्तू० ( वि० ) रोग रहित, दीरोग | विराट सतू० ( घु० ) चतुईंशझबन रूप परमात्मा की सूति । » शु० ) विशाल, विस्तार, विकराल (छु०) मत्स्य देंश का राजा। इसके यहाँ पाण्डवों ने एक वर्ष छिप कर बिताया था। यह अतुल ऐश्र्य सम्पन्न सथा शक्तिशाली राजा था | इसका साला कीचक सेनापाति था और वह अत्यन्त बलवान था| ब्रियते देश के राजा सुशर्मा के पराजित कर उससे उसके राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया था । सुशर्मा राज्यअप्ड होकर हस्तिनाइुर में दुर्वेधित के यहाँ रहते थे । एक रात के। भीम- सेन ने मश्नयुद्ध करके कीचक के मार डाला था कीचक के मारे जाने की बात चारों ओर फैल गई। यह खुयोग समझ कर सुशर्मा ने कौरवों की सहा- यता से विरादू की वृक्षिण गोशाला पर झाक्क- मण किया | विरादू भी युद्ध करने के लिये गये, परन्तु सुशर्मा ने उत्तकी सेना को हरा कर उन्हें कैद कर लिया । अनन्तर शुथिछ्टिर की आज्ञा से भीमसेनव ने बिराद्‌ की रक्षा की । कुछ दिनों के बाद अगण्ित सेना और भीष्म, कण आदि सेना- पतियों के साथ हुयेष्ििन ने विरादू की उत्तर गोशाला पर घावा किग्रा | अर्जुन ने समस्त कुरू सेना के छक्के छुदा दिये और गौंझों की रक्षा की । अ्ज्ञातवास की समाप्ति होने पर पाण्डवों का विरादू से परिचत्र हुआ। विराद ने अपनी कन्या उत्तरा के अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से व्याह दिव्रा । कुरुक्षेत्र के युद्ध में विराट्‌ पायंडवों की ओर से लद़ते रहे । युद्ध के पन्दरहवें दिन इनका ड्रोण ने मार डाला था | विराध वत्‌० ( पु० ) राउस विशेष, वनवास के समग्र यह राहस रात के द्वारा मारा गया था। विराम तत्‌० (छु० ) निदृत्ति, विश्नाम, शान्ति, विश्लान्ति अन्त, अवसान, समाप्ति विरुद्ध तववू० (वि? ) बिपरीति, वास, खन्नु ता (ज्वी०) झगड़ा, शत्रुता, अद्विताचरण, विपरीता- चरण । दंछह ) बविलोकन विरूए तत्‌» ( वि० ) कुरूप, भौंदा । विरूपाक्ष ( छु० ) एक राइस का नाम, महादेव जी, शिवजी 4 विरेदा तत्‌० ( छु० ) रोग विशेष, अतीलार, पेटोखा । विरेचक तव्‌० (घु०) सारक, निकलने वाला, दस्तावर ओऔपचघ । विरेयन तत्‌० ( पु० ) मल विस्सारण, जुलाव । विरोचन ( घु० ) भ्रह्माद का बेब और वालि का पिता, सूर्य, अभि, चन्द्रमा । विरोध वद॒० ( घु० ) दो, शब्रुता, लड़ाई फगढ़ा । --के ( 9० ) विवादी, चैरी, श्रु । विरोधी ठत्‌० ( घ० ) शत्रु, रिछ्, वैरी । विरोधोक्ति ( स्त्री० ) उत्तती बात करना, अनर्थ बचन । विल तत्‌० ( एु० ) बिल, छिद, छेद, साँद । विलत्तण तद्‌० ( वि* ) अद्कृत्र, आश्चर्यसय अनूप, उत्तम, ओेपठ, भला । विलग ( बि० ) भिन्न, अलग, एथक । विल्नगावना दे ( वा० ) अलग करना, थक करना, मिन्न करना, अलयना ! विलज्ञ ( वि० ) निर्लज्न, बेहया । विलपना दे० ( क्रि० ) रोना, चिल्लाना, हुःख करना, रोदन करना । विलपत दे० ( क्रि० ) रोते हुए, रोदन करते हुए * विलस्व तत्‌० ( घु० ) देर, अधिक समग्र ता - ( क्रि० अ० ) रहना, ठहरना, देर करना । विह्लमना दे० ( वा० ) देर लगाना, अधिक समय लगाना ॥ बदिलय तत्‌० ( पु० ) नाश, जगत्‌ का नाश, अलग । विल्लायत ( ४० ) परदेश, इस शब्द का अयोग विशेष कर इब्नलेरड के लिये होता है । [ दुःख करना । विल्लाप तत्‌ू० ( 8० ) .रोना, विलखना, विज्लाना, विलास तत्तू० (० ) खेल, कीठा, कौतुक, भोग, खुख, आनन्द हि विलासी तत्‌० ( बि० ) भोगी, आनन्दी ! विल्लोन तत्‌० ( वि० ) नष्ट, लुप्त । विछ्ुत्त तत्‌० ( वि० ) अच््ट, नष्ट, गुप्त । विलोकन तत्‌० ( घु० ) इष्टि, ताक, दर्शन, देखना! विकेाकना ( ईप० 9) विश्व विजेकता दे* (क्रि० ) देखना, त्ताऊना, दर्शन | विशद्‌ तत्‌० ( वि० ) विघ्तृत, विस्तास्युक्त, विशाल | करना | विज्लोऊित ( एु० ) देफा हुआ । विज्लेचन ठत्‌० ( घु० ) नेत्र, नयन, आँस, चछ । विलोड्ना ( क्रि० ) मथना, महना, दिलारना । विल्लोप वतू० ( पु० ) अदर्शना, नाश, ध्वस । विज्ञोम तद्‌० ( पु० ) विपरीत, उलछटा, भाक्रम, नीचे से ऊपर । [देख का फल ! विदव तत्‌० (पु०) बेल का बढ |--फल्त तत्‌* (पु०) विचर तत« ( घु० ) ठिद्र, घेद, पिक । विवरण तव॒० ( धु० ) विस्तृत, दाल, गुण कपन ! विवर्ण तत्‌*» (वि० ) फिट, लज्ित, पश्चात्ताप युक्त। पिय्द्धन (१०) उन्नति (क्रिब) उद्धति होना। विरवद्धत (पु ) किसी के द्वारा उच्चति कराया हुभा । विवश सत्‌० ( वि* ) अवश, पराघधीन, ध्नस्पेपाय । दिवस््र तद्‌० ( दि० ) चच्ध रहित, नप्न, नज्ञो । विवसा ( ० ) इच्छित, वाब्द्रित, चाद्दा हुआ । विवाद त्तदु० ( पु० ) बाई, वाक कलद, शास्ताे, ऋाढा। विवादी दव्‌* (ए०) विवादकारक, वादी, मुदृई । वविधाद त्तव० ( पु० ) स्याद, परिणय, पाणिप्रहण | विवादित त्‌० ( पु० ) ब्याद्ा हुआ, कृतपरिणय ब्याइता । विद्यादित तन्‌० ( स्त्री० ) ब्याही हुई, परिणीता । विजिक्त स्व ( पु० ) पूल, पविश्न, पृकान्द, निर्जन । विदिध तव्‌» ( वि० ) नाना प्रकार, भांति साईति, भनेक प्रकार का | विचुध ( ६० ) देवता, पण्डित विद्व्ति तत्‌० ( वि० ) ध्याश्यान, टीआा, विवरण | विवेक तद्‌* ( पुर ) विचार, निर्ेयात्मिका बुद्धि । विवेक्ी तव० ( गु० ) न्‍्यायाकर्चा, विचारक, निर्येय- करत्तां।. ., विधेचकू था विपेज्कक्त तद॒* (घु० ) निर्ययच्चों, विचारकर्ठां | जिन । विवेचना तर* ( श्ली५ ) विचार, सत्य असत्य का विवेचित ( पृ० ) दियारा हुआ । विशास्द्त्त तच० (पु०) सँम्कृत का पूक नैतिक कवि, मुद्रा राकस नामक नाटक इन्दोंनि बनाया है। संस्कृत साहित्य में इस मन्य का वढा आदर है। मिस्टर तैडझ कहते हैं कि इस प्रन्थ छा रघचना- काल ईसा की ७ थीं सदी है । विशाखा दत्‌+ ( घु० ) सोल्नदर्वा नछतर । विशार ( पु ) मछली । विशारद्‌ ( वि० ) चतुर, दव, छाता, पण्डित ( धु० » मौकसिरी का पेड । विशाल तद्‌* ( गु* ) विस्ृत, घढ़ा, चौड़ा, शृदत्‌ । विशिसत तत* ( घु०) बाण, शर, त्तीर । (वि०) सिष्ता रहित, विनाचेटी का | विशिष्ट तत्त्‌० ( १० ) संयुक्ता जुटा, मिला । विशुद्ध ठद्‌० ( ज्रि० ) बहुत पविद्न, निर्मेल, शड्बल, विमछ, पालिस । [विशेष । विशचिका ( स्री० ) हैजा, कालरा, छेईं, पुद्ठ रोग विशेष तत्‌० ( बि० ) प्रकार, भेद, जाति, अधिक, मुष्प, प्रधान, खास |-णा ( पु० ) गुणवाचक । जिस शब्द से विशेष्य का मुख्य गुण आदि का बोध होता है ।-तः (अ० ) विशेष रूप से, अधिकता से, ख़ास कर |--ता ( स्त्री० ) भेद, मिन्नता, एूपकता, अधिकता, प्रधानता, मुण्यवा | विशेषाक्ति तद॒० ( ख्ली० ) धबद्भार विशेष । विशेष्य त्तत" ( घु० ) प्रधान, पुरुष, धर्म, दृष्प, जिश्की प्रशंसा की जाय। व्शिक्र तत्‌० ( वि० ) शोकरद्वित, विगत शोक | विभ्रम्म तव» ( धु० ) विश्वास, प्रत्यय, निश्चय | पिश्रान्त तत्‌० ( वि०) घक्तित, धका हुआ, यैठा हुमा । “--थाद ( घु० ) यमुना जी के पुक घाट का नाम, यद मथुरा में है। [ करना । विश्राम तत्‌« (पु०) सुक्त, घद्मावट दूर काना, विराम विश्वुत ( बि० ) विश्यान, प्रसिद, नामी । विश्लिए्ट (घु० ) शिथिक्र, वियेगी, अछंग इइने घाछा ३ [अद्गाव । विश्लेष तत्‌० ( घु० ) वियेग, विरद, विद्धाइ, भेद, विश्व छद्‌* (पु०) जद, संसार,देव विशेष इनके धाद्द में पिण्ड और बढ्ि दी आती है (--कर्मा (३०) विश्वस्भर ( हर ) बिहार परमात्मा, देव, शिल्री विशेष [--नाथ (६ घु० विषुव्त्‌, विषय तत्‌० ( घु० ) एथिवी की मध्यरेला, जग्रत्‌, स्वाप्ती, काशी के भ्रधघान देव, महादेव, परमेध्यर |--म्सरा (स्त्री०) एथ्वी, धरती, रणी। “रूप ( घु० ) इेभ्वर । विश्वस्भमर चच० ( छ० ) जगत्‌ का पालनकर्तता, सेसार का भरय्य पे'षण करने वाला, विष्णु । पिश्वलनीय तत्‌० ( बि० ) विश्वास योग्य, विश्वास का पान्न ] [ किया गया हो । विश्वसित् तदू० ( वि० ) विश्वस्त, जिसका विश्वास विश्वस्त तव्‌० ( बि० ) ज्ञात प्रत्यय, प्रतीति येग्य | विश्वाप्रिज्न तव्‌० ( छु० ) [ विश्व + मित्र ] विख्यात महर्षि, थे राजइंश में उत्पन्न हुए थे, परस्ठ इन्होंने कठिन तपत्या और साधनों से सद्ृर्षि पदृ पाया था । विश्वास तत्‌० (घु० ) प्त्यय, प्रतीत, धारणा, भरोसा ।-घातक (४०) कछपटी, घेखेबाज़, ठग, धूज् ।--पात्र विश्वाखनीय, विश्वास योस्‍्य । विश्वेश ( प० ) शिवजी, विश्वेश्वर ) विष तत्‌० (पघु० ) गरछ, काछकुट, इलाहल, जहर, साहूर ।--घर ( पु०) सर्प, सांप, सुजक्ष । ( घु० ) घिप उतारने बाल्ग, गारुड़ी | विषशण तत्‌० ( वि० ) उदास, ढुःखी। विषत्न तत्‌० ( बि०) अयुर्त, अनमेल, अखमसान, श्रशुक््य, बरावरी नहीं, कठिन, कठोर, भयहछूर । “-ज्यर (9०) ज्वर विशेष, एक प्रकार का ज्वर | -+ता (स्ली० ) कठिनता, कठोरता ।-काण ( पु० ) कामदेव, मदन, कन्दर्प /--जिश्चुज्ञ (छ०) जिसकी भुनाएँ बराबर न हैं। विषय तव० ( छु० ) पदार्थ, वस्तु, इन्द्रियाथे बस्तु, भोग विद्वास, देश । (०) लिये, निमित्त, अर्थ । +-क ( वि० ) खेसारी +-वासना (ख्री० ) भोग विकास की इच्छा । विषयो तत्‌० ( पु० ) चिलासी, सोगी, संसारी । जिपदर तत्‌० ( छु० ) बिप नाशक, विषज्ल | विषाण तत० ( पु० ) खींप, शय्का, हाथी का दाति ६ विषाद तत्‌" ( ए० ) शोक, दुःख, छेश, खेद पिछुघ ( पु ) जब दिन रात्त बरात्रर हैं। उल दिन का नाम | सध्यरेखा (--रेखा ( सत्री० ) घरती के बीच की रेखा, मध्यरेखा, भूमध्यरेखा । [विशेष । विएर तत्‌० (छु० ) आसस, कुश का आसन, चूत्त चिप्रि तत्‌० ( स्थी० ) सदा, झछम समय, बेगार । चिछा तच्‌० ( छु० ) मल, परीप, यू । चिष्यएु ततु० ( ॥० ) परसेभ्वर, परमात्मा, रुष्टिपालक, देव विशेष |--पद्‌ ( शु० ) आकाश, चैकुण्ठ। - पद़ी ( रुत्री० ) गड़्ग, संक्हान्ति विशेष । विस ( सर्वे० ) बह, उस [ विसर्ग तत्‌० ( छु० ) स्वर के पीछे के दो बिन्दु ($) | विसजंत तत्‌० (छ० ) ध्याग, छोड़ना, त्याग देता । विसारना ( क्वि० ) भूछ जाना । विसासिनि ( छ्ी० ) खोत, दाहिनी, सौतिनी। विख्वूचिका वत््‌० ( स्ली० ) रोग विशेष, महामारी, हैज्ञा, छालग | विखूरना ( क्रि० ) शोक करना, रोना, दुविधा में पड़ना | [विस्तारयुक्त, ( दे० ) ब्रिछ्चौचा । बिस्तर तत्‌० ( थि० ) अ्रधिक्र, विस्तृत, बढ़ा हुआ, विस्तार (४० ) फैल्ाव, विशालता । पिस्तारित त4० (वि०) फैछाया हुआ्ला, बढ़ाया हुआ । विस्तीर्ण तत्‌० ( थि० ) बड़ा, विस्तारयुक्त, फैछा हुआ, चौड़ा । विस्तृत वत्‌० € वि० ) क्स्तीर्ण, विशाल, चढ़ा । विस्फुलिड् ( घु० ) चिनगारी। विस्फोट तत्‌० ( घु० ) फोद़ा, धाव, फुसी (-क ( छ० ) शीसला, चेचक, योही, गाँठ। विस्मय तत्‌० ( छु० ) अचरज, अचस्भा, अश्चर्य | विस्मरण तत्‌« (एु०) भूलना,विसराना,विस्मित होना । विस्पित तव्‌० (वि०) विस्मययुक्त,अचस्भित,आर्चर्यित। बविस्मृति तत्‌० ( स्री० ) विस्मरण, भूल, विसराना। विस्वाद्‌ तत्‌० ( घु० ) स्वावद्दीन, स्वादरहित। बिहज्ल, विहज्भम तत्तू० (० ) परी, पस्लेस । विहरण तत्‌० ( छ० ) भ्रमण, पर्यटन, घुमना, रास। विहसना ( क्वि० आ० ) हँसना, खिलना। विहार तत्‌० ( ु० ) क्रीदा, खेल, लड़के लड़कियों का आपस मैं हाथ पकड़ कर घूमना । बौद्धों का उपा- सनास्थान, बौद्धमन्दिर, भारत का आन्‍्त विशेष। श० घा०ए--रूद विद्ारो ( पर ) घचूपल बिहारी ( पु० ) धीहृष्ण, एक कवि का माम जिन्होंने अपने नास की सतसई बनाई है। ये रू गार रस के अच्छे कवि ये। | वि० ) विद्वार करने चाज्षा, चंचल, चपल। [निर्यीत | विदित दत्‌० ( वि० ) कवित, उक्त, उचित, कर्नव्य, विद्दीन तत्‌० ( वि० ) बिना, रहिद,शन्य, । डिद्विम। विद्दल वतू० ( गु० ) च्याकुल, घबराया हुआ, चघल, चीत्तण तन्‌० ( ६० ) दर्शन, दीठ, विजोकन । चीज्षित ठत्‌० ( बि० ) दृष्ट, विलोकित, देखा झुआ। चीचि ततू० ( स्ली० ) लद्दर, तरक् । घीज दत्‌० ( पु० ) बीये, शरीरान्तर्गत संप्त घातुओं में से मुग्य धातु, शुक्, मूलमारण, वीया।-- गड्डित ( पु० ) गणित का अन्य विरोप, श्व्यक्त गणित।--पूर ( ए० ) बिजनौर नीयू। वीणा तत्त० ( स्री० ) सितारतुमा एक बात, जिसे भारद भौर सरस्वती आदि बजाते हैं। घीव दव्‌० ( वि० ) भ्रपगत, गत, व्यतीत, समाप्त, बीता हुआ ।--हृब्य ( धु० ) हैंहय राम्ज्य के अधिषति। इन्होंने वाराणसी के राजा दिवोदास को जीव कर पाशी को अपने अधिऊार में कर लिया था सदी, परन्तु दिगोदास के पुत्र ने इन्हें जीत कर अपनी राजधानी लौट ली थी। बीतहव्य ने प्राण बचाने फी इच्छा से मरदाज मुनि के आश्रम में आश्रय लिया था। धीवि तव॒5 ( स्री० ) गलती, गैस, अतोली । पोप्सा तत्‌७ (खी० ) अ्रधिकता, स्यापफ्सा | धोय ( दि० ) दो २॥ घीर तव्‌० ( घु० ) बलवान , योद्धा, कान्य का रस | “भय (छ्ो०) घीर जननी, वीर मादा ।-गति (थी०) युददेव में आय विसर्जन, मरण [--ता ( खी० ) थरता, बीएव !--भद्र ( ० ) महादेव का पिय अजुचर, इसने दृड़न्यज्ष का नाश फ्या था। पठि की निन्‍द्र ने सइ कर सतीया प्रायत्याग यरने फा सवाद जप महादेउ ने झुना, ठच व्योघ से अथघीर दोरर उन्होंने अपनी जय भूमि पर परडी, उसी से योरभद् उत्पन्न हुभा था ।--माव (इ०) यद्ादुरी, दीरता (--भूमि € स्थी० ) युदरउन, यंयाल ग्रान्द का भगर विशेष )--रस ( घु० ) पाव्य का पुक रस विशेष ।--चुक्ति( सी० ) शूरों वा वाना, बीरों का पाम । घीर्य मत्‌ू० ( घु० ) सामय्ये, बल, बीज ।--धान, ( पु० ) पराक्मी, बलवान , बलशाली ) चूक तव्‌० ( पु० ) भेड़िया, हुडार, अग्नि दिशेष, भीम के झटराग्नि या नाम ) चुकेद्र तच्‌० ( पु० ) [ बृक + उदर ] जिसके उदर मैं बुक नामक अग्नि हो, भीम, भीमलेन ) चृत्त तत्‌० ( धु० ) पेह, रूप, तर, तरुवर, त्तरयर। चुत्त तद्‌० (१० ) घेरा, मएडल, मण्डलाजर, गोल) छन्द ।--खण्ड ( घु० ) धृत्त का इुकड़ो, जो त्रिय्या थौर जीवा से घिरा हो।-न्झे ( ३० ) शोज्ञा का आधा । चृत्तान्त दत्‌० ( पु० ) बात, समाचार, हाल, वार्ता बूचि ठत्‌० (स्प्री०) जीविता, जीवनोषाय, प्यवसाथ । छुत्रारुर तत्‌० (पु०) [शत्र+श्रमुर] राक्तस, विशेष, जिसके इन्द्र ने मारा या। थुथा दत्‌ू० ( झअ० ) अनथथक, निष्प्रयोजन । बुद्ध तत० (पु० ) बूढ़ा, पुराना, ग्राचीन, जीणे, डोकरा ।--प्रपितामद् (पु०) पिता का पितामइ। “-प्रपितामद्दी (ख्वी०) बाप फी दादी । घुद्धा दत्‌० ( स्त्रो० ) छढ़िया, बूढ़ी, ढोकरी । चूद्धि तत्‌* ( स्त्री० ) लाभ, बढ़ती, उन्नति, भुनाक्रा। चुन्द्‌ तव्‌० (पु०) समूह, प्राणियों का दल यूथ, जया। “न (स्थ्रो०) झुण्ड, तुलसी, राधिवा, देवी दिशेष। ( घु० ) देस, समूह, थेफ। चुन्दारक लत ( छु० ) देवता, मर, देय । छुन्दायचन तत्‌० ( घु० ) मथुरा के पास का पुंक धन ज्ों भ्रीरष्ण रहते में। चूश्चिर ठव्‌० ( घु० ) बीदू, आठवीं राशि । चूप ततू० ( घु० ) बैल, दृपम, घमे !--फैलु ( ए० ) शिव, सद्देव ।-दृश ( पु ) विज्ञाब +--भाश्ठ ( पु० ) शीराधिया थी के पिया पा मयम । चुपण तत्‌० ( पु० ) अणडऊेश, पोता, अणड दपभ सत्‌ू० (घु० ) बैल, वर्षा "-ध्यज्ञ (३०) महादेव । चपल तत» (० ) जादि विश्येष, थरद्ध जाति, चन्र- युत्त राजा ।( स्प्री० ) सूपली ! बुपाकषति ९ द्पई ) चैयाकण्ण चुपाकपि तत्‌० (पु०) धर्म के न केंपाने वाला, सदा- देव, विष्णु । [ दाग़ कर छोड़ना छुपोत्सर्म तत्‌० ( छु० ) श्राद्ध का अज्ञ विशेष, सॉड दुष्धि तव» (खी० ) वर्षा, सेंह, सेघ, बारिश, वरसात | बृदत्‌ वद॒ु० ( शु० ) बढ़ा,, विशाल, विल्तुृत । चेछ्ुटेश तव॒० ( घु० ) सयवान्‌ विष्णु की वह झूर्ति जे वेंकटद्धि पर दक्षिण में है उन्हें वाला जी भी कहते हैं, यह हिन्दुओं का एक प्रधान दीर्थ श्थान है । चेग सत्‌० ( घु० ) शीक्षता, श्रवाह, धारा /--गामी शीघ्र चलते बाला धाडा ।--वान ( छ० ) पचन, चीता । ( बि० ) जल्द चलने वाला । पघैमि ( क्रि० वि० ) शीघ्र, जल्दी । बैंगी ठत्‌० ( बि० ) शीघ्रगासी, वेग वाला | चेणी दत्‌० (सख्री०) चादी, नदियों का सद़्स, ज्रिवेसी। चेशु तत्‌० ( घु० ) वास ।--क ( छु* ) वंशलोचन, डग, बाज़ीगर, चालाक । बैत दे० ( छु० ) एक बृक्ठ का नाम, आकाश चेतन तत्‌० (छु० ) सनखाह, तक्तव, पयार, सजूरी । चेतातन दत्‌० ( छु० ) प्रेत ये।नि विशेष । चेच्ा तत्‌० ( छु० ) जानने वाला, क्लाता. वेढी ! चेन तत्‌० ( छु० ) घेत का बुक, छुढी, चाइुक । चैदू सत्‌० ( छु० ) हिन्दुओं का धर्म अन्य, बेढ चार हैं, यजु, साम, ऋक और अथर्व । ज्ञान, उपासना और कम भेद से इनके तीन कायड हैं + नये (छु० पद्म, वाह्मण ।--गिरा ( स्री० ) वेदवाणी, वेद के बाक्य । (घु० ) ऋषि विशेष ।--माता ( स्ली० ) गायत्री । [ क्लेश । चेदव या वेदना तत्‌० (स्त्री० ) पीड़ा, दुःख. यातना, घेदाडु तत्‌० ( छ० ) बेद के अन्ज, वेद झान मस्त करने के उपयेगी शास्त्र | शिक्षा, करुप, च्याकरण ज्योतिष, छन्द और निरुक्त ये छः चेडाहः हैं । बैदान्त तव्‌० ( घु० ) वेद का भाय विशेष, उपनिषद, डपनिषद्‌ का विचार करने बाह्य दुर्शन।-ये € घु० ) भ्स्मवादी, बेदान्त का जानने वाला । घेदि ( स्प्री० ) पीठ, पीड़ा, होम करने का चदूतरा । बैदिका तव्‌» ( ख्री० ) बेदी, होम करने का चै|ठरा | चेदों तत्‌० ( स्प्री० ) चेदिका, स्वण्डिल्र, हवत स्थान ३ चेध ( एु० ) छेद, सराख, एुक अह पर दूसरे अह की छाया +-ता ( कि० ) छेद करना ।--मुख्या ( स्त्री० ) कपूर, कस्वरी । घेला तत्‌० ( स्त्रो० ) समय, काल, एक वाद्य विशेष । चेश त्त» ( घु० ) आकार, परिच्छुद, सजावट, शोभा | वेशर दे० ( घु० ) भ्रूपण विशेष, नाक का गहना । चेश्म ( घ० ) गृह, घर, भेख । चेश्या तत्‌ू० ( स्त्री० ) पठुरिया, गणिका वारस्त्री, वाराद्षता । चेष ( पु० ) कपड़ा, गहना, डील, चाल । चेप्टन घत्‌ 5 ( छु० 9 वेखन, लपेदन ! [काटना । देंक॒वा दे” (क्रि० ) लीलना, उधेदना, काढ़ना बैंकाल दे० ( छु० ) अपराह, दोपहर के याद का समय, चाथा पहर । चैकुशठ तद० ( १० ) लोक विशेष, विष्णु का धाम ! “चाथ ( पु० ) विष्णु भगवान | चैगन्ध ( पु० ) गन्बिक । [ बौध सिछुक । खैखानस तत्त० ( पु० ) यती विशेष, वानप्रस्थाश्नमी, पैचिब्य ( पु० ) विचित्रता, चित्र विचित्र । चैज्नन्ती ( स्त्री० ) कण्डा, पताका । बैतरणी तत्‌ ० ( स्त्री० ) सरक की एक लड़ी का नाम। बेताल ( पु० ) पिशाच, भाट, वनन्‍्दी । बैताविक ( पु० ) गायक, राज घरानै के गवैया | चैंदिकि तत० (पु० ) चेदपाडी, बेद पढ़ने घाच्य। ५ चि० ) चेदीक्त, चेद्‌ कथित, वेद में कही चात॑, जो वात देद में लिखी दे या उससे विरुद्ध न हो । बेदी तत० ( स्त्री० ) जानकी, सीता । बेदूय ( पु० ) नीलक, नीलमणि । चैच् तत्‌० ( पु० ) चिकित्सक, वैथ्शास्त्रवेत्ता ।-- नाथ ९ पु० ) शिष, दिवेदास, धेन्वन्तरि, वैज- नाथ, जिनका मन्दिर सपाइखरढ में है| चैद्यक्न तत० ( पु० 9 चिकित्साशास्त्र, आयुर्वेद । चैनतेय उत० ( पु० ) गए, पच्चिराज, विनतापुत्र । ब्ैभव तत्० ( पु० ) ऐश्वर्य, सम्पत्ति, धन, सम्पदां | चैंमनस्य चत्‌० ( प० ) भीतरी हू ५, मनसुदव । ब्ेयाकरण तत्० ( प० ) च्याकरण पढ़ने वालाया जखका क्षाता | उसके अर्थ में ध्याकरणी शब्द का अग्रेग करता अशुद्ध है । चर चैर तत्‌० ( पु० ) द्वोष, शत्रुता, विरोध! [निरद। चैरगी दद्‌० ( पु० ) पिरक्त, बीतराग, ससारलागी, चैराग्य दत्‌० ( पु० ) विषय त्याग, विषय डदासीनता, निरट्वा । चैरी तत० ( ६० ) शत्रु, रिपु, विरोधी, अरि, दे पी । चैलक्तणय ( पु० ) विचिग्रता, भावान्तर । चैनसय ( पु० ) घमेराज, मजु विशेष । घैशाय तद० ( १० ) महीवा का नाम, जिस महीने में विशाणा नक्षत्र में चन्धमा पूर्ण हा, दूसरा मास। चैशास्पी ( स्त्री० ) थूनी, वैशाख की पूर्णिमा । दैगेपिक ( पु० ) न्याय का एक भाग, दरशन विशेष । कैय तत्त० ( पु० ) बर्ण विशेष, तीसरा बर्णे, बनिया, महानन थ्रादि । चेष्णघ तत्‌० ( पुृ० ) विप्युमक्त, विग्ण के उपासक, विप्ण उपासक सम्पदाय । ( स्त्री० )--पैष्णधी । चैसा दे० ( सरबई० ) उसके समान, उसके ऐसा, उसझे चुल्य, तत्‌ सइश | चैसे दे० ( पि० ) बिना मूल्य, सेंतमेंतद, उसी तरह। योद्दित ( पु० ) जहाग़ा, बढ़ी नाव। घोल दे० ( पु० ) गोंद, गुगल, धूप विशेष । च्यक्त ततू० ( पि० ) स्पछ प्रसाशित, दर्शन योग्य । व्यक्ति तत्‌० ( स्त्री० ) एक मलुष्य, एकाफी, एुक वस्तु जन, मनुष्या ध्यम्न तत्‌ू० ( वि० ) व्याकुल, उद्धिग्स, विफल | व्यज्ञे तत्‌० ( गु० ) अज्नद्वीन, पिललाक़् । व्यध्षन तत्‌० ( पु० ) पद्धा, बेना, बेनिया । व्यश्वेक तत्‌० (पु०) प्रशाशक, भाववोधऊक शब्द जिनसे अ्रथे प्रषाशित होते हैं। व्यज्ञेन तत॒० ( धु० ) तरकारी, साग, वर्ण, अचर, सपरद्दीन दर्ण, क से ह तक यर्ण । व्यक्षना तत्‌» (स्त्री०) शब्द शक्ति, जिससे अगें। का बोध दोता है । [खिपर्थय। व्यतिकम तद्‌* ( पु० ) दॉक्ना, लॉधना, उिलेम, व्यतिरिक तत्‌० ( वि० ) अन्य, मिन्न | ध्यतिरिक तत्‌० (घु० ) भेद, अलग, भिश्चता, एक काया लड़ार व्यतीत तत्‌० ( बि० ) गत, यीका, गयारीता। व्यतीपात तत्‌० ( घु० ) येगय विशेष, सब्रदर्श योग । € ईपछ ) च्याख्या ब्यत्यय ठत्‌० ( घु० ) अ्रतिक्रम, लाँधना, डॉक्ना । व्यथा तत्‌० (ख्त्री० ) पीद, दु से, वेदना, वल्षेश, कष्ट । व्ययित तत्‌० ( वि० ) पीड़ित, दु खिंत, क्ल्ेश प्रस्त, कष्ट पतित 4 दयपदेश तव्‌० (पु०) बहाना, ध्याज, केवल । व्यभियार तत्‌० (थघु० ) परखी या परपुरप संगम, निन्दित कम; न्याय का पुक दोष । न्यमियारिणी तत्‌० (ख्री० ) झूलण, नष्ट चरित्रा, दिनाल औरत, पर पुरपरता खी । व्यभियारी तत्‌० ( पु० ) लम्पट, कुमार्गी, घिनरा । बययावत्‌० ( पु० ) ग़रचे, लात, छय, नाश । ब्यर्थ तत्‌ू०» ( बि० ) बथा, निरधक, निकम्मा, विश काम फा, निष्फल । व्यवकलन तत्‌० (पु० ) गणित विशेष, घना, वानी निमालना । [श्थक्ता । व्यवच्छेद तत्‌० (घ० ) भेद, मिन्नता, अलगाव, ध्यवधान तत्‌० ( पु० ) श्रन्दर, दूरी, दो पदार्थों के बीच वा अन्तर । व्यवसाय तद्‌० ( छु० ) व्यवह्वार, लेनदेन, उच्योग, रोज़गार ।-- ( घु० ) व्यापारी व्ययस्था तत्‌० (खत्री० ) भयन्‍थ, ठपाय, प्रक्रिया, धर्मनिर्णय ।--पक ( 8५ ) व्यवस्था फरने वाला, अरवन्धक । [ ठीक, ठीक । च्ययस्थित तद० (थ० ) घचतल, श्रट्ल, निरिचति च्यवद्यार ततु० ( पु० ) उधम, धन्धा, फाम, रोज़गार । व्यवद्टरिया दे० ( 9० ) ब्यवद्वार परने बाला, मदा- जन, ऋणदाता । [ राजयुक्त । व्ययद्ित रत्‌ू० ( वि० ) व्यवधान श्राप्त, अस्त- ब्येसन ठत० ( घु० ) आमक्ति, श्रम्यास, पोदी आदव ।--ी ( धु० ) व्यसन करने वाला । व्यस्त ततू० ( थि० ) च्याऊुष्त, उद्धिस । व्याकरण वत्‌० (५० ) शास्त्र विशेष, भाषा के निय- मित फरने याला शास्त्र, शब्दशास्त्र व्याकुल तत्‌० ( वि० ) घवद़ाया हुआ, उद्धिप्न, व्यम्, व्यस्त +--ना ( स्प्री५ ) घबड़ाइट, च्यग्रता चचतलता | व्यास्या दतू० (स्त्री० ) बर्णेन, दी, पिद्ृ्ति व्योख्यान ( ईप ) शक व्याख्यान दत्‌० ( घु० ) उपदेश, वक्तुला: व्याघात्‌ तत्‌० ( छु० ) बाधा, रुकावट, रोक, अटकाव । व्याप्न दत्त० ( छु० ) बाघ, नाहर, चीता । ब्याज तत्‌ू० (घु०) बहावा, मिप, छुल, कपट । (दे०) सूद, लाभ (--क (वि० ) च्याजू, उली, ऋणी )! व्याजू दे० ( पु० ) ब्याज के लिये, सूद पाने के लिये, डधार दिया हुआ । व्याघ् तत्‌० ( घु० ) अद्वेरिया, शिकारी, वद्वेलिया । व्याधि तत्‌० ( स्त्री० ) रोग, पीड़ा, दुःख, छेश । ब्यान ततू० ( छु० ) प्राण विशेष । व्यापक तत्‌० ( घु० ) सर्वेत्र विस्तृत, सर्वन्न फैला हुआ |--ता ( स्त्री० ) विस्तार, फैलाव । ब्यापना दे० ( क्रि० ) दर जगह हे! जाना, फैलना, सर्वत्र फैल जाना । व्यापार ठत्तू५ ( छु० ) रोजगार, ज्यवसाय । व्यापी तत्‌० ( पु० ) व्यापक, विद, सर्वगत । व्याप्त तत्‌० ( ग॒ु० ) विस्तृत, फैला हुआ । व्यापत्ति तत्‌० ( स्त्री० ) विस्तार, फैल्ाव, न्याय सत से अलुमान का फारण । ब्यामोह तच्‌० ( छ० ) पश्चात्ताप, पीढ़ा, दुःख ! व्यायाम तत्‌० ( ६० ) कलरत, शारीरिक अम । कामघन्धा, व्यास तत्‌० ( छु० ) महर्षि विशेष, पुराणकर्ता, घुराण कहने वाला ।--गद्दी तद० (सत्री०) बड़ा आसन जिस पर बैठ कर पुराण की कथा कदी जाय । व्यासार्दध ( छु० ) व्यास का थ्राघा ब्याहति तत्‌० ( स्री० ) वैदिक भन्‍्त्र विशेष, जिससे प्राणायास किया जाता हैं व्युक्कम तत्‌० ( पु० ) उलदा पलटा, क्रमरहित | च्युर्पसि तत्त० ( खी० ) शाज्षीय ज्ञान में श्रभिनिषेष, बोध शास्त्र, परज्मान व्युत्पन्न तत्‌ू० ( वि० ) शास्त्र में श्रवीय । व्यूह तत० ( 8० ) सेना की रचना विशेष, समृह, राशि [न ( ४० ) क्रिलावंदी । ब्योस तलू० (घु० ) आकाश, शगन, अन्तरिक्ष । “कैश ( छ० ) शिव (चर (8० ) पज्ञी, अह्द, देवता ।--यासव ( छु० ) विसान । ब्रज ( छ० ) भोस्थान, सथुराभएडल “व ( घु० ) अमण, पर्यटच ।--वासी ( पछु० ) बज में रहने बाला । अज्ञेन्द्र ( एु० ) श्रीकृष्ण । * अण तत० ( छु० ) घाव, फोड़ा, फुंसी, कत ( जत तत्‌० ( 9० ) पुण्य, तिथिका उपवास, अजुछान। | ज्ञात तत्‌० ( छु० ) समूह, यूथ, दल । व्यात्त तत्‌० ( घु० ) साँप, सर्प, अहि, भुजज्न न | बात्य तत्‌० ( ० ) पतित, संस्कारहीन ( ख्री० ) मड़ोखा, सौंपिनि । व्यावहारिक ( घु० ) मंत्री, सलाहकार । चीड़ा तत्‌० ( ख्री० ) लज्जा, लाज, शर्स, हया । आओहि तस्‌० ( स्त्री० ) धान्य विशेष, छोटे छादे अन्न । श च्यक्षन का त्तीसवाँ वर्ण, इसका उच्चारण स्थान ताल होने के कारण इसे तालब्य कहते हैं । शा तत्‌० ( घु० ) कल्याण, मन्नल शॉशु तत्‌ू० ( वि० ) प्रसक्र, हपित, आनन्दित्त ! शॉंब ठसू० ( वि० ) सुकूती, छुख्यात्सा, धर्सी । शंचर तात्‌० (छु०) जल, शह, सायावी राउस विशेष । इन्द्रजाल विद्या का यह एुक आचाये हो गया है । इसी विद्या का दूसरा नाम शॉवरी मी पढ़ा है । शंघ्र तत्‌० (स्त्री० ) चाइना, चाह, भमित्वाष, डब्सुकवा, उत्कर अभिलाप । श शंखित ठत्त० ( बि० ) उक्त, कथित, भोक्त, निश्चित, स्ठुव्य शंस्य तत्‌० (बि०) स्त॒त्म, प्रशंसनीय, प्रशंसा के योग्य) शऊर ( छु० ) लसीज्ञ, शिउ्ता ।--दार (वि० ) सम्य, शिष्ट । शक सलू० ( छ० ) देश विशेष, एक जाति विशेष, जिलकी विजय राजा विक्रमादित्य से की थी। राजा शालिवाहन का चलाया संबत्‌ | दे० (स्धी०) सन्देह, संशय --कर्ता (५० ) शक नासक साल चलाने वाला । यथा, युधिप्टिर, विक्रमा- शकदट ( है 3 श्र दिय, चन्त्रयुप्त, शलि वाहन] आदि सवस्पर प्रवैतक । शकद तत्‌० ( घु० ) रथ, गाडी, बैलगाड़ी, छकद़ा । | शऊकठाखुर तत० ( पु० ) दानव विशेष, कस ने श्री- ५ कृष्ण के मारने के लिये इसे भेजा था। इसने |] शफर का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को सारमे का उद्योग किया था, परन्तु स्पय मारा गया । शक ( एु० ) स्वरूप, सूरत, चिन्ह, चम, खण्ड, / भाग, छिलवा । शकारद्‌ तत्‌० ( पु० ) शालिवाहन प्रवर्तित सयत्‌ । शकारि तत्‌० ( घु० ) राजा विक्रमादित्य शकुन चत्‌० ( पु० ) सगुन, शुमसूचक चिन्ह, मद्गल- गान, पक्षी विशेष। [ और दुर्याधन का मामा । शकुनी ठत्‌० ( पु० ) गान्धार राजा सुरत का पुश्र- शऊन्त ( पु० ) पक्षी, चिढ़िया । शकुन्तजा तत्‌० (स्त्री० ) विख्यात घुरुवशी राजा दुष्यम्त की मद्वारादी, सद॒पि विश्वामित्र छे औरस और मेनका नामझ अप्सरा के गर्भ से यह उत्पन्न हुई थी । मर्दर्षि कश्व ने इसे पाला पोसाथा। विश्यात कवि फाखिदास निर्मित एक नाटक शकुल ( पु० ) मद्दत्ती विशेष | शहान्‌ ( पु० ) मल, पिष्टा, पुरीप । शकर (स्त्री० ) चीनो । शग्यी ( बि० ) सन्देदी, सशयी। [ छा, पुष्द। शक्त दत्‌ू० (वि०) समर्थ, शक्तिमान्‌, कठोर, बलवान, शक्ति तत्‌० (स्त्री० ) बल्ल, पुरपाय॑, सामय्ये, पराक्रम, अस्प्र विरोप, भाज्ा, वर्दी। इस्द्राणी, चैप्णवी आदि श्राठ शक्तियाँ। बश्चिष्ठ का ज्येष् पुन । “मान ( पु० ) घुरुषार्यी, परासमी । शक्तु ( पु० ) सतुझा । शक (पु ) इन्द्र मुरपति ।--नज्ित्‌ ( पु० ) सेघ- माद, शस्दथीत ।--घधठुप ( छु० ) इस्द्रघजुप। “छत (प० ) इन्द्रपुप्र, जयन्‍्त ।--पालि ( घु० ) अरुन । शकाणी (९ स्प्री० ) इन्द्राणी, रची, इन्द्र की परनी । शकाह ( पु० ) इन्द्रजद, फीट उिशेष, इन्द्र मोप । शग्मस ( पु० ) जन, प्राणी, मनुप्य । शग़ल ( पृ० ) फामकान । शगुन ( पु० ) शकुन, श॒भाशभ को पूर्व सूचना । शगुनिया ( वि० ) शदुन विचारने बाला । , शड्ढ ( पु० ) सथ, डर, सर्पराज । शड्भुर उत० € पु० ) शिव, शम्मु, महादेव । ( बि० ) शुभकर, कल्याणऊर, मद्गलप्रद। शड्भरया तदु० (ख्री० ) रामिणी विशेष ।--चार्य ( पु० ) धर्मचाय विशेष । [ भय । शड्भा तत० ( ख्री० ) सनन्‍्देह, सशय, शऊ, चास, ढर, शड्डित तत्‌० ( वि० ) डरा हुआ, भयभीत, दरपोंक्ना, बुज़दिल । शट्टु तन॒० (पु०) फीजा, खूँ टा, वी । शट्टू वत्‌० ( पु० ) स्वनाम प्रसिद्ध वाद्य विशेष ।-- चूड ( पु० ) एक नागराज ।--पुष्पी (ख्री० ) जढ़ी विशेष ।--नझुर ( घु० ) एक राहस । श्िनी वत्‌० ( खी० ) एक प्रसर की खी । शव्रान ( घु० ) शिररा, बाज । [इन्ड। शो (स्री०) इन्द्र वी स्त्री का नाम -पति (३० ) शी ( पु० ) एक प्रयार या क्यूतर । हा शठ तत्‌० (8० ) घूते, ठय, कपटी, च्यक +-न्ता (स्त्री ०) धूत्तता, ठगाई । शण तत्‌० (पु०) शन, पाठ, रण विशेष, मिसके घाल की रस्सी दनायी जाती है ।--खूत (६०) सुतक्ी, वैश्यों का यज्ञोपत्रीत | [ साँबियाँ। शयड तत्‌० ( पु० ) बैल, साँढ़ ।--ी (झी०) उटिनी, शयद ( पु० ) नपुंसक, हिजड़ा; साँढ। [ सैज्दों । शत तत्‌० (४०) सौ सरया, १०० ।--श भ्रसरयात, शतक (वि०) सौ का, सैफ्ड्ा । शतकोदि ( घु० ) इन्द्र के वत्न था नाम, सौ करोद । शतकतु ( ५० ) इन्द्र । शनप्ली ( स्त्री० ) तेप, मद्धामारी ! शतपुष्प ( स्त्री० ) सौंफ । [ नक्षत्र शतभिषा रात० ( स्प्री० ) नहद्र फा नाम, चौरीसयोँ शमनमूली ठत्‌० (स्त्री० ) लता विशेष। [ दरी। शतरंज्ञ ( स्प्री० ) एक खेल का माम ।--ी (स्थ्री०) शठता ( स्त्री० ) सौफ़ । झब्रु लत० (३० ) इंपी, बैरी, रिपु, अरि ता ( स्त्री० ) दुषतवा, रिपुता ।--पझ्ल (पु०) राजा दरारथ के घुत्र शनि (्‌ शन्रि तत्‌० ( छु० 9) सप्तम भह, सूर्यपुन्न, शनैश्चर । --चार (पु० ) सातवाँ दिन, सन्द॒वार । शुलेः शनेः लत्‌ू० ( अ० ) होले होले, धीरे घीरे । शनैश्चर तत्‌० (पु०) देखो शनि । शपथ तत्‌० ( पु० ) सौगन्ध, सोंह, किरिया शब्या ततू० ( पु० ) चाँद, चल्क्रसा, कोका, भार | शब दे० ( पु० ) मु, प्राणह्ीच शरीर, सतक्त | शब्द तत्‌० ( ४० ) ध्वनि, निवाद, बोली +--शास्तर (पु० ) ल्आाकरण । शप्त उत्त० (8०) शान्ति, निम्रह, इन्द्रिय वशीकार । शम्तन सत्‌० ( १० ) यम, यमराज, शास्ति । श॒प्रा (पु०) प्रकाश ।--दान ( पु० ) डीबद, बैठको। शमी सत्र० ( स्त्री० ) बुद्ध विशेष, अग्निगर्स इत्त । शस्बूक ततू० ( पु० ) सीप, घोंछा, एक शूद्र सपस्वी । शस्स् ( पु० ) भहादेव । शयत्र तत॒० ( १० ) नींद, बिद्धा, पर्लेंप । शय्या तत्‌० ( स्त्री० ) सेज, पलंग, बिछीना, खाद । शर तत्‌० ( पु० ) बाण, सौर, सरकरढा, सायक, विशिख ।--जन्मा ( घु० 9 कातिकेस । शरद तत० ( पु० ) कृकलास, ग्रिरगिट । शरण तत्‌० ( १० ) रहा, उद्धार, घर, मकान । शरणागत तत्त० (बि०) आश्रित, शरणार्थी, रक्ता के लिये आगत । श्राएय वत्‌ ( बि० ) शरण के येम्य, शरणदाता १ शरद तदू० ( खी० ) एक ऋतु, कुर्भार और क्ातिक सह्दीना । शरह ( ख्री० ) बेर; साब। रघ्स, रीति । शराक्षत ( खी० ) सम्सिलित, जो घटा छुआ न हो । | शर्राद्ा दे० ( छ० ) शब्द विशेष, सश्सरादट, सरसर श्दु, अर्चंढ वायु के चलने का शब्द [| शराफत ( री० ) सौजन्य, सभ्यता, सलमनसाइत । शाराव त्तत० ( छु० ) पुरवा, खक्ारा, मिद्दी छा पात्र विशेष, मदिद्य ।--ी ( दि०) मचप शराब पीने चाला । शरारत ( स्ली० ) नदखदी, दुष्टता । शरासन तत्‌० (घु०) घ्घुप, घन्‍्दा, चाय फा आसन) शरीर तव० (छु० ) द्वाय, देह, अन्न, यात्र । | शरीरी तत्‌० ( घु० ) शरीरधारी पुरुष, आत्मा ६ ईपछ 3) शासखो शककरा तत्‌० ( खी० ) चीनी, फर्मंड । शर्ते ( स््री० ) ठहराव, पण, नियस । शर्त ( घु० ) चीनी घुराजछ ॥-- ( स्वी० ) रंग विशेष, एक प्रछार का नीवू। शर्म ( ज्ी० ) हया, शर्म, ऊष्जा । शर्मा ब्रच्‌० ( इु० ) ब्राह्मणों का इपपड । श्री तव्‌० ( स्तरी० ) राज्ि, रजनी, शत, निशा, दामिनी । शत्तभ तद्‌० ( घु० ) कीट, प्तड़, क्रीड़ा, मकाड़ा । शलाका तद्‌० ( त्री० ) सलाई, झूँची, वूली । शलीता दे० ( छु० ) थैढा; घारा । शल्दूका दे* ( खी० ) पहिरन विशेष, झ्लियों के पहि- नने के एक कपढ़े का नास | शक्य तत्‌० ( पु० ) बाण, शक््य मह्देश के राजा, और युधिप्ठिर के मामा थे। महासारत युद्ध में ये कर्ण के सारथी बने थे । शव चत्‌" ( छ० ) प्राणह्दीन शरीर, मुर्दा । शबर तथ० ( ६० ) जंग्रल्ली जाति विशेष, भील, पुलिन्द ।--ी ( स्थी० ) मिक्तितली विशेष । शशक तत्‌० (४० ) ससा, खरहा, ख़रगेश | शशमाही ( ख्ी० ) छमादी । शशा ( ४० ) ज़रगेश (--छु (३० ) चन्द्रमा । शशि या शशी तत्‌* ( घु* ) चन्द्रमा, विधु | शश्वत्‌ ( श्रव्य० ) सदा, सर्वेदा, समातन | शस्त्र तत्‌० ( छु० ) अख्थ, हथियार । शरुय तत्‌० ( घु० ) धान्य, घाम, श्रज्ञ के पौधे । शहशाद्व ( ३० ) बसदशाह, संन्नाद । शहद्दतूत ( ध० ) फल विशेष | शददद्‌ ( ० ) मधु, दवा विशेष | शहनाई ( स्प्री० ) एक बाज्ा पिशेष । शाक त्व्‌० (४५० ) साथ, साजी, सवज्जी । शाकल या शाकक्य तदु० (घु० ) इृचन सामग्री, होम की वस्तु । शाक्का ( घ० ) शालिबाइन का चलाया साल । शाक्त तव० (०) शक्ति का उपासक, सम्मरद्रायविशेष। ' शाख आ शाखा तव्‌० (स्त्री०) ढाल, टहनी | --मुग (घु० ) वानर, कीश | शास्त्री तत्‌* ( घु० ) इत्त, रुख, पेड़, तर । शाब्व ( हैष८ ) शिखर स..............-- नमन मिनी नानी भी नानी नि नी न$ ऑन डी तन &€>ल्‍<:स:ी शाख्य चव्‌* ( घु० ) शखता, ठगड़ें, घूत्तेवा | शाण तत्‌० ( पघु० ) पुक प्रकार का पत्थर, जिस पर इवियार तेच किये जाते है, शान । [घुद्॒ण । शात (० ) कष्याण, सुख ।-कुम्स (६० ) शान ( पु० ) दृधियार पैनाने का पत्थर विशेष | शारदूल तत्‌० ( पु० ) पत्ति विशेष, बाघ, व्याप्त शाल ठत्‌5 ( छ ) कटा, कील, मध्य, विशेष, यृद्ध विशेष, पर्वेत विशेष |--्राम ( घु० ) मगवत्‌ मुक्ति विशेष, जो चण्ठझ्ी नदी से निशलती है । शाला तत्‌« ( स्प्री० ) गृह, मकान, भाढय । -दार ( वि० ) भरकीढा, सुन्दर [--शौकत | शालि तत्‌० ( धु० ) घान, चविल |--नी ( स्त्री० ) ( धु० ) आनन्दमद्ग छ, शौकीनी । शान्त तय्‌* ( वि० ) स्पिर, भछुब्ध, अ्चपुझ। शबन्तचु ( घ० ) मीष्मपितामद के पिया का नास । शान्ति तव्‌० ( ख्री० ) शम, स्थिरता) चेन, ठंदाई शाप व० ( पु० ) सराप, घिक्कार। भ्रधम चिन्तव शाम (ख््री० ) सनध्या, सूर्यान्‍्त का समय | शामत ( झ्री० ) युराई, सती । शामा ( स्री० ) पढ्ी विशेष | शापरियाना ( पु० ) चेंदोवा, चदिनी, पष्चणुद्र । शामिल्ल ( वि० ) समुद्र, सम्मिल्षित । शामी या शान लगाना या घरना दे० ( वा० ) तेज्न करना, घार चढ़ाना | शामूक तदू० ( 9० ) धोंधा, सीप । शाम्बरी बर्‌० ( ख्ी० ) मामा, इस्द्माड विद्या) शाम्मद तव० ( पु० ) शिवेषपासक, शैव | शायऋ ठव्‌ ( घु० ) विशिख, तीर, बाण । शायद ( भम्य० ) रुदाचित्‌ | शायर दे० ( पु० ) कवि, कवित्त बनाते वाला । शायरी दे० ( स्त्री० ) कविता, पद्यमयी रचना | शायस्ता ( वि० ) सम्य, शिष्ट, सम्जन ॥ शाया ( वि० ) शपन करने धाढा, सुवैधा । शारंग ( पु०) पपीदा, ग्टग, हाथी, भरा, मेर, घनुप। शारद्‌ ( बि० ) शरत्‌ सम्यन्धी । शारदा ( म्प्री० ) सरस्वती, वारदेवी । शारदो ( वि" ) शादूऋतु का। शारदो सब ( ४० ) शादी पूर्यिमा का वत्सव । शारिका ठतु० ( स्थी० ) सादी, स्त्रियों के पइनने का कपड़ा ) शारोरक ( वि* ) शरीर सम्बस्धी, प्यास सूत्रों पर भाष्य, आशमा, जीव | शागे ( विज ) सींध का घना हुआा। ( घु० ) घनुष, पद्दी विशेष । छुद विशेष, छेड़नेवाज्नी, दुख देमेवाली |--धादन ( पु० ) राजा विशेष। शाल्मली त्तद्‌० ( घ०) बृद्द विशेष, सेमठ का बच | शावकक ( घु० ) बच्चा, पशुओ्रों का बच्चा।. नाम | शायर तत्‌+ ( पु० ) मन्त्र शास्त्र विशेष, एुक पशु का शाशपत (क्रि० वि० ) ठयातार, यरायर, सतत, सदैव । शासन तत्‌० (पु० ) पालन अपराध का दण्ड] +-पच्च ( ५० ) हुकुमनामा 7--प्रणाली (स्थ्री ०) वाज्यभ्यवस्था, राज्य पद्धति । शासतीय तद्‌« (वि०) शासन करने येग्य, दण्डवीय | शासित तत्‌ ( बिन ) जिसका शासन किया जाय । शास्ति तव्‌* ( ० ) शासन, सीत्, शिक्षा, राजाशा । शास्त्र तव्‌० (गु०) नहीं जाने हुए शान को बताने वाले प्रन्य, विद्या ।--क्ष ( 4० ) शास्त्र जानने बाला । शास्त्रार्थ तद० (घु० ) शास्त्र सम्बन्धी वियाद, शास्त्र चर्चा । शास्त्री तव्‌० ( पु० ) शास्त्रज्ञ, शास्प्रदेत्ता | शास्त्रीय वद्‌० (वि०) शास्त्र सम्बन्धी, शास्त्र सम्मत | शाद्द (5० ) वादशाद, स्वामी, प्रभु +- ( वि० ) शाइ सम्बन्धी | शिक्वन दे० ( स्प्री० ) यत्ष, सिकुड़न । शिकस्त ( पु० ) द्वाए, पराज्य शिक्वायत ( स्प्री ६ ) निन्‍दा, टरूदना । शिक्षय तब» ( धु० ) सिध्दर, सीछा । शिक्षक तव्‌० (० ) सिखाने वाला, अध्यापद्र, दिधा दाता। [( ६० ) बसीयतनामा । गित्ता उद॒० ( स्त्री० ) सीख) सिखाई, उपदेश ।--पतन्न शिक्तित तद॒० ( वि० ) सीधा हुघा, सिखाया गया, निपुण, भमिशञ! [ हाम । जशिपयणडो ( घु० ) मेह, राजा मुपद दे पृक धुश्न का शिखर उत्‌» ( घु० ) शिक्षा, चोटी, स्थ्म, पर्यव के पर का साय [--ो ( [० ) पहाड़ । शिखा ( इईपऋ ) शीत शिवा तव्‌० (स्त्री० ) चोटी, हिन्दू छोग सिर के वीच | शिविका तत्‌० (स्त्री० ) पाछकी, डोली। में छुछ वाल रख छोड़ते हैं जे उनकी घामिंक | शिविर तत्‌० (छ० ) छावनी, पढ़ाव, घेना सब्रिवेश, इष्टि में डपयेगी और चावश्यक वस्तु सप्तकी जाती है। ज्वाला, अप्नि की ज्वाला ।-स्यूड़ ( पु ) केशपास, जटाजूट, --वल्त ( घु० ) भयूर, पत्ती विशेष। [मोर, मयूर, अप्ति, एक पेढ़ का नाम । 'शिखी तत्‌० ( वि०) शिज्धा विशिष्ट, शिल्लायुक्त। (ए०) शिथिल्न तत्‌० ( बि० ) ढीा, आलसी, मन्द, धीमा, अच्द |--ता ( स्त्री० ) आल्त्य, ढीलवापन ) शिस्वरि ( स्ती० ) सेम, पुकछता । शिरः तद्‌० (घु० ) शिर, मखक, भाऊ, कपाक: कपार ।--घरा ( छु० ) जिम्मेदार । शिरा तत्‌० ( घु० ) चाड़ी, नस, घमनी ) शिरीष ( पु० ) सिरिस का पेड़ | शिरोघरा ( स्त्री० ) गदेन, भीवा । शिरेमणि तत० ( छु० ) सिर पर धारण करचे की चस्तु, सिर का एक आमूषण | ( चि० ) उत्तम, श्रेष्ठ, सच से बढ़ा, सर्वोत्तम । शिरोरूद्द तत्‌० ( छु० ) बालक, केश | शित्ला तत॒० ( स्त्री० ) खिल, चद्दान, पत्थर |--जित शिला रस, शैलज, पर्चतों से उत्पक्ष द्वोने बाला द्वव्य विशेष, जे दुवा छे काम में आता है। शिक्षीप्ुख ( ० ) बाण, तीर, भौरा। शिल्लोश्वय ( 9० ) पर्वत, पत्थर की राशि | शिल्प वतू० (छु० ) कारुझछाये, कारियर। चित्र, व्यवसाय, ग्रुन, हुनर ।>«कार ( ७० ) शिल्पी, चित्रकार, खितेरा, कारीगर |--शात्ला स्त्री० ) कारखाना | शिद्पी ( छ० ) कारीगर । शिव ततृ० (३० ) भद्दादेव, मद्देश, मज्ञऊ, शुभ, कब्याण +--पुरी ( स्त्री०) काशी, वाराणसी। “--राजो ( स्त्री०) ब्रत विशेष +--सेनानी (५०) कार्सिंकेय । शिषा ततू० ( स्त्री० ) पार्वती, दुगों, उमा शिवालय ठत्‌० ( छ० ) शिवमन्दिर, शिव का स्थान । शिवाल्ना तंत्‌ ( पु० ) शिवात्यय, शिवमन्दिर । शिषि तत॒० ( छु० ) राजा उशीनर का पुत्र, ये राजा ययाति के दौदिन थे । सेना के रहने का स्थान । शिशिर तद्‌* ( 5०) ऋतु विशेष, जाड़ा, पाछा; द्विम; सर्दी, प्रा और फागुन इन दो मद्दीनों के शिशिर ऋँु कइते हैं । शिशु तव॒० ( पु० ) बालक, घाल, बच्चा -पात्त ( ३० ) चेदि देश का राजा, यद्ष चेदिराज दुमधोष का पुत्र था । यह श्रीकृष्ण की छुआ का छड़का था, इसके छे।दे माई का नाम दुन्‍्तवक्त था। शिश्ष- पार दी माता सुप्रभा के यह मालूम हो गया था कि शिकशुपाठ को श्रीकृष्ण मारेंगे । इसलिये उम्हें।'ने श्रीकृष्ण को शिक्षुपाक्त के एक सौ अपराध छमा करने के लिये प्रसन्न किया था । युधिष्टिर के राजसूय यज्ञ में उसने श्रीकृष्ण को बढ़ी गालियाँ दीं, उसके सौ अपराध पूरे होने के बाद श्रीकृष्ण ने उसे मार डाढा [--ता ९ स्प्वी० ) लड़कई, लड़कपन, चबश्नुलता |->मार ( ४० ) संस, जलबन्दु विशेष, झाकाश में ताराशों का समूह विशेष | शिक्ष (३० ) पुरुषेन्द्रि, लिक | शिष्ट तव्‌० ( धु० ) सदाचारी, प्रतिष्ठित, सलामानस | “-ता ( स्त्री० ) सदाचार, मकमनसी । शिएई दे (स्त्री०) नेवता, निमनन्‍्त्रण, आदर, सम्सान, शिष्टाचार ।--ज्ञाना (#क्रि० ) किसी नातेदार के यहाँ सौत होने पर सातमडु्सी या समवेदना अकाशित करने के लिये जाना | शिणाचार ( ४० ) सत्कार, शिष्टों का झ्राचार । शिष्य तव्‌० ( ३० 9 छात्र, विद्यार्थी, बेला । शीकर तव्‌० ( धु० ) कण, जलकण, फुद्दार, फुद्दी | शोघ्र तत्‌० ( वि० ) च्वरित, चुत, द्ुत, तुरन्त, जल्दी | -+मामी ( वि० ) वेगवान्‌, वेगी, शक्दी चले चाल (ता ( स्थ्री० ) जल्दी, चेग, सतावली । शीत ठच्‌० ( बि०) ठंढा, से, शीतल, आछसी (घु०) लाढ़ा, सदी, द्विम, पाला ।--ऋदटिबन्ध ( घु० ) घथित्री के २३ेई अश उत्तः और २३६३६ ही अंश दक्षिण का भू भाग [--कर ( पु० ) ढंढी किरयों बाला, चन्द्रमा (काल ( धु० ) देसनत ऋतु, श७ पर्‌ू०७--ऋछ शीतल ( शाई का दिन [--उपर ( पु० ) जूदी, वद ज्वर जो जञाडा कग कर भ्रावे। [शीतगुण, ठडापन | शीतल तव॒० ( घु० ) ठडा, सदे ॥-ता (स्थ्री० ) शीतलाई या शोवज्ञताई ( स्त्री० ) शीवलवा, दडाई, ठंडापन | शीतला तत्‌ ( स्त्री० ) देवी विशेष, माता, चेचक | शीर्ताशु तवब्‌* ( ० ) चन्द्रमा, चन्द्र, सुर्ाथ | शीताडू तव० ( घु० ) एक रोग विशेष, जिध रोथ में आधा शरीर घन्य द्वो जाता है। अ्रद्घोक्न, पत्ता- घात, छकवा, रोग । शीतार्त तबु० (गुल ) शीवपीरित, ठ5इ ले कपिन ! शीतोध्ण ( वि० ) गर्म ढदा, सद्‌ गर्म, सुस दुख। शौरा दे० ( पु० ) हलुझा, मोहनभोग, चीनी के पानी में आग पर सूजी गला कर जो थनाया जाता है इसे सीरा कद्दते हैं शीर्ण वत्‌० ( बि० ) जीर्ण, पुराना, प्राचीन, पुराना होने से गला हुआ, प्िल्कल, निकम्मा। शीर्ष तव्‌० ( धु० ) सोस, सिर, माथा, मस्तक। शीक्ध तत्‌० ( घु० ) कृति, बान, उत्तम स्वभाय, लखा, सम्मान बरने बाला खभाव)-पधान्‌ (वि०) सुशीक्ष, मिलनसार, सम्मान करने चाला। शीशम्र दे* ” पु० ) एक रक्त और उसकी छफ्ड़ी। शीणमहल ( पु० ) शीरे का घर। शोणा ( पु० ) कांच, दर्पैए, ऐेनफ। शीशी (९ ख्री० ) शीशे का छोटा पाय्र। शीस ( घु० ) साथा, भम्तक, सिर। झुऊ दत॒० ( घु० ) पही पिरोष, तोता, सूचा, सुग्या। दैव-- ( घु० ) चेद विभागक्ता मदद ह््च्ण > इंपायन के पुत्र, इनका उपनयन मद्ादेव ने जिया धा, देवराज इन्द्र ने इनसे फमएडल और देवासन ऐसर सम्मानित जिया था | शुफ्देव अद्माचर्य पूर्वऊ पिता के निश्य मोद्चमे का श्रययन करते थे। थोदे दिनों के दाद पिता के उपदेश से सोक- घमे में अपना सन्‍्देद मिटाने के लिये मियला- थिप जनफ्राज के पास सये। मोएपम की शिक्ा पूरी करके हिमालय प्रदेश में ये स्थामाश्रस में रहने लगे। यो बटुत दिनों तक शिष्य सण्दल गो उपदेश देने रदे। ६६० ) शुभाकाइत्ती शुकाचार्य ( इ० ) देखो श॒कदेव। शुक्ति तत- ( ख्री० ) सीप, घोंघा। शुक्र तत० ( षु० ) ग्रद्द विशेष, छुदवाँ अइ, उशना भागंव, कवि, ऋषि विशेष, दैत्यगुर, आ्राग, अधि, चल, सामर्थ्य ।--घार ( ५० ) छुट्वाँ दिन झुकाचायय दत० (घु० ) देल्गुरु, ये महपिंस्गु के पुत्र भे। इनके एक फन्‍या और दो पथ थे, क्‍या फा देवयानी और पुत्रों का नाम पणड तथा अमझऊे था । देवगुरु बृहस्पति के पुश्र क्च ने इन्द्रींसे सत- सजीवनी विद्या सीसी थी। शुक्रिया ( खरो० ) साधुवाद, धन्यवाद। शुरु तव्‌ ( बि० ) रवेत वर्ण, उजला, घैला, सफ्रेद। “पत्ते ( पु० ) सुदी, मिस पर में चन्द्रमा बढ़ता है। ( छ॒द्ध, निर्मल, पृत, स्वच्थ। शुचि तत्‌० ( वि० ) रवेठ, श्येतवर्णे, श॒क्र, पविद्न, शुराठी तत७ ( ख्री० ) श्रीपध विशेष, सॉठ, सूसा हुआ अदरख | तव॒५ ( पु० ) सूढ़, हाथी का कर। मद पर ( बि० ) हय सफा, स्वच्च, निर्मल, निर्दोष, दोष रद्दित +--ता ( ख्री० ) पविश्नता, निर्देषिता, स्वस्छुवा । [पत्र ( घु०) सफ्राईनासा । शुद्धि ठत्‌०» (स्री०) प्रविश्रवा, शोधन,सफ्राई शचिता,-- शुद्धोदन तत्‌० ( घ० ) कपिज्ष वस्तु के राजा, तथा अगशध्मसिद्ध शुदददेख के पिता । झनेफ वत्‌० ( घु० ) मदपि ऋधीक फा मसल्ला पुत्र, महाराज अम्वरीप के यज्ञ में ये वक्ति देने के लिये लाये घये थे। कृपापरथश महषि विश्वासित्र से इनमखो ध्रप्नि वी स्वुति सिपाई थी। इनकी स्तुति से श्रप्निदेव प्रसक्ष हुए और ये मो गज्षाप्रि से अ्र्तत शरीर निकले। तदनन्वर विश्वासित्र ने ही इनको अपना पोष्य पुत्र वना लिया। शुभ तत्‌० ( पु० ) मद्डल, कल्याण, अच्छा, सत्ना। ्चिन्तक (घु० 9) द्विवचिस्तर, दिवकारी। जजलम्म (६० ) उच्त। मुहृ॒ते, करयाणरारी समय, महझलमय अवसर / [ प्रद । शुभडु र तत्‌० ( वि० ) महलपारी, हृपाक, कल्याण- घुभाकाटत्ती तत्‌० ( वि० ) शम चाइने बाला, द्वित- चिन्वक, हितेपो । न्‍: झंभ्र ( शुभ्र तत्‌० ( वि० ) स्वच्छ, विशद, रेत । शुम्स॒ तत्‌० ( पु० ) दानवराज, इसके छोदे भाई का नाम निश्ुस्भ था । चण्डी के हाथों ये मारे गये। शुरू ( प० ) आरुभ, पारस्स, आदि । शुद्क यत्‌० ( छ० ) किराया, भाड़ा, चुड्छी, फीस । झुश्रुपक तत्‌० ( घु० ) सेचा फरने वाला, सेवक, मूल्य, नौकर। शुश्रूपा तत्‌० ( खी० ) सुनने की इच्छा, सेवा, टहल । शुषेण वत्‌० ( एु०) चानरराज, इनकी कन्या तारा बाली वो ज्याही थी । इन्होंने शक्तिहदत लक्ष्मण का औपधोपचार किया था । [ कठोर। शुल्क रुतू० ( बि० ) [ शुपू+क | सूखा, नीरस, शूकर तत० ( घु० ) खूअर, वराह >ख्ेत ( घु० ) शूकरज्षेत्र, त्तीर्थ विशेष । [कीखी। शूद्ध तत० ( छु० ) चौथा वर्ण ।+-- ( खो० >) झद्ध शून्य तत० ( बि० ) रिक्त, रीता, जनशुन्य, असम्पूर्स, असमस्त । छुछा, ख़ाली, पुकान्त, आकाश । ता (खत्री०) छछापन । >चादी (छ० ) बौदू: विशेष, नास्तिक । शूर ततू० ( छु० ) बीर, डत्साही, बलवान ता ( स्री० ) घीरता, उत्साह ।लेन (छ० ) सधुरा के एक राजा का नाम ।>च्रीर (वि० ) बहादुर । झ्ूपे ततू० ( ४० ) सूप, छाज, सिरकी का बना पुक पात्र जिसले अन्न पछोरा जाता है ।--नखा ( ख्री० ) रावण की अद्दिन जिसकी नाक लक्मण से काटी थी । [ का काँटा । शूल्ल तत्‌० (छ० ) अख्थ विशेष, कोहे का एुक प्कार शूली (३० ) दीप ( वि० ) श्वूलरोगचाला । श्यगाल्व ततू० ( छु० ) सियाल, गोददढ़ । श्ट्डुज्ा तत्‌० ( खी० ) साँकल, सिकरी ! श्यूट्डुलित तत्त्‌० ( वि० ) सौँंकल के समान नथा हुआ, एक दूसरे से रूगाया हुआ। श्यज्भु तत्‌० ( छु० ) सींग, विषाण |-वेर ( घु० ) नगर विशेष, आदी, अदरख । >टुद्ञार तत्‌० ( छु० ) सजाबद, श्ऐेभा शोमा; के लिये शरीर का परिप्कार और भूषण आदि पहनना । रस विशेष, अथंस रस, अज्वार रख द्््शू ) शैब्या दि में रति स्थायी भाव है नायक और लायिका आल्म्वन हैं। श्यड्जी तत्‌० (वि० ) सींग बाला, झ्ठ विशिष्ट ।( छ० ) ऋषि विशेष, ये लोमश ऋषि के चेले थे । इन्होंने राजा परीक्षित को साँप काटने का शाप दिया था ! शेंखचिल्ली ( छ० ) प्रसिद् मसखरा | शेखर तत्‌० ( छु० ) फूलों की माला जो मुकुट पर धारण की जाती है | भूपण विशेष | हिन्दी के एक ऋवि का नाम । सिर, मस्तक, कपाल । शेखी ( स्त्री० ) श्रसिसान, घमण्ड । खेर ( पु० ) व्यघ्, बाघ (स्त्री० ) शेरिनो । शेल उत० ( घु० ) बर्छा, भाला, अस्त विशेष | शेल्लु ( $० ) मेंयी का साग। शेप तत्‌० (वि०) अवशिष्ठ, बचा हुआ, अ्रन्त, सीमा। ( छु० ) सर्प, साँप, भाग ।--शायी ( ४० ) विष्णु, नारायण । [ बुढ़ापा ! शेपावरुथा तत्‌० ( ख्री० ) छुद्धावस्था, अन्त फी दशा, शैतान ( छु० ) धर्मकर्म विरोधी, असुर । शैत्य तत्‌० ( पघु० ) शीतक्ता, ठंडा, सर्दी । शैथ्िड्य तत्‌० ( छ० ) शिथिलता, झालस्प, दिलाई । शैल्ल तत्‌० ( घु० ) पहाड़, पंत ।--राज़ (9० ) हिमालय, हिमाचल । [ भिन्न, भील । शैलाद तत्‌० ( छु० ) [ शैल + अद्‌ ] सिंह, किरात, शैली ( ख्री० ) रीति, भाँति प्रकार । जैव तत्‌० ( छु० ) शिवभक्त, शिवोपासक, एक सास्प्र- दाय विशेष | शैंबाल त<० (पु०) सेवाल, जलमल, जस्बाल, सिवार। शेची ( खस्वीौ० ) पाधती (जिं०) सिवोपासक, शैव। ह शेब्या तत० ( स्री० ) महाराज हरिश्चन्द्र की रानी, मदृर्पि विश्वासित्र ने हरिश्चन्द्र की धर्मबुद्धि, आत्मत्याग, कष्ट सहिप्णता आदि की परीक्षा के लिये इन्हें बढ़ा कष्ट पहुँचाया था। उस समय महारानी शैच्या एक माद्चण के हाथ घिकी थीं। ऐसे कष्ट के समय डचका पुत्र साँप के 'काटने से + सर गद्य] स्डतपुन्र का शव इसंशान सें रख कर शैब्या रो रही थी, इसी श्मसान में राजा हरिं- झचन्द्र डोम का काम करते थे! विश्वामित्र इन शैशब ( दै२ ) श्राषक॑ पर प्रसत हुए, झवपुत्र पुन जीवित हुआ और उन लोगों को उनका राज्य मिल गया। शेशय ( पु० ) वालक्पन, शिश्ुता, लडकपन) शोक हद्‌० ( प० ) शोच, चिन्ता, दु सर, खेद एशचा- क्षाप, पछ्तावा। शोकाकुज़ तव्‌ ( वि० ) शोकयुक्त, शोकपीडित। शोका्त तव्‌० ( वि० ) शोकाकुल, शोकयुक्त। शोकापद्द तद्‌० ( वि० ) शोक्नाशक, दु खनाशक शो ( वि० ) ढीठ, अमिमानी ।-टी ( ख्त्री० ) धुएठा, अमिमान। शोच ( घु० ) चिन्ता, दु स, विचार (क्रि०) शोचना। शोण दत््‌० (१०) अतसी, रक्त, लालदर्ण, नद विशेषा शोणित तर्‌० ( पु० ) लोहू, रुचिर, रक्त । शोध सद्‌० ( घु० ) सूजन। शोध त्तव्‌० ( पृ० ) खोज, अनुसन्वान, श॒द्धि, ऋण को घुआाना, वदला। [ पवित्र करण। शोघन तत ( पु० ) स्वच्छ करना, निर्मेल करना, शोधनी तत० ( स्त्री० ) बुद्वारी, बढ़नी। शोधा ( वि० ) शुद्ध किया हुआ, दूँ दा गया। शोमन उत० ( दि० श्रेष्ठ, उत्तम, अच्छा,भला ६ घोभा तत्‌ ( स्त्री० ) काम्ति, दोछि, सुन्दरता, छवि, मनोइरता ।--यमान ( वि० ) सुन्दर मनोहर। शोमित ठत्‌० ( घु० ) विभूषिठ, शोभायमान, अल- कृत सबा हुआ। शोर ( पु० ) कोलाइल, गुलगपादा। शोरा ( पु० ) द्वब्यविशेष। [ यनाये जाने हैं, अयारा। शोला ( ४५ ) बच पिशेष, जिसकी छाल के पस्म शोददा दे० ( वि० ) विज्ञासी, लुच्चा, लपट, चला । शोषक तत्‌« ( वि० ) शोपण करने बाला, रसाप- कर्क, रस खींचने घाला, चूसने बालाा शोपण तव० ( पु०) सोखना, चूसना, सुखाव! शोकिऊ (३०) मोती, सीप, शक्ति से उत्पक्त आच तस्‌० (पु०) शचिया, पविश्नता, सुन्दरता, स्नान, स्वष्प्ता। शौगिडिक रत्‌० ( १०) फलवगार, शराद येचने याज्ञा। शेीनक रव० ( घु०) पक तपोवत्त सम्पन्न ऋषि, इन्दोंने मैमिपारणय में द्वाइश घर में समाप्त दोने चाछ्े एक यज्ञ का अजुष्दन फ्िया था। ६2 4 शोरि ( इ- ) श्रीहृष्ण । हे जैये वद्‌० ( घु० ) शूरता, सामर्थ्य, शक्ति । श्मशान तत्‌० ( घु० ) मुर्दाघाट, मरघर, नदी, तालाव या नगर के वबाइर का बह स्थान जहाँ सुर्दे अलाये जाते हैं । श्मश्रु ठव्‌० ( छु० ) में छू, माथे । श्याम तत्‌० (वि० ) काला, कृष्णवर्ण ॥-कर्ण € पु० ) अश्व विशेष ता (खत्रो० ) छालापन साँवलापन ।--सुन्द्र ( पु० ) श्रीहृष्ण । इयामल तत्‌० ( वि० ) हृष्णवर्ण विशिष्ट, काला । श्यामा तत्‌० (स्री० ) युवती, यौवन प्राप्ता स्त्री, से।लह वर्ष की स्त्री, पह्ठी रिशेष, देवी विशेष । श्यामाक तत्‌० ( घु० ) साथाँ, घान्य पिशेष श्यालक ठत्‌० ( घु० ) साला, ख्तरी पा माई, पत्ती का आता । श्याला ( पु० ) साला, पल्ली था भाई । श्येन तत० ( घु० ) पद्दी विशेष, बाज पढ़ी । श्रद्धा ठत्‌० (ख्री० ) भादर, प्रेम, सम्मान, गुर, पिता आदि माननीय घ्यक्ति विषयक प्रेम ।--लु (वि०) अ्रद्धायुक्त, श्रद्ावान्‌ । अ्रद्वेय तद्‌० ( वि० ) श्रद्धा करने येग्य, पूज्य, सान्य। श्रम ठव० (घपु० ) परिश्रम, मिदनत, ठद्योग ॥-- जीवी (५० ) कली, मंजर, किसान ।-कण ( पु ) पसीना । अ्रमित तद॒० (वि०) श्लान्त, थका हुआ, थका, माँदा ! अ्रमी ततच्‌» ( बि० ) परिध्रम, करने वाला, उद्योगी, उत्पाद पूर्वक प्रयल करने बाला । अ्धवण ठव्‌» ( धु० ) कान, कर्ण, कर्णेन्ट्रिय । (स््री०) नचत्र विशेष, पुक नक्षत्र का नाम, धाईसर्वों नहय। श्राद्ध ठव» ( धु० ) श्रद्धा पवेंक किया हुआ कमें, पिलरों की ठृत्ति के लिये तपेय पिणढ दानादि। +हेंय ( घु० ) यमराज, धर्मराव, बाह्य ।-- पत्त ( पु० ) आश्विन का रृच्णपच । आआन्‍त व्‌» ( वि० ) श्रम्मित, थक्ा हुआ, थक्त । आन्ति ठत० ( स्ली० ) धरम, थरायट, परिश्रम घन्य अदसाद, शरीर फी शिवित्ञता । आवक ( पु० ) जैन गृहस्थ, सरायगी । आधिण ( दुं&३ ) श्वेत आवश चत्‌० ( घु० ) सास विशेष, पाँचवाँ सहीता । आवणी तत्‌० ( ख्री० ) श्रावण की पूर्णिसा ।--कर्म छत्‌० ( घु० ) उपाकर्स, रावण की पूर्णिसा के किये जाने चाले कर्स | आयी तत० ( स्रीौ० ) सम्पक्ति, घन, ऐश्वये, विभव, शेशभा, कान्ति, चत्ति, छुबि, रट्ष्मी, इल्दिरा, विष्छुपली, रोरी, झुछुम, लैंग, वाणी---खयड (पु०) चन्दन, हरिचन्दुन ।--चक्र (पु०) देवी की पूजा का यन्त्र विशेष |---चूर्ए तव्‌० (स्वी०) रोरी, कुछुप ।--घराचार्य ( छु ) भागवत के विख्यात टीकाक्वार पण्डित विशेष |--नमर (9०) फाश्मीर राज्य की राजधानी ।--मनिवास ( ४० ) विष्णु, नारायण,वेछ्ुटेशजी का नाम । (वि०) घनी ।--पति (पु०) लक्ष्मीपति, नारायण, विष्णु भगवान (-- फल्न ( छ० ) वि्वफल, नारियल, नारिकेल [-- मत्‌ ( बि० ) धनवान, धनी, ऊक्ष्मीपात्र ।--सुक्त (पु) घनी, की्िमानू, यशस्वी ।--झुस (ग्रु०) भाग्यवान्‌, जध्ष्मीपात्र, धती ।--बत्स (४०) विष्णु भगवान्‌ के वत्तःस्थछ का चिन्ह ॥--हंत ( बि० ) शेभाहीन, निष्भस ।--हद्ड (घु०) ढाका के पूरे एक नगर का नाम, सिलदट ।--हर्ष (9०) भद्दाराज आादिद्वुर ने जे। कान्यकुब्ज से पाँच झाक्षण चुलवाये थे उनमें पूक श्रीहृवर्ष भी थे। इन्हीं के चंशज भुम्रेपाध्याय कहे जाते थे। इनका समय १००० ई० सन्‌ अछुसान किया जात दै। इनके पिता का नाम श्रीदरी था। सैषधीय चरित नामक काब्य इन्द्रोंने घनाया है। जे संस्कृत साहित्य का अमकता छुआ एक रल है। इसके अतिरिक्त गोड़ो- बॉशिकुरप्रथस्ति, अर्थववर्णव काव्य नवसाइसाहुः- चरित, सखण्डन खयडखाद्य 'भादि,वहुत ग्रन्थ इन्देंने बनाये हैं । परन्तु इनमें सण्डन खण्डखाय के अति- रिक्त दूसरे अन्य उपलब्ध नहीं छोते। ये विद्या बुद्धि में अचुछमीय थे। इन्दोंने नेषधीयचरित में अपनी जिस भदखुत कवित्वशक्ति का परिचय दिया है बह धनेखी है । झ्लुत तब ( घु* ) सुना हुआ, कर्णंगत, कर्आप्त, कर्णगाचर |--कीर्ति (स््री०) शबुघ्र की ख्री, यह कुराध्यवज जनक की कन्या थी, इसके दे। पुत्र थे, एक का नाम सुबाहु और दूसरे का सास शब्रुधाती था । श्रुति दद० (स््री०) कान, कर्य, वेद | शआवा (एु०) बक्चीय पात्र विशेष | शेणी तत्‌० ( स्री० ) पंक्ति, पति, लकीर, कतार । श्रेयः तत्‌० ( घु० ) मक्गल, कक्याण, शुभ । श्रे चब० (वि०) प्रधान,बढ़ा, माननीय +--ता (ख्री०) प्रधानता, उत्तम्तता [ आओपतरवब्य तत्‌० ( वि० ) श्रवणीय, सुनने बेग्य, अच्छे अपदेश । श्रोता तत्‌* (घु०) सुनने चाला, सुनवैया । श्रोत्र लव० (पु०) कान, कर्ण, श्रवर्णेन्द्रिय, श्रवण । श्रोज्िय तत्‌० ( पु० ) वेद, वेदपाठी । घतलाघधा तद्‌० (खी० ) स्तुति, प्रशंघा । [के योग्य । श्लाध्य तत्‌* ( थि० ) भशंसनीय, वर्णनीय, -श्लाघा शत्तेष तत्‌० (छु०) आलिक्षन, संग्रेभ. अबकूर विशेष, इसके सभन्न और अभक्ञ दे भेद छोते हैं | यथा-- पुक चचन में द्वात नहिं, बहु अर्थन के ज्ञान | श्लेष कहत हैं ताहि क#।, सूषन सकरछ सुजान ॥ “+शिवराज्ष भूषण | शल्लेष्मा तत्‌० ( घु० ) कफ, खखार, शरीर, सम्बन्धी, बत्रिविघ विकारों में एक प्रकार का विफार। शल्ताक तव« (घु०) कीर्सि बश, कीत्तिगान, पथ, छन्द, छुन्द विशेष, अनुष्डुप छुच । श्वपच्च ( छु० ) डोर, चाए्डाल। श्वखुर तत्‌० ( घु० ) पति या पत्नी के पिता, पति का पिता, पत्नी का पिठा । ला श्वश्नू तत्‌० ( ख्री० ) सास, पति या पत्नी की माता, श्वसुर की स्त्री । इंसान ( घु० ) हवा, वादु, पवन । शान तत्‌० ( घु० ) कृचा, कूकड़ा। श्चांस चत्त० ( पु० ) आण, दस, प्राणवायु, साँस । शि्विच्न ठत्‌० ( घु० ) रोग विशेष, श्वेत कुष्ट, सफ़ेद कोढ़ । श्वेत ( ० ) सफेद, घौल, शुक्ल ।--केतु ( ४० ) ऋषि विशेष ।--ता (स्त्री० ) सफेदी -- सर्पप ( स्त्री० ) पीली स्लो । उन्घल, शक्ल, शुकल्वर्ण, घवल ।--छीप (४० 2 वैकुण्ठ द्वीप प्‌ विशेष, एक देश का नाम, इसी द्वीप में नर नारा- यण तपस्या फरते ये | मह॒पि कपिल का भी तप- स्थान यही है । ( दह४ ) सकामक इवेता ( स्त्री० ) दूध, घास, तृण । [लऊ के पुश्न थे। श्वेतकि तत्‌० ( 9० ) ऋषि विशेष, ये महर्षि उद्या- इवेतिका ( स्त्री० ) सौंफ । प स्यक्षन का इकतीसवां वर्ण, यद वर्ण मूर्धन्य है। क्योंकि इसका उच्चारण स्थान मूर्दां है | पद तब॒० ( बि० ) सैस्या विशेष छू ६ +-ऊर्मि (स्री०)ब प्रहार की तरहें, वे ये हैं-प्राय और मन की सूख, प्यास, शोक तथा मोह और शरीर सम्बन्धी जरा तथा र॒स्यु ये द्वी पटऊर्मियां दें । इसी वात को पुक संस्कृत पण्डित कद्ठता है।बपा ।--- ४ बुभुक्वाच पिशसाच प्रायस्य सनस स्छती । शोक मोह शरीस्य जरास्टल्यूपटूमेय” ॥ '? --ऊर्म ( पु ) छू प्रकार के कर्म, जो थाह्म्णो के कर्त॑म्य है यथा--भध्ययन, अ्रध्यापन, यजन, याजन दान ओर प्रतिप्रद ।--फैय (पु०) छुकाना हु कोण का खेत आदि ।--चझ (पु०) शरीरप्प छु' चक्र इनके नाम हैं।भाषघार स्वाधिष्ठान, मणियूह, भनद्वत, विशुद्धि, पा ।--पद ( छु० ) अमर, भौंरा ।-पदी (श्री-) छुप्पय उन्द, घन्द विशेष [--प्रयेश (५०) तन्त्र सम्इस्धी छः भ्रमेय, शाम्ति, वशीकरण, स्नम्भन, विप्रेषण, उच्चाटन भौर सारण ।--रख भेज़न (पु०) पट रसयुक्त मोजत ।--धदुन (१०) कार्तिंझेय, देव सेनापति । --थर्ण ( १० ) काम, क्रोष, लोभ, मेदद, मद और मत्सर ।--शाख्त्र ( ५० ) पददर्शन, न्याय; वैशेषिक, मीमासा, वेदान्त, सास्य और पातअल। प्‌ | पड़ड्डू तत० (० ) [पदु+थ्ज़ ] वेद केच अन्न शिक्चा कदप, च्याकारण, ज्योदि , छन्द, निरक्त | हाथ पैर श्रादि शरीर के अड़ । पडटब्रि दत्‌० ( ६० ) अमर, भौरा । पड़यिधि तत्‌० ( प० ) छ भ्रकार, छ भाँति! पड़ानन ( ३० ) कार्ठिझेय, देवसेनानी परड्झतु ( ३० )[छ + ऋतु ] कसन्‍्त, औष्म, बर्षो, शरदू, देमनत, शिशिर | पड्दर्णन ( इ० ) देसो पद्शास्त्र । पण्ड ठत्‌० ( पु० ) साढ़े, बेल, समूह । पण्ढ तत्‌० ( १० ) नपुंसर, छिजढ़ा । पप्ठि ठत्‌ ( बि० ) सस्या विशेष, ६० । चष्ठ' तत्‌० ( वि० ) घद्वाँ, छू का पूर्ण करने बाली संस्या ।--ी ( ख्तरी० ) तिथि विशेष, कारक विशेष। पष्टम्‌ दत्‌० ( १० ) ध॒व्वाँ, छण। पोड्श तत्‌० ( बि० ) साल, १६ ।--दान (०) दान पिशेष ।--भ्ुज्ञा ( स्त्री० ) हुगां, देवी। --सस्कार ( ६० ) कर्म विशेष, सालदइ प्रयर के ससस्‍्कार ! यघा गर्मायान, पुसवन, सीमन्त , जात- कर्म, मामयरण, निष्कमण, अन्न प्राशन, चूडा- कर्ण, क्णवेध, यज्ञोपपीत, वेदास्त्र, समानतेन, विवाद, ठिरागमन, स्वऊ, ऑरष्व॑देद्टिक । चोड़शी (स्त्री० ) श्राद्ध विशेष । $ स ब्यक्न का बतोयदा यों, हसका उथारण स्थान इन्त हैं, अ5प्‌द पद बर्य दल्य है। से तद्‌* ( भर० ) सप्र, स्ताथ, सत्र, सद्दित। संकार दद्‌« ( ध* ) शिव, मदादेक, रामग्यण में यह राव इस रूप में प्रसिद है । संकुल तद्‌० (वि०) मग हुआ, पूरा, पूर्सों सम्रत | सं संक्रम तद* ( पुन ) सजर, एक स्थान स्याय पूर्वक अम्यत्र ग़मन, जाना, पुक वक्छतु का गुण दूसरी चस्तु पर जाना । संफ्रान्त तव॒० (वि०) सम्बन्धी, विषयक, प्रतिविम्दित । संफान्ति तव्‌० ( ख्री० ) सूर्य का पुक राशि परसे दूसरी राशि पर ह्ञाना | [ उढ़ना । संफ्रामक उत््‌० ( वि* ) फैटने बाबा, छुघाट्टवी, संत्तिप्त संक्षिप्त दच० ( घु० ) [लैं+छिप्‌ +क्त न्यून, अर्प, थोड़ा, घदाना, कम किया हुआ । संत्तेप तद॒० ( घु० ) [ सं+जिप्‌ + धज्‌ ] न्‍्यूलता, अर्पता, सारसाच । संखिया ( छी० ) एफ प्रदार का विष । संख्या त्दू० ( स्त्री० ) गणना, गिनती, सदुःलन । संग तत्‌० ( पु० ) साथ, सेहबत । संगत तव्‌० ( सत्री० ) सज्ञति, साथ, मित्रता, सिक्‍्खों का धर्मेमन्द्रि [छा ख्यान । संगम तब० ( पु० ) मेल मिलाप, नदियों झे मिलने संग्रह तद्‌ू० ( घु० ) रकन्नीकरण, सत्चय, वटोरता । संगम तद्‌० ( ७० ) युद्ध, समर, रण लड़ाई जंग । संचना दे० ( क्रि० ) सल्युय करना, संग्रह करना, शुकत्रित करना; बढोरसा । संज्ञा तत्‌० ( स्री० ) नाम; आाख्या, श्रभिधान, नाम- धेय, बुद्धि, चेतलता, गायत्री, सूय॑ की सत्री और विश्वकर्मा की फन्या का नाम $ संजोना ( क्रि० ) सज्ञाना; यधाक्रम रखना। संजोचन दे० (क्रि० ) सेबेजन करना, संयुक्त करना । संजोया दे* ( बि० ) परोसा; सजाया । संन्यासी तदू ० ( $० ) चतुर्थाश्षसी, योगी, यती । संपत्‌ तत्‌० (स्त्री० ) सम्पद्‌, घन, ऐेश्वर्य, विभव । संभलना दे० ( क्रि० ) सहायता पाकर बचना, घंभना, पकड़ना, बचसा, उबरता, इद्धार पाया । संसालना दे० ( क्रि० ) घद्ायता देकर बचाना, सद्वारा देना, उबारता, बचाना । संयम तत्‌० ( घु० ) नेम, नियम, मत्त, इन्क्षिय निम्नहठ, एन्द्रियों के। अपने वश पं करना | संयमिनी ( ख्वी० ) चमपुरी ।--णति ( पु) यमराज । संयमी ठव्‌० ( पृ० ) मुनि, येशगी, यत्ती, वशी, जिसने ये क्रिया द्वारा अपनी इन्द्रियों का चश ऋर किया है! [ इन्चा । संयुक्त तत्‌० ( घि० ) सम्बन्धयुक्त, मिला हुआ, सदा संयुक्ता दे० ( खी० ) एथ्वीराज की रानी और कन्नौज के राआ जयचन्त्र की कन्या | इनका ११७० ई० में जन्म हुआ था ) ११६० ई० सें पृथ्वीराज ने इनके व्याहा और ११६३ ई० में सुहम्मद गोरी के साथ युद्ध में एथ्वीराज के पराजित और राज्नु ( ६४ ) संख्ति के हाथ बन्‍्दी होने पर सैँयुक्ता ने देद स्याग किया था। इन्होंने युद्ध से जञने के लिये उच्यत अपने पति के युद्ध सामझी से सज्ञाया था | संयुग तत्‌० ( पु० ) युद्ध, संग्राम, समर, लड़ाई । - संयुत तत्‌० ( वि० ) संयोग प्राप्त, मित्रित, मिक्षा छुआ, जुढ़ा हुआ | संयेग तत" ( पु० ) मेद्य मिक्षाप, सम्बन्धी विशेष | संयेजित तद्‌० ( वि० ) मिलाया गया, कृत संयोग | संरम्त तत्‌० ( घु० ) काप, क्रोध, मानसिक आवेग, आक्रोश । [सेचा करना, चिन्तन करना । संराधन त्तत्‌० ( घु० ) छेघा करना, सब॒ प्रकार की संराव तत्‌० ( घु० ) ध्वनि, शब्द, पढ्ियों का शब्द । संलझ तत्‌० ( घु ) संयुक्त, येगग प्राप्न, मिला हुआ, घट्ति । हि संलाप तध्‌० ( पु० ) सम्भापण, भआक्काप, परस्पर कहना | * संवत्‌ तव० (घु० ) संबस्सर, वर्ष; बरस, हायन, सन्‌ ।--सर ( ४० ) वर्ष, संवत्‌, बरस । संबत्सरी ( स्री० ) संवत्‌ का ब्यवहार । संघरण ततद्‌० ( पु० ) भावरण, झाच्छादत, ढाँकना। संघरना दे" ( क्रि० ) सजमा, शोमित होना । संबते ( छु० ) ऋषि विशेष | संचाद्‌ तत्‌० ( छु० ) समाचार, चातचीत, चर्चा | संवारना दे० ( क्रि० ) सजाना, श्यज्ञार करना । संशय वत्‌० ( घु० ) सन्देह, भय, चित्ता । संशयात्मा (० ) शक्‍क्री, सन्देदय॒ुक्त डॉवाडोल । संशयापन्न तत्‌० (वि० ) सन्देइयुक्त, सन्देदी, आन्त, अस पुर्ण। संशेधन वत्‌० ( पु० ) परिप्करण, मार्जन, संश॒द्धि संशक्त तत्‌० ( बि० ) मित्रा, ससीप, भासक्त । खंसरग तव॒० ( बि० ) डपजाऊ, उबबर। संसर्ग तत्‌० ( पु० ) सस्वन्ध, संगत, मैत्नी । संसर्गी तव्‌० ( गु० ) सम्बन्धी, मेल । संसार तत्‌* ( घु० ) जगत, जग, गसमागमन स्थान । संखाये दत्‌० ( वि० ) संसार का, छौकिक, सेपार सम्बन्धी । ॥॒ संस्तति तद० (स्व्री० ) विश्व, संसार, जन्ममरण आवागमन | ५ संस्कार संस्कार तत्‌० ( पु» ) मल्लीनता निराकरण, दोष इटाना, सह दूर करना, शेधन करना, सफाई, शुद्धता, द्विजातियों के लिये कर्म विशेष | संस्कृत तध० (चि०) संस्छारित, सैस्कार किया हुआ, परिष्कृत । ( पृ०) देवमा्ग, हिन्दुस्तान की पुरानी राष्ट्र भाषा, देववाणी । [दग, रूप, सफ़्ठन | संस्थान तत्‌« ( घु० ) विन्यास, यनावट, यनाने का संस्थापक ( ६५) स्पापन कर्चा, प्रतिष्ठा करने वादा प्रवततेक । संस्पर्श तद्‌० ( पु० ) स्पश, छत । छ्ि। संहत तव॒* ( वि०) मिला हुआ, मिल्नित, ठोस, यछी, संदति तत्‌० ( श्ली० ) समूह, ढेर, थोक, अधिकता। संद्ार तत्‌० (8० ) नाश, विनाश, प्रछय, नरक, विशेष, पक मैरव का नाम । संदारना दे" ( क्रि० ) नाश करना, मार डालना | संदिता तद॒० ( खी० ) ऋषि प्रण्यीत प्रग्थ । सई दे० ( स्त्री० ) एक नदी का मास | संकृत तद्‌० ( स्प्री० ) शक्ति, दछ, सामष्ये, कद, कठोर । [ एठाना। सकना दे० ( क्रि०) समय होना, उपयुक्त होना, सकरा दे० ( वि० ) सकेत, सट्डीणे, छोटा, संग । सकराई ( स्त्री० ) सड्टीर्णता । सकारना ऐन ( कि० ) सष्टा्य करना, सक्ेत करना, चोटा बनाना । सकरमंक तद* ( पु० ) जिस क्रिया छे कम हो, सम युक्त क्रिपा, जैसे पीना, खाना, देखना । सकत्त ठत्‌० ( वि० ) समस्त, सूद, सम्पूर्ण । सकाना दे० ( क्रि० ) शद्छित होना, डरना, सय करना, ध्रास पाना | सकाम छ१० ( वि० ) कामना सद्दित किया गया के, भपने अमीष्ट की सिद्धि के खिये कृतकर्म | ( वि७) कामना सहित, सफछ, फझपानू | [झद्दा करना | सक्वारना दे० ( क्रि० ) स्वीझार करना,भुगठान करना, सकोारे दे० (झ*) प्रातःकाछ, प्रमाठ, सवेरे, प्रात काछ+ यपा -+ सशन सकारे जॉयगे, मैन मरेंगे रोह | विघना ऐसी रैन कर, भोर कमड ने होइ एव सकाल तद्‌० ( पु* ) प्रात'झाक्ष, प्रमाठ, सचेत | € ईंहई ) समैती सकिलना (क्रि०) इटना, समिटना, सुझूड़ कर बैदना। सकुच दे० ( स्ती७ ) छाज, सड्ोच, डर, सय, ब्रास । सहुचना दे० (क्रि०) सल्लोच करना, लज्ञानां, शर्माना सकुचा दे० ( वि० ) सक्त, सही । सझू दे० ( पु० ) सतुभ्ा, सतू सकृत्‌ तत॒० ( अ० ) एक यार। [ भषप। सफेत चत्‌० ( दि०) सकरा, छोटा, सप्की्ण, सल्ुच्चिठ, सकेतना दे० ( क्रि० ) सकेत करना, छोरा करना, समेटना, एकत्र करना | [7द डाढना । सकेलना दे० ( 5० ) समेटना, घटोरना, तह्टिभ्राना, सकेला दे* ( वि० ) पक प्रकार का खोह्ा | (वि०) सश्ेलने दाढा, समेटने बाला ( सकेाच ठद्‌० ( पु० ) सक्लोच, सद्म |-ी ( वि० ) छजीला, सझ्ोची । [ बटोरना। सकेाड़ना देन ( क्रि० ) सद्लीच करना, सझेछना, समेरा दे० ( घु० ) मिट्टी का प्याका। [ सरैया । सकेरी दे० (स्थ्री० ) थाह्षी, मिट्टी की पहई, सखरा ( वि० ) कशी रसाई। सपरी दे० ( वि० ) कच्ची, निखरी की शढ्टी | +-रखाई ( स्ली० ) रोटी, दाठ, मात चादि की रसेई जो चौढे के भीतर दी साथी जा सहे । सजा तत० ( पु ) मित्र, बन्छ, साथी। सड्ी | सी तद्‌० (छी०) सद्देजी, संगनी, वयस्‍््या, भावी | सख्य तव्‌० € ध० ) मित्रता, बन्युःव, दोस्ती | सगड़ तद्‌० ( पु०) शहद, छश्वढ्रा,एक प्रहार की गादी जिसे बैठ खींवते हैं। [साय डाछ कर बनाते हैं। संगपदता दे० ( पए५ ) पुर प्रकार की दाल, मिसे सगर € पु० ) अयेष्या के एक राजा विरोष । सभा दे० ( वि० ) स्वजन, सम्दन्धी, नतैत | सगाई दे० ( श्री० ) सम्बन्ध, नाता, मंगनी । सगुण, या समुन तत्‌* (थि० ) गुण सदित, गुण विशिष्ट, गुययुछ | सगे ( दि० ) समस्त, खूब । सगोती उद्‌० ( वि* ) सग्रोत्री, एक कुछ छा, साई यन्धु, माँस का बना एक सोज्य पदार्थ विशेष | समोत्र तत॒० ( घु० ) पक योग्र का, समान येत्रवाढा, सगोती । सगौतो ( फो« ) माँस, माँस का घना सोजन । संघंन सधन छत््‌० ( वि० ) घना, सान्‍्त्र; निविड़, मिला डुश्रा, खूब सठा छुआ सल्भूद तव* ( छ० ) विपसि, दुःख, कष्ट, आपदू | सड्डूदा (सत्री० ) योगिनी, दशाओं में से एक दशा का नाम, देवी विशेष । सुर तत्‌० ( ० ) चर्णेसक्ूर, दोग़ला, दो जाति के मात्रा पिता से बत्पल्न | ( रामायण में ) शिव, महादेव | ( त्रि० ) मिल्ला हुआ ! स्डूर्पण वत्‌० ( छु० ) बलदेव, श्रीकृष्ण के बड़े भाई, ये देवकी के मे से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में छाये गये थे, अत्तएएव इनका नाम सहूर्षण हुआ था | सड्डुल तत्‌० (पु० ) राशि, ढेर | खड्डुलन तत्‌० ( घु० ) जोड़, जोढ़ती | सड्भुहप तच्‌० ( पु ) मानसिक कम, इच्छा, चाह, अमिल्ञाप ।--प्रभस ( वि० ) सड्डक्प से धत्पत्न, सझ्ुज्प मेनी, सह्ः|कपज ) सड्डूब्पना दे० ( क्रि० ) दान देता, नियम करना, किसी काम के लिये प्रतिशा करना । सड्डी्ण तत्त० ( बि० ) घन, सघन; निबिड़, सक्तरा, सक्रेत |-वा (खस््री० ) केताही, उन्नी । सड्जीतन तव्‌० ( ४० ) गरुणगातर, बखान, भजन | सड्डूनित दव॒० ( गु० ) सकृुचा, मुरफ्ा, व्ठड्ज्रित । सहज तव्‌० ( यु० ) भीड़, बहुत मल॒ष्यों का एकत्रित 7 होना । सट्ढेत तच्‌« ( पु० ) सैन, इशारा, इद्धित | सट्लीच तद्‌० ( इु० ) छात्र, छज्जा, सिमट, सम । सझ्ठू तद्‌० ( घु० ) साथ, संयोग, मेल । सज्भुत तत्‌० ( वि० ) सेलम, मिछा हुआ, यया मेग्य, बचित, साथी, मेली, मित्र । है सड़ति तब्‌० ( स््री० ) मेल, साथ, सद्ध, मैत्री, देसस्ती । सद्भम तत्‌० ( 9० ) भेंट, प्रेमपूर्वक सिक्षन, नदियों के मिलने का स्थाच । श्र सखड्मी, या संगमी दे० ( खो० ) सैंडासी, सड़सी | सड्डर वद्‌० ( घु० ) युद्ध, संप्राम, छड़ाई, समर । खड्ठी तव्‌5 ( बि« ) साथी, सन्ञ वाह: दास, मित्र । सज्जीत तत््‌० (ध०) गाने की विद्या ( [दकाच,लुकाव । € हु&७ ) सउजने खड्डू तत्त० ( पु० ) सखूह, छुण्ड । सड्डूप ( पु० ) रगढ़, देखादेखी स्पद्धा, ई्या सद्भार ( छु ) संहार, नाश | सच दे० (वि०) सत्य, सच, हाँ, ठीक ।--पु् (अ०) ठीक ठीक, बिल्कुछ सत्य, निशसन्देह सत्य ) सचराचर तत्‌० ( ५० ) समस्त जगत, जीव, जड़, जन्‍्तु आदि । सचाई दे० ( खी० ) सत्यता, सजावट । स्तर तत्त० ( पु० ) मन्त्री, अमाप्य, दीवान, सलाह- कार, सल्ञाह देने चाका | सचेत तव्‌० (वि०) चौकस, चैक्रल्ना, सावधान ।--न (वि० ) ज्ञानवान्‌, डुद्धियुक्त, जीव, प्राणी | सचेट्ठ तत्‌० ( वि० ) चेष्टा युक्त, उद्योगी, यह्मवान्‌, यत्ली । सचोरी दे० ( ख्ती० ) ल्चाई, खत्यता, सजावट | संब्या दे” ( बि० ) सत्य, सत्यवादी, ठीक, यधाओ, उत्तम । [ ध्वर । सच्िदानन्द तत्‌० ( पु० ) एरब्रत्म, परमात्मा, परमे- सज्ञ दे० ( ख्री० ) डोक्न, ढब, सिंगार, शेमा ।--घज ( बा० ) शेसा, पेपरचना, बनावट, तैयारी । सज्ञग दे? ( बि० ) सावघान, खचेत। छज्ञन दे० ( घु० ) प्रिय, प्रियतम, पति । सजञ्ञना दे० ( क्रि० ) छोहना, शेमना | (पु० ) पत्ति; भ्रियतम | सजनोी ( खो० ) सजी, सद्देजी, प्यारी स्त्री । सजञत्त वत्‌० ( बि० ) जल पूर्ण, जल सद्वित | सजला दे० ( प० ) चार भाइयों में तीसरा, मरूले से छोदा | ( गरु० ) जल पूर, जछ से भरी हुईं। सज्ञाई दे० ( जी० ) बनावटी, निर्मित, बनाव, निर्माण, स्चना । सज्ञातीय ( बि० ) एक नातिवाला । सज्नाना दे० ( क्लि० ) बनाना, खब्बार करना । सज्ञाव या सत्नावठ दे० ( पु० ) अल्नक्लार, तनाव । सज्जीला दे० ( वि० ) सुन्दर, श्राकारवान्‌ । सज्ञीव ठच्‌० ( वि० ) जीतवा, जीवसद्वित, जीवयुक्त, आाणी । [ सूरि । खसज्ञीचनी तदुः० ( खत्री०) जड़ी विशेष, प्राण देने वाली सज्जौपन तव्‌० ( पु० ) भक्ी अकार से छिपाव, ग्ोपन, . सउज्नन तत्‌० (9०) कुलवन्त,साधु,उत्तम स्भाववाढा | श० पा००पफऊ स्जज्ञा सज्ञा दे० ( ख्ी० ) वेश, कवच, सेलम । सजञ्ञी दे० ( छी० ) खारी मिद्दी, जिससे कपडे गइने आदि साफ किये जाते हैं । सश्यय घद्‌० ( पु० ) संग्रह, देर | सच्ज्चार तत्‌" (पु० ) अमण, पर्यटन ।..[ बाढा। सम्चारक तत्‌० ( पु०) नायक, संकमण, अमय कराने सच्चारिका त३० ( ख्री० ) दूती, सन्देश पहुँचाने बाली । [ करना) ख्चास्तन ( पु० ) फैछाना, व्यवस्था करना, प्रवन्ध सच्नित तत्‌० ( वि० ) सम्बव किया हुआ, एकत्रित, यदारा हु॒घ्या, संग्रहीत । सज्ज़य तव० (१५० ) ये अ्न्धराज उतराष्ट्र के सचिव थे। स्यासदेव के झाशीर्वाद से प्राप्त दिष्यचदभों घे मद्दामारत का युद्ध देख कर इसका वर्णन छतराष्ट्र को मे सुनाया करते ये। मद्ामारत युद्ध के समाप्त देने पर युधिष्टिर के राज्य में छत्राष्ट्र के साथ ये इस्तिनापुर में रहते थे और उन्हीं के साथ वन भी गये थे । कुछ दिन के धाद उस घन में दनडादा छग गया । शतााह गान्धारी भार कुन्ती ने तो जछ कर प्राण श्याग दिये, परन्तु सझ्षय ने भाग कर अपने भ्रा्ों की रहा की। इसके याद दिमाढूय प्रदेश में ज्ञा कर इन्होंन भपना समय विताया था। सद्भीवती ( छ्ो० ) यूटी विशेष । सक्लात तथ्‌० ( पु० ) ज्ञान सद्दिठ, ज्ञानी, ज्ञानवानू सदक दे० ( स्ती० ) नरचा, नत्ी, हुछ की न्वी सदकना दें» ( क्रि० ) सपना, साग ज्ञाना, द्विपना | सठकाई दे० ( खो« ) छिपना, लुकाव, झतार चढ़ाव । सखकाना दे० (क्रि०) छिपाना सैड्ाच करना । [चिपकना। सटना दे० ( क्रि० ) मिलना, मिल्रित द्वोना, जुड़ना, सद्पदाना दे० (क्रिब्) विस्मित द्वेना,प्चम्मित देना । सख्त देन ( स्वी०) प्रछाप, घदूवढ़, यकदक । सदा ( ध० ) घोई के कंघे के बाल, फेशर, शिखा । सद्ाना दे ( क्लि० ) चिवकादा, चेइना, मिलाना, मेल करना । [ वार, भिड़ामिद़ । सदासद दे० (द्धी० ) तर ऊपर, पूक पर एक, छगा- सदिया दे* ( खो० ) वाँस की पतक्षी छड़ी, छपची, लकड़ी, छठिया, भामूषण विशेष, पृष्ठ प्रकार की चूड़ी । € ईहप ) सच्त सटीक तत्‌० ( वि० ) टीका के सह्दित, ध्याख्या के सद्दित । सदुकि दे० ( क्रि०्) पतली छड़ी से मार कर, धौरे से साग कर, दबक के भाग कर । [ ब्घर। सद्टवट्टा दे" ( पु० ) प्राफ्रेीी; भदठझा बदली, इधर सठियाना दे० ( क्वि० ) बूढ़ा होना, बुढ़ाई से दु्पंछ और नि॒द्धि दाना। सठोड़ा दे० ( ४० ) पुष्ठाई, एक प्रकार का लड्डू । सडक दे* ( खी* ) चौड़ा मा । सड़न दे० ( स््री० ) दुर्गन्ध, दुर्गन्धित । सड़ना दे * ( क्रि० ) बयासना, गढनां। सब जाना । सड़ाँद दे० ( गु० ) सदा हुआ,गला हुधा, दुर्गन्‍्धयुक्त। खड़ाना, वा सद्वाइन दे* ( क्रि* ) गाना । सड्डियल ( वि० ) निवंल, सड्ा हुप्रा, भनुपये।गी । सगडः या संडा दे० ( वि० ) पेढ़ा, मेटा, हृष्टपृष्ट । भगडास वा संडास दे* ( ध० ) पााना, जाजरू। सतत दे० ( ६० ) सार, निष्कर्ष, सारभाग, सूदा, सत्य | +-मासा ( ० ) गर्भ के सातवें मास में किया ज्ञाने वाला सैस्‍्कार विशेष | सतत ( क्रि० वि* ) सदैव, सदा, इमेशा । सतराना दे० ( फ्रि० ) छोघित होना, अप्रसन्च होता । सतके वव्‌० ( वि० ) सावधान, सचेत । सतलडी दे० ( खी० ) सात लड़ की माला। सतदघन्त दे० ( वि० ) सत्यवादी, सचा। सताना दे० ( क्रि० ) पीढ़ा देंना, फट देना, छेड़ना। सती तद्‌० (ख्री०) पावंती,दक प्रजापति वी कन्या,इनका विवाद मद्दादेव से किया गया था। पतिप्रता,साध्वी ! सतीर्थ तद० (वि०) साथी,सपाइटी,साथ के पढने वाले । सतीला दे० ( छि० ) सत्तावातू, समय, सामध्यैवान, पराझ्सी । सतीवाड़ दे० ( घु० ) सती या स्थान, पति वा अलु- गमन करने बाली स्त्रियों फा श्मशान । सतुझआा दे० ( पु० ) सह, सत्तू, भुंजे हुए चना और जौ पा आया ! [ जनक फास। सन्कर्म तव्‌० ( पु० ) अच्छा काम, उत्तम फाम, पुण्य सत्कार तत्‌० (पु०) सम्मान, आदर, आगत, स्वागत। सत्किया तद्‌७ ( खी० ) सस्ख्मे, उत्तम फर्म। सत्त ( पु० ) बज, सार, रस, सतगुणय। सप्तम ५ बह ) सदृगरध सत्तम तत्‌० ( वि० ) अति उत्तम, अतिशय श्रेष्ठ, यह शब्द जाति था ग्रुणवाचक शब्दों के अन्द में आता है और उसकी प्रधानता बसलाता है, जैसे झुनि- खत्तत | खत्तर ( घु० ) संख्या विशेष, ७०। [ अस्तित्व] सा तत्‌० (स्त्री० ) बल्ल, पराक्रम, विद्यमावता, सत्ताईस ( वि० ) बीस और साथ । सत्तानवे ( विं० ) नव्बे और ७। सतचावन ( वि० ) पचास और ७ । सचासी ( वि० ) ८० और ७। सत्तू दें० ( छु० ) सता सत्वगुण तत्‌० ( घु० ) प्रकृति का एक गुण विशेष अिगुणों में का एक गुण। यह लघु, प्रकाशक और ब्ष्ट हैं। सत्य तव्‌० (स्त्री: ) पराक्रम, यल पवित्रता, शुद्धता। सत्य चत्‌० ( वि० ) सच्चा, यथार्थ, ठोक निश्चय, सही चाजवी, मिय्या नहीं ।--ता ( ख्रो० ) सचाई, सब्चापन |--खुग ( पु० ) कृष्युग, श्रथम युग। जोक (प०) घहालोक, ऊपर का सासवाँ लोक। --चती ( स्त्री० ) सहर्पिं ऋृष्णदेपायद व्यास की साता और वसुराज की कस्या ।--वादो ( छ० ) सच्यवक्ता, सच्चा, सच योलते बाला, यथार्थ चक्ता। धान ( ५० ) शाक्ष् देश के राजा धुपरसेन का पुत्र इनकी साता का साम शैब्या था अम्राग्यवश राजा धुमस्सेन अन्चे दो गये, तथा सन्द्रियों के पड़यन्त्र से राज्यच्युत होकर पत्नी और शिकशुदुत्र को लेकर घन पे चक्के गये | एक समय उसी वन में मद़देश के राजा अपनी रूव्या सावित्री के लाथ आगे | सातृपितृभक्त सत्यवान्‌ के गुणों पर सावित्री मेहित दे। गयी और उन्हीं के अपना पति बनाया | सपथ्यवान्‌ श्रत्पायु थे, वनछी आयु पूरी हुईं, परन्तु पतिपरायणा साविश्नी ने अपने पातित्रत्य चक्र से यमराज को प्रसक्ष कर घससछ्ले वर॑अदण किये । उन्हीं बरों छे प्रभाव से सत्यवानू भी जीवित हे। गये, और राजा शुसत्लेन की सी गयी हुई आँखें लौट आयी तथा राज्य भी मिल्क गय(।-मतत ( वि ) छत्यवादी, प्रधानतः खत्य को उपास्य मानने वाका ॥--सस्ध ( षि० ) सत्यप्रतिक्ष, अपनी भ्रतिज्ञा सदा सत्य काते चाछा, अत्यन्त सच्चा, जो कभी झूंठ न बोले । सत्यानाश तद्‌० (पु० ) चाश, विनाश, बरबादी। - ( बि० ) सर्वेतासी, बरबाद करने घाछा। “करना ( वा० ) नाश करना, घिनष्ट करना, ध्वस्त होना, वरचाद करवा ॥--ज्ञानो ( वा० ) नष्ट होना, विगढ़ना, ख़राब होना। [ व्यापार। सत्यानृत तत्त्‌० ( घु० ) [ सत्य + भनूत ] कणिज्य, संत्व ( पु० ) सरा, प्राण, सदुगुण, जोरा, उद्यम, हृदय, प्रकृति, सज्ाई ।--गुण ( छु० ) तीन ग्रुस्मों में से एक | [ क्रटपद । सत्वर तत्‌० ( वि० ) जक्दृ, शीघ्र, उतावला, चुरन्स, सत्सडू तव्‌० ( पु० ) सज्जन सज्जन, उचम मलुष्यों की सक्ञति । सत्सड्भति ( स्त्री० ) सत्सड्ठ, अच्छी संगति । सथशव दे० ( पु० ) गण में मरे हुश्नों की लेध । सथिया दे० ( ३० ) आ्ष के रोगों के चीर फाडू क€ या दवा छगा कर अच्छा फरने वाला, श्रज्ञ वैध । सद्‌ ( अन्य० ) तत्काल, उसी समय, श्रेष्ठ, उत्तम | सदन तव्‌० ( घु० ) गृह, घर, सकान, मन्दिर, बास*- स्थान ] सद्य तव्‌० ( ग्रु० ) दयायुक्त, खुल, कोमल अन्त:- करण चाला, दयालु, कृपालु, कारुणिक्त सदसत्‌ त्त्‌० ( जि० ) सत्यासत्य, खच सूछ । सद्॒स्य तव्‌० ( छु० ) समासद, पश्चु । सदा ण सदाई तत्‌० ( अ० ) सर्वद्रा, नित्य, सतत, हरहमेश ।--चार ( पु०) उत्तम अचार। परत (घु० ) झन्नदान, वह स्थान जहाँ भूखों के अन्न दान दिया जाता है ।--शिव ( एु० ) सदादेव, शिव ।--खुड़ागिनी ( स्त्री० ) पृष्प विशेष, चेश्या | सद्गश तत्‌ ० ( वि० ) समान, छुल्प, संम | संदेश तत्‌" ( अ्र० ) समीप, निकट, पास | सदैव ( अब्य० ) सदा, सर्वदा, हमेशा | खदप तत्‌० ( वि० ) दोष सहित, दोषी, अपराधी । सदृगति तव्‌० ( स्थी० ) निल्तार, जाण, सुक्ति, उत्तम अत्ति | सद्गरध तत्‌० ( स्त्री० ) सुपन्‍्ध, उत्तम, गनन्‍्च ! सक्लाप सद्भाव ( ६० ) प्रतिष्ठा, श्रे्ठा, प्रेममाव । सह्वका तद० ( घु० ) उत्तम चक्ता, शैज्ञी ऊे साथ बोलने वाला, उत्तम व्याध्याता |. निर्णायक । सद्िविचक तत्‌० ( वि* ) विचार, निशुंयकर्त्ता, उत्तम सदत्त ( पु० ) समूद, गिरोह; बुन्द । सझ ( ४० ) मऊान, घर, रदने का स्थान | सद्य ( अब्य० ) तरंत, शीध्र।..[ परिचय इोना । सघना दे० ( क्रिन ) बनना, होना, उठना, दिलना, सघवा तद्‌० ( स्त्री० ) सुद्दागिन, सुभगां, पति वाली स्‍्प्री, जिसका पति ओऔवित दे! । संघाना दे० (क्रि०) साधन कराना, अभ्यास कराना; परिचय कराना, सिखाना, पनाना । सन दे० ( पु० ) पौधा विशेष, पुक प्रकार का पाठ | सनक ( पु० ) भद्या के ॥ पुत्र का नाप्त, | (स्त्री*) इन्मादे, पायडपन। [सनकार दिए । सनऊारे दे० ( &ि० ) इशारा किये, सैन से बताए, सनत्कुमार तत्‌० ( प० ) प्रह्मज्ष, मद्मातपा महि, ये मद्मा के मासस पुत्र थे । [च्नरवा। सनना दे० (&०) गर्सिणी होना, ग़भे घारण सननन्‍दन (५०) ब्रद्मा के पुश्र, सपघ ऋषियो में से एक । सनातन ठत्‌० ( धु० ) अह्या का मानसपुत्र, थे महा- तपस्दी ६, कहते हैं कि ये सर्यदा बालक रूब में रहते हैं। [ सदायर दो, कृताये । सनाथ तद॒० (वि५) नाथ सद्वित, जिपके मालिक और सनाद ( १० ) कवच, चातर । सनिया दे० ( पु०) बस्तर विशेष, टसर का बना यस्त्र। सनीचरा 4० ( बि० ) झमागा, अमभागी, अपपशी | सनेद तदु* ( 4० ) प्यार, प्रीति, प्रेम, मेद, छोड, दुल्यर, प्रेमी, प्यारा, प्रिय, सुदवइती | [घामिंक ! सन्त तव्‌* ( घु० ) साधु, सखन, बतम सदुच्प, घर्मी, सन्तत (%ि० बि०) सदैव, रुयाठार। सम्तेति तब ( छ्वोौ०) सन्ठान, भ्रपत्य, लड़के बाते । खन्तप्त हद ( वि० ) दुशखितर, सवा हुमा, चका हुआ, आात्त, पीड़ित । सनन्‍तरण तद्‌० (६० ) पैराव, विश, दिक्लाव। सनन्‍्ता दे० ( वि ) विगद्दा, गष्ट झष्ट। सम्तान तव्‌० ( घु६ ) घश, सम्तति, लड़के वाले, लिन कक्ष मद दाव्द स्‍त्री लिक माना जाता ह। ( ७०० ) सपच्तिकद हिन्दी के छोशकार तो इस शब्द को पुलिक्ष ही मानते हैं, शायद उद शब्द औलाद के अर्थवादी होने के कारण इसे लोग स्थत्री लिह्न में ब्यवहत करते हैं ॥] सनन्‍ताप वत्‌० ( घु० ) शोक, पीष, मानसिक च्यथा) सन्‍्ती दे० ( पु०) बदला, बदले में, परिवर्तन में, प्रति- निधि। सन्तुष्ट तत्‌० ( वि० ) तृप्ति, पसन्न।.. [आत्ममुस। सन्तुष्ठटि ठत्‌० ( स्त्री० ) सन्‍्तोष, तृप्ति, श्रसत्ता, सनन्‍्तोष दत्‌० ( पु० ) आनन्द, हप, तृस्ति, मनम्तोप। खन्‍्तोषो तव० ( वि० ) सन्वोष रसने चाले । सन्या दे० ( १ु० ) पाठ, श्रष्ययन, श्रष्याय। सन्दर्भ तत० ( पु० ) रचना, प्रसन्ध। सन्दर्शन तव्‌० ( पु० ) साहातकार, प्रत्यक्ष, देसाव। सन्दिग्ध तत्‌० ( गु० ) सन्देहयुक्त, संशयान्दित, अमयुक्त।--भूत ( पु० ) च्यासरणसम्बन्धी पाल विशेष । सम्देश तव* (पु० ) समाचार, वृत्तान्त, सदेशा। सम्देशो तद॒० (पु०) दूत, चर, सन्देशहारक, हरफारा। सम्देसिया दे० ( पु० ) हर॒कारा, दौड्ाह्म, सर्देस/ ले जाने वाला [ भ्रनिश्चित ज्ञान। सम्देह दत० (घु० ) सशय, शद्दा, अम, डुविधा, सन्दोद ( ४० ) गिरोह मुड, अधिकता। [ लगाना। सन्धान तत्‌० ( पु० ) भन्येपण, दूँढ़ना, सोजना, पता सन्धाम दे० ( पु० ) आचार । सन्धि तत्‌» (स्त्री० ) मेल, विरोध, हरारर मित्रता स्थापन, कठिपय नियमों पर मित्रता स्थापन करना। दो पदार्थी के मिलने का स्थान, सयोग, दरार, छेद, घल, प्रपकल, स्दायंसिद्धि के उपाय) सन्ध्या वत्‌० ( रत्री० ) सायझाक्, दिन और रात्रि की सन्धि का समय, सन्प्या के समय की जाने वालो उपासना, सन्व्योपासन | प्लन्नद्ध ठव० ( वि० ) उद्व, तैयार, पस्तुत, ठत्पर। सन्ना ( क्रि० ) सबना, छुड़ना, मिलना । सन्नादा दे* (घु० ) शब्द विशेष, जो पानो यरसो या बायु छ चलने से होता है। सीरव, शब्दामाव। सन्नाह तव्‌० ( पु० ) करच, बस्तर ।[ समीप । सल्निकृद ठव० (पु०) निज, एस, सन्रिधान, सन्निकर्ष ( ७०१ ) समगणम सन्निकर्ष व» ( छु० ) सन्निधान, समीप । सन्निधान ( ए० ) समीप, निकट, पाल | सन्निध्रि ठत्‌० ( स्री० ) पास पास, निकट । सत्रिपाव ततु०( छु० ) रोस विशेष से उत्पन्न रोग, एक शीत्त प्रधान रोय का नाम । सन्निहठित तत० ( बि० ) निकट, ससीप, पास ! सम्माव तद० ( छु० ) सम्मान, आदर, सत्कार, सर्या- दालुसार प्रतिष्ठा । [ ज्ाक्षात्‌, प्रत्यक्ष) सन्छुख तद० (थि० ) सामना, पुरःस्थित, आसे, संन्यास ठत्‌० ( घु० ) विरास, वासनात्याग, चतुर्थ आश्रम । [ दण्डी । संन्यासी दव० ( घु० ) चतर्थाश्रमी, यती, त्रिव॒ण्डी, सपक्ते तत० ( विं० ) सहायक, सहायता देने धाला, सहकारी, साथी । ( ए० ) पत्ती, पखेरू । सपत्तिं तत्‌० ( अ० ) तुरत, शीव, उसी समय, उसी क्षण, तत्काल । [ आई हुई बातें । सपना तब्‌० ( ४० ) स्वप्त, निव्रा के समय विचर से सपिण्ड ठत्‌० ( ३० ) बान्धव, खात पीढ़ी के अन्दर्गत चान्धच, जिनके जन्म और सरण में अशौच लगता है। [ छारी बेटा । सपुन्न त्त्‌० (पु०) सुपुत्न, सपत, अच्छा लड़का, आज्ञा- सपेत्ता या सपेला दे» । पु० ) साँप का बच्चा। स्त चव॒० ( बि० ) संख्या विशेष, ७ ।--चत्वारिणत (बि०) संख्या विशेष, सात अधिक चालीस, ४७ । +-उुशः ( ति० ) सत्तरह, १७ ।-छीप ९€ पु०) सावद्वीप यथा जम्दु, प्षक्ष, कुश, क्रॉच, ६शक, शाब्मली, और पुष्कर ।--पाताल्ल ( पु० ) सात पात्ाक्ष, यथा अ्रतल, विदल, सुतल्ल, रसावल, महादल, सलालावछ, और पाताल ।--पुरो ( ख्त्री० ) पवित्र सात पुरियाँ यथा, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, काज्षी, उज्जैन, और द्वारका ।-सी (ख्री० ) खातवीं तिथि ।--नपे ( पु० )। [ सप्त + ऋषि ] करवप, अनज्नि, भरद्वाज, विश्वासित्र गौतम, जसदुक्ि और:बशिएठ ये सप्तर्षि कहे जाते हैं ।--साथर (पु०) साठ समुद्र, यथा “-ऊचण, इज्ञ, दुधि, 'कीर, सछु, सदिरा, इत ।-- स्वर ( पु० ) स्लात अकार के सुर चया, पढुज गान्धार, ऋषण, नपद, मध्यम, जैवत और पद्धम | सप्तति ( बि० ) संख्या विशेष ७० | सप्त/श्व (पु०) सात घोड़ों के रथ,में बैठनेवाले सूर्च सप्ताह चत्‌० (पु०) सात दिव, अठ्यारा । सप्रीति तच्‌ू० ( अ० ) प्रेम सहित, भेम पूव॑क, प्रीति से, प्रेम से । सप्रेम तत्‌ू० ( अ० ) प्रेम पूर्वक । सफर ( बवि० ) पचास, यात्रा । सफरी तद्‌ ० ( खी० ) सत्त्य विशेष, एक प्रकार की सद्धली, अमरूद, त्रिही । सफल तत्‌० ( गरु० ) फलवान्‌, सा्थंक, सिद्धि, फल- दायक, फल देने वाला सब तद० ( सर्ब० ) सर्व, समस्त सारा, सम्पूर्ण प्रा, समूचा, अखिल, कुत्त । शचत्त तत्‌० ( वि० ) बलवान, औढ़, चली, चल- आडी ।-ता (खत्री० ) बल, पराक्रम ।--ई ( स्री० ) सखवलता, यल ) सवाद दे० ( पु० ) स्थाद, जायका । सबेर दे० ( झर० ) प्रातःकाल, ग्रभाव, तड़का, भोर । सबेरा था सरजेरे दे० ( पु० ) विहान, भोर । सबोतर दे० ( आ० ) सर्चन्न, सब स्थान सें, सब ठौर | समत्तर ( अ० ) देखे। “ सवोत्तर ”। [ भीत । स्तथय सत्‌० वि० ) सययुक्त, भय सहित, ढरा हुआ, खमभा तव्‌० (ख्री० ) मंण्ढल्ती, समाज, पद्चायत) डस्सब --पति ( पु० 9. सभासब्ालक, सभा का मुखिया, सरपन्च --सखद ( १० ) सभा से बैठने चाज्ञा, सभा में उपस्थित रहने बाला ! समिक ततल्‌० (पु०):छुआ खेलाने वाला, नाल वाला, जुआ का प्रघान । सभीत तत्तू० ( दवि० ) ढरा हुआ, समय, भयसीय । खम्य दव० ( पु० ) सभासद, सभा के येहय, चास- रिक, भद् । सम ततव॒० ( अ्र० ) तुल्य, बरावर, समान, संचश | -+कदि चन्‍्ध ( पु० ) शीत कट्विन्ध और मध्य रेखा के चीच ४७६३ अंश चाला श्रूलनण्ड समज्ञ तदू० (अ० ) ससीप, सम्मुख, प्रत्यक्ष, सामने । सम्रगम तद॒० ( विं० ) वरावर, छुल्य । समर ( ७०२ ) समापन समग्र तंद॒० ( वि० ) समस, सारा, सम्पूर्ण ता ( खो७ ) सम्पूर्णवा । समज्या तद्‌० ( श्ली० ) समा, गोप्ठी, दीक्ति, यश । समर दे* ( खी० ) बुद्धि, धारणा, दिचार विश्वास | यार (वि ) बुद्धिमान, विचारवान्‌ । [फरना । सममना दे" ( क्रि० ) बृमना, जानना, धारण सप्रक्ाना दे० ( क्रि० ) बतलाता, सिखाना । [वर । ममझावा दे० ( पु० ) सिलावत, समझौती, छुझा- समञेस तत्‌० ( वि० ) येग्य, डचित | समता वत्‌० ( छी० ) हुल्यना, समानता, बराररो समजिभुज ( घु० ) जिम्त त्रिमुज़ की तीनों भुजाएँ समान दे । [ पात नहीं करने वाला । दुृर्शी तत॒० ( बि७ ) समाद इषि, अपकपानी, पहन समदिवाद (व ) दो समान भुशाओं बाला । सम्धिन दे० ( स्वी० ) वेश या बेदी की सास ] समधियाना दे० ( प० ) समरी का स्थान, समघी का धराना । समधी दे० ( पु८ ) पति भौर पत्नी के पिता आपस में समधी द्वोते है । लटका लब्की के ससुर । (गु० बराबर चुद्धिवाला । समन ( घु० ) सेंहुड का एच । समन्‍्तान्‌ तत्‌० ( थ० ) चारों ओर, सर धरफु से । समन्वय तू ५ ( पु५) क्चण के लदय में घशना, मेज्ञ, परस्पर, अजुगदता । समन्वित दत्‌० ( वि० ) समन्वय झिया हुआ। सम्वज ततू० (वि०) तुश्य बल, समान बल वाला । सप्रमाध तत्‌५ (घु० ) समता, साम्य, नुल्यता, यरापरी । समय या सम्या तत० (३० ) पाल, भयसर, देला। समर तद* ( ० ) संप्राम, युद्ध, जद़ाई। [ शात्री समथ रुत० ( बि० ) शक्तिमाद, योग्य, शक्ति- समयन सत्« ( पु० ) प्रमाण करण, दृढ़ करण । समर्थता ( खी० ) सिफारिस, प्रार्थना ( क्लि० चुष्द करना । समर्पण ठत्‌« ( १० ) सोषना, रपाग, भ्रप॑ण, दाव। समपिंत ( वि० ) दिया हुआ, परद्त्त सम्रज़ वव5 ( पि० ) संजयुक्त, मत् संदित, मलिन, मैत्ां, मयक्ष सद्दित । क्‍ समवाय दव्‌० ( ६० ) भीड़, समूह, समुदाय, नैया- पिक्रों के सत से सम्बन्ध विशेष, उपादान कारण और कार्य का सम्यन्ध, यया-सूत और कपड़े का । [ समान रूप से साय देवा । | समवचेदना वव्‌० ( ख्री० ) किसी विपत्ति या दु ख में समखूजपात्र तद० ( घु० ) ढोरी से मापना, जले थाहना, जज की गहराई का पता लगाना । | समस्त तव्‌५ ( गु० ) सब, सारा, सऊत्, सम्पूर्ण । समस्या तद्‌० ( खी० ) सट्टेत, किसी छन्द का एक अन्तिम पाद 7--पूर्ति ( खो० ) किसी दन्द के अम्तिम पाद को लेजर उस्ती के अनुसार श्लोक बनाना । समा दे० ( घु० ) समय, फाल, थवसर, ताल घोर लय विशेष ।--६ई ( खी० ) फैल्लाद, चौढ़ाई, सामध्ये, शक्ति '--कुल ( थि० ) व्याप्त, घिरा हुआ, दु खी, परेशान।--गर्भ ( पु० ) आगमन, थाना, अवाई, मिज्ञाप, सम्भापय ।-चार ( पु० ) सन्देशा, संवाद, इृशल, सत्नक्ष । चारपत्र (5०) पत्र, फ़रत, ऋफ़बए संवपत) “ज्ञ ( पु० ) सभा, मण्ठली, जातीय संस्था, खमूह, समुदाप +--झ्ी (5० ) यदस्ती, तयक्षत्री, समासई, दयागन्दी “२ (घु०) सतार) सम्मान ,--धान ( 9० ) उत्तर, शद्बा या समा- घान +--थि (पु ) ध्यान, योग की क्रिया विशेष, इसझे दो मेद होते ई सातिशय और निरठिशब । सातिशय समाधि में ध्याता और ध्येय का धोध रहता है, परन्तु निरतिशय समाधि मैं चेदान्दियों का अन्तिम अनुज दो घर्तमान रह जाता है '--प्रप्ताधि देना (वा० ) खद साथ सन्यासियों का झन्तिम सस्शार, समाधिस्य (पु०) ध्यान मे, समाधि में । | | | समान दद्‌०» ( वि० ) यराबर, तुश्य, एक प्रकार | “ता (स्त्री० ) तुश्यता, वरायरी । समाना दे० ( किए ) घुसना, पैडना, भविष्ट होना ! सम्रानान्तर ( घु० ) बीच, वराबर, तुप्यान्तर, मुठ- जज, दो रेपान्ों के सम्य या समान फ्ासला । सम्रापन तन्‌« € पु० ) समाप्त देगा, समाप्ति, सम्पू- सता, पूर्दि समाप्त ( छण्दे ) सम्पादक सम्माप्त वत्‌० ( वि० ) प्रा, हो चुका, सिद्ध । समाप्ति वत्‌० ( ख्री० ) अन्त, ससापत, सम्पूर्णता, नाश । खमारोह ततु० ( छु० ) जसाव, जमावड़ा, भीढ़। सम्ाली दे० ( स्त्री० ) फूलों का ग़ुच्छा, पुष्परतवक । समालू ( पु० ) पौधा विशेष । समालेचना ( स्त्री० ) भली भाँति बिचारना । समाव दे० ( पु० ) समावेश, ठौर, स्थान । समावेग ततु० ( घु० ) पैसार, द्वार, मिलाव, प्रवेश समास तत्‌० (७० ) संक्षेप, व्याकरण की एक अक्रिया, दे सीन पढ़ों के मेल करने की रीति को समास कहते हैं | समास छः हैं । तत्पुरुप, कर्मचा- रय, हियु, बहुवीह, अव्ययीभाद, द्नन्द । समाहित ठत्‌० ( वि० ) समाधिस्थ, स्थिरीकृत, साव- धान, दत्तोत्तर, उत्तर दिया हुआ, एक रसालक्कार विशेष । समाह्नान ( छ० ) छुछाना, छुकारना । हि । सदू० ( स््री० ) सभा, मिताई, मित्रता । खामिधि तत्‌० ( स्री० ) इन्धचन, छकड़ी, जलाने की लकड़ी, ऐम की रूकढ़ी | समीकरण तत्‌० ( घु० ) बराबर करना, खमतल अनाना; बीजगणित का एक गणित, जिसमें दे राशिर्या बराबर की ज्ञाती है । समीकार ( छु० ) तुल्य फरने बाल्मा, खस्ताव करने बाला । ( उत्तम । सम्रीचोन तव॒० ( वि० ) सम्यक्‌, सचाई, सच्चा, समीप तच्‌० ( बि० ) पास, निकट, नयी । खम्ीपी दे ( प० ) पड़ोसी, आत्मीय, स्वभन | समीर तत० (० ) वायु हवा; पवन, अकम्रत । समीरण ( छु० ) पवन, वाद, दवा । समीद्दा तव्‌* ( ख्वी० ) इच्छा, बांछा, पूर्ण इच्छा | अभिलकाप | [ युक्त । सपुचित तच्‌० ( ग्ु० ) येग्य, यथार्थ, उचित, उप- समुच्चय तव्‌० ( घु० ) बमुदाय, शुकब्रित, डेठ, राशि, समूह, संभह | समुदाय तव्‌० ( ६० ) समूह, समान जाति के रोगों का जमावढ़ा । समुद्र वव्‌० ( छ० ) सागर, सम्रुद्, जलनिधि, उद॒धि, पयोधि ।--फल्ल ( पु० ) औषध घिशेप । सम्चा दे० ( थि० ) सारा, पूरा; समस्त, आश्वस्त सद्दित । ससूह तद्‌* ( वि० ) दल, यूथ, जथा, सप्ुदाय । समूहानी दे० ( क्रि० ) सासने मिली हुई। ससख्ुद्ध ( वि* ) धनवान, समयथे, भाग्यदान ! [ बढ़ती । समृद्धि तव० ( खवी० ) ऐश्वये, विभव, घन, सम्पत्ति समे ( पु० ) वक्त, समय, अवसर. मौका । समेठ दे० ( खी० ) सहुसेचन, लिमटन । [करना । समेठना दे? ( क्रि० ) सिक्राडना, बटोरता, सझेच समेत ततव्‌० ( वि० ) सद्दित, युक्त । समें। ( ए० ) समय, अवसर, मौका । समेना दे० ( पु० ) कुनकुना जल, गरम जल में ठंडा जब मिलता कर ठण्ढा किया हुआ जल । खमो ( ए० ) देखे से । सम्पत्ति तच्‌० ( खी० ) समृद्धि, धन, समा, सुभाग ! सस्‍्पदा तदू० ( स्व्री० ) ऐथ्वर्य, घन, विसय। सम्पन्न तत्‌० ( वि० ) परिपूर्ण, घनाण्य, प्रा, सिद्ध । सम्पर्क तत्‌० ( ए० ) सम्बन्ध, मिलाप, संयोग, संलव । रिज्ा विशेष। सम्पात ( ४० ) गिरना, स्पर्श, रेखा, रेखागणित क्री सम्पाति तव्‌* ( पु० ) अरुण के पत्र और जययु के , ज्येष्ठ आता, थे दोनों साई सूर्य का जीतने के लिये उनकी ओर दौड़े | सूचे के अखर तेज से जयादु का पंख भस्म होने छगा, तव सम्पाति ने उसे अ्रपने पद्डों द्वारा ढाप लिया | छोटे भाई की रा करने से सम्पाति स्वयं दग्धग्राय है। गये । थे अत होकर विन्घ्य पर्देत पर गिर पड़े | चेत होने पर निशाकर मुनि के उपदेश से छन्‍्होंने इसी पतवेत पर रहना स्थिर किया। सीता की खोज करने वालों का खीतरा का पता बताते से उसके पड पुनः जम गये । सभ्पादक तत्‌« (पु०) कर्ता, संगठन कर्त्ता, सस्पादन करने वाला, पूरा करने बाला, पूर्ण करने बाला [ दैनिक सम्राचारपन्न, पुस्तक साहा या सासिक पुस्तक का अपने तथा दूसरों के लेखों से पूरा कर निकालने बाला, एडिटर । सम्पादन सम्पादन तद्‌० ( पु० ) निरूपण, झथव, समाप्ति करना, निष्पदन, सड्ठन, प्राप्ति, छाम, गिर्माय । सम्पुद तद० ( १० ) डब्बा, दिविया ।--क ( ० ) दिद्यरा, पेटी | सम्पूर्ण तच* ( ५० ) समस्त, परिपूर्ण । सम्प्रति तत्‌० ( श्वर० ) इस समप, अब । सम्प्रदान १३० ( पु० ) दान, कारक विशेष, चतुर्थी कारक । सम्प्रदाप (पु०) परम्परा का धर्म । सम्बद्ध ( बि० ) संयुक्त, घेरा गया, बाँधा गया। सम्पन्ध तत्‌० ( घु० ) संयुक्त, नाता, लगाव | सम्बन्धी तत्‌० ( पु० ) सम्बन्ध रफ़ते वाला, नातेदार, नवैत । [ पदछा कारक विशेष | सम्रोधन तद्‌० ( ५० ) संमुस्ी करण, कारण विशेष, सम्बोधित ( वि० ) पुकारा हुभा, सम्बोघन किया हुपा । [ द्वोना, सावचेत द्वा गाना । सम्भलना दे० ( क्रि० ) धम्मता, सुघरना, सावधान सम्मव तत* ( घु० ) योग्यता, होने के योग्य, होन- द्वार, भयितस्य, सम्मावना । [पिता । सम्भालना दे (क्रि० ) प्रबन्ध ऋरता, सुधारना, सम्भावना तव्‌* (स्रो० ) दुविधा, सन्देद, भनि- श्य । चाछ । सम्मापण तत» (घु० ) बावचीय, आज़ाप, बोल सम्मूत ( वि० ) उरपन्न, पैदा । सम्मोग बत्‌* ( गु० ) खी घसऊ, मैथुन । सम्माजनन तव॒ ( पु० ) भोज, सण्डार । सम्प्रम तव्‌* ( पु० ) भादर, सम्मान, घबराहट, भय, ढर, प्रास । [झरमिमत । सम्मत तत्‌* (गु०) भनुमत, स्वीकृत, सामति तद« (स्ली०) इच्छा, स्वीकार --पत्र (पु०) शज्ञीनामा | [ बद्ासी । सम्माजनी हद॒० (स्त्री० ) बढ़नी, माढ़, झा, सम्मान ( १५ ) आदर, सरकार, प्रतिष्ठा, मषाँदा | सम्मिलित ( वि० ) शामिल; संमुद्द मिला हुमा । सम्मुस ( ० ) सामने, भगे, भजद । सम्पकू तव्‌* ( थ* ) भच्छी माँति के, मेग्यता से, डी5 टीक, मक्तीमाँति | सम्दालना ( क्रि* ) देखो सम्माठना।| ( ७०४ ) सरसां साम्राद तत॒० ( घु० ) अधिराजा, चक्रदती राजा । खथ दे* ( ७० ) सौ, शत, १०० । खंयान दे० ( यु० ) घयस्क, बय प्राप्त, अधिकमर का अधिक भ्रवस्था वाला ॥ संयाना दे” (गु5 ) चतुर, प्रवीण, निषुण, दा बृद, बढ़ा | सर तव्‌० (पु) सरोवर,ताठाब, तढाग, (--कपडा ( छु० ) तृथ विशेष, नरक ) सरकना दे० ( कि० ) इटना, दूर जाना, ससकना। सरकाना दे० ( क्रि० ) इटानां, सगाना, खसकाना। सरगुण तद्‌० ( गु० ) समय गुण सद्दित, सर्व रज और तम इन गुणों से युक्त परमात्मा । सरधा तव॒० ( खी० ) मधुमदिका, मधुमासी, शहद की मक्‍्सी | सरद तदू० ( ४० ) गिरगिद | [पवूंडा । सरदा दे० ( प० ) एावूंजा विशेष, पक प्रकार का सरन तदु० ( पु० ) शरण, रछछ७ । सरना दे० ( क्ि० ) चलना, इटना, जाना। सरपर दे० ( ४० ) बढ़े येग से दौदना, सब जोर से दौढना ।--फोकना ( घा*) घोड़े की जाम ढीली करके दौढाना,वेग से दौडाना । [ पत्ते बाली घास। सरपत दे० ( पु० ) ढुण विशेष, ए प्रकार की चौढ़े सरपोण ( ३० ) ढकता, चिक्रम ढाँकने की वस्तु | सरल तत्‌० ( बि० ) उदार, सच्चा ईमानदार, निरक« पट, घरुशुर॒यक सीधा | ( पु० ) पुक प्रहार के पेड़ रा नाम इसे सरो भी कहते दे । सर्वर तद्‌० ( ० ) ताज्ञाव, वढाग, सील, पोश्चरा | सरवरि या सरबरी दे ( ख्वी० ) बराबरी, समता, 'डिठाई, गुम्तासी, उत्तर प्रति वत्तर देना । सरय ( पु०) बानर विशेष । सरयू ( स्री०) नदी विरोप, इसके नाम धर्ेरा, घाघरा या देंदा भी है । सरस तन ( वि* ) रस चाला$ मीठा, स्वादुरसीखा | सरसाना दे० ( झ्ि० ) रंगना, किरना, चढना | सरसाई दें० ( स्वी० ) भधिद्ाई, कट्रुतायत, शत्तमता। सरसिज्ञ धत्‌* ( धु० ) कम, पत्म, केवल । सरसीयद तत॒० ( पु ) कम, पद्म | सरफमों दे० ( ५० ) सपैय, राई, छोरी | सरस्वतो सरस्वती तव्‌० ( स्ली० ) नदी विशेष, वाणी, भारती, चामूदेवता, बाक्‌ की अ्धिष्ठात्री देवी, वागी- ध्वरी, शारदा सरा दे० ( 9० ) ढकना, ठपचा; मिट्टो का पान्न । खराई ढे० ( स्री० ) छोटा सरा, ठकनी । सराप तदू० (छु० ) शाप, अशुभ चिन्ता, श्राप सरापना दे० ( कि० ) शाप देवा, ग्रत्षियाना, गाली देना, कासना । खसराफ दे० (४० ) देव ज्ञेन करने पघाछा महाजन, चांदी लाने के बने आभूषण बेचते वाला । सराफी दे० ( स्नी० ) देन लेन, मद्ाजनी । सरायक तद्‌० (एु०) जैसी जैन धर्मी,जैन धर्मो गृहस्थ । खराबगो ( ३० ) जैची । [ सेी लकड़ी । सरावन दै० ( छु० ) हेंगा, ज्मीव बराबर करने की सथह दे० ( $० ) बल्तान, बढ़ाई, स्तुति, प्रशंसा | सराहना बे० ( क्लि० ) बढ़ाई करना, प्रशंसा करना, बज्ाच करना | [के वर्ण, स्वर । सरिग्रस तत्‌० ( ४० ) स्वर के आरोह अवरोदद करने सरित्‌ तत० ( स्री० ) नदी, निम्नगा, ज्लोत +--पति ( ४० ) समुद्र, सागर --छुत ( ३० ) गद़पपुतन, भीष्म । सरिता ( स्री० ) नदी। [ बर, चुल्य।! सग्सि, सरिखा तदू० ( वि० ) सदइश, समान वरा- सरी दे० ( खरी० ) विना फल का तीर। सरीखा तद० ( बि० ) समान, उुल्य, वरावर। सरीखूप ठद्‌० ( थि० ) जन्तु विशेष, शरठ, गिरगदि, साँप, विच्छू सरूप सत० ( वि० ) बराबर, समान रूपवाला, आकारवास । ( दे० ) स्वरूप, आकृति आकार, साकार छुति । सरेखा सद० (स्त्री०) शलेपा नक्षत्र विशेष, सा नक्षत्र । सरेस दें० (9७० ) लसलसी वस्तु विशेष, जिससे आयः खकड़ी जोड़ी जाती है। खरो दें० ( घु० ) एक प्रकार का बुत्ष। सरोज तद० ( घु० ) कमल, पद्म, पहकुम।--भव ( घु० » बह्मा, अजापति, विधाता । सरोता दे० ( छ० ) सुपारों काटने का औज़ार। सरोदह तव्‌० ( ७० ) सरसिज, कमल, प्च। (्‌ ७०५४ ) सलकी सरोवर तव्‌० (५०) तालाब, तड़ाय, सरवर, मील । सरोघ ठव० ( वि० ) कुछ, क्रोध युक्त खरोही दे० ( स्त्री० ) राजपूवाने के एक राज्य की राज- घानी | वहाँ की वनी तलवार,एक प्रकार का भाला । सरें करें दे० (बा०) श्रम करना, दुण्ड पेलना, बैठक करना । सकेरा ( स्री० ) शकरा, खाण्ड | सर्ग तव॒० ( ए० ) सष्टि, उत्पत्ति, अध्याय, गल्वभागा सर्प तत॒० ( छु० ) साँप, अहि, सुजज़ ।--राज (ए०) साँप का राज़ा, शेष, वासुकी। | सर्वे तत्‌ ( वि० ) सब, समस्त, सम्पूर्ण, सारा, सकल काल ( छ० ) निच्य, सदा।-ग ( शु० ) सब जगह जाने चाला, सर्व व्यापी, सब स्थानों में फैलने वाला ।-तात ( घु० ) सर्वंग, सर्वत्र व्याप्त, सर्चन्रव्यापी ।---ज्ञ ( छु० ) सर्वदेत्ता, परसाच्सा, परमेश्वर, एक बेदान्ती परिदद का नाम, जिन्होंने “ संक्षेप- शारीरक ” नामक वेदान्त का अन्य बनाया है ।--तोभद्र ( छु० ) चक्क को प्रधान बेदी, जिस पर प्रधाच देवता की स्थापन की जाती है।--अ ( अ० ) सब जगह, चारों ओर ६--था (अ०) सब अकार, सब तरहू।-- दसन ( घु० ) राजा दुष्यन्त का पुत्र दा सदा, हमेशा ।>-माम ( इ० ) कुछ शब्‌ जिनका प्रयोग अन्य शब्दों के श्र्थों में किया जा सके। +>ताश ( 9% ) सत्यानाश, ब्रिगाह (--भत्तक या भ्त्ती (वि०) घर्मच्युत, सब कुछ खाने वाक्षा। --भूत (३०) चराचर, विश्व |--मड़ु्ला (स्त्री०) अपया, पार्वती, दुर्गा (--सय (गु० ) सवरघरूप, सर्वेत्र व्याप्त +-ज्यापक या व्यापी (चि० ) सर्वश्न वत्मान, सब जगह ब्याप्त (-स्व ( छु० ) जमा, पूँजी, झूल धन सर्वंस तदू० ( छु० ) सर्वेस्त, जमा, घन, समल्त घन । सर्वाडर त्व० (घु० ) [ सबचे + गम ] समस्त शरीर, सम्पूर्ण अर । सर्वेपरि तव्‌० ( भ्र० ) सब से बढ़ा, सर्वश्रेष्ठ । सर्पप तद्‌० (गु०) घरसें, तारी । सर्सुसहद ( स्री० ) खुजली । सलकी दे० ( स्त्री० ) कमल की जढ़ । शा० प्‌ू०--८६ सलऊउज्ञ ( ४७०६ ) सह सत्षज्ञ पद ( वि० ) क्षण्ना युक्त, छच्जा सद्दिव, | सवारी दे (स्पी० ) यान, वाहन । नश्जालु। सतना दे* ( क्रि० ) दिधना, घुमना, राड़ना । सजम 0६० (३० ) सलम, पतड़, टिट्टी, दीपक पर गिरने बाला कीडा [ सलसलाना दे* (फ्रि० ) परासराना, घुजछाना, पानी से सूप सींगना, दीवाल भादि में सूब पानी घुस जाना | सल्नाई दे० ( स्ट्री० ) शहाका, केददे या सीसा का पठढा तार, सुमाँ खगाने की सच्चादे । सजिता दे० ( स्प्री० ) नदी, सरित, सिन्धु | सजल्िल तत्‌० ( पु५ ) जल, पानी, अप, नीर | सूप बह (वि ) स्वद्प, अत्यक्षप, थेद़ा, बहुत (मे । खलूता ( वि० ) देखो सलोना। खलूनों ( श्री० ) देखो सत्तोने। । सलोत तद्‌० (वि०) छोव सद्दित, सछवण, नमकीन | सल्ोना दे० ( वि* ) सुन्दर, रूपवान, मनेहर, प्रिय, दादण्पयुक्त, पारी, नमकीन | सकोनी रऐे० ( वि० ) रोचक, एचिझर, स्वादिष्ट । सक्वोने रे० (९०) झावण की पूर्िमा, रापी पूने | सत्तमभ दे* ( पु० ) पृ प्रकार का कपड़ा। सबरत्ष (३०) जूता सीने का चाम । सब्ली दे ( स्त्री ) घोदद्ी स्त्री, मेली औरत | सपति ( सत्री० ) सौत, सपती। सपघर ( धु० ) काल, भीक्ष । सबरो ( सो ) भीटनी, कोहनी । संघण ठव्‌* ( वि० ) समान वर्ण, एृश जाति बाला; एक छमान | संधा दे* ( वि* ) चत॒र्थीश भधिकता के साथ, १६। खबर देन (पु०) राजपूले! की पद॒वी, जैदुर के राजाओों की पहुवी, पुक और इसकी चौया, छवा | सांग दे" ( ३० ) स्वॉग, मरैती, नझुछ। सपाचना दे* (किन ) जॉदना, भजुस्नन्घान करना, पवा छयाना, दूँढूना । सधादू धव" ( ६९ ) स्वाद, मजा । सदाया ( ३० ) सदाईं, घदा। सवाए तदु« (३६ ) घोदा चढ़ेधा, घुद्चदा । सविता ठद्‌० ( ४० ) सू्, रवि। सैया दे० ( ए०) सवातेर, नापने या सैक्षने का घाट, भाषा का एक हम्द विरोष | खब्य तव्‌* ( वि० ) वायाँ, थाम, विदद्, उल्टा । --साथी (६० ) घन, तीसरा पाग्दव | सशडु तव« ( वि० ) शह्दायुक्त, श्राप्त युक्त, समष, भीत । ससक ( ६० ) छरगोश।. [ (सत्री० ) छणारू। ससा दे० ( घु० ) शशक, खरगेश, खरदा ।--पाश्री सुर तदू० ( पु०) पति या पढ़ी का पिता। ससुणाल ( स्थ्वी० ) ससुर का घर, पीदर । सस्ता दे० ( वि० ) भ्वस्यमूरय, थोड़े दाम में मिलने वाद्धी वस्तु । ससस्‍्य ( ५० ) फछ, खेत में छगा टुभा भन्न । सरहद तव० ( ॥०) साथ, सद्दित, सक्र, समेत ।-- कार (पू० ) आम, भान्नफह, सद्ापदा |-गामिनी (स्त्री ५) स्द्री, मार्यां, पतिमता रुप्ती ।--चर (पु*) साथी, सक्ी |--चरी ( स्त्री० ) ससी, सहेली, घयस्या, भावी ।--ज (१०) भाई, सददेदर माई । ( भ०) सामान्य, सुधम, स्पष्ट, सर८ “जन (६०) पक पेड का सलाम, झुनगा +--देँई (स्मरी०) पक पौधे का नाप्त (--देव ( ४० ) राजा पाण्द्ु का चेश्नन पुत्र, भाद्री के गमे और अभ्विनी कुमार के औरस से ये उत्पच् हुए थे । द्रौपरी के गये में शुतसेन नामक इनका पु पुत्र उर्फ हुमा था। भुधिष्टर के राजसूय यज्ञ में दद्धिण देश के राजाधों से कर कोने के स्लिये ये गये मे |अज्ञातवास फ्े समय विराद्‌ राजा के यहाँ सन्त्रीपाल् नाम घारण के ये गोरक्षा करते थे | मदद! प्रष्यान के समय उन्‍्देनि सुमेझ रिखर पर से गिर कर प्राण रपागा ] ( २ ) बरासस्ध का पुत्र, मद्याभारत के युद्ध में से कौरदों की भोर से कड़ते थे हर अभिमन्यु के ड्ाप से मारे गये ।--पाठी ठद॒० ( प% ) साथ वाला, सदोर्य।--मरण ( छु० ) साथ मरवा सती द्ोगा ।-न्योगी ( बि० ) पुक ब्यवसाय करने वाले, साथी, सही ।-नराना ( क्रि० ) पीरे घीरे हाथ फेरना ॥--शावन ८ स्प्री० » गुदगृदी, सहन घुरखुरी ।--लाना ( क्रि० ) युदग॒दाना, सुर- सुराना ।--वासत ( छु० ) एकत्र स्थिति, पड़ोस! “वासी ( छ० ) पड़ोसी, साथ रहने वाला। “+जैया ( वि० ) सहने वाला। सहन दे० (घु० ) कपड़ा विशेष, आँगन, घर के भीतर का खुला हुआ चौकोर स्थान तत्‌० ( घु० ) क्षमा, सहिष्णुता ।--शील < वि० ) सन्तोषी, यमख़ोर, परदेज़ी ।---हएर ( घु० ) सहने घाला, सहन करने वाला ) खहना दे० ( क्रि० ) सहन करना, भोगना, स्लेलना, उठाना, पाना, भ्ुंगतना, सन्‍्तोष करना। सदनाई दे० ( स्त्री० ) नफीरी, वाद्य विशेष । सदहमना (क्रि० ) डर जाना, न्रस्त होना, मुर्डा जाना, लजा जाना, शर्मोना। सदेस ( बिं० धज़ार। खहसा तत्‌ (अ० ) अकस्मात, रटपट, अतर्कित, बिना विचार !--ननन ( पु० ) शेपनाग । सह सत्‌० (वि०) संझ्या विशेष, दस सौ, ,३००॥ >+नयन ( घु० ) देवराज, इन्द्र ।-वाहु (5०) फार्त्तबोर्य इसको पस्थुराम जी ने सारा था। सहंसाखी तब्‌ू० ( ५० ) सहस्ारु, इन्द्र, देवताओं के राजा । [दज़ार सुँद हे । खसहसानन तद्‌० ( घु० ) सदखावन, शेपनाय, जिनके सद्दाई तद्‌० (स्त्री०) सहाय, सदायता,सद्यापता कारक। सद्दाऊ दे० ( वि० ) सहनीय, सहन करने योग्य, सह । सहाज्ञभूति तत्‌5 ( स्त्री० ) सुख में भोगी होना। सहाय उत्त्‌० ( पु० ) सहारा, सदव्‌ ।क (छु० ) सहारा देने वाला, मदद करने वाला।“ता ( स्त्री० ) सहाय, सहारा! सहारा दे० ( पघु० ) सहायता, योगदान । सदिय तत्त्‌ ( वि० ) साथ, सद्न, समेत, एकत्र । सदिराना दे० ( क्रि० ) सहराना, खुमलाना । सदिणणु तव्‌० ( वि० ) सहन करने बाल्य । सदी दे० ( श्र० ) शुद्ध, निश्रय बोधक शब्द्‌ । सहेजना दे० ( क्ि० ) सॉपना, सँभालना । सदेली दे० (ख्री०) सखी, वयस्या, साथ रहने वाली । सदोव्‌र तत्‌० ( छु०) सहज, सगा, एक माता से उपन्न ।--आ्वाता ( छ० ) लगा भाई । ( ७०७ ) साँति सहोदो दे० ( खो ) चौखट, दरवाज्ञा सह्य ठव॒० ( वि० ) सइने येग्य, सहाऊ | सा दे० ( अ० ) सादश्य बोधक, अत्पाधेक, थोड़ा सा। साइत दे० ( खो० ) श्रच्छी महू । साई दे० ( स्री० ) बयाना, किसी वस्तु के ठहरागे हुए मूल्य का कुछ अऔँश अगाऊ देना । साऊ दे० ( पु० ) सीखने हारा, शिष्ट । साँऊगी दे० ( स्त्री० ) साँगी, गाढ़ी का भण्डार । साई दे० ( 9० ) स्वामी, भगवान्‌ । खाँक्न तइ० (स्त्री० ) शह्ला, भय, श्वास का रोग । खाँकर या साँकरी दे० ८ स्त्री० ) शलझ् शछुला, सलिकल्नी । खाँकरो वे" ( बि० )[सद्लीर्ण, तड़, पशुओं की येनि । साँकर या साँकल दे० ( स्त्री०) सिकरी, भूषण विशेष, जो गले में पहना जाता है। साँखू, साखू दे० ( एु० ) पुल, सेतु, घुक्ष विशेष, साज्र का इच्त । [ अस्त्र खाँय दे० ( ल्‍्त्री० ) बी, सेल, भाला, एक प्रकार फा साँगी दे० (स्त्री०) गाढ़ी में का भण्दार, वर्दी । साँगूस दे० ( छु० ) एक अकार की मछली । साँधर दे० ( ४० ) घुनविवाहित्ा का युत्र, पहले पति का लड़का । खाँच दे० (बि० ) सत्य, सच्चा, ठीक, उचित, यथार्थ । साँचा दे० ( स्त्री० ) घढ़िया, गहना या वर्तन ढालने की चस्तु, दर्जा, उप्पा । साँम्क दे० ( स्त्री० ) सन्ध्या, सायक्ञाल || साँस्चा, साँस्द्री वे० ( स्त्री० ) पुतली का खेल, एक अकार का चित्रणकला । खाँदा दें० ( घ० ) कादा, कशा। साँदी ( स्त्री० ) छंदी, लग्गी साँढ दे० ( वि० ) संयोग, लवेदा ।--गाँठ ( छु० ) संयेग, सेल । खांठना दे० ( छ्वि० ) सठाना, लगाना, जोड़ना ! साँड़ दे० (पु०) पण्ड, चैल चिकनियाँ, बैज्ञ, विजार । साँडूनी दे० ( स्त्री० ) ऊँटनी । साँडा दे० ( पु० ) एक अकार का जन्ठ । साँढ़ दे० (७० ) अणुआ वैल । साँति दे० ( ञ्र० ) सन्‍्ती, बदला, ख़ातिर, लिये । साँप € ७०८ ) साधनिका साँप दे० ( पु ) सर्प, झुजंग, सुजक्र, उरग, अदि । | साज़ी ( स्ली० ) समीपार । ( स्प्री० ) साँपन । साँमर दे० ( छु० ) लवण, पुक प्रकार का नून, एक मगर विशेष, जहाँ सॉमर नमक उप्पन्न होता है । साँचर दे० ( वि० ) सॉकला, श्यामल । [रंग ! साँघला वद्‌० ( गु० ) श्यामल, कृष्ण/वर्ण का, काला साँवा दे० (पु० ) अन्न विशेष। .[ वाला बायु। सौंस तद्‌० ( १० ) श्वास, भ्राण, नाऊ से आने जाने साँसति दे० ( स्त्री०) कठिन दड, पोड़ा, अटकाव, च्याउलता । [ सुधारने के लिये दण्ड देना । साँसना बे० ( क्रि० ) ढॉदगा, ठाइना, धमकाना, खंल्ा बेन ( ४० ) सशय, सम्देद, कष्ट, भटराव । सांसारिक ठव्‌० ( वि० ) ससार सम्बन्धी, ससार का, संसार में उत्पत होने वाला । साक ( ए६० ) शाऊ, साग । साकय ( प्रव्य० ) सह, साथ । स्वाका ( ६० ) शाका, संवस्पर विशेष । साकार व्‌» [वि०) झापार सहित, आहति विशिष्ठ । साक्तात्‌ तत्‌5 ( ऋ० ) प्रयक्,, सामने, थाँखों के आगे, प्रकट ।--कार ( पु० ) आमना सामना, प्रयय । साक्ती ठत्‌० ( वि० ) गयाद, सासी | सास तद्‌ु० ( स्प्री० ) शा, भामाणिकता, साक्ी । साप्ती रद० ( वि० ) सात्ती, गवाह । सासोश्ाार ( १८ ) शासोद्यार, घंश निरूपए ! साख्या ( पु० ) साहास्कार साग तद० ( १० ) शाक, माजी, तरकारी | सामर तद्‌० ( धु० ) समुद्र, उदधि, पयोधि, अरण्णेव | सागू दे० ( ध० ) फाष्ट विशेष । साट्स्य तत्‌० ( घु० ) कपिज् मुनि प्रणीत शास्त्र विशेष, दर्शन शास्त्र साड्ू त्व७ (बि०) अक्न सददित समाप्त, पूर्णे शरीर । --पाट्ठ ( वि० ) समस्त, ज्यों का स्यों । साञ दे० ( १० ) सामग्री, सजाने का सामान $ साजन दे० | प५ ) सज्नन, प्रिय, प्रियतम, पति | साजना दे० ( क्ि० ) पहिनना, बनाना, सजावेट करना । साजिश ( पु० ) दुरमि सन्धि, कपट प्रवन्‍्ध, सयाग साझा दे० ( घु० ) भाग, द्िस्सा, अंश, किसी काम में अनेऊ महुप्यों फा भाग साम्की दे० ( छ० ) साथी, मागी, हिस्सादार, अशक। खाड़ी दे० ( श्ली० ) एक प्रकार का चावल, यह चावल साठ दिनों ही में पक कर तैयार हो जाता है। इसी से इसका नाम साठी पढ़ा है । [ फपदा । साडी दे० (खत्री० ) स्राटिका, स्तियों के पहने का साढ़सातो ( खी० ) शनिश्चर फी ७ वर्ष की दशा । साढ़, दे० ( छु० ) पत्नी का बहनोह। साढे दे० (वि०) सादर, शाधा के साथ, आधा सद्दित । साठ उवब्‌० (वि० 9 फरया पिशेष, सप्त, ७॥-- पाँच करना ( ब० ) कसमस करना, इधर उधर करना, सशयित होना, सम्देहान्वित होना | साच्विक ठत्‌० ( वि० ) सत्व गुण युक्त, संख गुण विशिष्ट, साधु, सरल, सल्नन । खातू दे० ( घु० ) सत्तू, सठुभा । साथ दें० (अर० ) सद्ग, सहित, समेत ।--देना (९) सदायता देना, सदारा पहुँचाना ।+--वाला (7०) साथी, सकी | [ निर्मित शब्या । साथरी दे० ( ख्री० ) पत्तों फा बिद्योना, चढाई, देय साथिन या साथिनी दे० ( ख्री० ) सदेली, सती । साथी दे० ( पु० ) सक्की, मेज़ी, मित्र, बन, साथ या पढ़ने चाला, सुहन्‌। साद; सादर ठत० ( वि० ) श्रादर सहित, सनन्‍्मान पूरक “न ( सख्तरी० ) गति विशेष । साद्ृश्य दत्‌» ( पु० ) समानता, तुल्यता, बराररी । साथ दे० ( ख्री० ) इच्छा, चाद, अमिलाप । साधक तव० ( घु० ) साधन वरने चाला, धार्मिक अलुष्ठान कर्ता, अम्यासशारी, सपस्वी | साधन ठव्‌० ( धु० ) उपाय, यक्ष, उद्योग, चेष्णा, अम्पास, अनुप्ठान, ब्यातरण के फरणस्‍ारद था बूसरा नाम | साधना ठव० ( सी० ) साथन, अ्रजुष्ान, तपस्या, सिद्ध करने का उपाय | ( क्ि० ) सिद्ध करना, अम्यास परना, वान ढालना, साधन करना | साधनिका ८ स्त्री० ) साधना, उपाय, पूरा करने की रीति । खाधवीय स्ाधनीय तत्‌० ( वि० ) साधन करने ग्ेग्या उत्तम करे, जिसका साधन करना उपयेगी हो । साधारण तत्‌० ( वि० ) सामान्य, सहज, सरल, आम, जन समाज [--तः ( अच्य० ) सामन्यतः, आम पैर से ७-धर्म ( पु० ) वह धर्स जिसके पाक्नन का अधिकार सभी को है। वे ये हें :--- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्धिय निम्रह, दम, ऋअ्षमा, आर्जव और दान । सांघित दत्‌० (वि० ) साधा गया, किया गया, सिद्ध, 'सिष्पादित, पूर्ण किया हुआ । साथी ( स्त्री० ) हराई हुई, थमी हुई । साधु तत्‌० ( ५० ) सज्जन, परोपकारी व्यक्ति, वैष्णव सम्प्रदाय के मनुष्य, एक जाति ।--ता €स्थ्री० ) श्रेष्ठा, साधु का कर्म ।--साछु ( वि० ) धन्य धन्य । साध्य तत्‌० ( बि० ) साधनीय, साधन करते येस्य । खान सद्‌० ( स्त्री० ) सिद्ली, मिस पर अस्त्र त्रेज किये जाते हैं ।--तुझाना ( वा० ) इशारे से घात करना, इक्णित करना । सामल्द्‌ ( वि० ) सहप, आनन्द के साथ । खानी दे० (सत्री० ) पछ भोजन विशेष, भुसा में पानी खली आदि डाल कर जो बनाई जाती है, बरावर । सासुकूल ( वि० ) कृपालु, दयालु, असन्न । साब्निध्य ( छु० ) नजदीकपन, निकटला । सान्वन तव्‌० ( घु० ) ठाइस देना, धीरज बैंघाना, समभाना, छुसाना । साज्ञा दे? ( क्रि० ) मिलाता, गूँघना, सॉड़ना । खापन ( पु० ) रोग विशेष, जिसके कारण खिर के चाल गिर जाते हैं | सापराध तद्‌० ( वि० ) अपराध विशिष्ट, अपराध- थुक्त, अपराधी, दोपी, कलक्ली, सदोप | खाफ्य तव॒० ( घु० ) सफलता, फल सिद्धि । साबर दे० ( घु० ) पशु विशेष, बारहसिंहा का चर्म | सावृत दे० ( वि० ) अछ्षत, बिना दृटा फूटा, समूचा, समस्त | स्तास तच० ( घु० ) घेद विशेष, तीसरा चेद, गयी जाने वाली ऋचा । ( दे० ) संध्या, साँक, मूसल था छकड़ी के सुँह पर का लोहा | ( ७०६ ) सारहूः सामग्री तत्‌० ( स्त्री० ) सामान, चीज़, वस्तु, उप- करण, असवाब सामध ( घु० ) समचौरा, समधियों का मेल । सापभ्मना ( अव्य० ) आगे, अगाड़ी, सम्मुख । खासन्त तव० (छु० ) काबू में लाये हुए राजा, साखड- इलिक राजा । सामग्रिक तत्‌० (वि०) कालोचिद,समय के अनुकूल | सामर दे० ( छु० ) लवण विशेष, नोन | सामर्थ दद्‌० (स्त्री०) शक्ति, बल, पराक्रम, योग्यता । सामर्थी तदू० ( वि० ) समथे, बलचाद्‌, पराक्रमी, शक्तिमान्‌ ] सामर्थ्य तत्‌० ( बु० ) शक्ति, योग्यता, पराक्रम, बल | सामा दे० ( १० ) सामान, सामग्री, भेजन सामग्री, बहुचिघि सेजन, जमाव, भण्ठली की शोभा । सामाजिक तत्‌० ( वि० ) सभासद, सभ्य, समाज सम्बन्धी, समाज विप्यक । सामान ( ए० ) असबाव, सामझी | खामान्य तत्‌० ( पु० ) साधारण, सध्यम स्थिति का, चलनसार ।--तः ( क्रि० वि० ) साधारणतः, आस तौर से । सामान्या तत्‌० (स्त्री? ) गणिका, चेश्या, प्यमि- चआारिणी, नायिका विशेष । सामी दे० ( द्वी० ) साम, सामने, आये, भत्यक्ष । सामीप्य तत्‌० ( वि० ) समीषता, निक्ृटता, श्रदूरी; घनिष्टता । सामुद्विक तत्‌० ( बि० ) विधा विशेष, जिससे हस्व- रेखा आदि का विचार किया जाता ऐ । सपुद्दे ( भव्य० ) सामने, आगे | साम्दना या खात्ना या साम्र दे० (पु० ) साक्षाद्‌, सामने का भाग, आगे, प्रत्यक्ष । सायड्भाल तत्‌० ( घ० ) संध्याकाल, दिन और भत्रि . का संधिकाल, साँस । सायुल्य ( छ० ) माौद्ध विशेष, जिसमें भक्त डश्वर में मिल जाता है। एकल्व, अभेदत्व [ सार उद० (६० ) खाद, लोहा, दीरा, धस्तु का उत्तम भाग ।--हक ( छु० ) वास, सैना । सारझ्भ तत्‌० ( घु० ) राम विशेष, मार, मयूर, छप॑ सेघ,बादक्क, हरिय, जल, पानी, पुक देश का घास, स़ार्विया चातक, पषीदा, हाथी, राजदँस, सिंद, छे।इल, कोकिल, कामड्देव, रंध विशेष, घ्ण , घनुप, अमर, मधुमदिका । ( स्री० ) मधु की मकपी, कपूर, कमर, चामरण, भूपण, पुष्प, छत, शोसा, रात्रि, दीपरू, ज्ली, शंख, दचस्च | सारंड्रिया ( पु०) सारह्ी बजाने घाढा | सारड्डी दे० ( झ्री० ) बाद्य विशेष । सारधि या सारधी तव॒० ( पु१ ) रथवाद, रथ चज्ञाने वाढ्ा, ग्राही इक्रिने घाला । सारना दे० ( क्रि० ) सरछाता, दराना, दूर करना | सारस ठऋ ( पु०) पष्चि विशेष, पुक पक्की का नाम | सारस्वत (पु०) देश विशेष, धाद्वार्यों छी ज्ञाति विशेष ( वि० ) सरस्वती सम्पन्धी । सार दे० ( वि« ) प्रम्पूर्ण, समस्त, समूचा--सार सत्यासत्य, भछावुरा, साँच मूठ । सारार्थ तव« ( वि० ) [ सार+चर्य ] सुश्यप्र्थ, प्रधान अर्थ । सारांश दे० ( पु० ) निचाड। सुण्य अर, मुस्यमाग | सारिका तब ( स्वी० ) तोता, मैना, एदी दिशेष | सारी दे० ( प्ी० ) स्लाढ्ी, स्त्रियों के पहनने येग्य कपड़ा ) सारुप्य ( पु० ) मो विशेष, जिससे मुमुद्ठ भपने भाराष्य देव के रूप का हो जाता है । सार्थक तत्‌० ( दि० ) भ्रधैसद्धित, अधे युक्त, सफट। सार्वभौम तत्‌* ( पु ) राजा, महाराजा, चक्रवर्ती राज्ञा | साल तदू० ( पु० ) पक प्रकार की कड़ी, साथू का पृष्ठ, यर्ष ॥-गिरद दे* (स्त्री०) वर्षगांठ, जन्मदिवस | [ छेदन, भेदन, घेघन | साज़न दे० (१०) दना हुआ साँस, माँस वही परचारी, सालना दे० ( क्रि ) सेदना, घुमाना, गड़ाना। साक्षसा दे० (पु०) औषघ विशेष, सींदा हुआ ऋूफु । साज़ा तदु० ( घु७ ) श्याटक, पस्ती का भाई । सालिप्राम ( ६० ) विष्छ की दूतिं विशेष, नो गण्ड की नदी में निकटती है । [ की बद्धिन [ सालो तदु* ( श्ली* ) रपाणी; साले की बरद्टिन, स्त्री सालू, सालूर दे० ( पु० ) पुकरंगा, छात्र रह्न का कपड़ा विशेष | ( ७१० )9 सादित्य साकेक्य ( ३० ) भोघ्त विशेष, जिससे सुमुछ अपने आराष्य देव छे ब्वोऊ में चला जाता है | सालोतररी तद्‌* (६० ) घोड़ों का वैय, भश्व चिढकि- स्सक | [ बालक | सावहू तद॒० ( घु० ) शावह्न, शिक्षु, बच्चा, डा, सावकरन तदू० ( पु० ) ध्यामकर्ण, पक प्रद्भार का यश्ञोय उत्तम घोड़ा | [ छुट्टी सावकाश तब॒० ( पु० ) भ्रवकाश, भवसर, फुरसत, सायन्न दे" ( ६० ) पनैडा पशु, भद्देर में मिला पश । सावधान तव्‌० (घु० ) सठऊ, चौकस, सावचेत, कार्यो में जागृत [--ता ( ख्री० ) सतर्केता । सावधानी तद्‌० ( छ्वी० ) सावधणता, चौकसी, खादचेती। सावन तद्‌० ( 4०) श्रावण, पक मददीने का नाम। -रेन भादों छुसे ( वा« ) सदा पुक समान | सावन्त तद॒० ( पु ) सामान्त, माण्डक्षीक राजा, अधिराज, करद राजा, चक्रवती के अधिडाश्भुक्त राजा, अधीनस्थ राजा ।--ी (श््री० ) चीएता, खावयद ( वि* ) भवयव सहित । [ घयें। साथ ( प०) चौद६ मजुमों में से भाठवें मु (थि०) सावाँ दे० ( धु० ) घान्य विशेष, श्यामझछ सास, साख तद्‌* (स्री० ) खवधु, ध्वसुर की स्प्री, स्‍त्री था पति की माता । साँसत (स््री० ) कष्ट, तकप्लीफ । साँसना ( क्ि० ) डॉदता, ताइना । साद दे० ( पु० ) बनिया, मद्ानन, रोजगारी, सेड। ++चये ( पुन ) सैगति, साथ। साहनी (स्त्री० ) फौज, सेना । सादस तद्‌० ( घु० ) उद्योग, उत्साइ, वीएता, कार्य- हस्परता, कार्यों में भतिशय मनेपेग, अपराध, अलुचिव छाये करने का दौसढा | साइसी तब" ( वि० ) ब्योगी, बत्सादी, साइसयुक्त, निर्मी$, निदर। [मद ! साद्माय्य तत्‌० ( वि* ) सदायता, उपकार, सहारा, सादित्य तव्‌० ( घु० ) उपकाया, साम्रान, सामप्री, विद्या विशेष, काम्य भढक्वार चादि। खाही ( छर१ ) सिन्धुर साही दे० (स्त्री० ) जन्तु विशेष, जिसके शरीर में | लिद्षप, सिंगा दें० (इ० ) स्थसिंगा, चुरदी, वाद्य काँटे होते हैं । साएू ( ४० ) महाजन | खाहकार दे० ( एु० ) महाज़द, ल्लेन देव करने चाला, कारबार करने वाला, वणिक्‌। साहकारी दे० (स्त्री० )मद्ालनी, लेनदेन, कारबार सिंगरौल (छु०) वक्वेरपुर, आम विशेष । [विशेष । खिंधाड़ा ( पु० ) जब में उत्प्च होने घाला फल सिंह तत्‌० ( घु०) झगेस्द्र, केसरि, खगराम ।--मुखों (० ) वाल ।--छ ( घु० ) फाटक, राजा के महस् का बढ़ा द्वार |७-नाद ( ३० ) गम्भीर ध्वनि, सिंह का शब्द्‌ । सिंहनी दे० (स्न्री० ) सिंद, सिंह की मादा । 'िंगल्लद्वीप तत्‌० (०) द्वीप विशेष, लक्ला, सिल्लोन । सिद्दासन तथ्‌० ( धु० ) राजासन, राजगद्दी, विचार रा आसन | [मिता । सिंहिका तत० ( स्त्री० ) राघसी विशेष, राहु की घिकतो तव्‌० (स्त्री० ) बालू, रेत, पाखुका। सिक्कड़ी दे? ( स्त्री" ) केहे की जालीदार भेंगूि । सिकरी, सिकती दे० ( स्त्वी० ) लॉंकछ, आभूपण, विशेष । सफदर दे० ( 9० ) सींका, सस्ती के बने थैले जे गे जाते हैं, विल्ली आदि से रा के ल्लिएु चीज़ें रखी जाती हैं । सिक्कुड़न दे० ( स्त्री० ) चछ, शिकन, सिमटन । सिख दे० (छु० ) जाति विशेष, नाक पन्‍्थ के झज्ुयायी । सिद्ध ( वि० ) सींचा हुआ । सिखमाह८ दे० (स्थरी० ) शिषल्ठी, सीख | सिखर तव० ( छ० ) शिखर, पर्वत्तस्ज्ञ, पद्धाड़ की चोटी, ऊँचे भकानें का ऊपरी भाग। सिस्तरल तदू० ( ७० ) वह पेय पदार्थ जो दी में दूध, चीनी और मसाले आदि डाल कर बवाया आता हैं । [ देना, बताना । सिखलाना दे* ( क्रि० ) पढ़ाना, सिखाना, शिक्षा सिखाई दे० ( स्त्री० ) शिक्षा, सिखावट, पढ़ाई । सिखाना दे० ( क्रि० ) बतछाना, सिखछाना ! सिगसे दे० ( वि० ) समग्र, समस्त, सम्पूर, सारा । विशेष | सिद्धार, सिंगार तत्‌+ (ज०) खज्ञारु शेमा, समावट। सिट्डारना, घिगारना दे+ ( छु० ) खजाना, शोसा बनाना, सजावट करना। सिज्ञारिया, सिगारिया दे? (यु० ) शब्वार फरने बाला, पुजारी, पूजा करने वाला, पूजक। सिज्जोठी, सिंगोटी दे० (स्री० ) पश्चमों का आभूषण विशेष, जो उनके सींगों पर ल्वगया जाता है। सिज्ञाना ( क्रि० ) उबालना, रींघना। | छुःख देना। पछिक्काना दे० ( क्रि० ) पकाना, रींघना, उवालना, सिड़ दे० ( स्री० ) उन्‍्मतता, पागलपन | छिड़ी दें” ( ० ) बावला, उन्मत्त. पागल । ललित रव॒० ( वि० ) धबल, रेत, शुक्ल, धौला। सिंदरी दे० ( स्री० ) स्वेद, पसीना, क्लेद। पघ्लितला दे० ( स्ली० ) चेचक, माता का रोग । सिद्धू तत्‌० ( 3) ) देवयोनि विशेष, देवता का एक सेद्‌। योय की आठ सिद्धियाँ जिन्हें प्राप्त हैं। ( बि० ) पूरा, समाप्त, पका, तैयार, बना हुआ, सावित किय्रा हुआ। (9०) साध, ओगी तपरपी। --योग ( वि० ) ज्योसिष का थोय विशेष। सिद्धि ( स्त्री० ) मनोवान्छित फल पाना।-दांता ( ४० ) श्रीमणेशजी | सिद्धान्त ठत्‌० ( 9० ) दृढ़ निरचय, वादि और पति- घादि द्वारा युक्ति तक से सिद्ध किया हुआ अर्थ । सिद्धान्वी तव० ( छ० ) मिमालक, विचारक । सिधारवा दे० ( क्रि० ) जाना, चला जाना, उठता, स्थानत्थाग करना। [ कफ जो नाक से निकलता है। सिल्क दे० ( स्री० ) पोंदा, नेद, नासिफा का सल, सिनकना दे० ( क्रि० ) भाक साफ करना, छिनकता। सिन्द्र तत० ( छु० ) उपयातु विशेष, जिसका भस्म दवा के काम में आता है। स्त्रियों का सोहाग चिन्ह। छिन्धु तच० ( 8० > समुद्र, सागर, पयोधि, एक चद्‌ का नाम, जिसका दूसरा नाम अठक है। भान्त विशेष, सिन्धप्देश, एक रागनी का नामा सिन्छुर तत० ( घु० 9 हाथी, हस्ति, करी, गऊ। “-भमिती ( स्त्री० ) झुन्दर जाति वाली ख्री, जिसको गति गज के समान हो। सिपाद सिपाह ( स्व्री७ ) सेना फौज । सिपाद्दी (घु० ) अली, चपरासी सैनिक। सिप्र त१० ( घु० ) निदाध, जल, पसीना, स्वेद। सिप्रा तद० (स्री० ) नदी विशेष, ज्ञो उज्जैन के पास है। सिमठ दे" ( खी० ) सउुच, शिकन, सिरेडन । सिमदन दे० ( खी० ) सिउ॒इन, शिकन । सिमिठना दे० ( क्रि० ) सिकुइना, बढुरना । सिमाना तद्‌० ( पु० ) सीमा, मेंड, अयधि, सीवाना । सिय ( ख्ली० ) सीता [ सियन ( खी० ) सीमन, सिलाई। [ दव। सियाना दे० ( गु० ) प्रवीण, चतुर, निएुण, अभिक्ष, सियार तदू० € पु० ) शगाल, गीदड़ सिर ठदू० ( पु० ) मन्तक, भाया, कपाल ।--उठना ( था० ) स्वामी का विद्रोह करना, सिर में पीड़ा होना ।--फरना (बा०) प्रारम्स करना ।--काटना ( घा० ) शिरच्द्रेद करना, मद काटया |--काढ़ेना ( या० ) प्रसिद्ध होना, नामी होना, उद्यन होना, प्रस्तुत होना । सिरका दे० ( घ० ) आसय विशेष सिरकी दे० ( श्री० ) पतले सेंदे थी छावनी । सिर्खप दे० ( घि० ) मनचला, प्रणी, अपनी टेऊ पर अटल । [करना । सिर स्पाना दें० ( वि* ) दिम्ताय लडाना, सिरप्ञी घिस्फपो दे० ( ख्री० ) ढॉदस, जेसिम । सिरचढ़ा दे० ( वि० ) धमढी, भरदद्भारी । सिरजना दे० ( क्रि० ) रचना, उत्पन्न करना, बनाना । सिर फोड्रौयल दे० ( सी० ) रूगद्ठा, खड़ाई। सिससीगा दे० ( बि० ) झगद्मालू, दगा करने बाला । सिरद्वाना दे० ( घु० ) सिर फी चोर । सिं दे* ( पु० ) रग, नस । सिरात दे* (क्रि० ) ठग, शीवल, शीव ) सिराना दे० ( क्रि० ) यन पढ़ना, होना, टेंढा करना । सिरिस (४० ) दक्षविशेष । [ पीसा जाता है। सिल ( स्री० ) पत्थर विशेष मिस पर ससाला आदि सिलपद दे० (दि०) चैएट, उजाड, वरावर, समतत । सिजवद्दा दे० ( पु० ) सिल खड़ा । सिलवाई दे० ( स्ली० ) सीने की ममदूरी । ६ छर३ ) सौमनां सिलपाना दे० ( क्रि० ) सिवाना, सिलाना, सिलाई करना । सिलाई दे० (स्प्री०) सीने का काम, सीने फी मजूरी । सिल्ाना दे० ( क्रि० ) पदनने के कपडे घनवाना । सिल्ली दे० ( स्त्री० ) पथरी, सिल, शान । सिद्ली ( स्प्री० ) देखो सिल्ली । सित्राना दे० ( घु० ) सीमा, छोर, श्रवधि। सिघार दे० ( पु० ) देखो “ सेवार ” | सिसकना दे० ( क्रिः ) रोना, धीरे धीरे रोना । सिसकारो दे० ( स्त्री० ) सिस सिस शब्द करना। सिसकी दे० ( स्त्रो० ) सिसआारी । सिदरन दे० ( स्त्री० ) कपन, घबराहट । [ थराना । सिहरना दे० ( क्रि० ) कपना, फरिपत होना, थर- सिटरा दे० (एु०) एक प्रजार वा सुख या आवरण जो दूल्हा की पगडी के पास माथे पर वाँधा जाता है। सिहराना दे" (क्रि० ) थाकवा, श्रन्त ोना, थक जाना । सिद्दाना ( क्रि० ) देख कर सन्तुष्ट होना । सीक ढ़े० ( स्प्री० ) तृण, घास, नरफट । सॉंका दे० ( छ० ) लकोर, घारी, सिक्दर, छोंका । सीकहर (धु० ) रस्सी की बनी दोलनुमा एक चीगू जो चुत्त में लट्कायी जाती है भर उसमें चीए़ें रख दी जाती है जिससे उसमें चीटियाँ न चढ़े' भौर उसे विद्ची न खाय, छींका । सींकिया दे० ( गु० ) घारी वाला फपथ | सींग तदू० ( स्त्री० ) अर, विषाण, पशुओं थी सींग । सींगड़ा दे० ( घ॒०) सींग का बना हुआ पा, मिसमें ब्रास्द रखा जाता हैं । सींगा दे० (पघु०) नरसिगा, तरदी, याघ् विशेष । संगी दे० ( स्प्री० ) तुमदी, सींगा, मछली । सोचना दे० ( छ्ि० ) सीचना, पाटना, पानी देना । खाँचाई दे० € स्त्री० ) पानी देने का वाम । सींची दे० ( स्त्री० ) सौॉँचने का समय | सीख तदू» (स्त्री०) शिह्ठा, पाठ, उपदेश, सिसावद | सीखना दे० ( क्रि० ) शिद्दा पाना, अ्रभ्यास परना, पढ़ना । सीच॑ना दे० ( क्रि० ) सिचाई करना । सीमना (छ्ि० ) मलना, उबजना ! दे० (क्रि० ) पलीजना, रसना, निसरना, किकलना । सीदना दें» ( क्रि० ) ढोंगे करना, कूठी प्रशंसा करना। सीटी दे० (स्त्री०) छह से घजाया हुआ शब्द, सौदी, बजाने का वाजा । सीठना छे० ( क्रि० ) ब्याह का गीत १ सीठा दें० ( गु० ) रसहीन, फीका, असार, नीरस सीधी दे० ( स्त्री० ) खूद, छानन, निकम्मा भाग, फोक । सीढ़ी दे० ( च्ली० ) सोपान, पैडी, आरोह, निसेनी । स्रीत ( घु० ) ओस ।--रख ( एु० ) सुख पर का रोग विशेष | खीतला तदइ० (स्लरी०) शीवला, माता, सोटी, चेचक । सोता तद॒० (स्त्रो० ) जानको, चैंदेही, मिथिला के राजा जनक की कन्या, श्रीरामचन्द्र की पली, हल, इल का फल ।--पति ( छ० ) रामचन्द्र |--फल ( पु० ) फल विशेष, शरीफा । सीदना दे० ( क्रि० ) दुःखी होना । सीधा दे” (गृ० ) सभा, अवक, सिश्चल, शुद्ध, सच्चा, कारा अन्न । खीना दे० ( क्रि० ) सिलाई करना, ताथना, ढॉँकना, छुरपना । .[ सोती जिसमें से निकाला जाता है । सीप, स्ीपी दे० ( स्त्री० ) घोंघा, शह्ढ, सुतुई, सूती सीमब्त ( छ० ) माँग काढ़ना, गर्भवती स्त्री का संस्कार विशेष । स्रीमन्तिनी ( स्त्री० ) स्त्री, भौरत । सोमनन्‍्ती ( खी० ) औरत, नारी, अबला, स्त्री । सीमा तत० ( स्त्री० ) हुइ, सिवाना, अदधि, डॉँड । --विवाद (७० ) अठारद त्रकार के न्याय के अन्तर्गत एक न्याय । सीय तद० ( स्त्री० ) सीता, जानकी, चैदेही । सौीरा दे० ( छ० ) भोजन विशेष, मेहनभोग, हलवा, इलुआ । खीला दे० ( बि० ) गीला, भीगा हुआ, शीतल । सीवन दे० ( पु० ) सिलाई, जेाड़, सेल । सीब दे० ( स्त्री० ) सीमा, हंइ, छोर, सदा ) सीसत उद्‌० ( पु० ) शीर्ष, सिर, सस्तक, कपाल [-- फूल ( घु० ) सिर का आभूषण विशेष । सुगम सीखक, सीखा तत्त्‌० (घु० ) धातु विशेष, स्वनास असिद्ध चाठु, आँच | सीखें ( घु० ) शीशम का बृक्ष । *खु तब» ( डप० ) उचसता बोधक । खुश्मन ( घु० ) बेदा, पुत्र । छुआर तद्‌० ( घु० ) सूकर, बराह । खुआर ( घु० ) रसेइया, बाचर्ची । झेँथघाना दे० ( क्रि० ) महकाना, सुवासना । खुकचाना दे० ( क्रि० ) संकुथित दोवा, सिसदना, डरना, सयपाना, सकुचाना । खुकदा दे० ( वि० ) दुर्बल, छुवला, पतला | ख़ुकटी दें० ( स्त्री० ) भूखी मछली | झुकड़ना दे० ( किं० ) सिसटना, संकुचित होना । छुकर तत्‌० ( वि० ) अल्प परिश्रम से करने थराग्य, सीधा । [ समय । ख़ुकाल ठव्‌० ( घु० ) सुअवसर, झच्छी ऋतु, उच्तम छुकुमार ठत० ( वि० ) मनेहर, सुन्दर, केमल । सुद्धत तव्‌० ( घु० ) पुण्य, उत्तम कर्म । [ धर्मनिष्ठ । खुकती ठत्‌० ( घु० ) पुण्यात्मा, छुश्यचान, धर्मात्मा, खुख् तत्‌० ( छ० ) आराम, कल, श्मन्ति, इन्द्रियों की ठुत्ति ।---जैन (बा०) विश्राम, अवकाश, अवसर । “--तला (३०) जूते का ता ।-ब्‌ (जि०) खुख- , दष्यक, आनन्ददायक !--दासख (छु०) एक जाति का नाम ।--ल्वाना (फ्रि०) खुखाना, सूखा करना) खुखाला दे० ( त्रि० 9 सहज, सुख से, आनन्द ले । खुखित तत्‌० ( वि० ) सुखी, सुख आत्त, आननिदित । रुखिया दे० (बि०) सुखी, सुखित, सुखयुत आननन्‍्दी, विलासी ॥ खुखी तत्‌० ( बि० ) सुख करने वाला । खुख्याति तत० (स्त्री० ) कीर्ति, यश, असिद्धि, नाम, न्ामवरी. प्रतिष्ठ', सर्यादा ! खुगति तत७ ( स्मो० ) उत्तम गति, अच्छी अवस्था । खुगन्ध या खुगन्धि तत्‌० (ख्री० ? अच्छी वास, महक, शोसन गन्ध ।--ते ( वि० ) खुशबूतार, सुगन्ध वाला । [ बस । सुगन्धों तद० ( ग्रु० 9 खुगन्ध, सहक, वास, अच्छी सगप्त तत्‌० ( वि० ) सदज, सरल, सुकर अछूप परि- 7 श्षम से करने योग्य ।--ता ( स्त्री० ) सरलता । आक् पा७० - ६० सुगामी ( छरष ) सुन सगामो दे ( बि० ) निकोल, केलरदित, जिसमें | खुतार दे० (घु०) बढ़ई, साती, जाति विशेष, बिनका शिकन न हो, कसा हुआ। सम्रीव तव्‌० (पु०) वानरराज् वाल वा छोटा माई सधघड़ दे* ( वि० ) सुन्दर, मनोहर, सुद्दौल ।--ई ( स्त्री० ) सुन्दरता । [ दार, सच्चा । स॒त्रि दें० ( वि० ) निर्मत्, स्वच्छ, मलरहित, इईमान- सचकना दे० ( क्रि० ) विस्मित होना, श्रचम्मित होना, आश्रय में होना । सुचरित्रा ( स्त्री० ) पतित्रता । सुचरित तत्‌० वि०) उत्तम चरित्र वाला, सदाचारी, धर्मोत्मा । सुचिच तत्‌० ( वि० ) मुगम, निश्चिन्त, चिन्ता शल्य, सावधान | सचिताई दे ० ( श्री० ) सावधानी, सुचित्तता 4 सचेत तद्‌० ( वि० ) सावधान, चौफस, सतर्क। सुज्न दव्‌० ( वि० ) साधुनन, भलामा।नस, सदाचारी, परोपकारी ।--ता (सत्री०) साउता, प्रोपकारिता, भखमसी । सुजस तत» ( ६० ) सुण्याति, कीति, सुन्दर यश। सुजान तदू० ( वि० ) ज्ञानवान, क्षाता, अभिज्ञ, प्रदीण, दकव । सुज्ञाना दे० ( क्रि० ) फुलाना, बढ़ाना । [ सममाना। खुक्काना दे० (क्रि०) दिखाना, बताना, स्मरण कराना, मसुठकना दे० ( फ्रि० ) सकुचित होना, विघद्षना, घूटना, पतली घड़ी से पीटना । मुद्ुकुन दे० ( ख्री० ) लट्ढठ, छढ़ी, लाठी, लठिया । खु॒ठि दे० ( वि ) सुन्दर, मनोदर, उत्तम सुड़क ना दे० ( छि० ) धूँट घूँट करके पीना । छुड़की दे० ( खी० ) गुड्ठी की ढोरी छेदना । सुड़प दे० ( खो० ) फवल, आस, कर ) सुड़पना दे० ( क्रि० ) नियलना, चादना, चूसना । सुडौल दे० ( वि० ) सुन्दर, शोमन, सुन्दर आकार बाला, सुबढ । खुत तव्‌+ ( पु० ) पुत्र, वेश, लड़का, आत्म, तनया। खुतरा दे० ( १० ) वाला, कद्मा, ग्रायूपण विशेष । छुठरी दे० ( खी० ) सन थी वनी पतली रस्सी 3 सुता तत्‌० ( खी० ) कन्या, तनया, टुद्धता, पुत्री ख़ड़वी, बेटी । लकड़ी का काम करना व्यवसाय है । अच्छा समय, अलुकूज् समय। खुतोद्दी ( ख्री० ) अति चेखी, धारदार । खुथन यथा खुथनी या खूथना दे० ( पु० ) पायजामा, चैरों में पहनने का फपड़ा । खुथरा दे" ( वि० ) साफ, स्वच्छ, श्रच्चा, अनूठा +-सादी ( बु० ) मानकसाही साधु खुदशंन तत० ( घु० ) विष्णु के चक्र का नाम, धृष्प ( वि० ) जो देसने में मनोहर हे । खुदामा ठत० ( घु० ) एक दरिद्र प्राह्मणं, श्रीकृष्ण का सद्पाठी श्रीकृष्ण ने उसे बहुत धन देकर घनी बनाया था । खुदि तत्‌० ( अर० ) शुक्ल पक्ष, उजाला पास । खुद्दित ततू० (३०,) भच्छे दिन, भक्ा भवसर, सौभाग्य खुदो तदू० ( ऋ्र० ) देखो “ खुदि !। खुद्दढ़ तत्‌० ( ६० ) फ्ठोर, अठल। सुद्ृश्य तव्‌» ( वि० ) उत्तम, दर्शनीय, देखने योग्य, मनोज, सनभावन । खुध दे* (स्वी०) स्मरण, चेत, ज्ञान, चिन्ता ।+--चुघ समझ, चेत, शान, बुक ।--लेना (या०) समाचार पूँ छुना, याव करना, स्मरण फरना । [ जाना । खछुघरना दे० ( क्रिः ) वननां, सम्दल जाना, यन सुधाँ दे० ( अ० ) सहित, समेद, युक्त । सुधांशु (४० ) चन्द्रमा, चाँद, फपूर । झुधा वतू० (स्वी० ) अग्दव, पीयूष, श्रमी, चूना, कलई, मकान पोतने का रवेत द्वव्य विशेष । >+कर ( घ॒० ) चन्द्रमा खुधार ( खो० ) मरम्मत । सुधारना दे० ( %० ) बनाना, सर्वोॉरना, सजाना | सुधि--( देखो ) “ सुघ ” खुपी तत्‌० ( घु० ) घद्धिमाव्‌, अनुभवी, पणिइत, विज्ञ, तत़रपेकार । झुन तद्‌ ( वि० ) शुन्य, रिक्त, रीवा ॥#--कातर ( घु० ) सर्पविशेष ।--गुन दे० ( छो' ) मस्द चर्चा, पानाफूँ सी ।--घदरी (ख्री०) रोग विशेष, कुष्ठरोग का पूर्व रूप +--सर ( पु० ) पुक प्रखर सुनना ( छ/ूं४ ) सुरैत्तिन का गहना ।--लान ( वि० ) एकान्स, वीरान --हरा या--दल्ा ( विं० ) सोने का ) छुनाना दे० ( क्रि० ) श्रवण कराना, निवेदन करवा, जनाना । खुनावद दे* ( ज्ी० ) खुनाहट, मौन, झुप । ख़ुनार दे० ( पु० ) जाति विशेष, जो यहने बनाता हैं, स्वर्णकार। खुनारिन दे० ( री० ) सुनार की स्त्री । छुनारी दे० ( खी० ) सुनार का काम, खुनार की विद्या, सुन्दरी ख्री । खुताचनी ( स्री० ) मरने का समाचार । खुनाहूठ दे० ( खी० ) सुनावट । ख़ुनीति ( ख्री० ) अच्छी नीति, शिप्टाचार । छुन्द्र ततू० (वि० ) सुरूप, रूपचान्‌, सनोहर। --ता ( स्त्री० ) मनोहरता, खुरूपता । छुन्दरोी तत्‌० ( स्त्री० ) रूपवती, सुरूपा । खुन्धावढ, सुँधावद दे० ( स्प्री० ) गन्ध विशेष, मिट॒ठी की रन्‍्ध, सुवास । खुन्न दे० ( घु० ) सन्नाटा, विंदी । खन्ना ( पु० ) सिफर, बिंदी । [ चुपन्‍य | खुप्थ तत्त० (पु०) उत्तम मार्ग, अच्छा रास्ता, सुमार्ग, छुपान्न तत्‌० (ब्रि० ) योग्य, उत्तम पात्र, सज्जन, उत्तम जन । छुपारी दे० ( स्त्रो० ) पूणी फल, प्रसिद्ध फल विशेष । ख़ुपास वे० ( १० ) सुविधा, खुमीत्ता । खुपुन्न या खपूत ततू० ( पु० ) अच्छा लड़का, सत्तुन्न । ख़ुध ठत्‌० ( बि० ) निद्विंद, सोया हुआ | ख़ुप्ति ( स्त्री० ) नींद, मिद्धा सफल तत्‌० ( वि० ) उत्तम फल, लाभदायक, क्ाभ- कारी, सफल ।-- ( स्त्री० ) खजूर । खुबुद्धि तत० ( स्त्री० ) उत्तम छद्धि, प्रवीणता । ख़ुभग वत्‌० (छु० ) खुल्दर पढि, प्यारा, म्रिय। “-वा ( स्त्री० ) उत्तमता, ओेएता । खुमदठ तत्‌० ( पु० ) उत्तम योद्धा, बीर, श्र, लदाँका सिपाही । है खुमद्रा ( स्त्नी० ) श्रीकृष्ण की बहिन । खुसाया तत० ( स्त्री० ) सौभाग्यवती, सघवा । खुमाव वद्‌० ( पु० ) स्वभाव, अच्छा स्वभात्र । खुमोता दे० ( स्त्री० ) अवसर, अवकाश, सुविधा । झुमडाल तत्८ ( पु० ) शुभ, कल्याण, कुशल ॥ खुमति तत्‌० (स्त्री०) सुबद्धि, भलमंसी, अच्छी बुद्धि । खुप्नन दतू० ( छु० ) फूल, पुष्प, कुसुम । खुभमन्त तत््‌० (१५०) राजा दशरथ का सचिव, सारधी | खझुमरन दे० ( घु० ) स्मरण, याद, भजन । छुपरना दे० ( क्रि० ) स्मरण करना, जपना, भाम लेना, भजन करना । छुमिरनो दे० ( स्त्नी० ) छोटी साला, स्मरण करने के लिये २७ दानों को बनी माला | खुमिन्ना तत्‌० ( स्त्री० ) राजा दशरथ की छोटी पट- रानी, लक्ष्मण और शबश्रुत्न की माता । खुमेरू तलू० ( पु० ) पर्वत विशेष, उत्तर प्लुव, केन्द्र, सध्य स्थान, साला की बड़ी सनिया । खुस्बा, सुंबा दे० (स्त्री०) तोप था बन्दूक़ की उसनी, गज्न, लोहे आदि को छेदने का औजार । खुयश तत्‌० ( पु० ) सुख्याति, कीति, सुन्दर यश | छुयोग ( पु० ) अच्छा अवसर, अच्छा येय | सुर ततू० (पु०) देवता, देव, अमर, सूर्य, स्वर /--गुरु ( पु० ) इहस्पति।--पति ( पु० ) इच्द ।--घुर ( घु० ) अमर ।--तझ (पु०) देवद्धक्ष, कल्पनुक्त । “-मिलाना ( था० ) वाज़ों का सुर मिलाना ऋईह एक घाजों को एक स्वर करना । खुरडू तत्‌० (स्त्री०) सेंध, ज़मीन के भीतर का मार्ग। छुरत दे० (स्त्री० ) सुख, याद, चेठ, स्टति, (तत्‌०) ( इ० ) मैथुन, स्त्रीमसज्ठ ख़ुरती दे० ( स्त्री० ) तम्बाकू, समाख्‌, खनी । ख़ुर्तीला दे० ( घि० स्मरणकत्तर, सावधान, सुचेत, यादुदाश्त करने वाला । छुरनेन दे० ( स्त्री० ) रखी हुई स्त्री । छुरसि तत्० ( घु० ) सुगन्ध । ख़ुरमा दे० ( इ० ) अज्षन विशेष । खुरल तत्‌० ( वि० ) रस युक्त, उत्तम रसवाला । खुरेखुणना दे० (क्रि० ) सरसराना, रेंगना । खुस्खुरी दे०( स्त्री० ) ग्रद गुढी । छुरा तत्‌० ( स्त्रो० ) मद्य, सदर, आसव, शराब | सखुरूप तत॒० ( वि० ) सुन्दर, सुघढ, सुदौल । छुरेतिन दे० ( स्त्री० ) अविवाहिता भार्या, रखनी | सुलगंना (६ ७ु५ई ) सूकना छुतणना दें० ( किए ) लहयना, लदराना, जलना, सुई दे० ( स्वी० ) कपड़े सीने की सलाई, सूची । घुआ निकलना । सुलगाना दे० ( क्रि० ) बालना, लद्दकावा जलाना! मुलकना दे। ( क्रिं० ) सुधला, खुकना । सुलझ्लाना दे० (क्रि०) उर्ेसना, सुधारना, खेलना ४ सुलभ दे* ( दि ) सुवाष्य, कम कीमत, अस्पमूल्य, सदत्, सुगम, आसान, सहल् --ता( स्प्री5 ) मुगसता । छुलत्तण वत० ( घु० ) शुभचिद्द । सुल्लाना दे० ( क्रि० ) शयन कराना, पौद़ाना सुपचन तत्‌० ( पु० ) विसद बचन, भिव वाणी । सुधर्ण दढू६ (वि० ) सुवाति, भ्रच्दी जाति, उत्तम, श्रेष्ठ, सुन्दर, ( घु० ) सोना, फाखन | खुबास तव्‌० ( इ० ) हुगन्ब, सुरभि। सुबेया दे० ( वि० ) सोने बाला । खुभोल तत्‌० ( वि० ) उत्तम स्वभाव चाला। खुशी तद्‌० ( वि० ) खुर्दर, समीदा ! झुपृप्ति तू» ( स्त्री० ) 'भवस्था विशेष, चे।ग्रियों फो ध्यानायस्था । छुसफारन/ दे० (क्रि० ) पुचकारना, फनकारना, फुफ़ियाता, थोड़े बच्चों करे शोचादिर कराना । सुसताना दे* ( क्ि० ) विश्राम करना, धवावद झतारया । सछुसम्य तत्‌० ( ५० ) अच्धा समय, सप्तत्ष सुस्त दे" ( ब्रि० ) शियित्ष, दीला, नियत, हुगला छुल्य तन्‌० ( बि* ) भीरोग, भच्चा, मल्रा, चगा। सुदराना दे० (क्रि०) बदन पर घोरे घीरे दथ फेरला। छुद्दाई ( पि० ) शोमाग्रमान ( क्रि० ) शेममित। पुद्दाग तदू० ( धु० ) सौभाग्य, सपदापन । पुद्दगन, या सुदागिन देक ( हवी० ) शचवा स्त्री, विपका पति व्तसान हो। हु पुद्दागा दे० ( थु। ) इंडन, चार दिखेप। (मय सुद्दावा दे० ( पि० ) भमीष्सित, दृषट, चाड़ीवा, गत- सुदाना दे० (कि०) चच्दा माजूम होम! सुदावन। दें५ ( क्रिए ) दया, लगना। ( वि सुररर, सनमावन ६ खुददू दव्‌+ ( ५० ) मित्र, बत्व, हितचिन्वक, हित सूझा दे* (4० ) होता, मुग्या, शेरा सीने वा सूज्ा | सूगा दें ( पु० ) मुग्या, तोता। सुचक वत्‌० (४० ) बोधर, शापक, बताने बाला, घुचना तव॒+ ( ख्री० ) जवाना, चेतावनी, विज्ञापन | सूँचर ( प० ) पढवा, मैंस का बन्नद। सू घना दे० ( कि० ) नाऊ से सिमी सुगस्धयुक्त पदार्थ की महक लेना । [ ठगाकू। सु घुस दें० ( ढी० ) हुँलास, नास, सूँघते फो सू ठ दे ( स्‍्त्री० ) चुणपी, मौद, वाक, नीरद १ खूँ ड़ दद० ( स्त्री० ) शुण्द, हाथी का कर ६ खूँड़ी दें० ( पु० ) जाति विरोप जो मध देचने आदि का काम करते हे, काल, कलवार। . [ फरना। सुँतना दे० ( क्रि० ) तोढ़ना, बटोरवा, एकत्रित खस दे० ( पु० ) जक्ल जन्तु विशेष, जलहर्ति) खुकद दे० ( वि० ) जग, दुवला, कीणरल सूछा क्र्या। [ खायें । खूकर ( पु० ) भुअर >-रंतत ( ६० ) दगर विशेष, घूकी दें* ( ख्री० ) रुपये का चौधा द्विम्सा, चवन्ी। सूक्ष्म दत्‌० ( वि० ) पतला, धोद घारीक -न्ता ( स्प्री० ) पतल्लापन, छलोटापत ।->दुर्शी ( वि० ) चतुर, गुणी, प्रयीय | खुखछड़ी दे ० ( स्त्रो० ) रोग विशेष, 'हुपी रोग) खूबना दें० ( क्रि० ) निरस होता, बिगड़ा, खराब होना, उम्हलाना, स्वादह्ीन होना । खूस्वा दे> ( पु० ) नीरस, रसहीन, शुष्क, सड़ा गजा, (3० ) श्रकाल, महँगी। - [जतलाने बाला। “पर ( १२ ) नादिस, विज्ञापन | , [ डुच्ा। खूलित तब्‌« ( गुर ) जताया गया, विज्ञापन दिया छचो ततर्‌० (3० ) सुई। खुचीपतन्न वध ( घु० ) बोधपतश्रिश, वे।धनपत्न, जगाने [बाछा पत्र, बीनक | खून देष ( प्री६ ) शेष, फुलाब । - खुततन ६० ( सती ) “धूल” । » खुशना दे० ( करिए ) कूलना | छूजा ( पु० ) बड़ी सुई, बेधी, सुतारी । 3 | घुजो हे ( ख्ो० ) मे घादा, दादा! भाटा । घूम दे० ( श्लो० ) दृष्टि, दृशंन, विदय, पंख, बुद्धि] छूफना रे ( फ्रिए ) माून होना, दीख पढ़ता, इृषटि गतद्ौता। | ' ड़ खत ( छरे७ ) सेव खूत चदू० ( ४० ) सून्न, तया, घाया, दोरा, (तत्‌०) सारथी, रथवाह, एक पौराखिक व्यास ये नेमिपा- रण्य में रदते थे और सदाभारत ग्रादि की कथा सुनाते थे । इसके। बलदेव ने मार डाऊा था । खूतक तत्‌० ( धु५ ) अशीच, जवब और मरया की अशुद्धि । खूतना दे० ( क्रि० ) सेना, निद्रा आना | खूतच्त था सुततत्त तत्‌ू० ( डु० ) पादाज्ष विशेष | सूतत्ली दे" ( खी० ) सन की रस्सी, डोरी । घूतिका तत० ( स्त्री० ) प्रयूत्ती ली, जिसने हाल में बच्चा जमा दे (--गुह (छ०) घर जिसमें लड़का चैदा हो, जच्चा गृह । खूती दे० ( वि० ) सूत्र का बना; सीप; सुदही । सून्न तत्तू० ( घु० 3) खूत, घागा; तागा, डोसा, रीति, व्यवस्था, प्रनन्ध,व्याकरण के सूक्ष ।+--घार (ए०) बाटकाचाये, साठक का प्रवर्धक | खूथन या खूथना या सूथनी दे० (पु०) पायजामा । खूधा दे० ( घि० ) मेला, सब्तन, लिष्कपट । खून तलू० ( हु० ) पुत्र, आत्मज, ततय, थेढा, श्रज्युल, छोटा भाई, रवि, सूर्य । खून दे० ( वि० ) शल्य, बजाड़, रीवा, खाली । खुसु ( ४० ) पुत्र, थेठा । सूप तदू० ( छु० ) श्रपं, अनाज पद्लोरने का पुर साधन ज्ञो सिरकी या वास का बनता है | (चत०) दाल ।-कार ( 9० ) ससेइया, पाचक | खूबा ( ए० ) आन्त; प्रदेश । खूप्त पै० ( घु० ) कृपण, कथ्जूल, सक्खीचूस । खूर तत्‌० ( घु० 9 सूर्य, रचि, ( दे? ) अन्चा, बिना आँख का, घीर, बदादुर ।“+दाख (घछु० ) पक कवि का चाम, से शन्धे थे; इसका बनाथा अन्ध सूरसागर है । हिन्दी के कवियों में इसछा आसन केचा है +-मलार ( छु५ ) पुक सागिणी का नाम । खूरञ तदू" ( छु० ) सूर्य (--गहच (४०) खूरप्रदण। --हुप्छी ( छ० ) एक फूल के पौद़े कः नाम । खुरन तदू० ( घु० ) कन्द पिशेष, जिम्तीकन्द । खुरमा, दे० ( घु० ) बीर, रूर )--पत्र (०) चीरता, बहाएुरी | + खरा दे० ( 4० ) अंधा, श्वर, वीर, येद्धा, यधाः-- खूरा ग्य में जाय के छोंह्ठा करो मिशह्ूः जा मेंतद्दि चढ़े रंडापरी वा केदि चढ़े कच्तछा खूरो ( सी ) शूली, खण्डी । खर्पणला क सूर्पंनखा ( स्वीट ) रावण की बहिन | खूमों तत्‌० ( वि० ) देखे। सूरसा । [एक जाति । सूर्य ढदु० ( 9० ) रषि ।--वंशी ( 9० ) राजपूर्तों की खूर्थेद्यि त्त० (पु०) प्रानःहालछल, प्रभात । [अवस्था । खूल त्तदू० ( घु० ) शूल, रोग विशेष, दुशा, हाल, खूत्ती तद्‌० ( स्वी० ) एक प्रकार का काटा, प्राचीन- काक्ष में झिश्च पर चढ़ा फर अपराधी के प्र/ण दण्ड दिया जाता था । खुली दे० ( छी० ) एक प्रकार का कपढ़ा ६ लखुछुम दे० ( बि० ) थोड़ा गरम, कुचकुना | [का रंग | खूद्दा दे० ( वि० ) छाछू, लाल वक्ष, रक्त, एक प्रकार खु्ट ( बि० ) रचित, निित । खुष्टि तत्‌० ( शख्वी० ) उत्पत्ति, जन्म, ददूसव, सैसार की रचना, कंठपुतज्ञी नचाने वाढह्वा धाजीगमर ॥-- कर्ता ( छु० ) ब्रद्मा, दुनिया का रचनेबाक्ा । से द० ( श्र० ) श्रापदान बोधक, साथ, सके | [करना | सेंकना दे० ( क्रि० ) गरमाना, गरस करना, बष्ण खेंगरी दे० ( ली० ) फत्नी, छोमी । संञ दे० ( जु० ) पतला, परपत | सेंव दे” ( अ० ) बिना वास, बिना भुक्य, बेदाम का । +-मेंत ( झ० ) यो ही, बिना दास | संघ दे० ( छ० ) चोरी करने के लिये दौवार सें किया हुआ छेद । सेंचा दे० ( इ० ) नमक, छाहदारी नीमक | सेंधिया दे० ( छु० ) सेड्हिर, गढ़रिया, ग्वालियर महाराज की अज्ल। सेंघी दे० ( पु० ) खजूर का रस । सेखन तव्‌० ( छु० ) छिड़काव, सींचना। सेज दे० ( छु० ) शाय्या, शयच, पलज्ञ, बिछौना, | [ चाल। सेठ तद्‌० ( घु० ) श्रेष, साहुकार, महाजन, फोडी- सेल तद्‌० (बिं०) धवल सफेद, श्वेत, शुक्ल, यथा :-- --खेत खेत सबही भलो सेतो भज्जो न कैश | सरि रमे ना रिउ्रु बरे, होतो कोश विशेष॥/ सेतना सेतना दे० ( क्रि० ) जुगाना, सखय करना। संतु तत्‌० ( पु० ) बॉघ, पुल, मर्यादा, सीमा, हृद । बूत्त विशेष ।--बन्ध ( पु० ) तोर्थ विशेष, जिसे राम ने बनाया। [ थफ़सर। सेनप तव्‌० ( घु० ) सेनापति, कपठान, फ्रौज का सेना तत्‌» ( स्त्रो० ) करक, दल, फौज, लश्कर। +>पति (स्त्री० ) सेनानी, सेना का अध्यक्च। एक हिन्दी कवि का नाम।. [कात्तिक स्वामी । सेनानी तत्‌» ( पु० ) सेनापति, स्कन्‍्व, कात्तिकेय, सेम दे० ( पु० ) तरकारी विशेष। सेमल दें० ( पु* ) घूत्त विशेष, सेमर का पेड। सेर दे० ( ए० ) सोलह छर्गॉंक का परिमाण। सेराना दे० ( क्रि० ) ठंदा करना, सिराना। सेलसड़ी दे० ( स्थ्री० ) समेद मिट्टी, जिससे लड़के लिखते हैं। सेला दे० ( घु० ) साफ, जरी का मुड़वधा, वर्चा, माला, एक प्रकार का वाद्य! सेव दे० ( पु०) फल विशेष, एक प्रकार का फल | सेवक तत्‌० ( घु० ) भूल्य, नौकर, चाकर । सेबकाई तत्‌० ( स्त्री० ) नौररी, चाकरी, सेवा। सेबड़ा दे० (पु०) जैन मिचुक, नमकीन पकवान, ठय। सेवती दे० ( स्त्री० ) एक फूल का नाम। सेयना दे० ( क्रि० ) सेवा परना, पाक्षना पोसना, अरढा पोसना। सेवा तत्‌० ( खोन ) नौकरी, चाकरी, टइछ | सेवार, सेवा तदू० ( १० ) एक प्रकार की धास जे जदियों में छगती ई भर जो चीनी साफ करने के फाम में भाती है, शैवाढ, सिवार । सेप्रित ( वि* ) सेवा किया हुआ, पूजा किया हुआ | सेवी (५५ ) दास, पुजारी, सेव5 । सेन्य ( वि० ) सेवा के येग्य, पूज्य, उपास्य |--पीर ( पु० ) खसजप | सेदथना दे० ( क्लि० ) उबर दुलाना, चवर दाँरना | सेददरा द* ( धु० ) पुक प्रकार की जरी रा मुदद जो दूकदा या वर के साये पर बांधा जाता है। सेंडुघा तद्‌० ( पु० ) दाद दठु । (पिरिमित सैकड्ठा दै० ( पि० ) शत्तर, शतछूद्ा, सी संध्या से सैगर ( सी० ) शमीजूच या बनूल को फलीग ( छंह८ ) साध सेंतना ( >० ) द्ोशियारी से रख घोड़ना । सैतालीस ( वि० ) चालीस और सात ४७ । सेतोस ( बि० ) ३० और ७, ३०१ सैन दें० (स्री०) भटझी, चाँद या थैंगुली का हशारा। सैना, सैनी दे+ ( घा० ) इशारे से दात करना । सैन्धव तच्‌० ( ए० ) छत्रण विशेष, छादौरी नान, घोड़ा, अभ्य । सैन्य तत्‌« ( ६० ) सना, कटक, फौज । सै्ाम दे* ( झ० ) संख्या का प्रारम्भ, सस्ध्या के आरम्स में, सरिसमि। सैदरन दे० ( पु )सप्ताई, अदाव, स्थान | सो दे० ( सर्वे ) वह, वेही, पस, निदान । सोश्रर दे० ( ५० ) सूतिका गरृद, निस घर में स्त्िपाँ जञनती दें । सोचा दे० ( पु ) साग विशेष (क्रिग) शयन किये। सोई दे० (सर्वे०) वही, (क्रि०) सूती | [चि-ह, शपथ | सो दे० ( ऋ० ) से, साथ, घजभाप! में प्पादान का सॉंदा दे० ( ६० ) छोटी मोदी छादी, डण्डा | सॉठ तदु० ( (० ) शुण्डी, सूखा भइशरक । सॉहयाव दे* ( छ० ) कजूम, कृपण ।_ सॉधना देन ( क्रि० ) मद्दी से कपड़ा मन्नना, दूध के बतेन के! गएम करना । [ झुबास | सोंधा दे० ( वि० ) सुगर्ब विशेष |--६द (वी? ) सॉपना दे* ( क्रि* ) देदंना, दवाणे करना । सो दे० ( स्प्री० ) सोगन्ध, शपथ । सोंदी दे” ( गु० ) सामने, श्रागे, प्रदत्त ।.. [करना। सोखना दे० ( कि० ) शोषण करना, चूसना, चूसन सोग दे* ( घ॒० ) दु ख्र, चिन्ता, प्राव, शोद | सोच बेन ( पु ) शोक, दु ख, चिन्ता। सोचना (क्रि० ० ) स्पाछ फरना, विचारना ध्याव करना । सेपज्ञ ( पु» ) सूक, समस्ध ३ सोम्ा दे* ( गु० ) सीधा, सामने, खा । सेडा ( पुर ) पृक चार वस्तु विशेष । से[त तद्‌* ( घु" ) धारा, प्रयाद, खोत । सेदर तू» (घु० ) सहोदर, पृ माँ के लछड्छे । साध ठतद्‌० (पु ) सुधि, द्वाक, खोज, तलाश, सतोज, चस्पेषण, पता । सममना, सेघता सेधना दे० ( क्रि० ) शोधन करना । से।न तद्‌० ( छु०) शोण, पएुक नढ़ी का नाम ।-हरा या दहला ( गु० ) सेने का. सोने का बचा । सेना तद्‌० (बि०) खुबर्ण, काघुन, हिरण्य :--साखी ( स्त्री० ) औषध विशेष । सेनार दे" ( छ० ) छुनार, खणकार |. [ शोधक । सेनिया दे० (पु०) सोनार, सुबर्णंकार, लेना सावान तत्‌० ($० ) सीढ़ी, निधेवी, जीना | सेभना दे० ( क्रि० ) सजना, सेहना, श्रच्छा दिखाई देना । से।म वच० ( ४० ) चन्द्र, चन्द्रमा, विछ, इन्द्र, छत विशेष, जो पहले के सहपियों की दृष्टि से बढ़े आदुर की बच्तु थी +--नाथ ( ४० ) घुजरात के सेोमपट्ठम वासक स्थान में शिवजी की मूर्ति चिशेष :--धार ( घु० ) उन्द्रवार, वूसता दिन “-धारी ( स्त्नी० ) सोामचती अमावास्था। सेएरठ दे० ( घ० ) एक रागिनी का मास । सेरठा दे० ( छु० ) छन्द विशेष । इसके पहले और चीसरे पाद में १३ दूसरे और चौथे पाद में ३३ मात्राएँ होती हैं । दोहा को उन्तट कर पढ़ने से यह छन्‍्द हो जाता है । सेप्ह, सेललद ( जि० ) दूस और ६. ३६ । सेसि दे० सो शो, सेप व्‌ है । सादर दे" (फ्रि०) शोसा पाता है, शोसायमान द्वोता है। साहन दे" ( बि० ) सज्नन, प्यारा, रेती । [ खजना | सेहना दे० ( क्रि० ) शोभवा, अच्छा मालूस होना, साहनी तद॒० ( स्त्री० ) रागिनी विशेष ।--करना (बि०) मिराना, बोये हुए जेत से घास निकाछना । साहर दे० ( ० ) राग विशेष, वद्द गीत जो बच्चा उत्पन्न होने पर गाया जाता है । सेाहागा ( ४० ) पदार्थ विशेष जो छोना चदी आदि कई पुक घातुशों को गलाने के काम में श्रात्ा है | सादित्त ( छु० ) पक राग का नाम सखाद्ारी दे० ( स्थ्रो० ) परी, खुचई | से दे० ( बि० ) शत्त, १०० | खै।ख्य ( ६० ) झाराम, सुख । सैगन्द दे० ( छु० ) सौंद, शपथ । ( छह ) स्तन सौंपना दे० ( क्रि० ) सर्मर्पण करना, घरमा, रखना । सोंफ दे० ( इद्दी० ) औपध विशेष । सौरा दे० ( छ० ) काबख, काजल, धूल । [जबना | सौरि ( स्त्री5 ) बालक उत्पन्न होने वाला सूतक, शौच सोरी (स्त्री० ) प्रसूतति, जच्चा । सोंद ( स्त्री० ) सौयनन्‍्ध, शपथ । सोयन्द दें० ( घु० ) शपथ, किरिया, धान | सोच तद्‌० ( एु० ) शौच, शद्धता, शद्धि। सोजन्य तत्‌० ( घु० ) सुजनता, साधुता, साधुपन | सौते, सौतिन दे० ( स्त्री० ) सपल्ी । सोौतियाद ( घु० ) सौंतों का भ्रापस में डाह, ईप्यां । सौतेला दे० ( बि० ) सौत से जम्मा । सौतेली दे० ( वि० ) ख्रौत सम्बन्धी !-माता दे० ( स्त्री* ) विमादा, दूसरी माँ | सोदामिनी ( स्त्री० ) विद्युत, विजली । [ प्रासाद । सौध (8० ) राजमन्दिर, देवसन्दिर, फ्रोठ़्रा, महल, सौनिक ( छ० ) व्याध, वधिक, कसाई, बहेकिया । सौन्दर्य तद्‌० ( पु० ) सुन्दरता, मनोदरता |. सौसाग्य तत्‌० (घु० ) भागवानी, अच्छा भाग्य। --चती ( स्त्री० ) सुहागिन, सघवा । सोमिन्न ( छ० ) लक्ष्मण ! स्तोस्य (9० ) श्ध ( बि० ) सुशील, सनोहर, सुन्दर। ता ( स्त्री० ) छुशीलता, सीघधापन | सौर ठत० (छु० ) सूर्य सम्बन्धी | सौरभ ठत्‌० ( घु० ) सुगन्घ, सुवास । सौश्मास ( छ० ) एक संक्रान्ति ले दूसरी संक्रान्ति सक का समय । |॥ जिसमें देच्चा जना जाय ।॥ सौरि, सोरी दे० ( ज्ली० ) प्रसूत्तिका शुह, वह घर सोचचत्न ( छु० ) काा निमक । खोदाई ( ४० ) दोस्ती, मैत्री | स्कन्च तव्‌० ( पु० ) काँघ, कन्चा, पेड़ का घढ़, जहाँ से शाख्रा निकलछसी है । स्छतलतम तत्‌० ( घु० ) पतन, गिरन, ग्रिरना झखल्लित तव॒० ( वि० ) गिरा, पसित । ( ४० ) अशद्धि | स्वन तव० ( घु० ) चूची, पयेधर, धन --पायी दूध पीसे बाक्ता बच्छा | स्त््घ _.. रू ु[ ॒ अृअक्ख्ाऋाीआऑंजिज-_-+++_+_+_ततत_+न६ स्वन्घ तत० (पु) इृण्ठिन, हद्कावक्का, रुका हुआ स्तम्म तत्‌* ( पु5 ) संसा, सक्ाव, अटकाव, यसा। स्मम्मन दंव० ( पु ) रुझाव, अटडाव, सन्‍्त्र विशेष, काम शास्त्र की क्रिया विशेष स्तघ तव्‌० ( पु० ) स्तुति, प्रशंसा, वखान, गुणगान ! सतवक तव० ( ६० ) गुच्छा, फू्छों का गुच्चा । स्ताधक त॒त्त्‌० (पु) स्तुतिकर्ता, भार, चारण्य, वन्‍्दी ! स्तमित त्त्‌० ( वि० ) स्तब्घ, स्थिर, अच्घचल। स्तुति ठद॒० (स्त्री० ) बान, स्तव] [ के योग्य । स्तुत्य तदू० ( वि० ) स्तुति योग्य, स्तवनीय, पसार स्तेण ( पु० ) चएकपे, चोरी १ स्तोत्र तत० ( पु ) स्तव, स्तुति । र्री तत॒० ( ख्ी० ) नारी, शुगाई, बनिता।--धर्न ( पु० ) दायज, दृष्देश, दद्ेम में स्लरी के मिला दान।--पुष्प ( छु० ) रमोधमे, मासिक घर्म । स्प्रेण तव॒० ( पु० ) सी वर, ख्री का अधीन | स्पगित तव्‌० ( वि० ) थका, छिपा, रोका । स्पपति तद्‌० ( घु० ) शिवव्री, बढुई । स्पल तत्‌० ( पु० ) भूमि, खूखी भूमि । स्थारएु तद० ( पु० ) हूठआ घूष, शिव, मदादेव । स्थान तव्‌० ( पु० ) ढौर, ठाव, दिद्वाना, घर । स्थानापन्न तत० ( पु० ) प्रतिनिधि, किसी दूसरे के स्थात पर काम करने बाला | स्थापत्य-विद्या तत्‌० ( खी० ) भवन निर्माणविद्या | स्थापन तत्‌० ( पु ) रखता, घारतां, यैठाना । स्थापना तत्‌5 ( स्री० ) प्रति, स्थिति, देव आदि की स्थापना करता | स्थापित ठव॒० (वि०) प्रतिष्ठा किया टुप्ना, रा यया । स्थाछ्ती त३« ( खी« ) पात्पात्र, दाँडी, घढ़ई, बढ लेदी, पतीली । स्थावर तत० ( धु० ) अचल, नहीं खद्ने चारा । स्थित ( वि० ) दद्दरा हुआ | स्थिति व्‌« ( स्री० ) स्थान, टिकाव, टह॒राव स्थिर तद्‌* ( वि* ) भ्रचद्ध, अटज् [--ता (स्वी०) घीमापन । स्थूया दे* ( पु० ) संभा, खूं दी स्घूल ठद० ( वि* ) मोटा । सथेय 5१० ( घ० ) स्पिरता, भचनता । ( ७२० $ स्त्रक्‌ स्थैल्य तत्‌० ( प० ) स्यूलठा, मेतटापन। स्वातऊ तव॒० ( घु० ) मक्षचय धत समाप्त करके सुद- स्थाश्रम में प्रदेश करने वाला | स्नान तत्‌० ( घु० ) नद्वाना, नद्ठान, अवगादन] स्‍्नायी ( वि० ) स्तान काने वाला । स्तायु ( पु० ) रण, नस ! घ्निग्थ (वि० ) चिझना, दपालु । स्नेह तत्‌० ( पु० ) सनेह, प्रेम, चिकनाई,चिक्रतादट। सपन्‍दू ततू० ( १० ) कम्प, धश्चछता । स्पर्द्धा तत्‌० ( ख्ी० ) दिसे, ढाह, जशछन, दूसरे की उन्नति देख कर दुःख पाता | स्पर्श तब्‌० ( पु ) छूदा, चुआपट | रुपए तत्‌* ( वि० ) साफ, प्रकाश, सहज, व्यक्त | स्पृश्य ( वि० ) छूने येग्य | रुपृद्दा सव० (ख्त्री० ) इच्छा, अभिरछम्ष, चाद। स्पृद्दी ( वि० ) अभिलाएी, स्वादिशमंत्‌ | स्फदिक तत्‌» ( पु+ ) विक्कौरी पतपर, स्वस्छ पापाण विशेष | स्फुट तच॒० ( बि० ) खिला इुश्ला, प्रश्ठट, प्रकारा । स्फुटन तव॒० ( घु० ) प्रकाशन, फिलन, फूटन । सरुफूर्ति लत्‌० ( ख्री० ) घटकन, फुरण, फरकन। स्फोटक तद्‌० ( प० ) फोण, फुसी, घाष। स्म्र तत्‌ू० (५० ) छाम्देव, मदन, मन्मध ।- हर ( ए० ) मद्दादेव, शिव । स्मरण तव॒० (पु०) सुध, थेत, स्खति, याद । -शक्ति ( स्वी० ) याददाश्त, थाद रपने की सामध्यं। स्मरहर (प०) शिव, मद्रादेव स्मारक उद््‌० (पु०) स्मरण कराने वाढा, थेघक । स्मार्त ( वि० ) स्ट्टति-उक्त, घर्मांनुपायी । स्मित धत्‌* (पु०) थोदा हँसना, सुसकझाना । स्मृति ठद॒० ( ख्रो० ) स्मरण, याददाश्त, घर्मशात्न, मनुस्छति, याज्ञवव्क्य प्रादि ! स्पानपन दें० ( ए० ) निषुद्ता, घुद्धिमता, चतुरता, कुटिलाई, चाढाओी | स्थाना दे० ( पु० ) सियाना, चतुर । स्पार, स्थाल ददू० ( घु० ) श्टगाछ, गीदड़, सिया३ | स्रक्‌ (प्ली७) पुष्पमाता । संवना स्रवना (क्रि०) बहता, गिरना, छूचा । ख्मोत तद्‌० (घु०) सेल, घारा, अवाह, सेता [ स्तर तत्‌० ( से० ) अपना | ( घु० ) चिकन धन | स्वक्नीय तत्‌० ( दि० ) अपना, अपने सस्वन्ध का । स्वकीया उत्‌० ( स््वी० ) नायिका विशेष [ स्वच्छ तच्‌० ( वि० ) निर्मल, शुद्ध, उज्ज्वल ।“न्ता (व्री०) निर्मेडता, सफाई ४ज्ज्वलतचा । स्वच्छुन्दू तत्‌० ( छु० ) स्वेच्छालुसार बसने चाछा, यथेच्छाचारी, स्वाधीन, सनप्तौजी ---ता (स्त्री०) स्वतन्त्रता, स्वाधीनता | स्वजन तत्‌० ( छु० ) बन्छु, मित्र ! स्वज्ञातीय (पु) अपने गोत्र चारा, अपनी जाति चाल्ला । स्व॒दः तद्‌० (अ०) अरने से, स्थभाविक्त, स्वसाव से ! स्वतन्ध तद्‌० ( वि० ) स्वाघीर, अपने वश दा (स्री०) स्वाधीनता | स्वत्व ( पु० ) श्रधिक्तार, दखल ।--पदरण (8० ) बेदखली, अधिकार दृटा देना । स्वधर्म तच्‌० (घु०) अपना धर्म स्वघा तत्‌० ( श्र० ) पितरों का पिण्डद्ान करने का शठ्द । (स््री०) अपि की दे दिये में खे एक खो फा सास । [वस्ा के विचार । स्वप्त तचू० ( 8० ) शयन, निद्वा, मींदू, लपना, विद्रा- स्वभाघ तत्‌० ( ६० ) प्रकृति, टेव, वान । स्वयस्‌ तत्‌० ( श्र० ) भाप, निज, खुद | -भू (०) स्वयम उत्पन्न होने बाला, विप्णु, शिव, कामदेव | “बेर ( छु० ) स्वेछाजुसार परण, एुक प्रकार का विधाह, जे। पहले समय में प्रधलित था। छन्‍्या निमन्त्रिद विवाह्मर्थियों में से अपने इच्छा- चुसार अपता पति वरख कर लेती थी। -+लिद्ध ( 8० ) जिसको म्रमानित करने के लिये किसी श्न्‍्य प्रसान ही आवश्यकता न हो । स्व॒र तत्‌० ( घु० 2 शब्द, अकार आदि सोलह वर्ण, ध्वनि, वाद, स्वर्ग, आकाश । स्व॒रित तत्‌» (छु० ) उज्ारण विशेष, अधिक उच्च- स्वर । झुच्दरता । स्वरूप तच्‌० ( घु० ) अपना रूप, समान रूप, शोभा, स्वर्ग तत्‌» ( घु० ) देवत्तोक, इन्द्रजोक, अन्तरिद्र । ( छरे१ ) स्वौकृति +पतात्वी ( स्री० ) ऐँचाताना, जिसकी आँखें नीचे ऊपर तनी हेतती हैं ।--चास ( छु० ) मरखण, रत्यु, स्वर में रहना । स्वर्गीय तत० ( वि० ) रुवर्ग सस्वन्धी स्वर्ण त्त० (पु०) खोना, कंचन, हेस ।--कार (यु०) खुनार ।->मुद्गा ( ख्री० ) मोहर, अशर्फी, गिल्ली । स्जवत्प तत्‌० ( वि० ) थोढ़ा, तनिक, ज़रासा | सुचचश ( बवि० ) स्वतंत्र, स्वाधीन । स्वस्ति दत्‌० ( अ० ) कल्याण, महल, भलाई ।--- बाचन (७० ) कल्याणार्थ चैदिक सन्‍्त्रों का पाठ ।--वाचक ( छु० ) सड़लपाठकर्ता । स्वस्व्ययन ( घु० ) मज्नललपाठ, शुसस्थान । स्वस्थ ( वि० ) निरोगी, सुखी रहने वाला ! स्वाॉग दे? ( छ० ) अलनुकरण, नक़ल, भाँडेती, क्साशा । स्वागत दत्‌० (छ०) अतिथि सत्कार, आदर, सम्मान स्वाति तत्‌० ( स््ी० ) नक्षत्र विशेष, चन्द्रसा की खी। रुवाद्‌ दत्‌० ( झु० ) सबाद, रल युक्त (थु० ) स्वादयुक्त, स्वाछु, सरख, ज़ासकेंदार, सज़ेदार । सुवाडु तत्‌० ( वि० 2 सवाद, ज्ञाचका स्वादिष्ट ( जि० ) मज़ेदार, जायकेदार, रसीला, मीठा। स्वाधीन ( वि० ) स्वतंत्र, खुदसुस़्वार ।--ता (ख्री०) स्वतंत्रता । स्वाभाविक तत्‌० ( बि० ) स्वभाव सिद्ध, स्वभाव से उत्पन्न [ स्वामी ठव्‌० ( छु० ) माल्षिक, मश्चु, रक्षक । झचार्थ तत्‌० ( छु० ) अपना अथे, अभिल्नाप |-+ी ( वि० ) स्वार्थ युक्त स्वाचस तद॒० ( छु० ) रबास, आण वायु । रुवास ( छु० ) झुख से विकलने बाली शरीर के भीतर की हवा । स्वास्थ्य ( छु० ) तनदुरुस्ती, आरोग्यता, सुख, सन्तोष । [ भर्स। स्वाहा ( अ० ) हवन के समय चोला जाने वाला शब्द, स्वीकार तत्‌० ( घु० ) अज्ञीकार, सानना, मंजूर । स्वोकृत ( छु० ) मंजूर किया हुआ स्वीकृति ( ख्ी० ) मंजूरी । श० परॉ०--६१ स्वैच्छा स्वरेन्छा वव्‌० ( ख्री० ) अमिलाप, स्वाघीनता । स्वेद्‌ ठद॒० ( पु० ) पसीना ।--ज (ए०)-स्ेद से | उरपन्न कीट । ( छरर ) हड़ेँ : स्वैर तव्‌० ( छु०) स्वेच्चाजुसार बरतने बाला, लम्पण, दुराचारी ।--णों ( ख्री०) ऊुलट, बदचलन। स्वैरी तव० ( ख्री० ) स्वेच्छाचारिणी, ब्यमिचारियी। हु हल घर्ण का तेदीसदाँ अ्रठर, फरठस्थान से उच्चारण होने के कारण इसको करव्य कहते हैं । इँकाना दे० ( क्रि० ) हॉफना, निकालना, बैल आदि के घलाना । ईँकार तत्‌० ( पु० ) बैल आदि का शब्द, रॉमना । हँकारना दे० ( क्रि० ) हॉफना । इँफैल दे० ( बि० ) हॉफने वाला। इंस तत्‌० ( पु० ) मराल पी, आत्मा, जीव ।--#क ((०) खर्य कटक, विदिया, विद्युश्न।--सामिनी (स््री०) इस की तरद चाल चलने वाली ।--घ्यजञ ( घु० ) प्रद्वा, राजा विशेष । हँसना दे० ( क्रि० ) दँसी करना, मुस्कुराना । इँसमुख ( वि० ) प्रसन्न बदन, हँसेदा । इँसा दे० ( पु० ) हँसी, हास्य झुस्कुराहट। ईँसाई दे० ( ख्री० ) हँसी, ठठोली । इँसिया, इँसुग्या दें? ( घु० ) दाँती, दराती, खेत काटने या तरफारी वनाने या औजार । इँसोड़ दे० ( वि० ) ठठोत्, हँसमुख | इँसोड़ा दे० ( बि० ) ट्ठेशज, इंसमुख, दिसलगी करने, घाला । इँसौवा दे० ( घु० ) ठडोली, हँसोड़पन । हृडा ( पु० ) ठाये या पीतल पा यड्मा पात्र | « इकबकाना दे० ( क्रि० ) घबड़ाना, उद्धिप्त होना, ब्याकुल होना, खड़्यड़ाना । हकराया दे० ( फ्रि० ) युलवाय । हकला दे० ( बि० ) हुटला, लड़वदा । हकलाना दे० ( फ्रि० ) हकारना, तुतलागा, व्दर ठहर फर बोलना । हफलादा ( वि० ) देखो $फत्ा | हकाना (८5० ) हटाना, सागाना | हकारना दे* ( &० ) खदेड़ना, दौढ़ाना, मगाना। हर्किया देन ( वि० ) कटहा, कटखना । । हे हक्कावक्का दे० ( घु० ) घवड़ाया, ब्याउल, उद्धिप्त। हगना दें० ( क्रि० ) राड़ा फिरना, जड़्ल जाना; दिशा जाना । [ भूमि। हगनोंटी दे० ( छु० ) इगने की भूमि, राडे फिरने पी हगास दे० ( स्री० ) दगने की इच्छा । हचका, हृच्रऊाला ढे० (घु०) घकका, आधात, रॉक । हचरमचर दे० (घु० ) दीज्ञापन, हिलन ढोलन, विवाद, आगा पीछा, अटकना, सोच विचार । हट ( द्वी० ) दृठ, टेक । हटक दे* (पु०) रोक, निषेध, ढॉँट, मनाई, रसावट। हट्कना दे० (क्रि०) रोकना, भ्रट्मना, निषेध करता । हटना दे० (क्रि० ) पीछे फिरना, भ्रलग होना, मुडवा, सुकरना ! [ हाट का काम ) हठघा दे० ( घु० ) तौलने बाला, यया ।--ई (प्वी०) हटाना दे० ( क्रि० ) दल देनर, दूर फर देना । हटाल ( ख्री० ) दुकान बढ़ाना या बेर करना । हृटिया दे० ( स्री० ) हाट, याज़ार । दृद् दे० ( घु० ) दूकान, द्वाठ, राम्ता, मुदाना । हद्ठाकट्टा दे० (प०) बलवान, पुष्ट वलशाली, स्वस्थ। हूउ तनू० (घु० ) मगराई, सचलाई, रू, जिद, जबरदलां,जोरावरी ।--धर्मी (वि०) जिद्दी,हृदीछ्ा हटना ( क्ि० ) मिद् करना । दृठात्‌ दव्‌ु० ( अ० ) अकस्मा।, सदसा। दृठी, दृदीला तव््‌० (वि०) चिहरचिद्ठा, मयरा, कोघी । हड़ द- ( ख्री० ) फल विशेष, याद वी बेड़ी -- गरिल्ला ( पु० ) पष्ठी विशेष, जो पाँच फुट दँचा होता है ।--ताल ( स्धी० ) घाजारवन्दी, सम काम को बन्दी ।--फूठन (प० ) धट्टी की पीढ़ा। घड़ाना ( क्रि० ) घबड़ाना, ध्याकुस्त होना ।-- घड़िया ( वि० ) थेगी, जल्दवाज /--बड़ी (६ स्त्री० ) शीप्रदा --8ड़ाना ( घ० ) यरपराना, केंपना ।--दड़ाइद ( स्थी० ) इृदबढ़ शब्द । ( छर३ 3) > दर 2 नल: >> ३४० «०5० ++35 33 27 धेड़पना ( क्रि० ) खबावत करना, खा खाता, बेईसानी | हथा दे* ( छु० ) हथकड़ा, वेंढ, खोदनी. एक अकार हड़्पना करना | दृड़यड़ाना दे? (क्रि० ) घबढ़ाना, अकुछादा, अचुताना हड़ाकुड्ी दे० ( स्त्री० ) घींगाधीगी, केललाइल । हड्डी दें० ( स्त्री० ) हाढ, अस्थि |---त्ञा ( गरु० ) दाद चाला, दढ़, मज़बूत । हणडा, हंडा दें० ( पु० ) बढ़ा जल रखने का पात्र हण्डाना, हंडाना दे० ( क्रि० ) देश निकाला देना, घुसाना । [ बतंत । हरिडका, हंडेका दे* (स्त्री० ) हॉँढी सिट॒टी का हशिद्ल्नी ( स्त्री० ) वदचलन स्त्री । इत्‌ दे० ( आ० ) तुत्कार, पिरस्कार । हत तत्‌० ( वि० ) मरा हुआ या मारा हुआ ।--मनो- शुथ ( छु० ) असफ़ल, मनेस्थ की हानि -- साम्य तद्‌० ( थि० ) अभागा । इतना, हनना दे० ( क्रि० ) मारना, सार डालना । हताश तल० ( वि० ) जिसकी श्राशा हत हुई हे, निराश । ह॒ति ( स्त्री० ) हतता, सारना हती ( क्लि० ) थी, रही, ( स्त्री० ) सारी गयी। हत्थ ( छ० ) हाथ । इत्या तव्‌० ( रुत्री० ) बच, घात, मार, द्विंसा हत्यारा दे? ( छ० ) सारने बाला, वधिक | हृथ तदू० ( 9० ) हाथ, हृध्ठ, कर --कड़ी (स्री०) हाथ बेड़ी, लेहे की वेढ़ी जिसपे धपराधियों के द्वाथ झकड़ दिये जाते हैं (--कड़ा दे” ( पु० ) सठ, दुस्ता --कशणुड़ा (पु०) टेव. ढव, रीति, सति। ++चपुआ ( ३० ) भाग, वाट, हिस्सा '--छुद ( प० ) मारने दावा, पीटने चाहा )--ओोन्ता ( ०) पुक्त प्रकार की दोली |--माक्न ( स्ली० ) डाथी पर की तैए :--फेर ( छ० ) उचार, ऋण, कूजे ।--एस ( छु० ) रूपड़ा, लड़ाई, चूस्वा- चाटी, विछास; दाव का मैथुन ।--लेवा ( ६०) इथजेर, उद्बकापन, चोरी की दान |[-वान दे० ( छु० ) महावत्त दहृथल, हथवास ऐ ० ( घु० $ हथकट्ा | ( क्रि० ) डॉडि उठाओ, डॉड रोको, डॉड धाँमा । की वस्तु, जिससे पानी फेंअते हैं । दथिनी दे० (स्री०) इस्तिनी, दवाथी की स्त्री, करिणी | हृथिया दे० ( घु० ) नक्षन्न विशेष, तेरहर्वाँ मछत्र | हथियाना दे ( क्वि० ) पहढ़वा, अददण करता, अधि- कार में रखना | हथियार दे० ( छु० ) अख्सर, कलकाठा, औज़ार। हथी दे० ( ख्ी० ) घोड़ा मलवे का मुश, खब्दरा | हथेल्वा ( ७० ) चोर, द्वाध में का । इथेल्ली दे० (स्री०) इस्ततत्, द्वाथ के बीच का स्थान । हथोटी दे० ( खी० ) चतुराई, निषुणता, बचावड, बनाने की नियुणता, युक्ति। हथोडा दे० ( 9० ) घन, बड़ा मार्तोज्ष । हथोड़ी दे" ( ख्री० ) छोटा दधौढ़ा। [भीव होना । हढ्थिना दे० (फ्रि० ) घपराना, व्याकुछ देना, इस तव्‌० ( क्रि० ) प्राण हरण का, भार । हनन सद्‌० ( पु० ) मारण, वध ) हनदा दे० ( क्रि० ) वध करना, सार डालया | हवनीय ( जु० ) सारने योग्य | हम्तुमान त३० (छु०) सुप्रीव की सेना का प्रधान घामर । हच्ता दच्‌० ( झु० ) वधिह्ल, हिंसक, घथ करते वाका, मारने बाला । हप ( ए० ) फट मुँह में थेडड़ी वस्तु डाकू कर निगल- जाना (--रूप ( पु० ) रद पढे । इंपहपाना ( क्रि० ) पिता | हवड़ा ( वि* ) फूहर | इ॒वित्ञा ( वि० ) जिसके आगे के दाँत बड़े हो । छूस ( सर्वे० ) दम ज्ोग | हमारा या हफ्हांरा ( सर्व० ) हम कोर्ों छा । हय त्तत० (पु०) ऋध्व, घोड़ा |--भुह (पु०) घुड़खाक्। हयेव ( अब्य० ) अ्दकार । हर तच्‌० ( चु० ) शिव, सहादेव, गणित सें भसाजक अछू के! कइते हैं ।--मिरि ( इ० ) कैलास । “-शुणो (वि० ) ग्रुणवान्‌, अनेक गुर्णों का जाता ।-दमेश दे० ( क्र० ) सदा, सतत, सदैव + हरकारा दे० (०) संदेसिया, दौड़ाद्व, दौड़ने वाला । हरख (5० ) छुशी, आनन्द । दर ( ७२४ ) इलराई हरा तद्‌5 ( गु० ) दीनना, बढाछ्ार से ले लेना, | हरिणी तद० ( खी० ) झगी, झूग की सी । लूट, चोरी, डॉँका ।--ोय ( पु० ) चुराने येग्य | | हरित्‌ तत्‌० ( दि० ) हरा, सब्ज, श्याम, घोड़ा, धम्व । हरता तद॒० ( घु० ) इतां, इरण करने पाछा,छुटवैया, | दरिद्धा तद० ( स्त्री० ) दश्दी | चोर, ठग । हरद्‌ ( पु० ) दृलदी, पेपरा, साजार । हरना दे० ( क्लि० ) लूटना, छीनना, यरदस लेगा । दरनौदा दे* ( घु० ) हरिण का बच्चा, सग शायझ्ध । दरप्ुष्ठा दे” ( घु० ) दद्दाछ्द्ा, बलवानू, घली | हरवोर्य ( इ० ) पारा | दरसिंगा ( 3० ) शृत्ध पुव फूछ विशेष | हरद्वार ( पु० ) पाप । दरा दे० ( बि« ) दरित, हरित्‌ ध्ण, सब्ज | दराना दे* ( क्रि० ) धकाना, ज्ञीतना, पराजय करना। हराम ( वि० ) शास््रविरुद्द, निपिद्ध वर्मित । दृरारत ( सख्ती ) पक्तावट, ज्वर की गर्मी दृत्का ब्यर | दरावल देब ( स्वी० ) मुदाना, सेना के भागे का भाग । ( घु० ) सुददरा, श्रगाड़ी । दसस ( ६० ) द्वास, कमी, चति। हरास्‌ दे* ( धु० ) दु सर, शोर, नाउस्सेदी । एसि गत" (४० ) विष्ण, इन्द्र, चाँक, मेढ़क, सिंद, घेणा, सूर्य, चस्द्र भा, सूप, तोता, बानर, यम- राज, पत्नन ।--प्यरे ( वि५) हरा दर चन्दन (पु) देवपद, गोरोचन, सफेद, चर्दन, ज्योध्तता। “अन्न ( घु०) सत्य छे सूर्ववशी एल्‍ राजा । साय और दान घर्म के पाठन में ये प्रसिद हैं। “जन ( घु० ) विष्णु का भक्त, विष्णु का अननन्‍्य भक्त (--ताल ( ६० ) चातु पिशेष, जो पीले रह्ष का ऐवा है ।-तालिका ( स्लौ० ) बत विशेष, प्ियों का एक धत, भाईयों सुदी तीम का मत । “द्वार ( पु५ ) एक तीय और नगर का नाम । “पड़ी ( स्री० ) विष्यघाड |--प्रिया ( प्री० ) पुटसी, विष्पुपनी ॥-यत्ष (घु+) दशा कयूतेर |--जान, यान ( घु७ ) यरुई ।-याली (घी५) सन्नी, श्यामता ।--वादहम (ब०) गर्‌इ । “-उांस ( १०) पीपछ छा पेड )--वाखर (पु०) एकादशी, अन्माष्टमी, रामनयमी बामनद्वादशी, हृसिद्द १४ शी थादि रिच्छु फे भतों के दिन हरिण तव्‌० ( ६० ) छा, झग, इुरफ्। हरोय ( क्रि० ) इर लेना चाहिये, छीन केना चाहिये। इरीतकी ( स्त्री० ) हरे। हरोरा दे० ( वि* ) मगोड़ा, हरा । हरीया दे० ( पु० ) पुक प्रकार का तोता । हरीश ( पु०) सुप्रीव । हृस्षाई ( रत्री० ) इलकाएन । हुरुए ( श्रध्य० ) होले ईं।्ले | इरौदी दे० ( स्त्री० ) छुट्टी, घेंट, टठिया | हर्रा ( पु० ) दरीनश्ी, दवा विशेष | ह॒र्तव्य ( धु० ) लेने योग्य । हर्ता ( घ० ) लेने घाला। हम्ये ( ६० ) अदारी, छुटमा । द्वप तन (घु० ) आनन्द, सुख, काम्यक्षदम के राजा का नाम, पद संस्कृत कवि का माम | इर्पेना या हर्पणा तद्‌० ( क्रि० ) द्पषित दोना, फ़ूछना, सिलछना । हपित तद्‌० ( वि० ) झानन्दित, भाष्ठादित, सुस्तित । हल तत्‌० (४०) दर, जिप्तप्ते खेत जोठते हैं) - काना ( क्रि० ) घत्रका देता, पदशा देता, रस काना ।--फोरना ( क्रि० ) बदारना, इसेरमा, समेदना ।--चल्ष ( पु० ) पलवल्ली, हृश्वड्री, धूम भीड़माड़, डर, डुछह ।--चक्ष मचाना ( क्रि० ) डुछड करना, गुल केला “दिया ( घु० ) एक च्रद्मर का विष, पीढिया रोग, जिसमें शरीर पीछा दे। जाता है।--घर (प9ु०) पबराम, कृष्ण आता। [ इद्धद्ली रोटी । हलका दे० ( वि० ) जे भारी न हो ( धु०) फुटका, दलचज़ दे० ( जु० ) गढ़वढी । इढका दे* ( छु० ) प्रान्त | इलदी दे० ( ख्लरी० ) दरिदा, इलद। हलपना दे० ( क्रि०) तद़फड़ाना, घ्याकुछ होना ! इलफल दे० ( स््री० ) शिप्टाचार, इड़यद्री । हजय द० ( पु० ) तरह, बेर, छदर ।--चधनां ( कि ०) चयज्ञावना, विनेदुव करता । इलराई ( क्रि० ) सोका देकर । छह्लचा हलवा दे० ( पुृ० ) इलुआ, सेोहनमोग छीरा । हलवथाहा तद्‌5 ( पु० ) हड ज्ोतने बाला। हललचाही दे० ( त्वी० ) इछवाइ की मजूरी, जोतार खेत । [घरचराहट दलदत्ताहड दे० ( स्वौी० ) ज्वर आदि से कझाँपना, हसहलिया तदू० ( धु० ) विष, इछाहल। हलहसी दे० ( ख्री० ) रोग, व्याधि, जूड़ी । हलाई दे० ( स्त्री० ) ज्ोताई, खेत की छुआई । हलाहल तत्‌० ( पु० ) विष, मदाविष । इलिया दे० ( 9० ) बैलों का समरूद । हलियाना दे० ( क्रि० ) जी सचकाना, उवकाई शाना । हली ( घ० ) श्रीयकराम जी । हंखुतमा दे० ( छु० ) सीरा, मेहनमोग ।. [बठोरना । हततोरना दे० ( क्वि० ) पद्केदवा, साफ़ करता, हलोरा दें० ( पु० ) ताक, लद॒र | घज्जोरे ( क्वि० ) पटोरे, स मेंटे, लद्राय । हफ्लक ( घु० ) रक्त कमछ | हल्ला दे ( घु० ) सीढ़, फोलाइल, रोला, हुल्कड़ | हनन तन्‌ू० ( छु० ) होम, भाहुति, श्रम्मि में मन्प्र॒एर्वक हृविष्य दान ! हथचस ( छी० ) होंस, डाह, बालसा, इच्छा । हवा दे" ( स्त्री० ) बाद, पवल | हवात्त दे० ( पु० ) श्रदबाछ, दा, समाचार | हवालात दे० ( ० ) जेजखाना, कड़ी निगरानी |-+ में होना ( क्रि० ) झलिस के पहरे में पढ़ना ] हवि, दृव्रिष्य तत्‌० (पु०) इबन की खीर । [पढ़ाथ | हृविष्यान्न ( इ० ) तिल, चावज्ष, जौ धुतादि पतिन्न हविभुज ( ० ) भरपनि देवदा | हच्य तत्‌० ( घु० ) नैचेद्य, देवता क्षी वक्ति या मेंद | हस्त चध्‌० ( १० ) हाथ, कर, चच्तन्न ।->गत ( छ०) हाथ में आना (ये तत्‌० ( छु० ) हाथी, करि | लिपि ( हऋ्ओ० ) हाथ वी दिल्लादद । हस्तात्षर ( घु० ) दृस्तख़त, सही । ह॒स्पिद्स्त ( घु० ) द्वारथी दांव । हट्तिदुग्तक ( इ० ) मूली, छरई । इस्तिनादुर ( छ+ ) कीस्वों की राजधानी । हस्तिनी तत्‌» ( स्वी० ) हथिती, नायिका विशेष | दृस्तिपक ठव्‌० ( घ० 9) सद्ावत, दाथीचान ३ ( छर४ » द्चाल इस्ती ( घु० ) हाथी । इस्जो दे० ( छ्ी० ) गन्ने में पहनने का पृ बहन, जिसे औरतें पहनती है | हा चद्‌ू ० ( अ० ) दुभ्ख वोधक । हाँ दे० (थ०) अज्ञीकार, स्वीकार । [ (वा०) घुठावा । हाँक दे० (सी) ठुछार, छुछाहट, श्राह्मात [-सारना हाँकता दे? (क्रि०) छुकारना, बैल आदि के जे चकूता। हॉगर उव्‌० ( घु० ) जल जन्छठ विशेष, सगर, नाका। हांड्री हे० ( स्ती० ) हण्डी, मिट्टी का वर्तन । हॉफना दे० ( छि० ) ज़ोर से संस लेधा हाँसी दे० ( ज्री० ) हैँवी, हाल्य, ठठठा | दांड्टू ( भ्र्य* ) हा, दीछ, सच, सद्दी द्ाक्रिम ( ए० ) शासत करने वाला । हाद तद्‌ू० ( 9० ) दाज्ञार, पेंठ, दंद्ध। हाइक तच्‌ू० ( छ० ) खुबंण, सेना --पुर (8० ) लदूु। |--लोचस (घु० ) हिरण्थाघ, देत्, अद्वाद का था ) हाट्टू ( छ५ ) बाज़ार में घेचे या खरीदने घाढा। हाडू दे० ( ए० ) हड्डी, भस्थि । हाता दे० ( छु० ) प्रान्त, भाठ, ( जैसे बंबई दावा ) | हाथ दे० ( छु० ) हस्त, कर [ हाथा दे० (५०) हाप, अधिकार, पानी फेंके का यम्त्र! दाथी दे० ( घु० ) दस्ति, करी, सज्ञ। माय वात , ( पु० ) दाथी का दाँत | हाथीयान दे० ( 9० ) महावत, पीक्षवास | हाथीदान्त ( ४० ) देखे, इस्तिदुन्त | हानि तद्‌० ( स्ली० ) घाटा, दोठा; जुकसाव | द्वाय दे० ( श्र० ( ढुःख, छे श, हुःख का निः्वास, उेंडी सांस ।--प्रारना ( च|० ) हुःख दरना । हायन ठत्‌० ( घु० ) वर्ष, सम्बवूसर। हार तव्‌० ( पु० ) माला, सोती था फूलों को भाला ( दे० ( ज्ो० ) पराजय, थकावट | हारजीत ( घु० ) छआ। हारना दे० ( क्रि० 9 पराजीत होना, वचन दे देना। द्वारा ( छु० ) बाला ; जैले---लकड़द्ारा । हारीत ( घु० ) झुनि विशेष। हार्दिक ( छ० ) हृदय का। हाल ( 9० ) दृत्तान्द, समाचार। ( श्र० ) तुरन्त । हाव हाथ तत» ( घु० ) नप्नरा, चोंचला, भाव, हावमाद। हास ( 8० ) एँसी, प्रसच्षता, दिल्लगी। द्ास्य तत्‌० ( ु० ) हँसी, कौतुक, विनोद। दाद दे। ( अ० ) हाय हाय, दा। ( घु० ) सन्‍्धर्े विशेष) हाहाकार तत्‌ ( पु० ) शोक, न्रादि त्राहि, हाय हाय। हाद्वासाता ( क्रि० ) गिड़गिदादा। हिंडोला या हविंडोरा दे" ( पु० ) पक्षना, मृजा। दत्‌० ( पु० ) बचिक, च्याथ, मारने वाला । हिंसा तत्‌» ( सरती० ) मारण, वध, घात । र्दिप्ति तत्‌० ः धं घु० ) बधिक, दिंसक। दिंशु ठत्‌० ( पु० ) हींग, गन्ध दब्य। दि ( अ० ) निरचय, हृढ़ । | श्रद्कना। दिचकना दे० ( क्रि० ) आया पीड़ा करना, रुकना, दियकाना दे० ( क्रि० ) धक्का देना,(दिलाना । दिचिकयाना दे० ( क्रि० ) सन्देद्द में पढ़ना, सशयित होना। [ शब्द निऊुलता है। दिचकी दे० ( स्त्री० ) दिक्का, गये से जो हिचू दिचू दिल्लड़ा दे० ( पु० ) न$सक, छीव, नाम । दित तल» ( पु० ) उपकार, भलाई, ।--क्षारी (३०) उपझारी । द्रव सदू० ( दि: ) दिनेयो, नातेदार, सम्यन्धी,मित्र । ,दितयों तत्‌ ( वि० ) द्विवसारक, द्वित फरने बाल्ा। हिलद्दिनाना दे० ( क्रिर ) घोड़े का;शब्द। हिन्द ( धु० ) भारतवर्ष । हिन्दी दे ( स्तरो० ) हिन्द की मापा, राष्ट्रमापा। दिन्दु दे० ( बुर ) हिन्दुलाव के बासो, वैदिरऊ मत भा सानने वाला +--स्पान ( घु० ) भारतवर्ष । द्विम तद्‌» (धु०) पाला, तुपार, ओस (कर ( घु० ) चन्द्रमा, कपूर --कूंद ( छु० ) जाड़ा शिशिर तु । दिमायत दे० ( स्त्री ) पहपाठ, समर्थन। दिमाग्तो दे० ( बि० ) पदपाती । दिमाजय या द्विमाचल तद्‌० (पु० हिमगिरि,दिमादि। डिग्मत दे० ( स्प्री० ) साइस | दिया दे० ( घु> ) दृदय, कन्नेजा। हियाय दे० ( पु०) उत्माइ, साइस। दिरण ( छ० ) सोना, सुपर्ण, 7, यूपयड विशेष । ( ७२६ ) द्ति धट हिरणयकशिपु दत्‌० (घु०) दैत्यपति, प्द्माद का पिता। दिस्एयगर्भ ( घु० ) यद्या, शालियाम की सूति। हिरद्‌ तव॒० ( घु० ) हिया, हृदय । दिखन तद्‌० ( पु० ) सग दिराण। + दिरमिज्ञी ( स्री० ) एुक प्रभार का रग । हिला ( गु० ) पालव, ( क्रि० ) कोपा, ढोला, चशीमूत हुआ। दिलाना ( क्रि० ) पान, वशीभूत करना । हिलाघ दे० ( पु०) पैराव, तैराव । दिलामिला दे० ( गु० ) मित्रा हुआ, सम्बन्ध युक्त, परचा हुआ । दिलारा दे० ( घु० ) तरंग, जदर । हिश्सा दे* ( स्ली० ) मछली विशेष । हिसक्‌ दे० (एु०) देखादेजी, स्पदां, शिसे +--कुटिया दे० ( वि० ) मसर, द्वेप । दिस दे० ( ख्री० ) ईप्यो, डाद । अर दिखाव दे० ( घु० ) लेसा, गणिवशाख ।--फिताब ( ३० ) लेख धि हग दे० (पु०) गन द्रव्य, स्वनाम प्रसिद्ध गम्ध द्वन्य। दीसना दे० ( क्रि० ) द्दिवहिनाना, चाहना होक दे० ( ख्री० ) उरफाई, मतलाई, मचलाई। दीओे द० छदय को | हीन तत्‌० ( बि० ) न्‍्यून, अधम, छोटा +-जाति ९? ( ६० ) अधम जाति | [ पिठा का नाम । द्वीर सत्‌० ( घु० ) बन्न, दीरा, मणि विशेष, भोहप॑ के धीस दे० (पु«) एक रचेत रक्ष, पर्व, वत्र, मयि विशेष । मन ( घु० ) एक प्रकार का तोता ।--पलो ( ख्रौ० ) योगी को स्री हीला ( पु० ) बहाना, मिस । ड़ हुकुम दे० ( पु० ) झाज्ञा, अनुशासन ।--नामा दे० ( पु ) आाज्ञापत्र, अनुशासनपत्र | [ ध्वनि । हुल्लार तत॒० ( पु० ) गर्जन, दरावनी शब्द, भयद्वर इुड़का दे० € पु० ) धर्गल, कूरता « हुडद॒द्रा दें० ( घु० ) दकैत, गुण्टा, उपद्रदी | हु दें० ( वि० ) फ़ाकढ़ । हुणडी दें» € ख० ) रुपये की चिट्टी । हुण्डार दे० ( घु० ) भेड़िया, द्विसर अन्तु विशेष । हुति ठद॒* ( स्त्री० ) आइठि ( क्रि० ) थी । छुनर हुनर दे० ( धु० ) गुत, कारीसरी, कारुकार्य । हुरक्ि दे० ( क्रि० ) ठोकर, मारका ! हुलकारना दें० ( क्रि० ) दुत्कारता, खदेड़ना, भगाना। हुलना ( क्रि० ) भोंकवा, खुभाना । हुलसना दें० ( क्रि० ) आनन्दित होना, हित होचा। हुलास दें ( पु० ) आनन्द, हप, सुख, आहइलाद, सास, सूँघने की तसाकू । हुलड दे० ( घु० ) रोजा, कगड़ा, टणढा । हैँ डू सत्‌० ( छु० ) एक अकार की सहायता जो खेति +हर, आपस में एक दूसरे की करते हैं । - छड्ाहड़ो दें० ( ४० ) धींगाधींगी । हूँ एू सब॒० (प०) हूँण देश का वास, कठोर मनुष्य । * छूतना दें० ( क्रि० ) पेलना, धक्का देना, उकेलना । हूुद्दा दे० ( पु० ) मसच्ता का शब्द । हृदय तत्‌० ( घु० ) अन्तःकरण, मन, चित्त, छाती । हुए सत्‌० ( बि० ) आनन्दित, प्रसक्न, हित --पुछ ( शु० ) बलवान, बची । हैँ तत्‌० ( शअ० ) सम्बोधन ख़ूचफ । हेँगा दे” ( पु० ) एक प्रकार की मोदी लकड़ी, जिससे खेतबराबर किया जाता है | [आलसी, डरपोंकना । हेंठ दे० ( छु० ) नीचे, अधः, तले (बि०) हैति तद्‌० [ हा+-इति ] हाथ यह, हाथ इतना | हैती दे० ( वि० ) प्रेमी, हितु, हितकारी, सित्र । हेतु तव्‌० ( छु० ) कारण, निमित्त, निदान । ह्वेम तत्‌० ( एु० ) खुबणे, सोना, हिरण्य । हेसरत वत्‌" ( ७० ) ऋतु विशेष, जाड़े की ध्टतु । हेय तत॒० ( बि० ) द्ाज्य, छोड़ने येग्य । हेस्‍्ना दे» ( बि० ) हे दना, खाजना । छेसत्र॒ तत्‌० ( पु० ) गणेश, ग्रजानन, विनायक हेरफर दे” ( छु० ) परिवर्तन, उलटफेर | हेराफेरी दे० ( स्त्री० ) अदल बदल, परिवर्तन । देलना दें० ( क्रि० ) पार होना, सैरना । हेला दे० ( स्त्री० ) अबक्न, अनादर, वाद्य विशेष “मारना ( दा० ) छुकारना । हे (६ छउर्छ ) | ह्वाद्‌ हैजा दे० ( छु० ) कालरा, विश्वचिका का रोस । हैद्दय तव० (पु० ) क्षत्रिय विशेष ।--पति तसदू० ( छु० ) कार्चवीर्य । होंकला दें ( क्रि० ) हाँफना, ऊँची साँस लेना। होंठ दे० ( छु० ) ओष्ड, ओठ, झघर ! होड़ दे० ( पु० ) बाजी, शर्त, ठहराव, नियस, समय । +>लगाना ( वा० ) बाजी लगाना । होत दे० ( स्ती ) वश, शक्ति, सामथ्य । होता तत्‌० € पु० ) हवन कर्ता । दोनहार दे० ( वि० ) मवितच्यता, भविष्य, भावी होने वाला, तीदण बुद्धि । होना दे० ( क्रि० ) रहना, विद्यामान, वर्तमान ! होम तत्‌० (पु०) हवन,बेद भन्त्र पूर्वक अभि से आहुति देना |---कछुणड' ( पु० ) हवन करने का कुरड। होला दे ( पु०) एक प्रकार की नाव, भूंजा चना, बूंद । होली सत्‌० ( ख्री० ) पत्र विशेष, फागुन के सहीने में यह होता है। होदल्ला दें० ( पु० ) इछढ़। हों हो देण ( पु० ) कुत्ते की बोली । हौंस दे० ( स्री० ) इच्छा, चाह, अभिलापा | हौंसला दे० ( पु० ) साइस, इच्छा, उत्साह | होका दे० ( पु० ) लोभ, लालच, लिप्सा, अभिज्ञाप। होद्‌ दे० ( प० ) कुण्ड, चहना। होदा दे० (पु०) हाथी की पीठ पर कसने घाला होवा । होदी दे० ( स्ली० ) छोय कुण्ड, छोण चहवच्या। दहौत्वी दे० ( स्त्री* ) कलूवरिया, मदिरा की दूकान। होते दे० (अ०) घीरे धीरे, शनेः शनेः । दोवा दे० ( ( पु० ) बालकों को ढराने के लिये एफ कल्पित भूत । हुद्‌ सव॒० (पु०) घढा जलाशय, सील । हस्ब तत० ( पु० ) मात्रा विशेष, एक मात्रिक स्वर, लघु वर्ण । हाख सत्‌० ( पु० ) घढ, दोण, चुकलान। ह्वाद तच० ( ( पु० ) आनम्द, हर्ष, सुख। ॥ इति ॥ #प्रग(हते ७) #+अद्ाई जैफ। अपर वा साठ पिफ जो शिव, कीफ्किगरणवत, 20(0२8५७२७५३:ह-३:३०३००३९३२३०७०३०३:३७९७९३९७०३९३९७०३९७२७९७३५ ५ 2] 2३ 2३) सम & गोब्वासी तुलसीदास कृत पुस्तकें $ हु १--हुलसीदासकृत रामायण छोटा गुटफा १] है कक गे ' 9 भ् गुब्का * 3 5१) हा ५ ३-- + # सेकीकगुटका ४७ का ३॥ & है छऐ-.. $# # सचित्र बढ़े अक्षर में मूठ +» ३] हर कै "पा # ५ संचित्रऔरसद्ीकवदढ़ेजक्ामें .. ६। & ५ ६-- विनय पत्रिका सटीऊ और सचित्न « २) ७ 6, ७-. » ग़ीताबली सटीक * २) & ह। €--+ हि कवितावछी सटीक * न २) ७ है - . »% दोदावली सगीरू ४५ उम8 > ०6६ &(७- » बेराग्प-सदीपिनी न 2) ० है ९ # रामठछा-नहछ्‌ ः 9) है छ निम्न लिसिव परत सटीक छप रही हैं ढ़ है १--बरवे रामायण ३--जानकी-पंगछ 48 हु २--पाजेती-मंगल ४--र्मज़ा-मश्ष ५ है * ५--शीक्ृष्ण गीताबलछी $ छः का >विफ2 है: छपग्यी. ले हा & ९-श्रीमद्रगवद्गीता संस्कृत हिन्दी टीफ़ा सहित ( सचिन्न ) $। न * पे ६--भीमद्वगयद्भीता हिन्दी ठीझा सहित ( सुठका ) ॥ 9 है मिलने फा पता-- ई कु - शमनरायन साल - ढ्ै दु पब्लिशर और बुकसेलर, के हू इलाहाबाद $ कु ढ़ के ४ ः * ५८ ञ